शनिवार, 30 मार्च 2019

फासीवाद नजरों के सामने हैं, विपक्ष अपनी भूमिका अदा करे !


—अरुण माहेश्वरी


हर बीतते दिन के साथ नरेन्द्र मोदी अपने हिटलरी रूप पर से एक-एक कर सारे आवरण उतारते चले जा रहे हैं ।

अब वे खुले आम विपक्ष के सभी दलों और मतभेद के सभी स्वरों को गालियां देने और धमकियां देने पर उतर पड़े हैं । रुपयों की ताकत और दमन के डर के बल पर उन्होंने सारे मीडिया को अपने कब्जे में कर लिया है । कॉरपोरेट का मीडिया पर कब्जा है और कॉरपोरेट पूरी तरह मोदी के साथ मिल चुका है । मोदी के पक्ष में हवा बनाने के लिये पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है । वेतनभोगी भक्तों की एक बड़ी फौज तैयार कर ली गई है जो सड़कों से लेकर मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार के दूसरे साधनों तक अपना वर्चस्व बनाये रखते है । ये किसी को भी पीट-पीट कर मार सकते हैं, किसी के भी खिलाफ गंदे से गंदा धुंआधार प्रचार कर सकते हैं । और मीडिया में इनकी भूमिका का तो आलम यह है कि ये ही भीड़ बन कर मीडिया के हर उस कार्यक्रम में उपस्थित रहते हैं जिसे मीडिया सरे-जमीन रिपोर्टिंग के नाम पर प्रसारित किया करता है ।

मोदी ने अंध और आक्रामक राष्ट्रवाद का बाकायदा एक उन्माद पैदा कर दिया है और आंतरिक शत्रु के रूप में अल्प-संख्यकों, दलितों और तमाम कमजोर तबकों की सिनाख्त करके उन्हें हमलों को शिकार बनाया जा रहा है । बुद्धिजीवियों के दमन में तो ये बेशर्मी की सारी सीमाएं लांघ चुके हैं । जिस किसी को किसी भी काल्पनिक अभियोग में पकड़ कर जेलों में ठूस दिया जा रहा है । 'अर्बन नक्सल' के नाम पर पकड़े गये देश के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों की जेल से रिहाई में सुप्रीम कोर्ट ही बाधा बना हुआ है ।

पूरी की पूरी न्याय प्रणाली आज मोदी-शाह की मुट्ठी में दिखाई देती है । हाल में एनआईए का वह जज ने भाजपा में शामिल हो गया जिसने मालेगांव विस्फोट कांड के अपराधी आरएसएस के असीमानंद को सबूत के अभाव के नाम पर बेकसूर घोषित कर दिया था । जज लोया की हत्या के मामले में मुंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से लेकर अन्य जजों और सुप्रीम कोर्ट तक की जघन्य भूमिका सब देख चुके हैं । सर्वोपरि, राफेल और सीबीआई के निदेशक के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने जो निंदनीय भूमिका अदी की वह भी किसी से छिपी नहीं है ।

राफेल मामले में सरकार की ओर से बंद लिफाफे में झूठी सूचना से सुप्रीम कोर्ट को जान-बूझ कर बहकाया गया, इसे जान कर भी सुप्रीम कोर्ट के जैसे कान में जूं तक नहीं रेंगी है । यही हाल हमने रफाल मामले में सीएजी की रिपोर्ट में देखा । मोदी को बचाने के लिये सीएजी ने रफाल के दाम को अपनी रिपोर्ट में उजागर करने के बजाय और उस पर और ज्यादा पर्दा डालने का काम किया ।

चुनाव आयोग भी, पूरी तरह से संदेह के घेरे में है । वह चुनाव की शुद्धता के बजाय वोटों की गिनती में होने वाली देरी को ज्यादा महत्ता दे रहा है और सुप्रीम कोर्ट से कह रहा है कि इसी वजह से पचास फीसदी वीवीपैट की गिनती अनुचित जान पड़ती है ।

वित्तीय मामलों में मोदी सरकारी खजाने को निजी खजाना माने हुए हैं । कोई उनसे पूछने वाला नहीं है कि उन्होंने सिर्फ अपने प्रचार के लिये चार हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिये ! मोदी ने अपने चंद मित्र पूंजीपतियों को लाखों करोड़ रुपये सरकारी बैंकों से इस प्रकार बंटवा दिये जैसे वह उनकी निजी संपत्ति हो !

