मंगलवार, 30 सितंबर 2014

बुरी कूटनीति

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति ओबामा को गीता भेंट करके अपनी ख़ुद की धार्मिक निष्ठा और विश्वास का तो प्रदर्शन किया , लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति को यह भी बता दिया कि वे भारत की अब तक की घोषित धर्म-निरपेक्षता की नीति को नहीं मानते ।
वैसे तो, धर्म-निरपेक्षता का सारी दुनिया में सर्वमान्य अर्थ जीवन को धार्मिक विश्वासों और रूढ़ियों से पूरी तरह मुक्त रखना माना जाता है । राज्य की नीतियों के प्रसंग में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है - सरकार के किसी भी काम में किसी धार्मिक विचार या संस्थान की दख़लंदाज़ी न हो । राज्य चालित होगा राष्ट्र के संविधान और समानता, भाईचारा, जन-कल्याण और मानवाधिकार के मूल्यों के आधार पर, किसी भी प्रकार की रूढ़ियों और अंध-विश्वासों के आधार पर नहीं ।
भारत में, आधुनिक जनतंत्र के मूल्यों के प्रति प्रकट निष्ठा के बावजूद यहाँ के राजनेताओं ने व्यापक जनता के धर्मभीरू और धर्मप्राण चरित्र तथा समाज में नाना प्रकार के धर्मों और पंथों की जकड़बंदी को देखते हुए धर्म-निरपेक्षता को एक सुविधाजनक नया आयाम दिया - सर्वधर्म समभाव का आयाम । मान लिया गया कि सर्वधर्म समभाव स्वत: राज्य को किसी धर्म विशेष के प्रति झुकाव के दोष से मुक्त रखेगा और उसे जनतांत्रिक संविधान के आधार पर चालित करेगा ।
लेकिन हमारे प्रधानमंत्री तो धर्म-निरपेक्षता की इन दोनों कसौटियों पर खरे नहीं उतरे ।
जैसे सारी दुनिया में ईसाई धर्म के प्रचारकों को सर्वत्र बाइबिल बाँटते हुए पाया जाता हैं, लगभग उसी तर्ज़ पर प्रधानमंत्री ने हिंदू धर्म-ग्रंथ गीता भेंट करके अमेरिका में ख़ुद को एक हिंदू धर्म-प्रचारक के रूप में पेश किया। शिष्टतावश कोई कहे या न कहे, ओबामा को उनकी यह भेंट अमेरिकी प्रशासन और समाज में उनके कट्टर धार्मिक पूर्वाग्रहों के बारे में पहले से ही जिस प्रकार के संदेह छाये हुए हैं, उन संदेहों को और बल पहुँचायेगा । भारत-अमेरिका संबंधों में सुधार और विश्व में हमारे प्रधानमंत्री की स्वीकार्यता की दृष्टि से इसे हम बुरी कूटनीति कहेंगे ।

सोमवार, 29 सितंबर 2014

अंतिम विदाई

कल, 2 अक्तूबर हरीश भादानी की पुण्य तिथि है। इस अवसर पर उनका स्मरण करते हुए उनपर अपनी किताब से उनकी अंतिम यात्रा से जुड़े अध्याय को यहां मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। इसके अलावा उनके दो गीत और उनकी कुछ तस्वीरें भी।



गांधी जयंती, 2 अक्तूबर 2009 के दिन की ब्रह्म बेला, तड़के सुबह चार बजे। काफी दिनों से बीमार, खाद्य नली में कैंसर से पीडि़त हरीश भादानी ने बीकानेर में अपनी छोटी बेटी, सबसे लाडली बेटी1 के घर पर आखिरी सांस ली। 

‘सयुजा सखाया’ की अंतिम कविता की पंक्तियां है - 

ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा!2

इस फेरे को देखे ही हैं
क्या लेकर आता है कोई

आ मैं तू दोनों ही देखें
क्या लेजाए साथ बडेरा!

