रविवार, 25 मई 2014

हर-हर मोदी

अरुण माहेश्वरी

आज (25 मई 2014, रविवार) के ‘जनसत्ता’ में मोदी सरकार के अभिनंदन में उदयन वाजपेयी का लेख है- ‘शायद कुछ नया हो’। ‘यह तो होना ही था’ के अपने विश्वास की पुनउ‍र्क्ति साथ लिखा गया लेख।

यूपीए सरकार का जाना कोई अनहोनी बात नहीं थी। चुनाव प्रचार के बीच से ही सारे राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक पंडित इसे साफ देख पा रहे थे। आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्र में उस सरकार की स्पष्ट विफलताएं, एक के बाद एक धांधलियों का पर्दाफाश और महंगाई की भारी मार - इस सरकार की विदाई के लिये काफी थे।

लेकिन हमारे हिंदी के लेखक उदयन वाजपेयीजी के लिये उनके ‘विश्वास’ के ये नहीं, कुछ और ही कारण थे। इस लेख में उन्होंने जो कारण गिनाये हैं, उन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है - (1) वंशवाद, कांग्रेस पर गांधी-नेहरू परिवार का बोझ, (2) भारत के बौद्धिक विमर्श में भारतीय पारंपरिक विवेक का निषेध, (3) गणतांत्रिक (आंचलिक) राजनीति के विकास में अवरोध, (4) ‘दृश्य अल्पसंख्यक’ और ‘अदृश्य बहुसंख्यक’ की विडंबना, (5) हिंदू समुदायों की जातिवाद के नाम पर जारी बदनामी, (6) भारतीय ज्ञान का विदेशों में पलायन, और सर्वोपरि, (7) भारत पर सोवियत समाजवादी प्रभाव, सोवियत भूमंडलीकरण।

अब मोदी सरकार के बनने से वे आशान्वित है कि (1) भारत का पश्चिमीकरण रुकेगा, (2) गणतांत्रिक (आंचलिक) राजनीति का विकास होगा, (3) सब समुदाय अब ‘दृश्य’ होंगे, कोई ‘अदृश्य’ नहीं होगा, (4) जातिवाद की बदनामी कम होगी, और इसमें भी सर्वोपरि, (6) राजनीतिक विमर्श पर कम्युनिस्टों का अदृश्य वर्चस्व कमजोर होगा।

उदयन जी के शब्दों में, ‘‘कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है, पर आधुनिक भूमंडलीकरण सोवियत भूमंडलीकरण की तुलना में बेहतर है।’’

वे इस बात पर सबसे अधिक खुश है कि अब संभवत: ‘‘हमारे राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श और दृष्टिकोण में खुलापन’’ आयेगा। मोदी के हाथ में सारी राजनीतिक सत्ता के सिमट जाने पर उन्हें जरा भी आपत्ति नहीं है, क्योंकि उनके शब्दों में, ‘‘कांग्रेस जैसे पुराने राजनीतिक दल की सारी शक्ति नेहरू गांधी परिवार के दो सबसे अयोग्य सदस्यों के चारो ओर सिमट गई थी।’’

और अंत में, वे आह्लादित है कि इस परिवर्तन से हिंदी का भाग्योदय होगा।

क्या कहा जाए, वाजपेयी जी के इस आकलन को।

जो सोवियत संघ अस्तित्व में ही नहीं है, उसका ‘भूमंडलीकरण’ इस चुनाव के परिणाम का एक बड़ा कारण है !

वंशवाद ! कोई पूछे कि क्या हिटलर और उसका नाजीवाद जो आधुनिक समय में पूरी मानवता के अस्तित्व मात्र के लिये खतरा बन गया था, किसी वंशवाद की उपज था ? मान लेते हैं कि मोदी और संघ परिवार के प्रति अपनी अनुरक्ति के कारण उदयन जी को हिटलर और उसके नाजीवाद से उतना परहेज न हो, लेकिन जिस सोवियत संघ को वे घोषित तौर पर मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं, वह भी तो किसी वंशवाद की देन नहीं था। फिर वंशवाद और मोदीवाद में एक बुरा और  दूसरा अच्छा कैसे होगया ?

‘गणतांत्रिक’ अर्थात आंचलिक राजनीति का विकास - संघ परिवार शायद अब संत बन अपने राजनीतिक विस्तार की तमाम महत्वाकांक्षाओं को त्याग देगा !

और भूमंडलीकरण ! उनके शब्दों में, ‘‘वैसे तो कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है।’’ वे कभी सोचते हैं कि ‘भूमंडलीकरण’ का सार-तत्व है मानव मात्र की ‘प्राणी सत्ता’। क्या इससे वे इंकार कर सकते हैं ? भूमंडलीकरण का बहुलांश मानव की इस प्राणीसत्ता से जुड़ा हुआ है। ‘खुला खेल फरूखावादी’ के समर्थक जो उदयन  वाजपेयी इस बात से सबसे अधिक खुश है कि अब बहुसंख्यक भी अदृश्य नहीं रहेंगे, वे मानव की इस सबसे ‘दृश्य प्राणीसत्ता’ के विरुद्ध क्यों है ? सिर्फ इसलिये कि कम्युनिस्टों ने दुनिया के मेहनतकशों को एक करने का नारा दिया था !

और बौद्धिक विमर्श की शुद्ध भारतीय परंपरा, ज्ञान को ‘समंदर पार न जाने देने का भारतीय विवेक’ - वे कौन से कबीलाई युग में जी रहे हैं ? ज्ञान पर इजारेदारी की ‘ब्राह्मण परंपरा’ के प्रति क्यों इतना व्यामोह !

उदयन जी को पता नहीं है कि यदि सकारात्मक नजरिये से सोचा जाए तो मोदी युग भारत में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का वह युग होगा, जब पश्चिमीकरण की आंधी बहेगी, विदेशी पूंजी का बोलबाला होगा। यही है विकास का उनका गुजरात मॉडल। और, अगर यह नकारात्मक दिशा में जाता है, ‘खुला खेल फरूखावादी’ की दिशा में, उदयन जी की शब्दावली में सब समुदायों को दृश्य कर देने की दिशा में, समुदायों के बीच नग्न टकराहटों के रास्ते में तो भारत का भविष्य तालिबानियों के प्रभाव के अफगानिस्तान जैसा होगा। उदयन जी अपने लेख में कुछ इसी प्रकार की सिफारिश कर रहे जान पड़ते हैं।

पता नहीं, आधुनिकतावाद के कौन से रिसते घाव की मवाद है यह सब ! हर हर मोदी !

शनिवार, 17 मई 2014

संभव, असंभव और भाजपा

अरुण माहेश्वरी

नरेन्द्र मोदी अभी लगातार विकास की, आशा की, सकारात्मकता और अच्छे दिनों की बात कर रहे हैं। पूरे जोशो-खरोश के साथ तोड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कर रहे हैं।

भारत को विकास की जरूरत है, उसमें इसे प्राप्त करने की शक्ति भी है। वह हर लिहाज से विकास के योग्य है।

भारत आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बड़ी अर्थ-व्यवस्था - अर्थात तमाम मदों पर ज्यादा से ज्यादा खर्च और निवेश में समर्थ अर्थ-व्यवस्था। । मनमोहन सिंह सरकार के दस साल सबसे तेज विकास दर के दस साल रहे हैं। रिजर्व बैंक की भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में आंकड़ों की हैंडबुक देख लीजिये। स्थिर कीमतों के आधार पर ही देखे तो जो सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) 1951-52 में 286147 करोड़ रुपये का था, वह 1989-90 में 1206243 करोड़ हुआ और 2012-13 में उससे लगभग साढ़े चार गुना बढ़के 5505437 करोड़ रुपये होगया। पूंजी का निर्माण(कैपिटल फॉरमेशन) 1951-52 में जहां 45402 करोड़ था, वह 1989-90 में 319689 करोड़ तक पहुंचा और 2011-12 में लगभग सात गुना बढ़ कर 2131840 करोड़ रुपये होगया। 1951-52 के बाद हमने यहां मध्य में 1989-90 के आंकड़े लिये हैं, जिसके बाद से ही मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति का दौर-दौरां शुरू हुआ था। अंत में पिछले साल तक के आंकड़ों का उल्लेख किया गया है।

इसप्रकार, समग्र रूप में, आर्थिक आंकड़ों के झरोखे से देखे तो मनमोहन सिंह का काल भारत के इतिहास का सबसे अधिक जगमगाता काल नजर आयेगा।

इसके बावजूद, मनमोहन सिंह का काल ही सबसे अधिक निकम्मेपन और निराशा के रूप में गण्य हो रहा है ! ऊपर से, भ्रष्टाचार के तमाम रेकर्ड तोड़ने वाला काल भी।

क्या जवाब है इस गुत्थी का? इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था लेकिन फिर भी शहरों, गांवों, ढांचागत सुविधाओं में वह चमक नहीं, जो हमारी आंखें चीन सहित विकसित विश्व में देखने की अभ्यस्त है - भले प्रत्यक्ष अनुभव से या वर्चुअल दुनिया के पर्दे से।

मोदी या कोई भी यदि यह समझता है कि लगातार बढ़ रही इतनी बड़ी अर्थ-व्यवस्था के रहते भारत को गंदगी मुक्त रखना संभव है, शहरों को चमकाना मुमकिन है, न्यूनतम नागरिक सुविधाएं मुहैय्या करना, संचार का और भी आधुनिकीकरण संभव है, तो यह पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं है। पिछले सालों में लाखों करोड़ रुपये जिस प्रकार से एक जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना के तहत तमाम राज्य सरकारों में बांटे गये उसके अनुपात को देखते हुए यह सब सोचना कत्तई आधारहीन नहीं है। दिल्ली जैसे शहर का जो कायाकल्प हुआ है, वह भी हर जगह चमकते जीवन के इस सपने को सार्थक करने की आशा जगाने के लिये काफी है। नरेन्द्र मोदी ने इसी सपने को दिल्ली नहीं, गुजरात के नाम पर इस चुनाव में बड़ी चतुराई से बेचा भी है। आगे के लिये भी वे अभी एक इसी बात पर बल दे रहे हैं।

गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये भी अरबों रुपये फूंक दिये गये और आज भी मोदी सहित सारे राजनीतिक दल गंगा को शुद्ध करने की कसमें खा रहे हैं।

प्रश्न है कि अब तक यह सब क्यों नहीं हासिल किया जा सका ?

इसका एक सबसे बड़ा जवाब है - भ्रष्टाचार। केंद्र और राज्य सरकारों का भयंकर वित्तीय कदाचार, और निकम्मी नौकरशाही, लाल-फीताशाही।

हमारा सवाल है कि क्या मोदी सरकार एक भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार होगी ?

एनडीए का अनुभव हम सबके सामने है। उस सरकार में भ्रष्टाचार इतने चरम पर चला गया था कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मात्र दो लाख की घूस लेते हुए कैमरे पर पकड़ लिये गये। आरएसएस के भी कई जाने-माने नेता पेट्रोल पंप घोटाले से लेकर न जाने कितने प्रकार के घोटालों में शामिल पाये गये थे। जिन टेलिकॉम, कोयला घोटालों की इधर इतनी चर्चा हो रही थी, उन सबका गोमुख वे नीतियां ही है जो एनडीए के शासन में अपनायी गयी थी।

तो क्या अब वही भाजपा गंगा स्नान करके पूरी तरह से पवित्र हो चुकी है ?

यह एक सौ टके का सवाल है क्योंकि इसीके उत्तर में मोदी के द्वारा दिखाये जा रहे सपनों का सच्चा अथवा झूठा साबित होना निर्भर करता है।

हमारी यह धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी इस पैमाने पर किसी भी अर्थ में कांग्रेस से भिन्न पार्टी नहीं है। उसके नेतृत्व की सरकारों के सभी राज्यों में उतना ही भ्रष्टाचार और कुशासन है, जितना किसी भी कांग्रेस शासित राज्य में है या रहा है।

तब मोदी से कौन सी नयी आशा की जा सकती है ?