मोदी के लिये कूटनीति पूरी तरह से एक निर्रथक विषय है । वे अन्य देशों के राजनेताओं से उसी प्रकार गले मिलते हैं, जैसे आरएसएस अपने संगठनों के रहस्य पर पर्दा डालने के लिये समाज के प्रतिष्ठित जनों को अपने कार्यक्रमों में ला कर अपने गलत कामों के लिये उनकी सम्मतियां बंटोरता रहा है । इन मुलाकातों को नीतिगत मामलों से कोई संबंध नहीं होता है । उनका पूरा आचरण यह है कि वे पड़ौसियों से हर मामले को सैनिक ताकत के बल पर सुलझाने पर विश्वास करते हैं ।

और जहां तक देश की गरीब जनता, किसानों, मजदूरों का सवाल है — मोदी के पास उनके लिये सिवाय दमन की भाषा के कोई दूसरी भाषा नहीं है । वे भूल से भी पहले से सांसत में फंसे लोगों को राहत देने के किसी भी कदम की बात नहीं करते है । राहत की बात को वे 'भीख' कहते हैं । वे मूलतः उन्हें अपना गुलाम मानते हैं और गुलाम के लिये कोई अधिकार नहीं हुआ करते, इस बात पर उनका गहरा यकीन है ।

और, हम एक बार फिर दोहरायेंगे कि मोदी ने अपनी सारी मनमानियों के लिये हिंदुत्व के नाम पर जघन्य अंध भक्तों की ऐसी फौज तैयार कर ली है जो पूरी तरह से हिटलर के 'तूफानी दस्तों' और मुसोलिनी के फासिस्टों की 'आर्दिती' नामक लाखों लोगों की हमलावर सेना से पूरी तरह से मिलती-जुलती है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि मोदी के नाम से जिस प्रकार की एक समग्र राजनीतिक ताकत का उदय हुआ है, वह शुद्ध रूप से फासीवाद है । कल तक जिन चंद वामपंथियों में इस बात का वहम था कि यह फासीवाद नहीं है, या तो वे अब अपनी भूल को पूरी तरह मान चुके हैं, या फासिस्टों के हाथों मरने के पहले ही खुद किसी कब्र में अपने को दफना चुके हैं !

इसीलिये हमारे सामने दूसरा सवाल है, कि इस दानवी शक्ति का मुकाबला करने के लिये विपक्ष के दल क्या कर रहे है ?

शुरू में चुनाव-पूर्व महागठबंधन का ही एक नारा उठा था । उस पर विपक्ष के दलों की आपस में बैठकें भी हुईं । लेकिन अंत में कुल मिला कर पाया गया कि संसदीय राजनीति में दलों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता के सच को स्वीकार कर भले ही चुनाव-पूर्व जैसा कोई पूर्ण गठबंधन न बन पाए, लेकिन इसके बावजूद मोदी को पराजित किया जा सकता है और चुनावोत्तर गठबंधन के जरिये भी इस राक्षसी शक्ति का मुकाबला किया जा सकता है । विपक्ष की इस समझ का एक व्यवहारिक, स्थानिक राजनीति के चरित्र का पहलू मोटे तौर पर सबकों समझ में भी आ रहा था ।

लेकिन इस समझ में जिस एक बात को नजरंदाज किया जा रहा है, वह यह कि चुनाव के पूरे काल में भी राज सत्ता का मोदी के पूरी तरह से कब्जे में रहेगी । सेना और न्यायपालिका के सारे अंगों को मोदी ने अपने कब्जे में लेकर यह सुनिश्चित कर लिया है कि इस दौरान भी उनकी निरंकुशता पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं रहेगा । पुलवामा प्रकरण में सेना की भूमिका से लेकर हाल में अंतरीक्ष में किये गये प्रयोग पर राष्ट्र के नाम संबोधन के मामले में चुनाव आयोग की भूमिका इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । गुजरात में हार्दिक पटेल को वहां के हाई कोर्ट ने चुनाव लड़ने से रोक दिया है । दरअसल, मोदी चुनाव के दौरान और उसके परिणामों की घोषणा के वक्त तक भी और क्या-क्या कर सकता है, इसे वही समझ सकता है जो हिटलर और मुसोलिनी के इतिहास से परिचित है । अर्थात मोदी की गति-प्रकृति हिटलर-मुसोलिनी के पथ से ही पूरी तरह से परिचालित हो रही है ।

ऐसे में, चुनावोत्तर परिस्थिति हमें अभी काफी दूर की बात लगने लगी है । विपक्ष के सभी दलों के बीच चुनावों के पहले ही एक प्रकार का निरंतर संवाद और सबकी संयुक्त रणनीति का बनना बहुत जरूरी जान पड़ता है । अगर आपको इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आपका मुकाबला हिटलर से है तो उससे संघर्ष की आपकी सारी रणनीति भी उसी के अनुसार तय होनी चाहिए !