पर केवल सच इतना सा ही
सबका होना सबकी खातिर,

इस सच का सुख सिर्फ यही है
और न कोई डैर, बसेरा !

मृत्यु के लगभग पांच साल पहले ही 10 नवंबर 2004 के दिन उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के नाम एक पत्र लिखा था :

‘‘मैं हरीश भादानी पुत्र स्व. वासुदेव (सन्यासी नाम - बेबा महाराज) बिना किसी भावावेग और बाहर-भीतर के पूर्वाग्रह से स्वयं को परे रखते हुए यह पत्र लिख रहा हूं। पूर्णतया आश्वस्त भी हूँ कि इस पत्र में सन्दर्भित परिजन इन शब्दों में व्यक्त मेरी भावना को क्रियात्मक रूप देंगे। 

‘‘स्वयं को व्यक्त करने के प्रयत्नों में अक्षर खोजते और उनके अर्थ समझने की प्रक्रिया में ही मानस पिता डा. छगन मोहता ने जाने किस शब्द-साधक के ये शब्द कान में डाल दिए जो भीतर जाकर ऐसे घुले कि मूल रूप में तो बाहर आए ही नहीं – 
‘‘जिन्दगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब
  मौत क्या है इन्हीं अज़जां का परीशां होना’’
ये मेरे भीतर से आए भी मगर आंके-बांके से, मैंने इनसे स्वयं को बांध सा लिया –

 ‘‘जीना मर जीना इतना भर
  आंखें झप-खुल झप-खुल जाएं...’’

‘‘मैं अपने समय के 8वें दशक की दूसरी सीढ़ी पार करने को हूँ। पता नहीं किस अणु-वेध के अंश में ‘झप-खुल झप-खुल का खेला हो जाए, प्राण वायु मुझ सराय को महज डैर बना जाए। इस सोच के साथ हवेली से सुरंग, सुरंग रूपी घर से ‘मकान’ फिर ‘बहुत नीचा नगर’ तक पसरे ‘ओक’-हर यादों के पूरे अस्बाब-जहालत को खंगाल लिया। संदर्भित परिजनों को तो कुछ दे ही नहीं पाया, बस लिया ही लिया, सोचता हूँ, न सही कुछ एक चिठिया तो दे ही जाऊँ । 
‘‘जिन अपनों को यह चिठिया दे रहा हूँ, वे जानते हैं और मैं भी जानता हूँ ‘डैर’ देह को ‘कोलाहल के आंगन’ में कुछ देर ही रखा जाता है। 
ऐसी स्थिति में इस जड़ देह को -
 पुष्पा-जुगल खड़गावत...
 सरला-अरुण माहेश्वरी...
 कविता-अविनाश व्यास...
के सुपुर्द कर दी जाए। यह जानता हूं कि देह को जड़ होने से पहले जितना स्वस्थ रखा जाना चाहिए था, मैं नहीं रख पाया। फिर भी मेरी आन्तरिक इच्छा है कि इस जड़ देह को आयुर्विज्ञान महाविद्यालय, बीकानेर  को दे दी जाए ताकि प्रयोगधर्मी नई पीढ़ी के कुछ काम आ सके। 

संदर्भित नामों के ध्यान में रहे, इसलिए, प्रचलित रूढि़ की अभ्यस्तता के चलते सम्भव है, मेरी इच्छा-पूर्ति में बाधा आए। ऐसा ही एक व्यवधान बांग्ला भाषा के शीर्षस्थ शब्दकर्मी सुभाष मुखोपाध्याय की इच्छा के बीच आया था, वैसा सा इस देह के साथ न हो। अबोली यात्रा के रूप में ले जाएं इस देह को। 
‘‘संदर्भित परिजनों के नाम संकेत मात्र है। मैंने परिजन रूपी ऐश्वर्य खूब अर्जित किया - जयपुर-बम्बई-कलकत्ता-महू, राजस्थान भर। अर्जित को खर्च करने की नीयत तो दूर चुकारे का सपना तक नहीं लिया।
‘‘मेरा पूरा परिजन संसार मेंरे ऋण-भाव को स्वीकारे। इसी अर्जन के साथ मुझे विदा दें - सुख-दुख के साथी, साक्षी, शब्दकर्मी - मुझे सम्हाले रखनेवाले सब इन शब्दों के बीच मेरे सामने हैं। 
                                     ऋणी रूप
                                     हरीश भादानी

