गुरुवार, 29 सितंबर 2016

आतंकवाद, कश्मीर और इस्लाम

-अरुण माहेश्वरी

हम चाहे, न चाहे, आतंकवादियों से निपटना तो होगा ही । उन्हें जो मन में आए करने की अनुमति नहीं दी जा सकती । इसीलिये सीमा पर भारतीय सेना ने उनके खिलाफ जो कार्रवाई की है, उससे पाकिस्तान सहित किसी के भी ख़फ़ा होने का कोई कारण नहीं होना चाहिए ।

यदि यह मान लिया जाए कि आतंकवाद का यह मसला किसी न किसी रूप में कश्मीर की मूल समस्या से जुड़ा हुआ है, तब कहना होगा कि समय आ गया है जब कश्मीर के पूरे सवाल पर सभी जनतांत्रिक ताक़तों की दृष्टि साफ़ हो ।

कश्मीर समस्या का समाधान कभी भी उसकी आज़ादी नहीं हो सकता है । अगर कश्मीर के लिये ऐसा कोई समाधान हो सकता है, तो वह किसी न किसी प्रकार से भारत के दूसरे सभी राज्यों पर क्यों नहीं लागू होना चाहिए ?

क्या सिर्फ एक वजह से कश्मीर के विषय को भिन्न माना जा सकता है कि वहाँ मुसलमानों का बहुमत है, जो देश के दूसरे हिस्सों में अल्पमत में हैं ?

अगर इस प्रकार सोचा जाने लगा तो हम अपने को फिर एक बार सत्तर साल पहले की, 1947 की स्थिति में ले जायेंगे । और हमारा अब तक का अनुभव यही है कि बँटवारा इस उप-महादेश की समस्याओं का एक पूरी तरह से विफल समाधान साबित हुआ है । तब आगे कैसे कोई इसकी सफलता की कल्पना भी कर सकता है ?

दुनिया के हालात को देखते हुए, इसमें कोई शक नहीं है कि कश्मीर को आज़ाद करने का मतलब होगा उसे मुल्ला-मौलवियों के हाथ में सौंपना । वहाँ एक इस्लामिक क्रांति के लिये जमीन तैयार करना । सारी दुनिया के मज़हबी उग्रवादी उस पर ताक लगाए बैठे हैं ।

इस्लामिक क्रांति का अनुभव भी सारी दुनिया को है । ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में इसके क्या परिणाम निकले हैं ? ईरान में आज भी, सैंतीस साल से लगातार एक कथित इस्लामिक शासन चल रहा है । जिस साम्राज्यवाद-विरोध के नाम पर उसका सूत्रपात हुआ था, आज उसी शैतान अमेरिका से हर प्रकार का समझौता करने के लिये ईरान आकुल-व्याकुल है । शाह के भ्रष्ट और तानाशाही शासन का परिणाम वहाँ ख़ुमैनी की और भी उग्र और हिंसक तानाशाही के रूप में सामने आया । इस कथित क्रांति से वहाँ की जनता ने अपने जीवन में क्या नया हासिल किया, जो अन्यत्र कहीं हासिल नहीं हुआ है ? लेकिन उन्होंने प्रकट रूप में अपने जीवन की बहुत सारी आज़ादियों को जरूर गँवा दिया । ईरान की इस्लामिक क्रांति आम लोगों की राजनीतिक और जनतांत्रिक आज़ादी की सभी संभावनाओं को कुचल कर वहां हज़ारों साल तक अपने प्रभुत्व को बनाये रखने का सपना पाले हुए है ।

यह आम तौर पर देखा जाता है कि धर्म मूलत: एक सामंती पुंसवादी वर्चस्व की विचारधारा होने के नाते जब और जहाँ भी शासन में उसका पलड़ा भारी होता है, स्त्रियों को उसकी भारी क़ीमत अदा करनी पड़ती है । राजनीतिक ताक़त के रूप में वह स्त्रियों के मानवोचित अधिकारों के हनन के ज़रिये ही अपने को चरितार्थ करता है ।

गहराई से देखा जाए तो पिछली सदी ने क्रांति की उस पूरी अवधारणा को एक विफल अवधारणा साबित किया है जिसके ज़रिये सत्ता को मुट्ठी भर लोगों के समूह में स्थाई तौर पर सीमित करने की योजना बनाई जाती है । सत्ता को पूरी तरह से अपने हाथ में संकेंद्रित करके विश्व विजय की ऐसी अवधारणाओं के ही सबसे बदतर उदाहरण हिटलर-मुसोलिनी रहे हैं । इस्लामिक क्रांति भी एक वैसी ही भ्रांति है ।

इसीलिये कश्मीर को किसी 'विश्व इस्लामिक क्रांति' का निहत्था शिकार बना कर छोड़ना उसकी किसी समस्या का समाधान नहीं हैं । देश के सभी जनतांत्रिक लोगों को कश्मीर में अधिकतम स्वायत्तता के साथ जनतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर बल देना चाहिए । कश्मीर के लोगों का भाग्य भारत के अन्य हिस्सों के लोगों के भाग्य के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । कश्मीर में जनतंत्र और न्याय की सुरक्षा ही देश के दूसरे हिस्सों में भी जनतंत्र और न्याय को बल पहुँचायेगी । 

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

‘सूत्रारूढ़’ सोच की हास्यास्पदता

- अरुण माहेश्वरी

आज प्रकाश करात के 6 सितंबर 2016 के इंडियन एक्सप्रेस वाले लेख Know your Enemy के बारे में सोच कर अचानक ही हंसते-हंसते पेट फटने लगा था। उन्होंने इसमें लिखा था - ‘‘The classic definition of fascism leaves no room for ambiguity: Fascism in power is “the open terrorist dictatorship of the most reactionary, most chauvinistic and most imperialist elements of finance capital.”

अर्थात ‘‘फासीवाद की शास्त्रीय परिभाषा में किसी प्रकार की अस्पष्टता की गुंजाइश नहीं है : सत्तासीन फासीवाद ‘‘ वित्तीय पूंजी की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक अंधराष्ट्रवादी और सबसे अधिक साम्राज्यवादी खुली आतंकवादी तानाशाही है।’’

हम फासीवाद संबंधी इस पूरे विमर्श से परिचित है, इसलिये इसे पढ़ पा रहे हैं। लेकिन हम सोच रहे थे कि जो तमाम लोग (कह सकते हैं भारत के 99.99 प्रतिशत लोग) इन विषयों पर पुरानी मार्क्सवादी बहसों से परिचित नहीं है, उनको प्रकाश करात द्वारा उद्धृत यह ‘शास्त्रीय परिभाषा’ कैसी लगती होगी ?

पूरे देश में सांप्रदायिक अन्धराष्ट्रवादी उन्माद फैल रहा है, जो नाना रूपों में दिखाई देने लगा है। यह स्थिति अपने आप में कितनी भी कठिन क्यों न हो, इसपर विचार की शुरूआत किसी अंतिम सत्य के ज्ञान में सिर गाड़े शुतुरमुर्गी मुद्रा से नहीं हो सकती है। ऐसी परिघटनाओं के बारे में कोई भी पूर्व-ज्ञान स्थिति की गहराई में पैठने में हमें निदेशित नहीं कर सकता। अगर सच को जानना है तो बिल्कुल शून्य की स्थिति से आपको शुरू करना होगा। भारत में इस सांप्रदायिक फासीवादी ताकत के जन्म और उदय के पूरे इतिहास को समझना होगा।

इन परिस्थितियों में कोरी सैद्धांतिक समझ किसी कनस्तर की तरह की होती है। वह भले जोर से बजता दिखाई दे, लेकिन वह खोखला होता है जो कोई दिशा-निदेश नहीं कर सकता। सत्य के बारे में बिल्कुल सही कहा गया है कि उसकी प्रकृति ही हमेशा ज्ञान में एक छेद करने की होती है। अर्थात जब सत्य और ज्ञान की जुगलबंदी होती है तो कोई भी चीज निश्चित नहीं रह जाती है, क्योंकि किसी भी सच का कोई अंत नहीं होता है। हर विषय की अपनी कुछ जन्मजात नैसर्गिकता होती है, जैसे आरएसएस की भी है। वह खास स्थानीयता के साथ अपने को विभिन्न रूपों में प्रकट करती है। इसीसे उसके अन्तर्निहित सत्य और अभी की वास्तविकता के बीच का फर्क जाहिर होता है। उसकी वर्तमान वास्तविकता को कभी भी उसके अंतिम सत्य संबंधी समझ की तेज रोशनी में डाल कर धुंधला करके सिवाय भ्रमों के और कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है।

प्रकाश करात की इस प्रकार की बीजेपी के बारे में सूत्रारूढ़ समझ को देख कर हमें करपात्री जी महराज के खंडन-मंडन की याद आ जाती है। उनका दो खंडों में लगभग 2300 पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ है - ‘वेदार्थपारिजात:’। खंडन-मंडन की शास्त्रीय परंपरा का ग्रंथ। इसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा है - ‘दयानंदमतखंडनम्’। अर्थात दयानंद सरस्वती के मत का खंडन। इसका मैं एक छोटा सा उदाहरण देता हूं (वैसे इस ग्रंथ में ऐसे हजारों उदाहरण भरे हुए हैं )। इसमें करपात्री जी ‘यागो में प्रकृति-विकृतिविचार’ के अन्तर्गत सांख्यमत के एक अनुयायी लेखक से विवाद करते हुए सख्ती के साथ कहा कि मीमांसकों ने कहीं भी प्रकृति के बारे में यह नहीं कहा है कि ‘‘यत्र कृत्त्सनं क्रियाकलापमुच्यते सा प्रकृति’’ बल्कि ‘‘मीमांसकों ने ‘यत्र समाग्राङगोपदेश: सा प्रकृति:’ यह प्रकृति का लक्षण किया है। इसी लक्षण का  परिष्कृतरूप यह होगा - जो पदार्थ, जिस प्रकार के उपकार के द्वारा जिसका अंग हुआ है, उसके सम्बन्धि के रूप में उसी प्रकार के उपकार के द्वारा उस पदार्थ में अन्यांगत्व बोधकप्रमाण को अतिदेश कहा गया है। तथाहि - जैसे प्रयाज-अनुयाजादि पर अदृष्ट उपकार और दृष्टार्थों पर दुष्ट उपकार के पदार्थ, अदृष्टार्थों द्वारा आग्नेयादि के अंग रूप में अवधारित हुआ है, अत: उस...’’(पृष्ठ - 2095)

‘प्रकृति के लक्षणों की करपात्री जी महाराज की इस ‘सूत्रारूढ़’ व्याख्या को पढ़ कर आपको कैसा लगा ?

बस प्रकाश की ‘‘ वित्तीय पूंजी की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक अंधराष्ट्रवादी और सबसे अधिक साम्राज्यवादी खुली आतंकवादी तानाशाही” की बात को भी इस मौके पर सुन कर हमें कुछ वैसा ही लगा था, और हमारी हंसी फूट पड़ी !

जड़सूत्रवाद, वह वेदांतियों का हो या मार्क्सवादियों का, हमेशा सचमुच इतना ही हास्यास्पद होता है !





सोमवार, 19 सितंबर 2016

पागलों की या अपराधियों की मजलिस !


आज अर्नब की मजलिस खूब जमी हुई लग रही थी। भारतीय टेलिविजन में यह एक ऐसी मजलिस होती है जिसमें शामिल होने वाला हर शख्स लगता है जैसे अपने जीवन के सामान्य व्यवहार को भूल कर भारी उन्माद की दशा में पहुंच जाता है। महानगरों के बड़े-बड़े काम्प्लेक्सों और सबसे कुलीन इलाकों के इन निवासियों को उनके पड़ौस के लोग जितने सभ्य रूप में देखने के अभ्यस्त होते हैं, वे निश्चित तौर पर इस चैनल पर इनके चीखते-चिल्लाते व्यवहार से अचंभित हो जाते होंगे !

सचमुच, भारत-पाकिस्तान के बीच थोड़ा भी तनाव हो तो इस अर्नब चैनल पर पूरा युद्ध शुरू हो जाता है। अगर कोई कहे कि कौरवों और पांडवों के बीच हुए विध्वंसक युद्ध की एक ही उपलब्धि रही कि व्यास ने महाभारत जैसा एपिक लिख दिया, तो हम कहेंगे कि भारत-पाकिस्तान के बीच के राजनयिक-फौजी तनावों की शायद यही एक उपलब्धि होती है कि अर्नब के उन्मादितों की मजलिस खूब जम जाती है।

लेकिन, हमारी चिंता इसके विलोम की प्रक्रिया को लेकर है। अगर युद्ध से कोई ‘महाभारत’ लिखा जा सकता है, तो क्या संभव नहीं कि कुछ लोगों को ‘महाभारत’ से किसी युद्ध की प्रेरणा  भी मिल सकती है ? अर्नब की पागलों की मजलिस यदि कश्मीर की स्थिति और भारत-पाक तनावों की उपज है, तो क्या इस मजलिस की उपज कश्मीर की स्थिति और भारत-पाक तनाव नहीं हो सकते हैं ?

इसीलिये पागलों की यह मजलिस कभी-कभी हमें अपराधियों की मजलिस भी प्रतीत होने लगती है।

आपका क्या कहना है ?

बकवाद और चुप्पीवाद

आज मित्र Chaitanya Nagar की एक पोस्ट पढ़ी - बकवाद और चुप्पीवाद के बीच का रास्ता । इससे एक अजीब सी अनुभूति हुई । यहाँ दोनों को ही 'वाद' कहा गया है -अर्थात बोलने और ख़ामोश रहने की विचारधारा ।
सचमुच, बोलना अगर आदमी की एक बाह्य क्रिया, उसका एक ठोस व्यवहार है , तो चुप रहना एक आंतरिक क्रिया, मानसिक व्यवहार कहा जा सकता है । वेदांतों में आदमी की आस्था का एक बड़ा स्रोत यह भी माना गया है कि आदमी को कर्मकांडों के नुस्ख़े दे दो, स्वत: उससे उसमें आस्था के बीज पड़ जायेंगे । अंतत: मनुष्यों की आस्था पर खेलने के हर खेल का किसी न किसी रूप में यही नुस्ख़ा होता है । इसे आप अपने इर्द-गिर्द रोज और हर क्षण, असंख्य रूपों में होते देख सकते हैं ।

लेकिन गहराई से देखें तो जीवन के भौतिक उपकरणों से उत्पन्न आत्मानुभूति और उस आत्मानुभूति पर आधारित हमारे व्यवहार के बीच एक गहरी खाई होती है । हमारे व्यवहारिक क्रियाकलापों और आंतरिक जिज्ञासाओं, विश्वासों में कोई मेल नहीं होता । ये दोनों समानांतर धाराओं की तरह हमेशा एक दूसरे से अलग ही रहते है । इसीलिये जब चैतन्य इन दोनों के 'बीच का रास्ता' की बात करते हैं तब यह रास्ता हमें इनके बीच किसी मध्यस्थता या इनको जोड़ने का रास्ता नहीं लगता बल्कि इन्हें स्थाई तौर पर अलग रखने की खाई जैसा लगता है । दरअसल, जब भी कोई विश्वास और व्यवहार को पूरी तरह से जोड़ कर रखने की कोशिश करता है तो लगता है जैसे वह रंगमंच पर कोई परिहास से भरा हुआ नाटक पेश कर रहा हैं । क्योंकि इस प्रकार की वैचारिकता का व्यवहारिक प्रदर्शन या जैविक व्यवहार का आस्थावादी प्रदर्शन सिर्फ एक प्रहसन में ही मुमकिन है । ब्रेख़्त के नाटकों का पूरा ढाँचा इसी प्रकार के एक गहरे मसखरेपन पर टिका हुआ है ।

हमने कोलकाता में विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक 'चुप अदालत चल रही है' को बांग्ला और फिर हिंदी, दोनों में ही देखा था । बांग्ला में प्रसिद्ध 'बहुरूपी' नाट्यमंडली ने इसे खेला था जिसमें किंवदंती अभिनेत्री तृप्ति मित्रा ने अभिनय किया था और हिंदी में 'रंगकर्मी' ने , जिसमें शायद उषा गांगुली ने अभिनय किया था । इस पूरे नाटक की बुनावट ब्रेख्तियन ढर्रे की ही है जिसमें पात्र महज अभिनय करने के लिये इकट्ठा होते हैं और अभिनय के क्रम में ही जिसे वे नाटक समझ रहे थे, वह उनके विश्वास और सच का रूप ले लेता है और जिसे वे अपना सच या विश्वास मान कर चल रहे थे, वह कोरा नाटक या दिखावा प्रतीत होने लगता है ।

कहने का मतलब यही है कि जब तक आप जीवन में हर क्षण खेले जा रहे इन प्रहसनों को देखने की, बकवास और चुप्पी के अभिनयों के सत्य को देखने की दृष्टि हासिल नहीं करेंगे, इनके बीच मेलबंधन के भ्रम में खोये रहेंगे ।

इसीलिये बकवाद और चुप्पीवाद एक नहीं हो सकते । ये दो अलग-अलग समानांतर धाराएँ हैं । कुछ इससे लो, कुछ उससे लो का फ़ार्मूला किसी प्रहसन (कॉमेडी) की थीम बन सकता है, जीवन व्यवहार का नुस्ख़ा नहीं । किसी भी गहरी अन्तरदृष्टि से सम्पन्न लेखक की शक्ति का स्रोत इसी बात में होता है कि वह जीवन-व्यवहार के इन प्रहसनों को कितना और कैसे देख पाता है, चित्रित कर पाता है । लेखन में जीवन की यही प्रस्तुति, जिसे लोग एक प्रकार की छलना भी कहते हैं, लेखक की शक्ति और लेखन का सौन्दर्य है ।

ग़ालिब साहब कहते हैं :
बाज़ीचा-ऐ-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
[ बाज़ीचा = खेल, अत्फाल = बच्चे]

और भी -
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
कुछ तो है जिसकी पर्दागारी है।

रविवार, 18 सितंबर 2016

कश्मीर इस सरकार की राजनीतिक विफलता है

 -अरुण माहेश्वरी



आज (18 सितंबर को) कश्मीर के उरी में सेना के एक शिविर में घुस कर आतंकवादियों ने हमारी सेना के सत्रह जवानों की हत्या कर दीं। कहते हैं कि पिछले लगभग पच्चीस सालों में कश्मीर में आतंकवादियों के हमले की यह अपने प्रकार की एक सबसे बड़ी घटना है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में सेना के जवान मारे गये।


यह सच है कि कश्मीर के अभी के हालात को देखते हुए इस प्रकार के हमलों का होना किसी भी दृष्टि से अनपेक्षित नहीं कहा जा सकता है। और, इसीलिये जब भी कोई जिम्मेदार व्यक्ति ऐसे हमलों पर कुछ ऐसा भाव प्रदर्शित करता है कि जैसे वह इस हमले से विस्मित है, उसे विश्वास नहीं हो रहा है, तो हमारा सबसे पहला सवाल है कि आखिर उसकी ऐसी मासूम प्रकार की प्रतिक्रिया की क्या वजह है ? क्या वे सचमुच यह विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि कश्मीर में ऐसा हो सकता है ?


