सोमवार, 5 दिसंबर 2022

प्रतिवाद को क्या शब्दों का अभाव !

 

—अरुण माहेश्वरी


एक युग हुआ । सन् 2010 के बसंत का महीना था । तब अरब देशों में ‘सदियों’ की तानाशाहियों की घुटन में बसंत की एक नई बहार आई थी । ‘अरब स्प्रिंग’ । कहते हैं कि वह इस अरब जगत के लोगों के अंतर के सुप्त आकाश में इंटरनेट की एक नई भाषा के स्पर्श से उत्पन्न हर्षातिरेक का आंदोलनकारी प्रभाव था । बिना किसी पूर्व संकेत के रातो-रात लाखों लोग राजधानी शहरों के मुख्य केंद्रों में जमा होकर अपने देश की ‘अजेय’ तानाशाहियों को चुनौती देने लगे थे । सामने बंदूके ताने सैनिक और टैंक खड़े थे । पर जैसे जान की किसी को कोई फिक्र ही नहीं थी । बेजुबान जिंदगी के होने, न होने का वैसे ही कोई अर्थ नहीं था ! आदमी तभी तक जिन्दा है जब तक उसके पास अपनी जुबान है । ‘अपनी’ जुबान, अन्य की उधार ‘जुबान’ नहीं । अर्थात् स्वतंत्रता है तो मनुष्यता है, अन्यथा जीने, मरने का कोई अर्थ नहीं ! 

तुनीसिया से मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जौर्डन, कुवैत, ओमान और सुडान से होते हुए जिबोती, मौरिटौनिया, फिलीस्तीन और सऊदी अरबिया तक के मुख्य शहरों के केंद्रीय परिसरों में प्रतिवाद की आवाजों की जो ध्वनि-प्रतिध्वनि तब शुरू हुई थी, सच कहा जाए तो वह आज तक भी पूरी तरह से थमी नहीं है । इस दौरान इस क्षेत्र में न जाने कितने प्रकार के विध्वंसक संघर्ष और युद्ध हो गए, पर वह आग अब तक बुझी नहीं है । क्रांति के अपेक्षित परिणामों की तलाश कहीं भी थमी नहीं है । इसीलिए, क्योंकि वहां के लोगों ने जीवन की जिस एक नई भाषा को पाया है, उसे उनसे कोई छीन नहीं पाया है और न ही कभी छीन पायेगा । सदियों के धार्मिक अंधेरे से निकलना अब उनकी भी नियति है, जैसी बाकी सारी मनुष्यता की है ।   

दरअसल, मनुष्य का प्रतिवाद महज किसी भाषाई उपक्रम का परिणाम नहीं होता है, अर्थात् अभिनवगुप्त की भाषा में वह ‘शब्दज शब्द’ नहीं है । प्रतिवाद खुद में एक भाषाई उपक्रम है । इसे रोका नहीं जा सकता । भाषा की इस लाग से जीवित आदमी की कभी भी मुक्ति नहीं, बल्कि वही मनुष्य की पहचान होती है ।

आज की ही खबर है, आक्सफोर्ड में अंग्रेजी शब्दकोश बनाने वाले लेक्सिकोग्राफरों ने इस साल के सबसे अच्छे तीन नए पदबंधों में से एक को चुनने के लिए आम लोगों से राय मांगी थी । ये तीन शब्द थे — मेटावर्स, #आईस्टैंडविथ और गोबलिन मोड (goblin mode)। कुल 3,18,956 लोगों ने इन तीनों में से सबसे पहले स्थान के लिए जिस शब्द को चुना, वह है — गोबलिन मोड । इसका अर्थ होता है ऐसा बेलौस, अव्यवस्थित जीवन-यापन जो किसी सामाजिक अपेक्षा की परवाह नहीं करता है । ‘मेटावर्स’ को दूसरे स्थान पर रखा गया और ‘#आईस्टैंडविथ’ को तीसरे पर । 

अर्थात् लोगों की पहली पसंद है — स्वतंत्रता । नई तकनीक से परिभाषित पाठ के लिए मेटावर्स और समाज के साथ एकजुटता के भाव से अधिक सार्थक शब्द है — व्यक्ति स्वातंत्र्य का बोध कराने वाला पदबंध ‘गोबलिन मोड’। उसे ही वर्ष 2022 का सबसे श्रेष्ठ नया शब्द घोषित किया गया है । 

