गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (12)


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(12)


फ्रायड की वापसी

सन् 1951 से लकान ने पैरिस में साप्ताहिक बैठकों का एक सिलसिला शुरू किया जिसमें वे फ्रायड पर केंद्रित वक्तव्य रखा करते थे । यह सिलसिला उन्होंने शुरू में तो सिर्फ एक साल के लिये किया था, लेकिन बाद में तकरीबन तीन साल से भी ज्यादा काल तक वे फ्रायड के मनोविश्लेषण की बुनियादी बातों की ही जैसे पुनर्व्याख्या में लगे रहे ।


लकान 1955 में वियेना गये थे जहां वियेना न्यूरोसाइकियाट्रिक क्लिनिक में 7 नवंबर के दिन उन्होंने एक बहुत विस्तृत आलेख का पाठ किया, जिसका शीर्षक था — ‘द फ्रायडियन थिंग‘ । फ्रायडीय चीज । अपने इस लेख में शुरू में तो उन्होंने उस समय की युद्धोत्तर पृष्ठभूमि का संकेत देते हुए कहा था कि अब फिर से एक बार जब वियेना के ऑपेरा की आवाज सुनाई देने लगी है, जिसने यहां के पूरे समाज में एक समरसता पैदा करने की भूमिका अदा की थी, ऐसे समय में यहां आकर यही कहूंगा कि इस शहर को ज्ञान की कॉपरनिकस क्रांति से कभी कोई जुदा नहीं कर पायेगा । यह फ्रायड के आविष्कार की सनातन भूमि है जिस आविष्कार के बाद मानव प्राणी का असंदिग्ध केंद्र वहां नहीं रहा है जहां अब तक की मानवीय परंपरा ने उसे रखा था ।

लकान ने वियेना में ही फ्रायड के बारे में उठाए गए सवालों पर शिकायती लहजे में कहा था कि जिस देवदूत की बातों को उनका देश कभी अनसुना नहीं करता था, उस पर भी संभवतः उनकी मृत्यु के बाद यहां कुछ ग्रहण लगा था । पर मैं बाहरी व्यक्ति हूं, इसीलिये अलग-अलग काल में जो तमाम ताकतें सक्रिय रही है उनकी चर्चा करते वक्त किंचित संयम बरतना ही उपयुक्त होगा ।

अपने इस वक्तव्य में उन्होंने फ्रायड से जुड़े उस प्रसंग को ऐसी जगह पर रखा था जिसे वे Symbolic scandal, चित्त संबंधी अनैतिकता की जगह कहते हैं । लकान ने फ्रायड की वापसी की चर्चा करते हुए वियेना में उनके उस घर पर, जहां फ्रायड ने मुख्य रूप से काम किया था, एक फलक लगाने के आयोजन का जिक्र किया और कहा कि यह काम इस शहर के उनके सह-नागरिकों ने किया था, न कि उस इंटरनेशनल एशोसियेशन ने जिसके सदस्य आज फ्रायड के नाम का ही खाते हैं ।


लकान ने इस तथ्य को खुद में एक लक्षण बताया था । फ्रायड को उनकी जमीन ने नहीं त्यागा, लेकिन मनोविश्लेषण के क्षेत्र का जिम्मा उठाये हुए, मनोविश्लेषण-आंदोलन ने त्याग दिया, जिसे उन्होंने आगे के लिये इस क्षेत्र का दायित्व सौंप था । आंदोलनों और संगठनों की इन विडंबनाओं और उनसे मनोविश्लेषण के कामों पर पड़ने वाले बुरे असर के बारे में लकान ने अपने खुद के जीवन के अनुभवों के आधार पर कई जगह लिखा है ।   
बहरहाल, लकान कहते हैं कि “फ्रायड की आवाज प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ही वियेना के बाहर पहुंच गई थी, लेकिन तब वह युद्ध के शोर में दब गई । बाद में बड़ी मुश्किल से जब फिर उसकी गूंज सुनी जाने लगी, द्वितीय विश्वयुद्ध आ गया । ‘उस नफरत के जहर और संघर्ष के कोलाहल, युद्ध की डरी हुई सांसों के बीच उनकी आवाज हम तक आई थी ।...तब दहशत की लहरें हमारे संसार की दीवारों से टकरा रही थी, इस पूरे महादेश में गूंज रही थी, जहां यह कहना तो गलत होगा कि इतिहास का कोई अर्थ नहीं रह गया था, क्योंकि यहीं पर इतिहास को उसकी सीमा का पता चला था ।...बल्कि यहां बहुत साफ रूप में इतिहास के अस्वीकार के उद्यमों को एक शैली प्रदान की गई, संयुक्त राज्य अमेरिका की सांस्कृतिक अनैतिहासिक शैली ।”

कुछ अप्रवासी मनोविश्लेषकों ने तब महज फ्रायड से अपने मतभेद जाहिर करके अपने लिये स्वीकृति हासिल करने के लिये उनका जिक्र किया था । लेकिन उनके इसी, फ्रायड से इंकार के  काम ने ही, लकान के अनुसार, जैसे इतिहास को उसके अंतर से जिंदा कर दिया और उनके पेशे ने एक प्रकार से आधुनिक मनुष्य और प्राचीन मिथकों के बीच जैसे एक पुल की पुनर्रचना कर दी । मतभेद जाहिर करके लाभ उठाने के चक्कर में पड़े उन लोगों का यह साधारण लोभ उनके लिये लाभदायी नहीं रहा । यहां लकान एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि “किसी से भी महज मतभेद जाहिर करने तक अपनी भूमिका को सीमित करना किसी मरीचिका के पीछे भागने की तरह होता है । यह मरीचिका आपकी इस भूमिका में ही निहित होती है, मतभेद पर टिकी मरीचिका । यह उस प्रतिक्रियावादी सिद्धांत की ओर वापसी है जो जानकार और अनजान के बीच के विरोध से भोगने वाले और इलाज करने वाले के द्वैत को छिपाता है । वे कैसे इस विरोध को सत्य मानने से इंकार कर सकते थे, जबकि वह वास्तव में है, और इसी के आधार पर, वे पदाधिकारी अपने सामाजिक संदर्भ से पतित हो कर आत्माओं के प्रबंधकों में तब्दील होने से कैसे बच सकते थे ? किसी को भी सबसे अधिक भ्रष्ट करने वाली सुख-सुविधाएँ बौद्धिक सुख-सुविधाएँ होती हैं, ठीक वैसे ही जैसे सबसे जघन्य भ्रष्टाचार सर्वश्रेष्ठ का भ्रष्टाचार होता है ।”



लकान यहां मतभेद मात्र जाहिर करने का विरोध कर रहे थे, लेकिन किसी भिन्न पथ पर चलने का नहीं । वे तो किसी भी प्रतिनिधिमूलक संगठन में उसकी अधिकारी मान्यताओं से मतभेद को जरूरी मानते थे । उनका कहना था कि जब तयशुदा मान्यताओं को न मान पाने वाले को किसी बाहरी आवेदनकर्ता की तरह देखा जाता है, तभी पता चल जाता है कि अपने को अन्तरराष्ट्रीय कहने वाले एसोशियेशन का उद्देश्य इस पेशे के अनुभव की सामूहिक प्रकृति के सिद्धांत की रक्षा के बजाय कुछ और ही है । मेरी नजर में यदि मैं कोई नई खोज करता हूं तो मैं उससे मुनाफा कमाना पसंद नहीं करता । (देखें, Ecrits, Page – 239)

रोम में भी, 1953 की कांग्रेस में उन्होंने मनोविश्लेषकों के फ्रांसीसी समूह के बीच दरार के विषय को रखते हुए कहा था कि यह उस व्यक्ति के लिये बाधक होगा जो अन्य लोगों के साथ मिल कर रोम में चर्चित विश्लेषण से एक भिन्न अवधारणा को रख रहा है ।
बहरहाल, वियेना में रखे गये अपने वक्तव्य में लकान बताते हैं कि फ्रायड के पाठों पर वे पिछले चार सालों से पैरिस में हर बुधवार के दिन नवंबर से जुलाई महीने तक दो घंटे का सेमिनार करते रहे हैं । यद्यपि उनके वक्तव्य पूरे फ्रायड को दृष्टिगत रखते हुए ही होते थे, फिर भी लकान का मानना था कि वे एक चौथाई फ्रायड को ही रख पाए थे । इन सेमिनारों ने खुद उन्हें और सेमिनार में शामिल अन्य लोगों को अचरज से भर दिया था, जैसा किसी भी सच्ची खोज से होता है । उनकी कितनी अवधारणाएँ अब तक अविचारित पड़ी हैं और रोगियों के बारे में उनके कितने नोट्स अभी सामने ही नहीं आए हैं ! “उनके कामों से पता चलता है कि उन्होंने हमारे लिये काम का एक कितना बड़ा क्षेत्र खोल दिया था ।” लकान ने बताया कि खुद फ्रायड अपनी केस स्टडीज की सीमाओं में कभी बंधे नहीं रहते थे ।


लकान ने कहा था कि फ्रायड की वापसी का अर्थ है फ्रायड के अर्थ की ओर, उनके लक्ष्य की ओर वापसी । यह हर व्यक्ति का विषय है । “फ्रायड की खोज सत्य पर सवाल करती है और ऐसा कोई नहीं है जो सत्य के बारे में, सत्य की शक्ति के बारे में सोचता नहीं है ।

अवचेतन के प्रसंग में वे इसे नित्शे की जीवन को झूठ मानने वाली घटिया बात से अलगाते हुए कहते हैं कि यह अपने-अपने विश्वास का भी मामला नहीं है । यह आदमी के अहम् की रक्षा का उपाय भर नहीं है, यह मनुष्य की रक्षा का उपाय है — वस्तु को अलग करके उसका व्यक्ति के खिलाफ प्रयोग किया जाता है । वह सत्य क्या है जिसके बिना चेहरे और नकाब के बीच फर्क नहीं किया जा सकता है, और उसे हटा देने से खुद इस गोरखधंधे के अलावा कोई दूसरा प्रेत नहीं दिखाई देता है ? दूसरे शब्दों में अगर दोनों ही, वास्तविक चेहरा और नकाब, समान रूप से यथार्थ हैं तो उनमें भेद कैसे किया जाएगा ?
इसमें लकान एक मार्के की बात कहते हैं कि “सत्य को यदि एक बार आत्मसात कर लिया जाता है तो उसे अलग से पहचानना सरल नहीं होता है । ऐसा नहीं है कि कुछ स्थापित सत्य नहीं होते हैं, लेकिन वे उन्हें घेरे हुए यथार्थ से इस कदर घुल-मिल जाते हैं कि उसे अलग से पहचानने का लंबे काल तक कोई ऐसा साधन नहीं मिला था, जो उसे किसी दूसरी दुनिया से आए आत्मा के संकेत और उनके प्रति श्रद्धांजलि के भाव से अलगा सके । यह वह कहानी नहीं है जिसे इस तथ्य के प्रति आदमी की एक प्रकार की अंधता कह दिया जाए कि सत्य उसके लिये कभी भी उस खूबसूरत लड़की की तरह नहीं होता जिसके हाथ में ऊपर उठे हुए प्रकाश से अनपेक्षित रूप में उसकी नग्नता प्रकाशित हो जाती है ।” इसीलिये फ्रायड के हवाले से वे कहते हैं कि मनोविश्लेषक को आगे क्या होने वाला है, उसके प्रति किंचित बेवकूफ ही बने रहना चाहिए ।

लकान ने यहीं पर कहा था कि पागलपन का अध्ययन सत्य का संधान है । फ्रायड के मुंह से सत्य ऐसा होता है जैसे बैल को उसके सींग से पकड़ा गया हो । “तुम्हारे लिये मैं उस औरत की गुत्थी की तरह हूं जो जैसे ही उपस्थित होती है, दूर खिसक जाती है । तुम पुरुष अपने गुणों के आडंबर से मुझे छिपाने की इतनी भारी कोशिश करते रहते हो । फिर भी मैं मानता हूं कि तुम्हारी उलझन बिल्कुल सही है, क्योंकि जब भी तुम मुझे अपने तरीके से चलाने की कोशिश करते हो, मेरे बाने में उतर कर तुम अपने कपड़ों से ज्यादा कुछ नहीं बन पाते हो, जो तुम्हारे जैसे ही, एक मरीचिका की तरह होते हैं । तुममें प्रवेश करके मैं कहां जा रहा हूं ? और उसके पहले कहां था ? क्या मैं तुम्हें शायद कभी भी बताऊंगा ? लेकिन ताकि तुम जान पाओ कि मैं कहां हूं, मैं तुम्हें सिखाऊँगा कि किस संकेत से तुम मुझे पहचान सकते हो । ऐ पुरुष, सुनो, मैं तुम्हें गोपनीय बात बता रहा हूं । मैं, सत्य, बोल रहा हूँ ।”
इस प्रकार चीज खुद बोलती है । लकान ने लिखा कि “फ्रायड ने यह घोषणा की थी कि किसी को भी शिक्षित करना, शासित करना और उसका मनोविश्लेषण करना, ये तीनों काम एक साथ असंभव है । क्यों, क्योंकि इन तीनों कामों को करते वक्त सामने वाला (Subject) उस हाशिये में खिसक जाता है जिसे फ्रायड ने सत्य के लिये आरक्षित रखा था ।” (देखें, Jacques Lacan, Ecrits, page- 401-436)

हमारे अभिनवगुप्त कहते हैं कि “सत्य विश्व का जीवन है और वह केवल प्रकाश स्वरूप है ।” और “नील पीत सुख यह सब प्रकाशस्वरूप शिव ही है । इस प्रकाश स्वरूप परमाद्वैत के विषय में कौन सा उपाय उपेय संबंध हो सकता है क्योंकि वह केवल प्रकाश ही है ।”


