गुरुवार, 25 जुलाई 2019

सुभाष गर्ग गये, पर अर्थनीति का क्या ?

-अरुण माहेश्वरी


कल ही सरकार के एक और प्रमुख आर्थिक सलाहकार, आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष गर्ग की बेहद अपमानजनक ढंग से विदाई हो गई । कहते हैं कि यह काम आरएसएस के कथित स्वदेशीवादियों, ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने कराया है । से ‘स्वदेशीवादी’ विदेशी मुद्रा में सोवरन बाँड की मोदी योजना के विरुद्ध हैं और बजट में इसकी घोषणा के लिये प्रधानमंत्री मोदी और वित्तमंत्री सीतारमण को नहीं, इस नौकरशाह को ज़िम्मेदार मानते हैं !

कौन सा अमला कब कहाँ और क्यों बैठाया जाता है, इस सरकार में अब यह एक भारी रहस्य का विषय बन गया है । सिर्फ एक बात पर कोई रहस्य नहीं है कि सरकार के किसी भी क़दम के पीछे कोई निश्चित सोच नहीं है । इसके लिये वास्तविकता किसी असंभव की तरह है जिसमें मनमाने और अराजक ढंग से उसे कुछ करते चले जाना है और इसके जो भी सही-गलत परिणाम सामने आएं, उन्हें ही एक बार के लिये अपनी उपलब्धि बता कर नाचते-गाते जिंदगी बिताते जाना है।

इस सरकार में मोदी-शाह के अलावा हर किसी की नियति उसके अनिश्चित रूप की तरह ही निश्चित है । इसे ही तानाशाहों के शासन की खास प्रणाली कहते हैं, जिसमें कठपुतलियों के खेल को ही वास्तविक माना जाता है, बाक़ी सब मिथ्या होता है ।

सरकार की सोवरन बाँड की पूरी स्कीम उसके इस आर्थिक यथार्थ बोध के बीच से निकली थी जिसमें किसी को भी आज की भारतीय अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह से ठप दिखाई देती है । निवेश के लिये सरकार के पास कोई कोष ही नहीं बच रहा है । जीडीपी के अनुपात में सरकारी ख़र्च बढ़ता जा रहा है । ऊपर से, जीडीपी में वृद्धि की दर भी कम हो रही है । उत्पादन और सेवा क्षेत्र, सब में संकुचन के आँकड़े सामने आ रहे हैं । यहाँ तक कि आम लोगों की बचत में गिरावट के भी संकेत साफ़ हैं । इसीलिये देश के अंदर से और क़र्ज़ जुटाना भी कठिन होता जा रहा है ।

ऐसे में आज की दुनिया में सोवरन बाँड की ओर देखना किसी भी आरामतलब शासक के लिये सबसे सरल रास्ता है । सब जानते हैं, इस रास्ते से एक बार के लिये इतना धन जुटाया जा सकता है कि तत्काल किसी को भी लगेगा कि मोदी जी का पाँच ट्रिलियन डालर की इकोनोमी का सपना सच साबित ही होने वाला है । लेकिन दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे पता चलता है कि इस प्रकार से लाये गये विदेशी धन के कुछ बहुत तात्कालिक फल तो मिल सकते हैं, लेकिन इस बोझ के साथ थोड़ा सा दूर जाने पर ही किसी भी सरकार का दम फूलने लगता है । अर्थात् ‘दूरगामी’ लाभ के लिये नोटबंदी की तरह का अस्वाभाविक क़दम उठाने वाले मोदी जी अब इसी ‘दूरगामिता’ के सोच को तिलांजलि देकर ‘तात्कालिकता’ के लिये यह कह कर उत्साहित हो गये हैं कि ज़िंदा बचेंगे, तब न ‘दूरगामी’ किसी बात का कोई मूल्य होगा !

अर्थात् नोटबंदी की ‘दूरगामिता’ पर मनमोहन सिंह के इस तंज का कि दूरगामी तो हम सबकी मृत्यु है, मर्म अब काफी दिनों बाद मोदी जी को समझ में आया है ! लेकिन वे अब तक यह नहीं समझ पाए हैं कि वे अभी जिस तात्कालिक यथार्थ को साधने के कोशिश कर रहे हैं, उनके पिछले कामों ने इसके प्राण पहले से ही हर लिये हैं । यह नोटबंदी के पहले का सच नहीं है । इसीलिये, अब विदेशी क़र्ज़ इस शव को फूलों से सजाने के काम में ही ज़्यादा उपयोगी साबित होगा, और कुछ हासिल नहीं होगा ।

ज़रूरत इस बात की है कि मोदी जी देश की उन आर्थिक संरचनात्मक बाधाओं पर अपने को केंद्रित करें जो उनके अपने और उनके संघी साथियों के दिमाग की उपज रही हैं, और जिनसे हमारी अर्थ-व्यवस्था का गला घुट रहा है ।

इसके लिये उन्हें अपने ही उस अराजक आर्थिक सोच के विरुद्ध विद्रोह करना होगा, जिसके केंद्र में अर्थ-व्यवस्था के इंजन के तौर पर देश के इजारेदार पूँजीवादी घराने स्थित हैं । डिजिटलाइजेशन आदि के सारे प्रकल्प इन शैतानों की ही अर्थ-व्यवस्था पर अपनी संपूर्ण इजारेदारी क़ायम करने के फ़ितूर की उपज है । इसने उन सामान्य व्यापारिक खुदरा गतिविधियों तक के सामने अस्तित्व का ख़तरा पैदा कर दिया है जिनसे शहरों के करोड़ों लोग जुड़े हुए हैं । इन इजारेदारों के दबाव में ही न्यूनतम मजूरी की दरों को बिल्कुल नीचे के स्तर पर रख कर भारत के मज़दूरों और किसानों की व्यापक जनता में ग़रीबी से निकलने की आशा तक को छीन लिया जा रहा है । इन नीतियों के कारण ही जनता को मिलने वाली तमाम सरकारी रियायतों में कटौती करके सरकार के ख़र्च नियंत्रित करने का रास्ता खोजा जा रहा है ।

अर्थ-व्यवस्था का गतिरोध आम लोगों की जिंदगी में पैदा कर दिये गये भयंकर गतिरोध से जुड़ा हुआ है । उनके जीवन को आसान और उन्नत बनाये बिना इस अर्थ-व्यवस्था को सचल बनाना असंभव है ।

कुल मिला कर, शतरंज की बिसात पर मोहरों को मनमाने ढंग से इधर-उधर चलाना कभी भी किसी खिलाड़ी की जीत को सुनिश्चित नहीं कर सकता है । मोदी जी एक के बाद एक, अब तक न जाने अपने कितने आर्थिक और वित्तीय सलाहकारों को धक्के मार कर निकाल चुके हैं और कितने अन्य को बुला चुके हैं । लेकिन स्थिति जस की तस है, क्योंकि सरकार की अपनी सोच ही ठस है, वहाँ संघी बंद दिमाग का प्रभुत्व ही बस है ।

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

विपक्ष के न होने के ख़तरें


-अरुण माहेश्वरी

आज भारत की समग्र राजनीतिक परिस्थितियाँ अनपेक्षित न होने पर भी कुछ अजीब सी बन चुकी है । वरिष्ठ मीडिया पत्रकार पुण्यप्रसून वाजपेयी इधर की अपनी कांग्रेस-केंद्रित निजी वार्ताओं में प्रकारांतर से इसी की चर्चा कर रहे हैं ।

परिस्थिति यह है कि मोदी तो खुद डूबेंगे ही, पर विकल्प का सवाल उससे कहीं ज़्यादा टेढ़ा बना हुआ है । कांग्रेस का मामला को बिल्कुल अबूझ होता जा रहा है । लेकिन अन्य दलों का मामला भी कम पेचीदा नहीं है ।

ऐसे में अगर आपको वैकल्पिक पथ की तलाश है तो सचमुच जनता पर ही इसका पूरी तरह से दारोमदार लगता है । पहली बार लग रहा है कि जनता की स्वत:स्फूर्तता राजनीतिक दलों के सचेत और संगठित नेतृत्व की तुलना में ज्यादा संभावनापूर्ण है । इसकी एक क्षणिक झलक भारत में कभी 1970 के ज़माने के जेपी आंदोलन में देखने को मिली थी। लगता है फिर एक बार कभी कुछ वैसा ही कोई नया राजनीतिक संयोग तैयार होगा । स्थानीय प्रतिवाद और विद्रोह राष्ट्र-व्यापी प्रतिरोध का स्वरूप ग्रहण करेंगे, क्योंकि आज कम से कम इतना तो साफ़ है कि मोदी से यहाँ की परिस्थितियाँ सँभलने वाली नहीं है ।

रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के उस भाषण की अभी काफी चर्चा है जिसमें उन्होंने विस्तार के साथ अर्थ-व्यवस्था की बीमारी के मूल में मोदी सरकार की फिजूलखर्चियों की बातें कही हैं । वे अपने भाषण में तथ्य देकर बताते हैं कि जीडीपी का सात प्रतिशत से अधिक तो सरकार खुद पर ख़र्च कर लेती है । इसकी वजह से सबसे अधिक व्याहत हुए हैं निजी क्षेत्र में मध्यम और लघु क्षेत्र के उद्योग । सरकार के पास इनमें निवेश के लिये रुपया ही नहीं बचता है । उन्हें बाजार से काफी ऊँची ब्याज की दरों पर बाजार से क़र्ज़ उठाना पड़ता है, जिसके बोझ को उठाने में अक्षम होने के कारण इनकी कमर टूटती जा रही है । यही बेरोज़गारी में बेतहाशा वृद्धि के भी मूल में है । रिजर्व बैंक के वेबसाइट पर विरल आचार्य का यह भाषण लगा हुआ है ।

ध्यान रखने की बात है कि विरल आचार्य ने मोदी सरकार से ख़फ़ा होकर अपने कार्यकाल से छ: महीना पहले ही अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और अध्यापन का काम अपना कर विदेश चले गये हैं।

सचमुच, यही आज का सबसे बड़ा संकट है । और, कहना न होगा, मोदी खुद इस पूरी समस्या के केंद्र में है ।

नोटबंदी से लेकर जीएसटी पर अनाप-शनाप ख़र्च और बैंकों तथा सरकारी ख़ज़ाने को घाटा, लगातार बड़े-बड़े सरकारी प्रचार आयोजन, मोदी की ताबड़तोड़ विदेश यात्राएँ, पटेल की मूर्ति पर अढ़ाई हज़ार करोड़ का ख़र्च और भाजपा शासित राज्यों में ऐसी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ लगाने की होड़, मोदी की यात्राओं पर दो हज़ार करोड़ का ख़र्च, मोदी के अपने रख-रखाव पर निजी तौर पर करोड़ों का ख़र्च, फिर चुनाव के ठीक पहले हज़ारों करोड़ सम्मान राशि के रूप में किसानों में, लाखों करोड़ बैंकों को एनपीए का घाटा पूरा करने में, लाखों करोड़ मुद्रा योजना के ज़रिये अपने कार्यकर्ताओं के बीच बँटवाने आदि में ख़र्च करने के कारण जीडीपी का अधिक से अधिक रुपया तो खुद मोदी स्वेच्छाचारी तरह से लुटाते रहे हैं । इसके बाद निजी या सरकारी क्षेत्र में निवेश के लिये रुपया कहाँ से आयेगा ?

अब आगे ये विदेश से सोवरन बांड के ज़रिये क़र्ज़ लेकर इसी प्रकार लुटाते जाने की योजना बना रहे हैं । अर्थात् ख़तरा यह है कि मोदी जाने के पहले भारत की सार्वभौमिकता को बेच कर जायेंगे, जिसकी आशंका आरएसएस के संगठन भी व्यक्त करने लगे हैं । 

कहना न होगा, मोदी व्यक्तिगत रूप से अब भारत की अर्थ-व्यवस्था का संकट बन चुके हैं ।

दूसरी ओर, जेपी आंदोलन के बाद इस बीच चार दशक से ज़्यादा का समय बीत चुका है । सारी दुनिया बदल चुकी है । ऐसे में जनता की स्वत: स्फूर्तता बेहिसाब अनिश्चितताएँ से भरी दिखाई देती है । यह बहुत ही ख़तरनाक रूप भी ले सकती है । उस पर कोई भी शक्ति सवार होकर इस देश की राजनीति की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है । ख़तरा इतना है कि सीधे अमेरिका भी आ धमक सकता है । ‘अरब बसंत’ का अनुभव दुनिया के सामने हैं । खास तौर पर मिस्र में, जनतंत्र और चुनाव ने मुस्लिम ब्रदरहुड वाले तत्ववादियों को सत्ता सौंप दी और उसके विरुद्ध फिर धर्म-निरपेक्षतावादियों ने परोक्षत: सीधे अमेरिका को ही बुला लिया । सीरिया, इराक़ और मध्यपूर्व को बुरी तरह से रौंदने के साम्राज्यवादियों के नंगे खेल का सबब ‘अरब बसंत’ ही बना दिखाई देता है । भारत में बढ़ती हुई लींचिंग ही सीधे विदेशी नाकेबंदी से लेकर हस्तक्षेप तक का कारण बनने के लिये काफी है । भारत-पाकिस्तान और कश्मीर मामले में ट्रंप का कथन सिर्फ ज़ुबान का फिसलना नहीं है, इस उप-महादेश में तांडव मचाने की साम्राज्यवादियों की लालसा की अभिव्यक्ति है ।

ऐसे में, कोई भी भारत में मोदी के केंद्रीयतावाद के प्रतिरोध में उग्र प्रादेशिकता के उभार की संभावना को साफ़ देख सकता है । इसमें अभी के आर्थिक संकट की विशेष भूमिका होगी । मोदी की मनमानियां और जनता के जीवन के तनाव उग्र स्थानीयतावादी ताक़तों को निश्चित तौर पर बल देंगे । और यही प्रक्रिया भारत में साम्राज्यवादी खेल के रास्ते को प्रशस्त करने के लिये काफी होगी । अर्थात्, मोदी अपने साथ भारत को ही ले डूबेगा । 

मोदी के प्रतिरोध में किसी अखिल भारतीय शक्ति के न उभरने के ये तमाम ख़तरे बिल्कुल साफ़ दिखाई देते हैं।

इन्हीं कारणों से कांग्रेस का पूरी तरह डूबना बेहद विध्वंसकारी लग रहा है । इस विध्वंसक प्रक्रिया को टालने का एक ही उपाय हो सकता है कि कांग्रेस सहित सारे विपक्षी दलों को एक स्थायी समन्वय समिति बना कर कांग्रेस को आज़ादी के दिनों की तरह के व्यापकतम मंच के रूप में उभारने में योगदान करना चाहिए । कांग्रेस नेतृत्व के साथ नियमित संपर्क सभी विपक्ष के गंभीर दलों का स्थायी एजेंडा होना चाहिए । इस प्रकार की एक औपचारिक और अनौपचारिक विपक्षी दलों की नियमित अन्तरक्रिया का सांस्थानिक स्वरूप ही हमारे जनतंत्र का आगे का कोई नया और रचनात्मक रास्ता तैयार कर सकता है ।



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शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

कविता में सत्य की भूमिका

सरला को जन्मदिन की बधाई 


कल सरला का जन्मदिन है । उसके साथ बिताये जीवन पर चर्चा करने के बजाय आज कुछ दूसरे प्रकार की चर्चा करना चाहता हूं । इसके पहले भी इस मौके पर मैं फेसबुक की अपनी वाल की सजावट में उसकी कविताओं के योगदान की चर्चा कर चुका हूं । लेकिन आज विषय कुछ अन्य प्रकार से दिमाग को मथ रहा है ।

लगभग हर दिन मैं किसी न किसी समकालीन विषय पर टिप्पणी के तौर पर ही सरला की किसी न किसी कविता को अपनी वाल पर देता रहता हूं । इसका सर्वप्रमुख कारण तो यह है कि वह मेरे पास सबसे सहजता से उपलब्ध होती है । एक क्लिक से लगा पाता हूं । उस विषय पर और खोज करने या अलग से अपनी टिप्पणी देने की मेहनत से बच जाता हूं, जैसा अन्य भी दूसरों की उद्धृतियों या कविताओं आदि के जरिये किया करते हैं ।

लेकिन हमारे लिये अभी इससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण बात है नित नयी घटनाओं पर इन कविताओं को चस्पा करने में हमारा सफल होना । ऐसा भी हुआ है कि एक ही कविता को तीन-चार मौकों पर, हर बार नई तस्वीरों के साथ छोटी सी टिप्पणी दे कर मैं उसे लगा पाया हूं ।

यह जो नये-नये संदर्भों में कविता का दोहराव है, वह भी इतने सामयिक विशेष संदर्भों में लिखी गई कविताओं का दोहराव — यह आज कविता की सामयिकता और सर्वकालिकता के बारे में हमारे सामने एक अनोखे नये आयाम को खोल रहा है । साहित्य के मानदंडों में यह एक प्रचलित कथन है कि जो समकालीन नहीं, वह सर्वकालिक भी नहीं होता है । लेकिन साहित्य, खास तौर पर कविता में अक्सर सनातन, अनंत, सर्वकालिक को साधने पर ही बल दिया जाता है । कविता में सामयिक आख्यानों के बारे में कुछ ऐसी धारणा होती है मानो वे उसकी सनातनता और सर्वकालिकता को व्याहत करते हैं ।
“साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।”

और सार क्या है ? जो सार्वलौकिक है, जो अनंत है ।

फिर भी, साहित्य का इतिहास गवाह है कि कविता और आख्यानों का संबंध आज के गद्य-लेखन के काल में भी टूटा नहीं है । उपन्यास को आधुनिक समय का महाकाव्य कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि कविता के ढांचे में घटनाओं के आख्यान के लिये स्थान नहीं बचा है । अथवा, बार-बार दोहराये जाने के बावजूद यह कोई स्थापित सत्य नहीं है कि कविता की सार्वलौकिकता उसकी समकालीनता के संदर्भों से आहत होती है । एक ही कविता को अलग-अलग ठोस घटनाओं के संदर्भ में अलग-अलग प्रस्तुत करने का क्या तात्पर्य हैं ?

