शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

मुडीज और मोदी सरकार

अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी मुडीज ने मोदी जी को चेतावनी दी है कि वे अपने मंत्रियों की जुबान पर लगाम लगायें, अन्यथा अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख गिर जायेगी !

मुडीज की इस चेतावनी पर कभी-कभी हंसी आती है। सोचता हूं क्या कभी किसी ने तालिबानियों, हिज्बुल मुजाहिदीनों, आइ एस वालों को ऐसी कोई चेतावनी दी थी ?

गहराई से देखे तो पहला सवाल उठेगा कि क्या आरएसएस का देश के विकास से कोई सरोकार है ? उसका एकमात्र सरोकार हिंदू वर्चस्व से, अल्पसंख्यकों के दलन से, हिंदू धर्म को एक सामी धर्म में बदल कर इस देश को अपने फतवों द्वारा संचालित करने की व्यवस्था से। सत्ता पर हो या सत्ता के बाहर, वे अपने इस एजेंडे को कभी नहीं छोड़ सकते। उनकी विकास की बातें भी सिर्फ और सिर्फ इसी एक एजेंडे को साधने के लिए है। उन्हें मूडीज जैसों के साख के प्रमाणपत्रों की जरा भी जरूरत नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो उसकी अभी की रांची बैठक है जिसका मुख्य विषय था - जनगणना। हाल में प्रकाशित जनगणना की रिपोर्ट में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि की दर किंचित ज्यादा पाई गई। आरएसएस ने इसे ही अपने विचार का सबसे प्रमुख विषय बना लिया ।

और, प्रधानमंत्री मोदी ! आरएसएस के अतिरिक्त तो वे शून्य है।

हिटलर की काली छाया का ख़तरा


आरएसएस ने लेखकों, इतिहासकारों, फ़िल्मकारों, वैज्ञानिकों और देश में बढ़ती हुई सांप्रदायिक असहिष्णुता का प्रतिवाद करने वालों की कार्रवाइयों को 'नंगा नाच' घोषित किया है । कल राँची में आरएसएस की चल रही बैठक के बीच से उसके प्रवक्ता ने संवाददाता सम्मेलन में यह बात कही है ।

आरएसएस का यह रुख़ इस बात का साफ संकेत है कि आने वाले समय में और भी संगठित रूप में सांप्रदायिकता-विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने की साज़िशें रची जायेगी । लेखकों के खिलाफ गंदे प्रचार को, उनको दी जाने वली गालियों और धमकियों को तथा उन पर शारीरिक हमलों को और भी तेज़ किया जायेगा । उन्होने साफ तौर पर हिटलर के नक़्शे-क़दम पर चलने और तर्क तथा विवेक के बजाय शुद्ध रूप से पाशविक शक्ति के बल पर विरोधियों से निपटने का निर्णय लिया है । हिटलर कहा करता था तर्क और विवेक नहीं, सारे मामलों को हमारा घूँसा तय करेगा । जिन लोगों ने डाभोलकर, पानसारेऔर कलबुर्गी की हत्याएँ की, वे इसी हिटलरी सिद्धांत के समर्थक रहे हैं । अब आरएसएस ने लेखकों-बुद्धिजीवियों के प्रतिवाद को 'नंगा नाच' घोषित करके अपने ऐसे तमाम तत्वों को उतर पड़ने के लिये हरी झंडी दिखा दी है ।

क्रमश: देश में ऐसी परिस्थिति बनती हुई दिखाई दे रही है जिसमें लगता है सरकार तमाम बौद्धकों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर देगी । इस ख़तरे के प्रति सतर्क होने और प्रतिरोध की क़तार को और ज़्यादा विस्तृत और गहरा करने की ज़रूरत है । अन्यथा जैसे हिटलर का पूरा काल जर्मनी के लिये रचना-हीनता का काला काल साबित हुआ, भारत में भी कुछ ऐसा ही होता नज़र आयेगा ।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

लेखकों-बुदिधजीवियों का यह प्रतिवाद मोदी को हटाने का नहीं, अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी जान को बचाने का आंदोलन है

कर्मेन्दु शिविर ने अपनी वाल पर लेखकों द्वारा सम्मान को लौटाने का विरोध करते हुए किस्तवार लेखन शुरू किया है, जिसकी पहली किस्त उन्होंने आज लिखी है । उसके जवाब में हमने जो टिप्पणी की है, उसे हम यहाँ मित्रों से साझा कर रहे हैं । उनके लिखे को भी हम यहाँ अलग से नीचे टिप्पणी में दे रहे हैं -
Karmendu Shishir जी, आपकी बातों को पढ़ कर लगता है जैसे अभी जो चल रहा है, वह सब कोरा हवाई, आधारहीन मामला है । न इसकी कोई ठोस वजह है और न ही शायद इसका कोई ठोस रूप ! एक वर्चुअल संसार की सपनों की तरह की बातें, जिनमें कोई तारतम्य नहीं है !
हम आपसे सबसे पहली बात तो यह जानना चाहते हैं कि क्या डाभोलकर, पानसारे और अंत में कलबुर्गी की हत्याएँ हुई थी या नहीं ? दूसरी बात, साहित्य अकादमी से सम्मानित कलबुर्गी की हत्या के बावजूद साहित्य अकादमी ने तत्काल बयान देकर उस हत्या की निंदा नहीं की, बल्कि एक शोक प्रस्ताव भी पारित नहीं किया, यह सच है या नहीं ? तीसरी बात कि क्या लेखकों को डराने-धमकाने का सिलसिला पिछले चुनाव के पहले ही, जब अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजा गया था, व्यापक पैमाने पर शुरू हो गया था या नहीं ? क्या फ़ेसबुक की तरह के सोशल मीडिया पर मोदी अथवा आरएसएस की राजनीति का विरोध करने वालों को संगठित रूप से बुरी से बुरी गालियाँ देने और डराने-धमकाने का काम चल रहा है या नहीं ? और क्या पूरे देश में विभिन्न प्रकार के सांप्रदायिक सवालों पर, जिनमें एक सवाल गोमांस का भी है, भयंकर असहिष्णुता का माहौल एक सचाई है या नहीं ?
आपकी बातों से लगता है, हमारे ये सारे सवाल कोरी कल्पना-प्रसूत है या ये जीवन-मृत्यु की तरह इतनी सामान्य बातें हैं जिन पर किसी भी लेखक या व्यक्ति के संवेदित, व्यथित अथवा क्षुब्ध होने का कोई तुक नहीं है !
अगर आप इन बातों को सच मानते हैं, मानते हैं कि विवेकवान बुद्धिजीवियों, लेखकों को डराया-धमकाया जाना और उनकी हत्या तक कर दिया जाना और समाज में साम्प्रदायिक असहिष्णुता का बुरी तरह बढ़ना एक सचाई है, तो सारा मामला इस बात पर टिक जाता है कि इन परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया का रूप क्या होना चाहिए था और क्या नही ?
हमें लगता है कि आपके दिमाग़ में प्रतिवाद करने के तौर-तरीक़ों की कुछ बद्धमूल धारणाएं हैं । मसलन्, बांग्ला के बुद्धिजीवियों की तरह की, राष्ट्रपति को पत्र लिखो या वैसा ही कुछ और करो । आप उसे स्वीकार सकते हैं, लेकिन उदय प्रकाश से शुरू करके अब तक लगभग चालीस लेखकों और अन्य क्षेत्रों के रचनाकर्मियों-बुद्धिजीवियों ने सम्मानों को लौटाने का जो रास्ता अपनाया है, उसे आप नहीं स्वीकार कर सकते । आपकी इस पोस्ट का लुब्बेलुबाब यही है कि यह सम्मानों को ठुकराने का तरीक़ा सिर्फ ग़लत ही नहीं, बल्कि दुरभिसंधिमूलक है । बुरे लोगों का एक बुरा तरीक़ा ! इसमें आपको और भी बुरा लगा कि एक ने अभी प्रतिक्रिया दी तो दूसरे ने महीने भर बाद, तो बाक़ियों ने और भी बाद में । क्यों नहीं सब एक साथ ही बोलें !
सचमुच, आपकी ये सब घुमावदार दलीलें अनोखी लगती है । लेखक जिस बात को अपनी धड़कनों पर महसूस कर रहा है, जो भयानक परिस्थितियाँ कोरी कल्पना नहीं, ठोस सचाई है, उन्हें आप अजीब ढंग से अपनी कुछ आत्मगत निजी अवधारणाओं के साथ गड्ड-मड्ड करके सारे विषय को अमूर्त और गदला करके ऐसा काम कर रहे हैं, जो शायद ही आपका अभिप्रेत हो - संघी प्रचारकों की तरह प्रतिवाद के स्वरों की सचाई को संदेह के घेरे में डाल कर इस प्रतिवाद का तिरस्कार करने और आज की भयंकर रचना-विरोधी सच्चाई को झुठलाने का काम ।
लेखकों ने सचमुच निजी तौर पर, अपने लेखन कर्म पर पड़ रहे दबावों को महसूस करते हुए यह कार्रवाई की है और इसीलिये इसका कोई पूर्व-निर्धारित रूप नहीं रहा है । आज तक भी वे निजी तौर पर ही अपनी प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं । यही इस प्रतिवाद के अंदर के सच का सबसे बड़ा प्रमाण भी है । किसी भी सच्चे लेखक के लिये लिखने की स्वतंत्र परिस्थितयां ज्यादा मूल्यवान है, न कि कोई सरकारी सम्मान । खुल कर लिख न पाएँ, वैसी परिस्थिति में लेखक को ऐसे सम्मान गले में पडी ज़ंजीर लगने लगे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है ।
उल्टे, हमारा तो मानना है कि अगर शुरू से यह प्रतिवाद किसी सामूहिक या संगठित कार्रवाई के तौर पर सामने आता तब संघियों के लिये इसे बदनाम करना, इसे निराश राजनीतिज्ञों द्वारा संगठित कार्रवाई बताना और असहिष्णुता की इन भयावह परिस्थितियों को झुठलाना कहीं ज्यादा आसान होता । संभव है, उस समय आप भी शायद वैसी ही किसी और दलील के साथ लेखकों की भावनाओं को झुठलाते, क्योंकि आपकी इस पोस्ट से जो बात साफ तौर पर सामने आती है, वह यही कि आपके लिये लेखकों की अपनी स्वतंत्रता और अपनी जान की रक्षा की भावनाओं का कोई मायने नहीं है ।
दरअसल, लेखकों-बुदिधजीवियों का यह प्रतिवाद मोदी को हटाने का नहीं, अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी जान को बचाने का आंदोलन है ।

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

अकादमी का सम्मान उसकी स्वायत्तता को एक सचाई में बदलने की ठोस कार्रवाइयों से लौटेगा, न कि एक प्रस्ताव के ज़रिये कोई भ्रम पैदा करने से

- अरुण माहेश्वरी

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक के प्रस्ताव को हमने बहुत ध्यान से पढ़ा । अकादमी की स्वायत्तता, भारत के संविधान के निदेशक सिद्धांतों के प्रति उसकी निष्ठा, कलबुर्गी की हत्या की निंदा आदि उन सब बातों को इसमें कहा गया है, जिनकी अकादमी से माँग की जा रही थी । इन अपेक्षित बातों के साथ, अंत में, अकादमी की प्रेस-विज्ञप्ति में लेखकों से यह निवेदन किया गया है कि वे अकादमी की मर्यादा की रक्षा करें और जिन्होंने अकादमी के सम्मान को लौटाया है, वे उन्हें वापस ले लें ।

एक प्रस्ताव के ज़रिये अकादमी के कर्त्तव्य-पालन के इस उपक्रम को देख कर मन में सबसे पहला यह सवाल उठता है कि कार्यकारी मंडल को अकादमी के सम्मान की तो चिंता है, और जो शायद जायज़ भी है, लेकिन इस पूरे प्रसंग में लेखक समाज को जिस प्रकार सुनियोजित ढंग से अपमानित किया गया, उनके मान-सम्मान की चिंता कौन करेगा ?

