शनिवार, 26 मार्च 2022

परंपरा के अध्ययन के निर्जीव अकादमिक ढाँचे की भेंट चढ़ा मेघ जी का ग्रंथ — ‘मध्ययुगीन रस-दर्शन और समकालीन सौन्दर्यबोध’

 ('बनास जन' पत्रिका के प्रदीप सक्सेना द्वारा संपादित रमेश कुंतल मेघ पर केंद्रित 'मेघ : सौन्दर्य चिन्तन के वातायन' शीर्षक अंक में प्रकाशित हमारा निबंध)

अरुण माहेश्वरी



डा. रमेश कुंतल मेघ हिंदी के ऐसे विशिष्ट भाष्यकार-चिंतक है जिनकी विशिष्टता बिल्कुल पहली नजर में, सतह पर ही आलोचना के क्षेत्र में उनके विशिष्ट भाषाई प्रयोगों से जाहिर हो जाती है । उनकी भाषा में कहे तो वे हिंदी के एक विशिष्ट आलोचिंतक है । कुछ लोगों का तो मानना है कि उनकी भाषा ही उन्हें अलग और अनन्य बनाती है, आलोचना की मूलधारा की पाँत से कुछ इस प्रकार भिन्न बनाती है कि उनके कामों के सम्यक मूल्यांकन तक में एक बाधा उत्पन्न होती है । भाषा का स्वरूप ही उनके लेखन के अर्थों में बाधा बन कर उसकी लाक्षणिक विशिष्टता बन जाता है ; आलोचक और आलोचिंतक के बीच के फर्क पर विचार की एक नई चुनौती पेश करता है ।

बहरहाल, मेघ जी के कामों की प्रकृति का विश्लेषण करने पर हमें वे मूलतः साहित्य और मनुष्य के चित्त से जुड़े साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय विषयों पर शास्त्रीय चर्चाओं के एक विशिष्ट अकादमिक भाष्यकार नजर आते हैं । यह सही है कि कोई भी भाष्यकार कब खुद एक विचारक के रूप में सामने आ जाता है, इसका पूर्वानुमान करना कठिन होता है । पर मेघ जी जिन भाष्यकारों को “अपनी गहरी अनुभूति और दार्शनिक प्रतिबद्धता के चलते टीकाओं तथा भाष्यों तक में विचार के कलश छलका देने वाले कथित आधुनिक भाष्यकार” कहते हैं, हमारी नजर में उनके विचारों के कलश का तभी कोई भिन्न पहचानमूलक अर्थ हो सकता है जब वे अकादमिक लेखन के ढर्रेवर ढांचे के दायरे में विकसित होने वाले विषय के सर्वाधिक अमूर्त बिंदु से विषय के विमर्श को दूर करते हुए एक अन्य सुदीर्घ विमर्श की परंपरा का सूत्रपात करते हैं, अर्थात्, विमर्श की एक नई धारा से विषय की पारंपरिक अकादमिक आलोचना को समस्याग्रस्त बनाते हैं । यही वह बिंदु होता है जहां से भाष्यकार के विचारक रूप के संकेत मिलते हैं । चिंतन की पारंपरिक धारा को एक अर्थ में सजीव रखते हुए भी एक अन्य विमर्श की लंबी यात्रा की  ओर बढ़ना ही चिंतन के पूर्व, पारंपरिक स्वरूप को समस्याग्रस्त करता है । 

इस मानदंड पर जब भी हम मेघ जी के कामों की प्रकृति पर गौर करते हैं तो उनके तमाम नए भाषाई प्रयोगों और कई नए विषयों की उद्भावना के बावजूद वह पारंपरिक अकादमिक ढांचे के लिए ऐसी कोई बड़ी समस्या उत्पन्न करता हुआ नहीं जान पड़ता है जिससे उन्हें शास्त्रीय विषयों के एक और टीकाकार से अलग किसी अन्य कोटि में रखा जा सके, अर्थात् उनके लेखन के जरिए किसी नई समस्या का साक्षात्कार किया जा सके ; अथवा ऐसा लगे कि उनके लेखन से हिंदी आलोचना के लिए कोई नई समस्या पैदा होती है । जहां तक उनके नए पारिभाषिक शाब्दिक प्रयोगों का सवाल हैं, शब्द और भाषा के स्वरूप नहीं, उनकी सांकेतिकता जो प्रतीकात्मक जगत के नए दिगंतों से संबंध और नई संभावनाओं की संवाहक होती है, वह उनकी एकांतिकता के तर्क को पैदा करती है । इसीलिए जब हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मेघ जी के ग्रंथ ‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’ पर टिप्पणी करते हुए उनकी हिंदी को हिंदी बनाने की बात कही थी तो उसका शायद यही कारण था कि वे इस अपने किस्म के भिन्न भाषाई स्वरूप के पीछे सिवाय अहम्-केंद्रित अलगाव के किसी ऐसे तर्क, सोच के किन्हीं नए दिगंतों के संकेतों को नहीं देख पा रहे थे, जो उन भाषाई प्रयोगों को जरूरी बनाते हो । मेघ जी की घोषित प्रतिबद्धताओं और जन-सरोकारों का भी इस संदर्भ में सिर्फ इसीलिये कोई विशेष अर्थ नहीं होता है क्योंकि विवेचन का ढर्रेवर, बंद, सनातन ढांचा लेखक के लिए कोई चुनौती नहीं होता है ; विषय की स्थापित ‘असंदिग्धता’, उसकी कथित सनातनता उसे परेशान नहीं करती है ; अपने तमाम घोषित सरोकारों के बावजूद विषय के प्रति एक निश्चयमूलक अंधता के चलते वह सनातन को अस्वीकारने वाले भिन्न, अन्तर्निहित, पर नए सांयोगिक संकेतकों की दिशा में नहीं बढ़ पाते हैं । यह ऐसी ढर्रेवरता है, जिसमें विषय के उस भावी स्वरूप, उसमें अन्तर्निहित ‘होने’ की क्रिया का, उसकी उस गतिशीलता का कोई अनुमान नहीं मिलता जिसने अब तक कोई भाषाई आकार ग्रहण नहीं किया है । अर्थात् विषय किसी शव की तरह ही विचारक के सामने शवपरीक्षण की मेज पर पड़ा दिखाई देता है । उसमें महज भाषाई स्वेच्छाचार सांयोगिक संकेतकों की और सांकेतिकता का विकल्प नहीं बन सकता । वह पारंपरिक मीमांसा के शब्द-संसार का ही एक और रूप भर होता है । इसी अर्थ में वह लेखन अपनी तमाम घोषित निष्ठाओं के बाद भी अकादमिक रीति का ही अंग होता है ।   

कैसे किसी टीकाकार के अंदर से विचारक पैदा होता है, इसे जानने के लिए जरूरी है कि हम जाने कि कैसे किसी विश्लेषण में कोई पाठ  शवपरीक्षण के बजाय एक जीवंत विमर्श का विषय बनता है । मनोविश्लेषक जॉक लकान अपने प्रसिद्ध सेमिनार XX  Encore में सेंट विक्टर के इस कथन को खारिज करते हुए कि कोई भी ऐसी प्राणीसत्ता (being) नहीं हो सकती है जो नश्वर हो पर तात्त्विक (intrinsic) भी हो, कहते है कि “कोई भी संकेतक सनातन के रूप पैदा नहीं होता है । बल्कि संकेतक को सांयोगिक या दैविक की श्रेणी में रखना ही बेहतर होगा । ... संकेतक सनातन नहीं होता पर इसके बाद भी वह अजीब प्रकार से तात्त्विक होता है ।” (पृष्ठ – 41) 

“तत्त्वमीमांसा की भूमिका भाषा में संयोजक के प्रयोग की तरह होती हैं, जो उसे उसकी संकेतक की भूमिका से अलग करती है । संभावना की क्रिया पर विचार एक ऐसी क्रिया पर विचार है जो अब तक भाषा के पूरे वैविध्यपूर्ण क्षेत्र में प्रकट नहीं हुई है अर्थात् जिसे हम सर्वकालिक नहीं कह सकते हैं — उसे उस रूप में रखना एक बड़ा जोखिम भरा काम होता है । 

“उस (संभावनापूर्ण) रूप को फूंक कर निकालने के लिए यह समझना जरूरी है कि जब भी हम किसी चीज की इस प्रकार चर्चा करते हैं कि ‘वह यह है’, तब इसमें उसकी संभावना को अलग से दिखाने का कोई संकेत नहीं बचता है । अर्थात् यह ‘ऐसा ही है’ कहा या लिखा जा सकता है, पर संयोजक के इस प्रकार के प्रयोग में हमें कुछ भी अलग से नहीं दिखाई देगा । यदि किसी विमर्श, किसी गुरु का विमर्श भी ‘भावीपन’ की ‘होने की’ क्रिया को नहीं उभारता है तो उसमें हमें कुछ भी नजर नहीं आयेगा ।” (पृष्ठ – 33)

टीकाकारों के सारसंग्रहवाद में से ‘जो है’, उससे परे भावीपन के संकेतकों में ही नए विमर्श की संभावना निहित होती है, टीकाकार ‘विचारों के कलश छलकाने’ की विचारक की भूमिका को चरितार्थ करता है ।      

बहरहाल, हमारे सामने अभी मेघ जी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है — ‘मध्ययुगीन रस-दर्शन और समकालीन सौन्दर्यबोध’ (2012)। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1969 में प्रकाशित हुआ था, जिसके 43 साल बाद प्रकाशित यह दूसरा, संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण है । 

गौर करने की बात है कि जिस पुस्तक के समग्र विन्यास को हम किसी अकादमिक काम के ढांचे से अलग नहीं कर पा रहे हैं, उसी पुस्तक को अकादमिक जगत में कितना अपनाया गया है, उसका एक अनुमान 43 साल बाद 2012 में इसके दूसरे संस्करण के प्रकाशन की घटना से लगाया जा सकता है । प्रकारांतर से अकादमिक कामों की कसौटी पर इसकी स्थिति का एक छोटा सा पैमाना यह भी हो ही सकता है । 

