शनिवार, 25 अगस्त 2018

राहुल ने क्या संघ परिवार की पूरी रहस्यात्मक संरचना को नंगा कर दिया है ?


—अरुण माहेश्वरी
जर्मनी के हैम्बर्ग में और लंदन के स्कूल आफ इकोनोमिक्स में राहुल गांधी के भाषणों ने भाजपाई हलके में कुछ ऐसी हड़कंप पैदा कर दी है जिसे राजनीति के साधारण मानदंडों से समझना कठिन है । वैसे ही एक अर्से से राहुल ने आत्ममुग्ध मोदी की नींद उड़ा रखी है । हाल में लोकसभा के मानसून अधिवेशन में राहुल की बार-बार की चुनौती के बावजूद मोदी उनसे आंख मिलाने के हिम्मत नहीं कर पा रहे थे क्योंकि राफेल सौदे में हजारों करोड़ की दलाली का उनके पास इसके अलावा कोई जवाब नहीं था कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें इतना तो हक बनता ही है कि अपने संकट में पड़े एक मित्र को चालीस हजार करोड़ का लाभ दिला दे !

बहरहाल, जर्मनी और लंदन में राहुल के भाषण तो लगता है मोदी कंपनी को और भी नागवार गुजर रहे हैं । मोदी में इतनी भी सलाहियत नहीं है कि वे देश के अंदर या बाहर, कहीं भी कायदे का एक संवाददाता सम्मेलन कर ले, और कहने के लिये वे 'विद्वान' बनते हैं ! इसके अतिरिक्त किसी भी जगह बुद्धिजीवियों से खुला संवाद तो उनके संघी प्रशिक्षण में एक असंभव चीज है । उनका प्रशिक्षण सिर्फ आम लोगों के बीच झूठी बातों को रटने, सांप्रदायिक बटवारे के लिये हुआ है, जो वे बखूबी करते हैं । भेड़-बकरियों के तरह जुटा कर लाये गये लोगों से जयकारा लगवाते हैं !

लेकिन राहुल ने पूरी जिम्मेदारी के साथ राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर इन दोनों जगहों पर जिस गंभीरता से भारत की राजनीति को आज के विश्व पटल पर समझने की कोशिश की, उसने उनमें एक बड़े राजनेता के उभरने के साफ संकेत दिये हैं ।

सर्वप्रथम तो भाजपाई संबित पात्रा टाइप मोदी काल के कुकुरमुत्ता प्रवक्ताओं को राहुल का विदेश में मुंह खोलना ही मोदी के विशेषाधिकार के हनन की तरह लगा था । इसके अलावा वे और दो बातों पर बेजा ही उखड़ गये थे । इनमें पहली बात थी भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी की । राहुल ने इसकी विदेश में चर्चा क्यों कर दी ! कौन नहीं जानता कि बेरोजगारी कितने प्रकार की सामाजिक समस्याओं का कारण बनती है । इनमें आज की दुनिया की एक सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद भी है । सभी आतंकवादी संगठन बेरोजगार युवकों को ही आम तौर पर अपनी गतिविधियों के मोहरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं ।

राहुल ने विदेश में भारत में बेरोजगारी की समस्या को उठा कर लगता है मोदी कंपनी की इस सबसे अधिक दुखती हुई रग पर हाथ रख दिया था । उस पर राहुल ने मोदी के नोटबंदी के पागलपन और जीएसटी की बदइंतजामी का जिक्र करके तो जैसे उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के काम कर दिया । राहुल ने कहा कि मोदी ने आर्थिक विकास की दिशा में सकारात्मक तो एक भी कदम नहीं उठाया, लेकिन इन दो नकारात्मक कदमों से पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है । और इसके साथ ही यह बिल्कुल सही कहा कि यही परिस्थिति तत्ववादी ताकतों के लिये जमीन तैयार करती है ।

राजनीतिक-प्रशासनिक अराजकता से कैसे आतंकवादी ताकतें लाभ उठाती हैं, इसी संदर्भ में राहुल ने अमेरिका की इराक नीति का भी जिक्र किया और कहा कि वहां सद्दाम हुसैन के शासन को खत्म करने में ज्यादा समय नहीं लगा था, लेकिन बाद में नई प्रशासनिक व्यवस्था में जिन लोगों को भी वंचित किया गया, उनसे ही आगे चल कर इराक से लेकर सीरिया तक में आइसिस की तरह के संगठन को अपनी जमीन तैयार करने की रसद मिली ।

राहुल का बेरोजगारी और तत्ववाद, इन दो विषयों पर बात करना संघी तत्वों के लिये निषिद्ध विषयों पर बात करने के अपराध के समान था । इसीलिये राहुल के हैम्बर्ग के भाषण से ही उनके प्रवक्ता और चैनलों में बैठे मूर्ख ऐंकर और लगभग उसी स्तर के दूसरे भागीदारों ने चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया । चैनलों पर राहुल को बचकाना कहने की एक होड़ शुरू हो गई । जो खुद पशुओं की तरह अपनी नाक के आगे नहीं देख पाते हैं, सोचते हैं ओसामा बिन लादेन आया और अल कायदा या आइसिस बन गया, उनके लिया अमेरिकी साम्राज्यवाद और सामाजिक विषमताओं को दुनिया में आतंकवाद के उत्स के रूप में देखने की बात एक भारी रहस्य की तरह थी । और जो उन्हें समझ में न आए, उनकी नजर में वही बचकाना होता है । लेकिन सच यही है कि इन चैनलों की बहसें पशुओं के बाड़ों के निरर्थक शोर से अधिक कोई मायने नहीं रखती हैं।

इसके बाद लंदन में राहुल ने और एक सबसे महत्वपूर्ण बात कह दी कि भारत में आरएसएस मिस्र के 'मुस्लिम ब्रदरहुड' का ही हिंदू प्रतिरूप है । आरएसएस की तुलना हम हिटलर की नाजी पार्टी से लेकर अफगानिस्तान के तालिबान तक से हमेशा करते रहे हैं । लेकिन इस संदर्भ में 'मुस्लिम ब्रदरहुड' का जिक्र करके राहुल ने आज के संदर्भ में आरएसएस के और भी सटीक समानार्थी संगठन की शिनाख्त की है ।

यह 'मुस्लिम ब्रदरहुड' क्या है ? इसकी ओर सारी दुनिया का ध्यान 2012 में खास तौर पर गया था जब 2011 की जनवरी में अरब बसंत क्रांति के बाद इसके राजनीतिक संगठन ने मिस्र का चुनाव जीत लिया था । लेकिन बहुत जल्द ही मिस्र में उसकी आतंकवादी गतिविधियां दुनिया के सामने आने लगी और 2015 में ही उसकी सरकार को खत्म करके उसके सारे नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया और दुनिया के बहुत सारे देश उसे एक आतंकवादी संगठन मानते हैं।

