रविवार, 30 अगस्त 2020

कोरोना काल के संकेतों को समझो, अन्यथा पूरी तरह से नष्ट हो जाने के लिए तैयार हो जाओ !

अरुण माहेश्वरी 

आर्थिक नीतियों के बारे में प्रधानमंत्री की अब तक की तमाम ऐतिहासिक लफ़्फ़ाज़ियों के परे वित्तमंत्री और रिज़र्व बैंक के गवर्नर के नृत्यों की जुगलजोड़ी सचमुच अब अश्लीलता की हद तक असहनीय होती जा रही है । 

 

इस पूरी मूर्खमंडली को अहसास ही नहीं है कि कोरोना ने किस हद तक दुनिया की अर्थ-व्यवस्था को मरो या स्थायी तौर पर बुनियादी रूप में बदल जाने के संकेत दे दिये हैं । 

 

अब यह साफ़ है कि दुनिया वह नहीं रहने वाली है जो कोरोना के पहले हुआ करती थी । यह इस बात की घोषणा है कि दुनिया एक बिल्कुल नई परिस्थिति में प्रवेश कर चुकी है । 

 

सत्तर साल पहले यदि चीन के वुहान शहर में इस प्रकार का कोई संक्रमण हुआ होता तो वह उसी जगह सीमित रह कर ख़त्म भी हो गया होता । संभव है दुनिया के दूसरे हिस्सों में या तो उसकी सूचना ही नहीं पहुँचती, या वह सबके लिए महज़ एक खबर भर होती । लेकिन अभी की दुनिया एक नई दुनिया है । पूरी तरह से गुँथी हुई एकान्वित दुनिया । कोरोना ने इस नए परम सत्य की वैश्विक उद्घोषणा कर दी है । 

 

सबसे बड़ी विडंबना है कि इस नए काल के साफ संकेतों के बावजूद दुनिया के तमाम देशों के राजनीतिक शरीर की कोशिकाओं में लंबे काल से ‘राष्ट्रवाद’ का जो कीड़ा घुसा हुआ है, वह इस सच को आत्मसात करने में सबसे बड़े प्रतिरोधक का काम कर रहा था । कहना न होगा, कोरोना के आगमन ने राष्ट्रों के शरीर में इस राष्ट्रवादी एंटीबडी को निर्णायक रूप में व्यर्थ साबित कर दिया है । 

 

और भी दुखजनक बात यह है कि ‘राष्ट्रवाद’ का यही वह कीड़ा रहा है जो कोरोना संबंधी तमाम वैज्ञानिक शोधों और विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरह के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (डब्लूएचओ) की चेतावनियों को पूरी धृष्टता से ठुकराने की कोशिश करता रहा है । इस साल के जनवरी  महीने में ही पहली वैश्विक स्वास्थ्य आपदा की घोषणा के वक्त से लेकर आज तक, डब्लूएचओ ने इस महामारी के बारे में जो भी कहा और जो तमाम चेतावनियाँ दीं, वे सभी शत-प्रतिशत सही साबित हुई है । डब्लूएचओ ने न सिर्फ़ कोरोना से मुक़ाबले के बारे में अब तक जितने दिशा-निर्देश जारी किये, वे सब बेहद उपयोगी साबित हुए हैं, बल्कि उसने यह भी साफ़ शब्दों में कहा है कि कोरोना इस बात की पूर्व चेतावनी है कि दुनिया को निकट भविष्य में ही इससे भी बहुत बड़े-बड़े अघटन के लिए अपने को तैयार कर लेना चाहिए । डब्लूएचओ की अब तक की सबसे क़ीमती सलाह यही है विश्व की सभी सरकारों को स्वास्थ्य के मामले में एक नए वैश्विक सहयोग और समन्वय की स्थायी व्यवस्थाओं के विकास की दशा में तेज़ी से बढ़ जाना चाहिए । वैश्वीकरण यदि मानव सभ्यता के विकास की दिशा का परम सत्य है तो इस दिशा में सुरक्षित और निश्चिंत होकर बढ़ने का एक मात्र आधार वैश्विक सहयोग और समन्वय हो सकता है । 

 

