रविवार, 23 जून 2019

भारतेन्दु बाबू के प्रणय-प्रेम की एक कथा — 'मल्लिका'


—अरुण माहेश्वरी

आज मनीषा कुलश्रेष्ठ का हाल में प्रकाशित उपन्यास 'मल्लिका' पढ़ गया । मल्लिका, बंकिम चंद्र चटोपाध्याय की ममेरी बहन, बंगाल के एक शिक्षित संभ्रांत घराने की बाल विधवा । तत्कालीन बंगाली मध्यवर्ग के संस्कारों के अनुरूप जीवन बिताने के लिये काशी को चुनती है । संयोग से काशी में वह भारतेन्दु हरिश्चंद्र के मकान के पिछवाड़े की गली के सामने के मकान में ठहरती है । मल्लिका के यौवन की झलक और साहित्यानुराग ने भारतेन्दु बाबू को सहज ही अपनी ओर खींच लिया । दोनों के प्रणय-प्रेम का यह आख्यान भारतेन्दु बाबू की असमय मृत्यु तक चलता है । काशीवासी मल्लिका अंत में वृंदावनवासी बनने के लिये रवाना हो जाती है !

यह है भारतेन्दु बाबू की बंगाली प्रेमिका मल्लिका पर केन्द्रित इस उपन्यास के कथानक का मूल ढांचा । इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है । यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है । यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है, जिसका रूपांतरण उसके काशीवास से वृंदावनवास में स्थानांतरण तक ही होता है । एक स्वाधीन प्रेमी पुरुष की जीवन-लीला का पार्श्व चरित्र ।

प्रणय — सचमुच इसकी कथाओं का भी कोई अंत नहीं हुआ करता है । इसकी सघनता एक स्वायत्त, समयोपरि सर्वकालिक सत्य का संसार रचती है, ऐसे एकांतिक सत्य का जो दो प्रेमियों का पूरी तरह से अपना जगत होता है । समाज जो कुल, क्रम की श्रृंखलाओं को मानता है, प्रेम की ऐसी एकांतिक सर्वकालिकता पर सवाल करता है ; स्त्री-पुरुष के बीच के दैहिक संबंधों को अलग सांस्कृतिक स्वीकृति देने से परहेज करता है । आज वैसे ही विरह प्रेम को मध्ययुगीन खोज बताने वाले कम नहीं है । इसे स्त्रियों का विषय भी कहा जाता है । लेकिन पुरुष प्रणय के प्रति उदासीन नहीं बल्कि उत्साहित ही रहता है — इसी सत्य के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्त्री-पुरुष संबंधों की वासना और सुख सर्वकालिक सत्य है । प्रणय-निवेदन के असंख्य और पूरी तरह से अलग-अलग रूप हो सकते हैं, लेकिन यह स्वयं में एक सत्य की अनुभूति का भाव है । प्रणय कथाओं के स्वरूप मूलत: इसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य के भेदों पर टिके होने पर भी इसके अपने जगत का आधारभूत अभेद एक एकांतिक, स्वायत्त भाव होता है । मनुष्य के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच दो व्यक्तियों का, एक युगल का अलग टापू — 'नदी के द्वीप' ।


यही वजह है कि लेखकों का एक वर्ग आपको ऐसा मिलेगा जो अक्सर सिर्फ प्रणय-प्रेम कथाएं ही लिखता है । वे जीवन भर प्रणय की अनुभूतियों को व्यक्त करने के नानाविध अलंकारों, भाव-भंगिमाओं से लेकर काम क्रिया तक के प्रकरणों की अभिव्यक्ति को साध कर उसे अलग-अलग स्थानिकताओं की लाक्षणिकताओं के साथ उतारते रहते हैं । सारी फार्मूलाबद्ध हिंदी फिल्मों की शक्ति भी इसी प्रणय के जगत की एकांतिकता के सत्य से तैयार होती है । इन प्रणय कथाओं में आम तौर पर स्थानिक विशिष्टता को उकेरने के लिये इकट्ठा किये गये सारे अनुषंगी उपादान लगभग महत्वहीन होते हैं, मूल होता है प्रणय के अपने जगत के उद्वेलनों में पाठक-दर्शक को डुबाना-तिराना ।

लेखक प्रणय के इस उद्वेलन के अनुरूप ही भौतिक परिवेश को भास्वरित करता है, मसलन् इसी उपन्यास में —