दरअसल, यह पूरा विषय सिर्फ अकादमी का विषय नहीं है । इसको काफ़ी व्यापक संदर्भ में देखने की ज़रूरत है । अकादमी और उसके सम्मान तो निमित्त है । इसके मूल में वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक सच्चाई है, वह सच्चाई जिसने विवेकवान लोगों, खास तौर पर लेखकों का जीना दूभर कर दिया है । यह धार्मिक कट्टरपंथ से जुड़ा मामला है ।

पिछले चुनाव के समय से ही इन कट्टरपंथी ताक़तों की गालियों, धमकियों और हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था, जो अब हत्याओं तक पहुंच गया है । इनके चलते हर लेखक अपनी क़लम पर एक अवांछित दबाव महसूस करता है । मुख्यधारा के अख़बार और मीडिया वैसे ही बिकाऊ हैं । ऊपर से, सोशल मीडिया पर गालियों के संगठित अभियानों ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र को बेहद संकुचित कर दिया है ।

इन दमघोंटू परिस्थितियों में दो विवेकवान विचारकों की हत्या की श्रृंखला में कलबुर्गी की हत्या ने सबको स्तब्ध कर दिया । इसके पहले तक लेखक घुट रहे थे, फिर भी चुप थे । साहित्य अकादमी स्वाभाविक रूप से ख़ामोश रही क्योंकि लेखकों की परेशानियों के ऐसे विषय सदा से उसकी 'स्वायत्तता' के दायरे के बाहर की चीज़ रहे हैं ! लेकिन जब कलबुर्गी की हत्या पर भी अकादमी की चुप्पी नहीं टूटी और वह लेखकों के रोष की थाह लेते हुए सरकार की मुखापेक्षी बनी रही, उसके बाद अकादमी की स्वायत्तता, संवैधानिक प्रतिज्ञाओं और मान-मर्यादा का इंद्रजाल पूरी तरह बिखर गया । किसी भी सच्चे लेखक के लिये अकादमी को लेकर कोई भ्रम नहीं रहा, भले ही इस पर सबकी प्रतिक्रिया एक सी न रही हो !

सरकार की भूमिका का उल्लेख तो पहले ही किया जा चुका है । समाज में असहिष्णुता के जो तमाम लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उन सबके साथ वर्तमान सत्ताधारियों की राजनीति का सीधा संबंध है । इसे दादरी की घटना ने दिन के उजाले की तरह साफ कर दिया है ।

यही वह पृष्ठभूमि है, जब उदय प्रकाश से शुरू हुआ सिलसिला आज दुनिया के इतिहास में लेखकों के प्रतिवाद आंदोलन की एक सबसे बड़ी घटना बन चुका है । राजनीति के न्यूनतम मानदंडों पर भी अब कोई भी राजनीतिक शक्ति इसकी अवहेलना नहीं कर सकती है ।

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक, उसका बयान और लेखकों से अकादमी के सम्मान की रक्षा की अपील को इस पूरी सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि से काट कर नहीं देखा जा सकता है ।

इसीलिये यह सवाल शेष रह जाता है कि अकादमी लेखकों से किसके सम्मान की रक्षा की माँग कर रही है ? अकादमी के सम्मान की या सरकार के सम्मान की ? इस प्रस्ताव में बहुलतावाद का ज़िक्र होने पर भी सांप्रदायिक असहिष्णुता के विरुद्ध साफ तौर पर कुछ नहीं कहा गया है, जो लेखकों की चिंता का एक प्रमुख विषय है ।
यही वजह है कि इतनी देर बाद, परिस्थितियों के इतना बिगड़ जाने के बाद पारित किया गया यह प्रस्ताव अकादमी की स्वायत्तता और इससे जुड़ी उसकी अन्य निष्ठाओं के बारे में शायद ही किसी को आश्वस्त करेगा । क्योंकि सवाल सिर्फ प्रस्ताव पारित करने का नहीं है, अकादमी, सरकार और लेखकों के बीच रिश्तों को ठोस रूप में बदलने का है । ऐसे में लेखकों से अकादमी के सम्मान की रक्षा की गुज़ारिश करने के बजाय अकादमी को लेखकों को आश्वस्त करने, भयमुक्त करने और उनको बदनाम करने वाले अभियानों का विरोध करने की ठोस पहलकदमी करनी चाहिए ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में अभी की चिंताजनक परिस्थिति साहित्य अकादमी की तरह की संस्थाओं की स्वायत्तता के लिये परीक्षा की घड़ी है। उसमें लेखकों के पक्ष में खुल कर खड़ा होने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए थी। इस परीक्षा में अकादमी विफल रही है। इस प्रस्ताव में भी सांप्रदायिक असहिष्णुता पर नियंत्रण में सरकार की विफलता के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा गया है।

इसीलिये हम कहेंगे कि अकादमी का सम्मान उसकी स्वायत्तता को एक सचाई में बदलने की ठोस कार्रवाइयों से लौटेगा, न कि एक प्रस्ताव के ज़रिये कोई भ्रम पैदा करने से । यह काम लेखकों को नहीं, सिर्फ और सिर्फ अकादमी को करना है ।

लेखकों के खिलाफ संघ की युद्ध-घोषणा


आरएसएस और भाजपा ने देश के सम्मानित लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ वस्तुत: एक युद्ध की घोषणा कर दी है । आज वित्तमंत्री अरुण जेटली का बयान इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है । उनके पास लेखकों की पीड़ा को समझने की न्यूनतम संवेदना भी नहीं बची है । लिखने के वक़्त लेखक हमेशा एक अकेला प्राणी होता है । वह स्वच्छंद भाव से लिख सके इसके लिये ज़रूरी है कि वह किसी भी प्रकार के दंड और दमन के डर से मुक्त रहे । आतंक के साये में श्रेष्ठ साहित्य की रचना संभव नहीं है । इसीलिये किसी भी प्रकार का असहिष्णुता का माहौल लेखक को बुरी तरह उद्वेलित कर देता है ।

ऊपर से, अब तो संघ और भाजपा के प्रवक्ताओं ने प्रतिवाद की आवाज़ उठाने वालों पर व्यक्तिगत रूप में भी हमले करना शुरू कर दिया है । टेलिविज़न के चैनलों पर संघ प्रवक्ता राकेश सिन्हा जिस प्रकार ख़ास तौर पर उदय प्रकाश के खिलाफ झूठ के आधार पर आक्रमण कर रहे हैं, उससे इनकी मंशा और भी साफ हो जाती है । उन्होंने उदय प्रकाश को बदनाम करने के लिये उसी पुराने झूठ का सहारा लिया है, जिसका बहुत पहले ही खंडन हो चुका है । उन्होंने जान-बूझ कर योगी आदित्यनाथ द्वारा उदय प्रकाश को सम्मानित करने की बात को उछाला है ।

इस बारे में हम काफ़ी पहले ही जारी किये गये उदय प्रकाश के खंडन को यहाँ दोस्तों से फिर से शेयर करना चाहते है क्योंकि जब किसी झूठ को बार-बार दोहराया जाता है तो उसके प्रतिकार के लिये ही उसके खंडन को भी बार-बार दोहराने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता है । उदय प्रकाश का खंडन इस प्रकार था -
''मेरे सगे फुफेरे भाई का नाम कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह था. वे संस्कृत के विद्वान थे और महंत दिग्विजय नाथ डिग्री कॉलेज, गोरखपुर, में पहले संस्कृत के प्राध्यापक और बाद में प्रिंसिपल बने. वे वी एच पी के थे और महंत अवैध्य नाथ और योगी आदित्य नाथ के बहुत करीबी थे.मेरा उनसे लगभग 32-35 वर्षों से कोई संपर्क नहीं था. हमारे परिवार और उनके बीच कोई वैचारिक सहमति भी भी नहीं थी. ना मेरे पिता के समय और ना मेरे समय. वे बड़े सामंत थे और उनका गाँव/स्टेट नौलखा के नाम से प्रसिद्ध था. उनका 60-70 के दशक में इलाहबाद के निकट फूलपुर constituency में आता था. जहाँ से विजयलक्ष्मी पंडित चुनाव लडती थीं. वे लोग कांग्रेस और विजयलक्ष्मी पंडित के विरोधी थे तथा स्वामी करपात्री और प्रभु दत्त ब्रह्मचारी के अनुयायी थे. लेकिन मेरे माता पिता उनके सगे मामा मामी थे.

इन्ही फुफेरे भाई की मृत्यु हुई और उनकी बरखी में पारिवारिक सम्बन्धियों के साथ मुझे मेरी भाभी, भतीजा, भतीजी ने आग्रहपूर्वक बुलाया. वह बिलकुल शुद्ध पारिवारिक कार्यक्रम था. गोरखपुर का सांसद होने के नाते तथा महंत दिग्विजय नाथ डिग्री कॉलेज की गवर्निंग बॉडी का चेयरमैन होने के नाते तथा इस परिवार के निकट होने के नाते वहां योगी आदित्यनाथ भी उपस्थित थे. उन्ही के हाथों मेरे भाई के परिवार के लोगों ने एक स्मृति चिन्ह मुझे दिलवाया.जो कि शीशे में जड़ा मेरे भाई का चित्र था. जो कि अब भी मेरे पास है. वह कोई पुरस्कार नहीं एक स्मृति सम्मान था. वह भी अपने भाई का. वह ‘पुरस्कार’ नहीं था, वहां शाल और श्रीफल की कोइ गुंजायश नहीं थी क्योंकि वह बरखी (पुण्यतिथि/ डेथ एनिवर्सरी) थी. मैंने सोचा भी नहीं था कि इस नितांत पारिवारिक आयोजन का कोइ राजनीतिक अर्थ निकालकर विवाद पैदा किया जाएगा. लेकिन यह किया गया. मैंने इसका खंडन किया. तथ्य सामने रक्खे. सच्चाई बतलाई. लेकिन विडंबना यह है कि अपने आपको वामपंथी/क्रांतिकारी लेखक कहने वाले और दूसरी तरफ आर एस एस के नेता दोनों एक हैं ।''

क्या उदय प्रकाश के इस स्पष्ट बयान के बाद भी इस विषय में कहने के लिये कुछ शेष रह जाता है ?

15 अक्तूबर 2015

जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत के पुनरुत्थान का व्यापक आलोड़न

19 अक्टूबर 2015 को शायक आलोक की वाल पर एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए एक प्रवाह में हमने कई बातें लिख दीं । हमारी टिप्पणी लंबी हो गई थी , फिर भी वापस देखने पर लगा कि इसमें कुछ ऐसी बातें आगई हैं, जिन्हें अपने सभी मित्रों से साझा करना अनुचित नहीं होगा । इसीलिये हम उसे यहाँ दे रहे हैं -

Shayak Alok जी, भारत में लेखकों द्वारा अकादमी के सम्मानों को लौटाने का यह जो सिलसिला चला है, इसकी सारी दुनिया में आज तक दूसरी कोई नज़ीर नहीं मिलती है । उदय प्रकाश का अकेले का निर्णय इन थोड़े से दिनों में ही अकल्पनीय सामूहिक आंदोलन का रूप ले चुका है । इसकी प्रतिध्वनि सिर्फ हिंदी में नहीं, लगभग सभी भारतीय भाषाओं में सुनाई देने लगी है । अब आगे यह और क्या-क्या रूप लेगा, इस पर निश्चय के साथ कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है । यह सिर्फ लेखकों का विषय नहीं, बल्कि उसकी परिधि से बाहर बहुत व्यापक पैमाने पर एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के रूप में फैल जाने की संभावनाओं के संकेत दे रहा है ।

दुनिया का अनुभव यह बताता है कि जब भी किसी समाज को कोरी सत्ता की ताक़त पर उसके मूलचरित्र के विपरीत दिशा में ठेला जाता है, उसे रोकने में परंपरागत राजनीतिक शक्तियाँ निहायत कमज़ोर और असहाय सी दिखाई देने लगती है, तब अंदर ही अंदर जमा हो रहा रोष एक झटके के साथ कब किस कोने से ज्वालामुखी के लावे की तरह बहने लगता है, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है । अरब वसंत का अनुभव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।

