शनिवार, 30 अगस्त 2014

हिटलर के नक्शे-कदम पर संघ परिवार का ‘लव जेहाद’

- अरुण माहेश्वरी


अगर आपने हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़  ’ को पढ़ा हो तो इस बात को पकड़ने में शायद आपको एक क्षण भी नहीं लगेगा सांप्रदायिक नफरत फैलाने के उद्देश्य से भारत में अभी चल रहे ‘लव जेहाद’ नामक अनोखे अभियान का मूल स्रोत क्या है। हिटलर यहूदियों के बारे में यही कहा करता था कि ‘‘ये गंदे और कुटिल लोग मासूम ईसाई लड़कियों को बहला-फुसला कर, उनको अपने प्रेम के जाल में फंसा कर उनका खून गंदा किया करते हैं।’’

यहां हम हिटलर के शासन (थर्ड राइख) के दुनिया के सबसे प्रामाणिक इतिहासकार विलियम एल. शिरर की पुस्तक ‘The Rise and Fall of Third Reich’ के एक छोटे से अंश को रख रहे हैं, जिसमें शिरर ने हिटलर की ऐसी ही घृणित बातों को उद्धृत करते हुए उनको विश्लेषित किया है। शायद, इसके बाद भारत में संघ परिवार के लोगों के ‘लव जेहाद’ अभियान की सचाई के बारे में कहने के लिये और कुछ नहीं रह जायेगा। शिरर अपनी इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘Birth of the Third Reich’ के अंतिम हिस्से में लिखते हैं :

‘‘ हिटलर एक दिन वियेना शहर के भीतरी हिस्से में घूमने के अपने अनुभव को याद करते हुए कहता है, ‘‘अचानक मेरा सामना बगलबंद वाला काला चोगा पहने एक भूत से होगया। मैंने सोचा, क्या यह यहूदी है? लिंत्स शहर में तो ऐसे नहीं दिखाई देते। मैंने चुपके-चुपके उस आदमी को ध्यान से देखा, उसके विदेशी चेहरे, उसके एक-एक नाक-नक्शे को जितना ध्यान से देखता गया, मेरे अंदर पहले सवाल ने नया रूप ले लिया। क्या वह जर्मन है?’’(अडोल्फ हिटलर, ‘माईन काम्फ़ ’, अमरीकी संस्करण, बोस्तोन, 1943, पृष्ठ : 56)

‘‘हिटलर के जवाब का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी वह कहता है, जवाब के पहले उसने ‘‘किताबों के जरिये अपने संदेह को दूर करने का फैसला किया।’’ उन दिनों वियेना में जो यहूदी-विरोधी साहित्य काफी बिक रहा था, वह उसमें खो गया। फिर सड़कों पर सारी स्थितियों को करीब से देखने लगा। वह कहता है, ‘‘मैं जहां भी जाता, हर जगह मुझे यहूदी नजर आने लगे और मैं उन्हें जितना अधिक देखता, वे मुझे बाकी लोगों से अलग दिखाई देने लगे। ...बाद में चोगा पहने लोगों की गंध से मैं बीमार सा होने लगा।’’(वही, पृ : 56-57)

‘‘इसके बाद, वह कहता है, ‘‘उसने उन ‘चुनिंदा लोगों’ के शरीर पर नैतिक धब्बों को देख लिया। ...खास तौर पर पाया कि सांस्कृतिक जीवन में ऐसी कोई गंदगी या लंपटगिरी नहीं है, जिसके साथ कोई न कोई यहूदी न जुड़ा हुआ हो। इस मवाद को यदि आप सावधानी से छेड़े तो रोशनी गिरते ही किसी सड़े हुए अंग के कीड़ों की तरह चौंधिया कर ये किलबिलाते दिख जायेंगे।’’ वह कहता है, उसने पाया कि वैश्यावृत्ति और गोरे गुलामों के व्यापार के लिये मुख्यत: यहूदी जिम्मेदार हैं। इसे ही आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘‘पहली बार जब मैंने बड़े शहर की गंदगी में इस भयानक धंधे को चलाने वाला घुटा हुआ, बेशर्म और शातिर यहूदी को देखा तो मेरी पीठ में एक सनसनी दौड़ गयी।’’(वही, पृ : 59)

