गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

बांग्ला नववर्ष और जातीय अस्मिता के सवाल पर क्षण भर

- अरुण माहेश्वरी 



बांग्ला नववर्ष पोयला बैशाख की सभी मित्रों को आंतरिक बधाई । 


हम अपने जीवन में ही पोयला बैशाख से जुड़ी बंगवासियों की अस्मिता के पहलू के नाना आयामों और उनके क्रमिक क्षरण के साक्षी रहे हैं । हर साल बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में हम इस पर एक प्रकार के विलाप के स्वरों को भी सुना करते हैं । 


किसी जमाने में पूरब और पश्चिम, दोनों बंगाल में यह अंग्रेज़ी नव वर्ष की तुलना में कम उत्साह और उद्दीपन के साथ घर-घर में नहीं मनाया जाता था । बांग्ला अख़बारों के पन्ने तो आज भी इस अवसर के आयोजनों के विज्ञापनों से भरे होते हैं । अर्थात् सार्वजनिक आयोजनों और उत्सवों में शायद बहुत ज़्यादा कमी नहीं आई है । बल्कि इनका शोर शायद पहले से कुछ बढ़ा ही है । 


किसी वक्त यह बंगाल के हर दुकानदार के लिए नए बही-खाते का उत्सव का दिन होता था । दुकान पर आने वाले हर ग्राहक का मिठाई और बांग्ला कैलेंडर के उपहार से स्वागत किया जाता था । अतिथियों को आमंत्रित भी किया जाता था । 


कैलेंडर के व्यवसाय में बांग्ला कैलेंडर यहाँ एक बड़ी बिक्री का सीजन माना जाता था । यह अंग्रेज़ी कैलेंडर से कम नहीं होता था । इस दिन आम दुकानों पर भी लाखों की संख्या में बांग्ला पंजिका बिका करती थी । 


अब नया खाता सरकार के आयकर के असेसमेंट ईयर से बंध गया है । नया खाता का कोई मायने नहीं बचा है । बांग्ला कैलेंडर का प्रकाशन भी सीमित होकर बस एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है । 


यह सच है कि हम जैसे कोलकाता निवासी ने तो बांग्ला महीनों के नाम के ज़रिए ही विक्रम संवत् के महीनों के नाम जानें । आज तो बंगाब्द और विक्रम संवत् के मास तो दूर की बात, नई पीढ़ी के लिए दिनों के हिंदी नाम तक याद रखना भी दुस्वार हो रहा है । महीनों के अंग्रेज़ी नाम तो हिंदी में रोमन अंकों की तरह ही अपना लिए गए हैं ।


बहरहाल, रवीन्द्रनाथ के वक्त तक के बांग्ला साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें अंग्रेज़ी वर्ष का उल्लेख ही नहीं होता था। खुद रवीन्द्रनाथ की कविताओं पर सिर्फ बंगाब्द के अनुसार तिथियाँ मिलती हैं, जिनके आधार पर उन्हें अंग्रेज़ी वर्ष के अनुसार समझने में खासी मशक़्क़त करनी पड़ती है । एक अंग्रेज़ी वर्ष में दो बांग्ला वर्ष शामिल रहते हैं । हम सबकी दिक़्क़त यह है कि हमारी इतिहास के कालखंडों की अंग्रेज़ी कैलेंडर के अनुसार पहचान करने की ऐसी आदत बन गई है कि इसके लिए जैसे और कोई अतिरिक्त परिश्रम का औचित्य नहीं लगता । यह समाज की सामूहिक चेतना की ही हमारे विचार और व्यवहार में भी काल और स्थान के स्तर पर सर्वाकालिक नियमों की ऐसी ही अभिव्यक्ति हैं जिनसे हमारा अवचेतन क्रियाशील हुआ करता है । किसी दूसरी काल पंजिका के आधार पर विवेचन करने के लिए हमें उस काल की पहचान के चिन्हों का अनुवाद असहज करता है । 


आज हम जिसे जातियों की अस्मिताओं का संकट कहते हैं, उनमें काल बोध के संकेतीकरण का यह पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । और शायद इसी के प्रति संवेदनशीलता के कारण सारी दुनिया में स्थानीय कैलेंडरों के अनुसार भारी धूमधाम से वहाँ के नव वर्ष के उत्सव मनाए जाते हैं । पर व्यावहारिक जीवन में हर जगह अंग्रेज़ी वर्ष की गणनाओं का ही धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है । सार्वभौमिकता के गहरे सांस्कृतिक आग्रहों के बावजूद अंग्रेज़ी वर्ष के अनुसार चलने की बाध्यता से किसी की मुक्ति जैसे संभव नहीं लगती है !


