मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सिंगुर मामले पर सुप्रीम कोर्ट की राय कल



-अरुण माहेश्वरी

कल सुबह साढ़े दस बजे सुप्रीम कोर्ट सिंगुर मामले में अपनी राय सुनाने वाला है। कुछ लोगों का, खास तौर पर बुद्धिजीवियों के एक हलके का यह मानना रहा है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की पराजय में सिंगुर मामले की एक प्रमुख भूमिका थी। गौर करने की बात है कि वाम मोर्चा की पराजय के बाद, पांच साल बीत गये, इसी साल विधानसभा का एक और चुनाव होगया, लेकिन सिंगुर का विषय शुद्ध रूप से एक कानूनी विषय बन कर ठंडे बस्ते में पड़ा रह गया। इन पांच सालों में, और पिछले विधानसभा चुनाव में भी इस विषय पर किसी प्रकार की कोई राजनीतिक चर्चा या उत्तेजना देखने को नहीं मिली।

यह अकेला तथ्य क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वाममोर्चा के पराजय की राजनीतिक प्रक्रिया में सिंगुर कोई प्रमुख विषय नहीं था। बल्कि इसके दूसरे ही तमाम कारण थे जिन्हें काफी हद तक वाममोर्चा सरकार के अंदर ही खोजना होगा। यदि वाममोर्चा सरकार के पतन की राजनीतिक प्रक्रिया में सिंगुर कोई केंद्रीय मसला होता तो वह इस प्रकार सिर्फ एक कानूनी लड़ाई का विषय बन कर न रह गया होता, उसकी राजनीतिक गूंज-अनुगूंज बाद में भी निश्चित तौर पर सुनाई देती।

सिंगुर तथा देश मे जमीन के अधिग्रहण की दूसरी कई घटनाओं की पृष्ठभूमि में भूमि अधिग्रहण के विषय ने एक समय बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक विषय का रूप ले लिया था। आनन-फानन में केंद्रीय स्तर पर जमीन अधिग्रहण के बाबा आदम के जमाने के कानून की जगह एक नया विधेयक तैयार कराया गया। उस पर तमाम स्तरों पर भारी बहसें हुईं। लेकिन आज वही विधेयक केंद्रीय सरकार के पास लंबे काल से लंबित ट्रैफिकिंग कानून, महिला आरक्षण कानून की तरह ही दूसरे कई महत्वपूर्ण कानूनों की तरह अधर में लटक गया है। संसद के एक के बाद एक सत्र बीत जाते हैं, लेकिन भूमि अधिग्रहण विधेयक लगता है जैसे विस्मृति के किसी अतल अंधेरे में डुबो दिया गया है।

यह इस बात का एक और प्रमाण है कि हमारी संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की देश की शोषण पर टिकी उत्पादन-व्यवस्था के साथ किसी प्रकार का कोई टकराहट नहीं है। सामयिक तौर पर समाज में उठने वाले तूफानों की कुछ थपेड़े इस पर पड़ती दिखाई देती है, लेकिन उतने समय तक ही जब तक यह तूफान जारी रहता है। व्यवस्था का सारा ताम-झाम किसी तरह उस तूफान के गुजर जाने तक का इंतजार करने के लिये हैं। और किसी भी वजह से ऐसा कोई कानून पारित भी हो जाता है तो जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार के दूसरे कानूनों की तरह ही बाद में भी उन्हें निरस्त करने की कानूनी, गैर-कानूनी सामाजिक प्रक्रियाएं बाकायदा जारी रहती है।

बहरहाल, जहां तक सिंगुर के मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय का सवाल है, उससे सबसे पहले तो यह पता चलेगा कि 2006 में जब वाममोर्चा सरकार ने सिंगुर में जमीन का अधिग्रहण किया, वह अधिग्रहण कानून-सम्मत था या नहीं। इसके अलावा, 2011 में ममता बनर्जी की सरकार ने सिंगुर के मामले में जो एक विशेष कानून बनाया था, जिसे कोलकाता हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने गैर-कानूनी करार दिया, उसकी भी कानूनन क्या स्थिति है।

सुप्रीम कोर्ट की राय देश के वर्तमान कानून पर ही टिकी रहेगी। इस राय से वह काम नहीं हो सकता जिसके लिये संसद के जरिये संविधान संशोधन विधेयक तैयार किया गया है। इसीलिये, हमारी नजर में, इस राय में किसी प्रकार की नई संभावना को देखना मुमकिन नहीं है। वाममोर्चा सरकार ने भले ही इसके राजनीतिक पक्षों पर ज्यादा ध्यान न दिया हो, लेकिन इसके कानूनी पहलू के बारे में वह काफी साफ थी। कल की राय से संभव है, इस पूरे प्रसंग का अब क्रियाकर्म हो जायेगा, बशर्ते सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की यह बेंच इस विषय को और ज्यादा दिनों तक लंबित रखने के उद्देश्य से बड़ी बेंच के सुपुर्द नहीं करती है।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

'आलोचना के कब्रिस्तान से' पुस्तक की भूमिका



भूमिका 

कोलकाता की ‘लहक’ पत्रिका में प्रकाशित हुए इन सभी लेखों को लिखने के पीछे कभी कोई पूर्व योजना नहीं रही। अथवा, जिसे a priori, अर्थात अनुभव-निरेपक्ष विषय कहते हैं, मसलन्, ‘साहित्य क्या है’, ‘साहित्य और आलोचना’, ‘साहित्य और समाज’, ‘साहित्य की भूमिका’, ‘साहित्य के प्रतिमान’ आदि की तरह के सामान्य प्रकार के विषय, इस प्रकार के लेखन का भी कोई मकसद नहीं रहा। लेकिन इसके बावजूद, इन सभी लेखों को समग्रता में देखने से ऐसा लगता है, जैसे दृश्य-अदृश्य, कोई भी एक योजना जरूर इनके पीछे काम करती रही है। कुछ मित्रों के अनुसार, इनके पीछे एक बहुत ही घातक, पूरी तरह से ‘विध्वंसक’ योजना काम कर रही है !