हरीश जी के इस पत्र में व्यक्त इच्छा की पूर्ति हुईं। उनके पार्थिव शरीर को  आयुर्विज्ञान महाविद्यालय को ही सौंपा गया। लेकिन उन्होंने जो संकेत दिया था कि ढेर होगयी देह को ‘कोलाहल के आंगन’ अधिक देर नहीं रखा जाता, वह काम मुमकिन नहीं था। उनके महाप्रयाण का समाचार प्रसारित होने के साथ ही पूरे शहर और राज्य के कोने-कोने से अपने प्रिय कवि को अंतिम श्रद्धा-सुमन देने के लिये उमड़ पड़े हजारों लोगों को निराश नहीं किया जा सकता था। पूरे प्रदेश से कई लेखक, कलाकार बीकानेर के लिये प्रस्थान कर चुके थे। शहर के मजदूरों और गांव से किसानों के जत्थे भी अपने संघर्षों के इस अविस्मरणीय साथी को विदा करने के लिये कतारबद्ध हो कर आ रहे थे। बीकानेर-शहरवासियों ने तो जैसे अपनी आत्मा की आवाज को खोया था। जयपुर से राज्य के मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और कई नेतागण भी कवि के अंतिम दर्शन के लिये आ रहे थे। इसीलिये, घर से आयुर्विज्ञान महाविद्यालय तक की उनकी अंतिम यात्रा को एक दिन के लिये तो टलना ही था। 

इसके अलावा जिस ‘अबोली यात्रा’ की उन्होंने कामना की थी, वह भी इसलिये पूरी नहीं हो पाई क्योंकि वे खुद ‘राम नाम सत है’ की पुकार का एक ऐसा विकल्प अपने प्रियजनों को थमा गये थे कि लोग उनकी अंतिम यात्रा के साथ उसका गान करने से खुद को रोक नहीं पायें - ‘रोटी नाम सत है’। 
3 अक्तूबर की सुबह दस बजे के करीब जब ‘रोटी नाम सत है’ गाते सैकड़ों लोगों के साथ छबीली घाटी से आयुर्विज्ञान महाविद्यालय की ओर उनकी अंतिम यात्रा का प्रस्थान हुआ, वहां से लगभग चार किलोमिटर की इस पूरी यात्रा में सड़क के दोनों ओर हरीश जी के श्रोताओं-प्रशंसकों की कतारें हाथों में फूल मालाएं लिए खड़ी थी। शहर भर के लोगों की आंसुओं में भीगी आंखों से हिंदी के एक कवि की ऐसी विदाई आज के युग में किसी परिकथा की कल्पना जैसी लगती है। उनकी इस अंतिम यात्रा के सारे संगी-साथियों के दृढ़ कदम मानो उन्हीं के बोल को दोहरा रहे हों - ‘‘अभी और चलना है... आखर के निनाद को, सात स्वरों सधना है!’’

हरीश भादानी का न रहना एक राष्ट्रीय समाचार था। टेलिविजन के चैनलों से देश भर में इस खबर के फैलने में निमिष भर का समय भी नहीं लगा।  राजस्थान के और शहर के स्थानीय चैनलों पर तो सारा दिन लोगों के आने-जाने के तांते की खबरें प्रसारित हो रही थी। और, दूसरे दिन के हिंदी और अंग्रेजी के तमाम अखबारों में उनका निधन एक बड़ी खबर थी। राजस्थान के हिंदी के अखबार तो दो दिनों तक पृष्ठ-दर-पृष्ठ तस्वीरों, श्रद्धांजलियों और उनके अमर गीतों से भरे हुए थे। 