इसके अलावा, आम तौर पर कोई भी समाज अपनी स्वाभाविक गति पर ही चलता रहता है । समय-समय पर कुछ संकट आने पर भी वह अपनी स्वाभाविक लय से हटना नहीं चाहता । इसमें जब किसी भी वजह से कोई बड़ा भटकाव आता है, तो यह तय है कि तमाम जटिलताओं के बावजूद समाज ऐसे सामयिक भटकाव से निकल कर अपनी लय को पाने के लिये मचल उठता है ।

भारत में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही आरएसएस और हिंदू उग्रवादी ताक़तों ने यह समझ लिया कि मोदी को सिर्फ कांग्रेस दल के खिलाफ तैंतीस प्रतिशत के क़रीब लोगों का समर्थन नहीं मिला है, बल्कि भारत के उस विविधतापूर्ण स्वरूप को ही बदल देने के लिये समर्थन मिला है जिसे मान्यता देकर ही आज़ादी की लड़ाई के बीच से आज के स्वतंत्र और अखंड भारत का निर्माण संभव हुआ है । मोदी और उनसे जुड़े संघ परिवार की इसी विकृत समझ के कारण मोदी के सत्ता पर आने के बाद ही जीवन के तमाम क्षेत्रों में पोंगापंथी, रूढ़िवादी, उग्र सांप्रदायिक विचारों के नग्न हमले शुरू हो गये ।

सत्ता की नीतियों में यह परिवर्तन भारतीय समाज की स्वाभाविक गति से एक बड़ा भटकाव है । यह चल नहीं सकता । इस दिशा में बढ़ने पर इस समाज का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा बिखर जायेगा । एक जनतांत्रिक सभ्य समाज ग़ैर-जनतांत्रिक असभ्य और जंगली समाज में बदल जायेगा । इस भटकाव का अंत सुनिश्चित है ।

प्रश्न सिर्फ यही है कि यह अंत कैसे और किनके द्वारा होगा ? लेखकों के प्रतिवाद की चिंगारी जिस प्रकार दावानल की तरह फैलती दिखाई दे रही है, समाज के सारे ज्वलंत सवाल जिस प्रकार इसके साथ जुड़ जा रहे है, उसमें इस पूरे विषय को सिर्फ लेखकों, और वह भी हिंदी के लेखकीय जगत की कुछ लाक्षणिकताओं से जोड़ कर देखना, सारे विषय को बहुत संकुचित रूप में देखना है । विष्णु खरे या सुधीश पचौरी तो इस पूरे नाटक के अति छुद्र विदूषक भर हैं । आज जिस प्रकार समाज के सभी प्रतिष्ठित क्षेत्रों के, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास आदि के प्रतिष्ठित लोग मुखर होकर लेखकों के साथ अपने स्वरों को मिला रहे है, हमारा प्रश्न है कि क्या यह सिर्फ विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित कोई मामला रहेगा ? आज जिस स्वर में सभी भाषाओं के लेखकों के अलावा शर्मीली टैगोर या रामचंद्र गुहा अपनी आवाज मिला रहे हैं, क्यों नहीं प्रतिवाद के इन स्वरों के साथ ही आने वाले समय में भारत के किसान, मज़दूर, बेरोज़गार नौजवान, दलित, स्त्रियाँ, और तमाम शोषित-उत्पीड़ित जन भी अपनी आवाज को नहीं मिलायेंगे ? ऐसा न होने की क्या कोई वजह है ? यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत के पुनरुत्थान के व्यापक आलोड़न का हेतु क्यों नहीं बन सकता ?

आज समाज में जो दरारें पैदा हुई है, उनकी निष्पत्ति के सारे लक्षण हमें तो इस लेखकीय प्रतिवाद आंदोलन में दिखाई दे रहे हैं । अभी से देश की सीमाओं के बाहर तक भी इसकी अनुगूँज सुनाई देने लगी है । हमें तो यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष शक्तियों को लड़ाई के मैदान में उतर जाने के बिगुल की तरह सुनाई पड़ रही है ।
एक रौ में काफी कुछ लिख गया हूँ ।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

असहिष्णुता और उन्माद का वातावरण लेखन को असंभव बनाने वाला वातावरण है


अरुण माहेश्वरी

(17 अक्तूबर 2015 के राष्ट्रीय सहारा के 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित हमारी टिप्पणी)

भारत भर में लेखक समुदाय ने सरकारी सम्मानों को लौटा कर अपने प्रतिवाद का एक अनूठा अभियान शुरू किया है । इस मामले में हिंदी के लेखकों ने पहल की है । उनके साथ ही अब दूसरी भाषाओं के लेखक भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं । ख़ास तौर पर कन्नड़ भाषा के लेखक बड़े रूप में इसमें शामिल हुए हैं । कश्मीर के और उर्दू तथा पंजाबी भाषा के भी लेखकों ने इसी बीच साहित्य अकादमी के सम्मान को लौटाया है । पद्मश्री की तरह के सम्मानों को भी वापस करने का सिलसिला शुरू हो गया है । अपने आप में यह कोई साधारण बात नहीं है ।
भाजपा के नेताओं में मामूली संवेदनशीलता भी नहीं है कि वे लेखकों के इस स्वत:स्फूर्त प्रतिवाद के मर्म को जानने की कोशिश करें । वे पूरी उद्दंडता से लेखकों की इस मुहिम को राजनीतिक रंग देने में लगे हुए हैं । वे समझते हैं कि चूँकि लेखकों का बड़ा समुदाय शुरू से मोदी का विरोधी रहा है, इसीलिये वे आज मोदी सरकार के खिलाफ अभियान में उतरे गये हैं ।

इसमें कोई शक नहीं है कि देश के लेखकों और बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा सत्ता पर नरेंद्र मोदी की तरह के एक व्यक्ति के बैठने से बुरी तरह सशंकित था । ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कन्नड़ के यू आर अनंतमूर्ति ने पिछली लोक सभा चुनाव के वक़्त साफ कहा था कि यदि नरेन्द्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बनता है तो वे इस देश को छोड़ देंगे । इसकी वजह थी 2002 के गुज़रात के जन-संहार में उनकी भूमिका और बाद में भी गुजरात में न्याय-व्यवस्था को पूरी तरह से ख़त्म करके गुजरात में झूठ और फ़रेब पर टिके एक नग्न तानाशाही शासन की स्थापना । ऐसा दमनमूलक और दमघोंटू वातावरण लेखक की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एक सीधा हमला हैं जिसमें कोई भी सच्चा लेखक अपनी लेखनी के साथ ज़िंदा नहीं रह सकता है । इसीलिये अनंतमूर्ति ने तमाम लेखकों के अंदर के डर को अभिव्यक्ति देते हुए तब देश छोड़ देने की तरह की एक चरम बात भी कही थी ।

अनंतमूर्ति का यह डर ज़रा भी निराधार नहीं था । दुनिया के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि जब भी किसी देश की सत्ता पर कोई फ़ासिस्ट सरकार आई है, वह सरकार लेखकों के लिये ही नहीं, लेखन मात्र के लिये भयावह रूप में घातक साबित हुई है । हिटलर के जर्मनी से अनेक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के लेखक, कलाकार जर्मनी छोड़ कर चले गये थे । इनमें थॉमस मान, एरिक मारिया रिमार्क जैसे लेखक भी शामिल थें । ३० जनवरी १९३३ के दिन हिटलर सत्ता पर आया और छ: महीने के अंदर उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले शुरू कर दिये । हालत यह हो गई कि १९३९ तक लगभग २५०० लेखक जर्मनी छोड़ कर चले गये थे । १० मई १९३३ के दिन जर्मनी में बाक़ायदा पुस्तकों की होली जलायी गई थी । जिन किताबों को जलाया गया उनमें थामस मान, एरिक मारिया रिमार्क, अल्बर्ट आइंस्टाइन की किताबों के साथ ही ग़ैर- जर्मन लेखक एमिल जोला, एच जी वेल्स की तरह के लेखकों की किताबें भी थी । उस समय हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबल्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय में उन जलती हुई पुस्तकों के सामने भाषण देते हुए कहा था कि ये लपटें न सिर्फ पुराने युग के अंत को दर्शाती है बल्कि नये युग को प्रकाशित करेगी । इस घटना के बाद ही बर्तोल्त ब्रेख्त भी जर्मनी छोड़ कर चले गये । हिटलर ने अपने समय में बिल्कुल घटिया दर्जे के लेखकों को बढ़ावा दिया । हिटलर के शासन का गुणगान करने वाले लेखकों को थोक के भाव पुरस्कृत भी किया, जिन लेखकों का बाद में कोई नामलेवा भी नहीं था । हिटलर की आत्म जीवनी 'माईन कैम्फ', जो एक बहुत ही अपठनीय और बोर किताब थी, उसे उन दिनों साहित्य के श्रेष्ठतम मानदंड के रूप में पेश किया जाता था । यह तथ्य है कि ग्यारह साल के हिटलर के जर्मनी में एक भी ऐसी रचना नहीं लिखी गई जो साहित्य के मानदंड पर उल्लेखनीय रही हो । हिटलर के पूरे काल को जर्मनी में साहित्य के चरम अकाल का काल माना जाता है ।

बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है । पड़ौस के पाकिस्तान में बड़े-बड़े लेखकों को सालों तक निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर होना पड़ा हैं । आज भी पाकिस्तान श्रेष्ठ साहित्य की रचना के लिये बंजर भूमि बना हुआ है । पूरब में बांग्लादेश की तसलीमा नसरीन अपने देश के बाहर दर-दर भटक रही है । वहाँ आज खुल कर ब्लाग लेखन भी असंभव होता जा रहा है ।

इसीलिये हिटलर के पद-चिन्हों पर चलने वाले मोदी के शासन को लेकर अनंतमूर्ति बिल्कुल सही चिंतित थे और उन्होंने अपने डर को बेबाक़ ढंग से व्यक्त भी किया था ।
लेकिन इसके विपरीत भाजपा वालों ने क्या किया ? देश के एक इतने बड़े लेखक की चिंता को समझने की मामूली सी भी कोशिश करने के बजाय उन्होंने अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेज दिया । एक कार्यक्रम में उन पर पत्थर भी फेंके गये ।

मोदी के जीत कर अाने के बाद, अनंतमूर्ति ने जिस बात की आशंका ज़ाहिर की थी, भाजपा और आरएसएस के लोगों की तमाम करतूतों ने उसे अक्षरश: सही साबित करना शुरू कर दिया । अब तो ऐसा लगता है कि आरएसएस ने सनातन संस्थान की तरह के अपने हत्यारे दस्ते तैयार कर लिये हैं जिन्हें विवेकशील लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की हत्याओं का, उन्हें डराने-धमकाने का दायित्व सौंपा गया है । इन्होंने पहले नरेंद्र डाभोलकर की हत्या की, फिर गोविंद पानसारे की और बाद में साहित्य अकादमी का सम्मान प्राप्त लेखक एम एम कलबुर्गी को मरवा दिया । और सबसे बड़ी चिंता की बात है कि इन हत्याकांडों के एक भी अपराधी को आज तक पकड़ा नहीं गया । यह उसी प्रकार है जैसे मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट से जुड़े संघ परिवार के लोगों को, और गुजरात के जनसंहार में शामिल बाबू बजरंगी, माया कोडनानी आदि को जेल से छुड़वाने में केंद्र सरकार सबसे ज़्यादा सक्रिय दिखाई दे रही है, अपराधियों को दंडित करने के मामले में नहीं । आरएसएस के ही एक सनकी व्यक्ति दीनानाथ बत्रा ने पेंग्यून जैसी प्रकाशन संस्था को धमका कर वेंडी डोनिगर की किताब ' हिन्दूज : ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री' की लुब्दी बनवा दी ।