बहरहाल, यह तो तय है कि यदि यह शुद्ध रूप से अनुभव-निरपेक्ष किस्म का लेखन होता, तो शायद यह मुमकिन नहीं होता कि कभी भी साहित्य चर्चा के वर्तमान कई प्रकार के ढांचों को समेटे हुए चौखटे से बाहर जा पाता। तब या तो इनमें आत्ममुग्ध लेखकों की कलावादिता का आनंद लिया गया होता, भले ब्रह्मानंद या सच्चिदानंद वाले अन्तत: मनुष्योचित मान लिये गये आनन्दस्वरूप में ही क्यों न हो, या फिर यथार्थवादी क्रोध, रुच्छता और कटु वचनों की बड़बड़ाहट होती। इनसे भी ज्यादा मुमकिन था कि आज के सामंजस्य धर्म का पालन करते हुए सब जनों की जय-जयकार का बीतरागी सुख का रास्ता अपना लिया जाता।

गौर करने पर इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकेगा कि हिंदी की आज की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं आलोचना के नाम पर कमोबेस इसीप्रकार के, वह भी काफी हद तक मूलत: अभ्यासमूलक लेखन से अटी हुई है। इनकी प्रकृति भले इंद्रियातीत, असीम-संधानी चिंतन की दिशा में हो या बचकानी यथार्थवादी आस्था की दिशा में। इनमें निहित सैद्धांतिक कलाबाजियां, अगर वे कहीं हैं, तो पानी में उठते बुलबुलों से भी ज्यादा क्षण-भंगुर होती हैं जो पैदा होने के साथ ही इतनी जल्द फूट जाते है कि किसी को उनके अस्तित्व का कोई भान तक नहीं हो पाता। इनसे साहित्य विमर्श में कोई योगदान तो बहुत दूर की बात, साहित्य जगत के न्यूनतम लक्षणों तक का अनुमान मिलना मुश्किल हो चुका है।

मार्क्स की ‘पूंजी’ में बार-बार यह कथन आता है -‘वे इसे नहीं जानते, लेकिन यही करते हैं’। स्लावोय जिजेक ने आगे इसकी और, वेदांती किस्म की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि समस्या जानने में नहीं है, बल्कि उस मूल सचाई में ही हैं, जिसमें लोग काम करते हैं। वे जिस चीज को देख नहीं रहे हैं या गलत समझ रहे हैं, वह खुद भी कोरी भ्रांति है, जीवन और सामाजिक गतिविधियों के बारे में भ्रांति। इस न देखी जा रही अचेतनता की भ्रांति को ही विचारधारात्मक फैंटेसी कह सकते हैं। कहना न होगा, हिंदी का साहित्य जगत भी लगता है जैसे वह अपने ही रचे मायावी संसार, और उससे अपने संबंधों के बारे में दोहरी भ्रांति का शिकार है। इसके व्यवहार से लगता है जैसे सत्य को जानने पर भी कुछ नहीं जानता है बल्कि द्विध-ग्रस्त होकर सत्य से ही विमुख हो गया है।

नि:संदेह, इस संकलन के लेखों को विध्वंसक कहा जा सकता है - बल्कि बहुत अधिक विध्वंसक ! नकारात्मकता का उन्माद। ऐसी नकारात्मकता जिसमें ‘सारी ठोस चीजें हवा हो जाती है’। ईंट-ईंट जोड़ कर तैयार की गई हिंदी साहित्य की ‘भव्य’ इमारत के ‘प्रत्यक्ष’ को ही जैसे झुठला दिया जा रहा है ! यह आलोचना का निरूपण नहीं, निरूपण तो जाने दीजिये, शायद आलोचना की न्यूनतम समझ भी नहीं देता।

इन लेखों की ऐसी आलोचनाओं के बारे में हम पहले से ही यह कहना चाहेंगे कि जो कभी इन लेखों का उद्देश्य ही नहीं रहा, उसीके लिये इन्हें अपराधी के कठघरे में न खड़ा किया जाएं ! साथ ही, यह भी कहेंगे कि द्वंद्वात्मक विवेचन का पहला बुनियादी उसूल ही है कि हम विषय से अपनी पूर्वाग्रहों से भरी आत्मगतता को अलग रख कर चलें।

इसीप्रकार, हिंदी साहित्य के वर्तमान और अतीत पर कुछ कठिन सवाल उठाने वाले इन लेखों को इस बिनाह पर भी एक सिरे से झूठा करार दिया जा सकता है कि इनसे इस साहित्य जगत का नकार तो मिलता है, लेकिन इसकी कोई व्याख्या नहीं, क्योंकि वह तो विशेषज्ञों का, ज्ञानी-मुनि, हिंदी के अध्यापकों के एकाधिकार का क्षेत्र है ! इन लेखों को लिखने के दौरान हमारे सामने आई ऐसी कुछ उत्तेजक प्रतिक्रियाएं हमें याद हैं। एक लेख में डा. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ का नाम गलत छप गया था। उसे देखते ही हिंदी आलोचना के एक मठाधीश महोदय ने फौरन फोन करके ऊंची आवाज में हमारी अल्पज्ञता की परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी। हम जानते हैं, ऐसे और भी कई छोटे-बड़े मठाधीश होंगे, जो कुछ इसी प्रकार के अहम्मन्यता-बोध के साथ इन लेखों को देख रहे होंगे।

सचमुच, यह दावा करने का कोई कारण नहीं है कि इन चंद लेखों से हिंदी साहित्य जगत की हर चीज की व्याख्या कर दी गई है या उन पर निर्णय सुना दिया गया है। लेकिन, इन थोड़े से लेखों से इतना तो जाहिर हो ही जाता है कि हिंदी साहित्य के वर्तमान पर यदि तीक्ष्णता से दृष्टि डाली जाएं तो वह बड़ी आसानी से उसके अतीत की गहरी गुहाओं तक जाकर इसके पूरे खोल को ही पलट देने की जरूरत पैदा कर सकती है। अर्थात, अभी परिस्थितियों का संयोग कुछ इसप्रकार के एक संक्रमणकारी बिंदु की दिशा में घटित हो रहा है जब सिर्फ वर्तमान ही नहीं बदलेगा, इसका सुदूर अतीत तक अटूट नहीं रह सकेगा। कहा जा सकता है यह अभिनवगुप्त के ‘प्रत्याभिज्ञान’ का बिंदु है - संपूर्ण प्रत्यावर्तन का बिंदु। एक बिंदु से गहरे अंधेरे के तल तक धस कर वर्तमान में एक नई त्रिक-शक्ति को प्राप्त करने के उपक्रम का बिंदु !

‘लहक’ पत्रिका का जब प्रकाशन शुरू हुआ, वह भारतीय राजनीति का एक तूफानी समय था। इस दौर पर हमारी टिप्पणियों का एक संकलन ‘तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक डायरी’ अनामिका प्रकाशन से ही आ चुका है। ‘लहक’ में हमने इसी नये राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम पर लिखना शुरू किया था। तब राजनीति और समाज की ऐसी कई नई लाक्षणिकताएं प्रकट हो रही थी जो इन विषयों पर लिखने वाले किसी भी लेखक के लिये खासी चुनौती भरी थी। नयी परिस्थिति के नये लक्षणों पर विचार से स्वाभाविक तौर पर पहले के स्थापित सर्वकालिक सिद्धांतों के ढांचे दरकने लगते हैं। खास तौर पर नरेन्द्र मोदी की जीत ने सत्ता-विमर्श के पूरे पारंपरिक ढांचे को झकझोर दिया है। यह जहां पूर्व के खास प्रकार के उपेक्षितों के समाजशास्त्र की ओर ध्यान खींचता है, वहीं उस परंपरा को भी प्रश्नों के दायरे में ले आता है जो भले ही अब तक चली आ रही हो, लेकिन आगे और नहीं चल पा रही है। इसमें एक नये प्रकार के सांस्कृतिक संकट के वे सारे लक्षण मौजूद हैं जो साहित्य और संस्कृति के विषयों पर भी नये सिरे से अन्वीक्षा और अन्वेषण की मांग करते हैं। माना जा सकता है कि ‘लहक’ के इन लेखों में संभवत: ऐसे ही कुछ अगोचर दबाव किसी न किसी रूप में काम करते रहे हो !

