बुधवार, 30 नवंबर 2016

मोदी सरकार का स्वेच्छाचार पता नहीं क्या-क्या गुल खिलायेगा ?

-अरुण माहेश्वरी


प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर पाकिस्तान पर किये गये सेना के तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से भारत-पाक सीमा पर लगातार गोलाबारी चल रही है और जम्मू और कश्मीर में बुरहान वानी के इनकाउंटर के बाद से आज तक हर रोज सेना पर आतंकवादी हमलें हो रहे हैं। यह कुल मिला कर एक ऐसा डरावना सच है जिसमें कोई भी यह साफ देख सकता है कि केंद्र में शासक दल की उग्र-राष्ट्रवादी राजनीति और विदेश नीति से लेकर राष्ट्रीय नीति के हर मोर्चे पर उसकी सरकार की चरम विफलताओं की कीमत हमारी फौज के लोगों को चुकानी पड़ रही है। पाकिस्तान पहले जहां था, वहीं आज भी है। इस बीच अगर कुछ बदला है तो वह है भारत में मोदी सरकार की स्थापना । और इसीलिये, पहले की तुलना में भारत-पाक सीमा की स्थिति में या जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद की स्थिति में कोई गिरावट आई है तो उसकी जिम्मेदारी से मोदी सरकार अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर सकती है।

हमारी चिंता का विषय यह है कि अगर सीमा पर या कश्मीर में यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो वे दिन दूर नहीं हैं जब भारत में भी सिविलियन और सैनिक सत्ताओं के बीच तनाव और टकराहटों की वैसी ही खबरें आने लगेगी जैसी खबरें पाकिस्तान की राजनीति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। सामान्य तौर पर सेना के काम करने के अपने सामरिक तर्क होते हैं। उसके लिये राष्ट्र की सुरक्षा और शासक राजनीतिक दल के राजनीतिक हित हमेशा एक नहीं हो सकते हैं। एकाध बार किसी प्रधानमंत्री की सनक के अनुसार काम करने के बावजूद यह सिलसिला अनंत काल तक नहीं चला करता है। सिविलियन सरकार से वह भी भारत के दूसरे सभी नागरिकों की तरह अपने दायित्वों के निर्वाह की अपेक्षा रखती है। सेना के अधिकारी आखिर कब तक बिना किसी सामरिक तर्क के, सिर्फ भाजपा के उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे के लिये सेना के लोगों की बलि चढ़ाये जाने पर चुप्पी साधे रहेंगे ? वे कब तक हमारे रक्षा मंत्री की इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण दलीलों को स्वीकारते रहेंगे कि नोटबंदी ने कश्मीर के आतंकवादियों की कमर तोड़ दी है; पत्थरबाजी कम हो गयी है !

मोदी सरकार के स्वेच्छाचार ने अभी भारत के समूचे जन-जीवन को ही अस्थिर नहीं कर दिया है, सभी स्थापित संस्थाओं की मर्यादाओं को दाव पर लगा दिया है। अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिये इसने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल कर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक स्थायी तनाव की स्थिति पैदा कर रखी है। आज घरेलू सुरक्षा और सीमा की सुरक्षा की तरह के हर मामले में राजनीतिक और कूटनीतिक सूझबूझ की कमी के चलते इस सरकार की सेना पर बढ़ती हुई भारी निर्भरशीलता के बहुआयामी खतरे हैं। यह एक ओर जहां सेना को अलग, नये शक्ति केंद्र के रूप में विकसित कर सकती है, वहीं सेना के लगातार मनमाने दुष्प्रयोग से भारत में सिविलियन और नागरिक सत्ताओं के बीच एक ऐसे तनाव के बीज डाल सकती है, जिससे अब तक का भारत पूरी तरह से अपरिचित रहा है।

वह समय ज्यादा दूर नहीं है जब कोई भी सेनाध्यक्ष उठ कर खुले आम सरकार के फैसलों में सामरिक तर्क के अभाव के नाम पर उसे चुनौती दे सकता है। ऐसे में, शासक दल की पसंद के जजों की तलाश की तरह ही अपनी पसंद के सेना के अधिकारियों की तलाश की अंधी दौड़ कौन सा नया संकट पैदा कर सकती है, इसका सही-सही अनुमान लगाना अभी कठिन है। लेकिन जब सरकार का संचालन राजनीतिक विवेक और सूझबूझ के बजाय अज्ञान और तुगलकी सनक से किया जाने लगे तो उससे ऐसी हर प्रकार की विकृति के पैदा होने की आशंका बनी रहती है।

भारत-पाक सीमा पर बने हुए तनाव और कश्मीर की समस्या के प्रति मोदी सरकार के कोरा शौर्य-प्रदर्शन वाले इस रुख में ऐसे सभी खतरे निहित हैं।



सोमवार, 28 नवंबर 2016

अब नोटबंदी स्कीम की क्या कोई उपयोगिता रह गई है ?


आज लोकसभा में वित्त मंत्री ने एक वित्तीय विधेयक पेश किया है जिसमें कहा गया है कि स्वेच्छा से काला धन जमा कराने वाले लगभग पचास प्रतिशत कर और पैनल्टी जमा कराके बाक़ी पचास प्रतिशत राशि को अपने पास रख सकते हैं ।

सवाल उठता है कि काला धन को सफ़ेद करने की वीआईडीएस की तरह की वित्तमंत्री की इस घोषणा के बाद अब अलग से नोटबंदी स्कीम की क्या उपयोगिता है ? काला धन अब इसके दायरे के बाहर हो गया है । सारत:, अब अपने आप में तो यह स्कीम सिर्फ आम लोगों के जीवन को अस्थिर करने वाली, भारत की कृषि-अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ को तोड़ने वाली एक स्कीम रह गई है ।

क्या अब नोटबंदी की पूरी योजना को सिर्फ गाँव और शहरों में आम लोगों के घरों में पड़ी हुई बचत की नगद राशि को खींच कर बैंकों में लाने और उसे पूँजीपतियों को आसान शर्तों पर सुलभ कराने की स्कीम कहना उचित नहीं होगा ?

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

नोटबंदी के राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पहलू


-अरुण माहेश्वरी

नोटबंदी के मोदी जी के औचक क़दम से मची अफ़रा-तफ़री पर कुछ लोग सचमुच भ्रमित है । यह अफ़रा-तफ़री सभी स्तरों पर है । इससे पैदा होने वाले ग़ुस्से, भ्रम और विचार के भी एक नहीं, अनेक रूप है । इनमें खासी संख्या में वे भी शामिल हैं जो ढर्रेवर राजनीति से उकताए हुए हैं और समझते हैं कि मछलियों के अच्छे स्वास्थ्य के लिये ही पानी में कुछ न कुछ हलचल का होना जरूरी है । इनके रेडिकलिज्म में कुँए में कूद जाना भी एक प्रकार का रेडिकलिज्म ही है ।

बहरहाल, मोदी जी के इस क़दम के आर्थिक पक्षों का सही-सही मूल्यांकन करना सीधा-सरल काम नहीं है । इसने देश के अर्थ जगत में एक भारी अस्थिरता पैदा कर दी है, इसमें कोई शक नहीं है । और हमेशा आर्थिक अस्थिरता का पहला शिकार समाज का सबसे कमजोर तबका होता है, इसे भी अलग से बताने की जरूरत नहीं है । दिल्ली की मंडियों से लेकर छोटे-छोटे कल-कारखानों में ताला लगना, ठेकेदारों का काम रुक जाना और दिल्ली जैसे शहर से रेलों में भर-भर कर लोगों का गांवों की ओर पलायन करना यही दर्शाता है ।

इसके साथ ही यह बात सौ टका साफ है कि मोदी जी का यह कदम आर्थिक कारणों से नहीं, शुद्ध रूप में राजनीतिक कारणों से उठाया गया कदम है । आज ये तथ्य सबके सामने है कि भारत में काला धन का बमुश्किल एक प्रतिशत हिस्सा नगदी में है । इसी प्रकार जाली नोटों की संख्या तो 0.025 प्रतिशत मात्र है । इन विषयों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं ।

और जहां तक राजनीति का सवाल है, राजनीति में नाटकीय तत्वों की एक बड़ी भूमिका से भला कौन इंकार करेगा ! नरेंद्र मोदी जीते, भाजपा-आरएसएस सब मोदी पार्टी बन गए और देखते-देखते बुद्धिजीवियों, मुसलमानों और दलितों को धमकाने में ही उन्होंने अपने कार्यकाल का आधा समय बिता दिया । लोगों ने मोदी को विदेशों में घूमते और दिन में दस बार नई-नई पोशाकें बदलते जरूर देखा लेकिन बाक़ी जीवन उसी पुराने, बँधे-बँधाए ढंग से जारी रहा । मोदी जी ने खुद को रैम्प पर चलने वाले फ़ैशन मॉडल का प्रतीक बना लिया, पार्टी को अमित शाह का गिरोह और रामदेव सरीखे बाबा को उद्योगपति-अर्थशास्त्री-विचारक-योगी । इस प्रकार की एक तिकड़ी से राजनीति की एक नई धुरी तो बनती दिखाई दी, लेकिन यह अजीबो-ग़रीब गुह्य तत्वों की धुरी थी, जिसमें किसी के लिये भी किसी आशा का कोई नया तत्व नहीं दिखाई देता है ।

बहरहाल, ऐसे ही एक समय में, अपने कार्यकाल के मध्यान्ह में मोदी जी ने विमुद्रीकरण का यह एक ऐसा नया क़दम उठाया है जिसकी मिसाल दुनिया में कुछ बनाना स्टेट (अराजक राज्य) माने गये देशों के बदहवास शासनों के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती । 1991 में सोवियत संघ में गोर्बाचेव ने अपने शासन के अंतिम दिनों में बाज़ार में रूबल की संख्या को कम करने के लिये ऐसा क़दम उठाया तो सोवियत संघ ही उठ गया । नब्बे के दशक में जेयरे के तानाशाह मोबुतु ने यह क़दम उठाया तो उससे पैदा हुई अराजकता से वह फिर कभी उभर ही नहीं पाया और 1997 में  उसको उखाड़ फेंका गया । म्यांमार में 1987 में अपनी अस्सी फ़ीसदी मुद्रा को बंद कर दिया गया, तभी से वहाँ के सैनिक शासन के खिलाफ जनता की लड़ाई कभी नहीं रुकी । म्यांमार की सैनिक जुंटा को दुनिया के एक बेहद दमनकारी शासक के रूप में याद किया जाता है । घाना में ऐसा ही एक क़दम उठाया गया था, जिससे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय और ज्यादा बढ़ गया । इसी प्रकार नाइजीरिया के सैनिक शासक मुहम्मुदु बुहारी ने भी एक कोशिश की थी जिससे हासिल कुछ नहीं हुआ । कुल मिला कर यह बदहवास तानाशाहों का अपनी जनता को सताने का एक प्रिय औज़ार रहा है ।