तीन अक्तूबर के ‘राजस्थान पत्रिका’ की सुर्खी थी - ‘‘मौन हो गया महाकाव्य, टूट गए चेतना के तंतु’’। लगभग पूरे दो पृष्ठ श्रद्धांजलियों, हरीश भादानी के जीवन और कृतित्व के तथ्यों, उनकी कविताओं की पंक्तियों से भरे हुए थे। ‘दैनिक भास्कर’ में था - ‘‘किसी ने भाई खोया, कोई दोस्त की मौत पर रोया : मौत का तो अर्थ बस पल भर ठहरना है। ‘दैनिक युगपक्ष’ की सुर्खी थी - जनकवि का महाप्रयाण। ‘शब्द कैसे बोलेंगे अब ...मैंने नहीं कल ने बुलाया है; बीकानेर ने खोया एक कवि रत्न। 
दूसरे दिन, अंतिम यात्रा का विवरण देते हुए ‘राजस्थान पत्रिका’ ने लिखा - ‘साहित्य के बाद विज्ञान को समर्पित भादाणी’। ’दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘जनसमूह गा रहा था, सुन रहा था जनकवि। युगपक्ष - ‘नम आंखों से भादाणी जी को अंतिम विदाई। ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा - ‘‘यह अनूठी शवयात्रा थी जिसका मुकाम कोई श्मशान, कब्रिस्तान न होकर मेडिकल कॉलेज था। 

‘‘जनकवि हरीश भादनी की देहदान महाप्रयाण यात्रा जब शनिवार को मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी डिपार्टमेंट के गेट पर पहुंची तो कॉलेज के प्रिंसिपल से लेकर स्टूडेंट और कर्मचारी तक हाथों में फूल लिए इस महान कवि को पुष्पांजलि अर्पित करने को तैयार थे। हर किसी की जुबान पर थी जनकवि के गीतों की पंक्तियां और इस महादान के प्रति श्रद्धा से झुके थे सिर। कॉलेज प्राचार्य डा. आर. बी. पंवार, पीबीएम अस्पताल अघीक्षक डा. विनोद बिहाणी, पीएसएम विभागाध्यक्ष डा. बी. एल. व्यास, डा. आर. के. व्यास, डा. एस. पी. व्यास, डा.वीरबहादुर सिंह, डा. के. के. वर्मा और एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर डा. बी. एल. मेहता भी इस देहधारी के प्रति तब से आदरभाव लिए थे जब इन कंठों से जनजागरण में अलख जगाने वाले गीत गूंजते थे। हर कोई उनके साथ कभी न कभी हुए साक्षात्कार या सुनने-जानने के मिले अवसरों का जिक्र कर रहा था। ...एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर डा. बी. एल. मेहता का कहना है, सही अर्थ में यह महादान है। ...स्वेच्छा से देहदान करने वाले मानव जीवन की रक्षा के महायज्ञ में बड़ी आहुति दे रहे हैं।’’

कवि के महाप्रयाण की खबरों का यह सिलसिला 5 अक्तूबर को हुई श्रद्धांजलि सभा तक बराबर जारी रहा। बीकानेर शहर आज भी हरीश भादानी के जन्म (11 जून) और मृत्यु दिवस (2 अक्तूबर) पर उन्हें श्रद्धा के साथ स्मरण करता है।  
 संदर्भ :    

1.कविता व्यास ने अपने लेख - ‘पापाजी किसी एक की धरोहर नहीं थे’ में लिखा है - ‘‘एक शहर, शहर में घाटी, घाटी के पापाजी, बचपन से दोस्त होने तक के पापाजी, सबके प्यारे दुलारे पापाजी सबके होने का दावा करते पापाजी। मैंने कभी ईष्र्या जलन नहीं की।... जीजियां कहती ये सबसे लाडली बेटी है, ...सरल काकाजी कहते भादाणी जी की सिरचढ़ी चकचढ़ी बेटी कवितड़ी है। 
2.लुबडुब, अर्थात हृदय की धड़कन। ‘सयुजा सखाया’, पूर्वोक्त, ‘आज’ खंड पृ : 18-19




