शनिवार, 30 जुलाई 2016

समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए



प्रेमचंद के प्रति एक विनम्र श्रद्धांजलि : 
समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए
(प्रेमचंद की 137वीं सालगिरह की पूर्व संध्या में एक नोट)
अरुण माहेश्वरी

1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला। हिंदी के उपन्यास सम्राट।

उपन्यास - अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान।

प्रेमचंद लिखते हैं : “उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए।“ और साथ ही यह भी कि “ जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं।“

अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र। ‘जीवन जैसा है’ के नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र।

फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा। आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं।

मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !

प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है। जबकि मतवाद - सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार - साहित्य के दर्जे को गिरा देता है।

यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था। स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था। फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं।

प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता। लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है। बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है।
‘मत’ और ‘आदर्श’ को लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है। मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं। आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब  और भी साफ है।

ऐसे में,  पुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए। पूंजीवादी आदर्श और ‘पूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श और ‘समाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श और ‘क्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र और ‘जनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन में ‘जैसा है’ को चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता। इस ‘जैसा है’ के चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है। यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता।

यह समय ‘मत’ और ‘आदर्श’ के बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है।

दरअसल पूरे विषय को ज्ञान और सत्य के बीच के एक सनातन तनाव के विषय के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक आदमी सत्य की ओट में झूठ बोल सकता है. यह उसका दुराग्रह होता है जब वह तथ्यात्मक रूप से कही गई एक सही बात में अपनी कामनाओं या वासनाओं को छिपा रहा होता है. इसके विपरीत, दूसरा आदमी किसी उन्माद में, या भूलवश, अपनी इच्छा के विरुद्ध ही, झूठ कहता हुआ भी सच बोल जाता है. यह असल में तथ्यात्मक वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठ सत्य का द्वंद्व है. वास्तविकता यह है कि हर कथन में, हर बयान में कुछ खामोश संकेत छिपे होते हैं, जिन्हें आम तौर पर पंक्तियों के बीच के अंतराल और मौन कहा जाता है.

जब तक इन मौन संकेतों की रिक्तताओं को पकड़ा नहीं जाता है, पाठ के झूठ और सच का पूरी तरह से पता नहीं लग सकता है. और, इन्हें पकड़ने का एकमात्र तरीका है कि पाठ को ठोस, वास्तविक जीवन के संदर्भ में स्थापित किया जाए. पाठ में लेखक का सोच ही सब कुछ नहीं होता, जरूरी होता है उस सोच को ऐसे सकारात्मक और नकारात्मक संकेतों की श्रृंखला में उतारना जो इन मौन संकेतों के वास्तविक संदेश का वहन कर सके, पाठकों तक उन्हें सही ढंग से प्रेषित कर सके.

इसीलिये, जब भी आप ‘जैसा है वैसा’ बयान करेंगे, वह कोरा प्रकृतिवाद नहीं होगा. वह सच स्वत: नहीं, आपके जरिये व्यक्त हो रहा है. उससे आप वास्तव में एक ऐसा पूरा परिप्रेक्ष्य पेश कर रहे होते हैं, ताकि आपकी अपनी बातों के मौन संकेतों को भी पढ़ा जा सके. इसके अलावा, जो सच आपके सामने है, वह आपके मार्फत कैसे अभिव्यक्त होता है, उसी से यह भी जाहिर हो जाता है कि खुद आपने उस सच को कैसे ग्रहण किया है. पिछले दिनों अशोक वाजपेयी के बारे में अपने एक लेख में, आश्विच के वद्यस्थल पर खड़े कवि के भावों की अभिव्यक्ति से हमने जितना आश्विच को नहीं देखा, उससे बहुत ज्यादा खुद लेखक के सत्य को देखा था.

ऐसी ढेरों बातें होती हैं, जिन्हें हम अपनी कल्पना में महसूस करके ही उसे सच मानने लगते हैं. इनमें वास्तव में जीवन का वस्तु-सत्य नहीं, हमारी अपनी इच्छा-अनिच्छा बोल रहे होते हैं. इससे उचित-अनुचित का हमारा बोध भी व्याहत होता है. यह बात, सिर्फ लेखक पर नहीं, पाठक पर भी, हर व्यक्ति पर लागू होती है. ऐसे में, आम बाजारू लेखक, जब वह पाठ के जरिये अपने पाठक के रूबरू होता है, अक्सर वह किंचित निरपेक्ष होकर अपने लिये एक न्यायाधीश की भूमिका अपना लेता है. वह पाठक का मन टटोल कर उसके हित-अहित के बारे में न्याय सुनाने लगता है. यह पाठक के मनोविज्ञान में बैठ कर न्याय-निर्णय देने वाला एक प्रकार का खोजी नजरिया है जो आम तौर पर बाजार में काफी सफल साबित होता है.

तमाम बाजारू लेखन का यह एक मूल सूत्र है. लेकिन सवाल है कि क्या यह नजरिया पाठक का उसके जीवन के सच से साक्षात्कार कराने वाला नजरिया है ? भले यह पाठक का सामयिक तौर पर हित साधे, उसे लुभाये, उसका मनोरंजन भी करें, लेकिन यह उसे उसके सच से परिचित नहीं कराता. यह अन्तत: एक झूठ ही है, किसी झूठे आश्वासन की तरह का झूठ. इसमें पाठक के अपने विचार के अधिकार तक को छीन लिया जाता है. लेखक उसके लिये उसकी पसंद का एक भला-भला सा संसार रच देता है.

इसके विपरीत, पाठ में वस्तुनिष्ठता का दूसरा रास्ता है स्पष्टवादिता का, साहस के साथ सच को कहने का. बात को जीवन के ठोस संदर्भ के साथ स्थापित करने का. जब पाठक सच को जानने पर भी उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा होता है, तब पूरी ताकत के साथ सच को रखने की जरूरत होती है. जब कोई जीवन का मजा भी लेगा, लेकिन भान ऐसा करेगा मानो वह यह मजा अपनी मर्जी से नहीं ले रहा, तो ऐसे में जीवन की ठोस सचाई के बयान से उसके छद्म नैतिक-मूल्यों के जंजाल को खत्म करने की जरूरत रहती है.

तथापि, लेखक के लिये, यह स्पष्टवादिता वाला रवैया ही अंतिम नहीं हो सकता है. पाठ का विश्लेषणात्मक विमर्श यदि कभी किसी छल-छद्म पर निर्भर नहीं करता, तो वह किसी भी प्रकार के बल पर भी आश्रित नहीं हो सकता है, भले वह तर्क का बल हो या न्याय-नैतिकता का बल. सबसे बड़ी सचाई यह है कि भाषा के अपने सारे मौन-मुखर संकेत अंतत: खुद में जीवित तर्क होते हैं. भाषा का प्रयोग ही तो किसी बात को रखने के लिये, किसी बात से इंकार करने या किसी बात को मनवाने के लिये किया जाता है. हर बात के अपने दो पहलू होते हैं. एक पक्ष होता है, दूसरा विपक्ष. हर बात को दूसरी बात से काटा जा सकता है. इसप्रकार, कहा जा सकता है कि अनिर्णय एक सर्व-व्यापी सच है.

प्रश्न यही है कि क्या ऐसे में, किसी भी एक धागे में, कथित तौर पर किसी विचारधारा के धागे में पिरो कर सारे विचारों को किसी प्रकार की स्थिरता प्रदान करने की क्या कोई जरूरत है ? जब विचार पहले से ही स्थिर है, एक निश्चित अर्थ का वहन करते हैं, वे खोखर नहीं होते कि उनमें कुछ भी डाला जा सके. तब फिर उन्हें और ज्यादा बांधने की, एक सूत्र में पिरोने की, एक चादर के तले लाने की क्या जरूरत है ? यहीं से शब्द और विचार की शक्ति के बारे में हम एक नये अभिज्ञान को अर्जित कर सकते हैं.

मूल बात यह है कि जो साफ तौर पर गलत है उसके भूल-भुलैय्ये में और ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है. वह हमारे जीवन में अप्रासंगिक है. कोई इसे किसी भी बहाने से, नैतिक या दूसरे कारणों से स्वीकारे या न स्वीकारे. बाबा रामदेव कैंसर का इलाज कर सकता है या योग में सारे ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ है, यह झूठ है. ऐसे झूठ को कोई किसी भी बहाने से कितनी बार भी क्यों न कहा जाए, उनकी जांच के भी चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है. सच कहने के अलावा लेखक के पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है, वह किसी को अच्छा लगे, या बुरा लगे; किसी को दुखी करे या सुखी करे. आदमी पाप के बोझ को लाद कर चले ताकि धर्म से उनका उद्धार किया जा सके, यह धर्माधिकारियों के हित का हो सकता है. लेखक का काम इसके ठीक विपरीत है. भले ऐसा करते हुए वह नितांत अलग-थलग और असामाजिक किस्म का किसी भूत जैसा ही क्यों न दिखाई देने लगे. रिल्के ने कहा था कि ‘सुंदरता तो पैशाचिकता का अंतिम आवरण है’. हर नई चीज डरावनी प्रतीत होती है.

इस समझ के साथ आगे बढ़ने पर ही, कहना न होगा, लेखक की अपनी भूमिका, पाठक के साथ उसके संबंध के सारे सवाल एक नई अर्थवत्ता ग्रहण करने लगेंगे. तभी हम, यह संसार जैसा है, वैसा ही उसे पेश करने के रास्ते की श्रेष्ठता को और भी अच्छी तरह से समझ सकेंगे. प्रेमचंद का लेखन इसी प्रकार पूरी उत्कटता से सच को कहने वाला लेखन था.