'सोसाइटी आफ द मुस्लिम ब्रदर्स' (अल-लखवॉन अल-मुसलिमुन) के नाम से सन् 1928 में मिस्र में एक अखिल इस्लामिक संगठन के रूप में इसका निर्माण हुआ था । यह अस्पतालों और नाना प्रकार के धर्मादा कामों के जरिये पूरे इस्लामिक जगत में अपनी जड़े फैला रहा था । कुरान और सुन्ना के आदर्शों पर यह पूरे समाज, परिवार और व्यक्ति को ढालने के प्रचारमूलक काम में मुख्यतः लगा रहता था और पूरी अरब दुनिया में इसके अनेक समर्थक हो गये थे । धर्मादा कामों के जरिये अपने राजनीतिक उद्देश्यों को साधना ही इसका प्रमुख चरित्र रहा हैं और इसे एक समय में सऊदी अरब सहित कई इस्लामिक देशों का समर्थन मिला हुआ था । लेकिन आज सऊदी अरब में भी यह एक प्रतिबंधित संगठन है ।

कहना न होगा, तथाकथित सेवामूलक कामों के जरिये राजनीतिक उद्देश्यों को साधने वाला इस्लामिक दुनिया का यह एक ऐसा कट्टरपंथी और तत्ववादी संगठन है जिसकी भारत में सबसे उपयुक्त मिसाल हिंदू तत्ववादी आरएसएस ही हो सकती है । इसीलिये राहुल ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से करके बिल्कुल सही जगह पर उंगली रखी है ।

जर्मनी और ब्रिटेन में राहुल के भाषणों पर भाजपाई प्रवक्ताओं के उन्माद के रूप को देख कर हम यह सोचने के लिये मजबूर हो रहे हैं कि आखिर उसमें ऐसा क्या था जिसने इन सबकों इस प्रकार से आपे के बाहर कर दिया है ? सचमुच, राहुल के इस राजनीतिक विश्लेषण को हमें फ्रायडीय सिद्धांतों पर समझने की जरूरत महसूस होने लगी है जिसमें किसी भी स्वप्न का विश्लेषण (आरएसएस के मामले में उसके रहस्यमय रूप का विश्लेषण) उस स्वप्न के पीछे छिपे हुए मूल विचार के रहस्य बजाय उसकी संरचना के पूरे स्वरूप के ही रहस्य को उजागर करके किया जाता है । लगता है, राहुल ने कुछ इसी प्रकार से, संघ संसार की पूरी स्वप्निल संरचना की रहस्यात्मकता को उन्मोचित करने का काम किया है और इसीलिये चैनलों में उनके भाषणों को लेकर इतनी भारी चीख-चिल्लाहट मची हुई है ।

राहुल ने लंदन में अपने भाषण में 1984 के सिख-विरोधी दंगों और डोकलाम प्रसंग पर भी कुछ इतनी महत्वपूर्ण बातें कही है जिनसे भाजपाई और भी तिलमिला गये हैं । उन्होंने साफ कहा है कि कांग्रेस कोई कॉडर आधारित पार्टी नहीं है । उसने 1984 के दंगों में कोई बाकायदा हिस्सा नहीं लिया था । दंगों के एफआईआर में जिन लोगों के नाम हैं उनमें भाजपा के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल हैं । और, हाल के डोकलाम की सीमा पर हुए नाटक के बारे में भी उनकी टिप्पणी उतनी ही तीखी थी जिसमें उन्होंने कहा कि बिना किसी तैयारी और तयशुदा एजेंडा के राजनयिक वार्ताओं के नाटक किसी से करवाना हो तो उसमें नरेंद्र मोदी आपको सबसे आगे मिलेंगे । जब उन्होंने चीन के राष्ट्रपति के साथ झूला झूला उसके चंद रोज बाद ही डोकलाम में चीनी सेना पहुंच गई ।





सोमवार, 13 अगस्त 2018

वी. एस नायपॉल नहीं रहे


आज के ‘टेलिग्राफ’ की सुर्खी है : लाखों बगावतें, शांत शिष्टता का दिन
नायपॉल नहीं रहे, विद्वेषी चुप हो गया

नायपॉल - विद्याधर सूरजप्रसाद ‘विदिया’ नायपॉल - एक विद्रोही, विद्वेषी लेखक वी एस नायपॉल नहीं रहे । नोबेल पुरस्कार, बुकर पुरस्कार और अन्य कई पुरस्कारों के जयी नायपॉल का पचासी साल की उम्र में लंदन के अपने निवास पर देहांत हो गया ।

उपनिवेशों की आजादी ने इन देशों की जनता को भले ही राजनीतिक तौर पर मुक्त किया, लेकिन यह मुक्ति इन क्षेत्रों के लोगों को धार्मिक कुसंस्कारों और जात-पात की तरह के पिछड़ेपन से मुक्ति का सबब नहीं बन पाई, बल्कि आज इनकी जकड़बंदी को और मजबूत करने का कारण बनती दिखाई देती है, —नायपॉल ने इस सच को बिना किसी लाग-लपेट के, असभ्यता और पिछड़ेपन के छोटे से छोटे संकेत को गहरे तंज के साथ अपने लेखन में उघाड़ा था । यही वजह है कि उन्हें विकासशील देशों में उत्तर-औपनिवेशिक युग के तीखे आलोचक के रूप में देखा जाता रहा, अपने ही लोगों के प्रति नफरत और विद्वेष के लेखक के रूप में ।

जब कोई चीज पूरी तरह उलंग रूप में सामने आती है, वह स्वत: एक विद्रोह का, एक प्रकार की अशिष्टता, मुंहफटपन का रूप लेती दिखने लगती है, बहुत सारे शिष्टाचारी संस्कृतिवानों की धड़कनों को तेज कर देती है । लेकिन वहीं से तो सत्य की दिशा में बढ़ने के लिये जरूरी स्वातंत्र्य शक्ति से आदमी का परिचय होता है । नायपॉल का लेखन इसी स्वतंत्र चेतना-शक्ति की सृजनात्मकता का एक अनूठा उदाहरण कहलायेगा ।

नायपॉल के लेखन की विशेषता थी उनकी किस्सागोई की शैली । वे चरित्रों और परिस्थितियों के विस्तृत ब्यौरों के लेखक थे । उन्होंने कहा भी है कि “कथानक उनके पास होता है, जिन्होंने दुनिया को जान लिया है । जिन्हें दुनिया को जानना हैं, उनके पास आख्यान होता है ।” नायपॉल का कहना था, आप अपनी आत्म-जीवनी में झूठ बोल सकते हैं, लेकिन उपन्यास में नहीं । वहां झूठ की जगह नहीं होती । वह लेखक को पूरी तरह से खोल देता है ।
भारत के गिरमिटिया मजदूरों की ही एक संतान नॉयपाल कैरेबियन के त्रिनिदाद के चौगुआनास में 19y32 में जन्मे थे । जीवन में उन्होंने एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास लिखें और उतना ही गैर-कथात्मक लेखन भी किया । उनका गैर-कथात्मक लेखन, खास तौर पर उनके विस्तृत यात्रा वृत्तांत, उनके उपन्यासों की तरह ही आख्यानमूलक होने के कारण उतने ही दिलचस्प और औपन्यासिक अन्तरदृष्टि का परिचय देते है। इसीलिये नायपॉल के यात्रा संस्मरणों को अक्सर उनके उपन्यासों की पीठिका के रूप में लिया जाता है ।