अज्ञेय जी के साथ




डा. राममनोहर लोहिया और डा. छगन मोहता के साथ



बेटी सरला माहेश्वरी के साथ


मंगलवार, 23 सितंबर 2014

पाब्लो नेरूदा : अतियथार्थवाद और जादूई यथार्थवाद की बहस

अरुण माहेश्वरी


साहित्य के आलोचक अक्सर ‘पृथ्वी पर आवास’ की कविताआें पर अतियथार्थवाद (surrealism) के प्रभाव की बात करते हैं। इसके बारे में जेनिफर कुरिन ने अपने एक बहुत ही बेहतरीन लेख ‘जादूई यथार्थवादी आवास : पाब्लो नेरूदा का पृथ्वी पर आवास’ में बताया है कि गहराई से देखने पर पता चलता है कि ये कविताएं अतियथार्थवाद की श्रेणी के बजाय जादूई यथार्थवाद की श्रेणी में आती है। इस सिलसिले में उन्होंने प्रसिद्ध आलोचक मैनुअल दुरान और मार्जेरी साफिर का जिक्र किया है, जो यह मानते थेे कि नेरूदा पर अतियथार्थवादियों का असर था। उनका कहना था कि नेरूदा ने अतियथार्थवाद का विरोध सिर्फ राजनीतिक कारणों से किया था, क्योंकि यह सोच नेरूदा के कम्युनिस्ट और समाजवादी विश्वासों से टकराता था।
कुरिन ने इसका विस्तार से जवाब देते हुए बताया है कि जहां तक प्रभाव का सवाल है, नेरूदा सीधे तौर पर इसे न स्वीकारते हैं और न अस्वीकारते हैं। वे अमूर्त ढंग से कहते हैं कि शब्दों की वायु पराग समान हल्की और शीशे की तरह भारी कविता के अणुओें का वहन करती है और बीज की तरह खेतों की क्यारियों में अथवा लोगों के मस्तिष्क में छिड़क देती हैं, जो बसंत की हवा अथवा युद्ध, सबसे सींचित होकर फूलों और उसके साथ ही मिसाइलों का सृजन करते हैं। नेरुदा अतियथार्थवाद के प्रभाव को नहीं स्वीकारते, लेकिन भाषा की शक्ति को जरूर स्वीकारतेे हैं। इसके लिये वे सभी कवियों से इस शक्ति को साधने की मांग करते हैं। उनके शब्दों में सावधान, एक ही अणु जो महान सुन्दरता(फूलों) की रचना करता है, वही हिंसा (मिसाइलों) का भी सृजन करता है।