“ 'धिक्क...' कहकर उनके हाथ से पन्ना छीनने लगी । उन्होंने उसे बाह से थाम लिया मानो वहीं पर सारा मनोभाव संप्रेषित हो चुका था । आगे बात करना असंभव हो रहा था । बातें बस आँखों ही आँखों में थीं कभी अपेक्षा से देखती आँखें तो कभी शर्म से झुकती आंखें । दोनों के बीच जो लहर प्रवाहित हो रही थी उसे दोनों महसूस कर रहे थे और एक उत्कट आकांक्षा उफान मारने लगी थी । लैंप की बत्तियां नीची हो गईं...छाया और प्रकाश परछाइयों का मद्धिम जादू नींद से जाग गया । वह नैसर्गिक निकटता और विश्वास ही था कि वह उस दिन दैहिक रूप से उनके करीब आ गई । पहला दैहिक संसर्ग...। पहली-पहली तुष्टि ।...तेज हवा वाली रात थी, मल्लिका के मन का संशय मीठे अनुनाद में बदल गया । चंद्रमा क्षितिज से ऊपर उठ गया था । संकोच के बंध टूट रहे थे ।” (पृष्ठ – 85)

इतनी ही सुनिश्चित होती है इस एकांतिक जगत के युगल की शंकाएँ, अंतरबाधाएं —

“मैं आरंभ से जानती हूँ कि आप आधिपत्य की वस्तु नहीं हो । आपसे आकृष्ट हो मैंने सामाजिक रीतियों को तोड़ा है । संसार के प्रति नहीं अपने हेतु अपराध किया है ।” (पृष्ठ – 102)
“मैंने क्या बुरा किया उस आलीजान को दूसरे के कोठे से उठा कर घर खरीद दिया । उसे शुद्ध कर माधवी बना दिया । अब वह मेरे संरक्षण में है, अब वह केवल मुजरों में जाती है । महफिलों में गाती है ।'
“मल्लिका बुझ गई । संरक्षण, संरक्षिता, रक्षिता !!” (पृष्ठ – 104)

इसी प्रकार तयशुदा होता है ऐसे लेखन में भाषाई अतिरेक । देखिए मल्लिका के घर की चारदीवारी में प्रणय के दृश्य का ब्रह्मांड-व्यापी स्वरूप —

“ज्यू के मांसल अधर पहली बार मल्लिका के अधरों के अधीन थे । सूर्यास्त हो ही रहा था, वातावरण में दूर-दूर तक रंगराग छा गया था । गवाक्ष से भीतर आते समीर में चंपई गंध थी । धरती और ब्रह्मांड एक-दूसरे के विपरीत गति में संचालित थे । इस विचित्र घूर्णन में प्रकृति भ्रमित-सी थी । पक्षी नीड़ों की ओर लौटते हुए चुप-से थे ।” (पृष्ठ – 133)

और माणिकमोहन कुंज के प्राचीन मंदिर के अलौकिक वातावरण में हरिश्चन्द्र और मल्लिका के आपस में मालाओं के आदान-प्रदान के बाद के भावोद्वेलन का बयान —

“क्या हुआ जो मैं आज तुम पर भर-भर अंजुरियाँ मंदार पुष्प न बरसा सकी, तुम्हें तो इन सूखे बेलपत्रों से रीझ जाना चाहिए था । तुममें और मुझमें घना अंतर है ! तुममें तो भर प्याला देने की क्षमता है, वो तो मैं हूँ, बूँद-बूँद के लिए तृषित चातक ।'
“मल्लिका मैं तुम्हें प्रकृति और परमेश्वर द्वारा प्रदत्त भीतरी और बाहरी सौंदर्य की विपुल राशि मानता हूँ,' ज्यू उसे अंक में भरते हुए बोले ।” (पृष्ठ – 143)

और इन सबमें जो अंतरनिहित हैं, वह है प्रणय प्रेम के दैहिक और भावनात्मक सत्य की शाश्वतता ।