आज हम जब चीन में शासन के द्वारा कोविड के नाम पर चल रहे मूर्खतापूर्ण प्रतिबंधों के खिलाफ A4 आंदोलन की हकीकत को देखते हैं और जब ईरान में नैतिक पुलिस की स्त्री-विरोधी गंदगियों के खिलाफ जान पर खेल कर किए जा रहे प्रतिवाद के सच को देखते हैं, तब भी अनायास मनुष्य के अंतर में स्वातंत्र्य के भाव से उत्पन्न उसके उद्गारों के अनोखे यथार्थ के नाना रूप सामने आते हैं । ये दोनों आंदोलन आज आततायी राज्य के सामने भारी पड़ रहे हैं ।

नोम चोमश्की को आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रवर्तक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने भाषा के मामले को मूलतः मनुष्य की जैविक क्रिया के रूप में देखने पर बल दिया था । वे मनुष्य की भाषा और उसके शरीर की क्रियाओं को अलग-अलग देखने के पक्ष में नहीं है । उन्होंने भाषा शास्त्र को जैविक-भाषाई (bio-lingual) आधार पर स्थापित करने की बात की थी ।  

हमारे यहां तो हजारों साल पहले पाणिनी से लेकर अभिनवगुप्त तक ने शब्दों के बारे में यही कहा है कि यह मनुष्य के शरीर के मुख प्रदेश से निकली हुई, उसकी जैविक क्रिया के परिणाम हैं । अभिनवगुप्त ने ही शब्द की ध्वनियों को खौलते हुए पानी के बर्तन की वाष्प से उसके छिद्र (शरीर के मुख) के आकाश के संपर्क से उत्पन्न प्रतिध्वन्यात्मक प्रतिबिंब कहा था । (पिठिरादिपिधानांशविशिष्टछिद्रसंगतौ / चित्रत्वाच्चास्य शब्दस्य प्रतिबिम्बं मुखादिवत् ) अपने तंत्रालोक में वे शरीर के अलग-अलग अंगों से बिम्बित-प्रतिबिम्बित भावों की ध्वनियों के अलग-अलग, हर्ष और विषाद के ध्वनि रूपों तक का विश्लेषण करते हैं । पाणिनी के व्याकरण से लेकर अभिनवगुप्त के तंत्रशास्त्र में वर्णों के स्वर-व्यंजन रूपों के उद्गम की इस कहानी को पढ़ना सचमुच एक बेहद दिलचस्प अनुभव है ।    

पर आज चीन में तो हम भाषा की नहीं, भाषाहीनता की, मौन, बल्कि शास्त्रीय भाषा में कहे तो नश्यदवस्था वाले अप्रकट शब्द की, अर्थात् अप्रतिध्वनित ध्वनि के एक अद्भुत संसार के साक्षी बन रहे हैं । 

कल (5 दिसंबर 2022) के टेलिग्राफ में चीन में चल रहे प्रतिवाद के बारे में एक खबर का शीर्षक है — ‘चीन में तलवार से ज्यादा ताकत है A4 में’ । अर्थात् ए4 साईज के खाली कागज में । कागज के अंदर फंसी पड़ी अलिखित, अप्रकट, अव्यक्त, ध्वनि में । 

सचमुच थ्यानमन स्क्वायर (1989) वाले चीन में आज खाली कागज का टुकड़ा ! कभी एक महाशक्तिशाली राज्य के टैंकों से भिड़ जाने का तेवर और आज सिर्फ एक सादा कागज ! बस इतना ही महाबली की जीरो कोविड नीति की अप्राकृतिक अमानुषिकता के लिए भारी साबित हो रहा है ! पिछले कई दिनों से यह सिलसिला इंटरनेट के मीम्स के जरिए और चीन की चित्रमय मैंडरीन भाषा में नुक्ते के फेर से सारे अर्थों को बदल डालने के भाषाई प्रयोगों के जरिए चल रहा था । अब  उसका स्थान बिना किसी आकृति के कोरे कागज ने ले लिया है ।  


