गुरुवार, 31 जुलाई 2014

नवारुण भट्टाचार्य




बांग्ला कवि नवारुण भट्टाचार्य नहीं रहे। मात्र 66 साल की उम्र में आमाशय के कैंसर से उनकी मृत्यु होगयी। उनकी मां महाश्वेता देवी जितना न भी हो, लेकिन फिर भी हिन्दी के साहित्यिक पाठकों के लिये यह कोई अपरिचित नाम नहीं रहा है। उनकी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद हो चुका है और प्रशंसित भी हुई है। 
बांग्ला में रवीन्द्रनाथ परवर्ती जीवनानंद दास, सुकान्त भट्टाचार्य, सुभाष मुखोपाध्याय और शंखो घोष के बाद की शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय से लेकर जय गोस्वामी आदि की पीढ़ी को लांघ कर फिर एक बार सुकांत के साथ अपनी कविता और लेखनी के तारों को जोड़ने की उत्कट कोशिश का नाम है - नवारुण भट्टाचार्य।  कविता का अपना एक अलग ही व्याकरण रचने वाले, कुछ लोगों की नजर में अपने ढंग के अराजकतावादी कवि। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ अनायास ही किसी को भी सुकांत की कविताओं की याद दिला देती है। 
अन्य अनेक चीजों की तरह ही नवारुण की कविताओं और गद्य को हमने कायदे से नहीं पढ़ा है। लेकिन उनके एक उपन्यास ‘कांगाल माल्साट’ पर सुमन मुखोपाध्याय की फिल्म देखी थी और उसकी एक समीक्षा भी लिखी थी। 
नवारुण भट्टाचार्य की यह असमय मृत्यु बांग्ला साहित्य के लिये एक बडी क्षति है। उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उनकी मां, पत्नी, बेटे और सभी परिजनों के प्रति अपनी संवेदना प्रेषित करते हैं। 
यहां हम मित्रों के लिये उनकी कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ और उनके उपन्यास पर बनी फिल्म की अपनी समीक्षा दे रहे हैं : 

नवारुण भट्टाचार्य
‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’

जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख़्त करने से डरे
मुझे घृणा है उससे
जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है
मुझे घृणा है उससे
जो शिक्षक बुद्धिजीवी, कवि, किरानी
दिन-दहाड़े हुई इस हत्या का 
प्रतिशोध नहीं चाहता
मुझे घृणा है उससे

चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव1
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
मैं चीख़ उठता हूँ
वे मुझे बुलाती हैं समय- असमय ,बाग में
मैं पागल हो जाऊँगा
आत्म-हत्या कर लूँगा
जो मन में आए करूँगा

यही समय है कविता लिखने का
इश्तिहार पर,दीवार पर स्टेंसिल पर
अपने ख़ून से, आँसुओं से हड्डियों से कोलाज शैली में
अभी लिखी जा सकती है कविता
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षत मुँह से
आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आँखें गड़ाए
अभी फेंकी जा सकती है कविता
38 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास
उन सबको दरकिनार कर
अभी पढ़ी जा सकती है कविता

लॉक-अप के पथरीले हिमकक्ष में
चीर-फाड़ के लिए जलाए हुए पेट्रोमैक्स की रोशनी को कँपाते हुए
हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो
बांग्लादेश के कवि भी तैयार रहें लोर्का की तरह
दम घोंट कर हत्या हो लाश गुम जाये
स्टेनगन की गोलियों से बदन छिल जाये-तैयार रहें
तब भी कविता के गाँवों से 
कविता के शहर को घेरना बहुत ज़रूरी है


यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश

मैं छीन लाऊँगा अपने देश को
सीने मेछिपा लूँगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खीती
अनगिनत हृदय,हरियाली,रूपकथा,फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूँगा
डोलती हुई हवा,धूप के नीचे चमकती मछली की आँख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूँ कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाउँगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।

हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
नहीं मानती
नग्न देह पर इलेक्ट्रिक शाक कुत्सित विकृत यौन अत्याचार
नहीं मानती
पीट-पीट हत्या कनपटी से रिवाल्वर सटाकर गोली मारना 
नहीं मानती
कविता नहीं मानती किसी बाधा को
कविता सशस्त्र है कविता स्वाधीन है कविता निर्भीक है
ग़ौर से देखो: मायकोव्स्की,हिकमत,नेरुदा,अरागाँ, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार


गरज उठें दल मादल
प्रवाल द्वीपों जैसे आदिवासी गाँव
रक्त से लाल नीले खेत
शंखचूड़ के विष -फ़ेन सेआहत तितास
विषाक्त मरनासन्न प्यास से भरा कुचिला
टंकार में अंधा सूर्य उठे हुए गांडीव की प्रत्यंचा
तीक्षण तीर, हिंसक नोक
भाला,तोमर,टाँगी और कुठार
चमकते बल्लम, चरागाह दख़ल करते तीरों की बौछार
मादल की हर ताल पर लाल आँखों के ट्राइबल -टोटम
बंदूक दो खुखरी दो और ढेर सारा साहस
इतना सहस कि फिर कभी डर न लगे
कितने ही हों क्रेन, दाँतों वाले बुल्डोज़र,फौजी कन्वाय का जुलूस
डायनमो चालित टरबाइन, खराद और इंजन
ध्वस्त कोयले के मीथेन अंधकार में सख़्त हीरे की तरह चमकती आँखें
अद्भुत इस्पात की हथौड़ी
बंदरगाहों जूटमिलों की भठ्ठियों जैसे आकाश में उठे सैंकड़ों हाथ
नहीं - कोई डर नहीं
डर का फक पड़ा चेहरा कैसा अजनबी लगता है
जब जानता हूँ मृत्यु कुछ नहीं है प्यार के अलावा
हत्या होने पर मैं
बंगाल की सारी मिट्टी के दीयों में लौ बन कर फैल जाऊँगा
साल-दर-साल मिट्टी में हरा विश्वास बनकर लौटूँगा
मेरा विनाश नहीं
सुख में रहूँगा दुख में रहूँगा, जन्म पर सत्कार पर
जितने दिन बंगाल रहेगा मनुष्य भी रहेगा


जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती है
वह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओ
रोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकर
शृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना हो
रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुंदरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों?
     संशय कैसा?
     त्रास क्यों?

आठ जन स्पर्श कर रहे हैं
ग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं
                  कब कहाँ कैसा पहरा
उनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्र
एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकार
कविता की ज्वलंत मशाल
कविता का मोलोतोव कॉक्टेल
कविता की टॉलविन अग्नि-शिखा
आहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में.

1. पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही.


अरुण माहेश्वरी
पहली नजर में ‘कांगाल माल्सट’ 
अभी-अभी, चर्चित युवा बांग्ला फिल्म निदेशक सुमन मुखोपाध्याय, बांग्ला नाटकों की दुनिया के लगभग कींवदंती बन चुके निदेशक अरुण मुखोपाध्याय के बेटे की फिल्म ‘कांगाल माल्सट’ देख कर आया हूं। सोचा क्यों न तत्काल इसपर एक नोट लिख लिया जाए। 
‘कांगाल माल्सट’ अर्थात भिखारियों का युद्ध (विद्रोह)। महाश्वेता देवी के स्वनामधन्य कवि पुत्र नवारुण भट्टाचार्य के इसी शीर्षक के उपन्यास पर आधरित फिल्म। 
नवारुण का उपन्यास मैंने नहीं पढ़ा है। जरूरत भी नहीं है क्योंकि फिल्म पर स्वतंत्र रूप में ही विचार करना उचित है। उपन्यास में संभव है किसी प्रकार का कोई बाकायदा नैरेटिव हो। संभव है, नहीं भी हो, क्योंकि नवारुण मूलत: कवि है। लेकिन,  फिल्म का जरूर अपना कोई नैरेटिव नहीं है। किसी सपने में आने वाली असंबद्ध छवियों के कोलाज की तरह है। फिर भी एक कालखंड है, उसकी कुछ तस्वीरें भी हैं, और आदमी के जीवन के सनातन दुखों के साथ ही युग-युग के विवर्तनों का एक झीना सा, कुहरिल मंतव्य भी है; लेकिन कुल मिला कर, किसी कैलाइडोस्कोप के कांचों में क्षण-क्षण बदलते धूसर रंगी रूपाकारों का एक गुच्छा। 
कथा न होने पर भी फिल्म में एक सूत्रधार है - रामभक्त काक भुसंडी की तरह; हर काल में लोगों को राम-भक्ति के लिये प्रेरित करने वाला काक भुसंडी। इस काक का नाम है - दंडबयोष - परिवर्तन का दूत। फिल्म की पृष्ठभूमि में जिस काल-खंड का कोहरा है, वह है वाम मोर्चा सरकार के चौतीस सालों का कालखंड - और अगर कहीं किसी कहानी का पुट है तो वह है आज के नव-उदार जनतंत्र के दौर में एक ‘स्तालिनवादी’ पार्टी का कैरिकेचर -- और है - कंगालियों-भिखारियों, बल्कि राजनीतिक शब्दावली में कहे तो लुंपेन प्रोलेटारियत का एक अपना चरम अभाव, अपराध और अंध-विश्वासों के अंधेरे में डूबा हुआ ठर्रा, औरत, भुतहा घरों-गलियों और गालियों का एक जुगुप्सा पैदा करने वाला बुभुक्षु संसार। बंगाली जीवन के एक हलके में सदियों से तंत्र-मंत्र, शव-साधनाओं और कपालकुंडला की जिन छवियों का राज रहा है, भूत-प्रेत और किसी पर भी मृतात्माओं को उतारने की तरह के प्लांचेंट की तरह के खेलों का जो समग्र अंधकार है, वह इसी लुंपेन समाज में सबसे गहरे और गाढ़े रंगों में जम कर बैठा हुआ है। इनमें कवि नाम का एक तत्व भी मौजूद है। 
तीस सालों के वामपंथी शासन ने सिर्फ इतना किया कि इन कंगालों को, लुंपेन तत्वों को भी दो भागों में बांट दिया जिन्हें फिल्म में ‘फतुर’ और ‘शाक्तार’ कहा गया है। फतुरों के पास उड़ जाने, अर्थात कभी भी आंखों से ओझल होकर, पर्दे के पीछे से काम करने की चतुराई है। लेकिन शाक्तारों ने शव-साधना की दूसरी सभी तंत्र-विद्याओं में महारथ हासिल कर रखा है। 
जिस समय वामपंथी सत्ता ‘कामरेड पूंजीपतियों’ से मिले विकास के मंत्रों पर लेनिन, स्तालिन, ट्राटस्की और बुखारिन के अबूझ से हवालों के साथ मगज-पच्ची में फंसी हुई थी, संकीर्णतावाद और व्यवहारिक जरूरतों के बारे में बेसिर-पैर की बातों में मुब्तिला थी, उसी समय शाक्तारों ने अपनी तंत्र-साधना से फतुरों को कब्जे में कर लिया। सूत्रधार बना काक दंडबयोस। कंगालों के दोनों दल, फतुरी और शाक्तारों ने मिल कर राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। पहले से ही बुरी तरह उलझनों में फंसा प्रशासन दिशाहारा होगया। और परिणाम - तीस सालों के वामपंथी शासन का सिराजा बिखर गया। 
फिल्म के अंत में शाक्तारों का सरदार मारसल भोदी रवीन्द्र संगीत के स्निग्ध वातावरण में मौज-मस्ती कर रहा है। शाक्तारों की दुनिया का कवि पुरंदर भट्टाचार्य भी अब समाज का एक सम्मानित प्राणी है। 
फिल्म को देख कर पहली नजर में जितना समझ पाया और इसकी गुत्थी को जितना खोल पाया, उसे फेसबुक के अपने मित्रों से बांट रहा हूं। वर्ना यह भी शायद सच है कि यह फिल्म बेहद जटिल और गुंफित बिंबों की एक ऐसी कविता है, जिसमें प्रवेश करके उससे रस लेने का अधिकार आसानी से नहीं मिल सकता। आम लोगों के लिये इसमें घुसने के रास्ते बहुत संकरे और गुप्त है। फिर भी कुछ दृश्यों की छवियां ऐसी है, जिन्हें कोई आसानी से भुला नहीं सकता। 
यह पूरी तरह से एक निदेशक की सर्जना है। सुना है कि इसे प्रकाश में लाने के लिये निदेशक को सेंसर बोर्ड की पहाड़ समान बाधा से जूझना पड़ा था। वह एक अलग कहानी है जिसके कारणों को समझना हमारे वश में नहीं है!      