डब्लूएचओ की सिफ़ारिशों के अलावा इस दौरान दुनिया की सभी सरकारों को इस नई परिस्थिति के प्रभाव से निपटने के लिए जिन आपद कदमों को उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है, वे भी मानवता के भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और संकेतपूर्ण रहे हैं । लगभग सभी सरकारों को जनता की सहायता के लिए, जिस प्रकार अपने ख़ज़ाने को खोल देना पड़ा है, उसने ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ (यूबीआई) की तरह की योजनाओं में ही दुनिया का भविष्य देखने का रास्ता खोल दिया है । 

 

पिछले तमाम सालों में दुनिया में दक्षिणपंथ के जिस नए उभार के मूल में विश्व राजनीति के शरीर में कुलबुलाते राष्ट्रवाद के कीड़े की उल्लेखनीय भूमिका रही है, उसके पीछे आर्थिक नीतियों के मामले में नव-उदारवाद के उस लंबे दौर की भी भूमिका थी जिसने राज्य की जन-कल्याणकारी नीतियों को तिरस्कृत करके ठुकरा देने में बड़ी भूमिका अदा की थी । अमेरिका में ट्रंप ने सबको स्वास्थ्य सुविधा देने का वादा करने वाली ओबामा योजना को ही चुनाव के वक्त अपने हमले का मुख्य लक्ष्य बनाया था । यही वह काल रहा है जिसमें ट्रंप, मोदी, बोरिस जान्सन जैसे मूर्ख राजनेताओं ने पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर क़ब्ज़ा कर लिया था । सबने एक सुर में उस राष्ट्रवाद की हुआं-हुआं ध्वनियाँ निकालनी शुरू कर दीं । 

 

कहना न होगा, यूबीआई और वैश्विक सहयोग इसी ‘राष्ट्रवादी’ कीड़े का विप्रतिषेध है । कोरोना काल ने राष्ट्रवादी सिद्धांतों की सारी निर्मितियों को बिल्कुल खोखला साबित कर दिया है । आगे इसके राजनीतिक परिणाम कब और किस रूप में सामने आते हैं, इसे निश्चित तौर पर अभी नहीं कहा जा सकता है, पर इतना साफ़ है कि इस युग के वैश्विक सहयोग और समन्वय के परम सत्य की जितनी उपेक्षा जाएगी, मानव प्रजाति उसकी उतनी ही बड़ी क़ीमत चुकाने के लिए अभिशप्त होगी । यह सत्य किसी भी वायरस की तरह ही हमारे सामाजिक-राजनीतिक शरीर की वर्तमान कोशिकाओं से बिल्कुल अलग वह सत्य है, जो सर्वशक्तिमान भी है । इसके अस्तित्व से इंकार करके किसी के भी लिए ज़्यादा दूर चलना असंभव होगा । यह मनुष्यों की मूर्खताओं और स्वार्थों पर टिके वर्तमान समाजों को नष्ट करने और नये समाजों के निर्माण का रास्ता तैयार करते चले जाने की शक्ति लिए हुए परमशिव की तरह है । 

 

बहरहाल, एक ऐसे समय में मोदी और उनकी मूर्ख-मंडली अब भी अर्थ-व्यवस्था की समस्याओं का निदान जनता के जीवन में सुधार और वैश्विक सहयोग में नहीं, मुट्ठीभर पूँजीपतियों की जेबें गर्म करने, अपनी ही राज्य सरकारों के साथ शत्रुतापूर्ण रुख़ अपना कर चलने और और राष्ट्रवादी हुंकारों के साथ पड़ौसी मुल्कों से रिश्तों को बिगाड़ कर चारों ओर की सीमाओं को सुलगा कर रखने की तरह की आत्महंता नीतियों में देख रही है । 


कोरोना काल के संकट में व्यापक जनता को अधिक से अधिक राहत पहुँचाने के बजाय मोदी रिलायंस, अडानी जैसे अपने चंद मित्रों के हाथ में देश की सारी संपत्तियों को संकेंद्रित करने के अंधाधुंध अभियान में लगे हुए हैं । यहाँ तक कि इनके ज़रिये ही प्रकारांतर से पूरी अर्थ-व्यवस्था पर विदेशी पूँजी की जकड़बंदी को भी मज़बूत किया जा रहा है ।