किसी भी राजनीतिक दल की अपनी निजी वासना कुछ भी क्यों न हो, वह है अंततः  उसकी निजी वासना ही । जब भी आप अन्य दलों से किसी प्रकार की अन्तरक्रिया करते है, आप अपने तक केंद्रित नहीं रह सकते हैं । प्रेम का कोई भी रूप अपने में सिमट कर मुमकिन नहीं होता है । आपकी तरह ही आपसे मिलने वाला हर दल ऐसे संबंध में एक आत्मकेंद्रित दल के बजाय एक खुला हुआ दल हो जाता है । अपनी सीमाओं से उसे निकलना होता है । इस प्रकार के मेल में किसकी क्या सीमा है, वह तब मायने नहीं रखती है । ऐसे मेल में सभी दल एक दूसरे के खुले हुए स्थान को भरने का काम करते हैं । तभी उस मिलन को एक निश्चित स्वरूप मिलता है ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें किस दल की क्या हैसियत है, उसकी कोई भूमिका नहीं होती है । लेकिन उसे भी सही रूप में सामने लाने के लिये इस मिलन को संभव बनाना जरूरी है । अगर आप एक जीवंत दल है तो उसमें इस प्रकार का खुलापन नितांत जरूरी है । हम जब कांग्रेस के नेतृत्वकारी स्थान पर बल देते हैं तो इसीलिये क्योंकि विपक्ष के अन्य सब बंद दलों में भी यह सबसे विस्तृत और साथ ही सबसे अधिक खुला हुआ दल भी है जो अन्य को अपने अंदर जगह दे सकता है और अन्य के खुले स्थान को ढक भी सकता है । इस बात को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है कि फासीवाद विरोधी मोर्चा ही उसमें शामिल सभी दलों को अपना वास्तविक और विकासमान स्वरूप प्रदान कर सकता है । अन्यथा विपक्ष के दल भी आत्म-सीमित संभावना-विहीन कमजोर संगठन बन कर रह जाने के लिये अभिशप्त होंगे । संभावनाएं हमेशा सार्थक मिलन में ही होती है ।

विचाराच्छादित कोई भी खुद में पूरा नहीं होता । वह तो एक समय का तकाजा है । उसका तर्क, उसकी संगति उसके बाहर का सच है, जो उसे चालित करता है और वह एक विचार के प्रभाव में आता है । उसका यह पूरा सौन्दर्य अन्य से आता है । पुनः, जीवंतता के लिये खुलापन जरूरी है ।

राहुल गांधी को न जाने कितने प्रकार से मजाक का विषय बनाया जाता रहा है । लेकिन बंद स्थानों पर खुले स्थान के आच्छादन से बनने वाले समुच्चय के आकार की प्रक्रिया में उन्हें रख कर देखियें । राहुल जहां अपने में सिमटते हैं, वे अपना सौन्दर्य खोते हैं । लेकिन जहां वे लचीले दिखाई देते हैं, महत्वपूर्ण हो जाते हैं । जब चुनौतियां असंख्य हो तो उन्हें एक एक करके ही लिया जा सकता है, एक साथ सबको नहीं लिया जा सकता है । यह किसी भी एक सर्व-समग्र स्वरूप से पूरी तरह से अलग चीज है । इस आधे-अधूरेपन में ही सच्चाई है ।

इसीलिये, हमारी दृष्टि में, अभी तक के सारे घटनाक्रम को समझते हुए ही मोदी के फासीवाद के खिलाफ फासीवाद-विरोधी व्यापकतम संयुक्त मोर्चा के गठन के काम और उसके लिये जरूरी लचीलेपन की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए ।     