“ 'उई, केश मत खींचिए ना, जो भी हो, हम ऐसी ही मल्लिका है, ज्यू आपको हमें प्रेम करना होगा ।' निराले स्त्रैण ढंग से दीवार की ओर करवट ले कर, मान करते हुए मल्लिका बने हरिश्चन्द्र बोले ।...हरिश्चन्द्र उधर मुख किए-किए मुस्कुराए । मल्लिका ने उनकी कमर पर हाथ रखा और उन्हें पलटा कर अपने दुर्बल बाहुबंद में भर लिया और ज्यू से बोली —'कुछ बोलोगी नहीं ?'
'प्रेम में निरत युगल के बीच मौन ही तो बोलता है ।...
'हम तो आज वाचाल है, हमारे अधर बढ़ कर बंद कर दो न ज्यू,' कह कर ज्यू ने मल्लिका को स्वयं पर गिरा लिया ।” (पृष्ठ -132-133)


“क्या हुआ खल लोग तुझे मेरी आश्रिता कहते रहे...तुझे इससे क्या, तेरा प्रेमी और तू जिसकी सरबस है...उसने तो तुझे धर्म-गृहीता माना है । देखना...आगे ऐसे लोग भी उत्पन्न होंगे जो तेरा नाम आदर से लेंगे । मेरी और तेरी जीवन पद्धति समझेंगे । इस प्रेम के दर्शन को मान देंगे ।”

दरअसल, सच्चा और अकूत प्रेम ही ऐसे प्रणय आख्यानों के सत्य की अनंतता का स्रोत होता है । उसमें कथा को मिथकीय और साथ ही नाटकीय रूप देने की क्षमता होती है । प्रणय का हर दृश्य उसके यथार्थ स्वरूप से काफी विशाल होता है, श्री कृष्ण के विराट रूप की तरह । इसीलिये मिथकीय होता है, ईश्वरीय कृपा और दिव्य नियति स्वरूप । इसमें स्थानिकता अथवा परिवेश के अन्य पहलू नितांत निर्रथक और अनुर्वर होते हैं । प्रणय से हट कर प्रेम के विछोह की दरारों से जो प्रकट होते हैं, जो पूरे कथानक को दूसरे फलक पर ले जाते हैं, उनका शुद्ध प्रणय कथाओं में कोई मूल्य नहीं होता । यहां भी नहीं है ।

बहरहाल, देह और भाषाओं की आदमी की दुनिया में प्रेम के भुवन का सत्य भी कोई अलग या भिन्न नहीं है । प्रणय उसी के देह पक्ष की सच्चाई को विराट, मिथकीय, नाटकीय रूप देता है । 'मल्लिका' में लेखिका ने इसे ही साधने की एक और कोशिश की है ।

भारतेन्दु बाबू के जीवन के अन्य सारे प्रसंग अथवा मल्लिका के पिता के संसार के बंगाल के तथ्य, नवजागरण की आधुनिक और क्रांतिकारी बातें सिर्फ उनके लिये ही मायने रखते हैं, जो उनसे पहले से ही परिचित है । ये सब उपन्यास के सजावटी अनुषंगी मात्र है । भारतेन्दु युग के बौद्धिक विमर्श यहां इसलिये भी निरर्थक हो जाते हैं क्योंकि मल्लिका-भारतेन्दु के संबंधों में उनका कोई स्थान नहीं होता और मल्लिका की बंगाल की बलिष्ठ पृष्ठभूमि के बावजूद उसके लिये उन बातों का कोई बहुत ज्यादा अर्थ नहीं होता ।

कहना न होगा, बंकिम युग की अनुभूतियों और भाषा का यह विन्यास उस युग के अपने सामाजिक अंतरविरोधों के व्यापक वितान से बाहर की एक स्वायत्त प्रणय की एकांतिक अनुभूति का जगत है । मल्लिका और हरिश्चन्द्र महज सुविधाजनक अवलम्ब हैं ।

(15.06.2019)

शुक्रवार, 7 जून 2019

इसे कहते हैं अव्यवस्थित विचार बुद्धि

-अरुण माहेश्वरी



आज के टेलिग्राफ़ में रामचंद्र गुहा का लेख है - ‘शाश्वत बुद्धिमत्ता’ (Timeless Wisdom) । इस लेख के मूल में है 14 वीं सदी के अरबी विद्वान इब्न खाल्दुन का एक कथन जिसमें वे कहते हैं कि ‘राजनीतिक वंश परंपरा में तीसरी पीढ़ी के आगे तक राजनीतिक प्रभाव और साख नहीं चल पाती है ।’ इसी शाश्वत बुद्धिमानी की बात के आधार पर उन्होंने सोनिया गांधी को यह सलाह दी है कि वे राहुल गांधी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देखने का अपना हठ छोड़ दें ।