सच कहा जाए तो इस प्रकार का विस्मय, या हम कहेंगे कि क्षोभ का प्रदर्शन भी एक प्रकार की थोथी, रटी-रटाई राजनीतिक पुनरुक्ति भर है, कश्मीर के ठोस सच से इंकार करने वाली बातों की पुनरुक्ति।  यह कुछ इस प्रकार के विडंबनापूर्ण कथन की तरह है कि ‘हम जानते हैं कि कश्मीर के लोग भारत को चाहते हैं, फिर भी हम यह यकीन करते हैं कि वे भारत को चाहते हैं।’ जिस बात को हम जानते हैं, उसी पर फिर विश्वास करने की हमें क्यों जरूरत पड़ती है ? क्यों और कब किसी के अपने ज्ञान को विश्वास के सहारे की जरूरत पड़ती है ?


इसी सवाल पर आकर हमारे अंदर आज की मोदी सरकार की क्षमताओं के बारे में गहरे संदेह पैदा होने लगते हैं। ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह होने की वजह से ही उसके बारे में ज्ञान को आस्था का सहारा लेना पड़ता है। सचाई यह है कि इस सरकार का कश्मीर के बारे में कोई सही वस्तुगत आकलन नहीं है। आरएसएस और मोदी की विचारधारा से नि:सृत छिछले ज्ञान पर टिका होना ही इस मामले में इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी है जो इसे न सिर्फ कश्मीर, बल्कि पाकिस्तान के मसले से भी निपटने में पूरी तरह से असमर्थ बना दे रही है। यह सचाई के जरिये अपने ज्ञान की कमियों को दूर करने के बजाय अपने कुछ जड़-विश्वासों और आस्थाओं के सहारे उन्हें पूरा करना चाहती है।


मसलन्, बार-बार ऐलानिया तौर पर यह कहना कि हम पाकिस्तान को देख लेंगे, ईट का जवाब पत्थर से देंगे - इसका क्या मायने है ? शत्रु को काबू में रखने के लिये शक्ति के प्रयोग के भी अपने तरीके होते हैं - किसी भी सरकार को इसका एक सम्यक ज्ञान होना जरूरी है। आज के जमाने में तो इसमें और भी दिक्कतें और जटिलताएं हैं। सारी दुनिया की नजर आपके एक-एक कदम पर टिकी हुई है। अभी दो दिन पहले ही ‘एपिक’ चैनल पर सन् ‘71 के बांग्लादेश युद्ध के समय हमारी खुफिया एजेंसी रॉ की उपलब्धियों पर एक बहुत अच्छी डाक्यूमेंट्री दिखाई जा रही थी, जिसमें बताया गया था कि किस प्रकार पाकिस्तान सरकार के बिल्कुल सर्वोच्च स्तर के वार-रूम में होने वाली बातों को हमारी खुफिया एजेंसी साफ तौर पर सुन पा रही थी। कहा जाता है कि आज अमेरिका को तो दुनिया के चप्पे-चप्पे में होने वाली गतिविधियों का काफी पुख्ता अनुमान होता है। ऊपर से, भारत और पाकिस्तान, दोनों नाभिकीय शक्ति संपन्न देश है। इसको भी दुनिया का कोई देश कभी भूल नहीं सकता है, और हमें भी नहीं भूलना चाहिए।


ऐसे में शक्ति का प्रदर्शन शक्ति का प्रयोग न करने के लिये ही किया जा सकता है। जैसा कि हमने वाजपेयी सरकार के वक्त सन् 2001 में संसद पर आतंकवादी हमले के समय देखा था। तब एक बार के लिये सीमा पर सेना को पूरी तरह से सक्रिय कर दिया गया था। लेकिन मामला उसके आगे नहीं जा सकता था, और न गया ही। उसकी तुलना में, आज के समय में तो शक्ति के प्रदर्शन के बजाय उसकी प्रतीकात्मक उपस्थिति को ही सबसे अधिक कारगर माना जाता है। अर्थात, हमारी शक्ति सबके सामने है भी, और नहीं भी है। हाजिर भी है, नाजिर भी।


मोदी सरकार की आंतरिक कमजोरी यह है कि उसके पास शक्ति के इसप्रकार के प्रयोग की सूक्ष्म विचारधारात्मक तैयारियां या कौशल की सख्त कमी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है मोदी जी की सारी दुनिया की यात्राओं के बाद भी राजनय के क्षेत्र में इस सरकार की तमाम प्रकट विफलताएं। यह सरकार किस प्रकार दुनिया के सामने खुद अपनी विश्वसनियता को खोने का कारण बन रही है, इसका सबसे ताजा उदाहरण है प्रधानमंत्री का 15 अगस्त का भाषण। इसमें उन्होंने बलूचिस्तान के सवाल को उठा कर अपनी ही हेठी के सिवाय क्या हासिल किया ? आज अमेरिका तक को बयान देकर कहना पड़ रहा है कि ‘बलूचिस्तान का मामला पाकिस्तान का अंदुरूनी मामला है’।


कश्मीर के विषय पर भी इस सरकार के दृष्टिकोण में गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ के बजाय एक बहुत बड़ा तत्व फौजी बूटों और मूंछों से निकलने वाले तर्कों का होता है, जो इस पेशे की भाषा से सबसे आसानी से पैदा होते हैं। लेकिन असल में यह मसला फौज का जितना नहीं है, उससे बहुत ज्यादा अपने ही देश के एक राज्य, कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राजसत्ता के संबंधों का मसला है। किसी भी वजह से यदि कोई सरकार अपनी ही जनता के खिलाफ युद्धरत नजर आने लगती है, तो वह न सिर्फ अपने शासन का औचित्य ही गंवा देती है, बल्कि अपने शासन को बनाये रखने की शक्ति को भी खोने लगती है।


इसीलिये हर सरकार का यह एक प्रमुख दायित्व होता है कि वह ऐसी हर संभव कोशिश करें, जिससे वह कभी भी अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध करती हुई न दिखाई दें। इस बात का दुनिया में एक सबसे बड़ा उदाहरण चीन में 4 जून 1989 की तियेनमान स्क्वायर की घटना है। कहते हैं कि उस घटना में चीन की सेना के हाथों भारी तादाद में लोगों की जाने गई थीं। लेकिन आज तक दुनिया में किसी के पास भी उस घटना की एक तस्वीर तक नहीं है। जिस रात वह घटना घटी, चीनी सरकार ने सुबह होने के पहले ही तियेनमान स्क्वायर को इस तरह साफ-सुथरा और सामान्य बना दिया कि वहां आने-जाने वाले किसी को भी इतनी बड़ी घटना का एक चिन्ह भी नहीं मिल सकता था। यह इसीलिये किया गया क्योंकि चीन की सरकार इसे अपने शौर्य के प्रदर्शन का विषय बना कर अपनी ही जनता के खिलाफ खुद को युद्धरत नहीं बताना चाहती थी। वहां की सरकार का एक भी आदमी उस घटना का भूल से भी स्मरण नहीं करता है। इस बात का सीधा संबंध वहां की सरकार की राजनीतिक समझ से जुड़ा हुआ है।


लेकिन हमारे यहां तो स्थिति बिल्कुल उल्टी है। हमारे गृहमंत्री से लेकर इनके तमाम लोग आम तौर पर जिस प्रकार के बयान देते हैं, उनसे लगता है कि वे कश्मीर में जैसे कोई युद्ध लड़ रहे हैं। इसकी वजह है इस सरकार की विचारधारा, जो वस्तुथिति के ज्ञान के बजाय ‘हिंदुत्व’ के शौर्य-प्रदर्शन पर सबसे ज्यादा विश्वास करती है। कश्मीर की स्थिति के बारे में इनके छिछले ज्ञान और इस प्रकार की नाना आस्था और विश्वास की बातों से जाहिर होने वाली उनकी कमियां ही आज कश्मीर की, और पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों की स्थिति को भी और ज्यादा जटिल बना दे रही हैं। वे इसमें भारत के दूसरे हिस्सों में अपनी राजनीति का जो लाभ देखते हैं, वह भी इनका कोरा भ्रम ही है। देश के किसी भी अंश की जनता का दुश्मन बन कर आप आम जनता की सहानुभूति का पात्र नहीं बन सकते।

कहना न होगा, एक ओर पाकिस्तान और उसके द्वारा समर्थित आतंकवादियों के हत्यारे षड़यंत्र, और दूसरी ओर इस सरकार की बचकानी राजनीतिक और कूटनीतिक समझ - इन दोनों की कीमत आज हमारे पूरे देश को चुकानी पड़ रही है।

(18.09.2016)    


शनिवार, 17 सितंबर 2016

सम्पादकाचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा की दी हुई उलझनें


अरुण माहेश्वरी


 ‘इकोनामिस्ट’ पत्रिका के ताजा (21-27 मई 2016) अंक के अंतिम पृष्ठों पर भाषाशास्त्री जान्सन के नाम के स्तंभ ‘Prevailing winds’ (अभी की हवा) में अंग्रेजी भाषा में आधी सदी से चल रहे एक भारी युद्ध और उसके अब लगभग शमित हो जाने की दिलचस्प कहानी कही गई है। यह युद्ध है भाषा में शब्दों के प्रयोग के बारे में युद्ध। इसमें वे बताते हैं कि कैसे अंग्रेजी के भाषाविज्ञानी अब तक दो शिविरों में बटे हुए थे। एक ओर कोशकार और अकादमिक भाषाशास्त्री थे तो दूसरी ओर परंपरागत लेखक और संपादक। 1961 में वेबस्टर्स का तीसरा नया अन्तरराष्ट्रीय शब्दकोश आया था और उसमें ‘ain’t’ तथा ‘irregardless’ की तरह के चलताऊ शब्दों को शामिल किया गया था। इसने सबको बुरी तरह से चौंका दिया। दो खेमे तैयार होगये - लीक पकड़ कर चलने की नसीहत देने वाले नुस्खेबाज (prescriptionist) और जीवन में आ रहे परिवर्तनों को स्वीकारने की बात पर बल देने वाले वास्तववादी (describer)। दोनों एक दूसरे का खूब मजाक उड़ाते थे। नुस्खेबाजों पर आरोप था कि वे वास्तविक दुनिया से इंकार करके तानाशाह बने हुए हैं और वास्तववादियों को कहा जाता था कि इनके पास अपना कोई मानदंड ही नहीं है, जो चीज सामने आई उसी पर ठप्पा लगा देते हैं।

बहरहाल, इसी बीच एक वास्तववादी स्टीवन पिंकर की किताब आई - ‘The sense of style’। इस किताब का अंत एक अच्छे लेखन के बारे में दिये गये सुझाव अर्थात नुस्खे से किया गया था - यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। यद्यपि उनकी बातें वास्तव पर, अर्थात चलन की भाषा पर ही आधारित थी, लेकिन सवाल यह था कि अंत में वे भी तो एक नुस्खे तक ही पहुंच गये थे।

इसके अलावा, ब्रायन गार्नर की दो किताबें आई - ‘Garner’s Modern English Usage’ और ‘The Chicago Guide to Grammar, Usage, and Punctuation’। इनके शीर्षक ही यह बताते हैं कि इनका घोषित उद्देश्य ही भाषा के प्रयोग में क्या करना चाहिए और क्या करने से बचना चाहिए के नुस्खे बताना था। लेकिन गार्नर अपने को एक वास्तवपरक नुस्खेबाज (descriptive prescriber) बताते हैं, अर्थात उनके नुस्खे या सुझाव किसी रूढि़बद्ध नियम के मुहताज नहीं है बल्कि चलन की ठोस जमीन से ही पैदा हुए हैं। गार्नर ने अपनी दूसरी किताब में अखबारों की कतरनों आदि को आधार बनाने के बजाय गूगल को अपना आधार बनाया है। गूगल ने इस बीच करोड़ों किताबें स्कैन की है और उससे कौन से शब्द किस प्रकार और कितने बड़े पैमाने पर प्रयुक्त हो रहे हैं, इसके बारे में ढेर सारे तथ्य सामने आए हैं। मसलन्, गार्नर ने देखा कि ‘he pleaded guilty’ की तुलना में ‘he pled guilty’, का अर्थात pleaded की जगह pled का चलन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन अब तक भी pleaded का प्रयोग करने वालों की संख्या pled वालों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है। इसी के आधार पर गार्नर ने pleaded का प्रयोग करने का सुझाव दिया। इसी, बहुमत के प्रयोग के बिनाह पर उन्होंने पारंपरिक ‘run the gantlet’ की जगह चालू ‘run the gauntlet’ के प्रयोग को स्वीकारा क्योंकि गूगल की गणना में इसका प्रयोग करने वाले ‘run the gantlet’ से काफी ज्यादा पाए गयें।

इसप्रकार, लकीर के फकीर और तानाशाह कहे जाने वाले ‘नुस्खेबाज’ तथा जनतंत्र और प्रगति के झंडाबरदार मान लिये गये ‘वास्तववादी’, दोनों ने ही कालक्रम में यह स्वीकार लिया कि मानक अंग्रेजी का यथार्थ अत्यंत वैविध्यपूर्ण है। यहां तक कि नियमों के मामले में भी इसमें विविधताएं भरी हुई हैं। इसके चलते नुस्खेबाज अब वास्तव की ज्यादा खोज-खबर रखने लगे और वास्तववादी मानक अंग्रेजी में सही-गलत की राय देने वालों के प्रति उदार हो गये। चलन के शब्दों पर अब दोनों खेमों में एक विवेकशील आम सहमति बनती दिखाई दे रही है। इस प्रकार, स्तंभकार के अनुसार, अंग्रेजी भाषा की दुनिया में दशकों से चला आ रहा एक तीखा संघर्ष अब समाप्ति पर है।

अंग्रेजी भाषा में चले इस खास प्रकार के भीषण युद्ध के वृत्तांत से अनायास ही हमें  हिंदी में महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके काल की याद ताजा हो गयी। हिंदी में भाषा के सवाल पर वास्तव में यदि कभी कोई युद्ध की तरह की स्थिति रही है तो वह द्विवेदी जी के काल में ही थी। वह एक तरह से आज की हिंदी के निर्माण का काल भी कहा जाता है। उस युद्ध में तब जो तय हो गया, हिंदी लेखन भाषा के मामले में आज तक कमोबेस उन्हीं नियमों के अधीन चल रहा है।

पिछले दिनों हमें गुलजार द्वारा किये गये रवीन्द्रनाथ की कविताओं के दो संकलनों को देखने का मौका मिला था। रवीन्द्रनाथ को मूल बांग्ला के साथ ही उनके हिंदी अनुवादों को हम हमेशा देखते रहे हैं। अपने अब तक के देखे इन अनुवादों की तुलना में देवनागरी लिपि में गुलजार के उर्दू में किये गये अनुवादों में हमें कुछ दूसरे ही प्रकार की ताजगी का अहसास हुआ था। ‘लहक’ के पृष्ठों पर ही हमने उन खंडों की एक छोटी सी समीक्षा लिखी। उसमें अनुवाद के इसी प्रसंग को उठाते हुए हमने लिखा था कि
‘‘ अच्छे अनुवाद के बारे में कहा ही जाता है कि यह फूलदान की तरह की किसी भी जीवित कृति को तोड़ कर शुरू किया जाता है। रचना पहले टुकड़ों में बिखर कर अनुवादक के सामने आती है, और अनुवादक इस फूलदान के टुकड़ों को जोड़ता है। फूलदान को तोड़ना ही अनुवाद के रूप में उसके नवनिर्माण की शर्त है। दुनिया की क्लासिकल कृतियां इसी तरह तमाम भाषाओं और कालों में पहले बिखर कर फिर पुनर्रचना के जरिये कालजयी बन कर सामने आती है।’’

इसके साथ ही यह भी कहा था कि ‘‘ इसमें शक नहीं है कि किसी भी क्लासिकल कृति में हस्तक्षेप करने के अपने तमाम जोखिम भी होते हैं। इसमें सफलता के कोई निश्चित नुस्खे नहीं होते। और, यह भी सच है कि अक्सर इसप्रकार के प्रयोगों की दुर्गतियां ही ज्यादा दिखाई देती हैं। लेकिन वह भी हमेशा नहीं होता। इन सबके विपरीत सचाई यह है कि किसी भी क्लासिकल कृति के प्रति निष्ठापूर्ण रहने का मतलब ही है कि उसके साथ इसप्रकार का जोखिम उठाया जाना चाहिए। कृति के पारंपरिक रूप और ढांचे से चिपके रहना क्लासिक की भावना के साथ विश्वासघात करने का सबसे सुरक्षित उपाय कहा जा सकता है।

‘‘रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के हिंदी अनुवादों के मामले में इसप्रकार की लकीर की फकीरी के विध्वसंक परिणामों को हम लगातार देखते रहे हैं। खास तौर पर जिन लोगों ने रवीन्द्रनाथ के गीतों का रवीन्द्र संगीत की धुन को बनाये रखते हुए हिंदी में अनुवाद किया है, उन गीतों को सुन कर तो यह अनुमान लगाना भी कठिन होता है कि वे हिंदी में हैं या बांग्ला में या किसी और ही नयी, अबूझ सी भाषा में ! इस प्रकार के अनुवादों को हम ‘मच्छरमार अनुवाद’ कह सकते हैं, अर्थात ऐसा अनुवाद जिसमें मूल प्रति में किसी वजह से मरा हुआ मच्छर चिपका हो तो अनुवादक भी खोज कर वहां एक मच्छर को मार कर चिपका देता है।

‘‘ ऐसे ‘मच्छरमार’ अनुवाद के बजाय, किसी भी दूसरी भाषा की क्लासिकल कृति को जीवित रखने का एक मात्र तरीका उसे ‘खुला’ रखना है, भविष्य की ओर ले जाने वाला, काल को पार करने वाला - एक ऐसी फिल्म जिसको विकसित करने का रसायन बाद में आता है !

