मंगलवार, 23 जनवरी 2018

वामपंथ का ‘उत्तर-सत्य’

—अरुण माहेश्वरी


सन् 2019 में कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ने के सीताराम येचुरी के विचार को ठुकराने के लिये प्रकाश करात और उसके गुट के लोगों शर्म करो । भाजपा की कितनी बी टीमें हैं ? नीतीश कुमार तो जगजाहिर है । कल कांग्रेस ने भी एक कठपुतली चुनाव आयोग के इशारे पर 'आप' पर हमला करके वही काम किया था ।

“क्या हमारे मूर्ख सेकुलरिस्ट यह नहीं समझ सकते हैं कि सिर्फ एक व्यापक और अनुशासित मोर्चा ही आरएसएस के फासीवाद को परास्त कर सकता है । जब फासीवाद का उदय हो रहा हो, उस समय दुविधाग्रस्त लोगों को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा ।”

ये शब्द है प्रसिद्ध प्रगतिशील फिल्मकार और बुद्धिजीवी आनन्द पटवर्द्धन के, आज (23 जनवरी) के टेलिग्राफ में । दूसरी ओर मोदी शिविर में प्रकाश करात के वीटो की खुशी में पटाखे फूट रहे हैं । भाजपा ने भले अब तक अधिकारी तौर पर कोई बयान न दिया हो, लेकिन उसके आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के एक के बाद एक ट्वीट उनकी खुशी को बताने के लिये काफी है ।

मालवीय ने अपने एक ट्वीट में कहा है —“सीताराम येचुरी महासचिव हो सकते हैं, लेकिन सत्ता करातों के हाथ में है । वाम ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है जैसे समाजवादियों ने ।” उनका दूसरा ट्वीट है अखिलेश यादव के इस कथन पर कि “अब तक उन्होंने किसी पार्टी के साथ गठजोड़ करने के बारे में नहीं सोचा है ।”

पिछली 18-20 जनवरी 2018 को कोलकाता में सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में बहस के लिये राजनीतिक और सांगठनिक नीति के प्रस्ताव के मसौदे को अंतिम रूप देने के लिये बैठक हुई थी। यह महज एक मसौदा था, जिसे अंतिम रूप पार्टी की कांग्रेस में दिया जायेगा । लेकिन फिर भी केंद्रीय कमेटी की बैठक में पहले दिन से ही इसे लेकर जिस प्रकार की नग्न गुटबाजी दिखाई दी, उससे सभी वाम हितैषी सचमुच हतप्रभ हैं । पूरी बैठक पार्टी के वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी को नीचा दिखाने की कवायद में ही बीत गई । पूरे तीन दिन सिर्फ एक शब्द, 'समझ' पर मगजपच्ची चली । आगामी चुनावों में कांग्रेस के साथ दूर-दराज तक भी कोई 'समझ' बन सकती है या नहीं, इस पर ! प्रकाश गुट भी यह तो मानता था कि आज भाजपा जनता की सबसे बड़ी शत्रु है, और यह भी मानता था कि चुनाव के बाद जरूरत पड़ी तो सत्ता पर भाजपा को आने से रोकने के लिये कांग्रेस से समझौता किया जा सकता है, लेकिन यह मानने के लिये तैयार नहीं हुआ कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये कांग्रेस के साथ समझौता तो दूर, किसी भी प्रकार की स्थानीय समझ भी कायम की जा सकती है !

आनंद वर्द्धन ने ऐसा खेल खेलने वालों को भाजपा की अगर 'बी टीम' कहा है तो उसे असंगत नहीं कहा जायेगा ।

व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर, एक ऐसे समय में जब सामने सीधे सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा मंडरा रहा है, किसी भी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष कहलाने वाले राजनीतिक समूह का ऐसा ज़िद्दी और अनड़ रवैया शायद दुनिया में कहीं भी किसी ने नहीं देखा होगा । जरूरत पड़ने पर बड़े हितों के लिये दुनिया के बड़े से बड़े दुश्मन से भी हाथ मिलाना ही राजनीति और कूटनीति का एक ध्रुव सत्य है । सीपीएम का यही प्रकाश गुट तमिलनाडू में उस डीएमके के साथ सहयोग करने के लिये तैयार है जो कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है !

प्रकाश करात गुट की इस जिद का कारण यह कहा जा रहा है कि अगर कांग्रेस के साथ किसी भी प्रकार के समझौते की कोई गुंजाईश छोड़ी गई तो पश्चिम बंगाल की पार्टी उसके बहाने ही आगामी चुनावों में कांग्रेस से सीटों का समझौता कर लेगी । वे यह झूठा प्रचार भी करते हैं कि पश्चिम बंगाल में 2011 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता करने से पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ था।

ये लोग यह नहीं जानते कि राजनीति काफी हद तक जनता के पर्शेप्सन का खेल होता है । लोगों के मन में, वाम मोर्चा के चौतीस साल के अच्छे पहलू नहीं, आज भी सिर्फ बुरे पहलू ही जमा है । जीवन में अच्छे दिन भुला दिये जाते हैं, लेकिन बुराइयाँ स्थाई रहती है । जीवन की सारी कहानियाँ दुख से पैदा होती है । सच्चाई यह है कि पिछले चुनाव में भी उत्तर बंगाल में कांग्रेस के परंपरागत आधार का वाम को अच्छा खासा लाभ मिला था और पूरे बंगाल में वह लड़ाई में थोड़ा उतर पाई थी। आज सिलीगुड़ी की तरह के बंगाल के दूसरे सबसे बड़े शहर में सीपीएम का मेयर है। आज भी यही सच है कि बंगाल में अपनी साख को समग्र रूप से वापस हासिल करना अकेले वाम के बूते में नहीं है । जनतांत्रिक ताकतों के किसी एकजुट संघर्ष के बीच से ही वह फिर से शक्ति हासिल कर सकता है । प्रकाश करात कंपनी यह सब जानते हुए भी पार्टी में अपने समर्थकों को बरगलाने के लिये इन बातों को छिपाती है । जो लोग बंगाल की ज़मीनी सचाई से परिचित नहीं है, वे बंगाल की राजनीति को नियंत्रित करना चाहते हैं !

प्रकाश करात सीपीआई(एम) के एक ऐसे बड़े नेता रहे हैं, जिनकी जनता के बीच अपनी कोई साख नहीं है । वे पार्टी के अंदर अपने वर्चस्व को कायम रखने में जरूर माहिर है, और एक बंद संगठन की अपनी कमजोरियों का लाभ उठा कर काफी अर्से से पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व के अपनी ही तरह के जनाधार-विहीन लोगों के बल पर अपना एक बहुमतवादी गुट बनाये हुए हैं । 1996 में जब हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव थे, तब उन्होंने अपनी इसी ताकत के प्रयोग से ज्योति बसु के स्तर के नेता को धूल चटा दी थी और इस प्रकार सीपीआई(एम) के भविष्य को मिट्टी में मिलाने के काम का नेतृत्व किया था । तब ज्योति बसु को कहना पड़ा था कि यह एक ऐतिहासिक भूल हुई है, अब बस निकल गई है, पार्टी के विस्तार का ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला है । यह शायद इतिहास की एक और विडंबना ही थी कि सन् 2004 में फिर एक बार कांग्रेस के अल्पमत के कारण सीपीएम को यूपीए-1 के साथ काम करने का मौका मिला था । लेकिन यह मौका भी सीपीएम के लिये किसी लंबी छलांग का मौका बनता, उसके पहले ही अमेरिका के साथ परमाणविक संधि के बहाने उसे गंवा दिया, अपनी ही पार्टी के लोकसभा अध्यक्ष का अपमान किया गया और सीपीएम के लिये आगे बढ़ने के लिये मिले इस अवसर को उन्होंने उसके चरम पतन के अवसर में बदल दिया । इसके बाद के 2009 के चुनाव में लोकसभा में वामपंथ को उसके इतिहास की सबसे कम सीटें मिली । और जिस परमाणविक संधि को करात ने भारत के भविष्य के लिये सबसे खतरनाक बता कर भारी हल्ला मचाया था, वह आज तक ऐसे कागज के कोरे टुकड़े की तरह पड़ी हुई है, जैसे वह कभी हुई ही न हो !

सीपीएम की केंद्रीय कमेटी की इस बैठक के शुरू में ही यह साफ था कि इसमें सिद्धांतों के प्रश्न या बहस-मुबाहिसा सिर्फ दिखावटी है । वोटिंग के बूते अन्यों को मात देने के अभ्यस्त बहुमतवादियों ने इस बार भी अपने संख्याबल को ही अपनी शक्ति बनाने का निर्णय ले रखा है । केरल से एक सदस्य को ऐसी अवस्था में कोलकाता लाया गया था जो वहां आईसीयू में था उसे सिर्फ वोटिंग के समय मुचलका दे कर उपस्थित किया गया और फिर नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया गया । ऐसे ही एक बेहद बीमार सदस्य खगेन दास त्रिपुरा से आए, जिनका इस बैठक में ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया ।

कहना न होगा, सीपीआई(एम) की इस बैठक में जनवादी केंद्रीयतावाद की ऐसी महत्ता स्थापित हुई कि जिसमें सिक्का उछाल कर नहीं, बल्कि तीन दिन की एक सारहीन बहस के बाद मतदान से प्रस्ताव का एक मसौदा पारित किया गया । जब तक उस पर कांग्रेस की मोहर नहीं लगती इस प्रस्ताव का दो कौड़ी का दाम नहीं होगा । फिर भी, यह खास उद्देश्यों से बुद्धि का नहीं, शुद्ध संख्या शक्ति के प्रयोग का खेल था । दुर्भाग्य की बात यह है कि आगे पार्टी कांग्रेस में भी इन्हीं बातों को पीटा जायेगा । यह है वामपंथ का 'उत्तर-सत्य' ।




मंगलवार, 16 जनवरी 2018

भारत में अभी सिर्फ सस्ते स्कूटर और मोबाइल फोन का बाजार है !