मोदी जी ने भी आज अपने को दुनिया के इन सभी बदनाम शासकों की क़तार में शामिल कर लिया है ।

इसके अलावा इस विषय का एक और, मोदी जी का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस विषय पर हम जितना सोचते हैं, इसकी गहरी तहों में बैठे एक अजीबो-गरीब प्रेत संसार का घना अंधेरा आंखों के सामने छाने लगता है। फ्रायड ने यहूदियों की धार्मिक परंपरा का विश्लेषण करते हुए मूसा की हत्या के हिंसक प्रकरण की चर्चा की है। वह कहता है कि इससे जुड़े छुद्र हिंसक भाव के प्रेत से वह धार्मिक परंपरा कभी अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बनिस्बत, उसने उनमें सामान्य जीवन के प्रति नकार से चिपके रहने की एक ऐसी जिद पैदा कर दी कि जिसके चलते यहूदी लोग हजारों साल से बिना किसी देश और बिना किसी साझा सांस्थानिक परंपरा के भी बरकरार है। इसी संदर्भ में फ्रायड ने लिखा है कियह सच है कि कोई भी व्यक्ति किसी संप्रदाय का पूर्ण सदस्य तब तक नहीं बन पाता है जब तक वह उस संप्रदाय के प्रकट विचारों और विश्वासों के साथ ही उसकी परंपरा से जुड़ी नाना प्रकार की मिथकीय बातों के प्रेतात्मक पक्षों को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लेता है।

इस लिहाज से, यह सच है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) नामक एक गोपनीय प्रकार के संगठन के प्रचारक के नाते उसके वैसे ही एक ‘पूर्ण सदस्य’ है, जो इसके संस्कारों के नाम पर इसके अंदर गहरे तक पैठी सभी मिथकीय बातों की ग्रंथियों को अपने अंदर पाले हुए हैं। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं।

आरएसएस के सभी अध्येताओं ने इस बात को नोट किया है कि उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के इस गोपनीय संगठन को समाज के जिस तबके से सबसे अधिक समर्थन मिलता रहा है, वह है छोटे-बड़े दुकानदारों और व्यवसायियों का तबका। इन छोटे व्यवसासियों के अन्यथा एक प्रकार के नीरस और उबाऊ जीवन में आरएसएस उनकी हिंदू पहचान की भावना के साथ एक थोथे शौर्य और रोमांच का बोध पैदा करता रहा है; उनके आत्म-केंद्रित जीवन में कुछ सार्थकता का अहसास उत्पन्न करता है।

व्यवसायियों के मूलत: ऐसे, नगदी लेन-देन से काम करने वाले तबके के बीच काम करने वाले आरएसएस का नेतृत्व इन व्यापारियों की कर बचाने की करतूतों से परिचित होने के नाते अपने जेहन में कहीं न कहीं इस भ्रम को पाला हुआ है कि दुनिया का सारा काला धन या तो व्यापारियों के गोदामों में पड़े बोरों में बंद है, या उनकी तिजोरियों और आलमारियों में सहेज कर रखी गई नोटों की गड्डियों में। इसीलिये इनके पास अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में लगातार प्रवहमान काले धन के बारे में कभी कोई सही अवधारणा नहीं बन पाई है। यह वही तबका है जो अपनी धार्मिक मिथकीय कथाओं को भी इतना बड़ा सत्य मानता है कि उसके बड़े से बड़े नेता को वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भी यह कहते हुए हिचक नहीं होती कि हमारे वेदों में तो आधुनिक विज्ञान और तकनीक तक की सारी चीजें मौजूद है।

कुल मिला कर, आज की दिक्कत यह है कि इस संकीर्ण मानसिकता के लोग आज देश की सत्ता पर आगये हैं। उन्होंने वादा किया था कि काला धन को खत्म करेंगे,  लेकिन यह धन कैसे और कहां है, इसके बारे में इनके पास कोई सही ज्ञान नहीं है, सिवाय इसके कि चंद लोगों के गोदामों में पड़े बोरा और तिजोरियों में। इनके सलाहकार भी कुछ विचित्र प्रकार के लोग है, जैसे बाबा रामदेव, जिन्होंने चुनाव के पहले इन व्यापारियों को खुश करने के लिये आयकर को ही खत्म कर देने का तुगलकी प्रस्ताव रखा था। कहते हैं, ऐसा ही एक पुणे स्थित संघी संगठन है -अर्थक्रांति, जिसके किसी अनिल बोकिल ने मोदी जी को नगदी पर धावा बोलने के इस कदम के बारे में समझाया था।

और यही वजह है कि नगदी रखने वाले आम लोग, किसान, मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार तो मोदी की नजर में एक नंबर के खलनायक हो गये और अंबानी, अडानी से लेकर माल्या, ललित मोदी आदि बिल्कुल दूध के धुले, साइबर दुनिया में प्लास्टिक मनि के बादशाह, सफेद धन के प्रतीक पुरुष हो गये। अनिवासी भारतीय, जिनमें से कई रोजाना भारतीय अर्थ-व्यवस्था में पैदा होने वाले काले धन को गोरा करने के गोरखधंधों में लगे हुए हैं, उन सबके साथ मोदी जी की खूब छन रही है, लेकिन आम लोग, किसान, मजदूर और छोटे दुकानदार उनकी आंखों में शूल की तरह चुभते दिखाई देते हैं।

आरएसएस के अंदर की ऐसी ही एक और ग्रंथी है - जाली नोट और आतंकवादियों की ग्रंथी। इसका उनके अंदर की मुस्लिम-विरोधी नफरत से भी एक गहरा संबंध है। मजे की बात यह है कि आज वे सत्ता में है, भारत सरकार के सभी प्रकार के सांख्यिकी और निगरानी के संस्थानों पर उनका नियंत्रण है। इनके जरिये वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में जाली नोटों की संख्या आदि के बारे में, और आतंकवादियों के काम करने के तौर-तरीकों के बारे में आसानी से ज्यादा वस्तुनिष्ठ समझ कायम कर सकते हैं। लेकिन, ये ऐसे हैं कि उन संस्थानों की ओर झांकना भी पसंद नहीं करते। इन्हें डर लगता है कि जिन ग्रंथियों के साथ उनका पूरा अस्तित्व जुड़ा हुआ है, उनमें ही कहीं इन संस्थानों के दिये तथ्यों से दरार न पड़ने लग जाए और  उनकी संघी अस्मिता का पूरा महल ही न ढह जाए। यह एक प्रकार से इनके लिये अस्तित्व का संकट है।

जाली नोटों के बारे में स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की तरह का भारत का सबसे प्रतिष्ठित संगठन जो तथ्य दे रहा है, उससे पता चलता है कि अब तक भारत में कुल नगदी का महज 0.025 प्रतिशत भी जाली नोटों का नहीं है। इसी प्रकार, आतंकवादी अपनी करतूतों के लिये नगदी रुपयों का ही अनिवार्य तौर पर व्यवहार करते हैं, इसके बारे में भी कोई सबूत नहीं है।

फिर भी, यह मोदी जी की संघी मानसिकता की विडंबना है कि वे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस करके छोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसे तथ्यों की ओर नजर भी नहीं डाल सकते। उल्टे जिन सभी अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस कदम को एक बुरी अर्थनीति कहा है, मोदी जी कहते हैं, वे सचाई को नहीं जानते। सचाई तो संघी प्रचारक की अपनी ग्रंथी है !

यह सब देख कर पुन: फ्रायड का ही खयाल आता है जो कहता है कि आदमी की दमित भावनाओं में इतनी भयानक शक्ति होती है कि वह उसे किसी भी प्रकार की भयानक से भयानक गल्तियों के रास्ते में धकेल सकती है। आरएसएस में रहते हुए जिन बेतुकी बातों को मोदी जी ने अपने अंदर पाल रखा है, कहना न होगा, वे ही अब अनुकूल परिस्थितियों में ऐसी विध्वंसक दमित भावनाओं के रूप में प्रकट हो रही है।

पता नहीं वे कैसे, अपने प्रचारक जीवन की संकीर्णताओं से मुक्त होंगे।

http://www.sanmarg.in/



नोटबंदी एक राष्ट्रीय आपदा का रूप ले रही है



प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा ने दो दिन पहले बहुत चलताऊ ढंग से नोटबंदी के कदम को एक ‘साहसी’ फैसला बताया था जिससे काला धन और भ्रष्टाचार दूर होगा। उन्होंने ही आज फिर इस विषय पर विचार करते हुए एक ट्विट करके वस्तुत: इसे आम लोगों के लिये एक राष्ट्रीय आपदा करार दिया है। उन्होंने कहा है कि :

‘‘इस नोटबंदी से आम लोगों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। खास तौर पर देश भर के छोटे शहरों में जिन लोगों को फौरन चिकित्सा की जरूरत है, ऑपरेशन कराने की जरूरत है और दवाएं चाहिए, वे बड़ी परेशानी में हैं। नगदी में कमी के चलते खाने-पीने की घर की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में भी गरीबों को बहुत तकलीफ हो रही है।
‘‘सरकार अपनी ओर से ज्यादा से ज्यादा करेंसी नोट उपलब्ध कराने की कोशिश करे, लेकिन इसके साथ ही राष्ट्रीय आपदाओं के समय जिस प्रकार के राहत कार्य किये जाते हैं ताकि लोग अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा कर सके, छोटे अस्पतालों में जरूरी चिकित्सा हासिल कर सके, उन सबको भी करने की जरूरत है। इस प्रकार के आपातकालीन कदमों से पीडि़त लोगों को लगेगा कि सरकार को उनका खयाल है, विमुद्रीकरण के महत्वपूर्ण कार्यक्रम पर अमल के दौरान वह आम लोगों की जरूरतों को भूली नहीं है।’’



इसी प्रकार, आज राज्य सभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के कदम को एक संगठित लूट और कानूनी डाका बताया और कहा कि प्रधानमंत्री ने लोगों से पचास दिन मांगे हैं। सवाल है कि हमारे देश के गरीब लोग क्या इन पचास दिनों को भी बर्दाश्त कर पायेंगे ? इसने इस सरकार की व्यवस्थाओं में पहाड़ समान कमियों को जाहिर किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक बेपर्द हुए हैं। किसान जनता की जरूरतों को पूरा करने वाले सहकारी बैंकों को पंगु बना दिया गया है। इससे जीडीपी को 2 प्रतिशत तक का नुकसान पहुंच सकता है।

सिर्फ रतन टाटा या पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं, जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग जो संघियों की तरह निष्ठुर नहीं है, जिनमें मानवीय संवेदनाएं अब भी बची हुई है, शुरू से इसी प्रकार महसूस कर रहे हैं।

कहना न होगा, अगर इस फैसले को तत्काल नहीं बदला गया तो यह एक सनकी शासक द्वारा भारत के लाखो-करोड़ों लोगों की जिंदगी से खेलने वाला कदम साबित होगा। इससे देश को रत्ती भर भी लाभ नहीं होने वाला है।