लेखकों को सीधे हमलों का निशाना बनाने के साथ ही इस सरकार के काल में कभी लव जिहाद तो कभी गोमांस आदि की तरह के मुद्दों पर जिस प्रकार का सामाजिक उन्माद पैदा किया जा रहा है, वह किसी भी लेखक में गहरे तक ख़ौफ़ पैदा करने के लिये काफ़ी है । इसमें भी ग़ौर करने की बात है कि संघ परिवार के ऐसे सारे उत्तेजक अभियान सबसे अधिक हिंदी क्षेत्रों में चलाये जा रहे हैं । पिछले चुनाव के वक़्त ही सोशल मीडिया पर हिंदी के लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ संगठित रूप से जिस प्रकार की गाली-गलौज का भाषा का प्रयोग किया जाता रहा, इसने भी हिंदी के लेखकों में सबसे अधिक ख़ौफ़ की अनुभूति पैदा की है । हाल में दिल्ली से लगे हुए दादरी में सिर्फ अफवाह के बल पर एक गरीब मुसलमान को भीड़ के ज़रिये मरवा दिया गया । उसके बाद तो किसी भी विवेकवान व्यक्ति का दहल जाना लाज़िमी है । लेखक जो अकसर अकेला होता है और स्वतंत्र भाव से लिखता है, उसके लिये तो यह एक असंभव सी परिस्थिति है ।

यही वजह रही कि जब कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी की तरह की संस्था ने, जिसने कलबुर्गी को सम्मानित किया था, हत्यारों की कड़ी भर्त्सना करते हुए एक शब्द नहीं कहा और न ही हत्यारों को पकड़ कर सज़ा देने की माँग की, तब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी के सम्मान को यह कह कर लौटा दिया कि इस सम्मान का क्या मूल्य है जब इसे देने वाली संस्था उन्हीं तत्वों के हाथ का खिलौना बन गई है जो इस देश में लेखन मात्र को एक असंभव काम बना दे रहे हैं ।

उदय प्रकाश के इस फैसले ने जैसे पहले से घुटन महसूस कर रहे और भी सम्मानित लेखकों की भावनाओं को वाणी दे दी । और, इसके बाद सम्मानों को ठुकराने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, आज उसकी अनुगूँज अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर सुनाई देने लगी है ।

मजे की बात यह है कि लेखकों के इस इतने बड़े प्रतिवाद के बावजूद भाजपा के लोगों की संवेदनहीनता अभी चरम पर है । वे लेखकों की चिंताओं को कहीं से भी समझ नहीं पा रहे हैं और पूरे मसले पर उसी प्रकार चल रहे हैं जैसे वे राजनीति के अखाड़े में चला करते हैं । आज की सभ्य दुनिया में शायद यह अकेली मोदी सरकार है जिसने अपने देश के लेखकों और कलाकारों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है ।

हिटलर कहा करता था तर्क, विवेक, संस्कृति या सच नहीं, सिर्फ हमारा घूँसा बोलेगा। आज भारत की मोदी सरकार के प्रवक्ता लगभग उसी भाषा में बोल रहे हैं । वे लेखकों को दिये जाने वाले सम्मानों को उनका अर्जित अधिकार नहीं, बल्कि सरकारी अनुदान समझते हैं । इसीलिये वे इस प्रकार की शर्मनाक दलील देने से भी बाज़ नहीं आते कि जो लेखक पुरस्कारों को लौटा रहे हैं उन्हें कांग्रेस सरकारों ने पुरस्कृत किया था ।

प्रधानमंत्री यह सफ़ाई दे रहे है कि दादरी में जो हुआ उसके लिये केंद्र सरकार कैसे ज़िम्मेदार है ? उनके दिमाग़ में एक क्षण के लिये भी यह सवाल क्यों नहीं आता कि गोमांस आदि की तरह के तमाम मुद्दों को लेकर जो जन-उन्माद पैदा किया जा रहा है उसके लिये क्या उनकी और आरएसएस की राजनीति ज़िम्मेदार नहीं है ? न उनके पास इस सवाल का कोई जवाब है कि उनके जैसा हर छोटी-बड़ी बात पर बयान देने वाला आदमी दादरी की तरह की पाशविक हत्या पर इतने दिनों तक चुप्पी क्यों साधे रहा ?

ज़ाहिर है कि ऐसा एक ज़हरीला, उन्मादपूर्ण वातावरण लेखन के लिये सर्वथा प्रतिकूल वातावरण है । इसीलिये लेखकों ने सरकारी सम्मानों और ख़िताबों को लौटाने का निर्णय लिया है क्योंकि जब वे लिख ही नहीं पायेंगे तो इन सम्मानों को रख कर क्या करें

गोमांस प्रसंग और हमारी चिंता


बिहार के चुनाव ने गोमांस की पूरी बहस को हिंदू-मुसलमान प्रसंग से हटा कर कई नये आयाम दे दिये हैं ।
वेदों सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में गोमांस के सेवन के अनगिनत प्रसंग भरे हुए हैं । यह बात सभी जानते हैं । फिर भी इस विषय को अनेक वर्षों से एक धार्मिक और नैतिक सवाल बना कर ख़ास तौर पर मुसलमानों के बरक्स इसे हिंदू धर्म की पहचान का विषय बनाये हुए हैं । गोरक्षा आंदोलन कृषि-आधारित अर्थ -व्यवस्था के हितों को साधने के लिये नहीं, मूलत: हिंदू धर्म के रक्षार्थ चलाया जाता रहा है । इसीलिये इसमें प्रतीकात्मकता ज़्यादा रही है । गोवंश का हित, उनकी नस्ल और उनकी देख-रेख में सुधार में भारत के गोरक्षा आंदोलन का ज़रा सा भी अवदान नहीं हैं । गोरक्षा आंदोलन वालों ने शायद ऐसी एक भी गोशाला कहीं तैयार नहीं की है जिसे गायों के रख-राव के लिहाज़ से श्रेष्ठ और आदर्श गोशाला माना जा सके ।
बहरहाल, बिहार में पहले लालू प्रसाद और अब रघुवंश प्रसाद सिंह ने गोमांस के विषय पर भारी उन्माद पैदा करने वालों को भारत के उन प्राचीन ग्रंथों की याद दिलाई है जिनमे गोमांस के सेवन के उदाहरण मिलते हैं । उनका साफ कहना है कि इस विषय को इतना तूल देकर शुद्ध रूप से सांप्रदायिकता भड़काने का काम किया जा रहा है । इसका धार्मिकता से कोई संबंध नहीं है । यह अभियान अंतत: शाकाहारियों और मांसाहारियों के बीच झगड़ा पैदा करने तक जा सकता है ।
जो भी हो, इसी बीच एक और अत्यंत चिंताजनक ख़बर आ रही है । कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने भारतीय साहित्य के प्राचीन क्लासिक भवभूति के संस्कृत नाटक 'उत्तररामचरितम्' को संस्कृत उच्चविद्यालयें के पाठ्यक्रम से निकाल देने का निर्णय लिया है ।
सभी जानते हैं कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रिय नाटककारों में भवभूति का सम्मानपूर्ण स्थान है । उनकी कृति ‘उत्तररामचरित’ के लिए ही उनकी ख्याति संसार में हमेशा रहेगी । आलोचनाशास्त्र के पण्डितों ने इसे नाट्यकला की एक अद्वितीय रचना माना है। इसकी कथावस्तु रामायण के उत्तरकाण्ड पर आश्रित है।
रावण का संहार करके राम सीता-सहित अयोध्या में वापिस आते हैं और कुछ लोग सीता के चरित्र के सम्बन्ध में चर्चा आरम्भ कर देते हैं। श्रीराम लक्ष्मण द्वारा सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं। सीता गर्भवती थी। वन में उसके दो पुत्र- कुश तथा लव उत्पन्न होते हैं। बारह वर्ष बाद श्रीराम अश्वमेध यज्ञ आरम्भ करते हैं। इसी में, प्रसंगवश वशिष्ठ-पत्नी अरुन्धती प्रजाजनों की, सीता के चरित्र पर मिथ्या लांछन लगाने के लिए, भर्त्सना करती है और राम को अपनी निर्दोष-निष्कलंक पत्नी को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करती हैं। समस्त प्रजा इस प्रार्थना में सम्मिलित होती है और अपने किए दुष्कर्म पर लज्जित होती है। तब राम और सीता का पुनर्मिलन होता है और आनन्द-विभोर प्रजाजनों के जय-जयकार के साथ अभिनय की समाप्ति होती है।
इसी आश्रम में ऋषियों द्वारा माँस के सेवन का चित्र आया है ।
कहते हैं कि शिक्षा मंत्रालय ने इसी वजह से कलात्मक उत्कृष्टता में कालिदास के नाटकों के समकक्ष माने जाने वाले इस विश्व-प्रसिद्ध नाटक को पाठ्यक्रम से निकाल देने का निर्णय लिया है ।
अगर यह बात सच है तो इसमें कोई शक नहीं रह जायेगा कि मोदी सरकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के दुश्मनों की सरकार है । गोमांस को भी इन्होंने भारतीय संस्कृति पर हमले का एक हथियार बना लिया है ।
ऐसे में लालू प्रसाद और रघुवंश प्रसाद की आपत्तियाँ और भी अर्थपूर्ण हो जाती है ।
भवभूति के नाटक का संदर्भित पृष्ठ :

'मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद' पर

- अरुण माहेश्वरी

जनवादी लेखक संघ की वेब साईट पर बाँदा में हाल में हुए एक त्रिदिवसीय (2-4अक्तूबर 2015) कार्यशाला की रिपोर्ट जारी की गई है । इस कार्यशाला में विचार का विषय था - 'मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद - पारस्परिकता के धरातल' । विषय के शीर्षक से कुछ इस प्रकार का भ्रम हो सकता है कि जैसे आयोजकों ने अंबेडकर के विचारों को मार्क्सवाद की तरह ही एक सुसंगत विचारधारा माना है । लेकिन रिपोर्ट के शुरू में ही यह बता दिया गया है कि ज़्यादातर वक्ताओं ने आंबेडकर के विचारों को एक सुव्यवस्थित 'वाद' मानने से इंकार किया ।
बहरहाल, इस कार्यशाला की प्रमुख विशेषता यह रही कि इसे सीपीआई(एम) के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने संबोधित किया था । उनके एक घंटे के भाषण का विषय था - ' जाति उन्मूलन और मार्क्सवाद' । अपने भाषण में उन्होंने डीडी कोसांबी के उद्धरण के आधार पर कहा कि चूँकि जाति-व्यवस्था उत्पादन व्यवस्था का ही हिस्सा है इसलिये उसे 'सरल तरीक़े से अधिरचना का अंग मान कर' कोई यांत्रिक निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए ।
इस संदर्भ में प्रकाश से हमारा एक अत्यंत बुनियादी सवाल है कि आखिर वे 'आधार' और 'अधिरचना' की पदावली के मार्क्सवादी विमर्श में 'आधार' का मतलब क्या समझते हैं ?
वे क्या ग़ुलाम, प्रजा, वर्ग, वर्ण, जाति, मालिक, सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति आदि की तरह की नाना प्रकार की सामूहिक आर्थिक श्रेणियों और अस्मिताओं को 'आधार' की चीज़ मानते हैं ?
मार्क्सवाद में आधार तो शुद्ध रूप से उत्पादन प्रणाली को माना जाता है । उत्पादन प्रणाली की ख़ास लाक्षणिकताओं के आधार पर आदिम साम्यवाद, ग़ुलामी प्रथा, सामन्तवाद, पूँजीवाद आदि नाना उत्पादन संबंधों पर आधारित समाज-व्यवस्थाओं की श्रेणियों की सिनाख्त की गई । लेकिन मार्क्स ने देखा कि इतिहास की सचाई यह है कि हर युग में किसी न किसी रूप में अधिशेष को हड़पने की व्यवस्था, अर्थात शोषण की व्यवस्था बनी रही है । इस मामले में पूँजीवाद की अपनी कोई विशेषता नहीं है । पूँजीवाद की विशेषता यह है कि इसके मातहत पण्य नामक एक नई वस्तु का जन्म होता है जो मनुष्यों के उपयोग में आने वाली वस्तुओं का एक ख़ास कायांतर है । इसमें वस्तु का उपयोग मूल्य विनिमय मूल्य से स्थानांतरित कर दिया जाता है और वस्तु में इस मूल्य के अधिष्ठान के पीछे कोई तर्क नहीं होता, सिर्फ संयोग होता है । इसे ही मार्क्स ने पण्य की जड़पूजा कहा है । यह पूँजीवादी समाज की एक लाक्षणिकता है, जो उसे अन्य समाजों से अलगाती है । पूँजीवाद में पण्य अतिरिक्त मूल्य का स्रोत होता है ।
आधार के विषय में चर्चा में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामाजिक जीवन में उसके कैसे-कैसे परिणाम सामने आते हैं । मसलन, इस्लाम के अंतर्गत तो काफ़िर अर्थात विधर्मी को भी एक आर्थिक श्रेणी का रूप दिया गया था जब यह व्यवस्था की गई कि काफ़िरों से जज़िया लिया जायेगा । अर्थात कर चुका कर भिन्न मत के पालन की अनुमति बाक़ायदा दी गई थी ।
इसीलिये यदि कोई यह मानता है कि वर्ग तो आधार से जुड़ी हुई सामाजिक संरचना है और वर्ण कुछ और, तो वह दोनों के बारे में ही मार्क्सवाद की बहुत ही उथली समझ का शिकार कहलायेगा ।
यही वजह है कि जाति को अधिशेष के हड़पने की व्यवस्था बता कर उससे कोई ख़ास अर्थ निकालने के उपक्रम का कोई मायने नहीं है ।
विभिन्न समाजों में विभिन्न प्रकार की सामाजिक संरचनाएँ निर्मित होती है और ख़त्म भी होती है । पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादन की कारख़ाना प्रणाली के विकास के साथ मार्क्स ने एक व्यापक वर्गीय समूह और वर्गीय चेतना के उदय को देखा था । इस नयी सामाजिक संरचना के उदय से यह माना जाता रहा है कि पुरानी संरचनाओं का ढाँचा टूट जायेगा । लेकिन अंतत: यह सामाजिक सामूहिक अस्मिता का ही विषय है जिस पर अधिरचना के अंतर्गत ही कोई विचार संभव है ।
मुश्किल तब होती है जब हम यांत्रिक ढंग से अधिरचना की तमाम संरचनाओं की अपनी खुद की द्वंद्वात्मकता को स्वीकारने से इंकार करने लगते हैं । किसी भी उत्पादन प्रणाली से कोई भी सामाजिक संरचना क्यों न पैदा हुई हो, उस संरचना का अपना भी एक द्वंद्वात्मक अस्तित्व होता है । उसकी अपनी भी लाक्षणिकताएं होती हैं । उस संरचना के ढाँचे में अपनी दरारें होती हैं । ख़ास परिस्थितियों में वे इन दरारों के चलते बिखर जाती है और कभी-कभी इन्हें सामयिक तौर पर पाटने में भी सफल होती है ।
इस रिपोर्ट के कुछ अंशों पर, जिन्हें जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपनी वाल पर लगाया था, फ़ेसबुक में हमने टिप्पणी की थी । उसमें हमने कहा था -
"अंबेडकर दार्शनिक नहीं थे, मार्क्स थे । इसीलिये मार्क्स के विचार सर्वकालिक है, अंबेडकर के नहीं ।
"जिस कार्यशाला में तेलतुम्बड़े बोले थे, उसकी एक रिपोर्ट मैंने भी पढ़ी है । चंचल चौहान ने भेजी है । उससे न मार्क्सवाद के बारे में कोई समझ बनती है और न अंबेडकर के बारे में । पता नहीं, कुछ लोग ऐसे बेढंगे आइनों की तरह होते हैं जिनसे प्रतिबिंबित अक्स हमेशा विकृत और शक्लें बदशक्ल होकर दिखाई देने लगते हैं । यह एक ख़ास यांत्रिकता है । मार्क्सवाद की गुटकों वाली समझ की यांत्रिकता । उस रिपोर्ट में एक बहुत ऊँचा सूत्र दिया गया है - 'जातिवाद अधिशेष को हड़पने का एक तरीक़ा रहा है ।'
"सवाल है कि जिन समाजों में भारत की तरह का जातिवाद नहीं दिखाई देता, उनमें क्या अधिशेष को हड़पा नहीं जाता था या जाता है ! इस प्रकार की 'सैद्धांतिक' दूर की कौड़ियों से पता नहीं कैसे किसी समाज की कोई ठोस समझ क़ायम होती है !
बहरहाल, वर्ण व्यवस्था, जातिवाद और इनका जघन्यतम रूप छूआछूत - ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म की हमारे सामंती समाज को सौंपी गई ख़ास सौग़ात है और इसमें शक नहीं कि आधुनिक पूँजीवाद के साथ इनकी वास्तव में कोई संगति न होने पर भी आज तक इस क्षयिष्णुता के लक्षण बने हुए हैं तो यह सामंती अवशेषों की वजह से ही है । आज के काल में इसमें जो अतिरिक्त आक्रामकता दिखाई दे रही है, उसके मूल में सांप्रदायिक शक्ति के रूप में ब्राह्मणवाद की बढ़ी हुई ताक़त है । भारत में सांप्रदायिकता की पराजय जातिवाद के सभी रूपों के अंत का प्रारंभ होगा ।"
इसके अलावा, इसी रिपोर्ट और एक अंश पर टिप्पणी करते हुए हमने लिखा कि
"आपकी वाल पर ही इस रिपोर्ट के अन्य हिस्से पर मैंने टिप्पणी की है । इस अंश पर भी मैं वही दोहराना चाहूँगा । जाति-व्यवस्था के अंदर से वर्ग बन रहे है तो क्या जातिवाद के अंत से वर्ग ख़त्म हो जायेंगे ? यह बिल्कुल यांत्रिक सूत्रीकरण है । आज़ादी के बाद से अब तक आरक्षण आदि के ज़रिये जातिवाद पर जो प्रहार हुए हैं, उन पर इससे कोई रोशनी नहीं गिरती ।"
इसी में हमने और भी लिखा था कि
"मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है । जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता । यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है । इसीलिये कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है । जातिवाद का ख़ात्मा तो पूँजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूँजीवाद का अंत नहीं होगा । "
अंत में, हमारी राय में, " आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नज़रिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं । कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए । मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता ।"
उम्मीद है कि ऊपर की बातों से फ़ेसबुक पर हमारी टिप्पणियां और भी साफ हुई होगी । प्रकाश करात सीपीआई(एम) के एक वरिष्ठ नेता रहे हैं । आज कम्युनिस्ट आंदोलन की सही और परंपरागत समझ पर वे जिस कोण से सवाल उठा रहे हैं, वह मार्क्सवाद की उनकी बिल्कुल यांत्रिक समझ का प्रमाण है । यह मार्क्सवाद को निहायत तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिये जातिवादियों की सोच का पिछलग्गू बनाने वाला सोच है । और, कहीं न कहीं पार्टी के विकास में दिखाई दे रहे गतिरोध के लिये मिथ्या सैद्धांतिक कारणों का विभ्रम पैदा करना है ।

डाभोलकर, पानसारे और अब कलबुर्गी - हत्याओं की इस श्रृंखला से फासीवाद की पदध्वनि साफ सुनाई दे रही है - उदयप्रकाश


(कन्नड़ लेखक एम. एम. कलबुर्गी की हत्या के प्रतिवाद में हिंदी के रचनाकार उदयप्रकाश ने अपना साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा देने की घोषणा की है। इस घोषणा के चंद दिनों बाद ही उदयप्रकाश कोलकाता आए थे। इस पूरी घटना के संदर्भ में अरुण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी से उनकी कोलकाता में लंबी बातचीत हुई। उस बातचीत को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं :)

अरुण माहेश्वरी : आज की पूरी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को आप देख रहे हैं। जो परिस्थिति है, वह क्रमश: खास तौर पर साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिये असहनीय सी हो रही है। सत्ताधारी पार्टी के नेता जिस जुबान में आम तौर पर बात करते हुए पाए जाते हैं, उसी से पता चलता है कि नीचे समाज में क्या हो रहा है। बुद्धिजीवियों और लेखकों को तो सीधे तौर पर शारिरिक हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। एम.एम.कलबुर्गी की हत्या को लेकर आपने जिसप्रकार अपना तीव्र प्रतिवाद दर्ज किया है उसका बड़े पैमाने पर रचनाकर्मियों ने स्वागत किया है। उसीसे पता चलता है कि अभी की परिस्थिति पर आम रचनाकर्मियों में कितना गुस्सा है। एकाध व्यक्ति ने इस कदम का मजाक भी उड़ाया है। हमारा आपसे सवाल है कि मौजूदा परिदृश्य की ऐसी कौन सी बातें है, जिनकी वजह से आपने एक इतना बड़ा कदम उठाना जरूरी समझा ? हांलाकि सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद है। हमें तो लगता है कि जैसे कुछ पुरस्कारों की तो महत्ता ही इस बात में हैं कि उन्हें सही समय में परिस्थितियों की मांग के अनुसार लौटाया जाएं या ठुकराया जाएं। इस बारे में आपका क्या कहना है ?

उदय प्रकाश : पहली बात तो यह है कि मैंने यह कदम बहुत सोच-समझ कर, इसके राजनीतिक परिणामों को मद्देनजर रखते हुए नहीं उठाया है। पिछले दिनों लगातार जो घटनाएं घट रही है उन्हें आप देख ही रहे हैं। यह सिलसिला लगभग दो सालों से चल रहा है। यू आर अनंतमूर्ति के घर को घेरा गया, उन्हें पाकिस्तान जाने का टिकट भेजा गया, उनपर पत्थर फेंके गये। इसके पहले ए. के. रामानुजन को लीजिए। उन्हें कौन नहीं जानता। ‘थ्री हंड्रेड रामायनाज’ के लेखक। उनके इस लेख को दिल्ली विश्वविद्यालय के एकेडमिक कौंसिल ने भारी बहुमत से पाठ्य पुस्तक से निकालने का निर्णय लिया। ग्यारह लोगों ने उसके खिलाफ मतदान किया। पेनगुइन की तरह का प्रकाशक, जो लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बाकायदा सभी न्यायिक चुनौतियों का सामना करता रहा है, लेडी चैटरलीज लवर, लोलिता जैसी विवादास्पद किताबों के लिए जिसने लंबी कानूनी लड़ाइयां लड़ी, उन्हें प्रतिबंधित होने से बचाया। उसी पेनगुइन ने दीनानाथ बत्रा नामके एक सनकी आदमी से डर कर, जिसके पास कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं है, वेंडी डोनिगर की ‘एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री ऑफ हिंदुइज्म’ को पल्प कर दिया। मेरी किताब ‘द गर्ल विद द गोल्डेन पैरासोल’ को पल्प आउट कर दिया क्योंकि वह जाति व्यवस्था के खिलाफ थी।

इसप्रकार, कहीं न कहीं यह प्रक्रिया पहले से ही शुरू होगई थी, लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि यह प्रक्रिया शारिरिक हिंसा में बदल जायेगी। लेखकों की पिटाई ही नहीं, उनकी हत्याएं होने लगेगी। ये सब हत्याएं एक श्रृंखला में हुई हैं। पहले डाभोलकर, फिर पानसारे और अब कलबुर्गी। ये सब हत्याएं इस बात का भी संकेत देती है कि समस्या सिर्फ हिदुत्व और इस्लाम की नहीं है। खुद हिंदुत्व के अंदर हिंसक झगड़े चल रहे हैं। पाकिस्तान में भी यही हो रहा है। इस पूरे उपमहादेश में इस प्रकार की असहिष्णुता कि कब किसकी भावना आहत हो जाए, पता नहीं चलता है। और किसकी भावनाएं! जो भावनाएं आहत हो रही हैं, वे आहत होने लायक ही हैं। इसके बिना आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक आप इन भावनाओं को आहत नहीं करेंगे, तो जिसे लोकतांत्रिक सहिष्णुता कहते हैं, उसे कभी नहीं ला पायेंगे। यह करना ही पड़ेगा। उनके साथ कानून और व्यवस्था के आधार पर, आईपीसी के आधार पर, न्यायिक व्यवस्था के जरिये भी निपटने की जरूरत है। इनके जरिये उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।

