बुधवार, 25 जनवरी 2017

पांच राज्यों के चुनाव और भारतीय वामपंथ की उहापोह


-अरुण माहेश्वरी

भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक तीसरी महत्वपूर्ण शक्ति है वामपंथ, जिसकी एक से अधिक राज्यों में सरकारें रही हैं, आज भी दो राज्यों में हैं, देश के सभी कोनों में जिसके अपने जन-संगठनों और कार्यकर्ताओं का पूरा ताना-बाना है और सर्वोपरि जिसका राजनीतिक परिप्रेक्ष्य हमेशा से अखिल भारतीय है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति के मन में यह सवाल उत्पन्न हो सकता है कि अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें भारतीय वामपंथ क्या कर रहा है? खास तौर पर उत्तर प्रदेश में, जहां कम्युनिस्ट पार्टियों का थोड़ा परंपरागत आधार भी रहा है, आज की महत्वपूर्ण चुनावी लड़ाई में वामपंथ कहां है ?

अभी के बिकाऊ मीडिया के पूरे शोरगुल में काफी अर्से से वामपंथ पूरी तरह से नदारद है। इसी के चलते बहुतों को तो शायद यह पता भी नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में छ: वामपंथी दलों, सीपीआई, सीपीआई(एम), सीपीआई(एम-एल), एसयूसीआई, एआईएफबी और आरएसपी ने मिल कर अपना एक अलग मोर्चा बनाया है और 105 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है, जिनमें नब्बे से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी कर दी गई है। इनमें सीपीआई 58 सीटों पर, सीपीआई(एम) 18 पर, सीपीआई(एम-एल) 17 पर, फारवर्ड ब्लाक 7 और एसयूसी 5 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

अब सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में वामपंथी दलों के इस अलग मोर्चे का क्या तात्पर्य है ? आज की वहां की जो जमीनी सचाई है उससे सामान्य तौर पर तो यही लगता है कि वहां सपा-कांग्रेस, बसपा और भाजपा के अलावा किसी चौथे मोर्चे की कोई खास स्थिति नहीं है। दूसरी पार्टियों को चालू मुहावरे में वोट-कटुवा पार्टी कहा जाता है, और बाज हलकों से वामपंथी पार्टियों को भी इसी ‘वोट-कटुवा’ श्रेणी में रखा जा रहा है।

आज के भारत की समग्र राजनीतिक स्थिति क्या है ? मोदी के सत्ता में आने के बाद भारतीय राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन आया है। इसने आजादी की लड़ाई के मूल्यों के बिल्कुल विपरीत छोर पर खड़े एक राजनीतिक समूह को केंद्र की सत्ता पर ला दिया है। आज भले ही वे परिस्थितिवश धर्म-निरपेक्ष संविधान की सीमा में काम करने के लिये मजबूर हो रहे हैं, लेकिन इनकी राजनीति का स्थायी भाव इस धर्म-निरपेक्ष संविधान के खिलाफ धर्म-आधारित फासीवादी संघवाद का भाव है। खास तौर पर गुजरात के जनसंहार के नायक नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार पूरी भाजपा को अपने अधीन कर लिया है, उससे और भी जाहिर है कि आज की उनकी सारी राजनीतिक गतिविधियों से भारतीय राजनीति की जो दिशा तैयार हो रही है, वह फासीवादी राजनीति की दिशा है।

इस पूरे प्रसंग को थोड़ा सा रस-निष्पत्ति की अपनी शास्त्रीय चिंतन प्रणाली के निकष पर कसना बहुत दिलचस्प होगा। नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनी ने रंगमंच पर विभाव-अनुभाव और संचारी भाव के परस्पर संयोग से रस की निष्पत्ति की बात कही थी, अर्थात कारण(नाटक), कार्य (अभिनय) और उनके प्रभाव के संयोग से। बाद में आनंदवर्द्धन ने इसमें एक और, स्थायी भाव को जोड़ा जो उनके अनुसार विभाव-अनुभाव-संचारी भाव की प्रक्रिया के विपरीत (बाहर) होने पर भी विभाव-अनुभाव से प्रभाव ग्रहण करने में दर्शकों के चित्त को संस्कारित करने के लिये जरूरी मंथन (चर्वणा) में एक भूमिका अदा करता है। इस स्थायी भाव को आंशिक रूप से काम के औचित्य को तय करने वाला एक भाव कहा जा सकता है।

संघ परिवार का स्थायी भाव धर्म-निरपेक्षता के खिलाफ हिंदुत्व का एकछत्र राज (पादशाही) कायम करना है। इसकी तुलना में कहा जाता है कि वामपंथ का स्थायी भाव पूंजीवाद के विपरीत समाजवाद की स्थापना है। इसी के आधार पर यह राय दे दी जाती है कि दोनों ही संसदीय जनतंत्र के रंगमंच पर अपने-अपने विपरीत स्थायी भाव के साथ उतरे हुए हैं।

लेकिन वामपंथ के इतिहास की गहराई से जांच करें तो पता चलेगा कि भारत में वामपंथियों ने समाजवाद के बजाय जनता के जनवादी राज्य की स्थापना के स्थायी भाव को अपनाया है। समाजवाद उसके आगे की कोई मंजिल हो सकती है, जैसे साम्यवाद को समाजवाद के उत्तरण की मंजिल के तौर पर लिया जाता है। जाहिर है कि जनता के जनवाद की स्थापना का यह स्थायी भाव किसी भी मायने में, भले धर्म-निरपेक्षता का सवाल हो, जनतंत्र का सवाल हो या संपत्ति के अधिकार का भी सवाल हो, भारत के वर्तमान संविधान के विपरीत नहीं है। इसी समझ के तहत अब तक वामपंथ अपना काम करता रहा है, कई राज्यों में उसकी सरकारें भी बनी है और भारतीय जनतंत्र की रक्षा और विस्तार में उसकी एक खास महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है।

इसी आधार पर नि:संकोच यह कहा जा सकता है कि धर्म-निरपेक्ष अन्य पूंजीवादी पार्टियों के साथ वामपंथ का एक स्वाभाविक मेल होना चाहिए, क्योंकि गहराई में जाकर देखने पर संघर्ष के मौजूदा चरण में दोनों के स्थायी भाव में कुछ लाक्षणिक भेदों के अलावा कोई बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन ज्योंही, किसी भी कारणवश, वामपंथ जनता के जनवादी राज्य के बजाय समाजवाद को अपने लक्ष्य के तौर पर अपनाता है, उसका स्थायी भाव पूंजीवादी धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक पार्टियों के विपरीत हो जाता है।

हमारे अनुसार पिछले दिनों भारतीय वामपंथ के पतन के अघटन के तथ्य में इस सचाई की एक बड़ी भूमिका रही है कि अनजाने में ही भारतीय वामपंथ के नये जोशीले नेतृत्व ने जनता के जनवादी राज्य के रणनीतिक लक्ष्य और जन-क्रांतिकारी पार्टी के सांगठनिक सिद्धांत के बजाय क्रमश: समाजवाद और क्रांतिकारी पार्टी के लक्ष्य को अपना लिया और अपने को एक ऐसी संकीर्णतावादी राजनीति के जाल में फंसा लिया, जिसकी कीमत अभी की व्यवहारिक राजनीति के क्षेत्र में उसे हर रोज चुकानी पड़ रही है।

इसी संदर्भ में, उत्तर प्रदेश में, जहां आज वास्तव में भारत में भावी राजनीति की दिशा को तय करने वाली एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी जा रही है, वामपंथियों का यह अलग-थलगपन निश्चित तौर पर गहरी चिंता का विषय है। सारी दुनिया इस सच को जानती है वामपंथी इस देश में मोदी पार्टी को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। फिर भी, वामदलों में उहाँ-पोह की स्थिति हैं ! उनके आचरण से किसी को भी लगेगा कि वे धर्म-निरपेक्षता को किसी भी प्रकार की विभाजक रेखा के रूप में देखने में असमर्थ हैं। इसकी तुलना में, वे नव-उदारवाद से लड़ाई की बात कहते हैं जो, जहां तक सीपीआई(एम) का संबंध है, हम कह सकते हैं, उसके घोषित कार्यक्रम के विपरीत पूंजीवाद के खिलाफ सीधे समाजवाद की स्थापना की लड़ाई के मानिंद है। कहना न होगा, यह पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों के बारे में ही एक भ्रामक समझ का उदाहरण है।