बुधवार, 23 नवंबर 2016

यह कोरा बेहूदापन है





आज ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक ने अपने लेख - ‘विमुद्रीकरण और गरीबों का विनाश : इसका कोरा बेहूदापन’ ( Demonetisation and the destruction of the poor : The inanity of it all) में लिखा है कि यह समय है जब बिना किसी लाग-लपेट के बात की जानी चाहिए। तत्काल 500 और 1000 के नोटों के चलन को रोकने का यह फैसला आजाद भारत में लिया गया आज तक का सबसे बड़ा बेहूदा फैसला है। प्रभात ने इसमें कहा है कि सरकार के ऐसे कई निर्णय होते हैं जो हमारे अनुसार आगे जा कर आम लोगों पर बुरा असर डालते हैं। मसलन्, अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक वित्तीय प्रवाह के लिये खोल देना। लेकिन इन फैसलों के पीछे वर्गीय हित काम कर रहे होते हैं, वे ऐसे कोरे बेहूदा फैसले नहीं होते हैं।

प्रभात ने अपने इस लेख में सरकार की काले धन के बारे में भारी नासमझी से लेकर जाली नोटों पर इसके प्रभाव की सारी दलीलों की धज्जियां उड़ाई है और साफ शब्दों में कहा है कि इससे तेजी से काला धन पैदा करने वाले नगदी के एक नए कारोबार का प्रारंभ होगा।

‘‘करेंसी को नष्ट करने का अर्थ है उन गरीबों की खरीद की ताकत को नष्ट कर देना जो जीवन में नगदी का ही व्यवहार करते हैं।" इससे पैदा होने वाली भारी मंदी के प्रभावों को बताते हुए प्रभात ने इसे चंद काला धंधा वालों को तंग करने के नाम पर करोड़ों आम लोगों की नाक को काट डालना कहा है।

प्रभात ने अपने लेख के अंत में कहा है कि ‘‘भारतीय आर्थिक नौकरशाही को काफी बुद्धिमान माना जाता है। विमुद्रीकरण के इस कदम के बेहुदापन और ऐसे कदम के पहले की जरूरी तैयारियों की भारी कमी से पता चलता है कि उसमें बुद्धि का कितना अभाव हो गया है।’’

हम यहां इतना और जोड़ना चाहेंगे कि यह मोदी जी के उन्माद का एक ऐसा खेल है जिसमें आदमी जिसे निशाना बनाने की बात करता है वह तो एक कोरा धोखा होता है, और इस उपक्रम में जो तमाम हरकतें कर बैठता है, उसके अकल्पनीय घातक परिणाम होते हैं।

http://www.telegraphindia.com/1161124/jsp/opinion/story_120873.jsp#.WDaA6tV97IU

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

बाजार में नगदी की स्थिति आने वाले सात महीनों में भी सामान्य नहीं होगी


-पी. चिदम्बरम

आज से ही भारत सरकार ने बैंकों से नोटों को बदलने की संख्या को कम करके फिर 2500 की जगह 2000 रुपये कर दिया है। इसके बावजूद तमाम जगहों की खबरों से पता चल रहा है कि बैंकों की जरूरत के बराबर राशि कहीं नहीं पहुंच रही है।

इसकी क्या वजह है ? आज राज्य सभा टीवी पर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम की बातों से साफ था कि इसकी एकमात्र वजह यह है कि सरकार के पास देने के लिये पर्याप्त संख्या में नोट ही नहीं है। और, आने वाले सात महीनों तक यही स्थिति बनी रहेगी।

हमने जब भारत में करेंसी नोटों की छपाई की क्षमता के बारे में तथ्यों की जांच की तो हमने भी चिदम्बरम साहब की बात को शत प्रतिशत सही पाया।

भारत के सारे करेंसी नोट मध्य प्रदेश के दिवास, महाराष्ट्र के नासिक, कर्नाटक के मैसूर और पश्चिम बंगाल के साल्बनी में सरकार के सिक्युरिटी प्रिटिंग प्रेसों में छपते हैं। और इन नोटों के लिये कागज बनता है मैसूर के बैंक नोट पेपर मिल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड में, जो संयुक्त क्षेत्र की कंपनी है।

500 और 1000 के नोट मूल्य के लिहाज से कुल नगदी की राशि का 86 प्रतिशत है रहे हैं लेकिन संख्या के लिहाज से ये कुल नोटों की संख्या का 25 प्रतिशत थे जो कुल मिला कर 2200 करोड़ के करीब बैठते हैं।

2015-16 में इन सभी चारों प्रेसों में कुल 2100 करोड़ नोट छापे गये थे, जिसे अब तक का रेकर्ड उत्पादन कहा जाता है। अगर सारे प्रैस अपनी पूरी ताकत से दिन-रात काम करें तब भी यह अनुमान लगाया जाता है कि एक साल में इनमें अधिक से अधिक 2300 करोड़ नोट छप सकते हैं।

हम सब जानते हैं कि सरकार सारे नये नोट 2000 के नहीं निकालने वाली है। जैसी कि घोषणा की गई है, 2000 के साथ ही 500 के नये नोट भी निकाले जायेंगे। अब तक 500 के नये नोट बहुत ही मामूली संख्या में बाजार में आए हैं। यदि जल्द से जल्द इनकी संख्या नहीं बढ़ाई जाती है, तो 2000 के नोटों का छुट्टा कराने की एक और बड़ी भारी सामाजिक समस्या देखने को मिलेगी क्योंकि 100 के जितने नोट उपलब्ध है उनसे वह काम नहीं हो सकेगा। इसीलिये चिदम्बरम साहब ने बिल्कुल सटीक आकलन करके कहा है कि पुराने सभी नोटों को बदलने के बजाय बाजार में सिर्फ नगदी की स्थिति को सामान्य रखने के लिये ही जितने नये करेंसी नोटों की जरूरत है, उन्हें दिन-रात काम करके छापने में भी कम से कम सात महीना समय लगेगा। अर्थात बाजार में नगदी की समस्या आगामी सात महीनों तक बनी रहेगी।

जाहिर है, मोदी जी के इस मनमाने फैसले से पूरी अर्थ-व्यवस्था अचल नहीं होगी तो क्या होगा ?

इन तथ्यों को इस निम्न लिंक से जांचा जा सकता है :
https://factly.in/capacity-currency-printing-presses/



सोमवार, 14 नवंबर 2016

ये संघी ग्रंथी की प्रेतात्माएं पता नहीं और क्या-क्या गुल खिलायेगी !

-अरुण माहेश्वरी


सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 2015 का सकल घरेलू उत्पादन ( जीडीपी) लगभग 125 लाख करोड़ रुपये के बराबर था। पिछले लगभग डेढ़ दशक में तकरीबन सात प्रतिशत की दर से इसमें वृद्धि हुई है। 2006 में यह 945 बिलियन डालर था और 2016 में लगभग 2100 बिलियन डालर। सरकारी आकलन के अनुसार ही भारत में अभी हर साल जीडीपी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा काला धन के रूप में पैदा होता है। अर्थात अभी एक साल में कम से कम लगभग 25 लाख करोड़ रुपये।

मोदी जी की नोट-बदली स्कीम से 500 और 1000 के पुराने नोटों का चलन बंद करके कुल 13 लाख करोड़ की नगदी को निशाना बनाया गया है। इस प्रकार पिछले 20 साल में जमा हुए कम से 350 लाख करोड़ रुपये के काले धन में से एक प्रतिशत से भी कम को, क्योंकि 13 लाख करोड़ की पूरी नगदी तो काला धन नहीं है। अगर इसमें से तीन लाख करोड़ भी काला धन निकल आता है तो वह पिछले 20 सालों में जमा काला धन के एक प्रतिशत से भी कम होगा।

हम समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत के काला धन के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम को लक्ष्य करके मोदी जी ने पूरे देश में क्यों ऐसी उथल-पुथल मचा दी कि पिछले कई दिनों से पूरा देश ठप हो गया है ? जितना काला धन मिलेगा, उससे बहुत ज्यादा अर्थ-व्यवस्था को नुकसान हो जायेगा।

इस विषय पर हम जितना सोचते हैं, मोदी जी के मनोविज्ञान की गहरी तहों में बैठे एक अजीबो-गरीब प्रेत संसार का घना अंधेरा आंखों के सामने छाने लगता है। फ्रायड ने यहूदियों की धार्मिक परंपरा का विश्लेषण करते हुए मूसा की हत्या के हिंसक प्रकरण की चर्चा की है। वह कहता है कि इससे जुड़े छुद्र हिंसक भाव के प्रेत से वह धार्मिक परंपरा कभी अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बनिस्बत, उसने उनमें सामान्य जीवन के प्रति नकार से चिपके रहने की एक ऐसी जिद पैदा कर दी कि जिसके चलते यहूदी लोग हजारों साल से बिना किसी देश और बिना किसी साझा सांस्थानिक परंपरा के भी बरकरार है। इसी संदर्भ में फ्रायड ने लिखा है कियह सच है कि कोई भी व्यक्ति किसी संप्रदाय का पूर्ण सदस्य तब तक नहीं बन पाता है जब तक वह उस संप्रदाय के प्रकट विचारों और विश्वासों के साथ ही उसकी परंपरा से जुड़ी नाना प्रकार की मिथकीय बातों के प्रेतात्मक पक्षों को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लेता है।

इस लिहाज से, यह सच है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) नामक एक गोपनीय प्रकार के संगठन के प्रचारक के नाते उसके वैसे ही एक ‘पूर्ण सदस्य’ है, जो इसके संस्कारों के नाम पर इसके अंदर गहरे तक पैठी सभी मिथकीय बातों की ग्रंथियों को अपने अंदर पाले हुए हैं। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं।

आरएसएस के सभी अध्येताओं ने इस बात को नोट किया है कि उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के इस गोपनीय संगठन को समाज के जिस तबके से सबसे अधिक समर्थन मिलता रहा है, वह है छोटे-बड़े दुकानदारों और व्यवसायियों का तबका। इन छोटे व्यवसासियों के अन्यथा एक प्रकार के नीरस और उबाऊ जीवन में आरएसएस उनकी हिंदू पहचान की भावना के साथ एक थोथे शौर्य और रोमांच का बोध पैदा करता रहा है; उनके आत्म-केंद्रित जीवन में कुछ सार्थकता का अहसास उत्पन्न करता है।

व्यवसायियों के मूलत: ऐसे, नगदी लेन-देन से काम करने वाले तबके के बीच काम करने वाले आरएसएस का नेतृत्व इन व्यापारियों की कर बचाने की करतूतों से परिचित होने के नाते अपने जेहन में कहीं न कहीं इस भ्रम को पाला हुआ है कि दुनिया का सारा काला धन या तो व्यापारियों के गोदामों में पड़े बोरों में बंद है, या उनकी तिजोरियों और आलमारियों में सहेज कर रखी गई नोटों की गड्डियों में। जैसी कि आरएसएस वालों की सबसे बड़ी कमी है, वे हर प्रकार के बुद्धिजीवियों अर्थात ज्ञान चर्चा से नफरत करते है और कूपमंडुक की तरह अपने छोटे से संसार के अनुभवों को ही जीवन का संपूर्ण सत्य मान कर चलते हैं, इसीलिये इनके पास अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में लगातार प्रवहमान काले धन के बारे में कभी कोई सही अवधारणा नहीं बन पाई है। यह वही तबका है जो अपनी धार्मिक मिथकीय कथाओं को भी इतना बड़ा सत्य मानता है कि उसके बड़े से बड़े नेता को वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भी यह कहते हुए हिचक नहीं होती कि हमारे वेदों में तो आधुनिक विज्ञान और तकनीक तक की सारी चीजें मौजूद है। खैर।