दरअसल, आखिरकार कविता एक भाषाई संरचना ही है । इसीलिये सवाल उठता है कि कविता का पाठकों पर प्रभाव, अर्थात उसका मनोवैज्ञानिक परिणाम क्या भाषा मात्र पर निर्भर करता है ? अथवा क्या वह आदमी के अवचेतन मात्र पर ही निर्भर है ? अर्थात्, कविता का प्रभावी सत्य क्या रचनाकार में ही अंतरनिहित है ?

यहां हम इस विषय को बिल्कुल अलग नजरिये से देखना चाहते हैं । हम जानना चाहते हैं कि आखिर पाठक क्यों किसी चीज से प्रभावित होता है ? कवि के अंतर के सत्य से या किसी अन्य चीज से ।

फ्रायड ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था कि आदमी में किसी लक्षण के विश्लेषण मात्र से वे लक्षण खत्म नहीं होते हैं, वे वैसे के वैसे बने रह जाते हैं । वे कहते हैं कि मुझे लगता है कि हर जीव में एक ऐसी मौन शक्ति होती है, जिसका रूझान आत्म-ध्वंस की ओर होता है । वह आदमी को लगातार कष्ट देने के लिये ही होती है । अर्थात्, आदमी मजबूरन किसी चीज को दोहराते जाने के लिये अभिशप्त होता है । जो भूल आदमी को दुख देती है, पीड़ा देती है, आदमी क्यों जीवन भर उसे ही दोहराता रहता है ? अतीत के अनुभवों से कोई शिक्षा क्यों नहीं लेता ? ऐसा लगता है जैसे इस प्रकार दुखी होने में ही उसका हित है । इस प्रकार वेदना का सुख भोगने वाले का कोई मनोवैज्ञानिक निदान मुमकिन नहीं हो पाता है ।

ध्यान रखिये, हम यहां एक ही कविता को अलग-अलग समान घटनाओं के संदर्भ में दोहराये जाने के तात्पर्य के विषय पर यहां चर्चा कर रहे हैं ।

फ्रायड की बात से ही यह सवाल उठता है कि आदमी आखिर अपनी वेदना से कैसे आनंद लेता है ?

दरअसल, यह मनुष्य के चित्त का विषय है । आदमी का चित्त, जो कविता, अर्थात् किसी खास भाषाई संरचना के प्रभाव को ग्रहण करता है, उस पर सिर्फ भाषा का ही प्रभुत्व नहीं होता है । इसमें व्यक्ति और भाषा के अलावा एक तीसरी चीज और शामिल होती है । वह चीज है — सत्य । व्यक्ति की संवेदना के केंद्र में उपस्थित ऐसा सत्य, जो किसी भी अर्थ और स्वरूप के दायरे के बाहर होता है । आदमी की अपनी इच्छा, ज्ञान और क्रिया से स्वतंत्र, स्वयंसिद्ध । मनुष्य की देह और उसकी भाषा से बिल्कुल बाहर की उपस्थिति । आदमी की वेदना के आनंद का क्रियाशील, स्वतंत्र तत्त्व — यथार्थ का सत्य ।

और जैसे ही हम इस सत्य के पहलू पर आते हैं, कविता की भाषाई संरचना से जुड़े दूसरे सभी पहलू, आख्यनात्मक या सुक्तिनुमा या कुछ और, सब गौण हो जाते हैं । भाषा के साथ सत्य से संबद्ध आदमी की संवेदना का पहलू केंद्रीय हो जाता है । तब कविता का आख्यान या सार नहीं, पाठक की संवेदना का सत्य अपने को दोहराने लगता है ।

जैसे वह एक ही भूल को बार-बार करने के लिये मजबूर होता है, वैसे ही एक ही रचना से वह बार-बार अलग-अलग संदर्भों में एक ही प्रभाव भी  ग्रहण करता है ।

जॉक लकान कहते हैं कि चित्त में सत्य की अपनी छवियों का भी एक संसार निर्मित होता रहता है । यही छवि पाठक को एक समान, लेकिन हर नई घटना से जोड़ता है, और अन्य को दूर भी रखता है । जब तक इस छवि के साथ आदमी का रिश्ता बना रहता है, वह उससे मुक्त नहीं हो सकता है । अगर आदमी को उससे मुक्त ही करना हो तो वह उस छवि को तोड़ कर ही संभव है । अन्यथा वह लगातार, खामोशी से अपनी भूमिका अदा करती रहती है । विध्वंस में, और हमारे अनुसार निर्माण में भी । चूंकि मनोविश्लेषक मनोरोगी के विषय पर काम करता है, इसलिये उसके सामने इस प्रकार के दोहराव की सूरत आत्म-विध्वंसकारी की होती है, लेकिन रचनाकार के लिये, यह आत्म-निर्माणकारी होती है ।

सत्य के इस प्रकार बार-बार उपस्थित होने या दोहराए जाने की प्रक्रिया ही किसी प्रवृत्ति के चित्त पर पूरी तरह से छा जाने की प्रक्रिया है । मनोरोगी जुनूनी आदमी में यह खामोशी से अपने अंधेरे क्षेत्र से निकल कर उसके पूरे मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेती है, उसकी नींद उड़ा देती है, उसे आतंकित किये रहती है, उसे उत्पीड़न के विचार से भर देती है । आतंकित मनुष्य की संवेदना हमेशा उसके बाहर के दबाव से जुड़ी होती है । वह किसी अन्य के, किसी बाहरी शक्ति के दबाव को देखता रहता है । और तब उत्पीड़ित होने के अहसास में फंसा रहता है ।

क्या वही प्रक्रिया सामयिक विषय पर लिखी गई कविता के बार-बार दोहराव और उसके प्रभाव पर भी लागू नहीं होती है ?

बहरहाल, एक ऐसे बहके से आत्म-निवेदन के साथ ही मैं सरला को सार्वजनिक तौर पर जन्मदिन की बधाई देता हूं : 
           

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

दिल्ली के स्कूलों में सीसीटीवी कैमरा प्रसंग :



दिल्ली सरकार की स्कूलों में सीसीटीवी कैमरा का विषय निश्चित रूप से एक सही विवाद का है ।

अरविंद केजरीवाल का कहना है कि बच्चे स्कूल में पढ़ने जाते हैं, किसी और चीज के लिये नहीं । उनकी पढ़ाई अच्छी करने के लिये इस प्रकार की तकनीकी मानिटरिंग पर क्यों कोई सवाल उठा रहा है ?

बच्चों के स्कूल और अनुशासन, बल्कि बच्चे और अनुशासन का विषय एक बहुत जटिल सवाल हैं । आदमी की पहचान के सारे रूप जहां अन्य की उपस्थिति से तय होते हैं, वहीं उसका अहम् उन दबावों से इंकार के आधार पर बनता है । मनुष्य के मन की स्वातंत्र्य गति का सामाजिक परिवेश की बाधाओँ से द्वंद्व ही मनुष्यों के चित्त के जगत का विस्तार करते हैं ।

आधुनिक काल के मानव मन का मूलभूत मंत्र है स्वतंत्रता । मन के संदर्भ में आधुनिक तकनीक का भी मूलत: इसीलिये स्वागत किया जाता है कि वह मनुष्य को अनेक अनावश्यक कार्यों के दबावों से मुक्त करती है । लेकिन विडंबना यह है कि यही तकनीक आज राज्य के हाथ में पड़ कर राज्य की स्वतंत्रता को बल पहुंचाते हुए नागरिक की स्वतंत्रता के हनन का हेतु बन रही है । तकनीक का यह पागलपन, इससे जुड़ी बुराइयों का दुष्चक्र हमें आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेलने लगता है ।