‘‘यहूदियों के बारे में हिटलर की इन उत्तेजक बातों का काफी संबंध उसकी एक प्रकार की विकृत कामुकता से है। उस समय वियेना के यहूदी-विरोधी प्रकाशनों का यह खास चरित्र था। जैसाकि बाद में फ्रंखोनिया के हिटलर के एक खास चमचे, न्यूरेमबर्ग के अश्लील साप्ताहिक ‘Der Stuermer’ के मालिक में देखा गया, वह एक घोषित विकृत मानसिकता का व्यक्ति था और हिटलर के शासन (थर्ड राइख) का सबसे घृणास्पद व्यक्ति था। मीन कैम्फ में यहूदियों की ऐसी-तैसी करने के लिये जघन्य संकेतों वाली बातें भरी हुई हैं कि यहूदी मासूम ईसाई लड़कियों को फांसते हैं और इसप्रकार उनके खून को गंदा करते हैं। हिटलर ही ‘‘घिनौने, कुटिल, चालबाज हरामी यहूदियों द्वारा सैकड़ों हजारों लड़कियों को फुसलाने की डरावनी कहानियां’’ लिख सकता है। रूडोल्फ ओल्डेन कहता है कि हिटलर के इस यहूदी-विरोध की जड़ में उसकी दमित कामुक वासनाएं हो सकती है। यद्यपि तब वह बीस-पच्चीस साल का था। जहां तक जानकारी है, वियेना की उसकी यात्रा में उसका औरतों से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं हुआ था।

‘‘हिटलर आगे कहता है, ‘‘धीरे-धीरे मैं उनसे नफरत करने लगा। यही वह समय था जब मेरे जीवन में सबसे बड़ा आत्मिक भूचाल आया था। मैं अब कमजोर घुटनों वाला शहरी नहीं रह गया। यहूदी-विरोधी होगया।’’ (वही, पृ : 63-64)

‘‘अपने बुरे अंत के समय तक वह एक अंधा उन्मादी ही बना रहा। मौत के कुछ घंटे पहले लिखी गयी अपनी अन्तिम वसीयत में भी उसने युद्ध के लिये यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया, जबकि इस युद्ध को उसीने शुरू किया था जो अब उसे और थर्ड राइख को खत्म कर रहा था। यह धधकती हुई नफरत, जिसने उस साम्राज्य के इतने सारे जर्मनों को ग्रस लिया था, अंतत: इतने भयंकर और इतने बड़े पैमाने के कत्ले-आम का कारण बनी कि उसने सभ्यता के शरीर पर ऐसा बदनुमा दाग छोड़ दिया है जो उस समय तक कायम रहेगा जब तक इस धरती पर इंसान रहेगा।’’ (William L. Shirer, The Rise and Fall of the Third Reich, Fawcett Crest, New York, छठा संस्करण, जून 1989, पृष्ठ : 47-48)

यहां उल्लेखनीय है कि भारत में संघ परिवारियों के बीच हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ एक लोकप्रिय किताब है, जबकि साधारण तौर पर इस किताब को दुनिया में बहुत ही उबाऊ और अपठनीय किताब माना जाता है। लेकिन, जर्मन इतिहासकार वर्नर मेसर के शब्दों में, ‘‘लोगों ने हिटलर की उस अपठनीय पुस्तक को गंभीरता से नहीं पढ़ा। यदि ऐसा किया गया होता तो दुनिया अनेक बर्बादियों से बच सकती थी।’’ (देखें, हिटलर्स माईन काम्फ़  : ऐन एनालिसिस)

पूरी तरह से हिटलर के ही नक्शे-कदम पर चलते हुए भारत में सांप्रदायिक नफरत के आधार पर एक फासिस्ट और विस्तारवादी शासन की स्थापना के उद्देश्य से आरएसएस का जन्म हुआ था। इसके पहले सरसंघचालक, गुरू गोलवलकर के शब्दों में, "अपनी जाति ओर संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहां अपने सर्वोंच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हो, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता है। हिंदुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(एम.एस.गोलवलकर, वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पृष्ठ : 35)

‘लव जेहाद’ के मौजूदा प्रसंग से फिर एक बार यही पता चलता है कि संघ परिवार के लोग आज भी कितनी गंभीरता से हिटलर की दानवीय करतूतों से अपना ‘सबक’ लेकर ‘मूलगामी फर्क वाली जातियों और संस्कृतियों के सफाये’ के घिनौने रास्ते पर चलना चाहते हैं।


गुरुवार, 28 अगस्त 2014

हिन्दी में पुरस्कारों की बरसात और लेखकों की गिरती साख !


