शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

‘पथ’ विमर्श



कल 30 जनवरी के मौके पर ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में गौतम भद्र का एक लेख छपा था -‘‘पथ पर विचार न करने में खतरा है’’। अभीक दे द्वारा संपादित और संकलित गांधीवादी चिंतक निर्मल कुमार बसु के लेखों के संकलन की एक समीक्षा।

तीन कॉलम की इस समीक्षा के पहले दो कॉलम में गौतम भद्र ने बंगाल में लुप्तप्राय गांधीवादी विमर्श के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों का उल्लेख किया है। यह खुद में बहस का एक अलग विषय है।

हम यहां उनके लेख के अंतिम अंश की ओर सबका ध्यान खींचना चाहेंगे। इसमें उन्होंने निर्मल बसु के एक लेख में आये नंतुबिहारी नस्कर नामक चरित्र का जिक्र किया है। एक भोला-भाला साधारण आदमी, हमेशा दूसरों की भलाई के लिये तत्पर रहने वाला, पक्का सत्याग्रही। आजादी की लड़ाई में कई बार जेल गया। आजादी के बाद भी परोपकारी नंतुबिहारी, सबके सब मर्ज की दवा - किसी को परमिट लेना है, किसी को अपना तबादला रुकवाना है - नंतु नि:स्वार्थ भाव से सबका काम करता जाता। आस-पास के सब लोगों की भलाई, देश-सेवा के लिये समर्पित प्राण।

निर्मल बसु ने नंतुबिहारी के इन जन-सेवा कार्यों की ओर इशारा करते हुए अपने लेख में दिखाया कि कैसे निर्लोभी नंतुबिहारी के इन्हीं कामों की बदौलत ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और सत्ता के केंद्र निर्मित होते जाते हैं। नंतुबिहारी की ‘देश सेवा’ वस्तुत: राष्ट्र के निर्माण की नींव को ही खोखला कर रही है।

दिन-रात व्यस्त रहने वाला नंतुबिहारी कहता है, ‘‘क्या कर रहा हूं दादा, खुद ही नहीं जानता। लेकिन सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है।’’

गौतम भद्र ने इस कहानी के अंत में टिप्पणी की है - ‘‘पिछले तीस सालों से और आज भी, बंगाल के गांव-गांव में इस प्रकार के कैडर या कार्यकर्ता के दर्शन दुर्लभ नहीं हैं।’’

गौतम भद्र इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि व्यक्ति की सदिच्छा, ईमानदारी, व्यवहार- कुशलता या सांगठनिक दक्षता ही काफी नहीं होते। जरूरी है आदर्शों के बारे में जागरूकता और तदनुरूप चरित्र का निर्माण।

सरकारी प्रशासन से लेकर सामाजिक जीवन और रोजमर्रे के कामों में भी इन दोनों के बीच कैसे संतुलन रखा जाए, भद्र बताते हैं, पहले के गांधीवादियों के बीच विमर्श का यह एक प्रमुख मुद्दा था। भ्रष्टाचार अनेक रूपों में होता है, कई प्रकार के भ्रष्टाचार को समाज में भ्रष्टाचार माना भी नहीं जाता। भद्र कहते हैं, भ्रष्टाचार की सिनाख्त करने के लिये भी आत्म-शिक्षा जरूरी है।

आज भ्रष्टाचार का विषय राजनीतिक चर्चा के केंद्र में हैं। बड़े आदर्शों से शून्य, सिर्फ भलाई की सदिच्छा भी किसी जनतांत्रिक प्रणाली को भ्रष्टाचार में तब्दील कर सकती है। बंगाल में भुला दिया गया गांधीवादी विमर्श यही कहता है कि हर प्रयोग के अंतर्निहित आदर्शों के साथ रुको, सोचो और सवाल उठाओ।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

गांधी हत्या



आज 30 जनवरी। गांधीजी की शहादत का दिन। जो उनकी हत्या के लिये जिम्मेदार थे, वे ही आज अपने को सच्चा राष्ट्रवादी बताते हैं।
क्यों न हम इतिहास के उस सबसे दर्दनाक पृष्ठ पर एक नजर डालें, जिसमें गांधीजी की हत्या के लिये विषैला वातावरण तैयार किया गया था। यहां अपनी किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ का इससे संबंधित एक पन्ना दे रहा हूं :

गांधी हत्या

वे गांधीजी की हत्या से इन्कार करते हैं। सरकार ने भी मामले की जाँच करने के बाद सीधे तौर पर आर एस एस को उसके लिए अपराधी घोषित नहीं किया।यह बात सच है कि नाथूराम गोडसे पर चले अदालते मुकदमें में यह साबित नहीं किया जा सका था कि गोडसे आरएसएस का सदस्य था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उस समय तक आरएसएस का अपना कोई संविधान नहीं था, और न ही उसके सदस्यों का कोई बाकायदा रेकर्ड। जाहिर है कि आरएसएस की इसी सख्त गोपनीयता के कारण शुद्ध रूप से तकनीकी स्तर पर अदालत में तब यह साबित नहीं किया जा सका था कि गांधीजी का हत्यारा नाथूराम आरएसएस का सदस्य था। लेकिन आरएसएस के साथ नाथूराम के लंबे काल से संपर्क थे, इसके बारे में अब तक ढेरों तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं। गोडसे की विचारधारा आरएसएस की विचारधारा से जरा भी भिन्न नहीं थी और वह एक समय में आरएसएस का सक्रिय प्रचारक था, इसे अब साबित करने की जरूरत नहीं है।

जिस प्रकार आरएसएस भारत की आजादी को ’’मुसलमानों के हाथों हिंदुओं की पराजय’ बताता रहा है, उसी तर्क पर नाथूराम ने अदालत में दिये गये अपने बयान में गांधीजी की हत्या को एक देशभक्तिपूर्ण काम बताया था और छाती ठोक कर कहा था कि ’’यदि देशभक्ति पाप है तो मैं जानता हूँ मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ।...मैंने देश की भलाई के लिए यह काम किया। मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए।’’ (गोपाल गोडसे, ’’गांधी वध क्यों’ में नाथूराम गोडसे के अदालत को दिए गए बयान से, पृ. 113)

गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने खुद स्वीकार किया था कि उसने ’’कई वर्षो तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम किया है।’’ बाद में वह हिन्दू महासभा में आ गया था, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, इस प्रश्न पर हिन्दू महासभा के नेता सावरकर से उसके मतों का मेल नहीं बैठा। सावरकर आजादी की रक्षा के लिए नई सरकार को समर्थन देने के पक्ष में थे जो गोडसे को सही नहीं लगा और उसने सावरकर का साथ छोड़ दिया। (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 62)

वास्तविकता यह है कि सावरकर जहाँ देश की आजादी को एक महत्त्वपूर्ण विजय समझते थे, वहीं आर एस एस इसे राष्ट्रीय पराजय, हिन्दुओं को मिली मात मानता था। आर एस एस का पुराना स्वयंसेवक रह चुका नाथूराम गोडसे इस मामले में फिर से पूरी तरह आर एस एस के मत का था। सावरकर तिरंगे झण्डे को राष्ट्रीय ध्वज की मर्यादा देना उचित समझते थे, नाथूराम आर एस एस के विचारों का हामी होने के नाते इसका भी विरोधी था।

उसी के शब्दों में : ’’वीर सावरकर ने स्वयं आगे बढ़कर कहा कि चक्रवाले तिरंगे झण्डे को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया जाएँ। हमने इस बात का खुला विरोध किया।’’ (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 63)

राष्ट्रध्वज के प्रसंग में आर एस एस के विचारों पर हम पहले चर्चा कर आए हैं। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की शेष राशि दिए जाने के प्रश्न पर भी आर एस एस और गोडसे के विचार एक थे। गांधी जी की हत्या के ठीक पहले के ’’आर्गनाइजर’, ’’पाँचजन्य’ के अंकों को देखने से ही साफ पता चल जाता है कि आर एस एस किस प्रकार गांधीजी के खिलाफ जहरीला वातावरण तैयार कर रहा था। नाथूराम गोडसे ने फाँसी के फंदे पर उसी प्रार्थना को दोहराया था जो आर एस एस के स्वयंसेवक रोज शाखा के कार्यक्रम में किया करते हैं।

खुद गोलवलकर जिन शब्दों में गांधी जी की हत्या के समय की परिस्थिति का बयान किया करते थे, वही परोक्ष रूप में यह साबित करता है कि इस हत्या को वे एक प्रकार से परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम मानते थे। गोलवलकर के जीवनीकार प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे के शब्दों में : ’’सम्पूर्ण देश में क्षोभ फैला हुआ था। महात्मा गांधी ने उस समय अपना मुकाम हेतुत: दिल्ली में रखा था। प्रतिदिन अपनी सायं प्रार्थना-सभा में वे लोगों को शान्ति, प्रेम एवं बन्धु-भावना का महत्त्व समझाते थे। भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अवश्य दें, ऐसा वे कहते थे। उसके लिए वे आमरण अनशन के लिए भी जिद किए हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से आहत और व्यथित लोग गांधी जी को बुरा-भला कहने लगे।

’’इनके इस प्रकार से बोलने से ही मुसलमान सिर पर चढ़ बैठे हैं। इनके वक्तव्यों से पाकिस्तान को बल मिलता है।’’ इस प्रकार की आलोचना सर्वत्र होने लगी। कुछ युवक आपे से बाहर हो गए। उनमें से एक ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को, प्रार्थना-सभा में पिस्तौल चलाकर गांधी जी की हत्या कर दी।’’ (प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, श्री गुरू जी, एक जीवन यज्ञ, पृ. 59)

