शुक्रवार, 27 जून 2014

‘आस’ की बास'

अरुण माहेश्वरी

‘जनसत्ता’ के 22 जून, रविवार के अंक में अवनिजेश अवस्थी का लेख ‘उम्मीद रखना अपराध नहीं’ पढ़ा। जाम्बवंत की तरह हनुमान अर्थात उदयन वाजपेयी को अपनी विस्मृत अलौकिक शक्ति का स्मरण कराता हुआ लेख। वे कहते हैं - अरे, तुम्हारे पास 'धर्मपाल जी' जैसा धरती के पूरे सच को प्रकाशित करने वाला सूरज समान इतिहासकार मौजूद है और तुम उसी को भूल गये! असल मुद्दा ही ‘बिला’ गया! वामपंथी रावणों की लंका में जाने के लिये अपने धर्मपालजी की दिव्य शक्ति का प्रयोग करते, देखते कैसे सारा अंधेरा छंट जाता। ‘मुद्दे की बात’ स्थपित हो जाती कि अब बिना ‘गांधी नेहरू परिवार का बोझ उतारे’ कांग्रेस का पुनरुद्धार संभव नहीं। इसी परिवार, नूरूल हसन और वामपंथियों की धुरी ने तो सम्पाति की तरह हमारे पारंपरिक विमर्श के सूर्य को ढंक दिया था। अब मोदीजी आगये हैं, समय आगया है जब ‘धर्मपाल जी’ के जरिये उस पारंपरिक विमर्श का पुनरोदय किया जाए।

अवनिजेश कहते हैं - कुछ लोगों को नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना पसंद नहीं है, लेकिन वे इतने दुराचारी है कि उनके चुन लिये जाने के बाद भी उनसे कोई उम्मीद नहीं रखतें! विरोध तो सिर्फ चुनाव के वक्त तक सुहाता है, उसके बाद कैसा विरोध! ये विदेशी आक्रांताओं को तो ‘न्यायप्रिय, प्रजापालक, प्रजारक्षक’, क्या-क्या नहीं कहते, लेकिन तेगबहादुर की तरह ही नरेन्द्र मोदी को लुटेरा माने हुए हैं!
उदयन वाजपेयी को ‘धर्मपाल जी’ का गुरुमंत्र याद दिला कर और वामपंथियों को नाउम्मीदी का पापी करार कर अजनिवेश जी अंत में ‘अच्छे दिन आने’ की तान को साधते हुए कहते हैं - ‘‘अब विमर्श इस तरह का हो जिसमें भारत को देखने के लिए चश्मा भी भारतीय हो। टेक्नोलोजी बेशक विदेशी हो, पर उसका उपयोग भारतीय मेधा को विकसित करने में हो।’’

‘भारतीय चश्मे’ से भारत-विमर्श और ‘विदेशी तकनीक’ से भारतीय मेधा का विकास - क्या ‘ भारतीय विमर्श’ और ‘ भारतीय मेधा का  विकास’ इतनी ही परस्पर विरोधी चीजें हैं कि एक के लिये भारतीयता की और दूसरी के लिये विदेशीपन की मध्यस्थता की जरूरत है! क्या यही है ‘धर्मपाल जी’ का अचूक नुस्खा !
विदेशीपन के बरक्स अपनी ‘भारतीयता’ को साकार करते हुए इस सरकार से अजनिवेश जी की अकेली ‘भारतीय’ उम्मीद है - ‘औद्योगिक उत्पादन बढ़ें, पर पर्यावरण की भेंट चढ़ा कर नहीं।’ और अंतिम वाक्य में, इशारे में वामपंथियों पर तोहमत लगाते हुए पूछते हैं - ‘‘लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार से ऐसी उम्मीद रखना, आस लगाना भी क्या अब अपराध माना जाएगा?’’

अर्थात, भले और कुछ उम्मीद न रखो, कम से कम पर्यावरण की उम्मीद तो रखो! कोई अगर इसकी भी उम्मीद नहीं रखता है, तो अजनिवेश के अनुसार वह लोकतंत्र के ही प्रति ही अनास्था का अपराधी है। अजनिवेश को इस बात का पूरा विश्वास है कि ‘भारतीय विमर्श’ को पुनर्जीवित करने वाले मोदी शासन के ‘अच्छे दिनों’ में और कुछ हो न हो, पर्यावरण की रक्षा जरूर होगी!

इसके बाद भी क्या यह समझना बाकी रह जाता है कि जैसे मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ है, वैसे ही संभवत: ‘धर्मपाल जी’ की इतिहास दृष्टि से व्युत्पन्न अजनिवेश का ‘पर्यावरण’ है। ‘उम्मीदों’ की मरीचिका। क्या जवाब दें बेचारे वामपंथी ! वे तो अपराधी है क्योंकि वे ऐसी किसी मरीचिका के पीछे दौड़ने, हांफने और थक कर चूर होकर गिर जाने से इंकार करते हैं। अजनिवेश ने पर्यावरण के मुद्दे को जितना सरल समझ रखा है, वामपंथी उतना सरल नहीं मानते। बल्कि, इसे सबसे कठिन और जटिल मानते हैं - पूंजीपतियों के हितों के सर्वथा विपरीत। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि नरेन्द्र मोदी पूंजीपतियों की मुनाफे की सीमाहीन लिप्सा पर रोक लगायेंगे?

दरअसल, इसके पहले कि पिछले तूफानी दिनों के परिणामों को कोई गंभीरतापूर्वक आत्मसात करें, कहना न होगा आने वाला समय एक अवसाद भरी खुमारी का दौर होगा। 16 मई को जो हुआ, उसके समग्र रूप से वास्तविक परिणाम अभी सामने आने बाकी हैं। जनता को कड़वी दवा के घूट अभी से पिलाये जाने लगे हैं। डर यह है कि कड़वी दवा देने के अभ्यस्त हाथों के चलते कभी ऐसी नौबत भी आ सकती है जब हमें लगेगा कि जैसे 16वीं लोकसभा के चुनाव के समय तक मतदान का अधिकार सिर्फ इसलिये बचा रहा कि वह अपनी मृत्यु का प्रमाण-पत्र लिख सके और वसीयत में कुछ ऐसा ऐलान कर सके कि इस नश्वर जगत में अस्तित्वमान ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका विनाश नहीं होगा। तब यह कहने से भी काम नहीं चलेगा कि हम गफलत के शिकार होगये। सिर्फ एक सवाल बचा रह जायेगा कि कैसे एक आदमी पूरे राष्ट्र को इसप्रकार ठग सकता है?

उदयन वाजपेयी और अवनिजेश झूठे ही वामपंथ के भूत से पीडि़त है। वामपंथी इतिहासकारों के लिये तो उनके पास ‘धर्मपालजी’ का ब्रह्मास्त्र है ही ! और जहां तक वामपंथी ताकतों का सवाल है, वास्तविकता यह है कि आगे बढ़-बढ़ कर रुकना और जो भी दूरी तय की फिर उसके प्रस्थान बिंदु पर लौट कर यात्रा शुरू करना, जैसे उनकी नियति बन चुका है। अपने लक्ष्यों के विराट रूप को देखकर वे हर बार झिझक कर पीछे हट जाते हैं। 16 मई के चुनाव-परिणामों के वाकये पर तो वे अभी बहस की शुरूआत करेंगे। उसमें खुद की तीखी आलोचना करके फिर से जब तक वे नयी संभावनाओं की कल्पनाओं में लीन रहेंगे तब तक समाज की सारी पुरातनपंथी ताकतें अपने को गोलबंद कर ली होगी। उनके समर्थन के लिये पहले से ही राजनीतिक मंच पर किसानों और निम्नपूंजीपतियों की पूरी फौज तैयार खड़ी है। और वामपंथी, अपनी लगातार क्षीणतर ताकत के साथ विभिन्न पार्टियों की हार में एक के बाद दूसरे के साझीदार बनेंगे। कुछ वैचारिक प्रयोगों, ट्रेडयूनियनों और स्थानीय संघर्षों में वे ऐसे मुब्तिला हो जायेंगे कि क्रांति तो बहुत दूर की बात, जो है उसीमें खुद का उद्धार करने की कोशिशों में अपना बेड़ा और गर्क करते जायेंगे।

असल में, अब शायद वह जमीन पूरी तरह तैयार होगयी है जिसपर किसी ‘भारतीय विमर्श’ का पुनर्जीवन नहीं, बल्कि नव-उदारवादी पूंजीवाद के अबाध निर्माण की नींव डाली जा सकेगी। अब किसी ‘जातीय हीनता’ से मुक्ति नहीं, बल्कि यह सचाई जरूर खुल कर सामने आयेगी कि हमारे जनतंत्र का असली मायने है अन्य सभी वर्गों पर अंबानियों-अडानियों-टाटाओं का निरंकुश, स्वेच्छाचारी शासन। जो जनतंत्र एक पूंजीवादी समाज में राजनीतिक हलचलों का हेतु होता है, न कि किसी प्रकार की रूढि़बद्धता का, वही समाज के निकृष्टतम तत्वों के गिरोहों का एक जघन्य दमनतंत्र साबित होगा। उदयन वाजपेयी और अवनिजेश इसीकी खुशी में यदि मतवाले हो रहे हैं तो हमें कुछ नहीं कहना। हम यह भी नहीं जानते कि इससे धर्मपाल जी जैसे ‘विचक्षण’ इतिहासविद् का ‘भारतोन्मुखी’ चिंतन कैसे साकार होगा!