आज (26 अगस्त) टीवी के एक हिन्दी चैनल में नीचे की पट्टी पर हिन्दी के कुछ लेखकों को मिले पुरस्कारों की सूचना देख रहा था । फ़ेसबुक पर तो हर रोज़ कोई न कोई लेखक अपने पुरस्कृत होने का जश्न मनाता हुआ दिखाई देता हैं । अगर हिसाब लगाया जाए तो अभी देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । 'वागर्थ' जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं ।
इतने सारे पुरस्कार लेकिन किताबों की बिक्री ! हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री आज नहीं के बराबर है । 99 प्रतिशत किताबें 500 से कम छापी जाती हैं । इनमें भी अधिकांश किसी इतर उद्देश्य की पूर्ति के लिये, सिर्फ़ 100-200 छापी जाती हैं । प्रकाशक पाठकों के लिये नहीं, सरकारी खरीदों के लिये किताबें छापते हैं और जितनी किताबों की ख़रीद का आदेश जुगाड़ करते हैं, उससे बमुश्किल दस किताबें ही अतिरिक्त छापने का जोखिम उठाते हैं ।
हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है ।
सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करना, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।
तंत्र और जनता दो विपरीत ध्रुव हैं । तंत्र का अंग बन कर जनता का लेखक नहीं बना जा सकता । जीवन के संघर्षों में निहित रचनाशीलता के मूल स्रोत से कट जाने के कारण यह लेखक थोथा आलंकारिक लेखन करने के लिये अभिशप्त होता है ।
ऐसी स्थिति में आज पुरस्कार किसी की श्रेष्ठता के नहीं, लेन-देन के इस पूरे व्यापार में उसके लंबे हाथों और उसकी पहुँच का प्रमाण-पत्र बन कर रह गये हैं ।
यही वजह है कि आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता है कि हिन्दी भाषी समाज में उसकी कोई पूछ है, लोग उसे पहचानते हैं और किसी भी विषय पर उसकी राय का कोई महत्व है । किसी भी सामाजिक-राजनीतिक विषय पर आज हिन्दी के लेखकों से शायद ही कोई राय माँगता है । यह विचार का एक गंभीर विषय है । लेखकों-बुद्धिजीवियों की लगभग ख़त्म हो रही सामाजिक साख में पुरस्कारों के इस गोरख-धंधे की भूमिका पर भी विचार की ज़रूरत है ।

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

शंभु मित्रा की 100वीं सालगिरह

- अरुण माहेश्वरी


कोई भी युगान्तकारी जातीय सांस्कृतिक आंदोलन सिर्फ नयी रचनाशीलता के उन्मेष का बिन्दु नहीं होता, बल्कि परंपरागत सांस्कृतिक इतिहास के उज्जवल पक्षों को भी एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है। वह जातीय संस्कृति के इतिहास की विकास यात्रा में मील का पत्थर होता है। इस सचाई को जब हम बांग्ला नाटकों के आधुनिक इतिहास की श्रंखला में देखते हैं तो इसमें जिन प्रमुख व्यक्तित्वों के कृतित्व की तस्वीर हमारी आंखों के सामने उभरती है, उनमें एक बहुत बड़ा नाम है शंभु मित्रा का। बांग्ला नाटकों के किंवदंती निदेशक, नाट्यकार, आवृत्तिकार और रंगमंच तथा फिल्मों के अभिनेता शंभु मित्रा।

आज, 22 अगस्त 2015 का दिन शंभु मित्रा की 100वीं सालगिरह का दिन है - उनके शताब्दी वर्ष का दिन।

बाईस अगस्त 1915 के दिन कोलकाता में जन्मे जियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के एक कर्मचारी शरत् कुमार मित्रा की छठी संतान शंभु मित्रा। सरकारी स्कूल और फिर कोलकता के सेंट जेवियर्स कालेज के इस विधार्थी ने कम उम्र से ही बांग्ला नाटकों की दुनिया में आना-जाना शुरू कर दिया था। सन् 1939 में उत्तर कोलकाता के रंगमहल व्यवसायिक रंगमंच पर पहली बार वे एक अभिनेता के रूप में उतरे।

वह समय भारत की आजादी की लड़ाई का और गणनाट्य आंदोलन (आईपीटीए) के उदय का समय था। शंभु मित्रा ने इससे जुड़ कर गणनाट्य आंदोलन के इतिहास के उस स्वर्णिम पृष्ठ की रचना में अपना योगदान किया जो बिजन भट्टाचार्य के नाटक ‘नवान्नो’ के द्वारा रचा गया था। 1944 में खेले गये ‘नवान्नो’ नाटक में बिजन भट्टाचार्य के साथ सह-निदेशक थे शंभु मित्रा। 1948 में उन्होंने अपनी एक नयी नाट्य मंडली ‘बहुरूपी’ का गठन किया और वहीं से बंगाल में गणनाट्य के दायरे के बाहर के एक नये ग्रुपथियेटर आंदोलन का प्रारंभ हुआ। गणनाट्य संघ की आंदोलनात्मक नाट्य धारा के साथ ही रवीन्द्रनाथ सहित अन्य पारंपरिक नाट्यकारों और देश-विदेश में चल रहे रंगमंच के तमाम नये प्रयोगों को आत्मसात करते हुए एक सर्वांगीण विकसित नया बांग्ला रंगमंच सामने आया। बंगाल के जन-नाट्य का यहां के नवजागरण की सांस्कृतिक परंपरा से एक अटूट संबंध कायम हुआ।