सहस्त्रबुद्धे ने लिखा है कि गांधीजी की हत्या का समाचार सुनकर गुरू जी ने कहा था : ’’यह तो देश का बड़ा दुर्भाग्य हुआ।’’ सहस्त्रबुद्धे की यह बात किसी भी रूप में विश्वास योग्य नहीं लगती है, क्योंकि आर एस एस की शाखाओं और उसके अखबारों में ही उन दिनों गांधीजी के खिलाफ सबसे ज्यादा जहर उगला जा रहा था, इसका एक नमूना है ’’पाँचजन्य’’ में छपा निम्न कार्टून :

गांधीजी की हत्या के ठीक बाद ही इस तथ्य को अनेक लोगों ने नोट किया था कि आरएसएस के लोगों ने खुशी मनाते हुए आपस में मिठाइयां बांटी थी। गांधीजी के निजी सचित प्यारेलाल की पुस्तक ’’महात्मा गांधी द लास्ट फेज’ के दूसरे खंड में गांधीजी की हत्या के पूरे षड़यंत्रका और उसमें आरएसएस  वालों की भूमिका का विस्तार से जिक्र किया गया है। इसमें उन्होंने बताया है कि सरकार को हत्या के इस षड़यंत्र के पुख्ता सबूत मिल गये थे। पहला विफल प्रयास तो 20 जनवरी के दिन ही कर लिया गया था, जिसमें गोडसे भी शामिल था। सरदार पटेल ने इस पर गांधीजी से अनुरोध किया था कि आगे से उनकी प्रार्थना सभा में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पुलिस तलाशी लेगी। लेकिन गांधीजी ने यह कह कर पुलिस के पहरे से इंकार कर दिया कि कि प्रार्थना सभा में जब वे खुद को ईश्वर की पूर्ण सुरक्षा के सुपुर्द कर देते हैं, उस समय उन्हें मनुष्य द्वारा दी गयी सुरक्षा मंजूर नहीं है। सरदार पटेल को गांधीजी की जिद को मानना पड़ा था। लेकिन प्यारेलाल ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जब सरकार को इस प्रकार के षड़यंत्रका पता चल गया था, तब फिर क्यों नहीं उस षड़यंत्रको पहले ही विफल कर देने के लिये अन्य स्तरों पर उचित कार्रवाइयां की गयी। इसी सिलसिले में वे आगे लिखते हैं कि सरकार की ’’यह विफलता इस बात का संकेत थी कि किस हद तक यह गंदगी (आरएसएस के विचारों की गंदगी -अ.मा.) प्रशासन की अनेक शाखाओं तक फैल चुकी थी, जिससे पुलिस भी नहीं बची थी। दरअसल, यह बाद में प्रकाश में आया कि आरएसएस के संगठन की शाखाए-प्रशाखाएं सरकारी विभागों तक में फैल चुकी थी, आम कर्मचारी तो क्या, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों में से भी कइयों की उसके प्रति सहानुभूति थी और वे आरएसएस के कामों में शामिल लोगों की सक्रिय सहायता किया करते थे। ...सरदार पटेल को हत्या के बाद एक नौजवान, जिसने खुद स्वीकारा था कि वह भी कभी आरएसएस का सदस्य था लेकिन बाद में उसका मोहभंग होगया था, से जो पत्र मिला उसमें बताया गया है कि कैसे कुछ स्थानों पर आरएसएस के सदस्यों को यह कहा गया था कि वे उस भाग्यशाली शुक्रवार के दिन ’’अच्छी खबर’ सुनने के लिये अपने रेडियो चालू रखे। खबर आने के बाद दिल्ली सहित कई स्थानों पर आरएसएस के लोगों ने आपस में मिठाइयां बांटी।’’

प्यारेलाल ने इस षड़यंत्र में नाथूराम गोडसे के साथ प्रत्यक्ष रूप से शामिल पुणे से निकलने वाले ’’हिंदू राष्ट्र’ अखबार के संपादक नारायण डी आप्टे, दिगंबर डी बेज, गोपाल गोडसे, करकरे, मदनलाल पहवा आदि के जो नाम दिये हैं, उन सबके बारे में साफ लिखा है कि ’’वे सभी हिंदू महासभा अथवा आरएसएस के सदस्य थे।’’      

सहस्त्रबुद्धे ने गांधी जी की शान्ति, प्रेम की बातों तथा पाकिस्तान को 55 करो़ड़ देने की बात पर नौजवानों के जिस गुस्से की बात लिखी है, वह गुस्सा और कहीं नहीं आर एस एस के मंचों पर ही व्यक्त किया जाता था। गांधी जी की हत्या के ठीक बाद गोलवलकर ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल के नाम शोक सन्देश के तार भेजे थे, गांधी जी के परिवार के लोगों और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के नाम उन्होंने कोई सन्देश नहीं भेजा। इसी से गोलवलकर की चालाकी का पता चलता है। गांधी जी की हत्या के बाद गोलवलकर ने सिर्फ उन लोगों के सामने ही घड़ियाली आँसू बहाना उचित समझा, जिनके हाथ में राज सत्ता थी तथा जिनसे उन्हें दमन की कार्रवाई का डर था। अगर ऐसा न होता तो जिस प्रकार गांधी जी की हत्या पर आर एस एस के लोगों ने मिठाइयाँ बाँटी, उसी प्रकार गोलवलकर ने नेहरू ओर पटेल को भी शोक सन्देश के बजाय मिठाई के डिब्बे ही भेजे होते !

बुधवार, 29 जनवरी 2014

‘खुला संगठन’ और ‘बंद संगठन



राहुल गांधी ने अपने बहुचर्चित साक्षात्कार में आम आदमी पार्टी की प्रशंसा में कहा कि यह एक खुला संगठन है, इसमें नये-नये लोग आ रहे हैं।

‘खुला संगठन’ और ‘बंद संगठन’।

सार्त्र का नाटक है - ‘No Exit’।

नर्क पहुंची तीन पतित आत्माओं को यातना देने के बजाय एक कमरे में हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया जाता है। आपस में कोई अपना पाप कबूल नहीं करना चाहता। लेकिन एक कहता है - हमें अपना नैतिक अपराध कबूल करना चाहिए। और इसी क्रम में एक बिना किसी यंत्रणादायी के ही यंत्रणा पाने के सच को देख लेता है। कहता है -

‘‘रुको! देखों यह कितनी सीधी बात है, बच्चों की तरह सीधी। यहां कोई शारीरिक यंत्रणादाता नहीं है। यह तो तुमलोग मानोंगे? फिर भी हम नर्क में हैं। और, यहां कोई दूसरा नहीं आने वाला। हम तीनों हमेशा-हमेशा के लिये, इस कमरे में रहेंगे। ...संक्षेप में, यंत्रणा अधिकारी यहां नहीं है...जाहिर है उनके पास लोगों की कमी है - हममें से प्रत्येक बाकी दोनों के लिये यंत्रणादायी का काम करेगा।’’

बंद कमरा और शत्रु की तलाश की प्रवृत्ति - सोच लीजिये यह सब क्या किसी नर्क से कम है!

संगठन जितना बंद, उतना ही घनघोर नर्क।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

गुरू गोलवलकर और आरएसएस का राष्ट्रवाद

अरुण माहेश्वरी



आर एस एस की विचारधारा को परिभाषित करने का काम किया था उसके द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने। हेडगेवार ने अपनी मृत्यु (21 जून, 1940) के वक्त उन्हें आर एस एस का पूरा भार सौंपा था। आर एस एस का कोई संविधान तो था नहीं, इसीलिए प्रथम सरसंघचालक की इच्छा को ही सर्वोपरि मान कर गोलवलकर को आर एस एस का सर्वोच्च अधिकारी बना दिया गया था। यह सच्चाई है कि जबसे गोलवलकर नागपुर आकर संघ में शामिल हुए तभी से आर एस एस का नागपुर के बाहर भी फैलाव शुरू हुआ और हेडगेवार में तको के जरिए अपने विचार को रखने की जिस सामथ्र्य का अभाव था, गोलवलकर ने उसे काफी हद तक पूरा करने की कोशिश की। इसीलिए आर एस एस की विचारधारा को जानने के लिए, उनकी प्रेरणा के मूल स्रोतों को समझने के लिए गोलवलकर का लेखन ही सबसे प्रामाणिक माना जा सकता है।

हेडगेवार की मृत्यु के वक्त गोलवलकर आर एस एस के सरकार्यवाहक (महासचिव) थे। सन् 1939 में हेडगेवार ने इसकी घोषणा की थी। आर एस एस के लोग हेडगेवार और गोलवलकर के सम्बनों की तुलना रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के सम्बनों से किया करते हैं। सरसंघचालक बनने के बाद गोलवलकर ने ही अपने पहले भाषण में हेडगेवार की उन पर कृपा को परमहंस की विवेकानन्द पर हुई कृपा के सादृश्य बताया था। (प्र.ग. सहस्रबुद्धे, श्री गुरू जी : एक जीवन यज्ञ, पृ. 5)

19 फरवरी, 1906 को नागपुर में जन्मे माधवराव गोलवलकर ने 1928 में प्राणिशास्त्र में एम एस सी की परीक्षा पास की। फिर 1930 में कुछ अर्से के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हुए और वहीं उनका सम्बन आर एस एस के एक और संस्थापक सदस्य प्रभाकर बलवंत दाणी (भय्या जी दाणी) से हुआ। बनारस में ही उनकी मुलाकात हेडगेवार से भी हुई थी और हेडगेवार ने उन्हें नागपुर में आर एस एस की शाखा देखने का निमंत्रण दिया। इस प्रकार 1931 के जमाने से गोलवलकर आर एस एस से जुड़ गए थे। बनारस में तीन साल रहने के बाद गोलवलकर अपने पिता के साथ रहने के लिए नागपुर आ गए तथा वहीं उन्होंने लॉ कॉलेज में दाखिला भी ले लिया। उनकी इच्छा वकालत करके जीवन यापन करने की थी। दो वषो तक उन्होंने वकालत की भी। लेकिन वकालत में सफलता न मिलने पर वे हेडगेवार की शाखा से गहराई से जुड़ गए। हेडगेवार ने उनकी मदद से ही आर एस एस को महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में फैलाने का काम शुरू किया। इसीलिए गोलवलकर के विचारों को आर एस एस की मूलभूत विचारधारा माना जा सकता है।