इस संकलन के लेखों से जुड़ा एक और पहलू भी है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं का एक बंद, ‘सवर्ण’ सामाजिक ढांचे वाला पहलू - अध्यापकों, यथास्थितिवादियों और समझौता-परस्तों की किलेबंदी का पहलू। यह अनायास ही अपने बाहर ‘अवर्णों’ की एक प्रवंचित और उच्छिष्ट जनों की जमात पैदा करता है। माओ ने जब सांस्कृतिक क्रांति के वक्त नौजवानों के ‘विद्रोह के अधिकार’ की बात कही थी, वह ऐसे ही प्रक्षिप्त जनों के जीने के अधिकार की बात भी थी। खुद इस लेखक का अनुभव था कि हिंदी की पत्रिकाओं में अज्ञेय के बारे में कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जा सकती थी ; साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादक की मान्यता थी कि साहित्य सिर्फ ‘असीम -संधानी’ होता है, जीवन के अन्य ‘तुच्छ’ व्यापारों का इससे कोई लेना-देना नहीं है ; सरकारी संस्थाओं से जुड़े बलवान लेखकों ने नये शासन में गोटियां बैठाने की कोशिशों में देर नहीं की थी। ऊपर से, मोदी भक्तों की आक्रामकता ! सिर्फ गाली-गलौज नहीं, लेखकों की हत्याएं तक की जाने लगी। दाभोलकर, पानसारे और कुलबर्गी की हत्याओं के बाद तो विद्रोह के अतिरिक्त जैसे जीने का कोई उपाय नहीं रह गया था। इसी भाव की एक छाया इन सभी लेखों पर निश्चित तौर से पड़ी है।

और, कहना न होगा, नया विचार भी कभी अनुशासन या आनुगत्य के भाव से पैदा नहीं होता।  

इस मामले में ‘लहक’ पत्रिका के संपादक निर्भय देवयांश ने हमारे लेखों को प्रकाशित करने में लगातार जिस प्रकार के उत्साह का परिचय दिया, इसके लिये मैं उनका तहे-दिल से आभारी हूं। इसीप्रकार हमारे प्रकाशक मित्र पंकज शर्मा के प्रति भी आभारी हूं जो सिर्फ एक प्रकाशक नहीं, बल्कि साहित्य और राजनीति के विषयों के एक जागरूक पाठक भी है। ‘लहक’ में प्रकाशन के समय से ही इन खास लेखों पर उनकी नजर रही और महावीरप्रसाद द्विवेदी पर लिखे गये अंतिम लेख के बाद ही उन्होंने यह निर्णय सुना दिया कि अब इन लेखों को मिला कर अलग से एक किताब आ जाने की जरूरत है। इसके लिये ‘चतुर्दिक - 4’ के बारे में पहले की योजना में थोड़ा बदलाव भी किया गया और तय किया गया कि बाकी सामग्रियों को ‘चतुर्दिक - 5’ में प्रकाशित किया जायेगा। इस मामले में सरला के सहयोग और दिशा-निर्देश की भी चर्चा करना जरूरी लगता है, जिसने इस किताब को इन थोड़े से लेखों तक ही सीमित रखने पर बल दिया।


14 जून 2016                                                                                                  अरुण माहेश्वरी  


शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

मोदी की बिगड़ी सूरत पर स्वपन दासगुप्त का टच अप


मोदी जी के स्तवक पत्रकार स्वपन दासगुप्त का आज के ‘टेलिग्राफ’ में एक लेख छपा है - भारत चल पड़ा है (India is moving) ।

पुराने ‘शाइनिंग इंडिया’ का एक नया संस्करण, मूविंग इंडिया।

गौर करने की बात है कि उनके इसी लेख के साथ टेलिग्राफ ने एक तस्वीर भी छापी है जिसमें लंदन के मादम तुसाद म्यूजियम में मोदी जी के मोम के पुतले पर एक कलाकार टच-अप कर रही है, अर्थात उसे थोड़ा संवार रही है।

लव जेहाद से गोमांस और गोरक्षा के भारी उत्पातों, पड़ौसी देशों से संबंधों और कश्मीर के मामलों तथा तेल के अन्तरराष्ट्रीय बाजार में अकल्पनीय गिरावट के बावजूद आम लोगों की रोजमर्रे की सामग्रियों की महंगाई के मामले में भारी विफलताओं से बिगड़ चुकी इस सरकार की तस्वीर को स्वपन दासगुप्त इस लेख से संवार रहे हैं।

दासगुप्त गोमांस-गोरक्षा की तरह के मुद्दों को एक बुराई मानते हैं। इस शासन की और भी ऐसी अनेक बातें हैं जिन्हें वे इसी प्रकार सिर्फ बुरा बता कर दरकिनार कर देना चाहते हैं। लेकिन मोदी साहब की अर्थनीति ! वे कहते हैं - वाह, क्या बात है। उनके शब्दों में इस मामले में ‘‘मोदी की ईमानदारी, पूर्ण एकाग्रता और नेतृत्वकारी क्षमता’’ अद्वितीय है।

मोदी शासन की सारी बुराइयों को तराजू के एक पलड़े पर और दूसरे पलड़े पर उसकी अर्थनीति को रख कर बराबर कर देने, बल्कि पलड़े को मोदी के पक्ष में ही थोड़ा झुका देने का दासगुप्त का यह सारा व्यायाम किस बात का संकेत है ? उनकी बुराइयों और कथित अच्छाई का यह कैसा तालमेल हैं ? क्या यह कोई ऐसा अगोचर ईश्वरीय विधान है जिसे दासगुप्त ने पैगंबर की तरह प्रकाश में लाने का जिम्मा अपने सिर पर ले लिया है ?

दासगुप्त नहीं जानते कि जीवन की ठोस समस्याओं का समाधान उनके दिमाग के चक्कर-घिन्नी वाले तर्कों से नहीं निकलने वाला है। लोग सड़कों पर उतरने लगे हैं। इस शासन का असली इलाज वे खुद ढूंढ लायेंगे।

वैसे दासगुप्त की इस पैगंबरी की सचाई तो टेलिग्राफ की यह तस्वीर ही खोल देती है जिसमें एक मेक-अप कलाकार मोदी जी की बिगड़ी सूरत पर टच-अप कर रहा है !