('इकोनोमिस्ट' का अवलोकन)

—अरुण माहेश्वरी


एनडीटीवी के प्राइम टाईम पर रवीश कुमार की यूनिवर्सिटी सिरीज (24 एपीसोड) ने सिर्फ भारत के छात्रों के भविष्य के बारे में नहीं, हमारे समूचे सामाजिक विकास के बारे में बहुत डरावने प्रकार के जलते हुए सवाल छोड़े थे । उस पर अपनी एक विस्तृत टिप्पणी में हमारा सवाल था कि “अगर हमारे आधुनिक शिक्षण संस्थानों की यह दशा है तो क्या यह मान लिया जाए कि हमारी नई पीढ़ी के लिये ज्ञान, अर्थात आत्म-विस्तार का कोई अर्थ नहीं रह गया है ! इस दिशा में उसके सारे मार्ग अवरुद्ध हो चुके हैं !”...

“यह तथ्य कल्पना से परे है कि तीन कमरों में सात हज़ार छात्रों का एक विश्वविद्यालय चल रहा है जहाँ प्रत्येक शिक्षक पर लगभग तीन सौ छात्रों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी है । अध्यापक भी स्वीकृति-प्राप्त अध्यापक नहीं,  मामूली वेतन पर खाना-पूर्ति का काम करने वाला ‘अतिथि’ है । ... छात्र की दिलचस्पी भर्ती होकर डिग्री लेने भर में होती है ।”

तब हमने कहा था कि “विद्यार्थियों और पूरे समाज के जीवन में अनैतिकता के इस सर्व-स्वीकृत, अर्थात नैतिक विधान की इसके अलावा दूसरी कोई व्याख्या नहीं मिलती है कि विश्वविद्यालयों की आज की सूरतों को,  जिनके अभी बदलने के कोई आसार नहीं दिखाई देते हैं,  अगर हमें विचार का विषय बनाना है तो शायद हमें ही इस मसले को देखने के अपने परिप्रेक्ष्य को बदलना होगा । अन्यथा, हम सिवाय सर पीटने के,  रवीश के शब्दों में, मूक-बधिर दर्शक की तरह श्राद्ध की पूड़ियाँ खाने के अलावा और कुछ भी करने-समझने लायक नहीं रहेंगे !”

हमने डिजिटलाइजेशन, डिजिटल डिवाईड और कूढ़मगज दिमाग़ों की फ़ैक्टरी के रूप में दिखाई देने वाले पारंपरिक महाविद्यालयों की अपनी आंतरिक संरचना की तरह की कई बातें उठाई थी और निष्कर्ष के तौर पर यह भी कहा था कि “हमारे विश्वविद्यालय हमारे समाज की वास्तविक सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की ही उपज है । हम पूड़ी खाये या रसगुल्ला खायें, आधुनिक जनतांत्रिक समय के तक़ाज़े कुछ और हैं और हमारे आज के शासकों के इरादे बिल्कुल उनके विपरीत, कुछ और । जब तक ऐसे लोगों का राज रहेगा, विश्वविद्यालयों के पारंपरिक सांस्थानिक स्वरूप में परिवर्तन की कोई संभावना पैदा नहीं हो सकती है ।”

रवीश की इस सिरीज में बात सिर्फ छात्रों की नहीं थी । उससे कहीं ज्यादा उन अध्यापकों की भी थी जो 'अतिथि' या न जाने कितने पवित्र नामों से विभूषित हो कर न्यूनतम मजूरी से भी कम वेतन पर कालेजों, विश्वविद्यालयों में अध्यापन का काम करते हैं । वे कैसे मर-मर कर जीते हैं इसके अनगिनत जीवंत चित्र उस सिरीज में देखने को मिले थे ।

हमारा सवाल है कि समग्र रूप से सामाजिक संरचना में हमारे इन कालेज-अध्यापकों का क्या स्थान है ? किसी भी सभ्य समाज में इन्हे मध्यवर्ग का हिस्सा माना जाता है, वह हिस्सा जिसका अर्थ-शास्त्र में एक आधुनिक उपभोक्ता की हैसियत से नाम लिया जाता है, जो पूरे सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण में अनायास ही एक बड़ी भूमिका निभाता है । कहना न होगा, रवीश की सिरीज भारत में मध्य वर्ग कहलाने के हकदार एक ऐसे तबके की अकाल मृत्यु की कहानी भी कहती थी ।

'द इकोनोमिस्ट' पत्रिका के ताजा अंक (12-19 जनवरी 2018) की कवर स्टोरी भारत के बारे में है, जिसका शीर्षक है 'गुमशुदा मध्यवर्ग' ( The Missing Middle Class) । 'इकोनोमिस्ट' की यह पूरी कहानी एक प्रकार से बाजार की तलाश में सारी दुनिया की खाक छान रहे बहु-राष्ट्रीय निवेशकों को संबोधित है । चीन के बाजार के बल पर उन्होंने बहुत साल गुजार लिये हैं । अब उनकी सारी आशा भारत में मोदी जी की 'सवा सौ करोड़' की आबादी पर है । न जाने कितनी आशा भरी लोलुप नजरों से वे इसे देख रहे हैं । लेकिन हाय ! जैसे ही इनके लोग भारत में आकर सरे-जमीन स्थिति का आकलन करते हैं, उनकी सारी आशाएं आसमान से गिर कर सीधे पाताल लोक तक पहुंच जाती है ! उनके सामने पहला सवाल आता है कि आखिर वे यहां अपना माल भी बेचेंगे तो किसे बेचेंगे ? भारत का सच तो मोदी की चमकती हुई पोशाकों से लाखों मील दूर है ।

'इकोनोमिस्ट' लिखता है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों के विपणन सलाहकार भारत में जिस मध्यवर्ग को देखना चाहते हैं, वह तो एक कोरी मरीचिका है । “जो कंपनियां साबुन, माचिस और फोन-केंद्रित उत्पादों के अलावा अपने किसी दूसरे उत्पाद के लिये बाजार तलाश रही है, उनके खरीदार तो भारत में नहीं के बराबर है । यह शिखर का सिर्फ एक प्रतिशत लोगों का संसार है । 'इकोनोमिस्ट' ने इस लेख में यह हिसाब दिया है कि भारत के तकरीबन 50 प्रतिशत का जीवन स्तर यूथोपिया, सुडान आदि की तरह के अफ्रीकी देशों की आबादी के स्तर का है । बाकी में 40 प्रतिशत लोगों की दशा दक्षिण एशिया के बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान की तरह के गरीब देशों के स्तर की है । और 9 प्रतिशत जो कुछ बेहतर स्थिति में है, उसकी भी दशा मध्य यूरोप के पोलैंड, रुमानिया, ग्रीस, स्पेन की तरह के देशों की आबादी से अच्छी नहीं है । 'इकोनोमिस्ट' में साफ शब्दों में कहा गया है कि ये मध्य यूरोप के देश भी चीन के स्तर के नहीं है । भारत के एक प्रतिशत हिस्से में से भी 80 लाख लोगों की क्रय शक्ति हांगकांग के लोगों के स्तर की है । बाकी के 40-45 लाख अति धनाढ्य है जिनकी आमदनी का कोई हिसाब नहीं है ।

'इकोनोमिस्ट' का कहना है कि भारत में मध्य यूरोप के देशों के स्तर का भी मध्य वर्ग नहीं पनप पा रहा है, इसकी एक मात्र वजह यहां तेजी से बढ़ रही गैर-बराबरी है । 1980 से 2014 के बीच के आर्थिक विकास से होने वाली समूची अतिरिक्त आमदनी का एक तिहाई हिस्सा यहां के शिखर के एक प्रतिशत लोगों की जेब में चला गया है । इसीलिये इसमें कहा गया है कि भारत को अपने इन 'हाथियों पर अंकुश लगाना चाहिए' । थामस पिकेटी को उद्धृत करते हुए इसमें लिखा गया है कि भारत का संपत्तिवान तबका 1980 की तुलना में दस गुना ज्यादा धनी हो गया है और जो बीच का तबका है उसकी आमदनी दुगुनी भी नहीं हुई है । पिकेटी ने बताया है कि भारत में जो पहले 2 डालर प्रति दिन कमाते थे, उनकी आमदनी जरूर 3 डालर प्रतिदिन हुई है, लेकिन अन्य देशों में इस बीच 3 डालर प्रतिदिन कमाने वालों की आमदनी 5-10 डालर प्रतिदिन हो गई है । भारत के विकास के मौजूदा चरण में आम तौर पर मध्य आमदनी वाले लोगों को जो लाभ मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है ।