इन्हीं चंद शब्दों के साथ प्रेमचंद के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि।


शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

महाश्वेता देवी (1926-2016)



महाश्वेता देवी की लिखने की टेबुल कभी भी बदली नहीं। बालीगंज स्टेशन रोड में ज्योतिर्मय बसु के मकान में लोहे की घुमावदार सीढ़ी वाली छत के घर, गोल्फ ग्रीन या राजाडांगा कहीं भी क्यों न रहे, टेबुल हमेशा एक ही। ढेर सारे लिफाफे, निवेदन पत्र, सरकारी लिफाफे, संपादित ‘वर्तिका’ पत्रिका की प्रूफकापियां बिखरी हुई। एक कोने में किसी तरह से उनके अपने राइटिंग पैड और कलम की बाकायदा मौजूदगी। सादा बड़े से उस चौकोर पैड पर डाट पेन से एकदम पूरे-पूरे अक्षरों में लिखने का अभ्यास था उनका।

लिखना, साहित्य बहुत बाद में आता है। कौन से शबरों के गांव में ट्यूबवेल नहीं बैठा है, बैंक ने कौन से लोधा नौजवान को कर्ज देने से मना कर दिया है - सरकारी कार्यालयों में लगातार चिट्ठियां लिखना ही जैसे उनका पहला काम था। ज्ञानपीठ से लेकर मैगसेसे पुरस्कार से विभूषित महाश्वेता जितनी लेखक थी, उतनी ही एक्टिविस्ट भी थी। 88 साल की उम्र में अपने हाथ में इंसुलिन की सूईं लगाते-लगाते वे कहती थी, ‘‘तुम लोग जिसे काम कहते हो, उनकी तुलना में ये तमाम बेकाम मुझे ज्यादा उत्साहित करते हैं।’’

इसीलिये महाश्वेता को सिर्फ एक रूप में देखना असंभव है। वे ‘हजार चौरासी की मां’ है। वे ‘अरण्य के अधिकार’ की उस प्रसिद्ध पंक्ति, ‘नंगों-भूखों की मृत्यु नहीं है’  की जननी है। दूसरी ओर वे सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन का एक चेहरा थी। एक ओर उनके लेखन से बिहार-मध्यप्रदेश के कुर्मी, भंगी, दुसाध बंगाली पाठकों के दरवाजे पर जोरदार प्रहार करते हैं। और एक महाश्वेता आक्साफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से दिल्ली बोर्ड के विद्यार्थियों के लिये ‘आनन्दपाठ’ शीर्षक संकलन तैयार करती है, जिम कार्बेट से लू शुन, वेरियर एल्विन का अनुवाद करके उन्हें बांग्ला में लाती है। उनके घर पर गांव से आए दरिद्रजनों का हमेशा आना-जाना लगा रहता है।

दो साल पहले की बात है। किसी काम के लिये कोलकाता आया एक शबर नौजवान महाश्वेता के घर पर टिका हुआ था। नहाने के बाद आले में रखी महाश्वेता की कंघी से ही अपने बाल संवार लिये। इस शहर में अनेक वामपंथी जात-पातहीन, वर्ग-विहीन, शोषणहीन समाज के सपने देखते हैं। लेकिन अपने खुद के तेल-साबुन, कघी को कितने लोग बेहिचक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिये दे सकते हैं ? कैसे उन्होंने यह स्वभाव पाया ? सन् 2001 में गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक को महाश्वेता ने कहा था, ‘जब शबरों के पास गई, मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गये। आदिवासियों पर जो भी लिखा है, उनके अंदर से ही पाया है।’

सबाल्टर्न इतिहास लेखन की प्रसिद्धी के बहुत पहले ही तो महाश्वेता के लेखन में वे सब अनसुने सुने जा सकते थे। 1966 में प्रकाशित हुई थी ‘कवि बंध्यघटी गात्री का जीवन और मृत्यु’। उसमें उपन्यासकार ने माना था, ‘बहुत दिनों से इतिहास का रोमांस मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था। एक ऐसे नौजवान की कहानी लिखना चाहती थी जो अपने जन्म और जीवन का अतिक्रमण करके अपने लिये एक संसार बनाना चाहता था, उसका खुद का रचा हुआ संसार।’ ‘चोट्टी मुण्डा और उसका तीर’ वही अनश्वर स्पिरिट है। ‘चोट्टी खड़ा रहा। निर्वस्त्र। खड़े-खड़े ही वह हमेशा के लिये नदी में विलीन हो जाता है, यह किंवदंती है। जो सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है।’ सारी दुनिया के सुधीजनों के बीच महाश्वेता इस वंचित जीवन की कथाकार के रूप में ही जानी जायेगी। गायत्री स्पिवाक महाश्वेता के लेखन का अंग्रेजी अनुवाद करेगी। इसीलिये महाश्वेता को बांग्ला से अलग भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

विश्व चिंतन से महाश्वेता का परिचय उनके जन्म से था। पिता कल्लोल युग के प्रसिद्ध लेखक युवनाश्व या मनीश घटक। काका ऋत्विक घटक। बड़े मामा अर्थशास्त्री, ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के संस्थापक सचिन चौधुरी। मां के ममेरे भाई कवि अमिय चक्रवर्ती। कक्षा पांच से ही शांतिनिकेतन में पढ़ाई। वहां बांग्ला पढ़ाते थे रवीन्द्रनाथ। नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज जैसे शिक्षक मिलें। देखने लायक काल था। 14 जनवरी 1926 के दिन बांग्लादेश के पाबना (आज के राजशाही) जिले के नोतुन भारेंगा गांव में महाश्वेता का जन्म। इसके साल भर बाद ही ‘आग का दरिया’ की लेखिका कुर्रतुलैन हैदर जन्मी थी। दोनों के लेखन में ही जात-पात, पितृसत्ता का महाकाव्य-रूपी विस्तार दिखाई दिया। इसी चेतना की ही तो उपज थी - ‘स्तनदायिनी’ का नाम यशोदा। थाने में बलात्कृत दोपदी मेझेन द्रौपदी का ही आधुनिक संस्करण है। भारतीय निम्नवर्ग एक समान पड़ा हुआ पत्थर नहीं, उसमें भी दरारे हैं, वह क्या ‘श्री श्री गणेश महिमा’ में दिखाई नहीं देता है : ‘‘भंगियों की होली खत्म होती है दो सुअरों को मार कर, रात भर मद-मांस पर  हल्ला करते हैं। दुसाध यहां अलग-थलग थे। फिर दो साल हुए वे भी भंगियों के साथ होली में शामिल है।’’

अपनी साहित्य यात्रा के इस मोड़ पर आकर महाश्वेता एक दिन रुक नहीं गई। उसके पीछे उनकी लंबी परिक्रमा थी। ‘46 में विश्वभारती से अंग्रेजी में स्नातक हुई। एमए पास करने के बाद विजयगढ़ के ज्योतिष राय कालेज में अध्यापन। उसके पहले 1948 से ‘रंगमशाल’ अखबार में बच्चों के लिये लिखना शुरू किया। आजादी के बाद ‘नवान्नो’ के लेखक विजन भट्टाचार्य से विवाह। तब कभी ट्यूशन करके, कभी साबुन का पाउडर बेच कर परिवार चलाया। बीच में एक बार अमेरिका में बंदरों के निर्यात की योजना भी बनाई, लेकिन सफल नहीं हुई। 1962 में तलाक, फिर असित गुप्त के साथ दूसरी शादी। 1976 में उस वैवाहिक जीवन का भी अंत।

इसीबीच, पचास के दशक के मध्य एकमात्र बेटे नवारुण को उसके पिता के पास छोड़ कर एक कैमरा उठाया और आगरा की ट्रेन में बैठ गई। रानी के किले, महलक्ष्म मंदिर का कोना-कोना छान मारा। शाम के अंधेरे में आग ताप रही किसान औरतों से तांगेवाले के साथ यह सुना कि ‘रानी मरी नहीं। बुंदेलखंड की धरती और पहाड़ ने उसे आज भी छिपा रखा है।’

इसके बाद ही ‘देश’ पत्रिका में ‘झांसी की रानी’ उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित हुआ। और इसप्रकार, अकेले घूम-घूम कर उपन्यास की सामग्री जुटाने वाली क्रांतिकारी महाश्वेता अपनी पूर्ववर्ती लीला मजुमदार, आशापूर्णा देवी से काफी अलग हो गई। उनका दबंग राजनीतिक स्वर भी अलग हो गया। ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास की वह अविस्मरणीय पंक्ति, ‘‘जातिभेद की समस्या खत्म नहीं हुई है। प्यास का पानी और भूख का अन्न रूपकथा बने हुए है। फिर भी कितनी पार्टियां, कितने आदर्श, सब सबको कामरेड कहते हैं।’’ कामरेडों ने तो कभी भी ‘रूदाली’, ‘मर्डरर की मां’ की समस्या को देखा नहीं है। ‘चोली के पीछे’ की स्तनहीन नायिका जिसप्रकार ‘लॉकअप में गैंगरेप...ठेकेदार ग्राहक, बजाओ गाना’ कहती हुई चिल्लाती रहती है, पाठक के कान भी बंद हो जाते हैं।

कुल मिला कर महाश्वेता जैसे कोई प्रिज्म है। कभी बिल्कुल उदासीन तो कभी बिना गप्प किये जाने नहीं देगी। अंत में, बुढ़ापे की बीमारियों, पुत्रशोक ने उन्हें काफी ध्वस्त कर दिया था। फिर भी क्या महाश्वेता ही राजनीति-जीवी बहुमुखी बंगालियों की अंतिम विरासत होगी ? ममता बंदोपाध्याय की सभा के मंच पर उनकी उपस्थिति को लेकर बहुतों ने बहुत बातें कही थी। महाश्वेता ने परवाह नहीं की। लोगों की बातों की परवाह करना कभी भी उनकी प्रकृति नहीं रही।