चंद रोज पहले रूस में लोग एक कागज पर स्वातंत्र्य के गणितीय समीकरण को लिख कर लहरा रहे थे । यह गणितज्ञ एलेक्स फ्राइडमान का एक ऐसा अंतहीन समीकरण है जिसे उसकी अनंतता के कारण ही ‘फ्रीमैन’ की संज्ञा दी गई है । इसके अलावा कुछ लोग कागज पर सिर्फ विस्मयादिबोधक चिन्ह (!) को एक लाल वृत्त में घेर कर लहरा रहे थे । जब ‘व्हाट्सएप’ या ‘वी चैट’ की तरह के ऐप से कोई संदेष सामने वाले को प्रेषित नहीं हो पाता है, तब उसके सामने यही विस्मयादिबोधक चिन्ह उभर कर आ जाता है । अर्थात् अप्रेषित संदेश जो अदृश्य कारणों से अपने गंतव्य तक जा नहीं पाया है । विस्मय का वह चिन्ह ही अदृश्य राज्य के दमन के खिलाफ प्रतिवाद का प्रतीक बन गया । 

रूस में जब ऐसे एक प्रदर्शनकारी से इसका अर्थ पूछा गया तो उसका संक्षिप्त सा जवाब था — ‘सब जानते हैं’ । अर्थात् अव्यक्त भावों के लिए कोई भी चिन्ह पहले से सुनिश्चित नहीं होता है । उसके कोई रूप ग्रहण करने का निश्चित नियम नहीं होता है । वह महज एक सुविधा का विषय है ।  

सोचिए, क्रांति का रास्ता रूसी क्रांति जैसा होगा, या चीनी क्रांति या किसी और जगह जैसा ? कितना बचकाना है यह सवाल !

चीन में जो नए-नए नारे तैयार हो रहे हैं, उनमें ‘शी जिन पिंग मुर्दाबाद’, ‘कोविड का परीक्षण नहीं चाहिए’ या ‘हमें आजादी चाहिए’ जैसे नारे तो शामिल हैं ही, पर साथ ही ऐसे विपरिअर्थी नारे भी है कि — ‘हमें और ज्यादा लॉक डाउन चाहिए’ ; ‘हमें कोविड परीक्षण चाहिए’ (I want more Lockdowns, I want to do Covid Tests) । माओ की चर्चित उक्तियां भी प्रयोग में लायी जा रही है — अब चीन के लोग संगठित हो गए हैं, और उनमें सिर घुसाने की कोशिश मत करो ।(Now the Chinese people have organised and no one should mess with them) 

चीन की चित्रात्मक भाषा में एक ही वर्तनी के भिन्न उच्चारण से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं । मसलन् banana skin को फेंको को ही भिन्न रूप में उच्चारित करने पर ध्वनित होता है — शी जिन पिंग को फेंको । फुटबाल विश्व कप के खेलों में बिना मास्क पहने दर्शकों की तस्वीरें भी वहां कोविड के प्रतिबंधों के प्रतिवाद का रूप ले चुकी है ।  

सचमुच, सवाल है कि प्रमुख क्या है ? प्रतिवाद का भाव या उसका रूप । शब्द या मौन ! आकृति या खाली कैनवास ! भाव खुद अपनी अभिव्यक्ति की आकृतियां गढ़ लेते हैं । भाषा तो मनुष्य के भावोच्छ्वासों के आकाशीय प्रतिबिंबों की उपज है । उन्हें भला कोई कैसे और कब तक दबा कर रख सकता है !


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

अपने उद्देश्य की सही दिशा में सफलता से आगे बढ़ रही है — भारत जोड़ो यात्रा

 

— अरुण माहेश्वरी 





इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ कांग्रेस नामक राजनीतिक दल से जुड़ी उस सांकेतिकता को सींच रही है, जिससे भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता, धर्म-निरपेक्षता, जनतंत्र और राज्य के संघीय ढाँचे के मूल्य ध्वनित होते हैं । 


ये मूल्य आरएसएस और मोदी के शासन के खिलाफ संघर्ष के अनिवार्य पहलू है । राजनीति में इन मूल्यों की कमजोरी के समानुपात में ही फासीवादी हिंदुत्व की जड़ें मज़बूत होती है । 


अगर 2024 की लड़ाई सांप्रदायिक फासीवाद बनाम धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र, केंद्रीयकृत राजसत्ता बनाम राज्य का संघीय ढाँचा, स्वेच्छाचार बनाम क़ानून का शासन, एकाधिकारवाद बनाम संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता, हिंदुत्व बनाम सर्वधर्म सम भाव — कुल मिला कर तानाशाही बनाम जनतंत्र की तरह के वैचारिक संघर्ष के मुद्दों पर लड़ी जानी है, तो ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ निश्चित तौर पर इस लड़ाई में कांग्रेस पक्ष के लिए एक पुख़्ता ज़मीन तैयार करने का काम कर रही है । 


स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा सभा चुनावों तक में उम्मीदवारों की पहचान, उनकी लोकप्रियता और छोटी-छोटी अस्मिताओं के सवाल और बूथ-स्तर के संगठनों की जितनी बड़ी भूमिका होती है, लोकसभा चुनाव का परिप्रेक्ष्य इन सबसे बहुत हद तक अलग हुआ करता है । 


यह एक लकानियन सिद्धांत है कि जानकारी पर टिका हुआ प्रमाता और संकेतकों का प्रमाता दो बिल्कुल अलग-अलग चीजें हुआ करते हैं । There is nothing in common between the subject of knowledge and the subject of signifier. 