'इकोनोमिस्ट' ने इस बात को भी नोट किया है कि भारत में श्रम शक्ति का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक है, इसकी एक बड़ी वजह यहां की बदतर शिक्षा व्यवस्था है । यहां स्नातक भी छोटे-छोटे धंधों में लगे हुए हैं । 93 प्रतिशत भारतीयों का जीवन अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ा हुआ है । इसकी तुलना में 'इकोनोमिस्ट' के अनुसार चीन ने मध्य वर्ग के रोजगारों की बड़े पैमाने पर सृष्टि की है । यही वजह है कि वह आज दुनिया का सबसे बड़ा विनिर्माण का क्षेत्र है । भारत में भ्रष्ट नौकरशाही इसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । भारत में 25 प्रतिशत औरतें काम नहीं करती है, जिनकी संख्या में पिछले एक दशक में और वृद्धि हुई है ।

'इकोनोमिस्ट' लिखता है कि भारत के लिये यह अच्छी बात है कि यहां जनतांत्रिक संस्थानों की जड़ें गहरी है, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इसके बावजूद ये शासन की गलत नीतियों को रोकने में विफल साबित हो रही है । 'इकोनोमिस्ट' के अनुसार 'नोटबंदी' की तरह का अचानक लिया गया बर्बर फैसला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । इसके बारे में प्रचारित तो यह किया गया था कि यह मोटी बिल्लियों को चोट करेगा, लेकिन यथार्थ में इसने हर आम आदमी के जीवन पर असर डाला है । इसने सिर्फ चीन को लाभ पहुंचाया है ।

दुनिया की बड़ी कंपनियों को 'इकोनोमिस्ट' ने कहा है कि भारत में उन्हें बहुत सावधानी से उतरना होगा । भारत के लोगों में मध्य वर्ग की रुचियों को पैदा करने में अभी काफी वक्त लगेगा । यहां के सिर्फ तीन प्रतिशत लोगों ने जीवन में हवाई यात्रा की है । मध्य वर्ग के माने जाने वाले तीस करोड़ लोगों की भी दैनिक आमदनी 3 डालर है । वही, रवीश कुमार वाले छः हजार मासिक के अध्यापक । इसीलिये 'इकोनोमिस्ट' ने भारत के बाजार को बड़ा बताते हुए भी इसमें ज्यादा कुछ करने की गुंजाईश नहीं है, कहा है । इसमें कहा गया है कि यहां के वेतनभोगी लोगों के लिये नेटफिक्स जैसी सेवाओं का सालाना किराया उनकी एक हफ्ते की कुल आमदनी के बराबर है। एपल कंपनी के विज्ञापन मुंबई, दिल्ली, बैंगलौर में दिखाई दे सकते हैं, लेकिन 90 फीसदी वेतनभोगी भारतीयों के लिये नये आईफोन की कीमत उसके छः महीने के कुल वेतन के बराबर है ।

'इकोनोमिस्ट' के अनुसार आज के भारत में सिर्फ दो उपभोक्ता सामग्रियों की मांग है — स्कूटर और मोबाइल फोन, वे भी तभी जब वे सस्ते हो । इसीलिये चीन की कंपनियां अभी भारत के बाजार पर अपना प्रभुत्व कायम कर रही है । 'इकोनोमिस्ट' के अनुसार ई कामर्स के कारण थ्री टायर शहर का उपभोक्ता अब ग्लोबल फैशन के ब्रांड सरलता से पा सकता है, इसीलिये उपभोक्ता वित्तीय सेवाओं, क्रेडिट कार्ड आदि में वृद्धि की संभावना है ।

बहरहाल, इस लेख के अंत में 'इकोनोमिस्ट' भारत के राजनीतिक नेतृत्व से कह रहा है कि वह लोगों की क्रय शक्ति बढ़ा कर उपभोक्ता तैयार करने की कोशिश करें । और दुनिया की बड़ी कंपनियों के लिये उसका संदेश है कि उन्हें अभी इस भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है कि भारत का 'मध्यवर्ग' उनके व्यवसाय में वृद्धि में सहायक बनेगा । भारत की इतनी बड़ी आबादी में छिपी हुई संभावनाओं को अपने मुनाफे का स्रोत बनाने के लिये अभी उन्हें काफी दम लगाना होगा ।

यह है हमारा आज का भारत ! आज (16 जनवरी 2018) ही प्राइम टाइम में रवीश कुमार भारत में कम हो रही नौकरियों के बारे में एक रिपोर्ट दिखा रहे थे । यह रिपोर्ट 'इकोनोमिस्ट' के लेख की प्रत्येक बात की पुष्टि कर रही थी । सचाई यह है कि भारत में अभी कथित मध्यवर्ग के आर्थिक और सांस्कृतिक पतन को सुनिश्चित करने का दौर चल रहा है । नौकरीपेशा भारतीय पहले के किसी भी समय से ज्यादा गरीब और मानसिक लिहाज से संकुचित है । उसे सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति का सिर्फ एक मोहरा बनाया जा रहा है । 

रविवार, 14 जनवरी 2018

'आशा अमर धन' और मनु जोसेफ

—अरुण माहेश्वरी


'लाइव मिंट' के 23 दिसंबर 2017 के अंक में मनु जोसेफ की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी — जो बुद्धिजीवी अक्सर गलत होते हैं वे हमें कौन सी आशा का पाठ पढ़ाते हैं ( What intellectuals who are often wrong teach us about hope) ।

दो टूक शब्दों की मनु जोसेफ की खास शैली में लिखी गई टिप्पणी । एक मदारी की तरह मजमा जमाने के लिये ही वे सबसे पहले उकसावे भरे सवालों की फिसलन में पाठकों को खींच कर फिर उसे विषय की तह में ले जाना चाहते हैं, या कहा जा सकता है, खुद ही विषय में उतरते हैं । इस टिप्पणी का प्रारंभ वे इस प्रकार करते हैं — “आशा ध्यान का भंग होना है । निश्चय ही यह बहुत सुंदर चीज है, लेकिन इसके मूल में एक प्रकार से ध्यान का भटकना है जो विश्लेषण का स्वांग भरता है ।” (Hope is a lapse in concentration. It is, of course, many beautiful things but at its core it is a distraction that pretends to be analysis)

इस कथन के बाद ही वे मोदी के अंत की भारत के बुद्धिजीवियों की कामना और हर चुनाव में उनकी गलत साबित होने वाली भविष्यवाणियों के संदर्भ में खास तौर पर योगेन्द्र यादव की चर्चा करते हैं कि कैसे उन्होंने चुनावी सर्वेक्षणों के आंकड़ों के साथ अपनी आशा को गड्ड-मड्ड कर दिया था ।

जोसेफ आगे लिखते हैं कि आशाओं की सार्वजनिक प्रदर्शनी कैसे राजनीतिक विश्लेषण का भट्टा बैठा देती है, इसे जानने के लिये क्यों न हम आशा की ही निजी जिंदगी को टटोले और ऐसा कहते हुए वे आशा की अपनी सत्ता की मीमांसा में उतर जाते हैं । एक बड़े विषय में प्रवेश का सुराख पैदा करते हैं । पूछते हैं, क्या आशा ही चीजों के गलत होने का कारण है, आशा के कुहासे में जीने की कामना की तरह । अपने जीवन के सभी महत्वपूर्ण फैसले करते वक्त हम कितना आशा पर निर्भर करते हैं ? क्या अपने विवेक को आशा से मुक्त करना संभव है ?

इसी सिलसिले में जोसेफ कुछ लोगों की अनोखी अंत:प्रज्ञा की शक्ति की बात भी कहते हैं जो “आशा के जंगल में सच्चाई को देख लेते है, भले ही उससे उनका सबसे बड़ा अनिष्ट ही क्यों न जाहिर हो रहा हो ।...ऐसी अंत:प्रज्ञा के लोग दूसरों की तुलना में चीजों को साफ दृष्टि से देख पाते हैं । लेकिन जिनके पास वह नहीं होती उनमें आशा का प्रकोप होता है, जो विपरीत परिणाम आने पर निराशा में बदल जाती है ।”

इसके आगे वे अनायास ही कहते हैं — आशा एक प्रकार की क्लांति का रूप भी है । (Hope is also a form of fatigue.) भविष्य पर बहुत गहन सोच हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाता है ।...जो सिद्धांतकार मोदी की चुनावी पराजय को देखते हैं, वे क्लांत होकर सुखदायी मरीचिका देखा करते हैं । तब उनकी आशा जनता के पिछड़ेपन की धारणा में बदल जाती है और फिर अगले चुनाव-प्रचार में वे उसे 'शिक्षित' करने की आशा पालने लगते हैं ।