आर्थिक नीतियों के मामले में वह मनमोहन सिंह के रास्ते से टस से मस नहीं हो सकती। इस नीति ने निश्चित तौर पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को ‘90 के दशक के पहले के गतिरोध से निकाला है। इस मामले में अभी तक वह प्रभावी है।

और भ्रष्टाचार ! इससे मुक्ति भारतीय जनता पार्टी के लिये वैसे ही नामुमकिन है, जैसे कांग्रेस के लिये रही है। इस पार्टी में भी ऐसे लोगों की ही भरमार है जो आर्थिक अपराधों को अपराध नहीं माना करते।

इसपर अतिरिक्त है, आरएसएस के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का बोझ। अब पहली बार आरएसएस वास्तव में भारत की राजसत्ता पर पहुंचा है। भारतीय समाज के बारे में उसका अपना एक अलग कार्यक्रम है जिसे वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर चलाता है। वह है - हिंदुत्व का कार्यक्रम, हिंदू राष्ट्र के निर्माण का कार्यक्रम। यह भारत के वर्तमान धर्म-निरपेक्ष संविधान को बदल कर उसकी जगह धर्म-आधारित राज्य के निर्माण का कार्यक्रम है। यह सन् 2002 के गुजरात वाला कार्यक्रम है। आज मोदी भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की कितनी भी बातें क्यों न कहें, आरएसएस का प्रचारक होने के नाते वे भी आरएसएस के इस कार्यक्रम से प्रतिबद्ध है।

नव-उदारवाद के आर्थिक कार्यक्रम को छोड़ कर मोदी यदि आरएसएस के कार्यक्रम पर अमल की दिशा में बढ़ते हैं, तो ऊपर हमने आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में जो तमाम बातें कही है, उनके बिल्कुल विपरीत दिशा में परिस्थितियों के मुड़ जाने में थोड़ा भी समय नहीं लगेगा। वह भारतीय समाज को फिर से कबिलाई समाज की ओर लेजाने का रास्ता होगा। उसकी अंतिम परिणति कुछ वैसी ही होगी, जैसी हिटलर और मुसोलिनी ने जर्मनी और इटली की कर दी थी।

इन्हीं तमाम कारणों से नरेन्द्र मोदी के अभी के जोशीले भाषण लफ्फाजी ज्यादा प्रतीत होते हैं। भाषणों से एक बार के लिये छटा बिखेर कर श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध किया जा सकता है, लेकिन वही श्रोता जब अपने जीवन के ठोस पीड़ादायी अनुभवों से तंद्रा से जागेगा तो अपने को बुरी तरह ठगा गया पायेगा। यही मोहभंग फिर एक और परिवर्तन की मुहिम शुरू करेगा। भारत के संघर्षशील राजनीतिक दलों को इस नयी मुहिम के लिये अभी से कमर कस कर तैयार होना चाहिए। इसी से असली तीसरा रास्ता तैयार होगा।


भाजपा की अभूतपूर्व जीत : एक नये युग का सूत्रपात

अरुण माहेश्वरी

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की भारी लेकिन एक प्रकार से प्रत्याशित जीत ही हुई है। चुनाव प्रचार के दौरान ही इसके सारे संकेत मिलने लगे थे। फिर भी हमारे इधर के कई मंतव्यों से यह साफ है कि हम सामने दिखाई दे रहे इस सच को संभवत: समझ या स्वीकार नहीं पा रहे थे। 
यद्यपि हमने ही अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि भारत का आर्थिक एकीकरण पहले के किसी भी समय से कहीं ज्यादा मजबूत हुआ है और इसके चलते सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिला है। इसी के आधार पर हमने इस चुनाव में जाति, धर्म के पूर्वाग्रहों से मुक्त नौजवान मतदाताओं पर भरोसा करते हुए आम आदमी पार्टी के भारी उभार की उम्मीद की थी। उसी सिलसिले में हमने वामपंथियों सहित देश की दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों के नवीनीकरण की मांग भी उठाई थी। लिखा कि ‘‘आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के नवीकरण मात्र की नहीं, एक प्रकार के आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। दुनिया इतनी तेजी से और इतनी ज्यादा बदल चुकी है कि अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाये रखने और परिस्थितियों की संभावनाओं का अधिकतम उपयोग करने के लिये राजनीतिक दलों को बदलना ही होगा।’’
इसीमें हमने यह भी कहा था कि ‘‘वामपंथी पार्टियां, जो निश्चित कार्यक्रमों द्वारा संचालित होती है, कार्यक्रमों को तो अद्यतन करती है, लेकिन संगठन को तदनुरूप अद्यतन बनाना उनके लिये सबसे टेढ़ी खीर है। 
‘‘कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों के सामने कार्यक्रम वाली बाधा नहीं है, ये कमोबेस यथास्थितिवाद की पार्टियां हैं। लेकिन इनके लिये भी संगठन संबंधी समस्याएं वैसी ही है।’’
यह अवलोकन दिल्ली के चुनाव और उसमें आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित सफलता के संदर्भ में था। 
उल्लेखनीय है कि उस समय तक नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा चुका था और उन्होंने अपने प्रचार का काम शुरू भी कर दिया था। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली थी। इसके बावजूद, दिल्ली के परिणामों और ‘आप’ की तरह की एक नयी पार्टी के सामने आने के चलते उस समय हम भाजपा के स्वरूप और उसके संचालन में आरहे परिवर्तन की थाह पाने में विफल रहे थे। 
बाद के समय में, ज्यों-ज्यों नरेन्द्र मोदी का प्रचार आगे बढ़ा, देश के कोने-कोने से मोदी की गूंज सुनाई देने के बावजूद हम उस आवाज को स्वीकारने के लिये तैयार नहीं थे। कांग्रेस की पराजय तो साफ दिखाई दे रही थी, लेकिन भारतीय यथार्थ के बारे में अपने ही पूर्व आकलन के विपरीत हम स्वयं जाति-धर्म-क्षेत्र मं् बंटे भारतीय जन-मानस के पूर्वाग्रह से बाहर नहीं निकल सके। यह यकीन करने के लिये तैयार ही नहीं थे कि एक खास धर्म और उसकी ऊंची जातियों के साथ जिस संघ परिवार की पहचान जुड़ी रही है, उसका कोई नेता कभी भी इस सीमा का अतिक्रमण करके सभी जाति और क्षेत्र के लोगों की स्वीकृति हासिल कर पायेगा। इसीलिये चुनाव को गणितीय पैमाने पर परखते हुए ऐसा लग रहा था कि एक सांप्रदायिक समझी जाने वाली पार्टी को चुनने के बजाय निराश लोग फिर एक बार, सामयिक तौर पर ही क्यों न हो, अपनी जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं के खोल में घुस जायेंगे। कांग्रेस के विकल्प के तौर पर तथाकथित तीसरी ताकतों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करेंगे। 
हम मोदी के प्रचार के प्रभाव को देख पा रहे थे। पार्टी को दरकिनार करके अकेले खुद को एकछत्र नेता घोषित कर, ‘मोदी सरकार’ के नारे के पीछे से जाहिर होरहे सर्वाधिकारवाद को भी देख रहे थे। मोदी के इस प्रकट सर्वाधिकारवादी रवैये के प्रति जनता के उन्मादपूर्ण समर्थन से हम चिंतित भी थे और सोच रहे थे कि क्या आज के नव-उदारवादी दौर का ऐसी किसी प्रकट तानाशाही से कोई संबंध हो सकता है? इसी प्रश्न के साथ हमने चंद रोज पहले ही चीन के बारे में अपने एक अवलोकन में देखा था कि कैसे चीन की सर्वाधिकारवादी सरकार नव-उदारवाद के अपने एजेंडे पर चलते हुए प्रशासन की प्रणाली के मामले में सारी दुनिया की संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को प्रश्नों के घेरे में खड़ी कर दे रही है। 
‘‘चीन एक ऐसी शासन प्रणाली का उदाहरण बना हुआ है जो जनता की कम से कम भागीदारी पर टिकी हुई पूरी शक्ति के साथ निर्णयों पर अमल करने वाली प्रणाली है और जिसमें जनता के प्रतिवाद और आक्रोश को काबू में रखने की भरपूर सामथ्र्य है। शायद इसीलिये कॉरपोरेट जगत इसको लेकर उत्साही है - वित्तीय पूंजी के साम्राज्य के निर्माण की एक सबसे अनुकूल प्रणाली। वह दुनिया के संसदीय जनतंत्रवादियों को इससे सीखने, इसे अपनाने पर बल दे रहा है।’’
भारत में चुनाव प्रचार के दौरान चीन की शासन प्रणाली के बारे में हमारा यह आग्रह अनायास नहीं था। इसका सीधा संबंध भारत में मोदी और उनके प्रचार को मिल रहे व्यापक समर्थन को समझने की कोशिश से जुड़ा हुआ था। 
इन सबके बावजूद हम इस सच को देखने से पूरी तरह से चूक गये कि मोदी-मोदी की पुकार की गूंज-अनुगूंज के पीछे दूसरे किसी भी समय की तुलना में कहीं अधिक एकीकृत भारत का सच, कॉरपोरेट की कामनाओं के साथ ही जनता की विकास की इच्छाओं के सच की भी अभिव्यक्ति हो रही है। बीच-बीच में भाजपा के कुछ नेताओं की उत्तेजक, विष-बुझी बातों और खुद नरेन्द्र मोदी की भी कतिपय टिप्पणियों से हमारे उस पूर्वाग्रह की पुष्टि होती थी कि अन्तत: मोदी का पूरा जोर सांप्रदायिक और जातिवादी विभाजन पर जाकर टिक जायेगा और अपेक्षाकृत एकीकृत भारत के सच के बजाय इस चुनाव का निर्णायक तत्व वहीं पुराना, अस्मिताओं की राजनीति वाला तत्व ही रह जायेगा। इसी आधार पर, चुनावी गणित के जोड़-तोड़ से अंत तक हम इसी भ्रम में रहे कि एनडीए स्पष्ट बहुमत से काफी दूर रहेगा। मीडिया के बिकाऊ चरित्र के बारे में अपनी समझ के चलते उसके जनमत सर्वेक्षणों और मतदानोत्तर सर्वेक्षणों की भविष्यवाणियों को भी हमने भरोसे के लायक नहीं माना। 
और इसप्रकार, बहुत सारी चीजों को देखते हुए भी हम अनदेखा करते रहे। परिणामत:, इस चुनाव के बारे में हमारे तमाम विश्लेषण वास्तविकता से कोसों दूर होगये। 
बहरहाल, अब भाजपा को संसद में अकेले पूर्ण बहुमत और एनडीए को तीन सौ छत्तीस सीटें मिलना निस्संदेह एक ऐतिहासिक घटना है। इसे कुछ मायनों में भारतीय राजनीति के एक नये युग का प्रारंभ भी कहा जा सकता है। मनमोहन सिंह ने नव-उदारवादी नीतियों के तहत भारत के आधुनिकीकरण का एक पूरा ब्लूप्रिंट तैयार किया था और अपनी शक्ति भर वे उसपर अमल भी कर रहे थे। लेकिन यह काम टुकड़ों-टुकड़ों में हो रहा था। खुद भाजपा और दूसरी कई पार्टियों के रुख के चलते उसे लगातार संसदीय अवरोधों का सामना करना पड़ता था। फलत:, सरकार में एक प्रकार की प्रकट नीतिगत पंगुता दिखाई देने लगी थी। 
अब, संसद के पूरी तरह से बदल चुके गणित में उस ब्लूप्रिंट पर ही बिना किसी बाधा के पूरी ताकत के साथ अमल करना संभव होगा। यही मोदी का गुजरात मॉडल भी है। इसका असर अभी से दिखाई देने लगा है। सेंसेक्स अभूतपूर्व गति से बढ़ रहा है, रुपये की कीमत भी बढ़ रही है। विदेशी निवेशक स्पष्ट तौर पर भारत में अब राजनीतिक-आर्थिक स्थिरता देखेंगे और इसीलिये भारत को निवेश की दृष्टि से एक पसंदीदा गंतव्य के तौर पर माना जायेगा। निवेश बढ़ेगा तो आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ेगी, शहरों की चमक बढ़ेगी, थोक-खुदरा सब प्रकार के व्यापार में विदेशी पूंजी के निवेश का मार्ग प्रशस्त होगा और बाजारों का रूप बदलेगा। चीन में लगातार तीन दशकों के सुधारवाद के बाद अब क्रमश: जिसप्रकार उत्पादन खर्च में कमी का लाभ सिकुड़ता जा रहा है, ऐसी स्थिति में पश्चिमी निवेशकों को भारत विनिर्माण के क्षेत्र में भी एक नये और सस्ते विकल्प के रूप में उपलब्ध होगा। भूमि कानून में संशोधनों के जरिये भूमि के विकास के रास्ते की बाधाएं कम होगी, शहरीकरण की प्रक्रिया को सीधे बल मिलेगा। 
संसद में भाजपा के पूर्ण बहुमत के कारण एक सकारात्मक संभावना यह भी है कि एक बार के लिये प्रत्यक्ष राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, जिसने पिछले दिनों इतना विकराल रूप ले लिया था कि नेता का अर्थ ही अनैतिक और भ्रष्ट व्यक्ति माना जाने लगा था। 
कहने का तात्पर्य यह है कि अब नव-उदारवादी नीतियों के पूरी तरह से खुल कर खेलने का नया दौर शुरू होगा। इसमें आम जनता को खैरात के तौर पर दी जाने वाली तमाम राहतों में कटौती होगी। सरकार नहीं, हर किसी को खुद अपनी सुध लेनी होगी। बलशाली का अस्तित्व रहेगा और निर्बल रहेगा भाग्य-भरोसे। 
यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्टों में नव-उदारतावाद की नीतियों के तहत होने वाले इस चकदक विकास को ‘रोजगार-विहीन, वाणी विहीन, जड़-विहीन, निष्ठुर विकास’ (jobless, voiceless, rootless, ruthless) बताया जाता है। यह आज के अत्याधुनिक तकनीकी युग की बीमारी का परिणाम है। न्यूनतम श्रम-शक्ति के प्रयोग से अधिकतम उत्पादन की संभावनाओं का सामाजिक परिणाम। एक शक्तिशाली राजसत्ता की दमन की बेइंतहा ताकत का परिणाम। विदेशी निवेशकों द्वारा आरोपित नीतियों का परिणाम। पूंजी के हितों से जुड़ी मानवीय संवेदनशून्यता का परिणाम। 
यह भावी तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू, आरएसएस से जुड़ा हुआ पहलू है। अब पहली बार आरएसएस वास्तव में भारत की राजसत्ता पर पहुंचा है। भारतीय समाज के बारे में उसका अपना एक अलग कार्यक्रम है जिसे वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर चलाता है। हिंदुत्व का कार्यक्रम, हिंदू राष्ट्र के निर्माण का कार्यक्रम। यह भारत के वर्तमान धर्म-निरपेक्ष संविधान को बदल कर उसकी जगह धर्म-आधारित राज्य के निर्माण का कार्यक्रम है। यह सन् 2002 के गुजरात वाला कार्यक्रम है। आज मोदी भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की कितनी भी बातें क्यों न कहें, आरएसएस का प्रचारक होने के नाते वे भी आरएसएस के इस कार्यक्रम से प्रतिबद्ध है। 
नव-उदारवाद के आर्थिक कार्यक्रम को छोड़ कर मोदी यदि आरएसएस के कार्यक्रम पर अमल की दिशा मंष बढ़ते हैं, तो ऊपर हमने आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में जो तमाम बातें कही है, उनके बिल्कुल विपरीत दिशा में परिस्थितियों के मुड़ जाने में थोड़ा भी समय नहीं लगेगा। वह भारतीय समाज को फिर से कबिलाई समाज की ओर लेजाने का रास्ता होगा। उसकी अंतिम परिणति कुछ वैसी ही होगी, जैसी हिटलर और मुसोलिनी ने जर्मनी और इटली की कर दी थी। हाल के लिये, हम यह उम्मीद करते हैं कि मोदी सरकार इस आत्मघाती पथ की दिशा में कदम नहीं बढ़ायेगी। 