आर एस एस की गीता

गोलवलकर ने 1939 में अपनी पहली शायद एकमात्र, किताब लिखी : ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘। बाद में ’’बंच ऑफ थाट्स‘ के नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा 6 खण्डों में ’’श्री गुरु जी समग्र दर्शन‘ भी प्रकाशित हुए हैं। लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने खुद यह अकेली किताब लिखी थी। उनकी अन्य पुस्तकें दूसरे लोगों ने बिखरी हुई सामग्री को संकलित करके तैयार की। मजे की बात है कि आर एस एस ही उनकी इस इकलौती किताब को अब प्रकाशित नहीं करता है। एक समय था जब संघियों के लिए गोलवलकर की ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड‘, गीता के समान थी। अमरीकी शोधार्थी करान ने इस किताब को आर एस एस के सिद्धान्तों की मूल पुस्तक बताते हुए लिखा था कि ’’इसे आर एस एस की ‘बाइबिल’ कहा जा सकता है। संघ के स्वयंसेवकों को दीक्षित करनेवाली यह पहली पाठ्य पुस्तिका है।‘ (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 28)

गोलवलकर ने यह पुस्तक बाबूराव सावरकर की पुस्तक ’’राष्ट्र मीमांसा‘ (मराठी) से प्रेरणा लेकर लिखी थी। इसे खुद उन्होंने भी पुस्तक की भूमिका में स्वीकारा है। (देखिए, ’’एम.एस. गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड,‘ पृ. 4) गोलवलकर ने ही ’’राष्ट्र मीमांसा‘ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था। लेकिन जब से आर एस एस के आलोचकों ने आर एस एस को हिटलर और मुसोलिनी के ’’तुफानी दस्तों‘ की तरह के संगठन के रूप में सही पहचान लिया तथा इस ओर इशारा किया जाने लगा, तब से खुद गोलवलकर ने ही इस किताब का प्रकाशन बन्द करवा दिया। इसकी वजह यह रही कि इस पुस्तक में गोलवलकर ने खुलकर हिटलर और मुसोलिनी के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था।


सन् 1939 में जब यह पुस्तक लिखी गई, दुनिया में नाजियों और फासीवादियों के बढ़ाव के दिन थे। बहुतों को यह भ्रम था कि आनेवाले दिनों में दुनिया पर उन्हीं (फासीवादियों) के विचारों की तूती बोलेगी। गोलवलकर और हेडगेवार भी उन्हीं लोगों में शामिल थे। गोलवलकर ने इसी विश्वास के बल पर आर एस एस के विचारों के सारी दुनिया में नगाड़े बजने की बात कही थी। गोलवलकर के संघी जीवनीकार सहस्त्रबुद्धे ने गोलवलकर की बात को उद्धृत किया है कि ’’लिख लो, आज साम्यवाद, समाजवाद आदि के नगाड़े बज रहे हैं। परन्तु संघवाद के सम्मुख ये सब निष्प्रभ सिद्ध होंगे।‘ (पूर्वोक्त, पृ. 30)

गोलवलकर की यह पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई और इसी वर्ष हेडगेवार ने उन्हें आर एस एस का सरकार्यवाहक घोषित किया था। इससे जाहिर है कि इस पुस्तक में व्यक्त गोलवलकर के विचारों से हेडगेवार सिर्फ पूरी तरह सहमत ही नहीं थे, बल्कि वास्तव अथो में वे खुद इस पुस्तक को ही आर एस एस की विचारधारा की मूल पुस्तक मानते थे। एम.एन काले ने अपनी किताब ’’द मोस्ट रेवर्ड डॉ. हेडगेवार‘ (परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार) में लिखा है कि हेडगेवार अपने प्रशिक्षण शिविरों में अपने अनुयायियों को यही बताया करते थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है। ’’इंग्लैण्ड अंग्रेजों का, फ्रांस फ्रेंच लोगों का, जर्मनी जर्मनों का तथा इन देशों के लोग गर्व के साथ यह बात कहते हैं।‘ (पृ. 40) गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी‘ में भी इसी विचार को प्रतिपादित किया है।

सिर्फ 77 पृष्ठों की इस पुस्तक को वास्तव में एक ’’पैम्फलेट‘ कहा जा सकता है। इसके लिखने का ढंग भी ऐसा ही है जिसमें बहुत प्रमाणों के साथ अपनी बात कहने की कोई कोशिश नहीं की गई है। ’’राष्ट्र‘ के बारे में विश्व स्तर के विद्वानों के कुछ कथनों की चर्चा से विषय को उठाया तो गया है, लेकिन सबकी बातों को मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ कर नस्लवाद को ही राष्ट्रवाद का पर्याय बताते हुए नस्लवादी चेतना के विकास की तारीफ की गई है और हिटलर के सुर में सुर मिलाकर यह साफ ऐलान किया गया है कि अन्य सभी छुद्र नस्ल के लोगों को श्रेष्ठ नस्ल की (अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की) गुलामी स्वीकार करनी होगी, तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता को गँवाकर उनमें मिल जाना होगा। इसमें हिटलर द्वारा यहूदियों के साथ किए गए सलूक की तारीफ करते हुए उसे भारत के लिए एक अच्छा सबक बताया है।

‘राष्ट्र’ की विकृत व्याख्या

गोलवलकर ने अपनी इस किताब में मनमाने ढंग से ’’राष्ट्र‘ की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इसका संगठन ’’पाँच प्रसिद्ध इकाइयों के मिश्रण से होता है, वे हैं : भौगोलिक (देश), नस्ली (नस्ल), धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति) तथा भाषायी (भाषा) और इनमें से एक भी नष्ट होने का अर्थ है राष्ट्र के रूप में राष्ट्र की समाप्ति।‘ (पृ. 33)

इस प्रकार उन्होंने नस्ल और धर्म को राष्ट्र के अभिन्न तत्त्व के रूप में गिनाकर हिटलर और मुसोलिनी के नस्ल तथा खुद की साम्प्रदायिकता की अवधारणा को राष्ट्रीयता का आधार बताने की जमीन तैयार कर ली और उसके बाद राष्ट्रवाद के नाम पर साम्राज्यवादी लूट औेर हिंसा की प्रशंसा में, जर्मनी में हिटलर की करतूतों की तारीफ में लम्बा लेख लिख डाला। इंग्लैण्ड द्वारा सारी दुनिया में अपने साम्राज्य को फैलाने की कोशिशों का भी इसी तर्क पर उन्होंने समर्थन किया था।

गोलवलकर ने लिखा : ’’आज हम जिस राष्ट्र के सबसे अधिक सम्पर्क में हैं, वह है इंग्लैण्ड और इसे ही हम सबसे पहले अययन का विषय बनाएँगे। जहाँ तक देश और नस्ल का प्रश्न है यह इतना स्थापित सत्य है कि राष्ट्र की अवधारणा में इसके महत्त्व पर कोई भी प्रश्न नहीं उठाता। संस्कृति भी इसी श्रेणी में पड़ती है। यह इसलिए बदनाम भी है कि प्रत्येक राष्ट्र भारी ईष्र्या के साथ इसकी रक्षा करता हुआ पाया जाता है और अपनी संस्कृति कोश्रेष्ठ बनाए रखता है। जिस बात को लेकर गुत्थी है वह है धर्म को लेकर तथा कुछ हद तक को भाषा को लेकर। खासतौर पर आज जब जनतांत्रिक राज्य इस बात की गर्वोक्ति किया करते हैं कि उन्होंने धर्म से अपने को अलग कर लिया है तब धर्म के विषय में और भी ज्यादा सावाधनी से जाँच की आवश्यकता है। क्या इंग्लैण्ड किसी राजकीय धर्म पर विश्वास करता है?  इसका उत्तर सीधे तौर पर हाँ के सिवा और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अन्यथा क्यों यह जरूरी माना जाता है कि इंग्लैण्ड का सम्राट प्रोटेस्टेंट मतावलम्बी ही होना चाहिए?  क्यों इंग्लैण्ड के चर्च के तमाम पादरियों को राजकीय खजाने से पैसे दिए जाते हैं।...जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, सभी स्वदेशी भाषाओं की हत्या करके विजित नस्लों पर अपनी ’’राष्ट्रीय‘ भाषा अंग्रेजी को आरोपित करने का इतना गर्व है कि वे उसे सारी दुनिया की सम्पर्क भाषा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इस प्रकार इंग्लैण्ड के राष्ट्र संबंधी विचार का सिद्धान्त के साथ व्यावहारिक स्तर पर पूरी तरह मेल बैठता है।‘ (वही पृ. 33-34)

इस प्रकार, अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना के लिए ’’ईष्र्यापूर्ण‘ कार्रवाइयों, धर्म और दूसरी भाषाओं पर अपनी भाषा को लादने के बारे में इंग्लैण्ड के उदाहरण से गोलवलकर ने राष्ट्रीयता संबंधी अपनी अवधारणा के मूल तत्त्वों को गिना दिया और बताया कि इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती ही सच्ची राष्ट्रीयता के लक्षण हैं। इसके बाद ही उन्होंने हिटलर के जर्मनी, उसके विस्तारवाद तथा उसके पैशाचिक नस्लवाद की तारीफ करके हत्या, दमन, सैन्यीकरण तथा अन्य धर्मों, नस्लों को पशु-बल से कुचले जाने की प्रशंसा की और धर्म से अलग होने के जनतांत्रिक राज्य के दावे का उपहास करके आर एस एस की घनघोर अमानवीय और हत्यारी कार्यपद्धति और साम्प्रदायिक तानाशाही की विचारधारा की आाधरशिला रखी।