सोमवार, 28 जुलाई 2014

केदार नाथ सिंह के बहाने : सम्मोहन के मायावी खेलों पर पैनी नजर रखने की जरूरत है

अरुण माहेश्वरी


केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई। इसके चार दिन बाद ही फेसबुक पर हमने एक टिप्पणी लगाई थी - ‘केदारनाथ सिंह पर क्षण भर’। उनकी रचनाओं से अब तक जो प्रभाव लेता रहा, उसीके आधार पर वह एक बेबाक टिप्पणी थी। स्वाभाविक तौर पर फेसबुक पर ही उसकी अच्छी खासी प्रतिक्रिया हुई। फिर भी कुछ मित्रों ने दबे स्वरों में ही यह आग्रह भी किया कि हमें केदार जी को एक बार फिर से पढ़ना चाहिए।

हांलाकि हमारी टिप्पणी पर किसी भी कोने से कोई उग्र प्रतिवाद भरी टिप्पणी नहीं आई थी। लेकिन, उसके समर्थन में भी किसी ने कोई गंभीर बात नहीं जोड़ी। लोगों ने पढ़ कर पसंद किया, लेकिन उससे आगे बढ़ कर ज्यादा विस्तार से कुछ कहने की किसी ने जोहमत नहीं उठाई।

हम जानते हैं कि हिन्दी के एक कवि को ज्ञानपीठ मिलने के उत्सव के मौके पर हमारी टिप्पणी कुछ ज्यादा तीखी, और बाज हलकों से उकसावे से भरी भी कही जा सकती थी। वह कुछ इसप्रकार थी -

‘‘आज केदारनाथ सिंह के बारे में सोच रहा था। चंद रोज पहले ही उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा की गयी है। हो सकता है कुछ के लिये यह केदार जी को मिले अब तक के अनेक पुरस्कारों की सूची में यह एक और पुरस्कार का योग भर हो। लेकिन ज्ञानपीठ की मर्यादा तो आज भारतीय ‘नोबेल’ जैसी है। इसलिये इसका मिलना खुद में कोई साधारण बात नहीं कही जायेगी। यह अकेला तथ्य ही उन्हें वर्तमान हिन्दी कविता के शीर्ष पर स्थापित करने और हिन्दी भाषी समाज को एक नया रतन प्राप्त होने के सुख से आप्लूत करने के लिये काफी होना चाहिए।

‘‘लेकिन हमें यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा है कि केदार जी हिन्दी के कवि क्यों और कैसे हैं? क्या सिर्फ इसलिये कि उन्होंने अपने लेखन के लिये हिन्दी भाषा का प्रयोग किया है? अपने हर बिम्ब में किसी अजनबी, भूगोल-इतिहास से परे, अश्वहीन, चुपचाप, दुबके हुए एकाकी आदमी की कविता; पूरी तरह से असम्पृक्त, विच्छिन्न, मौन, आत्म-केन्द्रित, अनाम शहर की अनाम गली के कूएं में रहती चुप्पी में फंसा या अनाम गांव की अनाम नदी के किनारे एकटक बैठा ‘झुम्मन मियां’। बनारस में भी ऐसा कि एक टांग पर खड़ा दूसरी टांग से बेखबर - जिसने गंगा को देखा है, जीया नहीं है।’’

इसके साथ ही हमने यह जोड़ा कि ‘‘रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात मुखोपाध्याय ने अपने पचीस साल खपा कर उनकी एक-एक रचना को उनके जीवनानुभवों से जोड़ कर दिखाया। उस जीवनी को रवीन्द्रनाथ के साथ ही उनके समय का एक पूरा इतिहास भी कहा जा सकता है। वह अपने देश-काल में पूरी तरह से रचे-बसे कवि की जीवनी थी। लेकिन केदार जी तो देश-काल की हर ठोस स्थानिकता से मुक्त है। देश और समाज का इतिहास तो दूर की बात, उनकी रचनाओं से तो शायद यह भी पता लगाना मुश्किल होगा कि वे किस देश के वासी है। इस अर्थ में सचमुच केदार जी आज के ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि हैं। हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार के प्राणी।

‘‘हिन्दी के कवि केदार जी सचमुच रामविलास शर्मा की हिन्दी जातीयता की काट का एक साक्षात उदाहरण है। जातीयता इतिहास-भूगोल से जुड़ा सच होता है, और केदारजी का साहित्य मुख्यत: उसके ही अस्वीकार का साहित्य है। साहित्य संस्थानों में बैठे ‘असीम के साधकों’ का सचमुच एक आदर्श कवि।’’

जाहिर है कि यह टिप्पणी कविता में अनुभूतियों की स्थानिकता और सार्वदेशिकता, अनुभवों की लौकिकता और अलौकिकता, सम्पृक्ति की विशिष्टता और साधारणता, रचना में इतिहास तथा भूगोल की उपादेयता से जुड़े ऐसे अनेक सवाल उठाती थी, जो गहरी छान-बीन की अपेक्षा रखते हैं और उस टिप्पणी से किसी न किसी कोने से तीव्र प्रतिवाद अथवा जबर्दस्त समर्थन की आवाज उठना हम स्वाभाविक समझते थे। लेकिन, इस मामले में दिखाई दी खामोशी स्वयं में हमारे साहित्य जगत की स्थिति पर, उसमें छायी उदासीनता और बौद्धिक आलस्य की सामान्य स्थिति को बताती है। फिर भी, चंद मित्रों की दबे स्वरों में उठी, ’केदार जी को फिर से पढ़ने’ के आग्रह सम्मान करते हुए ही, हमने एक बार के लिये उस टिप्पणी को फेसबुक से हटा लिया - इस निश्चय के साथ कि केदारजी की कविताओं को पढ़ कर एक पाठक के नाते अपनी अनुभूतियों को एक बार फिर टटोल कर देखूंगा कि कहीं हम रचना को समझने-ग्रहण करने के मामले में कुछ बुनियादी गल्तियां तो नहीं कर रहे हैं !

सौभाग्य से, इसीबीच मुझे केदारजी की उच्छवसित प्रशंसा करती हुई उदय प्रकाश की एक टिप्पणी पढ़ने को मिल गयी - ‘आखिर जीवन ही वाक्यार्थ है’। इसे ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उनके संकलन ‘ईश्वर की आंख’ से लेकर पुनर्मुद्रित किया गया है। ‘ईश्वर की आंख’ संकलन हमारे पास है, उसमें संकलित टिप्पणियों को हमने पढ़ा भी था, लेकिन वह काफी पहले की बात थी। समय के इस लंबे अंतराल में उन सम्मोहक टिप्पणियों का प्रभाव शायद कुछ क्षीण होगया है और हमें यह याद भी नहीं था कि उसमें उदयप्रकाश की केदार जी पर भी एक टिप्पणी संकलित थी।

बहरहाल, अब ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उसे ध्यान से पढ़ा और कहना न होगा, आश्चर्यजनक रूप से अपनी टिप्पणी में हमने केदारजी के बारे में जो तमाम बातें कही थी, - ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि’’ - और इसी आधार पर ‘उन्हें हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार का प्राणी, किसी भी जातीय अस्मिता की एक साक्षात काट’, उदय प्रकाश ने भी अपनी टिप्पणी में हूबहू उन्हीं बातों को अपने अंदाज में, लेकिन बिल्कुल भिन्न आशय के साथ कहा है। उनकी शब्दावली में - ‘स्थानिकता का संहारक’, ‘अनहद’ स्पेस का निवासी, उत्कट अनुभवों का द्रष्टा, अलौकिक की मूर्च्छना के मेटा-संसार का कवि।

उदयपकाश ने अपनी इस टिप्पणी में मुक्तिबोध का भी उल्लेख किया है और लिखा है कि ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश केदार जी के अनुभवों की तरह ही मुक्तिबोध के अनुभव को भी ‘अद्वितीय’ बताते हैं। ‘‘ केदारनाथ सिंह की कविताएं पाठ की प्रक्रिया में ऐन्द्रिक संवेदनाओं को निरंतर प्रदीप्त करती हुई, एक अति-इन्द्रिय विवेक के साथ अन्तत: उसी लोक में पहुंचा देती हैं।’’

उदय प्रकाश कहते हैं - ‘एक ही स्वर्ग या एक ही नरक’। लेकिन दोनों में समान क्योंकि दोनों ही ‘अद्वितीय’ !