कुल मिला कर आज की दिक्कत यह है कि इस संकीर्ण मानसिकता के लोग आज देश की सत्ता पर आगये हैं। उन्होंने वादा किया था कि काला धन को खत्म करेंगे,  लेकिन यह धन कैसे और कहां है, इसके बारे में इनके पास कोई सही ज्ञान नहीं है, सिवाय इसके कि चंद लोगों के गोदामों में पड़े बोरा और तिजोरियों में। जो 99 प्रतिशत काला धन पूरी अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में निरंतर प्रवाहमान है, इसके बारे में ये थोड़ा भी सोच पाने में असमर्थ है। इनके सलाहकार भी कुछ विचित्र प्रकार के लोग है, जैसे बाबा रामदेव, जिन्होंने चुनाव के पहले इन व्यापारियों को खुश करने के लिये आयकर को ही खत्म कर देने का तुगलकी प्रस्ताव रखा था। कहते हैं, ऐसा ही एक पुणे स्थित संघी संगठन है -अर्थक्रांति, जिसके किसी अनिल बोकिल ने मोदी जी को नगदी पर धावा बोलने के इस कदम के बारे में समझाया था।

और यही वजह है कि नगदी रखने वाले आम लोग, किसान, मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार तो मोदी की नजर में एक नंबर के खलनायक हो गये और अंबानी, अडानी से लेकर माल्या, ललित मोदी आदि बिल्कुल दूध के धुले, साइबर दुनिया में प्लास्टिक मनि के बादशाह, सफेद धन के प्रतीक पुरुष हो गये। अनिवासी भारतीय, जिनमें से कई रोजाना भारतीय अर्थ-व्यवस्था में पैदा होने वाले काले धन को गोरा करने के गोरखधंधों में लगे हुए हैं, उन सबके साथ मोदी जी की खूब छन रही है, लेकिन आम लोग, किसान, मजदूर और छोटे दुकानदार उनकी आंखों में शूल की तरह चुभते दिखाई देते हैं।

आरएसएस के अंदर की ऐसी ही एक और ग्रंथी है - जाली नोट और आतंकवादियों की ग्रंथी। इसका उनके अंदर की मुस्लिम-विरोधी नफरत से भी एक गहरा संबंध है। मजे की बात यह है कि आज वे सत्ता में है, भारत सरकार के सभी प्रकार के सांख्यिकी और निगरानी के संस्थानों पर उनका नियंत्रण है। इनके जरिये वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में जाली नोटों की संख्या आदि के बारे में, और आतंकवादियों के काम करने के तौर-तरीकों के बारे में आसानी से ज्यादा वस्तुनिष्ठ समझ कायम कर सकते हैं। लेकिन, ये ऐसे हैं कि उन संस्थानों की ओर झांकना भी पसंद नहीं करते। इन्हें डर लगता है कि जिन ग्रंथियों के साथ उनका पूरा अस्तित्व जुड़ा हुआ है, उनमें ही कहीं इन संस्थानों के दिये तथ्यों से दरार न पड़ने लग जाए और  उनकी संघी अस्मिता का पूरा महल ही न ढह जाए। यह एक प्रकार से इनके लिये अस्तित्व का संकट है।



जाली नोटों के बारे में स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की तरह का भारत का सबसे प्रतिष्ठित संगठन जो तथ्य दे रहा है, उससे पता चलता है कि अब तक भारत में कुल नगदी का महज 0.025 प्रतिशत भी जाली नोटों का नहीं है। इसी प्रकार, आतंकवादी अपनी करतूतों के लिये नगदी रुपयों का ही अनिवार्य तौर पर व्यवहार करते हैं, इसके बारे में भी कोई सबूत नहीं है।

फिर भी, यह मोदी जी की संघी मानसिकता की विडंबना है कि वे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस करके छोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसे तथ्यों की ओर नजर नहीं डाल सकते ! उल्टे जिन सभी अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस कदम को एक बुरी अर्थनीति (bad economy) कहा है, मोदी जी कहते हैं, वे सचाई को नहीं जानते।

सचाई तो सिर्फ संघी प्रचारक की अपनी ग्रंथियों में होती है !

यह सब देख कर पुन: फ्रायड का ही खयाल आता है जो कहता है कि आदमी की दमित भावनाओं में इतनी भयानक शक्ति होती है कि वह उसे किसी भी प्रकार की भयानक से भयानक गल्तियों के रास्ते में धकेल सकती है। आरएसएस में रहते हुए जिन बेतुकी बातों को मोदी जी ने अपने अंदर पाल रखा है, कहना न होगा, वे ही अब अनुकूल परिस्थितियों में ऐसी विध्वंसक दमित भावनाओं के रूप में प्रकट हो रही है।

पता नहीं वे कैसे, अपने प्रचारक जीवन की संकीर्णताओं से मुक्त होंगे।

बहरहाल, इस खास विषय में, भारत के विपक्ष ने मोदी जी को पतली गली से बच निकलने का एक रास्ता सुझाया है। कहा है कि वे अभी भी अर्थ-व्यवस्था की पूरी तबाही की दिशा में बढ़ा दिये गये कदम को वापस लेकर इज्जत के साथ निकल सकते हैं। देखने की बात यही है कि वे कब और कैसे विपक्ष की इस सलाह को मानते हैं, या पूरी बर्बादी तक जाकर भी वे अपनी संघी अस्मिता से जुड़ी जिद से चिपके रहते हैं !



रविवार, 13 नवंबर 2016

पचास दिन नहीं, इस धक्के से अर्थ-व्यवस्था को निकालने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे


-अरुण माहेश्वरी




कोई अगर यह सोचता है कि आम ग्राहकों को आर्थिक और मानसिक तौर पर कंगाल बना कर अर्थ-व्यवस्था के किसी भी हित को (सिवाय युद्धकालीन समय में) साधा जा सकता है, तो यह कोरी मूर्खता है।

मंदी की काली छाया पहले से ही हमारी अर्थ-व्यवस्था को ग्रस रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि भारतीय बैंकों के पास इतनी बड़ी राशि में एनपीए जमा हो चुका है जो संभवत: दुनिया में सबसे अधिक है।

नोट-बंदी के इस कदम से माना जाता है कि आगे बैंकों के पास अगाध धन होगा। सवाल उठता है कि उस धन का प्रयोग कैसे होगा ? कौन ऐसा उद्योगपति होगा जो सबसे गहरी मंदी की आशंकाओं से भरे काल में सिर्फ ब्याज देने के लिये बैंकों से कर्ज लेगा ? इन हालात में सिर्फ वे लोग ही और कर्ज लेंगे जो पहले से बैंकों का रुपया डुबाये हुए हैं और उन्हें उनके निपटान के लिये कुछ और मोहलत और सहूलियत चाहिए। ब्याज की दरों में कमी से यदि उद्योगपतियों में कर्ज के प्रति कुछ आकर्षण पैदा किया जायेगा तो दूसरी ओर आम आदमी के संचित धन पर आमदनी प्रभावित होगी। आम आदमी संचय के लिये सोने की तरह की चीजों की ओर आकर्षित होगा।

इसके अलावा, बैंकों का रुपया सरकार चालाकी से अपने बजट के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिये प्रयोग कर सकती है। लेकिन अभी इस औचक कदम से आम लोगों को जितना बड़ा सदमा लगा है, उससे निकालने में सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी कितनी कारगर होगी, यह एक भारी संदेह का प्रश्न है। लोग आगे काफी समय तक जीवन की नितांत जरूरी चीजों के अलावा किसी दूसरी चीज पर खर्च करने से परहेज करेंगे।

ऐसे में, अपनी ही करतूत से बिगाड़ी गई सारी परिस्थिति को चंगा करने के लिये मोदी जी ने रोते हुए जो पचास दिनों का समय मांगा है, सचाई यह है कि आगे सब कुछ सही चला तो उनके इस भारी आघात से अर्थ-व्यवस्था को उबारने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे।

अपने एक लेख में हमने कहा था कि मोदी जी ने काला धन को कोरी नगद राशि तक सीमित करके अर्थ-व्यवस्था के लिये एक ऐसी मृगमरीचिका का रूप दे दिया है जिसका पीछा करते हुए पूरी अर्थ-व्यवस्था ही अपना दम तोड़ देने के लिये अभिशप्त होगी, आम लोगों की तो जाने दीजिए।

इसके अलावा अब तक इस विषय का कोई दूसरा पहलू तो दिखाई नहीं दे रहा है। सकारात्मक तो कत्तई नहीं।

शनिवार, 12 नवंबर 2016

‘काला धन’ की मृग मरीचिका, उसके पीछे दम तोड़ते लोग और अर्थ-व्यवस्था की घुटती सांसें


-अरुण माहेश्वरी




देश के सभी चैनल अभी एक ही बात से आसमान को सिर पर उठाये हुए हैं कि ‘भारत के लोग काला धन निकालने के मोदी के निर्णय से बेहद खुश हैं’। घंटों लाईन में खड़े बेहद परेशान लोगों तक से यह कहलवाया जा रहा है कि वे ‘‘मोदी जी के काला धन निकालने के कदम से तो खुश है, लेकिन...’’।

और कहना न होगा, उनकी इस ‘लेकिन’ के बाद की रिक्तता में ही आज इन सभी लोगों के जीवन की सारी कठिनाइयों का दर्द छिपा हुआ है। ‘काला धन’ उनके लिये रेगिस्तान में दूरस्थ पानी का भ्रम पैदा करने वाली मरीचिका ही है, जिसके पीछे दौड़ते-हांफते हिरण के पास अंत में उसी मरुभूमि में दम तोड़ देने के अलावा और कोई चारा नहीं हुआ करता।

टेलिविजन चैनल आम लोगों की आंखों के ऐसे ही मरीचिका वाले भ्रम की या तो रिपोर्ट कर रहे हैं, या जान-बूझ कर उसे पैदा करने में जुटे हुए हैं। यह एक प्रकार से नि:स्व हो चुके देश के आम लोगों के आखेट का एक क्रूर खेल है। आम लोगों से उनकी कमाई का सब कुछ छीन कर उन्हें बैंकों के सामने भिखारियों की तरह खड़ा कर दिया गया है, फिर भी कहीं से कोई प्रतिवाद का स्वर न उठने पाए, इसलिये सबको दूरस्थ पानी के विशाल सरोवर भ्रम से उसे अबूझ सी अनंत मायावी लालसाओं के जाल में धकेल दिया जा रहा है।