हिटलर के जर्मनी का गुणगान

जर्मनी के बारे में गोलवलकर ने लिखा : ’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने अपने आीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा ह,ै सच्ची राष्ट्रीयता का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र‘ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है। जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्राय: परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू‘ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 34-35)

गोलवलकर अब अपने राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व ’’जाति‘ (रेस) की महत्ता को हिटलर के ही उदाहरण से स्थापित करते हैं। वे लिखते हैं :

’’अब हम राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभि रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति संबंधी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)

इसके बाद ही वे जर्मनी में भाषा और धर्म के तत्त्वों के बारे में लिखते हैं। कहते हैं कि तमाम भाषाई अल्पसंख्यक आपस में भले ही अपनी भाषा का वहाँ प्रयोग कर लें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में वे सिर्फ राष्ट्रीय भाषा, जर्मनी का ही प्रयोग कर सकते हैं। धर्म के मामले में, जर्मनी के राष्ट्रपति को ईसाई धर्म के अनुसार ही शपथ लेनी पड़ती है। इस प्रकार गोलवलकर ने यह स्थापित किया कि ’’राष्ट्रीयता के विचार के पाँचों संघटक तत्त्व आधुनिक जर्मनी में पूरी दृढ़ता के साथ सही साबित हुए हैं...उन्होंने अपने महत्त्व को प्रदर्शित कर दिया है।‘ (वही, पृ. 36)

यह है आर एस एस और भाजपा, विहिप आदि की तरह के उनके तमाम संगठनों की ’’सच्ची राष्ट्रीयता‘ का मूल रूप। हिटलर के नाजी विचारों की प्रेरणा से ही आर एस एस और भाजपा के लोग...’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ की तर्ज पर अपने ’’प्राचीन अखण्ड भारत‘ का एक नक्शा पेश किया करते हैं। गोलवलकर बताते हैं : ‘हमारा अमर साहित्य’ तथा हमारे पुराण भी हमारी मातृभूमि की वही विस्तृत प्रतिमा प्रस्तुत करते हैं। अफगानिस्तान हमारा प्राचीन उपगणस्थान था। महाभारत के शल्य वहीं से आते हैं। आधुनिक काबुल और कंधार गांधार थे जहाँ से कौरवों की माता गांधारी आती थीं। यहाँ तक कि इरान भी मूलत: आर्य था। वहाँ का पहले का राजा रेजा शाह पहेलवी इस्लाम के बजाय आर्य मूल्यों से कहीं ज्यादा प्रभावित था। पारसियों का धर्म ग्रंथ ’’जेंद अवेस्ता‘ प्राय: ’’अथर्ववेद‘ ही है। पूरब में वर्मा हमारा प्राचीन ब्रह्मदेश है। महाभारत में इरावत का उल्लेख है, जो आधुनिक इरावडी है जो उस महायुद्ध में शामिल था। इसमें असम का उल्लेख भी प्राज्ञोतिषा के रूप में है क्योंकि वहीं सूरज पहले उगता है। दक्षिण में लंका का हमेशा भारत से सबसे निकट का सम्पर्क रहा है तथा उसे कभी भी मुख्य भूमि से भि नहीं समझा गया। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, पृ. 111)

इस प्रकार अफगानिस्तान, इरान से लेकर पाकिस्तान, भारत, वर्मा, श्रीलंका, नेपाल आदि सभी देशों को मिलाकर उन्होंने प्राचीन अखण्ड भारत का नक्शा बिल्कुल वैसे ही पेश किया जैसे हिटलर ’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ का किया करता था।

गैर-हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं

जातीयता के मामले में संघियों का साफ कहना है हिन्दुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है। गैर-हिन्दू तबकों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। ’’मूलगामी विभेदवाली संस्कृतियों और जातियों का मेल हो ही नहीं सकता‘ के हिटलरी फार्मूले को वे भारत पर हुबहू लागू करते हैं। उनकी यह साफ राय है कि गैर-हिन्दू भारत में रह सकते हैं, लेकिन वे सीमित समय तक तथा बिना किसी नागरिक अिधकार के रहेंगे। गोलवलकर के शब्दों में :

’’विदेशी तत्त्वों के लिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएँ और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़कर चले जाएँ। यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात् हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किए, बिना किसी प्रकार का विशेषािधकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे, यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अिधकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं; हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।‘ (गोलवलकर, ’’वी‘ पृ. 47-48)

हिटलर ने जिस तरह यहूदियों को जर्मन जाति का एक नम्बर दुश्मन बताकर उनके खिलाफ तीव्र घृणा के जरिए अपनी राजनीति का आाधर तैयार किया था, बिल्कुल इसी प्रकार आर एस एस ने भी शुरू से मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र का दुश्मन नम्बर एक कहना शुरू किया और उनके खिलाफ हर समय नफरत फैलाने को अपनी राजनीति के मूलकार्य के रूप में अपनाया। ’’राष्ट्र‘ संबंधी अपने हिटलरी सिद्धान्त को भारत पर लागू करते हुए गोलवलकर लिखते हैं : ’’हिन्दुस्तान, हिन्दुओं की भूमि, जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है।...इस देश में प्रागैतिहासिक काल से एक प्राचीन जाति, हिन्दू जाति रहती है।...इस महान हिन्दू जाति का प्रख्यात हिन्दू धर्म है।...निजी, सामाजिक, राजनीतिक तमाम क्षेत्रों में इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों की अधोपतित ’’सभ्यताओं‘ के घातक सम्पर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति हैं।‘ (वही, पृ. 40-41)

फिर इसी बात को दोहराते हुए गोलवलकर कहते हैं ’’सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं।‘ (वही, पृ. 44)

जर्मनी की नाजी पार्टी ने जर्मन श्रेष्ठता के अपने सिद्धांतों के प्रचार के जरिए एक ऐसी अवधारणा विकसित की थी कि सच्चा जर्मन वह है जो नाजी पार्टी का सदस्य है तथा सच्चा नाजी वह है जो यहूदियों से नफरत करता है। भारत में मुस्लिम लीग वालों ने भी यही पद्धति अपनाई थी कि वही व्यक्ति सच्चा मुसलमान है जो मुस्लिम लीगी है तथा सच्चा मुस्लिम लीगी वह है जो हिन्दुओं से नफरत करता है। नाजियों और मुस्लिम लीगियों के पदचिन्हों पर ही चलते हुए आर एस एस भी शुरू से यही रटता रहा है कि वही व्यक्ति सच्चा हिन्दू है जो आर एस एस का सदस्य है और वही सच्चा संघी है जो मुसलमानों से नफरत करता है। उनकी यह रट आज इस स्तर पर उतर आई है कि जो बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने का समर्थक है वही सच्चा हिन्दू है तथा सच्चा हिन्दू वही है जो मुसलमानों से घृणा करता है।

इस प्रकार के धार्मिक या जातीय उन्माद को पैदा करके उसकी आग पर अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकनेवाली तमाम पार्टियाँ हमेशा समाज में किसी-न-किसी प्रकार के अल्पसंख्यक तबके को अपनी घृणा का विषय बनाकर उनके खिलाफ बिषवमन और हमलों के जरिए ही अपना प्रचार-प्रसार किया करती है। फ्रांस में ले पेन के राष्ट्रीय मोर्चे ने अप्रवासियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके उग्र राष्ट्रवाद के जरिए अपना विस्तार किया है। जर्मनी में अब नई दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी विदेशियों को अपने हमलों का निशाना बनाया है।

गोलवलकर जिसे ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताते हैं उसकी प्रेरणा के स्रोतों को हमने ऊपर देख लिया है। आर एस एस का संघवाद इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद, हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद के भारतीय संस्करण के अलावा और कुछ नहीं है। चूँकि भारत की अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ हिटलर के नाजीवादी दर्शन को स्वीकार नहीं करती इसीलिए आर एस एस उन्हें हमेशा ’’नकली राष्ट्रवादी‘ कहता रहा है और खुद को अकेले ’’सच्चा राष्ट्रवादी‘ बताता है, जैसे आज सारे संघी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ’’नकली धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं और खुद को (आर एस एस, भाजपा के कथित संघ परिवार को) ’’सच्चा धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं।

सच्चा राष्ट्रवाद

जिस समय हेडगेवार, गोलवलकर और उनके संघी चेले हिटलर के नाजीवाद को ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताकर उसका स्तुति गान कर रहे थे, इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद को भी सच्ची राष्ट्रीयता का नमूना बता रहे थे, और बिल्कुल उन्हीं की विचारधारा की आाधरशिला पर अपने ’’हिन्दुत्व‘ के दर्शन की इमारत तैयार कर रहे थे, उसी समय हमारे भारत के ही अनेक मनीषियों ने पश्चिमी देशों में सामने आ रहे उग्र राष्ट्रवाद के घिनौने रूप को पहचान कर कड़े-से-कड़े शब्दों में उसकी भत्र्सना की थी।

मुंशी प्रेमचन्द ने ऐसी पैशाचिक राष्ट्रीयता का प्रहार करते हुए 1933 में ही लिखा था :
’’राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर राम-राज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है।‘ (प्रेमचन्द, ’राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता‘, विविा प्रसंग, खण्ड-2, पृ. 333, 334)