‘रस सिद्धांत’ हिंदी साहित्य के पठन-पाठन के अकादमिक जगत का एक सर्वकालिक विषय है । गौर करने की बात है कि इस जगत में इस विषय पर पिछले लगभग साठ सालों से जिस एक किताब का पूर्ण वर्चस्व बना हुआ है वह है डा. नगेन्द्र की किताब — ‘रस-सिद्धांत’ । इसका पहला संस्करण सन् 1964 में प्रकाशित हुआ था और तब से अब तक इसके कम से कम आठ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । 

डा. नगेन्द्र की किताब वास्तव में एक इतनी ठोस और ठस,  अकादमिक पुस्तक है जिसमें पूरे विषय को विचारों की अमूर्तनता मात्र से ही मुक्त करते हुए फलों के रस की तरह की ठोस उपभोग की जड़ वस्तु बना कर रख दिया गया है ; अर्थात् इसमें जीवंतता की किसी संभावना को नहीं छोड़ा गया है । अकादमिक दुनिया के लिए एक बिल्कुल उपयुक्त वस्तु है यह । जब किसी भी ठोस रूप को प्रतीकात्मक रूप में लिया जाता है, वह तत्क्षण अपने ठोस रूप की लाक्षणिकता के बिल्कुल विपरीत संकेत देने लगता है, ठोस और सूक्ष्म के बीच भेद का यह एक बुनियादी सिद्धांत है । इसीसे विषय के अनंत संकेतों की संभावनाएँ पैदा होती है, वह शव-परीक्षण की मेज के विषय के बजाय विचार जगत के विषय का रूप लेता है । पर विषय के ऐसे किसी अनजान जोखिम भरे विचारशील रास्ते में भटकने से बचने के लिए ही ‘छात्रोपयोगी’ सनातन लेखन की शर्त के अनुसार नगेन्द्र ने अपनी किताब के प्रारंभ में ही रस को ‘आस्वाद-प्रधान’ पदार्थ-रस के रूप में लेते हुए उसके आस्वादन के रसगुल्ले वाली मिठास के अन्तर्भाव को पूरे भारतीय काव्य सिद्धांत पर आरोपित कर दिया । और साथ ही, तुर्रा यह रहा कि “यहां रस के भौतिक और आध्यात्मिक अर्थों की सीमाएं परस्पर मिल जाती है ।”(डा. नगेन्द्र, रस-सिध्दांत, पृ. -5)   

ठोस का सूक्ष्मतर प्रतीकात्मक रूपांतरण ठोस के विपरीत अर्थ को व्यक्त करने लगता है, लक्षणा के कारणभूत मुख्यार्थबाध की यह द्वांद्विकता (dialectics) उनके विचार का विषय ही नहीं बन सकती थी, क्योंकि हम फिर से दोहरायेंगे कि वे विषय को शवपरीक्षण की मेज पर फेंक कर उस पर विचार करने के शुद्ध अकादमिक काम की वस्तु के निर्माण का बीड़ा जो उठाए हुए थे । इसी वजह से वे ध्वनिकार आनन्दवर्धन के इस सूत्र के मर्म को कभी ग्रहण नहीं कर पाए कि “रसादि भी वाच्यार्थ से भिन्न ही होते हैं”। ‘ध्वन्यालोक’ के वृत्तिकार अभिनवगुप्त के शब्दों में — “वस्तुध्वनि तथा अलंकारध्वनि ये दोनों शब्द के द्वारा अभिधेय होते हैं, किंतु रस, भाव, भावाभास, रसाभास तथा भावप्रशम कभी भी शब्द के द्वारा अभिहित नहीं किये जाते हैं । ...इनकी प्रतीति में ध्वनन व्यापार को छोड़ कर किसी दूसरे व्यापार की कल्पना नहीं की जा सकती है ।” (ध्वन्यालोक, पृष्ठ – 73)

हमारे लिए मेघ जी की पुस्तक के संदर्भ में समस्या यह है कि डा. नगेन्द्र की पुस्तक के तकरीबन पांच साल बाद जब घोषित रूप में भिन्न सरोकारों के साथ, “रस के अद्वैतवाद (Monism) तथा निर्विकल्पवाद (Absolutism) की मध्यकालीन परिणति के आवरण को भग्न करने” की प्रेरणा से मेघ जी ने इस विषय को उठाया तब भी वे डा. नगेन्द्र के इस ‘भौतिक-आध्यात्मिक ऐक्य’ के अद्वैत से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए । भट्टलोल्लट के रससूत्र के विभाव-अनुभाव-संचारी में पोष्य-पोषक-भाव संबंध से पुष्ट स्थायी भाव को ही रस मानते रहे । इसके मूल में किसी पोषण-कुपोषण के द्वैत की स्थापना के बजाय सिर्फ इतना सा भाषाई फर्क आया कि नगेन्द्र का आस्वादक मेघ जी के यहां ‘आप्रशंसक’ बन गया । काव्य में रस से आनंद का पुष्टिकारी भाव और अलंकरण की चमत्कारिता अक्षुण्ण एवं स्थायी बने रहे ! 

हमारे ध्वन्याकार आनंदवर्धन का कहना था कि “विभाव आदि के प्रतिपादन से रहित तथा केवल श्रृंगार आदि शब्दों से युक्त काव्य में थोड़ी सी भी रसवत्ता की प्रतीति नहीं होती है ।” वे विभाव-अनुभाव के प्रतिपादक भाव में तात्पर्याशक्ति को अनिवार्य तौर पर भेदपरक और संबंध सूचक, अर्थात् संकेतक मानते थे । साफ कहते है कि “उसका पर्यावसान आस्वाद्यमानता के सारभूत रस में नहीं होता है । इस विषय में और ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है ।”  (विभावानुभावप्रतिपादके हि वाक्ये तात्पर्यशक्तिर्भेदे संसर्गे वा पर्यवस्येत्; न तु रस्यमानतासारे रसे । इतिशब्दो हेत्वर्थे ।) 

अभिनवगुप्त की नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि के इस सूत्र पर कि विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव के गम्यगमक भावरूप संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, यह एक मूलभूत आपत्ति थी कि उन्होंने इस रससूत्र में स्थायिभाव को शामिल नहीं किया । अभिनवगुप्त रस के ठोस आस्वादन के बजाय ‘चर्वणा (dialectics) के अलौकिकत्व का प्रतिपादन’ करते हुए कहते हैं कि अगर उन्होंने (भरत मुनि ने) ऐसा किया होता तो ‘सारा मामला ही उलट जाता’ । (तत्प्रत्युत शल्यभूतं स्यात्)

हम सभी जानते हैं कि अभिनवगुप्त के यहां यह मनुष्य का स्थायिभाव लोक में रति (वासना) का भाव है जिसमें सिर्फ प्रेम, मधुरता और श्रृंगार ही नहीं है बल्कि शोक, क्रोध, भय, जुगुप्सा, ग्लानि, घृणा सबसे प्रबल रूप में शामिल है । यह सब वे चित्त-वृत्तियां हैं जिनके अधीन ही चर्वणा होती है और रचना में इसी चर्वणा की अभिव्यक्ति होती है । “प्रमाणों के व्यापार के समान उसका ज्ञापन नहीं होता है और न तो हेतु के व्यापार के समान उसकी उत्पत्ति होती है ।” संकेतक के बारे में लकान भी यही कहते है कि वह प्रकट और सनातन नहीं होने पर भी अजीब प्रकार से तात्त्विक होता है । चर्वणा ही संकेतक की सांकेतितता है । 

फ्रायड जब अपने आनंद सिद्धांत को परिभाषित करते हैं तो उसे अनिवार्य तौर पर जीवन में विषाद की परिणति बताते हैं । “The course of those events is invariably set in motion by an unpleasurable tension. ” वे जिस प्रक्रिया की बात कर रहे थे यह भी  चित्तवृत्तियों की चर्वणा है जिसमें विषाद के तनावों से बचने के क्रम में अन्ततः एक आनंद की सृष्टि होती है, परिस्थिति से एक सामंजस्य कायम करके जीया जाता है । विषाद का अंत नहीं होता पर वह विक्षिप्तता में परिणत नहीं होता, जीवन में सुख-दुख की तरह का एक सामान्य विषाद बना रहता है । आनंद की स्थिति किसी परम सुख की स्थिति नहीं है, जिसे साधने के नुस्ख़ों से आध्यात्मिक अद्वैतवादियों का योगदर्शन भरा हुआ है । और भी गंभीरता से गौर करने की बात है कि फ्रायड इस सामंजस्य के ‘आनंद सिद्धांत’ को पुष्टिदायी रस के बजाय शक्ति को गंवाने, castration से व्याख्यायित करते हैं, स्वतंत्रता के हरण से, मृत्यु को टालने के एक मजबूरी के उपाय के रूप में रखते हैं । अभिनवगुप्त अपने तंत्रालोक में इसी खो रही स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए शक्तिपात के जरिए आत्म के विस्तार का पथ बताते हैं, और मोक्ष को स्वतंत्रता से भिन्न नहीं मानते । आधुनिक मनोविश्लेषण में फ्रायड और लकान मनुष्य को उसकी दमित वासना से मुक्त करके स्वतंत्रता के जरिये आत्म-विस्तार का पथ बताते हैं ।         