जैसे पूंजीवाद के बारे में कहते हैं कि वह आदमी में भोग की एक अनंत कामना पैदा करके उसे इस प्रकार फंसाता है कि आदमी अपने दिन-रात भूल कर किसी यंत्र की तरह चौबीसों घंटे काम में जुटा रहता है। यह ‘काला धन’ निकालने वाला खेल भी घटिया राष्ट्रवाद का एक वैसा ही ईष्र्या, द्वेष और प्रतिहिंसा की अंतहीन भावना में फंसा कर आदमी को उसकी मानवीय अस्मिता के सभी स्वस्थ तत्वों तक से वंचित कर देने का, अर्थात उसकी मानवीयता को मार देने खेल है। हिटलर ने ऐसे ही राष्ट्रवादी उन्माद का एक रूप दिखाया था जब उसने यूरोप के बहुत सारे देशों के साथ ही अंत में खुद पूरे जर्मनी को एक खंडहर और श्मशान बना कर छोड़ा था।

भारत में ‘काला धन निकालने’ के काम में जुटे भाजपा के नेता, उनके भक्त और उनके भोंपू टेलिविजन चैनल ऐसी ही आत्म-विनाशकारी मरीचिका के पीछे एक अंधी दौड़ में पूरे देश को उतार कर हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था की मूलभूत आंतरिक  शक्ति को ही छीन लेने को उतारू है। विदेशी पूंजीपति और आईएमएफ की तरह के उनके संस्थान भारतीय अर्थ-व्यवस्था के इस सर्वनाश के लिये मोदीजी को खूब बधाइयां दे रहे हैं।  

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

आम लोगों की भारी दुर्दशा के दृश्यों को अब और नहीं देख पाया !


मोदी के नोट-बदली के कार्यक्रम से मचे हाहाकार पर एक रनिंग कमेंट्री की रिपोर्ट -




8 नवंबर की शाम आठ बजे अचानक टेलिविजन चैनल पर प्रधानमंत्री हाजिर हुए और एकबारगी यह घोषणा की कि भारत में ब्लैक मनि पर हमले के लिये उन्होंने एक बड़ा कदम उठाया है - 500 और 1000 रुपये के नोटों के चलन को बंद कर दिया है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि शीघ्र ही 500 और 2000 के नये नोट आयेंगे।
इसके साथ उन्होंने विस्तार के साथ लोगों को बताना शुरू कर दिया कि वे कैसे-कैसे अपने पुराने नोटों को दो दिन बाद किश्तों में बैंकों की तमाम शाखाओं से बदल कर नया नोट ले सकते हैं।

प्रधानमंत्री की विमुद्रीकरण की इस अनोखी घोषणा से तत्काल बहुत आश्चर्य हुआ। यह कौन सा नया शोशा ! सबसे पहली प्रतिक्रिया दिमाग में आई भारत की नगदी अर्थ-व्यवस्था और उससे जुड़े लोगों की बात पर। फेस बुक पर हमने पहली प्रतिक्रिया लिखी -

“500 और 1000 के नोटों के चलन के अचानक बंद होने से कृषि अर्थ-व्यवस्था चरमरा जायेगी । कृषि की आमदनी पर कोई कर न होने के कारण किसानों के पास आम तौर पर पैन कार्ड नंबर नहीं होते हैं ।“

इसके बाद ही एक के बाद एक पोस्ट लगाता चला गया :

“गाँव के किसान, आम मज़दूरों के लिये मोदी का यह क़दम एक नई आफ़त है ।“

“एक बार के लिये तो दिहाड़ी मज़दूरों के काम पर भी आफ़त आयेगी ।“

“पुराने नोटों के चलन के बंद होने से भ्रष्टाचार बंद होगा, यह कहना महा मूर्खता है ।“

“आने वाले दिन 'स्मार्ट' बैंकों की परीक्षा के दिन होंगे ।“

“मोदी अर्थ-व्यवस्था को जानलेवा मंदी में धकेल देने के अपराधी के रूप में याद किये जायेंगे ।“
“क्रमश: किसी तुग़लक़ी राज में रहने का अहसास होने लगा है ।“

“कृषि, छोटे-छोटे उद्यमों, दुकानदारों और असंगठित मज़दूरों की नगदी पर टिकी अर्थ-व्यवस्था के लिये यह एक घातक क़दम हो सकता है।“

आम लोगों को बिचौलियें ख़ूब नोचेंगे ।

120 करोड़ का देश और बैंकों तथा पोस्ट आफिस की कुल शाखाएँ अढ़ाई लाख । इनमें एटीएम काउंटर और एक व्यक्ति के पोस्ट ऑफ़िस भी शामिल है ।

दो दिन बैंक बंद । इधर आम लोग कंगाल । भारत सरकार का भारत बंद ।

लगातार पंद्रह दिनों तक भारत बंद का जो असर अर्थ-व्यवस्था पर पड़ता, इस तुग़लक़ी क़दम का उससे कम बुरा असर नहीं पड़ेगा ।

तुग़लक़ शायद नहीं जानता, 500,1000 के नोट आम लोगों की करेंसी है । यह आम लोगों के जीवन को सांसत में डालने वाला क़दम साबित होगा ।

1978 में मोरारजी सरकार ने 1000 के नोट ख़ारिज किया था । उस समय साधारण लोगों ने जीवन में इन नोटों को देखा तक नहीं था ।

यह ब्लैक मनि से ज़्यादा भारत की पूरी अर्थ-व्यवस्था पर सर्जिकल स्ट्राइक है । तुगलक साक्षात आ गया दिखाई देता है ।

सारे पुराने नोट यदि नये नोटों में परिवर्तित नहीं होते हैं तो इसका सीधा अर्थ होगा अर्थ-व्यवस्था का संकुचन, जो किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है । इसका सीधा असर आम लोगों के जीवन स्तर पर पड़ता है ।

आम लोगों के रोज़मर्रा के जीवन पर इसके दुष्प्रभाव, और अभी की अराजक स्थिति को शायद थोड़ा कम किया जा सकता यदि नये करेंसी नोटों को कम से कम एक महीना पहले ही चलन में ले आया जाता ।


भारत में रोज़गारों की स्थिति के बारे में विश्व बैंक का मानना है कि ऑटोमेशन के चलते आने वाले एक दशक में भारत में रोज़गारों में काफी कमी आएगी । इसके लगभग 70 प्रतिशत तक कम होने की आशंका है ।


अगर बैंकों के पास तत्काल बदलने के लिये नये नोटों की जरूरी आपूर्ति नहीं होती है तो अर्थ-व्यवस्था में भारी अव्यवस्था पैदा होगी । पहले से मंदी में फँसी अर्थ-व्यवस्था एकदम ठप हो जायेगी । और एकबारगी यह क़दम तुग़लक़ी क़दम भी साबित हो सकता है ।

एक चैनल वाला चीख़ रहा है - पाकिस्तान का 'मनि मर्डर' ।
वह नहीं जानता, इसे ही कहते हैं - throw the baby out with the bath water ।
अपनी नाक काट कर दूसरे की यात्रा को अशुभ करना ।



इसी क्रम में एक थोड़ी बड़ी टिप्पणी की -

‘‘ पी चिदंबरम ने बिल्कुल सही कहा है कि नये नोट छापने में जो पंद्रह से बीस हज़ार करोड़ का ख़र्च होगा, सरकार इस क़दम से अगर उतनी आमदनी नहीं कर सकती है तो इस क़दम से राष्ट्र को सीधा नुक़सान होगा ।
सरकार अगर यह उम्मीद करती है कि लोग दो सौ प्रतिशत पैनल्टी देने के लिए बैंकों में अपना काला धन जमा करेंगे तो वह मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रही है ।
तब सवाल उठता है कि सरकार को आमदनी कैसे होगी ?
सालों पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केन्स ने जर्मनी के ऐसे ही एक संदर्भ में कहा था कि करेंसी बदलने से नहीं, अर्थ-व्यवस्था को लाभ होता है रोज़गार बढ़ाने से ।
जर्मनी में भी तब कुछ इसी प्रकार का बहाना बनाया गया था कि यहूदियों की काली अर्थ-व्यवस्था को रोकने और फ्रांस और इंग्लैंड से आने वाली नक़ली मुद्रा पर क़ाबू पाने के लिये यह क़दम उठाया जा रहा है ।
केन्स ने कहा था कि जब किसी सरकार की विश्वसनीयता कम होने लगती है तभी वह इस प्रकार के झूठे और दिखावटी काम किया करती है ।

According to the great economist John Maynard Keynes, “There is no subtler, no surer means of overturning the existing basis of society than to debauch the currency. The process engages all the hidden forces of economic law on the side of destruction, and does it in a manner which not one man in a million is able to diagnose.”
कहना न होगा, सरकार का इस प्रकार अचानक लगभग 90 प्रतिशत करेंसी को बदलने का फ़ैसला करेंसी को शुद्ध करने से कहीं ज्यादा उसे बर्बाद करने का फ़ैसला साबित होगा क्योंकि यह अर्थ-व्यवस्था में करेंसी की भूमिका को तात्कालिक तौर पर इस प्रकार व्याहत करेगा जिसका असर काफी दिनों तक अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा । इससे इतनी गहरी मंदी आयेगी, जिससे आसानी से निकलना मुश्किल होगा। और मंदी का अर्थ ही है उस अनुपात में अर्थ-व्यवस्था की हत्या ।“


इसके बाद ही 2013 के इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट को साझा करते हुए हमने लिखा -

पुराने नोटों की जगह नये नोटों के चलन से अनुमान किया जा रहा है कि रिज़र्व बैंक को लगभग 14 लाख करोड़ रुपये के पुराने नोटों की होली जलानी होगी ।

रिज़र्व बैंक में पुराने कितने नोट आए और नए कितने नोट जारी किये गये, इसका हिसाब रखने की एक पद्धति होने पर भी यह जरूरी नहीं कि वह पूरी तरह से त्रुटि-मुक्त हो ।
सन् 2013 में ऐसे एक कांड को लेकर काफी शोर मचा था जब रिज़र्व बैंक लगभग 16065 करोड़ के फटे-पुराने नोटों को जलाने जा रही थी । तब अचानक ही पंजाब नेशनल बैंक की नैरोजी नगर ब्रांच के फटे-पुराने नोटों के बंडल में पंद्रह हज़ार रुपये कम देखे गए । इसके बाद तो सब जगह ऐसे नोटों की जाँच शुरू हो गई, एक बार के लिए वह काम रुक गया, मामला अदालतों में भी चला गया और ऐसी कमियाँ बहुत सारी जगहों पर पाई गई । फिर आनन-फ़ानन में किसी तरह वह काम किया गया, लेकिन यह संदेह बना रह गया कि इस प्रक्रिया में लाखों रुपये की चोरी हुई है ।