-अरुण माहेश्वरी

बुधवार, 24 अगस्त 2016

उन्मादित भीड़ को टेरने के काम में लगे गो-रक्षकों के मानस का सच


आज ( 25 अगस्त 2016) के ‘टेलिग्राफ’ मे उड्डलक मुखर्जी की एक रिपोर्ट है, गोरक्षकों के मनोविज्ञान के बारे में। एक गोरक्षक से लिये गये साक्षात्कार पर आधारित रिपोर्ट। गोगुंडा गोरक्षक नहीं, अर्थात गाय के नाम पर जबरिया वसूली करने वाले गोशाला से लेकर थानों तक फैले हुए धंधेबाज गोरक्षक से नहीं। एक आरएसएस टाइप, निष्ठावान स्वयंसेवक टाइप गो रक्षक शास्त्री जी से लिया गया साक्षात्कार। इसके आधार पर उड्डलक बताते हैं कि कैसे गाय इनके लिये सिर्फ गाय नहीं, और बहुत कुछ है। वह गो रक्षक अपनी बात तो शुरू करता है गाय के गुणों की रटी हुई विरुदावली बांच कर कि इसकी महिमा अपरंपार है, इसका पेशाब कैंसर को दूर कर देता है, इसके गोबर के उपलों के धुएं से धरती पर ओजोन परत कावह गो रक्षक अपनी बात तो शुरू करता है गाय के गुणों की रटी हुई विरुदावली बांच कर कि इसकी महिमा अपरंपार है, इसका पेशाब कैंसर को दूर कर देता है, इसके गोबर के उपलों के धुएं से धरती पर ओजोन परत का छेद दूर हो जाता है़, आदि।

शास्त्री जी ने पढ़ाई के नाम पर कुछ योगियों, कथित वकीलों और वैज्ञानिकों की चीजों को पढ़ा है, जिनसे हर चीज के बारे में उनकी एकदम पुख्ता राय तैयार हो चुकी है। इसी के बल पर वे भारत में विज्ञान की शिक्षा का ही मजाक नहीं उड़ाते बल्कि भारतीय संविधान में गोरक्षा के बारे में प्राविधानों की अपनी आधी-अधूरी, बल्कि गलत जानकारी को भी पूरे अधिकार के साथ गिनाते हैं। अंबेडकर की बातों से नफरत करते हैं और गांधी की बातों को तुष्टीकरण बताते हैं। और भारत की संघीय व्यवस्था के तो घनघोर शत्रु है। उनका साफ कहना है कि उनके हिंदू राष्ट्र में सारे अधिकार केंद्र के पास होंगे, राज्यों के पास कोई अधिकार नहीं होगा। यहां तक कि वे इन शुद्ध आंकड़ों को भी मानने से एक झटके में इंकार करते हैं कि 2012 की पशुओे की गणना के अनुसार भारत में गायों की आबादी में 6.52 प्रतिशत वृद्धि हुई है। उनकी एक ही रट थी कि भारत में हिंदुओं की तरह ही गायों की संख्या में गिरावट आई है। वे नहीं मानते कि गाय के सवाल से कोई सांप्रदायिक तनाव पैदा होता है। उनकी साफ राय है कि भारत को सिर्फ बहुसंख्यकों की राय के अनुसार चलना होगा। वे कहते हैं कि भारत के संविधान को फाड़ कर फेंक देना चाहिए क्योंकि उसमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई है।

गोरक्षक शास्त्री उड्डलक मुखर्जी को कहता है कि वह हिंसा पर विश्वास नहीं करता। लेकिन उसकी कुल बातों से मुखर्जी को लगा कि उसे ही हिंसा की अपनी समझ के बारे में ही सोचना पड़ेगा। शास्त्री धर्म-आधारित राज्य, संकीर्णतावाद और छूआछूत का पक्का समर्थक था। वह संविधान के मूल्यों पर आघात करने वाली बातों के प्रचार में पूरी ताकत से लगा हुआ है। उड्डलक अपनी रिपोर्ट में यह सवाल उठाते हैं कि क्या उसकी ये सारी गतिविधियां आक्रामक नहीं कहलायेगी ? क्या हिंसा का अर्थ सिर्फ शारीरिक ही होता है ?

शास्त्री एक ‘समाज’ नामक संगठन से जुड़ा हुआ है जो उसके अनुसार जातिवाद और निरक्षरता के खिलाफ लड़ाई में लगा हुआ है। उड्डलक के अंदर यह सवाल पैदा होता है कि क्या कारण है कि उसका यह ‘समाज’ ज्ञान और जागरण की पूरी परंपरा’ से अछूता रह जाता है ?

अपनी रिपोर्ट का अंत उड्डलक इस बात से करते हैं कि ‘‘शास्त्री से मिल कर यह भी पता चल गया कि राजनीतिक सत्ता भीड़ को टेरने वालों के लिये कोई ईनाम नहीं है। शास्त्री और उसका समाज भारत के बौद्धिक और नैतिक स्थान पर नजर लगाये हुए हैं - उसकी शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और नीतियों पर। उनके इस लक्ष्य के साथ गाय को इसलिये जोड़ा गया है क्योंकि गाय की रक्षा करने का दावा करने वालों के लिये इसके एक नहीं अनेक लाभ हैं। इस बात पर मैं शास्त्री से सहमत था।’’

यह है हमारे सामने उपस्थित उस पूरी विचारधारा का ठोस, जमीनी सच जो आज भारत को तेजी से विकास के पथ पर ले जाने के दावे के साथ देश की सर्वोच्च सत्ता पर पहुंच चुकी है। ‘आधुनिक भारत’ के निर्माण में लगाई जा रही आदिम सोच रखने वाली सामाजिक शक्तियों की एक भीड़ का सच। आज दिल्ली में इनके सर्वाधुनिक मुख्य कार्यालय की नींव रखी गई है। इनकी सारी आधुनिकता एक ऐसे राष्ट्रवाद के दैत्य की निर्मिति के प्रयोजन के लिये है जो हर प्रकार के विवेक और बुद्धि की आवाज को राष्ट्रद्रोही करार कर उन्हें अपने भीमकाय पैरो तले रौंद सके।

मोदी जी की निजी साज-सज्जा, साफ-सुथरे कपड़े, सधी हुई चाल, बात-बात पर उनकी आंसू तक बहाने की भावुक मुद्राएं और हाथ लहरा-लहरा कर भाषणबाजी की अदाएं, इन सबके पीछे के सच का असली रूप है उड्डलक मुखर्जी का यह पात्र शास्त्री, जिसकी आरएसएस के मोहन भागवत भी बीच-बीच में झलक देते रहते हैं। आज सचमुच हमें मोदी जी मुद्राओं पर हंसी आने लगी है। इसकी वजह है कि वे अपने लंबे अभ्यास के चलते मिथ्याचारी की भूमिका में अक्सर डूब जाते हैं, उसका ईमानदारी से पालन करने लगते हैं और इसीलिये कभी गोरक्षकों को फटकार देते हैं तो कभी दलितों के लिये आंसू बहा देते हैं। अन्यथा, वास्तविकता यह है कि यदि वे यह सब नाटक न करें तो उनका समूचा पाखंड शास्त्री पंडित की बातों की तरह कोरी वितृष्णा के अलावा और कुछ भी पैदा नहीं करेगा।

हम यहां उड्डलक मुखर्जी की इस रिपोर्ट को अपने मित्रों से साझा कर रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1160825/jsp/opinion/story_104209.jsp#.V76VYqbyAgo.email