भारत के रस सिद्धांत की चर्चा करते हुए हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि भरत (400 ई.पू- 100 ई.पू) से शुरू करके विश्वनाथ चक्रवर्ती (1626-1708) तक के इन लगभग दो हजार सालों में संस्कृत के अलंकार ग्रंथों में साहित्य पर विचार की जो उच्च-स्तरीय समृद्ध परंपरा मिलती है, दुनिया के किसी भी कोने में इस काल में उस स्तर का विमर्श नजर नहीं आता है । अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा के ग्रंथों में काफी साहित्य चर्चा मिलने पर भी हमारे अलंकार ग्रंथों की तरह की सूक्ष्मता और गहराई नहीं दिखाई देती है । यहां की साहित्य चर्चा में जिन विषयों को उठाया गया, यूरोपीय काव्य चिंतन में वे विषय दिखाई नहीं देते थे । साहित्य के पाठों के विवेचन का शास्त्र मनुष्य के चित्त के जगत के विवेचन से भिन्न शास्त्र नहीं है क्योंकि मनुष्य की प्राणी सत्ता कभी उसका शरीर मात्र नहीं है । यह उसके शरीर के साथ ही उससे बहुत परे उसके चित्त के विस्तार का समुच्चय है । इसमें उसके प्रत्यक्ष अनुभवों और यथार्थ जीवन के साथ ही उसके प्रतीकात्मक जगत का सबसे बड़ा स्थान है । और साहित्य या काव्य इसी जगत की अनंत संभावनापूर्ण तस्वीर पेश करता है । इसीलिए साहित्य का कोई भी शास्त्र मनुष्य के जीवन के यथार्थ और उसके प्रतीकात्मक संसार से हट कर कल्पित भी कैसे किया जा सकता है ! शास्त्र नहीं, यथार्थ के संकेतकों के साथ मनुष्य की चित्त-वृत्तियों की चर्वणा साहित्य की सृष्टि करते हैं । अभिनवगुप्त की टीकाओं और उनके दर्शनशास्त्रीय विमर्श, आनंदवर्धन के ध्वनि सिद्धांत, आत्म की पहचान के उत्पलदेव-अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञादर्शन में यह पूरा विमर्श जिस असाधारण ऊंचाई तक चला गया था, उसका परवर्ती दिनों में रीतिवादी अलंकारशास्त्र में पर्यवसन जिस प्रकार के दरबारी सहृदय आस्वादकों के स्थूल रस-सिद्धांत में हुआ, डा. नगेन्द्र ने उसी पतनशील परंपरा की लकीर पीट कर अकादमिक अध्ययन की शवपरीक्षा के उपयुक्त ग्रंथ तैयार किया था । पर सचमुच यह एक अघटन ही है कि जैसे भारतीय दर्शन के बारे में मार्क्सवादी विमर्श भी दर्शनशास्त्र के इतिहास की सार-संग्रहवादी परंपरा को अस्वीकारने के बावजूद वेदांत के कथित शिखर तक जा कर ठहर गया,  वैसे ही काव्य संबंधी अलंकारशास्त्र का रस सिद्धांत भी भरतमुनि, भामह, दण्डी, मम्मट, भट्टलोल्लट आदि से होते हुए रुद्रट, आनंदवर्धन (9वीं सदी) अभिनवगुप्त (ई.सन् 975-1025) को स्पर्श करता हुआ भोज, दरबारी पंडितराज जगन्नाथ(1590-1641) और भक्तिरस में पर्यवसित हो गया । पर्यवसन इसलिये क्योंकि पंडितराज जगन्नाथ तो घोषित रूप में अपने ‘रसगंगाधर’ की प्रतिज्ञा में कहते ही हैं कि उनका उद्देश्य तब तक के सभी “अलंकारग्रंथों को गर्वहीन-महत्वहीन” बनाना है ।

“ हरन्नन्तर्ध्वान्तं हृदयमधिरूढो गुणवता-

मलंकारान्सर्वानपि गलितगर्वान् रचयतु ” ।।4।।

जाहिर है कि पंडितराज का संकेत आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त की परंपरा को खारिज करना था, और इसके लिए उन्हें दरबार के आस्वादकों का पूरा समर्थन हासिल था । अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञादर्शन, तंत्रालोक और ध्वन्यालोक के सूत्रों पर रस सिद्धांत के आगे नवीकरण का जरूरी काम वहीं से पूरी तरह से उपेक्षित होता चला गया । 

हम देखते हैं कि मेघ जी को भी इस पुस्तक के लेखन के दौरान इस सच्चाई का बाकायदा अहसास हुआ था और उन्होंने जब अभिनवगुप्त के आगे भोज, वैष्णव सौंदर्यशास्त्रियों, पंडितराज जगन्नाथ आदि का विवेचन किया तो उन्हें ‘सामंतीयकरण’ और फ्रायड आदि का स्मरण हुआ, पर उनकी इस किताब का पूर्व-कल्पित पाठ्य-पुस्तकीय विन्यास ही ऐसा रहा कि उनके लिए सार-संग्रहवाद से बहुत अलग होते हुए किसी संश्लेषणात्मक विमर्श की ओर बढ़ना संभव नहीं हो सकता था । इस समीक्षा के प्रारंभ में इस प्रकार के अध्ययन की सीमाओं की ओर इंगित से हमारा यही तात्पर्य था जिसके कारण “अद्वैतवाद की मध्यकालीन परिणति के आवरण को भग्न करने” की उनकी प्रतिज्ञा इस दीर्घ उपक्रम में विस्मृत कर दी गई । 

आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त ने काव्यशास्त्र को चर्वणा (dialectics) के जिस सनातन सिद्धांत पर टिका कर लोक रति के साथ ही कवि और सहृदय के स्थायिभाव की सक्रिय भूमिका के जिस आधुनिक भारतीय काव्यशास्त्र की मजबूत जमीन तैयार की थी, उस पर नया महल तैयार करने का काम आगे नहीं बढ़ाया जा सका है । वह काम आज भी पंडितराजों के अभिशाप से एक खंडहर ही प्रतीत होता है, अकादमिक चर्वित-चर्वण की वस्तु बन गया है, जैसे आज धर्म-गुरुओं की नाना लीलाओं की वस्तु बन कर रह गया है भारतीय दर्शन । मेघ जी की पुस्तक भी उस अभाव की पुष्टि करती है । यह अभाव आधुनिक भारतीय साहित्य सिद्धांत के संधान के लिए प्रेरक बने, फ़िलहाल इसकी उम्मीद ही की जा सकती है ।                    


बुधवार, 23 मार्च 2022

साहित्य और जीवन के भ्रम और यथार्थ

( हिंदी का लेखक-प्रकाशक विवाद )

—अरुण माहेश्वरी  



सोशल मीडिया पर हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों के बीच संबंध के बारे में अभी जो बहस उठी है, वह जितनी दिलचस्प है, उतनी ही विचारोत्तेजक भी है । इसमें एक प्रकार से हिंदी साहित्य और पाठकों के बीच के संबंधों की भी एक खास अभिव्यक्ति मिलती है । 

हिंदी साहित्य और उसके पाठकों के संबंध के बीच में इस साहित्य की भाषा के स्वरूप और उसके निर्माण के इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण पहलू आता है, जो यहां हमारे विचार का विषय नहीं है । पर जिस प्रकार सचेत रूप में, तत्सम शब्दों से ठूस-ठूस कर इस भाषा को तैयार किया गया है, उस भाषा का हिंदी के पाठकों के साथ कितना संबंध बन पाया, इस सवाल के न सिर्फ सामाजिक आयामों, बल्कि खुद भाषा की अपनी शक्ति पर पड़े प्रभाव से भी पूरी तरह से आँख मूँद कर नहीं चला जा सकता है । 

जाहिर है कि इसने हिंदी साहित्य के लेखन को उसकी भाषा से जुड़ी एक ऐसी जन्मजात व्याधि से जोड़ दिया, जो उस साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता के सवाल को जैसे उसके जन्म के दिन से ही पैदा करती रही है । शुरू से ही हिंदी साहित्य अपने पाठकों की तलाश में ‘बोलचाल की भाषा’ की खोज की एक अतिरिक्त समस्या से भी जूझने के लिये मजबूर रहा है । ‘क्या साहित्य समाज में अप्रासंगिक होता जा रहा है ? ’, इस चिंता के साथ साहित्य संबंधी चर्चाओं को सुनते-सुनते लगता है जैसे हम सबके कान पक चुके हैं । 

बहरहाल, लेखक-प्रकाशक संबंध के मौजूदा विषय में भी हमारे सामने कुछ इसी से जुड़ा हुआ एक मूल सवाल आता है कि आखिर इस पूरे मामले में ‘मुद्दआ क्या है ?’ क्या यह सिर्फ मालिक-मजदूर के बीच के संबंध की तरह का उत्पादन और उसकी मिल्कियत से जुड़ा हुआ एक सामान्य विषय है या इसके कुछ और भी ऐसे पहलू है जिनका संबंध इस उत्पाद और इसके उत्पादन के अपने कुछ विशेष चरित्र से भी जुड़ा हुआ है ?   

इस पूरे विषय को जरा गहरे में जाकर उठाने की गरज से ही हमारे सामने यह पहला सवाल उठता है कि आखिर साहित्य होता क्या है ? और समाज ! उसकी वे ऐसी कौन सी जरूरतें हैं जिनमें साहित्य का अपना अलग स्थान होता है, उसकी एक अलग उपयोगिता होती है  ? 

यह सब कुछ ऐसे बुनियादी सवाल हैं, जिनके जवाब की तलाश से शायद हमें साहित्य, उसके प्रकाशन और लेखक तथा प्रकाशनतंत्र तक के रिश्तों के विशेष सच या रहस्य, जो भी कहें, उन्हें समझने की शायद कोई नई अन्तर्दृष्टि मिल सकती है ।

अगर साहित्य महज समाजोपयोगी किसी ठोस पण्य की श्रेणी में आता तो उस पर श्रम और पूंजी के रिश्तों और उनके बीच के अन्तरविरोधों, पूंजीपति के द्वारा इस संबंध के बीच से पैदा हुए अतिरिक्त मूल्य के हस्तगतकरण की क्लासिक सामाजिक मार्क्सवादी समझ को लागू करके आसानी से इस विषय की सारी कलनाएं की जा सकती थी । 

पर साहित्य का जगत तो मूलतः एक आत्मिक जगत है । आज साहित्य पुस्तकों, ई-पुस्तकों के क्रिस्टल स्क्रीन की तरह के माध्यमों पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है, पर हजारों सालों का श्रुति परंपरा का अलिखित, अनाम्नात साहित्य ! पुस्तकों आदि में आए साहित्य की पहुंच का तो एक पैमाना संभव भी है, पर इस अलिखित, श्रुति परंपरा के साहित्य की पहुंच की माप के तो कोई ठोस पैमाने नहीं हैं, पर कोई भी उनके होने या समाज में उनकी भूमिका से इंकार की क्या कल्पना भी कर सकता है ?  