इसीलिये वामपंथी क्रमश: अपने दायरे में सिकुड़ रहे हैं। वाम एकता पर अतिरिक्त बल भी इसीलिये दिया जा रहा है। वामपंथियों का यह अपना दायरा उनकी अपनी सांगठनिक गतिविधियों का दायरा भर है। ऐसे में, जिन तमाम क्षेत्रों में उनका सांगठनिक विस्तार नहीं है, उन सभी जगहों पर उनकी कोई भूमिका भी नहीं है। जिस चुनाव को भारत के आम लोग एक असीम महत्व का चुनाव मानते हैं, वही वामपंथियों के लिये महत्वहीन सा जान पड़ता है। वामपंथियों का अलग मोर्चा की बहादुरी समग्र रूप में वामपंथ की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है।

वामपंथ का वर्तमान नेतृत्व नहीं चाहता कि उसे व्यवस्था की पार्टी के रूप में समझा जाए! लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि ज्योंही आप एक संसदीय व्यवस्था में सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में उतरते हैं, उसी समय आप अपने को प्रकारांतर से व्यवस्था की ही एक पार्टी मान लेते हैं। इसके बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के भ्रमवश आप एक जगह पर होते हुए भी नहीं होते हैं और अपने से अपेक्षित भूमिका से भिन्न कुछ और ही करते हुए दिखाई देने लगते हैं।

सोच के परिप्रेक्ष्य को बदल देने से यथार्थबोध किस प्रकार विरूपित हो जाता है, यह उसी का एक उदाहरण है।


रविवार, 15 जनवरी 2017

यूपी चुनाव और संसदीय राजनीति


-अरुण माहेश्वरी

ग्यारह मार्च अर्थात उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का दिन इस बार भारत की राजनीति का एक ऐसा नया संयोग बिंदु साबित हो सकता है जहाँ से आजादी के बाद के इन सत्तर साल के अब तक के किये-धरे के पूर्ण प्रत्यावर्तन का सिलसिला शुरू होगा।  अर्थात अब तक की राजनीति का पूरा खोल उलट सकता है । आजाद भारत की राजनीति के पहले सर्ग के सभी पात्रों की तमाम संभावनाओं के अंत के प्रदर्शन के बाद एक नये प्रारंभ का सूत्रपात हो सकता है।

भारत के आजादी के बाद की सभी राजनीतिक ताक़तों ने अब तक अपने सकारात्मक और नकारात्मक, सभी पक्षों को पूरी तरह से खोल कर दिखा दिया है । अब तक जो चला है, वह आगे और नहीं चलेगा, इसके संकेत साफ है। और इसके बीच से जो प्रकट हो रहा है वह किसी नई चीज का संज्ञान नहीं है, न ही पुरानी चीजों का संग्रह। यह स्मृति और प्रत्यक्ष दर्शन के नयेपन का संयोग है। यह एक ऐसी पहचान की झलक दे रहा है जो एक ही साथ नया और पुराना , दोनों है। यही है, इसका नवीन को पुरातन के रूप में देखने का चमत्कार, भारत की राजनीति की एक नई अस्मिता की प्राप्ति का जादू । पुरातन को नया बनाने, जो छिपा हुआ है, उसे ज्ञात बनाने, उन दोनों के बीच की पहचान को स्वीकारने के, अभिनवगुप्त की शब्दावली में, प्रत्यभिज्ञा संयोग का बिंदु।

हम सबसे पहले कांग्रेस पार्टी पर ही आते हैं। आज देश की इस सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी ने अब तक अपने पास की सारी अच्छाई-बुराई को उलीच कर अपनी झोली को इस प्रकार खाली कर दिया है कि आगे उसके पास खोने के लिये कुछ नहीं बचा है ; और जिस जीवित प्राणी के पास खोने के लिये कुछ नहीं होता, उसके पास पाने के लिये तो पूरी दुनिया पड़ी होती है ! ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत का नारा देने वालों की अभी की दुर्गति को देख कर नि:संकोच इतना तो कहा ही सकता है कि आगे के नये चरण में कांग्रेस के पुनरोदय, उसके दिन के फिरने की परिस्थितियां बन रही है। पिछले सत्तर साल का सारा राजनीतिक विमर्श मूलत: कांग्रेस पर ही केंद्रित रहा है। फिर भी आज यह लगता है जैसे राजनीति के इस नए मुकाम पर वे सारी चर्चाएं लगभग अप्रासंगिक हो गई है। उनसे न कोई इतिहास की नई सीख मिल सकती है, और न भविष्य का नया रास्ता। इस मायने में कहा जा सकता है कि यह समय एक नये भविष्य के जरिये वर्तमान और अतीत के भी पुनर्लेखन का समय है। इस समय की राजनीतिक चर्चा उन पर ही केंद्रित हो सकती है जो कांग्रेस के विपर्यय से पैदा हुए रिक्त स्थान पर अपना पूर्ण वर्चस्व कायम करने की दंभपूर्ण घोषणा के साथ, ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत के नारे को लेकर आज सत्ता के शीर्ष पर स्थापित है।

आज भारतीय जनता पार्टी की स्थिति इतनी विकट नजर आती है कि जिस काल को उसका स्वर्णिम काल होना चाहिए था, उसी काल में उसने अपने सर्वनिम्न, निकृष्ट रूप को, गुजरात की मोदी-शाह जुगल- जोड़ी की उच्चाकांक्षी मूढ़मति वाली मोदी पार्टी के नग्न रूप के दर्शन दिये हैं। इस मोदी पार्टी की दिक्कत यह है कि उसे एक ओर आरएसएस की जड़मति से जुड़े सांप्रदायिक-सवर्ण आदर्शों के, और दूसरी ओर नव-उदारवाद की वैश्विक स्वछंद उड़ानों के परस्पर-विरोधी कार्यभारों को पूरा करना है। इसके चलते ही इसका पूरा शासन अढ़ाई सालों में ही सभी मोर्चों पर परस्पर-विरोधिता का एक मूर्त रूप बन कर रह गया है। मोदी-शाह युगल अंधेरे में उद्भ्रांत की तरह कुछ टटोलता हुआ इस प्रकार चल रहा है कि कभी एक वर्ग का समर्थन पाना चाहता है तो दूसरे को अपमानित करता है और दूसरे को अपने पास लाना चाहता है तो तीसरे का मान-मर्दन करता है। मोदी जी के कपड़ों की तरह हर रोज बदलती उसकी नीतियों के पीछे की अंधता के मुकाबले उसका व्यवहारिक ढुलमुलपन उसे और भी हास्यास्पद बना दे रहा है। इस सरकार के ओहदो पर बैठे सभी मंत्रियों और नौकरशाहों की सूरत इसी बीच कुछ ऐसी बन गई है जैसे, मार्क्स की शब्दावली में, वह कुछ महत्वाकांक्षी, जलील और लुटेरू लोगों की जमात हो जिसने शासन के ऊंचे ओहदेदारों की तरह की हास्यास्पद संजीदगी के साथ सरकारी पदों की वर्दिया पहन ली है !

परस्पर-विरोधी दबावों के बीच काम कर रही यह सरकार हर रोज एक नये शिगूफे और प्रचार की बाजीगरी से कभी मोदी जी को कभी ‘अचकन-शेरवानी’ वाले नेहरू, तो कभी ‘गुजरात वाले’ पटेल, तो कभी ‘गरीबी हटाओ’ वाली इंदिरा गांधी के स्वांग में पेश करती है, तो फिर कभी ‘सुवक्ता’ वाजपेयी या ‘फकीर’ दीनदयाल का बाना भी पहना दिया करती है। अभी अंत में इन्हें चरखे पर सूत कातने वाले लंगोटीधारी गांधी जी का रूप भी दे दिया गया है !