भारत में विधान सभा और लोकसभा के चुनावों में subject of knowledge और subject of signifier के उपरोक्त भेद को बिल्कुल साफ़ तौर पर देखा जा सकता है । लोकसभा चुनावों के लिए पार्टियों की सांगठनिक शक्ति के ताने-बाने को तैयार करने के साथ ही उसके विचारधारामूलक सांकेतिक पक्षों को तीव्र रूप में सामने लाने का काम अतीव महत्व का काम होता है । 


सचमुच यह संतोष की बात है कि भारत में विपक्ष की सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष के चुनाव के साथ ही जहाँ अपने सांगठनिक ढाँचे पर क्रियाशीलता को एक प्राथमिकता दी है, वहीं ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के एक सर्व-समावेशी, व्यापक जन-आलोड़न पैदा करने के कार्यक्रम के ज़रिये ‘विविधता में एकता’ की अपनी राजनीति के संदेश के प्रसार के कार्यक्रम को संजीदगी से अपनाया है । निःसंदेह, कांग्रेस की तैयारियों का यही दो-तरफ़ा स्वरूप 2024 की लड़ाई में उसके लिए पुख़्ता ज़मीन तैयार कर रहा है । 


इसमें सबसे अच्छी बात यह भी है कि राहुल गांधी अपनी सदाशयता और प्रेम की सारी बातों के बावजूद बीच-बीच में सामने आने वाले कठोर विचारधारात्मक सवालों से सीधे टकराने में जरा सा भी परहेज़ नहीं कर रहे हैं । 


मसलन्, सावरकर के प्रश्न पर ही, राहुल गांधी ने अंग्रेजों के प्रति उनकी वफ़ादारी के दस्तावेज़ों को सबके सामने रखने में कोई कोताही नहीं बरती । राष्ट्रवाद और देशभक्ति की तरह के वैचारिक सवालों पर कांग्रेस के पक्ष को बिल्कुल साफ़ रूप में पेश करने के लिए ही यह ज़रूरी है कि आरएसएस के पूरे नेतृत्व की मुखबिरों वाली देशभक्ति का बेख़ौफ़ ढंग से पर्दाफ़ाश किया जाए । ऐसे सवालों से कतराना या इन पर किसी प्रकार की हिचक दिखाना संघर्ष की साफ़ दिशा को ओझल करता है । और हर प्रकार के वैचारिक भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति फासिस्टों के लिए बहुत लाभकारी हुआ करती है । 


इसमें कोई शक नहीं है कि 2024 के चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी तथा आर्थिक बदहाली के साथ ही राष्ट्रीयता और देशभक्ति की तरह के सांकेतिक मुद्दे कम निर्णायक भूमिका अदा नहीं करेंगे । इसीलिए, इस बात को बार-बार बताने की ज़रूरत है कि सावरकर ने न सिर्फ़ लिख कर अंग्रेजों की सेवा की इच्छा ज़ाहिर की थी, बल्कि अपनी वास्तविक राजनीति के ज़रिए भी वही किया था । यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्राज्यवाद का कोई चाकर ही भारत में हिंदुत्व की विभाजनकारी राजनीति का प्रवर्तक और गांधी जी की हत्या का षड़यंत्रकारी हो सकता था। सावरकर में इस विषय पर कोई द्वैत नहीं बचा था कि भारत की राजनीति में उनकी भूमिका के अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकें । 


‘भारत जोड़ों यात्रा’ को न सिर्फ़ भारत के बहुलतावाद और सर्वधर्म सम भाव पर आधारित धर्मनिरपेक्ष राज्य के मुद्दों को दृढ़ता के साथ सामने लाना है, बल्कि सावरकर की तरह के मुखबिरों की विभाजनकारी ‘देशभक्ति’ के बरक्स गांधी-नेहरू-पटेल सहित राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल समाज के सभी तबकों के त्याग और बलिदान की गौरवशाली परंपरा को भी स्थापित करना है । राहुल गाँधी ने दृढ़ता के साथ इस प्रसंग को उठा कर देशभक्ति के धरातल पर भी आरएसएस-मोदी के सामने एक सीधी चुनौती पेश की है । 