जाहिर है कि गुहा इस महान बुद्धि का परचम इसीलिये लहरा पाए क्योंकि 2014 और 2019 में दो बार लगातार राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मोदी के हाथों पिट गई । गुहा के लिये इस बात का कोई मायने नहीं है कि इन दोनों चुनावों में ही, विशेष तौर पर इस बार के चुनाव में, मोदी को पूरे देश के पैमाने पर चुनौती देने वाला दल कांग्रेस ही था ।

गुहा यह नहीं सोच पा रहे हैं कि जनतंत्र में चुनाव में अगर एक दल जीतता है तो हारने वाले दल का महत्व कम नहीं हो जाता । लेकिन वे तो वंशवाद के विषय को उठा कर जनतंत्र पर राजशाही के तर्क को लागू करना चाहते हैं, जिसमें राजा के अलावा अन्य किसी की कोई हैसियत नहीं हुआ करती है । मोदी भी यही समझते हैं । जनतंत्र के अंदर सभी फासीवादी ताक़तें शासन की राजशाही परंपरा को क़ायम करने में लगी होती हैं जिसमें एक राजा और बाक़ी सब प्रजा होते हैं ।

यही वजह है कि गुहा राहुल गांधी के नेतृत्व की कांग्रेस की पराजय को एक परम सत्य मान रहे हैं । यह जानते हुए भी कि भारत में पिछले तीस साल से नेहरू गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री नहीं रहा है, वे कांग्रेस में वंशवाद के अलावा दूसरा कोई सच नहीं देख पा रहे हैं ।

बहरहाल, इब्न खाल्दुन के जिस कथन को गुहा अजर-अमर बता कर राहुल गांधी के राजनीतिक नेतृत्व के अंत की कामना कर रहे हैं, वे ज़्यादा दूर नहीं, भारत के ही हाल के इतिहास को देखते तो उन्हें पता चल जाता कि राजशाही में वंश-परंपरा कितनी पीढ़ियों तक बाक़ायदा क़ायम रहती है । बाबर के काल (1526-1530) से लेकर बहादुर शाह (1837-1857) के बीच के मुग़ल साम्राज्य की छठी पीढ़ी के औरंगज़ेब ने साम्राज्य को सबसे बड़ा विस्तार दिया था । दुनिया का इतिहास सदियों तक एक ही वंश के शासन के इतिहास से भरा हुआ है ।

इसीलिये, जिस तर्क पर गुहा राहुल को राजनीतिक पटल से हट जाने की सलाह दे रहे हैं, वह एक पूर्वाग्रह-ग्रस्त अव्यवस्थित विचार-बुद्धि के उदाहरण के अलावा और कुछ नहीं है । हम यहाँ उनके लेख का लिंक दे रहे है :

https://m.telegraphindia.com/opinion/why-sonia-gandhi-should-read-ibn-khaldun/cid/1691973?ref=opinion_opinion-page

सोमवार, 3 जून 2019

ब्लाग लेखन के तर्क

('स्वातंत्र्य चेतना का स्फोट' के छठें खंड की भूमिका)



ज्ञात का अनुसंधानात्मक निरूपण । जिस वस्तु के गुणावगुण से आप अज्ञात हो, उस सर्वत्र दिखाई देने वाली चीज की भी आपमें इसके बिना कोई समझ विकसित नहीं हो सकती है । जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, उसे ही पशुवत अटल सत्य मान कर यह कहना कि यह ऐसा ही है, हमारी नियति है इसे भोगना, तो यह वस्तु सत्य पर अपनी सीमाओं का आरोपण मात्र है । यह हमारी प्रत्यभिज्ञा है । विचारशीलता, किसी भी साधना, उपासना की मांग है, इसके असली ज्ञान को हासिल करना, प्रत्यभिज्ञान को प्राप्त करना । अर्थात वस्तु सत्य पर स्वयं के पशुवत आरोपण को अपसारित कर उसके ज्ञान की दिशा में बढ़ना । आरोपण, अपसारण और तत्वदर्शन के तीन क्रमों के प्रत्यभिज्ञाविमर्श से ही मनुष्य की मनीषा का प्रकाशन और विस्तार होता है ।

सवाल है कि इस उपक्रम में किसी भी एक कड़ी को बाद देकर ज्ञान चर्चा में क्या एक भी कदम बढ़ाया जा सकता है ?

जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने काल के साथ प्राणीसत्ता के संबंधों के निर्धारण में पहली कड़ी के तौर पर प्रत्यक्ष संसार, Dasein की अतीव महत्व के साथ चर्चा की है । यह समय के साथ किसी भी लेखक और विचारवान व्यक्ति के संबंधों की प्राथमिक कड़ी है । इसे शैव दर्शन की शब्दावली में आणवसमावेश कहते हैं । बाह्य जगत की स्वात्ममूर्ति ।

यह दुनिया असंख्य रूपों से (मूर्त्तिवैचित्र्य) से भरी हुई है । और कहना न होगा, हर रूप अपनी द्वंद्वात्मक संरचना के चलते परिवर्तनशील, अर्थात स्वात्म-संस्कार में समर्थ होता है । इनमें हम जिसे भी वेद्य, अर्थात समझने योग्य चुनते हैं, उस पर केंद्रित हो कर ही हम उसके द्वंद्वों के समाधान की, अर्थात उसके निर्विकल्प स्वरूप की संवित (चेतना शक्ति) के शाक्त ज्ञान की कक्षा में प्रवेश कर सकते हैं । आरोपण के अपसारण की प्रक्रिया में ; तत्वदर्शन की प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं ।
 
इस प्रकार यह प्रत्यक्ष में हमारा आत्मारोपण ही है जो मनीषा में ज्ञान के निर्माण के बाकी सारे चरण, हमारे शैव दार्शनिक अभिनवगुप्त के आणवसमावेश से लेकर शाक्त ज्ञान और शांभवयोग की सत्य की विश्वात्मा तक में प्रवेश को संभव बनाता है । इससे आंख मूंद कर ज्ञान की किसी प्रक्रिया का प्रारंभ ही मुमकिन नहीं है ।

जब भी हम अपने दैनंदिन ब्लाग लेखन के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करते हैं, प्रत्यभिज्ञा, dasein और आणवसमावेश की उपरोक्त महत्ता से अधिक तात्पर्यपूर्ण हमें कुछ नहीं जान पड़ता । पशुता से ज्ञान सत्ता और इतिहास की परमार्थिक एकसूत्रता से उसके स्वतंत्र कर्त्तृत्व तक की भाव सत्ता ही पौर्वापर्य के विवेक की उस भित्ति को तैयार करती है जो तत्काल की गति के भुवनों से सार्वभौम सत्यों के ब्रह्मांड तक की अन्वीक्षा की जमीन हो सकती है । सचमुच यही वजह है कि विषय का वैविध्य हमें अध्ययन की चुनौतियां जरूर देता है लेकिन विषय के पार्थिव, प्राकृतिक, काल्पनिक (मायीय) और शाक्त स्वरूपों से उसकी द्वंद्वात्मकता का सूक्ष्म प्रक्रियागत ज्ञान जहां हमेशा उसके तल की तात्त्विकता को देख पाने में मददगार होता है, वहीं उसके विस्तार की संभावनाओँ का भी अनुमान देता है । देश-काल से जुड़े विषय के तत्त्व के साथ उसके इन सभी बाह्यरूपों का निरंतर स्पर्श होता है । अभिनवगुप्त ने सही कहा है कि स्पर्श सप्रतिघाती होता है, अर्थात द्वंद्वात्मकता का कारण, जो विषय के तत्त्व और स्वरूप दोनों को ही प्रभावित करता रहता है । यही सब अवलोकनों में विस्मय और चमत्कार का भी मूल स्रोत है ।

समय के प्रवाह पर लेखन की भंगुरता और स्थायित्व के बारे में अपनी तमाम शंकाओं के बावजूद हम यह देख पाने में नहीं चूकते हैं कि यह सारी कोशिश प्रवहमान समय के प्रस्तरीकरण की तरह की निष्फल कोशिश नहीं है । जब हम समय के प्रकट रूपों के पौर्वापर्य स्वरूपों पर उंगली रख पाते हैं, तब यह लेखन प्रवाह की गति को रोकने का नहीं, बल्कि उसकी गति के साथ उत्तरण और उसमें अपनी स्वातंत्र्य शक्ति के यत्किंचित कर्त्तृत्व की संभावना से भरा हुआ रोमांचकारी होता है । यह लेखन कोरे दस्तावेजीकरण की गतिहीनता की मार का शिकार नहीं होता है । और कहना न होगा, यही विश्वास हमें ब्लाग लेखन के लिये लगातार प्रेरित करता रहा है ।