गुरुवार, 11 अगस्त 2016

हिन्दी साहित्य में विद्रोह-विमर्श : कतिपय टिप्पणियाँ

अरुण माहेश्वरी


Sushila Puri ji, आपने मुझे आशीष मिश्रा के 'मठों के ढहने' वाली टिप्पणी मार्क की हैं। आप जानती ही हैं कि मैं इस चाय की प्याली में उठे तूफ़ान पर कुछ कहना नहीं चाहता था । इसकी अकेली वजह यही है कि इस विषय में निश्चयात्मक तौर पर कुछ कहने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ । इस प्रसंग की पृष्ठभूमि में मैंने रचना में विद्रोह के बारे में अपने प्रकार की एक सामान्य सी टिप्पणी की थी । ठोस रूप में कुछ न कह पाने की वजह से ही वह मेरे लिये ही संतोषप्रद नहीं थी । लेकिन इसकी मूल वजह यही थी कि अब तक भी मैं इस पूरे विषय के महत्व को समझ नहीं पाया हूँ । एक नई कवियत्री को पुरस्कार मिला, जैसा कि हिंदी में असंख्य लोगों को मिलता ही रहता है । इस पुरस्कार का कुछ भी नाम या इतिहास क्यों न हो, साहित्य के वृहद परिप्रेक्ष्य में खुद में इसका मुझे कोई बहुत ज़्यादा अर्थ नहीं दिखाई दिया कि इस पर उठी बहस में हस्तक्षेप की ज़रूरत महसूस करूँ ।

फिर भी, नितांत अप्रासंगिक ही क्यों न माना जाए, इतना जरूर कहूँगा कि स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों के सिर्फ समाज-शास्त्रीय पहलू ही नहीं हुआ करते हैं, जिन पर अभी सबसे अधिक चर्चा हो रही हैं । स्त्री मनोविज्ञान तो फ्रायड के अध्ययन का एक बहुत महत्वपूर्ण विषय रहा है । यह बात मैं इसलिये कहना चाहता हूँ क्योंकि हाल ही में मैंने और भी कुछ कवयित्रियों की कविताओं को डिजिटल माध्यम से ही पढ़ा है । शुभम श्री तो अभी कविता की दुनिया में पदार्पण ही कर रही है । मैंने 'समालोचन वेब मैगज़ीन ' ब्लाग पर लवली गोस्वामी और मोनिका कुमार की कुछेक कविताओं को भी पढ़ा है । वहीं पर लवली गोस्वामी पर अपने ढंग की एक टिप्पणी भी की थी । मोनिका कुमार की कविताओं के साथ अविनाश मिश्र की एक विस्तृत टिप्पणी भी देखी, जिसमें अविनाश ने उनकी कविताओं की शीर्षक-विहीनता को ही अपने विचार का एक बड़ा विषय बना कर पेश किया है । कविताओं के साथ अविनाश की टिप्पणी को पढ़ कर मेरे मन में पहला सवाल उठा था कि सिर्फ 'शीर्षक-विहीनता' को ही क्यों, क्यों नहीं उन्होंने इन कविताओं की कथ्य-विहीनता पर विचार किया !

दरअसल, फ्रायड ने जिस स्त्री-ग्रंथी को, सटीक शब्दों में कहें तो स्त्री के उन्माद को, अपना विषय बनाया, 50 shades of grey की तरह उसके भी पचास से कम नही, बल्कि ज़्यादा ही शेड्स हैं । इसका सबसे ज़्यादा डराने वाला पहलू यह है कि इस ग्रंथी के राज में वास्तव में कोई राज ही नहीं है । न इसे कोई आदिम उन्माद कहा जा सकता है और न ही पितृसत्ता के किसी दबाव की सच्ची प्रतिक्रिया । इन कथ्य- विहीन कविताओं में बैठी स्त्री की आर्त-वेदना महज़ एक अबूझ सी पहेली है । कुछ न चाहने वाली चाहतों के संसार की मानिंद, उपेक्षित रहने की लालसाओं से की जाने वाली इशारेबाजियों की तरह । ये पुरुष को चुनौती देने के पहले ही अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर सामने आती हैं । पुरुष के प्रति इनका डर अपनी ही असंगतियाँ के प्रति डर की तरह होता है । वह अपने को असंख्य पर्दों के पीछे से व्यक्त करना चाहती है, कभी बदहवास होकर चौंकाती है तो कभी अत्यंत क्रूर और कुत्सित उपहास की मुद्रा भी अपनाती है । लेकिन इस ग्रंथी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि इसके हज़ार पर्दों के पीछे, जिसे 'वास्तव' कहा जा सके, वैसा कुछ भी नहीं होता है ।

सुशीला जी, फ्रायड के ऐसे अध्ययनों की रोशनी में ही, कहना चाहूँगा कि अक्सर हम अवचेतन को विवेक और बुद्धि का विलोम मान लेते है, जो अवचेतन के बारे में एक शुद्ध रूमानी नजरिया है । फ्रायड द्वारा विवेच्य अवचेतन से इसका कोई संपर्क नहीं है । फ्रायड के अवचेतन का भी अपना एक व्याकरण है, उसका अपना तर्क है । वह सोचता है और बोलता भी है । वह न आदिम होता है और न नैसर्गिक । सच कहा जाए तो अवचेतन का सच विचारों के सच से भी ताक़तवर होता है । फ्रायडीय कामुकता की बौद्धिक शक्ति को कोई भी देख सकता है । यह सारे सामाजिक क़ायदे-क़ानूनों को धत्ता बता देने वाले आतंकियों के हाथ के सबसे कारगर हथियार की तरह है । ऐसे आतंक मचा देने वाले 'बौद्धिक' अवचेतन की विशेषता यह है कि इसका अपना कोई संगतिपूर्ण ढाँचा नहीं होता है । इसमें हर प्रकार की चालाकियों, मौक़े का लाभ उठाने वाली करतूतों, अवसरवादी समझौतों का सम्मिश्रण होता है । यह एक प्रकार से विकृतियों और भटकावों का पागलपन है जो अतार्किक होने पर भी निश्चित रूप से नाना प्रकार के सूक्ष्म तारों के जोड़-तोड़ के नेटवर्क पर टिका होता है ।

सुशीला जी, दरअसल, सूक्ष्म और हास्यास्पद बातों के बीच कोई लंबा-चौड़ा फ़ासला नहीं हुआ करता है । किसी भी बड़े क़दम और थोथी भाव-भंगिमाओं में भेद करना अक्सर मुश्किल होता है । इसे आप एक नुक़्ते का फेर कह सकते हैं कि जिससे 'लाला जी अजमेर गये' बदल कर 'लाला जी आज मर गये' हो जाता है । कहने की मूल बात यह है कि अवचेतन का भी ऐसा ही एक अति-सूक्ष्म सा विन्यास होता है ।

साहित्य में बहुत से पात्र इस प्रकार से गढ़े जाते हैं ताकि वे कुछ ख़ास बातों को ख़ास भंगिमाओं में कह सके । यह भी एक प्रकार का रूपवाद ही है । पात्र का सच नहीं, लेखक के वैचारिक ढाँचे का सच प्रमुख हो जाता है । इसीलिये अभी शुभमश्री आदि के नाम पर जो बातें की जा रही है, विचार की बात यह है कि वे चरित्रों का सच है या लेखक की बातों के लिये निर्मित सच । कहीं यह सब अपने एक प्रकार के एक उन्माद की अभिव्यक्ति के लिये निर्मित कविताओं का ढाँचा तो नहीं है !