सरकार का काम है लेखकों को बचाना। लेखक तो अकेला होता है। बाबाओं, साधुओं को जेड सिक्यूरिटी दी जाती है। ऐसे लोगों की एक पूरी फसल तैयार हो गई है। ये बलात्कार करें, धोखेबाजी करें, इनको कोई नहीं मारता। ये भले अपने अपराधों की वजह से कभी पकड़े गये तो पकड़े गये। लेकिन उनपर सामाजिक तौर पर हिंदू समाज की ओर से कोई आक्रमण नहीं होता। क्या हम यह मान ले कि कलबुर्गी, पानसारे, अनंतमूर्ति से तो उनकी भावनाएं आहत होती है और राधे मां, आशाराम बापू, जो बलात्कार करते हैं, उनसे उनकी भावनाएं आहत नहीं होती है। कई बार मन में यह सवाल पैदा होता है और मन में डर भी लगने लगता है, क्योंकि जब हम देखते हैं कि कहीं कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, कोई हत्यारा पकड़ा नहीं जाता है, न कोई गिरफ्तारी हो रही है।

हम राकेश शर्मा की डाक्यूमेंट्री ‘फाइनल सोल्यूशन’ देखते हैं जिसमें 2002 के गुजरात के जनसंहार का पूरा डाक्यूमेंटेशन है। उसमें सारे अपराधी खुल कर बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने कत्लेआम किया। इसका विजुअल डाक्यूमेंटेशन है। बाद में अदालतों में भी वे सब प्रमाणित हुए हैं। बाबू बजरंगी, माया कोडनानी आदि सबको उम्र कैद, फांसी की सजाएं हुई है। फिर भी उनको छोड़ दिया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है ! अपराधी छोड़े जा रहे हैं, हत्यारे छोड़े जा रहे हैं और लेखक मारे जा रहे हैं।

सरला माहेश्वरी : प्रतिवाद का कोई स्वर नहीं दिखाई देता। सरकार के किसी कोने से इसके खिलाफ एक आवाज तक नहीं आती !

उदयप्रकाश : कलबुर्गी को मेरी ही तरह साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। साहित्य अकादमी जिनको पुरस्कृत करती है, उनके प्रति उसकी जरा भी जवाबदेही नहीं है। कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की ओर से एक छोटा सा शोकसंदेश तक नहीं आया। उनका भी परिवार है, बच्चे हैं। दुख सबको होता हैं। सांत्वना का एक शब्द भी नहीं। किसी रेल दुर्घटना में जब लोग मारे जाते हैं तो खुद रेल मंत्री उन्हें देखने के लिए जाते हैं, मृतकों के प्रति शोक व्यक्त करते हैं, मुआवजों की घोषणा की जाती है। लेकिन साहित्य अकादमी ने क्या किया। एक प्रतिक्रिया तक नहीं। ऐसी असंवेदनशीलता ! जब किसी को साहित्य अकादमी अवार्ड दिया जाता है उसे तय करने के लिए एक निर्णायक-मंडल बनता है, ज्यूरी। हर कोई जानता है कि पुरस्कार कैसे दिये जाते हैं। फिर भी एक काल की सर्वोत्कृष्ट मानी जाने वाली कृति को पुरस्कार दिया जाता है। जिसको आपने सम्मानित किया, उन्हीं विचारों की हत्या कर दी जाए और खामोशी से देखते रहें।
इसीलिये मेरे निर्णय के पीछे कोई राजनीति नहीं है। आप जानते हैं मेरी कोई राजनीति नहीं है। मैं किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ा हूं। लेखक तो वैसे ही प्रकृति से स्वतंत्र होता है। उसका समय उससे लिखवाता है। लेकिन दिक्कत यह है कि जो अपने समय को सच्चाई से लिखता है उससे सारी राजनीतिक सत्ताएं नाराज ही रहती है। इन्हीं तमाम कारणों से मुझे लगा कि इस पुरस्कार को लौटा दिया जाना चाहिए।

अरुण माहेश्वरी : बिल्कुल सही कहा आपने। हाल में फ्रांस की सरकार ने वहां के अर्थशास्त्री थामस पिकेटी को नोबेलजयी अर्थशास्त्री के साथ ही फ्रांस के सर्वोच्च पुरस्कार से नवाजने की कोशिश की थी तो पिकेटी ने यह कह कर उस सम्मान को स्वीकारने से इंकार कर दिया कि सरकार का काम यह तय करना नहीं है कि समाज में कौन सम्मानित होगा और कौन नहीं। सरकार का काम है अर्थ-व्यवस्था को सुधारना और यदि आप अर्थ-व्यवस्था को संभालने में विफल होते हैं तो मेरे लिये आपका कोई महत्व नहीं है। जो सरकार अपने नागरिकों को, लेखकों और साहित्यकारों को न्यूनतम सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती उस सरकार के दिये किसी भी सम्मान का कोई मूल्य नहीं है। और, मेरे अनुसार तो ऐसे पुरस्कारों को सही समय पर लौटाना ही अपनी प्रतिवाद के दर्ज कराने का एक सही तरीका है।

उदय प्रकाश : हां, कुछ लोग टाइमिंग की बात उठाते हैं। टाइमिंग का क्या। वह तो कभी भी हो सकती है। अभी शायद यह एक ऐसा समय था जब परिस्थिति सबसे ज्यादा सघन, इंटेन्सीफाई हो गयी है। यह फासिज्म की ओर बढ़ने के लक्षण है। अभी-अभी मैं म्यूनिख से लौटा हूं। मैंने वहां वो संग्रहालय देखा है जिससे पता चलता है फासिज्म कैसे पैदा हुआ। जब कारपोरेट, मीडिया, मोनोलॉग अर्थात रेह्टोरिक एक हो जाते हैं तभी फासिज्म आता है। और इस समय यहां सब एक हो रहे हैं। रिलीजन, कारपोरेट और कारपोरेट से शक्ति प्राप्त मीडिया इन सबने एक उन्माद पैदा किया। एक प्रकार का राष्ट्रवादी उन्माद।
आज ही मेरे फेसबुक वाल पर किसी और ने लिख दिया कि हिंदी एक कृत्रिम भाषा है। उसपर तत्काल एक कमेंट आया - जो हिंदी को कृत्रिम भाषा कहता है वह भारतीय, नस्ल का ही नहीं है। अब इन्होंने एक और नई नस्ल भी पैदा कर ली है। इंडियन रेस। क्या कभी आपने ऐसी कोई नस्ल के बारे में सुना है। दुनिया में कोई ऐसी किसी नस्ल की बात नहीं करता, कोई पुरातात्विक नहीं कहता। हर कोई जानता रेसेस के बारे में। मोंगोलाइट्स, प्रोटो आस्ट्रोलाइट्स, नाइजेरिस्ट, द्रविड़, आर्य सुनते आए हैं। इनके बीच सदियों में लगातार इंटरेक्शन होता रहा है। जेनेटिक अध्ययन बताते हैं कि 87 प्रतिशत तक का जेनेटिक इंटरेक्शन हो चुका है। और ये शुद्ध नस्ल का दावा करते हैं। हमारा डीएनए, पाकिस्तान में रहने वालों, हड़प्पा सम्यता के लोगों का डीएनए एक है।

सरला माहेश्वरी : इस विषय पर मुकेश कुमार की एक कविता याद आ रही है। ‘ हां, हरामजादे हैं।’ वे कहते हैं - ‘‘पुरखों की कसम खाकर कहता हूं/ कि हम सब हरामजादे हैं/ आर्य, शक, हूण, मंगोल, मुगल, अंग्रेज,/द्रविड़, आदिवासी, गिरिजन, सुर-असुर/जाने किस-किस का रक्त/ प्रवाहित हो रहा है हमारी शिराओं में/उसी मिश्रित रक्त से संचरित है हमारी काया/हां हम सब वर्णसंकर हैं।’’

उदयप्रकाश : सचमुच, भारत के मुसलमान, ईसाई सब एक ही नस्ल के हैं।

अरुण माहेश्वरी - यह सही है। लेकिन हिंदी की एक और खास स्थिति है। हिंदी में अभी पुरस्कारों की बाढ़ आई हुई है। ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाओं को हम देखते हैं तो उसमें लिखने वाला शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जो अपने सिर पर चार-पांच पुरस्कारों की कलंगी न लगाए हुए हो। इस तुलना में हिंदी साहित्य समाज में बेहद अप्रासंगिक सा दिखाई देता है। सवाल उठता है कि तब वे कौन लोग है जो ये सारे पुरस्कार दे रहे हैं ? अगर समाज में लेखकों का सचमुच मान होता तो साहित्य की बिक्री की यह दशा नहीं होती। लेखक की तो कोई पहचान नहीं है, और उसे नाना पुरस्कारों से लाद दिया जा रहा है !

उदयप्रकाश : यह एक बहुत दुखदायी स्थिति है। यह सारा उपक्रम बेहद अवमाननापूर्ण है। मैंने एक कमेंट किया था कि साल में 365 दिन होते हैं और इन 365 दिनों में रोज के हिसाब से दस-दस पुरस्कार दिये जा रहे हैं। हजारों पुरस्कार! इनके शुरू में पुरस्कार किसी न किसी बड़े साहित्यकार के नाम पर दिये जाते थे। प्रतिष्ठित और प्रगतिशील साहित्यकारों के नाम पर। शमशेर सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल सम्मान। लेकिन हालत यह है कि केदारनाथ अग्रवाल के घर को बिकने से नहीं बचाया जा सका। वह तहस-नहस होगया था। दुष्यंत स्मृति सम्मान अढ़ाई लाख का पुरस्कार है। अभी दुष्यंत के घर को बड़ी मुश्किल से बचाना संभव हुआ है। सचमुच यह सवाल है कि ये कौन लोग हैं, पुरस्कार देने वाले। प्रेमचंद के लमही की स्थिति से आप अच्छी तरह वाकिफ हैं। गालिब की मजार को किसी तरह से हल्ला-गुल्ला करके उसका पुनरुद्धार किया जा सका है। शर्मनाक है कि इन लोगों के नाम से सम्मान देना और खुद ही सम्मानित हो जाना। यह एक प्रकार का ‘शामिल बैंडबाजा’ है। एक-दूसरे को सम्मानित करेंगे। समीक्षाएं मैनुफैक्चर्ड होगी। आप उनको पढ़ कर देखिये, वे किसी लायक नहीं होती।

सरला माहेश्वरी - वो मुक्तिबोध की कविता है ना - ‘‘सफलता की आंख से/ दुनिया को निहारती फैली है/ पूनो की चांदनी/...-मनुष्य के लिए नहीं - फैली यह / सफलता की, भद्रता की,/कीर्ति-यश-रेशम की पूनो की चांदनी/मुझको डर लगता है,/मैं भी तो सफलता के चन्द्र की छाया में/घुग्घू या सियार या / भूत नहीं कहीं बन जाऊं !‘‘

अरुण माहेश्वरी : संपादक अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि हमें तो लेखक लोग समीक्षाएं भिजवाते हैं, तभी वे छपती है। अपनी ओर से समीक्षाएं लिखवाने का हमारे पास कोई तरीका नहीं है।

कहने का मतलब यह है कि इस पूरे परिदृश्य में कहीं न कहीं हिंदी के नाम पर चलने वाली जो असंख्य संस्थाएं हैं, और उनमें बैठे हुए लोग है, वे सब इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। हिंदी के नाम पर भारत सरकार और विभिन्न सरकारों की ओर से अरबों रुपये खर्च किये जाते हैं, क्या यह कोरी बंदरबांट नहीं है ?