अनुवाद : अरुण माहेश्वरी
(‘आनंदबाजार पत्रिका’ दैनिक के 29 जुलाई 2016 के अंक से साभार)

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

नामवर सिंह को उनके 90वें जन्मदिन पर बधाई


अरुण माहेश्वरी

आज नामवर जी के जन्मदिन पर फेसबुक ने अपनी ओर से हमें अपनी 2014 की इसी दिन की पोस्ट की याद दिलाई है। इसमें काशीनाथ सिंह की ‘घर का जोगी जोगड़ा’ को लेकर लिखी गई अपनी एक पहले की टिप्पणी के साथ हमने लिखा था - ‘‘आज नामवर जी का जन्मदिन है। हिंदी आलोचना की मुख्यधारा में संभवत: ज्ञान और विवेक का अकेला भरोसेमंद व्यक्तित्व। अकेला कर्ता और बाकी सब भर्ता। उनकी शतायु की कामना ऐसी है जैसे हम अपने लिये शतायु की कामना कर रहे हैं।’’

अब मात्र दो साल बाद, जब उनका 90वां जन्मदिन मनाया जा रहा है, परिस्थितियां इस कदर बदल सी गई है कि उनको दी जा रही तमाम शुभकामनाएं बहुत कुछ श्रद्धांजलियों सरीखी जान पड़ती हैं । कुछ मित्र अपने पुराने लेखों को फिर से रख रहे हैं, तो कुछ महज औपचारिकता निभा रहे हैं।

नामवर जी के लेखन का कथ्य और रूप के बीच पूर्ण सामंजस्य वाला युवा-सौष्ठव तो 1957 में प्रकाशित उनके ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखों में ही पूरी तरह से प्रकट हो चुका था। ‘कहानी : नई कहानी’ के लेखों के साथ दरअसल वे आधुनिक काल की विडंबनाओं में प्रवेश करते हैं। इनमें ‘छायावाद’ और ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखन जैसा साफ-सुथरापन भले न रहा हो, लेकिन, जैसा कि कला के प्रति रूमानी दृष्टि हर महान कला को विडंबनाओं की कला मानती है, इस संकलन के लेखों के अपने खास प्रकार के आकर्षण से कोई इंकार नहीं कर सकता है। लेकिन कहना न होगा,  ‘कहानी : नई कहानी’ के लेखों के साथ ही जैसे नामवर जी, विचार और विवेक के एक नए उन्मादपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, जहां लेखक का उसके विषय से किसी भी प्रकार का तदाकार निरर्थक माना जाता है। आधुनिकतावादी विडंबना यही है कि लेखक अपने विषय से खुद को अलग करता जाता है। हेगेल का तो मानना था कि ऐसी विडंबनापूर्ण कला की रचना की कोशिश सिर्फ एक कमजोर कला ही तैयार कर सकती है। जाहिर है कि इस नये रूप में उनके लेखन का पूर्व कलात्मक सौष्ठत प्रतिहत होना ही था, और हुआ भी। नामवर जी की ‘कविता के नये प्रतिमान’ को इसके एक बड़े उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

नामवर जी ने अपनी अंतिम किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ 1982 में लिखी थी। उसके बाद वे मूलत: भाषण या साक्षात्कार देते रहे हैं। फिर भी उनकी एक पुरानी चमक बनी हुई थी क्योंकि जिसे तथाकथित विवेक के उन्माद के दौर में साहित्य की परिपाटियों के अपने स्वतंत्र संसार की चमक कहा जा सकता है, नामवर जी ने उसे प्राप्त कर लिया था। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के जरिये उन्होंने खुद को साहित्य की परिपाटियों, अर्थात उसके कर्मकांडी क्रियाकलापों के बीच में फिर से स्थापित किया। और जब 2014 में हम उनके बारे में लिख रहे थे कि ‘‘हिंदी आलोचना की मुख्यधारा में संभवत: ज्ञान और विवेक का अकेला भरोसेमंद व्यक्तित्व। अकेला कर्ता और बाकी सब भर्ता। उनकी शतायु की कामना ऐसी है जैसे हम अपने लिये शतायु की कामना कर रहे हैं।’’ तब भले नामवर सिंह का लिखना बंद हुए तीन दशक से ऊपर बीत चुके हो, लेकिन इस बीच उनका कोई विकल्प भी नहीं बना था। रामविलास शर्मा अपने हिंदी नवजागरण के विषय को पीट-पीट कर इतना झीना कर चुके थे कि वह स्वत: पूरे परिदृश्य से, यहां तक कि अंत में खुद उनके सोच के दायरे से भी गायब होगया। अज्ञेयपंथियों के पास कभी भी कहने को कुछ नहीं था। और जनवादी आलोचना भी अपनी एक सामयिक चमक दिखा कर, मैदान छोड़ कर अध्यापकीय साहित्यिक कर्मकांडों में विसर्जित हो गई थी। ऐसे एक संभावनाशून्य समय में, नामवर जी के लेखक की पुरानी सुंदर प्रतिमा की गैर-लेखकीय गतिविधियां ही उनसे सामाजिक जीवन की नयी चुनौतियों के संदर्भ में एक सार्थक भूमिका के निर्वाह की अपेक्षाएं बनाए हुए थी। आदमी यथार्थ के बजाय उम्मीदों में भी कम सुंदर नहीं हुआ करता है !

बहरहाल, पिछले दो सालों में, उनकी वह प्रतिमा भी, उम्मीदों में बसी हुई प्रतिमा भी खंडित हो गई है। खास तौर पर जब अभी के शासकों की शह पर तीन विवेकवादी लेखकों डाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्याओं के बाद लेखकों के व्यापक समुदाय ने प्रतिवाद की आवाज बुलंद की, तब नामवर जी लेखकों के साथ नहीं, शासकों के साथ खड़े हुए पाए गए।

आज उनकी 90वी सालगिरह के मौके पर जो पूरा विवाद खड़ा हुआ है, उसके मूल में भी यही सचाई काम कर रही है। इसे बिल्कुल सही, उनसे की जा रही उम्मीदों के प्रति एक दगा के रूप में समझा जा रहा है।
फिर भी हम उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं।    

रविवार, 24 जुलाई 2016

यह सिर्फ क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं, ‘क्रांतिकारी नौकरशाही’ का भी एक बुरा उदाहरण है

सीपीआई(एम) से सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस सहित सभी धर्म-निरपेक्ष दलों की एकता के लिये काम करने की दलील देने वालों को प्रकाश करात के दो टूक जवाब का एक प्रत्युत्तर :

-अरुण माहेश्वरी

सीपीआई(एम) के नेता प्रकाश करात ने ‘पिपुल्स डेमोक्रेसी’ के ताजा (24 जुलाई के) अंक में मोदी-आरएसएस-भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की बात करने वाले ‘वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों’ की दलीलों का एक प्रत्युत्तर दिया है। इसमें उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा है कि सीपीआई(एम) कांग्रेस के वर्गीय चरित्र की वजह से ऐसा नहीं कर सकती है। कांग्रेस के साथ समझौता करने का मतलब है भारत के मजदूर वर्ग के हितों के साथ समझौता करना। कांग्रेस एक धर्म-निरपेक्ष दल है और भाजपा सांप्रदायिक, और चूंकि भाजपा केंद्र में सत्ता पर है इसलिये उसे हराना और अलग-थलग करना हमारा प्रमुख लक्ष्य भी है। लेकिन सांप्रदायिक ताकतें ‘90 के दशक के उसी दौर में फली-फूली जब नव-उदारवाद की नीतियां चलाई जा रही थी। मोदी सरकार उसी रास्ते पर और तेजी से चल रही है। इसीलिये नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ कर ही सांप्रदायिकता से लड़ा जा सकता है।

तीन हिस्सों में विभाजित अपने प्रत्युत्तर के दूसरे हिस्से में उन्होंने तमिलनाडु, असम, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश को लेकर प्रकारांतर से इरफान हबीब और सायरा हबीब के खुले पत्र में उठाए गये सवालों का जवाब देने की कोशिश की है।

और, अंतिम तीसरे हिस्से में उन्होंने साफ निर्देश जारी किया है कि ‘‘सीपीआई(एम) मोदी सरकार की नव-उदारवादी नीतियों और भाजपा, आरएसएस के सांप्रदायिक हमलों के खिलाफ एकजुट संघर्ष के लिये काम करेगी लेकिन ऐसा करते हुए वह मजदूर वर्ग, किसान जनता, शहर और गांव के गरीबों तथा दूसरे मेहनतकशों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के नाते एक शासक वर्ग की पार्टी के साथ कोई गठजोड़ कायम नहीं कर सकती है।...(कांग्रेस से गठबंधन करने या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर सवाल उठाने की बातें) पार्टी पर एक विचारधारात्मक हमला है ताकि उसे एक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में बदला जा सके। सीपीआई(एम) का उनको संतुष्ट करने का कोई मन नहीं है।’’

एक जोश से भरा हुआ, नपीतुली निर्देशात्मक भाषा में प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर अनायास ही क्रांतिकारी लफ्फाजी के बारे में लेनिन के शब्दों की याद को ताजा कर देता है –

‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी का अर्थ है एक खास समय में घटना-प्रवाह के मोड़ पर उस खास समय की ठोस परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना क्रांतिकारी नारों को दोहराते रहना। नारे श्रेष्ठ, मनमोहक, नशीले होते हैं, परंतु वे आधारहीन होते हैं। यही है क्रांतिकारी लफ्फाजी की प्रकृति।’’
(By revolutionary phrase-making we mean the repetition of revolutionary slogans irrespective of objective circumstances at a given turn in events, in the given state of affairs obtaining at the time. The slogans are superb; alluring, intoxicating, but there are no grounds for them ; such is the nature of revolutionary phrase.)