यह सच है कि साहित्य पाठक की किसी जैविक या जीवनोपयोगी जरूरत का विषय नहीं है, यदि उसे किसी स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल न किया गया हो तो, यह उसके अपने निजी चयन, उसकी मनमर्जी का विषय है । इसकी उपयोगिता पाठक के किसी कार्यसाधन से नहीं, पूरी तरह से भाषा से संबद्ध उसके अस्तित्व के आत्मिक विकास की जरूरत से जुड़ी हुई है । और यही वह बुनियादी बात है कि जिसके चलते साहित्य के उपभोग के दायरे को मापना, जिससे कि उससे होने वाली आमदनियों के विषय को अंतिम रूप से तय किया जा सकता है, हमेशा बहुत आसान नहीं होता है । सारी दुनिया में पुस्तकों के व्यवसाय में पायरेसी, अर्थात् जिन किताबों की मांग हो, उन्हें चोरी-छिपे छाप कर बेचने वालों की कमी नहीं होती है । गैब्रियल गार्सिया मार्केश तो ऐसे ग्रे मार्केट में अपनी पुस्तकों को देख कर, उससे होने वाले आर्थिक नुकसान की बिना कोई परवाह किए, उनकी लोकप्रियता के अहसास से खुश हुआ करते थे ।     

दरअसल, साहित्य एक प्रकार से मनुष्य के कामोद्दीपन के तरह ही उसकी मूलभूत प्रवृत्ति से जुड़ा एक नैसर्गिक विषय भी है, क्योंकि यही शरीर और भाषा के दो मूलभूत संघटकों से निर्मित मनुष्य की भाषा को जीवंत बनाए रखने का एक मात्र साधन होता है । आदमी के मस्तिष्क के विकास के दूसरे किसी भी मानसिक व्यायाम की तुलना में यह उसके अस्तित्व के मूल संघटक तत्त्व, उसकी भाषा को जीवित बनाए रखने का अकेला माध्यम होता है । भाषा के साथ साहित्य के संबंध पर तमाम शास्त्रीय चर्चाओं में साहित्य को ही जीवन और भाषा के बीच की ऐसी सबसे प्रमुख कड़ी के रूप में देखा गया है, जो परिवर्तनशील जीवन के यथार्थ से भाषा को जोड़ कर उसे मनुष्य के आत्मविस्तार का कारक बनाता है । इसीलिए पाया जाता है कि भाषा को लेकर किए जाने वाले सभी सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगों की निष्पत्ति हमेशा साहित्य के पटल पर ही हुआ करती है । राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर अरबों रुपये खर्च करके भी जिन शब्दों और पदों को बनाने की कोशिश की जाती है, मसलन् ‘लौहपथ गामिनी’ से लेकर ‘लव जेहाद’ आदि-आदि, वे सब साहित्य से निष्काषित रहने और अंततः जीवन के प्रवाह में पूरी तरह से अवांतर साबित होने के कारण ही इतिहास के कूड़ेदान में जाने के लिए अभिशप्त होते हैं । 

इतना सब कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि साहित्य समाज के लिए उपयोगी मूलतः एक अभौतिक शक्ति है और इसके कारण ही इससे जुड़े विषयों पर किसी ठोस पण्य के रूप में विचार से कई दूसरे प्रकार की समस्याएं पैदा हो सकती है । यह मसला तब और जटिल भी हो जाता है, जब हम इसे मसीजीवी लेखक की जीविका के विषय के साथ ही, उतने ही महत्व के साथ इसे लेखक की अपनी आत्माभिव्यक्ति की मूलभूत जरूरत की वस्तु के रूप में भी देखना लाजिमी समझते हैं । 

साहित्य सृजन एक ऐसा काम है, जिसमें ‘अन्य’ सबसे से संवाद करता हुआ भी लेखक अकेला, और अनोखा होता है । उसकी रचनात्मकता की पहचान ही इस बात में है कि वह ‘अन्य से संवाद’ के किन्हीं निश्चित सामाजिक नियमों और मर्यादाओं से पूरी तरह बंधा नहीं होता है, और इसीलिए भाषा को यथार्थ के कई अनदेखे, अनचिन्हे आयामों से संवेदित कर पाता है । लेखक के अपने अभिनव आत्मबोध के प्रकाशन की इस आत्मिक जरूरत का ही एक आयाम यह भी है जो आज के काल में प्रत्येक लेखक को अपनी पुस्तक के प्रकाशन के लिए भी बेचैन रखता है । 

इसप्रकार, हम अपने सामने साहित्य के लेखन और प्रकाशन से लेकर उसकी सामाजिक भूमिका तक के एक स्वयं-संपूर्ण अभौतिक संसार का भी एक अलग प्रकार का तानाबाना देख पाते हैं । पाब्लो नेरुदा ने कैसे अपनी कविताओं के पहले संकलन Crepusulario (गोधुली) को अपने फर्नीचर और पिता की दी हुई घड़ी, और ‘कवि के खास सूट’ को बेच कर छपाया था, और अंत में अपने साहित्यिक मित्र के उधार के पैसों से उसे मुद्रक के चंगुल  से निकाला, और तब भी वे जब फटे जूतों के साथ अपने कंधे पर उस किताब के बंडल को उठा कर निकले, उस क्षण की उमंग की अनुभूति और उस किताब के स्याही और कागज की गंध को वे अपनी जिंदगी की आखिरी घड़ी तक कभी भूल नहीं पाए थे । कुछ ऐसी ही कहानी गैब्रियल मार्केश की भी रही है । सचमुच, कौन सा ऐसा लेखक होगा जो अपने जीवन में अपनी किताब के प्रकाशन से खुशी के ऐसे पलों के लिए तरसता न होगा ! दुनिया के तमाम लेखकों की आत्मजीवनियों में आपको इसके अनेक  किस्से मिल जाएंगें । 

‘मनुष्य और साहित्य’ तथा ‘पुस्तक और लेखक’ के बीच के कुछ ऐसे ही एक आत्मिक, अगोचर जगत के ताने-बाने में जब हम प्रकाशक और लेखक के शुद्ध नगद-कौड़ी से जुड़े वास्तविक संबंधों को समझने की कोशिश करते हैं तो यह उतना आसान नहीं होता है, जितना आसान यह ऊपर से दिखाई देता है । अहम् और स्वार्थ के सवाल के साथ ही यहां कुछ और भी बातें होती हैं, जो दोनों पक्षों में, कई-कई  स्तरों पर काम कर सकती हैं । 

इसीलिए, यह इस जगत का कटु सत्य है कि यदि लेखक खुद ही अपनी पुस्तक के प्रकाशन जितनी पुरुषार्थ रखता हो, तो बात बिल्कुल अलग है, अन्यथा विरले ही लेखक होंगे जो अपने प्रकाशक को नाखुश करना चाहते हो । और प्रकाशक भी, यदि उसने शर्म-हया को पूरी तरह से न गंवा दिया हो, तो विरले ही होंगे, जो लेखक के प्रति न्याय करने से इंकार की खुले आम घोषणा करने की हिम्मत रखते हो ! कुछ लोगों के पेशेवर अकादमिक हितों के लिए पैसे लेकर उनकी किताबें छापने का विषय इस चर्चा के परे, पाठ्य-पुस्तकों की सामाजिक उपयोगिता से जुड़े पण्य के उत्पादन और विनिमय की तरह का एक अलग विषय है । उसमें, या यहां तक कि सरकारी खरीद में आई पुस्तकों के मामले में भी यह चर्चा शायद उतनी माने नहीं रखती है, क्योंकि वहां बिक्री और मुनाफे के आकलन की कोई समस्या नहीं होती है । अन्यथा आम तौर तो लेखक और प्रकाशक के संबंध में हमेशा एक अपारदर्शिता, असंतोष और शक-सुबहे की गुंजाइश रखने वाली यथार्थ की अबूझ सी दूरी अनिवार्यतः बनी रहती है ।

समाज में साहित्य की भूमिका, उसके स्थान के परिमाप की समस्या से लेकर साहित्य के प्रकाशन की जरूरतों तक के लेखक और प्रकाशक से जुड़े सारे आत्मिक और आर्थिक आयाम इस पूरे विषय की अपारदर्शिता और परस्पर अविश्वास के विषय के वे यथार्थ कारण हैं जो लेखन के कर्म और उसकी कामना के बीच पसरे हुए ऐसे धुंधलके की तरह है, जिसकी दरारों में से ही हमें इस विषय के सत्य को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए । 

हिंदी में इस विषय पर जो बहस खड़ी हुई है उसका एक विशेष पहलू हिंदी भाषा के साहित्यकारों का पहलू भी है । हिंदी भाषा से एक तात्पर्य यह भी है कि भारत के लगभग चालीस करोड़ लोगों की एक ऐसी भाषा, जिसे सरकारी प्रचार से उत्पन्न भ्रमों के चलते, देश के अन्य भागों में एक वर्चस्वशाली भाषा के रूप में भी अमूमन देखा जाता है । और निश्चित तौर पर अन्यजनों की इस अवधारणा की छाया कहीं न कहीं से हिंदी के लेखकों में भी एक भ्रांत श्रेष्ठता का  आत्मबोध पैदा करती होगी ।   

अंग्रेजी तो विश्व वर्चस्व की एक सर्वमान्य भाषा है, इसमें किसी को कोई शक नहीं है । और इसीलिए, इस भाषा में किसी भी प्रकार से प्रतिष्ठित हो जाने वाले लेखक की रॉयल्टी का मसला बहुत बड़ा मसला इसलिए नहीं बन पाता है क्योंकि वह अक्सर इतनी मात्रा में होती है कि उसे लेखक के मेहनताना के रूप में यथेष्ट मान लिया जाता है । 