कुल मिला कर, उदय प्रकाश के अनुसार अनुभूति की यह ‘अद्वितीयता’ ही वह चीज है जो दो बिल्कुल विपरीत छोरो पर खड़े दिखाई देने वाले केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध, दोनों को ही हमारे समय के अति-महत्वपूर्ण कवि का स्थान और गरिमा प्रदान करती है।

दरअसल, आधुनिक जीवन के संदर्भों में ऐसी ‘अद्वितीयता’, अलौकिक के सम्मोहन की चर्चा मात्र से ही हमारा ध्यान मार्क्सवादी विमर्श के उस समूचे प्रसंग की ओर चला जाता है जहां मार्क्स ने पण्य (माल) की जड़पूजा और उसके रहस्य (commodity fetishism) को लेकर चर्चा की है। ‘पूंजी’ के इससे जुड़े अंश में वे लिखते हैं - ‘‘पहली दृष्टि में तो पण्य एक बहुत ही मामूली सी आसानी से समझ में आने वाली चीज मालूम होती है, लेकिन गहराई में जाएं तो एक ऐसी अजीब से वस्तु जो अपने में न जाने कितनी आधिभौतिक सूक्ष्मताओं और धर्मशास्त्रीय बारीकियों को समेटे हुए है।’’

अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ में मार्क्स के इसी कथन को उद्धृत करते हुए माल के बारे में इस लेखक ने जोड़ा था - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्व-व्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’

गौर करें, मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पदों - ‘आधिभौतिक सूक्ष्मताओं’ और ‘धर्मशास्त्रीय बारीकियों’ (metaphysical subtleties and theological niceties) को। मार्क्स इसी अंश में यह भी बताते हैं कि वैसे तो आदमी की जरूरतों को पूरा करने के कारण हर चीज का एक उपयोग मूल्य होता है और मानव श्रम के उत्पाद के नाते उसमें रहस्य की तरह की कोई चीज नहीं होती। लेकिन कोई भी चीज जब पण्य का रूप ले लेती है तो आश्चर्यजनक रूप से वह मानो किसी इंद्रियातीत वस्तु ( something transcendent) में बदल जाती है। मार्क्स के शब्दों में -‘‘ तब वह न सिर्फ अपने पैरों के बल खड़ी होती है, बल्कि दूसरे तमाम पण्यों के संदर्भ में सिर के बल खड़ी हो जाती है और अपने काठ के दिमाग से ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब विचार निकालती है कि उनके सामने मृतात्माओं को बुलाने वाली प्रेत विद्या (’table-turning’ ) भी मात खा जाती है।

आइये, मार्क्स के इसी सूत्र को थाम कर हम यहां ‘स्मृतियों’ के बारे में चर्चा करते हैं। किसी भी रचनात्मक लेखन में उसकी  केन्द्रीय भूमिका होती है। लेखक की तमाम जीवनानुभूतियां, अतीत में तब्दील होते हर क्षण का आभ्यांतरीकरण, स्मृतियां ही पुनर्जीवित होकर रचना में ढला करती है। स्मृतियां अर्थात आभ्यांतरित अतीत और इतिहास। कहा जा सकता है - रचना जगत का मूल पदार्थ। वाल्टर बेंजामिन के बारे में सब जानते हैं कि अपने अंतिम दिनों के लेखन में, खास तौर पर साहित्यिक आलोचना में उन्होंने ‘स्मृति तत्व’ (Eingedenken) का ही सबसे अधिक  प्रयोग किया था। जैसे, उनका कहना था कि ‘‘रचना में ‘स्मृति’ के आयामों को भाष्य-टीका पद्धति से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता, न इसे गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से ही समझा जा सकता है।’’

बेंजामिन का यह कथन वैसा ही है जैसा मार्क्स पण्य के बारे में कहते हैं कि ‘‘मनुष्य के श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं पण्य ऐसी सामाजिक वस्तुएं बन जाती हैं जिनके गुण इंद्रियगम्य भी है और इंद्रियातीत भी।’’ इसी आधार पर, मार्क्स ने कहा था कि ‘‘यदि इसकी (पण्य की) उपमा खोजनी है, तो हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा। उस दुनिया में मानव-मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसी प्रतीत होती है, जो आपस में और मनुष्य जाति के साथ भी संबंध स्थापित करती रहती है। पण्यों की दुनिया में मनुष्यों के हाथों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती हैं।’’ अपनी कृति ‘पवित्र परिवार’ में मार्क्स इसी सूत्र को ‘विचारों’ के क्षेत्र पर लागू करते हुए कहते हैं - जीवन में जैसे कायिक श्रम का कायांतर मशीन में होता है, वैसे ही आलोचना में विचार में होता है।

जीवन के यथार्थ का इन्द्रियातीत स्मृतियों में आभ्यांतरण और फिर रचना में उन स्मृतियों का पुनर्जीवन -  अब आसानी से समझा जा सकता है, क्यों बेंजामिन इस पूरे प्रसंग को गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से देखने से मना करते हैं, क्योंकि अन्यथा इसके रहस्य को, इस अनुभव के अनोखेपन को देख पाना असंभव सा होगा !

इसके अलावा, बेंजामिन और एक चीज पर जोर देते हैं - इतिहास अर्थात अतीत अर्थात स्मृतियों को किसी समग्र ढांचे में देखने के बजाय टुकड़ों-टुकड़ों में देखा जाना चाहिये। जैसे स्वप्नों की व्याख्या के संदर्भ में फ्रायड का कहना था कि इसके लिये पूरे सपने को नहीं, उसके मूल तत्व के अंशों को देखना चाहिए।
‘स्मृतियों’ को किसी ऐतिहासिक निरंतरता की समग्रता में, युग के पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय टुकड़ा-टुकड़ा अतीत के रूप में देखने की बात करके बेंजामिन रचनाकार के मूल तत्व को पहचानने की, रचना की व्याख्या की एक पद्धति की ओर संकेत करते हैं।  कहना न होगा, स्मृतियों के बारे में बेंजामिन के इन कथन से कविता और उसके बिंबों की भाषा की बेहद उपयोगी कुंजी को पाया जा सकता है।

मगर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि ‘स्मृतियों’ के धर्मशास्त्रीय आयामों, रहस्यात्मक और अलौकिक आयामों को देखने का यह नजरिया ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिये कैसे किसी काम का हो सकता है ? जैसे पण्य का रहस्यमय इन्द्रियातीत रूपांतरण और पूंजी के आत्म-विस्तार की कहानी किसी न किसी प्रकार से ब्रह्मांड के अविराम विस्तार की एक रहस्यमयी स्थिति को प्रतिबिंबित करते प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार स्मृतियों के मामले में भी एक प्रकार का धर्मशास्त्रीय, रहस्यवादी प्रकार का दृष्टिकोण क्या रचनात्मक परिघटना के बारे में किसी समग्र वैज्ञानिक सोच और पद्धति के लिये मददगार हो सकता है ?

कहना न होगा, इस प्रश्न के जवाब का सूत्र भी हमें मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवादी चिंतन से ही मिलता है। मार्क्स ने यह कहने के बावजूद कि ‘पण्यों की दुनिया में प्रवेश के लिये हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा’, अंत में यह भी बताया  कि पूंजी की दुनिया का यह कथित निरंतर विस्तारवान खोल अपने अन्तर्विरोधों के कारण ही अंत में फट जायेगा। अर्थात, सच के संधान में उनकी नजर इतिहास के नैरंतर्य पर नहीं, उसकी धर्मशास्त्रीय सनातनता और अनश्वरता पर नहीं, बल्कि उसमें पड़ने वाले विध्न और दरार पर थी, खोल के फटने और उसे फाड़ने के प्रयत्नों पर थी। प्रशांत, प्रवहमान सनातनता और निरंतरता की टूटती कडि़यों में ही उन्हें मानव की मुक्ति के तमाम प्रयत्नों की गाथाएं दिखाई दी थी। मार्क्स ने ‘पूंजी’ में पूंजीवादी समाज के ऐतिहासिक विकास का जो आख्यान पेश किया था, उसे देखते हुए ग्राम्शी ने रूस की नवंबर क्रांति को मार्क्स की ‘पूंजी’ के खिलाफ क्रांति कहा, और सच कहा जाएं तो यही गाम्शी का नवंबर क्रांति के बारे में मार्क्सवाद-सम्मत विश्लेषण था, ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण।  

बहरहाल, स्मृतियों के संदर्भ में, बेंजामिन ने इतिहास की निरंतरता को, इतिहासवाद को अपने में खोखला और बंद ढांचा बताया था। उनके अनुसार, ऐतिहासिक निरंतरता या इतिहासवाद विजेताओं तक सीमित, बंद, सरलरेखीय, घटनाओं का अबाध प्रवाह और उसका आख्यान है; इतिहास की सनातनता ‘प्रगति’ की एक ऐसी बंद और गुंथी हुई गाथा है जिसमें शासकों की अभी तक की कहानी कही जाती है। इतिहास के इस ढांचे में विफल और पराजित प्रयत्नों का कोई स्थान नहीं होता। इसीलिये बेंजामिन मानते थे कि टुकड़ों-टुकड़ों में आभ्यांतरित अतीत की स्मृतियां खोखले अविरल, सरलरेखीय इतिहास की तुलना में कहीं ज्यादा भरी-पूरी और ठोस होती है। इन टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियों में ही उत्पीडि़त जनों की आशा-आकांक्षाओं, उनकी अनुभूतियों, उनके सपनों और उनके कर्मोद्दम का ठोस यथार्थ निहित होता है। उनका कहना था कि मनुष्य नहीं, संघर्षरत मनुष्य, उत्पीडि़त इंसान समस्त मानवीय संवेदनाओं और ज्ञान का खजाना है। निरंतरता में विध्न ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है और इन अन्तरालों के केन्द्र में उत्पीडि़त, संघर्षरत, कर्मरत इंसान है। जो सनातन प्रवहमान इतिहास आदमी के प्रयत्नों की विफलताओं को स्थान नहीं देता वह अंदर से खोखला होता है।