लेनिन ने यह बात बोल्शेविक पार्टी में उन लोगों की दलीलों के जवाब में कही थी जो क्रांति के ठीक बाद जर्मनी से पृथक शांतिवार्ता के बजाय उसके खिलाफ ‘‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’’ (preparation of a revolutionary war) की थोथी बात कर रहे थे। लेनिन ने सोवियत संघ की उस समय की सामाजिक परिस्थिति, सेना के विघटन की दशा और घनघोर आर्थिक तबाही का हवाला देते हुए कहा था कि इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में आप ‘क्रांतिकारी युद्ध’ के बारे में बात कीजिए, आपके सामने ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का सार स्पष्ट हो जायेगा।

प्रकाश करात को भारत की ठोस राजनीतिक परिस्थिति का अहसास ही नहीं है। वे नव-उदारवाद की बात करते हैं, उसे सारी बीमारियों की जड़ मान रहे हैं, लेकिन यह नहीं देख रहे हैं कि इन पचीस सालों के बीच यहां कैसी भयंकर रूप से उग्र, फासिस्ट धार्मिक तत्ववादी ताकतें सत्ता पर आ गई है। हिटलर और मुसोलिनी को छोड़ दीजिए, अभी की दुनिया में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इरान, सीरिया से लेकर पूरे मध्यपूर्व की स्थिति से भी वे ऐसी ताकतों के रौद्र चरित्र के बारे में कोई सबक लेने के लिये तैयार नहीं है।

आज की भारत की राजनीतिक सचाई यह है कि यहां क्रांति एजेंडे पर नहीं है, लेकिन प्रति-क्रांति पूरी तरह से एजेंडे पर है। मजदूर वर्ग और मेहनतकशों ने एक जनतांत्रिक राज्य में अब तक जो भी अधिकार अर्जित किये हैं, उन सब पर आज सबसे भयंकर और बर्बर खतरा मंडरा रहा है। सीधे-सीधे अल्पसंख्यकों और दलितों को शारीरिक हमलों का शिकार बनाया जा रहा है। राज्य सभा में भी किसी प्रकार पूर्ण बहुमत की थोड़ी और अनुकूल परिस्थिति हो जाने पर मजदूरों और मेहनतकशों के अधिकार तो जाने दीजिये, विरोध की हर आवाज को पूरी ताकत के साथ कुचल दिये जाने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। इसीलिये मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के हितों की रक्षा के नाम पर अभी के मोदी निजाम के खिलाफ हवाई नहीं, बल्कि एक व्यापकतम वास्तविक प्रतिरोध तैयार करने से कतराना मजदूरों और मेहनतकशों के हितों की रक्षा नहीं, उनके साथ एक दगाबाजी कहलायेगा। हमारे देश की अब तक की ठोस राजनीतिक सचाई यही है कि ऐसा प्रभावशाली प्रतिरोध कांग्रेस दल को अलग रख कर कत्तई तैयार नहीं किया जा सकेगा। वामपंथ सबसे कमजोर स्थिति में है।

हमारा प्रश्न है कि प्रकाश करात सांप्रदायिकता के खिलाफ जिन जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की एकता की बात कर रहे हैं, उनमें ऐसी कौन सी एक भी पार्टी है जिसे वे शासक वर्गों की पार्टी नहीं मानेंगे? इनमें से कई पार्टियों के पास राज्य सरकारें भी है। क्या वे नव-उदारवाद के खिलाफ कोई लड़ाई चला रही है ? खुद सीपीआई(एम) की सरकारें क्या नव-उदारवाद के खिलाफ किसी लड़ाई का नेतृत्व दे पा रही है ?
इसीलिये, सांप्रदायिकता के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की एकता में कांग्रेस को शामिल न करने के लिये ‘नवउदारवाद के खिलाफ लड़ाई’ का नारा वैसा ही है, जैसा रूस में क्रांति के ठीक बाद की परिस्थितियों में जर्मनी से पृथक शांति वार्ता का विरोध करने वालों ने ‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’ का नारा दिया था।

प्रकाश करात की बातों से लगता है जैसे वे अब भी सन् 1964 के समय के भारत में है, जिसमें कांग्रेस से लड़ाई ही सत्ता की किसी भी दूसरी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के अस्तित्व की शर्त थी। उन्होंने अपने प्रत्यत्तर में सीपीआई(एम) के गठन के साल 1964 को याद भी किया है। इन बावन सालों में गंगा से न जाने कितना पानी बह गया है। इस दौरान भारतीय वामपंथ ने भी अपने उत्थान और पतन के न जाने कितने दृश्य देख लिये हैं। और, एक कटु सच यह भी है कि इस दौर के राजनीतिक घटना-प्रवाह में आने वाले मोड़ के कई महत्वपूर्ण मौकों पर वामपंथ की राजनीति को पंगु बनाने में उनकी ऐसी ही कुछ असंगत क्रांतिकारी दलीलों की एक बड़ी भूमिका रही है। खास तौर पर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाये जाने के सवाल पर और फिर यूपीए-1 से समर्थन वापस लेने के प्रश्न पर तो यह पूरी तरह से साफ दिखाई दी थी।

वे कहते हैं, जो लोग कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं, वे सीपीआई(एम) के खिलाफ सैद्धांतिक हमला कर रहे हैं। लेकिन सचाई यह है कि विभिन्न अखबारों और चैनलों पर आज जो लोग भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ वामपंथ के समझौते में किसी प्रकार का अवसरवाद देख रहे हैं, वे अभी के शासन के हित को साध रहे होते हैं। लेनिन की शब्दावली में कहे तो वामपंथ के अंदर उठने वाली ऐसी चीजें ‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी के सामने आत्म-समर्पण की टुटपुंजिया मानसिकता की एक अभिव्यक्ति है। बार-बार दुहराई जाने वाली पुरानी कहानी। ’’ (one of the manifestations of the traces of the petty-bourgeois spirit is surrender to revolutionary phrases. This is an old story perennially new...”)

और जहां तक ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ के सांगठनिक सिद्धांत का सवाल है, प्रकाश करात इसका इस्तेमाल सीपीआई(एम) में अपने पक्ष में किसी पवित्र गाय की तरह करते रहते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बारे में लेनिन के इस कथन को कौन नहीं जानता कि कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसीप्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा। इसके बावजूद, प्रकाश करात का इस विषय पर मत किसी धर्माधिकारी के आवेश पूर्ण आदेश जैसा होता है। वे फतवा देते हैं कि ‘जनवादी केंद्रीयतावाद’ है तो कम्युनिस्ट पार्टी है, अन्यथा कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं है ! जो इसके अब तक के प्रयोग से पैदा हुई विकृतियों की बात करते हैं, उन्हें शुरू में ही बाहर का रास्ता बता दिया जाता है। कोरी ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का एक और खेल !

लेनिन ने 21 फरवरी 2018 के ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ शीर्षक अपनी इस टिप्पणी का अंत इन शब्दों से किया था कि हमें इससे लड़ना होगा ताकि कोई यह कटु सत्य न कह सके कि- ‘‘क्रांतिकारी युद्ध के बारे में क्रांतिकारी लफ्फाजी ने क्रांति को तबाह कर दिया।’’ (A revolutionary phrase about revolutionary war ruined the revolution.) उस समय जर्मनी के साथ शांति-संधि को एक ‘अश्लील संधि’ तक कहा गया था।

जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, सीपीआई(एम) ने पहले ही ऐसी क्रांतिकारी लफ्फाजी की भारी कीमत अदा की है। प्रकाश करात की बातों से लगता है कि अब फिर एक बार सीपीआई(एम) के कमजोर शरीर में इसी वायरस ने प्रहार करना शुरू कर दिया है। और, चूंकि उनके साथ अभी सीपीआई(एम) के अंदर का बहुमत है, इसीलिये उनके लहजे में सिर्फ क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं, क्रांतिकारी नौकरशाही का स्वर भी बोल रहा है। इरफान हबीब के स्तर के एक अत्यंत सम्मानित इतिहासकार द्वारा उठाये गये गंभीर सवालों का जवाब पार्टी के सचिव के बजाय प्रकाश करात का देना इस बात का संकेत है कि सीपीआई(एम) के अंदर पार्टी पर कब्जे की लड़ाई क्रमश: कितना उग्र रूप ले चुकी है। प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर सीपीआई(एम) के लोगों को प्रकाश करात की एक अनाधिकार धमकी भी है कि वे आगे से कहीं भी ऐसी नागवार बातें न करें !