और, कहना न होगा, ऐसी तमाम फुलझडि़यां छोड़ कर, अंत में नोटबंदी की महाक्रांति से इन्होंने उस पूंजीवादी अर्थतंत्र को ही तहस-नहस कर दिया है, जिसकी रक्षा और विस्तार की कसमें खाकर ही वे सारी दुनिया में बहु-राष्ट्रीय निगमों और समृद्ध प्रवासी भारतीयों के चहेते बने हुए हैं। इस एक कदम से जो विषय अर्थ-व्यवस्था के साधारण नियम के अनुसार ही सबसे पवित्र माना जाता था, उसी का शीलभंग करके महीनों के लिये अर्थ-व्यवस्था से उसके स्वाभाविक वेग को ही छीन लिया गया। कुल मिला कर इस नोटबंदी ने भारत में राज्य तंत्र की पूरी गरिमा को धूल में मिला कर भ्रष्ट और घृणास्पद सा बना दिया है।

पूरे ढाई साल तक आरएसएस और यह मोदी पार्टी एक प्रधानमंत्री की निष्फल विदेश यात्राओं के अलावा कोरी भाषणबाजियों और विज्ञापनबाजियों के प्रबंधन के काम में लगी रही, और जब मोदी जी को लगा कि समय तो उनके लिये रुका हुआ नहीं है, उन्होंने एक झटके में स्वच्छ भारत, जनधन आदि की कोरी फुलझडि़यों को किनारे रख कर नोटबंदी का ऐसा मौलिक बम फोडा कि आज तक जानकारों को इसके पीछे के तर्क-कुतर्क का रहस्य ही समझ में नहीं आ रहा है । जब कतारों मे खड़े मर रहे लोगों में से ही कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि 'यह काम तो बहुत अच्छा हुआ', तब स्वाभाविक तौर पर सभी विचारवानों को आम लोगों को बेवजह दंडित करके अपने पक्ष में लेने का यह खेल और भी मायावी लगने लगता है।

पूरी भाजपा आज यह तो जानती है कि उसने अपने परंपरागत मतों के आधार को तो काफी हद तक गंवा दिया है, लेकिन मोदी-शाह की माया ने उन्हें इस बात से बांध रखा है कि जो उन्होने खोया है, उसकी तुलना में उनकी प्राप्ति बहुत ज्यादा होने वाली है । क्यों होने वाली है ? इस सवाल का किसी के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। बस विश्वास है जिसका हमेशा ही तर्क के अंदर की दरारों को भरने के लिये इस्तेमाल किया जाता है ! स्वपन दासगुप्त की तरह का पत्रकार इस मामले में थोड़ा बेशर्म होकर यहां तक कह जाता है कि मोदी-शाह ने लोगों की ईर्ष्या नामक सबसे अधम वृत्ति को जगाने में सफलता पाई है, और मनुष्यों की यह ‘उद्बुद्ध’ नीचता ही उनसे मोदी-शाह गिरोह के लिये काम करवायेगी ।(देखिये, टेलिग्राफ, 12 जनवरी 2017)

सहारा-बिड़ला कागजातों ने तो अब प्रेत-रूप धारण करके मारन की भारी तांत्रिक शक्ति को प्राप्त कर लिया है। कोई भी समझ सकता है, चीजें किस दिशा में जा रही है !


इसी सिलसिले में कुछ और राजनीतिक ताकतों की ओर नजर डालना भी प्रासंगिक होगा। कांग्रेस और भाजपा के अलावा तीसरे अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य वाले वामपंथी खेमे ने इन सत्तर सालों में अब जैसे अपने लिये दो-तीन राज्यों की क्षयिष्णु 'अखिल भारतीय पार्टी' की नियति को अंतिम सत्य की तरह मान लिया है । उसके नेतृत्व का यह भारी यथार्थबोध ही आज उसके पैरों की सबसे बड़ी जंजीर बन गई है ।


और, जहां तक समाजवादी पार्टी, बसपा आदि की तरह की पार्टियों का सवाल है, इनकी सीमित आकांक्षाएँ जैसी थी, वैसी ही सदा के लिये बनी रहने की अपनी अंतिम नियति का उद्घोष कर चुकी है । उत्तर प्रदेश में वे सत्ता के प्रबल दावेदार थे, हैं और शायद आगे भी रहेंगे । और यही वे ताकते हैं जो इस विशाल प्रदेश में अपनी भूमिका से अखिल भारतीय राजनीति के आगे कुछ ऐसे  नये समीकरण पैदा कर सकती हैं, जो 2019 तक आते-आते पूरी भारतीय राजनीति के खोल को ही पलट दें ।

इन्हीं तमाम कारणों से उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में जो पक रहा है, उसमें हम अखिल भारतीय राजनीति के लिये दूरगामी परिणाम का संयोग बिंदु देख पा रहे हैं । आज की दुनिया में दक्षिणपंथ की ओर दिखाई दे रहे नये रुझान की उल्टी यात्रा भी यहीं से शुरू होकर दुनिया में फिर एक बार वाम-केंद्रित नई उदार जनतांत्रिक राजनीति का श्रीगणेश कर सकती है।  यूरोप में ब्रेक्सिट वालों का, और अमेरिका में ट्रंप का भी तब तक अपने कार्यकाल के मध्य में ही मोदी की तरह दम फूलने लगेगा ।

इसीलिये बीस करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले भारत के उत्तर प्रदेश के ये चुनाव हमारी नजर में सारी दुनिया की राजनीति की दिशा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित होंगे।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

दुनिया की संसदीय राजनीति में उत्तर प्रदेश के चुनाव


-अरुण माहेश्वरी




ग्यारह मार्च अर्थात उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का दिन, इस बार भारत की राजनीति का एक ऐसा नया संयोग बिंदु साबित हो सकता है जहाँ से आजादी के बाद के इन सत्तर साल के अब तक के किये-धरे के पूर्ण प्रत्यावर्तन का सिलसिला शुरू होगा।  अर्थात अब तक की राजनीति का पूरा खोल उलट सकता है । आजाद भारत की राजनीति के पहले सर्ग के सभी पात्रों की तमाम संभावनाओं के अंत के प्रदर्शन के बाद एक नये प्रारंभ का सूत्रपात हो सकता है।

भारत के आजादी के बाद की सभी राजनीतिक ताक़तों ने अब तक अपने सकारात्मक और नकारात्मक, सभी पक्षों को पूरी तरह से खोल कर दिखा दिया है । अब तक जो चला है, वह आगे और नहीं चलेगा, इसके संकेत साफ है। और इसके बीच से जो प्रकट हो रहा है वह किसी नई चीज का संज्ञान नहीं है, न ही पुरानी चीजों का संग्रह। यह स्मृति और प्रत्यक्ष दर्शन के नयेपन का संयोग है। यह एक ऐसी पहचान की झलक दे रहा है जो एक ही साथ नया और पुराना , दोनों है। यही है, इसका नवीन को पुरातन के रूप में देखने का चमत्कार, भारत की राजनीति की एक नई अस्मिता की प्राप्ति का जादू । पुरातन को नया बनाने, जो छिपा हुआ है, उसे ज्ञात बनाने, उन दोनों के बीच की पहचान को स्वीकारने के, अभिनवगुप्त की शब्दावली में, प्रत्यभिज्ञा संयोग का बिंदु।

हम सबसे पहले कांग्रेस पार्टी पर ही आते हैं। आज देश की इस सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी ने अब तक अपने पास की सारी अच्छाई-बुराई को उलीच कर अपनी झोली को इस प्रकार खाली कर दिया है कि आगे उसके पास खोने के लिये कुछ नहीं बचा है ; और जिस जीवित प्राणी के पास खोने के लिये कुछ नहीं होता, उसके पास पाने के लिये तो पूरी दुनिया पड़ी होती है ! ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत का नारा देने वालों की अभी की दुर्गति को देख कर नि:संकोच इतना तो कहा ही सकता है कि आगे के नये चरण में कांग्रेस के पुनरोदय, उसके दिन के फिरने की परिस्थितियां बन रही है। पिछले सत्तर साल का सारा राजनीतिक विमर्श मूलत: कांग्रेस पर ही केंद्रित रहा है। फिर भी आज यह लगता है जैसे राजनीति के इस नए मुकाम पर वे सारी चर्चाएं लगभग अप्रासंगिक हो गई है। उनसे न कोई इतिहास की नई सीख मिल सकती है, और न भविष्य का नया रास्ता। इस मायने में कहा जा सकता है कि यह समय एक नये भविष्य के जरिये वर्तमान और अतीत के भी पुनर्लेखन का समय है। इस समय की राजनीतिक चर्चा उन पर ही केंद्रित हो सकती है जो कांग्रेस के विपर्यय से पैदा हुए रिक्त स्थान पर अपना पूर्ण वर्चस्व कायम करने की दंभपूर्ण घोषणा के साथ, ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत के नारे को लेकर आज सत्ता के शीर्ष पर स्थापित है।