इस प्रकार, कहना न होगा, हर बीतते दिन के साथ, काल के भाषाई अथवा स्थानीय गणितीय चिन्हों से भी जुड़ा हुआ हमारा जातीय बोध जितना हमसे छूट रहा है, उतना ही हमारे जातीय अहम् का विलय अंकगणित के कुछ वैश्विक चिन्हों में पूरी तरह सिमटता चला जा रहा है । अस्मिता का गणितीय संकेतों में सिमटना मनुष्य के दर्शन की भाषा के विकास की शायद वह पराकाष्ठा है जिसमें उसका अंतर मानो अपने को पूरी तरह से उलीच कर बाह्य संकेतकों में सिमट जाने को प्रेरित रहता है । इसीलिए गणित को ईश्वर की भाषा कह जाता है क्योंकि इसमें सत्य और उसके प्रकट रूप के बीच कोई फ़र्क़ नहीं होता है । माना जाता है कि हर अस्मिता का सत्य इसमें अपने को पूरी तरह से उलीच देता है । उसका अव्यक्त कुछ भी शेष नहीं रहता है । 


मनुष्य के नाते, प्रकृति पर अपनी ख़ास पहचान के हस्ताक्षर वाले अहम् के पुंज के नाते, अपने क्रमिक विरेचन के इन स्वरूपों से हम भले कितने ही विचलित क्यों न हो, पर जीवन में जिसे परमार्थ की सर्वकालिकता कहते हैं, वह वास्तव में यही तो है । परम की प्राप्ति का कोई भी स्वरूप आत्म को तिरोहित किए बिना संभव नहीं हो सकता है । तब फिर काल बोध के निजी प्रतीक चिन्हों के विलोपन पर कोई विलाप क्यों ? 


जैसे मिथकीय कथाओं का तभी तक अस्तित्व या कोई अर्थ होता है, जब तक उन पर सामूहिक रूप में विश्वास किया जाता हैं । अन्यथा उन्हें कितना भी सहेज कर क्यों न रखा जाए, उनसे कुछ नीति-नैतिकताओं के बहुत हल्के से उद्देश्यपूर्ण संकेतों के अलावा मनुष्य के जीवन के यथार्थ का बहुत कुछ ज़ाहिर नहीं होता है । सनातन धर्म की असल शिक्षा तो यही है । इसमें कथा का हर तत्व किसी बाहरी क्षेपक की तरह ही होता है जिसे हर रोज़ बनाया और रोज़ बिगाड़ा भी जा सकता है ।


सोमवार, 11 अप्रैल 2022

साप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ निर्द्वंद्व भाव से संघर्ष की नई वामपंथी रणनीति के एकजुट संकल्प की कांग्रेस

 (सीपीआई(एम) की 23वीं कांग्रेस)

—अरुण माहेश्वरी 



केरल के कन्नूर शहर में सीपीआई(एम) की 23वीं कांग्रेस (6-10 अप्रैल 2022) पूरी भव्यता के साथ संपन्न हो गई । फिर से सीताराम येचुरी का महासचिव पद पर चुनाव और कुछ पुराने, जमे-जमाये नेताओं की विदाई और पोलिट ब्यूरो में पहली बार एक दलित नेता को शामिल किया जाना इतने सरल और सीधे ढंग से हुआ कि सीताराम येचुरी ने इस कांग्रेस को पार्टी के ‘एकजुट संकल्प’ (united resolve) की कांग्रेस की संज्ञा दी । इस कांग्रेस से कुछ पुरानी दुविधाओं, बल्कि राजनीतिक कार्यनीति की ‘इसे हराओ, उसे अलग-थलग करो और वाम को जिताओ’ की द्वंद्वों की त्रिकोणीय निष्पत्ति की अजीबो-गरीब दुविधाओं से भी शायद मुक्ति पाई गई । 


अब इस कांग्रेस के जरिए यह साफ कहा दिया गया है कि सभी धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक शक्तियों को एक साथ इकट्ठा करके फासिस्ट आरएसएस-भाजपा की पराजय को सुनिश्चित करने और भारत के जनतंत्र और संघीय ढांचे की रक्षा करने के लिए ही आगे सभी जरूरी राजनीतिक कदम उठाने होंगे । 

बहरहाल, सबसे पहले हम केरल में संपन्न हुई इस कांग्रेस के भव्य आयोजन पर ही आते हैं । 