शंभु मित्रा के निदेशन में ‘बहुरूपी’ नाट्य मंडली ने सन् 1950 से ही एक के बाद एक बेहद सफल नाटकों का मंचन किया। खास तौर पर रवीन्द्रनाथ के नाटक, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे रंगमंच के लिये नहीं, बल्कि ठाकुर बाड़ी के निजी आयोजनों के लिये लिखे गये थे, उन्हें रंगमंच के बेहद सफल नाटकों का रूप देकर शंभु मित्रा ने बांग्ला रंगमंच को एक नयी शास्त्रीय गरिमा प्रदान की और रवीन्द्रनाथ के नाटकों की अन्तर्निहित सीमाहीन शक्ति से बांग्ला रंगमंच के दर्शकों को परिचित कराया। 1951 में उन्होंने रवीन्द्रनाथ के उपन्यास पर आधारित ‘चार अध्याय’ नाटक का मंचन किया, 1954 में ‘रक्त करबी’ (हिंदी में जिसका अनुवाद ‘लाल कनेर’ शीर्षक से हुआ है), 1959 में ‘मुक्तधारा’ नृत्य नाट्य, 1961 में ‘विसर्जन’ और 1964 में ‘राजा’ का मंचन किया।

इनके अलावा शंभु मित्रा द्वारा निदेशित और अभिनीत प्रसिद्ध नाटकों में इब्सन के ‘एन इनेमी आफ द पिपुल’ का बांग्ला रूपांतरण ‘दसचक्र’(1952) तथा ‘अ डाल्स हाउस’ का ‘पुतुल खेला’ (1958), सोफोक्लिस के ‘ओडिपस द किंग’ का ‘राजा ओडिपस’ शामिल है। उन्होंने बादल सरकार के ‘बाकी इतिहास’ और ‘पागला घोड़ा’ तथा विजय तेंदुलकर का ‘चोप अदालत चोलछे’, (1971) को भी निदेशित किया था। शंभु मित्र ने प्रसिद्ध हिंदी फिल्म ‘जागते रहो’ का निदेशन किया और उसकी पटकथा भी लिखी थी। हिंदी और बांग्ला की अपने जमाने की कई प्रसिद्ध फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया था। देश-विदेश के अनेक सम्मान भी उन्हें मिलें।

शंभु मित्रा ने 1971 तक लगातार काम करने के बाद जीवन के अंतिम लगभग 25 साल नाटकों और फिल्मों की दुनिया से अलग, एकांतवास में बितायें। कल के आनंदबाजार पत्रिका में शंभु मित्रा पर शमीक बंदोपाध्याय और सुमन मुखोपाध्याय के जो दो लेख प्रकाशित हुए हैं।ं दोनों लेखकों ने अपने समय की रचनात्मक उपलब्धियों के शीर्ष पर बैठे उनके समान व्यक्तित्व के एकांतवासी होजाने के दुखांत को ही अपने विचार का विषय बनाया है। शमीक बंदोपाध्याय ने अपने लेख ‘आधुनिकतार एकटि असमाप्त पाठ’ में लिखा है कि ‘‘उन्होंने नाट्य निदेशन का एक नया रास्ता दिखाया था। लेकिन देखा गया कि उनका थियेटर दरअसल पन्द्रह सालों में ही समाप्त होगया।’’ सुमन मुखोपाध्याय ने भी शंभु मित्रा में आए व्यर्थता बोध के लिये नाटकों के क्रमश: गिरते हुए स्तर और श्रेष्ठ नाट्य कर्म के लिये जरूरी सुविधाओं के अभाव को और समाज में नाटकों की कम होती कद्र को जिम्मेदार बताया है। शमीक ने अपने लेख का अंत अजितेश बंदोपाध्याय के अंतिम साक्षात्कार को उद्धृत करते हुए किया है जिसमें अजितेश नाटक की दुनिया के यथार्थ के बारे में नाराजगी भरे स्वरों में कहा था - ‘शंभुदा पार्क सर्कश में रेस्ट ले रहे हैं...शंभुदा को शौख चर्राया था, करेंगे, किया भी। थक गये तो छोड़ दिया।’ शमीक लिखते हैं - ‘‘इससे कहीं ज्यादा अपमान, अनादर और असुरक्षा के बावजूद बिजन भट्टाचार्य या अजितेश बंदोपाध्याय - या शिशिर कुमार भी - मृत्यु की घड़ी तक थियेटर छोड़ नहीं पायें। जबकि शंभुबाबू का थियेटर दरअसल पन्द्रह सालों में ही खत्म होगया।’’