1957 में उनका पहला उपन्यास आया था - ‘द मिस्टीक मैशियर’। 1962 में उनके आत्मकथामूलक उपन्यास ‘अ हाउस फौर मिस्टर विश्वास’ ने उन्हें प्रसिद्धी के शिखर पर पहुंचा दिया । 2001 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला । उनके यात्रा वृत्तांत ‘अमंग द बिलीवर्स’, ‘बियॉन्ड बिलीफ’, ‘’एन एरिया आफ डार्कनेस’ हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण है । ये हमारे जैसे समाजों को और उनमें धार्मिक तत्ववादियों के मानसिक गठन को समझने की एक गहरी अन्तरदृष्टि प्रदान करके हैं ।

नायपॉल की मृत्यु पर सारी दुनिया के साहिक्य जगत ने गहरा शोक जाहिर किया है । यहां तक कि उन लेखकों ने भी उनके जाने को साहित्य जगत की एक बड़ी क्षति माना हैं जिन्होंने हमेशा नायपॉल के लेखन के पीछे के नजरिये का विरोध किया । नायपॉल कहते थे, ‘दुनिया जैसी है, वैसी है।’ उनकी यह यथार्थ-निष्ठा ही उनके लेखन की सबसे बड़ी ताकत साबित हुई है । उनके विस्तृत आख्यानों में इसी दुनिया के गतिशील रूप को देखा जा सकता है । अतीत के बारे में वे कहते थे कि आम तौर पर लोग अतीत को सिर्फ अतीत, अर्थात व्यतीत मानते हैं । इसीलिये वे खुद भी जीवन की ऐसी तमाम किल्लतों से मुक्त थे जो अतीत के बोझ की तरह आप पर लद कर आपकी भविष्य-दृष्टि के रास्ते में बाधक बनती हैं ।

नायपॉल ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद ही पाकिस्तान की पत्रकार नादिरा अल्वी से शादी की थी । पिछले बाईस सालों से नादिरा ही उनकी जीवन संगिनी रही है ।

वी एस नायपॉल के निधन पर हम उन्हें आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनकी पत्नी के प्रति हार्दिक संवेदना प्रेषित करते हैं।

-अरुण माहेश्वरी

रविवार, 12 अगस्त 2018

2019 के लक्षण साफ दिखाई देने लगे हैं


-अरुण माहेश्वरी


ज्यों ज्यों 2019 करीब आ रहा है, मोदी खेमे की बेचैनी बढ़ती जा रही है और बदहवासी में उसके नेता क्या करे, क्या न करे की सोच में सारे उत्पात एक साथ कर डालने के लिये मचलने लगे हैं । लिंचिंग का काम बदस्तूर जारी है, विपक्ष को डराने-धमकाने और संवैधानिक संस्थाओं पर जकड़बंदी बढ़ाने की कोशिशें भी बढ़ी है और मोदी-शाह-योगी आदि ताबड़तोड़ आडंबरपूर्ण सभा-सम्मेलनों में मत्त हो गये हैं । खुद बीजेपी के खजाने में मोदी की बदौलत हजारों करोड़ रुपये जमा होने पर भी पार्टी के कामों के लिये सरकारी पैसों को खर्च करने में इन्हें जरा भी हिचक नहीं है । ऊपर से समय के पहले आम चुनाव कराने या केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने की तरह के उद्भट विचारों के शोशों से भी नाना प्रकार के भ्रमों से अखबारों की सुर्खियां बटोरते रहने का उनका अभियान लगा ही रहता है ।

इनकी धमा-चौकड़ियों की तुलना में विपक्ष ज्यादा धीर-स्थिर गति से संसदीय और गैर-संसदीय मंचों से आम लोगों को लगातार सचाई से वाकिफ करा रहा है और क्रमश जगह-जगह: अपनी चौकियां तैयार कर रहा है । बदहाल जनता की बेचैनी विपक्ष की एकता का एक स्वत:स्फूर्त आधार तैयार कर रही है । उसकी गतिविधियां थोथे भ्रमों को तैयार करने के बजाय कहीं ज्यादा जन और समस्या-केंद्रित है ।

भाजपाई उन्माद के भव्य प्रदर्शनों की तुलना में विपक्ष के दलों की विकेंद्रित, संतुलित और जन-भावनाओं की संगति में स्थिर रणनीति को हमारे बहुत से मित्र सही रूप में देख नहीं पा रहे हैं । उन्हें उपचुनावों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार तक में भाजपा और उसके सहयोगियों की करारी पराजयों का सच जितना दिखाई नहीं देता है, उससे बहुत अधिक गोरक्षकों की गुंडई और मोदी-योगी के भव्य और प्रायोजित सरकारी कार्यक्रम दिखाई देते हैं ।

जो सबसे बड़ा सवाल उठाया जाता है, वह है ‘आंदोलन’  का । पूछा जा रहा है कि विपक्ष का आंदोलन कहां है ?

दरअसल, आंदोलनों का स्वरूप आम तौर पर राजनीतिक दल नहीं, उनमें शामिल जनता और उसकी कामनाएं तय करती है । जब भी जनता की चेतना से आगे बढ़ कर राजनीतिक दल उनमें ज्यादा दखलंदाजी करने लगते हैं, आंदोलन जनता को छोड़ कर कहीं और ही चलने लगते हैं ।

जिसे आप यथार्थ कहते हैं, हमारे शास्त्र उसे ही मिथ्या और भ्रम बताते हैं । मोदी-शाह के आडंबरपूर्ण कार्यक्रमों के मिथ्यात्व को इससे भी समझा जा सकता है । इनमें जनता की अपनी कामनाओं और स्वप्नों का कोई स्थान नहीं है जबकि यथार्थ का असली बोध उसकी स्वप्न-चेतना से ही जुड़ा होता है । जब आदमी जागता है, यथार्थ के रूबरू होता है, तब वह अपने सपने से ही निकल रहा होता है । अपनी क्रियाशीलता का नक्शा वह स्वप्न में ही प्राप्त करता है जो उसकी अंतर-कामनाओं से तैयार होता है । आरएसएस इसमें जबर्दस्ती हिंदुत्व को घुसाना चाहता है, जबकि भारत का आदमी अपनी जिंदगी को बेहतर करने की कामना करता है । वह आडंबर से भरे बड़बोले भ्रष्ट नेताओं को अपना दुश्मन मानता है ।