हम यहाँ 2013 की इंडिया टुडे की इससे जुड़ी रिपोर्ट को मित्रों से साझा कर रहे हैं । अभी जो 14 लाख करोड़ के नोटों की होली जलाई जायेगी, उसमें इस प्रकार की धाँधली की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी, इसे कोई भी निश्चित तौर पर शायद नहीं कह सकता है ।

http://indiatoday.intoday.in/story/rbi-faces-soiled-currency-notes-problems/1/391983.html

  RBI faces soiled currency notes problems <http://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fm.indiatoday.in%2Fstory%2Frbi-faces-soiled-currency-notes-problems%2F1%2F391983.html&h=qAQHGnvfq&s=1>
indiatoday.intoday.in


अगली पोस्ट :

कहाँ तो इन्होंने वादा किया था विदेशों में पड़े काले धन को लाकर प्रत्येक नागरिक के खाते में पंद्रह लाख रुपये डाल देंगे, और अब उल्टे हर नागरिक के घर में पड़ी राशि को खींच कर सरकार के खाते में ले लिया जा रहा है ।

9 नवंबर की सुबह जब बैंकें खुली, हमारी पहली पोस्ट थी -

सरकार ने देश भर की श्रम शक्ति को बैंकों के सामने क़तार में खड़ा कर दिया है । पता नहीं कितने दिनों तक वे ऐसे ही क़तार में खड़े रहेंगे !
घंटों से लाईन में खड़े लोग ग़ुस्से में उबल रहे हैं ।

इसके बाद 8 नवंबर की तरह ही एक के बाद एक पोस्ट लगाने का सिलसिला जारी रहा :

भारत के ग़रीब और साधारण लोगों के जीवन के दुख-कष्टों के प्रति भारतीय टेलिविजन के सारे चैनल हमेशा से उदासीन रहे हैं ।

आज मोदी के इस क़दम से गांव और शहरों के ग़रीब लोगों के जीवन में जो हाहाकार पैदा हुआ है, इसकी कोई असली तस्वीर इन चैनलों पर नहीं मिलेगी । वे बाबाओं और भक्तों की थोथी बातों का प्रचार करते रहेंगे, ग़रीब और कमज़ोर तबक़ों से ही सारी अर्थ-व्यवस्था को बड़े पूँजीपतियों के हाथ में तेज़ी से केंद्रित करने वाले अपने इस बुरे क़दम के लिये और ज्यादा बलिदान करने की माँग करते रहेंगे ।

सबसे पहले ममता बनर्जी ने और अब मायावती ने साफ़ शब्दों में कहा है कि सरकार का यह क़दम चल नहीं सकता । उन्होंने कहा है - यह जनता के जीवन पर एक आर्थिक आपातकाल की मार है ।

मायावती ने बिल्कुल सही सवाल उठाया है कि क्या देश की अस्सी प्रतिशत से ज्यादा मेहनतकश जनता के पास काला धन है ? तब फिर उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है !

बिना पूरी तैयारी के पुराने करेंसी नोट को नये नोटों में बदलने की बाध्यता के सरकार के इस क़दम पर जितना सोचता हूँ, लगता है सरकार ने भारत की जनता के खिलाफ एक खुले युद्ध की घोषणा की है ।
मंत्रियों, अफ़सरों और सभी स्तरों पर इनके पैदल सिपाहियों अर्थात भक्तों का आक्रामक रवैया भी इसी बात को साबित करता है ।

फिर देखिये एक और बड़ी पोस्ट :

‘‘ जो लोग पूँजीवाद को, अर्थात पूँजीपतियों को राष्ट्र की सारी संपदा सौंप कर उनके ज़रिये राष्ट्र के विकास की व्यवस्था को ही अंतिम सत्य मानते हैं, सिर्फ वे ही सरकार के ऐसे क़दम का स्वागत कर सकते है । लोगों के घरों में हारी-बीमारी, बेटे-बेटी की शादी और दूसरी आफ़तों के लिये रखे गये रुपये को खींच के उस बैंकिंग प्रणाली में लाया जा रहा है, जो प्रणाली पूँजीपतियों के लिये ऋणों की व्यवस्था या शेयर बाज़ार में निवेश को सुगम बनाने के लिये मूलत: तैयार की गई है ।

भारतीय बैंकिंग प्रणाली पहले से ही भारत के गाँवों से धन की निकासी का, उपनिवेशवादियों की तरह का काम करती रही है । इस क़दम से एक झटके में गाँवों से सारा धन खींच लेने की योजना बनाई गई है ।

जहां तक जनता को राहत देने का सवाल है, इसके प्रति यह सरकार बराबर नकारात्मक रही है । आम लोगों को मिलने वाली सब्सिडी के खिलाफ मोदी जितना ज्यादा बोलते रहते है, आज तक किसी भी राजनीतिक नेता ने उतना नहीं बोला होगा ।

दूसरी ओर यही सरकार बैंकों में पूँजीपतियों के पास डूब गये अरबों रुपये की एनपीए राशि को बट्टे खाते में डालने में सबसे ज्यादा तत्पर रही है । अभी चंद रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसे फटकारा था कि बैंकों का हज़ारों करोड़ डुबाने वालों का नाम बताने में सरकार क्यों आनाकानी कर रही है ।

जाहिर है, अब फिर नए सिरे से उन्हीं तमाम डिफाल्टरों को आगे और रुपये मुहैय्या कराने के लिये बैंकों में जमा हो रहे इस धन का प्रयोग किया जायेगा ।“

इसी बीच आरएसएस के पुराने विचारक गोविंदाचार्य जी की एक लीक से हटी हुई तथ्यपूर्ण पोस्ट पढ़ने को मिली। हमने उसे साझा करते हुए लिखा :

आरएसएस के एक पुराने थिंक टैंक माने जाने वाले गोविन्दाचार्य जी का आकलन । यही वास्तविकता है कि मोदी का यह क़दम काले धन पर नहीं, आम लोगों के जीवन पर एक सीधा हमला है ।

यह है गोविन्दाचार्य जी की इस टिप्पणी को ध्यान से पढ़ियें, पता चल जायेगा कि आम लोगों के जीवन में इतनी बड़ी अफ़रा-तफ़री पैदा करने वाले इस क़दम से सरकार के ख़ज़ाने में काला धन के रूप में उतने रुपये भी नहीं आयेंगे जितने रुपये नये नोटों को छापने पर ख़र्च होंगे । चिदम्बरम जी ने भी यही कहा है कि नई करेंसी को छापने में जो पंद्रह-बीस हज़ार करोड़ कर्च होंगे, सरकार को इस क़दम से संभवत: उतने रुपये भी नहीं मिल पायेंगे ।

Arun Maheshwari <https://www.facebook.com/arun.maheshwari.982> shared KN Govindacharya <https://www.facebook.com/govindacharya.kn.3>'s post <https://www.facebook.com/govindacharya.kn.3/posts/965372016927852>.


इसके साथ ही जाली नोटों के बारे में इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के दिये तथ्यों का एक ग्राफिक मिला। पता चला कि किस प्रकार जाली नोटों को लेकर किये जाने वाले समूचे शोर में भी सिवाय झूठ के अलावा और कुछ नहीं है। हमने लिखा :
जाली नोट के बारे में मोदी जो शोर मचा रहे हैं, उसके बारे में भारत सरकार के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के ये तथ्य सचाई को बताने के लिये काफी है ।




और अंत में रात 9 बजे से लगभग 10 बजे तक एनडीटीवी पर रवीश कुमार की रिपोर्ट देखी। यहां तक आते आते सब्र का बांध टूट चुका था। एक बार फफक कर चुप हो गया। फेसबुक पर लिखा :

आम लोगों की इस दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार कौन ?

अभी एनडीटीवी पर नोटों को बदलने के मोदी के निर्णय से देश के सभी क्षेत्रों के गरीब लोगों की दुर्दशा पर रवीश कुमार ने जो रिपोर्ट दिखाई, उसे देख कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने आंसुओं को रोक नहीं सकता है ।

लोग बदहवास है, घंटों लाइनों में खड़े हैं, दिहाड़ी मजदूरों के पास काम नहीं है, शहरों में भी सड़के सूनी हैं, गांवों में बैंकें लोगों के घर से दस किलोमीटर से पचीस किलोमीटर दूरी पर है, लोगों के अंतिम संस्कार तक के काम नहीं हो पा रहे है ।
और, स्त्रियों से उनका स्त्री धन तक छीन लिया गया है ।
बिचौलियों की नोंच-खसोट ऊपर से ।
पता नहीं इस कदम के दुष्प्रभावों से अर्थ-व्यवस्था कैसे मुक्त होगी !


अमेरिका में ट्रम्प की जीत से तात्पर्य

- अरुण माहेश्वरी



ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के बाद अमेरिका में ट्रम्प की जीत विश्व पूँजीवाद की दुर्दशा को बताने के लिये काफी है ।

यह बताती है कि पूँजीवादी देशों में आम आदमी यथास्थितिवादी राजनीति से पूरी तरह से ऊब चुका है । उसका जीवन इतना दुष्कर हो चुका है कि अब इससे बुरे की वह कल्पना नहीं कर पा रहा है । पारंपरिक राजनीतिक नेतृत्व और ढर्रेवर विचारधाराओं की जगह वह किसी भी जीव-जंतु और जंगलीपने तक को आज़माने के लिये तैयार है ।

ट्रम्प जैसे एक लंपट और विभाजनकारी चरित्र की जीत से जाहिर है कि पूँजीवाद अब नागरिक जीवन में न्यूनतम शालीनता की रक्षा में भी असमर्थ हो चुका है । जीवन के सारे नैतिक मूल्य और तथाकथित पवित्र रिश्तें हवा में विलीन हो जा रहे हैं ।

दुनिया की सबसे बड़ी पूँजीवादी शक्ति के नेतृत्व में ट्रम्प की तरह के एक अविश्वसनीय व्यक्ति का आना पूरी दुनिया को एक अनिश्चय के कगार पर खड़ा कर देना है । जो चल रहा था वह चल नहीं सकता, मान लेने का सीधा अर्थ है पूंजीवाद चल नहीं सकता । और ट्रम्प का रास्ता भी पूंजीवाद से कोई अलग रास्ता नहीं होगा ।

अर्थात, आज मोदी ने भारत को जहाँ लाकर खड़ा किया है, अमेरिका भी आगे वहीं खड़ा दिखेगा । मतलब यह महाशक्ति खुद एक गहरी मंदी में फँसने के साथ ही पूरी दुनिया को परस्पर अविश्वास, युद्ध और अस्थिरता की परिस्थिति में झोंक देगी ।

लगता है जैसे समय आ रहा है जब पूँजीवाद के वामपंथी विकल्प को तेज़ी से तैयार किया जाए । सर्वहारा के राज्य को क़ायम करने की नई रणनीति बनाई जाए । यह वामपंथ के एक नए अवतार का समय साबित हो सकता है ।

लगता है जैसे समय आ रहा है जब पूँजीवाद के वामपंथी विकल्प को तेज़ी से तैयार किया जाए । सर्वहारा के राज्य को क़ायम करने की नई रणनीति बनाई जाए । यह वामपंथ के एक नए अवतार का समय साबित हो सकता है ।

सोमवार, 7 नवंबर 2016

नवंबर क्रांति जिंदाबाद !