इसमें वे आस्ट्रेलिया के 2014 में बूकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार रिचर्ड फ्लैनागन से अपनी बात को भी लाते हैं जिसमें वे रिचर्ड से पूछते हैं कि क्या आशा की प्रमुखता युगों से कथाकारों की देन है क्योंकि आशा किसी भी कथानक का सबसे बड़ा औजार होती है ? इस पर रिचर्ड ने उनसे कहा कि बिना आशा की एक भी कहानी लिख कर देखों या कोई ऐसा सिनेमा देखों जिसमें कोई आशा ही न हो, तब तुम जान जाओगे । रिचर्ड ने कहा कि आशा मनुष्य की नैसर्गिकता है जिससे वह संस्कृति में अपना योगदान करता है ।

बहरहाल, जोसेफ अपनी टिप्पणी का अंत इन शब्दों से करते हैं — “तब क्या स्पष्टता सचमुच आशा से ज्यादा महत्वपूर्ण है, खास तौर पर यदि स्पष्टता स्वभावत: उन बुद्धिजीवियों में विषाद पैदा करती हो जिनका भविष्य मोदी के अंत पर निर्भर है ? शायद अधिकांश लोग दृष्टि की स्पष्टता के बजाय आशा की अंधता में पूरे वैभव के साथ अपना जीवन जी लेते हैं । मजेदार बात यह है कि राजनीतिक विश्लेषक भी ।” 
(So, is clarity really more important than hope, especially if clarity brings gloom, as it should, to the intellectuals whose prospects depend on the end of Modi? Most people probably pass through life with great grace, blinded by hope rather than the clarity of vision. It is amusing that even political analysts do.)

बात यदि महज बुद्धिजीवी के निजी स्वार्थ की छुद्रता भर की हो, तो आशा-निराशा के इस पूरे विमर्श का शायद ही कोई विशेष मायने हो । तब मामला 'आशा' की 'निजी जिंदगी' का नहीं, जिसे टटोलने की प्रतिज्ञा के साथ इस टिप्पणी के शुरू में विषय की ओर प्रस्थान किया गया था, बुद्धिजीवी या बुद्धिजीवियों की निजी जिंदगी का हो जाता है । लेकिन जब सचमुच 'आशा' की निजी जिंदगी की बात आती है, तो हमें विजयदान देथा की अत्यंत मार्मिक कहानी 'आशा अमर धन' की याद आ जाती है जिसे सत्रह साल पहले 'स्वाधीनता' के शारदीय विशेषांक में प्रकाशित किया गया था जिसके विशेष संपादक उदय प्रकाश थे ।

देथा उस कहानी का प्रारंभ इस प्रकार करते हैं — “समंदर गहरा कि आशा गहरी । धरती भारी कि आशा भारी । पहाड़ अविचल कि आशा अविचल । फूल हलका कि आशा हलकी । हवा सत्वर कि आशा सत्वर । सूर्य प्रखर कि आशा प्रखर । ईश्वर अमर कि आशा अमर कि ...”

इस कहानी में किसान बाप अपने दो अबोध बच्चों को उनकी सौतेली मां के बहकावे में अकाल के दिनों में घर में आठ-दस सोगरों और हँड़िया भर राब रख कर लंबे काल के लिये ताले में बंद कर पत्नी के साथ मालवा की ओर चला जाता हैं । अबोध बच्चे दरवाजे की सांकल पर कान लगाये, बिना खाये-पीये सूख कर कांटा हो कर भी इस आशा में जिंदा रहे कि मां-बापू आयेंगे तो सारे कष्ट दूर हो जायेंगे । काफी दिनों बाद जब मां-बाप लौटे तो दोनों बच्चे तालियां बजा कर नाचने लगे, लेकिन मां ने तभी बच्चों को दो-दो तमाचे मारते हुए कहा — “दुष्ट, हरामजादो, तुम अभी तक जीवित हो ? मरे नहीं ?...”

मां के इतना कहते ही “दोनों बच्चे चकरघिन्नी खाकर अदेर लुढ़क पड़े । मां का विकराल रूप देख कर मौत ने उन्हें तुरंत गले लगा लिया ।”

देथा आगे लिखते हैं — “कुदरत किसी के लिये आहत या संतप्त नहीं होती । वह तो अपनी मौज में हर कार्य-व्यापार में मशगूल रहती है ।...उस दिन वह अपनी मौज में झमाझम बरस रही थी । ...झोपड़े के भीतर सोगरों पर दीमक की परतें उभर आयी थीं ।...और टीमची पर रखी मटकी का पानी मटकी में ही नि:शेष हो गया था ।”
देथा पूछते हैं —“यदि पड़ी-पड़ी मटकियां यों पानी सोखती रहें तो प्यासे का क्या हाल होगा ?

“यह मामूली सा प्रश्न आज भी युग युगान्तर से अनुत्तरित है । क्योंकि समन्दरों के होठ सिले हुए हैं और बादलों के कण्ठ अवरुद्ध है !!”

कहना न होगा, समझदारों के लिये इशारा काफी है । ऊपर पूरी टिप्पणी में जिसे दृष्टि की स्पष्टता का झंडा फहराया गया है वह यही सिले हुए होठों वाले समन्दर और अवरुद्ध कंठ वाले बादलों की स्पष्टता है, किसी के लिये आहत या संतप्त न होने वाली कुदरत की स्पष्टता है ! लेकिन जब आशा की बात आती है तो वह मनुष्यों की प्राणी सत्ता से जुड़ी बात होती है । वह इन कुदरत की बातों में कहा है ? दृष्ट यथार्थ का जितना ही विस्तार क्यों न हो, उसमें आशा-निराशा के तत्व का कोई स्थान नहीं होता । हाइडेगर की शब्दावली में आशा-निराशा तो प्राणी के अस्तित्व में निहित प्राणी की नैसर्गिकता की पूर्व सत्ता-मिमांसामूलक समझ (pre-ontological understanding) का हिस्सा है ।

मनु जोसेफ उसके पास पहुंचते, उसके पहले ही दृष्टि की 'स्पष्टता' की संकीर्णता ने उन्हें घेर कर, बुद्धिजीवियों के निजी स्वार्थ तक सीमित कर दिया । और विवेचन की एक बड़ी प्रस्तावना का अंत एक प्रकार की कोरी फतवेबाजी की खाई में गिर कर हुआ !   


शनिवार, 13 जनवरी 2018

इसे कहते हैं बटरफ्लाई एफेक्ट : हत्याओं की इस श्रृंखला का अपराधी बच नहीं पायेगा

—अरुण माहेश्वरी


किसी भी सजायी गई पूरी कथा के परिवेश से जब एक मामूली तितली की हवा भी गुजर जाती है तो उसके दबाव का इतना गहरा असर होने लगता है कि अंत में पूरी कहानी ही मुंह के बल गिर कर किसी दूसरे ही, बिल्कुल भिन्न अर्थ का संदेश देने लगती है । गणित के क्षेत्र में कहते हैं कि इस बटरफ्लाई एफेक्ट के कारण ही एक बड़ा समीकरण अंत में जाते-जाते इतनी बुरी तरह चरमरा जाता है कि समीकरण का समाधान अपेक्षा से बिल्कुल उलटा और गड्ड-मड्ड हो जाता है । आईंस्टीन की क्वांटम थ्योरी में कहते है कि जो ईश्वर कभी भूल नहीं करता, अर्थात प्रकृति निश्चित तौर पर अपने नियमों का ही पालन करती है, वही ईश्वर कई इर्द-गिर्द के छोटे दोलनों से धोखा खा जाता है । अर्थात ईश्वल भूल नहीं करता लेकिन खुद धोखा जरूर खा जाता है ।

ये सारी बातें आज और भी अच्छी तरह से समझ में आ रही है जब हम मुख्य न्यायाधीश के मनमानेपन पर सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के संवाददाता सम्मेलन से सबसे प्रमुख तौर पर किसी चमत्कार की तरह उभर कर सामने आ गये जस्टिस लोया की हत्या अथवा रहस्यमय मौत, कुछ भी क्यों न कहे, के मामले को देखते हैं । इस मामले की किसी भी गहन जांच से सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी कौशर बी और तुलसी प्रजापति के फेक एनकाउंटर के तल तक पहुंच जाने की आशंका के कारण हमारे समय के आज के भगवानों ने इसे दफना देने के आज तक इतने जतन कियें, लेकिन बटरफ्लाई की हवा वाला अदृश्य झोंका हर बार इस पर से पर्दा उठा ही देता है ! मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्टाचार के एक मामले में दबाव में लेकर ऐन सुप्रीम कोर्ट के जरिये इस पूरे विषय पर मिट्टी डालने की जो कोशिश हुई, अब लगता है, वह भी अब उतना आसान नहीं होगा । उल्टे इस चक्कर में मुख्य न्यायाधीश पर ही महाअभियोग लगाने की सरगर्मियां शुरू हो गयी है । अब से उनकी प्रत्येक गतिविधि को हर कोई शक की निगाह से देखेगा । यह उनके रहते तक सुप्रीम कोर्ट के सुचारु ढंग से काम करने में बाधा डालेगा तो साथ ही इस खास विषय को यूं ही दबा देने की कोशिश को भी असंभव बना देगा ।



बारह साल पहले 26 नवंबर 2005 और 28 नवंबर 2005 को हुई सोहराबुद्दीन और कौसर बी की हत्या के मामले को दबाने के लिये इन भगवानों ने क्या-क्या जतन नहीं किये, लेकिन धरती-आकाश सबको फाड़ कर यह मामला घूम-घूम कर फिर से खड़ा हो ही जाता है । इसी मामले को कथानक बना कर मनु जोसेफ ने अपने उपन्यास ‘Miss Laila armed and dangerous’ (मिस लैला हथियारबंद और खतरनाक) का अंत इन शब्दों से किया है —
"गणतंत्र एक विशाल खेल है । यह सबको इस यकीन का लालच देता है कि वे कुछ भी कर सकते हैं और बच सकते हैं । और वे बहुत कुछ बच भी जाते हैं । लेकिन तभी एक दिन, अनिवार्यत:, चमत्कार होता है ।”
(The republic is a giant prank. It lures all into believing that they can do anything and get away. And they get away with a lot. But then one day, inevitably surprise.)