यहां हम प्रकाश करात के प्रत्युत्तर का लिंक दे रहे हैं :

 http://peoplesdemocracy.in/2016/0724_pd/political-line-cpim-rejoinder-critics


शनिवार, 16 जुलाई 2016

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के पहले कदम पर एक विचार



अरुण माहेश्वरी



एक अर्से बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता के गंभीर दावेदार के रूप में पेश करने का एक सुचिंतित कदम उठाया है। शीला दीक्षित को अपने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करके प्रदेश के सारे समीकरणों के पुनर्विन्यास की संभावना पैदा कर दी है।

जातियों में बंटा भारतीय समाज और उसमें सभी जगहों पर प्रत्यक्ष दिखाई देता ब्राह्मणों का वर्चस्व इस समाज की हर कमी और बुराई के लिये स्वाभाविक तौर पर किसी का भी ध्यान ब्राह्मणों की ओर खींच लेता है। इससे कौन इंकार कर सकता है कि ब्राह्मणवाद समाज के एक सबसे वर्चस्वशाली तबके के संकीर्ण और पोंगापंथी सोच की, धार्मिक कर्मकांडों और अंध-विश्वासों की विचारधारा है। समाज का कठोर वर्ण-विभाजन, खास प्रकार का शुचिता बोध और छूआछूत की जैसी बीमारियां इसी की देन रही है। इसीलिये किसी भी प्रगतिशील और मानवतावादी इंसान के लिये यह हर लिहाज से त्याज्य और निंदनीय रहा है।

लेकिन, इसके साथ ही, यह भी उतना ही सच है कि भारतीय समाज ने अब तक जो भी, आधी-अधूरी ही सही, उपलब्धियां हासिल की है, उसमें एक समुदाय के तौर पर सबसे अधिक यदि किसी का अवदान रहा है तो वह ब्राह्मण समाज का ही है। अगर भारतीय ज्ञान-विज्ञान की दीर्घ, वैदिक ग्रंथों, ब्राह्मण ग्रंथों और औपनिषदिक दार्शनिक चिंतन की महान प्राचीन परंपरा को एक बार के लिये भूल भी जाते हैं, तब भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपने सामाजिक विशेषाधिकारों की बदौलत ही आजादी की लड़ाई के नेतृत्व और परवर्ती आधुनिकता की सामाजिक परिघटना में भी इस तबके की बहुत साफ और महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अंबेडकर का संविधान उसी कांग्रेस दल के नेतृत्व में लागू हुआ है जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण और सवर्ण तबकों के लोग रहे हैं। आरक्षण और दलितों के उत्थान और सशक्तीकरण की तमाम योजनाओं में आजादी की लड़ाई के नेतृत्व अर्थात कांग्रेस की भूमिका को कमतर बताना पूरी तरह से अनैतिहासिक होगा।

इसके विपरीत, हम भारत की आधुनिककालीन राजनीति में एक भिन्न धारा को भी देखते हैं, जिसे साफ तौर ब्राह्मणों की पूर्ण-वर्चस्वशाली, लोकतंत्र-विरोधी संरक्षणवादी पतनशील धारा कहा जा सकता है। इसका प्रतिनिधित्व सावरकर का हिंदू महासभा और हेडगवार-गोलवलकर का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) करते रहे हैं। इन्होंने भारतीय समाज में मौजूद तमाम कुसंस्कारों और ब्राह्मणों की प्रभुत्वशाली स्थिति को नये भारत में पूर्ण, एकाधिकारवादी राजनीतिक वर्चस्व में बदल देने का रास्ता अपनाया था। उन्होंने ब्राह्मणों को सामने रख कर इस्लाम के खिलाफ हिंदुत्व का नारा दिया और अंग्रेजों की मदद से अपने को आजाद भारत में सत्ता का प्रमुख दावेदार बनाने की कोशिश की थी। हिंदू महासभा और आरएसएस का ‘हिंदुत्व’ नये भारत में एक धर्म-आधारित और सवर्ण जातियों के पूर्ण वर्चस्वशाली तानाशाही राज्य और एक चरम संरक्षणवादी समाज को कायम करने का सिद्धांत रहा है जो आजादी की लड़ाई के दिनों में कांगे्रस के नेतृत्व के व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन के सामने कहीं टिक नहीं पाया था।

आजादी के बाद के इन सत्तर सालों में, कई नीतिगत और व्यवहारिक विफलताओं के चलते एक सत्ताधारी दल के रूप में कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती गई और दुर्भाग्य से उसके विकल्प में आजादी की लड़ाई की जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और सामाजिक न्यायवादी परंपरा से जुड़ी कोई ताकत बड़े रूप में सामने आने में विफल रही। कांग्रेस की कमजोरी से पैदा शून्य में ही भारतीय जनता पार्टी के रूप में उन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने अपना विस्तार किया है जो आजादी की लड़ाई में विपरीत छोर पर खड़ी थी। जनतंत्र, धर्म-निरपेक्षता और सामाजिक न्याय के विपरीत तानाशाही, धर्म-आधारित राज्य और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के छोर पर। भारतीय जनता पार्टी के इस बढ़ते हुए प्रभाव ने ब्राह्मण समाज के चरम संरक्षणवादी, मनुवादी और सांप्रदायिक तत्वों को बल पहुंचाया और उस ब्राह्मणवाद के वर्चस्व का खतरा पैदा हो गया जो हर प्रगतिशील और आधुनिक व्यक्ति के सामने सिर्फ निकृष्ट जातीय उत्पीड़न, उग्र सांप्रदायिकता और प्रेमचंद की शब्दावली में टकेपंथ, अर्थात प्रताड़ना और पिछड़ेपन का प्रतीक रहा है।

लेकिन, आज की राजनीतिक सचाई यह है कि भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव के मैदान में अपने को इस ब्राह्मणवाद के बदनुमा दाग से दूर रखना चाहता है। हिंदुत्व के जरिये जघन्य ब्राह्मणवाद को साधने वाला संघ परिवार भी जब चुनाव के मैदान में होता है, तब आबादी के पूरे विन्यास को देखते हुए प्रकट रूप में अपने को इससे दूर दिखाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में पिछड़ों, दलित, महादलितों आदि नाना प्रकार के जातिवादी समूहों को अपने साथ लाने में अमित शाह जितनी ताबड़तोड़ कोशिशों में लगे हुए है, ब्राह्मणों के वे उतना ही उदासीन सा रुख बनाये हुए हैं, क्योंकि वे यह मान कर चल रहे हैं कि ब्राह्मणों को तो कलंकित करके अब उन्होंने अपने सिवाय और कहीं जाने लायक छोड़ा ही नहीं है !

इस परिप्रेक्ष्य में शीला दीक्षित को लेकर उतरने के कांग्रेस के कदम को यदि हम देखें तो यह सीधे तौर पर एक ओर जहां कांग्रेस दल को उसके जनाधार की पुरानी ब्राह्मण-मुसलमान-दलित धुरी पर पुनर्जीवित करने की दिशा में पहला जरूरी कदम प्रतीत होता है, वहीं ब्राह्मण समुदाय के लिये अपने अतीत की प्रगतिशील और जागृत मस्तिष्क वाली गौरवशाली परंपरा को फिर से प्राप्त करने की दिशा में बढ़ने का रास्ता भी खोलता है। इससे उनके घृणित सांप्रदायिकता के दाग से मुक्त होने और अल्पसंख्यकों, दलितों तथा पिछड़ों की मुख्यधारा से जुड़ कर ताकत हासिल करने का रास्ता तैयार होगा।



आगे देखने की बात सिर्फ इतनी है कि अपने इस पहले सटीक कदम के बाद, उम्मीदवारों के चयन में ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों के बीच से अच्छे और समर्थ उम्मीदवारों के चयन और सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ तीव्र प्रचार अभियान चलाने में कांग्रेस दल कितना सफल रहता है। इस मामले में यदि दृढ़ता और पूरी निष्ठा के साथ वह लगता है, सांप्रदायिकता के खिलाफ आक्रामक प्रचार का रुख अपनाता है तो इसी अभियान के बीच से उसकी अपनी कई सांगठनिक कमजोरियां भी दूर होगी, जो आज उसके रास्ते की सबसे बड़ी कमजोरी लगती है। इसी प्रक्रिया के बीच से उसे आज के समय के और ज्यादा सक्षम और जागृत नौजवान कार्यकर्ताओं के समूह हासिल हो पायेंगे।  

बुधवार, 13 जुलाई 2016

ब्रेक्सिट का झूठा सच


अरुण माहेश्वरी



आज ही ब्रेक्सिट की कवर स्टोरी का ‘फ्रंटलाइन’ का नया अंक (22 जुलाई 2016) देखा। प्रभात पटनायक, जयति घोष, सी पी चन्द्रशेखर, शिव मुखर्जी, जॉन चेरियन , विजय प्रसाद, अतुल अनेजा के लेखों से सजा-धजा अंक।

इस विषय में ब्रिटेन में जनमतसंग्रह के पहले और बाद में भी ‘द इकोनोमिस्ट’ सहित दूसरे तमाम मंचों पर इसके बारे में चल रही बहसों को देखता रहा हूं। लंदन में इसके पक्ष में तारिक अली के बहुप्रचारित भाषण को भी यू ट्यूब के जरिये सुना था।




यूरोप एक लंबे काल से भारी आर्थिक गतिरोध में फंसा हुआ है, यह एक स्वयंसिद्ध सचाई है। इस गतिरोध का अपना एक इतिहास है। उद्योग और वाणिज्य के मामले में अमेरिका के उदय ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले ही यूरोप से विश्व अर्थव्यवस्था के नेतृत्व के स्थान को छीन लिया था। तब से लेकर आज तक अपने उपनिवेशों और वित्तीय पूंजी के बल पर यूरोप की पारंपरिक शान तो काफी हद तक बनी हुई है, लेकिन उसके मन-मस्तिष्क पर स्फूर्ति की जगह एक अवसाद लगातार गहरा होता जा रहा है। अमेरिका आज न सिर्फ उसकी ईष्र्या का विषय है, बल्कि वह आज यूरोपीय श्रेष्ठता और शान के रक्षक की भूमिका अदा कर रहा है। अमेरिकी हथियार ही सारी दुनिया में यूरोपीय वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा में सन्नद्ध हैं।

जिस राष्ट्रीय राज्य और राष्ट्रवाद के उदय को पूंजीवाद की विशेषता माना जाता है, वह स्वयं में एक यूरोपीय परिघटना है। इसे ही बाद में सारी दुनिया के नवोदित राष्ट्रों ने भी अपनाया। और, प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) तथा द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में यह राष्ट्रवाद यूरोप में ही अपने सबसे हिंस्र और खूनी रूप में सामने आया। इन दो युद्धों में अकेले यूरोप के लगभग सात करोड़ लोग मारे गये।