इस लेखक को भी शंभुमित्र द्वारा निदेशित और अभिनीत नाटक ‘रक्त करबी’ और ‘राजा ओडिपस’ को देखने का सौभाग्य मिला था। इसके अलावा बांग्ला नाटकों में किये गये एक समवेत अभिनव प्रयोग, ब्रेख्त के ‘गैलेलियो’ में शंभु मित्रा के असाधारण अभिनय को भी देखने का मौका मिला था, जिनकी स्मृतियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। ‘रक्त करबी’ में राजा और नंदिनी के संवाद और पूरे रंगमंच पर राजा के रूप में किसी बेचैन ग्रीक नायक की तरह की शंभु मित्र की उपस्थित लगभग चालीस साल बाद आज भी किसी रोमांचक रहस्य की धुंधली सी तस्वीर की तरह दिमाग में अटकी हुई है।

एक ऐसे भारतीय नाट्य जगत के किंवदंती पुरुष की जन्म शताब्दी के अवसर पर हिन्दी में भी नाट्य कर्म पर गंभीर चर्चा हो, हमारी यही कामना है। शंभु मित्रा के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।


बुधवार, 13 अगस्त 2014

सीसैट प्रसंग पर एक टिप्पणी :



सीसैट और उससे जुड़े भाषा-विवाद के पूरे प्रसंग से एक बात बिल्कुल साफ है कि भारतीय नौकरशाही भारत की शासन-प्रणाली के स्वाभाविक विकास के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। किसी भी जनतांत्रिक देश की शासन-प्रणाली के विकास की स्वाभाविक दिशा उसे अधिक से अधिक सरल बनाने की दिशा होती है। शासन-प्रणाली के विकास का अर्थ है उसे लगातार इस रूप में ढालना ताकि एक अदना से अदना आदमी भी प्रशासन के काम को बड़ी आसानी से शासन की नीतियों की धुरी पर चला सके। लेनिन की शब्दावली में, शासन-प्रणाली ऐसी हो कि कोई रसोइया भी इसे चला सके।

आज के तकनीकी-विस्फोट के युग में शासन-प्रणाली के विकास की इस दिशा में बड़ी तेजी से बढ़ा जा सकता है। आधुनिक तकनीक सारी दुनिया में पूरे नागरिक जीवन को सरल बनाने की दिशा में भारी योगदान कर रही है।

लेकिन जब भी प्रशासन के स्वाभाविक विकास का यह काम प्रशासनिक अधिकारियों को सौंपा जाता है, इसमें एक स्वाभाविक अड़चन पैदा होजाती है - प्रशासन की सरलता और प्रशासनिक अधिकारियों के असंख्य विशेषाधिकारों की रक्षा के बीच के अन्तर्विरोधों से पैदा होने होने वाली अड़चन। प्रशासन को जितना विशिष्ट माना जाता रहेगा, प्रशासनिक अधिकारियों के विशेषाधिकार उतने ही स्वाभाविक होंगे। इसीप्रकार, प्रशासन का काम जितना सरल होगा, प्रशासनाधिकारियों के विशेषाधिकार उतने ही अस्वाभाविक लगने लगेंगे।

इस मामले में औपनिवेशिक शासकों और नौकरशाहों के हित हमेशा समान रहे हैं। इसी वजह से अंग्रेजों का ‘कानून का शासन’ इस देश में क्रमश: एक जटिलतम शासन-प्रणाली में पर्यवसित हुआ है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजादी के बाद भी शासन की नीतियों पर नौकरशाही की भारी जकड़बंदी के चलते हमारी शासन प्रणाली का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध है।

संघ लोक सेवा आयोग की तरह के संस्थान की वर्तमान भूमिका प्रशासनिक अधिकारियों के सेवक की ज्यादा है, बजाय शासन-प्रणाली की सेवा की। यही दशा भारत की न्यायपालिका के प्रशासन की भी है। दुनिया के दूसरे किसी भी स्वतंत्र और जनतांत्रिक देश में, जिसे हमारी तरह लंबी, आततायी औपनिवेशिक गुलामी के दंश को नहीं सहना पड़ा है, ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा। सीसैट और उससे जुड़ा समूचा भाषा-विवाद इसी बात को प्रमाणित करता है।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ : विरूपित मूल्यों पर अस्मिता का वरक!