दरअसल इस पूरी बहस का एक गहरा संबंध तब स्पैनिश साहित्य में कवियों की दो पीढि़यों के बीच नये साहित्य के बारे में चल रही बहस से गहराई से जुड़ा हुआ है। पूरब के देशों में पांच वर्ष गुजारने के बाद पाब्लो नेरुदा स्पेन आये थे जहां उनका स्पेन की नयी पीढ़ी के कवियों से संपर्क हुआ। इन नये लेखकों में रफायल आल्बेर्ती और फेद्रिको गार्सिया लोर्का की तरह के विश्वविख्यात रचनाकार भी शामिल थे। नयी पीढ़ी के ये रचनाकार उस समय की पुरानी पीढ़ी के स्थापित कवियों के साथ एक प्रकार के अघोषित, लेकिन तीखे संघर्ष में लगे हुए थे। पुरानी पीढ़ी के कवि ‘शुद्ध कविता’ के हिमायती थे। उनमें जुआन रैमोन जिमिनेज की तरह के पुराने कवि नेरूदा और उनके मित्रों की रचनाओं में दिखाई देने वाले प्रयोगवाद को अविश्वास की नजर से देखा करते थे। जिमिनेज ने तो नेरूदा को ‘एक महान बुरा कवि’ कहा था। जिमिनेज के पुराने ढर्रे के सौन्दर्यवाद का जवाब देते हुए 1935 में नेरूदा ने एक सैद्धांतिक लेख लिखा था ‘अशुद्ध कविता की ओर’ (Towards An Impure Poetry )।
नेरूदा के इस लेख की तुलना बहुताें ने उस वक्त के अतियथार्थवादी आंद्रे ब्रेतां के ‘अतियथार्थवाद के घोषणापत्र’( Manifesto Of Surrealism ) से की थी।  इस घोषणापत्र को जिस प्रकार ब्रेतां आदि की कविताआें के शास्त्र के तौर पर लिया गया था, उसी प्रकार पाब्लो के लेख को भी उनके संकलन ‘पृथ्वी पर आवास’ के काव्यशास्त्र के तौर पर समझा गया क्योंकि इसके पहले पाब्लो के महत्वपूर्ण कृतित्व के तौर पर ‘प्रेम की बीस कविताओं से बिल्कुल भिन्न स्वरों वाली कविताओं का यही संकलन प्रकाशित हुआ था। ब्रेतन और पाब्लों के ये दोनों लेख वास्तव में उस वक्त के प्रतिभाशाली नौजवान लेखकों द्वारा अपने समय मेें कविता के रास्ते की बाधाओं के बारे में लिखे गये थे। ब्रेतन ने अपने तब के समकालीनों पर मौलिकता के अभाव का आरोप लगाते हुए लिखा था, उनका खोखलापन अतुलनीय है। उनकी कविताएं पुराने पड़े कैटलॉग से ली गयी कई सूपरइम्पोज्ड छवियों के अलावा और कुछ नहीं है। नेरूदा ने भी अपने लेख में समकालीन कविता की विषय-वस्तु के बारे में चिंता जाहिर की थी। अपने साथी कवियों की उन्होंने इस बात के लिये आलोचना की थी कि वे यह मानते हैं कि कविता में आम चीजों और स्थानों के लिये कोई जगह नहीं होती।  नेरूदा की उनके बारे में यह तीखी टिप्पणी थी कि जो चीजों के ‘बुरे स्वाद’ से नाक- भौं सिकोड़ते हैं, वे बर्फ पर चित्त गिर जायेंगे।

जेनिफर कुरिन ने बताया है कि ब्रेतां और नेरूदा, दोनों का ही कविता के बारे में जनतांत्रिक और समावेशकारी नजरिया होने के बावजूद उन दोनों के घोषणापत्र के पीछे की विचारधारा में मूलभूत फर्क था। ब्रेतां का घोषणापत्र कला का सृजन करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा के गीत गाता था। उसका मानना था कि कोई भी व्यक्ति कलाकार बन सकता है यदि वह अपनी कल्पनाशीलता पर लगी अर्गलाओं को खोल देता है। वे कविता में कल्पना के बल पर उत्कर्ष की बात करते थे, जबकि इसके विपरीत नेरूदा हमेशा ‘धरती की ओर वापसी’ की कामना करते थे। अपने लेख ‘एक अशुद्ध कविता की ओर’ में उन्होंने उन ठोस वस्तुओं के प्रति आस्था व्यक्त की थी जो कलाकार को प्रेरित करती है। उनके अनुसार, खुद चीजें, न कि वे लोग जो उन्हें व्यक्त करते हैं, प्रशंसा के पात्र होती हैं। ब्रेतां के घोषणापत्र में तीव्र आवेग के साथ लंबी-चौड़ी आदर्शवादी बातें कही गयी थी, जबकि नेरूदा का लेख काफी विनम्र और दोस्ताना किस्म का था। इस लेख का शीर्षक ही किसी घोषणापत्र की प्रचण्ड उद्घोषणा के बजाय विचार के लिये आमंत्रित करता हुआ प्रतीत होता था। बे्रतन का घोषणापत्र 44 पन्नों का था जबकि नेरुदा का घोषणापत्र मात्र डेढ़ पन्नों का और इसकी भाषा भी काफी काव्यात्मक और मिी से जुड़ी हुई थी।