उदय प्रकाश : नहीं, इसे मुहावरों की भाषा में कहना विषय को हल्का करना होगा। यह सरासर लूट है। इसे शुद्ध फिनेंशियल टम्र्स में देखा जाना चाहिए। हजारों, लाखों करोड़ के जो इतने सारे स्कैम्स हो रहे हैं, यह भी एक स्कैम हैं। इसी दृष्टि से इसे देखा जाना चाहिए। भाषा का उद्योग, खास तौर पर हिंदी भाषा का, उसके जेनेसिस में आप जायेंगे तो पता चलेगा कि किस प्रकार 19वीं सदी से ही, मध्यकाल से सुनियोजित ढंग से हिंदी को एक धर्म के साथ जोड़ने की कोशिश चल रही है। और यह बढ़ते-बढ़ते अब यह यहां तक चला गया है कि इसे जाति विशेष के साथ जोड़ दिया जा रहा है। Identified with certain castes। इस बीच जब वी पी सिंह ने मंडल आयोग को लागू किया तो ‘90 के बाद आरक्षण में एक नया पहलू जुड़ गया। आरक्षण की मांग और जातियां भी करने लगी। ऐसी स्थिति में अब पहले की तरह सिर्फ एक ही जाति के लोगों की नियुक्ति नहीं हो सकती है। तो इससे एक नई चुनौती पैदा हुई है। मैंने जब ‘पीली छतरी वाली लड़की’ लिखा, वह दरअसल एक प्रकार का भाषा विमर्श ही था। हिंदी विभाग में आकर वह कैप्सूल्ड हुआ था, जहां वह प्रेमकथा चल रही थी। जैसा कि एंगेल्स ने कहा हैं, Language is the practical consciousness of man । यह हमारी व्यवहारिक चेतना है। तो  आप इसे जितना सब्जूगेट करेंगे, गुलाम बनायेंगे, मैनुपुलेट करेंगे, उतना ही चेतना पर उसका असर आयेगा। आप सोचिये, इस भाषा में हमारी सदियां गुजर गई है। इसमें तरह-तरह की धारणाएं, मिथ आदि भरे गए हैं। आज तक बहुत बड़ा समुदाय उन्हें अपनाए हुए हैं। प्रवचनकारी बाबाओं की जो जमात है, वे जो भाषण देते हैं, वह और क्या है, भाषा का ही तो खेल है। इन प्रवचनकारियों का एक और लक्ष्य होता है ब्लैक मनि को व्हाइट करना। ये कोलोनाइज करते हैं, भू-माफियाओं की तरह काम करते हैं। यह एक पूरा उद्योग है।

फिर टेलिविजन आगया। उत्तर आधुनिकता ने हमें यह तो बताया ही है कि आगे स्पीच-सेन्ट्रिक एज होगा। वाक्-केन्द्रित सभ्यता। और सबसे ज्याद निवेश भाषा पर ही होगा। तो भाषा कोई मामूली चीज नहीं है। आप तो बहुत पढ़ते हैं। अंबर्तो इको ने ही अपने ट्रैवल इन हाइपरियल्टीज में कहा है कि कोई भी समाज में कौन सा वर्ग भाषा को कितना शेयर करता है, उससे समाज में उस समुदाय की स्थिति का पता चलता है। जैसे साहित्यकार होता है। आप याद करें विक्टर ह्यूगो का समय। उस समय लेखक आथोरिटी था। उनके उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित होते थे और हर परिवार में उसके पाठक होते थे। उसके चरित्रों पर बहस होती थी, अगले दिन क्या होगा, इसके भी कयास लगाये जाते थे। ऑथर की भाषा पर आथोरिटी थी। इसी से ऑथर शब्द बना। आज उसकी यह ऑथोरिटी छीन ली गई है। अब नेतागण भाषण-प्रवचन देते रहते हैं, बाबाओं ने भाषा पर कब्जा जमा रखा है।

दरअसल, साहित्यकार के लिए भाषा उसकी आजीविका है। वह उसी में जीता है, मरता है, सांस लेता है, उसी में रहता है। आज उसकी स्थिति क्या है। क्रिकेट में देखिये, किसी ने जरा सा बल्ला चला दिया, उसके लिये दुनिया के सारे विशेषण, महानता और नायकत्व की सारी बातें कही जाने लगती है। अब टैगोर बनाना असंभव है। अब किसी साहित्यकार को कभी भारत-रत्न नहीं मिल सकता। क्रिकेटर को मिल सकता है, बॉलीवुड के एक्टर को मिल सकता है। व्यवसायी को तो यह सब मिलता ही है। लेकिन साहित्यकार को देखिये। उसकी स्थिति कमजोर होती जा रही है। दरअसल, वह भाषा को बहुत कम शेयर कर पाता है। भाषा के प्रमुख शेयरहोल्डर्स अब दूसरे लोग हो गये हैं। मेरी नजर में हिंदी के साहित्यकार के पास एक प्रतिशत भी भाषा नहीं बची है। मोदी से ज्यादा भाषा पर कौन कब्जा जमाए हुए हैं। विज्ञापनों को देखिए, टीवी एंकर्स को देखिए, क्रिकेट को देखिए। ग्लैमर वल्र्ड, क्राइम इन्फारमेशन - भाषा पर इन अन्यों का कब्जा है। तो साहित्यकार कहां बचेगा।

मेरे गुरू ताद्युश रोज़ेविच की कविताओं का एक संकलन है, 2007 में आया था, उसका शीर्षक है - वर्ड्स, शब्द। उसमें सारी कविताएं शब्द पर है। एक कविता मुझे याद आती है, जिसकी थीम है कि शब्द जो है वे राजनीतिज्ञों के दांतों को चमकाने और कुल्ला करने के काम आते हैं। शब्द जो है खूबसूरत होठों में जो च्विंगम चबा रहे हैं, उसके बैलून बनाने का काम कर रहे हैं। और वह कहता है, शब्द कन्टेमिनेट हो रहे हैं, शब्द खत्म हो रहे हैं, जो अखबारों की रद्दी के टुकड़ों की तरह फेंक दिये गये हैं, सड़ रहे हैं। ये शब्द वही थे जिन्हें हम देते थे उसे जिससे बहुत गहराई से प्यार करते हैं। शब्द वे थे जो हमारे घावों पर मलहम का काम किया करते थे। लेकिन फिर वे अंत में कहते हैं - शब्द में अब भी शक्ति है। किसी बम की तरह वे कभी भी विस्फोट कर सकते हैं।
उनकी कविताएं कुछ इस प्रकार है : एक कविता है - मैं क्यों लिखता हूं।
कभी-कभी 'जीवन' उसे छिपाता है/ जो जीवन से ज़्यादा बड़ा है / कभी-कभी पहाड़ उस सबको छुपाते हैं / जो पहाडों के पार है
इसीलिए पहाडों को खिसकाया जाना चाहिए / लेकिन पहाडों को खिसकाने लायक / न तो मेरे पास तकनीकी साधन हैं / न ताकत / न भरोसा / इसलिए मैं जानता हूँ कि आप उन्हें इसी जगह देखते रहेंगे

और यही वजह है कि / मैं लिखता हूँ ।

एक कविता है – सफेद ।
सफ़ेद न तो उदास है / न प्रसन्न / बस सफ़ेद है

मैं लगातार कहता रहता हूँ / यह सफ़ेद है / लेकिन सफ़ेद सुनता नहीं / वह अंधा है /  और बहरा है / वह बिल्कुल मुकम्मल है / धीरे-धीरे / वह और सफ़ेद होता जाता है । /

‘शब्द’ कविता का पूरा पाठ कुछ इस प्रकार है :

शब्दों का इस्तेमाल किया जा चुका है / चुइंगम की तरह उन्हें चबाया जा चुका है / सुन्दर जवान होठों द्वारा / सफ़ेद फुग्गों बुल्लों में बदला जा चुका है / राजनीतिकों द्वारा घिसे-रगड़े गए / उनका इस्तेमाल दांत चमकाने और मुँह की सफाई के लिए / कुल्ले-गरारे में किया गया

मेरे बचपन के दिनों में / शब्दों को मरहम की तरह / घावों पर लगाया जा सकता था

शब्द दिए जा सकते थे उसे / जिसे तुम प्यार करते थे

घिसे- बुझे / अखबार मे लिपटे /शब्द अभी भी संक्रामक हैं ... अभी भी उनसे भाप उठती है / अभी तक उनमे गंध है / वे अभी भी चोट पहुँचाते हैं

माथे के भीतर छुपे हुए / छुपे हुए हृदय के भीतर / छुपे हुए सुन्दर जवान लड़कियों के कपडों के अन्दर / पवित्र पुस्तकों में छुपे हुए / वे अचानक फूट पड़ते हैं / और मार डालते हैं ।

यही एक विश्वास है शब्दों के प्रति, जो हमलोगों में बचा हुआ है। वर्ना शब्दों की जो तबाही हो रही है, हम देख ही रहे हैं। महान शब्द को देखिये। कितना दुरुपयोग होता है इसका। हर कोई महान होता है। कोई एक लूट-लाट कर बिजनेस खड़ा कर लेता है और जेल चला जाता है, वह भी महान होता है। यह जो पूरी इकॉनमी है, पूंजी की भूमिका, incoming technology, इसने सिर्फ दुनिया को नहीं बदला है, पूरी भाषा को छिन्न-भिन्न कर दिया है। क्षतिग्रस्त किया है।

मुझे जो साहित्य अकादमी का अवार्ड दिया गया, कलबुर्गी को दिया गया, पता नहीं आज तक किन-किन को दिया गया। आप पायेंगे कि सब कहीं न कहीं कुछ रखते हैं। इस बारे में अरुंधती राय के उस वक्तव्य को पढ़ा जाना चाहिए जो उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराते हुए दिया था।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ उद्योग विभाग ही भ्रष्ट होता है, या वित्त विभाग या निजी पूंजीपति ही भ्रष्ट होते हैं। ये साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, ये किसी से कम भ्रष्ट है क्या ?

हंटिंगटन ने, जिसने Clash of civilisation लिखा था, उसने कहा था कि आने वाले समय में सबसे ज्यादा खर्च संस्किृति पर होगा। संस्कृति अभी केंद्र में है। इतिहास से लेकर संस्कृति के जो तमाम रूप है, पुरानी भाषा का इस्तेमाल करें तो जो अधिरचना की चीजें हैं, सबसे ज्याद हमले उन्हीं पर हो रहे हैं। यह एक आपातकाल, Dark Age है। और जो लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं, वे उदयप्रकाश और पता नहीं किस-किस टम्र्स में सोच रहे हैं। यह बिल्कुल गलत है, भले उनमें लेफ्ट ही क्यों न हो। ऐसा बिल्कुल नहीं है।
अरुण माहेश्वरी : अभी जो विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में चल रहा है और जिसमें छत पर चढ़ कर चिल्ला-चिल्ल कर कहा जा रहा है कि हिंदी बाजार को जीतेगी। नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि दुनिया में सिर्फ तीन भाषाएं बचेगी, अंग्रेजी, चीनी और हिंदी। यह जो अवधारणा है कि भाषा बाजार के जरिये बचेगी, कायम रहेगी, इसपर आपका क्या विचार है। हमारे अनुसार तो भाषा बाजार से जीवित नहीं रह सकती। बाजार सच कहा जाए तो भाषा के नाश की जगह है। शेयर बाजार, फाटका बाजार में तो सब कुछ इशारों पर होता है। अभी तो बाजार की भाषा एप्स है। क्या ऐसा नहीं है कि जो हिंदी की बाजार पर विजय का उन्माद पैदा कर रहे हैं, वे प्रकारांतर से यह कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार पर हिंदी वालों का वर्चस्व होगा। आज मुकेश अंबानी या कोई भी अन्य अगर अपना वाणिज्य फैलाता है तो वह हिंदी की सेवा नहीं करेगा। क्या यह भाषा के जरिये भी एक प्रकार के अंधराष्ट्रवाद को हवा देने की कोशिश नहीं है?