अरुण माहेश्वरी


कल ही बांग्ला फिल्म ‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ देखी। खास तौर पर पिछले पांच-छ: वर्षों में प्रसिद्धी पाये बांग्ला फिल्मकार अंजन दत्ता की नयी फिल्म। इसके पहले उनकी और दस फिल्में आ चुकी है। सबसे पहली फिल्म हिंदी में थी, ‘बड़ा दिन’, जो 1998 में प्रदर्शित हुई थी। लेकिन सही अर्थ में चर्चा में आने वाली उनकी पहली बांग्ला फिल्म थी ‘बोंग कनेक्शन’(2006)। उसके बाद, ‘मैडली बंगाली’ (2009), ‘व्योमकेश बक्शी’ (2010),‘रंजना आमी आर आसबो ना’(2011) तथा ‘आबार व्योमकेश’(2012) आदि। इनमें से  ‘बोंग कनेक्शन’, ‘रंजना आमी आर आसबो ना’ और ‘आबार व्योमकेश’ मैंने पहले ही देखी थी। आज जब इन सभी फिल्मों के बारे में सोचता हूं, और जिन फिल्मों को मैंने नहीं देखा है, उनके भी दूसरों से सुने कथानक पर गौर करता हूं तो एक बार के लिये ‘व्योमकेश’ श्रंखला को अगर अलग रख दिया जाए तो इन सभी फिल्मों से कुल मिला कर अंजन दत्ता की एक ऐसे फिल्मकार की छवि बनती है जिसमें आदमी की सभी प्रकार की पहचानों को मिटा देने वाले आज के क्रूर समय में किसी रोमांटिक सर्जनात्मक लेखक की तरह वे अपनी फिल्मों के जरिये खुद को, अपनी अस्मिता को तलाशने, रचने के लिये पागल की तरह जूझते हुए दिखाई देते हैं। उनकी फिल्मों का शिल्प तो वही पुराना, आख्यानपरक शिल्प ही है। लेकिन इसकी खूबी इनके फिल्मांकन के खास प्रकार के बेलौसपन में है जो आधुनिक कल्पित जीवन और चरित्रों के अतियथार्थवादी वर्णन से निस्संदेह हर प्रकार के संरक्षणवादी सोच को झकझोरती है। तथापि, इनकी कमजोरी एक बुनियादी दार्शनिक कमजोरी है, उत्तर-आधुनिक विखंडित जीवन की परिस्थितियों में नवजागरणकालीन बंगाली अस्मिता को खोजने या उस पर आरोपित करने की विडंबनापूर्ण कोशिश की कमजोरी। अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’ में उद्दाम प्रेम पर संस्कृति के प्रलेप की सुंदरता की भांति ही अंजन दत्ता को शराब, सिगरेट, ड्रग्स और सेक्स में डूबे बोहेमियन और विरूपित जीवन में अपनी सांस्कृतिक जड़ों की तलाश का फिल्मकार कहा जा सकता है और अपने इसी उपक्रम में वे आधुनिक जीवन की विकृतियों और विरूपताओं की चीर-फाड़ का ऐसा सम्मोहक आख्यान रचते हैं, कि लोग बेसाख्ता उन्हें लीक से हटा हुआ, एक दुस्साहसी फिल्मकार कहने लगते हैं।
यहां हम उनकी सभी फिल्मों पर नहीं, सिर्फ इस ताजातरीन फिल्म ‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ पर ही अपने को केंद्रित करेंगें।
सत्तर के दशक के उत्तरी कोलकाता के प्रसिद्ध बारानगर के नक्सलपंथियों के कथित मुक्तांचल की तरह के दक्षिण कोलकाता के तालतल्ला क्षेत्र की एक तंग गली में स्थित ‘दत्ता बाड़ी’ के चरित्रों पर केंद्रित इस फिल्म के केंद्र में है हाईकोर्ट के एडवोकेट बिरेन दत्ता और उनका बेटा रोनो दत्ता। पेशे के प्रति बेफिक्र शराब, जुआं और सेक्स में डूबा एडवोकेट दत्ता अपने सामंती लंपटपन के चलते पूरे परिवार के ढांचे को बिगाड़ चुका है। उसकी पत्नी अल्कोहलिक होगयी है, बेटा दार्जलिंग के एक कुलीन स्कूल की फीस न भर पाने के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर कोलकाता आजाता है। एक ही मकान में रह रहे बीरेन की अपने बड़े भाई से हमेशा कलह लगी रहती है और आपस में मामले-मुकदमे तक चल रहे हैं। छोटा कुंवारा भाई विक्षिप्त है। बिरेन के पास मुवक्किल के नाम पर विधवा रुणु मासी है, जिसके साथ उसके अवैध संबंध है। काबुलीवाला से उधार ले-लेकर बिरेन ने उसे भी अपने मकान के एक कमरे में बसा लिया है। बिरेन की जवान बेटी है चिना। बिरेन रोनो को बैरिस्टर बनाने की बात करता है और रोनो जानता है कि यह एक कोरी