-अरुण माहेश्वरी


आज से रूस की नवंबर क्रांति के शताब्दी वर्ष का प्रारंभ हो गया है। जरूरत है आगे पूरा साल दुनिया को हिला देने वाली इस दूरगामी प्रभाव की क्रांति पर गंभीरता से चर्चा करने की। किसी भी विषय का गहराई से अवलोकन स्वयं विषय के इस हद तक संस्कार, शोधन और परिमार्जन की भूमिका अदा करता है कि वह बिल्कुल नये अर्थों में स्फुट होने लगता है। यह कोई भाववाद नहीं, यही भावों का भौतिकवाद है। बहुत पुरानी बात है - मंत्र मनन से मंत्रित होता है।

हम नहीं मानते कि रूस में महान लेनिन के नेतृत्व में मार्क्सवाद के प्रयोग से जिस सामाजिक क्रांति का निरूपण हुआ उसके अब और नये-नये रूपों और अर्थों के विस्तार की संभावनाएं शेष हो गई है। अर्थात, नवंबर क्रांति के अब कोई अवशेष नहीं बचे हैं; रात गई बात गई; दुनिया बदल गई है, वह समय नहीं रहा और इसीलिये नवंबर क्रांति भी नहीं रही।

दुनिया के इतिहास में यह अपने प्रकार का मार्क्सवाद का प्रथम प्रयोग था। पेरिस कम्यून तो सिर्फ ऐसी किसी संभावना की एक झलक भर थी। आगे ऐसे न जाने कितने और प्रयोग, कितने स्तरों पर कितने रूपों में जारी रहेंगे, इसकी कोई पूरी कल्पना नहीं कर सकता है। लेकिन यह सच है कि इस क्रांति के परिणाम आज की पीढ़ी के जीवंत अनुभवों के अंग हैं। इन अनुभवों की महत्ता और इनकी भूमिका से भी कोई इंकार नहीं कर सकता है।

हम जानते हैं, और मार्क्स ने खुद लिखा था कि ‘‘समाज - उसका रूप चाहे जो हो - क्या है ? वह मानवों की अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है ? कदापि नहीं।...उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था ले लीजिए, तो आपको उसके अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास राजनीतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’

मार्क्स इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि ‘‘ मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का - जो उसके पूरे इतिहास का आधार है - स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति होती है, भूतपूर्व कार्यकलाप की उपज होती है।’’

इसीलिये, जो लोग नवंबर क्रांति को किसी उल्का पिंड की तरह स्वर्ग से अवतरित और फिर एक चमक दिखा कर अंतरीक्ष में ही गुम हो जाने के रूपक की तरह देखते हैं, वे ही उसे मनुष्य के सामाजिक विकास के इतिहास से पृथक मान कर उसके पूर्ण विलोप की तरह का विचार व्यक्त कर सकते हैं।



मानव समाज आज कृत्रिम बुि़द्ध द्वारा उत्पादन के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है। सन् ‘91 के बाद एकध्रुवीय विश्व के पहले चरण में ही रोजगार-विहीन (job-less) विकास के सारे लक्षणों की पहचान कर ली गई थी। इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रतिफल के रूप में एक श्रीहीन (growth-less), वाणी-हीन, (voice-less) और निर्दयी (ruthless) परिस्थितियों की बातें भी स्पष्ट थीं। लेकिन अभी रोजगार-विहीनता का नहीं, बल्कि रोजगार-संकुचन का समय आ रहा है। बिल्कुल सही अनुमान किया जा रहा है कि आगामी एक दशक से भी कम समय में भारत में 69 प्रतिशत रोजगार कम हो जायेंगे। कमोबेस कुछ ऐसा ही हाल बाकी दुनिया का भी होगा।

इस सचाई को भांप कर ही विकसित देशों में आने वाले मानवीय अस्तित्व के संकट की परिस्थितियों से बचने के लिये राज्य की ओर से सभी नागरिकों के लिये एक न्यूनतम आमदनी को हर हाल में सुनिश्चित करने के नाना रूपों पर विचार शुरू हो गया है। हाल में स्विट्जरलैंड में ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ की ऐसी स्कीम पर एक जनमतसंग्रह हो चुका है और फिनलैंड ने ऐसी एक योजना पर अमल की घोषणा भी कर दी है। इसके समानांतर ही, विचारों के स्तर पर, इस पूर्ण आटोमेशन के काल में पूर्ण आटोमेटेड आनंदमय कम्युनिस्ट समाज (Fully automated luxury communism) की कुछ हवाई किस्म की बातें भी की जा रही है।

मूल बात यह है कि हवाई हो या ठोस, मनुष्यों द्वारा अर्जित नई उत्पादन शक्तियों के अनुरूप मानव समाज के नये स्वरूपों के निरूपण को कोई रोक नहीं सकता है। और, नवंबर क्रांति और समाजवादी समाज इस निरूपण में हमेशा एक प्रकाश स्तंभ का काम करेंगे, इसमें कोई शक नहीं है।



शोषण की ताकतें इस नई परिस्थिति का इस्तेमाल राज्य को अधिक से अधिक दमन-मूलक बनाने के लिये करेगी। हमारे जैसे देश में बेरोजगारों की बढ़ती हुई फौज को गुंडों-बदमाशों (गोगुंडों) की फौज में बदलने की कोशिश आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगी। इससे दंगाइयों की, अन्ध-राष्ट्रवाद के नशे में चूर आत्म-घाती युद्धबाजों की फौज बनाई जायेगी। लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि यह हिटलर का, औद्योगिक पूंजीवाद के प्रथम चरण का जमाना नहीं है। यह मनुष्यों के आत्म-विखंडन से लेकर समान स्तर पर विखंडित, अकेले मनुष्यों की नई सामाजिकता का जमाना भी है। मार्क्स ने आन्नेनकोव के नाम अपने उसी पत्र में, जिससे हमने उपरोक्त उद्धरण लिया है, यह भी लिखा था कि ‘‘मानव का सामाजिक इतिहास उसके व्यक्तिगत विकास के इतिहास के अलावा और कुछ भी नहीं है - भले ही उसको इसकी चेतना हो या न हो।’’

और, ‘‘ मनुष्य जो उपार्जित करता है उसे फिर कभी छोड़ता नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह उस सामाजिक रूप का भी परित्याग नहीं करता जिसमें उसने किन्हीं उत्पादक शक्तियों को प्राप्त किया है। इसके विपरीत, प्राप्त परिणाम से वंचित न होने, और सभ्यता के फलों को न गंवाने के लिए, मनुष्य उस क्षण से ही अपने सारे परंपरागत सामाजिक रूपों को बदलने को बाध्य होता है जब से उसके वाणिज्य के रूप का अर्जित उत्पादक शक्तियों के साथ सामंजस्य नहीं रह जाता।’’

कहना न होगा, नवंबर क्रांति की विद्रोही विरासत तबाह की जा रही उच्छिष्ट मानव-शक्ति को सामाजिक रूपांतरण की एक नई संगठित, सृजनात्मक शक्ति में बदलने का संदेश देती है। जीवन के सभी स्तरों पर मार्क्सवाद के प्रयोग की स्थितियों को समझते हुए उन्हें मूर्त करने में ही यह क्रांतिकारी विज्ञान चरितार्थ होता है। हर समाज में बनने वाले द्वंद्वात्मक संयोगों को मानव-मुक्तिकारी समाज व्यवस्थाओं में उतारना ही क्रांतिकारियों का काम है।

हमारे देश में हमें अपने धर्म-निरपेक्ष और कल्याणकारी राज्य के संविधान की रक्षा की लड़ाई के जरिये पूरे समाज के हितार्थ मनुष्यों की इन अर्जित शक्तियों के प्रयोग को सुनिश्चित करना है। नवंबर क्रांति हमें अपने संविधान के सार-तत्व को पूरे ओज और विस्तार के साथ प्रकाशित करने वाली शक्तियों के निर्माण की प्रेरणा देती है। सांप्रदायिक फासीवादी ताकतें इसे समाज की आत्म-विनाशकारी शक्ति में बदलना चाहती है। नवंबर क्रांति का संदेश विनाश के खिलाफ सृजन और न्याय के लिये दृढ़ प्रतिज्ञ संघर्ष का संदेश है।



नवंबर क्रांति जिंदाबाद !

शनिवार, 5 नवंबर 2016

राजनीति की गुह्य वासनाओं के खतरें !



-अरुण माहेश्वरी



इतना कुछ घट रहा है लेकिन मोदी जी मौन है । जब रामनाथ गोयनका पुरस्कार के कार्यक्रम में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा प्रेस और सरकार के बीच छत्तीस के रिश्ते को ही जनतंत्र के लिये आदर्श रिश्ता बता रहे थे, तब मोदी जी फटी आँखों से उन्हें घूर रहे थे । झा के भाषण के कुछ देर पहले ही मोदी जी ने कहा था - भारत फिर कभी कोई आपातकाल को न दोहराये ! और दूसरी ओर, ऐन उसी समय, उनकी सरकार का सूचना और संस्कृति मंत्रालय बेबात ही देश के एक सबसे प्रमुख टीवी चैनल को एक दिन के लिये प्रसारण न करने की सज़ा सुना रहा था !