राजनीति के जगत का यह एक मूलभूत सत्य है कि इसका एक प्रमुख लक्ष्य अनिवार्य रूप से राजसत्ता को प्राप्त करना होता है । भारत एक बहुजातीय राष्ट्र है । राजसत्ता संबंधी बारीक सैद्धांतिक तर्क के आधार पर हम भले कहें कि किसी भी राज्य सरकार में होने का अर्थ राजसत्ता पाना नहीं होता है । पर जब हम देश के संविधान और राज्य के संघीय ढांचे के प्रति आस्था रखते हैं और उनकी रक्षा को अपना कर्तव्य मानते हैं, तो इससे यह भी जाहिर होता है कि प्रकारांतर से हम यह भी मानते हैं कि किसी भी राज्य सरकार में होने का अर्थ एक हद तक राजसत्ता की शक्ति को हासिल करना भी होता है । अपनी राजनीतिक सुविधा-असुविधा की वजह से भले हम इस सच को न पूरी तरह से मानते हो, और न ही इसे पूरी तरह से अस्वीकारते हो, पर राजनीति के दैनंदिन अनुभवों में इसके प्रयोग से बखूबी परिचित होते हैं । राज्य सरकारों के जरिये भी राजनीतिक दल सामाजिक परिवर्तनों, और जनजीवन में सुधार के अपने कई अभिप्सित कामों को क्रमिक रूप में किया करते हैं । 


यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भले पार्टी कांग्रेस की तरह के अनुष्ठानों का अपने आप में कोई मायने न होता हो, पर पार्टी कार्यकर्ता के लिए ऐसे अनुष्ठानादि पार्टी की राजनीतिक लाइन से अपने को उन्नत करने के साधन हुआ करते हैं । ये एक प्रकार से ऐसे वैदिक कर्मकांड की तरह हैं जो निष्काम भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों को उपनिषदों के अध्ययन का सुपात्र बनाते हैं । इनके लिए ही इन आयोजनों की प्रभावशाली भव्यता भारी महत्व रखती है । और कहना न होगा, इसमें राजसत्ता का योगदान, वह कितनी ही सीमित क्यों न हो, बहुत मायने रखता है । 


हमारी दृष्टि में केरल की यह कांग्रेस इस अर्थ में भी भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए अभी की कठिन घड़ी में बहुत उपयोगी साबित हो सकती है । इसने आज के समय में कम्युनिस्ट आंदोलन की शक्ति का परिचय दे कर देश भर के वामपंथियों को जरूर उत्साहित किया है । 


पार्टी कांग्रेस के सुचारु और भव्य संचालन, तथा इस कांग्रेस के जरिए कुछ खास प्रकार की ‘ऐतिहासिक उलझनों’ से उबरने के लक्षणों की पहचान के साथ ही जरूरी है कि इस मौके पर ही हम अधिक ठोस रूप में इस बात को समझे कि वास्तव में आज के राजनीतिक जगत में सीपीआई(एम) खड़ी कहां है ? क्या वह आज भी ऐसी जगह पर बनी हुई है कि इस जगत के उस सत्य से स्पंदित हो सके जो उसे तेज या धीमी गति से ही आगे की ओर बढ़ा सकता है, या दुनिया के दूसरे कई वामपंथी समूहों की तरह ही वह किसी ऐसी जगह पहुंच चुकी है जहां से अब वर्तमान राजनीतिक जगत की संरचना का सच उसे स्पर्श ही नहीं कर सकता है ! अर्थात् अब उसमें उर्ध्वगामी गति की संभावनाएँ ही नहीं बची है !

 

सीपीआई(एम) की तरह की भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की एक सबसे प्रमुख पार्टी के संदर्भ में भी हम ऐसी चिंता इसलिए जाहिर कर रहे हैं, क्योंकि अतीत में इस पार्टी के इतिहास में कुछ ऐसी भयंकर अघटन की तरह की घटनाएं घट चुकी है, जिनसे स्वाभाविक रूप में ही एक झटके में इसके राजनीति के जगत के सत्य से बहुत दूर चले जाने का खतरा पैदा हो सकता था । 


सीपीआई(एम) में ऐसे खतरे का पहला संकेत सन् 1996 में देखने को मिला था जब 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के पतन के बाद ज्योति बसु को विपक्ष के संयुक्त मोर्चा का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था और उसे सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में मामूली बहुमत के प्रयोग से ठुकरा दिया गया । 