बकवास है। जब दार्जलिंग में पढ़ाई का खर्च ही पूरा नहीं हो सका तो विलायत में पढ़ाई का खर्च कहां से आयेंगा! वह बैरिस्टर नहीं, अभिनेता बनना चाहता है। बिरेन की छोटी-मोटी पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने वाले एक चरित्र घेंटू काकू का परिवार में आना-जाना है जो बिरेन की पत्नी और बेटी दोनों से ही अवैध संबंध रखता है। बेटी पर तो उसका ऐसा फितूर सवार होता है कि वह घेंटू काका से शादी करने की ही घोषणा कर देती है। घेंटू काका पर क्रुद्ध बिरेन उसके सफाये के लिये इलाके के नक्सलाइट नेता को सुपारी देता है, लेकिन नक्सली नेता घेंटू काका के सफाये के बजाये चिना के दिल से उसके सफाये के काम में लग जाता है और पता चलता है कि एक दिन कालीघाट जाकर चिना और नक्सली नेता ने शादी कर ली। बिरेन के पास ‘मार डालूंगा’ की थोथी धमकियों के अलावा करने को और कुछ नहीं रह जाता। बेटा रोनो अभिनेता के रूप में अपनी ‘परम-अभिव्यक्ति’ को प्राप्त करने के उपक्रम में एक आरकेस्ट्रा पार्टी के कलाकार निदेशक से संपर्क में आता है, कला से मुक्ति का संधान पाता है। इसी बीच कथानक में एक नया मोड़ बिरेन के पिता, दत्ता बाड़ी के बड़े कर्ता के प्रवेश से आता है, जो वर्षों से किसी संन्यासी के मठ में जीवन गुजार रहे थे। वे वायलिन-वादक हैं और मठ के जीवन से ही उन्हें इलहाम होता है कि ईश्वर तो उनकी वायलिन में बसता है, इसके संगीत के प्रसार से ही वे ईश्वर की वाणी का प्रसार कर सकते है। और, दत्ता बाड़ी में एक संगीत का स्कूल खोल कर पूरी तरह से बेढब और बेतरतीब होचुके इस परिवार के माहौल में नयी लय का संचार करते हैं। पोते रोनो से उनके तार ठीक मिल जाते हैंं। बिरेन और कलहप्रिय उसके बड़े भाई भौंचक सब देखते भर रहते हैं। नशे में डूबी रहने वाली बिरेन की पत्नी में पियानो बजाने का पुराना हुनर जागृत होता है और संगीत की कक्षा में भागीदारी से वह अपने को सार्थक करती है। इसप्रकार, परिवार में एक नयी तरंग पैदा करके अचानक ही दादाजी चल बसते है। दादाजी के रहते रोनो का जो विक्षिप्त काका सामान्य होचुका था, वह भी छत से गिर कर जान गंवा देता है। बिरेन खुद लकवा के कारण पंगू हो जाता है। बेटी चिना अपने नक्सली पति के साथ घर आती है, यह बताने कि उसका पति मैटलर्जिकल इंजीनियर होगया है और एक बड़ी कंपनी की पोस्टिंग में हांगकांग से अंत में अमेरिका चला जायेगा। चिना का पति सुपारी के एवज में बिरेन के दिये पैसों को ससम्मान लौटाता है। और रोनो भी एक अच्छा अभिनेता और फिल्म निदेशक बन कर मृणाल सेन तक की प्रशंसा पाता है। इसप्रकार, अंत में जीवन की निरंतरता का संदेश देता हुआ रोनो अपने पंगू बापी को उठकर चलने की प्रेरणा देता है और यहीं फिल्म खत्म हो जाती है।
फिल्मांकन में सत्तर दशक के कोलकाता के परिवेश, नक्सलवाद, सिद्धार्थशंकर राय सरकार के दमनतंत्र का जहां एक ओर इस्तेमाल किया गया है, वहीं एक पुराने जमींदार परिवार के चरित्रों की झूठी शान और दीमक लग चुकी नैतिकता के ‘साहब बीबी और गुलाम’ जैसे जाने-पहचाने चरित्रांकन का भी प्रयोग हुआ है। इसकी विडंबना यह है कि यह सब आधुनिकता के नाम पर एक प्रकार के बोहेमियन जीवन को अस्मिता के सवाल से जोड़ने कोशिश के तहत किया गया है, जिसके चलते सिर्फ बिरेन दत्ता ही एक क्विगजोटिक चरित्र नहीं बन जाता, बल्कि उस काल की सारी लड़ाइयां, पुलिस दमन और विचारधारात्मक बहसें, वर्ग शत्रु और वर्ग युद्ध आदि की बातें और दत्ता का प्रिय रवीन्द्र संगीत भी समग्रत: उस समय के यथार्थ का कैरीकेचर भर बन कर रह जाते हैं। चूंकि अंजन दत्ता की इन तमाम फिल्मों में एक खास प्रकार की जातीय अस्मिता की तलाश की बदहवास कोशिश रहती