हिंदी में हमारे लिये कृष्ण बलदेव वैद की शैली इसका एक क्लासिक उदाहरण बन सकती है । बिना किसी विराम-चिन्हों वाले गद्य के स्फीत ढाँचे में जब उनका पिद्दी सा क्षीणकाय कथ्य ढूँढे से नहीं मिलता, तो यह समझ में आ जाता है कि कथ्य नहीं, लेखक के लिये उसकी शैली का रूप ज़्यादा महत्वपूर्ण है ।

हमें तो लगता है कि जब भी किसी तान में संगति बैठती नहीं दिखती, तब पीछे के तानपुरे के सुर को बेसुरेपन की समस्या के समाधान की कोशिश के तौर पर आना पड़ता है । बेसुरापन अगर उन्माद है तो यह सुर स्थिरता की आस्था है । हमें बेसुरेपन में नहीं, बल्कि बेसुरेपन से मुक्ति में ज़बर्दस्त राजनीतिक ताक़त दिखाई देती है । वही एक उत्पीड़क शासन से मुक्ति का भाव पैदा करता है । बेसुरेपन को स्वीकारना हताशा को और समाज के अंदर के शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोधों को स्वीकारने की तरह होता है । दरअसल यह किसी विध्वस्त भाव की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि खोए हुए सुर को फिर से पाने की जद्दो-जहद में होने वाला एक प्रकार का अनावश्यक सा, collateral damage कहलाने वाला नुक़सान है । यह आकस्मिक नहीं है कि सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन की फ़िल्मों से लेकर हाल में मराठी जीवन पर गहरा असर डालने वाली नागराज की 'सैराट' की तरह की फ़िल्मों की चुस्त और संगीतमय प्रस्तुति उनके विद्रोही कथन को प्रगाढ़ करने में अहम भूमिका अदा करती है ।

हमने हिंदी में अकविता या बांग्ला में भूखी पीढ़ी के आंदोलनों को देखा है । शक्ति चटर्जी और सुनील गंगोपाध्याय को अंत में रवीन्द्रनाथ के चरणों पर दंडवत होते भी देखा है । उनका भूखी पीढ़ी वाला बेसुरापन सामाजिक विसंगतियों के सामने आत्म-समर्पण से उत्पन्न हुआ था । वह एक व्यापक मोहभंग के काल में नये विकल्पों की तलाश की लड़ाई का collateral-damage था । वह नये स्वरों की ऊँचाइयों के रास्ते में बाधा भी बना था । जबकि साहित्य का वैकल्पिक स्वर अपने विस्तार और अपने शिखर, दोनों ही स्तर पर किसी न किसी एक सूत्र से बँधा होता है ।

सुशीला जी, अंत में यही कहूँगा कि आज जब बहुत कुछ बेसुरा सा चल रहा है, तब पुरानी लीक से भले ही हमें अपने वांछित फल हासिल न हो, लेकिन कुछ संतोषप्रद जगह तो पाई ही जा सकती है । पुरानी लीक में कुछ मामूली कल्पनाशील परिवर्तनों से ही ऐसी चीज़ों को तीव्र प्रकाश के वृत्त में लाया जा सकता है, जिनकी हमें तलाश है, लेकिन दिखाई नहीं देती है । अभी जो चल रहा है, उसके बारे में फिर एक बार फ्रायड का इस्तेमाल करते हुए यही कहूँगा, सपने का रहस्य उसके विषय में नहीं, उसके ढाँचे में ही निहित होता है ।

एक रौ में यहाँ कुछ बातें कह गया हूँ । इन्हें मेरी पहले वाली मनोज कुमार झा की पोस्ट पर की गई टिप्पणी और समालोचन ब्लाग में लवली गोस्वामी की कविताओं के संदर्भ में कही गई बातों के साथ पढ़ने पर शायद इस बहक का आशय कुछ और साफ़ होगा । यहाँ मैं नीचे उन दोनों को भी अलग से जोड़ दे रहा हूँ -


Manoj Kumar Jha

Arun Maheshwari सर की

एक ज़रूरी टिप्पणी रचना और रचनात्मक विद्रोह पर...

मज़े की बात यह है कि यह सब एक रचनात्मक विद्रोह के नाम पर चल रहा है । गंभीरता से सोचे तो किसी भी रचना में विद्रोह के विस्फोट की गूँज को सुन कर पहला सवाल पैदा होता है यह विस्फोट क्यों ? इसके मूल में क्या है? रचनाकार का विद्रोह किस जरूरतवश फूटा है । विस्फोट तो रचना की ज़रूरत के मर्म में ही निहित होता है । सिर्फ विस्फोट की ज़रूरत नहीं , बल्कि उसमें खुद ज़रूरत का विस्फोट भी होता है । किसी भी क्षुद्र सी बात से महा-विध्वंसक युद्ध शुरू हो सकता है, लेकिन युद्ध महज़ वह छोटी सी बात नहीं होता है ।

आपके किसी भी क़दम का असली अर्थ तो आपके क़दम के सामाजिक प्रभाव से सामने आता है । आपका आशय कुछ भी क्यों न रहा हो । हम मानते है कि कोई भी सच्चा स्वतंत्र क़दम पुराने ढर्रे पर चल कर, माप-तौल कर नहीं उठाया जाता है । वह इस उपक्रम में खुद अपना ढर्रा बनाता है । लेकिन उसमें रचनाकार जरूर खुद मौजूद रहता है । जैसे प्रेमिका की अदाओं और उसके नाक-नक़्शे को आदमी इसलिये पसंद करता है, क्योंकि वे उसकी प्रेमिका की अदाएँ हैं, प्रेमिका के नाक-नक़्शे हैं । इसीलिये किसी भी चीज को आदमी बेवजह पसंद नहीं करता । उसमें वह खुद को किसी न किसी रूप में देख रहा होता है । क्या हमारे विद्रोही रचनाकारों की सूरत ऐसी ही है !

