बुधवार, 16 नवंबर 2022

गालियाँ और मोदी जी !

—अरुण माहेश्वरी 



मोदी जी अक्सर हर थोड़े दिनों के अंतराल पर गालियों और कुत्साओं की गलियों में भटकते हुए पाए जाते हैं । 


या तो वे खुद अन्य लोगों को नाना प्रकार की गालियों से नवाजते हुए देखे जाते हैं, या अन्य की गालियों की गंदगी में लोटते-पोटते, आनंद लेते दिखाई देते हैं। 


उनके ही शब्दों में, हर रोज़ की ये कई किलो गालियां उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह होती हैं । 


सचमुच, फ्रायड भी यही कहते हैं कि व्यक्ति हमेशा घूम-फिर जिन बातों को दोहराता हुआ पाया जाता है, उसमें ऐसे आवर्त्तन हमेशा उसके लिए आनंद की चीज़ हुआ करते हैं । 


प्रमाता में ऐसा repetition उसके enjoyment पर आधारित होता है । 


पर फ्रायड यह भी कहते हैं कि इसी से उस चरित्र की कमजोरी, प्रमादग्रस्त प्रमाता के रोग के लक्षण की सिनाख्त भी होती है ।


इसमें मुश्किल की बात एक और है कि आदमी हमेशा दोहराता तो वही है, जिसे वह दोहराता रहा है, पर हर दोहराव में रफ़्तार की गति के कम होने की तरह, कुछ क्षय होता रहता है, और क्रमशः उसकी बातें उसके सिर्फ एक रोग के लक्षण का संकेत भर बन कर रह जाती हैं ।


फ्रायड कहते हैं कि इस प्रकार के दोहराव में व्यक्ति को उस चीज से मिलने वाला मज़ा ख़त्म होता जाता है । 


जॉक लकान कहते हैं कि यही वह बिंदु है जहां से फ्रायडीय विमर्श में ‘खोई हुई वस्तु की भूमिका’ (function of lost object) का प्रवेश होता है । 


यह व्यक्ति की वह मौज है जिसमें वह अपनी छवि की बाक़ी सब चीजों को गँवाता जाता है। इसे लकान की भाषा में Ruinous enjoyment कहते हैं । यह बिंदु उसी दिशा में बढ़ने का प्रस्थान बिंदु है । 


इससे व्यक्ति एक निश्चित, एकल दिशा के संकेतक में बदलता जाता है । उससे कोई भी जान पाता हैं कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है, वह क्या करने और कहने वाला है ॥ 


लकान व्यक्ति के बारे में आम जानकारी और उसके ऐसे संकेतक रूप से मिलने वाली जानकारी, इन दोनों को बिल्कुल अलग-अलग चीज बताते हैं । इनमें आपस में कोई मेल नहीं रह जाता है । यह संकेतक प्रमाता को अन्य संकेतक के सामने पेश करने का काम करता है । 


उसी से जुड़ा हुआ है व्यक्ति के अपने आनन्द में क्षय का पहलू । यहाँ आकर उसके आनंद की समाप्ति हो जाती है, और यहीं से उसमें दोहराव का क्रम चलने लगता है । ज़ाहिर है कि इससे प्रमाता के बारे में हमारी या अन्य की जानकारी भी सिकुड़ती चली जाती है । 


जैसे हमने देखा कि कैसे राहुल गांधी को पप्पू बना कर आरएसएस वालों ने उनके पूरे व्यक्तित्व को ही ढक दिया था । चूँकि वह राहुल पर आरोपित छवि थी, वे आज उससे आसानी से निकल जा रहे हैं । 


लेकिन जहां तक मोदी का प्रश्न है, एक झूठे और मसखरे व्यक्ति के रूप में अपने को पेश करना अपने बारे में उनकी खुद की फैंटेसी का हिस्सा रहा है, जिसमें लोगों को भुलावा दे कर सच्चाई से दूर रखना ही वे राजनीति का मूल धर्म मानते हैं । वे इसी फैंट्सी में मज़ा लेते हैं । 


यही वजह है कि अब हर बीतते समय के साथ मोदी जी के बारे में लोगों की पूरी धारणा ही एक झूठ बोलने वाले मसखरे की होती जा रही है। यह धारणा उन पर एक गहरे दाग की तरह, उनकी चमड़ी पर पड़ चुके एक अमिट दाग का रूप ले चुकी है । 


अब तक जिस दाग से वे खुद मज़ा ले रहे थे, वहीं अब अंततः उन्हें शुद्ध मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहा है । 


लोग हंस रहे हैं कि जो व्यक्ति हिमाचल के अपने एक छोटे से कार्यकर्ता को तो नियंत्रित नहीं कर पा रहा है, वह हांक रहा है कि उसने रूस के राष्ट्रपति से यूक्रेन के युद्ध को चंद घंटों तक रुकवा दिया !

