सोमवार, 28 मई 2018

2019 और आरएसएस की 'सांस्कृतिक' तैयारियां



आज के 'टेलिग्राफ' में एक रिपोर्ट है 2019 के चुनाव में आरएसएस की व्यापक तैयारियों के बारे में — विपक्ष की एकता का डर संघ और भाजपा को करीब ला रहा है (Fear of opposition unity binds Sangh and BJP)।(https://epaper.telegraphindia.com/imageview_190924_174033198_4_71_29-05-2018_4_i_1_sf.html) यह रिपोर्ट मूलत: 2019 में आरएसएस की तैयारियों के बारे में है । आरएसएस के प्रचार का यह एक खास और पुराना तरीका है कि वह लोगों के सामने अपनी शक्ति और तैयारियों के ऐसे अपराजेय विराट-रूप की माया रचता रहता है ताकि आम लोगों का एक हिस्सा तो उस रूप की दानवता से ही पस्त-हिम्मत हो कर राजनीतिक प्रक्रिया से अलग हो जाए ।

आज ही एक पत्रकार मित्र ने 'व्हाट्स अप' पर एक वीडियो साझा किया जिसमें ऐंकर जानवरों की तरह चीख-चीख कर कह रहा है कि किस प्रकार 2019 के चुनाव में पाकिस्तान ने कांग्रेस की मदद करने का फैसला किया है, क्योंकि इन चिंघाड़ने वाले ऐंकर महोदय के अनुसार यदि 2019 में फिर से मोदी जीत जाते हैं तो “पाकिस्तान के लिये करने को कुछ नहीं रह जायेगा । वह खत्म हो जायेगा ।”

मित्र ने हमें लिखा कि 2019 में मोदी-आरएसएस यही चाल चलने वाले हैं । पाकिस्तान का हौवा खड़ा करने की चाल !

मित्र महोदय को हमने लिखा कि पाकिस्तान तो एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा किये बिना किसी भी संघ वाले के प्रचार की गाड़ी ही स्टार्ट नहीं होती । उस पर किक मारने के बाद ही उनकी गाड़ी का गुर्राना शुरू होता है । इसलिये इसे लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है ।

हमने मित्र महोदय से प्रति-प्रश्न किया कि यह बताइयें कि क्या संघ 2019 में मोदी को किनारे रख कर चुनाव लड़ने की सोच रहा है ? नहीं, यह उनके लिये मुमकिन ही नहीं है । एक तानाशाह को तैयार करना संघ की विचारधारा का अभिन्न अंग है । मोदी कमजोर हो या मजबूत, उनमें अब वे अपने इष्ट तानाशाह की सूरत सिर्फ देखने नहीं लगे है, बल्कि देखने के लिये मजबूर भी हैं । अब मोदी के बोझ को अपने सर से उतारना उनके लिये नामुमकिन है । यह तभी संभव होगा जब मोदी के नेतृत्व में यह पूरा कुनबा बुरी तरह से पराजित होगा ।

हमने आगे लिखा कि अगर मोदी को केंद्र में ही रख कर आरएसएस को 2019 का चुनाव लड़ना है तो फिर पाकिस्तान की रट हो या हिंदू-मुसलमान का मसला, सच यह है कि ऐसा कुछ भी, जिसे 'विचारधारात्मक' कहा जा सकता है, काम नहीं आने वाला है । आम मतदाता किसी विचारधारा को नहीं पहचानता है । इसके अलावा, मोदी अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के कारण ही, चुनाव-प्रचार में जिस प्रकार का शोर और धमा-चौकड़ी मचायेंगे उससे पूरा चुनाव मोदी और उसकी सरकार पर ही केंद्रित हो जाने के लिये बाध्य होगा । और, लोगों को जैसे ही मोदी अपनी सारी मुद्राओं और दहाड़ों के साथ चारो ओर दौड़ते-भागते दिखाई देंगे, यह तय मानियें, मतदाताओं की आंखों के सामने उनकी नोटबंदी की घोषणा के वक्त की, फिर पचास दिन की मोहलत मांगने वाली उनकी मुद्राओं, जीएसटी के आधी रात के भुतहा जश्न की थोथी बातों से लेकर, जन-धन योजना की धोखा-धड़ी, किसानों के साथ फसल की कीमतों और कर्ज माफी के सवालों पर की जा रही लगातार दगाबाजी, महंगाई और पेट्रोल की कीमत आदि की तरह की तमाम बातों का इतिहास-परिहास बिल्कुल साक्षात रूप में नाचने लगेगा । आरएसएस वालों का तैयार किया जा रहा नाना प्रकार की चरम झूठों का पुलिंदा उसी प्रकार धरा का धरा रह जायेगा, जिस प्रकार गोरखपुर, फुलपुर में धरा रह गया । मोदी के खिलाफ विपक्ष की एकता की आंधी के सामने आरएसएस की 'तैयारियां' तिनकों से भी कमजोर साबित होगी ।

फिर भी, यह सब निर्भर करेगा, चुनावों के होने पर ! सत्ता के मामले में मोदी की बदहवासी को देखते हुए चुनाव के होने, न होने की आशंका को पूरी तरह से निराधार नहीं कहा जा सकता है । 

शनिवार, 26 मई 2018

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सत्य

—अरुण माहेश्वरी

लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अथवा प्रेस का ही अपना  खुद का सत्य क्या होता है ? क्या हमारे लोकतंत्र की दुनिया की सचाई के बाहर भी इनके जगत का अपना-अपना कोई स्वतंत्र, स्वाधीन सत्य भी होता है ?

जब भी हम किसी चीज की विशिष्टता की चर्चा करते हैं, वह विशिष्टता आखिरकार इस दुनिया के बाहर की कोई चीज नहीं होती । वह इस दुनिया के तत्वों से ही निर्मित होती है । वह अन्य चीजों से कितनी ही अलग या पृथक क्यों न हो, उनमें एक प्रकार की सार्वलौकिकता का तत्व हमेशा मौजूद रहता है । उनकी विशिष्टता या पृथकता कभी भी सिर्फ अपने बल पर कायम नहीं रह सकती है । इसीलिये कोई भी अपवाद-स्वरूप विशिष्टता उतनी भी स्वयंभू नहीं है कि उसे बाकी दुनिया से अलग करके देखा-समझा जा सके ।

यही वजह है कि जब कोई समग्र रूप से हमारे लोकतंत्र के सार्वलौकिक सत्य से काट कर उसके किसी भी अंग के अपने जगत के सत्य की पवित्रता पर ज्यादा बल देता है तो वह कोरी प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है । इनकी अपवाद-स्वरूपता में भी हमेशा लोकतंत्र के सत्य की सार्वलौकिकता ही किसी न किसी रूप में व्यक्त होती है । इसीलिये जब एक ओर तो लोकतंत्र मात्र का ही दम घोट देने की राजनीति चल रही हो और दूसरी ओर उसके संघटक तत्वों के अपने जगत की स्वतंत्रता और पवित्रता का जाप किया जाता हो — यह मिथ्याचार नहीं तो और क्या है !

न्यायपालिका हो या इस दुनिया के और क्षेत्रों के अपने जगत का सत्य, वह उसी हद तक सनातन सत्य होता है जिस हद तक वह उसके बाहर के अन्य क्षेत्रों में भी प्रगट होता है । अर्थात जो तथ्य एक जगत को विशिष्ट या अपवाद-स्वरूप बनाता है, उसे बाकी दुनिया के तथ्यों की श्रृंखला में ही पहचाना और समझा जा सकता है। इनमें अदृश्य, परम-ब्रह्मनुमा कुछ भी नहीं होता, सब इस व्यापक जगत के के तत्वों को लिये होता है ।

यह बात दीगर है कि हर क्षेत्र के अपने-अपने जगत के सत्य अपनी अलग-अलग भाषा में सामने आते हैं । साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र के अपने भाषाई रूप होते हैं तो कानून के क्षेत्र के अपने, राजनीति के क्षेत्र के अपने । अर्थात, अपने को अन्यों से अलगाने के लिये वे अपनी खास भाषा पर निर्भर करते हैं, जिसका उन जगत में प्रयोग किया जाता है और निरंतर विकास और संवर्द्धन भी किया जाता है । लेकिन जिसे जीवन का सत्य कहते हैं — यथार्थ — वह तो सर्व-भाषिक होता है । वह एक प्रकार का जरिया है जिससे आप प्रत्येक विशिष्ट माने जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वही सबको आपस में जोड़ता है । अन्यथा सच यह है कि किसी भी क्षेत्र की अपनी खुद की खास भौतिक लाक्षणिकताएँ बाकी दुनिया के लिये किसी काम की नहीं होती है । उनसे उस क्षेत्र की अपनी तार्किकता, उनके होने की संगति भी प्रमाणित नहीं होती । इन लाक्षणिकताओं से सिर्फ यह जाना जा सकता है कि बाहर की दुनिया के सत्य ने उस जगत विशेष को किस हद तक प्रभावित किया है । इनसे उस जगत की अपनी क्रियाशीलता या कार्य-पद्धति का अनुमान भर मिल सकता है । इस दुनिया में जिस काम को पूरा करने के लिये उन्हें नियोजित किया गया है, उसे हम इन लक्षणों से देख सकते हैं । लेकिन इनका कुछ भी अपना नैसर्गिक या प्रदत्त नहीं होता । इनका सत्य अपने संघटक तत्वों को एक क्रम में, अपनी क्रियाशीलता की एक श्रृंखला में जाहिर करता है । न्यायपालिका के आचरणों की श्रृंखला दुनिया में उसकी भूमिका को जाहिर करती है । इस प्रकार एक लोकतांत्रिक दुनिया के अखिल सत्य के एक अखंड राग में ये सारी संस्थाएं महज बीच-बीच के खास पड़ावों की तरह है, अपनी एक खास रंगत के बावजूद उसी राग का अखंड हिस्सा । इन्हीं तमाम कारणों से हमने साहित्य के अपने स्वायत्त नगर का झंडा उठा कर उसकी स्वयं-संपूर्णता के तत्व का विरोध किया है ।

इकबाल का शेर है — 'मौज है दरिया में / वरु ने दरिया कुछ भी नहीं ।'

सत्य को असीम और खास प्रजातिगत, दोनों माना जाता है । उसकी खास क्षेत्र की विशिष्टता उसके अपवाद-स्वरूप पहलू को औचित्य प्रदान करती है, और बहुधा उस क्षेत्र के कारोबारियों के विपरीत एक नई समकालीन आस्था और विश्वास की जमीन तैयार करने का काम भी करती है । लेकिन हर हाल में वह इस व्यापक दुनिया के सच को ही प्रतिबिंबित करती है ।