इसीलिये हम इन चुनाव परिणामों को भारत के आधुनिकीकरण की दिशा में एक स्पष्ट और दृढ़ दक्षिणपंथी मोड़ के रूप में देख पा रहे हैं। आने वाले भारत में यही वे नयी परिस्थितियां होगी, जिसके अन्तर्विरोधों पर आगे की राजनीति की सीमाएं और संभावनाएं तय होगी। 

इस चुनाव ने भारतीय वामपंथ की लगभग जीवाश्म सी स्थिति को बेपर्द कर दिया है। पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों तक लगातार एकछत्र शासन करने वाली सीपीआई (एम) को यहां सिर्फ दो सीटें मिल पायी है। पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव के समय ही सीपीआई(एम) की आंतरिक दुर्दशा के, उसके राजनीतिक खोखलेपन के सारे प्रमाण सामने आगये थे। इधर के सालों में ज्योति बसु प्रसंग और परमाणविक संधि के विषयों पर उसकी नीतियों के बचकानेपन के राजनीतिक परिणाम साफ दिखाई दे रहे थे। इसके बावजूद सीपीआई (एम) अपने को सुधारने और समयोपयोगी बनाने में कितनी असमर्थ है, वह अब पूरी तरह से सामने आ चुका है। अब भी यदि भारतीय वामपंथ पहले की तरह ही अपने खोल में बंद रह कर कोई सार्थक भूमिका अदा करने का सपना देखता रहेगा तो यह भारत के मेहनतकशों के हितों की रक्षा की लड़ाई की दृष्टि से बहुत ही दुर्भाग्यजनक होगा। 












गुरुवार, 15 मई 2014

यह चुनाव सांप्रदायिकता वनाम धर्म-निरपेक्षता का, सामाजिक न्याय का चुनाव है



फिर एक बार यूपीए - १ के प्रयोग को थोड़े से फेर-बदल के साथ दोहराने का समय आने वाला है ।

इस बार के चुनाव परिणाम पर थोड़ा स्थिर होकर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत होगी । यह सच है कि चुनाव के पहले देश भर में एक कांग्रेस-विरोधी हवा चल रही थी । उसका प्रचार के प्ररंभिक दौर में विपक्ष की प्रमुख पार्टी भाजपा को लाभ मिलना तय था । लेकिन भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर २००२ के गुजरात के खलनायक नरेंद्र मोदी को सामने लाकर इस पूरे दृष्यपट में एक गुणात्मक परिवर्तन का बीजारोपण किया । देखते-देखते एनडीए और भाजपा का कायांतर होगया और वह सब एक व्यक्ति की, मोदी की पार्टी के रूप में बदल गया ।

और तो और, जिस एनडीए ने अपने प्रचार की शुरूआत भ्रष्टाचार-विरोधी, विकास-केंद्रित विपक्ष के गठबंधन के रूप में की थी, वह मतदान के वक़्त तक आते-आते सांप्रदायिक और जातिवादी विद्वेष की मोदी पार्टी में बदल गया ।

इस लंबे प्रचार अभियान में मोदी और उनकी पार्टी का पूरा रवैया ऐसा रहा, जिससे वह विपक्ष की पार्टी प्रतीत ही नहीं होती थी। मोदी पार्टी ने धन की ताक़त का सबसे अधिक अश्लील प्रदर्शन किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस क़दर ख़ामोश हो गये जैसे देश का कोई प्रधानमंत्री ही न हो , और उनके इस रिक्त स्थान को नरेन्द्र मोदी और उनके जयगान में जुटे दरबारियों ने सिर्फ़ अपने शोर के बल पर चुनाव के पहले ही जैसे हथिया लिया ।

इस प्रकार, कांग्रेस -विरोधी माहौल से शुरू हुआ चुनाव कब और कैसे साम्प्रदायिकता वनाम धर्म-निरपेक्षता के चुनाव में, कब सामाजिक न्याय की एक और लड़ाई में बदल गया, किसी को पता भी नहीं चला ।

हमारे अनुसार, कल आने वाले चुनाव परिणामों को राजनीतिक परिस्थिति की इसी पृष्ठभूमि में देखने-समझने की कोशिश करनी होगी । मोदी पार्टी इस चुनाव में यदि स्पष्ट बहुमत लाने में विफल रहती है तो उसे मोदी पार्टी के ख़िलाफ़ जनता की राय मानना होगा और सभी राजनीतिक दलों को जनता की इस राय का सम्मान करते हुए अपना मत स्थिर करना होगा ।

बुधवार, 14 मई 2014

मोदी को नये सहयोगी नहीं मिलेंगे

   

टीवी चैनलों पर चलाई जारही खबरों से पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी ने एनडीए के बाहर के सहयोगियों की तलाश के लिये अपने दूतों को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया है। संकेतों से कभी बताया जाता है कि एनसीपी से मोदी के दूतों का संपर्क बना है, तो कभी बीजेडी के बारे में तो कभी एआईडीएमके के बारे में हल्के से ऐसे ही इशारे दिये जारहे हैं। एनसीपी ने तो साफ बयान देकर कह दिया है कि वह यूपीए की घटक है, मोदी से उसका कोई वास्ता नहीं है। बीजेडी, एआईडीएमके ने अब तक कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन इसबारे में मोदी के चैनलों की दबी जुबान ही बता देती है कि अभी तक किसी भी कोने से मोदी के लोगों को कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला है।

याद आती है 1996 की बात। भाजपा लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई थी और राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का मौका दिया था। भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन अपने लिये लोकसभा का बहुमत हासिल करने में विफल रही और 13 दिन बाद ही वाजपेयीजी को इस्तीफा दे देना पड़ा। वाजपेयी जी के निजी उदार व्यक्तित्व के बावजूद उनके साथ जुड़े हुए आरएसएस के पुछल्ले के चलते अधिकांश अन्य दलों ने उनसे दूर रहना ही उचित समझा।

इसबार तो स्थिति करेला और वह भी नीम चढ़ा वाली है। नरेन्द्र मोदी और आरएसएस का मेल कुछ वैसा ही है। मोदी अनायास ही किसी के लिये भी हिटलर की यादों को ताजा कर देते हैं। चुनाव अभियान के दौरान जिस लहजे में वे सभी छोटे-बड़े अन्य दलों और उनके नेताओं को घुड़कियां दे रहे थे, उसके बाद कहने के लिये कुछ शेष नहीं रह जाता है।

ऐसे में मोदी के लोगों के लिये ममता, जयललिता, मायावती या नवीन पटनायक किसी से भी किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद तक करना कोरी अनैतिकता और शुद्ध अवसरवाद कहलायेगा। इसके बावजूद मोदी के लोगों ने यदि अन्य राजनीतिक दलों को अपने शीशे में उतारने की कोशिश की तो निश्चित तौर पर वे मूंह के बल गिरेंगे।

एनडीए के घटक दलों को इन चुनावों में यदि स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो मोदी की सरकार का बनना एक सपना ही रहेगा, कभी हकीकत नहीं बन पायेगा। मोदी जी मुस्कुराते हुए अर्णव गोस्वामी को घुड़की के बल कुछ दलों को काबू में कर लेने का जो इशारा कर रहे थे, उसकी व्यर्थता का नजारा हमें जल्द ही देखने को मिलेगा।


रविवार, 11 मई 2014

मोदी का विदाई भाषण


उत्तर प्रदेश, बिहार की ज़मीनी सचाई की रिपोर्ट ज्यों-ज्यों सामने आ रही है, यह साफ़ दिखाई देने लगा है कि 16 मई के बाद भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों की सूची में मनमोहन सिंह के अलावा और एक नाम शामिल होगा -नरेन्द्र मोदी ।