आज भारतीय जनता पार्टी की स्थिति इतनी विकट नजर आती है कि जिस काल को उसका स्वर्णिम काल होना चाहिए था, उसी काल में उसने अपने सर्वनिम्न, निकृष्ट रूप को, गुजरात की मोदी-शाह जुगल- जोड़ी की उच्चाकांक्षी मूढ़मति वाली मोदी पार्टी के नग्न रूप के दर्शन दिये हैं। इस मोदी पार्टी की दिक्कत यह है कि उसे एक ओर आरएसएस की जड़मति से जुड़े सांप्रदायिक-सवर्ण आदर्शों के, और दूसरी ओर नव-उदारवाद की वैश्विक स्वछंद उड़ानों के परस्पर-विरोधी कार्यभारों को पूरा करना है। इसके चलते ही इसका पूरा शासन अढ़ाई सालों में ही सभी मोर्चों पर परस्पर-विरोधिता का एक मूर्त रूप बन कर रह गया है। मोदी-शाह युगल अंधेरे में उद्भ्रांत की तरह कुछ टटोलता हुआ इस प्रकार चल रहा है कि कभी एक वर्ग का समर्थन पाना चाहता है तो दूसरे को अपमानित करता है और दूसरे को अपने पास लाना चाहता है तो तीसरे का मान-मर्दन करता है। मोदी जी के कपड़ों की तरह हर रोज बदलती उसकी नीतियों के पीछे की अंधता के मुकाबले उसका व्यवहारिक ढुलमुलपन उसे और भी हास्यास्पद बना दे रहा है। इस सरकार के ओहदो पर बैठे सभी मंत्रियों और नौकरशाहों की सूरत इसी बीच कुछ ऐसी बन गई है जैसे, मार्स्  की शब्दावली में, वह कुछ महत्वाकांक्षी, जलील और लुटेरू लोगों की जमात हो जिसने शासन के ऊंचे ओहदेदारों की तरह की हास्यास्पद संजीदगी के साथ सरकारी पदों की वर्दिया पहन ली है !

परस्पर-विरोधी दबावों के बीच काम कर रही यह सरकार हर रोज एक नये शिगूफे और प्रचार की बाजीगरी से कभी मोदी जी को कभी ‘अचकन-शेरवानी’ वाले नेहरू, तो कभी ‘गुजरात वाले’ पटेल, तो कभी ‘गरीबी हटाओ’ वाली इंदिरा गांधी के स्वांग में पेश करती है, तो फिर कभी ‘सुवक्ता’ वाजपेयी या ‘फकीर’ दीनदयाल का बाना भी पहना दिया करती है। अभी अंत में इन्हें चरखे पर सूत कातने वाले लंगोटीधारी गांधी जी का रूप भी दे दिया गया है !

और, कहना न होगा, ऐसी तमाम फुलझडि़यां छोड़-छोड़ कर, अंत में नोटबंदी की महाक्रांति से इन्होंने उस पूंजीवादी अर्थतंत्र को ही तहस-नहस कर दिया है, जिसकी रक्षा और विस्तार की कसमें खाकर ही वे सारी दुनिया में बहु-राष्ट्रीय निगमों और समृद्ध प्रवासी भारतीयों के चहेते बने हुए हैं। अपने इस एक कदम से जो विषय अर्थ-व्यवस्था के साधारण नियम के अनुसार ही सबसे पवित्र माना जाता था, उसी का शीलभंग करके महीनों के लिये अर्थ-व्यवस्था से उसके स्वाभाविक वेग को ही छीन लिया गया।

कुल मिला कर इस नोटबंदी ने भारत में राज्य तंत्र की पूरी गरिमा को धूल में मिला कर भ्रष्ट और घृणास्पद सा बना दिया है। जो संघी मोदी जी को मुगलों के भी हजारों साल पहले के सम्राट अशोक के नये अवतार में पेश करना चाहते थे, आज स्थिति ऐसी है कि जब तक उन्हें वे सम्राट अशोक के बाने में उतार पायेंगे, भारत राष्ट्र के अशोक चक्र का स्तंभ ही कहीं किसी कोने में धराशायी दिखाई देने लगेगा।

आरएसएस जिसने हिंदू धर्म के पूरे ढांचे को बदलने का दायित्व ले रखा है, आज जनता में जहां पुरानी धार्मिक रूढि़वादिता से घबड़ाता है, शंकराचार्यों की पीठों से तो खास तौर पर नफरत करता है, वहीं जनता की क्रांतिकारी प्रबुद्धता देख कर तो उसकी रूह तक कांप जाती है। इसीलिये, अब उसने भी अपनी बाकी सारी संभावनाओं को त्याग कर मोदी-शाह के साथ अपनी नियति को अंतिम रूप से जोड़ लिया है।

पूरे ढाई साल तक आरएसएस और यह मोदी पार्टी एक प्रधानमंत्री की निष्फल विदेश यात्राओं के अलावा कोरी भाषणबाजियों और विज्ञापनबाजियों के प्रबंधन के काम में लगी रही, और जब मोदी जी को लगा कि समय तो उनके लिये रुका हुआ नहीं है, उन्होंने एक झटके में स्वच्छ भारत, जनधन आदि की कोरी फुलझडि़यों को किनारे रख कर नोटबंदी का ऐसा मौलिक बम फोडा कि आज तक जानकारों को इसके पीछे के तर्क-कुतर्क का रहस्य ही समझ में नहीं आ रहा है । जब कतारों मे खड़े मर रहे लोगों में से ही कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि 'यह काम तो बहुत अच्छा हुआ', तब स्वाभाविक तौर पर सभी विचारवानों को आम लोगों को बेवजह दंडित करके अपने पक्ष में लेने का यह खेल और भी मायावी लगने लगता है।

पूरी भाजपा आज यह तो जानती है कि उसने अपने परंपरागत मतों के आधार को तो काफी हद तक गंवा दिया है, लेकिन मोदी-शाह की माया ने उन्हें इस बात से बांध रखा है कि जो उन्होने खोया है, उसकी तुलना में उनकी प्राप्ति बहुत ज्यादा होने वाली है । क्यों होने वाली है ? इस सवाल का किसी के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। बस विश्वास है जिसका हमेशा ही तर्क के अंदर की दरारों को भरने के लिये इस्तेमाल किया जाता है ! स्वपन दासगुप्त की तरह का पत्रकार इस मामले में थोड़ा बेशर्म होकर यहां तक कह जाता है कि मोदी-शाह ने लोगों की ईर्ष्या नामक सबसे अधम वृत्ति को जगाने में सफलता पाई है, और मनुष्यों की यह ‘उद्बुद्ध’ नीचता ही उनसे मोदी-शाह गिरोह के लिये काम करवायेगी ।(देखिये, टेलिग्राफ, 12 जनवरी 2017) अर्थात, मोदी पार्टी के रूप में भाजपा अब लोगों में अवशिष्ट पशु-वृत्तियों के पोषण की पार्टी बन कर उसका लाभ उठाने की फिराक में है !

बहरहाल, इन अढ़ाई सालों के मोदी शासन का कुल जमा परिणाम यह है कि हर दिशा से थोथी बातों, विज्ञापनबाजियों, और हवाई तलवारबाजियों का भारी शोर सुनाई देरहा है। इसमें अब खुद मोदी-शाह जोड़ी का ही सर चकराने लगा है। फाइलों की गहराई में उतरने से नफरत करने वाले मोदी जी संसद और पत्रकारों से भाग रहे हैं। पाकिस्तान, चीन और अमेरिका पर उनके वशीकरण मंत्र की विफलता ने प्रवासियों के बीच इनके चैन में सेंधमारी कर दी है। ऊपर से हमेशा बना हुआ सुप्रीम कोर्ट का खौफ ! सहारा-बिड़ला कागजातों ने तो अब प्रेत-रूप धारण करके मारन की भारी तांत्रिक शक्ति को प्राप्त कर लिया है। कोई भी समझ सकता है, चीजें किस दिशा में जा रही है !