स्मृति, इतिहास, धर्मशास्त्र, अनुभव की अलौकिकता से जुड़े इस विमर्श के संदर्भ में अब यदि हम पुन: अपने मूल विषय, केदारनाथ सिंह पर आते हैं तो मुझे लगता है, हमने उनपर अपनी टिप्पणी में जो बातें कही और उदयप्रकाश ने उनके संदर्भ में जिसप्रकार मुक्तिबोध को याद किया, उन सब बातों का मर्म आईने की तरह साफ दिखाई देने लगेगा। केदार जी के बारे में हम दो विरोधी कोणों से एक ही बात को पुष्ट करते हुए दिखाई देने लगेंगे।

प्रभुत्वशालियों का इतिहासकार महान उपलब्धियों का सकारात्मक आख्यान कहता है। लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवाद इस आख्यान से एक सतर्क दूरी रखता है। निश्चित तौर पर वह उत्पीडि़त, संघर्षशील और कर्मरत मनुष्य के जिस सांस्कृतिक खजाने की पड़ताल करता है, उसकी जड़ें ऐसी तमाम चीजों में होती है जिनके बारे में बिना किसी आतंक या विक्षोभ के सोचा ही नहीं जा सकता है। इसमें अनिवार्य तौर पर  तनाव, दुख, डर और यातना होते हैं। बेंजामिन कहते हैं कि ‘‘सभ्यता का ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो साथ ही साथ बर्बरता का भी दस्तावेज न हो।’’ और इसी मानदंड पर हम देखते हैं कि उदयप्रकाश ने बिल्कुल सही मुक्तिबोध की चर्चा करते हुए लिखा है - ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश के शब्दों में यह एक नरक है।

ठीक इसके विपरीत, केदार जी का लेखन अपनी ‘अद्वितीयता’ में एक ‘स्वर्ग’ है। वह स्वर्ग है आत्मलीनता का, इसीलिये सरलरेखीय इतिहास की भांति खोखला भी है, जिसमें विफल प्रयत्नों का, संघर्षशील उत्पीडि़त आदमी के ठोस अनुभवों का, उनके जीवन के हाहाकार, और कठोर परिश्रम का प्रवेश निषिद्ध है।

‘गांव आने पर’ किसान का यह बेटा गांव वालों से मिल कर सोचता है :

 ‘‘क्या करूँ मैं?
क्या करूँ, क्या करूँ कि लगे
कि मैं इन्हीं में से हूँ
इन्हीं का हूँ
कि यही है मेरे लोग
जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में
और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे
छू लूँ किसी को?
लिपट जाऊँ किसी से
मिलूँ
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ
और दिल्ली न आए बीच में’’

इस कविता का अंत होता है दिल्ली-बिल्ली के अनुप्रास पर टिकी निछक कौतुक भरी पंक्तियों से -

‘‘क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही साबुत निकल जाए गली से
और बिल्ली न आए बीच में’’ (‘गांव आने पर’ कविता से)

दिल्ली का प्रोफेसर ‘ठेठ देहाती कार्यकर्ता’ के गंवारू अतिक्रमण पर  नि:संकोच  अपनी  झुंझलाहट जाहिर करता है, उसकी उपस्थिति भर को किसी भूकंप से कम विध्वंसक नहीं मानता और उसके चले जाने पर शुक्र मनाता है :

‘‘वह साइकिल दनदनाता चला आता है/...मैं झुंझला उठता हूं/...परेशान होजाता हूं/...उसकी भूकम्प सी चुप्पी/मुझे अस्तव्यस्त कर देती है/...वह उठता है/ और दरवाजों को ठेलकर/चला जाता है बाहर/मेरी उम्मीद/उसका पीछा नहीं करती’’। (एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति)

देखिये ‘पानी में घिरे हुए लोग’ कविता में बाढ़-पीडि़तों की स्थिति के सुरम्य चित्र, जिनका अंत इन महीन, ठंडी पंक्तियों से होता है:

‘‘फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखे डाले हुए
वे रात भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ

सिर्फ उनके अन्दर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक्...छपाक्’’

जो भी हो, उदयप्रकाश केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध के इन दोनों विपरीत ध्रुवों को जिस एक धुरी पर एक साथ रखते हैं, वह है ‘अद्वितीयता’ की धुरी। अद्वितीयता - उनके अनुसार, रचना का व्याकरण। लेकिन यह व्याकरण ही तो इतिहास का वह बंद रूप है जिससे एकसूत्रता, नियम और विधि-विधान, कर्मकांडों और भक्ति की अलौकिकता को साधा जाता है। वे साफ कहते भी है कि ‘‘रचना एक अकर्म है, जैसे लिखना एक अकर्मक क्रिया।’’ व्याकरण-सम्मत लेखन की तरफदारी और अकर्मकता की झंडाबरदारी - बिल्कुल सही और उचित संगति है! मगर, संगीत के उस्तादों का क्षेत्र तो रागों के बंधे हुए घेरे के बाहर माना जाता है। पवित्रताओं की रक्षा तो सामुदायिक धार्मिक दायित्व है। और ऐसी सामुदायिक क्रियाशीलता अक्सर कर्मकांडों के निजी रोमांच में तब्दील होती है जबकि श्रेष्ठ रचना का स्थान इस वृत्त से बाहर होकर भी सामाजिक स्थितियों में उत्पन्न गतिरोधों के अधिक नजदीक होता है। व्याकरण की संपूर्णता के वृत्त में है खोखलापन और उसके बाहर है सामाजिक गतिरोध का ठोस सच। केदार जी के रूपक में ही ‘टूटा हुआ ट्रक‘ - ‘‘अगर इस समय वो वहां न होता/तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना/ कि यह मेरा शहर है/ और ये मेरे लोग/ और वो वो/ मेरा घर’’।

उदयप्रकाश अपनी टिप्पणी के शुरू में ही केदारजी की कविताओं की अद्वितीयता को बताने के लिये उनकी अलौकिकता की उस सिद्धी का उल्लेख करते हैं जिसमें रचनाकार ‘‘ किसी उदास गिरगिट से बात कर सकता है, कौंए से पौराणिक आख्यान सुनते हुए उसे किसी महाकाव्य में बदल सकता है, गरुड़ से स्वर्ग के रहस्य पूछ सकता है’’।

केदारजी की कविताओं में ऐसे कई अनोखे कहे जा सके, वैसे प्रसंग आते हैं। जैसे उनके संकलन ‘उत्तर कबीर’ की पहली कविता ‘पोस्टकार्ड’ की पंक्तियां हैं -

‘‘इसपर लिखा जा सकता है कुछ भी
बस, एक ही शर्त है
कि जो लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि में
लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि
कबूतरों की स्वरलिपि है
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई
प्रजाति का है
उससे टूट कर गिरा हुआ
एक पुरातन डैना’’

उनकी रचनाओं से ऐसे और भी अनेक असंभव, अलौकिक जगत के बिंब छितरे हुए हैं।

इस पूरे प्रसंग में अनायास ही हमें बांग्ला के सुकुमार राय और उनके एब्सर्ड कहे जाने वाले लेखन की याद आ रही है। उनकी रचनाओं के एक संकलन का शीर्षक ही है - आबोल ताबोल (अंट शंट)। सत्यजीत राय ने अपने पिता की इन रचनाओं का एक अंग्रेजी संकलन तैयार किया था, जिसका शीर्षक था  - Nonsense Rhymes। कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने भी सुकुमार राय से प्रेरित होकर ऐसी ही कुछ नानसेंस रचनाओं की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने जल्द ही हथियार डाल दिये। उन्होंने कहा - ‘‘मैं और कुछ भी लिख सकता हूं लेकिन सुकुमार राय जैसा कभी नहीं लिख सकता।’’

रवीन्द्रनाथ ने यह कह कर सुकुमार राय को अस्वीकारा नहीं था। बल्कि उल्टे, यथार्थ के विद्रुपीकरण की उनकी अद्भुत प्रतिभा को खुले मन से स्वीकृति दी थी। सुकुमार राय के प्रति रवीन्द्रनाथ की यह स्वीकृति और आग्रहशीलता का भाव लगभग वैसा ही था जैसा जीवन की अंतिम घडि़यों में उनका आग्रह मिट्टी से जुड़े आदमी के संघर्षों की कथा कहने वाले कवि की तलाश का था।    
सुकुमार राय की एक क्लासिक रचना है - ‘ह ज ब र ल’ जिसका हिंदी में लाल्टू जी ने ‘ह य ब र ल’ शीर्षक से अनुवाद किया है। मैं यहां उसके कुछ अंश को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। इसकी शुरूआत इस प्रकार है :

‘‘बड़ी गर्मी है। पेड़ की छाया में मजे से लेटी हुई हूं, फिर भी पसीने से परेशान हो गई हूं। घास पर रुमाल रखा था, जैसे ही पसीना पोंछने के लिए उसे उठाने गई, रूमाल ने कहा, ‘‘म्याऊँ!’’
कैसी आफत है! रुमाल म्याऊँ क्यों कहता है?
आंख खुली और देखा तो पाया कि रुमाल अब रुमाल नहीं, एक मोटा सा गाढ़े लाल रंग का बिल्ला मूँछे फैलाए टुकुर टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
मैं बोली, ‘‘अरे यार! था रुमाल, बन गया बिड़ाल।’’
बिल्ला झट से बोल पड़ा, ‘‘इसमें क्या परेशानी है? जो अंडा था, उससे क्वांक वांक बत्तख बना। ऐसा तो हमेशा होता रहता है।’’
मैंने जरा सोचकर कहा, ‘‘तो अब तुम्हें किस नाम से पुकारूँ? तुम तो असल में बिल्ले नहीं हो, तुम तो रुमाल हो।’’
बिल्ला बोला, ‘‘बिल्ला कह सकती हो, रुमाल भी कह सकती हो, चंद्रबिंदु भी कह सकती हो।’’
मैं बोली, ‘‘चंद्रबिंदु क्यों?’’
बिल्ले ने सुनकर कहा, ‘‘यह भी नहीं जाना ?’’ कहकर एक आंख मींचे खी खी कर भद्दी सी हंसी हंसने लगा। मैं बड़ा अटपटा महसूस करने लगी। लगा जैसे इस ‘‘चंद्रबिंदु’’ का मतलब मुझे समझना चाहिए था। इसीलिए घबराकर जल्दबाजी में कह दिया, ‘‘ओ हाँ हाँ, समझ गई।’’
बिल्ले ने खुश होकर कहा, ‘‘हाँ, यह तो साफ बात है - चंद्रबिंदु का च, बिल्ले का श और रुमाल का मा मिल कर बने चश्मा। क्यों, ठीक है न?’’
मुझे कुछ भी समझ न आया, पर डर था कि कहीं बिल्ला फिर से अपनी भद्दी हँसी न हँस पड़े। इसलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती गई।’’...