हम बचपन में जिन स्कूलों में पढ़े हैं, वे आज की तरह के आधुनिक मांटेसरी स्कूल नहीं थे । मारजा गुरू के विद्यालय थे, जिनमें मास्टर हाथ में छड़ी लिये रहता था । बच्चों की उंगलियों में बरता या पेंसिल दबा कर उन्हें असहनीय पीड़ा देने में उन मास्टरों की सानी नहीं थी । लेकिन मां-बाप भी इसी में बच्चों की भलाई समझते थे ।

आज की आधुनिक दुनिया में मां-बाप तक का बच्चों पर हाथ उठाना बाकायदा कानूनी अपराध माना जाने लगा है ।

इसकी मूल वजह है — बचपन से ही आदमी में स्वतंत्रता के मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के सचेत प्रयत्न । तमाम मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह देखा गया है कि आदमी में किसी भी प्रकार की दमित भावनाएं ही उसके मस्तिष्क के विकास में सबसे बड़ी बाधा साबित होती हैं । दमन का कोई भी रूप, भले वह शिक्षा के नाम पर ही क्यों न हो, मनुष्यत्व के लिये हितकर नहीं है । परिवेश की उनमुक्तता ही आदमी के चित्त के स्वस्थ विकास के हित में होती है ।

स्कूलों को सुरक्षित रखना, बच्चों को भयमुक्त रखना किसी भी स्कूल प्रशासन का दायित्व है । लेकिन इसके नाम पर बच्चों को शुरू से ही इस प्रकार की खुफिया आंख की निगरानी में पालना उनके अंदर उनमुक्तता के सहज भाव को बाधित करने के समान है । यह घर की चारदिवारी के बाहर बन रहे बच्चों के मानस को बाधित ही करेगा । घर के जिस बंद और सीमित परिवेश से मुक्ति के लिये स्कूल की परिकल्पना की जाती है, यह फिर तकनीक के जरिये स्कूल को भी बंद और सीमित बनाने का काम करेगा । यह मां-बाप के अभिभावकीय अहम् की भले तुष्टि करें, लेकिन स्कूल में बच्चे के उनमुक्त विकास के हित के विरुद्ध होगा । जिस चीज से बच्चों को बचाने के लिये स्कूल हुआ करते हैं, यह उसे ही बल पहुंचायेगा । बच्चों में जिस स्वतंत्र मूल्य-बोध को पैदा करने के लिये स्कूल होते हैं, यह उसे कमजोर करेगा ।

वैसे हमारे देश में, जो कोई समाज को जितना पीछे ले जाने वाले कदम उठायेगा, राजनीतिक तौर पर उसे उतना ही अधिक लाभ होगा । आम आदमी पार्टी भी इससे लाभान्वित होगी । दूसरी कोई पार्टी भी इसके विरोध में एक शब्द नहीं कहेगी ।

राजनीति की चिंता तात्कलिक लाभ से जुड़ी होती है, पीढ़ियों के बाद सामने आने वाले सभ्यता के अच्छे-बुरे परिणामों से नहीं । बच्चों के क्लास रूम को अच्छा बनाने में सीसीटीवी कैमरा जैसी चीज की कोई भूमिका नहीं हो सकती है ।       

बुधवार, 3 जुलाई 2019

विमर्शमूलक विखंडन और कोरी उकसावेबाजी में विभाजन की रेखा बहुत महीन होती है


—अरुण माहेश्वरी


अरुंधति रॉय की किताब 'एक था डाक्टर और एक था संत' लगभग एक सांस में ही पढ़ गया । अरुंधति की गांधी को कठघरे में खड़ा कर उन पर बरसाई गई धाराप्रवाह, एक के बाद एक जोरदार दलीलों की विचारोत्तेजना अपने घेरे से बाहर निकलने ही नहीं दे रही थी । अरुंधति जितना गांधी को ध्वस्त कर रही थी, उतना ही अधिक जैसे हमारे सामने सोच की ज्यादा से ज्यादा बड़ी चुनौती पैदा हो रही थी कि कैसे चुटकी बजाते हुए एक विशाल और बेहद मजबूत समझे जाते रहे महल को कोई इस प्रकार धूलिसात कर रहा है ! और, हम लगातार परस्पर-विरोधी बातों के समुच्चय के विभ्रम पर टिके उनकी दलीलों के जादू पर उतने ही अजीब ढंग से सवालों से भी घिरते चले जा रहे थे ।

यह सच है कि कोई भी गंभीर विमर्श इसी प्रकार पैदा हुआ करता है, स्थापित प्रतिमा को ध्वस्त करके । यही ज्ञान की क्रियात्मकता है ।


तंत्र के त्रिक दर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है — “इस प्रकाशात्मा परमेश्वर शिव की सत्ता — शिव का अपना वजूद विमर्श है जो इच्छा ज्ञान क्रियात्मक है । अर्थात विमर्श प्रकाश से भिन्न नहीं और प्रकाश विमर्श से भिन्न नहीं, वही ज्ञान की श्रृंखला का कारक है ।” (आचार्य क्षेमराज रचित — पराप्रवेशिका, ईश्वर आश्रम ट्रस्ट, पृ : 8)

विमर्श का वह स्वरूप जिसमें ज्ञान को निकाल कर अन्यों को सौंपा जाता है,  कोरी बकवास नहीं होता, लेकिन, वह भी कोई अंतिम सत्य नहीं होता । इस प्रकार का ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब विश्लेषक का ज्ञान विश्लेष्य के तर्क को बिखेर देता है, जिससे किसी विश्लेषण के प्रारंभिक चरणों में ही ज्ञान के इस प्रकार के हस्तांतरण का ढाँचा तैयार हो जाता है । अर्थात्, विमर्श के लिये ज़रूरी है विश्लेष्य के अपने तर्क को पहले बिखेर दिया जाए । विश्लेषण की भूमिका किसी स्थापित राय अथवा ज्ञान कोश से सत्य को अलग देखने की होती है । ज्ञान कोश जगत के सत्य का सीमित ज्ञान होता है, इसीलिये वह ज्ञान का गुटका आगे के विमर्श का दिशा-निर्देशक नहीं,  बल्कि भटकाने वाला ज़्यादा होता है ।

कहना न होगा, ये बातें जितनी अरुंधति रॉय की किताब में किये गये विश्लेषणों पर लागू होती है, उतनी ही इन्हें उनकी किताब के विश्लेषण पर भी लागू किया जा सकता है । आलोचना हमेशा आलोच्य कृति में निहित ज्ञान को सामने लाती है और उस ज्ञान को बिखेर कर ही आगे हस्तांतरणीय भी बनाती है ।

शायद ऐसे ही किन्हीं कारणों से किताब को एक साँस में पढ़ते हुए ही हमने अपनी कुछ पूर्व धारणाओं के आधार पर ही फेसबुक पर कुछ सामान्य प्रकार की प्रश्नमूलक टिप्पणियां लिखी । पहली टिप्पणी थी —'महज एक विमर्श के प्रस्ताव के लिये :'

“प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के बीच उसी प्रकार फ़र्क़ करने की ज़रूरत है जैसे आज पूँजीवाद और फासीवाद में फ़र्क़ किया जाना चाहिए ; जैसे समाजवाद में सर्वहारा के अघिनायकत्व और एक व्यक्ति की तानाशाही में फ़र्क़ किया जाना चाहिए ।

“कोई भी दर्शनशास्त्रीय विमर्श अपनी अमूर्तता के चरम बिंदु की दीर्घकालीनता में मूल बिन्दुओं से बिल्कुल विपरीत अन्य कई विमर्शों को जन्म दिया करता है । यही बात समाज-व्यवस्थाओं की संरचनाओं पर भी लागू होती है ।

“गांधी भारतीय वर्ण व्यवस्था के प्रशंसक और अस्पृश्यता के तीव्र विरोधी थे । क्या यह गांधी का कोरा मिथ्याचार था या इसका कोई संबंध सामाजिक संरचनाओं के विकास के इतिहास की एक समझ से हो सकता है ?” (25 जून 2019)