नेरूदा द्वारा अपनी बात को रखने का ढंग देखिये : यह अच्छा होता है यदि दिन और रात के कुछ घंटे पड़ी हुई चीजों की दुनिया को बहुत नजदीक से देखने के लिये दिये जाए। वे चक्के जो खनिजों और सब्जियों के बोझ के साथ, कोयले के बोरों, पीपों और झूडियों के साथ, बढ़ई के औजारों की बक्सा के लिये हैंडल और हत्थों के साथ कितनी धूल भरी दूरियों को तय कर आये हैं। उन्हीं से प्रवाहित होता है आदमी के साथ धरती का संपर्क, जैसे सभी व्याकुल गीतकारों के गीत। चीजों की इस्तेमाल कर ली गयी सतह, चीजों को हाथ की दी हुई छीजन, हवा, कभी दुखांत तो कभी कारुणिक, ऐसी सभी चीजों की - ये सभी दुनिया की सचाई के बारे में अनोखा आकर्षण पैदा करती है जिसके मूल्य को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।

नेरूदा बाह्य दुनिया की, और उसकी पदार्थ‍र्ता की प्रशंसा करते हैं न कि कवि के मानस की आंतरिक क्रियाओं की। वे कहते हैं कि यह भौतिक जगत हमारी कविता का विषय होना चाहिये। किसी भी व्याकुल गीतकार के लिये चीजें खुद ही उनका पाठ होती है।

कुरिन ने लिखा है कि नेरूदा के इस लेख को देखने के बाद कोई भी ‘पृथ्वी पर आवास’ की उनकी कविताओं को अतियथार्थवाद की श्रेणी में नहीं रखेगा। उसके कई बिंबों को अतियथार्थवादी माना जा सकता है, लेकिन उस पाठ के पीछे के दृष्टिकोण को नहीं। नेरूदा जीवन में अतार्किकता का जवाब कला में अतार्किकता से देने तक सीमित नहीं थे। उन्होंने बाहर की दुनिया से एक संपर्क साधना चाहा था। वे दुनिया पर अपने शब्दों से पड़ने वाले प्रभाव के बारे में अपनी जिम्मेदारी महसूस करते थे। नेरूदा अक्सर लोगों को वह कहानी सुनाया करते थे कि किस प्रकार इस संकलन की कविताओं को पढ़ कर एक नौजवान ने आत्म-हत्या कर ली थी, जिसका कि हम पहले जिक्र कर आये हैं। आत्म हत्या की इस घटना के बाद ही नेरूदा ने ‘पृथ्वी पर आवास’ की अपनी कविताओं की उसके अंधेरेपन और उसकी दुख और विषाद से भरी विषय-वस्तु के लिये सार्वजनिक तौर पर भत्‍​र्सना की थी।