बुधवार, 27 मार्च 2019

रमणिका गुप्ता : एक स्वयं-संपूर्ण सांस्थानिक व्यक्तित्व का न रहना


-अरुण माहेश्वरी

रमणिका गुप्ता नहीं रही हिंदी साहित्य जगत में अपना ही एक ख़ास संसार लेकर चलने वाली लेखिका, संपादक, स्त्रीवादी, सामाजिक-न्यायवादी सामाजिक-राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता नहीं रही कहा जा सकता है, साहित्य-संस्कृति के जगत के अनेक छोटे-बड़े भुवनों में से एक भुवन का प्रदीप बुझ गया एक क्षति, जिसे औपचारिक-अनौपचारिक किसी भी भाषा में क्यों कहें, बिल्कुल सही अपूरणीय क्षति कही जा सकती है यह महज किसी रचनाकार के रहने से पैदा हुए शून्य का विषय नहीं है, एक बहुआयामी साहित्यिक-सामाजिक स्वयं-संपूर्ण व्यक्तित्व के रहने से पैदा हुई स्थिति है  

रमणिका जी से जाने कितने सालों से हम परिचित रहे हैं जनवादी लेखक संघ के निर्माण की जब प्रक्रिया शुरू हुई थी, तभी हज़ारीबाग़ में उनके मूल कार्य-स्थल पर हम उनसे मिले थे उनकेयुद्धरत आम आदमीसे  लेकर ढेर सारे प्रकाशनों, और अनुसूचित जनजाति के बौद्धिकों कीमाईतक बनने के उपक्रमों से हम वाक़िफ़ रहे है खुद उन्होंने आत्म-जीवनीमूलक जो लिखा, उसे भी हमने देखा है दिल्ली जैसे महानगर में भी अपने सांस्थानिक व्यक्तित्व को बरक़रार रखने की उनमें ग़ज़ब की सामर्थ्य थी और हमें उनकी क्रियाशीलता की सूचनाएँ मिलती रहती थी साल-दो साल पर उनसे फ़ोन पर बात भी हो जाती थी  

लेकिन सचमुच, आज जब उनके बारे में सोचता हूँ तो लगता है, इस इतने परिचित व्यक्ति को और अधिक जानने, जानते चले जाने की तरह की हममें कभी विशेष इच्छा नहीं रही जैसे इर्द-गिर्द के कई शक्तिशाली लोगों को जानते हुए भी हम उन्हें और ज़्यादा जानने की इच्छा नहीं रखते, उनके प्रभामंडल से आकर्षित नहीं हो पाते आख़िर किसी को जानने की इच्छा की लगातार पुनरावृत्तियां ही तो उसके प्रति आपकी जिज्ञासा और आकर्षण का स्रोत होती हैं। इस इच्छा के अभाव से आप उसे जानते हुए भी लगभग नहीं जानते होते है कहना होगा, व्यक्ति की यह स्वयं-संपूर्ण अखंडता ही उसकी शक्ति और उसकी सीमा, दोनों का कारण बनती है  

जब रमणिका जी के रहने का समाचार मिला, तभी हमने उनसे लंबे परिचय के नाते ही उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन पर अलग से कुछ लिखने का मन बनाया था उनके लेखन और गतिविधियों का तथ्यमूलक लेखा-जोखा तो अन्य कई लोगों ने दिया है उन्हें ही दोहरा देना लिखना नहीं कहला सकता है लेकिन अलग से लिखने की इच्छा के कारण कुछ लिख ही नहीं पाया अन्य मित्रों के श्रद्धांजलि के स्वरों के साथ अपने स्वर मिलाता रहा लेकिन क्यों नहीं लिख पाया, खुद से यही सवाल पूछ कर रमणिका जी के व्यक्तित्व पर यही चंद बातें कह पा रहा हूँ  


सचमुच, उनका रहना हिंदी जगत की एक ऐसी अपूरणीय क्षति है जिसे अन्य कोई शायद ही कभी पूरा कर पायेगा हम उन्हें दिल की गहराइयों से स्मरण करते हुए आंतरिक श्रद्धांजलि देते हैं  

शनिवार, 23 मार्च 2019

पुण्य प्रसून प्रकरण और प्रतिष्ठित पत्रकारिता के संकट पर एक सोच


-अरुण माहेश्वरी

पुण्य प्रसून वाजपेयी ने जबसे मोदी सरकार की कमियों और घोटालों पर खुल कर बोलना शुरू किया है, तभी से एक पेशेवर पत्रकार के रूप में उनका जीवन अस्थिर बना हुआ है पुण्य प्रसून की प्रतिष्ठा के कारण उन्हें नई-नई जगह पर नियुक्तियाँ मिलती गई, लेकिन वे कहीं भी स्थिर नहीं रह पा रहे हैं  

यही स्थिति एबीपी चैनल के एक और लोकप्रिय ऐंकर अभिसार शर्मा की भी है उन्होंने तो फ़िलहाल फ्रीलांसिंग की कठिन डगर पकड़ ली है  