‘‘गुलजार की कविता की एक पंक्ति है - ‘‘मैंने काल को तोड़के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया।’’

‘‘रवीन्द्रनाथ के इन दो संकलनों का गुलजार का अनुवाद भी ऐसा ही है, काल को तोड़ कर लम्हे-लम्हे को जीने के समान। रवीन्द्रनाथ के औपनिषदिक चिंतन के खोल को आसमान की तरह और भी खोल देने वाला, उसमें और भी रंगों को भरने की संभावना पैदा करने वाला।

‘‘अपने इन अनुवादों में गुलजार ने अपनी सुविधा के अनुसार कहीं मूल बांग्ला की कविताओं को अपना अवलंब बनाया है तो कहीं रवीन्द्रनाथ के अंग्रेजी अनुवादों को। रवीन्द्र विशेषज्ञों की यह मान्यता रही है कि वे खुद अपनी कविताओं के अच्छे अनुवादक नहीं थे। गुलजार ने अच्छे-बुरे अनुवाद के इस पहलू की बिना कोई परवाह किये उनके ढांचे को तोड़ कर एक दूसरी भाषा के चौखटे में उतारने के लिये अपनी मर्जी से कविताओं के मूल बांग्ला या अंग्रेजी पाठों का चयन किया है।’’

इसके बाद ही इस समीक्षा में अनायास हिंदी का, खास तौर पर उसकी ‘साहित्यिक भाषा’ का प्रश्न आ जाता है। साफ तौर पर कहा गया है कि ‘‘ हिंदी की साहित्यिक भाषा का रवीन्द्रनाथ की बांग्ला भाषा से काफी मेल है, क्योंकि कुछ ऐतिहासिक कारणों से ही यह भाषा मूलत: बांग्ला के प्रभाव के तहत ही विकसित हुई है। आलोक राय की पुस्तक ‘हिंदी नेशनलिज्म’ से हिंदी की साहित्यिक भाषा के इस पहलू की सचाई को बखूबी जाना जा सकता है। इसीलिये उस किताब की भूमिका में निलाद्रि भट्टाचार्य ने हिंदी की साहित्यिक भाषा को एक मृत भाषा भी कहा है - हिंदी भाषी जनता और कथित हिंदी साहित्य के बीच का एक बड़ा अवरोध जिसकी ओर रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय सहित साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित उनके रचना संचयन में शामिल किये गये हिंदी अनुवाद भी संकेत करते हैं। हिंदी की साहित्यिक भाषा के मानदंड पर प्रामाणिक होने पर भी रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का जो असर बांग्ला भाषी लोगों पर पड़ता है, उसका एक प्रतिशत भी हिंदी भाषी जनता पर नहीं पड़ता।‘‘

निलाद्रि भट्टाचार्य के शब्दों में - ‘‘साहित्यिक सृजन के क्षेत्र की एक मृत भाषा यह ‘हिन्दी’ समाज के सांस्कृतिक जीवन में एक जहर की तरह मौजूद है।’’ वे यह भी कहते हैं कि हिंदी को यदि अपनी आंतरिक शक्ति को प्राप्त करना है और संपर्क की एक राष्ट्रीय भाषा का रूप लेना है तो उसे अपने खुद के दमित इतिहास को मुक्त करना होगा और राष्ट्रीय आधिपत्य कायम करने के लिये बदहवास स्वार्थी उच्च वर्ण के आभिजात्यों द्वारा खोजी गई ‘हिन्दी’ से अपने को अलग करना होगा।’’

आलोक राय कहते हैं, ‘‘हिन्दी एक मर्ज का नाम है। और यही मर्ज की एक दवा भी है।’’

यहां हम आलोक राय की जिस पुस्तक ‘हिंदी नेशनलिज्म’ का जिक्र कर रहे हैं उसे पुस्तक कहने के बजाय एक लगभग सवा सौ पन्नों की पुस्तिका कहना ही ज्यादा संगत होगा। लेकिन, उसमें उर्दू और उसकी अरबी-फारसी लिपि के बरक्स हिंदी और देवनागरी लिपि के लिये जिस संघर्ष का आख्यान रचा गया है, वह अपने में किसी महायुद्ध के आख्यान से कम नहीं है। ऊपर जान्सन के हवाले से अंग्रेजी भाषा के अंदर ‘नुस्खेबाजों’ और ‘वास्तववादियों’ के जिस युद्ध की चर्चा की गई है वह तो हिंदी के इस भाषाई युद्ध की तुलना में बच्चा कहलायेगा। हिंदी के इस भाषा-युद्ध में भाषा की तुलना में दूसरे सामाजिक-राजनीतिक विषय ज्यादा जुड़े हुए थे। इसीलिये आलोक राय ने इसे हिंदी राष्ट्रवाद की लड़ाई का आख्यान कहा है।

यह था - भाषा में सुधार की लड़ाई के जरिये अर्जित राष्ट्रवाद ! जड़ों की ओर वापसी से अर्जित राष्ट्रवाद ! यहां जड़ का मतलब है संस्कृत ; कुछ उत्साहितजनों की दृष्टि में दुनिया की समस्त भाषाओं का गोमुख। हिंदी के तत्कालीन कथित रूप से उर्दू-प्रभावित अंश को ठुकरा कर अर्जित किया गया हिंदी राष्ट्रवाद ! वर्तमान की बाधा को नकार कर मीमांसा में अर्जित अपने ही प्राचीन स्व पर टिका राष्ट्रवाद ! लेकिन अफसोस कि उस ‘विस्मृत’ स्व को प्राप्त करने की इस प्रक्रिया का परिणाम इतना घातक हुआ कि हमने इस मंथन से जो ‘साहित्यिक भाषा’ पाई वह निलाद्रि भट्टाचार्य के शब्दों में एक ‘मृत भाषा’ है। अपने वर्तमान के नकार का इससे त्रासद परिणाम क्या हो सकता है कि हम किसी मृतयुग में पहुंच जाए ! अभिनवगुप्त के शक्ति प्राप्त करने के ‘प्रत्याभिज्ञान’ तत्व का नारी के शरीर में प्रवेश करके अंधेरे तंत्रलोक में खो जाने की तरह की त्रासदी जैसा ही !

इसी उत्तेजना में, 30 मई 2016 के दिन अनायास ही हमने फेसबुक पर एक छोटी सी पोस्ट लगाई थी -
“और महावीर प्रसाद द्विवेदी !”

इसमें लिखा था - ‘‘ आज के ‘टेलिग्राफ’ में ‘The Emperor of all Maladies’ के प्रसिद्ध लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी की एक नई किताब ‘The Gene : An intimate history’ की एक समीक्षा प्रकाशित हुई है। हमने इस किताब को देखा नहीं है, लेकिन ‘टेलिग्राफ’ की समीक्षा में उससे एक उद्धरण दिया गया है - “illness might vanish but so might identity. Grief might be diminished but so might tenderness. Traumas might be erased but so might history.”
(रोग दूर हो सकते हैं, वैसे ही आदमी की पहचान भी। कष्ट कम हो सकते हैं, वैसे ही कोमलता भी। आघात खत्म हो सकते हैं, वैसे ही इतिहास भी।)

ओरहन पामुक अपने उपन्यास ‘My name is red’ में एक जगह लिखते हैं - ‘‘नुक्स से ही अंदाज पैदा होता है।’’ ऐब ही आदमी की पहचान है।

याद आती है, अंबर्तो इको की बात। वे उपलब्ध भाषा की तुलना फासीवाद से करते हैं। कहते हैं, फासीवाद बोलने से रोकता नहीं, बोलने को थोपता है। प्राप्त भाषा का विन्यास इतना घातक हैं कि वह अपने अंदर गुलाम बना लेती है। उपलब्ध भाषा से छल करके, एक प्रकार की गैर-ईमानदारी और स्वस्थ तथा मुक्तिदायी चालाकी से साहित्य पैदा होता है।

कहना न होगा, भाषा के मानकीकरण पर अतिरिक्त जोर साहित्य का आखेट है।

और महावीर प्रसाद द्विवेदी !”

किसी भी कथित ‘ऐब’ को दूर करने की जिद के परिणाम क्या हो सकते हैं, सिद्धार्थ मुखर्जी के हवाले से हमारा ध्यान आलोक राय की पुस्तिका में हिंदी के भाषाई महायुद्ध के महानायक महावीर प्रसाद द्विवेदी तक चला गया था। सिद्धार्थ मुखर्जी की किताब ‘द जीन’ में ही एक बात आती है - ‘‘Normalcy is the antithesis of evolution” । कहना न होगा, हिंदी को उसके संस्कृत मूल से बांध कर ‘स्थिर’ (सामान्य) बनाने के चक्कर में इस भाषा का वंध्याकरण कर दिया गया।

गुलजार के अनुवाद और उसके सामने मृत समान लगते हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय आदि के रवीन्द्रनाथ के अनुवादों ने सवाल पैदा किया कि क्या स्व को प्राप्त करने की पूर्ण प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया से ही फिर एक बार हमें अपने वर्तमान को नकार कर उस स्व को प्राप्त करने की जरूरत नहीं है, जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के काल में ही भारतेंदु और शिवप्रसाद सितारे हिंद आदि के साहित्य से लेकर प्रेमचंद और उनके बाद मंटो, कृशन चंदर, अब्बास, बेदी, इस्मत आदि के साहित्य में धड़कता था ; जो छायावादी ‘महानों’ से मुक्त हिंदी के उस पूरे परवर्ती लेखन में भी जिंदा रहा है जिसने लेखन के केंद्र में पाठक को रखना जरूरी समझा है। अर्थात, गुलजार के अनुवाद ने हिंदी में द्विवेदी जी कंपनी के नकार के नकार की एक गहरी जरूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया।

हिंदी नवजागरण के कथित अग्रदूत द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा के क्षेत्र में ऐसा क्या किया था कि जिसके कारण अंग्रेजी में चले ‘नुस्खेबाजों’ और ‘व्यवस्थावादियों’ के युद्ध की यादों से कहीं ज्यादा, एक ऐसे भाषाई महायुद्ध की यादें ताजा हो गई जिसने कइयों की दृष्टि में हिंदी की ‘साहित्यिक भाषा’ के प्राण ही हर लिये ? ‘नवजागरण’ से ‘चिरनिद्रा’ तक का यह परम प्रत्यावर्तन कैसे संभव हुआ ?

महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली का पहला खंड हिंदी में चलाये गये इसी भाषाई महाभारत की कथा है, जिसके अंत में पांडवों के लिये भी सबकुछ छोड़ कर जंगलों की ओर प्रस्थान करने के अलावा कुछ शेष नहीं रह गया था। हिंदी का यह प्रत्यावर्तन कोई मामूली प्रत्यावर्तन नहीं, बल्कि ‘वैज्ञानिक प्रत्यावर्तन’ था, क्योंकि इस रचनावली के संपादक भारत यायावर ने प्रथम खंड की भूमिका में लिखा है कि ‘‘द्विवेदी जी का हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के लिये किया गया संघर्ष कितना ठोस और वैज्ञानिक है, इस खंड को पढ़ कर स्वत: ही समझा जा सकता है।’’

द्विवेदी जी का यह हस्तक्षेप ‘ठोस’ तो जरूर रहा होगा क्योंकि बिना उसके हिंदी के तत्कालीन स्वाभाविक विकास पर, जिसे खुद द्विवेदी जी ने बार-बार ‘अनस्थिरता’ से अभिहित किया था, इतना प्रभावशाली प्रहार करना मुमकिन नहीं था। लेकिन वह कितना विवेकशील अथवा वैज्ञानिक था इसे हम साहित्य की एक मृत, उनके द्वारा छोड़ी गई उस अध्यापकीय भाषा की विरासत को देख कर आसानी से प्रश्नों के घेरे में ला सकते हैं, जिसमें आज तक हिंदी का अकादमिक जगत पूरी तरह जकड़ा हुआ दिखाई देता है। सवाल उठता है कि बहुलता की स्वीकृति के बिना क्या कभी कोई वैज्ञानिक ज्ञान मीमांसा संभव है, जो नये विचारों के जन्म की संभावनाओं को बनाये रखती है ? बहुलता का निषेध ही तो धर्मशास्त्र की प्रमुख लाक्षणिकता है।

द्विवेदी जी चिंतामणि घोष के उस इंडियन प्रेस की पत्रिका ‘सरस्वती’ के पूरे अठारह सालों तक संपादक रहे जिसके पास सन् 1922 तक, जब तक शांतिनिकेतन में रवीन्द्रभारती की स्थापना नहीं हुई थी, रवीन्द्रनाथ की तमाम रचनाओं के प्रकाशन का एकाधिकार था। रवीन्द्रनाथ की ‘गीतांजलि’ को प्रचारित करने तक में उनकी भूमिका को याद किया जाता है। हम जानते हैं कि हर भाषा की अपनी एक गति होती है, लेकिन यदि उसपर किसी चीज का प्रभाव पड़ता है तो साहित्य का पड़ता है। वह साहित्य के संकेतों के प्रति संवेदनशील होती है, शासन या विद्वानों के निर्देशों पर नहीं चलती। दुनिया में इस प्रकार के असंख्य उदाहरण मौजूद है, जब शासन के भाषाई निर्देश काल-क्रम में ऐसे गायब हो गये जैसे वे कभी थे ही नहीं। और साहित्य के संकेत किसी समय में न अपनाये जाने पर भी समय के अंतराल के साथ सामान्य भाषा के अंग गये। बांग्ला भाषा के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ की भूमिका कुछ ऐसी मानी जाती है कि उनके साहित्य के जरिये ठीक उसी प्रकार आधुनिक बांग्ला भाषा का निर्माण हुआ था जिस प्रकार कहा जाता है कि रवीन्द्रनाथ के परिवार, यानी ठाकुरबाड़ी के जरिये बांग्ला जाति को अपना आधुनिक सांस्कृतिक इतिहास प्राप्त हुआ था। इसीलिये रवीन्द्रनाथ के लेखन ने बंगाली अस्मिता को तैयार करने में एक भूमिका अदा की और साथ ही वह अस्मिता के सांस्कृतिक उपभोग से मिलने वाले आनंद का भी स्रोत बना। पाठक इसमें अपने स्व के विलय की प्रक्रिया से खुद को नये सिरे से जानता है, इस ढांचे की क्रियाशीलता से पैदा होने वाले आनंद का भोग करता है। वह कदापि पाठक की सत्ता से इंकार नहीं करता।

बिल्कुल इन्हीं कारणों से हिंदी भाषी क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ और उनके लेखन की भाषाई संरचना की वह भूमिका कभी नहीं हो सकती थी, जो बांग्ला में थी। इस क्षेत्र की साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा का अपना खास निश्चित ऐतिहासिक चरित्र था। उसमें तत्सम शब्दों की भरमार नहीं थी, बल्कि बोलचाल की भाषा से लेकर साहित्य की भाषा तक में उर्दू का, अरबी-फारसी मूल के शब्दों का काफी बड़ा स्थान था। उर्दू भारत की आर्य भाषाओं में से ही एक थी जिसका विकास आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पूर्वी पंजाब में हुआ था। हिंदी, हिंदवी, जबाने देहलवी, रेखता, दक्षिण में दकिनी और गुजरात में गुजरी आदि नाना नामों से जानी जाने वाली इस भाषा में स्वाभाविक तौर पर मुसलमानों के आने के बाद फारसी और अरबी शब्द शामिल हुए थे। लेकिन यह बाजारों में पनपी और सूफी संतों के जरिये संवारी गई थी। इसीलिये यह इस क्षेत्र के लोगों की बोलचाल की भाषा के साथ ही काफी हद तक उसकी सांस्कृतिक अस्मिता की एक भाषा भी रही है। उद्गम के लिहाज से इसमें कोई शक नहीं है कि उर्दू वही है जो हिंदी है। अठारहवीं सदी में ही इसमें मीर, सौदा, इंशा आदि दर्जनों नामी-गिरामी शायरों के साथ ही नजीर अकबराबादी हुए जिनकी शायरी में इस पूरे क्षेत्र की जनता के दिलों की धड़कने बोलती थी। 19वीं सदी में जौक(1852), मोमिन (1855) , गालिब(1869) और जफर तो इतने बड़े शायर हुए जो डेढ़ सदी बाद भी हमारी साहित्यिक अस्मिता के अभिन्न अंग बने हुए हैं। इधर के सालों के जोश, मजाज, फैज, फिराक, शाहिर, मजरूह, गुलजार और जावेद अख्तर तक आज हर हिंदी भाषी की जुबान पर है।

हिंदी भाषी क्षेत्र की एक ऐसी प्रमुख भाषा के प्रति ‘हिंदी नवजागरण के अग्रदूत’ महावीर प्रसाद द्विवेदी का क्या रवैया था ? वे इसे इस क्षेत्र के लोगों की नहीं, बल्कि एक धर्म की भाषा मानते थे, सिर्फ मुसलमानों की, और सीधे तौर पर उसे हिंदी की प्रतिद्वंद्वी, बल्कि दुश्मन समझते थे। द्विवेदी जी की रचनावली के पहले खंड में ‘हिंदी भाषा की उत्पत्ति’ शीर्षक से हिंदी संबंधी उनके लेखों का जो संकलन शामिल किया गया है, उसकी भूमिका की शुरूआत ही वे इसप्रकार करते हैं –

‘‘कुछ समय से विचारशील जनों के मन में यह बात आने लगी है कि देश में एक भाषा और एक लिपि होने की बड़ी जरूरत है, और हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि ही इस योग्य है। हमारे मुसल्मान भाई इसकी प्रतिकूलता करते हैं। वे विदेशी फारसी लिपि और विदेशी भाषा के शब्दों से लबालब भरी हुई उर्दू को ही इस योग्य बतलाते हैं। परन्तु वे हमसे प्रतिकूलता करते किस बात में नहीं ? सामाजिक, धाम्र्मिक, यहां तक कि राजनैतिक विषयों में भी उनका हिन्दुओं से 36 का संबंध है। भाषा और लिपि के विषय में उनकी दलीलें ऐसी कुतर्कपूर्ण, ऐसी निर्बल, ऐसी सदोष, ऐसी हानिकारिणी हैं कि कोई भी न्यायनिष्ठ और स्वदेशप्रेमी मनुष्य इनसे सहमत नहीं हो सकता। बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्री, और मदरासी तक जिस देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को देशव्यापी होने योग्य समझते हैं वह अकेले मुट्ठी भर मुसल्मानों के कहने से अयोग्य नहीं हो सकती। आबादी के हिसाब से मुसल्मान इस देश में हैं ही कितने ? फिर थोड़े होकर भी जब वे निर्जीव दलीलों से फारसी लिपि और उर्दू भाषा की उत्तमता की घोषणा देंगे तब कौन उनकी बात सुनेगा ?’’(पृ : 21)