इस मामले को इतिहास को देखिये । नवंबर 2005 में सोहराबुद्दीन दंपत्ति का फेक इनकाउंटर हुआ, जिसकी एक जांच अधिकारी ने गुजरात की आईजी सीआईडी (क्राइम) को 2006 की जुलाई में रिपोर्ट पेश की । इसके बाद ही तुलसीराम प्रजापति का एक और फेक इनकाउंटर हुआ । इसकी रिपोर्ट 23 अप्रैल 2007 को गुजरात के डीआईजी रजनीश राय ने पेश की और उसने मई 2007 में आईपीएस वी डी वंजारा और उसके साथ और दो पुलिस के लोग, एम एन दिनेश और राजकुमार पांडियन को गिरफ्तार कर लिया । उसी समय यह साफ हो गया था कि गुजरात पुलिस में शासक दल की शह पर बाकायदा हत्यारों का एक गिरोह तैयार हो गया है जिसका नेतृत्व पुलिस में वंजारा करता था ।


मजे की बात है कि वंजारा आदि की गिरफ्तारी के चंद दिनों के बाद ही गुजरात की मोदी सरकार ने डीआईजी रजनीश राय का सीआरपीएफ में तबादला कर दिया । इसके बाद जनवरी 2010 में केन्द्र सरकार ने इस मामले की जांच के लिये इसे सीबीआई को सौंपा । सीबीआई ने जांच के बाद 23 जुलाई 2010 के दिन गुजरात के तत्कालीन डीआईजी अभय चुदास्मा को गिरफ्तार कर लिया। इसके अलावा अमित शाह पर भी 25 जुलाई 2010 के दिन इस मामले के एक प्रमुख अपराधी के रूप में चार्जशीट दाखिल की । इसके तीन महीने के बाद 29 अक्तूबर 2010 के दिन अमित शाह को जेल से जमानत मिल गई ।

इस पूरे विषय में गुजरात सरकार की भूमिका को देखते हुए 27 सितंबर 2012 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने मामले को गुजरात से हटा कर मुंबई में सेशन कोर्ट के हवाले कर दिया । 8 अप्रैल 2013 को फिर सुप्रीम कोर्ट ने तुलसी प्रजापति के मामले के साथ ही सोहराबुद्दीन के मामले को भी जोड़ दिया और यह भी निर्देश दिया कि एक ही जज इस पूरे मामले की सुनवाई करेगा ।

इसी बीच मई 2014 के आम चुनाव में केंद्र में नरेन्द्र मोदी की जीत हो गई और 14 जून 2014 के दिन मुंबई सेशन कोर्ट के जज उत्पत का ठीक उस दिन तबादला कर दिया गया जिसके दूसरे दिन उनकी अदालत में अमित शाह को उपस्थित होना था । उनकी जगह जज लोया आए । अक्तूबर महीने में महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बन गई । जज लोया ने मामले को हाथ में लेने के बाद इस पर जांच को आगे बढ़ाने के लिये अदालत में अमित शाह की उपस्थिति पर जोर देना शुरू किया तभी नागपुर में एक शादी में गये 48 वर्षीय जज लोया की 1 दिसंबर 2014 के दिन अचानक दिल के दौरे से मृत्यु हो गई । उनके स्थान पर आए जज एम बी गोसावी । जज गोसावी ने 30 दिसंबर को सिर्फ पंद्रह मिनट की सुनवाई के बाद बारह हजार पन्नों की सीबीआई की चार्जशीट पर फैसला सुनाते हुए इस मामले से अमित शाह को पूरी तरह मुक्त कर दिया । सीबीआई ने भी इस पर आगे कोई अपील नहीं करने का निर्णय ले लिया । इसके बावजूद इस मामले को हमेशा के लिये खत्म कर देने के लिये 1 अगस्त 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट में सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक याचिका दायर हुई जिसे उसी समय सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करके इस पूरे मामले पर एक प्रकार से मिट्टी डाल दी थी ।



लेकिन यह चमत्कार नहीं तो और क्या है कि सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के साल भर बाद, 1 सितंबर 2017 के दिन अचानक ही 'कैरावन' पत्रिका में एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें जज लोया के परिजनों के इंटरव्यू के साथ ही वे सारे परिस्थितिगत साक्ष्य विस्तार से पेश किये गये जिनसे पता चलता है कि जस्टिस लोया की मृत्यु कोई स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी, इसके पीछे निश्चित तौर पर हत्या की साजिश थी । इसमें यह भी सामने आया कि किस प्रकार मुंबई हाईकोर्ट के ही चीफ जस्टिस ने जज लोया को एक सौ करोड़ की घूस और मुंबई में बंगला आदि देने की पेशकश की थी ताकि वे इस मामले को दफना दे । लेकिन जब जज लोया ने इसे नहीं स्वीकारा तभी नागपुर में उनकी संदिग्ध ढंग से मृत्यु हो गई ।

'कैरावन' की इस रिपोर्ट ने पूरे राष्ट्र को सकते में ला दिया । न्यायपालिका के हलके में भी इससे भारी हलचल मची । जजों को घूस देने और न लेने पर हत्या तक कर देने का यह मामला न्यायपालिका के लिये अस्तित्व के संकट की तरह है । इसीलिये कई पूर्व जजों तक ने इस पूरे मामले की सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज की देख-रेख में जांच कराने की मांग उठाई ।


यही विषय कल, 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में उठा था। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज चाहते थे कि इस विषय की गंभीरता को देखते हुए इसे किसी वरिष्ठ जज की अदालत में सुनवाई के लिये भेजा जाए और इसके लिये उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से मिल कर भी उनसे अनुरोध किया था । लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मुख्य न्यायाधीश ने उनकी एक न सुनी और उसे उस जज की अदालत के सुपुर्द कर दिया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह भाजपा के नेताओं के बहुत करीब का व्यक्ति है । मुख्य न्यायाधीश के ऐसे और भी कुछ निर्णयों को देखते हुए कल तत्काल सुप्रीम कोर्ट के इन सबसे वरिष्ठ जजों ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन करके इसे भारतीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिये एक बड़ा खतरा बताया । उन्होंने कहा कि यदि हम आज इस खतरे के प्रति लोगों को आगाह नहीं करते हैं तो आगत पीढ़ियां उन्हें अपना जमीर बेच देने के लिये कोसेगी ।

कुल मिला कर, आज अब यही लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट तक में अपने प्रभाव का प्रयोग करके आज का शासक दल जिस प्रकार सोहराबुद्दीन, कौसर बी, तुलसी प्रजापति और अंत में जज लोया की हत्या के मामलों को दबा देने की कोशिश कर रहा है, आगे इसे दबाना उतना आसान नहीं होगा । इनकी अगर यही कोशिश चलती रही तो घटनाओं की इस श्रृंखला का जो बटरफ्लाई एफेक्ट अंत में सामने आयेगा, उसकी आंच से मोदी सरकार और भाजपा का अस्तित्व तक बच नहीं पायेंगे ।

इसे कहते है गणतंत्र का महाखेल !


गुरुवार, 11 जनवरी 2018

अर्थ-व्यवस्था की मूल समस्या मंदी है और एफडीआई उसका निदान नहीं, उसकी आग में घी के समान है

—अरुण माहेश्वरी

यह एक भारी दुष्चक्र है । संकट है अर्थ-व्यवस्था के संकुचन का, जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट का, मंदी का और हमारे प्रधानमंत्री इसका समाधान ढूंढ रहे हैं स्वतंत्र बाजार के नियमों में, देशी-विदेशी पूंजी को खुल कर खेलने देने के अवसरों में, खास तौर पर विदेशी पूंजी के वर्चस्व को और ज्यादा बढ़ाने में !