इसी सिलसिले में कुछ और राजनीतिक ताकतों की ओर नजर डालना भी प्रासंगिक होगा। कांग्रेस और भाजपा के अलावा तीसरे अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य वाले वामपंथी खेमे ने इन सत्तर सालों में अब जैसे अपने लिये दो-तीन राज्यों की क्षयिष्णु 'अखिल भारतीय पार्टी' की नियति को अंतिम सत्य की तरह मान लिया है । उसके नेतृत्व का यह भारी यथार्थबोध ही आज उसके पैरों की सबसे बड़ी जंजीर बन गई है ।कुछ सिरफिरे भले इनसे अपेक्षाएं करते रहे, लेकिन ये राजनीति के 'ईश्वरीय' गणित में अभी अपने लिये कोई जगह नहीं ढूंढ पा रहे हैं । अपने मठों में दीया-बत्ती करके समय के फिरने के इंतजार में संतोष का जीवन जी रहे हैं । उत्तर प्रदेश और बाकी हिंदी क्षेत्र तो इनके लिये मानों प्रतिबंधित क्षेत्र का रूप ले चुके हैं । इस क्षेत्र में प्रवेश की गंभीर कोशिश पर इनका विश्वास और भी डगमगाया हुआ है क्योंकि इनके प्रभाव के परंपरागत क्षेत्रों में ही ये अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। राजनीति के दूसरे ‘नैतिक’ मानदंडों पर शत-प्रतिशत खरी उतरने वाली वामपंथी ताकतों की यह भौतिक दुर्दशा सचमुच सामाजिक इतिहासों के अध्ययन के बारे में कुछ और ही सोचने के लिये प्रेरित करती है। यह हर व्यक्ति या समूह की अपनी आत्मिकता की भौतिक सचाई से जुड़ा विषय है। जीवन की हर चीज को बाह्य अर्थात हमारे से स्वतंत्र भौतिक परिस्थतियां ही तय नहीं करती है। उल्टे हमारा अंतर भी हमारे जीवन के सच को परिभाषित करने में समान भूमिका अदा करता है। वामपंथ की आंतरिक सांगठनिक संरचना उसे अपने अंदर ही अंदर गुंथ कर बढ़ने की मजबूरी में डाले हुए है, अर्थात वह उसके स्वाभाविक वेग में एक आंतरिक जड़ता (inertia) की भूमिका अदा कर रही है। इससे उबरने के अपने सभी ईमानदारीपूर्ण प्रयत्नों में भी वह अपनी इस आंतरिक संरचना के बंधनों से बाहर जाने में असमर्थ है।

और, जहां तक समाजवादी पार्टी, बसपा आदि की तरह की पार्टियों का सवाल है, इनकी सीमित आकांक्षाएँ जैसी थी, वैसी ही सदा के लिये बनी रहने की अपनी अंतिम नियति का उद्घोष कर चुकी है । उत्तर प्रदेश में वे सत्ता के प्रबल दावेदार थे, हैं और शायद आगे भी रहेंगे । और यही वे ताकते हैं जो इस विशाल प्रदेश में अपनी भूमिका से अखिल भारतीय राजनीति के आगे कुछ ऐसे  नये समीकरण पैदा कर सकती हैं, जो 2019 तक आते-आते पूरी भारतीय राजनीति के खोल को ही पलट दें ।

इन्हीं तमाम कारणों से उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में जो पक रहा है, उसमें हम अखिल भारतीय राजनीति के लिये दूरगामी परिणाम का संयोग बिंदु देख पा रहे हैं । मोदी की बढ़ती हुई अप्रासंगकिता और हास्यास्पदता और राहुल गांधी में एक नये प्रकार के आत्म विश्वास के उभार से कांग्रेस के लोगों में पैदा हो रहा उत्साह एक युवा और आधुनिक नेतृत्व के जो संकेत दे रहा है, उत्तर प्रदेश का चुनाव अभियान उसे आगे बढ़ाने में कितना सहायक होता है, उसी पर इस संयोग के स्फुरण का स्वरूप निर्भर करेगा । और कहना न होगा, आज की दुनिया में दक्षिणपंथ की ओर दिखाई दे रहे नये रुझान की उल्टी यात्रा भी यहीं से शुरू होकर दुनिया में फिर एक बार वाम-केंद्रित नई उदार जनतांत्रिक राजनीति का श्रीगणेश कर सकती है।  यूरोप में ब्रेक्सिट वालों का, और अमेरिका में ट्रंप का भी तब तक अपने कार्यकाल के मध्य में ही मोदी की तरह दम फूलने लगेगा ।

इसीलिये बीस करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले भारत के उत्तर प्रदेश के ये चुनाव हमारी नजर में सारी दुनिया की राजनीति की दिशा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित होंगे।

अंत में, प्रसाद जी की कामायनी के प्रथम अंक के इन पदों से अपनी बात खत्म करूंगा :

‘‘काला शासन-चक्र मृत्यु का
कब तक चला न स्मरण रहा,
महा मत्स्य का एक चपेटा
दीन पोत का मरण रहा।

किंतु उसी ने ला टकराया
इस उत्तर-गिरि के शिर से,
देव सृष्टि का ध्वंस अचानक
स्वास लेने लगा फिर से।’’





बुधवार, 11 जनवरी 2017

पुस्तकों के प्रकाशन में सरकार की ओर से कोई भी बाधा अनैतिक है


-अरुण माहेश्वरी


नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से घूम कर आने वाले कुछ मित्रों ने बताया है कि मोदी सरकार पुस्तकों के प्रकाशन में बाधाएँ डाल रही है । वह प्रकाशकों को आईएसबीएन नंबर देने के पहले उनसे पुस्तक के बारे में विस्तृत जानकारी माँगती है और फिर तय करती है कि किसे यह नंबर दें, किसे न दें ।

आईएसबीएन नंबर का मतलब है इंटरनेशनल स्टैंडर्ड बुक नंबर । यह सारी दुनिया में किताबों की पहचान के लिये तैयार की गई संख्या है ताकि उनके बारे में आसानी से दुनिया में सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सके । अभी यह तेरह अंकों की एक संख्या है जिससे पुस्तक की भाषा, प्रकाशन के देश आदि कई मूलभूत जानकारियां उस संख्या से ही दुनिया के लोगों को मिल सकती है । इसीलिये स्वाभाविक तौर पर इस संख्या का चलन आज के ज़माने में काफी बढ़ गया है क्योंकि इससे बाज़ार में किताब के चलन में सहूलियत होती है । इसका संबंध पुस्तकों की कैटलॉगिंग के अलावा और किसी चीज से नहीं है । भारत में यह नंबर देने का ज़िम्मा राजा राजमोहन राय नेशनल एजेंसी के पास है ।

कई देशों में कुछ निजी कंपनियाँ भी ये नंबर दिया करती है । भारत में राजा राजमोहन राय नेशनल एजेंसी सरकारी संस्थान है और इसी का मातृ-संस्थान राजा राजमोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन भारत सरकार की ओर से देश भर के पुस्तकालयों के लिये किताबों की बड़े पैमाने पर ख़रीद करता है ।

पिछले दिनों यह शिकायत तो सुनने को मिल रही थी कि अभी इस संस्थान से सिर्फ आरएसएस से क़रीबी संबंध रखने वाले प्रकाशकों और लेखकों की किताबें ख़रीदी जाती है । फिर भी भ्रष्टाचार को हमेशा से देखते रहने के अभ्यस्त लोग संघी प्रशासकों के भ्रष्टाचार की इस खबर की अनदेखी कर रहे थे । लेकिन अब यदि इस संस्थान के अधिकारियों का हौसला इतना बढ़ गया है कि वे पुस्तकों के प्रकाशन के मामले में भी टाँग अड़ाने लगे हैं तो इसे हम एक बेहद ख़तरनाक रुझान कहेंगे । इसके बाद नोटबंदी की तरह ही भारत में पुस्तकबंदी/ज्ञानबंदी का अभियान शुरू हो सकता है जिसमें ये दलीलें दी जायेगी कि पुस्तकों के जगत में नैतिक उत्थान की पुस्तकों के प्रकाशन के बजाय नैतिक पतन की पुस्तकों का एक समानांतर संसार तैयार हो गया है । अश्लील, उग्रवादी, नक्सलपंथी और दूसरी तमाम 'अनैतिकताओं' से भरी किताबों का धड़ल्ले से प्रकाशन किया जा रहा है । इस पर रोक लगा कर राष्ट्र के नैतिक स्वास्थ्य की रक्षा करना सरकार का कर्त्तव्य है ।

और तो और, यह भी संभव है कि जैसे हिटलर ने जर्मनी में बाक़ायदा अनेक पुस्तकों को ज़ब्त करके उनकी होली जलाई थी, कुछ-कुछ उसी प्रकार का हमारे यहाँ पुस्तकों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' का प्रयोग शुरू हो जाए और हुबहू नोटबंदी की तर्ज़ पर वह अभियान इस डिजिटल युग में पुस्तकलेस जीवन को अपनाने के अभियान की दिशा पकड़ लें !