इस बात में आज कोई शक नहीं है कि पूरे भारत में मोदी के प्रति जनता में एक व्यापक मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । इसी बीच गुजरात से लेकर कर्नाटक और विभिन्न राज्यों में कई उप-चुनावों के परिणाम इसे बताने के लिये काफी है । मोदी के भ्रष्टाचार का मुद्दा भी लोगों को समझ में आने लगा है और इस विषय पर राहुल गांधी के तीखे हमलों ने उन्हें आज की राजनीति के सबसे प्रमुख और केंद्रीय स्थान पर खड़ा कर दिया है । मोदी के पास रफाल सौदे में किये गये भारी भ्रष्टाचार से जुड़े एक भी सवाल का जवाब नहीं है । इसके विपरीत, राहुल के प्रति आम लोगों में आग्रह काफी बढ़ा है । वामपंथी दलों के नेतृत्व में किसान आंदोलनों ने गांव-गांव में किसानों के बीच एक नई जागृति पैदा करना शुरू कर दिया है । और सर्वोपरि, राजनीति का हर गंभीर खिलाड़ी इस बात को अच्छी तरह से महसूस करने लगा है कि 2019 में मोदी की करारी पराजय में ही गैर-भाजपाई प्रत्येक दल का भविष्य है । उन्हें इन चार साल में मोदी के स्वैराचार के कई अनुभव हुए हैं । नीतीश की तरह के लोग अभी से मोदी से सौदेबाजी करके अपने को सुरक्षित कर लेने का भ्रम पाले हुए हैं । लेकिन हवा में आने वाली मोदी-विरोधी आंधी का जो भारीपन दिखाई देने लगा है, उस आंधी में मोदी के भरोसे वे कितना अपने को बचा पायेंगे, इसकी धुकधुकी चुनाव के अंतिम दिन तक इन लोगों में बनी रहेगी ।

सिर्फ आठ महीनों बाद ही लोक सभा के चुनाव होने वाले हैं । उसके पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान,छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधान सभा के चुनाव इसी साल के अंत में हो जायेंगे । इन चारों राज्यों में कांग्रेस की सीधी टक्कर भाजपा से होगी और सब जानते है कि चारों राज्य में ही कांग्रेस आज भाजपा से काफी बेहतर स्थिति में है । भाजपा के आडंबरों से अगर भ्रमित न हो तो कोई भी उप चुनावों की तरह ही इन चुनावों में भी कांग्रेस की सुनिश्चित जीत के आंकड़ों को इधर के रुझानों से समझ सकता है । इन राज्यों में मोदी की बुरी स्थिति का सबसे बड़ा प्रमाण एक यह भी है कि उसने इन राज्यों के पुराने नेताओं के भरोसे ही अपने को छोड़ दिया है । अगर उन्हें जीत का भरोसा होता तो वे खुद को ही सामने लाने के लिये अपने तीनों मुख्यमंत्रियों को हटा कर चुनाव में जाते ।

और कहना न होगा,  यहीं से  एक बच्चा भी 2019 के चुनाव के अंत तक की पूरी तस्वीर आंकने में समर्थ हो जायेगा ।


सचमुच, तब हमारी नजर आज के मीडिया पर होगी, जो भाजपा के फेके टुक्कड़ों के एवज में किस हद तक अपने को मूर्ख और अयोग्य घोषित करने के लिये तैयार होगा । चार राज्यों के आगत चुनावों के बाद, मोदी-शाह की सजी हुई बगिया सभी स्तरों पर जिस तेजी से उजड़ेगी, सचमुच वह एक दिलचस्प नजारा होगा ।

सोमवार, 6 अगस्त 2018

मुगलसराय पर लाद दिये गये पंडित दीनदयाल उपाध्याय

 ये दीनदयाल उपाध्याय आखिर है कौन ?
-अरुण माहेश्वरी


कल मुगलसराय जंक्शन पर भाजपा के अमित शाह ने जाकर मुगल सराय के नाम को पोंछ कर उसकी जगह ब्राह्मणत्व के सभी तत्वों को समेटे हुए एक दीर्घसूत्री नाम 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' लिख दिया । यह कुछ वैसा ही था जैसा दक्षिण के कुछ राज्यों में हिंदी-विरोधी तत्व बीच-बीच में हिंदी में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत आते हैं । यहां हिंदू सांप्रदायिक मानस ने निशाना 'मुगलसराय' को बनाया है !

बहरहाल, ये पंडित जी आखिर हैं कौन ?

बी डी सावरकर ने एक बार आरएसएस के स्थापनाकर्ता हेडगेवार को यह श्राप दिया था कि “ आर एस एस के स्वयंसेवक के समाधिलेख पर लिखा रहेगा कि उसने जन्म लिया, आर एस एस की शाखा में शामिल हुआ और बिना कोई कार्य किये मर गया ।” कहना न होगा, दीनदयाल जी एक ऐसे ही आर एस एस के शापित स्वयंसेवक थे ।

वे 1937 में आर एस एस के संपर्क में आए और 1942 में पचीस साल की उम्र में संघ के प्रचारक हो गये और 12 फरवरी 1968 के दिन मुगलसराय स्टेशन पर एक ट्रेन में मृत पाये गये । उस समय यूपी में संविद (संयुक्त विधायक दल) की सरकार थी जिसके मुख्यमंत्री थे चौधरी चरण सिंह और जिसमें जनसंघ एक प्रमुख घटक दल था,  जिसके नेता दीनदयाल जी हुआ करते थे । उनकी रहस्यमय मृत्यु को संघ के लोग आज भी रहस्य बनाके इशारों-इशारों में उससे राजनीतिक लाभ उठाने की बेकार की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी उसकी गहराई से जांच कराने की कोशिश नहीं की । जब उनकी मृत्यु हुई, जनसंघ खुद यूपी की सत्ता में थी, फिर भी उसके कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाएं । हत्या के सुरागों को पूरी तरह से मिटा देने में सचमुच कुछ लोगों को महारथ हासिल होता है !