बहरहाल, लकान ने फ्रायड के बारे में कहा था कि वे उन मामलों की ही चर्चा करते हैं जिन्हें वे आसानी से प्रमाणित नहीं कर पाते हैं । और, लकान के अनुसार, इसीलिये वे इतने मूल्यवान होते हैं । किसी भी विषय का आसानी से विश्लेषण न कर पाना ही उसे मूल्यवान बना देता है । फ्रायड ने एक समय के बाद अपने परिचित, निकट के लोगों का विश्लेषण करना बंद कर दिया था । दरअसल, फ्रायड के विश्लेषण बहुत बेबाक होते थे और उन्हें वे भविष्यसूचक नहीं मानते थे । वे जब किसी ऐसी प्रवृत्ति को खोलते जो विषय की मूल प्रवृत्ति से अलग होती है, तभी उनकी खोज की ताजगी हमें ऐसे संकेतक के प्रयोग को देखने से रोकती है जो उस प्रवृत्ति में ही अन्तरनिहित होता है । लेकिन जब फ्रायड किसी आदमी की नियति पर कोई राय देते तो उसमें हमें ईडीपस की कहानी में थेब्स के उस अंधे संत टायरीसियस की दुविधा देखने को मिलती थी, जिसने ईडीपस को बताया था कि उसने अपने पिता की हत्या करके अपनी मां से शादी की है । यह किसी अघटन को व्यक्त करने की तरह होता था । फ्रायड अपने सोच के इस विस्फोटक चरित्र से पूरी तरह वाकिफ थे । अपने सहकर्मी कार्ल जुंग से, जो 1913 में ही फ्रायड से अलग हो गये थे और आदमी पर माइथोलोजी के प्रभाव के अध्ययन में निमज्जित हो गये थे, फ्रायड ने न्यूयार्क की यात्रा (1909) के दौरान कहा था कि ये अमेरिकी नहीं जानते कि हम उनके लिये प्लेग ले कर जा रहे हैं ।

मनोविश्लेषण की दुनिया में फ्रायड और जुंग के रिश्तों के बारे बहुत चर्चा रही है । फ्रायड जुंग से 1906 में मिले थे और दोनों में बहुत ही गाढ़ी दोस्ती हो गई थी । एक समय में फ्रायड जुंग को अपना बेटा भी कहने लगे थे । लेकिन कहते हैं कि जब फ्रायड ने जुंग की ‘ईडीपस ग्रंथी’ की खोज कर ली, तब उन्हें उससे अपना नाता तोड़ने में एक क्षण नहीं लगा । जुंग का रूझान सामूहिक अवचेतन की अभिव्यक्तियों के विषय, धर्म, रहस्यवाद और परातात्विक विषयों की ओर हो गया था ।


जो भी हो, लकान की फ्रायड के बारे में यह साफ राय थी कि यदि उन्होंने मनोचिकित्सा का मार्ग न खोला होता तो इस क्षेत्र के किसी भी विश्लेषक का आज कोई स्थान नहीं होता, कोई अपने को विश्लेषक नहीं कह सकता । यहां तक कि फ्रायड ने भी अपने को विश्लेषक नहीं कहा था । कोई भी नौसिखिया आदमी किसी को कोई नुस्खा बता देने से विश्लेषक नहीं कहला सकता है । फ्रायड ने भी जब आदमी की वासना तक सीमित मनोविज्ञान को निकाल कर उसके लक्ष्य की सापेक्षता में रखा, तभी उसने एक विज्ञान का रूप लिया था । अन्य किसी भी क्रांति की तरह फ्रायडीय क्रांति भी अपने संदर्भों से ही अपना अर्थ ग्रहण करती है, उस समय तक मनोविज्ञान का जो रूप था, उसके संदर्भ से । वैसे ही फ्रायड के बाद मनोविश्लेषण फ्रायड के कामों से ही संदर्भित होता है।


इस बारे में लकान ने नए-नए शब्दों को गढ़ने की अपनी प्रवृत्ति के अनुसार एक शब्द गढ़ा था — ‘s’hystorize’ । एक शब्द जो एक साथ चार भावों को व्यक्त करता था — Authority (अधिकार), hysteria (प्रमाद), Tore (अलगाव) और History (इतिहास) । लकान अपने मनोविश्लेषक मित्रों से पूछते हैं कि भले आप इस पेशे में अपने बाप-दादा के कारण ही आए हो, पर यह वंश परंपरा आपको क्या पहचान देगी — एक रबड़ स्टांप की पहचान । मेरा जन्म इसका प्रमाण-पत्र है । लकान इसे ठुकराते हुए कहते हैं कि मैं कवि नहीं, कविता हूं ; कविता जिसे लिखा जा रहा है, भले मैं किसी आदमी की शक्ल में क्यों न रहूं । यह प्रमाण-पत्र क्या आपको खुद को hystorize करने के लिये प्रेरित कर सकता है ? ऐसा विश्लेषक अपने पूर्व के विश्लेषकों को मार कर सामने आता है, जिसे आप एक सकारात्मक स्थानांतरण कह सकते हैं ।

इसी पूरे संदर्भ में लकान कहते हैं कि मनोविश्लेषण का पेशा सपनों के अचेत कार्य, सत्य की मरीचिका के खेल से अपने को जोड़ता है, जिससे सिर्फ झूठ की अपेक्षा की जा सकती है । इसे ही विनम्र भाषा में हम ‘प्रतिरोध’ कहते हैं । इस विश्लेषण के अंत में जो हासिल होता है, उसके लिये संतोष के अलावा दूसरा कोई शब्द नहीं है ।   

बहरहाल, यदि हम गहराई से गौर करे तो पायेंगे कि फ्रायड की 1895 की ‘सपनों की व्याख्या’ (The interpretation of Dreams), दैनंदिन जीवन के मनोवैज्ञानिक उपचार, चुटकुलों और अवचेतन के बीच संबंध आदि की तमाम बातें अपनी मूल प्रकृति में भाषा के जगत की बातें थी, शब्दों और लक्षणों के विन्यास के बीच संबंध से जुड़ी बातें । 1895 में ही फ्रायड ने रोगी से ‘बातचीत में शामिल होने के बारे में’ चर्चा में कहा था कि रोगी को एक खास क्षण में अचानक दर्द उठ जाता है । इसके कोई शारीरिक कारण नहीं नजर आते हैं । इस दर्द से पता चलता है कि कुछ ऐसा है जो उसके अंदर कुलबुला रहा है, अनकहा पड़ा है । इसी से शारीरिक बोध और भाषाई स्वरूप के बीच के संबंध का संकेत मिलता है । और, इसी से मनोविश्लेषक को एक संदेश मिल जाता है, रोग के कारण के संकेत मिल जाते हैं ।     


रोग के लक्षण और बातें


इस प्रकार फ्रायड के अध्ययनों से हम जान पाए कि कैसे कोई लक्षण और आदमी की क्रिया के पीछे वस्तुतः शरीर में फंसे हुए शब्द हो सकते हैं । लकान का प्रसिद्ध 85 पृष्ठों का लेख जिसे उन्होंने 26-27 सितंबर 1953 के दिन रोम में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलोजी की कांग्रेस में पेश किया था, वह इसी विषय पर था — “मनोविश्लेषण में बात और भाषा की भूमिका और उनका परिसर” (The Function and Field of Speech and Language in Psychoanalysis)
इस लेख के प्राक्कथन के प्रारंभ में उन्होंने 1952 में मनोविश्लेषण संस्थान के उद्देश्य में लिखी गई इस बात को रखा था कि
“विशेष रूप से हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रूणशास्त्र, शरीर रचना विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और चिकित्साशास्त्र में विभाजन का प्रकृति में कोई अस्तित्व नहीं है और ये सब एक विधा — स्नायुजीव विज्ञान ( Neurobiology) के अंतर्गत हैं । पर्यवेक्षणों के जरिये हम उसमें मनुष्य के उन लक्षणों को जोड़ते हैं जो हमारे विचार के विषय होते हैं ।”



इसी में लकान कहते हैं कि किसी भी तकनीक को तब तक न समझा जा सकता है और न उसका सफलता से रचनात्मक प्रयोग किया जा सकता है, जब तक वह जिस बात पर आधारित है उसे सही ढंग से नहीं समझा जाता है । मनोविश्लेषण की सारी अवधारणाएँ भाषा के क्षेत्र में जाकर ही अपना पूरा अर्थ ग्रहण करती है और बातों, कथन की भूमिका के संबंध में क्रमबद्ध होती है ।

मनोविश्लेषक के पास उसका प्रमुख औजार होता है — रोगी की बातें । घटना को शब्दों का रूप दे कर लक्षणों को दूर करना । फ्रायड का प्रसिद्ध अन्ना ओ का मामला इसीलिये महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें अन्ना ओ के लक्षणों को उसके साथ हुई घटनाओं की स्मृतियों को शब्दों में ढाल कर ही दूर किया गया था । मनोविश्लेषक रोगी की बातों पर प्रतिक्रिया दे अथवा न दे, ध्यान जरूर देता है । लेकिन यदि वह यह नहीं जानता कि रोगी का कथन क्या काम करता है तब वह उन बातों के प्रति अतिरिक्त आग्रही हो जायेगा और यदि रोगी की बातों के खोखलेपन को ही वह अपने विश्लेषण में सुनने लगता है तो यह खोखलापन खुद विश्लेषक के अंदर उतरने लगेगा, वह उसे अपने अंदर महसूस करने लगेगा और इस खोखलेपन को भरने के लिये कथन के बाहर के किसी यथार्थ की दिशा में मुड़ जायेगा । आदमी जो नहीं कह रहा है, उसके व्यवहार के विश्लेषण से विश्लेषक उसे ही खोजता है । लकान कहते हैं कि यही वजह है कि रोगी से बात के वक्त उन बातों को अर्थ प्रदान करने वाला एक ‘अन्य‘ भी वहां मौजूद होता है । इस प्रकार इन बातों में शरीर होता है, भाषा होती है और तीसरा सत्य भी होता है । यहीं से आदमी के चित्त और कल्पना में यथार्थ की भूमिका की जगह बनती है । एक दबे हुए आदमी की आक्रामकता निराशा में मृत्यु की कामना करती है, जबकि जानवर निराश हो कर खूंखार हो जाता है । इस प्रकार आक्रामकता का ठोस स्वरूप हमेशा हमारी कल्पना के आक्रामक पहलू से भिन्न होता है ।
जो भी आदमी के व्यवहार को किन्हीं यांत्रिक फार्मूलों से समझने पर विश्वास करते हैं उनसे लकान का सवाल था कि उनके लिये आदमी की अपनी स्मृतियों का कोई स्वतंत्र महत्व है या नहीं ? पुरानी बातों को दोहराते वक्त भी आदमी एक प्रकार से भाषा में बोल रहा होता है । यहां तक कि सम्मोहन की दशा में भी, जब आदमी अपनी सचेत अनुभूतियों से कट जाता है, उसकी अभिव्यक्ति भाषाई अभिव्यक्ति ही होती है, अर्थात् भाषा के साथ जुड़ी हुई सारी चीजें उसके साथ मौजूद रहती है । (Ecrits, page – 256)


फ्रायड के यहां एक पदबंध आता है — ‘मृत्यु कामना’ (Death Instinct) । कामना तो जीवन में आदमी की क्रियाओं को संचालित करती है और मृत्यु जीवन को खत्म करती है । यह दोनों जीवन के सत्य हैं । पर किसी विक्षिप्त आदमी में यह जीवन और मृत्यु का चक्र मानो तेजी से बार- बार घटित होने लगता है । इसे उसके दैनंदिन व्यवहार में देखा जाने लगता है । तब वह सिर्फ जैविक अर्थात् एक शारीरिक मामला नहीं रह जाता है । (Ecrits, page – 317)

बहुत से विश्लेषक इस प्रकार के दो परस्पर-विरोधी पदों को एक साथ जोड़ कर रखने पर ठिठक जाते हैं । जैसे अचेतन विचार (Unconscious thought) । लकान इसे उनकी द्वंद्वात्मक अज्ञता कहते हैं । यह अज्ञता किसी भी सिद्ध कथन से शब्दार्थ विज्ञान के सामने खड़ी होने वाली क्लासिकल समस्या से घबड़ा जाया करती है । यहीं पर लकान ने ही अभिनवगुप्त के ‘ध्वन्यालोक’ से एक उदाहरण लिया है । वे अभिनवगुप्त का हमेशा हिंदू सौन्दर्यशास्त्री कहके जिक्र किया करते थे और सूक्ष्मता से जांच करने पर साफ पता चलता है कि शब्द के ध्वन्यात्मक पहलू के चित्तमूलक प्रभाव पर भारत में जो काम हुआ था, फ्रायड और लकान उससे काफी परिचित थे और उसके महत्व को समझते थे ।


लकान ने इस संदर्भ में अभिनवगुप्त का जो उदाहरण लिया वह ‘गंगायां घोषः’ (a hamlet on the Ganges) वाक्य का था । अभिनवगुप्त ने इसके बारे में लिखा था कि “घोष पद का अर्थ अभीरपल्ली (झोपड़ी) है ।...प्रत्यक्षतः हम देखते हैं कि जलप्रवाह में झोपड़ी रुक नहीं सकती है । वह बह जायेगी । इस प्रत्यक्ष बाधित अन्वयानुपपत्ति (दोनों के बीच असंगति) के कारण यहां मुख्यार्थ का बाध होता है ।” इस पर अभिनव का कहना था कि “इस मुख्यार्थ के बाध के कारण ही यहां पर लक्षणाशक्ति की प्रवृत्ति होती है । (मुख्यार्थबाधादिसहकार्यपेक्षार्थप्रतिभासनशक्तिर्लक्षणाशक्ति) इससे यह भी निश्चित हो गया कि मुख्यार्थ बाध का कारण अन्वयानुपपत्ति ही है ।”

इस पर आपत्ति करने वालों को जवाब देते हुए अभिनवगुप्त ने इसे तात्पर्यानुपपत्ति से जोड़ा । दो पदों की असंगतिपूर्ण संयुक्ति के पीछे के तात्पर्य से । अभिनव इसकी चर्चा वहां करते हैं जहां वे ‘सिंहो वटु’  की चर्चा करते हुए बताते हैं कि इसमें काव्यत्व नहीं है, और कहते हैं कि लक्षणा तभी मुमकिन है जब 1. मुख्यार्थ का बाध हो, 2. मुख्यार्थ का संयोग हो और 3. प्रयोजन भी हो ।

बहुत सूक्ष्मता से गौर करने की बात है कि यहां शब्द की लक्षणा शक्ति कैसे प्रकारांतर से फ्रायड के मनोरोग के लक्षणों के समानार्थी प्रतीत हो रही है — जिसमें मन में कुछ अटका होना, कुछ खास कहना और विशेष उद्देश्य से कहना निश्चित तौर पर शामिल होता है । आचरण के पीछे का तात्पर्य खुलने पर अर्थ की बाधा खत्म हो जाती है ।