दरअसल, यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्सर हम जितना स्वतंत्र चलते हैं, उतना ही ज्यादा व्यवस्था के ग़ुलाम होते जाते हैं । ज़रूरत है कि हम बाहर के दबावों से मिथ्या स्वतंत्रता की 'तंद्रा' से जागे और सामाजिक स्वतंत्रता से अपने को जोड़े । इसमें विचारधारा की एक बड़ी भूमिका होती है । स्वतंत्रता अकेले की नहीं, सामूहिक होती है और यह लड़ कर अर्जित की जाती है । इसे भूला नहीं जा सकता है । थोथी गालियों का रचनात्मक संसार कुंठाओं से भरा संसार ही हो सकता है ।

लवली गोस्वामी जी की कविताओं पर एक टिप्पणी -

लवली गोस्वामी की इन दार्शनिक कविताओं को पढ़ कर एकबारगी हमारे मन में कवि को जानने की इच्छा पैदा हो गई। मेरी कमी थी कि उनके बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं थी। इसीलिये तत्काल एक धारणा बनाने के लिये ही मैंने उनके फेसबुक पेज को टटोला। उसमें संकलित कुछ ‘आप्त-सुक्तियों’ के साथ ही खास तौर पर ‘पहल’ पत्रिका में छपे उनके लेख ‘अभयारण्य में यथार्थ की दुर्दशा’ को पढ़ गया, जिससे मुझे मोटे तौर पर कवि की जमीन का एक अंदाजा मिला। 

लवली जी की इन प्रेम कविताओं से अनायास ही हरीश भादानी पर लिखी अपनी किताब की ही कुछ पंक्तियां याद आ गई - ‘‘प्रेम एक झंझा है। जीवन के सारे आंकड़ों को तहस-नहस कर देने, हर संतुलन को बिगाड़ देने वाली एक खतरनाक स्थिति। आदमी प्रेम में पड़ता है। Fall in love । स्खलन की खाई। फिसलन की काई। ऐसा जबर्दस्त तूफान जिसमें आदमी के पैर जमीन पर टिके नहीं रह सकते।’’
कहने का मतलब कि आदमी के जीवन में प्रेम एक सामान्य स्थिति कत्तई नहीं होता। इस बवंडर को काबू में करने के लिये ही तो वे सारी सामाजिक-नैतिक संहिताएं हैं जिनके बारे में खुद लवली जी ने अपने ‘अभयारण्य’ वाले लेख में एक संकेत दिया है कि कैसे विवाह संस्था के जरिये मातृसत्ता को खंडित किया गया था और महाविद्या, योगिनी समूह, पंचकन्या समूह आदि में जहां भी स्वतंत्र यौन क्रिया जारी रही, उन्हें नाना उपायों से अलग-थलग करके तमाम प्रकार से उत्पीड़ित और वंचित किया गया। वे व्याधियों, महामारियों की देवियां बना दी गई ।


कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में उद्दाम प्रेम जब स्वाभाविक वैवाहिक किस्म की परिणति नहीं पाता तो उसके विध्वंसक परिणाम प्रेम की स्मृतियों को डरावनी सी ऐसी सूरत भी दे सकते हैं, जिन्हें आदमी सीधे तौर पर स्वीकारने से कतराता है। यह उनकी प्रेत की तरह की एक सताने वाली सूरत होती है, क्योंकि इसमें एक अतिरेकों से भरा, एक प्रकार का असहनीय सच निहित होता है। आज के संसार में इससे जुड़े तमाम स्वछंद नैतिक-विमर्शों के बाद भी यह एक ऐसा लोमहर्षक अनुभव बना रहता है, जिसके सच से वाकिफ होने पर भी उसका पूरा लेखा-जोखा देना मुमकिन नहीं होता है। यहीं से आदमी के अस्तित्व से जुड़ी वे खास तात्विक समस्याएं उत्पन्न होती है जिन्हें लवली जी की इन कविताओं का विषय बनाया गया है। ये ‘पितृ-हत्या’ वाली कोई काल्पनिक फ्रायडीय ग्रंथी नहीं है, बल्कि जीवन में घटित सच का दंश है। ऐसा तूफानी या विध्वंसक सच जिसे आदमी महज अतीत की स्मृतियों के खाते में नहीं डाल पाता है। वह कभी इसके प्रति तटस्थ या इसका निरपेक्ष वस्तु-द्रष्टा नहीं हो पाता है। इस अनुभव की विडंबना यह है कि यह उसका अतीत होने पर भी मनुष्य इसे अपना अतीत नहीं मान पाता है। इसमें कुछ ऐसा है जो इसे सत्य-कथा के बजाय एक प्रेत-कथा की तरह का बना देता है। मन के किसी कोने में पड़ी अपराध-बोध की सिहरा देने वाली असमाप्त कहानी। स्मृति से भी यह एक फिसलन बन कर ही रचना का रूप लेती है, किसी आदिम झूठ की तरह, पाठक को एक भुतहा संसार में ले जाकर उससे छल करने वाले झूठ की तरह। 

लवली जी ने मिथकों पर काम किया है। ईश्वर संबंधी मिथकीय कथाओं का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है। ये आद्य-ब्रह्मांडीय अराजकता की कोख से शब्द-ब्रह्म के एक संपूर्ण सत्य की व्युत्पत्ति का दावा करने वाली कथाएं होती है। लेकिन, इनमें जिस बात को छिपाया जाता है, वह यह है कि आदमी का यह दमित, उझक कर सामने आने वाला अतीत सबका जाना हुआ सत्य नहीं होता। अंतत: यह एक कपोल-कल्पना ही होता है जो वास्तव में रचनाकार के जीवन में घटित कृत्य से उत्पन्न शून्य को भरता है। यही है जीवित मनुष्यों पर राज करने वाले तथाकथित मिथ्या-स्मृति रोग के रहस्य की रचनात्मक बुनावट। एक अवचेतन का खेल जिसमें वास्तव में यदि कुछ अवचेतन में है तो वह अतीत की कोई सहेजी हुई अनुभूति नहीं, मनुष्य का कोई कृत्य ही है, अर्थात अवचेतन नहीं, संपूर्ण चेतन। मनुष्य का कृत्य ही उसका सनातन सत्य होता है। 

थोड़ा सा इस चर्चा की पृष्ठभूमि में इन कविताओं को पढ़ें, शायद इनके आगे और भी अर्थ खुलेंगे; इनके रहस्य का संधान मिलेगा।

6/8/16, 6:42 am

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

'माईंड स्पेश' आरएसएस और वामपंथ

Virendra Yadav ने कल (3 अगस्त को) अपनी एक पोस्ट में लिखा है कि " राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब  वैचारिक जगत( माईंड स्पेस)  पर कब्ज़ा ज़माने के  लिए लिटररी फेस्टिवल और अन्य 'सांस्कृतिक'  गतिविधियों   के आयोजन की सार्वजनिक  घोषणा  कर  दी  है. ...  'माईंड स्पेस'  पर कब्ज़ा फासीवाद की आजमाई हुयी व्यूहरचना है ,इसे  निष्प्रभावी   करने के  लिए निगहबानी  जरूरी है."