मोदी यह समझना नहीं चाहते कि भारत में सिर्फ निवेश की कमी के कारण से समस्या पैदा नहीं हुई है । निवेश में कमी आई है मांग में कमी की वजह से और मांग में अचानक भारी कमी का कारण है वे खुद, जिन्होंने परिवारों के स्त्री धन तक पर डाका डाल कर पूरी आबादी की न्यूनतम आर्थिक स्थिरता को जड़ों से हिला दिया है। कृषि संकट जो पहले से था, उसे और भी गहरा कर दिया है। जो उद्योग और कारोबार सिर्फ उम्मीद के बल पर अपनी गाड़ी खींच रहे थे, उन्हें नोटबंदी और फिर जीएसटी के दो झटकों ने पूरी तरह से पटरी से उतार दिया हैं। इसका सीधा असर बैंकों के एनपीए (डूबत) पर हुआ है। कोई भविष्य न दिखाई देने, और नये दिवालिया कानून की सुविधा के चलते व्यक्तिगत रूप से किसी परेशानी में न पड़ने की स्थिति में पहले ही हाथ खड़ा कर देने में सबकों अपनी भलाई दिखाई देने लगी । एनपीए की समस्या यूपीए के समय भी थी, लेकिन सारे उद्योग फिर से खड़े हो जाने के किसी न किसी नये अवसर की आस में गाड़ी खींच रहे थे । मोदी ने आते ही, बिना सोचे समझे पूंजीपतियों को भय-मुक्त करने के लिये छप्पन इंच की छाती के जोर पर भारी उत्साह में जो दिवालिया संहिता (The  Insolvency  and  Bankruptcy Code, 2016) लागू की और उतने ही जोश से बैंकों के बैलेंसशीट को शुद्ध करने का जो अभियान शुरू किया, उसका परिणाम हुआ कि बैंकों के एनपीए में तेजी से उछाल आया । उद्योगपतियों ने उद्योगों को चंगा करने की कोशिश के बजाय इस नई संहिता की ओट में पतली गली से निकल पड़ना ही श्रेयस्कर समझ लिया है ।

एक ऐसी परिस्थिति में मोदी के नोटबंदी के तुगलकीपन ने वास्तव अर्थ में अर्थ-व्यवस्था के लिये जहर का काम किया । बाजार में मांग में एक साथ इतनी तेजी से गिरावट आई कि चारो ओर मंदी का वातावरण छा गया । इससे रोजगारों और मुद्रा-स्फीति पर भी प्रभाव पड़ना शुरू हुआ, जो आज मंदी को और ज्यादा बढ़ाने वाले दुष्चक्र की तरह काम कर रहा है । 1929 की महामंदी के बाद जॉन मेनार्ड केन्स ने मंदी के बारे में बहुत ही सही समझ दी थी कि मंदी में फंस चुकी अर्थ-व्यवस्था के व्यवहार को साधारण मांग और आपूर्ति के नियमों से कभी भी व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है । तथ्यों के जरिये उन्होंने दिखाया था कि बाजार में मांग की कमी से मालों की बहुतायत होने पर भी यह जरूरी नहीं होता है कि उससे चीजों के दाम गिर जायेंगे, अर्थात मुद्रा स्फीति कम हो जायेगी । उल्टे स्टाक रह जाने के चलते जो कारोबार पर अतिरिक्त खर्च का बोझ पड़ता है, उसी के कारण से मुद्रा स्फीति कम होने के बजाय बढ़ने लगती है । इसीलिये केन्स की यह साफ राय थी कि मंदी से पैदा होने वाली आर्थिक समस्याओं का समाधान कभी भी शुद्ध रूप से बाजार की शक्तियों के भरोसे नहीं पाया जा सकता है । मंदी से निकलने का एकमात्र तरीका है सरकार की ओर से आम लोगों में खरीद की शक्ति बढ़ाने, क्रेता को संकट के भाव से मुक्त करने के लिये अतिरिक्त प्रयास । अर्थात सरकारी खर्चों, सरकारी निवेश को बढ़ा कर नौकरियों आदि को बढ़ाने की अतिरिक्त कोशिशें । इन्हें यदि पूरी तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया जायेगा तो कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि निजी पूंजीपति कभी भी आम लोगों की भलाई के लिये काम नहीं करते । आज के रोजगार-विहीन विकास के काल में वे अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल ऑटोमेशन के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों की छंटनी के लिये करेंगे । निजी पूंजीपति का स्वार्थ उसे कभी भी खुद के नफे-नुकसान से आगे देखने की अनुमति नहीं देता है ।

दुनिया भर में आर्थिक मंदी से निपटने के इन तमाम अनुभवों के बावजूद पूंजीवादी सरकारें उस समय तक खुद अपनी भूमिका निभाने के लिये नहीं उतरती है, जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं बहने लगता है । मोदी के इस काल में तो पानी सर के ऊपर से बहने भी लगा है, लेकिन सरकार जनता की सुध लें उसके पहले ही वित्त मंत्रालय को घेर कर बैठे हुए विश्व बैंक, आईएमएफ के तमाम लोग और कॉरपोरेट दुनिया के दलाल इसके दबाव में पहले अपना अर्थात देशी-विदेशी पूंजीपतियों का उल्लू सीधा कर लेना चाहते हैं ।

इतने दिनों बाद, कल मोदी जी को आगामी बजट के पहले अर्थशास्त्रियों से सलाह मशविरा करने की सूझी और जमा किये गये सब अर्थशास्त्रियों ने उम्मीद के अनुरूप ही सरकार को यह सख्त हिदायत दी कि वह वित्तीय घाटे को किसी भी कीमत पर न बढ़ने दे । अर्थात मंदी से निकलने के लिये सबसे बड़े और कारगर उपाय, सरकार के खर्च और निवेश में वृद्धि का रास्ता न अपनाए । इन सबकी हमेशा यह साधारण दलील होती है कि यदि वित्तीय घाटा एक सीमा को पार करेगा तो मूडीज, स्टैंडर्ड पूअर्स की तरह की क्रेडिट रेटिंग कंपनियां भारत की रेटिंग को गिरा देगी जिससे विदेशी निवेश गिर जायेगा ।

वैसे ही देशी निवेश नहीं हो रहा है, ऊपर से विदेशी निवेश भी गिर जाए !  मोदी की छप्पन इंच की छाती में उतना जोखिम उठाने की अब हिम्मत नहीं बची है । वे जो हिम्मत साधारण लोगों के धन को निकालने के मामले में दिखा सकते थे, वह हिम्मत बड़े-बड़े पूंजीशाहों के मामले में दिखाने की हैसियत नहीं रखते हैं ।

इसीलिये अब एफडीआई के मामले में छूट का सिलसिला शुरू हो गया है । चंद रोज पहले ही एपल कंपनी का एक प्रतिनिधि-मंडल जेटली जी से मिल कर गया था । इसी प्रकार दूसरी बड़ी-बड़ी कंपनिया भी भारत के बाजार पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए हैं । कल सिंगल ब्रांड के मामले में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दे दी गई है । यहां तक कि पहले उन पर जो बाध्यता थी कि उन्हें बेचने के लिये कम से कम 30 प्रतिशत सामानों को स्थानीय बाजार से खरीदना पड़ेगा, उसमें भी अब पांच साल तक की छूट दे दी है ।

इसी संदर्भ में कल एक बड़ा कदम निर्माण के क्षेत्र में उठाया गया है । इस क्षेत्र में दलाली का काम करने वाली कई विदेशी कंपनियां सक्रिय है । अब उनके मामले में भी सौ फीसदी एफडीआई की छूट दी गई है । जो भी इन क्षेत्रों की सच्चाइयों से वाकिफ हैं, वे यह जानते हैं कि इन विदेशी दलाल कंपनियों ने इसी बीच अपने-अपने निवेश के फंड भी तैयार कर लिये हैं । अब वे शुद्ध दलाली के बजाय निर्माण के क्षेत्र में निवेश के जरिये भी भारत से मुनाफा बटोर कर पूरा मुनाफा विदेश भेजेंगे और उन्हें कोई रोक नहीं पायेगा । इसी प्रकार, मंदी के दबाव में यह सरकार कंपनी कानूनों में भी कॉरपोरेट के हितों को साधने के लिये कई संशोधन किये हैं ।

आज कोई इस बात की जांच नहीं कर रहा है कि भारत में अचानक इतनी बड़ी मंदी आई कैसे ? नोटबंदी के प्रभाव को इस जांच से बाहर रख कर उससे सही शिक्षा लेने के रास्ते ही बंद कर दिये जा रहे हैं । पहले से सरकार से डरे हुए आम लोगों को एफआरडीआई कानून की चर्चा से और ज्यादा डरा दिया जा रहा है । सरकार के आश्वासनों के बावजूद मोदी जी के दंभ और दुस्साहस की अवधारणा के कारण किसी को इनकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा है । इसके चलते मंदी के इस काल में लोग सोना चांदी में अपनी बचत को फिर से निवेशित करने लगे हैं, जो हाल के जीडीपी के क्षेत्रवार आंकड़ों से भी जाहिर हुआ है ।

हमारी यह दृढ़ राय है कि जब तक आम लोगों का पूरी तरह भयमुक्त नहीं किया जाता है, अर्थ-व्यवस्था को मंदी से निकालना असंभव है । इसकी पहली राजनीतिक जरूरत है कि भारत के वित्त पर कुंडली मार कर बैठी मोदी-जेटली जोड़ी को वहां से हटाया जाए । भारत की अर्थ-व्यवस्था को चंगा करने के लिये ही यह जरूरी हो गया है कि मोदी सरकार का जल्द से जल्द अंत हो ।