लकान जहां ‘मनोविश्लेषण की तकनीक में व्याख्या और रोगी के संकेत की गूंजों’ (The Resonances of Interpretation and the Time of the Subject in Psychoanalytic Technique) के बारे में चर्चा करते हैं, उसमें भी वे भारत के ध्वनि सिद्धांत की बात करते हैं । वे कहते हैं कि यह “हिंदू परंपरा हमें ध्वनि के बारे में सिखाती है, कथन के उस गुण को परिभाषित करती है जिससे जो कहा नहीं गया, उसे संप्रेषित किया जाता है ।” (Ecrits, page 294-295)

यहां लकान ने अभिनवगुप्त से ही एक और उदाहरण लिया है जिसका उन्होंने ‘ध्वन्यालोक’ में वहां जिक्र किया था जहां वे ‘प्रतीयमान विवेचन’ पर बात कर रहे थे । यह बताने के लिये कि प्रतीयमान अर्थ वाच्यार्थ से कैसे भिन्न होता है, वे एक गाथा का उल्लेख करते हैं, जिसका अर्थ है — “हे धार्मिक ! आप विश्वासपूर्वक भ्रमण करें, वह कुत्ता जो आपको परेशान किया करता था उसको आज इस गोदावरी नदी के तट के कुंज में रहने वाले सिंह ने मार दिया ।”

इस पर अभिनवगुप्त कहते हैं कि “इस गाथा का वाच्यार्थ तो विधिरूप है । भ्रमण करने के लिए विधान रूप है, किंतु इसका प्रतीयमानार्थ निषेध रूप है । वह इस प्रकार है कि अब तक तो यहां कुत्ता ही रहता था इसलिये आप यहां आ जाते थे, अब यहां मांसभक्षी सिंह आ गया है । अब यहां आने में आपको अपने प्राणों का खतरा है । अतएव इधर कभी मत आइयेगा ।” (ध्वन्यालोकः, पृष्ठ – 44)



प्रतीयमान अर्थ के तात्पर्य को और व्याख्यायित करते हुए अभिनवगुप्त कहते हैं — “यह प्रतीयमान अर्थ वाच्यार्थ के आश्रित होता है तथा वस्तु, अलंकार तथा रसादि के भेद से अनेक प्रकार का होता है ।” यहीं पर अभिनवगुप्त ‘ध्वनि’ की जो परिभाषा और व्याख्या पेश करते हैं, वह हमारी इस पूरी लकान और मनोविश्लेषण संबंधी चर्चा में अभिनवगुप्त के बार-बार प्रवेश की संगति को प्रमाणित करने के लिये काफी है ।

वे इसमें प्रतीयमान अर्थ के तौर पर मनुष्य के स्वप्न में आने वाले सहृदयों के हृदय में विद्यमान रति आदि स्थायी भाव की वासना के रसस्वरूप का जिक्र करते हैं । “उसी प्रतीयमान अर्थ को काव्यव्यापारैकगोचर रस ध्वनि कहते हैं । वह भी ध्वनि है । वह सभी ध्वनियों में मुख्य होने के कारण काव्य की आत्मा होती है ।” (वही, पृष्ठ 45)

फ्रायड कहते थे, हर सपने की एक शाब्दिक संरचना होती है । एक चित्रात्मक पहेली । बच्चों के दिमाग में बनने वाले चित्र । हमारे ‘ध्वनिवादी’ के शब्दों में अविवेक्षित (अनभिप्रेत) व्यंजना । फ्रायड कहते है कि वे वयस्कों के सपनों में भी ध्वन्यात्मक और प्रतीकात्मक सांकेतिक तत्त्वों, व्यंजनाओं का पुनरूत्पादन करते है । जैसे मिस्र में पाई जाने वाली चित्रलिपि (Hieroglyphs) और आज चीन में प्रयुक्त होने वाले संकेताक्षर ।

लकान के कहना था कि फ्रायड ने यह नियम की तरह तय किया था कि एक सपने में हमेशा एक वासना की अभिप्रेत की खोज करनी चाहिए । लेकिन इससे उनका क्या तात्पर्य था, इसे जानना होगा । फ्रायड यदि इसे सपने का कारण मान लेते हैं, जो उनकी थिसिस के विपरीत लगता है, तो सामने वाले व्यक्ति में, जिसे वे अपने सिद्धांत को समझा रहे थे, उन्हें ही काटने की वासना को वे क्यों खुद के लिये किसी कारण के रूप नहीं स्वीकारते हैं, जब उनका नियम ही अन्य से आया हुआ माना जाता है ?

संक्षेप में, कहीं भी यह इतना साफ नहीं दिखाई देता है कि आदमी की वासना अन्य की वासना से अर्थ ग्रहण करती है, इसलिये नहीं कि अन्य के पास उसकी वासना की कोई अलग वस्तु होती है, बल्कि उसका पहला लक्ष्य होता है कि अन्य उसे स्वीकारे । लकान सबके अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि जिस क्षण विश्लेषण उपचार के पथ पर बढ़ता है, जिसका पता इस बात से चलता है कि रोगी किस हद तक बातचीत में शामिल हो रहा है, उसी क्षण से रोगी के प्रत्येक सपने को एक उकसावे के रूप, उसके आंतरिक प्रतिरोध और भटकाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए, और जैसे-जैसे विश्लेषण आगे बढ़ता है, उसके सपने विश्लेषण के दौरान संवाद के रूप में बदलने लगते हैं ।



फ्रायड ने ‘दैनंदिन जीवन में मनोचिकित्सा’ का जो एक नया क्षेत्र खोला था, उसमें उनका साफ कथन था कि “आदमी का हर उटपटांग नजर आने वाला कदम एक सफल, बल्कि ‘सुविन्यस्त’ विमर्श होता है और जिसे दबा कर रखा जाता है, जुबान की फिसलनों से वही कथन का रूप लेता है और इन शब्दों से सच को समझ लेना बुद्धिमान के लिये काफी होता है ।”

जो भी व्यक्ति आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ से परिचित है, वे इस बिंदु को और भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं जिसमें विवक्षित अर्थात् अपने अभिप्रेत में साफ और अविवक्षित अर्थात् अनभिप्रेत वाच्य पर व्यंजक दृष्टि के बारे में काफी विस्तार से विवेचना की गई है ।

लकान ने लिखा था कि कोई भी लक्षण विक्षिप्ततामूलक हो या न हो, उसे यदि आपको मनोविश्लेषण का विषय बनाना है तो इसके लिये फ्रायड शब्द के दोहरे अर्थ के कारण कम से कम उसके विवक्षित और अविवक्षित अर्थ के बीच फर्क करने पर बल देते थे । हम सामने वाले के साथ मुक्त संपर्क के पाठ में पीछे की सांकेतिक धारा के उदीयमान स्वरूपों पर गौर करें, ताकि उसके ढांचे के प्रमुख बिंदुओं का उन जगहों पर पकड़ सके जहां उसके लक्षण के शाब्दिक रूप सामने आते हैं, तब हमारे सामने यह साफ हो जाता है कि अब लक्षणों का समाधान भाषा के विश्लेषण के जरिये पूरी तरह से किया जा सकता है, क्योंकि तब खुद लक्षण का विन्यास भाषा की तरह होता है ; लक्षण एक भाषा है जिससे किसी न किसी बात का स्फोट होगा ही । (देखें, Ecrits, page – 268=269)
(क्रमश:)




मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (11)



(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(11)

एक छवि में कैद होना

1936 में इंटरनेशनल साइकोएनालिसिस एशोसियेशन की कांग्रेस में लकान ने अपनी ‘प्रतिबिंब चरण’ वाली थिसिस को पेश किया था । इसके बाद सन् 1938 में फ्रेंच विश्वकोश (Encyclopedie Francaise) के लिये लिखे गये अपने लेख ‘व्यक्ति के गठन में पारिवारिक ग्रंथियां : मनोविज्ञान के कार्य के विश्लेषण की एक कोशिश’ (“The Family Complexes in the Formation of the Individual: Attempt at an Analysis of a Function in Psychology”) में वे आदमी के अपने से बाहर की किसी छवि में फंस जाने के विषय पर चर्चा करते है । वे कहते हैं कि कोई भी बच्चा अपने बाहर की किसी एक छवि से जुड़ जाता है, वह भले आईने में उसकी अपनी ही वास्तविक छवि हो या उसके बाहर के किसी दूसरे बच्चे की छवि । मोटे तौर पर इस छवि की पूर्णता, जिसकी हमने ऊपर गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की बात में चर्चा की है, उसे अपने शरीर पर एक नया अधिकार प्रदान करती है । इसमें लकान ने बच्चे के व्यवहार में एक काल में एक प्रकार के जिद्दीपन अथवा स्नेह-दुलार के दो विरोधी धुरों पर डोलने की न समझ में आने वाली बात की शानदार व्याख्या की थी । वे इसे दो अलग-अलग व्यक्तियों के बीच की किसी टकराहट के साथ जोड़ कर देखने के बजाय, मसलन्, बच्चे और उसे देखने वाले के बीच की टकराहट के रूप में देखने के बजाय बताते है कि यह स्थिति दोनों के ही अपने-अपने अंदरूनी द्वंद्व से पैदा होती है, जो अपने को अन्य पक्ष के साथ जोड़ कर देखने की वजह से पैदा होता है । यह व्यक्ति के मानस अथवा चित्त के विकास का एक संगठनात्मक सिद्धांत है, न कि महज शैशव का कोई एक क्षण । यदि हम अपने को अपने से बाहर की किसी छवि के साथ जोड़ लेते हैं तो हम ऐसी चीजें कर सकते हैं जो पहले नहीं कर सकते थे । लेकिन ऐसा करने की हमें एक कीमत देनी पड़ती है । यदि कोई अपने को दूसरे बच्चे से पूरी तरह जोड़ लेता है तो उसको चोट लगने पर वह भी रोने लगेगा । किसी चीज को पाने की उसमें जो इच्छा पैदा होगी, उसमें भी उसे ही पाने की इच्छ पैदा होगा, क्योंकि वही उसकी जगह होता है । इस प्रकार आदमी एक ऐसी छवि में फंस जाता है, जो बुनियादी रूप से उससे बाहर होती है, अलग होती है ।


इससे बिल्कुल भिन्न, किसी भी मनुष्य का अपनी खुद की क्रियात्मकता (Motor Function) पर अधिकार होना और खुद के बूते मनुष्यों के जगत में प्रवेश करना, उसमें विचरण करना उसके एक मूलभूत अलगाव, विच्छिन्नता की कीमत पर ही संभव होता है । यह अन्यों की छवि से मुक्त होना होता है । इसे ही तंत्रशास्त्र अपनी पदावली में शिव का स्वातंत्र्य कहता है, आत्म के विस्तार की प्रक्रिया में शिव के स्वातंत्र्य की भूमिका । लकान इसे आदमी की वह ग्रंथी कहते हैं जिसमें आदमी की अपनी पहचान बनती है, एक 'कल्पना प्रसूत' पहचान । यह व्यक्ति की आत्मरक्षा का एक आंतरिक उपाय, अन्दुरूनी ढांचा है । लकान दृष्ट अर्थात् चाक्षुस, और उसकी एक छवि में बच्चे के जकड़े जाने के बीच के संबंध को समझने पर बल देते हैं ।


“एक मरीचिका में अपनी पूरी देह को देखकर गेस्टाल्ट से व्यक्ति अपनी शक्ति से जिस प्रकार परिचित होता है, वह उससे बाहर की एक परिस्थिति है । यह आकार इस रूप में अपने में एक संघटन होने की तुलना में कहीं ज्यादा चित्त का, व्यक्तित्व का संघटनकारी होता है । सर्वोपरि, उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी पूरी आकृति के अंश जिनके उपद्रव से, हाथ-पैर पटकने से वह सोचता है कि वह उन्हें सजीव करता है, वे उस पूर्ण आकृति में एक संहति में दिखाई देने से बिल्कुल भिन्न, बल्कि उलटे नजर आने लगते हैं ।” (Ecrits. p – 95) अलग-अलग अंगों का संचालन समग्रता में कत्तई अलग-अलग नहीं रह जाता है । इसीप्रकार, प्रत्यक्ष की समग्रता मनुष्य में 'मैं' की एक स्थायी मानसिक आकृति तैयार करती है, जो उसकी चेतना में बस जाती है । और यही है जो उसे विच्छिन्न, अपनी खास पहचान के साथ अलग-थलग भी करती है । यही संहति 'मैं' को उसकी उस प्रतिमा से जोड़ती है जिसमें वह खुद को पेश करता है, वह प्रेत उस पर सवार हो कर अपने ही बनाये संसार की स्वयंक्रिया से एक धुंधले संबंध के जरिये आनंद लेना चाहता है । बाकी अनेक चीजें उसके लिये बंद, foreclosed हो जाती है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे । इसी प्रकार की नाना निजी और सामाजिक प्रक्रियाओँ के बीच से भी ज्ञान मस्तिष्क पर अज्ञान की पट्टी बन जाता है ।


बहरहाल, इस खास गेस्टाल्ट प्रक्रिया को हमारा आध्यात्मवादी तंत्रशास्त्र 'प्रत्यावृत्त तेज' का परिणाम कहने पर भी इसकी पूर्णता के अधिष्ठान को प्रमाता (subject) की देह के विभिन्न स्थलों के चाक्षुस तेज से जोड़ता है । मूल बात है, स्वयं में एक प्रकार की पूर्णता की चेतना । आधुनिक मनोविश्लेषण इसे आदमी की अपनी प्रतिमा से जोड़ कर इसके मिथ्याभास को समझने पर बल देता है । तथापि लकान कहते हैं कि “मनुष्य का ज्ञान वासना के वशीभूत पशु के ज्ञान से ज्यादा स्वतंत्र होता है क्योंकि इसमें एक सामाजिक द्वंद्वात्मकता की भूमिका होती है, जो एक अलग दबाव, डर के रूप में मनुष्य के ज्ञान का विन्यास करती रहती है”।  लेकिन, लकान के शब्दों में ही “जो चीज इसे सीमित करती है वह है 'तुच्छ यथार्थ', (scant reality), अतियथार्थवादियों का असंतोष इसी चीज की आलोचना किया करता है ।”(Ecrits, page – 96)

अहम् (Ego) और अलगाव (Alienation)