नरेंद्र मोदी का विदाई भाषण होगा - "भाइयों और बहनों, अपने इस आठ महीने के वर्चुअल कार्यकाल में भारत को बाँटने की कोशिश में तो हमने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन भारत के लोग इतने ढीठ है कि वे देश के आगे और बँटवारे के लिये तैयार ही नहीं हुए । इसके अलावा, उन्हें अपनी बदहाली की याद दिलाते हुए जनतंत्र नामक बला से मुक्ति के लिये भी कम नहीं उकसाया, लेकिन वे हैं जो बंदरी की तरह अपनी इस निष्प्राण सी अौलाद को भी छाती से चिपकाये रहे । इसका मलाल हमें हमेशा रहेगा, क्योंकि इन महत कामों के लिये हमने अपनी पार्टी तक का बलिदान कर दिया । अब सिर्फ़ इतना ही कहना है कि पार्टी का यह बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा । उसकी इस वीरतापूर्ण शहादत पर हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।"

गुरुवार, 8 मई 2014

मनुष्य की अक्षय और अपराजित आत्मा के महागायक : रवीन्द्रनाथ



सरला माहेश्वरी




‘‘बड़ा आदमी वह होता है जिसके सम्पर्क में आनेवाले का अपना देवत्व जाग उठता है। रवीन्द्रनाथ ऐसे ही महान पुरुष थे। ... वे उन महापुरुषों में थे जिनकी वाणी किसी विशेष देश या सम्प्रदाय के लिए नहीं होती, बल्कि जो समूची मनुष्यता के उत्कर्ष के लिए सबको मार्ग बताती हुई दीपक की भांति जलती रहती है।‘‘ (हजारी प्रसाद दिद्वेदी)

रवीन्द्रनाथ की 153वीं जयंती हम एक ऐसे काल में मना रहे हैं जब हमारा देश एक अभूतपूर्व दौर से गुजर रही है। सीधे तौर पर फासीवाद का खतरा हमारे सर पर मंडरा रहा है। दूसरी ओर, वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व का खतरा।

लगता है जैसे आदमी ने अपने अथक और अनवरत प्रयासों से जिस सृष्टि की रचना की उसे वह अपने ही हाथों मटियामेट करने पर तुल गया है। लाभ और लोभ की कोख से जन्मी पूंजी और उसपर टिका पूरा तंत्र, एक समग्र पूंजीवादी दर्शन, उसका विकराल पैशाचिक रूप, साम्राज्यवादी वैश्वीकरण आज समूची मानवता को अपने नागपाश में जकड़कर लहूलुहान कर रहा है। जल, जमीन, जंगल और यह पूरा जगत आज उसके जहर से विषाक्त अजीबोगरीब ढंग से विरूपित दिखाई देता है। सभ्यता के ऐसे संकट की काली छाया को उस भविष्य द्रष्टा कवि, चिंतक ने देख लिया था और अपनी मौत से कुछ दिन पहले उनकी आत्मा उनसे सवाल कर रही थी-
‘‘भगवान्, तुमने युग-युग में बार-बार इस दयाहीन संसार में अपने दूत भेजे हैं।
वे कह गये हैं-क्षमा करो,
कह गये हैं- प्रेम करो, अंतर से विद्वेष का विष नष्ट कर दो।
वरणीय हैं वे, स्मरणीय हैं वे,
तो भी आज दुर्दिन के समय उन्हें निरर्थक नमस्कार के साथ बाहर के द्वार से ही लौटा दे रहा हूं।
मैंने देखा है-गोपन हिंसा ने
कपट-रात्रि की छाया में निस्सहाय को चोट पहुंचाई है,
मैंने देखा है-प्रतीकारविहीन जबर्दस्त के अत्याचार से विचार की वाणी
चुपचाप एकांत में रो रही है,
मैंने देखा है-तरुण बालक उन्मत्त होकर दौड़ पड़ा है, बेकार ही पत्थर पर
सिर पटककर मर गया है़;
कैसी घोर यंत्रणा है उसकी!
आज मेरा गला रुंध गया है, मेरी बांसुरी का संगीत खो गया है, अमावस्या
की कारा ने मेरे संसार को दु:स्वप्नों के नीचे लुप्त कर दिया है,
इसीलिए तो आंसू भरी आंखों से तुमसे पूछ रहा हूं-
जो लोग तुम्हारी हवा को विषाक्त बना रहे हैं,
उन्हें क्या तुमने क्षमा कर दिया है?
उन्हें क्या तुमने प्यार किया है?‘‘

रवीन्द्रनाथ क्या ये प्रश्न किसी अदृश्य, अमूर्त शक्ति से कर रहे थे? नहीं, उसे तो उन्होंने निरर्थक नमस्कार के साथ बाहर के द्वार से ही लौटा दिया था। वे यह सवाल उस मनुष्य से कर रहे थे, उसकी मनुष्यता से कर रहे थे जो दिन-प्रतिदिन अपनी प्राण शक्ति खोे रही थी। और इसलिये वे उसकी प्राण शक्ति को, उसके विवेक को ललकार करके कह रहे थे कि तुम इन्हें कैसे माफ कर सकते हो, तुम इन्हें कैसे प्यार कर सकते हो?

रवीन्द्रनाथ का जीवन, उनका पूरा साहित्य, उनका चिंतन इस बात की गवाही देता है कि इस महान मानव ने मनुष्यता में कभी अपना विश्वास नहीं खोया। भारत की सामासिक संस्कृति के जीवंत प्रतीक ठाकुर परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ का परिवार एक ऐसा परिवार था जिसके बारे में खुद कविगुरु ने लिखा था कि उनका परिवार हिंदू सभ्यता, मुस्लिम सभ्यता और ब्रिटिश सभ्यताओं की त्रिवेणी था। दादा द्वारकानाथ अरबी और फारसी भाषा के प्रख्यात विद्वान थे। उन्होंने उस समय समुद्र की यात्राएं की जब समुद्र यात्रा किसी हिंदू के लिये वर्जित थी और उसके लिये कठोर दंड का विधान था। उनकी मृत्यु पर लंदन के ‘द टाइम्स‘ ( 3 अगस्त 1946) ने लिखा- संभवतया भारत में उनकी टक्कर का कोई नहीं है, भले ही वह किसी भी पद या प्रतिष्ठा पर हो, जिसने अपने आस-पास खड़े लोगों की प्रगति और बेहतरी को इतनी उदारता से संरक्षण प्रदान किया हो। और हम यह भी विश्वास कर सकते हैं कि भारत और इंग्लैंड में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपनी वर्तमान सफलता और स्वतंत्रता के लिए द्वारकानाथ ठाकुर के अनुग्रह के प्रति कृतज्ञ न हों।‘‘

रवीन्द्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ इन्हीं द्वारकानाथ ठाकुर के सबसे बड़े पुत्र थे। लोग इन्हें महर्षि के नाम से पुकारते थे। मात्र 18 वर्ष की वय में इस तरुण ने गंगा के किनारे तीन दिनों तक अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रही प्रिय दादी के पास रहते हुए जीवन के एक नये सत्य को खोज लिया था। अब वह एकदम बदल गया था। उन्होंने लिखा - ‘‘मैं ठीक पहले जैसा आदमी नहीं रहा। संपत्ति के प्रति मेरा लगाव उदासीन सा हो गया। वह फटी-पुरानी बांस की चटाई जिस पर मैं बैठा था- मुझे अपने लिये उपयुक्त जान पड़ी। कालीन और कीमती दिखावे मुझे घृणास्पद प्रतीत होने लगे और मेरा मानस उस आनंद से परिपूर्ण हो उठा, जिसका अनुभव मैंने पहले कभी नहीं किया।‘‘ इस प्रकार यह युवक धन की माया से दूर मनुष्य की अंतरआत्मा के गहन संसार में डूब गया। प्राचीन वैदिक साहित्य के साथ ही पाश्चात्य दर्शन का भी अघ्ययन किया।

इसी महर्षि की चौदहवीं कृति संतान के रूप में 7मई 1861 को रवीन्द्रनाथ का जन्म हुआ था। बड़ी बहन ने ‘होनहार बिरवा के चिकने-चिकने पात‘ की झलक बचपन में ही देख ली थी इसीलिये नहलाने के समय प्राय: कहा करती, मेरा रवि भले ही सावंला हो, बहुत गोरा न हो लेकिन वह अपने तेज से सब पर छा जायेगा। रवीन्द्रनाथ ने अपनी बड़ी बहन की इस भविष्यवाणी को पूरी तरह सच साबित करके दिखाया और न सिर्फ अपने देश बल्कि पूरे विश्व को मानवता की उदात्तता का प्रकाश दिखाया। उनकी मृत्यु पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने लिखा - ‘‘रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु में हमने न केवल इस युग के एक महानतम कवि को खोया है बल्कि एक उत्कृष्ट राष्ट्रभक्त जो एक मानवतावादी भी थे, उन्हें खोया है। शायद ही ऐसा कोई सार्वजनिक कार्य हो जिस पर उनके शक्तिशाली व्यक्तित्व ने छाप न छोड़ी हो। शांतिनिकेतन और श्रीनिकेतन के रूप में उन्होंने सारे राष्ट्र के लिए, वस्तुत: विश्व के लिए एक विरासत छोड़ी है।‘‘

आज के इस अंधेरे दौर में रवीन्द्रनाथ की उस महान विरासत को याद करके उन्हीं की तरह हम उस अक्षत, अपराजित विश्वास को हासिल कर सकें और कह सके- ‘‘टुक खड़े तो हो जाओ एक बार सिर उठाकर! जिसके भय से तुम डर रहे हो, वह अन्यायी तुम से कहीं अधिक कमजोर है। तुम जागे नहीं कि वह भाग खड़ा होगा-जैसे ही तुम उसके सामने तनकर खड़े हुए कि वह राह के कुत्ते की भांति संकोच और त्रास से दुबककर रह जायेगा। देवता उससे विमुख है-कोई नहीं है उसका सहायक-वह तो केवल मुंह से ही बड़ी-बड़ी बातें हांका करता है; किंतु मन ही मन अपनी हीनता को खूब पहचानता है! अतएव हे कवि ,उठ आओ! यदि तुम्हारे अंदर केवल प्राण ही बाकी हों, तो उन्हें ही साथ लेते आओ-(वही क्या कम है)-उन्हें न्यौछावर कर दो। बड़ा दुख है...बड़ी व्यथा है-सामने कष्ट का संसार फैला हुआ है। बड़ा ही दरिद्र है-शून्य है-क्षुद्र है...अंधकार में बद्ध है। उसे अन्न चाहिए-प्राण चाहिए-आलोक चाहिए, चाहिए मुक्त वायु, बल, स्वास्थ्य-आनंदोज्जवल परमायु और चाहिए साहस से चौड़ी छाती। इसी दीनता के बीच, हे कवि, एक बार ले तो आओ स्वर्ग से विश्वास की छवि!‘‘

रवीन्द्रनाथ का स्वर्ग कोई काल्पनिक इन्द्रलोक नहीं था। वे ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या में विश्वास नहीं करते थे। वे इस पृथ्वी को ही मनुष्य की सबसे संुदर कृति बनाना चाहते थे। और इसलिये इस पृथ्वी को छोड़कर वैरागी बनकर किसी देवता की शरण में जाकर स्वर्ग को खोजने वालों को कहते हैं, देवता मंदिर में नही है, मनुष्यत्व में है। अपनी एक कहानी में वे कहते है।- ‘‘संसार से वैराग्य लेने वाला एक वैरागी गंभीर रात्रि में बोल उठा : आज मैं इष्टदेव के लिए घर छोड़ दूंगा -कौन मुझे भुलाकर यहां बांधे हुए है? देवता ने कहा :‘मैं‘! उसने नहीं सुना। नींद में डूबे शिशु को छाती से चिपटाकर प्रेयसी शैय्या के एक किनारे सो रही थी। वैरागी ने कहा : ऐ माया की छलना, तू कौन है? देवता बोल उठे : ‘मैं‘! किंतु किसी ने नहीं सुना। शैय्या पर से उठकर वैरागी ने पुकारा : प्रभो! तुम कहां हो? देवता ने उत्तर दिया : ‘यहां‘! तो भी वैरागी ने नहीं सुना। स्वप्न में माता को शिशु खींच कर रो पड़ा - देवता ने कहा : ‘लौट आओ‘। वैरागी को यह वाणी भी नहीं सुनाई दी। अंत में लंबी सांस लेकर देवता ने कहा - ‘हाय, मेरा भक्त मुझे छोड़कर कहां चला!‘ ‘‘ रवीन्द्रनाथ ने कबीर की तरह बार-बार मनुष्य को चेताया कि तुम्हारे देवता देवालयों में नहीं है। उन्होंने इस भले मानुष को समझाते हुए कहा-‘‘अरे ओ भलेमानुष, क्यों तू देवालय का दरवाजा बंद करके उसके कोने में पड़ा हुआ है? अरे, रहने दे अपने इस भजन और पूजन को, ध्यान और आराधना को। अपने मन के अंधेरे में छिपा हुआ तू चुपचाप किसकी पूजा कर रहा है? जरा आंख खोलकर देख तो भला, देवता तेरे घर में नहीं है। वे वहां चले गये हैं, जहां किसान मिी तोड़कर हल जोत रहा है, जहां मजदूर बारह महीने पत्थर काटकर रास्ता तैयार कर रहा है। वे धूप और पानी में सबके साथ हैं। उनके दोनों हाथों में धूल लगी हुई है। भले मानस, तू भी उन्हीं के समान इस पवित्र वस्त्र को फेंककर धूल में उतर जा। रहने दे अपनी घ्यान धारणा, पड़ी रहने दे अपने फूलों की डलिया, फट जाने दे इस शुचि-वस्त्र को, लगने दे इस शरीर में धूल और बालू। ऐसा हो कि उनके साथ कर्मयोग में चूर होकर तेरा पसीना चुए।‘‘