हम समझते हैं कि इसके बाद शायद द्विवेदी जी के भाषा संबंधी वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। यह धर्म की संकीर्णता से दूषित दृष्टिकोण है। जिस भाषा और लिपि के बारे में उनका दावा है कि बंगाली, गुजराती, मदरासी सब अपनी भाषाओं और लिपियों को छोड़ कर एक टांग पर उसे अपनाने की आतुर प्रतीक्षा में हैं, वह आज तक संवैधानिक प्रतिज्ञाओं के बावजूद कायदे से राजभाषा तक बनने की स्थिति में नहीं है। उसके वर्चस्व का विरोध मुसलमान नहीं कर रहे हैं! आज तो हिंदी की विशेष स्थिति खत्म होने के कगार पर है। आज का सबसे बड़ा सच यह है कि देशभर के लोग हिंदी पर नहीं, अंग्रेजी पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। राष्ट्रभाषा का नारा सरकार का एक दिखावटी नारा रह गया है। जो इसपर ज्यादा जोर डालेगा, वह देश पर विभाजनकारी दबाव डालने का अपराधी नजर आने लगेगा।

द्विवेदी जी के इस संकलन में ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षणों में इकट्ठा की गई सामग्री का प्रयोग करके लिखे गये जो पत्रकारितामूलक लेख शामिल किये गये हैं, उनको अगर छोड़ दिया जाएं तो लगेगा जैसे हिंदी के नाम पर वे उर्दू और उसके साथ ही थोड़े अंश तक मुसलमानों के खिलाफ किसी धर्म-युद्ध में उतरे हुए थे। हिंदी के जरिये सारे देश को सिर्फ एक भाषा के सूत्र में पिरोने का उनका राष्ट्रप्रेम भी मूलत: उर्दू को खारिज करने पर केंद्रित था। अन्यथा, एक बंगाली मिल्कियत के प्रेस के मुलाजिम के रूप में ही वे इतना तो भली-भांति जानते थे कि बंगाली जाति बांग्ला को छोड़ कर हिंदी को अपनाने वाली नहीं है।

इसीप्रकार, बार-बार हिंदी के पक्ष में गुजरातियों और मदरासियों के समर्थन की उनकी बातों में भी रत्ती भर दम नहीं था। घुमा-फिरा कर उनका सारा जोर इसी बात पर रहता था कि ‘उर्दू कोई जुदी भाषा नहीं। वह हिन्दी ही का एक भेद है’ (पृ : 57) ; ‘देवनागरी लिपि के जाननेवालों की संख्या फ़ारसी लिपि के जाननेवालों की संख्या से कई गुना अधिक है। इस दशा में सारे भारत में फारसी लिपि का प्रचार होना सर्वथा असम्भव और नागरी का सर्वथा संभव है। यदि मुसल्मान सज्जन हिन्दुस्तान को अपना देश मानते हों, यदि स्वदेश-प्रीति को भी कोई चीज समझते हों, यदि एक लिपि के प्रचार से देश को लाभ पहुंचाना सम्भव जानते हों तो हठ, दुराग्रह और कुतर्क छोड़ कर उन्हें देवनागरी लिपि सीखनी चाहिए। ’’(पृ : 61) ‘हम देखते हैं कि कुछ हिन्दी जाननेवालों का आग्रह उर्दू के समान दोषपूर्ण भाषा की लेख-प्रणाली और उसके व्याकरण की तरफ मतलब से अधिक बढ़ रहा है’ (पृ : 147); ‘बंगला, मराठी, गुजराती, संस्कृत और अंगरेजी भाषायें हिन्दी से बहुत बढ़ी-चढ़ी अवस्था में हैं। उनकी प्रणाली न स्वीकार करके देहली और लखनऊ की महा अनस्थिर, व्याकरणविरुद्ध और अस्वाभाविक भाषा की नकल करके ‘जहाज बे-नाखुदा’ बन कर प्रमाद महासागर में जान-बूझकर डूबना है’ (पृ : 152) ।

कुछ जगहों पर द्विवेदी जी ने उर्दू से नफरत न करने की हिदायतें भी दी हैं, लेकिन उनका सारा जोर इस भाषा की सामाजिक-सांस्कृतिक सचाई से इंकार करने पर ही रहा। अपनी सभ्यतावश उन्होंने खुद उर्दू या उर्दू वालों के लिये गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग तो नहीं किया, लेकिन अपने इस संकलन के परिशिष्ट में शामिल किये गये, उन्हीं के शब्दों में, अपनी ‘अभिन्नात्माओं’ के लेखों के जरिये वे उसे ‘उर्दू-शुर्दू’, ‘वर्णसंकरी सत्यानासिन उर्दू’, ‘मुँहकाली उर्दू’, ‘दोगली उर्दू’, ‘उर्दू निगोड़ी’, ‘कुलच्छनी उर्दू’ आदि कहने से नहीं चूके हैं।

इस लेख के शुरू में अंग्रेजी भाषा में ‘नुस्खेबाजों’ और ‘वास्तववादियों’ के बीच लंबे संघर्ष का शमन इस बात में देखा गया था कि दोनों पक्षों ने ही सब मामलों में विविधता को स्वीकारा था और इसी वजह से दोनों के बीच क्रमश: एक सहमति कायम होती चली गई। लेकिन, हमारे हिंदी नवजागरण के अग्रदूत के यहां यथार्थ में वैविध्य के प्रति सहनशीलता का भाव नहीं के बराबर था। उनका वश चलता तो भारत की दूसरी सभी भाषाओं को खत्म करके अकेले हिंदी का वर्चस्व कायम कर देते। लेकिन इस अपूर्ण कामना से पैदा हुई खीज को उन्होंने हिंदी क्षेत्र की ही एक और सशक्त भाषा उर्दू पर उढ़ेल देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

अंग्रेजी में ब्रायन गार्नर ने भी कौन से शब्दों को चलन में रखा जाए और किन्हें छोड़ दिया जाए, इसके लिये संख्या-तत्व का प्रयोग किया है। उन्होंने गूगल की गणना के आधार पर ही plead और gauntlet के प्रयोग को स्वीकारा हैं और  pled और gantlet के प्रयोग को ठुकरा दिया है। लेकिन द्विवेदी जी तो संख्या के आधार पर शब्दों के प्रयोग पर नहीं, बल्कि भाषाओं के अस्तित्व पर ही अंतिम राय दे रहे थे ! ‘‘ आबादी के हिसाब से मुसल्मान इस देश में हैं ही कितने ? फिर थोड़े होकर भी जब वे निर्जीव दलीलों से फारसी लिपि और उर्दू भाषा की उत्तमता की घोषणा देंगे तब कौन उनकी बात सुनेगा’’ !

और हिंदी के अकादमिक जगत की स्थिति यह है कि उसके लिये तो जैसे डा. रामविलास शर्मा ने अपनी किताब ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ से एक ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच दी है कि उसे लगता है मानो उसके बाहर कदम रखते ही उसके सतीत्व के हरण का खतरा पैदा हो जायेगा। यह जगत अपने में बंद, खुद तक सीमित एक ऐसा जगत है जो हमेशा से अपने अंदर ही अंदर गुंथ कर निर्मित होता रहा है। लेवी स्ट्रास के संरचनावाद की तरह, इस पाठ का बाह्य कुछ न होने से इसपर बाहर का न कोई असर पड़ता है, न इसकी बाहर से व्याख्या की जा सकती है। संरचनावाद में विचार के उत्स के बारे में नहीं सोचा जाता है। जो एक बार है वह हमेशा हैं। कोई उससे बाहर नहीं जा सकता। ज्यादा से ज्यादा उस उत्स को मिथक में बदला जा सकता है। डा. रामविलास शर्मा की तरह के प्रगतिशीलों ने हिंदी के इस जगत में रामचंद्र शुक्ल के जरिये ‘रहस्यवाद-विरोध’ का एक बाहरी जीवाणु डाल कर साहित्यिक क्रियाशीलता के मिथकीकरण का ऐसा काम किया, जो साहित्य में आत्मगतता से इंकार का एक उत्कट, कुत्सित और कुवचनों से भरा रुच्छता का रोग साबित हुआ। इसे देखते हुए आज यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होती कि इससे तो बेहतर है उस भाववाद की शरण में जाना जो कम से कम अलौकिक ईश्वरीय ‘अन्य’ की खाई तैयार करके हमारे शरीर की, हमारी पहुंच की सीमाओं के संकेत तो देता है !

सच यह है कि वर्तमान का डर ही अतीत पर रहस्य के आवरण डालता है। अतीत रहने का स्थान नहीं होता। वह तो सीखों का एक कुआं है जिससे हम अपने काम की चीजें निकालते हैं। लेकिन ऐसे सांस्कृतिक रहस्यीकरण का दुहरा नुकसान यह होता है कि हम खामखाह किसी भी कृति को बहुत दूर की चीज बना लेते है, जिससे अपने काम की चीज निकालना हमारे लिये दुष्कर हो जाता है।

साल भर पहले, वर्धा के महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन का महावीर प्रसाद द्विवेदी पर एक विशेषांक (अप्रैल-जून 2015) आया था। इसका प्रत्येक लेख डा. शर्मा की एकपक्षीय बातों के पिष्टपेषण के अलावा कुछ नहीं है। एक भी विद्वान के मन में उर्दू भाषा के प्रति द्विवेदी जी के शत्रुतापूर्ण रुख के बारे में कोई सवाल पैदा होता नहीं दिखाई देता है ! यह एक ही चीज को बार-बार दोहराये जाने के खोखलेपन की छुद्रता का उदाहरण है।

द्विवेदी जी बीसवीं सदी के प्रारंभ के उस काल में, जब बांग्ला नवजागरण अपने उरूज पर था, एक बंगाली व्यवसायी की महत्वाकांक्षी हिंदी पत्रिका के लगातार अठारह साल तक संपादक रहे। इसके पहले वे एक दक्ष रेलवे कर्मचारी थे और रेलवे में नौकरी के दौरान ही सरस्वती के मालिक ‘चिंतामणि घोष ने उन्हें अपनी पत्रिका के लिये चुन लिया था। ‘सरस्वती’ का प्रकाशन सन् 1900 में काशी के नागरी प्रचारणी सभा के सहयोग से शुरू हुआ था। इसके सात साल बाद इसी प्रैस से कोलकाता से ‘प्रदीप’ और ‘प्रवासी’ जैसी प्रसिद्ध बांग्ला पत्रिकाओं के संपादक रमानंद चटर्जी ने अंग्रेजी में ‘माडर्न रिव्यू’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस जमाने में पूरे भारत के बौद्धिक विमर्श का सबसे प्रमुख मंच बन कर सामने आई थी। इसी ढर्रें पर स्वाभाविक ही था कि ‘सरस्वती’ की तरह की हिंदी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका में भी उसके संपादक के नाते द्विवेदी जी ने अपने समय के विविध विषयों पर उल्लेखनीय पत्रकारितामूलक लेखन किया।

लेकिन ध्यान से देखा जाए तो इतिहास, पुरातत्व, श्रद्धांजलियों और विविध प्रसंगों के  अलावा उनके लेखन का अधिकांश हिस्सा साहित्य और भाषा से संबंधित ही था। मसलन्, रचनावली के पहले भाषा विषयक खंड के बाद उसका दूसरा खंड भी साहित्य संबंधी टिप्पणियों का संकलन है। और इन तमाम टिप्पणियों में मूलत: उनका क्या नजरिया था ? वे साहित्य को रचनाकार के अन्त:करण में उपजे रस का शब्द-रूप मानने पर भी खुद को जैसे साहित्य-रसिक नहीं, बल्कि साहित्य-संचालक मानने लगे थे। अपनी ‘नाट्यशास्त्र’ पुस्तिका में वे कहते हैं कि ‘नाट्य शास्त्र के आचार्य भरत जी की आज्ञा है कि दृश्य काव्य की भाषा बहुत ही परिमार्जित होनी चाहिए। ...इस नियम का पालन दृश्य काव्य के कवियों ने बड़ी दृढ़ता से किया।’

अर्थात श्रेष्ठ नाटक लिखे गये आचार्य भरत के निर्देशों का पालन करके !

और कहना न होगा, ‘सरस्वती’ के संपादक की पीठ से आचार्य द्विवेदी ने अपने लिये हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में आचार्य भरत की पीठ को सुरक्षित कर लिया। कविता में छंद, भाषा, अर्थ और विषय - सभी मामलों में वे कवियों के कर्तव्यों को निर्धारित करने लगे। परिणाम यह हुआ, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वे खुद कालिदास, भवभूति और भक्त कवियों की रचनाओं के रसिक और बाद की रचनाओं के कोरे निदेशक बन कर रह गये ; हिंदी समालोचना के क्षेत्र में वह जमीन तैयार कर दी जिस पर रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) ने छायावादी रचनाकारों से लेकर प्रेमचंद तक की आसानी से लानत-मलामत की। डा. रामविलास शर्मा ने भी इससे शास्त्रों के प्रयोग से साहित्य को हांकने की भरपूर सीख ली। मुक्तिबोध, शमशेर ही नहीं, जैनेन्द्र, यशपाल तक उनके दंडों की मार से नहीं बचे।

शास्त्रों की चौखटाबंदी की विडंबना यह है कि वह खुद भी चौखटाबंद हो जाता है। शास्त्रों का बंदी विद्वान यथार्थ में रमने की अपनी जैविक-क्षमता को गंवा देता है। इसी के चलते डा. शर्मा अंतत: खुद एक जीते-जागते अन्तर्विरोध बन कर रह गये - ‘एक तरफ यह और दूसरी तरफ वह’ - एक तरफ गदर और दूसरी तरफ छायावाद - एक तरफ अंग्रेजी से विरोध और दूसरी तरफ उर्दू से विरोध - के बीच मेल बैठाने वाली बाजीगरी से तत्काल में बाजी मात करने वाली टुटपुंजिया अहम्मन्यता के खिलाड़ी, जिनका अपना लेखन अन्त में अपने सामान्य नैतिक तत्व को भी गंवा कर शांत होता है। डा. शर्मा के अंतिम भारी-भरकम ग्रंथ, ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के दो खंड इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। इन ग्रंथों तक आते-आते खुद उनके लिये ‘हिंदी नवजागरण’ का दो कौड़ी का मोल नहीं रह जाता है और जिस हिंदू सांप्रदायिकता के विरोध में उन्होंने हिंदी जाति के तत्व को खड़ा करना चाहा था, अन्त में वे सारत: उसीके सेवकों की कतार में शामिल दिखाई देने लगते हैं ! अपने लेखन के नैतिक तत्व को भी गंवा देते हैं !

बहरहाल, लंबे समय तक अपने समय की एक महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी पत्रिका के संपादक के नाते अनेक विषयों पर द्विवेदी जी की सूचनामूलक टिप्पणियों के महत्व से उसी प्रकार इंकार नहीं किया जा सकता है, जिस प्रकार हिंदी में ‘सरस्वती’ पत्रिका की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। आज के जमाने में जब हम दुनिया की ‘इकोनामिस्ट’ आदि की तरह की बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं को देखते हैं तो पाते हैं कि अक्सर बहुत ही महत्वपूर्ण, ऐसी सूचनामूलक टिप्पणियों-लेखों पर उसके लेखक का नाम ही नहीं होता है। पत्रिका का ब्यूरो एक-एक विषय पर बड़े-बड़े परिशिष्ट तैयार करता है। मसलन्, इसके बिल्कुल ताजा 28 मई 2016 से 3 जून 2016 के अंक में ही ‘आप्रवासन (migration) विषय पर चौदह पृष्ठों की ढेर सारी सामग्री है, जिसमें आदमी की घर की तलाश, इस विषय पर होने वाले विमर्श की पदावली, इसकी राजनीति, इसका एक कामचलाऊ समाधान, इससे हासिल की जाने वाली श्रमशक्ति, इसके भौगोलिक पहलू, इसकी अनित्यता और इसके संभावित सुफल पर अलग-अलग महत्वपूर्ण सामग्री और उन पर टिप्पणियां भी है। लेकिन किसी पर उसके किसी लेखक का नाम नहीं है। यह सारी सामग्री एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या को समझाने में एक पत्रिका की भूमिका के रूप में सामने आती है। ‘इकोनोमिस्ट’ के अंकों में इस प्रकार के विशेष पृष्ठों के परिशिष्ट अक्सर आते रहते हैं। इन सामग्रियों से ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका का संपादक आज के समाज में खुद को किसी संक्रांतिमूलक घटना का अग्रदूत नहीं बता सकता।

‘सरस्वती’ के बारे में डा. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि ‘‘जब वह पत्रिका प्रसिद्ध हो गई, तब भी उपयुक्त लेख प्राप्त करते रहना सरल नहीं था। यदि द्विवेदी जी अपना दल बना कर सरस्वती में इस दल के लेखकों की चीजें ही छापते, उसके स्तर का ध्यान न रखते, तो सरस्वती हिन्दी की जातीय पत्रिका न होती, वह हिन्दी की प्रतिनिधि पत्रिका न होती।’’(रामविलास शर्मा, महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, पृ: 365)
लेकिन, पत्रिकाओं में काम करने वाले ऐसे दल को ही आज ब्यूरो कहा जाता है, जो उसके लेखक या संपादक का नहीं, समग्रत: पत्रिका का चरित्र बनाता है, जैसा कि हमने ऊपर ‘इकोनोमिस्ट’ के संदर्भ में कहा।

द्विवेदी जी ने, जिसे स्वतंत्र पुस्तक कहते हैं, एक ही पुस्तक लिखी -‘संपत्तिशास्त्र’। उनकी प्रकाशित अकेली पुस्तक। कभी जवानी के दिनों में ‘टके साधने’ के लिये एक और अत्यंत रसभरी किताब जरूर लिखी थी और उसे लेकर काफी बड़े-बड़े सपने भी देखे थे, लेकिन वह उनकी स्वाभिमानी पत्नी का कोपभाजन बन कर जो एक संदूक में बंद हुई तो फिर उसने कभी दिन का उजाला नहीं देखा।