इस यूरोपीय हिंस्र राष्ट्रवाद के बावजूद एक दूसरी सचाई यह भी है कि उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में अमेरिका की चुनौती के सामने यूरोपीय देशों के बीच आपस में सहयोग करके चलने की भावना भी किसी न किसी रूप में वहां हमेशा से रही है। खास तौर पर प्रथम विश्वयुद्ध के धक्के के ठीक बाद वहां 1915 में संयुक्त राज्य अमेरिका की तर्ज पर संयुक्त राज्य यूरोप के गठन की बातों ने काफी जोर पकड़ा था। इसमें रूसी राजशाही के साथ ही जर्मनी और आस्ट्रिया की राजशाहियों ने पहल की थी।



हमें याद आती है लेनिन के उस लेख की जो उन्होंने ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ के उस नारे पर अगस्त 1915 में ‘Sotsial-Demokrat ’ अखबार में लिखा था। तब बोल्शेविक पार्टी में कुछ लोगों का कहना था कि जर्मन, आस्ट्रिया और रूसी राजशाहियों को क्रांति के जरिये उखाड़ फेंके बिना इस प्रकार का एकीकरण निरर्थक है। इसपर लेनिन ने लिखा था कि इस विषय का ऐसा राजनीतिक आकलन करना कि इससे समाजवादी क्रांति को कोई नुकसान पहुंचेगा, गलत है। ‘‘सच्चे अर्थो में जनवादी प्रकृति के राजनीतिक परिवर्तन कभी भी समाजवादी क्रांति को कमजोर नहीं कर सकते। बल्कि समाजवादी क्रांति के दौरान इस प्रकार की राजनीतिक क्रांतियां अपरिहार्य है जिसे एक अकेली कार्रवाई के बजाय तूफानी राजनीतिक उथल-पुथल...के रूप में देखना चाहिए।‘‘

इसके साथ ही लेनिन ने इस नारे के आर्थिक अंतर्य के महत्व को रेखांकित करते हुए उस लेख में कहा था कि साम्राज्यवाद के इस काल में ‘‘औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा पूंजी के निर्यात और संसार के विभाजन की पृष्ठभूमि में संयुक्त राज्य यूरोप या तो असंभव है या फिर प्रतिक्रियावादी है।’’

अपने इसी लेख में उन्होंने यह भी टिप्पणी की थी कि ‘‘इसे संभव मान कर सोचने का मतलब है अपने को उस पादरी के स्तर पर उतार लेना जो हर रविवार को अमीरों को ईसाई धर्म के उदात्त सिद्धांतों का उपदेश देता है और उन्हें गरीबों को कुछ अरब नहीं तो कम से कम कुछ सौ रूबल दान देने का परामर्श देता है।
‘‘पूंजीवाद के अन्तर्गत संयुक्त राज्य यूरोप उपनिवेशों के विभाजन के बारे में समझौते के बराबर है।...पूंजीपतियों के बीच और राज्यों के बीच अस्थायी समझौते निस्संदेह संभव हैं।...परंतु किस लिये? केवल यूरोप के समाजवाद को मिल कर कुचलने, जापान तथा संयुक्त राज्य अमेरिका से...उपनिवेशों के रूप में लूट के माल को मिल कर बचाने के लिए। संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में यूरोप समग्र रूप में आर्थिक गतिहीनता का द्योतक है। ...वह जमाना जब जनतंत्र का ध्येय और समाजवाद का ध्येय केवल यूरोप से जुड़ होता था, लद चुका है और कभी वापस नहीं लौटेगा।’’

बहरहाल, प्रथम विश्वयुद्ध और उसमें लगभग एक करोड़ लोगों को गंवाने के ठीक बाद की हताशा से यूरोप में जिस ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ के नारे का जन्म हुआ था, उसके भविष्य को हम सभी जानते हैं। उल्टे, यूरोप के कई कमजोर देशों की धुकधुकी को देख कर, हिटलर-मुसोलिनी ने एकीकरण के बजाय आपस में मिल कर यूरोप के बाकी देशों को हड़प लेने की आक्रामक योजना बनाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ जिसमें अकेले यूरोप में तकरीबन छ: करोड़ लोगों की जानें गई, पूरा यूरोप एक खंडहर में तब्दील होगया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से अब तक लगभग सत्तर साल बीत चुके हैं। प्रथम विश्वयुद्ध से खस्ताहाल यूरोप में ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ का नारा उठा और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध से बर्बाद हो चुके यूरोप में 1948 के बाद से ही यूरोप के एकीकरण की बातें और यूरोपीय देशों के बीच कई प्रकार की आपसी संधियों का सिलसिला शुरू होगया। इन सबको उग्र राष्ट्रवाद के एक विवेकसंगत ऐतिहासिक प्रत्युत्तर के तौर पर भी लिया गया। लेकिन लगभग पचास करोड़ की आबादी के 24 भाषाओं और दस से ज्यादा मुद्राओं वाले इस क्षेत्र में यूरोपियन यूनियन का गठन तभी साकार हुआ जब अमेरिका की मदद, ब्रेटनवुड संस्थाओं और ध्वस्त यूरोप के पुनर्निमाण की मार्शल योजना तथा मेनार्ड केन्स के रास्ते पर राज्य के निवेश को लगातार बढ़ा कर यूरोप फिर से खड़ा होगया और 1989 में बर्लिन की दीवार ढह गई, सोवियत संघ पराभूत हुआ।

सन् 1946 में ही चर्चिल ने ज्युरिख में यूरोप की ट्रेजेडी पर बोलते हुए संयुक्त राज्य यूरोप की बात उठाई थी और 1948 में पहली यूरोपीय कांग्रेस का आयोजन किया गया। इसके बाद लगातार नाना प्रकार के सहयोग की संधियों के अंत में 1991 में 28 देशों को मिला कर यूरोपियन यूनियन का गठन हुआ और 1992 की मैस्त्रिक संधि के दस साल बाद 2002 में यूरो मुद्रा का भी चलन शुरू हुआ। लेनिन के काल में जब यूरोप के एजेंडे पर समाजवादी क्रांति थी तब भी जो चीज संभव नहीं हुई, वह कुछ हद तक उस समय संभव हुई जब समाजवादी क्रांति का कोई खतरा न होने पर भी अपने अंदुरूनी कारणों से ही पूरे यूरोप में भारी मुर्दानगी छा गई थी।

लेकिन जैसा कि लेनिन ने 1915 में ही अपने अवलोकन में कहा था कि अब फिर कभी यूरोप के पुराने दिन लौटने वाले नहीं है, और इसप्रकार के प्रस्ताव पर अगर अमल भी हुआ तो वह एक प्रतिक्रियावादी कदम ही साबित होगा। यूरोपियन यूनियन यूरोप के आर्थिक गतिरोध का कोई निदान साबित नहीं हुआ। इससे आम जनजीवन प्रभावित होने लगा। ऊपर से 2008 के विश्व-व्यापी आर्थिक संकट के बाद 2010 से यूरोप के एक-एक देश में सर उठा रहे कर्ज के संकट, मध्यपूर्व से आने वाले शरणार्थियों के संकट की तरह की परिस्थितियों ने नये प्रकार के राजनीतिक संकटों और अपनी परिस्थितियों से नाराज लोगों में ‘अन्यों’ में अपने शत्रु के तलाश के उग्र-राष्ट्रवाद की जमीन तैयार करनी शुरू कर दी। जगह-जगह हत्यारे नव-फासीवादी गिरोहों के साथ ही फ्रांस की ली पेन की तरह की उग्र ताकतें यूरोपीय राजनीति के केंद्र में आती दिखाई देने लगी।

‘द इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के बारे में चलाये गये पूरे अभियान को अपने ताजा अंक ( 2-8 जुलाई 2016) में ‘आक्रोश की राजनीति’ (The politics of anger) बताया है। ‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि जिन तमाम लोगों ने ब्रेक्सिट के पक्ष में अभियान चलाया उन्होंने आम लोगों को उनकी जिंदमी में सुधार के अनेक प्रकार के झूठे सब्जबाग दिखाये हैं। ‘‘मतदान को देखने से पता चलता है कि आप्रवासन, वैश्वीकरण, सामाजिक उदारतावाद और यहां तक कि स्त्रीवाद के खिलाफ आक्रोश यूरोपियन यूनियन को ठुकराने के मत में बदल गया।’’

‘फ्रंटलाइन’ में प्रभात पटनायक ने इस परिणाम पर अपने लेख ‘A stone at a hornets’ nest’ में अपनी स्वभावसिद्ध सैद्धांतीकरण की भंगिमा में जनता के इसी कथित गुस्से को, जिसे मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक ने ‘मिथ्या चेतना’ कहा है, जायज बताते हुए जार्ज लुकाच की पंक्ति को उद्धृत किया है कि इस मिथ्या चेतना में भी सत्य का अंश तो है ही। दुर्भाग्य से वामपंथ ने इसे नहीं देखा। (even such “false consciousness” also has an element of “truth” in it.The Left, sadly, did not look for this “truth”)

क्या कहेंगे, प्रभात के इस ‘मिथ्या चेतना में सत्य के निवास’ वाले कथन को ! यही तो है जिसे कहते हैं इतिहास में विचार पर अमल के किसी भी क्षुद्र ठोस रूप से पैदा होने वाली विचारशून्यता की अंधेरी खाई ! इसकी भंवर में फंस चुके आदमी का निस्तार मुश्किल होता है। ‘आक्रोश’ की अभिव्यक्ति के ‘ट्रम्प रूप’ से पैदा होने वाली विचारशून्यता की खाई !  हिटलर ने भी एक ‘आक्रोश’ को ही काम में लगाया था। वार्साई संधि के द्वारा जर्मन राष्ट्र को ठगे जाने की मिथ्याचेतना से पैदा हुए आक्रोश को। लेनिन ने कहा था कि संयुक्त राज्य यूरोप का बनना औपनिवेशिक लूट-खसोट के स्वार्थों के चलते मुमकिन नहीं है। और, अब आज दावा किया जा रहा है, यह मुमकिन नहीं है आम जनता की मिथ्या चेतना के चलते, उसके अंदर के उदारवाद-विरोधी सोच और आक्रोश के चलते !