सामाजिक संरचना का चतुर्वर्णीय स्वरूप सिर्फ भारत में ही नहीं था । खुद आंबेडकर ने दुनिया के अन्य हिस्सों के इतिहास में समाज के जातिगत विभाजन की सच्चाई की बात कही है । रोमन साम्राज्य के शासन का मूल सिद्धांत ही इस पर टिका हुआ था । नागरिकों की आबादी का patricians (शासक कुल) census rank ( श्रेष्ठि समुदाय) noble (शिक्षित समुदाय) और citizenship ( सैनिक और किसान आदि ) में विभाजन रोमन साम्राज्य का एक मूलभूत प्रशासनिक सिद्धांत रहा है । इस विषय में, भारतीय इतिहास में ग्रीक संपर्कों के अध्याय को नज़रंदाज़ करके भारत के चतुर्वर्ण सिद्धांत की व्युत्पत्ति के इतिहास को और अंग्रेज़ों के काल में शासक कुलों के नस्ली सिद्धांत की भूमिका को बिना समझे इसके वर्तमान रूप को भी समझना मुश्किल है । अरुंधति की किताब में ही कहा गया है कि “जनसांख्यिकी की चिन्ता ने (भारत की) राजनीति में उथल-पुथल मचा रखी थी ।” (पृ : 53) किताब में कई जगहों पर इसके चित्र मिलते हैं । हर्बर्ट रिस्ले के नेतृत्व में 1901 की जनगणना को ब्रिटिश भारत की पूरी हिंदू आबादी पर जाति-व्यवस्था को बाक़ायदा लागू करने के एक उपक्रम के रूप में ऐसे ही याद नहीं किया जाता है । रिस्ले नस्लवादी था और आदमी के नाक-नक़्शे और चमड़ी के रंग से समाज में उसके स्थान के सिद्धांत पर विश्वास करता था ।

यह एक वैसी ही प्रक्रिया है जैसे लोकतंत्र से जाति-प्रथा को बल मिलना । “लोकतंत्र ने जाति का उन्मूलन नहीं किया है । इसने जाति का आधुनिकीकरण करके इसकी जड़ों को और मजबूत किया है ।” (पृ : 32) इसके साथ अंग्रेजों ने आधुनिक प्रशासन में प्रतिनिधित्व के अधिकार के प्रश्न को जोड़ जो दिया था ।

बहरहाल, रोमन साम्राज्य में जैसे ग़ुलामों के लिये नागरिकता का कोई नियम नहीं था, उसी प्रकार भारत के ब्राह्मणवाद ने शूद्रों के मामले में अस्पृश्यता की शूचिता से इसे और भी जघन्य बना दिया था । नौ सौ साल के इस्लामी शासन और दो सौ साल के अंग्रेज़ी शासन के बावजूद वर्ण व्यवस्था का पूरी तरह से बने रहना इस कथित हिंदू सामाजिक संरचना के साथ भारत के सभी शासक वर्गों के स्वार्थों के संकेत भी देता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये सभी शासन तंत्रों में जगह थी । किसान सामान्य नागरिक रहे और शूद्रों को उत्पादन की पूरी प्रणाली में अस्पृश्य ग़ुलाम बना कर रख दिया गया । लेकिन अस्पृश्यता भारत की अपनी वह खास चीज है जिसने वर्णों के बीच अन्तरक्रियाओं की संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया था । यही हमारे यहां का 'ब्राह्मणवाद' है ।

फिर भी, कुल मिला कर सच यही है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के बीच से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पहली बार आवाज़ उठी और स्वतंत्र भारत के संविधान में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने की प्रतिज्ञा ली गई । इसीलिये भारत के अछूत प्रश्न को आज आजादी की लड़ाई की समग्रता से काट कर नहीं देखा जा सकता है । आज भी फासीवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिकार न किसी प्रकार के 'साफ्ट हिंदुत्व' में हैं और न किसी अन्य जातिवाद में । इसका उत्तर है भारतीय संविधान की मूलभूत जनतांत्रिक और समानता की मानवतावादी और समाजवादी भावना में, जो आजादी की लड़ाई की ही फलश्रुति है ।

बहरहाल, 26 जून 2019 को हमने फेसबुक पर ही फिर दूसरी टिप्पणी लिखी — 'राजनीतिक दल और इतिहास'

“किसी भी राष्ट्र की सामूहिक गति किसी राजनीति के किसी सुस्थिर रूप के अनुरूप तय नहीं होती है और न ही वह किसी लय के पूरी तरह से यकबयक टूटने की तरह होती है । बल्कि यह उसकी लय के क्रमिक विलयन की भांति चलती है, जैसा कि आदमी के जीवन में भी होता है । कितनों की नई संगत होती है और कितने बिछुड़ते जाते हैं !

“राजनीतिक संगठन इसीलिये हमेशा अपने सामने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये होते हैं न कि चिर काल के लिये जैसे थे, या हैं, वैसे ही पड़े रहने के लिये । यही वजह है कि किसी भी राजनीतिक दल के सबसे सही और ज़रूरी निर्णय का वक़्त उस उचित क्षण को तय करना होता है जब उसे अब तक के अपने उपयोगी ढाँचे को विसर्जित कर देना होता है । यही किसी भी राजनीति की अपनी गतिशीलता के मूल में होता है ।

“गांधी के ज़रिये राष्ट्रीय कांग्रेस में वही घटित हो रहा था, जिसने अंत में राष्ट्रीय कांग्रेस को आज़ादी की लड़ाई के नेतृत्व के स्थान पर ला दिया । गांधी को बेनक़ाब करने के लिये उन पर कुछ स्थिर मान्यताओं और पूर्व-निश्चित मूल्यों के चाबुक फटकार कर इतिहास की समझ को सिर्फ उलझाया जा सकता है । इस प्रकार के ‘बेनक़ाब-लेखन' इसीलिये कोरे प्रचारमूलक हो सकते हैं, विमर्शमूलक नहीं । ये व्यक्ति को उसके समय के इतिहास से काट कर देखते हैं । उनके द्वारा छोड़े गये अधूरे कामों को पूरा करने में विफल बाद की राजनीतिक पार्टियों की जड़ता के लिये गांधी को ज़िम्मेदार बताना नासमझी है ; इतिहास की गति को सिर्फ एक व्यक्ति की गति से मापने की भूल ; व्यक्ति की शारीरिक मृत्यु को इतिहास का अंत मान लेने की तरह का एक बचकाना विचार ।”

इसी क्रम में उसी दिन की हमारी तीसरी टिप्पणी थी — 'इतिहास और व्यक्ति'

“जन्मजात एक पक्का स्वार्थी बनिया, कट्टर सनातनी, वर्ण-व्यवस्था के प्रति दृढ़ विश्वासी, राजभक्त, बड़े लोगों की सोहबत को पसंद करने वाला और एक नंबर समझौतापरस्त गांधी अंत में भारत के करोड़ों लोगों को प्रेरित करने वाला जन नायक, सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक, जातिवाद-विरोधी, राज-द्रोही और ज़िद्दी स्वभाव के समझौताहीन व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं ।

“व्यक्तित्वों के रूपांतरण का यह चमत्कार किसी भी लेखक और शोधकर्ता के लिये गहरे आकर्षण का विषय होना चाहिए । इससे उन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं पर रोशनी डाली जा सकती है जो किसी भी राष्ट्र में क्रांतिकारी परिवर्तनों के बिंदु तैयार करती है और जो उन बिंदुओं के प्रतीक, अपने नायकों का निर्माण करती है ।

“आज के दार्शनिक इसे कुछ इस प्रकार जाहिर करते है कि मनुष्यों के शरीर और उनके संस्कारों, शिक्षा-दीक्षा के भाषाई संसार हैं, लेकिन इनके बाहर एक सत्य का भी अस्तित्व है जो मनुष्यों की क्रियात्मकता को संचालित करने में प्रमुख भूमिका अदा करता है । There are bodies and languages and there is truth.

“सभी प्रकार के विखंडनवादी, ‘बेनकाबवादी’, जिन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी भी कहा जा सकता है, मनुष्य को उसके शरीर और उसकी भाषा के आत्म-संसार से बाहर नहीं देख पाते हैं । इसीलिये गांधी की तरह के इतिहास के नायकों का निर्माण उनकी समझ के बाहर होता है ।

“वे उन्हें कोरे शरीर और भाषा के समुच्चय के रूप में रखते हुए इतिहास के आगे के बचे हुए कामों के लिये उनकी सीमाओं को कोसने लगते हैं । वे सत्य की भूमिका को नज़रंदाज़ करते हुए उनके निजी अस्तित्व की सच्चाइयों का चुनिंदा ढंग से प्रयोग करके उनके विखंडन के लिये, उन्हें बेनकाब करने के लिये स्वार्थपूर्ण ढंग से प्रयोग करते हैं ।

“यही वजह कि बेनकाबवादी लेखन जितना ही उग्र होता है, उतना ही वह किसी भी प्रकार के विमर्श को तैयार करने के लिहाज़ से अनुपयुक्त होता है । विमर्श की भूमिका किसी की राय अथवा ज्ञान कोश से भी सत्य को अलग देखने-दिखाने की होती है ।

“किसी भी एक पक्ष के लिये वकील की ज़ोरदार दलीलें सत्य और ज्ञान को महज ठुकराती नहीं है, बल्कि उनके परस्पर संबंधों और वास्तव के साथ उनके रिश्तों पर पुनर्विचार की ज़मीन तैयार करती है ।
“स्वतंत्र चिंतन और औपचारिक सामाजिक संरचनाओं के महत्व के बीच संश्लेषण को गांधी व्यक्त करते थे । इन संरचनाओं को बिना समझे और बिना महत्व दिये किसी भी सामाजिक व्यवहार ( रणनीति) की स्थानिकता की कोई सूरत नहीं बन सकती है ।”