बहरहाल, लकान यह दिखाते हैं कि इस प्रकार की अपनी एक पूर्ण छवि को लेकर अलगाव की चेतना के साथ ही मनुष्य में अहम् का प्रवेश होता है । अहम् स्वयं से जुदा, एक अलग पहचान की निर्मिति है । इसके निर्माण की प्रक्रिया देह और स्नायुतंत्र की शुरूआती अपूर्णता के वक्त से ही शुरू हो जाती है ।

इसके बारे में लकान की थिसिस से सन् 1914 में फ्रायड ने आत्ममुग्धता (narcicism) के विषय में जो सवाल उठाये थे, उनका एक जवाब मिलता है । मनुष्य का अहम् ही उसकी आत्ममुग्धता का अधिष्ठान होता है, लेकिन आत्ममुग्धता यदि मनुष्य में जन्म के साथ नहीं पाई जाती है तो सवाल रह जाता है कि आत्ममुग्धता के पैदा होने की क्या वजह होती है ? अहम् के ऐसे संघटन के लिये किसी न किसी नई मनोवैज्ञानिक क्रिया का होना जरूरी है । फ्रायड ने यह नहीं बताया था कि वह क्रिया क्या होती है । लकान की 'प्रतिबिम्ब चरण' की थिसिस से फ्रायड के द्वारा अनुत्तरित रख दिये गये इस सवाल का माकूल जवाब मिला था । “आदमी की अपनी प्राकृतिक वास्तविकता में ही उसकी जैविक कमी निहित होती है, सामाजिक द्वंद्व तो बाद की चीज है ।” (वही, पृष्ठ – 96) उस पहलू को वे अन्य के साथ व्यक्ति के संबंध के संदर्भ में अपने लेखन में काफी गहराई और विस्तार से व्याख्यायित करते हैं ।

नकारात्मक मतिभ्रम


यदि आदमी का अहम् ही स्वयं में संपूर्ण और संहत हो तो यह मानना होगा कि उसके बाहर की देह एक बिखरी हुई, उससे लगभग असंलग्न सी चीज होती है। लकान कहते हैं कि इस प्रकार अहम् सब कुछ नहीं, बल्कि हमेशा एक अप्रमाणिक माध्यम है जो अपनी खुद की अखंडता की कमी को ढंकने की कोशिश में लगा रहता है । यही नकारात्मक मतिभ्रम कहलाता है । कहना न होगा, अहम् के बारे में लकान की इस अवधारणा में फ्रायड के ही कुछ प्रारंभिक विचारों की झलक मिलती है ।

'प्रतिबिंब चरण' लकान के शब्दों में “एक नाटक है जिसका अंदुरूनी दबाव आदमी में अपनी कमी को पूरा करने की तीव्रता पैदा करता है और आदमी अपनी एक निजी पहचान के चक्कर में अपनी देह की विखंडित कल्पना से शुरू करके एक समग्रता की ओर लपकता है और एक ऐसी बाहरी पहचान में फंस जाता है जिसके संख्त सांचे में ही आगे उसका मानसिक विकास होना होता है । इस प्रकार अंतर के बाह्य के वृत्त में बिखराव से अहम् की कभी न पूरी होने वाली, खुद की कमी को पूरा करने की हवस की दौड़ शुरू हो जाती है ।

फ्रायड में इस प्रकार के नकारात्मक मतिभ्रम को लेकर काफी उत्सुकता थी । वे कहते हैं कि आदमी की आंख पर सम्मोहन का पर्दा डाल कर उसे यदि यह बता दिया जाए कि इस कमरे में कोई फर्नीचर नहीं है और उससे कहा जाए कि उसे उसी कमरे के किसी दूर के कोने से कोई चीज उठा कर लानी है, तब भी वह उस कोने में बेहिचक सीधे चल कर नहीं जाता है, बल्कि बड़ी सावधानी से अपना रास्ता बनाते हुए सा बढ़ता है — जैसे फर्नीचर से ही बच कर जा रहा हो । इसके बारे में जब उससे पूछा जाता है तो वह जवाब में झूठ बोलता है कि वोह दीवार पर टंगी हुई उस तस्वीर को देख रहा था या उसने वहां अपनी एक मित्र को देखा तो उस ओर मुड़ गया था ।

झूठा अहंकार


कहने का तात्पर्य यह है कि सम्मोहन में फंसे व्यक्तियों की क्रियाओँ के पीछे के तर्कों को पकड़ कर उनकी वास्तविक मनोदशा पर विचार किया जा सकता है । अन्य टिप्पणीकारों ने इस अहम् को झुठलाने वाले चरित्र के नकारात्मक मतिभ्रम को एक पूरी तरह से अलग-थलग परिप्रेक्ष्य में रखा था, लेकिन फ्रायड और लकान ने इसे अहम् की अपनी नैसर्गिकता के रूप में देखा ।

आदमी के बचपन में प्रतिबिंब चरण के वक्त के अहम् की तरह ही आदमी में अहम् की भूमिका अपनी एक संहति और संपूर्णता की झूठी प्रतीति को बनाये रखने की होती है । इसी वजह से फ्रायड मानते थे कि अहम् के क्षेत्र से निकलने वाली हर सामग्री को मनोचिकित्सा में भरोसा न करने लायक, भरमाने वाली सामग्री के तौर पर देखना चाहिए । मनोविश्लेषण के किसी भी सिद्धांत में जिसमें मनोचिकित्सक रोगी के अहम् के साथ किसी भी प्रकार से जब अपने को जोड़ता या समझौता करता है, वह सिद्धांत बुनियादी रूप से ही विश्लेषण को एक गलत दिशा में मोड़ देता है । तब रोगी और विश्लेषक के बीच परस्पर छल के सिवाय कुछ नहीं बचा रहता है ।


जैसा कि उपरोक्त चर्चा से ही जाहिर है, लकान के काम के शुरू के अंश में आदमी का चित्त दो छोर के बीच डोलता रहता है : उसकी एक छवि, जो उससे बाहर होती है, और दूसरा, उसकी वास्तविक देह, उसका शरीर जो कई अंगों में बटा होता है । 1930 के दशक और 1940 के दशक के प्रारंभ में लकान ने अक्सर शास्त्रीय मनोविश्लेषण की जटिलताओं के पीछे विखंडित शरीर की छवियों की उपस्थिति को दिखाने की कोशिश की थी । विखंडन की इस फैंटेसी को विक्षिप्तता , Neurosis की बहुचर्चित फैंटेसी के पीछे भी पाया जा सकता है । लकान ने यह थिसिस दी कि डर में हम एक प्रकार के ठहरे हुए गदलेपन को देख सकते हैं जो गदलापन छवि के सामान्य संघटन और प्रत्यक्ष नजर आने वाले सत्य के चरणों को साफ रूप में दर्शाता है । यह अनुभूति की वह गोधुली बेला या उषा काल है जिससे आगे के उतरते हुए अंधेरे अथवा प्रकाश का अनुमान मिल सकता है ; शब्दों की लिखावट के पहले का खाली पन्ना ।

इस प्रकार लकान के लिये 'प्रतिबिंब चरण' की क्रियात्मकता एक प्रकार से आदमी के चित्त में छवियों की क्रियात्मकता का मसला बन जाता है जिससे यथार्थ और प्राणीसत्ता के बीच, अंतर और बाह्य के बीच संबंध कायम होता है । मजे की बात है कि यहीं पर आकर लकान एक स्फोट के जरिये प्रकृति के साथ आदमी के रिश्ते में बदलाव की चर्चा करते हैं ; जन्म के ठीक बाद मनुष्य में जो आदिम असंहति रहती है, वह तब बिल्कुल बदल जाती है । यही हैं आदमी में पाई जाने वाली जन्मजात कमी से निकलने की स्फोटमूलक परिघटनाएँ ।

अहम् का निर्माण


डर की अनुभूति में सामान्य तौर पर कुछ खास परिस्थितियों की छवियों के संकेत, उनसे प्रेषित होने वाले संदेश, उन पर ध्यान लग जाना और एक प्रकार की बाहरी प्रतारणा का अहसास पाये जाते हैं । इन्हें ही आदमी के अहम् के निर्माण नींव के पत्थरों के रूप में भी समझा जा सकता है । हमारा अहम् यदि खुद की बाहरी छवि से बनता है, यदि हमारी पहचान अन्य लोगों के साथ दैनन्दिन जीवन के संबंधों में उनसे भिन्नता के आधार पर हासिल होती है, तब हम इन बाहरी तत्वों के प्रति पूरी तरह से सचेत नहीं होते हैं । यद्यपि कला, साहित्य के अनेक रूपों में इस चीज को रखने की कोशिश की जाती है, जैसा कि सल्वाडोर डाली ने अपनी कृतियों में दिखाने की कोशिश की है ।

दरअसल, अहम् का सत्य खास तौर पर आदमी के पागलपन की दशा में पूरी तरह से सामने आता है जब उसके लिये बाकी दुनिया खत्म सी हो जाती है और स्वयं और अन्य के बीच के फर्क पर बिल्कुल मूलभूत सवाल उठ जाता है ।

इसी के आधार पर लकान इस नतीजे पर पहुंचे थे कि मनुष्य का ज्ञान मूल रूप से भयजनित होता है । भयाक्रांत स्थिति में ही हम अपने सारे अंग-प्रत्यंगों को, अपने गठन की सभी चीजों को, संसार के साथ अपने को जोड़ने की कोशिशों को बिल्कुल साफ-साफ देख पाते हैं । पागलपन हमें यह सब दिखा देता है ।

जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर आए हैं लकान के इस विचार को शुरू में अतियथार्थवाद के प्रभाव के तौर पर देखा जाता था । लेकिन वास्तव में इसका कहीं ज्यादा बड़ा संबंध जोसेफ कैपग्रास की तरह के फ्रांसीसी मनोचिकित्सक की धारा के काम से और उन मनोवैज्ञानिक चिंतकों के कामों से था जो खुद को जानने, आदमी की अपनी छवि-प्रतिछवि की समस्याओं के बारे में दिलचस्पी रखते थे । लकान अपने कार्यों में प्रतिबिम्ब चरण की अपनी अवधारणा पर बार-बार लौटते हैं ताकि अपने अध्ययन और विश्लेषणों में बार-बार उसे नये रूप में संदर्भित कर सके । इस मामले में वे कभी भी जड़ नहीं रहे । यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि लकान के कामों में प्रतिबिंब चरण के बारे में कोई एक निश्चित सिद्धांत नहीं है, बल्कि कईं हैं ।

सिल्विया मेकल्स बताइले

हम पहले भी इस तथ्य का उल्लेख कर चुके हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जब फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा था, लकान को फ्रांसीसी सेना में काम करने के लिये बुलाया गया था और उन्हें पैरिस के ‘वैल द ग्रेसा’ अस्पताल में नियुक्त किया गया । इन्हीं दिनो सिल्विया मेकल्स बताइले से उनके संबंध हुए । बताइले एक लेखक जार्ज बताइले की पत्नी थी जिनसे लकान की मुलाकात 1933 में उन दिनों हुई थी जब वे हेगेल के 'भाव का घटनाचक्र' (Phenomenology of Spirit) पर अलेक्संद्र कोजेव के सेमिनार सुना करते थे । 1934 से ही सिल्विया जार्ज से अलग हो चुकी थी । 1938 में लकान ने उनसे शादी की । यह उनकी दूसरी शादी थी । इसके पहले 1934 में लकान ने अपनी बहन की दोस्त मैरी लुईस ब्लोंडिन (1906-1983) से शादी की थी जिनसे उनके तीन बच्चे भी हुए । ब्लोंडिन से लकान का बाकायदा तलाक 1941 में हुआ था ।

सिल्विया बताइले और ज्यां रेन्योर

सिल्विया बताइले अपने समय की फ्रांसीसी फिल्मों की प्रसिद्ध नायिका थी । ज्यां रेन्योर की फिल्मों में अपनी भूमिकाओँ के कारण उनका काफी नाम हो चुका था । 1938 में जब फ्रांस पर हिटलर का कब्जा हो गया था, लकान अक्सर बताइले से मिलने पैरिस से दक्षिणी फ्रांस की ओर जाया करते थे । 1941 में उनकी बेटी जुदिथ का जन्म हुआ ।
लकान और मैरी लुईस ब्लोंडिन

जर्मनी पर हिटलर के कब्जे के बाद जिन पुस्तकों को सार्वजनिक रूप से जलाया गया था, उनमें फ्रायड की किताबें भी शामिल थी । फ्रायड यहूदी थे । 1930 में ही जर्मनी की साहित्यिक संस्कृति में उनके योगदान के लिये उन्हें प्रसिद्ध गोयथे पुरस्कार मिल चुका था । हिटलर ने जब किताबों का दहन किया था तब फ्रायड ने क्षुब्ध हो कर कहा था कि “हमने क्या प्रगति की है । मध्ययुग होता तो वे मुझे ही जला देते ।” इन परिस्थितियों में ही 1938 में फ्रायड वियेना से लंदन आ गये । लंदन की यात्रा के बीच में ही फ्रायड पैरिस में रुके थे, जहां फ्रायड की एक बहुत धनी मित्र और मनोविश्लेषक प्रिंसेस मैरी बोनापार्ट ने, जिन्होंने नाजियों से फ्रायड को बचा कर लंदन भेजने का प्रबंध किया था, उनके सम्मान में एक पार्टी की थी । लकान इस समय तक फ्रायड के व्यक्तिगत संपर्क में आ चुके थे । उन्होंने ‘डर के मनोविज्ञान पर व्यक्तित्व के संदर्भ में’ अपनी थिसिस की एक प्रति फ्रायड को भेजी थी जिसकी प्राप्ति की फ्रायड ने उन्हें सूचना भी दी थी । लकान ने फ्रायड के एक लेख ‘ईर्ष्या, डर और समलैंगिकता में कुछ विक्षिप्त क्रियात्मकता’ (Some Neurotic Mechanisms in Jealousy, Paranoia and Homosexuality) का 1932 में ही फ्रेंच में अनुवाद भी कर चुके थे । फिर भी लकान प्रिंसेस मैरी की फ्रायड के सम्मान में पार्टी में इसलिये शामिल नहीं हो पाए क्योंकि कहा जाता है कि उन दिनों वे सिल्विया बताइले के चक्कर लगा रहे थे । फ्रायड की मृत्यु लंदन में ही 23 सितंबर 1939 के दिन 83 साल की उम्र में हुई थी ।