पर हिंदी का सवाल बहुत कठिन है । भारत जैसे एक महादेशनुमा विशाल देश में उसका सामाजिक वर्चस्व ऊपरी तौर पर, और सरकारी प्रचार में कुछ भी क्यों न दिखाई दें, यथार्थ की जमीन पर वह कितना वास्तविक है, यह एक गहरे संदेह का विषय है। सच तो यह है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार और पुस्तकों की खरीद संबंधी तमाम सरकारी तामजाम भी, उसके साहित्य के प्रसार और लेखक की जीविका के लिए कोई पुख्ता सामाजिक जमीन तैयार नहीं कर पाए हैं । 

भारत की दूसरी भाषाओं की तरह ही हिंदी भी आज तक, अंग्रेजी के सामने ही क्यों न हो, अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लड़ती हुई दिखाई देती है । यूरोप की सभी भाषाओं और अरबी-फारसी ने अपनी जो स्वतंत्र वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल की है, उसके चलते उन भाषाओं में होने वाले लेखन के प्रति सारी दुनिया के लोगों की नजर टिकी होती है । उस मुकाम से हिंदी अभी कोसो दूर है । सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में भी हिंदी आज तक अपने क्षेत्र की जनता के सांस्कृतिक निर्माण की भाषा के रूप में सामने आने के लिए कहीं ज्यादा जूझती हुई नजर आती है । इसीलिये तो, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता का सवाल हमारी चिंता का आज तक एक चिरंतन ज्वलंत सवाल बना हुआ है । 

भारतीय दर्शन और चिंतन के विषय में आज तक भी संस्कृत वाङ्मय का जो स्थान है, हिंदी अपनी इतनी व्याप्ति के बावजूद उसकी छाया से जरा भी निकल नहीं पाई है । प्रेमचंद के अलावा इसके साहित्य को सामान्यतः वह मान्यता नहीं मिल पाई है जिससे आधुनिक जगत में इस क्षेत्र की जनता की किसी अग्रगामी भूमिका का परिचय मिलता हो । उल्टे, हिंदी भाषा के स्वरूप पर आज तक लगा हुआ पोंगापंथी और रूढ़िवादी विचारों का ग्रहण एक ऐसा सत्य है, जो इसके साहित्य के सामाजिक परिसर के विस्तार की सबसे बड़ी बाधा है । यह जहां इस क्षेत्र की जनता के सांस्कृतिक पिछड़ेपन, उनकी सांप्रदायिक और जातिवादी चेतना का परिणाम है तो इस पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण भी । हिंदी साहित्य और भाषा के प्रति इस क्षेत्र के ही पढ़े-लिखे नौजवानों की विमुखता भी पूरी तरह से अकारण नहीं है ।                     

कहना न होगा, एक ओर हिंदी के ‘वर्चस्व का भ्रम’ और दूसरी ओर अपने अस्तित्व मात्र की रक्षा के उसके वास्तविक संघर्ष की त्रासदी, भ्रम और यथार्थ के बीच की इस दरार से ही दरअसल हिंदी के साहित्य जगत के ऐसे तनावों को भी देखा जाना चाहिए जो अभी  प्रकाशक और लेखक के बीच के तनाव के रूप में सामने आया है । कोई भी अकेला लेखक इस तनाव में और भी ज्यादा कमजोर और बदहवास दिखाई देता है । लेखकों के संगठन और समूह भी इसमें उसकी एक हद तक ही मदद कर पाते हैं, क्योंकि वे भी समाज और साहित्य और भाषा की त्रयी के बीच के संबंधों के यथार्थ को बदलने में पूरी तरह से असमर्थ हैं । ऐसे तमाम मंचों पर होने वाले वैचारिक विमर्श ही इन संबंधों की मूलभूत जमीन को बदल सकते हैं, पर वह एक इतनी लंबी और दीर्घकालीन प्रक्रिया है कि मुँह से गालिब साहब की यह आह ही निकलती है कि : 

‘आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक ।’  


शुक्रवार, 18 मार्च 2022

क्या जन आंदोलनों का नेतृत्व राजनीतिक सवालों से उदासीन रह सकता है ?

 

(यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव से उठने वाले प्रश्न) 

—अरुण माहेश्वरी 



तमाम दलीलों को सुन कर बहुत सोचने के बावजूद पंजाब और यूपी के चुनाव परिणाम और उनमें किसान आंदोलन के नगण्य प्रभाव का कारण आसानी से समझ में नहीं आ रहा है ।


यूपी में जातियों ने ज़रूर एक भूमिका अदा की है, पर सवर्ण हिंदुओं के वर्चस्व की विचारधारा पर टिकी आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा के साथ उनका संबंध भी अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है ।


हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का जो मिथ्या भाव इतने विशाल किसान आंदोलन के वक्त कहीं दिखाई नहीं देता था, पर चुनाव के वक्त वही भाव अन्य सब बातों पर हावी हो सकता है, एक जटिल सांस्कृतिक-राजनीतिक समस्या है, जिसे किसी भी सतही सोच से समझना संभव नहीं है ।


पंजाब के किसान आंदोलन को कांग्रेस सरकार का भारी समर्थन मिला था, इसे सब जानते हैं । बाक़ी तमाम प्रकार के सहयोग के अलावा, पंजाब सरकार ने ही पंजाब के शहीद किसानों की पहली सूची जारी की थी और सभी शहीदों को मुआवज़े का ऐलान भी किया था । पंजाब की कांग्रेस सरकार के समर्थन के बिना किसान आंदोलन की सूरत क्या होती, इसका अभी अंदाज नहीं लगाया जा सकता है ।


पर यह भी समझ के परे है कि किसान आंदोलन के नेता ही इस चुनाव के वक्त पंजाब में लगातार कांग्रेस को दंडित करने की बात कहते रहे हैं । इस बात का तर्क भी एक खोज का विषय है ।


कमोबेश किसान आंदोलन के नेतृत्व का कांग्रेस के प्रति यही नज़रिया यूपी में भी दिखाई दिया, जबकि कांग्रेस ने कहीं भी किसान आंदोलन के प्रति असहयोग या विरक्ति का भाव जाहिर नहीं किया था । 


किसान आंदोलन के नेता अक्सर भाजपा और कांग्रेस को एक ही तराज़ू पर तौलते दिखाई देते हैं, इसके कारणों की भी गहराई से पड़ताल की जानी चाहिए । किसान आंदोलन अंत में एमएसपी के साथ ही जिस मंडी व्यवस्था की रक्षा का आंदोलन बन चुका था, कांग्रेस दल और उसकी सरकारों का उससे कभी कोई विरोध नहीं रहा । इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस के बीच कोई फर्क न पाने की किसान आंदोलन के नेताओं की मनोदशा से क्या यह नहीं लगता कि वे आज तक भी मोदी-आरएसएस की सत्ता के फ़ासिस्ट सत्य को समझ ही नहीं पाए हैं, उसे आत्मसात करना तो बहुत दूर की बात है !


क्या किसान आंदोलन के कथित ग़ैर-राजनीतिवाद ने राजनीतिक विकल्पों को कमजोर करके परोक्ष रूप में अंततः सांप्रदायिक-जातिवादी वर्चस्व की राजनीति की ही सहायता नहीं की और यूपी में इसने ही सांप्रदायिक और जातिवादी ध्रुवीकरण की मदद नहीं की ? क्या उनके नज़रिये की इसी कमी ने इन चुनावों में सब जगह भाजपा के सांप्रदायिक रोड रोलर के लिए मैदान साफ़ करने का काम नहीं किया ?


किसान आंदोलन के बीच से दिल्ली के बार्डर पर जिस नए भारत के उदय के संकेत मिले थे, वह भारत आज़ादी की लड़ाई के बीच से तैयार हुए धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक भारत का पुनरोदय की झलक देता था । क्या इस आंदोलन के नेताओं ने अपने अंध-कांग्रेस विरोध के चलते उस भारत की संभावना की पीठ में छुरा भोंकने का काम नहीं किया ?


किसान आंदोलन की ग़ैर-राजनीतिक राजनीति के सत्य की आज गहराई से जाँच की ज़रूरत है । एक क्रांतिकारी संभावनाओं से भरे हुए व्यापक जनआंदोलन को उसके नेतृत्व की अदूरदर्शिता ने कैसे निरुद्देश्य विक्षिप्तता का शिकार बना दिया, यह एक गंभीर राजनीति-शास्त्रीय खोज का विषय बन सकता है ।


किसान आंदोलन ने इजारेदार पूंजीवाद के खिलाफ समग्र किसान जनता की एकता की जो एक नज़ीर पेश की थी, उसके नेतृत्व के अराजनीतिक रुझान ने इस एकता को तोड़ देने का रास्ता आसान कर दिया । इस आंदोलन ने मोदी शासन के खिलाफ जनता के अवरुद्ध कंठ को वाणी देने का काम किया था । पर इसके नेतृत्व के राजनीतिक पूर्वाग्रहों ने इन फ़ासिस्ट दमनकारी ताक़तों की ही राजनीतिक सहायता का काम कैसे किया, इस पर विचार किया जाना चाहिए । यह एक बुनियादी सवाल है कि क्या एक ऐसे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संभावनाओं से भरपूर किसी आंदोलन का नेतृत्व समग्र राजनीतिक परिदृश्य के प्रति उदासीन रह कर आंदोलन की जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वाह कर सकता हैं ?


क्या किसान आंदोलन के नेतृत्व का यह विडंबनापूर्ण दृष्टिकोण इस बात का संकेत भी नहीं है कि उसे शायद दुनिया के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ का जरा सा भी अहसास नहीं है ? क्रांतिकारी संभावनाओं से भरा हुआ कोई भी आंदोलन समग्र वैश्विक सामाजिक परिदृश्य के प्रति उदासीन रह कर कैसे समाज में अपनी भूमिका अदा कर सकता है ? 