‘संपत्तिशास्त्र’ की भूमिका में द्विवेदी जी ने बड़ी विनम्रता से यह स्वीकारा है कि ऐसे विषय की ‘‘पुस्तक लिखने की हममें योग्यता नहीं’’ होने पर भी जब दूसरा कोई योग्य व्यक्ति हिंदी में यह नहीं कर रहा है तब ‘अकरणान्मन्दकरण श्रेय:’ के तर्क पर ‘‘हमारे सदृश अयोग्य जन भी यदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस शास्त्र के स्थूल सिद्धांत हिन्दी में लिख कर उनके प्रचार का यत्न करें तो कोई दोष की बात नहीं।’’

इसी भूमिका में द्विवेदी जी ने अंग्रेजी, बंगला, उर्दू, मराठी और गुजराती की उन 17 किताबों का नाम गिनाया है जिनसे इस किताब को लिखने में सहायता ली गई। इनके अतिरिक्त समाचारपत्रों, मासिक पुस्तकों और सरकारी रिपोर्टों से भी मदद ली गई। यहां तक कि उन्होंने पण्डित माधवराव सप्रे बी.ए. की हिन्दी में अर्थशास्त्र संबंधी पुस्तक की उस पांडुलिपि का भी उल्लेख किया है जो सप्रे ने सालों पहले लिख लेने के बाद भी प्रकाशित नहीं कराई थी और द्विवेदी जी के मांगने पर उन्हें भेज दी थी।

इस पुस्तक को लिखने की इस प्रकार की तैयारी के बाद भी द्विवेदी जी अपनी भूमिका के अंत में लिखते हैं कि ‘‘संभव है उन्हें (पुस्तक की त्रुटियों को) देख कर किसी योग्य विद्वान को हिंदी पर दया आवे, और उसके उदार हृदय में सम्पत्तिशास्त्र पर एक निर्दोष, निर्भ्रांत और निरुपम पुस्तक लिखने की इच्छा उत्पन्न हो। यदि हमारी यह संभावना, कभी किसी समय फलीभूत हो जाय तो हम समझेंगे कि हमारी त्रुटिपरिपूर्ण पुस्तक ने बड़ा काम किया।’’

यह था द्विवेदी जी का बड़प्पन। सरस्वती में उनके लेखन की विपुल सामग्री से लगभग 85 किताबें प्रकाशित हुई थी, लेकिन खुदकी किताब के रूप में उन्होंने सिर्फ ‘सम्पत्तिशास्त्र’ को मान्यता दी। बाकी साहित्य, इतिहास और पुरातत्व, दुनिया के नाना विषयों तथा अनेक व्यक्तियों पर अपनी टिप्पणियों को उन्होंने अपने संपादकीय काम की जरूरतों की उपज माना। द्विवेदी जी कितने महत्वपूर्ण और  निष्ठावान संपादक थे, उसे उनके ‘आत्मनिवेदन’ के इस अंश से भी जाना जा सकता है जिसमें वे लिखते हैं –

‘‘सरस्वती के सम्पादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिये कुछ आदर्श निश्चित किये। मैंने संकल्प किया कि (1) वक्त की पाबंदी करूँगा; (2) मालिकों का विश्वासपात्र बनने की चेष्टा करूँगा ; (3) अपने हानि-लाभ की परवा न करके पाठकों के हानि-लाभ का सदा खयाल रक्खूँगा ; (4) न्याय-पथ से कभी न विचलित हूँगा। ’’

इसी में आगे वे विस्तार से यह भी बताते हैं कि उन्होंने अपनी इन प्रतिज्ञाओं का किसप्रकार सदैव पूरी निष्ठा से पालन करने का यत्न किया। ‘‘...प्रेस की मशीन टूट जाय तो उसका जिम्मेदार मैं नहीं। पर कापी समय पर न पहुँचे तो उसका जिम्मेदार मैं हूँ। मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी-जान होमकर किया। चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही क्यों न लिखना पड़ा हो, कापी समय पर ही मैंने भेजी। मैंने तो यहां तक किया कि कम से कम छ: महीने आगे की सामग्री सदा अपने पास प्रस्तुत रक्खी। सोचा कि यदि मैं महीनों बीमार पड़ जाऊँ तो क्या हो ?...(2) मालिकों का विश्वासभाजन बनने की चेष्टा में मैं यहां तक सचेत रहा कि मेरे कारण उन्हें कभी उलझन में पड़ने की नौबत नहीं आई। सरस्वती के जो उद्देश्य थे उनकी रक्षा मैंने दृढ़ता से की। ...(3) इस समय तो कितनी ही महारानियाँ तक हिन्दी का गौरव बढ़ा रही है; पर उस समय एकमात्र सरस्वती ही पत्रिकाओं की रानी नहीं; पाठकों की सेविका थी।...अल्पज्ञ होकर भी किसी पर अपनी विद्वता की झूठी छाप लगाने की कोशिश मैंने कभी नहीं की। (4) सरस्वती में प्रकाशित मेरे लघु लेखों (नोटों) और आलोचनाओं ही से सर्वसाधारण जन इस बात का पता लगा सकते हैं कि मैंने कहाँ तक न्याय मार्ग का अवलम्बन किया।’’

द्विवेदी जी की उपरोक्त सारी बातें इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि वे एक बड़े संपादक से अपेक्षित मूल्यबोध के ज्वलंत उदाहरण थे। यह स्वयं में हिंदी को उनका कम बड़ा अवदान नहीं था। किसी भी दृश्यपट में एक व्यक्ति के प्रवेश से दृश्य बदल जाता है। इतिहास में भी व्यक्ति का प्रवेश एक घटना होता है। हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में आचार्य द्विवेदी का प्रवेश एक ऐसा ही सर्व-स्वीकृत ऐतिहासिक तथ्य है जिससे हिंदी लेखन का परिदृश्य बदल गया था। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि हम एक अकल्पनीय गति से बदल रही चीजों के काल में रह रहे हैं। और जब कोई भी विचार निश्चयात्मक नहीं होता, तब मुमकिन नहीं रह जाता कि किसी भी चीज को ईश्वर की तरह का अंतिम सत्य मान कर हम उसका पूजन करने लगे। कोई भी सही समझ जब गलत रूप में पेश की जाती है तो उससे उलझनें पैदा होती हैं, लेकिन उससे बहुत ज्यादा उलझनें तब पैदा होती हैं जब किसी गलत समझ को सही रूप में पेश किया जाने लगता है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को हिन्दी नवजागरण का अग्रदूत बनाने की रामविलास शर्मा की पूरी तरह से गलत समझ ने हिंदी की अकादमिक दुनिया को इसीलिये भारी परेशानी में डाल रखा है। इतिहास के मनगढ़ंत आख्यानों को रचने वाले बुद्धिजीवियों से पैदा होने वाली यह एक सामान्य समस्या है।

डा. शर्मा ने पहले खुद हिंदी नवजागरण के एक मिथकीय मिशन को अपनाया। सरस्वती पत्रिका के खास परिवेश से अलग करके महावीरप्रसाद द्विवेदी को एक अलग व्यक्ति की शक्ल दी और फिर इस आत्म-विखंडित व्यक्ति के जरिये उसके यथार्थ जगत को एक आत्मिक रूप दे दिया। इसप्रकार एक अगोचर जादूई शक्ति से एक काल में भाषा, साहित्य, विचार के सभी रूपों को मायावी बनाकर एक नये यथार्थ की सृष्टि की गई। व्यक्ति में देवत्व की स्थापना हमेशा उसका सर्वस्व छीन कर ही की जाती है। तभी जन्म से ही सृष्टि के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये अवतरित चरित्र - भगवान की बाल लीलाओं से लेकर अंत समय तक की लीलाओं वाला लीला पुरुष तैयार होता है। संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी के अंत से नवजागरण के दूत महावीर प्रसाद द्विवेदी का उदय हुआ। द्विवेदी जी अपने ‘कृत कार्यों’ को ‘उदरपूर्ति’ का परिणाम बताते हैं, लेकिन डा. शर्मा उसे कहते हैं हिंदी नवजागरण के लिये समर्पित प्राण का कृतित्व। जब द्विवेदी जी से उनके जीवन के यथार्थ को छीन कर उन्हें नवजागरण का दूत बना दिया जाता है, तभी तो डा. शर्मा का हिंदी नवजागरण का गढ़ा हुआ, मिथकीय यथार्थ निर्मित हो पाता है।

किसी भी कृति के वैज्ञानिक अध्ययन की सबसे पहली शर्त यह है कि हम उस कृति में जो और जैसा लिखा गया है, सबसे पहले बिल्कुल वैसे ही उसे पढ़ें, न कि जो उसमें नहीं लिखा गया है, उसे पढ़ने पर जोर देने लगे। यही बात व्यक्तियों के अध्ययन पर भी लागू होती है।


इन्हीं कारणों से, ऐसा लगता है कि आज यदि हमें द्विवेदी जी की वास्तविक पहचान  कायम करनी है तो सबसे पहले हिंदी नवजागरण के दूत बना दिये गये द्विवेदी जी की हत्या करनी होगी। ईश्वरीय प्रतिमाओं को नकारा नहीं जा सकता है। इसके लिये जरूरी होता है कि ईश्वर के उस व्यक्ति रूप को नकारा जाए जो कुछ आस्थावानों की बदौलत ईश्वर संबंधी कपोल-कल्पनाओं को जन्म देता है। माइथोलोजी शुरू होती है संसार में ईश्वर के अवतरण के पहले के उसके रहस्यमय संसार की कहानियों से। इसीलिये जब भी किसी व्यक्ति का मिथक तैयार किया जाता है तो ईश्वर की तरह सबसे पहले उसके इतिहास को रहस्यमय बना दिया जाता है, उसे समय-काल से काट दिया जाता है। उसका सामान्य आदमी का रूप उसका सच नहीं रह जाता। अपने देश-काल से निर्मित सामान्य मनुष्य जब किसी मनुष्य का सच नहीं रह जाता, बल्कि उसका सच उसके बाहर का, दैवी शक्तियों जैसा दिखाई देने लगता है, तभी आदमी आदमी नहीं रह जाता, ईश्वर बन जाता है। सामान्य लोगों पर लागू होने वाले मानदंडों के परे की चीज बन जाता है। वह सदा से स्वयं-संपूर्ण होता है; सनातन रूप से सभी प्रभावों से मुक्त, सभी तर्कों से परे।

ऐसे में, मिथकीय प्रतिमा में कैद मृत ईश्वर के सच तक पहुंचने का सही तरीका ईश्वर के बारे में अपनी सोच में आए ऐतिहासिक परिवर्तनों को सिर्फ बताने तक सीमित रहने के बजाय खुद ईश्वर का इतिहास लिखने की ओर बढ़ना है। सरस्वती पत्रिका के संपादक महावीरप्रसाद द्विवेदी के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उन्हें उन तमाम ज्ञानी-गुणी अध्यापक-जनों की कैद से मुक्त कराने का आह्वान करते हैं जो सब मिल कर इस बात को साबित करने में जुटे हुए हैं कि आधुनिक हिंदी अकेले महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथों, उनकी करिश्माई, दैविक शक्ति से, उनके संपादन में निकली एक पत्रिका के जरिये वैसे ही निकली है जैसे कभी शंकर जी की जटा से गंगा निकली थी।

सिद्धार्थ मुखर्जी अपनी किताब ‘The Laws of Medicine’ में कहते हैं कि चिकित्सा की दुनिया इतनी बेतरतीब और अनिश्चित होती है, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। शरीर के अंगों, बीमारियों और रसायनिक प्रतिक्रियाओं के तमाम नामकरण से डाक्टरों ने ज्ञान के एक लगभग असंभव क्षेत्र से खुद को बचाने के तरीके खोजे हैं। तथ्यों की भीड़ ने एक कहीं ज्यादा गंभीर और महत्वपूर्ण समस्या को ओझल किया है - ज्ञान (सुनिश्चित, तयशुदा, सही और ठोस) तथा विवेक (अनिश्चित, तरल, अधूरा और अमूर्त) के बीच संगति कायम करने की समस्या को। चिकित्सा के नियम अधूरेपन और लक्षणों पर टिके नियम हैं। ये ज्ञान के सभी अनुशासनों पर समान रूप से लागू होते हैं। फिर कहा यही जाता है कि बुराई के चयन के बाद हम अच्छाई को तभी प्राप्त करते हैं जब हम अपनी परिस्थिति की दुरावस्था से परिचित हो जाते हैं।
बहरहाल,  इस लेख का अंत हम एक चालू उक्ति से करना चाहेंगे - ‘जख्म को वही चाकू भर सकता है जो उसे चीर देता है’।




 


बुधवार, 14 सितंबर 2016

रवीन्द्रनाथ और जार्ज लुकाच की कोरी फतवेबाजी का सच

-अरुण माहेश्वरी








फेसबुक पर अनायास ही कुछ मित्रों अजायबघर से ढूंढ कर रवीन्द्रनाथ के उपन्यास ‘घोरे बाहिरे’ की समीक्षा को उछाला है कि यह न सिर्फ रवीन्द्रनाथ के उपन्यास लेखन की धज्जियां ही उड़ाता है बल्कि एक के शब्दों में तो यह रवीन्द्रनाथ के खिलाफ लुकाच का एक फौजदारी अभियोगपत्र है। फेसबुक पर मैंने जब इसपर आपत्ति की तो हमारे मित्र कृष्ण कल्पित ने अपने स्वाभाविक बेलौस अंदाज में फेसबुक की खास ट्रौलिंग (कीर्तिगान) की परंपरा में लिख मारा था - ’’कोई बंगाली या मारवाड़ी-बंगाली तभी तक मार्क्सवादी है जब तक रवीन्द्रनाथ का नाम न आये । रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर वे सैंकड़ों कार्ल मार्क्स और हज़ारों जॉर्ज लूकाच क़ुर्बान कर सकते हैं !”1

हम अभी शुरू में ही रवीन्द्रनाथ के इस उपन्यास की लुकाच की उस समीक्षा पर कोई अंतिम टिप्पणी के पहले उसमें क्या है, और उसकी अपनी भी एक क्या खास प्रकार की पृष्ठभूमि है, उसकी सचाई को रखना चाहते हैं। और जिन लोगों में इस समीक्षा से अचानक ही रवीन्द्रनाथ को किसी संगीन अपराध में पकड़ लिये जाने का रोमांच पैदा हुआ है, उन्हें इस विषय की पूरी सचाई की जमीन पर लाना चाहते हैं।

जार्ज लुकाच ने यह समीक्षा सन् 1922 में लिखी थी जिसका शीर्षक है - टैगोर का गांधी उपन्यास ( Tagore’s Gandhi Novel ) ।

गांधी यहां कोई संज्ञा नहीं, एक विशेषण है। अंग्रेजों और पश्चिम के अनेकों के बीच गांधी को एक चालाक लोमड़ी माना जाता था। भारत में कुछ लोग उन्हें अंग्रेजो का पिट्ठू तो मुसलमानों का दलाल समझते थे। कुछ खुद के बारे में उन्हीं के कहे को उद्धृत करते हुए उनको सनातनी हिंदू मानते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के कतिपय वामपंथी इतिहास में भी उन्हें पूंजीपतियों के प्रतिनिधि के रूप में विवेचित किया जाता रहा है। और खुद राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर उनके बारे में समय-समय पर यह शिकायत रहती थी कि अहिंसा और सत्य के प्रति अतिरिक्त आग्रह के कारण उन्होंने अनेक बार जनता के क्रांतिकारी उबाल पर पानी डालने का काम किया। उन्हें डिक्टेटर तो कहा ही जाता था।

लुकाच के ‘गांधी’ का क्या तात्पर्य है, यह तो हम आगे देखेंगे, लेकिन अभी की सचाई यह है कि गांधी के बारे में आज भारत में उस प्रकार की नफरत या दुर्भावना रखने वाले लोग आरएसएस के चंद हिंदू कट्टरवादी लोगों के अतिरिक्त कम ही बचे हैं। यहां गांधी एक विशेषण के तौर पर कोई अवमाननामूलक शब्द तो नहीं ही रह गया है !