यही वजह है कि मार्क्स अपने दर्शनशास्त्रीय विश्लेषण में समाज में संस्कृति, न्याय, कानून और विचार के तत्वों के ऊपरी ढांचे को उसके आर्थिक आधार से द्वंद्वात्मक रूप में जुड़ा हुआ देखने पर भी अंतिम तौर पर आर्थिक आधार को ही समाज-व्यवस्था का निर्णायक तत्व कहने में जरा सा भी संकोच नहीं करते । इसे दुनिया के इतिहास ने बार-बार प्रमाणित किया है ।

हमारे यहां न्यायपालिका के सच को हमारी राजनीति के सच से काट कर दिखाने की कोशिश को इसीलिये हम मूलतः अपने लोकतंत्र के सत्य को झुठलाने की कोशिश ही कहेंगे । आरएसएस की तरह की एक जन्मजात वर्तमान संविधान-विरोधी शक्ति के शासन में सरकार के द्वारा संविधान की रक्षा की बातें मिथ्याचार के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती हैं ! 

 http://rashtriyasahara.com/mpaper.aspx

बुधवार, 23 मई 2018

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (34)

-अरुण माहेश्वरी
लुडविग फायरबाख
फायरबाख से मुक्त स्वयं-प्रकाशित मार्क्स का उदय
इसके पहले कि हम ब्रुनो बावर के साथ मार्क्स के संबंधों पर कुछ और विचार करे, यहां उचित होगा कि थोड़ा विस्तार से हम लुडविग फायरबाख के प्रभाव से मार्क्स की मुक्ति के विषय को पूरी तरह जान लें । हम पहले इसकी चर्चा में 1845 में फायरबाख के बारे में मार्क्स के सूत्रबद्ध दो पृष्ठों के निबंध को फायरबाख के आधिभौतिक भौतिकवाद से उनकी मुक्ति का घोषणापत्र कह चुके हैं । दरअसल, यह सिर्फ फायरबाख के भौतिकवाद से ही नहीं, तब तक के सभी भौतिकवादी सोच की एकांगिता से मार्क्स की मुक्ति की घोषणा का दस्तावेज है ।

इसमें मार्क्स शुरू में ही लिखते हैं कि “अब तक के सारे भौतिकवाद की — जिसमें फायरबाख का भौतिकवाद भी शामिल है — मुख्य त्रुटि यह है कि उनमें वस्तु, यथार्थ और ऐन्द्रियता के केवल वस्तु या मनन के रूप में ग्रहण किया जाता है, आदमी की आत्मनिष्ठता के बजाय उसकी ऐन्द्रिक गतिविधि, उसकी व्यवहारिक क्रिया के रूप में नही लिया जाता है । इसी का परिणाम है कि भौतिकवाद के बजाय इस क्रिया पक्ष का विकास भाववाद ने किया — यद्यपि वह भी, जाहिरा तौर पर, यथार्थ, ऐंद्रिक क्रियाओं से वास्तव में अपरिचित है ।...इसीलिये वह “क्रांतिकारी” और “व्यवहारिक-आलोचनात्मक” क्रियाशीलता का महत्व नहीं समझ पाते है ।”

इसके बाद ही मार्क्स कहते है कि “यह सवाल कि क्या वस्तुनिष्ठ सत्य को मानव चिंतन की उपज कहा जा सकता है, कोई सैद्धांतिक सवाल नहीं, एक व्यवहारिक सवाल है । मनुष्य को सत्य को — अर्थात्, यथार्थ और उसकी ताकत, व्यवहारिक स्तर पर सोच में आने वाले उसके पहलू को —  प्रमाणित करना पड़ता है । व्यवहार से पृथक रूप में यथार्थता या अयथार्थता संबंधी विवाद कोरा वितंडावादी प्रश्न है ।”

अभिनवगुप्त के शब्दों में — “तत्र अध्यवसायात्मकं बुद्धिनिष्ठमेव ज्ञानं प्रधानम्, तदेव च अभ्यस्यमानं पौरुषमपि अज्ञानं निहन्ति” ( अध्यवसायत्मक ज्ञान ही प्रधान होता है, जो अभ्यास में आकर मनुष्य के अज्ञान का अंत करता है ।)

इसके बाद ही मार्क्स का तीसरा बहुचर्चित कथन आता है — “ मनुष्य की परिस्थितियों में बदलाव और शिक्षा-दीक्षा के बारे में भौतिकवादी सिद्धांत इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्वयं शिक्षा की आवश्यकता होती है ।...परिस्थितियों में परिवर्तन और मानव क्रियाकलाप के संयोग को अथवा आत्म-परिवर्तनशीलता को केवल क्रांतिकारी व्यवहार के रूप में विचारा और सही ढंग से समझा जा सकता है ।”

मार्क्स इसमें आगे कहते है कि धर्म-विहीन चिंतन भी अन्तरविरोधों से मुक्त नहीं हैं । वह भी धार्मिक जगत का ही प्रतिरूप है ।

“फायरबाख धार्मिक आत्म-विच्छन्नता से, दुनिया के दो रूपों, धार्मिक और वास्तविक के तथ्य से शुरू करते हैं । उनकी कृतियों में धार्मिक दुनिया को उसके वास्तविक आधार में समाहित किया गया है ।

“लेकिन वास्तविक आधार खुद को खुद से अलग करके बादलों में एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में स्थापित कर लेता है, इसे वास्तविक आधार की दरारों और अन्तरविरोधों से ही समझा जा सकता है । इसीलिये वास्तव को भी इसके अन्तरविरोधों के साथ समझा जाना चाहिए और व्यवहार के जरिये इसे क्रांतिकारी रूप देना चाहिए । मसलन्, जब यह पता चल जाता है कि पवित्र परिवार का राज असली परिवार में ही निहित है तो असली परिवार को ही क्यों न सिद्धांत और व्यवहार, दोनों स्तर पर नष्ट कर दिया जाए ।”

यहीं पर मार्क्स मार्के की बात कहते हैं कि “अमूर्त चिंतन से असंतुष्ट फायरबाख मननशीलता चाहते है ; लेकिन वे ऐन्द्रिकता को व्यवहारिक, मानवीय ऐन्द्रिक गतिविधि के रूप में नहीं देखते ।”

मार्क्स आगे कहते हैं : “फायरबाख धार्मिक सार-तत्व को मानवीय सार-तत्व में विघटित कर देते हैं । लेकिन मानवीय सार-तत्व प्रत्येक व्यक्ति में अन्तरनिहित कपोल-कल्पना नहीं है ।

“अपने यथार्थ रूप में यह सामाजिक संबंधों की समष्टि है ।
“इस यथार्थ सार-तत्व की आलोचना न करने के कारण फायरबाख मजबूरन :
“ऐतिहासिक प्रक्रिया का अमूर्तन करते है और धार्मिक भावनाओं को स्वयं स्थित प्रकार की चीज बना देते हैं और मनुष्य को एक काल्पनिक —अलग-थलग — व्यक्ति मान लेते हैं ।
“इस प्रकार सार-तत्व को सिर्फ एक “प्रजाति” के रूप में, एक अंतर की मूक सामान्यता के रूप में समझा जा सकता है जो स्वाभाविक रूप से कई व्यक्तियों को एक करती है ।”
“इस प्रकार फायरबाख यह नहीं देख पाते हैं कि “धार्मिक भावना” खुद में एक सामाजिक उत्पाद है, और काल्पनिक व्यक्ति, जिसका वह विश्लेषण करता है, समाज के एक खास रूप का अंग है ।
“सामाजिक जीवन सारतः व्यवहारिक होता है । रहस्यवाद के सिद्धांत तक ले जाने वाले सारे रहस्य मानव व्यवहार में और उस व्यवहार की समझ में अपना उचित समाधान पाते हैं ।
“मननशील भौतिकवाद का शीर्ष बिंदु, अर्थात, वह भौतिकवाद जो ऐंद्रिकता को व्यवहारिक गतिविधि नहीं समझता, प्रत्येक व्यक्ति की निजी और नागरिक समाज की मननशीलता है ।
“पुराने भौतिकवाद की दृष्टि में नागरिक समाज है ; नये भौतिकवाद की दृष्टि में मानव समाज, अथवा सामाजिक मनुष्यता है ।”

इसके अंत में ही दर्शन के बारे में मार्क्स का सबसे लोकप्रिय कथन आता है — “दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से विश्व की सिर्फ व्याख्या की है ; प्रश्न इसे बदलने का है ।” 1

और इस प्रकार, मार्क्स ने अपने जीवन से फायरबाख को, उसके आधिभौतिक भौतिकवाद को, मनुष्य की ऐंद्रिकता को उसके व्यवहार से जोड़ कर, धार्मिक भावना को एक सामाजिक उत्पाद के रूप में समझ पाने की उनकी असमर्थता को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया । तब तक के भौतिकवाद से अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दिशा में मार्क्स का यह एक निर्णायक कदम था ।

व्यक्ति के आत्म-विकास की यही वह प्रक्रिया है जिसे अभिनवगुप्त कहते हैं — “तदेव च अभ्यस्यमानं पौरुषमपि अज्ञानं निहन्ति, विकल्पसंविदभ्यासस्य अविकल्पान्ततापर्यवसानात् ।” ( वह अभ्यास (व्यवहार) मनुष्य के अज्ञान को खत्म करता है, क्योंकि विभिन्न (विकल्प) विषयों के अभ्यास से ही एक निश्चित (अविकल्प) रास्ता बनता है ।)

कहना न होगा, गुरू की भूमिका हमेशा आगम के निरूपण तक ही सीमित होती है !



1. Theses On Feuerbach

I
The chief defect of all hitherto existing materialism – that of Feuerbach included – is that the thing, reality, sensuousness, is conceived only in the form of the object or of contemplation, but not as sensuous human activity, practice, not subjectively. Hence, in contradistinction to materialism, the active side was developed abstractly by idealism – which, of course, does not know real, sensuous activity as such.

Feuerbach wants sensuous objects, really distinct from the thought objects, but he does not conceive human activity itself as objective activity. Hence, in The Essence of Christianity, he regards the theoretical attitude as the only genuinely human attitude, while practice is conceived and fixed only in its dirty-judaical manifestation. Hence he does not grasp the significance of “revolutionary”, of “practical-critical”, activity.


II

The question whether objective truth can be attributed to human thinking is not a question of theory but is a practical question. Man must prove the truth — i.e. the reality and power, the this-sidedness of his thinking in practice. The dispute over the reality or non-reality of thinking that is isolated from practice is a purely scholastic question.

III

The materialist doctrine concerning the changing of circumstances and upbringing forgets that circumstances are changed by men and that it is essential to educate the educator himself. This doctrine must, therefore, divide society into two parts, one of which is superior to society.