जो भी हो, आर एस एस के एक वरिष्ठ नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 'पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन' श्रृंखला की पहली कड़ी में उनकी 'तत्व जिज्ञासा' पर लिखते हुए उनका एक जीवन परिचय दिया है, जिसमें वे साफ बताते हैं कि आरएसएस में आने के पहले तक दीनदयाल का जीवन क्या था, इसे कोई नहीं जानता । जब वे आर एस एस में आए और प्रचारक बने, पचीस साल के हो चुके थे । 1942 का वह काल, 'भारत छोड़ो' आंदोलन का एक क्रांतिकारी काल था जब भारत का हर देशभक्त नौजवान के हृदय में आजादी के संघर्ष की आग जल रही थी । ऐन उसी समय, पहले कभी किसी अन्य सामाजिक गतिविधि से दूर रहने वाला दीनदयाल उस आर एस एस में शामिल हुआ, जिसे अंग्रेज सरकार का वरद्-हस्त प्राप्त था, और जिसे ब्रिटिश सरकार भारत में सांप्रदायिक बटवारे के एक औजार के रूप में प्रयोग करने पर विचार कर रही थी, क्योंकि आर एस एस भी मुस्लिम लीग का प्रतिपक्ष बन कर भारत के बटवारे की सूरत में अपने को अंग्रेजों की कृपा से हिंदू भारत का अधिकारी बनाने की तैयारी कर रहा था ।

बहरहाल, आर एस एस का वह सपना पूरा नहीं हुआ तो हमारी आजादी के रूपाकार गांधी जी को ही मौत के घाट उतार दिया गया । आरएसएस पर प्रतिबंध लगा । किसी प्रकार से मुचलकें आदि देकर इस प्रतिबंध के हटने के बाद आर एस एस के तत्कालीन सरसंघचालक और मूल सिद्धांतकार सदाशिवराव गोलवलकर ने 1952 में जनसंघ के नाम से अपना एक राजनीतिक दल गठित किया और उन्होंने यूपी की तरह के एक सबसे प्रमुख राज्य में जनसंघ के लिये काम करने का जिम्मा अपने सबसे विश्वस्त व्यक्ति दीनदयाल उपाध्याय को सौंपा ।

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल के बारे में लिखते वक्त बार-बार इसी बात का जिक्र किया है कि वे जनसंघ के अंदर हर मायने में गुरूजी (अर्थात गोलवलकर) की ही प्रतिमूर्ति थे । उनके शब्दों में “पंडित जी का सबसे महत्वपूर्ण एवं आत्मीयता का अलौकिक संबंध तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरूजी के साथ था ।...(जिसका) वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं।” कहना न होगा, वे गुरूजी की बातों को इशारों में समझ जाते थे और उन पर पूरी निष्ठा से अमल करते थे, यही उनका सबसे बड़ा गुण था । और गुरूजी के साथ उनके संबंधों में 'अलौकिकता' ! यह तो भाजपा-आरएसएस में प्रत्येक के आपसी संबंधों का एक प्रमुख तत्व है । जिस सभा में अमित शाह वसुंधरा राजे सिंधिया को अपने पद से हटाने की साजिश रचेंगे, उसमें भी वसुंधरा जी के साथ अपने संबंधों को 'अलौकिक' बताने से वे नहीं चूकेंगे !

बहरहाल, पंडित जी के भगवान ये 'अलौकिक' गुरूजी क्या थे ? इसे कोई भी उनकी लिखी, उनके अंतर की गोपनीयता को उजागर करने वाली, सबसे प्रमुख किताब 'वी और आवर नेशनहुड डिफाइन्ड' के जरिये जान सकता है ।

गुरू जी हिटलर के परम भक्त थे और मानते थे कि हिटलर ने जर्मनी में जो पथ लिया, वही दुनिया के सभी राष्ट्रों के लिये श्रेष्ठ पथ है । उन्होंने डंके की चोट पर यह ऐलान किया था कि 'न पूंजीवाद चलेगा, न समाजवाद चलेगा — संघवाद (मुसोलिनी के कारपोरेटिज्म) का डंका बजेगा । हिटलर के सुझाये रास्ते पर भारत को भी चलना चाहिए कहते हुए उन्होंने विस्तार के साथ हिटलर का गुणगान करते हुए यहां तक लिखा था कि  ’’अब हम राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’ (गोलवलकर, उपरोक्त, पृ. 35)

गोलवलकर मुसोलिनी के जिस कॉरपोरेटिज्म को संघवाद बता कर उसका डंका बजा रहे थे, दीनदयाल जी उसे ही अपना एकत्मवाद बता रहे थे । उनके शब्दों में —“जब हमसे कोई पूछता है कि 'आप व्यक्तिवादी हैं समाजवादी ? तब मैं सदैव कहा करता हूं कि हम दोनों का विचार करते हैं । हम पूर्णतावादी, एकात्मवादी, आत्मवादी तथा संघवादी है ।” (पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन, खंड – 3, पृष्ठ – 15)

मजे की बात यह है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल जी के भी गुणों की प्रशंसा करते हुए अन्य अनेक लोगों की अतिशयोक्तिपूर्ण बातों के उद्धरणों की खास संघी शैली में एक जगह हिटलर के कथन को उद्धृत करने में भी कोई हिचक महसूस नहीं की है, जिसमें वे लिखते हैं — “हिटलर ने अपनी आत्मकथा में कहा है, “ एक ही व्यक्ति में तत्वचिंतक, संगठक एवं नेता के गुण हों, यह विश्व की अत्यंत दुर्लभ घटना होगी ।” हिटलर के विचारों के बारे में गोलवलकर के उपरोक्त कथन में 'सामी जातियों' की जगह विधर्मियों (अर्थात गैर-हिंदू) रख दीजिए, आपको गोलवलकर के भारत के बारे में विचार समझ में आ जायेंगे और उनकी छाया दीनदयाल जी के विचारों में भी पूरी तरह से इन विचारों का अक्श दिखाई देगा ! वही इनकी मूल तात्विकता है, संघ के नेता की प्राणी सत्ता, बाकी सब बातें 'अलौकिक' की तरह ही तत्वहीन, कोरी अलंकारिकता हैं ।

हम सभी हिटलर की तत्व-चिंता को और पूरी मनुष्य प्रजाति पर आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के आरोपण के उसके मानव-द्रोही अभियान को जानते हैं । और दीनदयाल जी, संघ विचारक के शब्दों में, वैसी ही एक 'दुर्लभ घटना' थी । दत्तोपंत ठेंगड़ी ने गुरू जी और दीनदयाल जी के विचारों के बीच साम्य के जिन तमाम विषयों का उल्लेख किया है, ये वही सब विषय हैं जिनके अंदर से पी एन ओक की तरह के सिरफिरे इतिहासकार पैदा होता हैं — ताजमहल को तेजोमहालय शिवमंदिर बताने वाले, आगरा के लाल किले को हिंदू भवन साबित करने वाले, दिल्ली के लाल किले को लाल कोट और लखनऊ के इमामबाड़े को हिंदू राजभवन घोषित करने वाले !

दीनदयाल जी जनसंघ के प्रथम अधिवेशन (1952, कानपुर) से उसके अखिल भारतीय महामंत्री थे । और आज, जब वे इस जगत में नहीं हैं,  मुगलसराय स्टेशन के नाम के अधिकारी है !