क्या यह किसी से छिपी हुई बात है कि आज का काल एक प्रकार से पूंजीवाद की पूर्ण विजय का काल है । दुनिया से वामपंथी विकल्पों के अंत का अर्थ ही है पूंजीवाद के मूलभूत विरोध का अंत । आज क्रमशः पूंजी के संकेंद्रण की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत ही सारी दुनिया में वित्तीय जनतंत्र वित्तीय राजशाही में बदलते जा रहे हैं । इसे ही फासीवाद के रूप भी कहा जा सकता है । हमारे देश में ही सिर्फ दो आदमियों के हाथ में 60 प्रतिशत संपत्ति जमा हो गई है । वित्तीय राजशाही फासीवाद की लाक्षणिक विशेषता है । साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवादी राजसत्ताओं का फासीवाद की दिशा में बढ़ने का यह एक स्वाभाविक उपक्रम प्रतीत होता है । 


आज के काल में आम आदमी के पास जीवन के सिर्फ चार विकल्प शेष हैं । पहला, मालिक बनना, जो मुट्ठी भर, बड़ी पूंजी से जुड़े लोगों के लिए ही खुला होता है । दूसरा है, मजदूर-कर्मचारी और उपभोक्ता बन कर श्रम और माल के बाजार में पिसते रहना ।  तीसरा है, गरीब किसान बने रहना । और, चौथा, जो सबसे ज्यादा त्रासद है — कुछ भी न बनना । 


हमारे देश के करोड़ों बेरोजगार इसी चौथी श्रेणी में आते हैं । भर्तियों के लिए दौड़ते-भागते थक कर गहरे अवसाद में जी रहे लोग । ये ही राजनीतिक विकल्पों के अभाव में बड़ी आसानी से फासिस्टों के हत्यारे गिरोह के सदस्य का काम करते हैं । और इनकी संख्या किसी से भी कम नहीं हैं । 


एक ओर लोगों के पास काम नहीं है, और दूसरी ओर सरकार सिर्फ ऑटोमेशन, डिजिटलाइजेशन के जरिए कम से कम लोगों के जरिए अधिक से अधिक काम कराने पर जोर देती है । जो लोग काम में लगे हुए हैं, उन पर काम का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ाने की स्कीमें चल रही है । अर्थात् मौजूदा व्यवस्था में करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के लिए कोई भविष्य नहीं है । फिर भी इस काल की सरकारें पहले से कहीं ज्यादा मजबूत प्रतीत होती हैं । क्यों ?


तमाम पत्रकारों की जलेबीदार बातों से आपको लगेगा कि जैसे मौजूदा मोदी शासन का कोई विकल्प ही नहीं है । और गौर करने पर पायेंगे कि किसान आंदोलन के नेतृत्व का गैर-राजनीतिक रवैया भी इस शासन की निंदा करते हुए इसे ही प्रकारांतर से विकल्पहीन बनाने का दोषी रहा है । उसकी राजनीति-विमुखता का इसके अलावा दूसरा कोई अर्थ क्या संभव लगता है ? 

 

आज की तरह की दुनिया में अगर सत्ता की राजनीति का जनतांत्रिक ढांचा बना रहता है तो स्वाभाविक है कि उसकी राजनीति कमोबेश दो विकल्पों के बीच बटी रहेगी । यह मूलभूत सचाई है कि पूंजी की महाशक्ति का मुकाबला जनता की अधिकतम एकता की शक्ति के आधार पर ही संभव होगा । पर क्या दुनिया के विकसित पूंजीवादी देशों में राजनीति के द्विदलीय चरित्र के पीछे भी कुछ इसी प्रकार के तर्क की छाया काम नहीं कर रही है ? यहां लड़ाई हमेशा सीधी दो के बीच होती है , भले दो गठबंधनों में ही क्यों न हो । यह पक्ष-विपक्ष, जनतांत्रिक राजनीति का एक सामान्य चरित्र बनता जा रहा है । वाम और दक्षिण, डेमोक्रेट और रिपब्लिक, लेबर और कंजरवेटिव । आम तौर पर पेशवर राजनीति इन दो के बीच ही बटी रहती है । 

इन दो ध्रुवों के बीच सभी विरोधों के बावजूद अक्सर ऐसे कठिन अन्तरविरोध नहीं पैदा होते हैं जिनका कोई समाधान संभव ही न हो । अन्यथा, तो इसके परिणाम किसी भी समाज को गृहयुद्ध के कगार तक ले जा सकते हैं । जिसे राजनीति का कुलीनतंत्र कहते हैं, यह उनके बीच एक प्रकार के सामंजस्य, रजामंदी की स्थिति भी बनाता है ।

 

जाहिर है कि राजनीति के कुलीनतंत्र की यही रजामंदी अक्सर अनेक हलकों से तीखी आलोचना और निंदा का विषय भी बनती है । अनेकों को वह फूटी आंखों नहीं सुहाती है । वामपंथी इसे न्याय और समानता का विरोधी कहते हैं, तो दक्षिणपंथी इसे पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान और धर्म का भी विरोधी बता कर इसकी निंदा करते हैं । इसी से हमेशा एक प्रकार के अतिवाम और अतिदक्षिण के उदय की संभावना भी बनी रहती है । वामपंथ साम्यवाद का नारा लेकर आता है तो दक्षिणपंथ नग्न फासीवाद का । इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी राजनीतिक घटनाचक्र के बीच से वामपंथ भी कई बार, गठबंधन के जरिए ही क्यों न हो, राजसत्ता तक पहुंचने का अवसर पाता रहा है और दक्षिणपंथ को भी ऐसे अवसर मिलते रहे हैं । भारत में इसके तमाम उदाहरण मौजूद है । पर इसी प्रक्रिया के बीच से नग्न फासीवाद की ओर बढ़ने वाले हिटलर का उदाहरण भी हमारे आधुनिक इतिहास में ही मौजूद है ।

  

इस प्रकार कुल मिला कर जाहिर है कि आज की दुनिया की राजनीतिक परिस्थिति विश्व स्तर पर शक्तियों के एक संतुलन को कायम रखने के लिए राजनीतिक तंत्र के समझौतों से पैदा होने वाले अन्तरविरोधों की एक उपज है, जो अकारण नहीं है । इसे हम अपनी मनमर्जी से यूं ही हवा में उड़ा सकते हैं । अगर कहीं भी दो पक्षों के बीच के तनाव को असंभव स्तर तक बढ़ने दिया जाता है तो पूरी व्यवस्था के ही बिखर जाने का खतरा बन सकता है । राजनीति की एक बड़ी भूमिका इस संतुलन को बनाए रखने की भी होती है । 


इसी संदर्भ में समझने की सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि मोदी हमारे देश के ऐसे ही अन्तरनिहित तनावों के काल में उन सारी बुराइयों के प्रतीक के रूप में सत्ता पर आए हैं, जिन्हें साफ तौर पर फासीवादी कहा जा सकता है । वे जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के विरुद्ध समाज में धार्मिक और जातिवादी ध्रुवीकरण को चरम पर ले जाने वाले बहुसंख्यकवाद के प्रतिनिधि हैं । मोदी ने समाज में परिवर्तन-विरोधी दक्षिणपंथ की सारी ताकतों को, इजारेदार पूंजीपतियों से लेकर वर्चस्ववादी सवर्णों तक को अपने साथ इकट्ठा कर लिया है । यही आज की राजनीति का सबसे प्रमुख संकट है, जो इसके संतुलन को बनाने के बजाय बिगाड़ने की भूमिका अदा कर रहा है । 


वामपंथ और किसान आंदोलन मूलतः मेहनतकश जनता के जिन हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं । मोदी-आरएसएस का मूल अन्तरविरोध उनसे हैं, न कि कांग्रेस से, जिसे मोदी ने अपने हमलों का मूल लक्ष्य बना रखा है । कांग्रेस की दशा तो यह है कि उसके पास अपना खुद का सामाजिक आधार बुरी तरह से सिकुड़ चुका है । यही वजह है कि आज कांग्रेस वास्तव में वामपंथी और मेहनतकशों की शक्ति और विचारधारा से ही बल पा कर जितना संभव है, मोदी की सत्ता को चुनौती दे पा रही है । क्या वामपंथ को कांग्रेस के साथ अपने संबंधों के इस सच को नए सिरे से गहराई से समझने की जरूरत नहीं है ?

   

आज यदि सत्ताधारी दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक कुलीनों के बीच कोई रजामंदी कायम नहीं होती है, और दक्षिणपंथी फासिस्ट वर्चस्व का दौर-दौरा इसी तरह ही आगे भी तेजी से जारी रहता है तो आगे का समय निश्चित तौर पर भारी सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता और संघर्षों का दौर साबित होगा । यह दौर भारत में पूंजीवादी बर्बरता का सबसे भयंकर दौर भी साबित होगा । क्या तमाम जन-आंदोलनों के नेतृत्व को भविष्य के इस राजनीतिक परिदृश्य के प्रति जागरूक नहीं रहना चाहिए ?