ऐलेन बाद्यू को मनोविश्लेषक जॉक लकान विश्लेषण संबंधी कथन से दर्शनशास्त्र को परिभाषित करने वाला जो सूत्र मिला है, वह है - “Raise impotence to impossibility ( नपुंसकता को असंभवता तक ले जाना) ।” (Alain Badiou, Lacan, Columbia University Press, page – xli) कहना न होगा, असंभवता को नपुंसकता बताना इसीका विलोम है, जो दर्शन को दैनंदिन के सच के रूप में रखता है ।

बाद्यू का यह कथन दर्शनशास्त्र में सत्य के सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य और दैनंदिन घटनाक्रमों के बीच से सामने आने वाले सत्य के नित नये रूप के बीच के द्वंद्व को समझने की एक कुंजी प्रदान करता है । विषय के सत्य को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में लगातार खुलते हुए समग्रत: देखना और उसके हर दिन के नये रूप को ही अंतिम सत्य मान कर उस पर निर्णायक राय सुना देने के बीच जमीन आसमान का फर्क होता है ।

भारतीय राजनीति में गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सत्य की समग्रता से जुड़ा हुआ विषय है । न वह सिर्फ दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रही है और न भारत में सविनय अवज्ञा, अछूतोद्धार, सांप्रदायिक सौहार्द्र, समाजसुधार, ग्राम स्वराज तथा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत वाले राष्ट्रपिता कहलाने वाले व्यक्ति हैं।


इस संदर्भ में हम यहां गांधी और आंबेडकर पर डा. रामविलास शर्मा की किताब का उल्लेख करना चाहेंगे । लगभग आठ सौ पन्नों की अपनी किताब 'गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ ' में उन्होंने इन तीनों पर अलग-अलग काफी बातों को अपने नजरिये से समेट कर रखने की कोशिश की है । इस किताब की भूमिका में किताब के प्रमेय के रूप में उन्होंने तीनों के बारे में संक्षिप्त सूत्रों में जो बातें लिखी है, उनमें से गांधी और अंबेडकर के बारे में उनकी बातों को इस लेख की सीमा के बावजूद रखना जरूरी समझता हूं ।

गांधी के बारे में समग्र रूप से विचार करने वाले लगभग सभी लोग दक्षिण अफ्रीका में उनके जीवन के प्रसंगों को जरूर उठाते हैं, तत्व रूप में, जिन्हें आगे भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में गांधी की भूमिका में विकसित होते हुए दिखाया जाता है । अरुंधति राय ने भी यह किया है और डा. शर्मा भी यहीं से अपनी बात का प्रारंभ करते हैं ।

डा. शर्मा लिखते हैं — “गांधीजी मजदूरों के जीवन से अच्छी तरह परिचित थे । दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने मजदूरों की एक लंबी लड़ाई चलाई थी ।...गांधीजी बहुत अच्छे इतिहास लेखक थे । दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास उनकी श्रेष्ठ कृति है ।...दासों के व्यापार में अंग्रेज पहले पीछे थे फिर इस कौशल में यूरोप के सभी देशों से आगे बढ़ गये ।...भारत से गरीब किसानों को फुसला कर उपनिवेशों में ले जाते थे, वहां उनसे गुलामों की तरह काम कराते थे । इसी गुलामी से मुक्ति पाने के लिए दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने 'गिरमिटिया' मजदूरों को संगठित किया था ।...गिरमिट प्रथा पुरानी दास प्रथा का नया संस्करण थी । उपनिवेशों में भारतीय व्यापारियों को अधिकारहीन रखने और मजदूरों से अपने दुर्व्यवहारों को उचित ठहराने के लिए अंग्रेज रंगभेद का सहारा लेते थे । काले आदमी शासित होने के लिए बने हैं और गोरे उन पर शासन करने के अधिकारी हैं ।
“भारतवासियों को असभ्य बता कर वे उनके इतिहास और संस्कृति पर आक्षेप करते थे । परंतु अनेक अंग्रेज विद्वानों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल का उचित मूल्यांकन किया था । गांधीजी ने उनका हवाला देकर उपनिवेशवादियों के दृष्टिकोण का खंडन किया । इस तरह उन्होंने भारत के सांस्कृतिक इतिहास के दमन को राजनीतिक संघर्ष का अस्त्र बना दिया ।...दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी ने बहुत कुछ सीखा । ...इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जातीय अस्मिता और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान का मेल । दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने मिल मजदूरों के जातीय गर्व को उभार कर उन्हें उत्साहित किया । भारत में उन्होंने अनेक जातियों के प्रति यह नीति अपनाई ।” (पृष्ठ – v-viii)

डा. शर्मा का गांधीजी की वैचारिक संरचना के तत्वों के बारे में यह विचार था कि “निष्क्रिय प्रतिरोध का सिद्धांत उन्होंने तोलस्तोय से ग्रहण किया था । उसे सत्याग्रह का नाम बाद में दिया गया । सर्वोदय का सिद्धांत उन्होंने रस्किन से प्राप्त किया था । भारत ग्राम सभाओं का देश है । यह इतिहास विरोधी कल्पना उन्हें हेनरी मेन से मिली । जिसे गांधीवाद कहा जाता है, उसके मुख्य स्रोत विदेशी हैं, पर गांधीजी तोलस्तोय की तरह सक्रिय प्रतिरोध की प्रशंसा भी करते थे और रस्किन की तरह पूंजीवाद की आलोचना भी करते थे ।” अर्थात्, यह सिर्फ किसी भारतीय प्राचीनता की उपज नहीं थी ।
डा. शर्मा ने भी यह नोट किया कि गांधीजी के सामने अन्य दो प्रमुख राजनीतिक समस्याएँ थी — सांप्रदायिकता और अछूत समस्या । डा. शर्मा लिखते हैं कि “गांधीजी ने कहा था, अछूतों की मूल समस्या जमीन की है । उन्हें जमीन मिलनी चाहिए ।...गांधीजी ने कहा था, पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारी खत्म नहीं हो सकती ।... गांधीजी ने कहा था, मजदूर संगठित नहीं है, वे अपनी ताकत नहीं पहचानते, उनमें शासन करने की क्षमता है ।...गांधीजी ने कहा था, यह विज्ञान का युग है, विज्ञान अंधविश्वासों को मिटा सकता है ।...गांधीजी ने कहा था, विदेशी पूंजी के प्रभुत्व से हर तरह की बरबादी होती है ।” (पृष्ठ – viii-x)

गांधीजी जो चाहते थे और जिसमें वे विफल रहे, इसे गिनाते हुए डा. शर्मा लिखते हैं — “गांधीजी देश का विभाजन नहीं चाहते थे । वह उसे रोक नहीं पाये । वह कांग्रेस और सरकारी कामकाज से अंग्रेजी को निकाल देना चाहते थे, नहीं निकाल पाये । वह अछूतों को ऊंची जातियों के बराबर दर्जा देना चाहते थे, नहीं दे पाये । वह विदेशी पूंजी के दबाव से देश को मुक्त करना चाहते थे, नहीं कर पाये । वह चाहते थे, गांधी और सारी दुनिया के लोग खादी पहनें, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई । वह चाहते थे, पूंजीपति, जमींदार, और धनी लोग अपनी संपत्ति का उपयोग गरीबों के हित में करें, उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई । वह चाहते थे, हिन्दू मुसलमान का भेदभाव खत्म हो, वैसा नहीं हुआ । ऐसी उनकी और असफलताएँ भी गिनायी जा सकती हैं ।”

इसके बाद की ही डा. शर्मा की पंक्ति है —“पर उनका प्रभाव करोड़ों पर था । भारतीय इतिहास में कोई भी एक व्यक्ति, किसी भी युग में, इतने विशाल जन समुदायों को प्रभावित नहीं कर सका और विश्व इतिहास में भी किसी व्यक्ति का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं देखा गया ।” (पृष्ठ – viii-ix)

कहना न होगा, डा. शर्मा की किताब में गांधीजी के बारे में लगभग 460 पृष्ठों के हिस्से में भूमिका की इन्हीं उपरोक्त बातों के प्रमाण और विश्लेषण दिये गये हैं ।