इसलिये यह कहना उचित नहीं होगा कि मोदी जी की सरकार कुछ कर नहीं रही है ! वे कुछ तो कर रहे हैं या भले कुछ न भी करते दिखाई दें, तब भी कुछ कर गुज़रने की इच्छाएँ (वासनाएँ) जरूर पाल रहे हैं ।


मोदी सरकार के पंगुपन पर मित्र जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपनी एक पोस्ट में लिखा है - "परफॉर्म किए बिना पीएम मोदी ने ढाई साल काट लिए,लगता यही है मोदीजी पीएम बनकर पीएम ऑफिस में टहलने चले आए हैं और टहलकर चले जाएंगे।"


उनकी इस पोस्ट पर हमने टिप्पणी की है -


" दरअसल वे किसी ऐसे अघटन की प्रतीक्षा में है, जिसका कोई इतिहास नहीं होगा, सीधे स्वर्ग से अवतरण होगा । वह तत्व जिसकी कोई तात्विक मीमांसा नहीं हो पायेगी ।


"वे अभी गोटियां सज़ा रहे हैं, 2017 की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति, दोनों पदों पर कोई कट्टर संघी बैठा होगा । इसके पहले न्यायपालिका और प्रेस को संत्रस्त करके वे चाहते हैं इन्हें गूँगा कर दिया जाए । इन सारी तैयारियों के बाद, वे आयेंगे अपने असली चेहरे में, मौन के रहस्यों के सभी पर्दों को फाड़ कर, अपने सबसे ख़ूँख़ार पंजों, नख-दंतों के साथ । कहेंगे हिरणकश्यप के वध के लिये नृसिंह अवतार हुआ है । और तब वध होगा हमारे जनतंत्र का, संविधान का, नागरिक स्वतंत्रताओं का ।


" लेकिन अफ़सोस कि ऐसे इतिहास-विहीन अवतरण की कामना जब जीवन के छोटे-छोटे यथार्थ से ही टकराती है तो उसका क्या हस्र होता है, हम जानते हैं । अभी उत्तर प्रदेश में ही इनको मुँह की खानी है ।"


इसमें हम अब वामपंथियों की दशा को और जोड़ना चाहेंगे । वे भी बाहर की दुनिया के सारे विषयों को भूल कर अपने अंतर को साधने की योग-साधना में लगे हुए जान पड़ते हैं । पिछले दिनों उनके एक प्रमुख नेता प्रकाश करात 'भाजपा फासीवादी है या महज सर्वाधिकारवादी ' की तरह की अपनी ही छेड़ी एक झूठी बहस के जाल में फँस गये थे । अभी उनसे कोई पूछे तो कहेंगे - इन पचड़ों में पड़ने के बजाय जरूरी है अभी अपनी एकता को बनाये रखो । वे भी सटीक समय में सटीक वार करने की वासना पाले हुए अभी के पूरे दृश्य से वामपंथ को प्राय: नदारद किये हुए हैं ।


हमें यह सब 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश प दम निकले' वाला दुखांतकारी क़िस्म का मामला ही लगता है । यह तय है कि वर्तमान की चालाकियों से कभी भविष्य की दिशा तय नहीं होगी । फिर भी, जनतंत्र के लिये ख़तरे तमाम हैं । मोदी की फासीवादी बदहवासी के ख़तरें और वामपंथ की चरम निष्क्रियता के भी ख़तरें।



शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

टेलिविजन पत्रकारिता में नंगई के पक्ष में स्वपन दासगुप्त


-अरुण माहेश्वरी


भारत में ट्रम्प की तरह के एक लंपट अमेरिकी नेता के प्रशंसक पत्रकार स्वपन दासगुप्त ने आज (4 नवंबर 2016) के टेलिग्राफ में एक लेख के जरिये टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी की जिस प्रकार से तारीफ की है, वह यह बताने के लिये काफी है कि कुछ जीव ऐसे ही होते हैं जिनकी फितरत में है कि जहां गंदगी दिखाई दे, वे दौड़कर उसमें लोटने-पोटने लगते हैं।

आज के उनके इस लेख का शीर्षक है - A simple nationalism । इस लेख के पूरे कथन के संदर्भ में इस शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कहना होगा - नग्न राष्ट्रवाद। इसके ऊपर, लेख के शीर्षक को संदर्भित करने वाली पंक्ति है - Beyond the cloistered world of political correctness । इसका हिंदी अनुवाद होना चाहिए - राजनीतिक सभ्यता की शालीन दुनिया के परे।

स्वपन दासगुप्त ने इस लेख का प्रारंभ तो टाटा समूह से साइरस मिस्त्री को निकाल बाहर किये जाने की घटना के उल्लेख से किया है। लेकिन उनका पूरा लेख अर्नब गोस्वामी के ‘टाइम्स नाउ’ से हटने की घटना पर केंद्रित है। इन दोनों घटनाओं में एक बड़े संस्थान से उनके प्रमुख व्यक्तियों के हटने के अलावा क्या समानता है, इसका पूरा लेख पढ़ जाने के बाद भी कोई अंदाज नहीं मिलता है।

टाटा वालों का मामला शुद्ध रूप से एक व्यापारिक घराने में मालिक और उसके मैनेजर गुमाश्ते के बीच का मामला है। टाटा समूह में 66 प्रतिशत शेयर टाटा सन्स के पास है, अर्थात इस समूह का मालिक टाटा सन्स है। मालिक ने एक समय में अपने कारोबार की देखरेख के लिये साइरस मिस्त्री नामक एक ऐसे व्यक्ति को उसके प्रबंध-निदेशक के तौर पर नियुक्त किया जिसके पास संयोग से टाटा समूह के थोड़े से शेयर भी थे। पूंजीवाद का यह एक बुनियादी उसूल है कि किसी भी कारोबार के गुमाश्ते को कभी भी वे सारे हक नहीं मिल सकते कि वह कारोबार के मालिक की इच्छा के विपरीत काम करने लग जाए। ‘हमारा पैसा है, हम उसे बर्बाद करे या आबाद, हमारी मर्जी। उस पर किसी गुमाश्ते को बोलने का कोई हक नहीं हो सकता है।’ लेकिन टाटा समूह के प्रमुख की कुर्सी पर बैठ कर साइरस मिस्त्री ‘जगत मिथ्या’ की इस सबसे बड़ी सचाई को भूल गये, और इस भूल की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी।

लेकिन ‘टाइम्स नाउ’ और अर्नब के मामले में अब तक ऐसे कोई विशेष तथ्य सामने नहीं आए हैं जिनसे पता चले कि किसी भी विषय में अर्नब का टाइम्स ग्रुप के मालिकों के साथ किसी प्रकार का टकराव हुआ हो। उल्टे, अर्नब गोस्वामी टाइम्स ग्रुप के मालिकों और अभी की मोदी सरकार के बीच गहरे संबंधों के एक मजबूत सेतु का काम करते रहे हैं। अर्नब गोस्वामी की सारी नंगईपूर्ण हरकतों की प्रशंसा में शासक दल के एक सांसद स्वपन दासगुप्ता का इस प्रकार लहलोट होना भी तो इसी सचाई का प्रमाण है।

बल्कि, इसी लेख में खुद स्वपन दासगुप्त के दिये गये संकेतों से पता चलता है कि अर्नब ने सरकार के साथ अपने गहरे संबंधों के बलबूते पर कुछ ऐसा जुगाड़ बैठा लिया है जिससे बहुत जल्द ही वह टेलिविजन के पर्दे पर एक ‘नये अवतार’ के रूप में सामने आने वाला है। दासगुप्त के लेख के अंतिम पैरा की शुरूआत ही इस बात से होती है कि ‘‘Regardless of how Arnab re-enters the TV screens in his new avatar,…”।

इसप्रकार, जाहिर है कि अर्नब के ‘टाइम्स नाउ’ से हटने के मामले और टाटा समूह से दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिये गये साइरस मिस्त्री के मामले में किसी प्रकार की कोई समानता नहीं है। उल्टे अर्नब टेलिविजन पर और बड़ी महत्वाकांक्षाओं के साथ आने की तैयारियां कर रहे हैं। अमेरिका जैसे देश में ट्रम्प की तरह के नेताओं के उत्थान ने नरेन्द्र मोदी जैसों को अपनी अन्तरराष्ट्रीय छवि के बारे में जिस प्रकार काफी उत्साहित किया है, उसी प्रकार अर्नब जैसों को भी लगता है कि उनकी जैसी समाजों को बांटने वाली टेलिविजन पत्रकारिता के लिये आज की दुनिया में बहुत ज्यादा संभावना है, और वे अब तक जो काम भारत की सीमा में करते रहे हैं, संभवत: अब उसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने का समय आगया है।

बहरहाल, देखने की दिलचस्प बात यह है कि स्वपन दासगुप्त अपने इस लेख में अर्नब गोस्वामी की कौन सी खूबियों का गुणगान कर रहे है ?

उनके अनुसार, अर्नब की पहली खूबी तो यह रही है कि उसने सोशल मीडिया में गालियां बकने वाले भक्तों की फौज को एक प्रकार की टेलिविजन-सूरत प्रदान करने का  काम किया है। भक्तों वाली उग्रता और अशालीनता को टेलिविजन के पर्दे पर लाकर उसने पूरी धृष्टता के साथ टेलिविजन की निष्पक्षता का चीर-हरण कर लिया है। दासगुप्त के शब्दों में - ‘‘सर्वप्रथम अर्नब ने औपचारिक रूप से इस झूठे दिखावे को तार-तार कर दिया है कि मीडिया निष्पक्ष होता है।’’
(Arnab formally discarded the sham pretence that the media are neutral.)

दूसरा, उसने सेना और राष्ट्रीय झंडे आदि की मर्यादा तथा देश की एकता के शोरगुल में विरोध की आवाज को पूरी तरह से डुबा कर उससे उसकी जगह को छीन लिया है। ‘‘उसने पूरी दृढ़ता और स्पष्टता से एकदम साफ और नग्न राष्ट्रवाद की पैरवी की है जिसे उदारपंथी उजड्डता, युद्धोन्माद और अशालीन मानते हैं।’’ ( ‘‘He resolutely and unambiguosly upheld simple, uncluttered nationalism that liberals saw as crude, jingoistic, and lacking nuances”) अर्नब ने घरों की चारदिवारी में होने वाली शालीन बातों की जगह सड़काऊ ओर चलताऊ बातों को महत्व दिया, जो दासगुप्त के अनुसार उसकी बड़ी खूबी रही है।

अर्नब की अंतिम विशेषता के तौर पर दासगुप्त बताते हैं कि उसके अंदर पाकिस्तान की सीमाओं और उसके साथ भारत के शांतिपूर्ण और सद्भावनापूर्ण संबंधों के प्रति जरा भी सम्मान नहीं है। ( ‘‘ unlike a section of journalists who remain committed to everlasting peace and amity across the Red Cliffe Line, Arnab’s anti-Pakistan rhetoric was blunt and always un-comprising.”)

दासगुप्त खुशी के साथ ऐलान करते हैं कि अर्नब अपनी इन सारी ‘ज्यादतियों’ के बावजूद आज तक कायम है, क्योंकि उसकी इसी नंगई के कारण उसके दर्शकों की संख्या में इजाफा हुआ है।

मजे की बात यह है कि अर्नब में इस प्रकार के सभी संघी गुणों बखान करने के बाद भी स्वपन दासगुप्त अंत में एक बड़ा झूठ, बल्कि कहे उसके बारे में एक नया भ्रम रचने से नहीं चूकते कि ‘‘मोटे तौर पर अर्नब दलगत राजनीति से बचे रहे।’’ (Arnab, by and large steered clear of Party politics)।

यह हूबहू ऐसा ही है जैसे आरएसएस की ओर से गाहे-बगाहे यह झूठ कहा जाता है कि संघ कभी दलगत राजनीति नहीं करता !

है न यह स्वपन दासगुप्त की खास संघी-छाप पत्रकारिता ! शास्त्र कहते हैं - लोक में प्रसिद्धि ही आगम है, चाहे वह तर्कसंगत हो या न हो।’’(‘‘प्रसिद्धिरागमों लोके युक्तिमानथवेतर:)। स्वपन दासगुप्त के इस लेख को अर्नब के नये अवतार के लिये की जा रही एक खास प्रकार की विज्ञापनबाजी कहा जाए तो वह अनुचित नहीं होगा।

  http://www.telegraphindia.com/1161104/jsp/opinion/story_117223.jsp#.WBzGzCa_pzg