‘‘धत्, मेरी उम्र है आठ साल तीन महीने, और यह कहता है सैंतीस।’’
बुड्ढे ने थोड़ी देर बाद जाने क्या सोचकर पूछा, ‘‘तो बढ़ती की है या घटती की?’’
मैं बोली, ‘‘मतलब?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘मैंने कहा उम्र बढ़ रही है या कम हो रही है?’’
मैं बोली,‘‘उम्र कम कैसे होगी?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘तो क्या केवल बढ़ती ही रहेगी? तब तो मेरी छुट्टी होगई होती। ...चालीस साल पूरे होते ही हम उम्र का चक्का घुमा देते हैं। फिर इकतालीस, बयालीस नहीं - उनतालीस, अड़तीस, सैंतीस - इस तरह उम्र कम होती रहती है। मेरी उम्र कितनी बार चढ़ी और कितनी बार उतरी।’’...

‘‘उस पशु ने कहा, ‘‘क्यों हंस रहा था सुनोगी ? मान लो धरती चपटी होती और सारा पानी फैल कर जमीन पर आ जाता और जमीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो ...हो, हो, हा, हा -’’

मनुष्य, बिल्ला, कौंवा, उल्लू, बकरा, चमगादड़ आदि आदि को लेकर लिखा गया यह एक अनोखा वृत्तांत है। इसमें उल्लू जज की कुर्सी पर बैठा है तो मगरमच्छ वकील है। और, सब कुछ उटपटांग ! अंट शंट!

मगर, मजे की बात है कि इस नानसेंस में भी एक भारी सेंस था। यहां इनके उल्लेख का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यथार्थ का ऐसा विद्रूपीकरण अद्वितीयता की सिद्ध अलौकिकता से बहुत ज्यादा मानीखेज है। यह इतिहास के, व्याकरण के, सिद्धता के बंद ढांचे के बाहर का प्रयत्न है। आत्म से बाहर के व्यापक संसार का सच और उसका विद्रूप है। उदयप्रकाश की शब्दावली में यह भी एक ‘अतिन्द्रिय वाक् चेष्टा’ है। लेकिन शासकों के उस व्याकरण की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई ‘वाक् चेष्टा’ जो उदयप्रकाश की शब्दावली में सभी ‘प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ’ करके सार्वजनीयता की जमीन तैयार करती है।

उदयप्रकाश ने केदारजी की प्रशंसा में जिस सनातनपंथी सार्वजनीयता का प्रभामंडल तैयार किया है, जो ‘’प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ करने वाले व्याकरण’’ पर टिका है, जो स्थानिकता में जन्म लेकर उसी में मर-खप जाने वाली आलोचना की उस  बेकार भाषा को दुत्कारता है जिसकी ‘‘जहां निर्मिति होती है, ठीक वहीं उसका विखंडन और विसर्जन भी होता है’’, केदार जी की रचनाओं के हमारे विश्लेषण का सार भी बिल्कुल यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उदयप्रकाश जिस चीज का जश्न मना रहे है, हम उसी का विरोध करते हैं, उसे तंतहीन और खोखला मानते हैं। उदयप्रकाश जिस चीज के लिये उन्हें राजसिंहासन पर बैठा रहे हैं, उसी के लिये हम उन्हें अभियुक्त के कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। मुक्तिबोध की ‘संसार की विकट प्रतिछवियों’ में हम मनुष्य के संघर्षों का भरपूर सौन्दर्य देखते हैं और केदारजी के ‘अति-इन्द्रिय विवेक’ में हमें आत्म-मुग्धता की खोखली तन्मयता दिखाई देती है।

हम समझते हैं, रचना के अलौकिक अनुभवों के संदर्भ में ऊपर की गयी इतनी लंबी इतिहास और स्मृति-चर्चा की प्रासंगिकता अब कहीं ज्यादा साफ होगयी होगी। यही सच है कि अतीत का, स्मृतियों का ढांचा जितना खुला होता है, उत्पीडि़तों की मुक्ति की आकांक्षा के लिये उतना ही स्थान बचा रहता है। व्यापक जन-समुदाय उस रचनात्मक प्रयत्न के साथ उतना ही गहरा लगाव भी महसूस करता है। वह सम्पृक्ति की भाषा होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो अतीत में भविष्य के जितने अधिक आयाम निहित होते हैं, मुक्तिकामी इंसान उतना ही अधिक उसे अपनाता है। इसीलिये ‘स्थानिकता के संहार के साथ अनहद स्पेस के अलौकिक के जादू की मूर्च्छना में तो ‘उत्पीडि़त प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय’ भी नहीं होते, जैसा कि मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा था। यहां तो शुद्ध अफीम का नशा ही नशा है। धर्म को एक कोरा भ्रम मानने वाले मार्क्स कहते हैं कि ‘‘जीवन में भ्रमों का नाश उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक कि मानव जीवन की उन परिस्थितियों को नहीं बदला जाता जिन्हें भ्रमों की जरूरत होती है।’’ स्थानिकता का संहार वैसे ही आदमी के अस्तित्व का लोप है, ऊपर से अनहद की मूर्च्छना ! भ्रम के भी अधिष्ठान के लिये कोई जगह ही नहीं बचती। रह जाता है एक प्रकार का कोरा कर्मकांडी रोमांच, जिसमें जीवन की परिस्थिति में बदलाव के किसी भी प्रयत्न का स्थान कहां !

जाहिर है, ऐसी शून्यता में ही जादूगर के सम्मोहनीकरण के मंच पर आईनों के प्रतिबिंबों से तैयार किये गये अदृश्य, पारदर्शी खोखर में छिपे बैठे सनातनता के खिलाड़ी की डोर से चालित है उदयप्रकाश के केदारनाथ सिंह - ‘जायंट व्हील’ में बैठे हुए डरे हुए बच्चे पर हिन्दी कविता की धरती पर चलने वाले किसी परमात्मा के अलौकिक वरद् हस्त की तरह!

अब बताइयें, वे नहीं तो और कौन होंगे असीम-संधानी ‘साहित्याधिकारियों’ की सर्वकाल की पहली पसंद, साहित्य-पुरस्कारों का सबसे उत्तम पात्र - निष्पाप, निरापद, अहिंस्र, विनत, निष्पृह, असंपृक्त, बिल्कुल ठंडा ! इसीलिये उनकी झोली में ढेर सारे दूसरे पुरस्कारों की तरह ही ज्ञानपीठ पुरस्कार का टपकना, किसी भी प्राकृतिक घटना जैसा ही एक सार्वदेशिक, पूर्व-निर्धारित सच है !

बहरहाल, इतनी सारी चर्चा के बावजूद इस प्रसंग को हम यहीं पर, किसी बंद किताब की तरह खत्म करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि इतिहास और स्मृतियों के जिस बंद और सनातन ढांचे पर हमने ऊपर इतनी तोहमतें लगाई हैं, रचना को देखने-परखने का वैसा ही फिर कोई और एक बंद ढांचा तैयार हो, वह भले ही ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम पर ही क्यों न हो! इसमें कोई शक नहीं है कि इतिहास की सनातनता में डाले जाने वाले विघ्न में ही मनुष्यता की तमाम संभावनाएं निहित है। सालों पहले इसी लेखक ने उदयप्रकाश के पक्ष में राजेन्द्र यादव को लिखे अपने पत्र में काल के सरल रेखीय सीधे प्रवाह और उसके वर्तुल प्रवाह के बीच फर्क करते हुए वर्तुल प्रवाह में फिर-फिर लौटते संघर्षरत आदमी की स्थिति को पहचानने की बात कही थी। फिर भी, इस विषय में हमारे किंचित संशय की भी ठोस वजहें हैं। स्मृति, इतिहास, अतीत और रचनात्मक उपक्रम की हमारी उपरोक्त चर्चा के केंद्र का एक बड़ा पहलू है – मार्क्स का यह कथन कि ‘यह खोल फट जायेगा’। पण्य के रहस्यमय जगत में पूंजी के अविराम आत्म-विस्तार से बन रहा खोल फट जायेगा। लेकिन, अभी के विश्व इतिहास की मूल समस्या यही है कि यह खोल फट नहीं रहा है। हमने अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ के बिल्कुल अंत में एक टिप्पणी की है - ‘‘पूंजी के द्वंद्वात्मक विवेचन की दीर्घ यात्रा के अंत में जैसे थक कर ही मार्क्स ने कहा था कि इस ब्रह्मांड का खोल फट जायेगा। लेकिन खोल को फाड़ना तो दूर, उसकी रूमानी कल्पनाओं का भी आज तो टोटा पड़ रहा है।’’

यह भी अपने में एक बहुत बड़ा और विकट सत्य है। इसीलिये केदारजी की तरह की सारहीन, कर्मकांडी सार्वजनियता और सार्वदेशिकता की, ‘इतिहास के अंत’ की तरह की उक्तियों की गूंज-अनुगूंज बार-बार सुनाई देगी। फिर भी, इस पूरे व्यापार में निहित सबसे बड़ी दर्शनशास्त्रीय समस्या यह है कि जो ऐतिहासिक भौतिकवाद अपनी सेवा में धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद का इस्तेमाल करता है, उसके इस खेल में कौन किसके हाथ का कठपुतला बन रहा है, यह तय कर पाना मुश्किल दिखाई देने लगता है। क्या ऐतिहासिक भौतिकवाद की ओट में ही उस धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिल रहा है, जो अन्यथा आज के समय में अपने असली रूप में सामने आने से शर्माता है। आशा है हमारे संकेत साफ हैं।

राह-ए-दूर-ए-इश्क से, रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या

इसीलिये सम्मोहनों के हर मायावी खेल पर पैनी निगाह जरूर रखी जानी चाहिए। अन्यथा जगत प्रतीति के मिथ्यात्व में विपर्यासों का खतरा सबसे ज्यादा है। स्वयं ऐतिहासिक भौतिकवाद के नैरंतर्य का बंद ढांचा!