है, इसीलिये आत्म के संधान में ऐसे विरूपित जीवन के रास्तों पर उनकी भटकनों को लोग स्वाभाविक तौर पर दुस्साहसिक बता कर अपने ढंग से उसका मान रखते हैं। लेकिन अगर गहराई से देखा जाए तो वे वस्तुत: एक गढ़े हुए जीवन और चरित्रों से अस्मिता का कोरा भ्रम ही पैदा कर पाते हैं। यह वास्तविक से दूर, मरीचिका की ओर भागते मृग की ऐसी चिंतन प्रणाली है जो वैचारिक विकास की पूछ की ओर यात्रा करते हुए मदारी की तरह कई तमाशें तो दिखा सकती है, लेकिन जीवन की सहज सचाइयों को विषय बना कर आज के उभरते सच को व्यक्त नहीं कर सकती। आधुनिक यथार्थ का भ्रम पैदा करने वाला एक प्रकार का यह रूमानी कल्पना लोक ही आत्म-संधानी अंजन दत्ता की रचनाशीलता की सबसे बड़ी सीमा जान पड़ती है। आख्यान की शक्ति भी इसमें बहुत दूर तक सहयोगी नहीं बन पाती। फिल्मकार अपने प्रभामंडल को गंवा चुके जीवन के सभी काव्यात्मक संबंधों को भारी तनाव और पीड़ा के साथ सहेजने-संभालने की कोशिश में उनके निष्ठुर-निर्मम बिखराव का आख्यान ही तैयार कर पाता है। विधेयात्मक यह है कि जीवन फिर भी रुकता नहीं दिखाई देता।
अंजन दत्ता के इस फेनामेना को बांग्ला के साहित्य जगत के खास इतिहास से भी कुछ हद तक जोड़ कर देखा जा सकता है। बंगाल ही मलय रायचौधरी, शक्ति चट्टोपाध्याय आदि के हंग्री जेनरेशन वाले साहित्यिक आंदोलन की पीठ भूमि रही है, जिसकी गूंज-अनुगूंज हिंदी में अकविता, भूखी पीढ़ी और श्मशानी पीढ़ी के साठोत्तरी आंदोलन में सुनाई दी थी। वह समय बंगाल में वामपंथ के भारी उभार का भी काल था। वामपंथ अपने आप में परंपरा के लिये एक बड़ी चुनौती और विद्रोह का स्वर था। साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रतिवाद और विद्रोह केंद्रीय स्चर था, परंपरा सृजन का स्रोत नहीं रह गयी थी। ऐसे में, जो रचनाकार किन्हीं कारणों से वामपंथियों के प्रतिवाद और विद्रोह के साथ निबाह नहीं कर पा रहे थे, उन्होंने सर्व-नकार की चरम स्थितियों को अपनाया, हर प्रचलित रीति-नीति की धज्जियां उड़ाई और लंपटपने को ही संस्कृति का मूल-स्रोत बताने की कोशिश की। लेकिन काल-क्रम में देखा गया कि यही तबका राज्य के प्रमुख प्रकाशन-गृह, आनंदबाजार ग्रुप के साथ जुड़ कर साहित्य की मुख्यधारा में तब्दील होगया और नवजागरणकालीन मनीषियों की जगह रवीन्द्रनाथ, सत्यजीत राय की नयी प्रतिमाओं (आइकन्स) के साथ बंगाली अस्मिता के पुनआर्विष्कार का नया उपक्रम शुरू हुआ। सुनील गंगोपाध्याय की भारी जनप्रियता इस उपक्रम की सफलता का क्लासिक उदाहरण है। लेकिन इस समूचे उपक्रम का एक सार-तत्व यह भी है कि शक्ति, सुनील के व्यक्तित्वों की जन- स्वीकृति हंग्री जेनरेशन के सर्व-नकारवाद की स्थापना का हेतु नहीं बन पायी। रवीन्द्रनाथ, सत्यजीत की परंपरा की कड़ी बन कर ही वे बांग्ला पाठकों के कंठहार में जगह पा सके। इसीप्रकार, अंजन दत्ता का बोहेमियनवाद संस्कृति जगत के कुछ लोगों की जीवन-शैली का अंग भले ही बन जाए, अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता के लिये ही रवीन्द्र-सत्यजीत का अवलंबन इसकी मजबूरी है। सत्यजीत राय के चरित्र व्योमकेश पर फिर-फिर लौटना अंजन दत्ता की इसी रचनात्मक मजबूरी का संकेत है और यह अकेला तथ्य ही सृजनशीलता के संधान में अराजक, विरूपित बोहेमियन जीवन की अनिवार्यता के तत्व को खारिज करने के लिये काफी है।
बहरहाल, कामना यही है कि अंजन दत्ता अपने को इसी प्रकार दोहराते भर नहीं रहे, बल्कि अपने अंदर से निकल कर बाहर की धूल-मिट्टी में सने आदमी की सहज लेकिन फिर भी कठिन कहानियों को विषय बनायें। तभी उनकी रचनात्मकता को क्लासिक बांग्ला सिनेमा के महारथियों के समकक्ष स्थान मिल पायेगा।
27.11.2012