प्रिंसेस मैरी बोनापार्ट

द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में लकान ने सचेत रूप में लिख कर कुछ भी प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया था । वे किसी भी औपचारिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होते थे । उन्होंने इसके बारे में खुद बताया कि “कई सालों तक मैंने चुप्पी साध ली । मानवता के दुश्मन की गुलामी के तहत हमारे समय की ग्लानि ने मुझे बोलने से रोक दिया । फोटेनील (17वीं सदी के फ्रांसीसी लेखक) की तरह मैंने अपने को इस कल्पनालोक में छोड़ दिया कि मेरे हाथ में सत्य भरा हुआ है क्यों न उसे ही मुट्ठी में बांधे रहूं ।” (देखें – Ecrits, पृष्ठ — 152) लकान ने कहा था कि मैं स्वीकारता हूं कि वह एक हास्यास्पद कल्पना है, लेकिन वही उस प्राणी सत्ता की सीमाओं को दर्शाता है जो चीजों को महज देखने के लिये मजबूर होता है ।


बहरहाल, जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि 1936 में ही मैरियनबैड में आईपीए की 14 वीं कांग्रेस में लकान ने प्रतिबिंब चरण के बारे में अपना लेख पेश कर दिया था । इसके साथ ही उन्होंने मनोविश्लेषण का निजी क्लिनिक शुरू कर दिया था । 1938 में उन्होंने फ्रांस के विश्वकोश के लिये “व्यक्ति के गठन में पारिवारिक ग्रंथियों” वाला लंबा लेख लिखा था । तभी 1939 में हिटलर ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया और कहना न होगा, लकान की भी जुबान बंद हो गई ।


युद्ध खत्म होने के बाद 1945 में लकान पांच हफ्तों के अध्ययन के लिये इंगलैंड गये । अपने इंगलैंड के अनुभवों का उन्होंने बहुत महत्व के साथ अपने लेख ‘English Psychiatry and the war’ (1947) में जिक्र किया है । लकान ने युद्ध के दिनों में अंग्रेजों की मानसिकता की खास प्रशंसा की । उसी यात्रा में उनकी मुलाकात मनोविश्लेषक विल्फ्रेड बियोन और जॉन रिकमैन से हुई । इन्होंने युद्ध के दौरान अपंग हो गये और सेना के काम न आने वाले लोगों का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया था ।


लकान उस यात्रा में खास तौर पर उन सबकी छोटे-छोटे समूहों में मिल कर काम करने की पद्धति के बारे में काफ उत्साहित थे । किसी एक नेता स्वरूप अधिकारी व्यक्ति के इर्द-गिर्द लोगों को इकट्ठा करके उन्हें प्रेरित करने की पद्धति के बजाय, जिसमें मान कर चला जाता है कि लोग उस नेतृत्वकारी व्यक्ति से अपने को जोड़ लेते हैं, इंगलैंड के इन लोगों ने छोटे-छोटे समूहों में काम करने पर बल दिया । इसमें किसी एक निश्चित काम के लिये एक समूह का गठन किया जाता है । इसमें शामिल लोगों को अपनी पहचान और कर्त्तृत्व के भिन्न प्रकार के अपने लक्ष्य-केंद्रित संकेत मिलते हैं । प्रत्येक के कर्त्तृत्व के प्रश्न पर इस प्रकार की संवेदनशीलता की लकान ने काफी तारीफ की और उनका यह दावा था कि युद्ध में ब्रिटेन की सफलता में फौज में इस प्रकार के वैचारिक प्रयोगों की भी कम भूमिका नहीं थी ।

(क्रमशः)

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (10)


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(10)


(ख) 'प्रतिबिंब चरण'

जिस समय लकान ने अपनी डर के मनोविज्ञान के बारे में थिसिस पूरी की उसी समय उन्होंने एक रुदोल्फ लोवेनस्तीन का उपचार (विश्लेषण) शुरू किया था जो 1938 तक चला । लोवेनस्तीन का विश्लेषण पहले फ्रायड के शिष्य हेन्स सैक्स ने किया था । हैन्स अमेरिका चले गये, जहां बाद में उन्होंने अहम् (ego) के मनोविज्ञान पर काम किया और अहम् के उपाय (उपचार) को तय करने के कारण उनके काम की काफी प्रशंसा हुई थी ।

इसी बीच, मनोविकार और मनोचिकित्सा के ग्रंथों के बजाय लकान का रुझान क्रमश: कार्ल जैस्पर्स, हेगेल और मार्टिन हाइडेगर के दर्शनशास्त्रीय ग्रंथों की ओर हो गया था । उन्होंने अलेक्सेंद्रा कोजेव के हेगेल पर दिये गये व्याख्यानों को, जार्ज बातिले, रेमंड ऐरोन, पियर क्लौसोस्क और रेमन क्वीनो के स्तर के विचारकों के सेमिनारों को भी सुना । इन सब बौद्धिकों का तत्कालीन फ्रांसीसी बौद्धिक जगत पर काफी प्रभाव था ।



सन् 1936 में लकान ने अन्तरराष्ट्रीय मनोविश्लेषण संघ ( International Psychoanalytical Association) की सालाना कांग्रेस में 'प्रतिबिंब चरण' (Mirror Stage) के बारे में अपना एक आलेख पेश किया । उसके पहले तक उन्हें इस एसोशियेशन की सदस्यता भी नहीं मिली थी । यद्यपि लकान का दावा था कि वे इसके पहले ही इसकी सदस्यता को पाने की योग्यता रखते थे । बहरहाल, किसी भी एसोशियेशन से जुड़ने का यह लकान का पहला अनुभव था और वह अनुभव इतना त्रासद रहा कि लकान के अनुसार इससे उन्हें कोई खास मदद मिलने के बजाय उनके अंदर सैद्धांतिक और तकनीकी (व्यवहारिक) स्तर पर भी एक प्रकार की ऐसी अंतर-बाधा पैदा हुई, जो आगे उनके लिये उपलब्धि के किसी मील का पत्थर साबित होने के बजाय और हमेशा एक बड़ी समस्या के रूप में ही सामने आई !

लकान ने अपने लेख “ ‘यथार्थ सिद्धांत’ के परे” में एसोशियेशनवाद की कमियों के बारे में बहुत ही गहरी अन्तरदृष्टि के साथ विस्तृत सैद्धांतिक टिप्पणी की है । इसमें वे लिखते हैं कि “फ्रायडीय क्रांति को अपने वक्त के मनोविज्ञान के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और उस मनोविज्ञान की पर कोई राय देने का मतलब होता है उससो जुड़ी सामग्रियों की आलोचनात्मक व्याख्या । आलोचना का अपना ढांचा तैयार करना ही आलोचना को चरितार्थ करता है । चेतना के तथ्यों की व्याख्या में ऐतिहासिक विधि के प्रयोग को उचित मानने पर भी मैं उसका प्रयोग उस विधि के मूल्य पर सवाल उठाने वाली उसमें निहित आलोचना से छुटकारा पाने के लिये नहीं करूंगा । यह आलोचना इतिहास से खोजे गये अन्य तथ्यों पर आधारित होती है, इस विधि के द्वारा अपनाए गये अन्य तथ्यों में निहित होती है । इससे पता चलता है कि किसी भी विधि को अपने काम के लिए ऐसे सवाल पैदा करने वाले तथ्यों की जरूरत होती है । 19वीं सदी का मनोविज्ञान, जो अपने वैज्ञानिक होने का दावा करता है और विरोधियों पर अपने को लादता है, वह क्यों वस्तुनिष्ठता के अपने उपकरणों और पदार्थवाद के अपने पेशे, दोनों के कारण ही सकारात्मक नहीं हो पाता है, वह प्रारंभ में ही पदार्थवाद और वस्तुनिष्ठता, दोनों का ही परित्याग कर देता है, उसका इसी से पता चलता है ।”

लकान कहते हैं कि “मनोविज्ञान का यह रूप मनोरोग की तथाकथित एसोशियेशनवादी अवधारणा पर टिका हुआ था, इसलिये नहीं कि उसने इस अवधारणा को सिद्धांत का रूप दिया, बल्कि इसलिये कि उसने इस अवधारणा से, जो यद्यपि सामान्यबुद्धि की ही बात थी, कई स्वयंसिद्ध तत्त्वों की एक श्रृंखला तैयार की, जिनसे मनोरोग की समस्या को पेश करने का एक निश्चित तरीका निर्धारित किया गया । यद्यपि हम देखते हैं कि शुरू में ही जिस विन्यास में वह किसी परिघटना को रोमांचकारी अभिज्ञता, छवियों, विश्वासों, तार्किक क्रियाओं, निर्णयों आदि-आदि में निरूपित करते हैं, उसे उसने खुद पुरातन पंडिताऊ मनोविज्ञान से हूबहू लिया होता है और वह भी सदियों के दर्शनशास्त्र से लिया हुआ होता है ।”  (Ecrits, पृष्ठ – 59/74)   

बहरहाल, प्रतिबिंब चरण के बारे में उनकी इस थिसिस की मूल प्रति तो कहीं लुप्त हो गई, लेकिन सन् 1938 में Encylopedie Francaise में उस आलेख के एक प्रकार के नये संस्करण में परिवार के बारे में उनके शानदार लेख में उनकी प्रतिबिंब चरण वाली सारी दलीलें साफ रूप में आई थी । इस इंटरनेशनल कांग्रेस में लकान के आलेख पर फ्रायड के जीवनीकार और उस सत्र के अध्यक्ष अर्न्सट जोन्स ने उन्हें टोका भी था । इस थिसिस को उन्होंने तेरह साल बाद 17 जुलाई 1949 में जुरिख में मनोविश्लेषण की अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के 16वें अधिवेशन में विस्तार से समझाया था ।

'प्रतिबिंब चरण' की लकान की समझ के मूल में मानव प्राणी का यह जैविक सत्य रहा है कि प्राणी जगत में मानव-प्राणी एक ही ऐसा प्राणी है जो समय के पहले ही, जिसे कहा जा सकता है अपूर्ण रूप में, अन्याश्रित,  premature पैदा होता है । इसकी हम पहले भी चर्चा कर आए हैं । जीव जगत का यह प्राणी जन्म के साथ न चल सकता है, न अपनी बात कह सकता है । न चीजों को उठा सकता है और न उनकी ओर बढ़ सकता है, न दूर जा सकता है । अपने क्रियात्मक पक्षों पर उसका काफी कम नियंत्रण होता है । जन्म के उपरांत यदि उसकी देख-भाल न की जाए तो उसका जिंदा रहना कठिन होता है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि बच्चा जन्म के वक्त जैविक रूप से बमुश्किल ही पूर्ण कहला सकता है । सवाल यही है कि बच्चा, यह मानव प्राणी कैसे परवर्ती समय में अपने शरीर पर अपना नियंत्रण कायम करता है ? कैसे वह अपनी जन्मजात अपरिपक्वताओं से निपटता है ?


लकान ने 'प्रतिबिंब चरण' के अपने सिद्धांत में इन्हीं सवालों का जवाब दिया है । इसकी पृष्ठभूमि में वे देकार्ते के उस प्रसिद्ध कथन को रखते हैं कि “मैं हूं क्योंकि मैं सोचता हूं” । दर्शन शास्त्र का यह 'मैं' वाला पहलू ही लकान की इस 'प्रतिबिंब चरण' वाली समझ को निरूपित करता है । वे बताते हैं कि एक उम्र तक आदमी का बच्चा औजारों आदि के प्रयोग की बुद्धि के मामले में तो चिंपांजी से पीछे रहता है, लेकिन वह दर्पण में अपनी सूरत को पहचानने लगता है । उसकी यह पहचान एक प्रकार से उसके अंतर में हुए एक बोधोदय की सचेत आवृत्ति है, जो एक प्रकार से उसमें परिस्थिति की समझ का सूत्रपात करती है । इसे मानव प्राणी में बुद्धि की क्रियात्मकता का एक प्रमुख क्षण कहा जा सकता है ।

यहां हम थोड़ा सा भटकते हुए अभिनवगुप्त के 'तंत्रालोक' की बात करना चाहेंगे । 'तंत्रालोक' के तृतीयमाहिन्कम् में जहां अभिनव परमेश्वर के अनुत्तरपद अर्थात् उसके श्रेष्ठ उपाय के तहत मनुष्य के विवेक के बारे में चर्चा करते हैं, इसका प्रारंभ वे भी भैरव के परम तेज के स्वतंत्र रूप के तौर पर 'स्वयं प्रकाश' से करके निर्मल दर्पण में परिस्थिति के आभासित बिंब-प्रतिबिंब और शब्दप्रतिबिम्ब तक की चर्चा से करते हैं । विवेक मनुष्य की बुद्धि की क्रियात्मकता का ही सूचक है । आदमी में विवेक के बोधोदय की प्रक्रिया को बताते हुए अभिनव लिखते हैं कि “प्रच्छन्न रूप से प्रेम करने वाली नायिका प्रियतम के प्रतिबिम्ब से सुन्दर दर्पण को बड़े स्तनों से छूने पर भी तृप्त नहीं होती है । क्योंकि इस दर्पण का स्पर्श उतना निर्मल नहीं है जितना रूप ।”

(प्रच्छन्नरागिणी कान्तप्रतिबिम्बितसुन्दरम् ।
दर्पणं कुचकुम्भाभ्यां स्पृशन्त्यति न तृप्यति ।। (6)
न हि स्पर्शोंऽस्य विमलो रूपमेव तथा यतः । )


अर्थात विवेक का बोध असली और नकली के बोध, निर्मलता और कलुष के बोध के उदय से, बुद्धि की क्रियात्मकता से जुड़ा होता है । अभिनव आगे यह भी कहते हैं कि यह बोधोदय मात्र आंख की रोशनी का विषय नहीं है, बल्कि “देह के विभिन्न स्थलों में जो चाक्षुस तेज है उस तेज का अधिष्ठाता प्रमाता उसके अपने ही तेज से मुख का ज्ञान कर लेता है, फिर दर्पण का क्या प्रयोजन ।”

देहादन्यत्र यत्तेजस्तदधिष्ठातुरात्मनः ।
तेनैव तेजसा ज्ञत्वे कोऽर्थः स्याद्दर्पणेन तु ।। (13)