शनिवार, 4 अगस्त 2018

शासक का 'घमंड और प्रभुत्वारोपण' ही राजनीति में फासीवाद है

—अरुण माहेश्वरी


आज ही हमने तीन दिन बाद भाषाशास्त्री जी एन देवी के टेलिग्राफ ( 2 अगस्त 2018) में प्रकाशित लेख 'जब सवाल उठते हैं ( When questions erupt)1 को पढ़ा और आज ही अरुंधती राय के उस वक्तव्य को भी देखा जिसमें उन्होंने सब राजनीतिक लोगों से अपने मतभेदों को भूल कर 2019 में मोदी को अपदस्थ करने का आह्वान किया है, अन्यथा मोदी 'जिस आग से भारत को सुलगा देना चाहते हैं, वह आग हजार साल तक हमें जलाती रहेगी ।'2

देवी का लेख भीड़ (mob) शब्द के एक व्युत्पत्तिमूलक आख्यान से शुरू होता है जो फ्रांसीसी क्रांति के बाद के व्यक्ति स्वातंत्र्य के काल में एक तिरस्कृत शब्द था, वहीं बीसवीं सदी में समाज में क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिये लामबंद जनता का प्रतीक बन गया और मानव समाज के विकास के ही अनुषंगी यांत्रिक विकास में वह मोबाइल स्टील से बनने वाले यंत्रों के ढांचों में ढल कर अब मोबाइल फोन तक की यात्रा पूरी कर चुका है । मनुष्यों ने इस मोबाइल नामक यंत्र को अपने मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण काम सुपुर्द कर दिया है, स्मृतियों को संजो के रखने का काम । चूंकि स्मृति मनुष्य के दिमाग की तरह उसका कोई अविभाज्य अंग नहीं होती है, बल्कि यह उसकी एक उपार्जित संपदा है , इसीलिये उसे किसी अन्य के सुपुर्द करना संभव समझा गया है । यद्यपि इसी उपार्जित बौद्धिक और सांस्कृतिक संपदा के बल पर मनुष्यों में ज्ञान की तमाम कुल और क्रम की श्रेणियां विकसित हुई हैं, सभ्यता और संस्कृति के मानदंड तैयार हुए हैं, फिर भी व्यवहारिक कारणों से ही मनुष्यों ने यह जरूरी समझा कि इन स्मृतियों को बनाये रखने के लिये क्यों फिजूल में मानव श्रम को लगाया जाए, जबकि उसे अलग से कम्प्यूटर चिप्स में सुरक्षित रखा जा सकता है । और देवी ने बिल्कुल सही कहा है कि इस उपक्रम में मोबाइल और टैब्लैट्स की तरह के उसकी कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) की धनी नाना संततियों ने ऐसे अनेक सामान्य कामों को करना शुरू कर दिया हैं जिनके जरिये अब तक मनुष्य अपने जिंदा रहने के प्रमाण दिया करता था ।

बहरहाल, स्मृतियों से मुक्ति के मनुष्य के इस नये अभियान ने आदमी के जीवन में स्मृति की भूमिका को गौण करना शुरू कर दिया । आज 21वीं सदी का मानव-प्राणी सिर्फ भविष्य के बारे में सोचता है, उसकी खुशियां उसके क्रेडिट कार्ड के स्वास्थ्य से जुड़ गई है । देवी के शब्दों में वह धरती पर भविष्य के लिये सुरक्षित संसाधनों को अभी, तत्काल अपने लिये खर्च कर लेना चाहता है । स्मृति से जुड़े विषयों के प्रति वह इतना बेपरवाह है कि उसे पूरी तरह से मोबाइल के जिम्मे छोड़ दिया है ।

देवी कहते हैं कि यहीं से एक ऐसे दमनकारी राज्य के लिये जमीन तैयार हुई है जो मनुष्यों की सामूहिक परिवर्तनकारी चेतना को जगाने वाली संघर्षों की स्मृतियों के अवशेषों तक को पोंछ डालने की कोशिश में लगा हुआ है ताकि उस राज्य को चुनौती देने का किसी में कोई सोच भी पैदा न होने पाए । देवी ने राज्यों के इस काम को करने वालों की फौज के रूप में दुनिया की कई सरकारों की ट्रौल सेनाओं की ठोस सिनाख्त की है जो अपने हाथों की मोबाइल शक्ति के बल पर लोगों की स्मृतियों को अपनी मर्जी के अनुसार ढालने की परियोजनाओं में लगी हुई हैं । इसी संदर्भ में उदाहरण के तौर पर देवी बताते हैं कि हमें आज मोदी-आरएसएस के ट्रौल्स लगातार यह सिखाने में जुटे हुए है कि गांधी जी ने हमारे देश का बटवारा कराया, गोडसे एक महान आत्मा थी, नेहरू जी भारत के लोगों के एक नंबर दुश्मन थे, प्राचीन भारत में ही प्लास्टिक सर्जरी और विमानों का आविष्कार हो गया था और जो सरकार इस महान ज्ञान को आगे बढ़ाते हुए प्रगति के बड़े-बड़े डग भर रही है, उसे कुछ खराब लोग संदेह की दृष्टि से देखते है ! ये लोग कुछ कथित अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के द्वारा अनुमोदित अपनी उपलब्धियों के बारे में रोजाना फर्जी रिपोर्टे भी तैयार करके चलाते रहते हैं । देवी इस परिस्थिति को सच, झूठ और डर का एक अनोखा घालमेल कहते हैं और कहते है कि लगता है जैसे अब जनता की अपनी स्मृति कुछ नही रहेगी, वह पूरी तरह से इन ट्रौल्स की मोबाइल शक्ति के आसरे होगी ।

अपने लेख में देवी आगे व्यवस्था की समीक्षा करने की शक्ति को ही लुप्त करने के काम में लगे राज्य की भूमिका को प्राचीन लैटिन के शब्द hegemony (प्रभुत्व) से व्याख्यायित करते हैं और कहते हैं कि यह पद सत्ता की प्रकृति को सूचित करता है और इस प्रकार की प्रश्नातीत सत्ता अक्सर बहु-संख्यकों की शासकों के विचार और सोच को आगे बढ़ाने की एक प्रकार की अंतरकामना से तैयार होती है । देवी इसे निद्रारोग से ग्रसित सामाजिक परिस्थिति (insomniac social condition) कहते हैं जिसमें एक विशाल संख्यक लोग कमजोर लोगों पर शासकों की मनमर्जी को थोपने के लिये आतुर रहते हैं । ऐसा “नीति-विहीन, आत्म-तुष्ट और निर्बुद्धि के द्वारा निर्मित प्रभुत्व समाज में एक राजनीतिक- मनोवैज्ञानिक बीमारी पैदा करता है जिसे प्राचीन युनानी शासन-व्यवस्था में hubris (घमंड, अक्खड़पन) कहते हैं । वे इसे गौरव कहते हैं लेकिन जिसे हम अच्छी चीज पर गर्व करना कहते हैं, यह गौरव उससे बिल्कुल अलग है । इसमें शासक यह भूल जाता है कि वह आज जहां है, वहां क्यों है ? घमंडी शासक संवाद नहीं करता । वह सवालों से कतराता है । वह उसे बहरा करने वाली श्रेष्ठता की गूंज से पूरी तरह संवेदनशून्य बना देता है ।”