समकालीन घटना प्रवाह पर लेखन मनुष्य अर्थात किसी भी जीवित निकाय के अन्तरजगत के निरीक्षण की तरह ही है । भारतीय कहावत है, यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे । परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के शोध-अन्वेषण से कम महत्वपूर्ण नहीं है मनुष्य, एक जीवित इकाई के मनोजगत की संरचनाओं का अध्ययन । इस अन्तर्मन की जटिलताएँ और इसका विस्तार बाहर की दुनिया से कम विचित्र, रहस्यमय और स्वयं में शीलबद्ध, नियम-परक नहीं है । इसे आप राजनीति के दैनन्दिन स्वरूप की विचित्रताओं के बीच से भी कुछ-कुछ देख सकते हैं । लेकिन मुश्किल यह है कि इस दैनन्दिन राजनीति का सामान्यत: आपको कोई शास्त्र नहीं मिलता, जब कि यही दैनन्दिनता बृहत्तर ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के सूत्रों को बुना करती है । इसकी अवहेलना का हमें कोई औचित्य नजर नहीं आता है ।

दुनिया में इस प्रकार के, दैनन्दिन उन्मोचित हो रहे राजनीतिक घटना-प्रवाह के लेखन का सबसे क्लासिक उदाहरण है कार्ल मार्क्स की कृति 'लुई बोनापार्ट की अठाहरवीं ब्रुमेर' । नेपोलियन तृतीय की फौजी तानाशाही के कायम होने के विद्रोह के दिन का एक पौर्वापर्य विस्तृत सामाजिक-राजनीतिक विवरण । ब्रुमेर, अर्थात फ्रांस के जनतंत्रीय पंचांग का एक महीना । अठारहवीं ब्रुमेर अर्थात् 9 नवंबर 1799, जब एक राज्य विद्रोह के जरिये अपनी फौजी तानाशाही कायम करके लुई बोनापार्ट ने पूरे राजनीतिक जगत को 'वज्रपात की तरह' स्तंभित कर दिया था । एंगेल्स ने उस घटना की मार्क्स के इस सिलसिलेवार विवरण और उसकी मार्मिक व्याख्या के बारे में लिखा था कि इसने उन दिनों के “फ्रांस के पूरे इतिहास-क्रम को उसके अंत:सम्बंधों के साथ अनावृत किया...जीवित और सामयिक इतिहास की ऐसी असामान्य समझ, घटनाओं के घटने के क्षण में ही उनका ऐसा सुलझा हुआ मूल्यांकन सचमुच बेजोड़ है ।” एंगेल्स इस पर यह भी लिखते हैं कि मार्क्स ने खुद इतिहास की गति के अपने जिस महान नियम का पता लगाया था, उसे उन्होंने “इन ऐतिहासिक घटनाओं की कसौटी पर परखा” ।

ऐसे व्याख्यामूलक पौर्वापर्य विवरणों में किसी भी ऐतिहासिक काल की सारी जटिलताएँ, परस्पर-विरोधी और असामंजस्यपूर्ण चीजें समाहित होती है, जो किसी न किसी रूप में उत्पादन के सामाजिक संबंधों के स्वरूप को भी प्रतिबिंबित करती हैं । लेकिन यह आधार और अधिरचना के बीच किसी भी यांत्रिक संबंध की अवधारणा से कोसों दूर है ।

आम तौर पर मार्क्सवादी हलकों के कथित राजनीतिक सिद्धांतकारों में राजनीति की हर छोटी से छोटी घटना के पीछे उसके वर्गीय उत्स को चिन्हित करने की जो ललक दिखाई देती है, वही बचकानापन अक्सर इन्हें समग्र राजनीतिक परिदृश्य की समझ के मामले में घोंघा वसंत, मूर्ख, और एक दूसरी दुनिया का दुर्लभ प्राणी बना दिया करता है । इन 'वर्ग-स्रोत संधानी' पंडितों से मार्क्सवाद को मुक्त रखने की मांग करते हुए अंतोनियो ग्राम्शी ने लिखा था कि “ इस दावे को कि राजनीति और विचारधारा में हर फेर-बदल को आधार की फौरी अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत और व्याख्यायित किया जा सकता है, आदिम बचकानापन कहा जाना चाहिए ।”
 