बुधवार, 2 नवंबर 2022

विमर्श के लिए शब्द ज़रूरी नहीं होते हैं

—अरुण माहेश्वरी 




अभी चंद रोज़ पहले कोलकाता में गीतांजलि श्री जी आई थीं। प्रश्नोत्तर के एक उथले से सत्र के उस कार्यक्रम मेंघुमा-फिरा कर वे यही कहती रहीं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं हैं कि कोई उनके उपन्यास के बारे में क्या राय रखता हैं उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि ‘वे सोशल मीडिया तो देखती ही नहीं हैं’  लेकिन सच्चाई यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया मेंतो उन्हें मिले पुरस्कार की सिर्फ पंचमुख प्रशंसा वाली रिपोर्टिंग ही हुई है , उपन्यास की प्रशंसा या आलोचना की गंभीरचर्चाएँ तो अब तक सोशल मीडिया पर ही हुई हैं  

 

गौर करने की बात थी कि इस मीडिया को  देखने के बावजूद इस पूरी वार्ता में वे अपने आलोचकों को ही जवाब देनेमेंसबसे अधिक तत्पर नज़र  रही थीं  अपने आलोचकों के जवाब में उन ‘ढेर सारे’ पाठकों की प्रतिक्रियाओं का हवालादे रही थींजो उनके उपन्यास में अपने घर-परिवार के चरित्रों को और अपनी निजी अनुभूतियों की गूंज-अनुगूँज को सुनकर मुग्ध भाव से उन तक अपने संदेश भेजते रहते हैं  अर्थात्एक लेखक के नाते उन्हें परवाह सिर्फ अपने इनआह्लादितपाठकों की हैंआलोचकों की नहीं ! 

 

गीतांजलि श्री जी का यह व्यवहार कि जिन आलोचनाओं को वह देखती ही नहीं हैंउनके जवाब के लिए ही वे सबसेज़्यादा व्याकुल हैंयही दर्शाता है कि सचमुच किसी भी विमर्श के लिए ठोस शब्दों के पाठ या कथन का हमेशा सामनेहोना ज़रूरी नहीं होता है  लकान के शब्दों मेंइसे ‘बिना शब्दों का विमर्श ‘ कहते हैं। 

 

चूंकि हर विमर्श की यह मूलभूत प्रकृति होती है कि वह शब्दों कीकथन की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैइसीलिएठोस शब्द हमेशा विमर्शों के लिए अनिवार्य नहीं होते हैं  जो दिखाई नहीं देताया जिनसे हम मुँह चुराते हैंवही हमें सबसेअधिक प्रताड़ित भी किया करता है  इसे ही घुमा करखामोशी की मार भी कह सकते हैं  

 

गीतांजलि श्री आलोचना के जिन शब्दों को देखती ही नहीं हैंवे अनुपस्थित शब्द ही उनके अंदर ‘अन्य’ का एक ऐसा क्षेत्रतैयार कर देते हैंजो असल में ‘अन्य ‘ का अन्य नहीं होता हैवह उनके लेखन में ही निहित नाना संकेतकों के हस्तक्षेप सेनिर्मित एक अलग क्षेत्र होता है। जैसे होती है आदमी की अन्तरात्मा की आवाज़उसका सुपरइगो  

 

जो जितना सक्रिय रूप में अपने पर उठने वाले सवालों से इंकार करता हैवह उतना ही अधिक उन सवालों से अपने अंतरमें जूझ रहा होता है  

 

अभी दिल्ली मेंहँस के साहित्योत्सव में अलका सरावगी अपने चर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास ‘ के बारे मेंराजेन्द्र यादव के इस सवाल पर सफ़ाई दे रही थीं कि उनके इस उपन्यास में वह खुदयानी ‘स्त्री’ कहा है ? अलका जी काकहना था कि वह उपन्यास तो किन्हीं चरित्रों की कहानी नहीं हैवह तो कोलकाता के इतिहास की कथा है  

 

हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता काइतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 

 

इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के प्रकल्प कमजोर और दबे हुए चरित्रों की उपस्थिति से कैसे निर्मित हो सकते हैं ? स्त्रियोंका ऐसे प्रकल्प में क्या काम ! उनकी लाश पर ही हमेशा ऐसे प्रकल्प चल सकते हैं  ‘दुर्गा वाहिनी’ की कोई लेखिका क्यापूज्य हिंदू संयुक्त परिवार में स्त्रीत्व की लालसाओं की कोई कहानी लिख सकती है ? 

 

कहना  होगा, ‘कलिकथा वाया बाइपास‘ में लेखिका की गैर-मौजूदगी उस पूरे प्रकल्प की अपरिहार्यता थी  उसकीमौजूदगी तो वास्तव में उस पूरे प्रकल्प के लिए किसी ज़हर की तरह होता  

 

दरअसलअलका जी जिस बात को नहीं कहना चाहती हैउपन्यास में उनके  होने की बात नेअर्थात् उनकी अनकही बातसे उत्पन्न विमर्श ने वही बात कह दी है। अर्थात्राजेन्द्र यादव के जवाब में उनकी बातों से यदि कोई विमर्श पैदा होता है तोवह असल में उनकी कही हुई बातों से नहींउन्होंने जो नहीं कहा हैउन बातों से ही पैदा होता है  

 

विमर्श इसी प्रकार  सिर्फ शब्दों की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैबल्कि बिना शब्दों और बातों के भी पैदा हुआकरता है 

  

हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता का इतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है !