अंत में और एक बात से हम अपनी इस टिप्पणी को खत्म करेंगे। हमने इस पूरे लेख में अपनी बात कहने के लिये उदयप्रकाश की टिप्पणी को आधार बनाया है। केदार जी पर उदयप्रकाश की टिप्पणी की सच्चाई को हम समझ सकते हैं। हममे से अधिकांश लेखक अक्सर मित्रों और परिचितों को लेकर इसीप्रकार उच्छवसित सा कुछ करते रहते हैं। लेकिन सच कहा जाए तो उदयप्रकाश की अपनी पहचान इसप्रकार की, अखबारी स्तंभों के लिये लिखी जाने वाली टिप्पणियों में नहीं, उनकी कहानियों और कविताओं में हैं। हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि उदयप्रकाश का लेखक उसी प्रकार केदारनाथ सिंह का बिल्कुल विपरीत ध्रुव है जैसे मुक्तिबोध है, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। इति।

 (यह लेख 'लहक ' पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होगा )
 


शनिवार, 19 जुलाई 2014

मोदी-स्तुति में विकल मन के ये अविरल ‘आंसू’ !


अरुण माहेश्वरी

16वीं लोक सभा के चुनाव और मोदी सरकार को बने अभी दो महीने हुए हैं। इसी बीच इस सरकार के रेल बजट, आम बजट और सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई, चीनी मिल मालिकों को दिये गये अरबों रुपये के लाभ, बीमा, प्रतिरक्षा की तरह के क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के निवेश के दरवाजों को और ज्यादा खोल देने और सर्वोपरि, भूमि अधिग्रहण कानून में कॉरपोरेट के पक्ष में संशोधनों के संकेतों से आम लोग इस सरकार की पूरी गति-प्रकृति का अनुमान लगा कर बेहद शंकित हैं। कहने लगे हैं कि जो लंका के सिंहासन पर बैठता है, वही रावण बन जाता है। ‘अच्छे दिन’ आज का एक सबसे बड़ा मजाक, दुखीजनों के जख्मों पर नमक के छिड़काव का पर्याय लगने लगा है।

दरअसल लोग अपने जीवन के अनुभवों से, ठोस भौतिक परिस्थितियों से सामाजिक परिस्थितियों का आकलन करते हैं। इसमें विचार भी वही चलते हैं जिनका वास्तविक जीवन की जरूरतों से संपर्क होता है। जीवन की जरूरतों से एकमेव होकर ही तो विचार सामाजिक विकास की प्रभावशाली शक्ति का रूप लेते हैं। यह भौतिक नजरिया अपनी मूल प्रकृति में ही प्रगतिशील होता है। यह सीधे तौर पर भौतिक उत्पादन की परिस्थितियों, अर्थात प्राकृतिक विज्ञान की उपलब्धियों से जुड़ा होता है। इसीलिये तो मोदी जी ने अपने प्रचार में महंगाई दूर करने, कुशासन और भ्रष्टाचार को खत्म करने और बड़े लोगों के बजाय आम, सामाजिक जीवन को सुखी बनाने की बातों पर पूरा जोर देकर एक प्रकार से प्रगतिशील जनमत को प्रभावित किया था। एक बार के लिये आरएसएस के सभी कोरे खयाली, उन्मादी मुद्दों को ताक पर रख दिया था।

लेकिन इन सबके विपरीत, भौतिक जीवन की तुच्छताओं के बजाय हमेशा किसी असीम की खोज में शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाये बैठे हिन्दी के बुद्धिजीवियों की एक घोषित ‘प्रगतिशीलता-विरोधी’ जमात आम जन के क्रमश: बढ़ते उद्वेग से अलग मोदी शासन के आगमन की खुशी में आज भी पागल है। उसे यह अचानक ही किसी सतयुग का अवतरण, परमार्थ, पुरुषार्थ, आत्मज्ञान, परमात्म ज्ञान, अभूतपूर्व आत्म-मंथन और आत्मदान इत्यादि को जागृत करने वाले नये युग का, गीता के श्लोक ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:/अभ्युत्थान धर्मस्य: तदात्मानं सृजाभ्याहम’’ की याद दिलाने वाला महान ऐतिहासिक पट-परिवर्तन जान पड़ता है। अब ‘अवसरवादियों’, ‘चाटुकारों’ और ‘नकलचियों’ की नहीं चलेगी! और जिस बात से ये महोदय सबसे ज्यादा खुश है वह यह कि अब ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ की राजनीति के दिन लद गये हैं, धर्म चलेगा, धर्म-निरपेक्षता नहीं चलेगी।

बाइबल का बहुत चालू कथन है - ‘चित्त ही है जो जीवन है, काया का कोई मोल नहीं’। (It is the spirit that quickeneth, the flesh profitieth nothing)। और हमारे बुद्धिजीवी, इसी चित्त के लाइसेंसधारी व्यापारी, जनता की जीवन संबंधी क्षुद्र चिंताओं को दुत्कारते हुए खुशी से उन्मादित हैं, धर्म-रक्षार्थ मैदान में कूद पड़े हैं, लोगों को उनके ‘‘वास्तविक वर्तमान में मुक्त कराने के लिये।’’ लेकिन इस धर्मयृद्ध में बाइबल के कथन के विपरीत ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’, ‘धर्म का साधन शरीर है’ के चाणक्य के नारे के साथ!

‘जनसत्ता’ के 14 जुलाई और 15 जुलाई के अंकों में रमेश चन्द्र शाह का लंबा लेख देखिये, हमारी उपरोक्त तमाम बातों का ठोस संदर्भ समझने में चूक नहीं होगी। उस लेख की आखिरी पंक्ति है - ‘‘ यही वह मार्ग याकि उपाय-कौशल और शक्ति-साधना है, जिसका अवलंबन करके हम अपने वास्तविक वर्तमान में मुक्त हो सकते है...।’’

श्री शाह के पहले उन्हीं के गोत्र के उदयन वाजपेयी का ‘जनसत्ता’ में ही एक लेख प्रकाशित हुआ था - ‘शायद कुछ नया हो’। वे भी यह सोच-सोच कर खुशी में पागल थे कि अब (1) भारत का पश्चिमीकरण रुकेगा, (2) गणतांत्रिक (आंचलिक) राजनीति का विकास होगा, (3) सब समुदाय अब ‘दृश्य’ होंगे, कोई ‘अदृश्य’ नहीं होगा, (4) जातिवाद की बदनामी कम होगी, और इसमें भी सर्वोपरि, (5) राजनीतिक विमर्श पर कम्युनिस्टों का अदृश्य वर्चस्व कमजोर होगा।

उदयन जी के शब्दों में, ‘‘कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है, पर आधुनिक भूमंडलीकरण सोवियत भूमंडलीकरण की तुलना में बेहतर है।’’

उस लेख पर टिप्पणी करते हुए हमने लिखा था - ‘‘क्या कहा जाए, वाजपेयी जी के इस आकलन को। जो सोवियत संघ अस्तित्व में ही नहीं है, उसका ‘भूमंडलीकरण’ इस चुनाव के परिणाम का एक बड़ा कारण है !

‘‘वंशवाद !(इसका भी उस लेख में उल्लेख आया था।) कोई पूछे कि क्या हिटलर और उसका नाजीवाद जो आधुनिक समय में पूरी मानवता के अस्तित्व मात्र के लिये खतरा बन गया था, किसी वंशवाद की उपज था ? मान लेते हैं कि मोदी और संघ परिवार के प्रति अपनी अनुरक्ति के कारण उदयन जी को हिटलर और उसके नाजीवाद से उतना परहेज न हो, लेकिन जिस सोवियत संघ को वे घोषित तौर पर मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं, वह भी तो किसी वंशवाद की देन नहीं था। फिर वंशवाद और मोदीवाद में एक बुरा और  दूसरा अच्छा कैसे होगया ?

‘गणतांत्रिक’ अर्थात आंचलिक राजनीति का विकास - संघ परिवार शायद अब संत बन अपने राजनीतिक विस्तार की तमाम महत्वाकांक्षाओं को त्याग देगा !

‘‘और भूमंडलीकरण ! उनके शब्दों में, ‘वैसे तो कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है।’ वे कभी सोचते हैं कि ‘भूमंडलीकरण’ का सार-तत्व है मानव मात्र की ‘प्राणी सत्ता’। क्या इससे वे इंकार कर सकते हैं ? भूमंडलीकरण का बहुलांश मानव की इस प्राणीसत्ता से जुड़ा हुआ है। ‘खुला खेल फरूखावादी’ के समर्थक जो उदयन  वाजपेयी इस बात से सबसे अधिक खुश है कि अब बहुसंख्यक भी अदृश्य नहीं रहेंगे, वे मानव की इस सबसे ‘दृश्य प्राणीसत्ता’ के विरुद्ध क्यों है ? सिर्फ इसलिये कि कम्युनिस्टों ने दुनिया के मेहनतकशों को एक करने का नारा दिया था !’’

अपनी उस टिप्पणी के अंत में हमने कहा था  - ‘‘ उदयन जी को पता नहीं है कि यदि सकारात्मक नजरिये से सोचा जाए तो मोदी युग भारत में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का वह युग होगा, जब पश्चिमीकरण की आंधी बहेगी, विदेशी पूंजी का बोलबाला होगा। यही है विकास का उनका गुजरात मॉडल। और, अगर यह नकारात्मक दिशा में जाता है, ‘खुला खेल फरूखावादी’ की दिशा में, उदयन जी की शब्दावली में सब समुदायों को दृश्य कर देने की दिशा में, समुदायों के बीच नग्न टकराहटों के रास्ते में तो भारत का भविष्य तालिबानियों के प्रभाव के अफगानिस्तान जैसा होगा। उदयन जी अपने लेख में कुछ इसी प्रकार की सिफारिश कर रहे जान पड़ते हैं।“

हमारी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति थी - ‘‘पता नहीं, आधुनिकतावाद के कौन से रिसते घाव की मवाद है यह सब !’’