फासीवाद और साम्यवाद के बीच की लड़ाई में आज निश्चित रूप से फासीवाद का पलड़ा भारी है । इसी में जरूरी यह है कि साम्यवाद की ताकतों को एक नए और विस्तृत रूप में अपने को लामबंद करके सामने आए । किसान आंदोलन ने उसकी एक झलक भी दी थी । पर अफसोस कि उस आंदोलन के नेतृत्व की दृष्टिहीनता ने अंततः उसे वामपंथ की संकीर्णता की कमजोरी का सबब बना कर प्रकारांतर से दक्षिणपंथ की मदद की । इस नेतृत्व का अंध-कांग्रेस विरोध उसे सभी भाजपा-विरोधी ताकतों को एकजुट करने की धुरी बनाने में विफल रहा । 

  

आज यूपी सहित पांच राज्यों के चुनावों की समीक्षा करते हुए उपरोक्त सब प्रश्नों और बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है । 





रविवार, 6 मार्च 2022

अन्तर्विरोधों और द्वंद्वों की सही समझ के आधार पर इस पूरे दस्तावेज का पुनर्लेखन किया जाना चाहिए

 

(सीपीआई (एम) की 23वीं कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे पर एक दृष्टिपात)


—अरुण माहेश्वरी

 


सीपीआई(एम) की 23वीं कांग्रेस केरल के कन्नूर शहर में आगामी 6-10 अप्रैल 2022 को होने जा रही है । इस कांग्रेस में बहस के लिए पार्टी की केंद्रीय कमेटी ने राजनीतिक प्रस्ताव का एक मसौदा जारी किया है । आगे एक सांगठनिक रिपोर्ट, और यदि जरूरी लगा तो पार्टी के संविधान में कुछ संशोधनों का मसौदा भी जारी किये जाएँगे।

 

किसी भी विश्व-दृष्टिकोण पर टिकी हुई राजनीतिक पार्टी के लिए अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय राजनीति के आकलन के साथ ही संगठन संबंधी आकलन आपस में इस कदर एक बोरेमियन गांठ (Borromean knot) में बंधा होता है कि इनमें से किसी एक को भी बाकी दोनों से कभी अलग नहीं किया जा सकता है । अगर इन्हें जोर-जबर्दस्ती अलग किया जाता है, तो पार्टी के अंदर की पूरी संहति ही बिखर जाने के लिए बाध्य है; पूरी पार्टी ही अचल हो जाएगी ।

 

कहने की जरूरत नहीं है कि आज के जिस काल में सीपीआई(एम) की यह पार्टी कांग्रेस हो रही है, उसमें प्रकट रूप में ही भारत सहित सारी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन का गतिरोध दिन-प्रतिदिन और ज्यादा गहरा और कठिन होता हुआ ही दिखाई देता है । लगता है जैसे कहीं से भी इस गतिरोध की अंधेरी सुरंग से निकलने की कोई रोशनी, कोई रास्ता दिखाई नहीं देते हैं ।

 

यही कारण है कि सीपीआई(एम) ने अपनी कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रस्ताव का जो मसौदा जारी किया है, उसके बहाने ही सही, कहीं बहुत ही गहरे में जाकर इस गतिरोध के कुछ मूलभूत कारणों को टटोलने की जरूरत है ।

 

कहना न होगा, परिस्थिति इतनी गंभीर है कि यह काम कम्युनिस्ट आंदोलन के उसके सामान्य विवेक, विचार के उसके अब तक के प्रचलित मानदंडों की सीमा में रह कर संभव नहीं जान पड़ता है । बल्कि इसके लिए जरूरी लगता है कि इस पारंपरिक सोच के ढांचे के बुनियादी आधारों को ही चुनौती देते हुए किसी भी प्रकार से क्यों न हो, सोच के इस पूरे ढांचे का अतिक्रमण करते हुए पूरे विषय को समझा जाए ।

 

अन्तर्विरोधों के बारे में :

 

राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों का एक आख्यान पेश करते हुए बिल्कुल सही वर्तमान काल के मुख्य अन्तर्विरोध के तौर पर साम्राज्यवाद और समाजवाद के बीच के अन्तर्विरोध का जिक्र करते हुए कहा गया है कि “चीन-अमरीका टकराव, क्यूबा तथा डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कोरिया के प्रति अमरीकी साम्राज्यवाद का लगातार बना हुआ आक्रामक रुख, साम्राज्यवाद और समाजवाद के बीच के केन्द्रीय अंतर्विरोध को तीव्र करने वाला है ।” (पृष्ठ – 14)

 

यहीं पर हमारा यह मूलभूत प्रश्न है कि किसी भी काल के ‘मुख्य, प्रमुख या केन्द्रीय अन्तर्विरोध’ से हमारा तात्पर्य क्या होता है ? ‘काल का मुख्य अन्तर्विरोध’ सिर्फ राष्ट्रों के बीच का अन्तर्विरोध नहीं हो सकता है । यह एक प्रकार से हमारे काल की सभ्यता का मुख्य अन्तर्विरोध है जो दुनिया के हर कोने में, प्रत्येक राष्ट्र में, और राष्ट्रों के बीच संबंधों में भी किसी न किसी रूप में अवश्य प्रकट होता है । इससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता है । दुनिया के पटल पर एक बार समाजवाद के उदय के साथ ही पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के अन्तर्विरोध ने मानव सभ्यता के एक ध्रुवसत्य का रूप ले लिया है । हम किसी भी देश को किसी भी विशेषण, साम्राज्यवादी या समाजवादी, के साथ क्यों न पुकारें, इस युग के अन्तर्विरोध के प्रभाव से इनमें से कोई भी मुक्त नहीं रह सकता है ।

 

इसीलिए, यह बुनियादी सवाल उठ जाता है कि क्या अमेरिका को साम्राज्यवादी कह कर वहां के समाज में समाजवाद और जनतंत्र की ताकतों की उपस्थिति से पूरी तरह से इंकार किया जा सकता है ? अथवा चीन को समाजवादी कह कर क्या वहां के समाज में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी और जनतंत्र-विरोधी ताकतों की मौजूदगी से इंकार किया जा सकता है ?

 

अगर ऐसा संभव होता तो अमरीका के राजनीतिक घटनाचक्रों का दुनिया के समाजवादी-जनतांत्रिक आंदोलन के लिए कोई अर्थ ही नहीं हो सकता था ? तब ट्रंप के उदय के खतरे और ट्रंप के पतन से पैदा होने वाली वैश्विक संभावनाओं पर चर्चा पूरी तरह से बेमानी, और एक सिरे से खारिज कर देने लायक हो जाती है ।

 

ऐसी स्थिति में जब लेनिन ने नवंबर क्रांति के बाद सोवियत संघ के निर्माण के वक्त अमेरिका में उत्पादन-पद्धति तथा वहां के विकसित जनतंत्र के बारे में जो सकारात्मक बातें की थी, अथवा उसी तर्ज पर अंतोनियो ग्राम्शी ने फोर्डवाद और अमेरिका की पायनियरिंग सोसाइटी की जो विस्तृत और सकारात्मक चर्चा की थी, उन सबका कोई मायने ही नहीं रह जाता है ! तब कला, विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में भी तब अमेरिकी समाज से किसी प्रकार की उपयोगी अन्तरक्रिया बेमानी हो जाती है ।

 

बल्कि सच यही है कि आज भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते अमेरिका में जनता के पक्ष या विपक्ष में सरकार के हर मामूली कदम का सारी दुनिया के देशों की राजनीति पर तीव्र असर पड़ता है ।

 

इतिहास को टटोले तो यह समझने में कोई कष्ट नहीं होगा कि अमेरिका या किसी भी देश को साम्राज्यवाद अथवा सोवियत संघ या किसी भी देश को समाजवाद का पर्याय मान लेना कम्युनिस्ट आंदोलन की उस समझ का अभिन्न अंग है जो उसे शीत युद्ध के काल में सोवियत संघ से विरासत में मिली हुई है, और जिसे उस काल में सोवियत संघ के विदेश नीति के हितों को साधने के लिए विकसित किया गया था ।

 

यही वह समझ है जिसकी वजह से हमारा कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी राष्ट्रीय राजनीति के मामले में भी अक्सर गंभीर चूक करता रहा है । इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण मनमोहन सिंह के वक्त न्यूक्लियर ट्रीटी के वक्त सीपीआई(एम) की उस बचकानी समझ को भी कहा जा सकता है जब वह अमेरिका-केंद्रित एकध्रुवीय विश्व की परिस्थिति में भारत सरकार से यह उम्मीद करती हुई जान पड़ती थी कि वह सरकार अमेरिका से अपना कोई सरोकार ही नहीं रखे !

 

इस मूलभूत समझ के कारण ही सीपीआई(एम) यह व्याख्यायित करने में हमेशा विफल रहती है कि कैसे चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश आज की दुनिया में जनतांत्रिक और समाजवादी ताकतों को बल पहुंचाने के बजाय तानाशाही और साम्राज्यवादी-विस्तारवादी ताकतों को बल पहुंचाने के कारकों की भूमिका भी अदा करते हुए जान पड़ते हैं ।

 

इस समझ के कारण ही सीपीआई(एम) यूक्रेन में रूस के खिलाफ नैटो की साजिशों को तो देख पाती है, पर रूस के द्वारा युक्रेन की राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बर्बर अतिक्रमण की तीव्र निंदा से परहेज करती दिखाई देती है । इसके कारण ही हम भारत की सीमाओं पर चीन की गतिविधियों के सम्यक आकलन में भी चूक कर सकते हैं । ताइवान को अपने में मिलाने को लेकर चीन के अतिरिक्त आग्रह के पीछे के उग्र राष्ट्रवाद से आँखें मूँद सकते हैं ।

 

चीन में पनप रही इजारेदारियों, उनके बहु-राष्ट्रीय निगमों की गतिविधियां भी इन्हीं कारणों से हमारी नजर के बाहर रह सकती है, जबकि खुद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में भी उनके प्रति चिंता जाहिर करने वालों की कमी नहीं है । चीन की सरकार को भी समय-समय पर वहां के विशालकाय कॉरपोरेट्स के खिलाफ कार्रवाई की बात करते हुए देखा जाता है ।

 

कहने का तात्पर्य यही है कि अन्तर्विरोधों के बारे में बुनियादी तौर पर यह भूल समझ कि उन्हें एक समग्र काल के अन्तर्विरोध के रूप में देखने के बजाय चंद राष्ट्रों के बीच स्वार्थों की टकराहट के रूप में देखना अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के आकलन को पूरी तरह से पटरी से उतार देने का कारक बन जाता है ।

 