वह एक ऐसा अवसर था जब सीपीआई(एम) को एक झटके में पूरे भारत की राजनीति के केंद्र में आ जाने का अवसर मिला था । कोई भी साधारण राजनीतिक विश्लेषक ही उससे पैदा होने वाली उन ‘असंभव संभावनाओं’ का अनुमान लगा सकता है, जिन्हें साधना ही वास्तव में राजनीति मात्र की सबसे प्रमुख विशेषता हुआ करती है । उस अवसर को गंवा कर सीपीआई(एम) ने अपने को उस भारतीय राजनीति के उस सत्य से काफी दूर कर दिया था जो उसके लिए एकबारगी, तेजी के साथ अखिल भारतीय स्तर पर फैल जाने के नए अवसर खोल सकती थी । सीपीआई(एम) के अंदर के बहुमत ने उस निर्णय के पीछे शुद्ध गैर-राजनीतिक, नौकरशाही किस्म का तर्क दिया था कि ‘पार्टी की अपनी ताकत से इस इतनी बड़ी जिम्मेदारी की कोई संगति नहीं बैठती है’ । तब ज्योति बसु ने अपने नपे-तुले अंदाज में पार्टी के उस अराजनीतिक फैसले को ‘ऐतिहासिक भूल’ कहा और साथ ही यह भी कहा कि ‘अब बस छूट गई है’ । ‘बस छूटने’ का मतलब होता है, उस गति से अपने को काट लेना जो आपके लिए तेजी से आगे बढ़ने का अवसर बनाती है । जाहिर था कि आगे ऐसे मौके जब आएंगें, तब तक के समय के फासले को पाटना कहीं ज्यादा कठिन और जटिल काम हो जाएगा । 


इसके साथ ही, पार्टी अपने परंपरागत प्रभाव के तीन राज्यों, पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में, शुद्ध रूप से अपनी सांगठनिक शक्ति के बूते सीमित हो गई । गतानुगतिक सांगठनिक कामों के अलावा उसके विस्तार में राजनीतिक छलांग की भूमिका सीमित हो गई । शुद्ध सांगठनिक दैनंदिन क्रियाकलापों से पार्टी में कैसे-कैसे, मठाधीशों वाले व्यक्तिवादी वर्चस्व के रोग पैदा हो सकते हैं, इसे जानने के लिए भी बहुत गहरी विश्लेषण क्षमता की जरूरत नहीं है । सीपीआई(एम) के सर्वोच्च नेतृत्व में यहीं से बहुमतवादी तिकड़मी राजनीति का जो बीज पड़ा, उसके हाल तक के परिणामों से हम सभी परिचित है । उसे सीपीआई(एम) का ‘प्रकाश करातवादी दौर’ कहना गलत नहीं होगा, और उसकी छाया से आज भी सीपीआई(एम) कहां तक मुक्त हो पाई है, कहना मुश्किल है !


बहरहाल, उसके बाद, सन् 2004 में, जब लोकसभा में वामपंथियों को उनके इतिहास में सबसे अधिक सीटें मिली थी, सीपीआई(एम) के समर्थन से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 की सरकार बनी । पार्टी भारत की राजनीति के केंद्र में फिर से एक बार आई । वह  सरकार भी बमुश्किल चार साल ही चल पाई कि 2008 में, अमेरिका के साथ पारमाणविक संधि के सवाल पर सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में प्रकाश करात के नेतृत्व को हमारी राजनीति के ठोस जगत से दूर, अमेरिकी साम्राज्यवाद के विश्व-वर्चस्व की सैद्धांतिक समझ का भूत बुरी तरह से सताने लगा । दलीलें दी जाने लगी कि यदि यह समझौता हो जाता है, तो भारत सीधे अमेरिका का पिछलग्गू एक ऐसा देश बन जायेगा जहां वामपंथ की कभी कोई संभावना शेष नहीं रहेगी । इस संधि को मानना वामपंथ के लिए आत्म-हत्या के समान होगा । 


गौर करने की बात है कि तब भी ऐतराज परमाणु संधि मात्र से नहीं था, इस बात से था कि यह संधि अमेरिका के साथ नहीं होनी चाहिए । मनमोहन सिंह ने वाम के इस दबाव को एक बेजा दबाव माना, उसे मानने से इंकार कर दिया और इसके प्रत्युत्तर में प्रकाश करात ने भी चाणक्य की तरह चुटिया बांध कर मनमोहन सरकार का सर्वनाश करने का घोषित फैसला कर लिया । वाम ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और प्रकाश करात तो उसके खिलाफ सभी ताकतों को एकजुट करने की भद्दी कवायद में भी जुट गए । लेकिन उनका दुर्भाग्य कि अपनी नाक कटा कर भी वे अपने मंसूबों में सफल नहीं हुए । उल्टे, स्पीकर सोमनाथ चटर्जी पर ज्योति बसु वाला फार्मूला भी नहीं चल पाया ।