इटली में फासीवाद के आगमन का अवलोकन करते हुए ग्राम्शी लिखते हैं कि “किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की कोई स्थिर तस्वीर (फोटो) पेश करना कठिन होता है । इसमें नाना प्रकार की प्रवृत्तियां सक्रिय रहती है, लेकिन जरूरी नहीं कि वे सभी प्रकट रूप में दिखाई दें । और राजनीति किसी भी समय इन प्रकट और परोक्ष प्रवृत्तियों के अंश को ही प्रतिबिंबित करती है । कोई भी राजनीतिक संकट अनिवार्यत: अर्थ-व्यवस्था के संकट का ही परिणाम नहीं होता है ।”

कहने का तात्पर्य यही है कि मार्क्सवाद महज राजनीति नहीं है । मार्क्सवादी चिंतन परंपरा में राजनीति के स्थान की भी सही समझ की जरूरत है । जब हम विचारधारात्मक प्रभुत्व की तरह की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य महज राजनीतिक प्रभुत्व नहीं, हमेशा मान्य सामाजिक नैतिकता से होता है । राजनीति सामाजिक-नैतिक मान्यताओं के संघटन की प्रक्रिया का एक मामूली हिस्सा भर होती है । प्रश्न उठता है कि उस मामले में आप कहा खड़े हैं । इसे चालू मार्क्सवादी शब्दावली में समाज में वर्गीय शक्तियों का संतुलन कहा जाता है ।

इसके साथ ही राजनीति के अपने जगत की यह सचाई है कि जो भी राजनीतिक पार्टी अपने किसी भी विचारधारात्मक आग्रह की मरीचिका में फंस कर रोजमर्रे के सामाजिक- राजनीतिक घटनाचक्रों के प्रति बेफिक्र होती है, वे समाज में पूरी तरह से अप्रासंगिक होकर शून्य में विलीन हो जाने के खतरे में पड़ी होती है । राजनीतिक पार्टियों के विस्तार की परिधि भी इसी पर निर्भर है ।

कुल मिला कर हम कह सकते है कि राजनीति में जिसे कार्यनीति के प्रश्न कहते हैं, दैनन्दिन प्रश्न, ये इसके अन्तरजगत के प्रश्नों के अनगिनत आयामों और जटिलताओं के साथ अपनी समग्रता में राजनीति के ब्रह्मांड के अन्य भुवनों के खोल के स्पर्श में रहते हैं । विषय की इसी प्रत्यक्ष-संरचना में हाइडेगर 'अन्य' की उपस्थिति की बात करते हैं, वह 'अन्य' जो प्राणी सत्ता के लिये आत्म पहचान की, 'वह कौन है' की तरह की अस्तित्वीय चुनौती प्रस्तुत करता है । स्वयं में 'स्व' की पहचान की प्रत्यभिज्ञा की मूलभूत समस्या । हमारा आग्रह यही है कि इस अन्तर के अन्य बाह्य रूपों से अन्तरक्रिया करते हुए विकास की स्वच्छ समझ की एक बाकायदा पद्धति विकसित करने की जरूरत है ।

राजनीति का आंतरिक ढांचा क्या होता है, इसके बीज तत्व क्या है और इसका समय के संस्पर्श से बाह्य विस्तार कैसे होता है, इसकी एक समझ बनाने के लिये ही हम निरंतर न सिर्फ राजनीतिक सिद्धांतों के बारे में, बल्कि राजनीतिक पार्टियों की सांगठनिक संरचनाओं के विविध पक्षों पर  भी रोशनी डालने की कोशिश करते रहे हैं । कांग्रेस की तात्विकता को ह्यूम और गांधी के स्वातंत्र्य के विचारों से, आरएसएस को हिटलर और हेडगेवार की हिंदू-मुस्लिम ग्रंथी से तो मार्क्सवादियों को मार्क्स के मानव मुक्ति के सत्य और सोवियत संघ के तत्व-रूप से पहचानने की जो निश्चित तौर पर इनके अस्तित्वीय संकट के हर मुकाम पर इनके तल से किसी न किसी रूप में अपने को प्रकट करते हैं । लेकिन जैसा कि हमने शुरू में ही प्रत्यभिज्ञा का सवाल उठाते हुए कहा कि सारी समस्या इनके प्रत्यक्ष के आवरण के अपसारण से इन्हें परत-दर-परत देखने की विधि का है, इनकी सर्वमान्य पहचान की व्याख्या-विश्लेषण से इनके तत्व की आंतरिक गति को इनके लोकोत्तर क्षितिजों के संदर्भ में स्थिर करने का है । ये क्षितिज पार्टियों के तथाकथित रणनीतिगत लक्ष्य भी हो सकते हैं और संभव तात्कालिक लक्ष्य भी ।