आज जीवन के कई अनुभव बता रहे हैं कि जैसे हमें साढ़े छ: सौ साल पहले के तुगलकी ज़माने में भेज दिया जा रहा है । तुग़लक़ और हिटलर के मेल के डिजिटल अवतार के दिये हुए नोटबंदी के ज़ख़्म तो अभी रिस ही रहे है, उस पर यह ज्ञानबंदी का प्रहार ! क्या इस सरकार ने भारतवासियों को हर लिहाज से कंगाल बना देने का कोई प्रण ले रखा है !

आज जरूरी है कि देश भर के सभी प्रकाशक और लेखक आईएसबीएन के बहाने पुस्तकों के प्रकाशन की दुनिया में बेजा सरकारी दख़लंदाज़ी की हर कोशिश के खिलाफ आवाज़ उठाए । यह सीधे तौर पर हम सबकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का सवाल है । आजादी की लड़ाई ने हमें अपनी क़लम से तलवार का मुक़ाबला करने की संस्कृति दी है । यह हमारी स्वतंत्रता की उस संस्कृति पर हमले की कोशिश है ।












मंगलवार, 10 जनवरी 2017

नया साल नोटबंदी के ज़ख़्मों को भरने का साल होगा


-अरुण माहेश्वरी

नोटबंदी के बाद, 31 दिसंबर को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में मोदी जी ने जो प्रमुख बात कही वह थी बैंकों को उनका परामर्श कि अब जितनी जल्दी हो, नगदी की स्थिति को सामान्य करो। वैसे उनकी दूसरी सभी बातों की तरह ही यह भी एक खोखली बात ही थी क्योंकि बात कह देने मात्र से ही तो नगदी की स्थिति सामान्य हो नहीं जायेगी। इसके लिये नोट छापने पड़ेंगे और इस छपाई में ही अभी इतना समय लगना है कि आगामी तीन महीनों तक भी नगदी की स्थिति सामान्य नहीं होगी ।बहरहाल, तभी से अखबारों में एक ही स्वर सुनाई देने लगा है कि जितनी जल्द संभव हो, देश को नोटबंदी के दुष्प्रभावों से मुक्त करो।

'टेलिग्राफ़' में नीति आयोग के लोगों की मनोदशा के बारे में यह खबर थी कि वे मोदी जी के कल के भाषण को लेकर बहुत डरे हुए थे । उन्हें लग रहा था कि वे लोगों को डराने वाली फिर और कोई घोषणा न कर बैठे, जिसे संभालना मुश्किल होगा । नीति आयोग वाले यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आगे डिजिटलाइजेशन का अभियान वे कैसे चलायेंगे !

इसी अखबार में आकार पटेल का लेख इसी बात पर केंद्रित था कि भारत को मोदी जी नामक इस महान प्रतिभा की करतूतों से कैसे बचाया जाए । उन्होंने ऐसी प्रतिभा के जन्म पर प्रकाश डालते हुए 2014 में मधु किश्वर को दिये गये मोदी जी के एक साक्षात्कार का जिक्र किया  जिसमें मोदी जी अपने काम करने की पद्धति के बारे में बताते हैं कि वे फ़ाइलों की गहराई में जाना बिल्कुल पसंद नहीं करते । बस लोगों की बातें सुन कर सारे विषय को समझ लेते हैं और फिर काम में लग जाते हैं । 'मेरा इतना ग्रास्पिंग है' ।

मोदी जी की ग्रास्पिंग कितनी है, इसे उनके इस राष्ट्र के नाम संबोधन की बातों की थोड़ी से गहराई में जाने से ही अच्छी तरह पहचाना जा सकता है। मसलन, उन्होंने कहा कि नगदी से मुद्रा-स्फीति होती है। कोई भी पूछ सकता है कि कैसे ? क्या करेंसी में आत्म-विस्तार का कोई ऐसा अन्तर्निहित गुण होता है, जैसे पूँजी में होता है । उपभोग के काम में आने वाली राशि का तो कोई विस्तार नहीं होता है, और नगदी का प्रयोग अधिकांशत: आम लोगों द्वारा निजी उपभोग के लिये किया जाता है । इसके विपरीत सच यह है कि जब रुपया बैंक में जमा किया जाता है, वह अपने आप बढ़ने लग जाता है । रिजर्व बैंक में सीआरआर (कैस रिजर्व रेशियो) का मतलब यही है कि बैंकों को रिजर्व बैंक के पास अपनी जमा पूँजी का एक निश्चित अनुपात (अभी चार प्रतिशत)जमा कराना पड़ता है और उसे बाक़ी जमा राशि को बाज़ार में निवेश के लिये अनुमति मिल जाती है । यह बाकी जमा राशि पूँजी की तरह नाना रूपों में अपना आत्म-विस्तार करती है। बैंकों के ज़रिये यह सेविंग्स डिपोजिट तथा दूसरे ऐसे तमाम प्रामिसरी नोटों के रूप में करेंसी की तुलना में अपना कई गुना विस्तार कर लेती है, और इन सबको अर्थ-व्यवस्था में नगदी के समकक्ष ही माना जाता है । जब भी चलन में लगी हुई कुल मुद्रा का हिसाब किया जाता है तो मुद्रा के करेंसी नोट के अलावा ऐसे अन्य सभी रूपों को भी उसमें जोड़ कर देखा जाता है।  अर्थात] मुद्रा-स्फीति का मुद्रा के नगदी रूप से ज्यादा नहीं, बैंक में जमा रूप से ज्यादा सीधा संबंध होता है । अर्थशास्त्र के अनुसार उन सबको बाज़ार में उपलब्ध रुपये के तौर पर हीमाना जाता है ।

मोदी जी बहुत ख़ुशी के साथ बता रहे थे कि बैंकों में इतिहास में पहली बार इतना रुपया जमा हुआ है, इससे बैंकों को भारी लाभ होगा । उन्हें अनुमान नहीं है कि उन्होंने अर्थ-व्यवस्था को ऐसा धक्का दिया है कि यह ढेर सारा धन बैंकों के लिये आफ़त भी साबित हो सकता है । बाज़ार में पहले से ही क़र्ज़ की मांग कम है, और मोदी जी लाख कोशिश कर लें, बैंकें कभी भी उन लोगों को क़र्ज़ नहीं देगी जिनसे उगाही को लेकर वे आश्वस्त नहीं होगी । यह दूसरी बात है कि सरकारी ख़ज़ाने से अतिरिक्त मदद मिलने पर वे कुछ रुपये ऐसे जोखिम के क्षेत्र में भी डाल दें । इसके अलावा भले मोदी जी न जानते हो, सारे बैंकर जानते हैं कि यह ढेर सारा रुपया लोगों के घरों से ज़ोर-ज़बर्दस्ती खींचा गया है । जैसे ही मौका मिलेगा, लोग इसे वापस उठाने की जी-जान से कोशिश करेंगे । मोदी जी अनंत काल तक उसे बैंकों में अटका के नहीं रख पायेंगे । ऐसे में बैंकें इस जल्द ही काफ़ूर हो जाने वाली राशि को किसी भी दीर्घकालीन क़र्ज़ में नहीं लगा पायेगी । अर्थात ख़तरा यह भी है कि वे जमा राशि पर सिर्फ ब्याज चुकायेगी, उससे आमदनी करना उनके लिये सबसे टेढ़ी खीर साबित होगा । पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने स्तंभ में तमाम आँकड़ों के ज़रिये बताया है कि बैंकों से ऋण लेने वालों में गिरावट आ रही है, बैंकों की डूबत (एनपीए) तेज़ी से बढ़ रही है । 2015 में जो 5.1 प्रतिशत थी, वह 2016 में 9.1 प्रतिशत हो गयी है । यह बैंकों पर दोहरी मार है ।