सोमवार, 8 जनवरी 2018

मोदी-जेटली से अर्थ-व्यवस्था की बीमारी का इलाज संभव नहीं है


—अरुण माहेश्वरी

अब यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था की हालत खस्ता है । आंकड़ों की बाजीगरी से खुशफहमी पैदा करने में उस्ताद मोदी-जेटली जुगलजोड़ी भी अब भारी गिरावट के इन तथ्यों को छिपाने में असमर्थ है । नोटबंदी के तुगलकीपन के बाद भी शुरू में जीडीपी के मानदंड में हेरा-फेरी करके दुनिया की एक सबसे तेज गति से विकासमान अर्थ-व्यवस्था की चमक को कायम रखने की कोशिश की गयी थी । लेकिन बार-बार तो इस एक ही तिकड़म को दोहराया नहीं जा सकता था । 2017 की दूसरी तिमाही में जीडीपी में वृद्धि की दर गिर कर सिर्फ 5.7 प्रतिशत रह जाने के बाद अब खुद सरकार मानती है कि 2017-18 में जीडीपी में वृद्धि की दर 6.3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहेगी ।

8 नवंबर 2016 के दिन नाटकीय अंदाज में नोटबंदी की घोषणा करके दूसरे दिन ही वाह-वाही लूटने मोदी जापान की यात्रा पर चले गये थे । जापान से भी उन्होंने बैंकों के सामने कतारों में खड़े भारत के लोगों को डराया था कि अभी तो बच्चू हुआ ही क्या है ! वे लाखों लोगों को लगा कर देश के एक-एक व्यक्ति को चोर साबित कर देंगे क्योंकि सब लोग अपने घरों में काला धन दबाये बैठे हैं ! लेकिन तीन दिन बाद ही वे जब जापान से भारत लौटे, भारत में मची हुई त्राहि-त्राहि का उन्हें अनुमान लग गया और 12 नवंबर को गोवा में रोते हुए देश के लोगों से पचास दिनों की मोहलत मांगी थी — मैं सिर्फ पचास दिन चाहता हूं । यदि मेरे किये में कोई गलती निकले तो मुझे चौराहे पर खड़ा कर देना...। आदि आदि।

उसी समय हमने मोदी के उस नाटक पर अपने ब्लाग में लिखा था — 'पचास दिन नहीं, इस धक्के से अर्थ-व्यवस्था को निकालने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे ।

“कोई अगर यह सोचता है कि आम ग्राहकों को आर्थिक और मानसिक तौर पर कंगाल बना कर अर्थ-व्यवस्था के किसी भी हित को (सिवाय युद्धकालीन समय में) साधा जा सकता है, तो यह कोरी मूर्खता है।
“मंदी की काली छाया पहले से ही हमारी अर्थ-व्यवस्था को ग्रस रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि भारतीय बैंकों के पास इतनी बड़ी राशि में एनपीए जमा हो चुका है जो संभवत: दुनिया में सबसे अधिक है। नोट-बंदी के इस कदम से माना जाता है कि आगे बैंकों के पास अगाध धन होगा।
“सवाल उठता है कि उस धन का प्रयोग कैसे होगा ? कौन ऐसा उद्योगपति होगा जो सबसे गहरी मंदी की आशंकाओं से भरे काल में सिर्फ ब्याज देने के लिये बैंकों से कर्ज लेगा ? इन हालात में सिर्फ वे लोग ही और कर्ज लेंगे जो पहले से बैंकों का रुपया डुबाये हुए हैं और उन्हें उनके निपटान के लिये कुछ और मोहलत और सहूलियत चाहिए। ब्याज की दरों में कमी से यदि उद्योगपतियों में कर्ज के प्रति कुछ आकर्षण पैदा किया जायेगा तो दूसरी ओर आम आदमी के संचित धन पर आमदनी प्रभावित होगी। आम आदमी संचय के लिये सोने की तरह की चीजों की ओर आकर्षित होगा।
“इसके अलावा, बैंकों का रुपया सरकार चालाकी से अपने बजट के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिये प्रयोग कर सकती है। लेकिन अभी इस औचक कदम से आम लोगों को जितना बड़ा सदमा लगा है, उससे निकालने में सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी कितनी कारगर होगी, यह एक भारी संदेह का प्रश्न है। लोग आगे काफी समय तक जीवन की नितांत जरूरी चीजों के अलावा किसी दूसरी चीज पर खर्च करने से परहेज करेंगे।
“ऐसे में, अपनी ही करतूत से बिगाड़ी गई सारी परिस्थिति को चंगा करने के लिये मोदी जी ने रोते हुए जो पचास दिनों का समय मांगा है, सचाई यह है कि आगे सब कुछ सही चला तो उनके इस भारी आघात से अर्थ-व्यवस्था को उबारने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे।”
(https://chaturdik.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html)

जैसे-जैसे समय बीत रहा है, तब की कही वे सारी बात शत-प्रतिशत सही साबित हो रही है । अभी कहा जा रहा है कि इस वित्तीय साल में जीडीपी में वृद्धि की दर कम हो कर 6.3 प्रतिशत रहेगी, लेकिन आगे यह और कितना नीचे तक जा सकती है, इसका कोई अनुमान नहीं कर पा रहा है ।

दरअसल, अर्थ-व्यवस्था का विषय भी पूरी तरह से द्वंद्वात्मक विषय है जिसके आदमी के शरीर की तरह ही अपने कुछ आंतरिक नियम होते हैं । जैसे शरीर के साथ मनमानी करके उसे स्वस्थ नहीं रखा जा सकता है, वैसे ही अर्थ-व्यवस्था के साथ भी मनमानी करके कुछ हासिल नहीं हो सकता है । अर्थ-व्यवस्था में मंदी एक प्रकार से आदमी के मानसिक अवसाद की तरह है । अवसाद-ग्रस्त आदमी को उससे निकालने के यदि बहुत खास उपाय नहीं किये जाते हैं तो तय मानिये कि आदमी की तरह ही अर्थ-व्यवस्था भी पूरी तरह से आत्म-हनन के रास्ते को पकड़ लेगी । एक समय के बाद उस पर कोई भी दवा काम करना बंद कर देगी ।

जैसे आदमी के शरीर और उसके मस्तिष्क के रिश्ते को कोई पूरी तरह से परिभाषित नहीं कर सकता है, उसी प्रकार अर्थ-व्यवस्था और उसके संचालन की नीतियों और संचालकों के रिश्तों के बारे में भी कोई पूरी तरह से निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकता है । इस पर इस तरह का कोई यांत्रिक फार्मूला नहीं चल सकता है कि जेटली जी ने कह दिया कि अब हम बैंकों को चंगा करने के लिये उन्हें अतिरिक्त धन जुटा कर दे रहे हैं, ताकि लोगों को आसानी से कर्ज मिल सके — और बस अर्थ-व्यवस्था में सुधार हो जायेगा ! ऐसे कभी नहीं होता है ।

जो लोग चिकित्सा-शास्त्र के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखते हैं वे यह जानते हैं कि कैसे अक्सर कोई टोटका या प्लेसीबो भी आदमी को चंगा कर देता है और कैसे डाक्टर या अस्पताल पर भरोसा न हो तो शरीर पर कोई भी दवा बेअसर साबित हो सकती है, जिसे Nocebo (नोसीबो) कहा जाता है । इस तथ्य को प्रयोगों के जरिये जांचा जा चुका है । इटली के यूनिवर्सिटी आफ तुरिन मेडिकल स्कूल के न्यूरोफिजियोलोजिस्ट फेब्रीजियो बेनडेट्टी की प्रसिद्ध किताब है — The patient’s Brain (रोगी का मस्तिष्क) । इसमें वे प्लेसीबो और उसके जुड़वे नोसीबो की विस्तृत चर्चा करते हुए कहते हैं कि किसी भी डाक्टर या अस्पताल की बदनामी भी रोगियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है । “हमने देखा है कि कैसे डाक्टर-रोगी के बीच विश्वास की कमी का रोगी के शरीर पर बुरा असर पड़ता है । यदि रोगी को डाक्टर पर विश्वास न हो तो चिकित्सा काम नहीं करेगी; उल्टे वह बीमारी को और ज्यादा बढ़ा सकती है ।”


यही आज के भारत की सबसे बड़ी सच्चाई है । भारत के लोगों का मोदी-जेटली पर से विश्वास उठ चुका है । नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उन्हें इतना बदनाम कर दिया है कि कोई भी इनके बताये नुस्खों पर भरोसा नहीं कर सकता है । इनके भरोसे कोई एक पैसे के निवेश का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा ।  बुरी तरह से गिर चुकी राजनीतिक साख के कारण इनके हर नीतिगत निर्णय को अब नितांत सामयिक और एक चतुराई भरा निर्णय माना जा रहा है ।