इसी प्रकार, डा. शर्मा आम्बेडकर के बारे में भूमिका में संक्षेप में लिखते हैं — वे अपने समय के सबसे सुपठित व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी सारा वांगमय अनुवाद में पढ़ कर अनेक मौलिक स्थापनाएँ लोगों के सामने रखी थी । डा. शर्मा चूंकि खुद सीधे अथवा संकेतों में यह कहते रहे हैं कि आर्य भारत में बाहर से नहीं आए थे, इसीलिये इस बारे में आम्बेडकर के विचारों का उल्लेख उन्होंने भूमिका में भी किया है कि वे यह नहीं मानते थे कि आर्य बाहर से आए थे । (यद्यपि अब आनुवांशिक वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद तो इस बात में कोई शक ही नहीं रह गया है कि मध्य एशिया के मैदानी इलाके से आर्य भारत में आए थे ।) बहरहाल, आंबेडकर के वर्ण व्यवस्था के बारे में विचार पर डा. शर्मा कहते हैं कि “समाज की भौतिक परिस्थितियों को पहचानते हुए उन्होंने बताया कि यह प्रथा केवल भारत में नहीं, भारत के बाहर भी रही है । किंतु अधिकतर उनका झुकाव इस धारणा की ओर रहा है कि यह विशेषता केवल हिंदू धर्म की है ।”

स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में डा. शर्मा लिखते हैं कि “उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के विरोध में अछूतों का नया अलग संगठन खड़ा किया । इससे स्वाधीनता आंदोलन कमजोर हुआ, बिखराव की ताकतें आगे बढ़ीं । साइमन कमीशन के आने के बाद आम्बेडकर में परिवर्तन दिखाई देता है ।...एक समय उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन भी किया । जाति की परिभाषा उद्धृत करते हुए उन्होंने मुसलमानों को एक जाति कल्पित किया । किंतु 1947 के बाद उनमें फिर परिवर्तन हुआ । ...जब तक आर्थिक समानता न होगी तब तक वास्तविक जनतंत्र स्थापित नहीं हो सकता । ...एक बड़े विचारक में जैसे अंतरविरोध हो सकते हैं, वैसे अंतरविरोध आम्बेडकर में भी थे । ...आम्बेडकर यह भी जानते थे कि उद्योगीकरण से ऐसी परिस्थितियां पैदा हो सकती है जिनमें बाप का पेशा बेटे के लिए अनिवार्य न हो ।...जाति प्रथा के विचार से वे अछूत थे । समाज में उन्हें बहुत अपमान सहना पड़ा था । परंतु वह मजदूर वर्ग में पैदा हुए थे ।...गांधीजी की तुलना में जातीय सम्मान के बारे में उनके विचार उलझे हुए थे । ...उन्होंने बौद्ध धर्म की जो व्याख्या की, वह बहुत कुछ भौतिकवाद के अनुसार की, और उनकी ग्रंथावली के संपादकों का कहना है कि उसे बौद्ध मतावलंबी स्वीकार नहीं करते थे । डॉ आम्बेडकर समाज के विवेकशील आलोचक थे । अंधविश्वासों के विरुद्ध संघर्ष करने में उनकी विवेकशीलता हमारा मार्गदर्शन कर सकती है ।” (पृष्ठ – xi-xiii)

अब हम आते हैं अरुंधति रॉय की किताब में व्यक्त विचारों पर । डा. शर्मा के ठीक विपरीत अरुंधति रॉय आम्बेडकर को जाति व्यवस्था के मूल, हिंदू धर्म का कट्टर विरोधी बताते हुए गांधी को हर मायने में उनके धुर प्रतिपक्ष के रूप में पेश करती है । उनके शब्दों में

“दुनिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय, मोहनदास करमचंद गांधी, आंबेडकर से असहमत थे । उनका विश्वास था कि जाति, भारतीय समाज की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करती है ।” (पृ:21)

“वे यथास्थिति के संत है ।” (पृ: 35)

“समस्या यह है कि गांधी ने 'सब कुछ' कहा और 'सब कुछ' का उलटा भी बोल दिया ।” (पृ: 36)

“गांधी, जो वैश्य थे, और एक गुजराती बनिया परिवार में जन्मे, विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के हिन्दू समाज सुधारकों और उनके संगठनों में नवीनतम सुधारक थे ।...उन्होंने खुद को एक दूरदर्शी, रहस्यवादी, नैतिकतावादी, और महान मानवीय व्यक्ति के रूप में पेश किया जिसने सच्चाई और पवित्रता के हथियारों से एक शक्तिशाली साम्राज्य को धराशायी कर दिया । हम कैसे सामंजस्य स्थापित करें अहिंसावादी गांधी के विचार का गांधी — जिसने शक्ति को सत्य से टक्कर दी, गांधी — अन्याय का प्रतिकार, विनम्र-गांधी, नर-मादा—गांधी, गांधी—एक माँ, गांधी—जिसके लिए कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति का स्त्रीकरण किया, और स्त्रियों के लिये राजनीति में आने की जमीन तैयार की, पर्यावरणविद्—गांधी, वाक् पटु गांधी और महान वाक्य बोलने वाला गांधी—इन सबका हम गांधी के जाति के प्रति विचार (और कारनामों) से कैसे सामंजस्य स्थापित करें ? हम इस नैतिक धर्म की संरचना का क्या करें, जो अविचलित, पूरी तरह से क्रूर संस्थागत अन्याय पर टिकी हुई है ?” (पृ: 37-38)

“एक विशेषाधिकारप्राप्त सवर्ण बनिया यह कैसे दावा कर सकता था कि वह ही साढ़े चार करोड़ भारतीय अछूतों का असली प्रतिनिधि है, अगर उसे यह यकीन ह हो कि वह वास्तव में ही महात्मा है ? ...इसी ने गांधी को अपनी स्वच्छता की स्थिति, अपने आहार, अपने मल-त्याग, अपने एनिमाओं और यौन जीवन के दैनिक प्रसारण की स्वीकृति दी । जनता को अपनी अंतरंगता के जाल में खींचने की, ताकि बाद में उसका उपयोग और जोड़-तोड़ का लाभ वे ले सकें, जब वे अपने उपवास और आत्म-दंड देने का काम करें । इसने उन्हें छूट दी, खुद का बार-बार खंडन करने की, और फिर कहा : “मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि मेरा हर बयान, मेरे पिछले बयान की कसौटी पर खरा उतरे, लेकिन मेरा हर बयान सत्य की कसौटी पर खरा होना चाहिए, जिस भी रूप में सत्य उस पल मेरे सामने प्रस्तुत हो । इसका परिणाम यह हुआ है कि मैं एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता रहा हूँ ।”

“आम राजनीतिज्ञ एक राजनीतिक मुनाफे से दूसरे राजनीतिक मुनाफे के बीच झूलता रहता है । सिर्फ एक महात्मा है जो एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता है ।...उस पीढ़ी का व्यक्ति जो गांधी की संत-जीवनी की खुराक पर पला-बढ़ा है (मेरे समेत), यह जानकर कि दक्षिण अफ्रीका में क्या हुआ, न सिर्फ परेशान होगा, बल्कि हक्का-बक्का रह जाएगा ।” (पृ: 60-61)

“(दक्षिण अफ्रीका में) भारतीय समुदाय के प्रवक्ता के रूप में गांधी ने इस बात में हमेशा सावधानी बरती और खयाल रखा कि वे 'पैसेंजर इंडियंस' की भारतीय 'इडेंचर्ड' (जो भारतीय बँधुआ मजदूर के रूप में दक्षिणी अफ्रीका लाए गए थे) से दूरी बनाए रखें ।”(पृ:62-63)

“गांधी का हमेशा कहना था कि वह गरीबों में भी सबसे गरीब की तरह जीना चाहते थे । सवाल यह है कि जो गरीब नहीं है क्या वह सचमुच गरीब का रूप ले सकता है ? ...दक्षिण अफ्रीका में गांधी की गरीबी कायम रखने के लिए हजारों एकड़ जमीन और फलों से लदे हजारों वृक्ष मौजूद थे ।

“दरिद्र और निर्बल की जंग, उन चीजों को वापस पाने की जंग है जो उनसे छीन ली गई है । त्यागने की जंग नहीं है । लेकिन गांधी कामयाब धार्मिक बाबाओं की तरह एक चतुर राजनीतिज्ञ थे । ...अलबत्ता, वे भारतीय व्यापारियों के हक की लड़ाई जरूर लड़ रहे थे कि कैसे वे अपने कारोबार का विस्तार ट्रांसवाल में कर सकें और ब्रिटिश व्यापारियों का मुकाबला कर सकें ।” (पृ : 74-75)

फिर भी, अरुंधति के शब्दों में — “गांधी के महात्मापन की ओढ़नी राष्ट्रीय आंदोलन पर ऐसे छाई रही जैसे किसी कश्ती का बादबान । वे पूरी दुनिया के दिलो-दिमाग पर हावी थे । उन्होंने हजारों लोगों को जागृत करके सीधे राजनीतिक सक्रियता के मैदान में उतार दिया । वे सबकी आँखों का ध्रुवतारा थे, राष्ट्र की आवाज थे ।” (पृ : 60)

“गांधी जाति-व्यवस्था के प्रशंसक थे, लेकिन वे यह भी मानते थे कि जातियों में ऊंच-नीच की श्रेणी नहीं होनी चाहिए । सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए ।” (पृ : 22)

“गांधी के राजनीतिक अन्तराभास, सियासी समझ, ने कांग्रेस की खूब बढ़िया सेवा की । उनके मन्दिर-प्रवेश कार्यक्रम ने अछूत आबादी की एक बड़ी संख्या को कांग्रेस से जोड़ने का काम किया ।” (पृ : 133)

और आंबेडकर !