मोदी जी का भाषण ऐसी ही तमाम ग़ैर-यथार्थवादी बातों से भरा हुआ था । जो आयकर विभाग अब तक ऐसे सिर्फ 24 लाख लोगों की सिनाख्त कर पाया है जो अपनी आमदनी दस लाख से ज्यादा बताते हैं, उस विभाग को नोटबंदी कैसे इतना सक्षम बना देगी कि वह तमाम छूटे हुए लोगों को अब आयकर के दायरे में ले आयेगा, इसका कोई तर्क समझ में नहीं आता है । इसके अलावा प्रधानमंत्री तथ्यों के पीछे की छिपी हुई सचाइयों पर ध्यान क्यों नहीं देते ? इनके पीछे समाज की इतनी जटिलताएँ छिपी होती है कि आप कभी भी प्रत्यक्ष से सचाई को नहीं जान सकेंगे । लोगों की गाड़ी-बाड़ी वाली सम्पत्तियों में उपभोक्ता समाज के सबसे प्रमुख चालक तत्व निजी क़र्ज़ आदि की क्या भूमिका होती है, इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है । अमेरिका का सब-प्राइम संकट ऐसे ही पैदा नहीं हुआ था ।


मोदी जी की अर्थनीति के बारे में ऐसी समझ से ही उनके इन तमाम अद्भुत कामों, नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, बुलेट ट्रेन, आदि-आदि बातों के उत्स को समझा जा सकता है । उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि अर्थ-व्यवस्था में नगदी की कमी से विपत्ति आती है। तो उनसे किसी का भी एक सीधा सा सवाल होगा कि हमारे यहां इस विपत्ति को कौन लाया ?

आज सारी दुनिया के अर्थशास्त्री, सभी देशों की सरकारें खुर्दबीन के साथ भारत में इस ‘भूतो न भविष्यति’ वाले ‘नोटबंदी’ के कदम के अंतिम परिणामों की जांच कर रहे हैं। मोदी जी ने अपनी एक सभा में भले ही ताली बजा कर यह ऐलान कर दिया कि वे तो चुहिया की तलाश में निकले थे और किसानों का दाना खाने वाली ‘चुहिया’ उन्हें मिल गई; वे बेहद खुश है। उनके लिये हर चीज का मानदंड उनकी निजी खुशी-नाखुशी हो सकती है, लेकिन दुनिया को उनके ऐसे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं है ! वे तो सबके सब मोदी जी की इस महान कृपा के लिये उनके प्रति अंतर से आभारी है कि उन्होंने बिना मांगे ही भारत की तरह के एक विशाल और अभी तेज गति से विकसित हो रहे राष्ट्र को नये डिजिटल युग के अर्थशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक गिनिपिग (परीक्षण की चीज) बना दिया।

आज के समय को दुनिया में ‘नया डिजिटल युग’ कहा जा रहा हैं। गूगल कंपनी के कार्यकारी अध्यक्ष एरिक स्मिथ और उसके निदेशक जर्ड कोहेन की प्रसिद्ध किताब है - The New Digital Age। 2013 में प्रकाशित इस किताब में आज के समाज और इसके भावी रूप के बारे में अवलोकन और भविष्यवाणी पर बहुत चर्चा होती है। इसका पहला वाक्य ही इस कथन से शुरू होता है कि ‘‘मनुष्यों द्वारा निर्मित विरल चीजों में एक इंटरनेट एक ऐसी चीज है जिसे खुद मनुष्य सचमुच नहीं समझ रहा है।’’

और, आगे पूरी 260 पन्नों की यह किताब ‘इतिहास में सब-कुछ तहस-नहस कर देने वाले इस सबसे बड़े प्रयोग, इंटरनेट’ के परिणामों के नाना रूपों का आख्यान है। लेकिन इस प्रसिद्ध किताब की सारी कथाएं विकसित देशों में इंटरनेट और डिजिटलाइजेशन के क्रमिक प्रसार से जुड़ी कथाएं है। दुनिया में किसी के पास भी इस बात के कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है कि एक विकासमान गरीब देश में किसी सरकार द्वारा आम लोगों पर डिजिटलाइजेशन को जबर्दस्ती लादने के क्या परिणाम हो सकते हैं ।

हमारे प्रधानमंत्री ने मुफ्त में ही दुनिया के ऐसे सभी अध्येताओं, संगठनों और सरकारों को वे सारे प्रत्यक्ष आंकड़े मुहैय्या कराने का काम कर दिया है जिनसे अब वे अपने समाजों में डिजिटलाइजेशन के बारे में अधिक ठोस रूप में विचार करके विवेक-संगत नियम और नीतियां अपना सकेंगे। और, साथ ही साम्राज्यवादी देशों को तो दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने में इस नई तकनीक के सटीक प्रयोग की रणनीति तैयार करने के लिये बहुत जरूरी तथ्य आसानी से मिल जायेंगे।

आज बहुत याद आ रही है कार्ल मार्क्स के उन लेखों की जो उन्होंने ‘उपनिवेशों के बारे में’ लिखे थे। इसमें 1853 का एक लेख है - चीन और यूरोप की क्रांति। चीन में अंग्रेजों की तोप के बल पर भारी मात्रा में किये गये अफीम के निर्यात से उत्पन्न परिस्थिति के बारे में मार्क्स लिखते हैं, ‘‘यह दावा विचित्र और विरोधाभासों से भरा लग सकता है कि यूरोप के लोगों का अगला विद्रोह और राज्य-व्यवस्था में जनतांत्रिक स्वतंत्रता ओर आर्थिक दृष्टि से शासन की बेहतर व्यवस्था के लिये चल रही लड़ाइयों का अगला दौर बहुत कुछ उन घटनाओं पर निर्भर करेगा जो आजकल यूरोप से बिल्कुल भिन्न - ‘दैवी-साम्राज्य’ (चीन-अ.मा.) - में घट रही है।"

इस लेख में मार्क्स ने चीन के खिलाफ अफीम युद्ध से चीन के व्यापार संतुलन के बुरी तरह से बिगड़ जाने और 1840 के बाद इंगलैंड को दिये जाने वाले राज्य कर , स्वदेशी उद्योगों के विनाश तथा भ्रष्ट नौकरशाही की बदौलत जनता में पैदा हो रही बगावतों तथा जनता को और विपत्ति से बचाने के लिये करों की उगाही को रोक देने की वहां के सम्राट की आज्ञप्ति का पूरा लेखा-जोखा पेश किया है। इसी सिलसिले में वे लिखते हैं कि ‘‘अब जब इंग्लैंड चीन में बगावतों का कारण बना है, सवाल उठता है कि वक्त आने पर इस प्रकार की बगावत का इंग्लैंड पर और इंग्लैंड के जरिये पूरे यूरोप पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इस सवाल का हल मुश्किल नहीं है। ’’

कहने का तात्पर्य यही है कि डिजिटलाइजेशन का आरोपण करने की कोशिश से किसी भी समाज में कैसी अफरा-तफरी मच सकती है और वह अंत में किस प्रकार की आर्थिक तबाही की ओर बढ़ सकता है, प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के लोगों की बली चढ़ा कर सारी दुनिया को इन बातों को जान-समझ लेने का मौका दे दिया है। भारत को इस प्रकार गिनिपिग बनाने के इस अपराध की निंदा के लिये हमारे पास तो कोई शब्द नहीं है। नये डिजिटल युग के पश्चिम के सभी पुरोधा उनकी इस सेवा के लिये उन्हें हमेशा याद रखेंगे।