बहरहाल, शुरू में ही हम  लुकाच से जुड़े कुछ दूसरे तथ्यों की ओर यहां ध्यान खींचना चाहते हैं।  लुकाच ने अपने लेखन के जिस काल में रवीन्द्रनाथ के इस प्रसिद्ध उपन्यास की समीक्षा लिख कर उसे एक सिरे से खारिज ही नहीं किया बल्कि उसकी बुरी तरह से निंदा करते हुए उसे भारी उपहास का विषय भी बनाया था, उसी काल में (सन् 1920-1930 के काल में )उपन्यास विधा के बारे में उनकी समग्र क्या समझ थी, इसे उन्होंने अपनी एक किताब ‘The Theory of the Novel’ में काफी विस्तार से लिखा था। और सबके जानने लायक दिलचस्प बात यह है कि लुकाच के विपुल लेखन में शायद उनकी यह अकेली किताब रही है, जिसे परवर्ती काल में, खास तौर पर स्तालिन के बाद की सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस के बाद में, लुकाच ने ही उस किताब के अपने एक प्राक्कथान में उसे पूरी तरह से, from roots to branches, ठुकरा  दिये जाने की बात कही थी।2

लुकाच की मृत्यु 1971 में हुई थी और मरने के नौ साल पहले, 1962 में इस किताब में उपन्यासों के बारे में सन् ‘20-‘30 की अपनी समझ के बारे में खुद उन्होंने लिखा था कि ‘‘ The author of The Theory of the Novel… was looking for a general dialectic of literary genres that was based upon the essential nature of aesthetic categories and literary forms, and aspiring to a more intimate connection between category and history than he found in Hegel himself; he strove towards intellectual comprehension of permanence within change and of inner change within the enduring validity of the essence. But his method remains extremely abstract in many respects, including certain matters of great importance; it is cut off from concrete socio-historical realities. For that reason, as has already been pointed out, it leads only too often to arbitrary intellectual constructs….When M. A. Lifshitz and I, in opposition to the vulgar sociology of a variety of schools during the Stalin period, were trying to uncover Marx’s real aesthetic and to develop it further, we arrived at a genuine historico-systematic method. The Theory of the Novel remained at the level of an attempt which failed both in design and in execution… the novel form are here the mirror-image of a world gone out of joint. This is why the ‘prose’ of life is here only a symptom, among many others, of the fact that reality no longer constitutes a favourable soil for art”

(‘ द थ्योरी ऑफ द नावेल’ का लेखक साहित्यिक शैली के बारे में एक सामान्य तर्क की तलाश कर रहा था, जो सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों और साहित्यिक रूपों के सार-तत्व पर आधारित हो, और हेगेल में उसने जो पाया उसकी तुलना में प्रतिमान और इतिहास के बीच और भी गहरे संबंध को पाना चाहता था ; उसने परिवर्तन के स्थायित्व और सार-तत्व की चिरस्थाई मान्यता के अंदर के परिवर्तने की एक बौद्धिक समझ कायम करने की कोशिश की थी। लेकिन अनेक दृष्टियों से उसका तरीका अत्यंत अबूझ सा रहा गया, यहां तक कि कुछ अत्यधिक महत्व के विषय भी अबूझ बने रहे ; वह सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ से ही कट गया।...स्तालिन के काल के कुत्सित समाजशास्त्र के कुछ स्कूलों के खिलाफ जब मैं और एम. ए. लिफशित्ज मार्क्स के वास्तविक सौन्दर्यशास्त्र को खोल कर और विकसित करने की कोशिश कर रहे थे तब हम एक वास्तविक ऐतिहासिक-व्यवस्थित प्रणाली तक पहुंच पाए थे। ‘थ्योरी ऑफ नावेल’  वहीं पड़ा रह गया जो अपने सोच और प्रयोग, दोनों ही मामलों में विफल साबित हुआ था। ...उसमें उपन्यास का ढांचा एक बिगड़ चुके विश्व के प्रतिबिंब की तरह था। इसीलिये उसमें जीवन का ‘गद्य’ अन्य चीजों की तरह, यह मान कर  कि यथार्थ कला के लिये अब कोई उपयुक्त जगह नहीं बची है, इस तथ्य का सिर्फ एक लक्षण भर बन कर आया था ।)

लुकाच के इस काल के लेखन पर कौन से प्रभाव काम कर रहे थे, इसे उन्होंने खुद बताया था -

‘‘ Kierkegaard always played an important role for the author of The Theory of the Novel, who, long before Kierkegaard had become fashionable, wrote an essay on the relationship between his life and thought.’ And during his Heidelberg years immediately before the war he had been engaged in a study, never to be completed, of Kierkegaard’s critique of Hegel. These facts are mentioned here, not for biographical reasons, but to indicate a trend which was later to become important in German thought. It is true that Kierkegaard’s direct influence leads to Heidegger’s and Jaspers’ philosophy of existence and, therefore, to more or less open opposition to Hegel…. Kierkegaard’s direct influence cannot yet be proved here. But in the 1920s it was present everywhere, in a latent form but to an increasing degree, and even led to a Kierkegaardisation of the young Marx.

(किर्केगार्द ने थ्योरी ऑफ नावेल के लेखक के लिये हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ...इन तथ्यों को यहां सिर्फ जीवन के तथ्यों को गिनाने के लिये नहीं बताया जा रहा है। ...किर्केगार्द के प्रत्यक्ष प्रभाव को अब भी साबित नहीं किया जा सकता है। लेकिन 1920 के जमाने में वह सर्वत्र मौजूद था, पोशीदा रूप में, लेकिन काफी ज्यादा मात्रा में , और यहां तक कि युवा मार्क्स का किर्केगार्दीकरण किया जा रहा था।)

सिर्फ इतना ही नहीं, अपनी तब की दृष्टि की तीव्र समीक्षा करते हुए लुकाच यहां तक चले जाते हैं कि -

‘‘ Thus, if anyone today reads The Theory of the Novel in order to become more intimately acquainted with the prehistory of the important ideologies of the 1920s and 1930s, he will derive profit from a critical reading of the book along the lines I have suggested. But if he picks up the book in the hope that it will serve him as a guide, the result will only be a still greater disorientation. As a young writer, Arnold Zweig read The Theory of the Novel hoping that it would help him to find his way; his healthy instinct led him, rightly, to reject it root and branch.”

(इसीलिये, आज यदि कोई ‘द थ्योरी ऑफ द नावेल’ को 1920 और 1930 के जमाने की प्रमुख विचारधाराओं के पूर्व इतिहास को गहराई से जानने के लिये पढ़ेगा तो वह मेरे सुझाए हुए ढंग से आलोचनात्मक नजरिये से पढ़ कर ही लाभान्वित हो पायेगा। लेकिन यदि वह इस उम्मीद में उस किताब को उठायेगा कि इससे उसे कोई दिशा-निर्देश मिल पायेगा तो इसका परिणाम उसके लिये और भी ज्यादा भटकाने वाला होगा। जैसा कि युवा लेखक आर्नोल्ड स्वाइक ने इससे कुछ सीखने के लिये इसे पढ़ा तो उसकी स्वस्थ इंद्रियों ने, बिल्कुल सही, इसे जड़ों से लेकर शाखा तक ठुकरा दिया।)
  

“संदीप निखिलेश्वर को समझाता है - ‘‘देखो निखिल, मनुष्यों का इतिहास दुनिया के सभी देशों और जातियों को लेकर तैयार हुआ है। इसीलिये धर्म को बेच कर की जाने वाली पोलिटिक्स से देश का निर्माण नहीं चल सकता है। मैं जानता हूं कि यूरोप इस बात को मन से नहीं मानता, लेकिन इसीलिये यूरोप हमारा गुरू हो जायेगा, यह मैं नहीं मानता।’’
इसके बाद ही संदीप का दूसरा वाक्य है - ‘‘सत्य के लिये आदमी मर कर अमर होता है, अगर कोई राष्ट्र भी मर जाए तो वह राष्ट्र अमर हो जायेगा। उस सत्य की भावना इस दुनिया में शैतान के गगनभेदी अट्टाहास के बीच सच साबित हो। लेकिन विदेश से आकर यह कौन सी पाप की महामारी हमारे देश में घुस आई है !’’(रवीन्द्र रचनावली, खंड - आठ, पश्चिमबंग सरकार, पृष्ठ -105-106)

(दैखो निखिल, मानुषेर इतिहास पृथ्वीर समस्त देश के समस्त जात के निये तैरी होये उठेछे, एई जन्ये पोलिटिक्सेउ धर्म के बिकिये देश के बाडि़ये तोला चोलबे ना। आमी जानि यूरोप एक कोथा मनेर संगे माने ना, किन्तु ताई बोलेई जे यूरोपई आमादेर गुरू ए आमी मानबो ना। सत्येर जन्ये मानुष मोरे अमर होय, कोनो जातिउ जदि मोरे ता होले मानुषेर इतिहासे सेउ अमर होबे। सेई सत्येर अनुभूति जगतेर मध्ये एई भारतवर्षेई खांटी होए उठूक शोयतानेर अभ्रभेदी अट्टहासीर माझखाने। किन्तु विदेश थेके ए की पापेर महामारी ऐसे आमादेर देशे प्रवेश करले !)

गौर करने की बात है कि संदीप ने अपनी मुस्लिम-विरोधी मानसिकता के अनुसार ही निखिलेश्वर को जो बात देश की लड़ाई के साथ ही धर्म की लड़ाई पर अटल रहने की सलाह देते हुए कही थी, लुकाच ने उसी बात को अपनी समीक्षा में  विकृत करके रवीन्द्रनाथ की बात के रूप में उद्धृत कर दिया था। उनके शब्दों में ‘‘He writes: “Men who die for the truth are immortal ; and if a whole people dies for the truth it will achieve immortality in the history of mankind” और इसके बाद ही लुकाच साहब रवीन्द्रनाथ के विचारों के बारे में अपना अंतिम सुना देते हैं  - ‘‘This stance represents nothing less than the ideology of the eternal subjection of India”।

’’यह मत भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा से जरा भी कम नहीं है।’’

इसे लुकाच की बौद्धिक गैर-ईमानदारी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?


यह थी लुकाच की उपन्यासों के बारे में अपनी ही तत्कालीन समझ पर राय, जिस समय उन्होंने रवीन्द्रनाथ की ‘घोरे बाहिरे’ की समीक्षा लिखी थी। खुद लुकाच कहते हैं कि उस समय की उनकी समझ का मार्क्सवाद से कोई संपर्क नहीं था ;  उससे उपन्यास पर कोई सही समझ हासिल नहीं की जा सकती थी ; और यहां तक कि किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क को उसे पूरी तरह से, आद्योपांत ठुकरा देना चाहिए, जैसा कि आर्नोल्ड ज्वैग ने किया।

कहना न होगा, उसी काल में रवीन्द्रनाथ के ‘घोरे बाहिरे’ के बारे में लुकाच की समीक्षा की भी यही सचाई है - एक शुद्ध बकवास, जिससे हासिल कुछ भी नहीं किया जा सकता और किसी भी स्वस्थ इंसान के द्वारा उसके एक-एक शब्द को ठुकरा देना ही बिल्कुल स्वाभाविक है। यह हमारी राय नहीं, खुद लुकाच की उस काल विशेष मे उपन्यासों की उनकी आम समझ के बारे में राय रही है। और उनकी इस आत्म-स्वीकृति की  सचाई को हम आगे इस उपन्यास और उसपर लुकाच की समीक्षा पर विस्तृत चर्चा के संदर्भ में ज्यादा ठोस रूप में देखेंगे।

अपनी इस समीक्षा में लुकाच सिर्फ रवीन्द्रनाथ से नहीं, एक प्रकार से तत्कालीन जर्मन कुलीन समाज की साहित्य की समझ से भी अपने प्रकार का शायद कोई ‘वर्ग संघर्ष’ कर रहे थे। रवीन्द्रनाथ के प्रति जर्मनी के इन लोगों के आदर-भाव को वे इस समीक्षा में एक ‘सांस्कृतिक स्कैंडल’ (cultural scandal) और जर्मनी के संभ्रांतो का एक ऐसा ‘सांस्कृतिक स्खलन’ (total cultural dissolution) बताते हैं जो असली और नकली के बीच भेद करने की अपनी पुरानी शक्ति को भी गंवा चुका है।

लुकाच अपनी इस समीक्षा के पहले वाक्य में ही रवीन्द्रनाथ को एक ‘बेकार का आदमी’ (insignificant figure) घोषित करके फतवा देते हैं कि उनके चरित्र लुंजपुंज और घिसे-पिटे (pale sterotypes)होते हैं और कहानी ऊबाऊ (uninteresting)। उपनिषदों और भागवद गीता के कचरे से बिन कर (stirring the scraps) वे अपना काम चलाते हैं। जर्मन पाठकों को यह कह कर लताड़ते हैं कि उन्हें ‘पाठ’ और ‘उद्धरणों’ के बीच फर्क करने की तमीज न होने के कारण वे भारतीय दर्शन की झूठन (scanty leftovers) की तरह की त्याज्य चीज का स्वाद लेने लगते हैं। इन जर्मनों पर उनका आक्षेप है कि जो अपने देश के दार्शनिकों के बीच ही फर्क नहीं कर पाते हैं, तो सुदूर भारत के संसार के बारे में कैंसे जानेंगे ! और इसी रौ में लुकाच ने रवीन्द्रनाथ के लेखन की तुलना एक नितांत स्थानीय साधारण से लेखक फ्रेंसेन के सडि़यल ऊबाऊपन (unctuous tediousness) से भी कर डाली। अंग्रेजों द्वारा टैगोर के मान को तो उन्होंने ब्रिटिश शासकों द्वारा अपने एक ‘बौद्धिक दलाल’ (intellectual agent) को दिया जाने वाला पुरस्कार बता दिया और रवीन्द्रनाथ का इतना कीर्तिगान करने के बाद जब वे ‘घोर बाहिरे’ उपन्यास पर आते हैं तो शुरू में ही उसे उपन्यास की जगह महज एक प्रचारमूलक, भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के खिलाफ घटिया सा ‘पैंफलेट’ घोषित कर दिया, सड़े हुए ज्ञान में सना हुआ पैम्फलेट (steeped in unctuous ‘wisdom’)। और टैगोर की सफलता को टैगोर का कृतित्व नहीं, बल्कि जर्मन कुलीनों की मानसिकता का परिणाम परिणाम बताया । इसके अलावा इस उपन्यास में उन्हें भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति एक नपूंसक घृणा दिखाई दी, और टैगोर के ‘सत्य और अहिंसा’ के रास्ते को वे ‘भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा’ (ideology of the eternal subjection of India) कहने से भी नहीं चूके।

उनकी इन बातों की तह में जाकर आगे हम देखेंगे कि  उपन्यासों के बारे में अपनी जिस समझ के जिस सडि़यलपन को खुद उन्होंने यह कह कर स्वीकारा था कि वे तब साहित्य के पूरे ढांचे में हमेशा एक ‘स्थायी तत्व’ की तलाश में जुटे रहते थे, उनका तरीका ‘सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ से कटा हुआ तरीका था, उस पर फिख्ते के ‘पूर्ण शैतानियों के युग की छाया थी ( The Theory of the Novel is not defined in Hegelian terms but rather by Fichte’s formulation, as ‘the age of absolute sinfulness’),  ये सारी बातें  इस समीक्षा में पूरी तरह से मौजूद है। इससे भी दो कदम आगे बढ़ कर पायेंगे कि इस समीक्षा में लुकाच ने किसी भी बड़े चिंतक से की जाने वाली बौद्धिक ईमानदारी का भी परिचय नहीं दिया था। उन्होंने उपन्यास के उद्धरण को पूरी नासमझी के साथ गलत ढंग से पेश करके रवीन्द्रनाथ पर दुनिया भर की तोहमते जड़ दी थी।

फेसबुक की कल्बे कबीर की वाल पर उनके सबसे पहले के कथन पर, जिसमें उन्होंने लुकाच की इस समीक्षा को उछाला था, प्रतिक्रिया देते हुए मैंने यह लिखा था कि ‘‘यह सच है कि रवीन्द्रनाथ पर बांग्ला में आज तक हजारों किताबें आ चुकी है और उनके बाद भी आज तक वे बांग्ला के किसी भी साहित्य प्रेमी या साहित्य चिंतक के समान रूप से आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। और यह भी सच है कि यह विषय कोरा जातीय अभिमान या गौरव का मामला नहीं है। बल्कि रवीन्द्रनाथ पर इतनी सारी पुस्तकों के निरंतर प्रकाशन के बावजूद उनके साहित्य और विचारों से परिचित हर व्यक्ति की यह एक सामान्य अनुभूति है कि वे दुनिया के एक ऐसे रचनाकार-चिंतक हुए हैं जिन्हें शायद सबसे कम समझा गया है। रवीन्द्रनाथ के साहित्य को जो जितना ज्यादा जानता है, उसकी यह अनुभूति उतनी ही ज्यादा प्रगाढ़ होती है।

हमने वहां यह भी कहा था कि ’’ रवीन्द्र साहित्य के अध्येताओं को ऐसा महसूस होना अकारण नहीं है। क्योंकि आज तक भारत के प्राचीन औपनिषदिक चिंतन की दीर्घ परंपरा को आधुनिक जीवन की अन्विति में दुनिया में कहीं भी विचार का विषय तक नहीं बनाया जा सका है। अरविंद और राधाकृष्णन आदि की तरह के लोग पौर्वात्य चिंतन के कोरे प्रचारक हुए। लेकिन यह पौर्वात्य चिंतन बदलते हुए आधुनिक जीवन के साथ संगति में कैसे क्रियाशील है, कैसे लोगों के व्यवहार को लगातार प्रभावित करता है, इसे यदि किसी एक लेखक-चिंतक की रचनाओं और विचारों के माध्यम से गहनता और समग्रता से जाना जा सकता है तो हम भारत में अकेले रवीन्द्रनाथ को पायेंगे। आधुनिक चिंतन के मानदंडों पर हम अपने जीवन और साहित्य की आलोचना तो कर सकते हैं, लेकिन उसकी एक समग्र व्याख्या और समझ कायम करने के लिये जरूरी है कि हम अपने अन्तर में घर किये बैठी तमाम पुरातन धारणाओं की सचाई को भी जानें। अक्सर हम अपने दैनन्दिन व्यवहार में अपने विचारों की तुलना में काफी आगे दिखाई पड़ते हैं। विज्ञान के दिये हुए अधुनातन उपकरणों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, सारे विश्व के संपर्क में रहते हैं। लेकिन अधिकांशत:  हमारा मानस आधुनिक वैश्विक मनुष्य के मान-मूल्यों को अपनाने में असमर्थ होता है। उसके अपने अंतर की अनेक बाधाएं होती है, जिनका अतिक्रमण करना उसके लिये एक बेहद कष्ट-साध्य काम होता है।

“ऐसे में रवीन्द्रनाथ अकेले हैं जिनके साहित्य, और जीवन में भी प्राचीन औपनिषदिक चिंतन की सूक्ष्मतम और गहनतम जड़ों के साथ ही अधुनातन विश्व मानव की धड़कनों को सुना जा सकता है। इनके द्वंद्वों और उन द्वंद्वों के समाधानों को भी उनके साहित्य की व्याख्याओं में देखा जा सकता है।“

इसी सिलसिले में हमने पश्चिम बंगाल की राजनीति का भी एक छोटा सा उदाहरण दिया था कि कैसे ’’जब बंगाल में सन् ‘67 में पहली संयुक्त मोर्चा सरकार बनी और इसके साथ ही भूमि आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया था, किसान सभा के नेतृत्व में जमींदारों की हदबंदी से अधिक जमीन पर कब्जा किया जाने लगा। लेकिन बाद के अनुभवों ने यह बताया कि नाना कारणों से ऐसी कब्जा की गई जमीन पर किसान अपने अधिकार को कायम नहीं रख सके। यहां तक कि किसान सभा और पार्टी के दस्तावेजों में भी इस बात को नोट किया गया कि कब्जा करके ली गई जमीन के प्रति खुद भूमिहीन किसान भी असहज था। इसीलिये 1977 में जब वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ, यह निर्णय लिया गया कि किसान जमीन पर खुद कब्जा नहीं करेगा, किसान सभा की मदद से सरकार अतिरिक्त जमीन की सिनाख्त करके उसका अधिग्रहण करेगी और उस सरकारी जमीन को भूमिहीनों के बीच बाकायदा आवंटित किया जायेगा। दूसरे की जमीन पर कब्जा करने को किसानों का संस्कार सहजता से स्वीकार नहीं पा रहा था।

“कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हमारे संस्कारों का हमारे जीवन के सभी निर्णयों पर गहरा असर रहता है। अगर इस बात को नहीं समझेंगे तो प्रेमचंद के होरी के गोदान के आग्रह को समझना भी असंभव होगा। और भारतीय मनुष्य के इस सच की गहनतम गहराइयों का सबसे बड़ा चितेरा और व्याख्याता अगर कोई है तो उसमें हम रवीन्द्रनाथ के साहित्य और चिंतन को हम पहले स्थान पर पाते हैं।“

इसी में हमने ‘घोरे बाहिरे’ के प्रसंग को अलग से उठाते हुए लिखा था कि  “लुकाच की वह समीक्षा ( Tagore’s Gandhi NovelReview of Rabindranath Tagore: The Home and the World) उनके जिस उपन्यास ‘घोरे बाहिरे’ पर केंद्रित है वह तीन चरित्रों, विमला, उसके पति निखिलेश्वर और आतंकवादी क्रांतिकारी संदीप के आत्मकथनों से निर्मित एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें इन तीनों चरित्रों को तीनों के आत्मकथन के जरिये अपने-अपने नजरिये से परस्पर को खोल कर देखने की एक अनोखी तकनीक का प्रयोग किया गया है। और उस उपक्रम में यह सच है कि क्रांतिकारी संदीप का चरित्र ही, अपने उग्र सांप्रदायिक विचारों और वासनाओं के कारण  सबसे अधिक कमजोर चरित्र के रूप में उभर कर सामने आता है। लुकाच की प्रविृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले टाइप चरित्रों के मानदंड में क्रांतिकारी को सर्वगुण संपन्न होना चाहिए था, क्योंकि वह अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई में उतरा हुआ था। लेकिन लुकाच को उसके भारतीय संदर्भ का, उसके अंदर गहरे तक बैठी धार्मिक संकीर्णताओं का और उसकी नारियों के प्रति कुंठाओं का कोई अनुमान नहीं था। रवीन्द्रनाथ ने उस उपन्यास में इस क्रांतिकारी की तमाम कमजोरियों को दिखाने के साथ ही निखिलेश्वर की तरह के एक गृहस्थ की उदारता और उदात्तता को] और विमला के नारी चरित्र की सचाई को जिस प्रकार उभारा है, वह साधारण नहीं है। एक क्रांतिकारी को इसप्रकार से पेश करने के लिये किसी समय वामपंथियों ने भी रवीन्द्रनाथ के इस उपन्यास की काफी आलोचना की थी। लेकिन कालक्रम में इस विषय में भी वामपंथी साहित्य चिंतकों ने रवीन्द्रनाथ के उस उपन्यास के कथ्य और पूरे ढांचे को अपनी स्वीकृति दी। सत्यजीत राय ने तो इस उपन्यास पर अनोखी फिल्म बनाई।“

1905 के बंगभंग आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखे गये इस उपन्यास में एक प्रवंचक और वासनाग्रस्त चरित्र संदीप के चरित्रांकन पर लुकाच उछल पड़ते हैं, लेकिन उस बंगभंग आंदोलन के वक्त के रवीन्द्रनाथ के बारे में लुकाच को यदि रत्ती भर भी ज्ञान होता तो वे शायद इस प्रकार की बातों को कहने की कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे !

लुकाच रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि का मजाक उड़ाते हैं। लेकिन यदि किसी को रवीन्द्रनाथ के जीवन में इस दृष्टि की भूमिका को समझना है तो उसे उनके जीवन के इतिहास को जानना होगा। रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक शिक्षा ने उन्हें कभी भी पुनरुत्थानवाद की ओर नहीं ढकेला। ये सब ऐतिहासिक तथ्य है कि काफी दबाव के बावजूद वे तिलक के गणपति उत्सव और वीर शिवाजी के मिथक की तर्ज पर किसी देवी-देवता की वंदना के सार्वजनिक उत्सव या बंगाली राजा की वीरगाथा का आख्यान खड़ा नहीं करते, बल्कि इस प्रकार की कोशिशों का मुखर विरोध करते हैं। न , ‘गोरक्षणी सभा’ के गोरक्षा की तरह के आंदोलनों के प्रति उनकी कोई सहानुभूति थी। इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ की सहानुभूति संथाल विद्रोह और सिपाही विद्रोह के प्रति थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को वे काफी पहले से ही समझने लगे थे। और यही वजह है कि वे हमेशा कविता के कल्पनालोक से निकल कर लड़ाई के मैदान में उतर पड़ने के लिये आकुल रहा करते थे। उनकी अमर कविता ‘एबार फेराओ मोरे’ के ये शब्द: “एबार फेराओ मोरे, लोये जाओ संसारेर तीरे/हे कल्पने रंगमयी। दोलाओ ना समीरे समीरे/तरंगे तरंगे आर, भुलाओ ना मोहिनी मायाय। /विजन विषादघन अन्तरेर निकुंज छायाय/रेखो ना बोसाये आर। ...”
(अब मुझे लौटा कर संसार के तट पर ले आओ/ हे कल्पना की रंगमयी / मत झुलाओ हवा हवा में/लहर लहर में, न मोहित करो मोहिनी मायासे। /निर्जन, घने विषाद भरे अंतर की लताओं की छाया में/ मत रखो और बैठा कर। ...”)

इसीप्रकार उनका असाधारण ‘आहृान गीत’: “चलो दिवालोक, चलो लोकालये, /चलो जन कोलाहले - /मिसाबो हृदय मानवहृदये/असीम आकाश तले।” (चलो दिवालोक में, लोकालय में/चलो जनकोलाहल में -/मिलाऊंगा हृदय मानव हृदय से/असीम आकाश के तले।) इसके सबसे बड़े प्रमाण है।

लुकाच ‘घरे बाहिरे’ के आधार पर जिस काल के रवीन्द्रनाथ को अंग्रेजों का ‘बौद्धिक दलाल’ बता रहे थे, वह रवीन्द्रनाथ की लेखनी का ‘साधना युग’ कहलाता है और  इसलिये काफी उल्लेखनीय माना जाता  है कि उस दौरान अपने लेखों के जरिये उन्होंने अपनी खुद की राजनीति की एक साफ रूपरेखा रखी थी। कांग्रेस के साथ उनका मतभेद मुख्यतः इस बात पर था कि उन्हें राजनीतिक विचारधारा के मामले में इंगलैंड और उसकी सौ नियमों से बंधी पार्लियामेंट्री राजनीति स्वीकार्य नहीं थी। योरप के बाहर, भारत सहित हर जगह उन्होंने अंग्रेजों को एक घृणित शोषक और उत्पीड़क के रूप में देखा था। कांग्रेस के लोगों की अंग्रेज भक्ति उन्हें सहन नहीं थी।

फिर भी, सच यही है कि रवीन्द्रनाथ को कांग्रेस-विरोधी कहना उचित नहीं होगा। इसीप्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य के जघन्य रूप के प्रति गहरी नफरत के बावजूद, इंगलैंड के भी मुट्ठीभर विवेकवान लोगों के प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा व्यक्त करने में भी उन्होंने कभी किसी प्रकार की कृपणता का परिचय नहीं दिया था। सिडिशन एक्ट और 1897 में रानाडे हत्या मामले में तिलक की गिरफ्तारी, लार्ड कर्जन का यूनिवर्सिटी बिल (1902), बंगभंग का प्रस्ताव (1905), स्वदेशी आंदोलन, साम्राज्यवादियों का पहला विश्वयुद्ध - इन तमाम मामलों में रवीन्द्रनाथ जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के एक प्रबल पक्षधर और भारत की राष्ट्रीय एकता के एक जागरूक प्रहरी के रूप में उभर कर सामने आये थे।

यही वह काल था जब 1901 के अंतिम दिनों में रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की। यह रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्च का एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू था जिसके केंद्र में भी उनके आध्यात्मिक संस्कारों की बड़ी भूमिका थी। शान्तिनिकेतन के पीछे प्राचीन भारत के तपोवन की पूरी अवधारणा काम कर रही थी। बाद के दिनों में शिक्षा संबंधी उनके विचारों में काफी परिवर्तन हुए। फिर भी अपने इस तपोवन से उनका क्या तात्पर्य था, इसे 1909 में ‘तपोवन’ शीर्षक लेख में वे बताते हैं :
“भारतवर्ष ने जिस सत्य को अपने निश्चित भाव से उपलब्ध किया है वह सत्य क्या है? वह सत्य प्रधानतः वणिक-वृत्ति नहीं है, स्वादेशिकता नहीं है, स्वराज्य नहीं है - वह है विश्व-बोध। इस सत्य की भारत के तपोवन में साधना हुई है। इसका उपनिषद् में उच्चारण हुआ है...भारत ने प्रबलता को नहीं, परिपूर्णता को चाहा था। इस परिपूर्णता का अर्थ है निखिल के साथ योग, और योग विनम्र होकर, अहंकार को दूर करके ही स्थापित हो सकता है।”

स्वदेशी आंदोलन का जो दबाव कवि को जनकोलाहल के बीच चले आने के लिये प्रेरित कर रहा था, राजनीतिक उथल-पुथल के इसी दौर में गिरडीह में बैठ कर रवीन्द्रनाथ ने देशभक्ति के जो चंद अमर गीत लिखे, उन्होंने बांग्ला जातीय चेतना के निर्माण में अकल्पनीय भूमिका अदा की थी। 1.जदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे ऐकला चलो रे 2. बांग्लार माटी, बांग्लार जल, बांग्लार वायु, बांग्लार फल-/पूण्य होक, पूण्य होक, पूण्य होक हे भगवान 3. ओ आमार देशेर माटी, तोमार ’परे ठेकाई माथा 4.आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि 5.सार्थक जनम आमार जन्मेछी ए देशे 6.एबार तोर मरा गंगे बान एसेछे, ‘जय मा’ बोले भासा तरि  - रवीन्द्रनाथ के ये सारे गीत भी इसी काल की देन थे।

और लुकाच इसी काल के संदर्भ में लिखे गये उनके उपन्यास के आधार पर उन्हें ‘भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा का प्रवर्त्तक’ बता रहे थे !

इसीकाल में राष्ट्रीय शिक्षा और ग्राम्य समाज के संगठन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कई लेख लिखे। बंगभंग-विरोधी आंदोलन के साथ ही हिंदू-मुस्लिम समस्या ने भी एक विकट रूप लेना शुरू कर दिया था। रवीन्द्रनाथ इस समस्या से काफी विचलित थे। उन्होंने यह साफ देखा था कि अंग्रेज यदि हिंदू और मुसलमानों के बीच विद्वेष पैदा करने में सफल होरहे हैं तो इसका संबंध हमारे समाज की सचाई से है जिसे रवीन्द्रनाथ हमारा ‘पाप’ कहते हैं। “हम सैकड़ों वर्षों से साथ-साथ रहते है, एक खेत की उपज, एक नदी के जल, एक सूरज के प्रकाश का भोग करते आरहे हैं, हम एक भाषा में बात करते हैं, हम एक ही सुख-दुख के लोग है - फिर भी पड़ौसी के साथ पड़ौसी का जो मानवोचित संबंध है, जो धर्म से अलग है, वह हमारे बीच नहीं है।

“हम जानते हैं बांग्लादेश में बहुत सी जगहों में हिंदू-मुसलमान एक चटाई पर साथ-साथ नहीं बैठते हैं - घर में मुसलमान के आने पर जाजम का एक हिस्सा लपेट दिया जाता है, हुक्के के पानी को फेंक दिया जाता है।
‘... यदि शास्त्रों में ऐसा विधान है तो ऐसे शास्त्र को लेकर स्वदेश-स्वजाति-स्वराज की स्थापना कभी भी नहीं की जा सकती है।”

‘घरे बाहिरे’ उपन्यास की पृष्ठभूमि में बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड़े हुए हिंदू सांप्रदायिक दृष्टिकोण का यह पहलू रवीन्द्रनाथ की रचनाशीलता में निश्चित रूप से बड़े रूप में काम कर रहा था । लुकाच यदि तत्कालीन भारतीय समाज की इस ऐतिहासिक सचाई से जरा भी परिचित होते तो रवीन्द्रनाथ के उपन्यास में उसे पाकर खुश होते और उसकी निंदा करने की जगह यह कहते कि उपन्यास किस प्रकार अपने समय का सबसे प्रामाणिक इतिहास हुआ करता है, इसका एक बड़ा उदाहरण है - ‘घोरे बाहिरे’।

इस उपन्यास से मैं बहुत सारे उद्धरण देकर इस समीक्षा को और बोझिल नहीं करना चाहता। लेकिन जिस क्रांतिकारी चरित्र संदीप की चारित्रिक कमजोरी का पर्दाफाश किये जाने पर लुकाच इस तरह से तब बेजा खफा होगये थे, उसकी बातों की एकाध बानगी देखियें -

“संदीप निखिलेश्वर को समझाता है - ‘‘देखों निखिल, मनुष्यों का इतिहास दुनिया के सभी देशों और जातियों को लेकर तैयार हुआ है। इसीलिये धर्म को बेच कर की जाने वाली पोलिटिक्स से देश का निर्माण नहीं चल सकता है। मैं जानता हूं कि यूरोप इस बात को मन से नहीं मानता, लेकिन इसीलिये यूरोप हमारा गुरू हो जायेगा, यह मैं नहीं मानता।’’
इसके बाद ही संदीप का दूसरा वाक्य है - ‘‘सत्य के लिये आदमी मर कर अमर होता है, अगर कोई राष्ट्र भी मर जाए तो वह राष्ट्र अमर हो जायेगा। उस सत्य की भावना इस दुनिया में शैतान के गगनभेदी अट्टाहास के बीच सच साबित हो। लेकिन विदेश से आकर यह कौन सी पाप की महामारी हमारे देश में घुस आई है !’’(रवीन्द्र रचनावली, खंड - आठ, पश्चिमबंग सरकार, पृष्ठ -105-106)

(दैखो निखिल, मानुषेर इतिहास पृथ्वीर समस्त देश के समस्त जात के निये तैरी होये उठेछे, एई जन्ये पोलिटिक्सेउ धर्म के बिकिये देश के बाडि़ये तोला चोलबे ना। आमी जानि यूरोप एक कोथा मनेर संगे माने ना, किन्तु ताई बोलेई जे यूरोपई आमादेर गुरू ए आमी मानबो ना। सत्येर जन्ये मानुष मोरे अमर होय, कोनो जातिउ जदि मोरे ता होले मानुषेर इतिहासे सेउ अमर होबे। सेई सत्येर अनुभूति जगतेर मध्ये एई भारतवर्षेई खांटी होए उठूक शोयतानेर अभ्रभेदी अट्टहासीर माझखाने। किन्तु विदेश थेके ए की पापेर महामारी ऐसे आमादेर देशे प्रवेश करले !)

गौर करने की बात है कि संदीप ने अपनी मुस्लिम-विरोधी मानसिकता के अनुसार ही निखिलेश्वर को जो बात देश की लड़ाई के साथ ही धर्म की लड़ाई पर अटल रहने की सलाह देते हुए कही थी, लुकाच ने उसी बात को अपनी समीक्षा में  विकृत करके रवीन्द्रनाथ की बात के रूप में उद्धृत कर दिया था। उनके शब्दों में ‘‘He writes: “Men who die for the truth are immortal ; and if a whole people dies for the truth it will achieve immortality in the history of mankind” और इसके बाद ही लुकाच साहब रवीन्द्रनाथ के विचारों के बारे में अपना अंतिम सुना देते हैं  - ‘‘This stance represents nothing less than the ideology of the eternal subjection of India”।

’’यह मत भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा से जरा भी कम नहीं है।’’

इसे लुकाच की बौद्धिक गैर-ईमानदारी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?

गौर करने लायक और भी मजे की बात है कि  लुकाच ने जिस संदीप के पक्ष में अपनी समीक्षा में ब्रीफ उठाई है, उसका क्या चरित्र था, जो निखिलेश्वर की पत्नी, और इस उपन्यास की प्रमुख चरित्र  विमला के सामने किसी भी सधे हुए झांसेबाज आशिक की तरह कहता है - ‘‘ ओ छोटीरानी, मेरी बात को यहां कोई नहीं समझ सकता है, संभव है तुम भी न समझो। मैं तुम्हारी पूजा करता हूं। मैं तुम्हारी ही पूजा करने जा रहा हूं। तुमको देखने के बाद मेरा मंत्र बदल गया है। बंदे मातरंग नहीं : बंदे प्रियांग, बंदे मोहिनिंग। मां हमारी रक्षा करती है, प्रिया हमारा विनाश करती है, बहुत सुंदर विनाश।... अब माता के दिन नहीं है। प्रिया, प्रिया, प्रिया ! देवता स्वर्ग धर्म सबको तुमने तुच्छ कर दिया है, धरती के बाकी सारे संबंध आज छाया है। नियम-संयम के सारे बंधन टूट चुके हैं। प्रिया, प्रिया, प्रिया। ’’

और संदीप के इस आचरण पर विमला सोचती है - ‘‘आज आधा घंटा पहले मैं मन ही मन सोच रही थी और लगा कि यह आदमी राजा है, लेकिन यह तो यात्रा दल (नाटक मंडली) का राजा है। नहीं, नहीं, यात्रा दल की पोशाक में भी कभी-कभी राजा छिपा होता है। इसके अंदर तो भारी लोभ है, यह बहुत स्थूल है, इसमें बहुत दरारें हैं; जो इसकी मज्जा के एक-एक स्तर में छिपी हुई है।’’

यह है घरों में घुस कर स्त्रियों पर डोरे डालने वाले ‘क्रांतिकारी’ का असली रूप ! स्त्री को फांसने के लिये वह बंदे मातरंग को बंदे प्रियांग, बंदे मोहिनिंग, बना देता है, प्रिया, प्रिया, प्रिया करने लगता है !