The coincidence of the changing of circumstances and of human activity or self-changing can be conceived and rationally understood only as revolutionary practice.


IV

Feuerbach starts out from the fact of religious self-alienation, of the duplication of the world into a religious world and a secular one. His work consists in resolving the religious world into its secular basis.

But that the secular basis detaches itself from itself and establishes itself as an independent realm in the clouds can only be explained by the cleavages and self-contradictions within this secular basis. The latter must, therefore, in itself be both understood in its contradiction and revolutionized in practice. Thus, for instance, after the earthly family is discovered to be the secret of the holy family, the former must then itself be destroyed in theory and in practice.


V

Feuerbach, not satisfied with abstract thinking, wants contemplation; but he does not conceive sensuousness as practical, human-sensuous activity.

VI

Feuerbach resolves the religious essence into the human essence. But the human essence is no abstraction inherent in each single individual.

In its reality it is the ensemble of the social relations.


Feuerbach, who does not enter upon a criticism of this real essence, is consequently compelled:


To abstract from the historical process and to fix the religious sentiment as something by itself and to presuppose an abstract – isolated – human individual.

Essence, therefore, can be comprehended only as “genus”, as an internal, dumb generality which naturally unites the many individuals.

VII

Feuerbach, consequently, does not see that the “religious sentiment” is itself a social product, and that the abstract individual whom he analyses belongs to a particular form of society.

VIII

All social life is essentially practical. All mysteries which lead theory to mysticism find their rational solution in human practice and in the comprehension of this practice.

IX

The highest point reached by contemplative materialism, that is, materialism which does not comprehend sensuousness as practical activity, is contemplation of single individuals and of civil society.

X

The standpoint of the old materialism is civil society; the standpoint of the new is human society, or social humanity.

XI

The philosophers have only interpreted the world, in various ways; the point is to change it.



शनिवार, 19 मई 2018

फासीवाद क्या है : एक विचार


-अरुण माहेश्वरी

फेसबुक पर एक मित्र शशिकांत ने राजनीति विज्ञानी डा. लारेंस ब्रिट की एक टिप्पणी लगाई थी जिसमें उन्होंने फासीवाद के चौदह लक्षणों को गिनाते हुए बताया था कि फासीवाद क्या है । उनके अनुसार ये लक्षण है -
1.शक्तिशाली और सतत जारी राष्ट्रवाद ;2. मानव अधिकारों और उनकी  स्वीकृति के प्रति नफ़रत ;3. एकजुटता की वजह के रूप में शत्रुओं/बलि के बकरों की शिनाख्त ;4. सेना की सर्वोच्चता ;5. अनियंत्रित लैंगिक भेदभाव ;6. नियंत्रित जन संचार;7. राष्ट्रीय सुरक्षा की सनक;8. धर्म और राजनीति का घाल-मेल;9. कॉरपोरेट सत्ता का सरंक्षण; 10. श्रमिकों की शक्ति का दमन;11. बुद्धिजीवियों और कलाओं का तिरस्कार;12. अपराध और सजा के प्रति जुनून;13. अनियंत्रित याराना पूंजीवाद और भ्रष्टाचार;14. छलपूर्ण चुनाव ।
इसमें जिस एक प्रमुख लक्षण की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया, वह है एक व्यक्ति और दल की तानाशाही । इसके अलावा उन्होंने फासीवाद को तात्विक रूप में न पूंजीवादी बताया और न कुछ और । ‘सतत जारी राष्ट्रवाद’ की ऐतिहासिक निरंतरता को यदि आप पूंजीवाद से जोड़ना चाहे तो भले जोड़ ले, लेकिन आज तक की दुनिया ने इतना तो बता ही दिया है कि राष्ट्रवाद किसी खास शासन व्यवस्था से ही बंधा नहीं है । (देखें - ‘अपने-अपने राष्ट्रवाद’ - https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_12.html?m=1 ) पूंजीवाद की विश्वात्मकता में तो राष्ट्रवाद तो एक निहायत प्रारंभिक और अंतरिम विचारधारा है । पूंजीवादी माल की प्रकृति में ही राष्ट्रों की सीमाओं को तोड़ने की प्रवृत्ति शामिल है ।

पूंजीवाद को अगर हम सिर्फ अतिरिक्त मूल्य पैदा करने वाली उत्पादन प्रणाली मानेंगे तो अलग बात है । यह अतिरिक्त मूल्य के सामाजिक उत्पादन को पूंजीपति के द्वारा हड़प लेने की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है । कहा जा सकता है कि इसी अतिरिक्त मूल्य को राज्य के नियंत्रण में ला कर एक समतावादी समाज के निर्माण में लगाना समाजवाद है । इन सबके विपरीत, राजशाही जनता के धन पर राजा और दरबार का अधिकार मानती रही है, समाज में असमानता को स्थायी बनाती है, राजा ईश्वर का स्थान ले लेता है ।

ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवाद सामंतवाद के खिलाफ व्यक्ति स्वातंत्र्य के झंडे के साथ आया । जैसा कि हमने पहले ही कहा है, इसकी अपनी विश्वात्मकता की खूबी रही कि इसमें एक दौर राष्ट्रवाद का दौर रहा, लेकिन मूलत: यह एक विश्व-व्यवस्था है । इसे ही टेढ़े-मेढ़े रास्ते से इतिहास का आगे बढ़ना कहते हैं । पूंजीवाद के जो असमाधेय अन्तरविरोध है उनमें सबसे प्रमुख यही है कि उत्पादन का तो सामाजीकरण होता है, लेकिन उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत बनी रहती है । इसीलिये पूंजी की स्वतंत्रता को पूंजीवाद में अनिवार्य तौर पर सबसे पवित्र और अनुलंघनीय माना जाता हैं ।

गौर करने की बात यह है कि पूंजीवाद के इसी बुनियादी अन्तरविरोध से उसमें समय-समय पर नाना प्रकार के संकट पैदा होते हैं । मार्क्स ने समाजवाद-साम्यवाद की स्थापना के जरिये इसी अन्तरविरोध के समाधान का रास्ता बताया था । लेकिन यह भी इतिहास की ही विडंबना है कि संकट में फंसे पूंजीवाद की स्थिति का लाभ उठा कर प्राचीन साम्राज्यों वाली राजशाही की शासन प्रणाली, फासीवाद के रूप में उठ खड़ी होती है । हिटलर तो अपने शासन को सीधे रोमन साम्राज्य, जिसे नेपोलियन ने 1805 में ध्वस्त कर दिया था, के बाद फ्रांस को पराजित करके 1871 में चांसलर बिस्मार्क के द्वारा स्थापित जर्मन साम्राज्य की कड़ी में तीसरा साम्राज्य (Third Reich) कहता था । जापान का तोजो तो 1868 से चले आ रहे जापानी साम्राज्य की सेना का सेनापति और प्रधानमंत्री भी था । (फासीवाद के साथ प्राचीन साम्राज्यों के मिथ के संबंध के लिये देखें – आंद्रिया गियार्दिना का यह लेख – The fascist myth of romanity ;  http://www.scielo.br/pdf/ea/v22n62/en_a05v2262.pdf)
इसके लिये पूंजी की स्वतंत्रता पवित्र नहीं होती है । हिटलर ने उन सभी उद्योगपतियों को भी यातना शिविरों की सैर करवाई या देश छोड़ने के लिये मजबूर किया, जिन्होंने हिटलर के उदय में खुल कर सहयोग किया था । नाजियों के पतन के बाद न्युरेमबर्ग में चले मुकदमे के दस्तावेजों में उन सबकी गवाहियां मौजूद है । हिटलर के काल की जर्मन अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह से कमांड अर्थ-व्यवस्था थी । वह पूंजीवादी नहीं थी । (देखें - ‘हिटलर और व्यवसायी वर्ग’ , - https://chaturdik.blogspot.in/2014/03/blog-post_6.html?m=1) हमारे अनुसार फासीवाद संकटग्रस्त पूंजीवाद का राजशाही किस्म का, तानाशाही निदान है ।

इसके अलावा खुद पूंजीवाद के अंदर भी जन-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पनाओं से आम जनता पर पूंजीवाद के संकटों के बोझ को कम करने के उपाय किये जाते हैं । इससे यह भ्रम पैदा होता है कि मानो पूंजीवाद भी पूंजी की स्वतंत्रता का हनन करता है । लेकिन यह उसके अस्तित्वीय संकट की एक अभिव्यक्ति भर है, उसकी तात्विक सचाई नहीं ।

मार्क्स के बारे में कहते हैं कि उन्होंने पूंजीवाद के अन्तरविरोधों से साम्यवाद के उदय को तो देखा था, लेकिन फासीवाद को देखने में विफल रहे थे । (देखें - ‘इकोनोमिस्ट’ में मार्क्स के जन्म के 200 साल पर लिखे गये लेख -  मार्क्स पर पुनर्विचार - दूसरी बार : प्रहसन   The Economist | Second time, farce)  । हम पूछना चाहेंगे, मार्क्स की प्रसिद्ध कृति ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रुमेर’ क्या है ? 1848-1851 के फ्रांस की राजनीतिक घटनाओं का यह पूरा आख्यान पूंजीवादी जनतंत्र के संकट के समय में नये काल में बादशाही की वापसी का आख्यान ही है । मार्क्स इसे पूंजीवाद से इसलिये तत्वत: पूरी तरह अलग करके नहीं देखते हैं क्योंकि पूंजीवाद से उनका तात्पर्य उसकी प्राथमिक इकाई, पण्य से पैदा होने वाले विस्तारवान सामाजिक संबंधों के संजाल का ब्रह्मांड था और वे यह सही मानते थे कि मनुष्यता एक बार उत्पादन के साधनों के जिन स्तरों को विकसित कर लेती है, उन्हें कभी छोड़ती नहीं है । इसीलिये वे इसमें ‘पूंजीवादी बादशाहियत’ की बात करते हैं, जिसमें कोई भी फासीवाद की सारी लाक्षणिकताएं देख सकता है और वह पूंजीवादी जनतंत्र से अलग भी बताया गया है । इसमें जहां तक पूंजीवाद का सवाल है, यह उत्पादन के आधुनिक साधनों और प्रबंधन के सामान्य परिप्रेक्ष्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है । पूंजीवाद के उदय के साथ जुड़े हुए जनतंत्र के राजनीतिक मान-मूल्य नहीं । और इस मामले में समाजवाद भी अपने को उस सामान्य परिप्रेक्ष्य से अलग नहीं कर सकता है । वह एक प्रकार से मनुष्यता  के इतिहास की ही थाती है । मार्क्स की ‘अठारहवीं ब्रुमेर’ में भी जहां सर्वहारा की समाजवादी शक्तियों का जिक्र आता है, वह भी पूंजीवाद के बाहर के परिप्रेक्ष्य की उपज नहीं है ।