चुनावी गणित के नितांत स्थानीय और तात्कलिक मुद्दों के शोर में शामिल होने वाले संकीर्ण सोच के विश्लेषकों में लोकसभा चुनावों में सांकेतिक मुद्दों के महत्व की कोई समझ नहीं होती है । इसीलिए वे कभी या तो राहुल गांधी की यात्रा के रूट को लेकर परेशान रहते हैं, तो कभी उनके द्वारा सावरकर का नाम लिए जाने पर सिर पीट रहे होते हैं । इसकी वजह है उनके पास एक सर्वग्रासी फ़ासिस्ट शासन के विरुध्द व्यापकतम जनतांत्रिक प्रतिरोध की लड़ाई की रणनीति की समझ का अभाव । 


हमने इस यात्रा के प्रारंभ में ही इसे न सिर्फ़ भारत में, बल्कि सारी दुनिया मे फासीवाद के विरुद्ध समूची जनता को लामबंद करने का एक नायाब प्रयोग बताया था । हर बीतते दिन, और इस यात्रा के हर बढ़ते हुए कदम के साथ पूरे देश में इसके प्रति जिस उत्सुकता और उत्साह का वातावरण तैयार हो रहा है और जिस प्रकार क्रमशः आम लोगों के अंदर फ़ासिस्ट शासन के प्रति ख़ौफ़ की ज़ंजीरें टूट रही हैं, वह इसी बात का प्रमाण है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अपने उद्देश्य और दिशा, दोनों दृष्टि से ही सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है । हर सच्चे जनतंत्र प्रेमी व्यक्ति और शक्ति को इसकी सफलता के लिए यथासंभव योगदान करना चाहिए।


(20.11.2022)

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

रवीश कुमार ज़िंदाबाद !

 

— अरुण माहेश्वरी 



मोदी-अडानी, अर्थात् सरकार-कारपोरेट की धुरी का एनडीटीवी पर झपट्टा भारत के मीडिया जगत में एक घटना के तौर पर दर्ज हुआ है । एक ऐसी घटना के तौर पर जो अपने वक्त के सत्य को सारे आवरणों को चीर कर सामने खड़ा कर दिया करती है । नंगे राजा के बदन के मांस, मज्जा को भी खींच कर निकाल देती है । आज का शासन हर स्वतंत्र आवाज़ को पूरी ताक़त के साथ कुचल डालने के लिए आमादा है, इस पूरे घटनाक्रम ने इसे पूरी तरहसे पुष्ट कर दिया है । 




और, कहना न होगा, इस पूरी घटना को एक ठोस, वैयक्तिक रूप प्रदान किया है रवीश कुमार ने । एनडीटीवी पर सरकार-कारपोरेट धुरी का क़ब्ज़ा जैसे सिर्फ़ एक व्यापारिक मीडिया घराने की मिल्कियत पर एक और मालिक का क़ब्ज़ा भर नहीं, बल्कि भारतीय जनतंत्र में सच की आवाज़ का एक प्रतीक बन चुके रवीश कुमार का गला घोंटने की कोशिश का भी सरे आम एक निर्मम, निकृष्ट प्रदर्शन है । 




इसमें शक नहीं है कि रवीश कुमार-विहीन एनडीटीवी का सचमुच स्वयं में कोई ऐसा विशेष मायने नहीं है, कि उस पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े को मीडिया जगत के लिए किसी अघटन के रूप में देखा जाता । पर रवीश महज़ एक एंकर नहीं रह गये हैं । वे इस समय में फ़ासिस्ट दमन के प्रतिरोध और प्रतिवाद की आवाज़ के आदर्श प्रतीक के रूप में उभरे हैं । 




एक पत्रकार के रूप में उनकी कड़ी मेहनत, विषय की परत-दर-परत पड़ताल करने की तीक्ष्ण दृष्टि, अदम्य साहस के साथ एक अद्भुत लरजती हुई आवाज और धीर-गंभीर मुद्रा में उनकी प्रस्तुतियों ने उनमें पत्रकारिता के उन श्रेष्ठ मानकों को मूर्त किया हैं जो दुनिया के किसी भी पत्रकार के लिए किसी आदर्श से कम नहीं हैं । 