रवीन्द्रनाथ ने लिखा था : ’’पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब तो असम्भव हो गया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी...।

’’इसी बीच मैंने देखा कि योरोप में मूर्तिमन्त क्रूरता अपने नख-दन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव जाति को पीडि़त करनेवाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहाँ से उठकर आज उसने मानव आत्मा का अपमान करते हुए दिग-दिगान्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है।‘‘

आर एस एस का ’’हिन्दुत्व‘ इसी महामारी की मार से ग्रसित विकृत विचारों की उपज है।

फासीवाद विरोधी विश्वव्यापी आन्दोलन में भारत में रवीन्द्रनाथ के साथ ही सभी भाषाओं के देशभक्त लेखकों, कवियों और विचारकों ने एक स्वर में फासिस्ट विचारों की भत्र्सना की थी। लेकिन फिर भी आर एस एस-भाजपा के लोग खुद को ही ’’सच्चे राष्ट्रवाद‘ के वजाधारी बताएँगे और रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द तथा उनकी सारी विरासत को, ’’नकली राष्ट्रवादी‘।

यह वर्ष विवेकानन्द के प्रसिद्ध शिकागो भाषण का शताब्दी वर्ष है। विश्व धर्म महासभा, शिकागो में 11 सितम्बर, 1893 के दिन विवेकानन्द ने अपने स्वागत का उत्तर देते हुए जो संक्षिप्त भाषण दिया, उसका अन्त उन्होंने इन शब्दों से किया था :

’’साम्प्रदायिकता, धार्मिकता और उनकी बीभत्स वंशार धर्मांधता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को विवस्त करती और पूरे-पूरे देश को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये बीभत्स व दानवी शक्तियाँ न होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार और लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारम्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।‘ (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 1, पृ. 4)
ऐसी बातें कहनेवाले विवेकानन्द ने यदि हिटलर के जर्मन ’’जाति गौरव‘ काल को, उसकी विभीषिका और बीभत्सता को देखा होता तो उसे सिर्फ धिक्कारने और धिक्कारने के अलावा उनकी वाणी से दूसरा कोई शब्द न निकलता। आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के उन्हीं पैशाचिक कृत्यों की शव-साधना में लगा हुआ है। समूचा भारतवर्ष अपने हजारों वषो की परम्पराओं और मूल्यों के साथ इसीलिए उन्हें धिक्कार रहा है। रवीन्द्रनाथ ने अपनी ’’गीतांजलि‘ के एक गीत में लिखा था :
’’एसो है आर्य, एसो अनार्य,हिन्दू मुसलमान
एसो एसो आज तुमी इंगरेज,
एसो एसो ख्रिस्टान।
एसो ब्राह्मण, शुचि करि मन
धरो हाथ सबाकार,
एसो हे पतित, करो अपनीत
सब अपमान भार।
मा‘र अभिषेके एसो एसो त्वरा
मंगलघट होय निर्भरा
सबार परशे पवित्र-करा
तीर्थ नीरे
आजि भारतेर महामानवेर
सागर तीरे‘‘।
(रवीन्द्र रचनावली, बांग्ला खण्ड-2, पृ. 257)

(आओ हे आर्य, आओ अनार्य, हिन्दू मुसलमान! आओ आज तुम अंग्रेज आओ आओ क्रिश्च्यन। आओ ब्राह्मण, मन को साफ करें, सबका हाथ थामे, आओ पतित अपने सारे अपमान के बोझ से मुक्त होओ। मां के अभिषेक के लिए तेजी से आओ, मंगलघट सबके स्पर्श से पवित्र हुए तीर्थ जल से अभी पूर्ण नहीं हुआ है। आज भारत के महामानव के सागर तट पर आआ)

यह है भारत का दृष्टिकोण। मंगलघट पवित्र होता है सबके स्पर्श से। आर एस एस और संघियों की दृष्टि इसके बिल्कुल विपरीत है। सबके स्पर्श से मंगलघट की पवित्रता की वे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आर एस एस दुनिया के तमाम दरिन्दों, नादिरशाहों और हिटलर-मुसोलनियों का पुजारी है जिन्हें विश्व मानवता सिर्फ नफरत के साथ ही स्मरण करती है। संघी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलने को आतुर है। वे मानवता के दुश्मन हैं। इतिहास में उनका स्थान वही होगा, जो हिटलर-मुसोलिनी का है। लेकिन इसमें शक नहीं कि इसके पहले वे हमारे समाज पर भयावह कहर बरपा कर सकते हैं। शिक्षा, समाज, संस्कृति, भाषा, स्त्रियों तथा वर्णव्यवस्था आदि संबंधी तमाम विषयों पर आर एस एस के विचार चरम प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट विचारों की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं है। वे हर प्रकार के सामाजिक सुधार के कट्टर विरोधी हैं।

(इस लेखक की पुस्तक 'आरएसएस और उसकी विचारधारा' का एक अंश)


फिर एक बार ‘अन्तर्वर्ती वर्ग’ और आज के राजनीतिक संक्रमण पर कुछ सोच



कल एक पोस्ट में हमने प्रभात पटनायक के लेख ‘अन्तवर्ती वर्गों’ पर टिप्पणी की थी। ‘अन्तर्वर्ती वर्गों’ का शासन - दो शिविरों में बंटी दुनिया की खास परिस्थिति में नव-स्वाधीन देशों में विकास का एक गैर-पूंजीवादी रास्ता।

नेहरूवियन सोशलिज्म, पंचवर्षीय योजनाएं, कमांडिंग हाइट आफ पब्लिक सेक्टर, जमींदारी प्रथा की समाप्ति से लेकर इंदिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिविपर्स की समाप्ति, कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण से लेकर 1991 के पहले तक चला आरहा कथित लाइसेंस राज इसी ‘गैर-पूंजीवादी विकास’ के आख्यान की कथाएं हैं। ये कथाएं अन्य बातों के साथ ही भारत के पूंजीपति वर्ग की वास्तविक स्थिति की सचाई का बयान भी है। भारत की नीतियों के निर्धारण में इसकी अशक्तता, शासन के सैद्धांतिक प्रश्नों पर इसकी अक्षमता भी इस आख्यान से व्यक्त होती है जिसे प्रभात के लेख में भी औपनिवेशिक परिस्थितियों का एक अनिवार्य परिणाम बताया गया है।

बहरहाल, अभी हम पंडित नेहरू और उस पीढ़ी के नेताओं की बात छोड़ भी देते हैं, लेकिन केंद्र में इंदिरा गांधी से आज तक, सिर्फ चंद सालों के अटल बिहारी वाजपेयी के शासन को छोड़ दिया जाए, और राज्यों में ज्योति बसु, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, जयललिता, नवीन पटनायक आदि-आदि का पूंजीपतियों के साथ जिसप्रकार का एक दूरी रख कर चलने का व्यवहार रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है, और वह भी इस सचाई की पुष्टि करता है कि भारतीय राजनीति को कठपुतली की तरह सीधे अपने इशारों पर नचाने की कूव्वत भारत के पूंजीपतियों में आज भी उतनी नहीं है।

क्या मनमोहन सिंह को एक अक्षम और निर्णयहीनता का शिकार प्रधानमंत्री बताने की टीवी चैनलों की चिल्लाहटों के पीछे भी आर्थिक शक्ति के समानुपात में राजनीतिक शक्ति हासिल न कर पाने की उनकी इसी वेदना का आर्तनाद नहीं है?

यह सच है कि वाजपेयी के शासन में प्रशासनिक सैद्धांतिक प्रश्नों पर प्रत्यक्ष पूंजीपतियों के हस्तक्षेप के कुछ दृश्य दिखाई दिये थे, जब देश के शिक्षामंत्रियों के एक सम्मेलन में भारत की भावी शिक्षा-व्यवस्था का एक ब्लूप्रिंट तक कोलकाता के एक छुटभैये पूंजीपति पी.डी.चितलांगिया से रखवाने की पेशकश की गयी थी। आज जिन टेलिकॉम क्षेत्र और कोयला खानों के आबंटन के क्षेत्र में इतने भारी नीतिगत-निर्णयों से जुड़े भ्रष्टाचार के अभियोग सामने आ रहे हैं, वे सारी नीतियां एनडीए सरकार के समय में ही अपनायी गयी थी।

जो भी हो, अभी देश में एक प्रकार के परिवर्तन की जो लहर सी दिखाई दे रही है, हमें उसपर थोड़ी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। हमारा मानना है कि वे दिन लद चुके हैं जब किसी व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा से, उसकी सद्भावना-दुर्भावना मात्र से अब ऐसी कोई लहर पैदा हो सकती है। न राहुल गांधी से, न नरेंद्र मोदी से और न ही अरविंद केजरीवाल से। यह समय व्यक्तित्वों का नहीं, व्यक्तित्वों के विलोपन का समय है।

अपनी सीमाओं के प्रति सचेत, कोरा दिखावा करने में असमर्थ, भोली सूरत का, हकलाहटों से भरा राहुल गांधी अपने पारिवारिक राजनीतिक प्रशिक्षण से बनी आदतों के अनुरूप शासन चलाने की एक परिपाटी का प्रतीक है, तो दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी तमाम चारित्रिक कमजोरियों के मामले में हर राजनीतिज्ञ को मात देने वाला, फिर भी आरएसएस की पाठशाला में इतिहास से लेकर तमाम विषयों का अधकचरा ज्ञान रखने वाला एक ऐसा व्यक्ति है जो मानता है कि उसके पास दुनिया के सभी विषयों पर अंतिम राय सुनाने की योग्यता है। एक ओर हकलाहट और दूसरी ओर अनर्गल लफ्फाजी। एक ओर अपनी सीमाओं के अहसास का दबाव और दूसरी ओर सर्वज्ञता के अहंकार की निरंकुशता।