दुनिया में फासीवाद के उदय की परिस्थितियों, उसके तमाम लक्षणों पर थोड़ी सी गहराई से सोचने पर ही इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि फासीवाद उत्पादन के आधुनिक साधनों और प्रणाली के युग में प्राचीन राजशाही शासन व्यवस्था और उससे जुड़े सामंती मूल्यों का बलात् प्रत्यावर्त्तन है । हर फासिस्ट शासन प्राचीन साम्राज्यों की तरह के ‘गौरवशाली’ राष्ट्र के झंडे के साथ आता है और राजा के रूप में तानाशाह की स्थिति ईश्वर की तरह की मानी जाती है । सारी सत्ता को एक व्यक्ति में न्यस्त कर दिया जाता है । आरएसएस के यहां यह बाकायदा संयुक्त हिंदू परिवार का कर्त्ता है । आरएसएस के इतिहास को देखें तो पायेंगे कि उन्होंने मुसोलिनी के रोमन साम्राज्य की तर्ज पर ही भारत में पेशवाओं की पादशाही की स्थापना के लक्ष्य को अपने जन्मकाल से अपना उद्देश्य बनाया था । सत्ता का अर्थ है जनता को काबू में रखना - राजशाही का यही मंत्र आरएसएस का मूल मंत्र है, हर फासिस्ट शक्ति का मूल मंत्र है । मोदी के पास जितनी ज्यादा सत्ता होगी, हर संघी उतना ही खुश और उतना ही बड़ा भक्त होगा । यह पूंजीवाद कत्तई नहीं है, जिसमें कम से कम संपत्ति की स्वतंत्रता को अनुलंघनीय और पवित्र माना जाता है । फासिस्टों के लिये किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं होता है । चूंकि यह स्वातंत्र्य की मानव इतिहास की मूल गति के विरुद्ध है, इसलिये इसमें स्वाभाविकता नामकी कोई चीज नहीं है । यह बलात् तत्वों से निर्मित परिघटना है । यह पूंजीवाद का स्वाभाविक विस्तार नहीं है । उसका स्वाभाविक विस्तार तो समाजवाद है । स्वाभाविक रूपांतरण ।

शुक्रवार, 11 मई 2018

'मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान है'

(‘हस्तक्षेप’ में इसका शीर्षक है - ‘अग्निपुंज उनके विचार’ )

—अरुण माहेश्वरी

(आज के ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ‘हस्तक्षेप’ का चार पृष्ठीय अंक कार्ल मार्क्स के जन्म के दो सौ साल की पूर्ति के अवसर पर मार्क्स पर केंद्रित अंक है । इस अंक की सामग्री को देखते हुए इसे आज के समय के संदर्भ में मार्क्स पर केंद्रित एक काफी महत्वपूर्ण और संग्रहणीय अंक कहा जा सकता है । इसमें जिन लोगों के लेखों को लिया गया है, उनके नाम है - डा. अमर्त्य सेन, प्रभात पटनायक, प्रकाश करात, रामचंद्र गुहा, इरफान हबीब, डी पी त्रिपाठी और अजय तिवारी । इनके साथ ही हमारा भी एक लेख शामिल है । इनके अलावा इसी मौके पर ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका में प्रकाशित उस लेख का हिंदी अनुवाद भी इसमें प्रकाशित किया गया है जो इधर काफी चर्चित हुआ है । ‘इकोनोमिस्ट’ के उस लेख पर हम अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ में पहले ही चर्चा कर चुके हैं ।
यहां हम अपने लेख को और इस पूरे अंक के लिंक को मित्रों से साझा कर रहे हैं )




लेनिन ने मार्क्स के बारे में अपने प्रसिद्ध निबंध 'मार्क्सवाद के तीन स्रोत तथा तीन संघटक तत्व' (1913) में लिखा था कि “मार्क्स की प्रतिभा इस बात में निहित है कि उन्होंने उन प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध किये, जिन्हें मानवजाति के प्रमुखतम चिंतक पहले ही उठा चुके थे ।” और इसी क्रम में उन्होंने लगभग धर्मशास्त्र की भाषा का प्रयोग करते हुए लिखा कि “मार्क्स की शिक्षा सर्वशक्तिमान है, क्योंकि वह सत्य है ।”

अभी लेनिन के इस कथन के 105 साल बाद मार्क्स के जन्म के दो सौ साल पूर्ति के समारोह में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी लेनिन की इसी बात को दोहराया कि 'मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है' ।

विश्व पूंजीवाद की सबसे प्रमुख पत्रिका 'इकोनोमिस्ट' ने इस मौके पर प्रसारित अपने एक लेख 'मार्क्स पर पुनर्विचार : दूसरी बार, प्रहसन' में मार्क्स की विफलताओं का आख्यान लिखने के बावजूद उसे डावोस का, जहां हर साल दुनिया के पूंजीपतियों और अर्थशास्त्रियों का जमावड़ा हुआ करता है, मसीहा बताया है । उदार जनतंत्रवादियों को 'इकोनोमिस्ट' ने चेतावनी दी है कि मार्क्स ने पूंजीवाद के जिन दोषों को बताया था उन्हें समझ कर तुम सुधरो, अन्यथा मार्क्स अपने विचारों के साथ, वो कितने ही फालतू और खतरनाक क्यों न हो, तुम्हें अपदस्थ करने के लिये हमेशा मौजूद है । अर्थात 'इकोनोमिस्ट' ने भी मार्क्स की तमाम विफलताओं का ब्यौरा देने के बावजूद प्रकारांतर से उनकी इस जगत की परिघटना में सार्वलौकिक उपस्थिति को एक सत्य माना है ।

अल्लामा इकबाल की बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध की प्रसिद्ध शायरी है - ‘इबलीस की मजलिस-ए-शुरा’ ( शैतान के परामर्श-मंडल की बैठक)। इसमें शैतान को उसका एक सलाहकार (तीसरा मुशीर) प्रसंगवश कहता है -
‘‘रूह-ए-सुल्तानी राहे बाकी तो फिर क्या इज्राब
है मगर क्या उस यहूदी की शरारत का जवाब ?’’
(साम्राज्य का गौरव यदि बाकी रहा तो फिर  डर किस बात का, लेकिन उस यहूदी की शरारत का क्या जवाब है?)
उस यहूदी का आगे और हुलिया बताता है कि -
‘‘वो कलीम बे-तजल्ली, वो मसीह बे-सलीब
नीस्त पैगंबर व लेकिन दर बगल दारद किताब’’
(वह प्रकाशहीन आप्त कथन, वह बिना सलीब का मसीहा, नहीं है पैगंबर वह पर उसकी बगल में उसकी किताब है)

इकबाल की शैतानों की मजलिस में जिस खुदा के बिना नूर के ही कलमा कहने वाले, बिना सलीब के मसीहा और पैगंबर न होने पर भी बगल में एक किताब दबाए यहूदी पर चिंता जाहिर की जा रही थी, वह कोई और नहीं कार्ल मार्क्स ही था। वही मार्क्स, जिसकी प्रेरणा से  कभी इकबाल ने ही लिखा था -
‘‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो’’ ।

इसीलिये जब आज कोई मार्क्स की विफलताओं का जिक्र करता है कि वे फलाना बात को नहीं देख पाएं, फलाना चीज को नहीं समझ पाएं, उनके विचारों के आधार पर तैयार हुई समाजवादी सरकारें पूरी तरह से बेकार साबित हुई, यहां तक कि उनके अनुयायियों के राज्यों ने ही गैर-समानतापूर्ण समाज के विकास का, पूंजीवाद का रास्ता पकड़ लिया आदि, आदि तो इस पर सबसे पहला सवाल यही उठाया जाना चाहिए कि किसी भी विचार की सफलता या विफलता से आपका तात्पर्य क्या है ? संसदीय जनतंत्र की तमाम विफलताओं के बावजूद उसी रास्ते पर सदियों तक ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन कम्युनिस्ट विचारों के समाजवादी प्रकल्पों की विफलता का मतलब है कि अब उन विचारों पर अमल की कोई कल्पना करना भी अपराध है ! यह एक प्रकार की रूढ़ि नहीं तो और क्या है ? जो चल रहा है, उससे इतर सोचना सबसे बड़ा गुनाह है ! अर्थात अच्छाई का अपना कोई स्वायत्त सत्य नहीं होता, वह महज किसी बुराई के खिलाफ एक लड़ाई होती है ! इसीलिये रूढ़िवाद मार्क्सवाद को खारिज करके विचारों के क्षितिज के ही बाहर कर देने की जिद में हैं, न कि मार्क्सवाद के निरंतर सामाजिक प्रयोगों की निष्ठा में ।

कौन नहीं जानता कि गणित के न जाने कितने प्रमेय बिना किसी सटीक सिद्धांत (उपपत्ति) पर पहुंचे ही सदियों तक गणितज्ञों को प्रेरित करते रहते हैं और साल-दर-साल के निरंतर प्रयत्नों के बाद ही उनकी कोई त्रुटिहीन उपपत्ति मिल पाती है । लेकिन इसके चलते कभी भी उन प्रमेयों को बिना प्रयत्नों के त्याग नहीं दिया जाता है । उसी प्रकार राजनीति और मानव के समाज-विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव मुक्ति के किसी भी प्रमेय को त्याग देने में कोई बहादुरी नहीं है । इसके विपरीत इन प्रयत्नों में विफलताओं की शिक्षाओं और उनके तात्पर्यों की प्रक्रिया में ही मानव प्रगति के प्राण बसते हैं । कम्युनिस्ट विचारक एलेन बाद्यू ने अपनी पुस्तक 'कम्युनिस्ट परिकल्पना' में सही कहा है कि “यदि किसी भी परिकल्पना को त्याग नहीं दिया गया है तो उसकी विफलताएं ही उस परिकल्पना के सत्य का इतिहास कहलाती है ।”

कम्युनिस्ट परिकल्पना के बारे में बाद्यू कहते हैं कि व्यवहारिक राजनीति में विचार के सत्य के साथ ही संगठनों और कामों का महत्व होता है । सिर्फ कुछ नामों, मार्क्स, लेनिन, माओ के जाप या क्रांति, समाजवाद, सर्वहारा आदि की बड़ी-बड़ी बातों और जनवादी केंद्रियता, सर्वहारा की तानाशाही की तरह के सिद्धांतों के बखान से कुछ हासिल नहीं होता है । उल्टे इन सबके अतिशय प्रयोग से ये राजनीति में और भी खोखले और महत्वहीन होते जाते हैं । इनमें से अधिकांश चीजें तो कोरे प्रचार के लिये, अपनी हवा बांधने भर के लिये भी होती है । दैनंदिन वास्तविक राजनीति में इन खास प्रकार की बातों की कोई स्वीकृति नहीं है । इनसे सिर्फ इतना पता चलता है कि इनसे जुड़े सत्य का काम जारी है । अन्यथा व्यवहारिक राजनीति के लिये इनका कोई मायने नहीं है ।