इसीलिए, आज उनका मज़ाक़ सिर्फ़ वे फूहड़ और बददिमाग़ लोग ही उड़ा सकते हैं, जो पत्रकारिता के पेशे में होते हुए भी किसी भी मायने में पत्रकार नहीं बचे हैं । वे या तो शुद्ध रूप में सत्ता के दलाल है या ‘चतुर सुजान’ की भंगिमा अपनाए हुए महामूर्ख इंसान । वे मनुष्य के प्रतीकात्मक मूल्य के पहलू से पूरी तरह से अनजान, सिर्फ़ उसके हाड़-मांस के अस्तित्व की ही जानकारी रखते हैं और अपनी इसी जानकारी पर इतराते हुए आत्म मुग्ध रहा करते हैं । मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में ऐसे ‘चतुर सुजानों’ की आपको एक पूरी जमात नज़र आ जाएगी । ऐसे लोगों के लिए प्रमाता के प्रतीकात्मक मूल्य से इंकार करके उसे लघुतर बनाना हमेशा एक खेल की तरह होता है । इसमें उन्हें कुछ वैसा ही मज़ा आता है, जैसे पौर्न के फेटिश खेल में जीवित इंसान को सिर्फ़ एक शरीर मान कर उससे मज़ा लूटा जाता है । 




इस लेखक ने तीन साल पहले ही अपनी एक विस्तृत टिप्पणी में रवीश कुमार को भारतीय मीडिया की एक विशेष परिघटना कहा था । आज एनडीटीवी पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े के वक्त गंभीर पत्रकारिता की पूरी बिरादरी ने जिस प्रकार की भावनाओं को व्यक्त किया है, उससे भी यही ज़ाहिर हुआ है कि एनडीटीवी और रवीश कुमार की तरह की पत्रकारिता पर कोई भी हमला पत्रकारिता-धर्म पर हमला है । यह जनतंत्र का एक स्तंभ कही जाने वाली एक प्रमुख संस्था पर हमला है । 




हम जानते हैं, सत्य को दबाने की जितनी भी कोशिश होती है, सत्य हमेशा नए-नए रूपों में सामने आने के रास्ते खोज लेता है । वह दमन की कोशिश की हर दरार के अंदर से और भी ज़्यादा तीव्र चमक के साथ आभासित होता है।  वह अपनी अनुपस्थिति में भी हमेशा उपस्थिति रहता है । मौक़ा मिलते ही सिर्फ़ लक्षणों में नहीं, ठोस रूप में भी प्रकट होता है । सत्य की संभावनाओं का कभी कोई अंत नहीं होता है । 




इसीलिए रवीश की संभावनाओं का भी कोई अंत नहीं होगा । जो कीर्तिमान उन्होंने स्थापित कर दिया है, उसे शायद ही कभी कोई मलिन कर पायेगा । और इस घटना को उनकी पारी का अंत मानना भी पूरी तरह से ग़लत साबित होगा । 

बुधवार, 16 नवंबर 2022

गालियाँ और मोदी जी !

—अरुण माहेश्वरी 



मोदी जी अक्सर हर थोड़े दिनों के अंतराल पर गालियों और कुत्साओं की गलियों में भटकते हुए पाए जाते हैं । 


या तो वे खुद अन्य लोगों को नाना प्रकार की गालियों से नवाजते हुए देखे जाते हैं, या अन्य की गालियों की गंदगी में लोटते-पोटते, आनंद लेते दिखाई देते हैं। 


उनके ही शब्दों में, हर रोज़ की ये कई किलो गालियां उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह होती हैं । 


सचमुच, फ्रायड भी यही कहते हैं कि व्यक्ति हमेशा घूम-फिर जिन बातों को दोहराता हुआ पाया जाता है, उसमें ऐसे आवर्त्तन हमेशा उसके लिए आनंद की चीज़ हुआ करते हैं । 


प्रमाता में ऐसा repetition उसके enjoyment पर आधारित होता है । 


पर फ्रायड यह भी कहते हैं कि इसी से उस चरित्र की कमजोरी, प्रमादग्रस्त प्रमाता के रोग के लक्षण की सिनाख्त भी होती है ।


इसमें मुश्किल की बात एक और है कि आदमी हमेशा दोहराता तो वही है, जिसे वह दोहराता रहा है, पर हर दोहराव में रफ़्तार की गति के कम होने की तरह, कुछ क्षय होता रहता है, और क्रमशः उसकी बातें उसके सिर्फ एक रोग के लक्षण का संकेत भर बन कर रह जाती हैं ।