रवीन्द्रनाथ ने जहां कहीं भी मनुष्य और मनुष्यता का अपमान होते हुए देखा फिर चाहे वह सांमती-पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण हो, संकीर्ण उग्रराष्ट्रवाद हो, फासीवाद हो, स्वार्थों की आग से धधकता युद्धोन्माद हो, जातिवाद और धार्मिक करता हो, हर किसी का तीखा विरोध किया। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण और उसको संचालित करने वाली मुक्त बाजार की इस बर्बर व्यवस्था में जब एक बार फिर सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का राग अलापा जा रहा है, उस समय हमें रवीन्द्रनाथ की वाणी याद आती है-‘‘जापान को पश्चिम के बाह्य लक्षणों का अनुकरण करने में खतरा नहीं है, बल्कि पश्चिमी राष्ट्रवाद की प्रेरक शक्ति को अपना बना लेने से है। राजनीति के दबाव के आगे उसके सामाजिक आदर्शों के ह्रास के संकेत अभी से दिखने लगे हैं।  विज्ञान से उधार लिया गया आदर्श वाक्य, ‘योग्यत्तम की उत्तरजीविता‘ मुझे उसके आधुनिक इतिहास पर लिखा हुआ साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। यह एक ऐसा आदर्श वाक्य है जिसका एक अर्थ यह भी होता है कि ‘अपनी सहायता खुद करो और दूसरों की परवाह मत करो‘। यह एक ऐसा आदर्श वाक्य है जो उस अंधे आदमी का आदर्श होता है जो केवल उसी चीज में विश्वास करता है जिसे वह छू रहा होता है क्योंकि बाकी को तो वह देख ही नहीं पाता। लेकिन जो लोग देख सकते हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि मानव एक-दूसरे से एक सूत्र में पिरोया हुआ है और जब आप दूसरों पर चोट करते हैं तो उसका असर आप पर भी होता है। नैतिक नियम जो मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार है, वह इस अद्भुत सत्य पर आधारित है कि मानव उतना ही अधिक सच्चा साबित होता है जितना अधिक वह दूसरों में स्वयं को अनुभूत करता है।‘‘ रवीन्द्रनाथ मनुष्य में ही सत्य को देखते थे। ‘‘सत्य ही मनुष्य का प्रकाश है। इस सत्य के विषय में उपनिषद का कहना है : ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू य पश्यति स पश्यति‘। जिन्होंने जीवन मात्र को अपने समान समझा है, उन्होंने ही सत्य को समझा है।‘‘ इस सत्य की अवहेलना करके ,उसे अपमानित और उपेक्षित करके पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष समझने वालों को धिक्कारते हुए रवीन्द्रनाथ ने कहा था - ‘‘ये तो महास्वार्थ को ही विश्व के सभी देशों का सार्वभौमिक धर्म बनाने पर तुले हुए हैं। हम विज्ञान द्वारा दी गई किसी भी अन्य चीज को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं लेकिन हम उसके द्वारा नैतिकता के अमृत को नष्ट होता स्वीकार नहीं कर सकते।‘‘
लेकिन आज हिंस्र, बर्बर और अराजक हो चुकी आवारा पूंजी मनुष्यता के हर मूल्य को बाजार में बेच रही है। लगभग 200 वर्ष पहले कार्ल माक्‍​र्स ने पूंजी के इस भयावह दानवीय रूप के बारे में कहा था -‘‘यदि लाभ समुचित हो तो, पूंजी बहुत साहसी होती है। 10 प्रतिशत निश्चित लाभ उसकी व्यग्रता सुनिश्चित करेगा और 50 प्रतिशत उसकी अति साहसिकता; 100 प्रतिशत लाभ के लिए यह सभी कानूनों को पैरों तले रौंदने को तैयार हो जायेगी; लाभ 300 प्रतिशत हो तो ऐसा कोई अपराध नहीं है जिसे करने में यह हिचकिचायेगी, न कोई ऐसा खतरा है जो यह नहीं उठाएगी, चाहे इसके मालिक के फांसी चढ़ने की ही संभावना क्यों न हो...।‘‘ खतरों की खिलाड़ी इस चमत्कारी पूंजी ने अपने मुनाफे के लिये पूरी मानवता को खतरे में डाल दिया, एक ओर मुट्ठी भर लोगों के वैभव का सुखी संसार और दूसरी और अभावों और असुरक्षा का दुखी संसार। पूंजी का इतना कुत्सित रूप कि खुद पूंजीवाद के प्रवक्ता शर्मसार हो गये और पूंजी के इस कुत्सित रूप को मानवीच चेहरा देने, विकास के इस एकांगी रूप को समावेशी रूप देने, नैतिकता की राजनीति, और ऐथिक्स आफ इकोनोमी की बातें होने लगी, ताकि किसी तरह इस डूबते हुए जहाज को बचाया जा सके। लेकिन अन्याय, अत्याचार, अमानवीयता से भरा हुआ यह जहाज किनारे लग नहीं सकता। डूबना ही इसकी नियति है। एक बार फिर रवीन्द्रनाथ याद आते हैं - ‘‘मानव के इतिहास में आतिशबाजी के कुछ ऐसे युग भी आते हैं, जो अपनी शक्ति व गति से हमें चकित कर देते हैं। ये न केवल हमारे साधारण घरेलू दीपकों की हंसी उड़ाते हैं, बल्कि अनंत नक्षत्रों का भी मजाक उड़ाते हैं। लेकिन इस भड़काऊ दिखावे के आगे हममें अपने दीपकों को निरस्त करने की इच्छा मन में नहीं आनी चाहिए। हमें इस अपमान को धैर्यपूर्वक सहना होगा और यह समझना होगा कि इस आतिशबाजी में आकर्षण तो है पर यह स्थायी नहीं है क्योंकि इसकी अति ज्वलनशीलता ही इसकी शक्ति और अंतत: इसके बुझ जाने का भी कारण होती है। यह किसी लाभ व उत्पादन के बजाय अपनी ऊर्जा तथा क्षार को भारी मात्रा में खर्च करती है।‘‘ मनुष्य की आत्मा के दीपक को बुझाकर कोई भी सभ्यता जिंदा नहीं रह सकती और रवीन्द्रनाथ मनुष्य की इसी अक्षत, अपराजेय आत्मशक्ति के महान गायक थे। उनकी वाणी आज भी हमें बल प्रदान कर रही है- ‘तुम सबको इस स्वार्थ-दानव के मंदिर की दीवालें तोड़ देनी होगी, यह नरबली अब नहीं चलेगी। हुक्म मिलते ही तोप के गोले आकर उस मंदिर की दीवालों को तड़ातड़ चूर्ण करने में जुट गये हैं। ...जो लोग आराम में थे, वे आराम को धिक्कार देकर कहने लगे हैं-प्राणों से चिपके नहीं रहेंगें, मनुष्य के पास प्राणों से भी बढ़कर कोई्र चीज है। आज तोपों के गर्जन में मानव का जय-संगीत बज उठा है।‘‘





सोमवार, 5 मई 2014

दुखती रग


सरला माहेश्वरी

एनडी टीवी के रवीश कुमार लमही पंहुचे। आज (29 अप्रैल) ‘प्राइम टाइम’ पर देखा। वहां उनके साथ पूरे समय प्रेमचंद अनुरागी सुरेश दूबे जी थे। पूरी तरह प्रेमचंदमय। प्रेमचंद साहित्य उनके लिये किसी धर्म-ग्रंथ से कम हैसियत नहीं रखता। उसमें उनकी पूरी दुनिया समाहित है। बात-बात पर भाव-विह्वल हो रहे थे। प्रेमचंद की चर्चा के साथ ही कोई न कोई कहानी सुनाते हुए उनकी आंखों से आंसू झरने लगते थे।

गांव में कोई ऐसा नहीं था, जो प्रेमचंद को न जानता हो और उनकी विरासत पर गर्व न कर रहा हो। बच्चे, जवान, बूढ़े, पुरुष, औरतें। एक नौजवान बात-बात में कह रहा था - ‘प्रेमचंद की धरती पर खड़े होकर हम झूठ नहीं बोल सकते।’

रवीश कुमार अपने कैमरे के साथ प्रेमचंद के घर, स्मारक, उनके नाम से बने सरोवर और उस जगह भी गये जहां अभी धीमी गति से ‘प्रेमचंद स्मारक तथा शोध व अध्ययन केंद्र’ के निर्माण का काम चल रहा है। उन्होंने शिलान्यास के उस पत्थर को भी दिखाया जिसपर एक समय के केंद्रीय संस्कृति मंत्री श्री जयपाल रेड्डी और राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव के साथ ही प्रेमचंद 125वी जयंती समारोह समिति के संयोजक के नाते मेरा नाम भी खुदा हुआ है।

एकबारगी, लगभग आठ साल पहले, सन् 2005 की प्रेमचंद की 125वीं जयंती के समय की यादें ताजी होगयी। भारत सरकार ने उस जयंती समारोह के लिये जिस कमेटी का गठन किया था, मुझे उसका संयोजक बनाया गया था। उस पूरे साल देश में कई कार्यक्रम किये गये। प्रेमचंद साहित्य के प्रचार-प्रसार की कई योजनाएं बनी। लेकिन उनमें सबसे महत्वपूर्ण योजना लमही में प्रेमचंद स्मारक शोध व अध्ययन केंद्र के निर्माण की थी। इसे एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के संस्थान के रूप में निर्मित करने की परिकल्पना की गयी थी। देश के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का एक तीर्थ-स्थान और सारी दुनिया के साहित्य-प्रेमी पर्यटकों का भ्रमण-स्थल भी। इसका स्वरूप कुछ इसप्रकार का सोचा गया था ताकि भारतीय साहित्य पर शोध करने वाला दुनिया का कोई भी शोधार्थी इस संस्थान में जरूर आये। बनारस के घाट, विश्वनाथ मंदिर, सारनाथ जितना ही बनारस का एक और महत्वपूर्ण स्थल।

इसीलिये इस योजना पर अमल के लिये बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और भारत सरकार के शिक्षा विभाग को भी जोड़ दिया गया था। राज्य सरकार की भूमिका तो थी ही। माना जा रहा था कि इसके लिये संसाधनों की कोई कमी नहीं होगी। 31 जुलाई 2005 के दिन हमलोग बड़े उत्साह से इस शिलान्यास कार्यक्रम के लिये लमही पहुंचे थे। वह व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए एक कठिन समय था, कीमोथेरापी शुरू हो चुकी थी। पहला चक्र पूरा हो गया था। दूसरा चक्र 15 दिन बाद लगने को था। उसी के बीच में गयी। विमान में जयपाल रेड्डी ने कहा भी कि इस समय काफी सावधानी बरतने की जरूरत है। भीड़-भाड़ की जगहों से बचना चाहिए। लेकिन बिना किसी विशेष मुश्किल के हमने उस कार्यक्रम में पूरे जोश के साथ भागीदारी की।