प्रभात की ‘आक्रोश की मिथ्या चेतना में सत्य के निवास’ की बात से ब्रह्म-सूत्र के शांकर भाष्य की यह बात याद आती है कि ‘‘यह विश्व ब्रह्म रूप है, अत: यही कार्यरूपेण अनेक नामरूपों में अवस्थित होता है।’’ अस्तित्व और चेतना के हर रूप में ही तो ब्रह्म-सत्य का निवास है, फिर क्या सच और क्या झूठ !

प्रभात इस पूरे घटनाक्रम को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय इससे एक प्रकार का परपीड़क आनंद भी लेते दिखाई देते हैं, जब कहते हैं कि ब्रिटेन की जनता की यह आत्मचेतना-विहीन (un-self-conscious ) क्रांति विश्वपूंजीवाद के संकट को बढ़ायेगी और दूसरे देशों को भी इस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देगी। वे बड़ी आसानी से यह देखना भूल जाते हैं कि यह ली पेन, नाइजेल फेराज, बोरिस जान्सन और ट्रम्प जैसों के बर्बर पूंजीवाद के रास्ते को प्रशस्त करेगी। जैसे कोई कहे कि भारत में जम रहे ‘आक्रोश के सत्य’ का लाभ मोदी और आरएसएस को लेने दिया जाए ताकि इससे भारतीय पूंजीवाद का संकट और ज्यादा घना हो जाए !



कहना न होगा, प्रभात का नजरिया एक प्रकार का सजावटी ‘संरक्षणवादी क्रांतिकारिता’ है, जो वास्तव में अपनी चमक को खो चुकी है और इसकी तुलना में परंपरागत गतानुगतिकता कहीं ज्यादा चुनौती भरी और रोमांचकारी दिखाई देती है।

लेनिन ने 1915 में इस सत्य को नोट किया था कि पूंजी अंतरराष्ट्रीय और इजारेदाराना हो चुकी है। आज इस अन्तरराष्ट्रीय समस्या का समाधान किसी भी प्रकार के राष्ट्रीय राज्य के तर्क पर खोजना ही अपने आप में प्रतिक्रियावाद है। खास तौर पर तब तो और भी जब कोई वामपंथी-समाजवादी विकल्प क्षितिज में नहीं दिखाई दे रहा है। जिजेक ने इस ब्रिटिश राय को कि यूरोपियन यूनियन को उसकी नियति पर छोड़ दिया जाए, बिल्कुल सही वैश्विक समस्याओं के युग में एक गलत काल के तर्क को अपनाना कहा है।

प्रभात के बजाय जयति घोष ने ‘फ्रंटलाइन’ के अपने लेख में बिल्कुल सही कहा है कि ‘‘यूरोपियन यूनियन का अपने खुद के अंतर्विरोधों के भार से गिर जाना सचमुच दुखांतकारी होगा जो राष्ट्रीय नव-उदारवाद के क्षुद्र और अज्ञात-भयजनित रूपों के लिये जगह छोड़ेगा क्योंकि वे ही नव-उदारवादी आर्थिक एकीकरण के अभी सबसे ताकतवर विकल्प बने हुए हैं।

ब्रेक्सिट पर ब्रिटेन की राय में हमें तो जनतांत्रिक तत्व का जरा भी नामो-निशान नहीं दिखाई देता है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि कैमरन की जगह अब थिरीसा मे ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बन गई है। जिजेक के शब्दों में कहे तो इसप्रकार के दिशाहीन उन्मादित आक्रोश की अभिव्यक्ति के दूसरे दिन क्या ? - यह प्रश्न ही आज सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।



बहरहाल, इस विषय पर ‘इकोनोमिस्ट’ की उपरोक्त टिप्पणी का अंत इस घटना के बयान से किया गया है कि ‘‘थैचर जब प्रधानमंत्री थी, उसी समय सोवियत के पतन की विजय के बीच उनके एक सहयोगी ने इतिहास के बारे में फुकुयामा के निबंध को उन्हें दिया। दूसरे दिन सुबह थैचर ने कहा कि वे इस निबंध से प्रभावित नहीं हुई हैं। उन्होंने कहा कि इतिहास को ऐसे ही हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए। कभी भी चीजों को छोड़ना नहीं चाहिए।’’ ‘इकोनोमिस्ट’ उदारवादियों से कहता है कि आज उसी नजरिये को अपनाने की जरूरत है।

(13.07.2016)


मंगलवार, 12 जुलाई 2016

पाब्लो नेरुदा






आज पाब्लो नेरुदा का 113वां जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए हम यहां अपनी किताबपाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनियाका एक अध्याय यहां मित्रों से साझा कर रहे हैं जिसमें उनके बर्मा के राजदूत के दिनों के अनुभवों पर चर्चा की गई है -


पूरब का विषाद

1927 में वे पूरब की यात्रा पर निकले और यात्रा के कई खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ वे रंगून पंहुचे। पैरिस के मार्सिलेस बंदरगाह से जिबोती, शंघाई, याकोहामा, टोक्यो, सिंगापुर होते हुए वे रंगून के इरावती के बंदरगाह पर पंहुचे।  नेरुदा ने इसके बाद की पूरब की अपनी यात्रा के अनुभवों कोमेमायर्सके जिस अध्याय में लिखा है, उसका शीर्षक है : चमकदार अकेलापन।

नेरूदा ने पूरब की अपनी यात्रा पर जिसप्रकार के स्वरों में चर्चा की है, उससे सभी उनके इन पांच वर्षों को उनके जीवन के दुखभरे पांच वर्ष बताते हैं जब वे विदेश की धरती पर एक बहुत ही हिंसक किस्म की सामाजिक परिस्थितियों के साथ किसी प्रकार का कोई सामंजस्य नहीं बैठा पाये थे। वे तत्कालीन औपनिवेशिक शासकों की पांत में शामिल हो पाते थे और नहीं वे नेटिव जनता के जीवन से ही जुड़ पाये थे।

एक कौंसुल के रूप में रंगून में नेरूदा के पास नहीं के बराबर काम रहता था। जब कभी तीन महीने में एक बार कलकत्ता बंदरगाह से कोई जहाज मोम अथवा चाय के बक्से लेकर चीले के लिये रवाना होता था, तभी कुछ कागजातों को देख लेने के लिये उनकी जरूरत पड़ती थी। नेरूदा नेमेमायर्समें लिखा है कि इसके बाद के बिना किसी काम के तीन महीने बाजारों और मंदिरों में अकेले अपने में ही खोये हुए महीनें हुआ करते थे। मेरी कविता के लिये यह सबसे अधिक पीड़ादायी काल रहा है।

नेरूदा तब दिन-दिन भर सड़कों पर घूमते रहते थे। उन्होंने लिखा है कि सड़के ही उनका धर्म बन गयी थी। जाति व्यवस्था ने भारतीय जनता को जैसे एक दूसरे पर आरोपित समांतर षटफलकोें की दीर्घाओं में बांट कर रखा था जिसके शीर्ष पर ईश्वर विराजमान था। दूसरी ओर, अंग्रेजों की अपनी वर्ण व्यवस्था थी जो छोटी दुकानों के क्लर्क से शुरू होकर पेशेवरों और बुद्धिजीवियों तक, और निर्यातकों तक प्रसारित थी और इस व्यवस्था की बगीचे वाली छत पर साम्राज्य के सिविल सर्विस के लोग, बैंकर आराम फरमाया करते थे।

नेरूदा ने लिखा है कि ये दो विश्व कभी एक दूसरे के संपर्क में नहीं आते थे। अंग्रेजों के लिये सुरक्षित स्थानों पर नेटिव्स को अनुमति नहीं थी, और अंग्रेज उस देश की धड़कनों से दूर रहा करते थे। उनके लिये यह एक बेहद असहनीय परिस्थिति थी।  उनके अंग्रेज दोस्त चेतावनी के स्वर में उनसे आम लोगों से दूरी बनाये रखने केे लिये कहते थे और नेरूदा सोचते थे कि आखिरकार मैं पूरब में इन अस्थायी औपनिवेशिकों के साथ जीवन बिताने के लिये तो नहीं आया हूं , बल्कि इस विश्व की प्राचीन आत्मिकता के साथ, इस अभागे मानव परिवार के साथ दिन गुजारने के लिये आया हूं।

नेरूदा आगे लिखते हैं कि मैं वहां के आम लोगों की आत्मा और जीवन में इतने गहरे तक चला गया था कि मैं एक नेटिव लड़की को अपना दिल दे बैठा। सड़कों पर वह अंग्रेज औरतों का लिबास पहनती थी और अपना नाम जोसी ब्लिस बताती थी, लेकिन अपने घर में, जिसे मैंने जल्द ही जान लिया, वह उन कपड़ों और उस नाम को उतार कर अपना चमकदार सारोंग पहन लेती थी और अपना गुप्त बर्मी नाम रख लेती थी।