और, इन दोनों के दायरे से बाहर, उदय हो रहा है - आम आदमी पार्टी (आप) का। इस ऐतिहासिक नियम का प्रमाण कि जब स्थापित व्यवस्था की जीर्ण संस्थाएं जरूरी बदलाव की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होती है, तभी सामाजिक परिवर्तन की लहरें पैदा होती है। भ्रष्टाचार, राजनीतिज्ञों-नौकरशाही-पुलिस और न्यायतंत्र की बदनाम धुरी से निपटने में अशक्त साबित हो रहे वर्तमान व्यवस्थागत संस्थानों में भारी परिवर्तन की जरूरतों का प्रतिफलन।

नरेन्द्र मोदी भी एक परिवर्तन की मांग के साथ आए हैं। कांग्रेस के लंबे शासन में परिवर्तन की मांग के साथ। लेकिन आज की व्यवस्था से उनकी यदि कोई शिकायत है तो इसलिये नहीं कि आम आदमी का जीवन तमाम प्रताड़नाओं का शिकार है बल्कि इसलिये क्योंकि उनकी सारी सहानुभूति देश के बड़े-बड़े पूंजीवादी घरानों के साथ है। उसी प्रकार, जिसकी एक झलक एनडीए के वाजपेयी शासन में देखने को मिली थी और जिसकी तमाम परिणतियों को आज हमारा देश भोग रहा है।

आम आदमी पार्टी को दिल्ली के चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली है। इस सफलता को इस आंदोलन के एक अंक का पटाक्षेप कहा जा सकता है। आगामी लोकसभा चुनाव इस आंदोलन का दूसरा काफी महत्वपूर्ण अंक होगा। पहले अंक के अंत और उसके बाद के नये अंक के प्रारंभ के बीच, फुर्सत के इस ‘गहमागहमी’ वाले समय में आज की सामजिक-राजनीतिक परिस्थिति का ठोस जायजा लेते हुए इस आंदोलन के नेतृत्व को सम्भाव्य की सीमाओं को अच्छी तरह समझना होगा, अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में एक साफ समझ के आधार पर इस नये अंक के पात्रों की भूमिकाओं को तय करना होगा।

‘आप’ के पीछे बदलाव की ऐतिहासिक-सामाजिक जरूरतें काम कर रही हैं। इसे कोई कोरा लफ्फाज भुनाने न पायें, इस ओर खास तौर पर सचेत रहने की जरूरत है।
 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

काश, हम लातिन अमेरिका वाला रास्ता चुन लें!

(विकास के ‘गैर-पूंजीवादी रास्ते’ की सालों पुरानी बहस को उकसाने वाले प्रभात पटनायक के एक महत्वपूर्ण लेख पर एक टिप्पणी :)


चंद रोज पहले ही हमने ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) से तत्काल अपनी सभी नीतियों के खुलासे की मांग को ग्राम्शी की भाषा में ‘आदिम बचकानापन’ (primitive infantilism) कहा था। ग्राम्शी का मानना था कि किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की एक स्थिर तस्वीर (photographic picture) खींचना मुमकिन नहीं होता। इसमें हर समय नाना स्तर के वर्ग और समूह सक्रिय रहते हैं। और, इसीलिये अस्थिर अर्थ-व्यवस्था के संदर्भ में समसामयिक राजनीति की भी कोई स्थिर तस्वीर नहीं बन सकती ।

ग्राम्शी की अर्थ-व्यवस्था में अस्थिर आर्थिक संवर्गों की यह समझ हर राजनीतिक पार्टी के लिये अपने समय की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिये बहुत गतिशील, लचीली और व्यवहारिक भूमिका की मांग करती है। इसीलिये चंद वामपंथी पार्टियों में अब तक का चला आ रहा सोच का यह ढर्रा कि सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ शोषकों का कोई 'बोर्ड आफ डायरेक्टर्स' राजनीतिक पार्टियों के रूप में काम कर रहे अपने दलालों को कठपुतलों की तरह इशारों पर नचाता है, रोजमर्रा की राजनीतिक-कार्यनीतिक समझ के मामले में नितांत यांत्रिक प्रकार की नादानियों  को जन्म देता है। किसी भी लंबे कालखंड के ऐतिहासिक विश्लेषण या उसपर अंतिम निष्कर्ष के लिये इसप्रकार की पद्धति कुछ काम की जरूर हो सकती है, लेकिन नाना प्रकार के सूक्ष्म घात-प्रतिघातों के बीच से बन-बिगड़ रही सामाजिक परिस्थितियों के आकलन में यह यांत्रिक साबित होती है। 

बहरहाल, आज के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक का एक बहुत महत्वपूर्ण लेख छपा है - नवउदारवाद का संकट : अन्तर्वर्ती वर्ग (The crisis of neo-liberalism : Intermediary classes)  

इस लेख में प्रभात ने राजसत्ता के चरित्र के बारे में वामपंथ के अब तक चले आ रहे विमर्श कि यह इजारेदारों के नेतृत्व में सामंती-पूंजीवादी गंठजोड़ जो सामंतवाद और साम्राज्यवाद से सहयोग करता है, या राष्ट्रीय पूंजीवाद की राजसत्ता अथवा, पूंजीवादी राजसत्ता की तरह की पदावलियों से बिल्कुल भिन्न इसमें ‘अन्तर्वर्ती’ वर्गों के शासन की चर्चा की है। अन्तर्वर्ती, अर्थात दो के मध्य का लेकिन अस्थिर, गतिशील, सुपरिभाषित नहीं और न पूर्व-कल्पित। 

अपने इस लेख में प्रभात ने प्रसिद्ध पोलिश अर्थशास्त्री मिक्सौ कालेत्स्की का जिक्र किया है जिसने प्रभात के अनुसार 1964 में नवस्वाधीन नेहरू के भारत, नासिर के मिस्र और सुुकर्णो के इंडोनेशिया के अनुभव के आधार पर एक ऐसे ‘अन्तवर्ती वर्गों के शासन’ का अभिनव विचार दिया जहां राजसत्ता निम्नपूंजीवादी (पेटी बुर्जुआ) अन्तवर्ती वर्गों के हाथ में है, जो इसके पहले इतिहास में कभी नहीं हुआ था। इतिहास में पेटी बुर्जुआ अनिवार्य तौर पर सामंतशाही से सहयोग करते हुए पूंजीपति वर्ग के हितों का सेवक भर माना जाता रहा है। 

कालेत्स्की ने इसके पीछे इन देशों के अंदुरूनी और बाहरी, दोनों कारण बताये थे। अंदुरूनी कारण यह कि इनके औपनिवेशिक अतीत के कारण यहां पूंजीवाद का सही ढंग से विकास अवरुद्ध था। और बाहरी कारण यह कि तब दुनिया दो शिविरों में बंटी हुई थी - एक ओर पूंजीवादी अमेरिका और दूसरी ओर समाजवादी सोवियत संघ। इसीलिये इन सरकारों पर किसी एक रास्ते को ही अपनाने का दबाव नहीं था। इसी कारण कालेत्स्की ने इस घटनाचक्र (फेनामेनां) को सामयिक नहीं बल्कि टिकाऊ (durable) बताया और राजकीय पूंजीवाद (state capitalism) तथा गुट-निरपेक्षता को इसकी प्रमुख लाक्षणिकता। 

प्रभात बताते हैं कि कालेत्स्की के इस विचार की - पेटी बुर्जुआ के वर्चस्व की - तीखी आलोचना हुई। कहा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र तो पूंजीवाद की ही सेवा के लिये है। इसके अलावा नासिर की जगह अनवर सदात के मिस्र में आने और सुकर्णो की जगह सुहर्तो के आने ने ‘टिकाऊपन’ की बात को भी मजाक बना दिया। इन दोनों जगह ही कम्युनिस्टों का भारी कत्ले-आम भी हुआ। और, यह कथित ‘अन्तवर्ती शासन’ अपनी गति को प्राप्त कर गया। 

फिर भी, प्रभात के अनुसार, नवस्वाधीन देशों में पेटी बुर्जुआ अथवा अंतवर्ती वर्गों ( जिनमें शहरी मध्यवर्ग के साथ ही किसान जनता भी शामिल होती है) के राजनीतिक महत्व का प्रश्न खारिज नहीं हुआ। 

इसी संदर्भ में प्रभात ने इस लेख में भारतीय अर्थनीति और राजनीति के प्रसंग पर चर्चा की है। 

मिस्र और इंडोनेशिया से भिन्न भारत में क्या हुआ? यहां ’80 के मध्य तक आते-आते नेहरू वाले शासन का संकट सामने आने लगा था और ‘90 तक आते-आते उसका अंत ही होगया। इसकी एक वजह सभी आर्थिक मामलों में राज्य की प्रमुखता का एक पहलू था, जिसके कारण सरकार के खर्च बढ़ते चले गये, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिये उतने साधन जुटाना मुश्किल हो रहा था। खर्च चलाने भर के वित्तीय साधनों के जुगाड़ के कारण विकास में गतिरोध पैदा हुआ, प्रगति रुक गयी। भारत के पूंजीपति अधिक कर अदा करने के लिये तैयार नहीं थे। आज भी राष्ट्रीय आमदनी में कर-राजस्व का योगदान यहां दुनिया में सबसे कम है। बाजार से सरकार द्वारा अनाप-शनाप कर्ज लेने, रुपये छापने और अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाने का फल है - महंगाई, विकास में गिरावट और बेरोजगारी। और, इन्हीं कारणों से मध्यवर्ग का सरकार से मोहभंग हुआ ।