गुरुवार, 26 जून 2014

राजेन्द्र यादव के नाम एक पत्र : संदर्भ उदय प्रकाश

दिनांक : 20.05.97

प्रिय राजेन्द्र यादव जी,

हंस के मई ‘97 के संपादकीय में आपकी चिर-परिचित शैली की चपेट मेें उदय प्रकाश की कहानियों का विखंडन काफी उकसाने वाला था। अन्य अनेक लोगों की तरह मैं भी उदय प्रकाश की कहानियों का एक आग्रहशील पाठक रहा हूंं। निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि मैंने उनकी कहानियों को कहानी की तरह पढ़ा है या किसी और तरह। लेकिन हमेशा अर्थ की अनेक गहरी पर्तों में प्रवेश का सुखद अहसास होता रहा। नये रचनाकारों में संभवत: उदय ही अकेले ऐसे दिखाई देते हैं जिनकी रचनाएं एक बार नहीं, अनेक बार पढ़े जाने का दबाव और आग्रह पैदा करती है और हर बार कुछ नये अर्थों के अंतरालों पर प्रकाश डालती है। उनकी कहानियां उपन्यासों की तरह वृहद संदर्भों से भरी दिखाई देती रही है। कहानी की हर पंक्ति में उनकी सजग उपस्थिति हर एक शब्द को अर्थवान बनाती है, रचना के भरपूर कसाव को सुनिश्चित करती है। ऐसे रचनाकार द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक शब्द, बिंब, कथन या रूपक को बहस का विषय बनाया जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, क्योंकि उदय रौ में आकर नहीं लिखते कि सिर पर लिखने का भूत सवार हुआ और एक ही रात में घिस मारा। बल्कि लंबे और कठिन प्रयत्नों के साथ विषय और देश-काल के तमाम संदर्भों को टटोल-टटोल कर पूरी बेचैनी और उतने ही इत्मीनान के साथ लिखा करते हैं। इसीलिये आपने जब ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ के अनूठे, सम्मोहक ताने-बाने के मध्य से गाय वंश परंपरा के सांड़ को चुने जाने या हेस्टिंग्स-चोखी प्रणय प्रसंग के संवेदनात्मक उद्देश्य पर सवाल उठाते हुए उसे विश्व-साम्राज्यवाद बनाम् कबीलावाद अर्थात् दीये और तूफान की लड़ाई के रोमांटिक या अनैतिहासिक आत्मवादी सोच के साथ जोड़ कर देखने की पेशकश की तो एकबारगी यह अनावश्यक खींच-तान या थोथे बतंगड़ जैसा प्रतीत नहीं हुआ। इसमें काफी कुछ चौंकाने वाला तथा विचारोत्तेजक सा जान पड़ा। लेकिन जब उदय की कहानियों को पढ़ने के खुद के अनुभवों को आपके प्रश्नों की रोशनी में फिर से टटोलने लगा, तो अंत में विचारोत्तेजना नहीं, बल्कि संपादकीय के सारे उपक्रम में उकसावे का तत्व ही सबसे प्रबल दिखाई देने लगा। उकसावा इसलिये नहीं कि आप कहानी को कहानी नहीं बल्कि किसी और ही रूप में देखना चाहते हैं। इस मामले में तो खुद उदय प्रकाश ने हमेशा कहानी के कथित ‘कहानीपन’ को तोड़ कर ही अपनी कहानियां लिखी है। उकसावा इसलिये लगा कि कहानियों में जो अंत वस्तुत: उदय की कहानियों के प्राक्कथन की तरह हुआ करते हैं, उन्हें ही आप सरीखे रचनाकार, संपादक ने कहानियों का पूरा सार क्यों मान लिया!

‘टेपचू’ हो या ‘तिरिछ’ या ‘रामसजीवन की प्रेमकथा’ या ‘और अंत में प्रार्थना’, या ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ - इन सबके नायकों का मरना या विक्षिप्त होना ही क्या इन कहानियों का शिखर या संदेश था? इन सब कहानियों को पढ़ते समय इनके नायकों का अंत मात्र कभी भी कहानियों के उपसंहार की तरह प्रतीत नहीं हुआ।

मेरा सवाल है कि उनकी इन कहानियों के ढांचे पर क्या कोई खास प्रभाव पड़ता यदि उन नायकों के अंत को बिल्कुल शुरू में ही बता दिया गया होता और कहानी का बाकी आख्यान फ्लैशबैक में तैयार होता?
यहां मुझे याद आती है लू शुन की प्रसिद्ध कहानी - ‘आक्यू की सच्ची कहानी’ की। आक्यू का मारा जाना उस लंबी कहानी का एक ‘शानदार पटाक्षेप’ भले ही रहा हो, लेकिन कहानी का मूल मर्म आक्यू की वास्तविक जीवन में लगातार पराजयों और लांक्षणाओं का उसके आत्मिक जगत में विजयों में रूपांतरित हो जाने के अद्भुत मनोविज्ञान के विवरणों में निहित रहा है। कहा जाता है कि चीन में 1911 की क्रांति के कटु यथार्थ ने लू शुन को अपने अतीत के गांव के जीवन के अनुभवों और तथ्यों को खंगालने के लिये प्रेरित किया था। क्रांति के बाद के लगभग 10 सालों तक लू शुन उन्हीं अनुभवों और तथ्यों के अध्ययन में डूबे रहे, जिस पूरे काल में ‘चीनी राष्ट्रीयता’ के सार-मर्म की दुहाई देने वाले असंख्य सिद्धांतों की बाढ़ आई हुई थी। लू शुन उस सैद्धांतिक दलदल में घुसने के बजाय उन तमाम कारणों की तलाश में जुटे गयें जिनके कारण 1911 की क्रांति के बावजूद चीन में सामंतवाद पूरी तरह जड़े जमाए हुए था। उस अध्ययन के बाद ही उनका ‘पागल की डायरी’ से लेकर ‘आक्यू की सच्ची कहानी’ की तरह की श्रेष्ठ रचनाएं तथा अनेक निबंधों को लिखना संभव हो पाया। लू शुन इस निष्कर्ष तक पहुंच पाये कि चीन की प्रगति बिना सामंती नैतिकताओं तथा पुराने आदर्शों से मुक्ति पाये संभव नहीं है। आ क्यू अपनी हर हार को नैतिक स्तर पर जीत मान कर कोई प्रतिरोध नहीं करता - यह उसका निजी मनोविज्ञान नहीं, सामंती नैतिकताओं के संस्कारों से जकड़ी चीन की आम जनता का मनोविज्ञान था। आज चीन की वैचारिक दुनिया में आक्यूवाद एक निश्चित मनावैज्ञानिक श्रेणी का रूप ले चुका है।

कहने का तात्पर्य यह है कि लंबी कहानियों के आक्यू की तरह के शिल्प में या ‘टेपचू’ से लेकर ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ तक की उदय प्रकाश की कहानियों के शिल्प में कहानी का अंत कितना ही रोमांचक, प्रभावोत्पादक या आकर्षक क्यों न हो, कहानी का संवेदनात्मक उद्देश्य उस अंत तक की यात्रा के पीछे के व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भों के विवरणों से जाहिर होता है। हिंदी कहानी में उदय प्रकाश का अपना यह एक खास योगदान है जिसमें कहानी उपन्यासों की तरह अपने काल की महा-आख्यात्मक अर्थ-संभावनाओं को लिये होती है।

उदय प्रकाश के लिये आदमी की भौतिक दुनिया और उसका आत्मिक जगत, दोनों ही समान महत्व रखते हैं। सच्चाई हर चरित्र में एक ही रूप में व्यक्त नहीं होती। परिस्थितियों के एक संदर्भ का मजबूत किला, दूसरे संदर्भ के संस्पर्श मात्र से बालू का ढेर साबित होता है और इसीप्रकार एक परिवेश का निरीह गुलाम अन्य परिवेश में पड़ते ही अपराजेय प्रतिरोध की शक्ति का रूप ले लेता है। जो रचनाकार आदमी के आत्मिक जगत के ऐसे तंतुओं को पकड़ने में विफल होते हैं, वे रचना को चरित्र की रोमांचकता से वंचित करके पूरी तरह यांत्रिक बना देते हैं। हड़तालों, जनसंघर्षों से लेकर अनेक ऐतिहासिक नाटकीय घटनाओं को विषय बना कर लिखी गयी रचनाएं भी यथार्थ के साथ चरित्र के द्वंद्वात्मक संबंधों की समग्रता को महत्व न देने के कारण निहायत दस्तावेजमूलक बन कर रह जाती है। घटना की नाटकीयता से अधिक से अधिक पंचतंत्र की कथाओं की तरह का कोई हितोपदेश भले प्रेषित हो जाए, चरित्र के गहरे संधान या उत्खनन से पड़ने वाले प्रभाव को हासिल नहीं किया जा सकता।

उदयप्रकाश अपनी लंबी कहानियों में जीवन के यथार्थ और चरित्र के द्वंद्वात्मक संबंधों की पहचान कराते हैं। ‘टेपचू’ हो या ‘तिरिछ’ या ‘रामसजीवन की प्रेम कहानी’ या ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ - ये सब बदलती हुई परिस्थितियों में चरित्र की नैसर्गिकता के अलग-अलग रूपांतरण की कहानियां हैं।  जो टेपचू गांव के प्रतिकूल परिवेश में एक मतभंगू बन कर जी रहा था, वही शहर में मजदूरों के संघर्ष की आंच से प्रतिरोध की शक्ति का अक्षय स्रोत बन गया। ‘तिरिछ’ के जो पिता गांव में अपने परिवार के लिये एक मजबूत किले की तरह थे, अपने संस्कारों और शहर के निर्मम बाबुओं की चपेट में आकर इस प्रकार बौराये कि एक क्षण में उनके चरित्र की गुरु-गंभीर ऊँची बुर्जों वाली अभेद्यता निश्चिन्ह हो गयी। परिस्थितियों की मार से बचने का उनमें जैसे कोई माद्दा ही नहीं रह गया। रामसजीवन विश्वविद्यालय के सर्वाधुनिक कैम्पस में कृषि क्रांति के विचारों की पूंजी भुनाने के चक्कर में आधुनिकता की मृगमरीचिका का शिकार हुआ। ‘और अंत में प्रार्थना’ आर.एस.एस. की तरह के प्रतिक्रियावादी मठों में भी ‘विचारधारा की शुद्धता’ के आग्रही मोहाविष्ट वयस्क की कारुणिक कत्‍​र्तव्य-परायणता का आख्यान है। ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ साहित्य की दुनिया में उपभोक्तावाद के पैर पसारने की अनोखी कहानी है जो तथ्य भी है, कल्पना भी, और आज के युग का बखान भी। उपभोक्तावाद की आंधी में पाल गोमरा सरीखा बेचारा कवि उसी प्रकार हतप्रभ ओर अनिर्णय की दशा में है जिसप्रकार आर्थिक उदारतावाद के आज के दौर में आम आदमी। इस लंबी कहानी का अंत उदय ने कुछ भावुक पंक्तियों से किया है - ‘‘जो प्रजातियां लुप्त होरही हैं/यथार्थ मिटाता जा रहा है जिनका अस्तित्व/हो सके तो हम उनकी हत्या में न हो शामिल/ और संभव हो तो संभाल कर रख लें/उनके चित्र .../ये चित्र अतीत के स्मृति चिन्ह हैं...।’’

उदय की इन भावुक पंक्तियों से इतिहास के निष्ठुर फैसले के सामने आदमी के आत्म समर्पण की गंध आती है। पश्चिम की देख-रेख में निर्मित हो रहा यह यथार्थ एक तीव्र सरल रेखीय (linear) काल-प्रवाह में आदमी की किसी पूर्व-घोषित नियति की तरह खुलता जायेगा या अन्य अनेक वर्तुल (circular) काल-प्रवाहों के झटकों से क्षत-विक्षत होकर किसी नये यथार्थ के सह-अस्तित्व और विकास के लिये जमीन छोड़ने पर विवश होगा, इसपर क्या कोई निश्चित राय दे सकता है ?

इतिहास में आर्थिक कारकों का निर्णायक स्वरूप संरचना के अन्य तत्वों से अप्रभावित नहीं रहता। उदय प्रकाश इस सचाई से भली-भांति परिचित है। फिर भी उनकी प्रकृति के विपरीत ‘पाल गोमरा’ की अंतिम काव्य-पंक्तियों मेंं नियति के दंभपूर्ण अभियान के सामने पराजय को स्वीकार लेने के करुण रूदन की ध्वनि आती थी। जबकि, कहानी के विवरण में ‘पाल गोमरा’ के विक्षिप्त भर होने से इस प्रकार की पराजय का कोई संकेत नहीं मिलता, स्कूटर के जरिये उपभोक्ता संस्कृति की गति से जुड़ने की एक तुच्छ कोशिश की विफलता साफ दिखाई देती थी। जाहिर है कि तकनीक के पैशाचिक विस्फोट के आतंक में मनुष्य की प्राणी-संत्ता का उनका संज्ञान इसमें कहीं न कहीं कमजोर पड़ गया था।

इसी पृष्ठभूमि में, ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’ मुझे पाल गोमरा के अंत में व्यक्त आदमी की बेबसी और बेचैनी का ही एक रचनात्मक विस्तार की तरह प्रतीत होती है। पाल गोमरा में उदय का संज्ञान जहां डोल गया था, वहीं इस कहानी में वे फिर उसे स्थिर रूप में प्राप्त करते हैं। इसे मनुष्य की प्राणी-सत्ता की तलाश की कहानी कहा जा सकता है।

लातिन अमेरिकी जादूई यथार्थवाद की सारी शक्ति आदमी के भौतिक जगत और आत्मिक जगत, दोनों के ही विस्मयों के द्वंद्वात्मक सह-अस्तित्व को तलवार की धार पर चलने के संतुलन और रोमांच के साथ व्यक्त करने में निहित रही है। गोबर युग से रॉकेट युग, इलेक्ट्रोनिक युग तक के यथार्थ के संशलिष्ट रूपों से निर्मित हो रहे  जीवन को व्यक्त करने की जिस शक्ति का परिचय मारकेस की शैली ने दिया है, वह शैली समूची तीसरी दुनिया के देशों के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये कारगर हो सकती है। अभियोग लगाने वाले मारकेस पर भी इतिहास के खिलाफ पिछड़ेपन की पैरवी का आरोप लगाते हैं।

‘भारत में ब्रिटिश राज की भूमिका प्रगतिशील थी या प्रतिक्रियावादी’ - इसपर चले विवाद से भी इस विषय पर रोशनी गिर सकती है। उपनिवेशवादियों के तर्क को आज के भारतीय इतिहासकारों ने ठुकरा दिया है। अंग्रेज ज्ञान-विज्ञान के साथ ही औपनिवेशिक लूट, अत्याचार तथा मुनाफे और शोषण के मूल्य भी लेकर आए थें। भारत से धन की निकासी ने इंगलैंड का औद्योगीकरण किया और भारत को कंगाल बनाया। इसलिये भारत में प्रतिक्रियावादी अंग्रेज थे, उन्हें खदेड़ कर बाहर करने की लड़ाई में लगे राष्ट्रवादी भारतीय नहीं। आज भी पूरे अफ्रीका के भयंकर पिछड़ेपन का प्रमुख कारण साम्राज्यवाद ही है। उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन एक प्रगतिशील ऐतिहासिक यथार्थ है। इसीलिये भारतीय गाय वंश के सांड़ का वारेन हेस्टिंग्स पर सिंग चलाना किसी कबीलावाद की झंडाबरदारी नहीं, कबीलाई जीवन के अभिशाप से मुक्ति की कोशिश है।

तीसरी दुनिया के यथार्थ की समझ के विकास में विभिन्न आततायी प्रभुओं द्वारा विकृत किये गये और प्रसारित किये गये विचारों की अपनी भूमिका रही है। उपनिवेशवाद ओर नव-उपनिवेशवाद की आर्थिक लूट के साथ ही विचारधारात्मक स्तर पर उनके द्वारा फैलायी गयी विकृतियों के ढांचे में यथार्थ के सैकड़ों पाठों को लिखा जाता रहा है। काल के सरल रेखीय प्रवाह के बजाय वर्तुल प्रवाह की ओर आप जैसे ही ध्यान देंगे, अनेक लोग आपको पोंगापंथी, पुरातनपंथी बताने के लिए उठ खड़े होंगे। माक्‍​र्स ने लिखा था कि ‘‘सभी मृत पीढि़यों की परम्परा जीवित मानव के मस्तिष्क पर एक दु:स्वप्न के समान सवार रहती है। और ठीक ऐसे समय, जब ऐसा लगता है कि वे अपने को तथा अपने इर्द-गिर्द की सभी चीजों को क्रांतिकारी रूप से बदल रहे हैं...वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कंठापूर्वक बुलावा दे बैठते हैं।’’

तात्पर्य यह कि जहां सचेत रूप में मृत पीढि़यों की सेवाओं को वर्तमान के कामों के लिये लिया जा सकता है, तो क्या स्मृतियों में उनके स्थान की कोई स्वतंत्र भूमिका नहीं होती? समय के सीधे विकास और वर्तुल प्रवाह के बीच की अन्तर्क्रिया का संज्ञान उस जादूई यथार्थवाद से ही मुमकिन है, जो क्रमबद्ध और बिना किसी क्रम के काल-प्रवाह के बीच नाना प्रकार के संयोजनों और टकराहटों को व्यक्त कर सकता है। वर्तमान और संभावनाओं से संपृक्त यथार्थ दृष्टि सिर्फ एक जटिल वर्तमान को उद्घाटित ही नहीं करती है, स्वयं उस जटिलता से निर्मित होती है तथा सचाई को देखने का एक नया नजरिया प्रदान करती है। मारकेस के ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालिच्यूड’ का लगभग दो सौ साल का बूढ़ा फ्रांसिस्को गा-गाकर खबरों का प्रसारण किया करता था, जिसके पास आदिम काल का वह बाजा था जिसे सर वाल्टर रेले ने उसे गायना में दिया था। इसीप्रकार उपन्यास की नायिका उर्सुला की क्या उम्र होगी, इसका अंदाज लगाना मुश्किल लगता है। वह कितनी ही पीढि़यों को अपनी नजरों से गुजरती हुई देख चुकी है। यह सब वैसा ही है जैसा 1795 में इंगलैंड में मार डाले गये सांड़ की चर्बी का 1857 में मंगल पांडे द्वारा चलाये गये कारतूसों में पहुंच जाना। 1857 का इसप्रकार 1795 में जाना समय के उस वर्तुल प्रवाह का संकेत है जो कहीं न कहीं विकास के सीधे क्रम को भी साथ लिये हुए है।

क्या आपको उदय प्रकाश की रचनाओं में ऐसा कोई उपक्रम नहीं दिखाई पड़ता? यह कोई इच्छा-स्वप्न नहीं जिसका उपहास भर कर देने से आप यथार्थवादी बन जायेंगे। आदमी के स्वप्नों से इंकार यथार्थ का सिर्फ विकृतिकरण नहीं, उपभोक्तावाद की पैरवी करना है।

हिन्दी में नई कहानी आन्दोलन का एक हिस्सा ‘खाओ, पीओ, मौज करो और मर जाओ’ के इसी स्वप्नविहीन वर्तमान की उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचारक था। वह आजादी के बाद के आदर्शविहीन मध्यवर्ग की भोग-लिप्सा और कुंठाओं को ही सबसे बड़ा सच माने हुए था। हिन्दी कहानी की इस प्रवृति के एक छोर पर जहां मोहन राकेश को रखा जा सकता है तो वहीं साठोत्तरी काल में उसके दूसरे छोर पर राजकमल चौधरी आएं। जुगुप्सा की हद तक भोग की ठंडी, निष्ठुर लालसा में इन दोनों लेखकों ने तो अपनी जान तक दे दी, लेकिन उस भोगवादी नैतिकता के ही जो अन्य कमजोर चरित्र थे, वे अंतहीन लिप्सा की मरीचिका का पीछा करते-करते अब अंत में थक कर बैठ गये हैं। अपने किये पर पछतावा भी शायद कर रहे हैं।

आपके संपादकीय के बाकी हिस्से में, जिसमें आपने उदय प्रकाश के सरल, निरीह, इनोसेंट लोगों की असहाय मृत्यु के सूत्र से ‘इतिहास का अंत’ के वर्तमान दौर का चित्र खींचते हुए जिसप्रकार के पाप-बोध और पाप-स्वीकार की अनुभूतियों को व्यक्त किया है, वह काफी चौकाने वाला है। आज की मूल्य-विहीन पीढ़ी जो सिर्फ शक्ति की भाषा बोलने और शक्ति की भाषा समझने वाली हिंस्र और आक्रामक पीढ़ी है, वह कैसे और कहां से आयीं - इस सवाल के जवाब में पाप स्वीकारने की आवेशित मुद्रा में आप लिखते हैं कि ‘‘क्या यह सारी पीढ़ी हमारी ही अवैध संतानें नहीं है ? क्या इसे जन्म देने की जिम्मेदारी हमारी ही नहीं है ? क्या यह हमारा ही विस्तार नहीं है जिसे देख कर हमारे हाथ-पांव फूल गये हैं ?’’

हमारा प्रश्न है कि क्या आप हृदय पर हाथ रख कर यह कह सकते हैं कि आपके ‘हम’ में क्या आप अपने ही समकालीन कथाकार भीष्म साहनी, अमरकांत, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, और यहां तक कि निर्मल वर्मा को भी शामिल कर सकते हैं ? नई कहानी की इस दूसरी परंपरा के रचनाकारों को निश्चित रूप से पाप-बोध का ऐसा दंश नहीं सता रहा है। मुर्दा भोग की अनुभूतियों वाली निष्ठुर सम्पृक्तिहीनता की भाषा में मानवीय संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं हुआ करता है। इसीलिये अतीत, वर्तमान और भविष्य के सैकड़ों वर्षों में जीने वाले जीवित चरित्रों की बुनावट को यह दृष्टि भला कैसे स्वीकार कर सकती है !

जरा इन कोणों से भी अपनी आत्म-समीक्षा कीजिये, उदय प्रकाश की रचनाओं का मर्म समझ में आ जायेगा।

आपका
अरुण माहेश्वरी
सीएफ-204, साल्ट लेक,
कलकत्ता - 700 064

मंगलवार, 17 जून 2014

मोदी सरकार, आरएसएस और मीडिया माफिया

अरुण माहेश्वरी


मोदी सरकार बन गई। जमीन-आसमान, सर्वत्र जिसका भारी शोर था, अब वह प्रत्यक्ष आ धमकी। लोग फटी आंखों देख रहे हैं - आगे क्या ?

आम चुनाव आम लोगों की कठोर और अन्यथा उबाऊ जिंदगी में अनेकों के लिये मनोरंजन की एक शरण-स्थली थी। मोदी-मोदी की रट से सब जैसे एक प्रकार की नीम बेहोशी की दशा में चले गये थे। जिसे घट में आना कहते हैं - एक अंधी धुन सी सवार होगयी थी। भारत के धर्म-प्राण लोगों का ऐसा आनंदातिरेक जैसे वे अपने ईश्वर से एकीकृत होगये हो! कौन नहीं जानता कि मोदी भगवान नहीं है। लेकिन भारत के मीडिया ने एक ऐसा तिलिस्म रचा कि वे भगवान से कम नहीं रहे। बिल्कुल आक्षरिक अर्थ में, हर-हर महादेव को हर-हर मोदी से स्थानापन्न किया गया।

आज सचमुच लोग हतबम्ब है। उन्होंने तो भगवान की प्रार्थना की थी - आश्वस्ति के एक अक्षय स्रोत की, जीवन के सभी सपनों की पूर्ति के अकूत खजाने की। लेकिन 16 मई ने उन सबके होश फाख्ता कर दिये। चाहा था भगवान, लेकिन पाया इंसान को! किसी ‘भगवान रजनीश’ की तरह का मायावी संसार का हाड़-मांस का पुतला। जिस प्रतिमा में विलीन होकर जो लोग उन्माद में झूम रहे थे, अचानक ही वह प्रतिमा उनसे अलग जीवित मनुष्य में बदल कर हजार पहरों से घिरे प्रधानमंत्री कक्ष में धस गयी, योजनों दूर चली गयी ! जो लोग लगभग आठ महीनों से आटे-दाल का भाव भूल कर इस नये अवतार के आगमन की गुहारों में खोये हुए थे, अब अचानक उन्हें फिर अपनी घर-गृहस्थी की ओर देखना होगा। एक खासे तबके को कुंठित करने के लिये इतना ही काफी है। मनुष्यों के भावलोक में कल्पित ईश्वरीय शक्तियों से संपन्न किसी वीर नायक के अवसान का यह भी एक अनोखा विडंबनापूर्ण दृश्य है !

आज यह सच है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रिमंडल को लेकर आम लोगों में जरा भी दिलचस्पी नहीं है। खोज करने पर पता चलेगा कि भारत का न्यूज मीडिया संभवत: अभी अपने न्यूनतम टीआरपी पर चल रहा होगा। न मोदी-शरीफ मिलन के प्रति लोगों में कोई उत्साह हैं, और न ही नये शिक्षामंत्री के झूठे शपथ पत्रों को लेकर। जो पहले था, वही आज और आगे भी होगा - इस बारे में लोगों को जरा भी संदेह नहीं है। रविश कुमार ने बिल्कुल सही, बदलाव के इस ‘ऐतिहासिक क्षण’ में ‘सड़क सुरक्षा’ को ‘प्राइम टाइम’ का विषय बनाया है। अर्नब वगैरह संभवत: आठ महीने की गला-फाड़ू मेहनत के बाद अपने मेहनताना के भोग के लिये छुट्टियों पर चले गये हैं।

लेकिन, विगत चुनाव प्रचार अभियान के दौरान, सचमुच जो कटु सचाई सबसे प्रकट रूप में सामने आई, वह है मीडिया का पूरी तरह बिकाऊ, फिर भी महा-प्रतापी रूप। पता चला कि शुद्ध प्रचार के बल पर कैसे एक पूरी जाति को लगभग मूच्र्छना की दशा में डाला जा सकता है। नोम चोमस्की अमेरिका के अनुभवों के बल पर सालों से जिस ‘उत्पादित जनमत’ की चर्चा करते रहे हैं, इसबार हम भारतवासियों ने उसे बिल्कुल नग्न रूप में प्रत्यक्ष किया।

मोदी ने कोई वैकल्पिक नीतियां नहीं दी थी। चुनाव में नीतियों के सवाल पर कोई बहस भी नहीं हुई। कांग्रेस शैतान है और मोदी भगवान, सिर्फ इसी तर्ज पर पूरा प्रचार चला। और यही वजह है कि जब भगवान उसी शैतान के प्रतिरूप, इंसान की शक्ल में आता दिखाई दे रहा है तो सारा देश चुप और सन्न है। अब शायद ही कोई यह कल्पना कर रहा होगा कि कुछ नया घटित होने वाला है।

वही पुराने, एनडीए के काल के बदनाम चेहरे और वही, 1991 से चली आरही मनमोहन सिंह की नीतियों की धारावाहिकता। फर्क सिर्फ यह है कि संसद में इस बार 58 प्रतिशत सांसद नये आए हैं और इन नयों विपुल धन-संपत्ति ने सांसदों की औसत संपदा को पहले से 158 प्रतिशत अधिक कर दिया है। और जारी है, वही पुरानी झूठी बातें -‘यह सरकार देश के गरीबों को समर्पित सरकार है!’

प्रशासनिक रवैये में भी ज्यादा फर्क नहीं है। सत्ता में आने के साथ ही अध्यादेश के जरिये काम शुरू किया गया है, संदेहों के घेरे में पड़े अधिकारियों की पुनर्बहाली भी शुरू हुई है। संभवत: सिर्फ एक फर्क है कि मोदी-केंद्रित प्रचार की अंत:सलिला के तौर पर आरएसएस का जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल चल रहा था, उन जख्मों का रिसाव भी अब धीरे-धीरे, कहीं-कहीं दिखाई देने लगा है। पुणे में मोहसिन शेख को अकारण ही पीट-पीट कर मारा गया, तो धारा 370 के मुद्दे को भी हवा दी जाने लगी है।

दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के संबोधन में एक भी ऐसा नुक्ता नहीं था, जिसके आधार पर पहले की कांग्रेस सरकार और अभी की मोदी सरकार के बीच जरा सा भी फर्क किया जा सके। और तो और, दिखावे के लिये ही क्यों न हो, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात को भी इसमें दोहराया गया है, जिसे पहले भाजपा के लोग तुष्टीकरण कह कर कोसते हुए थकते नहीं थे।

बहरहाल, इस पृष्ठभूमि में, यह सवाल भी बचा रह जाता है कि आगे आरएसएस की क्या भूमिका होगी ?
आरएसएस ने हिटलर से प्रेरित होकर ‘हिंदू ही राष्ट्र है’, ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण’, ‘मूलगामी विभेद वाली जातियों और संस्कृतियों के समूल नाश’ और उत्तर में काबुल, गांधार अर्थात अफगानिस्तान, पूरब में इरावडी अर्थात म्यामांर तथा दक्षिण में श्रीलंका तक फैले प्राचीन अखंड भारत को फिर से प्राप्त करने के जिन लक्ष्यों को सामने रख कर अपना पूरा ताना-बाना बुना था, क्या आगे इन लक्ष्यों पर अमल के नये कार्यक्रम बनाये जायेंगे ? अथवा, यह मान लिया जाएं कि मोदी के सत्ता में आने के साथ ही अब आरएसएस की कोई खास भूमिका शेष नहीं रह गयी है। जैसे पिछली एनडीए सरकार के वक्त आरएसएस के शीर्ष स्तर के लोग भी सत्ता के लोभों में डूबते हुए दिखाई दे रहे थे, आगे आरएसएस के नाम पर फिर कुछ-कुछ वैसे ही नजारें देखने को मिलेंगे, और कुछ नहीं।

दरअसल, अभी भाजपा और एनडीए को सिर्फ एक तिहाई मतदाताओं का समर्थन मिला है। बाकी दो-तिहाई मतदाताओं का विशाल तबका बाकी है, जिसके बीच भाजपा को अपनी पैठ बनानी है। यह संभव है कि आरएसएस के सिपाहियों को इस काम में लगाया जायेगा। लेकिन संघ के लोगों की ऐसी नियुक्तियों में ही सांप्रदायिक तनाव, हिंसा और अस्थिरता के वे सभी बीज छिपे हुए हैं, जो मोदी सरकार के लिये अच्छी-खासी परेशानी का सबब भी बन सकते हैं। और यही वह बिंदु है जिसमें आने वाले दिनों के उन सारे अन्तर्विरोधों के बीज छिपे हुए हैं जो आरएसएस को या तो शुद्ध रूप में सरकारी नेतृत्व के गुर्गों की स्थिति में ले जायेगा या फिर उसके बने रहने के औचित्य पर ही सवाल पैदा करेगा।

वाजपेयी के नेतृत्व की एनडीए सरकार के काल में कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति सामने आई थी। राममंदिर बनाने की आस लगाये बैठे उन्मादी तत्व अदालत की प्रक्रिया से हताश थे, संघ परिवार में वाजपेयी-आडवाणी की वरिष्ठता ने नागपुर मुख्यालय को कोरे बूढ़े और निराश लोगों के आश्रम में तब्दील कर दिया था। और तो और, जो लोग भारत की मुसलमान बस्तियों को लघु-पाकिस्तान मान कर बूंदी के किले की तरह उनपर फतह के खेल खेला करते थे, वह पाकिस्तान भी संघ परिवार वालों के लिये खुली नफरत का पात्र नहीं रह गया था। आडवाणीजी सरीखे कट्टरवादी माने जाने वाले नेता ने जिन्ना की तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिये, तो उस सरकार के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने बाद में जिन्ना की प्रशंसा में पूरी किताब ही लिख मारी। संघ परिवार को थोड़ी सी उम्मीद जगी थी, गुजरात की प्रयोगशाला में किये गये सन् 2002 के प्रयोग से। लेकिन बाद में, उसे भी ज्यादा दूर तक खींचना संभव नहीं रहा।

उल्टे, जिन नेताओं और अधिकारियों ने गुजरात के उस जघन्य प्रयोग में सबसे अधिक खुल कर हिस्सा लिया, वे एक-एक कर जेलों में ठूसे जाने लगे। आज तक वे सभी फौजदारी मुकदमों में फंसे हुए हैं। अनेकों को सजाएं भी हो चुकी हैं। गुजरात में भाजपा और विहिप के कई बड़े नेता और पुलिस अधिकारी भी उम्र कैद की सजा भुगत रहे हैं। बड़ी मुश्किल से, न जाने कितने कारनामें करके नरेन्द्र मोदी ने खुद को उस चक्र से बाहर निकाला है। उस जनसंहार को लेकर चार हजार से ज्यादा मुकदमें दर्ज हुए जिनमें से दो हजार मुकदमें सबूत के अभाव की बिनाह पर बंद कर दिये गये थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उनमें से 1600 मुकदमों को फिर से जांच करने लायक पाया और लगभग साढ़े छ: सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया। आज भी उस जनसंहार पर 60 से अधिक राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों द्वारा जांच का काम चल रहा है।

परिस्थितियों की इस पृष्ठभूमि में अब आरएसएस की स्वतंत्र भूमिका का दायरा बहुत सीमित सा दिखाई देता है। जो आरएसएस एक समय में स्वदेशी की बातें किया करता था, अब नरेन्द्र मोदी के रवैये को भांप कर ही उसके प्रवक्ता राममाधव ने साफ कर दिया है कि ‘‘संघ आर्थिक मामलों में संरक्षणवादी नहीं है।’’ मोदी के इशारों को समझना और उसके अनुसार अपनी रंगत बदलना अब शायद संघ परिवार की मजबूरी है। नरेन्द्र मोदी वाजपेयी या आडवाणी नहीं है जिनकी दबी-छिपी आलोचना करके भी संघ वाले अपनी कानाफूसी वाली ‘राजनीतिक गतिविधियों’ को जारी रख सकते थे, उन्हें किसी राज-रोष का भय नहीं सताता था। मोदी ऐसी कानाफूसियों को उजागर करके ही तो आगे संघ सहित अपनी पार्टी पर खुद के वर्चस्व की राजनीतिक गोटियां खेलेंगे। गुजरात में उन्होंने यही कर दिखाया है जो वहां के संघी नेताओं के न निगलते बनता है, न उगलते।

कुल मिला कर, आने वाला समय भारत में मीडिया माफिया का समय होगा। मीडिया के जरिये कॉरपोरेट जगत की खुली तानाशाही का समय होगा। अमेरिका में लगभग बीस साल पहले ही यह स्थिति खुल कर सामने आगयी थी। वहां के 80 फीसदी मीडिया पर कॉरपोरेट का कब्जा होगया था। तभी से वही तय करने लगा है कि कौन सी खबर लोग देखें और कौन सी न देखें। कौन सी फिल्म, किताब और टेलिविजन कार्यक्रम को जनता के बीच चलाया जाएं और किसे हमेशा के लिये दफ्न कर दिया जाएं। तभी से वहां मीडिया पर इजारेदारी-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) कानून लागू करने की बात भी उठने लगी थी। वहां जब ‘70 के दशक के शुरू में छोटे-छोटे अखबारों को बड़े अखबारों ने खरीदना शुरू किया था, तब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक राय में कहा था कि प्रकाशन की स्वतंत्रता एक संवैधानिक अधिकार होने पर भी प्रकाशनों को खरीद कर उनकी आवाज को बंद कर देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। लेकिन उस समय भी वहां के कॉरपोरेट और धनबलियों ने अदालत के उस फैसले को उलट देने के लिये वहां के सिनेट को मजबूर किया था। उन्होंने तत्कालीन सरकार को सीधी धमकी दी थी कि यदि इस कानून को न बदला गया तो वे आगामी चुनाव में शासक दल की खाट खड़ी कर देंगे। आज वहां का सारा मीडिया, जनता के प्रति जिम्मेदारी से पूरी तरह विमुख, मूलत: अपने मालिकों के एजेंडे पर काम करता है। चुनावों के वक्त सारे दल उनकी सेवा के लिये हाजिर रहते है।

भारत के इस चुनाव में मीडिया की ऐसी ही ताकत का खुला परिचय मिला है और इसीलिये चुनाव खत्म होते न होते, भारत के इजारेदार घरानों ने मीडिया पर अपने प्रभुत्व के शिकंजे को और अधिक कसने का काम शुरू कर दिया है। ऐसे में किसी और की क्या औकात ! ‘स्वदेशी’-‘विदेशी’ - जो होगा, सब कॉरपोरेट के हित में होगा। कॉरपोरेट की तानाशाही का अर्थ है - गरीबी उन्मुलन का दंभ भरने वाले अन्तत: पूरी ताकत के साथ गरीब-उन्मुलन के दमन यज्ञ में जुटे हुए दिखाई देंगे। आगे की राजनीति इसी आधार पर तय होगी।    

Harish Bhadani's song Bajati Hui Suin

Harish Bhadani's song Bajati Hui Suin

Harish Bhadani's song Deewaron Par Aa Baithi Yaadon.wav

Harish Bhadani's song Tooti Gazal n Gaa Paayenge

Harish Bhadani's song Kal Se Kya Aaj Se Gawahi Le

Harish bhadani's song Din Dhalte Dhalte

Harish bhadani's song Din Dhalte Dhalte

Harish Bhadani's song Awaaz Yaad Ayee

सोमवार, 16 जून 2014

Harish Bhadani's song Utari jo Chhah Abhi

Harish Bhadani's song 'Ek Akshar Jindagi Tere Liye'

Harish Bhadani's song 'Koi Aankh Nahin Bhigegi'

Harish Bhadani's song 'Koi Aankh Nahin Bhigegi'

Harish Bhadani's song Seemayen Mat Puchho

Harish Bhadani's song Bolo Kaise Pyaas Bujhaayen

Harish Bhadani's song Kisse Baat Karein Ekaki Man

Harish Bhadani's song Kabhi Kabhi Man Dukh Jaata Hai

Harish Bhadani's song Aise Tat Hain Kyon Inkaare

रविवार, 15 जून 2014

Harish Bhadani's song Main Bhi Tujhe Pukar du

Harish Bhadani's song Main Bhi Tujhe Pukar du

Harish Bhadani's song Maine Nahin Kal Ne Bulaya Hai

Harish Bhadani's song Jaag Jaane Ki Ghadi Hai

Harish Bhadani's song Sabhi Sukh Door Se Gujare

Harish Bhadani's song Main Bhi Tujhe Pukar du

Harish Bhadani's song Chahe Jise Pukar Le Tu

Harish Bhadani's son Thaki Agar Ruk Jayegi

Harish Bhadani's song Pir Kuchh Aisi Barsi Saari Raat

Harish Bhadani's song Teri Meri Jindagi

Harish Bhadani's song Rahi Achhuti Sabhi Matakiya

शनिवार, 14 जून 2014

Harish Bhadani's Chatuspadias, Muktaks

Harish Bhadani's Chatuspadias, Muktaks

Harish Bhadani's Chatuspadias, Muktaks

Harish Bhadani's song Soja Peeda Mere Geet Ki

Harish Bhadani's song Priye Adhuri Baat

Harish Bhadani Jangeet 'Raaj Bolta'

Harish Bhadani Roti Nam Sat Hai

शुक्रवार, 13 जून 2014

Harish Bhadani song Bole Sarnato

Harish Bhadani's song Thaare Lamba Jodu Haath

Harish Bhadani Song Chale Kaha se

Harish Bhadani Ret Mein Nahaya Hai Man

Harish Bhadani poem Barso Baad Uttar Aadi

गुरुवार, 12 जून 2014

HaHarish Bhadani Pheron Bandhi Hue

Harish Bhadani poetry Peeda ki Haandi, Ab to Uthja thaar

Harish Bhadani poem Tune hi to jaya hai

Harish Bhadani song 'Saanson ki Anguli Thame'

harish bhadani poem Haan Suraj Ke Bete

Harish Bhadani poem Suno Kunti Ko Suno

Harish Bhadani song Jaag Jaane Ki Ghadi Hai

Harish Bhadani's song Umra Dhalti Ja Rahi

Harish Bhadani's song 'Thali Bhar Dhoop Liye'

Harish Bhadani's 'Kshan Kshan Ki Chhaini'

Harish Bhadani's song - Tu Bhi Sun Le Main Bhi

Harish Bhadani's song 'Saat Suro mein Bol

Harish Bhadani's song - Main bhi Tujhe Pukaar du

Harish Bhadani's song Pyaas Seema heen Sagar

बुधवार, 11 जून 2014

Harish Bhadani Songs of last days

Harish Bhadani's songs after 60s

Harish Bhadani's four songs

Harish Bhadani Rajasthani Nukkad Geet

Harish Bhadani's songs of early days

मंगलवार, 10 जून 2014

रेत में नहाया है मन

(अरुण माहेश्वरी की पुस्तक 'हरीश भादानी' का सातवां अघ्याय)





सन् 1981, ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ का प्रकाशन वर्ष। मरुभूमि की भट्टी से तपती घाटी में ‘सारंगी लेकर बैठे’ अकेले कवि के गीतों और कविताओं का संकलन। सन् ‘66 में प्रकाशित ‘एक उजली नजर की सुईं’ और ‘सुलगते पिंड’ के पूरे 15 साल बाद - फुटकर, अलग-अलग भावों के गीतों-कविताओं का संकलन। 
इस बीच ‘वातायन’ बंद होगयी, कथित वातायन परिवार उजड़ गया, संगी-साथी अपने-अपने दड़बों में सिमट गये, एक अर्से तक कोलकाता का संपर्क भी स्थगित सा हो गया, बड़ा हवेलीनुमा घर बिका और साथ ही हवेली से जुड़ी हैसियत का वलय भी बुझ गया। अति-साधारण छोटे से घर में जीवन सिमटा, और गहराने लगा आम आदमी की निर्बलता और असहायता का बोध। जो अपने साथ कभी पूरा हुजूम लेकर चलते थे, वे अब नितांत अकेले, असमर्थ और असहाय से होगये। चारो ओर कैरियर बनाने की जुगत में लगे लोगों के बीच भविष्य की बिना किसी योजना के जी रहा अकेला, ‘हिंदी’ का रचनारत कवि। बिछड़े सभी बारी-बारी। कभी राखी के पर्व पर शहर भर की बहनों से सोत्साह अपनी कलाई को आबाद कराने वाले कवि के लिये अब यह पर्व एक बोझ सा बन गया। ‘बहनें’ भी छिटकने लगी। जीवन का साधन नहीं, लेकिन कवि-सम्मेलनी उपलब्ध बाजार में बिकने की तैयारी भी नहीं। गीत गायेंगे - पैसों के लिये नहीं, हंसोड़ों और चटखोरों के साथ नहीं - अपनी मर्जी के मंचों पर, आंदोलन के नुक्कड़ों पर,  मित्रों की महफिलों और गोष्ठियों में, कभी-कभार रेडियो और दूरदर्शन पर। 
इन 15 सालों में ‘74 से ‘79 का काल तो एक अलग प्रकार की सामाजिक उत्तेजना का काल था। इसका जिक्र हम ‘रोटी नाम सत है’ वाले अध्याय में कर चुके है। वह था अकेलेपन का एक सामूहिक प्रत्युत्तर। मुक्ति अकेले की नहीं, सामूहिक होती है। लेकिन, जैसा कि कवि सुभाष मुखोपाध्याय ने अपनी एक कविता में लिखा है - आमी की फोटो तोला छवि कि सब समय हांसते ही थाकबो...। (मैं क्या कोई फोटो वाली तस्वीर हूं कि हमेशा हंसता ही रहूंगा।... मेरे हाथ में क्या कोढ़ हुआ है कि हमेशा मुट्ठियां बंधी ही रहेगी)। ‘रोटी नाम सत है’ का युयुत्सु-भाव रचनाशीलता की अनंत संभावनाओं की खोज की पाटी पढ़े हरीश भादानी का स्थायी भाव कभी नहीं हो सकता था। इस पूरी यात्रा का मोटे तौर पर एक समग्र आख्यान, जिसे कोई उनके इन 15 सालों का एक सफरनामा भी कह सकता है, उन्होंने ‘नष्टोमोह’ में लिखा है। लेकिन, एक-एक समय विशेष की खास अनुभूतियां तो इन अलग-अलग गीतों और कविताओं में ही मिलती है। ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ की रचनाओं को ध्यान से देखे तो इन पंद्रह सालों की यात्रा के अलग-अलग पड़ावों को, मील के हर पत्थर को आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। 

इस संकलन का पहला गीत है - ड्योढ़ी। 
‘‘ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए/ कुनमुनते ताम्बे की सुइयां/खुभ-खुभ आंख उघाड़े/रात ठरी मटकी उलटा कर/ ठठरी देह पखारे/बिना नाप के सिये तकाजे/ सारा घर पहनाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/ सांसों की पंखी झलवाए/रूठी हुई अंगीठी/मनवा पिघल झरे आटे में/पतली कर दे पीठी/ सिसकी सीटी भरे टिफिन में/ बैरागी-सी जाए/ ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/पहिये पांव उठाये सड़कें/ होड़ लगाती भागे/ठण्डे दो-मालों चढ़ जाने/रखे नसैनी आगे/ दोराहों-चौराहों मिलना/टकरा कर अलगाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।/सूरज रख जाए पिंजरे में/ जीवट के कारीगर/घड़ा-बुना सब बांध धूप में/ ले जाए बाजीगर/ तन के ठेले पर राशन की/ थकन उठा कर लाए/ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए।’’1

‘एक उजली नजर की सुईं’ का सर्वाधिक लोकप्रिय हरीश जी के आधुनिक गीत ‘मैंने नहीं कल नहीं कल ने बुलाया है’ के बिंब - सीटियों से सांस भर कर भागते बाजार मीलों दफ्तरों को रात के मुर्दे’ का ही एक और शब्दांकन। महानगर में मजदूरों के जीवन का ऐसा ही एक और बिंब है इस संकलन का दूसरा गीत - ‘कोलाहल के आंगन’।

‘‘दिन ढलते-ढलते/कोलाहल के आंगन/सन्नाटा/रख गई हवा/दिन ढलते-ढलते/दो छते कंगूरे पर/दूध का कटोरा था/धुंधवाती चिमनी में/उलटा गई हवा/दिन ढलते-ढलते/घर लौटे लोहे से बतियाते/ प्रश्नों के कारीगर/आतुरती ड्योढ़ी पर/सांकल जड़ गई हवा/दिन ढलते-ढलते/कुंदनिया दुनिया की/झीलती हकीकत की/बड़ी-बड़ी आंखों को/अंसुवा गई हवा/दिन ढलते-ढलते/हरफ सब रसोई में/भीड़ किए ताप रहे/क्षण के क्षण चूल्हे में/अगिया गई हवा/दिन ढलते-ढलते’’।2

देखिये इस संकलन के तीसरे गीत ‘सुईं’ का चित्र : ‘‘एक तलाश पहन कर भागे/किरणें छुई-मुई/बजती हुई सुईं/...बोले कोई उम्र अगर तो/तीबे नई सुईं/बजती हुई सुईं’’।3 

‘सांसें’ गीत का बिंब है : ‘‘शहरीले जंगल में सांसें/हलचल रचती जाए सांसें/...चेहरों पर ठर गई रात की/राख पोंछती जाएं/... पगडंडी पर पहिये कस कर/ सड़कों बिछती जाएं/...पानी आगुन आगुन पानी/तन-तन बहती जाएं/...खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर/तलपट लिखती जाएं/...सुबह शाम खाली बांबी में/जीवट भरती जाएं/ शहरीले जंगल में सांसे/हलचल रचती जाएं’’।4 
इसीप्रकार - ‘मन सुगना’। ये सभी गीत ‘एक उजली नजर की सुईं’ के महानगरीय अनुभवों और बिंबों के बचे हुए गीत है। अर्थात ‘72-‘73 के पहले तक के। 
इसके बाद आता है हरीश जी का तपती छबीली घाटी में सिमटना और ‘रोटी नाम सत है’ वाला दौर। हरीश जी अकेले हुए, कई कारणों से । उनमें एक कारण उनकी प्रसिद्धी से पैदा होने वाला एकाकीपन भी था। हरीश भादानी कभी अकेला हो सकता है, यह बीकानेर के मित्रों की कल्पना के परे था। वे बीकानेर में आये हुए हैं तो किसी मजबूरीवश नहीं, उनका चयन है और जब मर्जी होगी, शहर-शहर यात्रा पर निकल पड़ेंगे - सामान्यत: लोगों का यही मानना था। 

लेकिन, लोगों की यह धारणा सचाई से परे थी। बीकानेर में सिमटना उनका चयन नहीं, बाध्यता थी। इसका अहसास उन्हें दुखी करता था और नाराज भी। यह मजबूरी उनको कमजोर नहीं कर सकती थी। मरुभूमि की रेत कोरी रेत नहीं है, इसे आंधी बन कर सब कुछ उखाड़-पछाड़ देना भी आता है। यह नगरों-महानगरों की दासी नही है। बीकानेर में ही जीने की जिद और साथ ही आपात काल का प्रतिरोध, हरीश भादानी में एक नया विद्रोही तेवर पैदा होता है। ऐसे निजी और सामाजिक, दोनों स्तरों पर विद्रोह की अनुभूतियों की एक प्रतिनिधि रचना है - ‘रेत है रेत’। 

इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी 

कुछ नहीं प्यास का समंदर है
जिंदगी पांव-पांव आएगी

धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी

इसने निगले है कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी

न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी

उठी गांवों से ये खम खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी।

आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नजर आएगी

सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी

कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी 5

इसी भाव-भूमि का दूसरा गीत है - ‘जंगल सुलगाए हैं’। 

‘‘हद तोड़ अंधेरे जब/ आंखों तक धंस आए/ जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं/...बंदूक ने बंद किया/ जब-जब भी जुबानों को/...जब राज चला केवल/कुछ खास घरानों का/कागज के इशारे से दरबार ढहाए हैं/...झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं।’’6

यह तब है जब भीतर-बाहर विद्रोह की लपटें जल रही थी। लेकिन लड़ाई के थमते ही, एक दूसरे प्रकार का व्यर्थता बोध, अकेले कर दिये या हो जाने का अहसास कवि को उन प्रश्नों से घेरने लगता है, जिनके जवाब की तलाश में ‘नष्टोमोह’ के इतने सारे पन्ने रंगे गये थे। ‘जंगलों को सुलगाने’ के लिये मुट्ठियां भले कभी तनी हो, लेकिन इस जंगल के बाहर जीवन का दूसरा आसरा भी कहां था? 

‘‘उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो/सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पे तारी यारो‘‘
गौर करने लायक है इस गीत की ये पंक्तियां -‘‘कोई दुनिया न बने/रंगे-लहू के खयाल/गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो’’।7 

इसी संकलन का गीत है ‘अपना ही आकाश बुनूं मैं’, जिसका हम पिछले अध्याय में भी जिक्र कर आये हैं। ‘‘पोर-पोर/ फटती देखू मैं/केवल इतना सा उजियारा/ रहने दो मेरी आंखों में/सूरज सुर्ख बताने वालो/सूरजमुखी दिखाने वालो/...मेरी दिशा बांधने वालो/दूरी मुझे बताने वालो’’।

‘रंगे लहू’ और ‘सुर्ख सूरज’ - संकेत साफ थे। जिन विश्वासों के साथ वे जुड़ गये या उन्हें जोड़ दिया गया था उन पर अंदर ही अंदर गहरे सवालियां निशान लगने लगे थे। उनके इस अकेलेपन में बुद्धिवादी क्रांतिवीरों की भी एक भूमिका जरूर थी। सहज, दुखी मन कहता है - ‘क्या किया जाए’। वे कोई राजनीतिक व्यक्ति तो थे नहीं कि जिसके भटकने पर मनाही हुआ करती है। यहां तो सुबह-शाम मिजाज बदला करते हैं। 

‘‘सड़क फुटपाथ हो जाए/ गली की बांह मिल जाए/ सफर को क्या कहा जाए/ बता फिर क्या किया जाए/...आदमी चेहरे पहन आए/लहू का रंग उतर जाए/...समय व्याकरण समझाए/ हमें अ-आ नहीं आए’’।8

अब तक का पूरा सफर कभी पूरी तरह निरर्थक तो कभी अनंत संभावनाओं से भरा हुआ। 
‘‘चले कहां से/गये कहां तक/याद नहीं है/आ बैठा छत ले सारंगी/...सिया हुआ किरणों का चोला/पहन लिया था/या पहनाया/याद नहीं है/ ...रेत रची कब/हुई बिवाई/...मटियल स्याह धुओं के धोरे/सूरज लाया/या खुद पहुंचे/...रिस-रिस झर-झर उर-उर गुमसुम/झील होगया है घाटी में/हलचल सी बस्ती में केवल/ एक अकेलापन पाती में/दिया गया या/लिया शोर से/ याद नहीं है’’।9 

अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत। 

जब लिखते हैं - ‘टूटी गजल न गा पाएंगे’। ‘‘हवा हदें ही बांध गई है/ यह ठहराव न जी पाएंगे/...आसमान उलटा उतरा है/ अंधियारा न आंज पाएंगे/...चलने का/इतना सा माने/बांह-बांह/घाटी दर घाटी/ पांव-पांव/ दूरी दर दूरी/ काट गए काफिले रास्ता/यह ठहराव न जी पाएंगे/टूटी गजल न गा पाएंगे’’।10 

और, इसी के साथ, अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के उस अमर गीत का सृजन करते हैं जो हरीश जी के पाठकों, श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में राजस्थान के आधुनिक राष्ट्रगीत से किसी भी मायने में कम सम्मानित स्थान पर नहीं है। ‘रेत में नहाया है मन’। 

धरती से प्रेम का नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है - ‘सराला एरेन्दिरा’। इसमें एरेन्दिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेन्दिरा की दादी कहती है - ’’तुम्हे प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ प्रेम में ही रेत कभी धुआंती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि समन्दर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की काख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।  

‘‘आंच नीचे से 
आग ऊपर से
वो धुआंए कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी
धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन

घास सपनों सी 
बेल अपनों सी
सांस के सूत में
सात स्वर गूंथ कर
भैरवी में कभी
साध के दारा
गूंगी घाटी में
सूने धोरों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन

आंधियां काख में
आसमां आंख में
धूप की पगरखी
तांबई अंगरखी
होठ आखर रचे
शोर जैसे मचे
देख हिरनी लजी
साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन’’ ।11

राजस्थान में धरती की वंदना का एक लोकप्रिय गीत है - धरती धोरां री। कोलकातावासी कन्हैयालाल सेठिया का लिखा गीत। कण कण को चमकाता सूरज, काले बादलों का आना-जाना, बारिस का न होना और बिजली का चमक कर रह जाना - ‘दोनों हाथों लुटाने वाली कुदरत’ की ऐसी लीला - कवि इसी धरती के प्रेम में दीवाना है। इसके ‘फल-फूल’, चित्तौड़ का गढ़, उसके सूर-वीर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, अजमेर, अलवर, बूंदी के राजाओं-महाराजाओं के गौरव और उनकी भड़कीली शान की कभी न भूलने वाली कथाओं और जयपुर की पटरानियों, मूमळ की सुंदरता वाली धरती की धूल को यह गौरव-गायक सिर पर लगाता है।12 

‘रेत में नहाया है मन’ इस गौरवगान के विपरीत धरती से प्रेम का एक दूसरा छोर है - ‘सौन्दर्य के नये मानदंडों’ की रचना का गीत। राजाओं और सूर-वीरों, तथा महलों की सुंदरियों के बजाय ऊपर से बरसती आग और नीचे सुलगती आंच पर धूप की पगरखी पहने अपने शरीर की चमड़ी को जला कर तांबई अंगरखी वाले रेत से बतियाते आम मेहनतकश आदमी के जीवन के सौन्दर्य का गीत। 

‘‘मौसम ने रचते रहने की/ऐसी हमें पढ़ाई पाटी/रखी मिली पथरीले आंगन/ माटी भरी तगारी/ एक सिरे से एक छोर तक/पोरे लीक बनाई घाटी/...आस-पास के गीले बूझे/बीचोबीच बिछाये/ सूखी हुई अरणियां उपले/ जंगल से चुग लाए/ सांसों के चकमक रगड़ा कर/खुले अलाव पकाई घाटी/मौसम ने ...’’13

यह है ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ का रहस्य। रचना में अपनी धरती के इतिहास, भूगोल के प्रवेश का नया पथ। रचाव की नयी जिद का एक और सबब। ‘अगम, दुर्गम, जल और घास की कमी और धूप और वायु की प्रबलता वाले खेजड़ा, कैर, बिल्व, आक, पीलु और बैर की तरह के मरु-उत्पादों के जांगल देश’ के सच से साक्षात्कार की नयी तैयारी। रेत के विशाल समंदर, मुडि़या कंकड़ों के पहाड़, उसके चारो ओर यदाकदा होने वाली मूसलाधार बारिस के जल-प्रवाह से बनी घाटियों, खंदकों के जाल के भूगोल की ओर प्रस्थान।  

भादानी जी बीकानेर में है तो शहर की सारी साहित्यिक गोष्ठियों की अध्यक्षता उनके नाम होगयी। सामाजिक स्वीकृति का भी एक नया दौर शुरू हुआ। आंतरिक आपातकाल के बीच ही, सन् 1976 में राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) उदयपुर ने सम्मान पत्र दिया, तो उसी साल डूंगरगढ़ की राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति ने मरुधरा श्री के सम्मान से विभूषित किया।14 मरुभूमि में धकेल दिये जाने के विषण्णता बोध का नया प्रतिकार। 



1.हरीश भादानी, खुले अलाव पकाई घाटी, धरती प्रकाशन, 1981, पृ : 9-10
2.वही, पृ : 11-12
3.वही, पृ : 13
4.वही, पृ : 15
5.वही, पृ : 21-22
6.वही, पृ : 23-24
7.वही, पृ : 25
8.वही, पृ : 27-28
9.वही, पृ : 37-38
10.वही, पृ : 67-68
11.वही, पृ : 39-40
12.कन्हैया लाल सेठिया रचित गीत - धरती धोरां री !
आ तो सुरगा नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवे/ ईं रो जस नर नारी गावै, धरती धोरां री!/ सूरज कण कण नै चमकावै, चन्दो इमरत रस बरसावै,/तारा निछरावल कर ज्यावै, धरती धोरां री!/काळा बादलिया हरषावै, बिरखा घूघरिया चमकावै,/बिजली डरती ओला खावै, धरती धोरां री!/लुळ लुळ बाजरिया लैहरावै, मक्की झालो देर बुलावै,/कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै, धरती धोरां री!/पंछी मधरा मधरा बोलै, मिसरी मीठे सुर स्यूं घोलै,/झीणूं बादरियो पपोळै, धरती धोरां री!/नारा नागौरी हिद ताता, मदुआ ऊंट अणूंता खाथा!/ ईं रे घोड़ा री बाता? धरती धोरां री!/ईं रा फल फुलड़ा मन भावण,/ ईं रै धीणो आंगणा आंगण,/...ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो, ओ तो रण वीरां रो खूंटो,/ ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो.../ऊभो जयसलमेरे सिंवाणै/..बीकाणूझ गरबीलो/...अलवर जबर हठीलो/...अजयमेर भड़कीलो/..जैपर नगर्यां में पटराणी, /कोटा बूंदी कद अणजाणी?/...ईं ने माथा भेंट चढ़ावां भाया कोड़ा री/ धरती धोरां री!’’
13.वही, पृ : 43-44

14.हरीश भादानी को मिले पुरस्कारों और सम्मानों की एक अधूरी सूची 
1. पुरस्कार का नाम                         वर्ष दिनांक                     संस्था का नाम        
2. मरूधरा श्री                       11 जनवरी 1976           राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, डूंगरगढ  
3. सम्मान पत्र 27 फरवरी 1976 राजस्थान साहित्य अकादमी(संगम) उदयपुर
4. सुधीन्द्र पुरस्कार (काव्य विधा)(‘सन्नाटे के शिलाखंड’ पर) 27 फरवरी 1984 राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
5. मीरां (‘एक अकेला सूरज खेले’ पर) 27 फरवरी 1984  राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
6. सम्मान पत्र                       10 फरवरी 1987            रांगडी चौक निवासियों द्वारा, बीकानेर 
7. Appreciation Award             30 सितम्बर 1987           प्रियदर्शिनी अकादमी,मुम्बई । 
8. प्रशस्ति ताम्र पत्र                     30 मार्च 1988              राजस्थान दिवस समारोह समिति
9. परिवार पुरस्कार                         1990                     परिवार संस्था,मुम्बई । 
10. विक्रमादित्य पुरस्कार                  1990                     बीकानेर नागरिक व प्रबुद्धजन   
11. बिहारी पुरस्कार                          1993                     के, के बिडला फाउंडेशन 
12. प्रशस्ति पत्र                           30 मार्च 1994              राजस्थान संस्था संघ 
13. सम्मान पत्र                              1995                     राजस्थान पुष्टिकर यूथ विंग, बीकानेर,                पुष्करणा दिवस समारोह के अवसर पर
14. प्रतीक चिन्ह                        26 जुलाई 1997            रेल सांस्कृतिक मंच उ रेलवे, बीकानेर 
15. राहुल पुरस्कार                          1998                      पश्चिमबंग हिंदी अकादमी 
16. स्मृति चिन्ह                            25 अप्रेल 2002            राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर । 
17. समाज रत्न अलंकरण               9 मार्च  2003              प्रेरणा प्रतिष्ठान,आचार्यो का चौक,बीकानेर 
18. राजस्थानी भाषा सेवा सम्मान      23 सितम्बर 2003           राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति                   अकादमी, बीकानेर 
19. प्रतीक चिन्ह                           26 फरवरी 2004            पं गंगादास कौशिक स्मृति, स्वतंत्रता संग्राम    साहित्य संग्रहालय समिति,बीकानेर     
20. अभिनंदन पत्र                          13 फरवरी 2005            श्री जुबिली नागरी भंडार ट्रस्ट, बीकानेर            
21. मातुश्री कमला गोयनका राजस्थानी साहित्य पुरस्कार   2007            कमला गोइन्का फॉउडेशन, मुम्बई 
22. बीकाणो रो गौरव                       2008              राजस्थान प्रदेश राजीव गॉधी यूथ फैडरेशन,    बीकानेर




शुक्रवार, 6 जून 2014

वामपंथ के पास रास्ता क्या है ?

अरुण माहेश्वरी

विगत लोकसभा चुनाव में लगभग निश्चिन्ह हो जाने के बाद इसी 7 जून से सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो और 8-9 जून को केंद्रीय कमेटी की बैठक होने वाली है। यक्ष प्रश्न यह है कि अभी की परिस्थितियों में वामपंथ क्या करें ?
इसी 4 जून को सीपीआई(एम) की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी की बैठक हुई। अखबारों की खबरों के अनुसार इस बैठक में स्वाभाविक तौर पर कुछ उत्तेजना रही। नेताओं से पद-त्यागने और पूरी कमेटी को ही बदल देने की तरह की बातें भी की गयी। लेकिन सारी बात यहीं पर अटक गयी कि यदि नेताओं को हटाया जाना और कमेटियों को भंग करना ही सारी समस्या का समाधान हो, तो उस ओर बढ़ा जा सकता है। समस्या सिर्फ इतनी सी नहीं है। सबको हटा कर कुछ नये लोगों को ले आने से ही वामपंथ का आगे का राजनीतिक रास्ता खुलने वाला नहीं है। तब फिर, हड़बड़ी में इसप्रकार के किसी भी रास्ते पर कदम बढ़ाना सिवाय आत्म-हनन के अलावा और कुछ नहीं होगा। वामपंथ के साथ जो भी हुआ है, उसके लिये यदि नेतृत्व जिम्मेदार है तो यह सामूहिक जिम्मेदारी है, इसे कुछ चुनिंदा लोगों के मत्थे मढ़ कर बड़े राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती है।

जहां तक राजनीतिक लाईन का सवाल है, कुछ लोगों ने शायद यह सवाल भी उठाया कांग्रेस के प्रति कुछ नरम रुख अपनाने का हर्जाना सीपीआई(एम) को भरना पड़ा है। इसपर पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि ‘‘पार्टी ने तो इस चुनाव में कांग्रेस को पराजित करने और भाजपा को ठुकराने का आान किया था। ‘पराजित करना’ और ‘ठुकराना’ दोनों ही समान रूप से कड़े शब्द हैं, इसलिये एक के प्रति नरम और दूसरे के प्रति कड़े रुख की धारणा का कोई सवाल ही नहीं उठता।’’

कुल मिला कर, जो बात सामने आरही है वह सिर्फ अभी की राजनीतिक लाइन से जुड़ी बात नहीं है। इस पूरे पराभव के कहीं ज्यादा गहरे कारण हैं, और जरूरत उनपर ध्यान देने की है, न कि कुछ अवांतर बातों पर मगजपच्ची की।

हम भी यहां पर सीपीआई(एम) के मौजूदा नेतृत्व की भारी राजनीतिक भूलों के इतिहास पर नहीं जाना चाहते। इसमें संदेह नहीं है कि उन भूलों की वजह से ही सीपीआई(एम) ने एक राजनीतिक पार्टी के लिये जरूरी अपनी आंतरिक ऊर्जा को गंवाया है। किसी भी जीवंत पार्टी के लिये जरूरी होता है कि उसमें हमेशा तीव्र राजनीतिक सरगर्मियां जारी रहे। एक समय में भारतीय वामपंथ में कृषि क्रांति के मुद्दों पर, भूमि-सुधार और पंचायती राज की तरह के सवालों पर भारी उत्साह-उद्दीपन था। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा में सीपीआई(एम) के नेतृत्व की सरकारों के काल में जो बड़े काम किये गये, वे सारे देश के लिये अनुकरणीय माने जाने लगे थे। इसीप्रकार, जनतंत्र की रक्षा और विस्तार से जुड़े भी ऐसे अनेक प्रश्न थे, जिनपर सीपीआई(एम) और वामपंथ ने आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति की भूमिका अदा की थी।

लेकिन, विगत बीस सालों के घटना-क्रम में कुछ गलत राजनीतिक निर्णयों के कारण सीपीआई(एम) ने एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उत्तरण के अवसरों को गंवा कर अपनी इस आंतरिक ऊर्जा को ही खो दिया। उसके वर्तमान नेतृत्व की राजसत्ता के प्रति प्रकट विरक्ति ने जैसे उसे राजनीति से ही विरक्त कर दिया। संसदीय जनतंत्र में बड़ी भूमिका अदा करने की तैयारियों के बजाय उसका वर्तमान नेतृत्व नौकरशाही ढंग से पार्टी की जकड़बंदी में ही मुब्तिला रहा, बिना इस बात की परवाह किये कि इसके राजनीतिक परिणाम क्या होने वाले हैं।

बहरहाल, अभी विचार का विषय है कि भारतीय वामपंथ के लिये आगे क्या?

जहां तक भूमि संघर्ष का सवाल है, ग्रामीण क्षेत्रों में आज यह विषय कितना प्रासंगिक रह गया है, इसपर अध्ययन की जरूरत है। देहातों में भी पूंजीवाद के तेजी से हुए प्रसार से जो सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें समझने की जरूरत है। उसके एक पहलू, जल, जंगल, जमीन पर कॉरपोरेट के कब्जे को लेकर एक प्रकार का आंदोलन मेघा पाटकर के नर्मदा बचाओं आंदोलन की तरह के कुछ एनजीओज चला रहे हैं, जो आज ‘आम आदमी पार्टी’ के झंडे तले राजनीतिक शक्ल ले रहे हैं। वे स्थानीय स्वायत्त संस्थानों के लिये भी वैकल्पिक सोच का मंच प्रदान कर रहे हैं।

देहातों में कॉरपोरेट के प्रवेश को लेकर एक दूसरे प्रकार का सशस्त्र संघर्ष माओवादियों ने छेड़ रखा है। आज के संचार-क्रांति के युग में उस लड़ाई का कोई मायने नहीं दिखाई देता। उल्टे शासक दल बड़ी आसानी से उसका इस्तेमाल जनता के जनतांत्रिक आंदोलनों के खिलाफ कर लेता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में सबसे नग्न रूप में देख गया।

वामपंथी अभी मूलत: ट्रेडयूनियनों के मोर्चे पर ही सबसे अधिक सक्रिय है। लेकिन इस क्षेत्र में एक अर्से से शुद्ध अर्थनीतिवाद का बोलबाला है। सरकारी सहूलियतों और नाना कारणों से ट्रेडयूनियन आंदोलन में भी लंबे अर्से से एक प्रकार का निहित स्वार्थ विकसित होगया है, जिसके कारण इस क्षेत्र में भी वामपंथियों को दूसरी राजनीतिक पार्टियों की प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी, इस क्षेत्र में वामपंथ को आज भी एक बड़ी राजनीतिक ताकत माना जा सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकारों की जनतांत्रिक राजनीति में जातिवादी पार्टियों ने गांव के गरीबों में वामपंथ के प्रभाव की जड़ों को जमने नहीं दिया है।

कुल मिला कर, कहा जा सकता है कि वामपंथ के काम का सामाजिक क्षेत्र विगत कुछ सालों में संकुचित हुआ है। ऐसी स्थिति में वामपंथ कैसे अपने लिये आगे का रास्ता बनायेगा ?

यदि हम वामपंथ के संकुचित हो रहे सामाजिक आधार की इस पूरी परिघटना पर गहराई से गौर करें तो हम पायेंगे कि इसकी कोई ठोस वजह नहीं है कि शहरों और देहातों में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की जनतांत्रिक राजनीति में वामपंथ की कोई राजनीतिक पैठ न बने। न इसकी कोई वजह है कि जातिवादी पार्टियां वामपंथ के रास्ते की ऐसी बाधा बन जाएं कि जिसे लांघा ही नहीं जा सके।

दरअसल, यह पूरी समस्या वामपंथ की अपनी अंदुरूनी समस्या है। देश के तीन राज्यों में अपना एक प्रकार का वर्चस्व कायम करके अन्य राज्यों, खास तौर पर हिंदी भाषी प्रदेशों के मामले में उसने कुछ ऐसे मानदंड विकसित कर लिये कि जैसे उस क्षेत्र में वामपंथ का कभी विस्तार संभव ही नहीं है। इसके लिये नवजागरण संबंधी तर्क दिये गये, हिंदी प्रदेशों में मध्यवर्ग का सही ढंग से उदय न होना और जातीय चेतना का अभाव, कुल मिला कर इस क्षेत्र के लोगों के सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ेपन को भी इसके प्रमुख कारण के तौर पर गिनाया गया।

लेकिन आज की क्या स्थिति है? आज स्थिति इस हद तक बदलती जा रही है कि पश्चिम बंगाल और केरल तक में, आने वाले समय में कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस दल की विफलताओं का पूरा लाभ वामपंथ को ही मिलेगा, इसे निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।

और, गहराई से देखने पर जाहिर होगा कि पूरे हिंदी-भाषी क्षेत्र में भाजपा के उभार के पीछे बड़े पैमाने पर वहां मध्यवर्ग के उभार की भूमिका है, जिसने जातियों के दायरे को तोड़ कर भाजपा के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया है। मध्यवर्ग का ही सचेत धर्म-निरपेक्ष तबका वामपंथ की ओर नहीं, आम आदमी पार्टी की तरह की पार्टियों की ओर देख रहा है।

मध्यवर्ग के बीच भाजपा का यह प्रभाव कितना स्थायी होगा, यह निश्चित तौर पर विचार का विषय है। रोजगार-विहीन विकास के इस दौर में इसके स्थायी रहने का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन खतरा इस बात का है कि इसके पहले कि मध्यवर्ग भाजपा के मोह से मुक्त हो, भाजपा इसके सहारे आसानी से अपना विस्तार व्यापक किसान जनता के बीच कर सकती है। उसका प्रतिरोध करने में जातिवादी पार्टियों की असमर्थता इसी चुनाव के बीच से जाहिर हो चुकी है। और मध्यवर्ग-किसान जनता की यह धुरी ही आने वाले दिनों में संघ परिवार की फासीवादी राजनीति के लिये रसद जुटायेगी, इसकी आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। इटली के फासीवाद का इतिहास इसी बात की पुष्टि करता है।

मुश्किल सवाल यह है कि आने वाले चंद सालों में ही मध्यवर्ग के जिस बड़े हिस्से का भाजपा से मोहभंग होने की संभावना जतायी जा रही है, उसका लाभ क्या भारतीय वामपंथ उठाने के लिये तैयार है ? या, अभी तक जैसा लग रहा है, इसका लाभ स्वाभाविक तौर पर या तो कांग्रेस को मिलेगा, या आम आदमी पार्टी यदि वास्तव में एक संगठित और समंजित पार्टी का रूप ले पाती है तो संभवत: उसको भी कुछ मिल सकता है। इस पूरी जद्दोजहद में वामपंथ कहां है ?

सीपीआई(एम) और वामपंथ को अभी इसी मुद्दे पर सबसे गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि वह अपने पूरे सांगठनिक ढांचे को उसकी सालों की जर्जर और जंग खायी स्थिति से उबारने का उपक्रम शुरू करें। अपने जन-संगठनों को चंगा करें, उस पर नौकरशाही नेतृत्व के इशारों पर बैठा दिये गये लुंज-पुंज और अयोग्य लोगों से मुक्त करके उन्हें जनता के विभिन्न तबकों के साथ जीवंत संपर्क के संगठनों में तब्दील करें। ग्राम्शी ने बिल्कुल सही कहा था कि सिर्फ पार्टी के संगठन का ढांचा तैयार कर देने से ही क्रांति नहीं होजाती। उन ढांचों को जीवंत रखने में व्यक्तियों की भूमिका प्रमुख होती है। इस मामले में कुछ सीख तो कॉरपोरेट से भी ली जा सकती है।

पिछले दिनों भारतीय वामपंथ ने जिस चीज को सबसे ज्यादा गंवाया है, वह है बुद्धिजीवियों से अपने जीवंत संबंधों को। इसके कारण वामपंथी राजनीति में बाहर से नये-नये विचारों के प्रवेश के रास्ते रुक गये हैं, सामाजिक परिवर्तनों की गति के साथ तालमेल बैठाने वाले विचारों का प्रवाह रुक गया है। आज वामपंथी नेतृत्व के लिये एक सबसे जरूरी काम है कि वह अपनी अंदरूनी जड़ता को तोड़ने के लिये ही बुद्धिजीवियों के साथ अपने संपर्कों को किसी भी प्रकार से सुदृढ़ करें। समाज पर वामपंथ की वैचारिक धार की प्रभुता को कायम करने में कोई कोताही न बरते।

क्रांति आज भारत के एजेंडे पर कत्तई नहीं है। इसीलिये ‘क्रांतिवीरों’ की लफ्फाजियां कोरी ऐय्याशी के अलावा और कुछ नहीं है। जैसे कुछ सिद्धांतवीर लोकसभा चुनाव को ‘नव-उदारवाद’ के मुद्दे पर लड़ने की बात कर रहे थे! दरअसल, एक गैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में काम करने की नीतियों पर ध्यान देने की जरूरत है।

अब 16 वीं लोकसभा चुनाव के बाद आने वाला समय उतनी राजनीतिक उत्तेजनाओं का समय नहीं रहेगा। इस समय का पूरा लाभ उठा कर वामपंथ को अपने सांगठनिक ताने-बाने को दुरुस्त करके, जनता के बीच नाना रचनात्मक कामों के जरिये बिल्कुल नीचे के स्तर से एक नया नेतृत्व तैयार करने की प्रक्रिया पर बल देना है। जन-संगठनों को उनके अस्तित्व की शर्तों पर, उनके अपने तर्कों पर, जनता के विभिन्न हिस्सों की जरूरतों की पूर्ति के लिये आंदोलनों-आयोजनों के जरिये पुनर्संगठित करने की जरूरत है। पार्टी की कमान प्रणाली को, जनसंगठनों के संचालन में नेताओं की सनक को पूरी तरह से ठुकराने की जरूरत है।

सीपीआई(एम) ने लगभग साढ़े तीन दशक पहले पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया था - जनता के सभी हिस्सों की एक प्रतिनिधित्वमूलक पार्टी। गुपचुप ढंग से काम करते हुए पार्टी पर अपनी जकड़बंदी कायम करने के लिये उत्साही पार्टी-नेताओं ने ‘जन’ को दबा कर ‘क्रांतिकारी’ पर बल देना शुरू कर दिया और इस ‘क्रांतिकारिता’ के आकर्षण के बल पर पार्टी पर नौकरशाही कमान-प्रणाली आरोपित कर दी। आज पूरा वामपंथ ‘जन’ से कटे इसी ‘क्रांतिकारिता’ के रोग के परिणामों को भोग रहा है।
उम्मीद करनी चाहिए कि अपने इस भारी पराभव से भारतीय वामपंथ शिक्षा लेता हुआ ‘जन-क्रांतिकारी’ संगठन के विकास की ओर ध्यान देगा। वही उसके आगे का रास्ता भी प्रशस्त करेगा।