इसीलिये मार्क्सवाद के व्यवहारिक प्रयोगों के बारे में माओ त्से तुंग की इस बात का सबसे अधिक महत्व है कि 'साम्राज्यवादियों और प्रतिक्रियावादियों का एक ही तर्क हैं कि जीवन में परेशानी पैदा करो, विफल हो जाओ और फिर परेशानी पैदा करो । लेकिन मुक्तिकामी जनता का तर्क है कि लड़ो, विफल हो, फिर विफल हो, फिर लड़ो, जब तक विजयी नहीं हो जाते । मुक्ति हासिल नहीं कर लेते ।'

समाजवाद की विफलताओं को मार्क्स और मार्क्सवाद की विफलताओं के रूप में देखने के बजाय मार्क्स के द्वारा शोषणविहीन समाज के निर्माण की जो दिशा दिखाई गई, उस दिशा में यात्रा के इतिहास के चरणों के रूप में उन्हें लिया जाना चाहिए । धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ही हम कह सकते है कि विमर्श की दृढ़ता ही पूजा है । परमेश्वराभेदप्रतिपत्तिदाढर्यसिद्धये पूजाक्रिया उदाहरणीकृता । कम्युनिस्ट राजनीति में निवेदित प्राण क्रिया और सारे कारको को एक समतावादी समाज की दिशा में देखने के भाव में ही रहने का अभ्यस्त होता है । कह सकते हैं कि उसके लिये कर्त्ता, कर्म, करण, अपादान, सम्प्रदान और अधिकरण आदि के भेद भेद नहीं रहते, अभेद हो जाते हैं ।

अगर मनुष्यता के इतिहास को उसकी मुक्ति के इतिहास की दिशा देनी है तो मार्क्सवाद ही उस पथ का सर्वशक्तिमान, सार्वलौकिक सत्य है । यह किसी खास सामाजिक परिवर्तन का निश्चित  स्वरूप नहीं, उस परिवर्तन के नियम का सिद्धांत है । और इसीलिये, आज भी जब कहने के लिये दुनिया में पुराने प्रकार का एक भी समाजवादी राज्य नहीं रह गया है, मार्क्स की शिक्षाएं पूंजीवाद के तमाम झंडाबरदारों को हमेशा अपने पर लटक रही तलवार की तरह सताती रहती है ।

http://rashtriyasahara.com/mpaper.aspx?eddate=12-may-2018&edcode=17

मंगलवार, 8 मई 2018

क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश को सच को छिपाने की बीमारी है ?

फासीवाद के आगमन का क्लासिक संकेत
-अरुण माहेश्वरी


भारत के मुख्य न्यायाधीश पर संसद में महाभियोग के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में कल जो हुआ उससे फिर एक बार यही पता लगता है कि सुप्रीम कोर्ट में अभी जो चल रहा है, उसमें काफी कुछ अस्वच्छ और अस्वस्थ है । और, इन सबके मूल में दूसरा कोई नहीं, खुद मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा है ।

दीपक मिश्रा को सच को छिपाने और गलत कामों में शामिल होने की पुरानी आदत है, इसके कुछ प्रमाण सामने आने के बाद से ही प्रकट रूप में यह सिलसिला शुरू हुआ और इसके साथ ही उनके इस्तीफे की मांग भी उठने लगी । सीबीआई के पास ओड़ीसा हाईकोर्ट के एक जज की टेलिफोन पर बातचीत का पूरा लेखा उपलब्ध है, जो प्रेस में भी आ चुका है, जिसमें वह जज लखनऊ स्थित एक ट्रस्ट, प्रसाद एडुकेशन ट्रस्ट के मेडिकल कालेज के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च जज से आदेश निकलवा देने की सौदेबाजी कर रहा था । सीबीआई के लिये यह प्रमाण काफी था जिसके आधार पर वह दीपक मिश्रा पर एफआईआर करके जांच शुरू कर सकती थी । लेकिन मोदी सरकार ने न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर को हर प्रकार के संदेह से परे रखने के लिये इस मामले की जांच करने के बजाय सीबीआई के हाथ लगे इन सबूतों का प्रयोग दीपक मिश्रा को ही पिंजड़े का तोता बनाने और उनके जरिये अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने में शुरू कर दिया ।

उधर दीपक मिश्रा ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए सबसे पहले तो खुद पर लग रहे आरोपों की जांच को खुद ही रोक दिया और फिर मोदी कंपनी से जुड़े सभी संवेदनशील मामलों को मोदी की पसंद और मुट्ठी के जजों को देना शुरू कर दिया । सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों की खुली आपत्ति के बावजूद जज लोया की संदिग्ध हत्या के मामले को खुद के नेतृत्व की बेंच में लेकर उपलब्ध तथ्यों की बिना जांच किये इस मामले पर आगे और जांच की जरूरत से इंकार कर दिया और इस प्रकार अमित शाह को इस अपराध से मुक्त कर दिया ।

इसी बीच दीपक मिश्रा पर ओड़िशा में सरकार से एक जमीन का हथियाने के लिये झूठा शपथपत्र दाखिल करने का मामला भी सामने आया ।

इन तमाम तथ्यों, दीपक मिश्रा की गर्दन सरकार के हाथ में फंसे होने की सचाई और उनकी दूसरी मनमानियों को देखते हुए भारत में विपक्ष की सभी पार्टियों ने यह जरूरी समझा कि न्यायपालिका की स्वच्छता को बनाये रखने के लिये ही इस न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट से तत्काल हटाना होगा। इसी उद्देश्य से विपक्ष ने मिल कर राज्य सभा में उनके विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया । लेकिन, कानून और संसदीय मर्यादाओं के प्रति पूरी तरह से बेपरवाह मोदी और उनके कठपुतले, राज्य सभा के अध्यक्ष वैंकय्या नायडू ने विपक्ष के नोटिश पर बिना विचार किये एक दिन में उसे खारिज कर दिया ।

वैंकय्या नायडू के इस असंवैधानिक कदम के खिलाफ ही कांग्रेस दल के दो सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जिस पर सुप्रीम कोर्ट के द्वितीय वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलमेश्वर ने एक दिन सुनवाई की और दूसरे दिन ही इस मामले की आगे सुनवाई के लिये पांच जजों की एक संविधान पीठ का गठन कर दिया गया ।

कल (8 मई को) सुप्रीम कोर्ट में जब संविधान पीठ के सामने कांग्रेस के सांसदों की याचिका पर सुनवाई शुरू हुई, याचिकाकर्ताओं के वकील कपिल सिब्बल ने पहला सवाल उठाया कि इस संविधान पीठ का गठन किस आदेश के आधार पर किया गया है ? क्या न्यायाधीश चेलमेश्वर ने ऐसा करने का कोई न्यायिक फैसला सुनाया था ? अन्यथा और किसने और कैसे इसका गठन किया है ? सुप्रीम कोर्ट के नियम के अनुसार पांच सदस्यों की संविधान पीठ के गठन के लिये किसी न्यायिक फैसले का होना जरूरी है । इसे सिर्फ प्रशासनिक निर्णय से गठित नहीं किया जा सकता है । मुख्य न्यायाधीश के पास बेंच गठन करने का प्रशासनिक अधिकार होता है, वह न्यायिक अधिकार नहीं है ।

मजे की बात यह है कि पांच जजों की इस संविधान पीठ को सुशोभित कर रहे जजों के पास इतना सा भी नैतिक बल और ईमानदारी नहीं थी कि वे इस पीठ के गठन के पीछे के फैसले के बारे में याचिकाकर्ता को अवगत करा दें, जबकि किसी भी मामले से जुड़े हर न्यायिक फैसले की जानकारी को पाना हर याचिकाकर्ता का मूलभूत संवैधानिक अधिकार होता है । उन्होंने कपिल सिब्बल को इस जानकारी को देने से साफ इंकार कर दिया । और, सिब्बल ने इसी आधार पर अपनी याचिका वापस ले ली क्योंकि मामले से जुड़े किसी भी न्यायिक फैसले के बारे में अंधेरे में रह कर उनके लिये अपनी दलीलें पेश करना मुमकिन नहीं था । मुख्य न्यायाधीश के दिमाग के फितूर की उपज इस महान संविधान पीठ ने तत्काल याचिका को खारिज कर न्यायपालिका की नैतिकता के बजाय दीपक मिश्रा की रक्षा के अपने पवित्र कर्त्तव्य का पालन किया !

यह सब देख कर यही लगता है कि आज भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च पद पर ऐसा व्यक्ति बैठा हुआ है जिसका खुद किसी प्रकार की पारदर्शिता पर विश्वास नहीं है और दुर्भाग्य से वह मोदी की तरह के एक तुगलक के हाथ का गुलाम भी है । संसदीय जनतंत्र के रास्ते फासीवाद के उदय की परिस्थिति का यह एक क्लासिक संकेत है ।


शनिवार, 5 मई 2018

कार्ल मार्क्स के जन्म के दो सौ साल और 'विमर्श का उल्लास'

-अरुण माहेश्वरी


कार्ल मार्क्स के जन्म-स्थान जर्मनी के त्रियेर में कल उनके जन्म के 200 साल पूरे होने पर उनके घर के सामने पांच मीटर ऊंची एक मूर्ति की स्थापना की गई । इस घर में उन्होंने अपनी उम्र के प्रारंभिक 17 साल गुजारे थे । त्रियेर शहर को यह मूर्ति चीन की सरकार की ओर से भेंट की गई है ।

त्रियेर शहर की सिटी कौंसिल के सामने जब चीन की ओर से इस भेंट का प्रस्ताव आया था, उसे लेकर कौंसिल में काफी बहस हुई थी और अंत में 42-7 मतों से चीन की इस भेंट को स्वीकारने का फैसला किया गया ।

कल जब त्रियेर में इस मूर्ति की स्थापना हुई उस समय भी बड़ी संख्या में त्रियेर के नागरिक वहां उपस्थित हुए थे और ‘पूंजीवाद मुर्दाबाद’ तथा ‘हर तानाशाह का पिता’ की तरह के परस्पर-विरोधी नारे भी लगाए जा रहे थे ।
और कहना न होगा, ‘विमर्श के उस उल्लास’ के बीच भी मननशील मार्क्स उस मूर्ति में ऐसे लग रहे थे मानो अभी-अभी पुस्तकालय से निकल कर इस दुनिया को अपने अंतर की गहराइयों में उतार कर इसके दृश्य-अदृश्य, सब रूपों का अवगाहन कर रहे हो ।