हिंदी में अज्ञेय, यशपाल और जैनेन्द्र के ऐसे क्रांतिकारी चरित्रों की इन्हीं हरकतों के संदर्भ में रामविलास जी ने एक समय इन लेखकों के ‘साड़ी-झंफरवाद’ की काफी खबर ली थी। लेकिन रामविलास जी ने अपनी खास आलोचकीय दृष्टि, पात्रों को हमेशा लेखक के हाथ की कठपुतली समझने वाली दृष्टि के नाते ही  इस विषय को लेखकीय विचलन का मामला बना दिया। यह एक प्रकार से उन पर लुकाच की प्रतिनिधि चरित्रों वाली पद्धति की ही छाया थी।  लेकिन रवीन्द्रनाथ ने अपने उपन्यास के ढांचे में ही संदीप के चरित्र के पूरे छद्म को खोला था। वह लेखक की विचलन नहीं, चरित्र का यथार्थ था।  इसीलिये उनके लेखन के आधार पर किसी ने भी उनके  लेखन में अलग से ‘साड़ी-झंपरवाद’ की तरह की प्रवृत्ति को खोज कर उन्हें कभी हमले का निशाना नहीं बनाया। अन्यथा एक जगह तो संदीप विमला को झांसा देने में सफल हुआ ही था !


और तो और, लुकाच अपनी समीक्षा में जिसे इस क्रांतिकारी द्वारा छेड़ा गया ‘युद्ध’ (battle that was sparked off by the... ‘patriots’ ) कहते हैं, वह तो असल में कुछ मुल्ला-मौलवियों और इन क्रांतिकारियों का भड़काया हुआ सांप्रदायिक दंगा था, जिसमें कुछ मासूम मारे जाते हैं । दंगा भड़कने के पहले संदीप तो सबको चकमा देकर भाग जाता है लेकिन  विमला का पति निखिलेश्वर उससे निपटने के लिये निहत्था ही उतर जाता है और उपन्यास के अंत में उसे बुरी तरह से जख्मी बताया जाता है।

‘‘डाक्टर ने कहा, कुछ कहा नहीं जा सकता। सिर पर भारी चोट लगी है।’’

इतनी तमाम बातों के बाद भी क्या, रवीन्द्रनाथ के ‘घोरे बाहिरे’ उपन्यास की जार्ज लुकाच की समीक्षा में एक वाक्य भी ऐसा पाया जा सकता है, जिसे गंभीरता से विचार के योग्य माना जाए ! वे खुद उपन्यास को देखने की अपनी उस मूल दृष्टि को अपने ही लेखन में पूरी तरह से दुत्कार चुके थे। और तथ्यों से पता चलता है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और रवीन्द्रनाथ तथा खास तौर पर इस उपन्यास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में उनका रत्ती भर भी ज्ञान नहीं था। और सबसे खराब, जिसे हम उनकी बौद्धिक गैर-ईमानदारी के उदाहरण के तौर पर रख रहे हैं, वह यह बात है कि उनके पास उपन्यास को पढ़ने का धीरज नहीं था और उसके उद्धरणों का अनैतिक ढंग से प्रयोग करने से परहेज भी नहीं था।

कहना न होगा, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ और महात्मा गांधी के बीच जिस प्रकार का विमर्श चला, लुकाच की ऐसी दृष्टि के लिये तो उसके रंच मात्र को भी समझना असंभव होता !

भारत में आगे के इतिहास ने भी लुकाच की इस समझ को पूरी तरह से गलत साबित किया कि सत्य और अहिंसा का रास्ता भारत की गुलामी का रास्ता था। द्वितीय विश्वयुद्ध की अकल्पनीय हिंसा और उसके बाद के तमाम अनुभवों ने उन्हें इन विषयों पर जरूर बहुत कुछ सिखाया होगा। और इसीलिये 1962 तक आते-आते उन्होंने नि:संकोच सन् ‘20-‘30 के वक्त की उपन्यासों के बारे में अपनी समझ से घोषित तौर पर पिंड छुड़ाने का निर्णय लिया था।

उम्मीद है, हमारे यहां भी जो लोग लुकाच की उस सड़ी हुई समीक्षा में कोई सुगंध ढूंढ रहे हैं, वे भी इन तमाम सचाइयों को जान लेने के बाद इस कीचड़ में अब और अपनी नाक नहीं घुसेड़ेंगे।


1. कल्बे कबीर
September 12 at 8:37pm • 

कोई बंगाली या मारवाड़ी-बंगाली तभी तक मार्क्सवादी है जब तक रवीन्द्रनाथ का नाम न आये
रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर वे सैंकड़ों कार्ल मार्क्स और हज़ारों जॉर्ज लूकाच क़ुर्बान कर सकते हैं !
#आलोचना_की_राख_33.

2. यहां हम 1962 के लुकाच ‘The Theory of  the Novel’ के एक नये संस्करण के प्राक्कथन के उस लिंक को दे रहे हैं जिसमें उन्होंने इस पुस्तक की समझ से वस्तुत: अपने को अलग कर लिया था।
            https://www.marxists.org/archive/lukacs/works/theory-novel/preface.htm













शनिवार, 10 सितंबर 2016

बार बार देखो और 'वर्तमानता' ‘वर्तमानता’ में फर्क



-अरुण माहेश्वरी

आज एक फिल्म देखी - ‘बार बार देखो’।

जय (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और दिया (कैटरिना कैफ), एक प्रेमी युगल के सुखी जीवन की कहानी। जय एक प्रतिभाशाली गणितज्ञ होने के नाते अपनी तर्कशक्ति से जीवन के दूरगामी समीकरणों को देखता रहता है। इसी के चलते अपने वैवाहिक जीवन के एक-एक पड़ाव पर आने वाले संभावित गतिरोधों के दुष्परिणामों की आशंकाओं से घिरा हुआ, पसीना-पसीना होता रहता है। बिल्कुल किर्केगार्द के अस्तित्वीय संकट की तरह आगत साठ सालों को लेकर उसकी आशंकाएं मूर्त हो कर दर्शकों को पर्दे पर दिखाई देती हैं, और दूसरे ही पल वह फिर उसी तक लौट कर उसे एक नये समीकरण को तैयार करने में उतार देती है। दु:स्वप्नों की तरह न जाने कैसे-कैसे संदेह पैदा होते हैं और गुम हो जाते हैं। न उनके उत्स का पता होता है और न ही गंतव्य का।

अंत में नायक एक ही नतीजे पर पहुंचता है कि भविष्य की चिंता छोड़ों और वर्तमान में रहो। टाइम मशीन पर चढ़ कर भविष्य की ओर दौड़ने की गति बेहद हिंसक होती है; सोच कर चलना उबाऊ और थकान भरा होता है। यहां तक कि निश्चेष्ट बने रहने या उठ खड़े होने के बारे में भी वह सोचेगा नहीं। किर्केगार्द कहता है कि ‘‘सब जानते हैं कि ऐसे भी कीड़ें होते हैं जो जन्म के साथ ही मर जाते हैं। इसीलिये मृत्यु के साथ ही खुशी और आनंद का सबसे विलासितपूर्ण क्षण जुड़ा होता है।’’ इसीलिये जीवन को लेकर इतना क्यों सोचना ! जय को गणित के समीकरणों में हमेशा संतुलन बना कर चलने की तरह सिर्फ अपने वैवाहिक जीवन के सुख और शांति को हमेशा बनाये रखना है।

कुल मिला कर यही है इस फिल्म का मूल कथानक।

अभी चंद दिनों पहले ही हमने ‘मोदी जी की वर्तमानता’ की तीखी आलोचना की थी। सवाल है कि क्या इस फिल्म के नायक की सुख और शांति के संतुलन को बनाये रखने की वर्तमानता और मोदी जी की ‘वर्तमानता’ एक है ? मोदी जी की वर्तमानता तो उनके शासन की, गोरक्षकों और संघ के स्वयंसेवकों के दौरात्म्य की वर्तमानता है। फिल्म के नायक जय का लक्ष्य है अपने जीवन को बिखरने नहीं देना। और मोदी जी, जब अपनी बिना किसी लक्ष्य वाली ‘वर्तमानता’ की बात करते हैं, तब वे भारत को एक स्थायी सांप्रदायिक कलह में डाल देने के अपने लक्ष्य पर सिर्फ पर्दादारी कर रहे होते हैंं। इसीलिये वे अपने लक्ष्य को कभी साफ नहीं करते, बल्कि उसे छिपाते हैं।

इसीलिये ‘बार बार देखो’ के नायक के वर्तमान को जीने का दर्शन और मोदी जी की ‘वर्तमानता’ दो विपरीत ध्रुव है।  

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

यह वामपंथ को दिग्भ्रमित करके पंगु बनाने का उपक्रम है

-अरुण माहेश्वरी




प्रकाश करात के बारे में कन्हैया कुमार ने टेलिग्राफ में उनके 6 सितंबर के इंडियन एक्सप्रेस के लेख  'Know your Enemy की प्रतिक्रिया में कहा है कि - कामरेड अगर आप लड़ नहीं सकते तो सेवा निवृत्त होकर न्यूयार्क में जाकर बैठ जाइयें। अपने उक्त लेख में प्रकाश करात ने पूरे दम-खम के साथ  यह ऐलान किया था कि भाजपा फ़ासिस्ट नहीं है ।

कहना न होगा, प्रकाश करात की इस मुनादी ने सीपीआई(एम) के लोगों को एक नया कार्यभार सौंपा है कि वे अब लोगों को यह समझायें कि भाजपा फ़ासिस्ट नहीं है ! अब तक आरएसएस-भाजपा के बारे में तमाम अध्येताओं ने इनके जन्म से लेकर आज तक के इतिहास का अध्ययन करके इनमें जिन तमाम लक्षणों की पहचान की हैं, प्रकाश ने अपनी अन्त:प्रज्ञा से उन्हें फूँक मार कर उड़ा दिया है । हिटलर ने किस प्रकार की तमाम दगाबाजियों से जर्मनी की पूरी सत्ता हड़पी थी, इस इतिहास को जानने के बाद भी प्रकाश राजनीति में किसी भी बड़े शासक दल की बुनियादी विचारधारा और उसकी कार्यपद्धति से जाहिर होने वाले तमाम लक्षणों को कोई महत्व देने के लिये तैयार नहीं है । अर्थात जब तक आरएसएस हिटलर की तरह पूरे प्रतिपक्ष को मसल कर ख़त्म नहीं कर देता, गुजरात का जनसंहार काफी नहीं है, वह हिटलर जैसा कोई हॉलोकास्ट नहीं करता, वह फ़ासिस्ट कहलाने का हक़दार नहीं हो सकता है !

प्रकाश अपनी राजनीतिक विचक्षणता का परिचय देते हुए सबको यह उपदेश देना चाहते हैं कि शत्रु की पहचान में किसी प्रकार का अतिरेक उचित नहीं है । वह जैसा है, उसी रूप में उसे देखा जाना चाहिए ! अन्यथा हम अपनी रणनीति और कार्यनीति को सही रूप में तय नहीं कर पायेंगे  !

प्रकाश यह नहीं जानते कि कोई भी चीज एक समय जैसी होती है, दूसरे ही पल वैसी नहीं रहती है । हिटलर के ऊपर के उदाहरण की गहराई में जाने से ही साफ पता चल जायेगा कि 1923 में जेल से निकल कर नाजी पार्टी के पुनर्गठन के बाद ही हिटलर राष्ट्रपति पद के लिये हिंडनबर्ग के हाथों पराजित होकर फिर उन्हें ही झांसा देकर किस प्रकार जर्मन संसद में मात्र एक तिहाई सीटों के बल पर वहां का चांसलर बन गया और पूरी राजसत्ता को अपने हाथ में लेने में सफल हुआ था। उस एक क्षण पहले के हिटलर और बाद के हिटलर में जमीन आसमान का फर्क आ गया था। ऐसी नौबत आ जाने पर फिर  स्थिति सबके नियंत्रण के बाहर चली जाती है । इसीलिये हर प्रकार के अध्ययनों में वस्तु के लक्षणों का बेहद महत्व होता है । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन लक्षणों ने तब तक और विकसित होकर अपने किसी सर्वकालिक universal रूप को पूरी तरह से प्रकट किया है या नहीं।

प्रकाश की दलील है कि बीजेपी को फ़ासिस्ट कह देने पर अर्थनीति के मोर्चों पर वामपंथ की लड़ाई पटरी से उतर जायेगी।  यह एक धोखा और सोचने के ढंग में कोरी यांत्रिकता है । आपने भाजपा के फासीवाद की पहचान कर ली तो आप अपने एजेंडे से हट जायेंगे की तरह का तर्क हास्यास्पद  है ।

अर्थात, अपने एजेंडे पर बने रहने के लिये आरएसएस-भाजपा के मूल चरित्र के प्रति एक हद तक अंधता को अपना कर चलना चाहिए !  घोड़ागाड़ी में जुते घोड़े के चश्मों की तरह, इधर-उधर बिना देखे एक सीध में सरपट दौड़ना चाहिए !

दुश्मन को पहचानने का प्रकाश का यह तरीक़ा उसकी एक तात्कालिक  भ्रामक सच्चाई को तेज़ रोशनी के फ़ोकस में डाल कर उसके पूरे सच को लोगों की नजर से ओझल कर देने का तरीक़ा है ।

मूल बात यह है कि प्रकाश यह सारा तुमार सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की एकता की नीति के रास्ते में बाधा डालने के लिये बांध रहे हैं, क्योंकि ऐसे व्यापकतम संयुक्त मोर्चे में स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस का भी एक स्थान होगा । भारतीय राजनीति की प्रकाश की पूरी समझ में कांग्रेस बैल के लिये किसी लाल कपड़े से कम नहीं जान पड़ती है । अगर उसे किसी प्रकार एक बार के लिये अलग कर दिया जाए, तो शायद उन्हें भाजपा को फासीवादी मान कर फासीवाद के खिलाफ तथाकथित तीसरे विकल्प की बात को मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होगी। कहना न होगा, यह प्रकारांतर से फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की लड़ाई को शुरू में ही पूरी तरह से ठुकरा देने जैसा है। तीसरे मोर्चे की जिन ताक़तों में न कोई आपसी संहति है, न अर्थनीति से लेकर अन्य अनेक मामलों में वामपंथ के साथ कोई संगति है, और जो बहुत ही सीमित क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाली नगण्य ताक़तें हैं, सिर्फ उनके भरोसे एक तेज़ी से उदीयमान फासीवादी ताक़त का प्रतिरोध करने की कल्पना भी करना , सचमुच फासीवाद का कोई प्रतिरोध न करने की लाईन को शुरू में ही अपना कर चलने की सिफारिश करने जैसा होगा ।

इस पूरे उपक्रम से लगता है कि सीपीएम का एक पूर्व सचिव अपनी पुरानी भूलों को सही बताने के बारे में ज्यादा चिंतित है, न कि जनतंत्र और मानव-अधिकारों पर हो रहे नग्न हमलों का कोई वास्तविक प्रतिरोध खड़ा करने में । यह पार्टी में अपनी स्थिति का एक प्रकार से दुरुपयोग है जो निजी एजेंडे के लिये सैद्धांतिकता की धोखे की टट्टी खड़ी कर रहा है । यह पूरी पार्टी को पंगु बनाने और दिग्भ्रमित करने का उपक्रम है । इस सैद्धांतिक व्यायाम का इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मायने नहीं हो सकता है ।

जिन लोगों ने थर्ड राइख के इतिहास का अध्ययन किया है, उनका यह भी मानना रहा है कि हिटलर की उबाऊ आत्मजीवनी 'माइन काम्फ़ ' का पहले ही सही ढंग से अध्ययन किया गया होता तो दुनिया को उन अनेक भारी बर्बादियों से समय रहते बचा लिया गया होता़, जिन्हें मानवता को द्वितीय विश्व युद्ध में झेलना पड़ा था । जर्मन इतिहासकार वर्न मेसर अपनी पुस्तक ‘हिटलर्स माइन कैम्फ ऐन एनालिसिस’ के दूसरे अध्याय का प्रारम्भ इस कथन से करते हैं कि ’’इस अध्याय में यह बताया जाऐगा कि हिटलर के अ​धिकांश प्रमुख विचार तथा सत्ता पर आने के बाद उसके निर्णयों की पृष्ठभूमि, ये सब ’’माइन कैम्प’’ में मौजूद थे। इसका मतलब हिटलर के राज्य की भयावहता को ही दिखाना नहीं होगा, बल्कि यह साबित करना होगा कि 1933 के पहले ही हिटलर की पुस्तक का यदि गम्भीरता से अध्ययन किया जाता या सिर्फ अकादमिक उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि अन्य उद्देश्यों से भी उनके सिद्धान्तों को नोट किया जाता तो वह कितना अ​धिक लाभदायी हो सकता था तथा ऐसा करना कितना जरूरी था...उसकी पुस्तक के प्रथम खण्ड के पहले संस्करण के अध्ययन से ही लोगों को ’’रूस’’ के साथ युद्ध की आवश्यकता, अन्य जातियों के लोगों का ’’अनिवार्य’’ खात्मा या ’’संधि’’ से हिटलर का तात्पर्य क्या था, इन्हें समझा जा सकता था। वास्तव में हिटलर ने जर्मनी और सारी दुनिया पर जो भयंकर कहर बरपा किया था, उसके बिल्कुल साफ और विस्तृत कार्यक्रम को ’’माइन कैम्फ’ में रख दिया गया था और हिटलर ने उसी पुस्तक की घोषणाओं और भविष्यवाणियों पर अपने राज में निष्ठा के साथ पालन किया था।’’ मेसर इसमें आगे बताते हैं कि हिटलर ने उस पुस्तक के दूसरे खण्ड के 15वें अध्याय में बिल्कुल साफ तौर पर लिखा था कि ’’यदि 1914 में 12 से 15 हजार यहूदियों को जहरीली गैस देकर मार दिया गया होता तो प्रथम विश्वयुद्ध में लाखों का बलिदान न देना पड़ता।’’ (पृ. 117) ’’जर्मनी के साथ रूस की संधि’’ पर चर्चा करते हुए दूसरे खण्ड के 14वें अध्याय में हिटलर का कथन है कि युद्ध के उद्देश्य के बिना अन्तर्राष्ट्रीय संधियों का न कोई अर्थ और न कोई मूल्य है।’’ (पृ. 118)

उनके विपरीत, प्रकाश तो कह रहे हैं कि भारत में अब तक आरएसएस के बारे में किये गये सारे अध्ययनों को रद्दी की टोकरी में फेंक दो ।


http://www.telegraphindia.com/1160909/jsp/frontpage/story_107178.jsp#.V9JDatgTsiI.email