इसीलिए जरूरी है कि हमें बुनियादी रूप में दुनिया के प्रत्येक समाज की संरचना और उसकी गति को सिर्फ दो वर्गों के बीच के अंतिम द्वंद्व के रूप में देखने के बजाय अनेक प्रकार के द्वंद्वों के समूह की सामूहिक गति के रूप में देखने का अभ्यास करना चाहिए । तभी हम दुनिया के तमाम देशों में समय-समय पर सामने आने वाले परस्पर-विरोधी रुझानों को व्याख्यायित करने की एक समझ हासिल कर पायेंगे ।

 

चीन का ही आर्थिक विकास वहां के राजनीतिक ढांचे को तमाम कमजोरियों से मुक्त किसी आदर्श व्यवस्था का प्रमाणपत्र नहीं बन सकता है । उत्तर कोरिया के घोषित लक्ष्य ही वहां की राजनीतिक व्यवस्था की गुह्यता से जुड़ें सवालों का कोई सही उत्तर नहीं हो सकता है ।

 

हम फिर से दोहरायेंगे कि वैश्विक प्रमुख अथवा गौण अन्तर्विरोध कभी भी राष्ट्रों की परिधि तक सीमित नहीं रह सकते हैं । ये अन्तर्विरोध दुनिया के हर देश में किसी न किसी रूप में अनिवार्य तौर पर प्रकट होंगे ।

 

अन्तरविरोधों के बारे में इस मूलभूत समझ के अभाव में विश्व परिस्थिति का हर आख्यान निरर्थक हो जाता है । यदि समाजवाद और साम्राज्यवाद के बीच का अन्तर्विरोध दुनिया का केंद्रीय अन्तर्विरोध है तो इसे दुनिया के सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र में भी प्रकट होना होगा, जितना यह सबसे कमजोर राष्ट्रों में होगा और सभी राष्ट्रों के बीच संबंधों में भी दिखाई देगा ।

 

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में उसका अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिप्रेक्ष्य, राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिप्रेक्ष्य और उसका सांगठनिक ढांचा, ये सब आपस में इस प्रकार गुंथे होते हैं कि इनमें से किसी को भी अन्य से अलग नहीं किया जा सकता है । इनमें से किसी एक को भी अलग कर देने पर बाकी दोनों भी अपने मूल अर्थ को गंवा देने के लिए अभिशप्त हैं ।

 

यह बात जितनी भारत के कम्युनिस्ट पार्टियों पर लागू होती है, उतनी ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, वियतनाम और दुनिया की किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी पर लागू होती है । पार्टियों का सांगठनिक ढांचा भी उनकी सभी नीतियों को अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है ।

 

सीपीआई(एम) की 23वीं कांग्रेस के लिए जारी किए गए राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में अन्तर्विरोधों के बारे में पुरानी, दोषपूर्ण बुनियादी समझ के कारण ही यह दस्तावेज भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उसके गतिरोध से निकालने में सहयोगी नहीं बन सकता है । इसीलिए हमारी दृष्टि से, जरूरी यह है कि इस पूरे दस्तावेज को एकमुश्त खारिज करते हुए, इसे वैश्विक अन्तर्विरोधों और समाज की गति में द्वंद्वों की सामूहिकता की नई समझ के आधार पर पुनर्रचित किया जाए ।

 

जैसे राजनीति का अर्थ सिर्फ़ राज्य की नीतियाँ नहीं,  इसके दायरे में एक नागरिक के रूप में व्यक्ति मात्र की नैतिकता और आचरण के प्रश्न आ जाते हैं । वह कला, विज्ञान और प्रेम की तरह ही समग्र रूप से पूरी मानव संस्कृति के एक प्रमुख उपादान की भूमिका अदा करती है । ठीक उसी प्रकार, युग के प्रमुख और गौण अन्तर्विरोध सभी राष्ट्रों में राजनीति और जीवन की सभी समस्याओं में प्रतिबिंबित होते हैं । उनसे कोई भी अप्रभावित नहीं रह सकता है । उनकी कोई एक सीमित राष्ट्रीय पहचान नहीं हो सकती है ।   

    

 

 

गुरुवार, 3 मार्च 2022

पुतिन के रुख़ को देखते हुए यूक्रेन पर उसके हमले के मामले में ‘तटस्थता’ कीकोई भूमिका अब नहीं बची है

 

-अरुण माहेश्वरी 



फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों से लंबी बातचीत में पुतिन यह साफ़ संकेत  दे दिया है किवह यूक्रेन पर अपने हमले को जल्द ख़त्म करने वाला नहीं है  

मैक्रों के शब्दों में - “अभी और भी भारी तबाही अपेक्षित है  

ज़ाहिर है कि यूक्रेन की जनता ने रूस के हमले का जिस बहादुरी के साथ मुक़ाबला किया हैरूस अब भी उससे कोई सबक़ लेने के लिएतैयार नहीं है  


यूक्रेन के लोग अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने के लिए तैयार है  उनका यह प्रतिरोध दुनिया के किसी भीस्वतंत्रता-प्रेमी व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत हैपर यही बात शायद पुतिन जैसे तानाशाह की समझ के परे है !


उल्टेपुतिन दुनिया को नाभिकीय हमले की चेतावनी दे रहा है  दुनिया के तमाम देशों को यूक्रेन से दूर रहने की धमकी दे रहा है ताकिवह बेख़ौफ़ होकर यूक्रेन का वध कर सके  


यह सीधे तौर पर इस धरती पर पुतिन के रूप में हिटलर के पुनर्जन्म का संकेत है  यह इस बात की साफ़ चेतावनी है कि यदि पुतिन इसकाम में सफल होता है तो उसके निशाने पर पुराने सोवियत संघ से अलग हुए बाक़ी सभी राष्ट्रों को आने में जरा सी देरी भी नहीं लगेगी 

 

पुतिन ने यूक्रेन को एक अलग देश मानने से ही इंकार करना शुरू कर दिया है  इसी तर्क पर वह आराम से कभी भी सोवियत संघ सेनिकल गये बाक़ी देशों के अस्तित्व से भी इंकार कर सकता है  


अपनी सीमाओं की सुरक्षा की चिंता के नाम पर पुतिन इन सब देशों को बाक़ी यूरोप और एशिया के बीच के बफ़र क्षेत्र से ज़्यादाहैसियत देने के लिए तैयार नहीं है  


पुतिन का तर्क है कि उसने यूक्रेन को नाज़ीवाद से बचाने के लिए यह अभियान शुरू किया है  पर यूक्रेन के लोग उसके तर्क को मान करराष्ट्रपति वोल्दिमीर जेलिंस्की के खिलाफ विद्रोह के लिए तैयार नहीं हैं   वहाँ किसी प्रकार के गृहयुद्ध के कोई लक्षण दिखाई देते हैं  


उल्टेसभी यूक्रेनवासियों ने अपने राष्ट्र को रूस से बचाने के लिए देशभक्तिपूर्ण प्रतिरोध का रास्ता अपनाया हैं  

इसी से साफ़ है कि यह युद्ध दिन प्रतिदिन और ज़्यादा बढ़ता चला जाएगा  


सारी दुनिया में पुतिन के इस हमले की कार्रवाई का तीव्र प्रतिवाद शुरू हो चुका है  अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने रूस के खिलाफसख़्त आर्थिक नाकेबंदी शुरू कर दी है  संयुक्त राष्ट्र संघ में एक भी देश रूस के समर्थन में सामने नहीं आया है  चीनभारत की तरहके थोड़े से देशनितांत निजी रणनीतिक कारणों सेरूस की खुली निंदा करने से परहेज़ कर रहे हैं  यूरोप के कुछ देशों ने तो यूक्रेन कोसामरिक मदद की पेशकश भी की है  


यूक्रेन के प्रतिरोध युद्ध और उसे मिल रहे अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन से पुतिन घायल शेर की तरह और भी ख़ूँख़ार होता जा रहा है  उसके युद्धअपराध बढ़ते चले जा रहे हैं  उसने यूक्रेन के एक के बाद एक शहर पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया है  


रूस की आर्थिक नाकेबंदी का असर अभी तो उतना दिखाई नहीं दे रहा हैपर अभी से रूबल तेज़ी से टूटने लगा है  यदि अन्तर्राष्ट्रीयसमुदाय क्रमशः इन प्रतिबंधों को और सख़्त करेगातो तानाशाह पुतिन की सत्ता को रूस में ही हिलने में देर नहीं लगेगी  पुतिन इसख़तरे को भाँपते हुए ही यूक्रेन को क़ब्ज़े में लेने के अपने अभियान को जल्द से जल्द पूरा करना चाहता है  पर युद्ध के अपने तर्क भी होतेहैं जिसमें किसी के वश में सब कुछ नहीं होता है  इसीलिए ख़तरा इस बात का है कि जल्द ही दुनिया को तबाही के अकल्पनीयख़ौफ़नाक मंजर देखने को मिलें  पुतिन ने आज वास्तव में सारी दुनिया को जैसे बंदूक़ की नोक पर खड़ा कर दिया है  यह एक बेहदख़तरनाक परिस्थिति है  


पुतिन का रूस अल-क़ायदा नहीं हैजिसकी शक्ति की अपनी एक सीमा थी  लेकिन रूस के ख़तरे को देखते हुए अभी तक अमेरिकाऔर यूरोप के देशों ने जिस प्रकार यूक्रेन को अकेला छोड़ रखा हैवह भी कम चिंताजनक नहीं है  इससे भविष्य के अन्तर्राष्ट्रीय संतुलनपर जो घातक असर होंगेउसके अंजाम भी कम विध्वंसक नहीं होंगे  


पुतिन के तर्क को मान लिया जाए तो चीन को ही हमारे लद्दाख और अरुणाचल तक आने से कौन रोक सकेगा  दुनिया में ऐसे असंख्ययुद्ध क्षेत्र तैयार हो जाएँगे  


पुतिन तत्काल युद्ध बंद करके अपनी सेना को वापस बुलाने के लिए मजबूर होइसे सुनिश्चित करना सारी दुनिया की ज़िम्मेदारी है इसमें ‘तटस्थता’ की कोई भूमिका संभव नहीं है