फ्रायड कहते हैं कि इस प्रकार के दोहराव में व्यक्ति को उस चीज से मिलने वाला मज़ा ख़त्म होता जाता है । 


जॉक लकान कहते हैं कि यही वह बिंदु है जहां से फ्रायडीय विमर्श में ‘खोई हुई वस्तु की भूमिका’ (function of lost object) का प्रवेश होता है । 


यह व्यक्ति की वह मौज है जिसमें वह अपनी छवि की बाक़ी सब चीजों को गँवाता जाता है। इसे लकान की भाषा में Ruinous enjoyment कहते हैं । यह बिंदु उसी दिशा में बढ़ने का प्रस्थान बिंदु है । 


इससे व्यक्ति एक निश्चित, एकल दिशा के संकेतक में बदलता जाता है । उससे कोई भी जान पाता हैं कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है, वह क्या करने और कहने वाला है ॥ 


लकान व्यक्ति के बारे में आम जानकारी और उसके ऐसे संकेतक रूप से मिलने वाली जानकारी, इन दोनों को बिल्कुल अलग-अलग चीज बताते हैं । इनमें आपस में कोई मेल नहीं रह जाता है । यह संकेतक प्रमाता को अन्य संकेतक के सामने पेश करने का काम करता है । 


उसी से जुड़ा हुआ है व्यक्ति के अपने आनन्द में क्षय का पहलू । यहाँ आकर उसके आनंद की समाप्ति हो जाती है, और यहीं से उसमें दोहराव का क्रम चलने लगता है । ज़ाहिर है कि इससे प्रमाता के बारे में हमारी या अन्य की जानकारी भी सिकुड़ती चली जाती है । 


जैसे हमने देखा कि कैसे राहुल गांधी को पप्पू बना कर आरएसएस वालों ने उनके पूरे व्यक्तित्व को ही ढक दिया था । चूँकि वह राहुल पर आरोपित छवि थी, वे आज उससे आसानी से निकल जा रहे हैं । 


लेकिन जहां तक मोदी का प्रश्न है, एक झूठे और मसखरे व्यक्ति के रूप में अपने को पेश करना अपने बारे में उनकी खुद की फैंटेसी का हिस्सा रहा है, जिसमें लोगों को भुलावा दे कर सच्चाई से दूर रखना ही वे राजनीति का मूल धर्म मानते हैं । वे इसी फैंट्सी में मज़ा लेते हैं । 


यही वजह है कि अब हर बीतते समय के साथ मोदी जी के बारे में लोगों की पूरी धारणा ही एक झूठ बोलने वाले मसखरे की होती जा रही है। यह धारणा उन पर एक गहरे दाग की तरह, उनकी चमड़ी पर पड़ चुके एक अमिट दाग का रूप ले चुकी है । 


अब तक जिस दाग से वे खुद मज़ा ले रहे थे, वहीं अब अंततः उन्हें शुद्ध मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहा है । 


लोग हंस रहे हैं कि जो व्यक्ति हिमाचल के अपने एक छोटे से कार्यकर्ता को तो नियंत्रित नहीं कर पा रहा है, वह हांक रहा है कि उसने रूस के राष्ट्रपति से यूक्रेन के युद्ध को चंद घंटों तक रुकवा दिया !

बुधवार, 2 नवंबर 2022

विमर्श के लिए शब्द ज़रूरी नहीं होते हैं

—अरुण माहेश्वरी 




अभी चंद रोज़ पहले कोलकाता में गीतांजलि श्री जी आई थीं। प्रश्नोत्तर के एक उथले से सत्र के उस कार्यक्रम मेंघुमा-फिरा कर वे यही कहती रहीं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं हैं कि कोई उनके उपन्यास के बारे में क्या राय रखता हैं उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि ‘वे सोशल मीडिया तो देखती ही नहीं हैं’  लेकिन सच्चाई यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया मेंतो उन्हें मिले पुरस्कार की सिर्फ पंचमुख प्रशंसा वाली रिपोर्टिंग ही हुई है , उपन्यास की प्रशंसा या आलोचना की गंभीरचर्चाएँ तो अब तक सोशल मीडिया पर ही हुई हैं  

 

गौर करने की बात थी कि इस मीडिया को  देखने के बावजूद इस पूरी वार्ता में वे अपने आलोचकों को ही जवाब देनेमेंसबसे अधिक तत्पर नज़र  रही थीं  अपने आलोचकों के जवाब में उन ‘ढेर सारे’ पाठकों की प्रतिक्रियाओं का हवालादे रही थींजो उनके उपन्यास में अपने घर-परिवार के चरित्रों को और अपनी निजी अनुभूतियों की गूंज-अनुगूँज को सुनकर मुग्ध भाव से उन तक अपने संदेश भेजते रहते हैं  अर्थात्एक लेखक के नाते उन्हें परवाह सिर्फ अपने इनआह्लादितपाठकों की हैंआलोचकों की नहीं ! 