नेरूदा ने ‘पृथ्वी पर आवास’ की अधिकांश कविताएं 1927 से 1933 के दौरान एशियाई देशों की यात्रा के समय लिखी थी। इनके बारे में उन्होंने लिखा था कि मुझे यकीन नहीं होता कि तब की मेरी कविताओं में एक हिंसक और भिन्न दुनिया में रोप दिये गये किसी बाहरी व्यक्ति के अकेलेपन के अलावा शायद ही कोई दूसरी चीज जाहिर हुई हो। कुरिन ने इस संदर्भ को उठाते हुए एक अमेरिकी कवि डेविड यंग की बात का जिक्र किया है कि  युद्ध के, महाविनाश के, पुलिस उत्पीड़न के संसार में भाषा का क्या मूल्य है? साहित्य का क्या अर्थ रह जाता है? कैसे कला जीवन पर, उसके विस्तार पर तो दूर की बात, लागू हो सकती है? इन कठिन सवालों का जवाब ढूंढते हुए एक ऐसे साहित्य की रचना हुई है जो अक्सर बाहर की ओर दिशान्वित होता है, जिसमें चीजों के प्रति लगाव होता है। यंग ने यह बात पूर्वी युरोप के कवियों के बारे में कही थी। कुरिन ने लिखा है कि यह बात लातिन अमेरिका के लेखकों पर भी लागू होती है, जहां हमेशा इसी प्रकार की राजनीतिक उथल-पुथल मची रही हैं। जीवन के इसी यथार्थ से बहुत से जादूई यथार्थवादी पाठों की व्याख्या की जा सकती है। जादूई यथार्थवादी पाठों में जड़ चीजों में, प्रकृति की तरह, अक्सर मानवीय गुण दिखाई देते हैं। समय समान गति से नहीं गुजरता। मुर्दे‍र् फिर से जी उठते हैं। ‘स्व’ कभी भी ‘अन्य’ मंें बदल सकता है। मनुष्य उड़ रहे होते हैं अथवा अन्य जानवरों की तरह का व्यवहार करते हैं। धार्मिक चरित्र अधार्मिक संदर्भों में आते हैंं। जादूई यथार्थवाद यदि दुनिया को सर के बल खड़ा करना नहीं तो और क्या है? यदि यह संभव है कि मासूम लोगों को यंत्रणा दी जा सकती है और उनकी हत्या की जा सकती है, तब यह क्यों संभव नहीं हो सकता कि लोग उड़ सकते हैं?

पूरब में पाब्लो का अंतिम पड़ाव जावा में रहा। जावा मेंं पाब्लो अपने को बहुत ज्यादा एकाकी महसूस करने लगे थे। वहीं उन्होंने शादी करने का निर्णय लिया। उनकी मुलाकात एक डच लड़की से हुई जिसका नाम था मारिया अंतानिएता हेगनार। नेरूदा ने उसी से शादी की। हेगनार स्पैनिश का एक शब्द नहीं जानती थी, लेकिन उसने बहुत जल्द ही कामचलाऊ स्पैनिश सीख ली।

जावा में पाब्लो कई लोगों के संपर्क में आये थे जिनमें एक जर्मन कौंसुल हत्‍​र्ज भी थे। वे सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत लिये हुए एक यहूदी व्यक्ति थे। पाब्लो ने उनसे एक बार पूछा था कि अखबारों में अक्सर जिस हिटलर नामके शख्स का उल्लेख आता है जो एक यहूदी-विरोधी और कम्युनिस्ट-विरोधी नेता है, क्या वह सत्ता पर आ सकता है? इस सवाल के जवाब में हत्‍​र्ज ने उनसे कहा था कि यह असंभव है। नेरूदा ने उनसे कहा कि क्यों असंभव है, इतिहास तो ऐसी बेहूदगियों से भरा हुआ है। इसपर हत्‍​र्ज का जवाब था,आप जर्मनी को नहीं जानते हैं। वह एक ऐसी जगह है जहां हिटलर की तरह के उन्मादी आंदोलनकारी को एक गांव को चलाने के लिये भी नहीं सौंपा जा सकता है।

हत्‍​र्ज के साथ हुई इस बात का उल्लेख करने के बाद ही पाब्लो ने यह टिप्पणी की कि मेरा बेचारा दोस्त, बेचारा कौंसुल हत्‍​र्ज! रत्ती भर के लिये वह उन्मादी सारी दुनिया पर शासन करने से चूक गया। और वह सीधा-सादा हत्‍​र्ज, अपनी समूची संस्कृति और उदार रूमानियत के बावजूद निश्चित तौर पर किसी पैशाचिक, गुमनाम गैस चैंबर में खत्म हुआ होगा।

पाब्लो 1932 में चीले लौट आये।


पाब्लो नेरुदा से जुड़ी कुछ और तस्वीरें :