प्रभात अपने लेख में बताते हैं कि ’60 के मध्य में इस संकट से हरित क्रांति के जरिये उबरा गया था। सरकारी संसाधनों को बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में झोंक दिया गया। लेकिन, शहरों में बेरोजगारी का भारी संकट - ‘70 के जमाने में शहरी नौजवानों के सामने छाये भारी अंधेरे का कारण बना, जिसे बताने के लिये प्रभात ने मृणाल सेन की प्रसिद्ध फिल्म ‘कोरस’ का उल्लेख किया है। यही काल था जब जयप्रकाश का आंदोलन सामने आया । इसी समय पश्चिम बंगाल में वामपंथ की जड़ें मजबूत हुई।

इस पूरे इतिहास पर एक नजर डालते हुए प्रभात बताते हैं कि सन् ‘84 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के काल में वामपंथ को भारत की राजनीति के केंद्र में आजाना चाहिए था, लेकिन वह नहीं आपाया क्योंकि तब तक एकओर वैश्विक वित्तीय व्यवस्था का निर्माण हो गया था और भारत के उससे संपर्क हो गये थे और दूसरी ओर सोवियत संघ तथा समाजवादी शिविर का पतन होगया। इसने भारत में नव-उदारवाद का रास्ता साफ किया। 

नव-उदारवाद के बारे में प्रभात बताते हैं कि इसने सबसे पहले शहरी मध्यवर्ग और किसान जनता को मिला कर बने अन्तर्वर्ती वर्ग में दरार डाली। किसान जनता को इससे भारी नुकसान हुआ लेकिन शहरी मध्यवर्ग के महत्वपूर्ण तबके इससे लाभान्वित हुए। तथाकथित विकास नव-उदारवाद का पर्याय बन कर लुभावना बना। प्रभात के अनुसार भारत के वामपंथ ने भी विकास के इसी एजेंडे से खुद को जोड़ने और अंतवर्ती वर्ग के शहरी घटक को साथ में लेने के चक्कर में अपने पश्चिम बंगाल के मजबूत किले को भी गंवा दिया। 

प्रभात इस पूरी पृष्ठभूमि में नव-उदारवाद के वर्तमान संकट पर आते हैं - धीमा विकास, महंगाई, मैनुफैक्चरिंग में पूर्ण गतिरोध, बढ़ती बेरोजगारी और शहरी मध्यवर्ग में भी फैलता अनिश्चय। अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा विश्व अर्थ-व्यवस्था में बेशुमार डालर छोड़ने पर भी भुगतान-संतुलन की समस्या। इसने पहले से विपन्न देहात के लोगों के साथ ही शहरी मध्यवर्ग को भी, अर्थात अन्तर्वर्ती कहे जाने वाले पूरे वर्ग को शासन से काट दिया है। 

इसके राजनीतिक परिणाम को प्रभात दो प्रकार के विकल्पों के अभ्युदय में देखते हैं - एक नरेन्द्र मोदी का, कारपोरेट-वित्तीय प्रभुओं द्वारा समर्थित नव-उदारवाद का सबसे नग्न प्रवक्ता,  और दूसरा अन्ना हजारे, आम आदमी पार्टी वाला कथित रूप से स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त पूंजीवाद का विकल्प। 

प्रभात कहते हैं कि इन दोनों विकल्पों के मंचों से ही मध्यवर्ग का आक्रोश व्यक्त हो रहा है। दोनों मंचों पर ही इस बात को माना जा रहा है कि नव-उदारवाद के संकट का कारण नव-उदारवाद में नहीं है, उस भारतीय अर्थ-व्यवस्था में नहीं है जो नव-उदारवादी विश्व अर्थ-व्यवस्था का अंग है। बल्कि इस संकट का कारण मनमोहन सिंह सरकार, उसका non-governance, भ्रष्टाचार, निर्णयहीनता और भाई-भतीजावाद (crony capitalism) है। 

यहीं पर प्रभात पूछते हैं कि क्यों यह सवाल नहीं उठाया जाता कि यही मनमोहन सिंह की सरकार है जिसने आज तक की सबसे तेज गति से विकास करते हुए भारत को दुनिया के आर्थिक सुपर-पावर की कतार में शामिल करा दिया, वह अचानक कैसे इतनी अक्षम और निर्णयहीनता की सरकार में बदल गयी? क्या भ्रष्टाचार और नव-उदारवाद को एक दूसरे से अलग करना कभी भी संभव है? जिस व्यवस्था में कारपोरेट-वित्तीय प्रभु (corporate-financial elite) विनिवेशन आदि से सार्वजनिक संपत्ति को, जमीन के अधिग्रहण से आदिवासियों, किसानों और आम जनता की संपत्तियों को लूटते हैं, उसमें क्या उन रोगों से मुक्त रहा जा सकता है, जिनके आरोप मनमोहन सिंह सरकार पर लगाये जा रहे हैं? 

प्रभात बताते हैं कि इस मामले में अभी पूरे अंतवर्ती वर्ग में भेद नहीं है। कालोस्की के समय की तुलना में काफी ज्यादा हाशिये पर है और उसके पास कारपोरेट-वित्तीय प्रभुओं के एजेंडे से कोई अलग एजेंडा नहीं है। और लगता है जैसे घूम-फिर कर यहां फिर ये अन्तर्वर्ती वर्ग बड़े पूंजीपतियों की सेवा करने की अपनी एक प्रकार की नियत ऐतिहासिक भूमिका में आगये हैं। 

भारत में ‘अन्तर्वर्ती वर्गों’ की भूमिका के इस पूरे महत्वपूर्ण आख्यान के बाद भी प्रभात उनकी इस ‘ऐतिहासिक भूमिका’ को ही उनकी नियति मानने के लिये तैयार नहीं है, और कहते है कि नहीं, उनके लिये एक और रास्ता भी बचा हुआ है - लातिन अमेरिका का रास्ता। दूसरे वर्गों, किसानों-मजदूरों के साथ हाथ मिला कर चलने का रास्ता। लातिन अमेरिका के देशों में लोगों ने नव-उदारवाद के प्रतिरोध में विकास का एक वैकल्पिक रास्ता अपनाया है। वहां का शहरी मध्यवर्ग इस नतीजे पर पहुंच गया है कि नव-उदारवाद के संकट से निकलने का यही एक सही रास्ता है। 

प्रभात ने अपने लेख का अंत इस एक प्रश्न से किया है - ‘‘क्या भारत में ऐसा होगा ?’’

फिर एक बार विकास के ‘गैर-पूंजीवादी’ रास्ते की दशकों पहले की बहस को उकसाने वाली प्रभात की इस सार्थक टिप्पणी के बारे में एक बिन्दु पर हमारी गहरी असहमति है, वह है आम आदमी पार्टी (आप) के बारे में कोई अंतिम राय सुनाने की उनकी जल्दबाज़ी पर । इस लेखक ने इन विषयों पर लगातार लिखा है और खास तौर पर ‘आप’ के इस पूरे घटनाक्रम को लातिन अमेरिकी घटनाक्रम के संदर्भ में देखने पर भी काफी बल दिया है। यहां अंत में हम अपनी ही पूर्व-टिप्पणियों के उद्धरण देने चाहेंगे :

‘‘हमें तो ‘आप’ और वामपंथ के गठबंधन में फिलहाल भविष्य की कुछ संभावनाएं दिखाई देने लगी है। लातिन अमेरिका का वर्तमान सच भी इसी ओर इशारा कर रहा है।‘‘

तथापि, हमारा भी यही सवाल है : ‘‘देखना यह है कि इस दल के साथ भारत की वामपंथी पार्टियों का कोई संवाद, कोई ताल-मेल बैठता है या नहीं!’’ 

अंत में हम अपनी पुरानी बात ही दोहराना चाहेंगे :

‘‘ ग्राम्शी की शब्दावली में ही कहे तो जरूरत इस बात की है कि ‘‘किसी भी जन-उभार में एक क्रांतिकारी पार्टी की भूमिका समाज के दूसरे तबकों और सर्वहारा वर्ग के बीच एक प्रभुत्वशाली गठबंधन कायम करने की होनी चाहिए और उसे निश्चित तौर पर ‘बौद्धिक और नैतिक जागरण’ की प्रक्रिया को एक रूप देने में सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। तभी कोई पार्टी अपने को मात्र गिने-चुने काडरों का संगठन बनने से, नौकरशाही उपकरण में अधोपतन (degenerate) से खुद को बचा सकती है।’’ 


शनिवार, 18 जनवरी 2014

कुंठित मन का मतिभ्रम

एक ऐसी टिप्पणी, बल्कि विखंडन, जिसे फेसबुक में देकर सार्वजनिक किया जाए अथवा नहीं, इसे सोचने में सवा महीने  से ज्यादा समय लग गया :


कुंठित मन का मतिभ्रम

देखिये 8 दिसंबर, 2013, रविवार के जनसत्ता में मानवाधिकार स्तंभ के अंतर्गत शंभुनाथ का लेख  - ‘जीने का अधिकार

विचारों की यह डगर शुरू होती है एक सामान्य उक्ति से - ‘‘मानव सभ्यता का हजारों साल से विकास हो रहा है।’’ दूसरे वाक्य में हीसभ्यता का विकासपश्चिमी जीवन शैली, तकनीक से होते हुए सिर्फविकासबन जाता है। और प्रश्न आता है - ‘‘विकास और मानवाधिकार-हनन, दोनों का ग्राफ एकसाथ ऊपर की ओर कैसे है?’’ अर्थात, प्रश्न सभ्यता के बरक्स मानवाधिकार का नहीं, पश्चिमी जीवन शैली और विकास के बरक्स मानवाधिकार का है। लेकिन, इसके बाद का वाक्य है - ‘‘भारत में प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष रूप से मानव अधिकारों का हनन होता है, जो वर्तमान सभ्यता पर एक प्रश्नचिन्ह है।’’ अर्थात, सभ्यता पर प्रश्न लगता है, मानवाधिकार के हनन के परोक्ष रूप से।प्रत्यक्ष हननतो पश्चिमी जीवनशैली, तकनीक अर्थात विकास से जुड़ा विषय है!