वे एक अछूत परिवार में जन्मे, वर्ण व्यवस्था की तमाम जिल्लतों को खुद सहते हुए अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपने समय की उच्चतम शिक्षा हासिल की । हिन्दू समाज को उन्होंने एक ऐसी डरावनी मीनार की संज्ञा दी जिसमें न सीढ़ी है और न कोई प्रवेश द्वार । इसमें जो जहां जन्मेगा वह वहीं पर मरने के लिये अभिशप्त होगा । “अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में एक नर्क है ।”

“आंबेडकर गांधी के लिये सबसे खौफनाक विरोधी था । आंबेडकर ने गांधी को न केवल राजनीतिक या बौद्धिक चुनौती दी, बल्कि नैतिक चुनौती भी दी ।”

“इस संभावना से कि भारत के अछूतों पर भारत के मुख्य रूप से हिन्दू लोगों के दयावान हृदयों का ही शासन होगा, आंबेडकर का माथा भन्ना गया । उनको आने वाला डरावना भविष्य साफ नजर आ रहा था । आंबेडकर भविष्य के प्रति चिन्तित हो उठे, बेकरार होकर वे किसी तरह से संविधान सभा का सदस्य बनने का जुगाड़ बिठाने लगे ।”(पृ : 40)

“आंबेडकर का महान योगदान यह है कि एक ऐसे जटिल, बहुमुखी राजनीतिक संघर्ष में, जिसमें जरूरत से ज्यादा सम्प्रदायवाद था, अन्धकारवाद था, ठगी थी, वे प्रबुद्धता लेकर आए । (पृ : 42)

“आंबेडकर को अतीत के अन्याय का दर्द भरा अहसास था, लेकिन उससे दूर जाने की अपनी जल्दबाजी में, वे पश्चिमी आधुनिकता के विनाशकारी खतरों को पहचानने में नाकाम रहे ।” (पृ : 46)

“दुर्भाग्य से आदिवासी समुदाय को उदारवादी चश्मे से देखने से, आंबेडकर का लेखन, जो अन्यथा आज के सन्दर्भ में बहुत प्रासंगिक है, अचानक पौराणिक हो जाता है ।
“आदिवासियों के बारे में आंबेडकर की राय जानकारी और समझ की कमी दर्शाती है ।” (पृ : 117)

“जाति का विनाश में एक जगह आंबेडकर यूजनिक्स की भाषा का सहारा लेते हैं, वह विषय जो यूरोपियन फासिस्ट लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय था : “शारीरिक रूप से बोला जाए तो हिन्दू C3 लोग हैं । वे एक बौनी और ठिगनी नस्ल है, कद-काठी के अवरुद्ध विकास वाले, और कमजोर लोग ।” (पृ : 118)

“हांलाँकि आंबेडकर बेहद प्रज्ञावान और बुद्धिमन्त थे, लेकिन उनका पास समयबोध नहीं था, शातिरपना भी नहीं था, धूर्तता नहीं थी और अनैतिक रास्तों पर चलना तो उनकी फतरत में था ही नहीं— वे सभी गुण जो एक 'अच्छे राजनीतिज्ञ की परम आवश्यकता होते हैं ।” (पृ : 133)

“दुर्भाग्य से उनकी दूसरी पार्टी शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 1946 के प्रांतीय विधायिकाओं के चुनावों में पराजित हो गई । पराजय के नतीजे में आंबेडकर ने अन्तरिम मंत्रालय की कार्यकारी परिषद् में, जो अगस्त 1946 में गठित हुई थी, अपना स्थान खो दिया । यह एक गंभीर झटका था क्योंकि आंबेडकर पूरी शिद्दत से चाहते थे कि अपने उस पद का इस्तेमाल करके वे कार्यकारी परिषद की उस समिति का हिस्सा बन जाएँ, जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करेगी । ...कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान समिति में नियुक्त कर दिया ।” (पृ : 136-137)

“गांधी इस बात को बखूबी समझते थे, आखिर वे एक राजनेता थे, जो आंबेडकर नहीं थे ।” (पृ :128)

इस प्रकार गंभीरता से देखें, तो पायेंगे कि मामला वही, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, लेखन के परिप्रेक्ष्य की समस्या का है । डा. शर्मा के लेखन के सामने गांधी की तरह ही, परिप्रेक्ष्य था भारत का स्वतंत्रता आंदोलन । और अरुंधति राय के बेनकाब-लेखन के लिये है, बाकी हर चीज से अलग-थलग — दलित समस्या । अर्थात आंबेडकर का अपना खास विषय । एक ऐसा विषय जो नि:संदेह आजादी की तमाम अन्य प्रतिश्रुतियों की तरह ही पूरी न होने वाली एक प्रमुख प्रतिश्रुति है, आजादी के 72 साल बाद भी कुछ हद तक अनसुलझा विषय और आज की दलित राजनीति का सर्वप्रमुख जीवंत विषय । यह कुछ वैसे ही जैसे आज सांप्रदायिकता भी राजनीति का एक प्रमुख विषय है ।

अरुंधति ने अपनी किताब में एक 'जर्मन यहूदी' की किताब से चिपके 'किताबी' कम्युनिस्टों के साथ आंबेडकर के रिश्तों के बारे में भी अपने क्रांतिकारी तेवर में कई बातें लिखी है । इसमें 'ब्राह्मण' ईएमएस नम्बूदरीपाद की किताब 'भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास' से आंबेडकर और वामपंथियों के बीच टकराव पर एक बहुत वेधक टिप्पणी को उन्होंने उद्धृत किया है — “ वह स्वतंत्रता आंदोलन को एक बड़ा झटका था । इसने लोगों का ध्यान पूर्ण स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मकसद से भटकाकर हरिजन (अछूत) के उत्थान के महत्वहीन मुद्दे की ओर कर दिया ।”(पृ : 114)

कुल मिला कर प्रश्न वही है — क्या महत्वपूर्ण था और क्या उतना महत्वपूर्ण नहीं, अर्थात अनुषंगी था !

अंत में हम यहां, इसी परिप्रेक्ष्य के सवाल पर हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के अनन्य इतिहासकार बिपन चंद्रा को उद्धृत करके अपनी बात को खत्म करेंगे । वे लिखते हैं —

“भारत का राष्ट्रीय आंदोलन नि:संदेह आधुनिक समाज के लिये सबसे बड़े जन-आंदोलन में से एक था । ...
“वस्तुत: सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से ही एक अर्द्ध-जनतांत्रिक अथवा जनतांत्रिक प्रकार की राजनीतिक संरचना को सफलता के साथ हटाने या बदलने का वास्तविक ऐतिहासिक उदाहरण मिलता है । सिर्फ यही वह आंदोलन है जिसमें मोटे तौर पर वार ऑफ पोजीशन के ग्राम्शी के सिद्धांत पर सफलता के साथ अमल किया गया था ; जहां क्रांति के एक ऐतिहासिक क्षण में राजसत्ता पर कब्जा नहीं किया गया था, बल्कि एक नैतिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर दीर्घकालीन लोकप्रिय संघर्ष के जरिये किया गया था ; जिसमें प्रति-प्रभुत्व की एक-एक ईंट को एक के बाद एक चरण में रखा गया था ; जिसमें 'निष्क्रियता' के प्रत्येक चरण के बाद ही संघर्ष का चरण आता था ।” ( India’s Struggle for Independence, Introduction, page – 13)

सचमुच, जो भी किसी पूरी श्रृंखला की सिर्फ एक कड़ी को लेकर ही बाजार में उतर आने को आतुर रहते हैं, उनके लिये भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की समग्रता के प्रतीक पुरुष गांधी इसी प्रकार नफरत के पात्र, अबूझ ही रहेंगे । अरुंधति के इस लेखन के तेवर को देखते हुए अंत में हम यही कहेंगे कि विमर्शमूलक विखंडन और कोरी उकसावेबाजी में कभी-कभी विभाजन की रेखा बहुत महीन हुआ करती है ।