 

गीतांजलि श्री जी का यह व्यवहार कि जिन आलोचनाओं को वह देखती ही नहीं हैंउनके जवाब के लिए ही वे सबसेज़्यादा व्याकुल हैंयही दर्शाता है कि सचमुच किसी भी विमर्श के लिए ठोस शब्दों के पाठ या कथन का हमेशा सामनेहोना ज़रूरी नहीं होता है  लकान के शब्दों मेंइसे ‘बिना शब्दों का विमर्श ‘ कहते हैं। 

 

चूंकि हर विमर्श की यह मूलभूत प्रकृति होती है कि वह शब्दों कीकथन की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैइसीलिएठोस शब्द हमेशा विमर्शों के लिए अनिवार्य नहीं होते हैं  जो दिखाई नहीं देताया जिनसे हम मुँह चुराते हैंवही हमें सबसेअधिक प्रताड़ित भी किया करता है  इसे ही घुमा करखामोशी की मार भी कह सकते हैं  

 

गीतांजलि श्री आलोचना के जिन शब्दों को देखती ही नहीं हैंवे अनुपस्थित शब्द ही उनके अंदर ‘अन्य’ का एक ऐसा क्षेत्रतैयार कर देते हैंजो असल में ‘अन्य ‘ का अन्य नहीं होता हैवह उनके लेखन में ही निहित नाना संकेतकों के हस्तक्षेप सेनिर्मित एक अलग क्षेत्र होता है। जैसे होती है आदमी की अन्तरात्मा की आवाज़उसका सुपरइगो  

 

जो जितना सक्रिय रूप में अपने पर उठने वाले सवालों से इंकार करता हैवह उतना ही अधिक उन सवालों से अपने अंतरमें जूझ रहा होता है  

 

अभी दिल्ली मेंहँस के साहित्योत्सव में अलका सरावगी अपने चर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास ‘ के बारे मेंराजेन्द्र यादव के इस सवाल पर सफ़ाई दे रही थीं कि उनके इस उपन्यास में वह खुदयानी ‘स्त्री’ कहा है ? अलका जी काकहना था कि वह उपन्यास तो किन्हीं चरित्रों की कहानी नहीं हैवह तो कोलकाता के इतिहास की कथा है  

 

हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता काइतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 

 

इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के प्रकल्प कमजोर और दबे हुए चरित्रों की उपस्थिति से कैसे निर्मित हो सकते हैं ? स्त्रियोंका ऐसे प्रकल्प में क्या काम ! उनकी लाश पर ही हमेशा ऐसे प्रकल्प चल सकते हैं  ‘दुर्गा वाहिनी’ की कोई लेखिका क्यापूज्य हिंदू संयुक्त परिवार में स्त्रीत्व की लालसाओं की कोई कहानी लिख सकती है ? 

 

कहना  होगा, ‘कलिकथा वाया बाइपास‘ में लेखिका की गैर-मौजूदगी उस पूरे प्रकल्प की अपरिहार्यता थी  उसकीमौजूदगी तो वास्तव में उस पूरे प्रकल्प के लिए किसी ज़हर की तरह होता  

 

दरअसलअलका जी जिस बात को नहीं कहना चाहती हैउपन्यास में उनके  होने की बात नेअर्थात् उनकी अनकही बातसे उत्पन्न विमर्श ने वही बात कह दी है। अर्थात्राजेन्द्र यादव के जवाब में उनकी बातों से यदि कोई विमर्श पैदा होता है तोवह असल में उनकी कही हुई बातों से नहींउन्होंने जो नहीं कहा हैउन बातों से ही पैदा होता है  

 

विमर्श इसी प्रकार  सिर्फ शब्दों की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैबल्कि बिना शब्दों और बातों के भी पैदा हुआकरता है 

  




हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता का इतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 


इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के