उदयप्रकाश : अरुण जी, देखिये, आज बाजार यदि कोई है तो वह ग्लोबल बाजार है। किसी देश का निजी बाजार नहीं बचा है। कोई अगर यह कहे कि यह अपना, स्वदेशी बाजार है, खादी ग्रामोद्योग की तरह का, तो यह कोरा धोखा है। सबकुछ ग्लोबल है। यह माना जाता है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। यूरोप की पूरी आबादी से बड़ा। अब इस बाजार में जिस हिंदी की बात की जा रही है, वह तो है ही नहीं। ग्लोबल मार्केट की भाषा अभी अंग्रेजी है। चाइनीज भी नहीं है। आप पता कीजिए, चीन में, फ्रांस में, जर्मनी में भी, सब जगह इंग्लिश-स्पीकिंग के कोर्स जोरों पर चल रहे हैं। तो बाजार की भाषा तो अंग्रेजी ही है।

मोदी जी जो कहते हैं कि मैंने चाय बेचते-बेचते यूपी के भैयों से हिंदी सीखी, तो यूपी के लोगों की हिंदी में ही पिछले दस सालों में जो परिवर्तन हुए है, इसका किसी को अंदाज है। अभी कुछ साल पहले से ही प्रभु जोशी ने हिंदी के क्रेयोलीकरण का सवाल उठाना शुरू किया है। हिंदी की वोकबलरी में, शब्द भंडार में, हिंदी के मूल शब्द कितने बचे हुए हैं? आप ही देखिये चौरासी वैष्णवन की वार्ता की भाषा, लाला श्रीनिवास दास की परीक्षा गुरू या सुदर्शन की कहानियों की भाषा। कामायनी को ही याद कीजिए। और फिर आज की भाषा को देखिए। अखबारों की हेडलाइन्स, दैनन्दिन व्यवहार की भाषा। आपने एप्स की चर्चा की। एप्स ही क्यों, एसएमएस, इंटरनेट, मोबाइल, उनसे जो भाषा बन रही है, इनके जरिये हमारे शब्द भंडार में ऐसे शब्द आरहे हैं जो पूरी तरह से एलियन शब्द है। जो कभी नहीं थे और स्थिति यह है कि उन्हें कभी हटाया या बदला भी नहीं जा सकता है। पहले जैसे हम पैंट को पतलून कर लेते थे, प्लेटो को अफलातून या सोक्रेटीज को सुकरात बना लेते थे, अपने ढांचे में, अपनी मिट्टी में उनको गढ़ने, बनाने, उन्हें नया कलेवर देने की जो कोशिश रहती थी, अब तो वैसी कोई इच्छा शक्ति भी नहीं बची है। मोबाइल रिचार्ज अब मोबाइल रिचार्ज ही रहेगा। दिल मांगे मोर। यह जो परिवर्तन हो रहे हैं, होते चले जा रहे हैं, मोदी किस हिंदी की बात कह रहे हैं। बाजार में जो हिंदी बची रहेगी, वह कैसी हिंदी होगी ? क्या वह राजभाषा वाली हिंदी होगी ? या ऐसी बाजार वाली?

और वैसे कहा जाए तो हिंदी बनी ही है बाजार के लिए, एक संपर्क भाषा के तौर पर। साहित्य की भाषा, सृजनात्मकता की भाषा हिंदी थी ही नहीं। ब्रज भाषा, अवधि, और दूसरी भाषाएं थी। अब मार्केट के लिए आपने एक भाषा बनाई। संपर्क के लिए। और फिर धीरे-धीरे, बड़ी चतुराई से उसमें संस्कृत के शब्दों को लाकर इसके शब्द भंडार को एक पवित्र सा रूप दे दिया। बहुत सारे लोग तो आज भी उसमें अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं। उनके लिए यह असंभव सी है। नाजिम हिकमत कहते हैं न कि जब मैं टर्किस में लिखना चाहता हूं इंकलाब, तो उसका अर्थ निकलता है जेहाद। इसप्रकार, जो शब्द आते हैं, वे अपने साथ पूरी अर्थ-स्मृति लेकर आते हैं।

आपने पाली को छोड़ा, बौद्ध बाहर चले गए। एक इतना उदारवादी दर्शन, जो जातिप्रथा को नहीं मानता, पुनर्जन्म को नहीं मानता, जिसमें रेशनलिटी थी। वह हमसे छूट गया। आपने प्राकृत को छोड़ दिया तो महावीर बाहर होगये। सोरसैनी, अपभ्रंश, जो स्थानीय जनपदीय भाषाएं हैं, उनके शब्दों को छोड़ दिया। एक फ्लाईओवर बनाया, सीधे संस्कृत से और गढ़ ली गई हिंदी। उस हिंदी को सब लोगों पर थोप दिया गया। अब आप बताइयें, यह हिंदी कैसे बचेगी? हिंदी नहीं बचेगी, वही हिंदी बचेगी जो जीवित है, जो जनता द्वारा, मनुष्यों द्वारा, जीवित लोगों द्वारा व्यवहृत है। व्यवहार में लाई जा रही है। उस हिंदी पर कोई संकट नहीं है। मैं नहीं मानता कि हिंदी पर कोई संकट है। दुनिया में बहुत सी छोटी-छोटी भाषाएं बची हुई है और बड़ी-बड़ी भाषाएं लुप्त हो चुकी है। गणेश दैवी भी जो अपने भाषा सर्वेक्षण में कहते हैं। अफ्रीका की भी छोटी भाषाएं बची हुई है। और जो प्रमुख भाषाएं हैं, वे गायब हो चुकी है। यह एक दूसरे स्तर पर चलने वाली परिघटना है। बाजार ही नहीं, इसमें और भी ढेर सारी चीजें सम्मिलित है। जैसे एक बहुत बड़ा उदाहरण है आइजक बेसाविस सिंगर का। उसने एक ऐसी भाषा में अपना साहित्य लिखा जो डेड, मृत भाषा थी। उसे कोई नहीं बोलता था। लोगों ने जब उनसे पूछा कि आप ऐसी भाषा में क्यों लिख रहे हैं जो मुर्दों की भाषा है तो उसने कहा कि इसलिए ताकि उसे सिर्फ प्रेत ही पढ़ें। तो यह जरूरी नहीं कि साहित्य बहुत प्रभावशाली भाषा में ही लिखा जाए। आप तो रूस के बहुत सारे लेखकों को जानते हैं। रसूल हमजातोव। किरगीज भाषा में उन्होंने लिखा। उसे बोलने वाले बमुश्किल तीन-चार लाख लोग थे। लेकिन वे एक महान लेखक बन गये, विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य में उनका स्थान है। तो भाषा कोई मैटर नहीं करती है। बाजार उसका इस्तेमाल कर रहा है या नहीं, यह भी मैटर नहीं करता। साहित्य या किसी भी सृजनात्मक कर्म का इससे कोई संबंध नहीं होता। मार्क्स ने भी कहा था कि जो highest forms of art है उसमें संगीत आता है। सर्वोत्कृष्ट कला-रूप। जिसका भौतिक विज्ञान में जन्म हुआ उसका सर्वोच्च रूप मैथ्स, गणित है, जहां सब कुछ एब्सर्ड हो जाता है। संगीत में भाषा नहीं, स्वर होते हैं।

सरला माहेश्वरी : रवीन्द्रनाथ का ही उदाहरण लें। एक प्रांतीय, बांग्ला भाषा के इस कवि ने किस प्रकार सारी दुनिया के, विश्व कवि बन गये।

उदयप्रकाश : देखिये, विश्व हिंदी सम्मेलन में उन्होंने किनको आमंत्रित किया। अमिताभ बच्चन को। मैंने एक छोटा सा बयान दिया। अमिताभ बच्चन तो उत्तर-छायावादी कवि हरिवंश राय बच्चन के पुत्र हैं।

उनको तो हिंदी साहित्य की काफी जानकारियां होगी। नरेंद्र शर्मा, अंचल भी उसी काल के थे। हमारे बहुत सारे गीतकार। उसी काल में प्रगतिवाद भी शुरू होता हैं। त्रिलोचन और अमरकांतजी भी इलाहाबाद के ही थे। उनको तो इन सबके बारे में काफी जानकारी होगी। विश्व हिंदी सम्मेलन में सिर्फ बाजार की बात हुई। चाय वाली बात पर मोदी ने काफी तालियां पिटवाई। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मेरी मातृभाषा गुजराती है। हिंदी भी एक नहीं है। कई हिंदिया है। राष्ट्रभाषा की बात करते हैंं। खुद हिंदुस्तान अभी तक राष्ट्र नहीं बना तो राष्ट्रभाषा क्या बनेगी। और अगर हम मान लेते हैं कि राष्ट्रभाषा बनेगी तो राष्ट्रभाषा को तो दूसरी भारतीय भाषाओं की ज्यादा परवाह करनी चाहिए। कन्नड़ का लेखक मार दिया जाता है, तमिल के लेखक मुरुगन से उसकी कलम छीन ली जाती है। बंगालियों पर हमले हो रहे हैं। और हिंदी वाले विश्व सम्मेलन में जाकर बाबाओं आदि के जरिये धर्म-कांडों में लगे हुए हैं! बाजार के सबसे बुरे लोग, बाबा, साधू - ये सब ही इकट्ठे हो रहे हैं। हिंदी को प्रचारित करने में बॉलिवुड वालों का बड़ा योगदान है। लेकिन बॉलिवुड के भी लेखकों को भोपाल में नहीं बुलाया गया। अमिताभ बच्चन को बुला रहे हैं जिनको इन सब बातों की जरा भी चिंता नहीं है। न मोदी को है कि दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ अभी क्या हो रहा है।
अभी तो खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के मामलों तक में डिक्टेट किया जा रहा है। चार दिन तक कोई मांसाहार नहीं करेगा। रामदेव ने भी कह दिया है।

ये सब साफ तौर पर फासीवाद के लक्षण है। और इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए जरूरत सिर्फ इस बात की है कि आप लोकतांत्रिक हो। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में लोर्का एक प्रतीक बन गये थे। वे कोई कम्युनिस्ट या वामपंथी नहीं थे। लोकतांत्रिक थे। साहित्य अकादमी के दिये पुरस्कार को आज लौटा कर मैंने इसी भयानक परिस्थिति के खिलाफ अपनी प्रतिवाद की छोटी सी आवाज उठाई है। इससे ज्यादा और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए।






न्यायपालिका और कार्यपालिका

संसदीय जनतंत्र में संसद की सार्वभौमिकता सिद्धांततः स्वीकृत होने पर भी शासक दलों में तानाशाही की ओर बढ़ते रुझानों के मद्दे-नज़र यह सार्वभौमिकता जनतंत्र के विपरीत खड़ी दिखाई देने लगती है । ऐसे में न्यायपालिका की अधिकतम स्वतंत्रतता जनतंत्र के हितों के ज़्यादा क़रीब है । मौजूदा सरकार जिस प्रकार सभी संवैधानिक संस्थाओं पर अपना शिकंजा कस रही है, स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता का नग्न हरण कर रही है, उसे देखते हुए न्यायपालिका से इसे कोसों दूर रखने में ही नागरिक समाज के हित है । संविधान की मूलभूत प्रतिज्ञाओं की रक्षा में अब न्यायपालिका की बड़ी भूमिका हो गई है, क्योंकि कार्यपालिका ऐसे तत्वों की गिरफ़्त में है जो भारत के वर्तमान संविधान को वस्तुत: नहीं मानते हैं । भ्रष्ट और संविधान-विरोधी शक्तियों की सरकार की न्यायपालिका में दख़लंदाज़ी राष्ट्र के लिये बेहद नुक़सानदेह साबित होगी ।
इसीलिये जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन के प्रस्ताव को ठुकराने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हम स्वागत करते हैं । यह एक ऐतिहासिक फ़ैसला है । इसके दूरगामी परिणाम है ।

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल का प्रस्ताव उसकी प्रतिष्ठा को फिर से कायम करने के लिए यथेष्ट नहीं है