मूर्ति के विमोचन के वक्त त्रियेर के मेयर वोफाम लेब ने कहा कि ऐतिहासिक विवादों को हमें स्वीकारना चाहिए । राइनलैंड-पैलेतिनेत राज्य के प्रधानमंत्री ने इस मौके पर कहा कि - हां, हम अपने शहर के इस बेटे के साथ हैं । दोस्ती के प्रतीक के रूप में इस उपहार को स्वीकार करके भी हम खुश हैं ।

गौर करने की बात है कि मार्क्स के जन्म के 200 सालों की पूर्ति पर ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने भी मार्क्स के बारे में एक लंबा लेख ‘मार्क्स पर पुनर्विचार : दूसरी बार, एक प्रहसन (Reconsidering Marx Second time, farce) जारी किया है जिसमें अपेक्षित रूप में ही मार्क्स को लगभग कोसते हुए भी उनकी तमाम कमियों के बावजूद उन्हें पूंजीवाद के संकट के काल में किसी ऐसे ईश्वरीय दूत की तरह पेश किया गया है जो भले दुनिया की किसी समस्या का समाधान न दे सके, लेकिन असहाय मनुष्य उसकी शरण में पहुंचने के लिये मजबूर हो जाता है । ‘इकोनोमिस्ट’ ने आज की दुनिया में मार्क्स के इस ‘पूज्य’ रूप को पूंजीवादी उदारवाद के लिये खतरे की सबसे बड़ी घंटी बताया है जिसकी शरण में जाकर लोग उसके द्वारा सजाये गये इस बाग को नष्ट कर सकते हैं । ‘इकोनोमिस्ट’ के इस लेख का अंतिम पैराग्राफ है - “ आज का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उन उपलब्धियों को (पूंजीवाद की उपलब्धियों को -अ.मा.) फिर से दोहराया जा सकता है । पूंजीवाद का विरोध बढ़ रहा है - सर्वहारा की एकजुटता के बजाय आम आक्रोश के रूप में ज्यादा । अभी के उदारवादी सुधारक इन संकट को समझने और इनका समाधान खोजने के मामले में अपने पूर्ववर्तियों से दुखदायी तौर पर हीन साबित हो रहे हैं । उन्हें मार्क्स के जन्म की 200वीं जयंती का इस्तेमाल करके उस महान व्यक्ति से अपने को फिर से परिचित करना चाहिए - इस व्यवस्था के जिन गंभीर दोषों को उन्होंने जबर्दस्त ढंग से पकड़ा था, सिर्फ उनको समझने के लिये ही नहीं, बल्कि इस बात को याद रखने के लिये भी कि यदि वे इन दोषों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं तो उनके सामने आगे कितनी बड़ी तबाही खड़ी है । “

(Today’s great question is whether those achievements can be repeated. The backlash against capitalism is mounting—if more often in the form of populist anger than of proletarian solidarity. So far liberal reformers are proving sadly inferior to their predecessors in terms of both their grasp of the crisis and their ability to generate solutions. They should use the 200th anniversary of Marx’s birth to reacquaint themselves with the great man—not only to understand the serious faults that he brilliantly identified in the system, but to remind themselves of the disaster that awaits if they fail to confront them.)

जाहिर है, विश्व पूंजीवाद की प्रमुख पत्रिका ‘इकोनोमिस्ट’ ने स्वाभाविक तौर पर मार्क्स को ऐसे देवदूत के रूप में याद किया है जो संकट के वक्त किसी भूत की तरह लोगों पर सवार हो कर दुनिया की वर्तमान ‘सुंदर बगिया’ को तहस-नहस कर देने का कारण बन सकता है ।

हमें मार्क्स को केंद्र में रख कर दिखाई दे रहे इस पूरे विवाद में ‘विमर्श का वह उल्लास’ नजर आता है जिसके परिवेश में हमारे अभिनवगुप्त के अनुसार सभी आचरण साधक को उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ाते हैं । (प्रत्येकं बहु प्रकारं निरूढि:) । जहां अपूर्णता होती है, वहां यदि फलवत्ता नहीं होती, तो पूर्णता में फल की कल्पना भी नहीं होती । इसीलिये अभिनव ने निश्चय की उपलब्धि को निरूढ़ि कहा है, रूढ़ियों के बंधनों से मुक्ति की प्रक्रिया । इसमें फिर भक्ष्या-भक्ष्य के, शुद्ध-अशुद्ध के विवेचन का पचड़ा नहीं होता है । (यथा यथा भवति तथैव आचरेत्, न तु भक्ष्यशुद्ध्यादिविवेचनया) । (तंत्रसारः, चतुर्थमाह्निकम्)   हम ऐसे विमर्श के उल्लास का स्वागत करते हैं ।

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (33)


-अरुण माहेश्वरी
फायरबाख के आधिभौतिक भौतिकवाद से मुक्ति

(आज कार्ल मार्क्स के जन्म के 200 साल पूरे हो गये हैं । काफी दिनों के अंतराल पर फिर एक बार हम मार्क्स के जीवन के बारे में अपने प्रकल्प पर लौट रहे हैं, जिसे हमने उनके द्विशताब्दी वर्ष के प्रारंभ में शुरू करने का बीड़ा उठाया था । हमने इसकी कई किश्ते लिखी, लेकिन नाना कारणों से यह आठ महीने पहले बीच में ही छूट गया । इसके मूल में इस विषय की अपनी विशेष जरूरतों का एक दबाव भी रहा, जिसे हम पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं कर सकते हैं । किसी भी लेखन के साथ लेखक के अपने संतोष-असंतोष का सवाल अनिवार्य तौर पर जुड़ जाता है। जो भी हो, देखते-देखते पूरा साल बीत गया । अब फिर हम मार्क्स के 201वें जन्मदिन से इसे आगे बढ़ाने की कोशिश करना चाहते हैं। इतने दिनों के अंतराल के बाद एक ऐसे लेखन से तालमेल बैठा पाना किसी भी पाठक के लिये कितना कठिन हो सकता है, इसे हम समझ सकते हैं । इसके लिये हम सभी पाठकों से क्षमा-प्रार्थी है । अंतिम किश्त 13 अगस्त के दिन जारी की गई थी । इसके बाद दिल्ली प्रवास की मजबूरी और दूसरे तात्कालिक विषयों के दबाव को न टाल पाने की अपनी प्रकृति के कारण भी इस जरूरी काम में व्यवधान आते गये । हमारा लिखना तो बदस्तूर पुरदम जारी रहा, लेकिन यही विषय छूटता चला गया । अब फिर एक बार, कुछ और तैयारियों के साथ साहस जुटा कर इस काम को शुरू कर रहा हूँ । आगे और व्यवधानों की संभावनाओं से इंकार नहीं कर सकता, लेकिन यथासंभव कोशिश रहेगी कि भले रुक रुक कर ही क्यों न हो, यह काम जारी रहे । बूंद-बूंद से ही समुद्र नहीं तो घड़ा ही भर जाए तो वह शायद कुछ काम का साबित हो जाए । )

पिछली किश्त में हम मार्क्स-एंगेल्स की कृति 'पवित्र परिवार' के बारे में चर्चा कर रहे थे । मार्क्स की सर्वहारा विश्वदृष्टि की आधारशिला को तैयार करने में इस कृति की एक अहम भूमिका थी । फिर भी यह मार्क्स के विचारों के पूरे महल के निर्माण में एक प्रकार का नींव का पत्थर ही थी । अभी इस पर उनकी इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा का और वैज्ञानिक साम्यवाद के मूलभूत सिद्धांतों का निरूपण होना बाकी था । अब तक भी मार्क्स, एंगेल्स अपने पूर्वजों, जिन्हें कहा जा सकता है अपने गुरुओं के प्रभाव के दायरे से निकल कर अपनी स्वतंत्र विश्व-दृष्टि को प्राप्त करने से काफी दूर थे । अभी वे पुराने प्रभावों से मुक्ति के लिये जूझ रहे थे ताकि विचार के अपने नये वृत्त में प्रवेश कर सके । अब भी अपने और पूर्ववर्ती सिद्धांतकारों के बीच के फर्क की सीमा-रेखा निर्धारित नहीं कर पाए थे । इनमें खास तौर पर हम फायरबाख का उल्लेख कर सकते हैं। फायरबाख के पुराने प्रकार के भौतिकवादी दर्शन की कमजोरियों से मार्क्स, एंगेल्स मुक्त नहीं हो पाये थे इसीलिये वे अपने को फायरबाख का अनुयायी और उनके अर्वाचीन विचारों के 'सच्चे मानवतावादी' समर्थक कहा करते थे ।
लुडविग फायरबाख

लेकिन यह सच है कि इसके साथ ही वे मूलगामी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी विचारों की दिशा में, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दिशा में कदम बढ़ा चुके थे । उनके द्वारा प्रयुक्त पदावली में नये अर्थ दिखाई देने लगे थे । बहुत तेजी के साथ उनमें पहले के भौतिकवाद के आधिभौतिक चरित्र और उसकी आंतरिक असंगतियों के प्रति असंतोष दिखाई देने लगा था ।

'भौतिकवाद का आधिभौतिक चरित्र' ! अर्थात प्रकृति की प्राथमिकता को इस हद तक निर्णायक मान लेना जिसमें चेतना की कोई भूमिका ही न रहे, ईश्वरीय नियतिवाद का ही प्रतिरूप — प्रकृति-पूजा का नियतिवाद !