लकान कहते हैं कि बंदर दर्पण में अपने इस बिंब को देखता भर है लेकिन आदमी के बच्चे में इस बिंब की निर्रथकता से तत्क्षण कई भाव-भंगिमाओं की श्रृंखला पैदा होती है, जिसमें वह खेल-खेल में बिंब में होने वाली हलचल और प्रतिबिम्बित परिवेश के बीच के संबंध को, इस आभासित जगत और उसके द्वारा दोहराये जाने वाले यथार्थ के बीच के संबंध को अनुभूत करता है — अर्थात् अपनी देह और उसके इर्द-गिर्द के लोगों और चीजों के बीच के संबंध को अनुभूत करता है ।



लकान अमेरिकी मनोविश्लेषक जेम्स मार्क बाल्डविन (1861-1934) के हवाले से बताते हैं कि बच्चों में छः महीने की उम्र में ही ऐसा होता है । जो बच्चा अभी तक चलना, यहां तक कि खड़ा होना भी नहीं सीखा है, वह दर्पण के सामने हंसने-खेलने लगता है । लकान कहते हैं कि यह सिलसिला लगभग डेढ़ साल की उम्र तक चलता है । और इसी बीच वह इस चीज से, दर्पण में देख कर प्रतिक्रिया करने से मुक्त हो जाता है, जो उसके पहले तक उसके लिए एक पहेली की तरह था, और बच्चा मनुष्यों के संसार के उस तात्विक विन्यास से परिचित हो जाता है जिसका, लकान के शब्दों में, 'डर के बारे में मेरी समझ से मेल खाता है' । लकान इस प्रक्रिया को मुक्तिदायी प्रक्रिया (libidinal dynamism) (Ecrits, page-94) अर्थात् अब वह उस वास्तविक जगत में आ जाता है । उसका ‘मैं’ यहां पहले अपने आदिम रूप में होता है, अन्य के साथ खुद को जोड़ने की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से वस्तुनिष्ठ होने के पहले के आदिम रूप में, भाषा के जरिये इस जगत का विषय बनने के पहले के रूप में । इसके आगे तो वह उस जगत का अंश होता चला जाता है जो ‘डर’, अर्थात् नियम-नैतिकताओँ से विन्यस्त संरचनाओं का जाल हुआ करता है ।


लकान कहते हैं कि प्रतिबिंब चरण में इस प्रकार की अपनी छवि, बिंब से पहचान के जरिये किसी स्फोट की तरह उसका एक रूपांतरण होता है ; यही छवि के साथ मनुष्य के संबंध का सूत्रपात है । आदमी के चित्त में छवियों की भूमिका का सूत्रपात । छवियों और मनुष्यों के सत्य के बीच भेद करने के विवेक का सूत्रपात ।

अभिनवगुप्त के शब्दों में — “ग्राहक बनने वाले प्रत्यावृत्त तेज के द्वारा अपने ही मुख से अपना रूप दिखाई देने लगता है न कि दर्पण में ।”

“विपर्यस्तैस्तु तेजोभिग्रार्हकात्मत्वमागतैः ।
रूपं दृश्येत वदने निजे न मकुरान्तरे ।। (तृतीयमाह्निकम् ; 14)


यही प्रक्रिया आदमी के बच्चे की अपनी जन्मजात कमियों, अपरिपक्वताओँ से उबरने की एक स्फोटमूलक प्रक्रिया है जिसे व्यक्ति को उसकी समग्रता की पहचान कराने वाला गेस्टाल्ट सिद्धांत कहते हैं । गेस्टाल्ट मनोविज्ञान (Gestalt psychology) के इस संप्रदाय के विकास में जर्मनी के मैक्स बरदाईमर (1880-1943) (Max Wertheimer) के अलावा दो अन्य मनोवैज्ञानिक, कर्ट कौफ्का (1887-1941) तथा ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967) ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस सम्प्रदाय का मुख्य बल व्यवहार में सम्पूर्णता के अध्ययन पर था। 'अंश' की अपेक्षा 'सम्पूर्ण' पर बल देते हुये बताया गया कि यद्यपि सभी अंश मिलकर सम्पूर्णता का निर्माण करते हैं, परन्तु सम्पूर्णता की विशेषताएं अंश की विशेषताओं से भिन्न होती हैं। गेस्टाल्ट का अर्थ होता है एक समग्र  'प्रारूप', 'आकार' या 'आकृति' । इस स्कूल द्वारा प्रत्यक्षण के क्षेत्र में प्रयोगमूलक शोध किए गए जिससे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का नक्शा ही बदल गया। प्रत्यक्षण के अतिरिक्त इन मनोवैज्ञानिकों ने सीखना, चिंतन तथा स्मृति के क्षेत्र में काफी योगदान किया जिसने शिक्षा मनोविज्ञान को भी प्रभावित किया। लकान के 'प्रतिबिम्ब चरण' के सिद्धांत से भी इसकी एक समझ मिलती है ।

 मैक्स बरदाईमर (1880-1943)

इस संदर्भ में लकान के परवर्ती पाठों में बच्चे के आचरण के बारे में जिज्ञासा, जिसे नकल (mimicry) कहते हैं की ओर ध्यान खींचा गया है । कुछ जानवरों में अपने परिवेश के चिन्हों और रंगों को अपनाने की शीरत पाई जाती है । एक बांस का कीड़ा बांस के जैसा ही दिखाई देता है । इस बात की व्याख्या करते हुए कहा जाता था कि यह जानवर की अपने को किसी हमलावर से बचाने की प्रवृत्ति का सूचक है । इसके मूल में विकासवाद के सिद्धांत की समझ काम कर रही थी । लेकिन अनेक शोधकर्ताओं ने यह लक्ष्य किया है कि जो जानवर अपनी इस प्रकार की छवि ग्रहण करते हैं या अपने को छिपाते हैं, वे भी उसी प्रकार मार कर खा लिये जा सकते हैं जैसे वे खाये जाते हैं, जो ऐसा नहीं करते हैं ।


1930 के जमाने में तो अमेरिकी सरकार ने एक सर्वे में लगभग 6000 चिड़ियाओं के पेट से उनके द्वारा निगले गये कीड़ों की जांच कराई थी । उस जांच में जिन कीड़ों के बारे में माना जाता है कि वे अपने को छिपा लिया करते हैं, वे भी चिड़ियों के पेट में उतनी ही संख्या में पाए गए, जितनी संख्या में वे कीड़ें पाए गए जो अपने को नहीं छिपाते हैं, अर्थात् अपनी पहचान के बारे में ईमानदार बने रहते हैं । यही वजह है कि विकासमूलक जीव विज्ञान के पास इस प्रकार की नकल या सदृश्यता को अपनाने का कोई सही जवाब नहीं है । इसी से लकान इस नतीजे पर पहुंचे कि अपनी पहचान के ऐसे सभी सवालों का अगर कहीं कोई उत्तर पाया जा सकता है तो वह सिर्फ मनोविश्लेषण के जरिये ही संभव है ।

ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967)

लकान ने इस बात को नोट किया था कि फ्रांसीसी विचारक औजरे कैलिओ (1913-1978) (Roger Caillois) मनुष्यों के नकाबों के खेल से काफी आकर्षित थे । उन्होंने इसे जीव जगत के साथ मनुष्य के संबंध के एक खेल के रूप में देखा था । उन्होंने कहा कि यह एक प्राकृतिक नियम है कि कोई भी जीव जब अपने परिवेश की गिरफ्त में आ जाता है, तब वह अपने चारों ओर के रंग में रंगा जाने लगता है । यही उसका चित्त, चारो ओर के संकेतों को पढ़ने का उसका आंतरिक ढांचा, symbolic order होता है । 
औजरे कैलिओ (1913-1978)

लकान ने औजरे की इस थिसिस को प्रतिबिंब चरण के बारे में अपने काम से आगे और विकसित किया । उसे बच्चे के मनोविज्ञान के अध्ययन और सामाजिक सिद्धांत से जोड़ा और किसी भी जीव के अपने बाहर की किसी अन्य छवि में अपनी कल्पना करके उसकी गिरफ्त में आ जाने के तर्क को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया ।

वे कहते है कि किसी भी समूह में दो व्यक्तियों के बीच संबंधों को एक बच्चा बड़ों की तुलना में ज्यादा कुशाग्रता से पकड़ लेता है, क्योंकि बड़ों की सारी समझदारी के बावजूद मनुष्यों के व्यवहार के बारे में उनके ज्ञान और अन्य से अपने संबंध के हितों के चलते उसमें सच को देखने में एक स्वाभाविक बाधा काम करने लगती है । लकान लिखते हैं कि वासना के दबाव के सामने पशु के ज्ञान की तुलना में मनुष्य इसीलिये ज्यादा स्वतंत्र होता है क्योंकि सामाजिक संबंधों में बंधे होने के कारण, अर्थात सामाजिक द्वंद्वात्मकता के कारण मनुष्य का ज्ञान डर के रूप में, हिचक के रूप में विन्यस्त होता है, जीवन का वह तुच्छ यथार्थ, जिससे अतियथार्थवादी इतना चिढ़ते हैं, आदमी को अपने से बांधता है । इसी आधार पर लकान प्रतिबिंब चरण के बारे में कहते हैं कि इससे बच्चे में, सामाजिक द्वंद्वों से पहले ही स्थान संबंधी जो एक बोध पैदा होता है, वह उसे अपने प्राकृतिक यथार्थ की सीमा से परिचित कराता है । इसप्रकार प्रतिबिंब चरण आदमी में छवियों की भूमिका को समझने के सूत्र देता है, प्राणी और उसके यथार्थ के बीच के संबंध को तय करने वाली छवियों की भूमिका को प्रकाशित करता है । (Ecrits, Page — 77/96)

(क्रमशः)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा - 9

(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी
 

जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(9)

लकानियन विश्लेषण के आधारभूत स्तम्भ

(क) डर


मनोविश्लेषण के लकानियन सिद्धांतों के निरूपण में केंद्रीय रूप से कौन सी स्थितियां और लक्षण प्रमुख रहे हैं, उनके बारे में हमारी जिज्ञासा का यह एक पहला पड़ाव है ।

अब तक की पूरी चर्चा से यह साफ देखा जा सकता है कि आदमी के चित्त को संचालित करने, व्यग्र करने वाला एक परासत्य, अनेक प्रकार के मूर्त रूपों में सामने आने वाली उसकी छवियां, आदमी पर किसी 'अन्य' का दबाव — यही है जो चित्त की खाली पट्टी पर तमाम प्रकार के भावों, विचारों की भाषाई आकृतियों को लिखा करते हैं । इस प्रकार एक खाली पृष्ठ पर अदृश्य कलम की नोक के दबाव को ही दबाव होने के नाते ही एक डर भी कहा जा सकता है ।

इस मन के डर, आदमी की व्यग्रता और उसके अंदर के उद्वेलन के मायने क्या होते हैं ? इसी के अर्थ की तलाश से शुरू करके लकान ने आगे अपने अध्ययन से इससे जुड़े संरचनात्मक भाषाशास्त्र को किस प्रकार फ्रायडवाद से जोड़ा, किसी भी शिशु मन के निर्माण का प्रतिबिंब चरण (mirror stage) क्या है, आदमी के अहम् (Ego) और उसकी पहचान (Identity) का निर्माण कैसे होता है और उसके मनोजगत की गति के नियम क्या हैं — इन सब विषयों पर उनके अभिनव विचारों को सिलसिलेवार तरीके से गहराई से देखने समझने की जरूरत है । एक तत्त्व डर का संरचनामूलक आत्मिक विस्तार । इस प्रक्रिया की समझ से ही यह जाहिर हो पायेगा कि लकान के मनोविश्लेषण के निष्कर्षों ने क्यों और कैसे साहित्य, कला, दर्शन और नारीवाद आदि की तरह के अस्मिता से जुड़े तमाम उत्तर-आधुनिक विमर्शों तक पर कैसे गहरा असर डाला है । इसमें सबसे बड़ी बात यह है, जैसा कि हमने पहले भी कहा है, उनके सिद्धांत सिर्फ किसी बौद्धिक विमर्श की उपज नहीं हैं । वे मनोरोगियों से वार्ताओं के विश्लेषणों के ठोस आधार पर स्थित है, अर्थात्, एक प्रकार से मानव-मन की प्रयोगशाला से नि:सृत है । हमारे लिए जरूरत इस बात की है कि उनके तमाम बेहद जटिल और गहन सूत्रों के खोल कर किंचित आसान करके समझा जाए ।


हम पहले ही इस बात का जिक्र कर आए है कि जाक लकान प्रसिद्ध अतियथार्थवादी स्पैनिश लेखक आंद्रे ब्रेतां और कलाकार सल्वाडोर डाली के मित्र थे और पाब्लो पिकासो के निजी चिकित्सक भी । 1930 के दशक के शुरू में वे अतियथार्थवादी पत्रिकाओं के नियमित लेखक हुआ करते थे । सन् 1926 में पेरिस के सेंट अणे अस्पताल में और 1928 में Special Infirmary Police prefecture alienate में मनोरोगियों पर काम करते वक्त ही लकान में आदमी के डर, उसकी व्यग्रता की ग्रंथी के बारे में अध्ययन करने की इच्छा पैदा हुई थी । उसी दौरान लगभग तीस मनोरोगियों के विश्लेषण के आधार पर उन्होंने 'व्यक्तित्व के साथ संबंधों के संदर्भ में डर के मनोरोग के बारे में' (On Paranoid Psychosis in its Relations with the Personality) ( De la psychose paranoiaque dans rapports avec la personnalite) अपना शोधपत्र लिखा था । चूंकि अतियथार्थवादी चित्रकार सल्वाडोर डाली से लकान की गहरी दोस्ती थी और उसी बीच सल्वाडोर डाली की एक किताब 'critical paranoia' आ चुकी थी, इसीलिये कुछ हलकों से डर के मनोविज्ञान के बारे में लकान की रुचि को सल्वाडोर डाली से जोड़ा जाने लगा था । इस भ्रम को दूर करने के लिये ही लकान ने बहुत साफ तौर पर इस मामले में अपने गुरू के तौर पर 'Psychosis of Passion' (जुनून का पागलपन) (1921)  पुस्तक के लेखक गेएतो गेशियेन द क्लिरेंबो (Gatian de Clerambault) का उल्लेख किया था । लकान का कहना था कि क्लिरेंबो की मानसिक स्वयंक्रिया (mental automatism) के बारे में यांत्रिक और त्रुटिपूर्ण समझ भी आदमी के आत्मजगत की संरचना को पढ़ने के मामले में फ्रांसीसी मनोविज्ञान की दूसरी किसी भी व्यवहारिक धारा से उन्हें ज्यादा उपयोगी लगी थी । (देखें, Jacques Lacan, Ecrits, page – 65) इस प्रकार शुरू से ही लकान ने ज्ञान के दूसरे अनेक क्षेत्रों से अन्तरक्रिया करते हुए भी मूलतः खुद को मनोविश्लेषण के क्षेत्र की परंपरा पर ही आधारित किया था । ‘यो यदात्मकतानिष्ठस्तद्भावं स प्रपद्यते ।’ (जो साधक जिस भुवन की स्वरूपता के प्रति निष्ठा रखता है वह उसी रूप में सिद्धि प्राप्त करता है ।)


लकान ने खुद अपने पर्यवेक्षणों के शुरू में ही आदमी में इस प्रकार की 'मानसिक स्वयंक्रिया' (mental automatism) की प्रक्रिया को लक्षित किया — एक ऐसी स्थिति जब आदमी पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है, वह अपनी ही स्वतंत्र गति से चलता जाता है । इसी से विक्षिप्तता और पागलपन के नाना रूपों का एक सामान्य ढांचा तैयार होता है जिसमें आदमी जैसे इस जगत के ‘बाहर से’ संचालित होने लगता है । यह बाहरी शक्ति किन्हीं विचारों की गूंज हो सकती है अथवा ‘अन्य‘ के द्वारा की गयी टीका-टिप्पणी भी । वह जो दैनंदिन चर्या में प्रत्यक्ष नहीं होता, भाव जगत की वस्तु होता है ।


गेएतो गेशियेन द क्लिरेंबो

सवाल उठता है कि जिन तत्वों का कोई ठोस अस्तित्व ही नहीं है, वे कैसे प्रभावशाली हो जाते हैं, और आदमी को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं ? लकान ने पाया कि साहित्य के संरचनावादी सिद्धांत से आदमी के इस मनोविज्ञान के सूत्र मिल सकते हैं जिसमें व्यक्ति की सचेतनता पर अन्य सामाजिक स्तर पर औपचारिक रूप से मान्य तत्वों को, नीति-नैतिकताओं को लागू करके विषय को विश्लेषित किया जाता है । इसे ही लकान ने डर (Paranoia) के रूप, चित्त से जुड़ी और उसे दबाव में रखने वाली कुछ अन्य संरचनाओं के रूप में देखा था । बाद के दिनों में अपने Ecrits के पहले, भूमिकामूलक प्रसिद्ध लेख — Seminar on “The Purloined Letter” में अपने संकेत सिद्धांत की रूपरेखा को रखते हुए वे कहते हैं कि इन संकेतकों की श्रृंखला का लगातार दबाव ही आदमी की अपनी स्वतःस्फूर्त क्रियाओं के दोहराव का कारण होता है । यदि हमें फ्रायड की अवचेतन की खोज का आदमी में पता लगाना है तो इसे उसके अस्तित्व से अलग करके देखना चाहिए । प्रतीकात्मकता आदमी के गहरे पैठी हुई उसकी एक प्रकार की अन्य, तिरछी नजर होती है । दैनन्दिन स्वतःस्फूर्त क्रियाओं के दोहराव में व्यक्ति संकेतों की तंग गलियों का अनुसरण करता रहता है, उन संकेतों के औजारों और उनके दबावों के बोझ को ढोता हुआ शुतुरमुर्ग की तरह सिर गाड़े हुए अपने से ही बात करता है । (Ecrits, page – 11-12)


बहरहाल, क्लिरेंबो मनोविश्लेषण की फ्रांसीसी परंपरा से गहराई से परिचित थे इसीलिये अपनी पैनी नजर और अपने वैचारिक रूझानों के चलते ही वे इसमें मनोरोग के क्लिनिक की संभावना को देख पाए थे । कहां आदमी उस दोहराव से अपने को काटता है, इसकी सिनाख्त करने के तरीके के तौर पर । लकान का कहना था कि शायद एक कारण यह भी था कि उनका खुद का रूझान फ्रायड की ओर हो गया था । “रोगी की जांच से मिलने वाले लक्षणों के औपचारिक स्वरूप पर विश्वास के कारण ही मैं उसे, उस संरचना को, समझने लगा था और विभिन्न रचनात्मक रूपों में इसकी अभिव्यक्ति की सीमाओं को देख पा रहा था ।” (वही – 66)



इस विषय पर लकान की 1932 की थिसिस में जो अध्ययन पेश किया गया, उसका कला और साहित्य के तत्कालीन अतियथार्थवादी (surrealist)  विचारों पर काफी गहरा असर पड़ा था । सल्वाडोर डाली ने अपनी पत्रिका Surrealist Review (Minotaure) के 1933 के पहले अंक में ही उसकी चर्चा की थी ।  लकान इस पत्रिका में अक्सर लिखा करते थे । लकान ने अपनी थिसिस में जिस मनोरोगी ऐमी के मामले का विस्तार से जिक्र किया था उसमें उन्होंने उसके बारे में पॉल एलुआर्द की एक कविता का भी प्रयोग किया था ।


ऐमी को एलुआर्द ने अपने अप्रकाशित उपन्यास की नायिका बनाया था जिसने पैरिस की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री युगेट डफल्स (Huguette Duflos)  को छुरा मारने की कोशिश की थी । यह मामला तब पेरिस के सारे अखबारों में चर्चा का सरगर्म विषय था । लकान ने ऐमी के इस पागलपन के पीछे काम कर रहे कारणों को टुकड़ों-टुकड़ों में जोड़ कर समझने की कोशिश की थी । उनकी इस थिसिस ने मनोरोग के पर्यावरण की एक बिल्कुल नई अवधारणा पेश की । लकान का निष्कर्ष था कि उस अभिनेत्री पर हमला करके ऐमी ने दरअसल खुद पर ही प्रहार किया था ।

युगेट डफल्स

ऐमी की शिकार डफल्स स्वतंत्र और सामाजिक मान-सम्मान वाली औरतों की एक प्रतीक थी, एक ऐसी औरत, जो खुद ऐमी की अपनी कामना की चीज थी । ऐमी अपने जीवन के कष्टों पर जब भी सोचती थी, डफल्स की सूरत उसके दिमाग में कौंध आया करती थी और इस प्रकार, डफल्स के बार-बार उसके दिमाग में लौटने से क्रमशः वह उसे अपने और अपने जवान बेटे के अस्तित्व के लिये चुनौती और खतरे के रूप में भी देखने लगी थी । इस डर के चलते ही डफल्स उसकी नफरत और कामना, दोनों की एक आदर्श मूर्ति बन गई । लकान की विशेष दिलचस्पी ऐमी के मन में डफल्स की इन दोनों छवियों, उसके डर और उसकी अपनी पहचान की कामना के बीच के जटिल संबंध के बारे में थी । बाद में ऐमी को गिरफ्तार करके जब जेल में रखा गया, उसने पाया कि उसका दंड के रूप में यह उत्पीड़न ही, जिसकी आशंका में उसने डफल्स पर हमला किया था, उसके अपराध का वास्तविक कारण था । एक स्तर पर जाकर उसे महसूस हुआ मानों वह खुद ही अपने इस उत्पीड़न का लक्ष्य थी, यही उसकी कामना थी । 

इस मामले के लकान के विश्लेषण से ऐसे कई पहलू सामने आए थे जो लकान के आगे के अपने कामों के केंद्रीय विषय बनने वाले थे । मसलन्, आदमी की आत्ममुग्धता, उसकी अपनी छवि की चिंता, उसके आदर्श । और, कैसे कोई व्यक्तित्व शरीर की सीमाओं के बाहर तक फैलता है और एक जटिल सामाजिक संजाल के दायरे में निर्मित होता है । वह अभिनेत्री जैसे खुद ऐमी के ही व्यक्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा बन गई थी । इससे इस बात के संकेत मिलें कि कैसे एक मनुष्य की अस्मिता में ऐसे सारे तत्व शामिल हो सकते हैं जो उसके शरीर की जैविक सीमाओं के बिल्कुल बाहर के होते हैं । एक अर्थ में, ऐमी की अस्मिता आक्षरिक अर्थ में उसके खुद के शरीर के बाहर स्थित थी । मार्क्स के शब्दों में, विचार मनुष्यों के हृदय में बस कर एक भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं ।

लकान ने अपनी थिसिस में व्यक्ति पर साहित्य के अवांछित प्रभावों का जिक्र किया है । आदर्शों की भूमिका को वे दोहराव की एक श्रृंखला के तौर पर देखते हैं जिससे वे उस पूरी संरचना की सूरत को देख पाते हैं जो किसी मनोवैज्ञानिक क्लिनिक के ब्यौरों से ज्यादा शिक्षाप्रद होते हैं, क्योंकि उनमें इसे कोरे मनोविकार की एक ग्रंथी बता कर आगे उनकी कोई खास कीमत नहीं लगाई जाती है । (Ecrits – 66)

इसके बारे में लकान लिखते हैं कि ऐमी के दिमाग में उस अभिनेत्री के बारे में एक विभ्रम था । वह सचमुच की एक स्टार भी थी, इसीलिये यह विभ्रम और भी ज्यादा, बल्कि दोहरा था । ऐमी ने उस पर हमला करने की गंभीर कोशिश के लिये जैसे ही उसे छुआ उसके अंदर के विभ्रम की चादर फट गई और उसकी इस हमले की धुन में एक खाईनुमा छंद-पतन के साथ अतिरिक्त तीव्रता का संयोग हुआ । लकान कहते हैं कि “इससे उन्हें रंगमंच पर अभिनय के आवेग की याद आ गई, जिसे आम तौर पर कहा जाता है — 'आत्म-संताप' का अभिनय ; और इसी आत्म-संताप के चालू कथन से मैं मानो किसी अपराध के सुराख को पाकर फ्रायड की ओर बढ़ गया । कैसे ज्ञान और उसकी क्रियात्मकता के बिल्कुल ढर्रेवर स्वरूप से अचानक दूसरी ही क्रिया के प्रमाण मिलने लगते हैं ! इसने लगता है मुझे काफी समृद्ध किया जो कोई भी अकादमिक व्यक्ति, यहां तक कि विद्रोही विचार के अवाँ गर्द भी नहीं कर सकते थे । ज्ञान को जिस प्रकार से उसके रूढ़ रूप और क्रियाओं के आधार पर पेश किया जाता है, वहीं यह उसकी एक दूसरी भूमिका का संकेत देता है जिससे हमें आगे और जानकारी मिलती है । इससे कोई भी शिक्षाशास्त्री, यहां तक कि विद्रोही अवांगर्द भी कन्नी काट जाते हैं । समझने की चीज यह है कि मनोविश्लेषण की चौखट से निकल कर ही शायद मैंने व्यवहारिक प्रयोग के जरिये यह जाना कि ज्ञान से जुड़े आदमी के रूझान कहीं ज्यादा दिलचस्प होते हैं, क्योंकि ये ऐसे हैं, जिन्हें उनके मूल रूप में सुन कर ही दूर कर दिया जाना चाहिए ।” (वही, पृष्ठ – 66)

लकान के इस कथन को क्रांतिकारी रणनीति में सिद्धांत और व्यवहार के योग से, विचार और क्रिया के निरंतर उपक्रम से बनने वाले आगे के पथ की समझ के आधार पर भी समझा जा सकता है । क्रांतिकारी पार्टी अपनी दैनंदिन गतिविधियों से ही क्रांति की समस्याओं का कोई रास्ता निकाल सकती है । (क्रमशः)

रविवार, 12 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा - 8


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(8)


दर्शनशास्त्र और लकान


भारतीय दर्शन में तंत्र की भूमिका हमेशा दार्शनिक विमर्श के क्षितिज को उस बिंदु की सीमा से आगे ले जाने की रही जहां दर्शन में चीजें अपने ठोस रूप को बाकायदा छोड़ दिया करती है । एक ऐसी अमूर्त दशा में किसी विमर्श के निरंतर बने रहने से उसकी परंपरा को कायम रखने के क्रम में न सिर्फ उसका रूपांतरण ही हो जाता है, बल्कि इस बात की हमेशा एक संभावना बनी रहती है कि उससे एक बिल्कुल भिन्न प्रकार के विमर्श का प्रारंभ हो जाए । यह दर्शनशास्त्र या किसी भी विचारधारात्मक उपक्रम का स्वयं को ही समस्याग्रस्त, संशयग्रस्त बनाते हुए आगे का रास्ता पाने का एक उपक्रम कहलाता है । भारतीय तंत्र और उसके श्रेष्ठतम गुरू अभिनवगुप्त के जरिये शैवागमों में वर्णित प्रत्यभिज्ञादर्शन को इसी उपक्रम में भारतीय दर्शन की एक समानान्तर धारा को प्रतिष्ठित करना कहा जा सकता है । यह विमर्शों के बीच से दर्शनशास्त्र की सीमाओँ की आलोचना के साथ ही एक नई तत्वमीमांसा, बल्कि बेहतर परा-तत्वमीमांसा का उपक्रम था । कहना न होगा, पश्चिम में दर्शनशास्त्र का यही आंतरिक संकट एक ओर जहां मार्क्स के जरिये सामाजिक विकास के संदर्भ में दर्शनशास्त्रीय चिंतन के एक सर्वथा नये विमर्श का मार्ग खोलता है, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की एक नई धारा को स्थापित करता है, वहीं फ्रायड और लकान के जरिये मनुष्य के आत्मिक जगत के संदर्भ में मनोविश्लेषण के एक नये विमर्श को, एक परा-तत्वमीमांसा को जन्म देता है ।

जैसे मार्क्स को 'दर्शन-विरोधी' कहने वालों की दुनिया में कमी नहीं रही है, बिल्कुल उसी प्रकार मनोविश्लेषण पर भी वहां आम तौर पर 'दर्शन-विरोधी' होने का आरोप लगाया जाता है । लकान अपने एक सेमिनार में इसी आरोप का जवाब देते हुए कहते भी है कि “मैं दर्शनशास्त्र पर आघात करता हूं ? यह बहुत बड़ी अतिशयोक्ति है !” (I am attacking philosophy ? That’s greatly exaggerated !) (Lacan, Seminar XVII)