उदयन जी की ऐसी ही किंचित ठोस भावनाओं की बिल्कुल अमूर्त और वायवीय अभिव्यक्ति है रमेश चन्द्र शाह का यह लंबा, ‘जनसत्ता’ के दो अंकों में लगातार छपा लेख। सच कहा जाए तो इस पूरे लेख को सिर्फ दो शब्दों में ‘पागल का प्रलाप’ कह कर छोड़ दिया जाता तो बहुत गलत नहीं होता। कोरी असंलग्न, असंबद्ध, बे-सिर-पैर की बातों का वमन। फिर भी, यह देखने कि आखिर वे कौन सी दमित कामनाएं हैं जिनको सात पर्दों में छिपा कर व्यक्त करने की गरज से यह समूचा प्रलाप किया गया है, हमने बड़े कष्ट और धीरज के साथ इस अपाठ्य पाठ को ध्यान से पढ़ा।

उनके लेख के पहले अंश का ‘जनसत्ता’ वालों ने शीर्षक लगाया है - ‘शक्ति की करो तुम मौलिक कल्पना’ और दूसरे अंश का शीर्षक है - ‘अपनी सभ्यता की शर्तों पर’।

पहले अंश में शाह जी ने प्रसाद जी के ‘आंसू’ की पंक्ति उद्धृत की है - ‘छलना थी फिर भी, उसमें मेरा विश्वास घना था/उस माया की छाया में कुछ सच्चा स्वयं बना था।’’

मोदी जी के राजतिलक पर प्रसाद जी का ‘आंसू’! ‘आंसू’ का पहला छंद है -‘इस करुणा कलित हृदय में/अब विकल रागिनी बजती’...। और, इसका सबसे लोकप्रिय छंद है - ‘‘जो घनीभूत पीड़ा थी/मस्तक में स्मृति-सी छायी/दुर्दिन में आंसू बनकर/ वह आज बरसने आयी।’’ तो क्या यह लेख, किसी करुणा कलित हृदय का हाहाकार है, जो इन दुर्दिन में आंसू बन कर बरसने आया है !

इसीकी तलाश में टोह-टोह कर किसी प्रकार हमने इस दुष्कर लेख को पढ़ा। इसमें गांधी आते हैं, अरविंद भी हैं, लेकिन यह ‘करुणा कलित हृदय’ मोदी युग से आह्लादित होकर ‘पुरुषार्थ’ की तलाश में अंत में धर्म-रक्षार्थ बल प्रयोग की शक्ति-साधना के आह्वान में कैसे जादूई ढंग से पर्यवसित होता है, इसका एक विचित्र सा उदाहरण है यह लेख। दरअसल, और कुछ कहने के बजाय हम यही कहेंगे कि शाह जी ने अपने उद्देश्य-साधन के लिये इस लेख में गांधी-अरविंद आदि का सहारा लेने के बजाय गुरू गोलवलकर का सहारा लिया होता तो उनका लेख जिस गड़बड़झाले का उदाहरण प्रतीत होता है, वैसा नहीं होता। बात अधिक साफ होती। वे खुल कर अपनी बात कह पाते ।

गोलवलकर ने उनके मन की बात, मूलभूत विभेद वाली संस्कृतियों से उत्पन्न समस्याओं का जो ‘नाजी निदान’, यहूदियों के समूल सफाये में, बताया है, वह खुल कर सामने आता। धर्म-रक्षार्थ खड्ग-हस्त होने का अर्थ स्पष्ट हो जाता। अल्प-संख्यकों के तुष्टीकरण के युग की समाप्ति पर शाहजी की खुशी का सच बिल्कुल प्रकट रूप में सामने होता। लेख ज्यादा पठनीय भी होता।

इसके विपरीत शाह जी ने प्रसाद और फिर, गांधी, अरविंद के सहारे, ‘महाभारतीय सभ्यता के इतिहास चक्र’ के जरिये ‘संघवाद का डंका’ बजाने का जो बीड़ा अपने इस लेख में उठाया है, वही इस लेख को कोरे प्रलाप का रूप देने की वजह बन गया। जीवन की ठोस सचाई के विषयों से पूरी तरह कटे होने के कारण वैसे ही यह लेख किसी के कोई काम का नहीं है। जनता आलू-प्याज के भाव गिन रही है और ये महोदय आत्मज्ञान और आत्मदान का प्रवचन दे रहे हैं, हजारों सालों की गुलामी से स्वतंत्रता के भाव में उन्मत्त हैं। तथापि, प्रसाद जी के कामायनी की पंक्तियां हैं - ‘‘क्यों इतना आतंक ठहर जा ओ गर्वीले!/जीने दे सबको फिर तू भी सुख से जी ले।’’ हमारा कहना है, प्रसाद की इन पंक्तियों के मर्म को ही शाह जी अगर आत्मसात कर लेते तो भारत जो आज है, उसपर उनके रूदन और आंसुओं का ऐसा रूप नहीं होता, मोदी जी के आगमन की खुशी में अभिभूत मन के आंसुओं जैसा। खुशी के इन ‘आंसुओं’ के लिये प्रसाद, गांधी, अरविंद का मिथ्या अवलंब काव्यशास्त्र की दृष्टि से ‘संशय योग’ का विध्न पैदा करता है, उनके लेख के दीर्घ उपक्रम को हास्यास्पद कलाबाजियों में बदल देता है।    

सोमवार, 7 जुलाई 2014

भारत में वामपंथी आंदोलन का विवेक - ज्योति बसु


ज्योति बसु की शताब्दी के मौक पर:
  अरुण माहेश्वरी


आज ज्योति बसु का 101वां जन्मदिन, उनके शताब्दी वर्ष का प्रारंभिक दिन।

ज्योति बसु की शताब्दी, और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन के बाद के पचास साल, सीपीआई(एम) की अर्द्ध-शती। इतिहास का यह एक ऐसा संधि-स्थल जब कम्युनिस्ट आंदोलन किसी बुझते हुए दीये की पीली लौ के बीच कालिमा ढकी विस्फारित असहाय आंखों की कोई करुण कहानी सा कहता दिखाई देता है। तर्क और भावना, कुछ साथ देते नहीं दिखाई देते। घेरा डाले निष्ठुर चाण्डाल क्रिया-कर्म की अधीरता-तत्परता के साथ अंतिम सांसों की प्रतीक्षा करते जान पड़ते हैं। सचमुच, यह बेहद दुखदायी है।

बहरहाल, ज्योति बसु कम्युनिस्ट आंदोलन की एक जिद थी। एक ऐसी जिद जिसने देश के किसानों-मजदूरों को जनतंत्र के खुले आकाश की ताजगी से पुष्ट करने का निश्चय किया था। मेहनतकशों को मानव की जनतांत्रिक नैतिकता को आत्मसात करते हुए आगे ले जाने की जिद !

छियानबे साल की उम्र में जब ज्योति बसु की मृत्यु हुई थी, हमने ‘जनसत्ता’ के अपने स्तंभ ‘चतुर्दिक’ में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें भारत के वामपंथी आंदोलन का विवेक कहा था। आज फिर उसीकी बातों को दोहरा रहा हूं । ज्योति बसु को केंद्र में रख कर आगामी पूरे साल भारत में वामपंथी राजनीति की संभावनाओं के मार्ग के संधान के लिये एक सघन विमर्श को जारी रखने की जरूरत है। कहना न होगा, वामपंथ के पुनर्जीवन में ही भारतीय जनतंत्र की संभावनाएं निहित है।

ज्योति बसु की मृत्यु के उपरांत विभिन्न अखबारों में उनकी प्रशंसा करते हुए भी उनके बुनियादी व्यक्तित्व के प्रभाव को कम करने की घुमावदार बातों में जिस एक बात को किसी न किसी रूप में सबसे अधिक कहा गया, वह यह कि वे एक कम्युनिस्ट होकर भी कम्युनिस्ट नहीं थे। उनकी बंगाली पोशाक, नपीतुली बातें, चुस्त चाल, व्यक्तित्व की मुग्ध कर देने वाली शालीनता - इन सबका किसी कम्युनिस्ट और जनता के अधिकारों के लिये लड़ने वाले आंदोलनकारी कार्यकर्ता की प्रचलित प्रतिमा से मेल नहीं बैठता। साफगोई और शालीनता, सिद्धांतवादिता और नपीतुली बातें, आंदोलन और सौम्यता - किसी भी कम्युनिस्ट व्यक्तित्व के संदर्भ में वे इन्हें परस्पर-विरोधी मानते थें। इसीलिये इन लोगों को ज्योति बसु कम्युनिस्ट होकर भी कम्युनिस्ट नहीं लगते थे।

बहरहाल, ज्योति बसु क्या थे, भारत की राजनीति में उनकी क्या भूमिका रही तथा भारतीय वामपंथ के लिये उनका क्या मायने था, इसकी पूरी कहानी तो बेहद लंबी है। यहां बहुत थोड़े प्रसंगों का ही उल्लेख किया जा सकता है।

ज्योति बसु सन् 1940 के नववर्ष के दिन पांच वर्षों की पढ़ाई के बाद इंगलैंड से बैरिस्टर बन कर कोलकाता आए और आने के साथ ही पिता से कहा कि वे वकालत नहीं, राजनीति करेंगे। हतप्रभ पिता ने जब यह कह कर संतोष पाना चाहा कि सी.आर.दास भी बैरिस्टरी और राजनीति, दोनों एक साथ करते हैं, तो ज्योति बसु ने दूसरी बात कही- वे कम्युनिस्ट पार्टी के पूरावक्ती कार्यकर्ता बनेंगे।

ज्योति बसु ने राजनीति रेलवे मजदूरों के संगठन से शुरू की। सन् 46 की विद्रोही परिस्थितियों में इन्हीं मजदूरों के चुनाव क्षेत्र से वे बंगाल की प्रांतीय असेंबली के सदस्य चुने गये। स्वतंत्र भारत में विधानसभा अधिवेशन के पहले दिन ही ज्योति बसु निहत्थे किसानों के एक प्रदर्शन के साथ पुलिस की लाठी और आंसू गैस का सामना कर रहे थे। वे राइटर्स बिल्डिंग(सचिवालय) जाकर तत्कालीन गृहमंत्री को प्रदर्शन-स्थल पर पकड़ लायेंं। प्रफुल्ल घोष की उस सरकार ने इस पहले सत्र में ही ‘पश्चिमबंग विशेष अधिकार कानून’ नामक पहला काला कानून लागू किया और ज्योति बसु ने घोषणा की - 'हम अपनी पूरी ताकत से इस पैशाचिक कानून का विरोध करेंगे।'