बहरहाल, शिलान्यास तो होगया, लेकिन असली निर्माण का काम कैसे हो, यह तय ही नहीं हो पाया। संस्कृति मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, बीएचयू और राज्य सरकार - इतनी एजेंशियों में कौन नेतृत्व लेकर इस काम को करेगा, यह निर्धारित नहीं किया जा सका और इतने साल बीत गये। इस बीच सबसे पहला झटका तभी लग गया था जब जयपाल रेड्डी की जगह अंबिका सोनी संस्कृति मंत्रालय में आगयी। बार-बार कोशिश करके भी हम प्रेमचंद को उनकी प्राथमिकता में शामिल ही नहीं करा पायें। उनको और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को न जाने कितने पत्र लिखे, लेकिन उन्होंने पत्र की प्राप्ति की स्वीकृति का सौजन्य भी नहीं दिखाया। बीच में खुद प्रधानमंत्री भी संस्कृति मंत्रालय का काम संभालते थे। उनके घर जाकर हाथ से हमने चिट्ठी दी थी। लेकिन कोई जवाब नहीं।

उधर, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार नहीं रही और मायावती सरकार को प्रेमचंद से कोई लेना-देना नहीं रहा। बीच में एकाध बार बीएचयू के उपाचार्य के दफ्तर से फोन पर बात हुई, लेकिन वे भी यह नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें क्या और कैसे काम करना है। और इसीप्रकार समय बीतता चला गया।
हाल में उत्तर प्रदेश में फिर से समाजवादी पार्टी की जीत के बाद मुलायम सिंह को याद दिलाते हुए अपने पत्र में मैंने लिखा था कि ‘‘उत्तर प्रदेश में परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण मुकाम पर मैं उन चंद क्षणों को याद कर रही हूं जो हमने प्रेमचंद की 125वीं जयंती के मौके पर 31 जुलाई 2005 के दिन आपके साथ बिताये थे। तब हमने लमही में उनके जन्म-स्थल पर प्रेमचंद स्मृति और शोध संस्थान के निर्माण की आधारशिला रखी थी। वह भारत के सभी साहित्य-प्रेमियों और जनवादी विचारों के लोगों को दी गयी एक महत्वपूर्ण प्रतिश्रुति थी, जिसकी प्रदेश की पिछली सरकार और केंद्रीय सरकार ने भी अन्यायपूर्ण ढंग से अवहेलना की। आज फिर प्रदेश के शासन में आपकी पार्टी की वापसी से हमें उम्मीद है कि भारत के लोगों से किये गये उस वादे की पूरी ईमानदारी और शिद्दत के साथ रक्षा की जायेगी और लमही में एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के साहित्य शोध संस्थान के निर्माण के जरूरी काम को पूरा किया जायेगा।’’

रवीश कुमार की रिपोर्ट में उस स्थल पर निर्माण के काम की थोड़ी सी हलचल देखकर मैं भी वैसे ही भाव-विगलित हुई जैसे सुरेश दूबे जी हो रहे थे। यह छोटी सी हलचल जैसे जिंदगी का कोई नया राग हो!
29.04.2014

सिरहाने ग्राम्शी



आज मेरी नयी किताब ‘सिरहाने ग्राम्शी’ मुझे मिली है। ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित इस किताब के ब्लर्ब पर जो लिखा गया है, उसे अपने मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। इसके अलावा एक चित्र, जिसमें सरला के साथ मैं किताब को उलट-पुलट कर देख रहा हूं :

फासिस्टों के नर-मेधी यातना और मृत्यु शिविरों से लेकर साइबेरिया के निर्वासन शिविरों और अमेरिकी जेल-औद्योगिक गंठजोड़ वाले कैदखानों तक की कमोबेस एक ही कहानी है। नागरिक स्वतंत्रता की प्रमुख अमेरिकी कार्यकर्ता ऐंजिला डेविस की शब्दावली में - आज भी जारी दास प्रथा की कहानी। सुधारगृह कहे जाने वाले भारतीय जेल इनसे शायद ही अलग है।

इटली में फासिस्टों के जेल में बीस साल के लिये सजा-याफ्ता मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट नेता अंतोनिओ ग्राम्शी ने सजा के दस साल भी पूरे नहीं किये कि उनके शरीर ने जवाब दे दिया। मृत्यु के एक महीना पहले उन्हें रिहा किया गया था। लेकिन जेल में बिताएं इन चंद सालों के आरोपित एकांत का उन्होंने इटली के इतिहास, उसकी संस्कृति, मार्क्सवादी दर्शन तथा कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में गहरे विवेचन के लिये जैसा इस्तेमाल किया उसने उनकी जेल डायरी को दुनिया के श्रेष्ठतम जेल-लेखन के समकक्ष रख दिया। खास तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियों में शामिल लोगों के लिये तो इसने जैसे सोच-विचार के एक पूरे नये क्षेत्र को खोल दिया। ग्राम्शी का यह पूरा लेखन कम्युनिस्टों को, किसी भी मार्क्सवादी के लिये अपेक्षित, तमाम वैचारिक जड़ताओं से मानसिक तौर पर उनमुक्त करने का एक चुनौती भरा लेखन है।

एक ऐसे विचारक के साथ जेल में बिताए चंद दिनों की यह डायरी किसी भी पाठक के लिये, खास तौर पर राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी अनुभव साबित हो सकती है। इसकी पारदर्शी भाषा, अंतस्थि्त सूक्ष्म वेदना और स्वच्छंद विचार-प्रवाह ने इस पुस्तक को अपने प्रकार की एक अनूठी कृति का रूप दिया है।

कार्ल मार्क्स का 196वां जन्मदिन



मार्क्स के 196वें जन्मदिन पर याद आती है उनके दामाद पाल लफार्ग की निम्नलिखित तमाम बातें :

‘‘मार्क्स का विचार था कि अनुसंधान के अंतिम फल की चिंता किये बिना विज्ञान का अनुशीलन विज्ञान के लिये ही किया जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही सार्वजनिक जीवन में सक्रिय सहभागिता का त्याग करके, अथवा बिल के चूहे की तरह अपने को अध्ययन-कक्ष या प्रयोगशाला में बंद करके और समकालीनों के सार्वजनिक जीवन तथा राजनीतिक संघर्ष से तटस्थ रहकर वैज्ञानिक महज अपने को हेय ही बना सकता है।’’

‘‘वे कहा करते थे, ‘मैं विश्व नागरिक हूं, मैं जहां कहीं भी हूं, सक्रिय हूं।’’

‘‘किताबें उनके लिये विलास-सामग्री नहीं, औजार थीं। वे कहा करते थे, ‘ये मेरी बांदियां हैं और इन्हें मेरी इच्छा के अनुसार मेरे सेवा करने होगी।’’

‘‘डार्विन की भांति वे भी उपन्यास पढ़ने के बड़े शौकीन थे।’’

‘‘वे इस उक्ति को बार-बार दोहराना पसंद करते थे कि ‘जीवन संघर्ष में विदेशी भाषा एक हथियार है।’’

‘‘उनका विचार था कि जब तक कोई विज्ञान गणित का उपयोग करना नहीं सीख लेता, तब तक वस्तुत: विकसित रूप नहीं प्राप्त कर सकता।’’

‘‘चिंतन उनका सबसे बड़ा सुख था। मैंने अक्सर उन्हें उनकी जवानी के दर्शन-गुरू हेगेल के शब्द दुहराते हुए सुना :‘‘किसी कुकर्मी के अपराधमूलक चिंतन में भी स्वर्ग के चमत्कारों से अधिक वैभव तथा गरिमा होती है।’’

‘‘जब मार्क्स ने अपने चारित्रिक प्रमाण-प्राचूर्य तथा तर्क-वैपुल्य के साथ मुझे मानव-समाज के विकास-संबंधी अपना तेजस्वी सिद्धांत समझाया था, तब मुझे ऐसा लगा था मानो मेरी आंखों के सामने से पर्दा हट गया हो। मैंने पहले पहल विश्व-इतिहास की तर्क-संगति को स्पष्ट रूप से देखा और सामजिक विकास के व्यापारों का, जो देखने में इतने अन्तर्विरोधपूर्ण हैं, उसके भौतिक कारणों के साथ ताल-मेल बिठा पाया।’’

‘‘वे अपनी कृतियों से भी कहीं अधिक ऊंचे थे।’’

‘‘मार्क्स अपनी कृति से कभी संतुष्ट नहीं होते थे, उसमें बाद को हमेशा परिवर्तन करते रहते थे और निरंतर पाते थे कि उनकी अभिव्यक्ति उनके चिंतन की ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती।’’

‘‘उनके आलोचक यह कभी सिद्ध नहीं कर सके कि वे लापरवाह थे अथवा अपने तर्कों को ऐसे तथ्यों पर आधारित करते थे, जो जांच की कड़ी कसौटी पर खरे न उतर सकें।’’

‘‘मार्क्स की साहित्यिक ईमानदारी भी उतनी ही जबर्दस्त थी, जितनी वैज्ञानिक ईमानदारी।’’

‘‘उनके काम करने का ढंग अक्सर उनके ऊपर ऐसे कार्यभार लाद देता था, जिनकी गुरुता की कल्पना पाठक मुश्किल से कर सकते हैं।’’

‘‘मार्क्स और एंगेल्स हमारे युग में पुराकालीन कवियों द्वारा वर्णित मित्रता के आदर्श का मूर्त रूप थे।’’

‘‘अन्य किसी भी व्यक्ति की तुलना में मार्क्स एंगेल्स की राय की अधिक कद्र करते थे, क्योंकि मार्क्स के ख्याल से एंगेल्स ही वह व्यक्ति थे जो उनके सहकर्मी हो सकते थे।’’

‘‘मार्क्स जितने स्नेही पति और पिता थे, उतने ही अच्छे मित्र भी थे। उनकी पत्नी, बेटियां, एंगेल्स और हेलेन उन जैसे व्यक्ति के स्नेह-पात्र होने के योग्य भी थे।’’

कार्ल मार्क्स के 196वें जन्मदिन पर उनके प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि।

शनिवार, 3 मई 2014

‘एक और ब्रह्मांड’


अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ को मैंने कई मित्रों को उपलब्ध कराया है। और भी मित्रों को भेजूगा। ऐसा हर किताब के साथ संभव नहीं हो सकता है। लेकिन किताब को देखने से कोई भी समझ सकता है कि क्यों इसे अधिक से अधिक मित्रों तक पहुंचाया जा सकता है।

पता नहीं क्यों, आज अपनी इस किताब के बारे में कुछ और कहने की इच्छा हो रही है। अगर कोई इसे ऊपरी तौर पर ही देखेगा तो लगेगा जैसे यह कोलकाता की एक बड़ी कंपनी, इमामी के मालिक राधेश्याम अग्रवाल की जीवनी जैसी कोई चीज है। लेकिन सचमुच क्या यह कोई जीवनी है ? राधेश्याम जी के जीवन के तथ्यों को आधार बनाये जाने के बावजूद इसे अपनी एक समग्र जीवनी कहना शायद वे खुद भी नहीं स्वीकारेंगे।