इसी क्रम में देवी कहते हैं कि ऐसी स्थिति में “भीड़ के रूप में जनता का मानवीय पक्ष पूरी तरह लुप्त हो जाता है और वह हत्यारी भीड़ (lynch mob) में तब्दील हो जाती है ।”

शासक में घमंड की बीमारी और समाज के एक अंश की उसके इशारों पर नाचने की तैयारी समाज को एक हत्यारी भीड़ का समाज बना देता है । ऐसा शासक जनता की स्मृतियों के लोप से अपने अलावा अपने आगे-पीछे के हर किसी के अस्तित्व को खत्म करना चाहता है । जो भी उससे भिन्न मत रखता है, वह ट्रौल्स के हमलों का शिकार होता है । इसके बाद भी आवाज उठाने पर उसे राष्ट्र-द्रोही बता कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । घमंड में डूबे राजा के ही प्रताप से प्रजा में तेजी से हिंसा का स्वाद पैदा हो जाता है । स्मृतियों पर मोबाइल के हमलों की जमीन पर हत्यारी भीड़ अब ऐसी हर चीज की हत्या करने लगती है जिसे वह समझती है कि उसके राजा को वह पसंद नहीं है ।

देवी एक हत्यारे उन्माद में डाल दिये जा रहे समाज की रचना की इस पूरी कहानी का उपसंहार इन शब्दों में करते हैं — “ प्रभुत्व और घमंड दोनों के ही अपने विचित्र इतिहास हैं । प्रभुत्व सवालों को दबाने की कोशिश करता है लेकिन दबाए गये सभी सवाल अलग-अलग रूपों में वापस आते हैं — वे कभी उना की नग्नता में लौटते हैं तो कभी उन्नाव के क्रंदन में । कैम्पस के नारों में तो अखबारों के स्तंभों की भाषा में छिपे संकेतों में । और प्रभुत्व जिस जड़ समाज की रचना करता है उसमें दांडी के चुटकी भर नमक जितने सवाल का मुकाबला करने की भी ताकत नहीं होती है । उसके अंत से एक डर लगता है लेकिन कोई गहरी सहानुभूति पैदा नहीं होती है । हत्यारी भीड़ और मोबाइल ट्रौल्स की फौज भूल जाती है बलपूर्वक स्मृतियों को पोंछने का अंत प्रभुत्व और घमंड के अंत में ही होता है । मौन कर दी गई हर स्मृति अपने हर निर्वासन के बाद वापस लौट आती है ।”

यह थी भाषाशास्त्री जी एन देवी के द्वारा तानाशाही सत्ता के उदय और अंत की एक महत्वपूर्ण तात्विक व्याख्या । जाहिर है कि यह कोई अमूर्त आख्यान नहीं है । इसके केंद्र में मोदी और उनकी ट्रौल वाहिनी है, हमारे समाज के स्मृतिविहीन दानवीकरण का अभी चल रहा घृणित अभियान है ।

देवी के इस विश्लेषण में आगे और जोड़ते हुए हम और भी साफ शब्दों में यह कहना चाहेंगे कि यही 'प्रभुत्व और घमंड' का नंगा खेल राजनीतिक शब्दावली में फासीवाद है । यह भी 'प्रभुत्व और घमंड' की नग्नता की राजनीतिक क्रियात्मकता को व्यक्त करने वाला मनुष्यों के इतिहास से ही व्युत्पन्न पद है, जैसे mob से लेकर lynch-mob है ।

हमारे कुछ मित्र अभी इस फासीवाद शब्द के प्रयोग से परहेज करते हैं, क्योंकि ऐसा एक वामपंथी पार्टी के बड़े नेता ने कह दिया था कि इससे मोदी की पहचान धूमिल होगी । 'शत्रु से लड़ने के लिये उसकी सटीक पहचान की जानी चाहिए' ।

हमारा खुद से यह सवाल है कि आज जब मोदी-आरएसएस के खिलाफ विपक्ष की सारी ताकतें एकजुट हो ही रही हैं, तो वे उन्हें फासीवादी मान कर उनका प्रतिरोध करे या कुछ और मान कर, इससे क्या फर्क पड़ता है ?
दरअसल, किसी शब्द या पद के प्रयोग की हमारी क्रियाशीलता में क्या भूमिका होती है ? किसी भी शब्द को सुन कर जब हम उसके अपने नाद-जगत से निकलने वाली ध्वनियों के चक्र पर सवार हो जाते हैं तब वह चक्र ज्यों-ज्यों और जहां-जहां जाता है, वह एक सार्वभौम सम्राट की तरह हमें चीजों को समझने की एक सर्वात्मक दृष्टि देता है । अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में जहां आदमी के विवेक की व्याख्या की है उसमें एक जगह वे शब्द आदि के विषय में श्रोत्र आदि छिद्रों के रास्ते से उनकी नादात्मा की भावना करने की बात करते हुए यही कहते हैं कि “जैसे सार्वभौम राजा दूसरे राष्ट्र में जहां कहीं जाता है वहां दूसरे राजा सहायता के लिये अवश्य पीछे-पीछे पहुंचते हैं, उसी प्रकार एक चित्तवृत्ति जिस किसी विषय में बनती है, वहीं पर पीछे-पीछे दूसरी वृत्तियां भी बनती है ।

“एकैकापि च चिद्धृत्तिर्यत्र प्रसरति क्षणात् ।
सर्वास्तत्रैव धावन्ति ता: पुर्यष्टकदेवता: ।।

(एक क्षण में एक भी चित्तवृत्ति जहां पहुंचती है, सभी पुष्टिकारी देवतायें वहीं दौड़ कर पहुंच जाती है ।)
तो, आज की पूरी परिस्थिति के विषय की पहचान के साथ ही यह राजनीतिक क्रियाशीलता के लिये जरूरी चित्त-वृत्ति का मामला है, चेतना शक्ति का मामला है । यही है जो हमें सुनियोजित ढंग से जनता की स्मृतियों के अवलोपन के साथ ही, शासन के 'प्रभुत्व और घमंड' के दूसरे सभी सामाजिक-राजनीतिक आयामों की पहचान देता है ।


इसीलिये जी एन देवी के लेख को प्रस्तुत करने वाली अपनी इस टिप्पणी का प्रारंभ हमने अरुंधती राय के मोदी को पराजित करने के आह्वान से किया है और इसका अंत भी हम फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की बहु-स्तरीय रणनीति को तैयार करने के लिये जरूरी निःशंक राजनीतिक चित्तवृत्ति के निर्माण की जरूरत पर बल देकर कर रहे हैं । इस चित्तवृत्ति के अभाव में ही आज भी कुछ वामपंथी नेता अपने अंध-कांग्रेस-विरोध के दलदल में ही फंसे हुए हैं । उनके पास आज के संघर्षों को दिशा देने के लिये जरूरी उद्बोधन की न्यूनतम भाषा का भी अभाव है ।

1. https://www.telegraphindia.com/opinion/when-questions-erupt-249234

2. https://epaper.telegraphindia.com/imageview_207307_162031777_4_71_04-08-2018_6_i_1_sf.html