यहीं से आजाद भारत की विधानसभा के अंदर और बाहर नागरिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई का ज्योति बसु का जो सफर शुरू हुआ, जनता से जुड़े सवालों पर एक के बाद एक आंदोलन और उसी अनुपात में सरकारी दमन, अनगिनत बार कारादंड और सत्ता में आने के बाद सारी सत्ता जनता को ही सौंप देने का कर्मयज्ञ - इन सबने ही ज्योति बसु को ज्योति बसु बनाया।


इस संदर्भ में उल्लेखनीय है सन् 1959 का खाद्य आंदोलन। बंगाल में एक और मनवंतर की पदध्वनि सुनाई दे रही थी। जमींदारों-जखीरेबाजों के गोदाम अनाज से भरे पड़े थे, लेकिन बाजार में खाद्यान्नों की कीमतें आकाश छू रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरे प्रदेश में व्यापक खाद्य आंदोलन छेड़ दिया। मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय इस आंदोलन को पूरी ताकत से कुचल डालने पर आमादा थे। 31 अगस्त के दिन कोलकाता के शहीद मीनार मैदान में लगभग तीन लाख लोगों की एक विशाल सभा हुई। इस सभा से निकले जुलूस पर पुलिस के जवान अकल्पनीय बर्बरता के साथ टूट पड़े और देखते ही देखते एक हफ्ते में पूरे पश्चिम बंगाल को भूखे और निरन्न लोगों की वध-स्थली में बदल दिया गया। 31 अगस्त से लेकर 3 सितंबर तक, सिर्फ चार दिनों में निरन्न लोगों के जुलूसों और प्रदर्शनों पर पुलिस के हमलों से 80 लोगों की जानें गयी, तीन हजार से ज्यादा लोग जख्मी हुए, निवारक सुरक्षा कानून के तहत बिना मुकदमा चलाये 21 हजार से ज्यादा लोगों को जेल की सींखचों के पीछे बंद कर दिया गया।

ज्योति बसु ने तब विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए अपने ऐतिहासिक भाषण के अंत में कहा, 'आज लोग आपको(सरकार को) धिक्कार रहे हैं। जिस आदमी के शरीर में जरा सा भी खून है, वह कभी आपलोगों को माफ नहीं करेगा। आज से हमारे आपके बीच एक दीवार खड़ी होगयी है। जो इस आंदोलन में शहीद हुए हैं, जिनके खून से बंगाल की मिट्टी रंग गयी है, उन्हें हम कभी भूल नहीं सकते।'

इसके पहले 1954 में राज्य के शिक्षकों के आंदोलन के समय ज्योति बसु लगातार सात दिनों तक विधानसभा में ही बैठे रहें, जब तक कि सरकार ने शिक्षकों से समझौता नहीं कर लिया।

1962 में भारत-चीन सीमा संघर्ष के समय ज्योति बसु ने अंधराष्ट्रवाद से बचते हुए पड़ौसी मुल्क के साथ शांतिपूर्ण संबंध के प्रयत्नों की दलील दी तो उन्हें चीन का दलाल कह कर जेल में बंद कर दिया गया। पांच साल बाद इन्हीं ज्योति बसु को पीकिंग रेडियो साम्राज्यवाद का पिट्ठु बता रहा था। चीन से लड़ाई बंद हो गयी फिर भी ज्योति बसु और एक साल तक जेल में ही बंद रहे।

1970 में राज्य में दूसरी संयुक्तमोर्चा सरकार के काल में श्रमजीवियों के बढ़ते हुए आंदोलनों से बौखला कर मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार को बर्बर बता रहे थे। इसी दौरान कई प्रशासकीय नीतिगत प्रश्नों पर अजय मुखर्जी और ज्योति बसु के बीच हुए ऐतिहासिक महत्व के पत्राचार में ज्योति बसु ने साफ लिखा, 'मुख्यमंत्री अपनी मनमर्जी से किसी भी मामले को जनहित का मामला नहीं बता सकते और इसप्रकार खुद सरकार की सारी शक्तियों का अधिकारी होने का दावा नहीं कर सकते।'


16 मार्च 1970 के दिन अजय मुखर्जी ने इस्तीफा दिया और 31 मार्च को पटना रेलवे स्टेशन पर ज्योति बसु पर गोली चली। वे बाल-बाल बच गये।

इसीतरह स्मरणीय है बारानगर किलिंग (11-14 अगस्त 1971) के दिन। कोलकाता के इस ‘मुक्तांचल’ में जमे हुए कांगसाल, अर्थात कांग्रेस समर्थित नक्सल, जो  माकपा के कार्यकर्ताओं की हत्या करते थे, वे ही केंद्र में बिना किसी विभाग के मंत्री सिद्धार्थशंकर राय द्वारा जन-हत्या की साजिश के शिकार बनाये गये। ज्योति बसु ने इस जघन्य हत्याकांड को चुनौती देते हुए कहा, ‘दिस कैननाट गो अनचैलेंज्ड’। यहीं से पश्चिम बंगाल में अर्द्ध-फासिस्ट शासन का दौर शुरू होगया था। बंदूक की नोक पर लूट लिये गये 1972 के चुनाव में मतदान के दिन दोपहर के बारह बजे ही ज्योति बसु ने चुनाव को प्रहसन घोषित कर उसका वहिष्कार कर दिया और चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल के लोगों से अपील की कि, पश्चिम बंगाल में सभी वामपंथी और जनतांत्रिक ताकतों, मजदूरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों, महिलाआेंं आदि के जन-संगठनों को सरकार और गुंडों के हमलों को रोकने के लिये साहस और दृढ़ता के साथ एक ऐसी एकता कायम करनी होगी, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह एक कठिन कार्य है लेकिन आम जनता को ही जन-प्रतिरोध के रास्तों को खोज लेना होगा।...
आज हमें जितना भी कष्ट, जितनी भी यातनाएं क्यों न सहनी पड़ें, सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास के आधार पर ही इस कर्तव्य के निर्वाह के लिये हम आगे बढ़ते रहेंगे।

इन संघर्षों के शीर्ष पर 1977 में पहली वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के पहले दिन ही राइटर्स बिल्डिंग के सामने मुख्यमंत्री ज्योति बसु की पहली घोषणा थी, यह सरकार सिर्फ राइटर्स बिल्डिंग से नहीं चलेगी, आम लोगों और उनके जनसंगठनों के साथ नजदीकी संपर्क बना कर चलेगी ताकि प्रभावशाली ढंग से उनकी सेवा की जा सके।

पश्चिम बंगाल में जनतंत्र को पटरी पर लाया गया, पंचायती राज, स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ। सच्चे भूमि सुधार, आपरेशन वर्गा और पंचायतों के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में शक्तियों का संतुलन ही बदल दिया गया। वाम मोर्चा की मूलभूत प्रतिश्रुतियों में एक यह भी थी कि जन-आंदोलनों के दमन के लिये कभी भी पुलिस का प्रयोग नहीं किया जायेगा। जिस केंद्र-राज्य संबंधों के सवाल को ज्योति बसु ने 1958 में विधान सभा में उठाया था, वह 80 के दशक में पूरे देश का एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन गया, जिसके लिये सरकारिया आयोग का गठन किया गया। 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराने वाले आरएसएस और भाजपा को असभ्य और बर्बर कहने से ज्योति बसु कभी चूकते नहीं थे।

एक मुख्यमंत्री की उपलब्धियों, सफलता के साथ साझा सरकारें चलाने के लंबे अनुभवों और सर्वोपरि जनतंत्र तथा संविधान की रक्षा के लिये संघर्षरत देश के एक भविष्यद्रष्टा राजनेता के रूप में ज्योति बसु की इन तमाम भूमिकाओं ने ही 1996 में उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिये सभी गैर-भाजपा दलों का सर्वसम्मत पात्र बना दिया। माकपा की केंद्रीय कमेटी ने जब इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो  पार्टी के अनुशासन के हमेशा कायल रहने वाले ज्योति बसु ने इसे खुले आम, और बार-बार एक 'ऐतिहासिक भूल' कह कर कम्युनिस्ट पार्टी की सांगठनिक कार्य-पद्धति के बारे में कुछ ऐसे सवाल छोड़ें, जिनके सही समाधान की जरूरत से आज भी इंकार नहीं किया जा सकता।


अचरज की हद तक स्पष्टतावादी ज्योति बसु का व्यक्तित्व लोगों के लिये हमेशा एक चुनौती रहा है। घुमावदार बातें उन्हें नहीं आती थी - न सामान्य व्यवहार में, न लाखों लोगों को संबोधन में। उनके कुछ दृढ़ विश्वास और निष्ठाएं थी और सर्वोपरि नि:स्वार्थ हृदय की सरल सचाई थी - जिनसे वे कभी कोई समझौता नहीं करते थे। जनता के हितों के अलावा कम्युनिस्टों का अपना कोई हित नहीं है; मार्क्सवाद कोई लकीरपंथ नहीं, व्यवहारिक पथ-प्रदर्शन का विज्ञान है; आम लोग ही संघर्षों के जरिये इतिहास की रचना करते हैं; जनता पर पूरा विश्वास रखो और अपने आज के काम को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ पूरा करो - इसप्रकार के कुछ आप्त-वाक्य उनकी मूलभूत आस्था से जुड़े हुए थें और उनके तमाम जन-संबोधनों में लगभग किसी टेक का रूप ले चुके थे। इसीलिये निजी स्वार्थों और कुटिलताओं से भरी राजनीति की दुनिया में वे सचमुच अकेले और अनूठे थे; भारत की राजनीति के सामान्य प्रेक्षकों के लिये हमेशा की तरह आज भी वे एक चुनौती ही हैं।
ज्योति बसु भारत के वामपंथी आंदोलन का विवेक थे।