नेरूदा ने जोसी ब्लिस के साथ काफी दिन बिताये, लेकिन उसके साथ के अंतिम दिन नेरूदा के लिये बेहद तनाव और दुख के दिन होगये थे।मेमायर्समें नेरूदा ने इसका इन शब्दों में बयान किया है :
प्यारी जोसी ब्लिस क्रमश: इतनी छायी रहने वाली और अधिकारवादी होगयी थी कि उसकी ईष्‍​र्यालू बदमिजाजी ने एक बीमारी का रूप ले लिया। यदि ऐसा नहीं होता तो संभवत: मैं उसके साथ सारी जिंदगी गुजारता। ...विदेशों से मेरे नाम आने वाले पत्रों को देख कर वह ईष्‍​र्या करती थी और लाल-पीली हो जाती थी, मेेरे तारों को बिना खोले छिपा देती थी। ...कभी-कभी रोशनी से मैं जग जाता था और अपनी मच्छरदानी के दूसरी ओर किसी भूत को घूमते हुए देखता था। सफेद कपड़ों में अपना धारदार लंबा देशी चाकू चमकाती हुई वही हुआ करती थी। ... वह मुझे मार कर ही चूकती। सौभाग्य से मुझे सीलोन में ट्रांसफर का नोटिश आगया। मैंने अपने जाने की गुप्त तैयारियां की और एक दिन, अपने कपड़ों और किताबों को पीछे रख कर मैं हर दिन की तरह घर से निकला और उस जहाज पर बैठ गया जो मुझे वहां से दूर ले जायेगा।

मैं जोसी ब्लिस, एक प्रकार की बर्मी बाघिनी को गहरी पीड़ा के साथ छोड़ रहा था।

नेरूदा को जोसी ब्लिस और उसके साथ बिताये गये तनाव और उत्तेजना के दिनों की की याद हमेशा आती रही। वर्षों बाद उन्होंने उसे स्मरण करते हुए दो कविताएं लिखी।प्रणय :जोसी ब्लिस(1) औरप्रणय : जोशी ब्लिस (2) इन कविताओं में अपने उन दिनों के अनुभवों को नेरूदा ने किस प्रकार व्यक्त किया है, यह देखना थोड़ा दिलचस्प होगा। पहली कविता का प्रारंभ ही वे इस सवाल से करते हैं:

क्या हुआ उस प्रचण्ड क्षोभ वाली का?
और अंत इस बात से करते है :
सम्भव है, अब वह
रंगून के विशाल कब्रीस्तान के बीच
बेचैन आराम करती है,
या सम्भव है कि लोगों ने उसका तन, सारी शाम,
इरावती के तट पर जलाया हो, जबकि नदी
अपनी मर्मर ध्वनि में
वें बाते कहती रही, जिन्हें मैंने उसे आंसुओं में कहा होता।
इसी प्रकार दूसरी कविता का प्रारंभ इस प्रकार है:
हां, उन दिनों के लिए
बेशक, गुलाब है व्यर्थ। कुछ भी नहीं,
एक आरक्त जिा के सिवा
उपजता था,
आग जो दफ्न ग्रीष्म से,
उसी पुराने सूरज से बरसती थी।

मैं उस परित्यक्ता से दूर भागा।

पकड़ से बचते हुए एक नाविक की तरह भागा

नेरूदा के श्रीलंका प्रवास के समय जोसी ब्लिस अचानक एक बार फिर उनके घर पहंुच गयी थी। नेरूदा के शब्दों में बिना किसी चेतावनी के मेरे बर्मी प्यार, प्रचंड जोेसी ब्लिस ने मेरे घर के सामने खेमा गाड़ दिया। वह इतनी दूर के देश से वहां गयी थी। उसकी पीठ पर चावल का बोरा लदा हुआ था जैसे यह मानती हो कि रंगून के अलावा और कही चावल पैदा नहीं किया जाता। वह हमारी पसंदीदा पॉल राब्सन का रेकर्ड और एक लंबी, समेटी हुई चटाई भी लायी थी। ...उसे घर में घुसने दू, इसका मैं साहस नहीं कर सका। वह मोहब्बत की मारी आतंकवादी थी, कुछ भी कर सकती थी।

अंत में एक दिन उसने चले जाने का मन बनाया। उसने मुझसे जहाज तक साथ चलने की विनती की। जब जहाज का लंगर उठाया जाने लगा और मुझे अब किनारे से दूर चला जाना चाहिये था, तभी वह शोक और प्यार के आवेग में अपने इर्द-गिर्द के सारे यात्रियों को धकेलते हुए आयी, मेरे चेहरे को चुंबनों से ढक दिया और मुझे अपने आंसुओं से नहा दिया। उसने किसी कर्मकांड की तरह मेरी बाहों को चूमा, मेरे कोट को चूूमा और मैं उसे रोकू, इसके पहले ही वह मेरे जूतों पर गिर गयी। जब वह खड़ी हुई तब उसके पूरे चेहरे पर आटे की तरह मेरे सफेद जूतों की चाक-पालिस पुती हुई थी। मैं उसे यात्रा पर जाने, हमेशा के लिये चले जाने के बजाय जहाज को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिये नहीं कह सका। मेरे विवेक ने मुझे ऐसा करने से रोका, लेकिन मेरे हृदय पर गहरा जख्म लगा जो आज भी मेरा हिस्सा बना हुआ है। वह अनियंत्रित शोक, उसके चॉक से पुते चेहरे पर से ढुलक रहे वे विकट आंसू आज भी मेरी स्मृति में ताजा है।

पूरब में बिताये गये इन पांच वर्षों में नेरूदा कई मर्तबा भारत की यात्रा पर आये। कोलकाता में तब उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक अधिवेशन में भी शिरकत की जहां उनकी मुलाकात महात्मा गांधी, पंडित मोतीलाल नेहरू और उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू से हुई। उस समय नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता की बात कर रहे थे, जबकि गांधी पहले कदम के रूप में सिर्फ स्वायत्तता की मांग उठा रहे थे। नेरूदा ने गांधी को एकचालाक लोमड़ी’, व्यवहारिक व्यक्ति, चतुर रणनीतिकार और कभी थकने वाला व्यक्ति कहा है। नेहरू को कांग्रेस की क्रांति का एक बुद्धिमान प्रणेता बताया है। नेरूदा ने वहां सुभाष चंद्र बोस को भी देखा था। कोलकाता में उन्होंने रवीन्द्रनाथ से भी मिलने की कोशिश की थी, लेकिन शहर में होने के कारण उनसे मुलाकात नहीं कर पाये। इसके अलावा इसी काल में उन्होंने मुंबई तथा भारत के अन्य शहरों की यात्रा भी की।

पूरब की इस यात्रा के दौरान ही नेरूदा श्रीलंका के कोलंबो में, इंडोनेशिया के जावा और सिंगापुर में रहे।
खुद नेरूदा ने अपनी पूरब की इस यात्रा की स्मृतियाें के बारे में बाद में जो कविताएं लिखी उनमें से कुछ उनके संकलन ‘The Moon in the Labyrinth ’(भूलभुलैया में चांद) में प्रकाशित हुई है जिसका हिंदी में चंद्रबली सिंह ने अपनेपाब्लो नेरूदा कविता संचयनमें अनुवाद किया है। यहां ऐसी कुछ कविताओं के अंशों पर गौर करना मुनासिब होगा, ताकि इस काल के उनके अनुभवों को ज्यादा समग्रता में देखा जा सके।

इनमें एक कविता है : ‘आरंभिक यात्राएं

पहली बार जब मैंने सागर की यात्रा की, मैं अन्तहीन रहा,
मैं सारी दुनिया से उम्र में छोटा था।
और तट पर मेरा स्वागत करने को
विश्व की अनंत टनटनाहट उठी।

मुझे दुनिया में होने का बोध नहीं था।
मेरी आस्था दफ़्न मीनार में थी।
बहुत कम में मैंने बहुत ज्यादा चीजें पायीं थीं,
...
और तब मैंने समझा कि नग्न हूं,
मुझे और कपड़ों से ढंकने की जरूरत है।
मैंने कभी गंभीरता से जूतों के बारे में नहीं सोचा था।
मेरे पास बोलने के लिये भाषाएं नहीं थीं।
सिर्फ खुद की किताब ही पढ़ सकता था।
...
दुनिया औरतों से भरी पड़ी थी,
किसी दुकान की शीशों की खिड़की में लदे सामानों-सी
...
मैंने सीखा कि वीनस कोई दंतकथा नहीं थी।
निश्चित और दृढ़ वह थी, अपनी शाश्वत दो भुजाओं के साथ,
और उसके कठोर मुक्ताफल ने
मेरी लैंगिक लोलुप धृष्टता सह ली।

अन्य कविता है - ‘पूरब में अफीम

सिंगापुर से आगे, अफ़ीम की गंध आने लगी।
ईमानदार अंग्रेज इसे अच्छी तरह जानता था।
जेनेवा में वह इसका छिपकर व्यापार करनेवालों की
निंदा करता था,
लेकिन उपनिवेशों में हर बंदरगाह
कानूनी धूएं के बादल उठाता था।
...
मैंने चारो ओर देखा। दयनीय शिकार
दास, रिक्शों और बागानों से आये कुली,
बेजान लदुआ घोडे़,
सड़क के कुत्ते,
दीन दुष्प्रयुक्त जन।
यहां, अपने घावों के बाद,
मानव नहीं बल्कि पांव होने के बाद,
मानव नहीं बल्कि लदुआ पशु होने के बाद,
चलते-चलते और पसीना बहाते-बहाते रहने के बाद,
ख़्ाून का पसीना बहाने, आत्मा से रिक्त होने के बाद,
वहां पड़े थे,
...अकेले,
पसरे हुए,
अंत में लेटे हुए, वे कठोर पांवों के लोग।
हरेक ने भूख का विनिमय
आनंद के एक धुंधले अधिकार के लिये किया था। 

इन्हीं अनुभवों की एक और कविता है - ‘रंगून 1927’

रंगून मैं देर कर आया।
हर चीज वहां पहले से ही थी -
रक्त का,
स्वप्नों और स्वर्ण का,
एक नगर,
एक नदी जो
पाशविक जंगल से
घुटन भरे नगर में
और उसकी कुष्ठग्रस्त सड़कों पर प्रवाहित थी।
श्वेतों के लिये एक श्वेत होटल
और सुनहरे लोगों के लिए स्वर्ण का एक पैगोडा था।
यही था जो
चलता था
और नहीं चलता था। ...