   

बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमान जेटली ! भारत का नागरिक मोदी-आरएसएस टोली का गुलाम नहीं है ।

-अरुण माहेश्वरी


एनआरसी के विषय में अमित शाहों की थोथी फुत्कारों के बाद अब रोग शैया से अरुण जेटली को आरएसएस की ओर से मैदान में उतारा गया है । उन्होंने राहुल गांधी और विपक्ष के सारे नेताओं को उपदेश दिया है कि भारत की सार्वभौमिकता कोई खिलौना नहीं है । सार्वभौमिकता और नागरिकता का सवाल भारतीयता के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा सवाल है ।

असम में एनआरसी का मसौदा जारी होने के बाद ही, जिसमें चालीस लाख लोगों को फिलहाल उस सूची से बाहर रखा गया है, अमित शाह और भाजपा के सारे हुड़दंगी नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि ये सब बचे हुए या छांट दिये गये लोग बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं । इनसे सारे नागरिक अधिकार छीन लिये जाने चाहिए ।

भाजपा के इन हुड़दंगियों की भड़काऊ हरकतों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को यह तत्काल निर्देश देना पड़ा कि इस मसौदे के आधार पर असम के एक भी निवासी के विरुद्ध जरा सी भी कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है । यह कोरा मसौदा है, एक कच्ची सूची । इसे अंतिमम रूप देने के लिये असम में नागरिकता के प्रत्येक दावेदार के आवेदन की सही ढंग से जांच को पूरा करना होगा ।

सभ्य समाज में इंसाफ का यह न्यूनतम तकाजा है कि एक भी मासूम व्यक्ति के साथ नाइंसाफी नहीं की जा सकती है, भले ही दोषी व्यक्ति को सजा न मिल पाए । इसीलिये एनआरसी को अंतिम और क्रियात्मक रूप देने के पहले राज्य को बहुत संजीदगी और धीरज के साथ हरेक आवेदन को जांच-परख कर उस पर न्याय करना होगा । यह निश्चित तौर पर एक दीर्घकालीन प्रक्रिया के जरिये ही संभव हो पायेगा । अभी जितने साल इस मसौदे को तैयार करने में लगे हैं, शायद उससे कई गुना ज्यादा साल उसे अंतिम रूप देने में लगेंगे ।

एनआरसी को लेकर भाजपाई पागलों के उन्माद को देखते हुए चुनाव आयोग को भी यह साफ ऐलान करना पड़ा कि एनआरसी के इस मसौदे से मतदाता सूची का कोई संपर्क नहीं हो सकता है । इस सूची का क्रियात्मक रूप से अभी कोई मूल्य नहीं है ।

इन सबके बावजूद, तेजी से जन-समर्थन गंवा रही मोदी-आरएसएस टोली अपनी बदहवासी में इसे ही अपनी नफरत और जनता को बाटने की राजनीति के एक और औजार के रूप में प्रयोग करने के लिये उतर पड़ी है ।

जेटली कहते हैं, भारत की सार्वभौमिकता कोई खिलौना नहीं है । हमारा जेटली से यह प्रति-प्रश्न है कि क्या भारत का नागरिक मोदी-आरएसएस गिरोह का गुलाम है ? जब तक यह पूरी तरह से, बिना किसी शक-सुबहे के प्रमाणित नहीं हो जाता कि फलां व्यक्ति इस देश का नागरिक नहीं है, तुम्हें किसने अधिकार दिया कि तुम उनको गैर-नागरिक घोषित कर दो ?

क्या जेटली दुनिया में नागरिकता के प्रश्नों की बारीकियों से परिचित नहीं है । खुद मोदी-जेटली के ढेर सारे एनआरआई मित्रों ने दोहरी नागरिकता ले रखी है । आज या कभी भी, किसी देश की नागरिकता का खाता अंतिम रूप से बंद नहीं होता है । नाना कारणों से, नाना शर्तों पर इसमें नई-नई प्रविष्टियां होती रहती है । पूरी मानव सभ्यता का निर्माण आप्रवासनों से ही हुआ है । यही मानव समाज की वैश्विकता का प्रकट रूप है । इस विषय पर अति-शुद्धतावादी और उत्तेजक रवैया वही अपनाता है जो संकीर्ण नजरिये वाला, किसी न किसी स्तर पर एथनिक क्लिनजिंग, नस्लों की शुद्धता पर विश्वास करने वाला नस्लवादी पशु होता है। पशु पर ही किसी नए ज्ञान-अज्ञान का कोई असर नहीं पड़ता है ।

जेटली से कोई पूछे कि जब यह देश दुनिया में बसे हुए एनआरआई को अपनी नागरिकता देने के लिये पलक पावड़े बिछाता है, तब क्यों उन्हें देश की सार्वभौमिकता और नागरिकता के नाजुक विषय का खयाल नहीं आता ? क्यों आपकी कुदृष्टि हमेशा कमजोर और असहाय लोगों पर ही पड़ती है जो खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, तमाम निर्माण-विनिर्माण के स्थलों आदि में मेहनत-मजूरी करके अपना जीवन यापन और इस देश का निर्माण करते हैं । कभी नोटबंदी के नाम पर आप उन्हें बुरी तरह नचाते हैं, तो कभी साधारण व्यापारियों से जीएसटी की मनमानियों का खेल खेलते हैं, और अभी यह नया एनआरसी का सोसा शुरू कर दिया है । क्यों आप गरीब लोगों पर अपनी फासीवादी राजनीति का प्रयोग करते रहते हैं ?

राष्ट्र की सार्वभौमिकता राज्य के दमन और अत्याचारों से नहीं, उसके नागरिकों की एकता, आपसी सौहार्द्र और कानून के प्रति सबकी निष्ठा से बनती है । लेकिन जेटली ने देश की सार्वभौमिकता का मायने हिटलरी राज्य समझ लिया है । जिनके पास जनता के जीवन में उन्नति, सुरक्षा और कल्याण की कोई राजनीतिक दृष्टि और कार्यक्रम नहीं है, वे शुद्ध रूप से आम लोगों को डरा कर उनका समर्थन पाने, और इंसान के अंदर के पशु भाव को जागृत करके अपना वोट बैंक बनाने की राजनीति में लगे हुए हैं । हमारे देश की सार्वभौमिकता के असली शत्रु तो मोदी-आरएसएस टोली है, जो देश को खाक करके अपना भगवा लहराना चाहते हैं ।

समय आ गया है जब एक-एक विवेकवान भारतीय को हमारे इस देश को बाटने की साजिश में शुरू से लगे इन सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के खिलाफ सचेत और सन्नद्ध होना होगा । सभी देशभक्त राजनीतिक ताकतों को इस समय एकजुट होकर इनके खिलाफ उतरना होगा । देश रहेगा, तभी कोई राजनीति और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताएं रहेगी । ये तो इस देश की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं ।