बुधवार, 28 जनवरी 2015

हिटलर के काल के और दो व्हिस्पर जोक्स :


1.एक प्रार्थना :
गूंगा बना दे भगवान
कि यातना शिविर न जाऊं
बहरा बना दे भगवान
कि रेडियो न सुन पाऊं
अंधा बना दे भगवान
कि सब अच्छा ही अच्छा लगे
गूंगा, बहरा और अंधा बना दे भगवान
कि अडोल्फ की शरण मिलें।
Dear good Lord, please make me dumb,
that I don't go to a concentration camp.
Dear good Lord please make me deaf,
that I don't tamper with the radio.
Dear good Lord please make me blind,
that I think everything is fine:
If I'm deaf and dumb and blind,
I am Adolf’s favourite child..
2.बौसेन के एक सेल में तीन कैदी बैठे थे।
एक ने दूसरे से पूछा - तुम क्यो जेल में आए?
दूसरे ने कहा - मैं हमेशा काम पर पांच मिनट पहले आता था। इसीलिये मुझे जासूस मान कर सजा दे दी गयी।
दूसरे ने पहले से पूछा - तुम कैसे आए?
पहले ने कहा - मैं हमेशा काम पर पांच मिनट लेट आता था, इसीलिये मुझ पर अन्तर्घात का आरोप लगा कर सजा दे दी गयी।
दोनों ने तीसरे से पूछा - तुम कैसे जेल में आए?
तीसरे ने कहा - मैं हमेशा ठीक वक्त पर आता था, इसीलिये उन्होंने खोज निकाला कि मेरे पास विदेशी घडि़यां हैं।
Three prisoners are sitting in the cell in Bautzen:
1. prisoner: "How come you’re in jail?"
2. prisoner: "I always came five minutes early. So I was convicted (?) of spying."
2. prisoner: "And why are you in jail?"
1. prisoner: "I always came five minutes late. So I was convicted of sabotage."
1. prisoner is turning to the third prisoner: "And now you have to tell us why you are in jail."
3. prisoner: I always came on time. So they discovered that I had West-watches."

अरविंद पानगढि़या

पत्रकार जॉन इलियट के ब्लाग Riding the Elephant में जयपुर लिटरेरी फेस्टीवल के बारे में एक दिलचस्प रिपोर्ट है। तीन वयोवृद्ध सेलिब्रिटीज नोबेलजयी नायपॉल, पूर्व राष्ट्रपति कलाम और अभी-अभी अमेरिका से आए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढि़या के प्रति नौजवान साहित्यप्रेमियों के उत्साह की रिपोर्ट। इसमें सबसे उल्लेखनीय है पानगढि़या से जुड़ा अंश।
एक कार्यक्रम में पानगढि़या जी का सामना हुआ था जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से। थानवी जी इकोनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक शोध प्रबंध के आधार पर बता रहे थे कि राजस्थान आज आर्थिक तौर पर खस्ता हाल है। इसे बीमारू राज्यों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
गौर करने लायक बात यह है कि पानगढि़या साहब ही अभी राजस्थान सरकार के आर्थिक सलाहकार बने हुए हैं।
ओम थानवी ने जब तथ्य दे-देकर उनकी सलाह पर चलने वाली सरकार की विफलताओं का लेखा-जोखा देना शुरू किया, पानगढि़या बुरी तरह उखड़ गये। जॉन इलियट का कहना है कि भारत के हिंदी अखबार का संपादक उनको कठघरे में खड़ा करें, यह उन्हें गंवारा नहीं था। अमेरिकी विश्वविद्यालय में हर रोज छात्रों के सवालों से बींधे जाने वाले पानगढि़या के इस प्रकार आपे से बाहर होजाने ने इलियट जैसे सब दर्शको को चौंका दिया। स्थिति तब तो चरम पर चली गयी जब पानगढि़या बहस छोड़ कर उठ खड़े हुए और ऊंची आवाज में थानवी जी को चुनौती देते हुए बोले कि आपके पास हमसे कोई अच्छा समाधान हो, तो बता दीजिये।
पानगढि़या का यह तेवर यह बताने के लिये काफी है कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में इनके कार्यकाल में भारत पर क्या बीतने वाली है। वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था का बंटाधार करके यह कहते हुए रुखसत करने में देर नहीं करेंगे कि उनके पास करने के लिये इसके अलावा और कुछ नहीं था। अमेरिकी पूंजीवाद के जिस पिटे हुए रास्ते को लेकर वे भारत में हाजिर हुए है, उसका इसके अलावा दूसरा और कोई हश्र नहीं होने वाला है।

ओबामा और मोदी

हंसी आती है यह सुन कर कि कितना साम्य है ओबामा और मोदी में। एक रसोइये का पोता तो दूसरा खुद चायवाला। और दोनों दुनिया के दो बड़े जनतंत्रों के प्रधान।
क्या सचमुच इनकी इस यात्रा का कोई संबंध इनकी पैदाइश के किसी मूल तत्व से है? सच तो यह है कि वे अपने मूल से जितना दूर हुए हैं, उतना ही ज्यादा राजनीति के शिखर की सीढि़यों पर चढ़े हैं।
कोई आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी या सुषमा जी से ही पूछे मोदी जी की कहानी। राजनीति की बिसात पर वे किसी सीधे-सादे चायवाले से मात खाये या फिर घोड़े की तरह की अढ़ाई घर की टेढ़ी चाल चलने वाले शातिर खिलाड़ी से।
आस्थावादी इस सबको भाग्य का खेल कहेंगे। हम जैसे नास्तिक जीवन के न जाने कितने घात-प्रतिघातों, संगति और विसंगतियों की उपज।
लेकिन इन सबका रत्ती भर संबंध भी इनके किसी मूल से शायद ही होगा ! और तो और, जनतंत्र से भी शायद नहीं। अमेरिका के अब तक के जनतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में ही कितने शासक परिवारों की परंपरा कायम हो चुकी है, हम सब जानते हैं। भारतीय जनतंत्र का भी अविभाज्य अंग है - परिवारवाद। इसमें कोई भी अपवाद सिर्फ सामान्य की ही पुष्टि करता है, सामान्य नियम नहीं होता।

सोमवार, 26 जनवरी 2015

मोदी जी की कूटनीतिक विफलताओं का चक्र पूरा होने को है


अरुण माहेश्वरी


मोदी सरकार को अभी आठ महीने पूरे हुए हैं। इसीबीच उनकी कूटनीति  विफलताओं का जैसे एक संपूर्ण वृत्त पूरा करने जा रही है।

सबसे पहले, अपनी ताजपोशी के समय ही उन्होंने पड़ौसी देशों और सार्क को छुआ था। छ: महीने बीतते न बीतते, उनका उत्साह इतने चरम पर चला गया कि नवंबर 2014 में सार्क के 18वें सम्मेलन में उन्होंने उसका दम ही निकाल दिया। अब यह कहना मुश्किल है कि सार्क का अगला सम्मेलन होगा भी या नहीं। पाकिस्तान के साथ तो बातचीत के रिश्ते भी नहीं बचे।

पड़ौसी देशों के बाद 15-16 जुलाई 2014 में ब्राजील के फोर्टालेज़ा और ब्रासीलिया में भारी जोशो-खरोश के साथ वे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के)  सम्मेलन में गये। चारो देश के नेताओं से गलबहियों में वैसा ही उत्साह था जैसा अभी ओबामा के मामले में दिखाई दे रहा है। ब्रिक्स देशों के सुर में सुर मिलाते हुए 100 बिलियन डालर के कोष के साथ न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनबीडी) के गठन की घोषणा से आईएमएफ और वल्‍​र्ड बैंक को चुनौती दी। उसका सदर दफ्तर शंघाई में होगा और पहला अध्यक्ष भारत का। सभी क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने की औपचारिकता के साथ बात खत्म होगयी।

ब्रिक्स सम्मेलन के दो महीने बाद ही सितंबर में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आएं। बंगलौर गये, गुजरात गये, कुछ वाणिज्यिक संधियां की। लेकिन जब वे भारत में थे, उसी समय लद्दाख की सीमा पर भारतीय और चीनी फौज के बीच तनातनी चल रही थी। आज अब स्थिति यह है कि चीन साफ कह रहा है कि वह पाकिस्तान का दामन नहीं छोड़ सकता है। ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री के साथ शी जिनपिंग की गलबहियों से जुड़े विशेष तार टूट गये। चीन ने ओबामा की भारत यात्रा पर छींटाकशी में कोई कोताही नहीं बरती है।

अबतक की इन सारी कूटनीतिक कसरतों के शीर्ष पर आई है ओबामा की यह भारत यात्रा। इसके पहले नवंबर 2014 में ही मोदी जी अमेरिका घूम आये थे और न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर पर जो तमाशा किया, उसे याद करते हुए आज भी ओबामा अपने भाषण में हॉलिवुड के नायकों की चर्चा कर रहे थे। ओबामा की भारत यात्रा ही तो वह अंतिम मुकाम था, जहां मोदी जी के अब तक के सारे कूटनीतिक कर्मों को फलीभूत होना था। मोदी जी की कूटनीति के लिये यह कुछ ऐसी ही है, जिसे कहते हैं, अंत भला तो सब भला। अब तक अच्छा-बुरा जो भी क्यों न हुआ हो, अमेरिका अगर मान गया तो फिर भवसागर पार ही समझो। इसीलिये हर प्रोटोकोल और औपचारिकता को बालाएं ताक रख कर उन्होंने खुद अपने हाथों से ओबामा को चाय पिलाई, उन्हें नाम से पुकारा और उनसे अपनी पक्की दोस्ती की बाकायदा घोषणा भी कर दी। तथाकथित परमाणविक संधि, जिसे भूलवश भारतवासियों ने भारत-अमेरिका संबंधों की कुंजी मान लिया है,  उसपर अमल की सारी बाधाएं दूर कर दी गयी।

इन सबके बाद भी, अचरज की बात है कि यह सवाल रह गया है - आगे क्या? एक बात साफ हो चुकी है कि परमाणु ऊर्जा संयत्रों की स्थापना तो एक शुद्ध मृग-मरीचिका है। आज के पूरी तरह से बदल चुके ऊर्जा के विश्व-परिदृश्य में भला भारत की ऐसी कौन सी निजी कंपनी होगी, जो अपनी बलि चढ़ाके ऐसे भारी नुकसानदायी प्रकल्पों में अपना हाथ जलायेगी ?

रही बात, भारत-अमेरिका आर्थिक संबंधों को सुधारने की, तो यह सिलसिला अपने खुद के तर्कों पर ही सारी दुनिया के देशों के बीच चल रहा है और चलता रहेगा। इसके लिये शायद राष्ट्राध्यक्षों की आपस में गहरी दोस्ती की जरूरत नहीं है।

भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों में भी, हथियारों के उत्पादन और व्यापार को लेकर जो बातें हुई है, उनमें ऐसा नया कुछ नहीं है जो खास तौर पर भारत का ही हित साधता हो। उल्टे, भारत आने के पहले, पाकिस्तान को ओबामा ने जिस प्रकार आश्वस्त सा किया था, उस मनोभाव में किसी प्रकार के परिवर्तन के कोई आसार नहीं दिखाई दिये हैं।

इसमें ग़ौर करने लायक एक बात यह भी है कि ओबामा की भारत यात्रा की ख़बर मिलते ही रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत का एक तूफ़ानी दौरा (13-14 दिसंबर को) कर गये और एक झटके में रक्षा तथा ऊर्जा को लेकर वे सारे समझौते करा ले गये कि अागे ओबामा के साथ करने के लिये बहुत कुछ शेष नहीं रह गया । भारत की धरती से ओबामा का पुतिन के खिलाफ विष-वमन, उन्हें दादागिरी न करने की सलाह देना इसीलिये अकारण नहीं था ।

कुल मिला कर, आसानी से इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि इन आठ महीनों की मोदी की सारी कूटनीतिक पहलकदमियां उनकी राष्ट्रीय नीतियों की तरह ही थोथे दिखावे की ज्यादा रही है। राष्ट्रीय क्षेत्र में ऐसा दिखावा भी प्रचार माध्यमों की कृपा से कुछ दिनों तक चल जाता है, भ्रम बना रहता है, लेकिन कूटनीति के क्षेत्र में विफलताओं की गूंज तत्काल और बड़ी तेजी से सुनाई देने लगती है। इसीलिये, नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय नीतियों की अवहेलना करते हुए कूटनीतिक सफलताओं के बल पर राष्ट्रीय राजनीति में अपने महत्व को बनाये रखने की जो उल्टी चाल चली है, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बैठा कर अकेले ही बाजी मार लेने की जो हड़बड़ी दिखाई है, उसके दुष्परिणामों को उन्हें जल्द ही भुगतना पड़ेगा।

दिल्ली के चुनाव में ओबामा उनकी रक्षा नहीं करेंगे।  












हिटलर के जमाने के व्हि्स्पर जोक्स

हिटलर के जमाने के व्हि्स्पर जोक्स। नाजी सैनिक और जासूस जानते थे, लेकिन मजे की बात है कि इन्हें रोकते नहीं थे, क्योंकि यह उनके वश में नहीं था।
आदमी बुरी से बुरी स्थिति में भी हंसना नहीं भूलता।
हिटलर के यातना शिविर में दो यहूदी कैदियों को गोली मार देने का हुक्म आया। अचानक, आखिरी समय में निर्देश हुआ कि गोली से नहीं, फांसी देकर उन्हें मारा जाएं।
दोनों कैदियों ने हंसते हुए कहा - वाह ! सालो के पास गोलियां खत्म होगयी है।

उन दिनों जर्मनी में मुट्ठी के साथ हाथ लहराते हुए हेल हिटलर कहते हुए सलाम करने का रिवाज था। जो ऐसा न करे, उसे दंड भी भुगतना पड़ सकता था।
एक बार हिटलर अपने सहयोगियों के साथ एक पागलखाने को देखने गया। वहां पर भी सभी पागल ‘हेल हिटलर, हेल हिटलर का शोर करते हुए हिटलर का अभिवादन कर रहे थे। लेकिन उनमें से एक ने ऐसा नहीं किया।
हिटलर ने उससे पूछा, तुम क्यों सलाम नहीं कर रहे हो ?
उसने कहा - सर, मैं यहा नर्स हूं, पागल नहीं हूं।


पूरा जर्मनी जब हिटलर के बूटों तले पिस रहा था, उन्हीं दिनों एक बार :
हिटलर और गोअरिंग बर्लिन के एक ऊंचे टावर पर खड़े पूरे शहर को देख रहे थे।
हिटलर कहता है - गोअरिंग, मैं इस शहर के तमाम नागरिकों को खुशी से भर देना चाहता हूंं। बोलो क्या करूं?
गोअरिंग कहता है - फ्युह्रर, अभी इस टावर से नीचे कूद जाओ।


‘‘प्रश्न -शुद्ध आर्य कौन है ?
उत्तर - वह जो हिटलर जैसा भूरे केश वाला हो, गोअरिंग की तरह छरहरा और गोयेबल्स की तरह लंबा हो।’’
सब जानते हैं न हिटलर भूरे बालो वाला था, न गोअरिंग छरहरा और गोयेबल्स तो नाटा और खोड़ा था। हिटलर के बाल काले थे और गोअरिंग थुलथुल था। नीचे के चित्र में बायें से हैं - हिटलर, गोअरिंग और गोयेबल्स ।


एक जहाज, जिसपर हिटलर, गोअरिंग और गोयेबल्स बैठे हुए थे, अचानक भयंकर समूद्री तूफान में फंस गया।
जहाज के क्रू से लोगों ने कहा, अब तो सब खत्म हो जायेगा।
क्रू के सदस्यों ने कहा - जर्मनी बच जायेगा।


‘‘गोअरिंग अपने दफ्तर में था तभी सेना के एक उत्तेजित अधिकारी ने आकर उसे बताया, पार्लियामेंट में आग लग गयी है। गोरिंग ने फौरन घड़ी देखी और कहा, ‘अरे ! इतनी जल्दी।’
27 फरवरी 1933 के दिन जर्मन पार्लियामेंट राइखस्टाग में भारी आग लगी थी। वह आग किसने लगाई, इसे आज तक कोई नहीं जानता। लेकिन उसका इल्जाम कम्युनिस्टों पर मढ़ने की कोशिश की गयी थी। आम लोग आज भी यही जानते हैं कि खुद नाजियों ने वह आग लगाई थी।






UNDERSTANDING THE GREEK COMMUNISTS


[ग्रीस के चुनाव में एक वामपंथी पार्टी सिरिजा को ऐतिहासिक विजय मिली है। वामपंथ की इस जीत से जुड़े कुछ खास पक्षों को और भी गहराई से समझने में निकोस लुंतोस का यह लेख - Undertanding the Greek Communists एक बहुत उपयोगी लेख प्रतीत होता है। इसीलिये मित्रों के साथ हम इस लेख को साझा कर रहे हैं। आगे मौका पड़ने पर इसकी रोशनी में बात को और आगे बढ़ाया जायेगा।]


Syriza is not the only left-wing party in Greece. Where did the Communist Party come from and where is it going?
by Nikos Lountos


The prospect of a Syriza victory in Sunday’s Greek election is big news, and the international left has taken notice. The attention is welcomed, but Alexis Tsipras’ electoral prowess has obscured what the real political landscape in the country is like.
After all, Syriza is not the only left-wing party in Greece, and by some measures it’s not even the largest. In organizational terms, the Communist Party of Greece (KKE) is bigger. Ignoring it, as most of the Left is content to do, means ignoring a force with important roots in the trade union movement and the longest history of all surviving Greek parties.
Communist Party representatives hold ten out of the forty-five seats on the board of Greece’s labor confederation, and in the last student union elections in 2014, its lists received 18.5 percent of the vote. Those affiliated with Syriza got only 6.5 percent.
What’s more, many of the labor struggles of the last years cannot be understood without KKE participation, and in some cases — like that of the nine-month steel worker strike in Athens — it was KKE unionists who led the struggle. Even in electoral terms, the Communist Party had the largest share of votes on the Left from the fall of the dictatorship in 1974 until Syriza’s rise in May 2012.
Proof of the general pull to the left that Greece has experienced in recent years, in the elections of May 2012, the KKE not only avoided being squeezed by Syriza’s success, but had its best performance in twenty years (8.5 percent). But things changed immediately after, in the June elections. The party won only 4.5 percent, its worst result in the modern era.
The KKE’s rhetoric is clearly to Syriza’s left. Its programs declare that capitalism cannot be reformed, and that we shouldn’t have illusions of transforming European Union institutions. In a recent speech, Dimitris Koutsoumbas, the party’s general secretary said:
KKE serves one goal: for the working class to take power so that we can live better days, with prosperity for the people. The proposals of KKE lead to this goal and follow this criterion. Not on the basis of how much the economy can take. Because this is a capitalist economy, which — under whichever management or government — produces crises, unemployment, and poverty.
This anti-capitalist discourse makes the Communist Party an easy target for those who label it a “political fossil” engaging in an out-of-touch ultra-leftism. Some — including members of its small internal opposition — attribute its recent electoral failures to this radical discourse.
The reality is that the KKE has been paying for its sectarianism more than its radicalism. The KKE not only opposes common action with other political forces on the Left, but it’s stood apart from the broader mass movement in recent years.
One of the most notorious examples of this mentality can be found in the KKE’s analysis of the “Squares’ movement,” the series of occupations and mass assemblies in squares that emerged in Greece in 2011. The Nineteenth Congress of KKE comments, “The so-called ‘movement of the outraged’ was supported, encouraged — if not even planned — by mechanisms of the ruling class, with the aim of manipulating, preventing radicalization.”
In recent analysis, party intellectuals claim that both the rise of the neo-Nazi Golden Dawn and Syriza are byproducts of the “confusion” of the movement developed in Syntagma Square. So, far from being an ultra-leftist party, in the traditional sense of the concept that describes parties that don’t recognize the need for any intermediate action but the call to revolution, the KKE is actually sketching out an unbridgeable gap between an indispensable revolution and the movement’s miserable condition today.
The level of the movement is, of course, measured by the number of votes the KKE takes in the elections. This circular argument produces a self-fulfilling prophecy: the movement cannot go forward if the party doesn’t become stronger, but the party is weak because of the movement’s low level of class consciousness.
This argumentation, in its essence, is not very far from Syriza’s claims that the moderation of its own slogans is a result of the supposedly low level of struggles.
This shouldn’t be all that surprising. After all, the two parties share a common history. The KKE was founded in 1918 as the Socialist Workers Party of Greece and took its present name in 1924. Its foundation was part of a twin birth with the General Confederation of Greek Workers (GSEE).
In a country for which the Great War started two years earlier, in 1912, with the First Balkan War, and ended four years later, in 1922, with the defeat of the Asia Minor Campaign, the antiwar movement fused with internationalist labor traditions from the recently annexed Macedonia and with inspiration from the Russian Revolution.
Pandelis Pouliopoulos, the party’s first general secretary, was removed from the leadership in 1927 for aligning with Leon Trotsky’s Left Opposition. In 1931, Nikos Zachariadis, with the support of Stalin’s Comintern, became the new leader of the party, beginning a conservative turn. An analysis of Greece as a half-feudal country served as a basis for replacing the goal of socialist revolution with that of a “bourgeois democratic” one.
In May 1936, the version of Popular Front tactics adopted by the Communists paralyzed it as the government crushed a tobacco worker revolt in Salonika and other labor insurgencies. The dictatorship imposed in August of that year almost completely destroyed the KKE.
The Communist Party, however, managed to resurrect itself and become a mass party within years, not least of all for its efforts resisting Axis occupation during World War II. Party membership rose from 15,000 in 1942 to 412,000 within two years.
Under the KKE’s leadership, the goal of national liberation was tied with the push for deep social change. But constrained by the Soviet Union, the KKE put its armed forces under Allied command in 1944, didn’t dare take power during the revolt of December 1944, and disarmed the movement two months later. When the Greek Civil War erupted in 1946, the Communists found themselves outgunned and less prepared than they would have been just a few years before.
But even after defeat in 1949, the KKE once again showed its resilience. Despite the massive repression, a new working-class movement helped the Greek Democratic Left’s (EDA, the front group of the underground KKE) electoral surge in 1958. A round of struggles in the 1960s culminated with the July Days of 1965, when successive governments imposed undemocratically by King Constantine collapsed under the pressure of mass mobilizations. EDA’s and KKE’s strategic limitations didn’t provide a way forward other than elections to a movement that wanted to challenge the whole regime.
The return of dictatorship in 1967 showed the power that the Greek ruling class still possessed. This defeat, combined with international crisis in the Communist parties, triggered by May ’68 and the Soviet response to the Prague Spring, led to the split of KKE’s Central Committee in two parts, and consequently into two parties, KKE andKKE Interior, which would later embrace Eurocommunism. It is in this second grouping that the majority of Syriza has its origins.
In the 1970s, the KKE survived as the bigger of the two parties and consolidated this position after the fall of the dictatorship. But following the trend of other Southern European countries, it couldn’t match the rise of the center-left (Pasok, the social democrats, went from 13.6 percent to 48 percent in seven years).
The KKE offered a moratorium to the first Pasok’s government in 1981, holding back any labor and student struggle against the social democrats. The party had run in the elections asking to be voted as a junior coalition partner in government. But in 1985, when Pasok made a sharp turn to austerity, the Communist Party joined the ranks of the labor movement and managed to gain from the disaffection from Pasok in the 1986 local elections, but distanced itself from the most militant sections of the working class who were launching an indefinite strike action.
The response of the two Greek Communist Parties to the new conditions was influenced by the changing global political climate in the late 1980s. Celebrating their common endorsement of the European Community and acceptance of private sector entrepreneurship, they merged into an electoral coalition (Synaspismos) that was later turned into a party. The decision to form a coalition government with New Democracy (June 1989), and some months later with both New Democracy and Pasok, led to the disappointment of hundreds of thousands of radicals.
KKE split from Synaspismos in 1992 after having already seen the majority of its youth splitting to its left, but some of the KKE’s well-known cadre and MPs remained in the more moderate formation. Meanwhile, Pasok was left almost unchallenged in the movement against the neoliberal New Democracy government. The results of the 1993 elections reflect this: Synaspismos remained out of parliament, not being able to pass the 3 percent threshold. KKE fell to a new low, 4.5 percent.
The two decades that followed present the key to explaining today’s constellation of the Left. In a way, one could talk of a Greek exception: both radical parties passed through a bumpy period of reorganization and accumulation of forces, but with a general shift to the left.
Unlike other European countries where Communist Parties were transformed into full-fledged social-democratic parties in the 1990s, in Greece this move was resisted. Greece was different, because the movement itself provided a milieu of new radicalization, forcing the left parties to compete in order to relate with it. The role of the organized presence of the anti-capitalist left in the struggles of that decade is also indispensable to understanding this process.
Throughout the 1990s, the KKE managed to rebuild its youth section and the party machine, through the consecutive rounds of school student and university occupations and through leading the movement against the war in Yugoslavia in 1999. Until the first years of the 2000s, the Communist Party leadership, even as it avoided common action with the rest of the Left, still attempted to relate with the working class breaking from PASOK, even inaugurating a coalition with Dikki, a left-wing split from Pasok that won 6.85 percent in the 1999 European elections.
But a hard isolationism took over quite quickly within the Communist Party. The tactics of calling separate demonstrations during labor strikes gave way to completely separate calls for antiwar demonstrations during the Iraq War in 2003. In effect, the KKE stood at a safe distance from the explosion of activism around the anti-war movement, allowing the Pasok-controlled union bureaucracy to assume leadership of strike actions against the war.
Isolationism was not another turn to the left. On the contrary, it was a result of an inability to combine the pressures coming from radicalizing movements with the electoralist strategy of the party. This turn had its reflection into a process of ideological re-positioning by the KKE’s leadership. A vivid example of this transformation is that after publishing the second volume of the history of the party, covering the years 1949–1968, in 2012, the central committee decided to directly rewrite the first volume of the history (1918–1949) that was published in 1991.
The rewriting is deep and iconoclastic, up to the point of recognizing that the Popular Front policy of KKE in the 40s led to the defeat of the 1944 uprising. If we don’t see this left turn as far as theory and history are concerned, through the prism of the tactics of isolationism in the real movement, the rebuff of the December 2008 uprising from KKE’s general secretary would seem an enormous contradiction.
Aleka Papariga, then general secretary of the party, said infamously that Communist Party was not supporting the events that erupted in Greece after the murder of a school student by a police office because “in the real popular revolution, not even one glass would break.” The KKE can make references to the civil war as the culmination of the class struggle in Greece — overshadowing even resistance to Nazi occupation — but reject barricades set up by school students.
All this doesn’t mean that the KKE was not part of the struggles. Communist militants and trade unionists have led strikes in a way that at some point made well-known neoliberal journalists (and their bosses) start refusing to invite KKE members to participate in TV debates, because it’s a party that “doesn’t respect the law.”
The KKE’s discourse claims that it isolates itself because the most important task is not to let the vanguard of the movement get carried away by the opportunist tendencies that shape the mass movements. The result has been that party didn’t manage to act as a home for the radicalized layers coming from two sides: the youth that could not see themselves in a revolution with no glasses broken, and other workers disillusioned from voting Pasok after 2011 and the introduction of the austerity programs.
During the latest round of massive struggles since 2012, the gap between the KKE’s radical discourse and actual tactics grew even more apparent. Koutsoumbas began to say that there is no governmental solution to the crisis, except if the working class itself takes power: “Representatives of the workers, who will be elected in the workplace … will be controlled by those who elected them, will be revocable at any time, will not be taken out of production, will not have any extra privileges.”
On this line, he could have lots of common ground with Antarsya, the radical grouping of the extraparliamentary left. But, unlike Antarsya, the KKE says that fighting for not paying the debt or breaking with the European Union and the eurozone, are demands that can’t be articulated by the movement here and now, but they will be products of this “people’s power” in the distant future.
The KKE managed to regain some of the lost electoral ground in the2014 European elections — a sign of another type of disillusionment, this time with perceived moderation on the part of Syriza. It seems that in Sunday’s general elections this rebound will go on. KKE positions itself as a left opposition to a coming Syriza government.
But this left opposition will only be useful if it’s willing to work in joint action with all the sectors of the working class who want to break with austerity using their own organized force, rather than just waiting for Syriza’s strategy of accommodation to fail.

शनिवार, 17 जनवरी 2015

‘‘कुछ ऐसी स्वतंत्रताएं है जिनपर सभ्य समाज में कोई सौदेबाजी नहीं हो सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसी ही स्वतंत्रता है। ’’



ग्यारह जनवरी को दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों के हत्याकांड के बाद  आज सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन चुकी फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर सन् 2007 एक मुकदमा चला था। तब इस पत्रिका में डैनिस अखबार ‘जिलैट पोस्तन’ में छपे इस्लामी उग्रपंथियों पर व्यंग्य करने वाले कार्टूनों को पुनर्प्रकाशित किया गया था। इसपर पूरे पश्चिम एशिया में भारी बवाल मचा था। फ्रांस के कई मुस्लिम संगठनों ने, जिनमें पेरिस की जामा मस्जिद भी शामिल थी, शार्ली एब्दो पर यह कह कर मुकदमा किया कि इसमें इस्लाम का सरेआम अपमान किया गया है। लेकिन, न्यायाधीशों ने इस मुकदमे को खारिज करते हुए साफ राय दी कि इसमें मुसलमानों के खिलाफ नहीं, इस्लामी उग्रपंथियों के खिलाफ व्यंग्य किया गया है।

उसी समय, सन् 2008 में फिल्मकार डैनियला लिकोंत ने इस मुकदमे पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई - It is hard to be loved by Idiots ( मूर्खों से प्यार पाना मुश्किल है)। फ्रांस के वर्तमान राष़्ट्रपति फ्रांस्वा ओलेंद ने उसी डाक्यूमेंट्री में यह बात कही थी - ‘कुछ स्वतंत्रताएं ऐसी है जिन पर कोई बात नहीं हो सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार की सौदेबाजी नहीं की जा सकती है।’’

डैनियला लिकोंत की इस डाक्यूमेंट्री पर तब लोगों का विशेष ध्यान नहीं गया था। लेकिन आज यही डाक्यूमेंट्री फ्रांस के लोगों के प्रतिवाद और ‘शार्ली एब्दो’ के प्रति एकजुटता का प्रतीक बन गयी है। वहां के फिल्म समाज ने यह निर्णय लिया है कि देश भर के सौ से भी ज्यादा सिनेमागृहों में इस डाक्यूमेंट्री का पूरे एक हफ्ते तक प्रदर्शन किया जायेगा। इसमें पेरिस, मार्सै, स्ट्रासबेरी, ले हाफ्रे की तरह के बड़े शहरों से लेकर वहां के ब्रिटेनी की प्लुएस्केत जैसे छोटे शहरों के सिनेमागृह भी शामिल है।  

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

अशोक वाजपेयी की 74वीं सालगिरह के मौके पर :


अशोक जी की ‘साहित्य की नागरिकता’ पर सोचते हुए :
अरुण माहेश्वरी
एक ओर है वैश्वीकरण। दुनिया को एक ही ढांचे में ढालने की जिद। एक से शहर, एक से गांव, खान-पान-पहनावा, जीवन का ऊपरी रूप सर्वत्र एक सा। और अंदर - एक सी विषमता, एक सी लाचारी, एक सा ही आतंक। सारी दुनिया पर एक सर्वशक्तिमान ईश्वर का राज्य। ‘विश्व ग्राम’ और सर्वमान्य, सर्वपूज्य, गांव का सामंत अमेरिका - अकेला पंच। संयुक्त परिवार का एक कर्ता और बाकी सब भर्ता। सारे संसाधनों पर उसकी मिल्कियत, सारी खोजों पर उसका कॉपीराइट। हरीश भादानी के एक संकलन का शीर्षक है - ‘एक अकेला सूरज खेले’। सबको रोशनी और अंधेरा बांटने वाला। फुकुयामा जैसे कुछ की नजरों में - ‘सबका राजा राम’। अर्थात ‘रामराज्य’। सभ्यता का अंतिम पायदान। अब सबको और कुछ नहीं करना है सिवाय इसके कि - ‘राम का गुनगान करिये, सभ्यता का मान करिये’।
और दूसरी ओर है, आदमी-आदमी की असंख्य स्वायत्त-स्वतंत्र नागरिकताओं का गान। राष्ट्र की नागरिकता, धर्म की नागरिकता, जाति की नागरिकता, राजनीति की नागरिकता, अर्थशास्त्र की नागरिकता, साहित्य की नागरिकता, संस्कृति की नागरिकता, पर्यावरण की नागरिकता, नारीवाद की नागरिकता, दलितवाद की नागरिकता, बस्ती, मोहल्ला और कुटुंब से लेकर अकेले आदमी तक की नागरिकता। कुल मिला कर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, कहीं भी धूनी रमा कर, आसन बिछा कर बैठ जाओ। नागरिकता न हो जैसे आत्मलीनता (ऑटिज्म) का ही एक और नया नाम हो! आधा-अधूरा, लुंज-पुंज जीवन - चमकदार पैकेजिंग में!
अमेरिकी प्रभुत्व का विश्वग्राम और ‘आत्मलीन’ नागरिक। एक की मुट्ठी में सब कुछ और बाकी अपनी धुनों में लीन, जिनके पास समग्र बोल कर कुछ भी नहीं। कितने पूरक लगते हैं ये एक दूसरे के!
समानता, न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे पर टिका विश्व-समाज अगर कोरे वागाडम्बरों और लफ्फाजियों से तैयार नहीं होगा तो अपनी-अपनी नागरिकताओं से बंधे आत्मलीनों से भी कत्तई नहीं बनेगा। समकालीन सार्वजनिक जीवन के प्रश्नों और राजनीतिक संघर्षों के प्रति तटस्थता खुद को हेय बनाने के उपक्रम जैसा है। जीवन के तमाम पक्षों पर यथार्थमूलक और पैनी नजर की जरूरत है, अध्ययन और सजगता की जरूरत है, समग्रता की, एक समग्र विश्वदृष्टिकोण की जरूरत है। यह सब मनुष्यता की जरूरत है।
आज भी यह सोच कर रोमांच होता है कि सारी दुनिया को सोचने-विचारने का एक नया ढंग देने वाला कार्ल माक्‍र्स ‘पूंजी’ जैसी अमरकृति की रचना करने के बाद भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक असंतुष्ट प्राणी ही था। वह इस अभिलाषा के साथ ही इस संसार से विदा हुआ था कि काश बाल्जाक के उपन्यासों पर वह अच्छी तरह से काम कर पाता!
कहने का तात्पर्य यही है कि बहुविध अध्ययन और सोच मनुष्य की एक प्रमुख जरूरत है। लेकिन विचार का यह संस्कार जहां विश्वविद्यालयों के आत्मलीन विभागों की कक्षाओं से पाना बिल्कुल असंभव है। वैसे ही, छोटी-छोटी नागरिकताओं के स्वायत्त संसारों के मुखियाओं के विचारों से भी मुमकिन नहीं है।
अशोक जी को उनकी 74वीं सालगिरह पर बधाई

‘हम सब शार्ली एब्दो है’



अरुण माहेश्वरी
ग्यारह जनवरी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये पेरिस मार्च को देखकर फैज की इस पूरी नज्म को दोहराने का दिल करता है :
"बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले "

पेरिस में जो हुआ वह दूसरे किसी भी सच से कहीं बड़ा सच है । मनुष्यता का शाश्वत सच । तीन दिन पहले दो जनूनी हत्यारों ने दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों को भुन डाला था । सोचा था कि इस प्रकार उन्होंने विरोध की आवाज़ को सदा के लिये कुचल डाला है । लेकिन 11 जनवरी को पेरिस की सड़कोंपर दुनिया के चालीस देशों के प्रमुख नेताओं के नेतृत्व में लाखों की संख्या में लोगों ने उतर कर सिर्फ एक घोषणा की - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे । ख़बरों के अनुसार इस प्रदर्शन में शामिल होने वाले लोगों की संख्या तक़रीबन बीस लाख थी । इस प्रदर्शन का नेतृत्व किया फ़्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलोंद ने । ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, इटली के प्रधानमंत्री मैटियो रेंजी, यूक्रेन के राष्ट्रपति पेत्रो पोरशेंको, जार्डन के किंग अब्दुल्ला, बराक ओबामा के प्रतिनिधि अटार्नी जनरल एरिक होल्डर, इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू, जर्मनी के चांसलर एंजेला मर्केल, माली के राष्ट्रपति इब्राहिम कीटा, फ़िलिस्तीन के राष्ट्र प्रधान आदि इस मार्च की पहली पंक्ति में शामिल थे । यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रश्न पर मानव एकजुटता की एक प्रेरणादायी शानदार मिसाल है । इसमें दुनिया के सभी धर्म, भाषा, जाति और क्षेत्र के लोग शामिल थे । अपनी इस आज़ादी की रक्षा के लिये पेरिस की सड़कों पर उतरे लोगों की आँखे दृढ़संकल्प और आत्म-विश्वास से छलछला रही थी ।

पता नहीं क्यों, हम उन लोगों के साथ अपने को जरा भी नहीं जोड़ पारहे है जिन्हें शार्ली एब्दो हत्याकांड के प्रतिवाद में हुए सभी राष्ट्रों के ऐतिहासिक प्रदर्शन में शामिल राजनेताओं की इस सहभागिता में उनका मिथ्याचार दिखाई देता है। हम सिर्फ उस हत्याकांड के प्रतिवाद-प्रतिवाद और प्रतिवाद तक ही सीमित रहना चाहते हैं। इस हत्याकांड के प्रतिवाद में दुनिया के किसी भी अंधेरे या उजले कोने से जो भी आवाज उठे, हम उसके स्वागत के अलावा दूसरी कोई बात सोच ही नहीं पा रहे हैं।
जो लोग यह मांग कर रहे हैं कि ये नेता क्यों नहीं नाईजीरिया के बोकोहरम में गये, या इराक के बच्चों के आंसू पोंछने या श्रीलंका के तमिल विस्थापितों के जख्म भरने गये, क्यों नही असम में आदिवासियों की हत्या के खिलाफ उन्होंने आवाज उठायी वगैरह-वगैरह - हमें उनकी ये बातें जरा भी नहीं छू रही हैं। उल्टे मन में उपहास का यह भाव पैदा होता है कि तब तो सभी राष्ट्राध्यक्षों का काम देश-देश में घूम कर तमाम प्रकार के जुल्मों के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होना ही रह जायेगा !
दरअसल, पेरिस प्रदर्शन एक ठोस, चाक्षुस और लाखों लोगों का प्रत्यक्ष ऐतिहासिक प्रदर्शन था, कोई कल्पना नहीं। दो आतंकवादियों ने दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों को मार डाला, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि ये कार्टूनिस्ट जिस प्रकार के कार्टून बनाते थे, वैसे कार्टून बनायें। दुनिया के एक सबसे विकसित राष्ट्र में इस प्रकार के जघन्य हत्याकांड से सारी दुनिया सन्न रह गयी, विश्व भर में लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गयी। पेरिस प्रदर्शन दुनिया के उसी गुस्से का इजहार था। यह जेहाद के नाम पर चल रही मध्ययुगीन राजनीति और गुंडागर्दी के खिलाफ जमा हो रहे व्यापक जन-असंतोष का एक विस्फोट है ।
सवाल है कि क्या दुनिया के लोगों की आगे की दिशा में एक ऐसी सजीव, सक्रिय कार्रवाई को हम महज किसी विचार या सोच में बदल कर उसपर कोई प्रतिक्रिया दे सकते हैं। हम जो यह समझते आए है कि आदमी की मुक्ति एक ऐतिहासिक क्रिया है, मानसिक क्रिया नहीं, वे मनुष्यों की ऐसी व्यवहारिक कार्रवाई को कैसे कल्पना में एक शुद्ध सिद्धांतों की लड़ाई में तब्दील करके उसमें विचारधारात्मक संघर्ष के सूत्र खोजने लगते हैं !
सचमुच, हमें ऐसी बातें कोरी भ्रांतियां लगती है। भ्रांतियां कल्पना से पैदा नहीं होती। उनका भी अपना कोई न कोई ठोस आधार होता है। जब हम अपने प्रत्यक्ष की किसी वस्तु में कोई दूसरी चीज देखने लगते हैं तब निश्चित तौर पर उस दूसरी वस्तु का, भले ही वह वहां न हो, कहीं न कहीं अस्तित्व जरूर होता है। जिन नेताओं ने इस प्रदर्शन में भाग लिया, उनकी अन्यत्र कुछ दूसरी भूमिका हमने देखी है, इसीलिये इस प्रदर्शन में भी हम सिर्फ वही देख रहे हैं। अर्थात जो प्रत्यक्ष है, उसे यथार्थ न मान कर अपने पूर्व ज्ञान और अनुभव को ही यथार्थ मान हम उसे प्रत्यक्ष पर आरोपित करते हैं। जो चीज चेतना या स्मृति में है उसमें और प्रत्यक्ष दिखाई दे रही वस्तु में कोई फर्क न कर पाना ही तो तमाम भ्रांतियों के मूल में होता है।
इसके अलावा, हम हमेशा यह मानते हैं कि राजनीति का अधिक से अधिक सरोकार प्रत्यक्ष से हैं। राजनीति कभी किसी प्रकार की ब्रह्म-चर्चा का रूप नहीं ले सकती। मार्क्स जब कहते हैं कि मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है लेकिन मनमाने ढंग से नहीं, तो इससे भी उनका तात्पर्य यही था कि जो सच व्यवहारिक और प्रत्यक्ष रूप से सामने हैं, उसकी अवहेलना करके कोई ऐंतिहासिक काम नहीं किया जा सकता है।
इतिहास निर्जीव तथ्यों का संग्रहालय नहीं होता, न ही कोरी कल्पना। यह सक्रिय जीवन प्रक्रिया का वर्णन होता है। पेरिस प्रदर्शन अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हमले का एक सक्रिय प्रतिवाद का मामला है। इसके साथ जुड़ने मतलब ही है, वास्तविक ऐतिहासिक प्रक्रिया से जुड़ना और कई मायनों में इतिहास को निर्जीव तथ्यों के संग्रह से मुक्त करना। जो सक्रिय मनुष्य की कार्रवाइयों की धड़कनों को महसूस नहीं करते, परिस्थितियों के संयोग से पैदा होने वाले ऐतिहासिक क्षणों की आहट नहीं सुन पाते, वे दरअसल कुछ अजीबोगरीब, अपने बंद कमरों में कैद लोग है। अपने खुद के शास्त्रों और परंपराओं के बंदी ये लोग तभी कुछ हलचलों में आते हैं जब उन्हें अपने किसी शास्त्रोक्त कर्मकांड का पालन करना होता है। अन्यथा, जीवन के दूसरे सारे कार्य-व्यापार उनके लिये वृथा होते हैं। मठों-मंदिरों के अंदर के जीवन को देख लीजिये, आपको सारी बात समझ में आजायेगी।
पेरिस प्रदर्शन के प्रति कुछ खास प्रकार की सनक भरी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं में हमें ऐसी ही, वास्तविक ऐतिहासिक जीवनी शक्ति गवां रही, अप्रासंगिक हो रही राजनीति की झलक मिलती है। इसीलिये हम उसके साथ जरा सा भी नहीं जुड़ पाते हैं।

फ्रांस में जो हुआ वह दुनिया के किसी भी कोने में कभी भी हो सकता है। भारत में आज जिस प्रकार धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर संगठित रूप से तमाम असहिष्णुताएं पैदा की जा रही है, उसमें ऐसी घटनाएं तो जैसे हमारी नियति जान पड़ती है।
इन हालात में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के एक ऐसे व्यापक मंच की जरूरत है जिसका एक और अकेला मुद्दा होगा - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा; नि:शर्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला समाज में अन्य सभी स्वतंत्रताओं को एक कोरा भ्रम बना देता है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है।
घोषित रूप से इस मंच की कोई राजनीतिक संबद्धता नहीं हों। यह सरकारी-गैर-सरकारी, सत्तापक्ष और विरोधपक्ष - किसी भी कोने से लेखकों, कलाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर होने वाले हमलों का विरोध और प्रतिरोध करने के लिये प्रतिबद्ध रहें। इसके अलावा इसकी दूसरी कोई प्रतिश्रुति नहीं हो ।





मंगलवार, 6 जनवरी 2015

यह शुद्ध ढीठाई है

अर्चना वर्मा जी ने अभी विज्ञान कांग्रेस को लेकर चल रही बातों के सिलसिले में अपनी वाल पर लिखा हैं - ‘‘दो बिल्कुल विपरीत अतिवादी सिरे हैँ अपने अतीत को लेकर। दोनो को ही अपनी अपनी तरह से भारत-व्याकुल कहा जा सकता है। एक भारत-मोह और महिमा-व्याकुल है तो दूसरा भारत-विद्वेष और निन्दा-व्याकुल। दोनो के बीच में एक बहुत क्षीण सा तीसरा सिरा है जो तथ्यों की छानबीन और यथार्थ की समझ के लिये उत्सुक दिखायी देता है। व्यक्तिगत रूप से मैँ इस क्षीण से तीसरे वाले सिरे को लेकर ज़्यादा उत्सुक रहती हूँ। अभी शायक आलोक के स्टेटस पर भी कुछ ऐसी ही उत्सुकता का आभास दिखा। अच्छा लगा। आगे इस बारे में समान चित्त लोगों से संवाद की संभावना तलाशना चाहती हूँ। वैज्ञानिक अनुशासनों के लोगों के साथ विशेषकर। फ़िलहाल एक जानकारी शेयर करना चाहती हूँ। गूगल पर टाइप करें - Five Thousand Year Old AirCraft In An Afghan Cave . नतीजे देखें । और बतायें इसके बारे में क्या ख़याल है “

हमारा उनसे कहना है कि अर्चना जी, क्या आप सचमुच यह मानती है कि यह सब जो चल रहा है, वह कुछ ऐसा नया है जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ?1926 में जब से गीता प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका निकलनी शुरू हुई तभी से इस प्रकार की सारी बकवासें निरंतर चल रही हैं, अर्थात हिंदी में इस प्रकार की बकवासों का लगभग 90 साल का तो एक लिखित इतिहास मौजूद है। इन कोरे अंधविश्वासों पर टिकी बातों की पहले ही काफी आलोचना की जा चुकी हैं और यह भी कहा जा सकता है कि, भले कल्पना में ही क्यों न हो, उन्हें उड़ाया भी जा चुका है। इसलिये आज जो सामने आरहा है उसमें अंतर्वस्तु की दृष्टि से नवीनता का लेश मात्र भी नहीं है। पहले से फर्क सिर्फ इतना है कि उन बेतुकी, पिटी-पिटाई बातों को अब भारी ढिठाई के साथ, और सरकारी मंचों से कहा जा रहा है। यह सचमुच एक युगांतकारी बात मानी जा सकती है। लेकिन यह सब, जिसे बांग्ला में ‘गायेर जोरे’ कहते हैं, अर्थात शुद्ध मांसपेशियों के बल पर किया जा रहा है। इस अभियान में अगर कुछ नया है तो बस यही है। पुरानी, पिटी-पिटाई बातों को कुछ इस प्रकार से, विज्ञान कांग्रेस जैसे मंचों से कहा जा रहा हैं मानो उन्होंने कोई नयी खोज की हो। वे सबको ललकारते हुए, विज्ञान की सबसे ‘पवित्र’ वैदिक-औपनिषदिक उपलब्धियों का दम भरते हुए, दरअसल आधुनिक विज्ञान की खिल्ली उड़ा रहे हैं। उनके इस काम के पीछे की ढीठाई, विज्ञान के प्रति उनका तिरस्कार, एक प्रकार का व्यंग्य सबको चौंका रहा है। और इसी ‘चकाचौंध’ में शायद वे अपनी जीत समझते हैं। आपसे अनुरोध है कि दया करके किसी भी विवेक के नाम पर इसप्रकार की उत्तेजक करतूतों पर गंभीरता से विचार करने की सलाह न दें। सचाई तो यह है कि विज्ञान की दुनिया में यह सब चर्चा के योग्य भी नहीं है। इन सनसनीखेज बातों की विज्ञान में उतनी ही भूमिका है जितनी ललित साहित्य में हो सकती हैं।