हमारे भारतीय दार्शनिक अभिनवगुप्त बिल्कुल इसी बिंदु पर अपने को सांख्य दर्शन के प्रकृतिवाद से अलग करते हैं और सांख्य दर्शन को विज्ञान-शून्य कहते हैं । उन्होंने लिखा कि क्षोभ के उदय होने से ही विभिन्न कार्यों का उदय होता है । बिना वैषम्य आये, कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि कारण ही उत्पन्न नहीं रहता। जड़ कारण क्षोभ के बिना कार्यान्तर की उत्पत्ति नहीं कर सकता । अतः उनके अनुसार सीधे प्रकृति से उत्पत्ति मानना बुद्धिमानी नहीं है और इसीलिये उन्होंने अपने तंत्रालोक में साफ शब्दों में कहा कि सांख्य दर्शन का गुणों की उत्पत्ति का सिद्धांत इस विज्ञान से शून्य हैं ।
“क्षुब्धात प्रधानात कर्त्तव्यान्तरोदयः । न अक्षुब्धादिति । क्षोभः अवश्यमेव अन्तराले अभ्युपगन्तव्य इति सिद्धं सांख्यापरिदृष्टं पृथरभूतं गुणतत्वम् ।” (तंत्रसारः, अष्टममाह्निकम्, द्वितीय खंड, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, पृष्ठ — 36-37)

फायरबाख के चिंतन में इसी क्षोभ के तत्व की, द्वंद्वात्मकता की अनुपस्थिति के कारण मार्क्स उनके काल्पनिक चिंतन और सर्वहारा के यथार्थ दृष्टिकोण के बीच के मूलभूत फर्क को देखने लगे थे । 1845 के अप्रैल में मार्क्स ने “ फायरबाख पर थिसिस“ शीर्षक अपने दो पन्ने के नोट में फायरबाख के दार्शनिक विचारों पर कटु विचार व्यक्त किये थे । उनके इस नोट को वस्तुतः फायरबाख से उनकी स्वतंत्रता का घोषणापत्र कहा जा सकता है ।

इसके पहले कि हम 'पवित्र परिवार' के कुछ खास पक्षों, मार्क्स की खंडन-मंडन की अनोखी शैली पर ठोस रूप से गौर करे, हमें अपने गुरुओं से मुक्ति की श्रृंखला में ब्रुनो बावर के साथ मार्क्स के संबंधों की पृष्ठभूमि पर कुछ विस्तार से विचार करना उचित लगता है । इससे उनके स्वतंत्र चिंतक के रूप में निर्माण के प्रारंभिक बिंदुओं की हमें और भी अच्छी समझ हासिल हो सकती है । अभिनवगुप्त कहते हैं कि साधक का शाम्भवयोग, अर्थात उसका स्वयं शिव में रूपांतरण तभी संभव है जब वह गुरुमंत्रों के जाप (आणवयोग) और ज्ञान की विभिन्न धाराओं से प्रभाव ग्रहण करता हुआ (शाक्तयोग) से आगे बढ़ कर सीधे अपने शिव से संबंध जोड़ लेता है (शांभवयोग) । उसके बाद मंत्रों का जाप या पूजा-पाठ अथवा कोरी पुनरुक्ति उसे जहर समान लगने लगते हैं । इसीलिये जरूरी है कि मार्क्स के निर्माण का कोई भी आख्यान उनकी अपने गुरुओं से मुक्ति की प्रक्रिया के आख्यान को छोड़ कर नहीं लिखा जा सकता है ।

बहरहाल, बर्लिन में प्रवास के काल में डाक्टर्स क्लब की बैठकबाजियों में ब्रुनो बावर के साथ मार्क्स की मुलाकातों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं । 1839 से 1841 के बीच जब मार्क्स अपने शोध पत्र की तैयारियां कर रहे थे, उस समय ब्रुनो बावर उनके सबसे करीबी मित्र और सलाहकार हुआ करते थे । बाइबल की मूलगामी आलोचना और हेगेल के दार्शनिक विचारों के प्रति एक समझौताहीन धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण की वजह से उन दिनों वे काफी लोकप्रिय हो चुके थे । मार्क्स से उनकी जब मुलाकात हुई तब वे बर्लिन विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र के विभाग में अस्थायी लेक्चरर थे । मार्क्स ने 1836 में उनके लेक्चर सुने थे । डाक्टर्स क्लब में तो मुलाकात थी ही ।

ब्रुनो बावर

बावर को 1839 में कुछ छुद्र धर्मशास्त्रियों की आलोचना करने की वजह से बर्लिन विश्वविद्यालय से हटा कर बॉन भेज दिया गया था । मार्क्स ने 1841 के अप्रैल महीने में अपना शोध पत्र जमा कराके बॉन में बावर से मिले थे । लेकिन 1842 में बावर को बॉन विश्वविद्यालय से भी हटा दिया गया और इसके साथ ही मार्क्स की भी शिक्षा जगत में जाने की संभावना खत्म हो गई । बावर वापस बर्लिन लौट गये और मार्क्स कोलोन शहर में आए जहां चंद रोज पहले ही शुरू हुए अखबार ह्राइनेशे ताइतुंग (Rheinische Zeitung) 'ह्राइनिश समाचार पत्र' से जुड़ गये ।

इस काल में प्रशिया के राजा की मृत्यु के बाद अनुदारवादियों का दबदबा बढ़ा हुआ था और इसीलिये राजनीति के क्षेत्र में तीखी वैचारिक टकराहटें दिखाई दे रही थी । मार्क्स ह्राइनेशे ताइतुंग के जरिये उस दौर के राजनीतिक विचारधारात्मक संघर्ष में पूरे उत्साह से शामिल हो गये । और इसके साथ ही शैक्षणिक दुनिया से दूर मार्क्स एक तीखी दृष्टि संपन्न राजनीतिक टिप्पणीकार के रूप में उभर कर सामने आ गये । शैक्षणिक जगत पीछे छूट गया ।

जहां तक बावर का सवाल है, 1839 के बाद से ही मार्क्स को लिखे गये उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने अपने से मार्क्स के अभिभावक की भूमिका अपना ली थी । दिसंबर 1939 में मार्क्स को लिखे अपने  एक पत्र में वे मार्क्स की लेखनी के तीखे तेवरों को देख कर यह चिंता जाहिर कर रहे थे कि कहीं मार्क्स एक प्रकार के बुद्धि-विलासी न बन जाए । वे हेगेल की कृति 'साइंस आफ लॉजिक' में प्राणी-सत्ता से सार-तत्व में संक्रमण की बात में दोष की चर्चा करते हुए साथ में यह सलाह भी दे रहे थे कि पहले तुम अपने शोध-प्रबंध के काम को पूरा कर लो । जब मार्क्स ने अपना शोध-प्रबंध जमा किया, तब भी बावर ने उनसे कहा था कि वह अपने किसी भी चीज को देख कर नाहक उत्तेजित न हो । मार्क्स ने 6 अप्रैल 1839 को अपना शोध-पत्र जमा करते हुए दर्शन विभाग के डीन से एक पत्र में निवेदन किया था कि उनके प्रबंध की जांच में विलंब न किया जाए । मजे की बात यह रही कि 6 अप्रैल को मार्क्स के जमा करने के नौ दिनों बाद ही, 15 अप्रैल को मार्क्स को विभाग की ओर से डाक्टरेट का डिप्लोमा भेज दिया गया ।

उन दिनों मार्क्स पर बावर का प्रभाव इस तथ्य से जाहिर होता है कि अपने शोध प्रबंध के प्राक्कथन में उन्होंने दर्शनशास्त्र के हवाले से लिखा था कि वह उन सभी स्वर्ग के और धरती के देवताओं से नफरत करता है जो “मानवीय आत्म-चेतना को सबसे बड़ा ईश्वरीय वरदान के रूप में देखने से इंकार करते हैं ।” (MECW, Vol.1. page – 30)
(Philosophy makes no secret of it. The confession of Prometheus — In simple words, I hate the pack of gods (Aeschylus, Prometheus Bound).— is its own confession, its own aphorism against all heavenly and earthly gods who do not acknowledge human self-consciousness as the highest divinity.)

हेगेल के बारे में बावर के अध्ययन इसी 'आत्म चेतना' पद का एक केंद्रीय स्थान था । बावर जिसे 'विशिष्टता' अथवा 'सार्वलौकिकता' को हासिल करने की प्रक्रिया कहते हैं उसमें यह आत्म ही विशेष और सार्वलौकिकता के बीच की द्वंद्वात्मक खाई को धारण करता है । यह आदमी की एक प्रकार की तन्मयता है, जिसमें खास ही सार्वलौकिकता का रूप ले लेता है । मननशील व्यक्ति ही उन गुणों को आयत्त कर पाता है जिसे हेगेल एक प्रकार का परम भाव (absolute spirit) कहते हैं । एक तन्मयीभाव, महाभाव । बावर ने जिसे आत्म चेतना का अनंत विकास कहा था उसमें बाह्य ऐतिहासिक यथार्थ की प्रगति भी व्यक्त होने लगती है जिसे व्यक्ति अपनी उपलब्धि समझने लगता है । हमारे यहां अनुभवगुप्त इस तन्मयीभाव को कैवल्य (एक निश्चय) को अधिगत करने का महाप्रयास कहते हैं (विद्याधिपते, अनुभवस्तोत्रे महान संरम्भः) और कहते हैं कि बिना किसी दुराग्रह के इसके अनुरूप आचरण करना चाहिए, निश्चय करना ही निरूढ़ि है।(एवं विधे यागादौ योगान्ते च पञ्चके प्रत्येकं बहु प्रकारं निरूढ़िः यथा यथा भवति तथैव आचरेत्)

बहरहाल, बावर की इस 'आत्म चेतना' की अवधारणा में खुद को हेगेल से अलग दिखाने की उनकी महत्वाकांक्षा भी काम कर रही थी । हेगेल के चिंतन के इसी पहलू की वजह से संरक्षणवादी हेगेलपंथी मानते थे कि हेगेल के चिंतन में एक अलौकिक ईश्वर का स्थान बना हुआ था । बावर ने उनकी स्थिति को याद करते हुए 1840 में लिखा था कि “हेगेल के शिष्य विचारों के साम्राज्य में एक अनश्वर ईश्वर की तरह के किसी पिता की छाया में रह रहे थे । इन विचारों को उनके गुरु ने उन्हें विरासत में सौंपा था ।”   (Bruno Bauer, The Trumpet of last judgement against Hegel the atheist and anti-Christ, An Ultimatum, Lawrence Stepelevich, Lewisten, Edwin Mellen Press,1989, (1841), page- 189-190 ; Stedmen Jones,  उपरोक्त – page – 92-92)

(क्रमशः)     

मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे समय के प्रमुख वामपंथी सार्वजनिक बुद्धिजीवी डा. अशोक मित्रा नहीं रहे

—अरुण माहेश्वरी

डा. अशोक मित्रा हमारे बीच नहीं रहे । आज सुबह कोलकाता के एक अस्पताल में 90 साल की आयु में लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया ।

डा. मित्रा का जाना अपनी मनीषा में एक अर्थशास्त्री, राजनेता, वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार, पत्रकार, स्तंभकार से लेकर मजदूर और किसान तक के मनोभावों को एक साथ जीने और उन्हें बेलाग और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने वाले हमारे समय के एक प्रमुख सार्वजनिक बुद्धिजीवी के जाने की तरह है । उनके पास यदि पुस्तकों से मिले ज्ञान का अकूत खजाना था तो 'कविता से लेकर जुलूस तक' पसरे हुए जीवन के आवेग और उच्छल उत्साह की भी कोई कमी नहीं थी । अपने समय के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर अपनी बात को पूरे अधिकार के साथ कहने में वे जरा भी विलंब नहीं करते थे । अपनी पुस्तक ‘Terms of Trade and Class Relations (1977)’ को, जिसे हिंदी में मैकमिलन ने 'विनिमय की शर्तें और वर्ग संबंध'(1982) शीर्षक से प्रकाशित किया था, उन्होंने उन लोगों को समर्पित किया था 'जिन्होंने आस्था नहीं खोई' ।