 

आज इस दूसरे प्रकरण का सबसे मजेदार पहलू यह लगता है कि मनमोहन सिंह ने अमेरिका सहित और भी कई देशों से परमाणु संधियां कर लीं और तब से अब तक लगभग एक युग बीत गया है, लेकिन उस संधि का कोई राजनीतिक परिणाम आज तक किसी के सामने नहीं आया है । अभी तो वह संधि लगभग बेकार सी, इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़ी दिखाई देती है । 


पर सीपीआई(एम) के साथ इस पूरे प्रकरण का अघटन यह हुआ कि उस संधि के भूत ने सीपीआई(एम) को काट कर भारत के राजनीतिक जगत के केंद्र से निकाल कर इतनी दूर फेंक दिया कि तब से भारत के राजनीतिक जगत में सीपीआई(एम) और वामपंथ की लगातार अवनति की कहानियां ही लिखी जा रही है । पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे अपने शक्तिशाली राज्यों में वह अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है । केरल में उसे जरूर इस बार दुबारा जीत मिली है, पर इसका कारण कांग्रेस की दुर्दशा है, जिसके सामने सीपीआई(एम) अपने संगठन के बल पर ही भारी साबित हुई है । संगठन मात्र की जीत को राजनीति की जीत कहना हमेशा सही नहीं होता है । 


इस प्रकरण के बाद, कुल मिला कर ऐसा लगने लगा था कि जैसे भारत की राजनीति का सत्य सीपीआई(एम) से कोसों दूर चला गया है । प्रकाश करात की भाजपा-आरएसएस के फासीवादी चरित्र के प्रति दुविधा से उपजी ‘इसे हराओ, उसे अलग-थलग करो और हमें जिताओ’ वाली गड़बड़झाले वाली बहुमुखी राजनीति हवा में दफ्ती की तलवार भांजने की हास्यास्पद हरकतों से अधिक कुछ भी प्रेषित नहीं करती थी । 


बहरहाल, सीपीआई(एम) की इस सफल 23वीं कांग्रेस के सिलसिले में इसके अब तक के इतिहास के कुछ ऐसे दुखांतकारी क्षणों का स्मरण करना हमें इसलिए जरूरी लगा क्योंकि परिस्थितियां बदलने पर भी आदतें अक्सर आसानी से नहीं बदला करती हैं । पार्टी कांग्रेस की तरह के गहन विश्लेषण के अनुष्ठानों का मतलब तो यही होता है कि इनसे अब तक के तमाम विषयों को खंगाल कर पार्टी के पुराने रोगों का निदान किया जाता है । 


पार्टी की इस 23वीं कांग्रेस में फिर से सीताराम येचुरी का चुना जाना और देश को बचाने के लिए निर्द्वंद्व भाव से भाजपा-आरएसएस के खिलाफ ही अपनी पूरी शक्ति को नियोजित करने का एकजुट होकर संकल्प लेना इस बात के संकेत देता है कि कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा बदलाव आया है जिससे पार्टी के रोग के निदान की ओर बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है । आज भी सीपीआई(एम) के पास केरल की सरकार है और पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा में वह निःसंदेह दूसरे स्थान की बड़ी पार्टी है । इन तीन राज्यों के बल पर ही वह कांग्रेस सहित देश की सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की पाँत में एक सम्मानजनक स्थान की हकदार हो सकती है । पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कांग्रेस के साथ उसका खुले मन से मजबूत गठबंधन उसकी पूरे देश की भाजपा-विरोधी राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका का आधार तैयार कर सकता है । केरल में ऐसे गठबंधन की जरूरत नहीं है क्योंकि भाजपा वहां के दृश्य से गायब है ।        


हमें आशा है कि इस कांग्रेस के बाद अब आगे क्रमशः एक ऐसी नई पार्टी के उभार का संकेत मिलेगा जो पार्टी को हमारे राजनीतिक जगत के केन्द्र में लाकर धर्म-निरपेक्ष और समतापूर्ण भारत के सत्य से स्पंदित होते हुए वामपंथी सोच के क्षितिज के विस्तार का कारक बनायेगी ।