 

मोदी की दिशा कोरोना काल के संकेतों की बिल्कुल उल्टी दिशा है । उनकी सारी करतूतों से लगता है जैसे वे जनता को ज़्यादा से ज़्यादा कंगाल और ग़ुलाम बनाने के अभियान में उतरे हुए हैं । मोदी की यह उल्टी दिशा ही भारत में तबाही की गति को उसी अनुपात में कई गुना ज़्यादा बढ़ा दे रही है । 

 

आरबीआई का गवर्नर कहता है, कोरोना से कैसे निपटा जाएगा, इसे कोई निश्चय के साथ नहीं कह सकता है, पर मोर को खिलाने में मस्त मोदी जी मुदित हैं कि यह तो ईश्वर प्रदत्त एक नया अवसर है जब वे अपनी राज्य सरकारों को भी ईश्वर के नाम पर अपने दासानुदास में बदल सकते हैं । गवर्नर कह रहा है कि जो लाखों करोड़ रुपये की कारपोरेट करों में छूट दी गई है, अथवा पूँजीपतियों को जो क़र्ज़ बाँटा जा रहा है, वह अर्थ-व्यवस्था में निवेश का जरा भी कारक नहीं बन रहा है, बल्कि सारे कारपोरेट घराने उसका प्रयोग अपने भविष्य को सुरक्षित करने और अपनी संततियों को पश्चिम के देशों में बसाने के काम में ज़्यादा कर रहे हैं । पर मोदी, वे अपने गुलाम मंत्रियों, मूर्ख नौकरशाहों, हुक्म के ग़ुलाम पुलिसवालों और विवेकहीन जजों की फ़ौज के ज़रिये सारी सत्ता को अपने हाथ में लेकर खुद की एक नए हिटलर के रूप में कल्पना से खुश हैं क्योंकि आरएसएस के राजनीतिशास्त्र का वही तो एक परम लक्ष्य रहा है जिसे वे हिंदुओं के पराक्रम के साक्षात रूप का अवतार मान कर पूजते रहे हैं । 

 

दुनिया की सभी धार्मिक तत्त्ववादी ताकतें इसी प्रकार तमाम देशों की तबाही की कहानी तैयार करती रही है । भारत में आरएसएस की भूमिका उनसे किसी भी मायने में अलग नहीं है । बल्कि कोरोना काल ने उनकी इस भूमिका को एक नई गति दी है । ये कोई भी कोरोना काल के वैश्विक संदेश को ग्रहण करने में तत्त्वत: ही समर्थ नहीं है । और शायद यही सबसे प्रमुख वजह होगी जो आगे भारत में इस पूरी मंडली के अंत की गति को भी उतनी ही तेज करेगी । इनकी सांगठनिक शक्ति का सारा तानाबाना कब पूरी तरह से बालूई साबित होगा, इन्हें पता भी नहीं चलेगा ।

 

स्वास्थ्य, खाद्य और सुरक्षा की पूर्ण गारंटी और विश्व बंधुत्व का अन्तरराष्ट्रीयतावाद, जो साम्यवाद का मूल मंत्र है, कोरोना की चुनौती ने इसकी सत्यता को स्थापित किया है । जो ताक़तें इस संदेश को सुन पाएगी, भविष्य उनका ही होगा । बाक़ी सब जल्द ही इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़ी दिखाई देगी ।

रविवार, 16 अगस्त 2020

नेमीचंद्र जैन की रंगदृष्टि पर अशोक वाजपेयी


कल समानांतर इलाहाबाद के फ़ेसबुक लाइव पर अशोक वाजपेयी जी का पूरा घंटे भर का वक्तव्य सुना  नेमीचंद्र जैन की रंग दृष्टिके संदर्भ में भारतीय रंगमंच से उनकी प्रतिबद्धता का यह वृत्तांत अपनी तथ्यात्मकता की वजह से ही काफी महत्वपूर्ण था  इसकेलिये अशोक जी आंतरिक बधाई के पात्र है  