ऐसे में एक मात्र भरोसा है कि खुद सरकार ज्यादा से ज्यादा खर्च और निवेश करे, लेकिन इसमें भी इस सरकार को भरोसा नहीं हो रहा है । वित्तीय घाटे में अनियंत्रित वृद्धि से इन्हें अपने विदेशी आकाओं का विश्वास भी खो देने का खतरा सताने लगता है । इसीलिये वे यह कोशिश करेंगे कि निजी आयकर और कारपोरेट के करों में छूट दे कर लोगों को अवसाद-ग्रस्त स्थिति से निकालें । लेकिन इससे सिर्फ मुट्ठी भर बड़े लोगों को कुछ लाभ भले पहुंचेगा, आम लोगों में कोई विश्वास पैदा होने वाला नहीं है । इनके दो-दो बड़े-बड़े धक्कों, नौकरियां छीनने में इनके उत्साह, महंगाई के प्रति इनकी निष्ठुर उदासीनता और मोदी के तानाशाही तेवरों ने सबमें ऐसा खौफ पैदा कर दिया है कि अब हर कोई इनसे डरा हुआ है । हर व्यक्ति, जिनमें आम गरीब आदमी, किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग के लोगों से लेकर छोटे-बड़े दुकानदार तक सभी शामिल है, इन अहंकारी नौसिखुए डाक्टरों से इलाज नहीं, इनसे मुक्ति की, इनसे जान बचाने की कामना कर रहा है । और, मुट्ठी भर इजारेदारों के भरोसे तो अर्थ-व्यवस्था चंगी होने से रही ।

अब यह तय है कि जब तक मोदी-जेटली सत्ता पर है, भारतीय अर्थ-व्यवस्था में रत्ती भर भी सुधार की गुंजाईश नहीं है । आज बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है, यह भारत के एक-एक आदमी के अनुभव की सचाई है कि वह अपने जीवन में खुद को पहले से कहीं ज्यादा कमजोर और गरीब महसूस कर रहा है ।


शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

ये सब भारत को नर्क बनाने के प्रयोग हैं !

—अरुण माहेश्वरी

ऐसा लगता है, जब से मोदी सत्ता में आए हैं, पूरे देश में सिर्फ एक ही काम चल रहा है — पूरे सामाजिक ताने-बाने में तोड़-फोड़ और आगे किसी भारी विस्फोट के जरिये पूरे समाज को चिंदी-चिंदी करके उड़ा देने के लिये जीवन के तमाम क्षेत्रों में बारूद बिछाने का काम । यह शासन विध्वंसों के प्रयोग का शासन बन कर रह गया है ।

जीवन का हर स्वरूप हमेशा अनेक तत्वों के एकीकृत रूप से ही तैयार होता है, जिसे unified multiplicity कहते हैं । यह 'विविधता में एकता' वाली भारत की अपनी कोई खास विशेषता नहीं है । जब किसी भी ठोस से ठोस चीज को असंख्य टुकड़ों में बिखेरा जा सकता है, यह बिखराव ही इस बात का प्रमाण है कि हर चीज असंख्य तत्वों का समुच्चय होती है । इसीलिये, ध्वंसात्मकता मात्र के लिये हमेशा किसी बुराई के होने की अनिवार्यता नहीं होती है । वह खुद में एक स्वायत्त, स्वतंत्र खतरनाक प्रवृत्ति भी हो सकती हैं ।
   
खास तौर पर आज असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी के नाम पर जो परिस्थिति बन रही है, वह तो जैसे गुजरात के 2002 के नर-संहार के आगे हमारे देश में व्यापक पैमाने पर एथनिक क्लींजिंग की तरह की तैयारी की तरह दिखाई दे रही है । असम में आबादी की संरचना का विषय कई भौगोलिक-राजनीतिक कारणों से ही एक बहुत जटिल विषय बना हुआ है । इसे लेकर असमिया समाज में पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से भारी सामाजिक-राजनीतिक तनाव कायम है । बगल के पड़ौसी देश बांग्लादेश में बहुत सालों से, पाकिस्तान के दिनों से ही हमेशा एक अस्थिर राजनीतिक-आर्थिक परिस्थिति बनी रही है । इसीलिये वहां से दुनिया के सभी देशों में आबादी का एक निरंतर प्रवाह चलता रहता है । दुनिया के अधिकांश देशों में आपको बांग्लादेश के लोग मिल जायेंगे । पड़ौसी मुल्क के नाते रोजगार की तलाश में भारत में भी वहां से लोग आते रहे हैं और नाना उपायों से वे भारत में ही बस भी जाते हैं ।

नाना प्रकार की विपदाओं के कारण आबादियों के अपनी मूल स्थान से स्थानापन्न होने की यह समस्या सारी दुनिया में एक स्थायी समस्या है और इससे सभी जगह खास प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक तनाव भी पैदा होते रहे हैं । आज पश्चिम के देशों में भी शरणार्थियों की समस्या सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या है । लेकिन इस दुनिया ने वे दृश्य भी देखे हैं जब, किसी अन्य देश के नागरिकों को नहीं, हजारों साल से रह रहे यहूदियों को हिटलर ने लाखों की संख्या में गैस-चैंबरों में ठूस कर मार दिया था । इसीलिये, आबादी के किसी हिस्से से, सह-नागरिकों से भी घृणा के मूल में हमेशा उनकी नागरिकता का सवाल ही प्रमुख नहीं होता है । ऐसी नफरत की अपनी खुद की ही एक फितरत होती है, जैसा कि हमने ध्वंसात्मकता के बारे में कहा — एक स्वतंत्र, स्वायत्त प्रवृत्ति !

बांग्लादेश से हमारे देश की तकरीबन 92 किलोमीटर की जल-सीमा है जिसे किसी प्रकार से भी पूरी तरह से बंद करना अब तक संभव नहीं हुआ है । इसीलिये तमाम राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों और दबावों के बावजूद असम में बांग्लादेश के लोगों का आना आज तक भी पूरी तरह से रुक नहीं पाया है । इसका भारी प्रभाव वहां आबादी में वृद्धि की दर के आंकड़ों पर भी पड़ा है । इन तथ्यों का संज्ञान लेते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2009 में अपने एक फैसले में असम में बाकायदा नागरिकों का एक रजिस्टर तैयार करने का आदेश दिया था । असम सरकार ने उसी रजिस्टर को हाल में प्रकाशित किया है, जिसके कारण पूरे असम में ऐसी उथल-पुथल मची हुई है, जिसकी विध्वंसक संभावनाओं का अनुमान तक लगाना कठिन है । इस रजिस्टर को प्रकाशित करने के पहले ही पूरे राज्य में सेना को तैनात कर दिया गया था ।

रजिस्टर में अब तक दर्ज नामों की जो पहली सूची जारी की गई है उसमें कुल 1.9 करोड़ लोगों के नाम शामिल हैं और 1.39 करोड़ ऐसे लोगों के नाम शामिल नहीं हैं जिन्होंने अपनी नागरिकता का आवेदन किया था । जिन नामों को शामिल नहीं किया गया हैं, उनमें राज्य के एक-दो मंत्री और सांसदों के नाम भी शामिल हैं । यद्यपि राज्य सरकार ने कहा है कि वह आगे और भी सूची प्रकाशित करेगी ताकि अब तक की सूची की कमियां दूर हो सके । लेकिन राज्य में अभी जो भाजपा की सरकार है उसने इस पूरे मामले में यह कह कर जटिलता पैदा कर दी है कि 2014 तक बांग्लादेश से राज्य में जितने हिंदू आए हैं, उन्हें वह नागरिकता देने के पक्ष में है, लेकिन मुसलमानों को नहीं । इस प्रकार, पहली बार भारत में नागरिकता के सवाल को धर्म की पहचान से, अथवा शासक दल की अपनी मन-मर्जी से जोड़ने की जो कोशिश की जा रही है, वह बेहद खतरनाक है । इससे भविष्य में हमारे देश में जिस प्रकार के भयानक सामाजिक तनाव पैदा हो सकते हैं और किस प्रकार यह भारत में हिटलरी जन-संहार की, जातीय क्लींजिंग की राजनीति की एक नई जमीन तैयार कर सकती है, इसकी आशंका करना जरा भी निराधार नहीं है ।

पिछले साढ़े तीन साल से ज्यादा के मोदी शासन के काल में अपने पड़ौसियों से नफरत करने, नागरिकों के बीच आपस में अविश्वास पैदा करने के जो सभी उपक्रम चल रहे हैं, यह हमारे देश को सचमुच साक्षात नर्क में बदल देने के उपक्रम से कम नहीं है । सार्त्र का एक नाटक है — नो एक्सिट । इसके अंत में सार्त्र यही कहते हैं कि यदि आपको अपने जीवन को नर्क में बदलना हो तो आप अपने पड़ौसी से नफरत करना शुरू कर दीजिए, उसे हमेशा अविश्वास की दृष्टि से देखिये । इससे उसका कितना अनिष्ट होगा, यह तो कोई नहीं कह सकता, लेकिन आपका जीवन जरूर नर्क में तब्दील हो जायेगा । हमारे आज के हुक्मरान और हमारा मीडिया आज इसी काम में लगे हुए दिखाई देते हैं । कहना न होगा, परस्पर सामूहिक नफरत पूरे सामाजिक जीवन को जहन्नुम बनाने से कम पाप नहीं है ।