सोमवार, 9 जनवरी 2017

प्रवासी दिवस के दौरान मोदी-जेटली युगल-जोड़ी का प्रदर्शन

(मानवरूपी इस नई प्रजाति को देख कर मुग्ध थे वे ‘भारत प्रेमी’)
-अरुण माहेश्वरी



महात्मा गांधी 9 जनवरी के दिन दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। इसी दिन के नाम पर पिछले चौदह साल से हमारे यहां भारतीय प्रवासी दिवस का पालन किया जाता है। इसका मूल लक्ष्य तो होता है विदेशों में बसे भारतीयों की कमाई को भारत में निवेश के लिये प्रेरित करना, लेकिन इधर के सालों में हर ठोस चीज को हवाई बना देने के भारत में चल रहे महायज्ञ ने इसे क्रमश: एक सांस्कृतिक पर्व की तरह का रूप दे दिया है।

1991 में जब से भारत में उदारतावाद का दौर शुरू हुआ, भारतीय अर्थ-व्यवस्था में प्रवासी भारतीयों का निवेश प्रति वर्ष तेजी से बढ़ने लगा था। अभी तो यह भारत के जीडीपी के लगभग 4 प्रतिशत के बराबर चला गया है। गांधी जी आएं और यहां रह गये भारत की आजादी की लड़ाई के लिये। पिछले चौदह साल से उनके आगमन का यह दिन प्रवासियों के धन को बुलाने और यहां उसे बसाने का दिन बना हुआ है। लेकिन जब से मोदी जी सत्ता पर आए हैं और दुनिया भर में घूम-घूम कर खुद इन प्रवासियों के आतिथ्य का भरपूर आनंद लिया है, तब से लगता है क्रमश: यह दिन प्रवासी भारतीयों के लिये भारत में पर्यटन के एक खास दिन की अहमियत लेने लगा है।

अभी बंगलुरू में इसी प्रवासी दिवस के मौके पर जिस गदगद भाव से प्रधानमंत्री ने प्रवासियों का स्वागत करते हुए इस भारत भूमि को उनकी कर्मभूमि के बजायमर्मभूमिबनाने की सराहना की, वह उनकी अपने मर्म की बात थी। अभी वे हालात नहीं हुए है कि वे इस देश के वैविध्य से इंकार कर दें। बल्कि यह वैविध्य ही इसकी एकता का प्रकट स्वरूप बना हुआ है। इसीलिये, मोदी जी अपने आरएसएस के संस्कारों के अनुरूप भारत भूमि को प्रवासियों कीपुण्य भूमिनहीं कह पा रहे हैं। लेकिन अपने लिये अधिक मुनाफे और अवसर की तलाश के लिये आने वाले प्रवासियों के सामने भारत को संभावनाओं से परिपूर्ण भूमि बताने के बजायमर्मभूमिकह कर, उन्होंने संकेतों में ही क्यों हो, अपने आशय को साफ कर दिया। वे चाहते हैं, प्रवासी भारतीय आगे किसी निवेश की संभावना की तलाश के लिये नहीं, तीर्थाटन के लिये यहां आएं और यहां आज दरिद्र-नारायणों की फौज को तैयार करने का जो नोटबंदी नामक महायज्ञ चल रहा है, उन नारायणों की सेवा का पूण्य अर्जित करके धन्य हों !

इस प्रकार इन दिनों पर्यटनवाद के नारे के साथ जो प्रवासी भारतीय भारत केचिडि़याघरोंको देख कर और यहां केसिंह-व्याघ्रोंकी चिंघाड़ों को सुन कर उत्फुल्ल मन से यहां से जाते थे, आगे वे दरिद्र-नारायण की सेवा का पूण्य कमा कर भक्ति भाव से सिक्त होकर जायें।

जहां तक भारत में निवेश का सवाल है, वे भी यह जानते हैं कि भारत की वर्तमान दशा ही नहीं, ट्रम्प-ब्रेक्सिट वालों के आक्रोश की बदौलत भी उनके लिये आगे यह कितना मुमकिन होगा, कितना नहीं, वह अभी भविष्य के अंधेरे में डूबा हुआ है। मोदी जी ने बेंगलुरू में ब्रेन-ड्रेन की जगह इस बार उनके सामने ब्रेन-गेन का नारा देकर उन्हें थोड़ी सी तसल्ली दी है, संकेतों में कहा है कि यदि किसी वजह से वे अपनी अभी की कर्मभूमि में रह सके तो हम गरीब भारतवासियों के बड़े दिल पर भरोसा रखे, आपके अंतिम दिनों के लिये जरूरी गंगाजल और तुलसी पत्ते की यहां कमी नहीं रहेगी !

बहरहाल, इस बार के प्रवासी सम्मेलन की सबसे बड़ी विशेषता रही कि यह नोटबंदी के उस दौर में आयोजित किया गया था, जब मोदी-जेटली युगल-जोड़ी ने भारत के लोगों को एक बार पूरी तरह से नि:स्व करके उन्हें धीरे-धीरे उनका ही धन लौटाने का काम शुरू किया है। देश में चारो ओर त्राहि-त्राहि है, दुनिया के लोग इस अभिनव प्रयोग पर गहराई से शोध में लगे हुए हैं, लेकिन इस युगल जोड़ी ने प्रवासियों को आश्वस्त किया कि चिंता करे; यह ब्रेनगेन के लिये जमीन तैयार करने का एक महान उपक्रम भर है ! जेटली जी के शब्दों में एक भारी सुधार के लिये जरूरी उथल-पुथल। 

उनके पास भरोसे के यही शब्द थे कि अभी हमने जिस चमन को उजाड़ा है, वही देखियेगा, नवबसंत में फूलों से लहलहा उठेगा। बिना बलि चढ़ाये तो देवता भी प्रसाद नहीं देता है ! कुछ लोग मर गये, कुछ उजड़ गये, कुछ ने अपना रोजगार गंवा दिया, कुछ कारखाने बंद हो गये, एक बार के लिये कृषि का काम रुक गया, कुछ समय के लिये फसल कम होगी, जीडीपी कम होगी, लोग शहरों से भाग कर गांवों को लौटेंगे - यह सब तो भविष्य के देवता को खुश करने के लिये किया गया मोदी जी का महायज्ञ है, जिसकी हवि में कुछ आहुतियां तो देनी ही पड़ती है !

प्रवासी दिवस की इस सभा के दौरान ही जेटली जी ने ट्विट करके मनमोहन सिंह के क्रूर यथार्थ बोध किसुदूर भविष्य में तो हम सब मृत हैकी जगह जीवन की सनातनता का राग अलापते हुए भविष्य का जो सुनहरा चित्र पेश किया, उसे देख कर कभी-कभी लगता है कि अब यह सारा मामला इस युगल-जोड़ी के लिये बुद्धि और विवेक का नहीं, कोरे विश्वास और आस्था का बन चुका है। उन्होंने अपने को अबोधता के एक ऐसे प्रवाह में डाल दिया है जिसमें मनुष्य अपनी स्वाभाविक, किसी विषय पर ठहर कर सोचने के, एक आंतरिक द्वंद्व की प्रक्रिया से गुजरने की प्रक्रिया से मुक्त हो जाता हैं। जबकि सचाई यह है कि आदमी का आगे की कठिन परिस्थिति को देख कर थोड़ा रुक जाना, जिसे कहते हैं अटक जाना, वही आदमी में उसकी नश्वरता का बोध पैदा करता है और उसे डूबने से बचाता है। पशु ही ऐसा प्राणी होता है जिसे इस धरती पर बोधहीन नश्वर प्राणी कहा जाता है।

कहना होगा, इस बार भारतीय चिडि़याघर का परिदर्शन करने के लिये आए प्रवासी भारतीयों को हमारी इस युगल जोड़ी ने इस प्रकार के मानव-रूपी पशुवत प्राणियों के दर्शन करा कर सचमुच उन्हें धन्य-धन्य कर दिया होगा। प्रवासी मनुष्यों का (अर्थात ठहर कर सोचने-विचारने वाले प्रवासी मनुष्यों का) यह भारत परिदर्शन इसीलिये हमें इस बार और भी विशेष जान पड़ा।