मैंने पुस्तक में इसे ‘जीवनीमूलक उपन्यास’ कहा है।

दरअसल, पिछले 40 सालों से कार्ल मार्क्स की ‘पूंजी’ को हर मौके-बेमौके उलटता-पलटता रहा हूं। आज की दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कम्युनिज्म को अन्य धर्मों की तरह ही एक और धर्म मानते हैं और ‘पूंजी’ को इस धर्म की गीता, बाइबिल या कुरान। लेकिन ‘पूंजी’ तो कहीं से भी कोरे सिद्धांतों, नीति-वाक्यों या आप्त कथनों, चमत्कारों से भरी कथाओं और आस्था और भक्ति के मूल आधार पर टिकी पुस्तक नहीं है, जैसेकि दूसरे सभी धर्म-ग्रंथ हैं। मार्क्स ने सामाजिक चलन में सबसे अधिक पाये जाने वाले पूंजीवादी संपदा के प्रमुख घटक माल अथवा पण्य जैसे एक ठोस पदार्थ को पकड़ा था और उन्होंने उसे उलट-पुलट कर उसके एक-एक पहलू की छान-बीन करना, देखना-परखना शुरू कर दिया। उन्होंने देखा कि यही तो है इस पूरी आर्थिक-सामाजिक संरचना का बीज-कोष। इस माल की उन्होंने इतनी चीर-फाड़ की कि उसके भीतर का सबकुछ बाहर आगया और बाहर का भीतर --  भीतर-बाहर में जैसे कोई फर्क ही नहीं रह गया। इसी उपक्रम में माल से जुड़े ऐसे-ऐसे रहस्यों का उद्घाटन होता चला गया जिनसे परंपरागत, या कहा जाए आधिकारिक अर्थशास्त्री जरा भी परिचित नहीं थे।

यह सच है कि माल के ये रहस्य किसी धर्म के रहस्यों से कम विचित्र और गहरे नहीं थे। मजे की बात यह है कि जब भी किसी चीज की अतिरिक्त चीर-फाड़ की जाती है तो वह अपना यथार्थ रूप गंवा देती है और लगभग एक रहस्य का रूप ले लेती है। रहस्य का उन्मोचन खुद एक मोहक रहस्य, जासूसी कथाओं की तरह। अतियथार्थ छवि डराती भी है, आकर्षित भी करती है।

मार्क्स भी ‘पूंजी’ में माल से शुरू करके व्यापार के नियमों के तर्क को पकड़ते हुए उनका एक आख्यान रचते चले गये। यह पूरा वर्णन इतना रोचक है कि किसी भी रसिक पाठक को यह कल्पना-प्रसूत या मनगढ़ंत सा लग सकता है, लेकिन किसी भी रहस्य से जुड़े स्वाभाविक आकर्षण जैसा ही। फिर भी इस रोमांच और सौंदर्य का स्थायित्व सिर्फ इसी बात में छिपा है कि यह शुद्ध रूप से एक ठोस यथार्थ का पर्त-दर-पर्त बयान, पूरा आख्यान है। माल की गतिशीलता, उसकी द्वंद्वात्मकता, उससे बुने जारहे आर्थिक-सामाजिक संबंधों का मकड़जाल - मार्क्स की ‘पूंजी’ इसी सच की कहानी है या कहा जा सकता है इस सच की एक अतियथार्थ रहस्यमयी कथा। यह पूंजी के आत्म-विस्तार की, उसके निरंतर विस्तारवान ब्रह्मांड-समान सत्य की कहानी है। चूंकि यह सच पर टिकी है, इसीलिये यह एक कभी न खत्म होने वाले सौंदर्य का अक्षय स्रोत है।

‘एक और ब्रह्मांड’ को लिखने के पीछे मूलत: हमारी कुछ-कुछ यही प्रेरणा रही। इसमें यथासंभव सत्य-निष्ठा के साथ राधेश्याम अग्रवाल को केंद्र में रख कर माल में छिपे आधिभौतिक रहस्यों और पूंजी के लगातार विस्तारवान ब्रह्मांड से जुड़े आदमी के रहस्य की अर्थात इस ब्रह्मांड के एक अति-संक्षिप्त भारतीय अध्याय को लिखने की कोशिश की गयी। और, किताब बन गयी। जो पढ़ रहे हैं, वे इसमें कुछ अजीब सा आनंद पा रहे हैं, छूटते नहीं बनती है। एक लेखक के लिये शायद इससे बड़ा सुख दूसरा कुछ नहीं हो सकता। रहस्य को खोलते हुए एक नये रोमांचक रहस्य की रचना और विस्मित पाठकों का आनंद !

गुरुवार, 1 मई 2014

मई दिवस का संक्षिप्त इतिहास: हे मार्केट के शहीदों का खून बेकार नहीं जायेगा

अरुण माहेश्वरी


कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिख एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा–पत्र’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया था – समूचे यूरोप को एक भूत सता रहा है – कम्युनिज्म का भूत। 1848 में लिखे गये इन शब्दों के बाद आज 167 वर्ष बीत गये हैं और सचाई यह है कि आज भी दुनिया के हर कोने में शोषक वर्ग की रातों की नींद को यदि किसी चीज ने हराम कर रखा है तो वह है मजदूर वर्ग के सचेत संगठनों के क्रांतिकारी शक्ति में बदल जाने की आशंका ने, आम लोगों में अपनी आर्थि‍क बदहाली के बारे में बढती हुई चेतना ने।

सोवियत संघ में जब सबसे पहले राजसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार हुआ उसके पहले तक सारी दुनिया में पूंजीपतियों के भोंपू कम्युनिज्म को यूटोपिया (काल्पनिक खयाल) कह कर उसका मजाक उड़ाया करते थे या उसे आतंकवाद बता कर उसके प्रति खौफ पैदा किया करते थे। 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति के बाद पूंजीवादी शासन के तमाम पैरोकार सोवियत व्यवस्था की नुक्ताचीनी करते हुए उसके छोटे से छोटे दोष को बढ़ा–चढ़ा कर पेश करने लगे और यह घोषणा करने लगे कि यह व्यवस्था चल नहीं सकती है। अब सोवियत संघ के पतने के बाद वे फिर उसी पुरानी रट पर लौट आये हैं कि कम्युनिज्म एक बेकार के यूटोपिया के अलावा और कुछ नहीं है।

कम्युनिज्म की सचाई को नकारने की ये तमाम कोशिशें मजदूर वर्ग के प्रति उनके गहरे डर और आशंका की उपज भर है। रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और दुनिया के अनेक स्थानों पर होने वाली क्रांतियां इस बात का सबूत हैं कि पूंजीवादी शासन सदा–सदा के लिये सुरक्षित नहीं है। सभी जगह मजदूर वर्ग विजयी हो सकता है। यही सच शोषक वर्गों और उनके तमाम भोंपुओं को हमेशा आतंकित किये रहता है। और, मई दिवस के दिन दुनिया के कोने–कोने में मजदूरों के, पूंजीवाद की कब्र खोदने के लिये तैयार हो रही शक्ति के, विशाल प्रदर्शनों और हड़तालों से हर वर्ष इसी सच की पुरजोर घोषणा की जाती है कि ‘पूंजीवाद चल नहीं सकता’। इस दिन शासक वर्गों को उनके शासन के अवश्यंभावी अंत की याद दिलाई जाती है, उन्हें बता दिया जाता है कि उनके लिये अब बहुत अधिक दिन नहीं बचे हैं।

कैसे मई दिवस सारी दुनिया में मजदूर वर्ग के एक सबसे बड़े उत्सव के रूप में स्वीकृत हुआ? क्योंि इसे हर देश का मजदूर वर्ग अपना उत्सव मानता है और सारी दुनिया के मजदूर इस दिन अपनी एकजुटता का परिचय देते हैं? क्यों आज भी वित्त और उद्योग के नेतृत्वकारी लोग मई दिवस के पालन से आतंकित रहते हैं? इन सारे सवालों का जवाब और कही नहीं, मई दिवस के इतिहास की पर्तों के अंदर छिपा हुआ है।
मई दिवस का जन्म आठ घंटों के दिन की लड़ाई के अंदर से हुआ था। यही लड़ाई क्रमश: सारी दुनिया के मजदूर वर्ग के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी।

इस धरती पर कृषि के जन्म के साथ ही पिछले दस हजार वर्षों से मेहनतकशों का अस्तित्व रहा है। गुलाम, रैयत, कारीगर आदि नाना रूपों में ऐसी मेहनतकश जमात रही है जो अपनी मेहनत की कमाई को शोषक वर्गों के हाथ में सौंपती रही है। लेकिन आज का आधुनिक मजदूर वर्ग, जिसका शोषण वेतन की प्रणाली की ओट में छिपा रहता है, इसका उदय कुछ सौ वर्ष पहले ही हुआ था। इस मजदूर के शोषण पर एक चादर होने के बावजूद यह शोषण किसी से भी कम बर्बर नहीं रहा है। किसी तरह मात्र जिंदा रहने के लिये पुरुषों, औरतों, और बच्चों तक को निहायत बुरी परिस्थितियों में दिन के सोलह–सोलह, अठारह–अठारह घंटे काम करना पड़ता था। इन परिस्थितियों के अंदर से काम के दिन की सीमा तय करने की मांग का जन्म हुआ। सन् 1867 में मार्क्स ने इस बात को नोट किया कि सामान्य (निश्चित) काम के दिन का जन्म पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच लगभग बिखरे हुए लंबे गृह युद्ध का परिणाम है।

काल्पनिक समाजवादी रौबर्ट ओवेन ने 1810 में ही इंगलैंड में 10 घंटे के काम के दिन की मांग उठायी थी और इसे अपने समाजवादी फर्म ‘न्यू लानार्क’ में लागू भी किया था। इंगलैंड के बाकी मजदूरों को यह अधिकार काफी बाद में मिला। 1847 में वहां महिलाओं और बच्चों के लिये 10 घंटे के काम के दिन को माना गया। फ्रांसीसी मजदूरों को 1848 की फरवरी क्रांति के बाद ही 12 घंटे का काम का दिन हासिल हो पाया।

जिस संयुक्त राज्य अमरीका में मई दिवस का जन्म हुआ वहां 1791 में ही फिलाडेलफिया के बढ़इयों ने 10 घंटे के दिन की मांग पर काम रोक दिया था। 1830 के बाद तो यह एक आम मांग बन गयी। 1835 में फिलाडेलफिया के मजदूरों ने कोयला खदानों के मजदूरों के नेतृत्व में इसी मांग पर आम हड़ताल की जिसके बैनर पर लिख हुआ था – 6 से 6 दस घंटे काम और दो घंटे भोजन के लिये।
इस 10 घंटे के आंदोलन ने मजदूरों की जिंदगी पर वास्तविक प्रभाव डाला। सन् 1830 से 1860 के बीच औसत काम के दिन 12 घंटे से कम होकर 11 घंटे हो गये।



इसी काल में 8 घंटे की मांग भी उठ गयी थी। 1836 में फिलाडेलफिया में 10 घंटे की जीत हासिल करने के बाद ‘नेशनल लेबरर’ ने यह ऐलान किया कि  दस घंटे के दिन को जारी रखने की हमारी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि किसी भी आदमी के लिये दिन में आठ घंटे काम करना काफी होता है। मशीन निर्माताओं और लोहारों की यूनियन के 1863 के कन्वेंशन में 8 घंटे के दिन की मांग को सबसे पहली मांग के रूप में रखा गया।

जिस समय अमरीका में यह आंदोलन चल रहा था, उसी समय वहां दास प्रथा के खिलाफ गृह युद्ध भी चल रहा था। इस गृह युद्ध में दास प्रथा का अंत हुआ और स्वतंत्र श्रम पर टिके पूंजीवाद का सूत्रपात हुआ। गृह युद्ध के बाद के काल में हजारों पूर्व दासों की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया। इसके साथ आठ घंटे का आंदोलन भी जुड़ गया। मार्क्सस ने लिखा:  दास प्रथा की मौत के अंदर से तत्काल एक नयी जिंदगी पैदा हुई। गृह युद्ध का पहला वास्तविक फल आठ घंटे के आंदोलन के रूप में मिला। यह आंदोलन वामन के डगों की गति से अटलांटिक से लेकर पेसिफिक तक, नये इंगलैंड से लेकर कैलिफोर्निया तक फैल गया।
प्रमाण के तौर पर मार्क्स ने 1866 में बाल्टीमोर में हुई जैनरल कांग्रेस आफ लेबर की घोषणा से यह उद्धरण भी दिया था कि  इस देश को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिये आज की पहली और सबसे बड़ी जरूरत ऐसा कानून पारित करवाने की है जिससे अमरीकी संघ के सभी राज्यों में सामान्य कार्य दिवस आठ घंटों का हो जाये।