विरेंद्र जी की बात से सहमति के बावजूद हम कहना चाहेंगे कि क्या वे 'माईंड स्पेश' पर क़ब्ज़ा जमायेंगे लेखकों को बैल समझने वाले महेश शर्मा जैसों के बल पर ? सचाई यह है कि ये हिटलर के अनुयायी हैं और किसी भी दूसरे उपाय से ज्यादा हमेशा अपने 'घूँसे के बोलने' पर विश्वास करते हैं । वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न रहने । इस मामले में साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र कोई अपवाद नहीं है ।

इनके 'तूफ़ानी दस्तों' में अभी कौन सबसे ज्यादा सक्रिय है ? गोरक्षक । इन गोरक्षकों की कार्य-पद्धति देखियें । ये शुद्ध रूप से माफ़िया गिरोहों की तरह काम करते हैं । खुले आम वसूलियाँ करते हैं और मारते, डराते-धमकाते भी हैं । सरकारी संरक्षण में इन्होंने गो-शालाओं का भी एक बड़ा सा ताना-बाना तैयार कर लिया है जो ऐसी तमाम आपराधिक गतिविधियों के केंद्रों के रूप में काम कर रहा है । इनके आतंक का फल है कि इसने आम लोगों को अन्याय और आतंक का तमाशबीन बनाना शुरू कर दिया है । और तो और, कई जगहों पर डरे हुए आम लोग इनके कुकर्मों में शामिल भी होने लगे हैं ।

नामवर जी के जन्मदिन समारोह के मंच पर राजनाथ सिंह की बातों में भी 'सीमा का अतिक्रमण न करने' की प्रच्छन्न धमकी छिपी हुई थी । साहित्य में वे इसी प्रकार अपना स्पेश तैयार करेंगे ।

इन ताक़तों का वास्तविक प्रत्युत्तर सिर्फ बुद्धिजीवियों के पास नहीं हो सकता है । इनका मुक़ाबला व्यापक प्रचार के साथ ही व्यापकतम जन-लामबंदी से ही किया जा सकता है । इस मामले में अभी तो कुछ दलित संगठन एक भूमिका अदा करते दिखाई दे रहे हैं । कांग्रेस दल में भी कुछ सकारात्मक हरकतें दिखाई देने लगी हैं । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में इनकी बुरी तरह पराजय अभी सुनिश्चित लग रही है । लेकिन इन चंद सकारात्मक संकेतों के बीच भी सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि हमारे देश की वामपंथी ताक़तों को जैसे लकवा मार गया है ।

ऐसे एक कठिन, चुनौती भरे समय में कुछ वामपंथी नेता अपने संगठनों में एक प्रकार का छद्म सैद्धांतिक संघर्ष चला रहे हैं, अर्थात सिद्धांतवादिता का स्वांग भर रहे हैं । 'वर्ग-शत्रु' और 'वर्ग-मित्र'  की तरह की बातों में उलझा कर इन फासिस्टों के खिलाफ व्यापकतम मोर्चे के गठन को व्याहत कर रहे हैं । सांप्रदायिकता को वैश्वीकरण से जोड़ कर सांप्रदायिकता और वैश्वीकरण, दोनों के बारे में हमारी समझ को धुँधला कर रहे हैं । ऊल-ज़लूल दलीलों से जनतंत्र और फासीवाद के बीच के फर्क के बारे उलझनें पैदा कर रहे हैं । वैश्वीकरण की तरह की एक पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक परिघटना को महज़ एक प्रकार का सांस्कृतिक और विचारधारात्मक अघटन (catastrophe) बना कर पेश कर रहे हैं ।

इन्होंने मज़दूर वर्ग को सत्ता की लड़ाई से विरत करने का काम पहले भी किया हैं और अभी भी करते दिखाई दे रहे हैं । भारतीय वामपंथ में नेतृत्व के एक तबक़े की इस मामले में अपनी एक मुकम्मल तस्वीर बन चुकी है, जिसे हम बार-बार ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने और यूपीए-1 सरकार से अकारण ही समर्थन वापस लेने की तरह की प्रमुख घटनाओं के हवाले से कहते आ रहे हैं । यही तबक़ा आज भी वामपंथ में एक पंगुता पैदा करने वाली सैद्धांतिक क़वायदों में लगा हुआ दिखाई देता हैं ।

वामपंथ के ऐसे नेतृत्व का रुख़ हमें जर्मनी में बर्नस्टीन और रोज़ा लुक्सेमबर्ग के बीच की बहस की याद दिलाता है । बर्नस्टीन सत्ता पर आने की सर्वहारा की हर कोशिश को बहुत जल्दबाज़ी और असामयिक बताते थे और लुक्सेमबर्ग का कहना था कि समाजवाद की तरह की बड़ी चीज को कभी भी एक झटके में हासिल नहीं किया जा सकता है । सर्वहारा की सत्ता पाने की कोशिशों को इस प्रकार बार-बार 'असामयिक' और 'जल्दबाजी' बताना अंतत: राजसत्ता पर क़ाबिज़ होने की सर्वहारा की आकांक्षा मात्र का विरोध करने के समान होता है ।

हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों का आज एक प्रमुख दायित्व वामपंथ को उसकी पंगुता से मुक्त कराने का भी है । झूठी लड़ाइयों और बातों को उठा कर फासीवाद-विरोधी व्यापक एकता में समस्याएँ पैदा करने वालों की ग़लत समझ को दूर करने की ज़रूरत है । अन्यथा, वही कहावत चरितार्थ होगी कि 'मरेंगे तो जरूर लेकिन चालाकियाँ करते हुए मरेंगे' ।

यह कार्यनीतिगत चालाकियों का समय नहीं है । इस बात को वामपंथी नेताओं को समझाने की ज़रूरत है । अभी वे सिकुड़ कर कुछ निजी स्वार्थों की, संगठनों के बचे-खुचे ढाँचों पर क़ब्ज़े की लड़ाइयों में लगे हुए दिखाई देने लगे हैं । इस दलदल से उन्हें बाहर के दबाव से ही निकाला जा सकता है । पार्टियों के अंदर तर्क का नहीं, बहुमत-अल्पमत का खेल चलता हुआ दिख रहा है । वामपंथी नेतृत्व का प्रभावी तबक़ा अपने में सिमट जाने वाली उस उग्र भंगिमा को अपनाये हुए हैं जो अपने से बाहर की हर चीज को देखने से इंकार करती है । प्रो. इरफ़ान हबीब के प्रश्नों के प्रति प्रकाश करात का रुख़ इसी बात का प्रमाण है । उन्हें अपने से बाहर झाँकने के लिये मजबूर करना होगा ।

हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि ज़ख़्म को वही चाक़ू भर सकता है जो उसे चीर देता है । वामपंथ को उसके अपने इतिहास और स्थान-समय से काट कर किसी मिथक या रहस्य का रूप नहीं दिया जाना चाहिए । रहस्यमय दैविक रूप के प्रति सिर्फ उनका आग्रह होता हैं, जो अपने पर किसी भी प्रकार के सवाल के औचित्य से इंकार करना चाहते हैं । हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों की वामपंथ को 'सिद्धांतों' की झूठी मीनार से उतार कर आज की राजनीति की ठोस ज़मीन पर लाने में एक बड़ी भूमिका हो सकती है । यह भी खुद में सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध व्यापक जन-लामबंदी को संभव बनाने की दिशा में बुद्धिजीवियों का बहुत सकारात्मक योगदान होगा ।

जहाँ तक सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ लगातार प्रचार अभियान चलाना, उसे अलग-थलग करने के दूसरे तमाम उपायों का सवाल हैं, वे तो सर्वोपरि हैं । इसमें किसी भी प्रकार की कमी या समझौता-परस्ती सीधे-सीधे आत्म-घात होगा ।