लकान पर ऐलेन बाद्यू के सेमिनारों की किताब 'Lacan' की भूमिका में केनेथ राइनहार्ड लिखते हैं कि “यह लकान का दर्शन-विरोध ही है जिस पर किसी भी दर्शनशास्त्री को निश्चित रूप से काम करना चाहिए, वही है जो न सिर्फ सत्य और ज्ञान को नकारता है, बल्कि उनके परस्पर संबंधों और यथार्थ के साथ संबंध पर पुनर्विचार करता है ।”(Alain Badiou, Lacan, page – xxxvii) और, बाद्यू कहते हैं कि यह देखना होगा कि “क्यों लकान को महज दर्शन-विरोधी नहीं, बल्कि उल्टे इस प्रकार देखा जा सकता है जिसने अभी के दर्शन-विरोध का अंत कर दिया है । इस अंत का मतलब दर्शन के साथ दर्शन-विरोध के संबंध को मान कर चलना मात्र नहीं है, बल्कि दर्शन-विरोध के साथ दर्शन-विरोध के संबंध को भी देखना है । ऐसा कोई अंत नहीं होता है जो जिसे खत्म करना होता है उसके साथ एक खास, सुनिश्चित संबंध पर आधारित नहीं होता है ।...अंत करने का सवाल तब जटिल हो जाता है जब हम पूछते हैं कि वह किस बात का प्रारंभ करता है, क्योंकि हर अंत भी अपने में एक प्रारंभ भी होता है ।” (वही, पेज – 2)


मार्क्सवाद के बारे में ही लकान की टिप्पणी थी कि उसे एक ‘विश्वदृष्टि’ बताना कोरा मजाक है । किसी भी विश्लेषणमूलक विमर्श में ऐसी किसी अवधारणा की कोई जगह नहीं होती है । मार्क्स की बातों को आप्त वाक्यों की तरह उद्धृत करना मार्क्स के नजरिये के बिल्कुल विपरीत है । लकान कहते हैं कि मार्क्सवाद इसके बिल्कुल विपरीत है । वह कुछ ऐसा है जिसे हम गॉस्पेल (पूर्ण सत्य) कहते हैं । उसमें यह ऐलान है कि इतिहास अपने में विमर्श एक भिन्न आयाम को लिए हुए है, और इस प्रकार वह विमर्श के ही, और दार्शनिक विमर्श के पूरी तरह से विध्वंस की संभावना को खोल रहा है जिस दार्शनिक विमर्श पर, सही कहा जाए तो, विश्वदृष्टि की बात पर टिकी हुई है ।
(“putting forward such a term to designate Marxism is also a joke. Marxism does not seem to me to be able to pass for a world view. The statement of what Marx says runs counter to that in all sorts of striking ways. Marxism is something else, something I will call a gospel. It is the announcement that history is instation another dimension of discourse and opening up the possibility of completely subverting the function of discourse as such and of philosophical discourse, strictly speaking, in so far a world view is based upon latter.)


इसी बिंदु पर लकान का खास महत्व सामने आता है । संकेतकों (अर्थात अक्षरों, लक्षणों) के स्वरूप ग्रहण और महत्व से संबद्ध इस भिन्न परा-तत्वमीमांसा और उस पर आधारित भाषाई नियमों के बारे में लकान के बीसवें सेमिनार के इन दो अंशों से उनके शुरू किये गये विमर्श की मुख्य बातों को समझा जा सकता है :

“किसी भी संकेतक को सनातन मान कर नहीं रचा जाता है । ...संकेतक को आक्समिकता की श्रेणी में रखना ही उचित होता है । संकेतक सनातनता की श्रेणी से इंकार करते हैं तथापि विचित्र बात यह है कि ये अन्तरनिहित होते हैं ।”.
(For no signifier is produced as eternal….it would have been better to qualify the signifier with the category of contigency.)
“भाषा में जिसे संयोजक (होना की तरह की क्रिया) का प्रयोग कहते हैं, तत्वमीमांसा उसे संकेतक बताती है । ...यदि किसी श्रेष्ठ विमर्श में 'होने' की क्रिया पर बल नहीं दिया जाता है तो हमें कुछ भी नहीं दिखाई देगा ।”(The Seminar of Jacques Lacan, Book XX, W. W. Norton & Company,  p. 40, and p.31)


अर्थात इसमें अंत का वस्तुत: कोई स्थल नहीं है । भारत के शैवमत की भाषा में कहे तो उनका दर्शन-विरोधी अंत दर्शन को उस ज्ञेय से जोड़ता है जो ‘पूर्णप्रथात्मक ज्ञान’ है, जिसमें अज्ञान का कोई अंश नहीं है ।

अभिनवगुप्त अलग-अलग दार्शनिक धाराओं से शैवमत को अलगाते हुए लिखते हैं कि “ मैं राग आदि के द्वारा मलिन नहीं हूँ ( यह विज्ञानवादी बौद्धों का मत है ), मैं अन्तःशून्य हूँ ( यह माध्यमिकों का सिद्धांत है), मैं कर्तृत्व से रहित हूँ (यह सांख्यों का मत है) इस प्रकार का सम्पूर्ण रूप से अथवा पृथक्-पृथक् होने वाले ज्ञान उतने से ही (अर्थात् केवल कार्म या मायीय या आणव अथवा तीनों मलों से) मुक्ति प्रदान करता है । इस प्रकार अंशतः मुक्त होते हुए भी अन्य आंशिक बन्धन के वर्तमान होने से जीव अमुक्त ही है । वस्तुतः मुक्त तो वही होता है जो समस्त बन्धन से रहित होता है ।” (तंत्रालोक, प्रथमान्हिकम्, श्लोक 33,34) अर्थात् मुक्तिदाता ज्ञेय तत्व पूर्ण प्रथात्मकज्ञान होता है, उसमें अज्ञान का कोई पक्ष नहीं होता है ।


लकान की एक अनन्य विशेषता यह रही कि उन्होंने अपने चिकित्सीय व्यवहार से मनोविश्लेषण की ऐसी नई पद्धतियों को विकसित किया था जिनमें विश्लेषकों के खास-खास समूहों के बीच वार्ताएं भी हुआ करती थी । ये पद्धतियां स्वयं में किसी भी विश्लेषण पद्धति के आदर्श स्वरूप को पेश करती है । वे अपने विश्लेषणों पर लंबे काल तक हर हफ्ते पेरिस में सेमिनार किया करते थे, जो कई किश्तों में चलते थे । इन सेमिनारों में उनके सैकड़ों पन्नों में फैले लंबे-लंबे वक्तव्य अब तक अनेक खंडों में प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें दुनिया के सारे मनोचिकित्सक और विचारक भी अक्सर बहुत ध्यान से उसी प्रकार से छानते रहते हैं, जैसे फ्रायड के पर्यवेक्षणों को छाना जाता है । जैसे वकील आम तौर पर अदालतों में सभी विशेष मामलों के बारे में विस्तृत ब्यौरों की किताबों को टटोलते रहते हैं, उसी प्रकार फ्रायड, लकान आदि के प्रत्येक रोगी के मनोविश्लेषण के ब्यौरे रोगी के निदान के साथ ही किसी खत्म अध्याय की तरह बंद हो जाने के बजाय उसी विषय में आगे और अध्ययन और शोध के आधार बनते जा रहे हैं । यही उनके विमर्शमूलक मनोविश्लेषण की खास विशेषता रही है जो आगे के सामान्य सूत्रों, मन की गति के नियमों का संधान देने का काम करती है । एक दीर्घ समय के अंतराल में लिखे गये 92 शैवागमों पर आधारित तंत्रालोक की तरह के मनोविश्लेषण के एक नये, संपूर्ण शास्त्र की संभावना तैयार करती है ।


कई सूत्रों से हमें उनके कुछ भारी-भरकम सेमिनार पेपर जुटाने में सफलता मिली है और उन पर लिखी कई महत्वपूर्ण किताबों को भी उलटने-पलटने का मौका मिला है । सचमुच एक मनोचिकित्सक का आज के युग में इस प्रकार का लगभग साठ साल से ज्यादा समय तक मनुष्यों के चित्त के आयामों को उधेड़ कर समझने का यह सुचिंतित लेखन बेहद रोमांचक है । इनको देख कर पता चलता है कि कैसे डार्विन ने सालों की लंबी साधना से जीवों के विकास के अवलोकन से विकासवाद के सिद्धांत के अकाट्य नतीजों को निकाला था ; हेगेल ने मनुष्य की अन्तर-बाह्य क्रियाशीलता के सार्वलौकिक और तात्कालिक पहलुओँ की खोज करके उसके अनेक ऐतिहासिक रूपों के द्वंद्वमूलक विकास के दार्शनिक सूत्रों को खोजा था ; मार्क्स ने ताउम्र पूंजीवाद के सूक्ष्मतम पर्यवेक्षण से उसकी तात्विकता, गतिशीलता और उसके संकटों के आवर्त्तों के सिद्धांतों की रचना की और समाज के इतिहास के विकास के नियमों की खोज की थी ; फ्रायड ने आदमी के मनोभावों के पीछे काम करने वाले चेतन और अवचेतन के तत्वों की कड़ियों को जोड़ कर मनुष्यों के चित्त के जगत के नियमों का पता लगाया ; हाइडेगर ने समाज के अंतर की गतियों को जिस प्रकार उनके तात्विक समूहों की द्वंद्वात्मक क्रियाशीलता में उनके अंत से जोड़ कर दिखाने का काम किया, बिल्कुल उसी प्रकार जॉक लकान ने आदमी के चित्त के निर्माण में उसके परिवेश, भाषा और तमाम प्रकार के दृष्ट संकेतकों (signifiers) की भूमिका की श्रृंखला को पेश करके मनुष्य और उसके समाज, उसके परिवेश के बीच के संबंधों और साहित्य, कला, संस्कृति के तमाम उपादानों के अध्ययन के बिल्कुल नये पथ का संधान दिया । कहना न होगा, आज के काल में एलेन बाद्यू जैसे कम्युनिस्ट दार्शनिक मार्क्स और लकान की इसी जमीन पर खड़े हो कर समाज और मानव मन, सत्य के बरक्श दोनों की ही गतियों के गणितीय सूत्र तक का सफलता के साथ संधान करके पेश कर पा रहे हैं ।


जैसे मार्क्स ने दर्शनशास्त्र को सामाजिक विकास के संदर्भ में उसकी दीर्घकालीन आधिभौतिक अमूर्तता से निकाल कर हेगेल के औजारों से एक द्वंद्वमूलक रूप प्रदान किया, वैसे ही यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के आत्म-संसार के संदर्भ में संपूर्ण दर्शनशास्त्रीय विमर्श फ्रायड और लकान के मनोविश्लेषण के जरिये भी एक भिन्न पटल पर अपनी अमूर्त जड़ता से मुक्त हुआ है । दर्शनशास्त्र और मनोविश्लेषण के बीच के इस द्वंद्वात्मक संबंध को फ्रायड के बाद लकान में बहुत साफ और उन्नत रूप में देखा जा सकता है ।   

किसी भी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में दो के बीच के द्वंद्व से पैदा होने वाली गति के पीछे न जाने कितने अन्य संकेतकों के समूहों की द्वांद्विक उपस्थिति काम करती रहती है । लकान के मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण ने इस बहुलता की, द्वांद्विक प्रक्रिया में नानात्व के समुच्चयों (sets of multiplicities) की, 'मालिनीविजयतंत्र' (अभिनवगुप्त ने 'तंत्रालोक' में इसी की पुनरुक्ति का दावा किया है) की मालिनी की भूमिका की खोज की आधारशिला रखी । इनके अवलोकनों से लेवी स्ट्रास से लेकर फूको और दरीदा तक के भाषाई संरचनावादियों, ज्ञान के स्थापत्य और पाठ के बदलते सामाजिक रूपों के अध्ययनों की सीमाओं और संभावानाओँ, दोनों को जांचा जा सकता है । फूको ने 'ज्ञान का स्थापत्य' में उस पूरी निर्मिति के लिये जिन सब जरूरी गारे-पानी पर गंभीरता से चर्चा की है, उस श्रृंखला में समाज में जारी विमर्शों की हर कड़ी का अपना एक जगत (भुवन) और इतिहास होता है । ये सब मिल कर जिस एक समग्र चित्त जगत (symbolic order) का निर्माण करते हैं, उसीसे मनुष्य की ऐन्द्रिक अनुभूतियां निरूपित होकर उसकी क्रियात्मक गतिविधियों का स्वरूप ग्रहण करती हैं । लकान के दीर्घ प्रेक्षणमूलक काम ने इसी चित्त के जगत की क्रियात्मकता के मूलभूत सूत्रों को प्रकाश में लाने का अपना एक मौलिक काम किया है।

कहना न होगा मानव मन के वस्तु-सत्य के संधान से ब्रह्मांड की गति तक के नियमों को खोजने वाले दर्शनशास्त्र के स्तर तक उत्तरण में समर्थ मनोविश्लेषण के इस नये शास्त्र का अपना खुद का अंतर-संसार क्या है, जिसे कहते हैं 'विशेषज्ञता की तत्वमीमांसा' (ontology of mastery), उसे शास्त्रकार के अहम् से स्वतंत्र रूप में देखना और विवेचित करना काफी तात्पर्यपूर्ण और संकेतपूर्ण हो सकता है । इसके अलावा, मनोविश्लेषण के आधुनिक सिद्धांतों के विवेचन में अगर हम कहीं-कहीं भारतीय तंत्र और शैवागमों के प्रत्यभिज्ञादर्शन के पक्षों को भी प्रकाशित कर पाते हैं तो वह हमारी खुद की एक अतिरिक्त उपलब्धि भी हो सकती है ।

यहीं पर हम 'तंत्रालोक' के रचयिता अभिनवगुप्त का फिर जरा सा उल्लेख करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे है । यह जो चित्त का जगत है, विचारों और भावों के मूर्तन का जगत, एक बेहद जटिल जगत है । यह जितना आदमी के अपने अंतर की चीज है उतना ही उसके बाहर का भी है । अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में तंत्रशास्त्र को भोग और मोक्ष, दोनों का दर्शन कहा है । जैसा कि हमने पहले बार-बार कहा है, पश्चिम में इस चित्त के जगत के इन सभी पहलुओं के सूत्रों के संधान में फ्रायड के बाद अभी तक जो दूसरा जो सबसे बड़ा नाम उभर कर सामने आया है, वह जॉक लकान का ही है । (क्रमशः)