इसके छ: वर्षों बाद, 1872 में न्यूयार्क शहर में एक लाख मजदूरों ने हड़ताल की और निर्माण मजदूरों के लिये आठ घंटे के दिन की मांग को मनवा लिया। आठ घंटे के दिन को लेकर इसी प्रकार के जोरदार आंदोलन के गर्भ से मई दिवस का जन्म हुआ था। आठ घंटे के लिये संघर्ष को 1 मई के साथ 1884 में अमरीका और कनाडा के फेडरेशन आफ आरगेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन (एफओटीएलयू) के एक कंवेशन में जोड़ा गया था। इसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि  यह संकल्प लिया जाता है कि 1 मई 1886 के बाद कानूनन श्रम का एक दिन आठ घंटों का होगा और इस जिले के सभी श्रम संगठनों से यह सिफारिश की जाती है कि वे इस उल्लेखित समय तक इस प्रस्ताव के अनुसार अपने कानून बनवा लें।


एफओटीएलयू के इस आह्वान के बावजूद सचाई यह थी कि यह यूनियन अपने आप में इतनी बड़ी नहीं थी कि उसकी पुकार पर कोई राष्ट्र–व्यापी आंदोलन शुरू हो सके। इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया स्थानीय स्तर की कमेटियों ने। तय हुआ कि देश भर में 1 मई को दिन व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें की जायेगी। शासक वर्गों में इससे भारी आतंक फैल गया। अखबारों के जरिये यह व्यापक प्रचार किया गया कि इस आंदोलन में कम्युनिस्ट घुसपैठियें आ गये हैं। लेकिन कई मालिकों ने पहले से ही इस मांग को मानना शुरू कर दिया और अप्रैल 1886 तक लगभग 30 हजार मजदूरों को 8 घंटे काम का अधिकार मिल चुका था।

मालिकों की ओर से 1 मई के प्रदर्शनों में भारी हिंसा का आतंक पैदा किये जाने के बावजूद दुनिया के पहले मई दिवस पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सबसे बड़ा प्रदर्शन अमरीका के शिकागो शहर में हुआ जिसमें 90,000 लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें से 40,000 ऐसे थे, जिन्होंने इस दिन हड़ताल का पालन किया था। न्यूयार्क में 10,000, डेट्रोयट में 11000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। लुईसविले, बाल्टीमोर आदि अन्य स्थानों पर भी जोरदार प्रदर्शन हुए। लेकिन इतिहास में मई दिवस के स्थान को सुनिश्चित करने वाला प्रदर्शन शिकागो का ही था।
शिकागो में 8 घंटे की मांग पर पहले से ही एक शक्तिशाली आंदोलन के अस्तित्व के अलावा आईडब्लूपीए नामक संस्था की मजबूत उपस्थिति थी जो यह मानती थी कि यूनियनें किसी भी वर्ग–विहीन समाज के भ्रूण के समान होती हैं। इसके नेता अल्बर्त पार्सन्स और अगस्त स्पाइस की तरह के प्रभावशाल व्यक्तित्व थे। यह संस्था तीन भाषाओं में पांच अखबार निकालती थी और इसके सदस्यों की संख्या हजारों में थी। यहां 1 मई के प्रदर्शन के बाद भी हड़तालों का सिलसिला जारी रहा और 3 मई तक हड़ताली मजदूरों की संख्या 65,000 तक पंहुच गयी। इससे खौफ खाये उद्योग के प्रतिनिधियों ने मजदूरों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का फैसला किया। 3 मई की दोपहर से ही जंग शुरू हो गयी। स्पाईस आरा मिल के मजदूरों को संबोधित कर रहे थे और मालिकों के साथ आठ घंटे के लिये समझौते की तैयारियां करने में लगे हुए थे। उसी समय कुछ सौ मजदूर लगभग चौथाई मील दूर स्थित मैक्कौर्मिक हार्वेस्टर वर्क्स  की ओर चल दिये जहां इस आरा मिल से निकाले गये मजदूर मौजूद थे। मिल कुछ गद्दार मजदूरों के जरिये चलायी जा रही थी।

पंद्रह मिनट के अंदर ही वहां पुलिस के सैकड़ों सिपाही पंहुच गये। गोलियों की आवाज सुन कर इधर सभा में उपस्थित स्पाईस और बाकी आरा मजदूर मैक्कौर्मिक की ओर बढ़े। पुलिस ने उन पर भी गोलियां चलायी और घटना–स्थल पर ही चार मजदूरों की मौत हो गयी।

इसके ठीक बाद ही स्पाईस ने अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दो पर्चे जारी किये। एक का शीर्षक था प्रतिशोध! मजदूरो, हथियार उठाओ। इस पर्चे में पुलिस के हमलों के लिये सीधे मालिकों को जिम्मेदार ठहराया गया था। दूसरे पर्चे में पुलिस के हमले के प्रतिवाद में हे मार्केट स्क्वायर पर एक जन–सभा का आह्वान किया गया था।
चार मई को सभा के दिन पुलिस ने मजदूरों का दमन शुरू कर दिया, इसके बावजूद शाम की सभा के समय हे मार्केट स्क्वायर पर 3000 लोग इके हुए। शहर के मेयर भी आये थे, यह सुनिश्चित करने के लिये कि सभा शांतिपूर्ण रहे। सभा को सबसे पहले स्पाईस ने संबोधित किया। उन्होंने 3 मई के हमले की भत्र्सना की। इसके बाद पार्सन्स बोले और आठ घंटे की लड़ाई के महत्व पर प्रकाश डाला। जब ये दोनों नेता बोल कर चले गये तब बचे हुए लोगों को सैमुएल फील्डेन ने संबोधित करना शुरू किया। फील्डेन के शुरू करने के कुछ मिनट बाद ही मेयर भी चले गये।

मेयर के जाते ही लगभग 180 पुलिस वालों ने वक्ताओं को घेर लिया और सभा को भंग करने की मांग करने लगे। फील्डेन ने कहा कि यह सभा पूरी तरह से शांतिपूर्ण है, इसे क्यों भंग किया जाये। इसी समय भीड़ में से पुलिस वालों पर एक बम गिरा। इससे 66 पुलिसकर्मी घायल होगये जिनमें से सात बाद में मारे गये। इसके साथ ही पुलिस ने भीड़ पर अंधाधु्ंध गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसमे कई लोग मारे गये और 200 से ज्यादा जख्मी हुए।

इसके साथ ही अखबारों और मालिकों ने मजदूरों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया, व्यापक धर–पकड़ शुरू हो गयी। मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । स्पाईस, फील्डेन, माइकल स्वाब, अडोल्फ फिशर, जार्ज एंजेल, लुईस लिंग, और आस्कर नीबे पकड़ लिये गये। पार्सन्स को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पायी, वे खुद ही मुकदमे के दिन अदालत में हाजिर हो गये।

इन सब के खिलाफ अदालत में जिस प्रकार मुकदमा चलाया गया वह एक कोरे प्रहसन के अलावा और कुछ नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ किसी प्रकार के प्रमाण पेश नहीं किये गये। सरकार की ओर से सिफर्  यही कहा गया कि  आज कानून दाव पर है। अराजकता पर राय सुनानी है। न्यायमूर्तियों ने इन लोगों को चुना है और इन्हें अभियुक्त बनाया गया है क्योंकि ये नेता हैं। ये अपने हजारों समर्थकों से कहीं ज्यादा दोषी हैं। ... इन लोगों को दंडित करके एक उदाहरण पेश किया जाए, हमारी संस्थाओं, हमारे समाज को बचाने के लिये इन्हें फांसी दी जायें।

नीबे को छोड़ कर सबको फांसी की सजा सुनायी गयी। फील्डेन और स्वाब ने माफीनामा दिया तो उनकी सजा कम करके उन्हें उम्र कैद दी गयी। 21 वर्षीय लिंग फांसी देने वाले के मूंह में डाइनामाइट का विस्फोट करके उसे चकमा देकर भाग गया। बाकी को 11 नवंबर 1887 के दिन फांसी दे दी गयी।

मजे की बात यह है कि इसके छ: साल बाद इलिनोइस के गवर्नर जान ऐटजेल्ड ने नीबे,फील्डेन और स्वाब को दोषमुक्त कर दिया तथा जिन पांच लोगों को फांसी दी गयी थी, उन्हें मृत्युपरांत माफ कर दिया गया, क्योंकि मामले की जांच करने पर पाया गया कि उनके खिलाफ सबूतों में कोई दम नहीं था और वह मुकदमा एक दिखावा भर था।

गौर करने लायक बात यह भी है कि हे मार्केट की उस घटना के ठीक बाद सारी दुनिया में मजदूरों के खिलाफ व्यापक दमन का दौर शुरू हो गया था। जिन मजदूरों ने अमरीका में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल कर लिया था, उनसे भी यह अधिकार छीन लिया गया। इंगलैंड, हालैंड, रूस, इटली, फ्रांस, स्पेन सब जगह मजदूरों की सभाओं पर पाबंदियां लगा दी गयी। लेकिन हे मार्केट की इस घटना ने अमरीका में चल रही आठ घंटे की लड़ाई को सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन के केंद्र में स्थापित कर दिया। इसीलिये 1888 में जब अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर(एएफएल) ने यह ऐलान किया कि 1 मई 1990 का दिन आठ घंटे काम की मांग पर हड़तालों और प्रदर्शनों के जरिये मनाया जायेगा तो इस आान की तरफ सारी दुनिया का ध्यान गया था।
1889 में पैरिस में फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी पर मार्क्सि ‍स्टे  इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस की सभा में जिसमें 400 प्रतिनिधि उपस्थित थे, वहां एएफएल की ओर से एक प्रतिनिधि एक मई के आंदोलन के कार्यक्रम का आहवान करने पंहुचा था। कांग्रेस में सारी दुनिया में इस दिन विशाल प्रदर्शन करने का प्रस्ताव पारित किया गया। दुनिया के कोने–कोने में 1 मई 1990 के दिन मजदूरों के शानदार प्रदर्शन हुए और यहीं से आठ घंटे की लड़ाई ने एक अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष का रूप ले लिया।

फ्रेडरिख ऐंगेल्स इस दिन लंदन के हाईड पार्क में मजदूरों की 5 लाख की सभा में शामिल हुए थे। इसके बारे में 3 मई को उन्होंने लिखा: जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं, यूरोप और अमरीका के मजदूर अपनी ताकत का जायजा ले रहे हैं; वे पहली बार एक फौज की तरह, एक झंडे के तले, एक फौरी लक्ष्य के लिये लड़ाई के खातिर, आठ घंटों के काम के दिन के लिये इके हुए हैं।

इसके बाद धीरे–धीरे हर साल मई दिवस के आयोजन में दुनिया के एक–एक देश के मजदूर शामिल होने लगे। 1891 में रूस, ब्राजील, और आयरलैंड के मजदूरों ने भी मई दिवस मनाया। 1920 में पहली बार रूस की समाजवादी क्रांति के बाद चीन के मजदूरों ने मई दिवस मनाया। भारत में 1927 में कलकत्ता, मद्रास और बंबई में व्यापक प्रदर्शनों के जरिये पहली बार मई दिवस का पालन किया गया। और, इस प्रकार मई दिवस सच्चे अर्थों में मजदूरों का एक अन्तररयष्ट्रीय दिवस बन गया।

हे मार्केट के शहीदों के स्मारक पर अगस्त स्पाईस के ये शब्द खुदे हुए हैं कि  वह दिन आयेगा जब हमारी खामोशी आज हमारी दबा दी गयी आवाज से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होगी।

सारी दुनिया में आज जिस पैमाने पर मई दिवस का पालन होता है और इस अवसर पर लाल झंडा उठाये मजदूर दुनिया की परिस्थितियों का ठोस जायजा लेते हुए जिस प्रकार अपने आगे के आंदोलन की रूप–रेखा तैयार करते हैं, इससे स्पाईस के शब्द आज बिल्कुल सच में बदलते हुए जान पड़ते हैं। आज भी यह सच है कि साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों की रूह मई दिवस के नाम से कांपती है। मई दिवस आज भी मजदूर वर्ग को उसकी निश्चित विजय की प्रेरणा देता है और शासक वर्गों की निश्चित हार का ऐलान करता है।