इस मामले में अब तक अकेले रवीश कुमार की स्थिति अलग नज़र आती है लेकिन इसलिये नहीं कि वे रवीश कुमार है, बल्कि सिर्फ इसलिये कि अब तक एनडीटीवी ने सरकार के दबावों का मुक़ाबला करते हुए उन्हें सुरक्षा दे रखी है  

पत्रकारिता जगत के इस सच से हमारे सामने पत्रकार और उसकी प्रतिष्ठा के स्रोत का एक और ही पहलू खुलने लगता है प्रतिष्ठित पत्रकार प्रतिष्ठित समाचार प्रतिष्ठानों से पैदा होते हैं और प्रतिष्ठित समाचार प्रतिष्ठान तैयार होते हैं व्यवस्था की कृपा से इसीलिये सामान्य तौर पर सभी प्रतिष्ठित पत्रकार यथास्थितिवादी हुआ करते हैं वे सत्ताधारी में सत्ता पर बने रहने का ईश्वर प्रदत्त अधिकार देखते हैं और विपक्ष में पराजित होते रहने का स्थायी अभिशाप प्रतिष्ठित पत्रकार पत्रकारिता की निरपेक्ष भूमिका की ओट में कभी किसी विपक्षी राजनीतिक मुहिम का हिस्सा नहीं बनते ख़ास तौर पर तब तो बिल्कुल नहीं जब सत्ता इस बात की अनुमति देने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं होती है  

स्थापित प्रतिष्ठानों की सत्ता-विरोधी भूमिका कोई सामान्य नियम नहीं, बल्कि पूरी तरह से अपवाद हुआ करती है सामान्य नियम को प्रमाणित करने वाला अपवाद इसके साथ जब भी किसी ख़ास ऐतिहासिक क्षण का संयोग होता है, जब जनता में सत्ता के प्रति भारी बेचैनी होती है, तब इन विपक्षी समाचार प्रतिष्ठानों और उनके विशेष पत्रकारों की एक जीवन से बड़ी छवि सामने आने लगती है वे प्रतिष्ठितों में भी और प्रतिष्ठित हो जाते हैं  

आज एनडीटीवी के रवीश कुमार की हैसियत कुछ वैसी ही बन गई है शेखर गुप्ता आदि-आदि स्तर के अधकचरे पत्रकार और टीवी चैनलों पर विचरण करने वाले कई विश्लेषक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सत्ता के कृपाकांक्षी होने के नाते यथास्थितिवाद की साधना में लगे हुए हैं, चिर अधकचरे लेकिन प्रतिष्ठित बने रहने की साधना में लेकिन रवीश कुमार एनडीटीवी के सहयोग से एक भिन्न स्तर पर चले गये हैं  

पुण्य प्रसून और अभिसार शर्मा के पास एनडीटीवी की तरह का कोई मज़बूत सहारा होने से, वे सचमुच अपनी प्रतिष्ठा के लिये फ़िलहाल जूझ रहे हैं। इस पूरे संदर्भ में हमें हिंदी के प्रतिष्ठानवादी साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र की एक बात याद आती है उन्होंने लिखा है कि हमारे जीवन में भले कोई चीज़ सधे, सिर्फ एकछितवनसध जाए तो उससे अधिक मुझे कुछ नहीं चाहिए छितवनअर्थात शक्तिशाली की छाया विद्यानिवास जी भी एक वैसे ही सम्मानित और स्थापित साहित्यकार थे, जैसे उपरोक्त तमाम पत्रकार हैं  

सरकार से बड़ी छितवन तो कोई दूसरी नहीं हो सकती है इसीलिये स्थापित पत्रकार आम तौर पर सरकार-समर्थक ही होते हैं इसके बाद कुछ अन्य संस्थानों की छितवन तभी किसी को बड़ा बनाती है जब समय का चमत्कार उन लघुतर छितवनों को विशाल स्वरूप दे देता है  


इसीलिये, आम तौर पर, जब जनता में त्राहिमाम की स्थिति हो, वह बदलाव चाहती हो, तब तथाकथित स्थापित पत्रकारों और विश्लेषणों की बातों पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं करना चाहिए उन्हें सच बोलने के लिये दृश्य से निकाल बाहर कर दिये जाने के पुण्य प्रसून और अभिसार शर्मा की तरह की नियति के लिये खुद को तैयार रखना होता है छितवनके लिये तरसने वालों के लिये हमेशा सच बोलना संभव नहीं होता है