बहरहाल, नया पैरा कुछ इसप्रकार शुरू होता है - ‘‘ आज जितना असुरक्षित और अपमानों से भरा जीवन पहले कभी नहीं था। आज से पहले अप्राकृतिक मौतें इतने बड़े पैमाने पर नहीं होती थी।’’

महामारियों, महायुद्धों तथा इनकी त्रासदियों से भरे मानवता के अतीत में आज जितनी अप्राकृतिक मौतें पहले कभी नहीं हुई!

सचमुच, अब तक के अजाने एक बड़े सच का उन्मोचन!

लेकिन अगले वाक्य से ही पता चल जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी मानवता की नहीं, ‘परोक्ष मानवाधिकार-हननवाली भारत भूमि की बात कर रहे हैं। उनका तात्पर्य है - पता नहीं कबमुजफ्फरनगरहो जाए, ‘उत्तराखंडहो जाए।

अगला पैरा है राजनीति और हिंसा पर। राजनीति पर हिंसा हावी है, इसलिये शांत और सीधे-सादे आदमी की वहां जगह नहीं। वहां तोमहत्वाकांक्षी बुद्धिजीवीसर झुकाये खड़े रहते हैं। इसपर हमारे विद्वान बुद्धिजीवी पूछते हैं - क्या कहीं भी मनुष्य का आत्म-सम्मान सुरक्षित है?

आत्म सम्मानका जिक्र आते ही श्रीमान को गोवा की याद आगयी, जहां हाल ही में नारी के आत्म-सम्मान की बलि हुई थी।(तरुण तेजपाल कांड) और तत्काल इस नतीजे पर पंहुच जाते हैं - ‘यदि गोवा मेंथिंक फेस्टीवलहोने लगे तो समझ लेना चाहिए कि थिंकर्स कैसे होगे और क्या घटेगा।वैसे पहले भी वे एक टिप्पणी में ऐसे थिंकर्स कोसांस्कृतिक प्रदूषण के चूहेघोषित कर चुके हैं।

बहरहाल, दिल्ली में तो देश में सबसे ज्यादा बलात्कार होते हैं। वहां पर होने वाली गोष्ठियों-सेमिनारों में भाग लेने वाले लोग कैसे होंगे, श्रीमान् के तर्क से कोई भी इसे अच्छी तरह समझ सकता है !

गोवा और उससे जुड़ा स्त्री प्रसंग आया और इसके साथ ही श्रीमानजी का आज के युग के बारे में एक और अभिनव मूल्य निर्णय - ‘‘वैश्वीकरण के युग में विकास अधिक से अधिक निर्बुद्धिपरकता बढ़ा रहा है, जैसे तर्क का अकाल है।’’ और फिर आता है ऐसी सभीयुक्तियोंसे निकला हुआ उनका आज के समय के बारे में आप्त वाक्य - ‘‘इस समय में वही छाया हुआ है, जो युक्तिसंगत नहीं है। ’’

इसयुक्ति-श्रंखलामें उनकी आगे की कड़ी है, बाकी दुनिया से अलग एशिया के बारे में - ‘‘एशिया में मानवाधिकार सामुदायिक कट्टरवाद, सेना और बाजार के नियंत्रण में है। ‘‘ लेकिन एशिया से भारत भिन्न है, क्योंकि यहां के ‘‘लोगों में शांति, आत्मसम्मान और सुख के साथ जीने की भूख हमेशा रही है।’’ इसे वे दुनिया में भारत की खास विशेषता बताते हैं।

कहना होगा, बाकी दुनिया के लोगों में तो अशांति, अपमान और दुख में जीने की लालसा होती है !

आगे हमारे चिंतक जी पश्चिम के विचारकों द्वारा भारत में स्वेच्छाचारी शासकों की चर्चा के प्रसंग में सवाल दागते हैं कि तब क्या ‘‘मानवाधिकार एक पश्चिमी खोज है ?’’ और बताते हैं, नहीं यह कत्तई पश्चिम की खोज नहीं है। इसका प्रमाण - महाभारत में भारद्वाज भृगु ने जो कह दिया है - ‘‘हम सभी मनुष्यों में इच्छा, क्रोध, भय, दुख, चिंता, भूख और श्रम भावना है, इन मामलों में वर्णभेद कहां है?’’ इसके अलावा, हमारे यहां राजा के बारे में जो कहा गया था कि वह अपने धर्म का पालन करें। यहां ‘‘धर्म का अर्थ तब आज की तरह दैवी अंधास्था, कर्मकांड और दिखावे से भरा भजन-प्रवचन था।’’

अब कहिये, और क्या प्रमाण चाहिए !

श्रीमान के अनुसारधर्म, राजनीति, संस्कृति, बाजार और जीवन के अर्थसबको भ्रष्ट तो किया हैकेंद्रवादी सत्ताओंने। उन्होंनेउदात्त दृष्टिखो दी, और सारी सृष्टि भ्रष्ट होगयी ! दुनिया दृष्टि पर ही तो निर्भर है! और लोकतंत्र ! वह कहां है? होता तो फिरराष्ट्र-नागरिक, विकास-आदिवासीआदि-आदि के द्वैत क्यों? लोकतंत्र को तो अद्वैत होना चाहिए ! लोकतंत्र के द्वैत को मूर्त करते हुए महोदय कहते हैं : ‘‘ ऊपर से नीचे तक राष्ट्र लूट की बहुमंजिला इमारत है।‘‘

लूट कीबहुमंजिला इमारतही क्यों, एक मंजिला बंगला क्यों नहीं? भारतीय राष्ट्र जिस लुटियन के दिल्ली से काम करता है, वह तो बंगलों का इलाका है!

इसके बाद, एक और महत्वपूर्ण सूत्र - मानवाधिकार की लड़ाई का प्रस्थान बिंदु है सत्तावानों के कत्‍​र्तव्य का पतन। शास्त्रों में राजा दैविक सत्ता का, अर्थात अद्वैत सत्ता का अधिकारी माना गया है। वहराजधर्मका पालन करे, कभी कुछ बुरा नहीं होगा।

सारी समस्या की जड़ है राजा का होना ! धर्म तो राजा का होता है, द्वैतों से भरे हुए लोकतंत्र का थोड़े ही होता है! इसीलिये मानवाधिकार का सारा पचड़ा भी खड़ा हो जाता है !

इसीप्रकार की उलटबांसियों के साथ हमारे विद्वान आलोचक टिप्पणी के अंत में पहुंच जाते हैं। जाते-जाते पश्चिम को और एक हाथ लगाने के जोश में मलाला युसुफजई का जिक्र करते हैं और कहते है कि चूंकि ओबामा और रानी एलिजाबेथ ने उसकी तारीफ कर दी, इसलिये मलाला भी संदेह के घेरे में आजाती है। क्योंकि, तब सवाल आगया कि मानवाधिकार क्या पश्चिमी अभियान है, जिसने स्वतंत्रता और जनतंत्र के नाम परताकत के संक्रामक बिंबबनाये हैं। इसके विपरीत भारत को देखिये - हमारे विद्वान बुद्धिजीवी के मुताबिक - ‘सामाजिक मंगलऔरशांतिपूर्ण सहअस्तित्वकी तीर्थभूमि। इसने कभी किसी पर हमला नहीं किया, बनिस्बत दूसरे आकर यहां बसते चले गये! यह यहां कीविशिष्ट पहचानहै। इसलिये मानवाधिकार के मामले में दुनिया को भारत से सीखना चाहिए!

एक ओर अमेरिका कहता है कि वह सभ्यता का विलयन-पात्र है; उसने आज तक कोई उपनिवेश नहीं बनाया है। दूसरी ओर हिंदी का बुद्धिजीवी कहता है यह भारत की ही विशिष्टता है - सबको अपनाता है, कभी किसी पर हमला नहीं करता।

और दुनिया के बाकी देश ! हमेशा युद्ध में मत्त, ऐसे हैं जिनमें कभी कोई बाहरी आदमी बस ही नहीं पाया !

श्रीमान की टिप्पणी का अंतिम वाक्य है - ‘‘मानव कई बार एक छद्म वेश है, पर व्यक्ति की महान निर्माणात्मक अंत:शक्ति दरअसल मानव होकर जीने में ही छिपी है।’’

कुल जमा यह कि मानवाधिकार, मानवविकास और पर्यावरण आदि तमाम प्रश्नों पर सारी दुनिया में जिस प्रकार के ठोस अध्ययन हो रहे हैं, विभिन्न स्तरों पर जिसप्रकार के आंदोलन और अभियान चलाये जा रहे है तथा नीतियों के प्रश्नों पर पुनर्विचार किया जा रहा है, वे सब हमारे हिंदी के बुद्धिजीवी के लिये शायद कोरी बकवास है।

दरअसल, यह पूरा प्रलाप पश्चिम, गोवा, स्त्री, सत्ता, बहुमंजिली इमारत आदि-आदि को लेकर एक कुंठित मन का मतिभ्रम है और हिंदी पत्रकारिता की बलिहारी है कि ऐसे बिना टांग-पूछ के प्रलाप कोमानवाधिकारसंबंधी स्तंभ के तहत प्रकाशित किया जाता है।  


 मित्रों की सुविधा के लिये यहां जनसत्ता के 8 दिसंबर 2013, रविवार  के अंक का लिंक दिया जा रहा है :

http://epaper.jansatta.com/195615/Jansatta.com/08122013#page/7/1