उनकी यह पुस्तक सत्तर के दशक के उस जमाने में परंपरागत अर्थशास्त्रीय चर्चाओँ को उसकी रूढ़िबद्धता से निकालने की एक महत्वपूर्ण कोशिश थी । आज के समय के सबसे लोकप्रिय अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने जिस प्रकार आय और संपत्ति के बटवारे में गैर-बराबरी के विषय को अभी अर्थशास्त्र के केंद्र में स्थापित करने का महत्वपूर्ण काम किया है, हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि डा. मित्र ने तभी अपनी उस पुस्तक में इस बात को स्थापित किया था कि परिसंपत्ति और आय के वितरण में असमानता के सवाल को केंद्र में बिना रखे अर्थनीति संबंधी चिंतन निर्रथक है । उन्होंने बाजार के दोषों को उजागर करते हुए यह कहा था कि वह अर्थनीति की समस्याओं की कोई रामवाण दवा नहीं है । बाजार-पूजक अर्थशास्त्र पर उनका आरोप था कि उनके यहां यह सवाल उठाना भी निषिद्ध है कि आखिर बाजार में मांग के अवयव क्या है । मांग का चरित्र भी समाज की वर्गीय सचाई को, जनता की क्रय शक्ति और उनकी आर्थिक स्थिति को जाहिर करता है । वर्गों में विभाजित समाज विक्रेता और क्रेता में विभाजित समाज होता है । किसी की क्रय शक्ति का ज्यादा और किसी का कम होना अकारण नहीं होता है । मालों की कीमतें आय के वितरण का साधन है और कीमतों में वृद्धि हमेशा विक्रेताओं के पक्ष में आय में वृद्धि को सुनिश्चित करती है ।

ऐसे तमाम मानकों पर सरकारी नीतियों को परखने के कारण ही डा. अशोक मित्र की तरह के अर्थशास्त्री सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बने रहने के बावजूद प्रतिष्ठानों को जड़ होकर मृत होने से बचाने के कारक की भूमिका अदा करते रहे और इस प्रकर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी नाउम्मीदी को निराशा के बजाय एक अलग प्रकार के साहस में बदलने की भूमिका अदा करते रहे ।

डा. मित्रा विश्व बैंक, भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकारों के अलावा 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के गठन के बाद शुरू के सबसे उपलब्धिपूर्ण दस साल तक पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और बाद में राज्य सभा के सांसद भी रहे । लेकिन यह सच है कि प्रशासनिक संस्थानों से इतने लंबे जुड़ाव के बावजूद डा. मित्रा के चिंतन पर सांस्थानिक जड़ता कभी हावी नहीं हुई, बल्कि वे उन विरल लोगों में थे जिनके जरिये संस्थाएं भी अपनी गतिशीलता को बनाये रखती है । आज जब हम भारत की संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा की बात करते हैं तो यह डा. मित्रा की तरह के लोगों का ही कर्त्तृत्व है जो आज तक इनकी सामाजिक प्रासंगिकता को किसी न किसी रूप में बनाये हुए हैं ।

डा. मित्रा नियमित और विपुल लिखने वाले अर्थशास्त्री और लेखक थे । कोलकाता के सबसे लोकप्रिय आनंदबाजार समूह के अखबार, 'आनंदबाजार पत्रिका' और 'टेलिग्राफ' के पृष्ठों पर वर्षों तक उनके लेख प्रकाशित होते रहे । उनका स्तंभ 'कलकत्ता की डायरी' तो इतना लोकप्रिय हुआ था कि उसके लेखन को पुस्तकाकार में भी काफी सम्मान और चाव के साथ पढ़ा जाता है । भारत में आर्थिक-सामाजिक विषयों की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका 'इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली ' के भी वे काफी वर्षों तक नियमित लेखक और स्तंभकार रहे । अंग्रेजी और बांग्ला, दोनों भाषाओं में उनकी पैठ के तो उनके वैचारिक विरोधी भी मुरीद रहे हैं । हम भी उन सौभाग्यशालियों में थे जिन्हें उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके साथ विचार-विमर्श करने के कुछ अवसर मिले थे।

डा. मित्रा इधर के दो-चार सालों से काफी बीमार चल रहे थे, इसीलिये समसामयिक विषयों पर उनकी टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिल रही थी । अभी के कठिन समय में उनके जैसे एक प्रखर बुद्धिजीवी का चला जाना निश्चित तौर पर भारत के बौद्धिक जगत की एक बड़ी क्षति है । डा. मित्रा की पत्नी गौरी का निधन दस साल पहले ही हो गया था । आज उनकी स्मृतियों के प्रति हम गहरी श्रद्धा के भाव से नमन करते हैं ।             

विकल्प गर्भ में स्थापित हो चुका है

अरुण माहेश्वरी


जो लोग संघियों के खुद को सांत्वना देने वाले इस प्रचारमूलक सवाल को अक्सर दोहराते रहते हैं कि 2019 में उनका कोई विकल्प कहां है, यह पोस्ट उन मासूम जनों के लिये है :

1. कोई भी नई चीज तभी नजर आती है जब वह ठोस रूप में सामने आ चुकी होती है । उसके पहले तक हर चीज हवा में होती है — अदृश्य, गर्भ में रूप ग्रहण करती हुई । काल के निश्चित संयोग पर ही वह पूर्ण आकार ग्रहण करके सामने आती है । जब तक 2019 के चुनाव नहीं हो जाते, तब तक उन अधिकांश लोगों को, जो दृश्य की सीमा के परे देख पाने में असमर्थ हैं, वह नजर नहीं आयेगा ।

2. गर्भ से निकल कर बाहर आने के पहले, प्रचार तंत्र की झूठी स्कैन रिपोर्टों के प्रभाव से मुक्त हो कर, स्वतंत्र रूप से इस अदृश्य को खुद देख पाने के लिये जरूरी है कि आपमें लक्षणों को पढ़ने की कूव्वत हो । इसके लिये इतिहास के बनते हुए ठोस क्रम पर नजर डालने की जरूरत है ।

3. अब तक यह साफ है कि 2019 के चुनाव में मोदी के खिलाफ विपक्ष के दलों की अधिकतम एकता कायम होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है । विपक्ष की सभी राजनीतिक पार्टियों में, यहां तक कि शिव सेना और तेलुगु देशम की तरह की एनडीए के अंदर की पार्टियों में भी मोदी-विरोधी मोर्चे में शामिल होने की समझदारी कायम हो चुकी है । वामपंथी भी अब अपनी दुविधाओं से मुक्त हो गये हैं । और विपक्ष की एकता का अर्थ क्या है इसे यह अकेला तथ्य ही बता देने के लिये काफी है कि 2014 में भाजपा को सिर्फ 31 प्रतिशत मत मिले थे, और अन्य दलों को 69 प्रतिशत ।

4. विपक्ष की एकता मात्र कितना बड़ा करिश्मा कर सकती है इसे पिछले दिनों यूपी के गोरखपुर और फूलपुर सहित अनेक उपचुनावों में देखा जा चुका है । जिस गुजरात विधान सभा में भाजपा को 2012 में राज्य की 182 सीटों में 115 सीटें मिली थी, वह 2017 में घट कर सिर्फ 99 रह गई, बहुमत से सिर्फ सात सीटें ज्यादा । इसके लिये उन्होंने पूरी केंद्र सरकार और अरबों-खरबों के संसाधनों को झोंक दिया था । अर्थात, मोदी के कार्यकाल में भाजपा के पास पूंजीपतियों से सबसे अधिक रुपये जरूर आए हैं, लेकिन जनता के बीच उनकी साख में लगातार गिरावट आई है । मोदी आज की राजनीति के सबसे बड़े उपहास के चरित्र हैं ।

5. इसके अलावा राहुल गांधी को लगातार गालियां देते हुए उन्हें 'पप्पू' बताने के संघी प्रचार का भी एक असर है कि लोगों को विपक्ष के पास मोदी के स्तर के मूढ़ शासक का भी कोई विकल्प नहीं दिखाई देता है । हांलाकि गुजरात चुनाव के बाद से इस मामले में भी स्थिति थोड़ी बदली है । जो मोदी-शाह कांग्रेस-मुक्त भारत का शोर मचा रहे थे, उनके आका मोहन भागवत ने ही खुद को उस ढेंचूपन से अलग कर लिया है ।

6. राहुल गांधी और कांग्रेस आने वाले दिनों में कैसे एक राष्ट्रीय विकल्प के केंद्रीय स्थान को ज्यादा से ज्यादा घेरते जायेंगे, इसे आगे आने वाले प्रमुख राजनीतिक घटना क्रमों से बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । हम जब चुनावी विकल्प की बात कर रहे हैं तो राजनीतिक घटना-क्रम से हमारा तात्पर्य भी चुनावी घटना-क्रम ही होता है । अभी चंद रोज में कर्नाटक के चुनाव होने वाले हैं । उसके बाद 2019 के पहले मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और राजस्थान के चुनाव होंगे । इन चारो चुनावों में मोदी को चुनौती देने वाली पार्टी अकेले कांग्रेस ही है । यदि इन सब में कांग्रेस विजयी होती है तो 2019 तक आते-आते वह स्थिति बन जायेगी, जब पूरी मोदी कंपनी को राहुल गांधी और कांग्रेस का भूत नींद में भी सताने लगेगा । और आज जो तमाम संघी 'विक्लपहीनता' की काल्पनिक छाया तले चैन से अपनी तिजोरियां भर रहे हैं, तब उनके होश उड़ते देर नहीं लगेगी । लेकिन तब तक बाजी प्रायः उनके हाथ से निकल गई होगी !

7. इसीलिये, 'विकल्प नहीं है' की बातें संघियों के लिये चैन की जगहें भर हैं जिन्हें उनका दलाल मीडिया उनके लिये हर रोज तैयार किया करता है । मोदी कंपनी इस मौज में रहें और बचे हुए दिनों में कुछ और देशों की यात्रा कर आएं तो कोई हर्ज नहीं है । लेकिन इन पांच सालों में इन्होंने भारत के साधारण लोगों को जितना सताया है, उसका हिसाब लेने का समय बहुत दूर नहीं है । यह तय है कि उनके दिन लद गये हैं और समग्र परिस्थिति में उनके विकल्प का गर्भ पड़ चुका है, बस चुनाव के मुहुर्त पर उसे जन्म ले कर धरती पर उतरना बाकी है ।