अशोक जी के इस वक्तव्य में साहित्य और कला की तरह ही नेमी जी की रंग दृष्टि और रंग भाषा की बात आई पर जब रंग आलोचनाका विषय आया तो कविता के प्रतिमानों की बात होने लगी  रंगमंच को किसी  किसी प्रकार से कविता और उसमें जीवन कीसूक्ष्मताओं की अभिव्यक्ति का ही एक और रूप बताने का आग्रह दिखाई देने लगा जो हमें ज़रा भी उपयुक्त नहीं जान पड़ा  


रंगमंच पर कविता के प्रतिमानों का प्रयोग कुछ मायनों में सांस्कृतिक क्षेत्र की दो बिल्कुल विपरीत चीजों में मेल बैठाने की एकज़बर्दस्ती की तरह था  


अगर हम रंगमंच को महज सामूहिक मनोरंजन का ज़रिया नहीं मानते हैंउसे एक गंभीर कला-रूप में देखते हैं तो रंग कला का ताना-बाना ही उसे जीवन की तमाम छुद्रताओं और उदात्तताओं के प्रकट रूप की सबसे मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बना देता है  यह एकप्रकार से बिल्कुल नि:स्व, आवरण-रहित प्रत्यावर्त्तित जीवन का प्रदर्शन होता है  इसमें कविता की तरह शब्द की शक्तियों और तात्पर्यार्थों कालिखित पाठों के मौन और रिक्तताओं से जुड़ी संभावनापूर्ण अमूर्त सूक्ष्मताओं का कोई मायने नहीं होता  इसीलिये उसमें दुखांत होतेहैंप्रहसन होते हैं , अर्थात् उदात्तता है या छुद्रता । यह विचारों की क्रियात्मकता का क्षेत्र है । इसीलिये इसका गहरा संबंध राजनीति से होता है ।कला के क्षेत्र की वह विधा जहां जैसे हर चीज बोलती है । रंगमंच में भावात्मक स्फोट की संभावनाओं का विषय हमेशा से एक विचारणीयमुद्दा रहा है  इसी आधार पर रंगमंच की दो अलग अलग धाराओंब्रेख्तियन और स्तानिस्लोवास्कियन धाराओं के बीच बुनियादी तौरपर भेद किया जाता हैयद्यपि अक्सर इस फ़र्क़ को प्रस्तुति की शैलियों का विषय बना कर छोटा कर दिया जाता है । रंगमंच जीवन के निचोड़ का प्रस्तुतीकरण होता है क्योंकि इसमें जीवन की पुनर्वापसी होती है  नि:शब्द अवचेतन का भी मुखर नाट्यांतरण । इसीलिये यह मूलतसंदेशवाही होता है  


अगर रंगमंच की इस जैविक सच्चाई को नहीं समझा गया और उसे साहित्य के मानदंडों पर ही जाँचा-परखा जाने लगा तो इसकेविकास में किसी प्रकार का गंभीर योगदान संभव नहीं प्रतीत होता है  


आधुनिक भारतीय रंगमंच उन क्षेत्रों में ही वास्तव अर्थों में क्यों विकसित हुआ जिनमें आधुनिक सामाजिक जीवन और नवजागरण केबुद्धिवादी आंदोलन का इतिहास मिलता हैयह विचार का एक प्रमुख विषय होना चाहिए  इसकी ज़मीन तीव्र भावनात्मक और  विचारधारात्मक घात-प्रतिघातों की ज़मीन होती है  


हम नहीं जानते कि नेमी चंद्र जी ने रंगमंच के इस सामाजिक उत्स की दिशा में कितना काम किया था  इस वार्ता से यदि उस परकुछ रोशनी गिरती तो शायद यह वार्ता और भी उपयोगी होती  नेमी जी की रंग दृष्टि की सीमाओं-संभावनाओं केआलोचनात्मक विश्लेषण का एक रूप सामने  पाता  हिंदी रंगमंच की चुनौतियों को ज़्यादा यथार्थ रूप में समझा जा सकता था 


- अरुण माहेश्वरी


हम यहाँ अशोक जी के वक्तव्य को मित्रों से साझा करते हैं : 



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