कहना न होगा, अभिनवगुप्त के तंत्रालोक के परामर्श, मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, हाइडेगर की प्राणी सत्ता और काल की अंतरक्रिया का दर्शनशास्त्र और फ्रायड और लकान की तरह के मनोविश्लेषकों के मनुष्य के मनोभावों के विश्लेषण किसी भी घटना-विकास के प्रकट रूपों के पीछे के अंतरद्वंद्वों के नियमों की पहचान के सिद्धांतों और शास्त्रों की ही रचना करते हैं । अभिनवगुप्त जब अपने तंत्रालोक को भोग-मोक्ष का त्रिकशास्त्र (दर्शन) कहते हैं तो भोग से उनका तात्पर्य मनुष्य के सामाजिक जीवन से और मोक्ष से आत्मिक जीवन से है और तंत्रालोक इन दोनों पर ही समान रूप से लागू होता है । (मोक्षाभोगाम्युपायता) । मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सिद्धि हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद और फायरबाख के भौतिकवाद से उत्तरण की एक लंबी प्रक्रिया के बीच से पूंजी की आंतरिक गति और उसके नाना सामाजिक-आर्थिक स्वरूपों के अध्ययन की प्रक्रिया से हुई थी । फ्रायड और लकान के स्तर के मनोविश्लेषक भी मनोचिकित्सा की विधियों से मनोजगत की संरचना और उसके विश्लेषण की टीपों से जिस शास्त्र की रचना करते हैं, उसके दायरे में जीव जगत का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जो दाखिल नहीं हो सकता है । कुल मिला कर, यह सब मनुष्यों और उनके समाजों के आत्मिक जगत के व्यापारों के शास्त्र ही है । अभिनव के शब्दों में — “अध्यात्म के बिना बाह्य सिद्ध नहीं है और अध्यात्म भी बाह्य से रहित होकर सिद्ध नहीं होता ।”
(नाध्यात्मेन बिना बाह्यं नाध्यात्मं वाह्यवर्जितम्)

इसीलिये इन सभी जगत की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों की पड़ताल किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है ।           

हमारे मित्र प्रशांत बिस्सा जी ने बड़े उत्साह के साथ इसके पहले एक मुश्त इस लेखन के पांच खंड प्रकाशित किये थे । पांच साल की अवधि के लेखन के पांच खंड । उन खंडों के तकरीबन डेढ़ हजार पृष्ठों के फैलाव को देख कर मन थोड़ा घबड़ाया था । रोज-रोज सामने आने वाले इतने विषय, उनकी इतनी पेचीदगियां, उनसे मिलने वाले इतने संकेत और जिन्हें संकेतित हैं उनकी किसी ठोस सूरत का अभाव — लेखक को हतोत्साहित करने के लिये यह सब काफी होता है । लेकिन इसी बिंदु पर प्राणीसत्ता के अपने जगत का सत्य प्रमुख हो जाता है । हमारी लेखकीय प्राणी सत्ता । किसी भी अखिल सत्य के भुवन का भी यही तो देश-काल से जुड़ा आधार होता है । अन्यथा वह भी कैसे, और किसके जरिये अपने को प्रगट करेगा । और जहां तक लेखक का संबंध है, यही उसके लिये मोक्षदायी सम्यक ज्ञान-स्वभाव वाली विद्या है, सम्यगज्ञानस्वभाव हि विद्या साक्षाद्विमोचिका) ।  हाइडेगर की शब्दावली में — 'temporality as the meaning of the Being of that entity'।

प्रारंभिक पांच खंड तो प्रशांत जी के आग्रह के परिणाम थे लेकिन इस छठे खंड के प्रकाशन के साथ हमारा भी अतिरिक्त आग्रह जुड़ गया है क्योंकि इसके प्रकाशन से आज के भारत का विगत पांच सालों का कुछ अजीबोगरीब रंगत लिया हुआ एक पूरा काल-खंड इनमें समाहित हो जाता है । जैसे हर अपवाद सामान्य को प्रमाणित करता है, उसी प्रकार मोदी शासन का यह विचलन-स्वरूप कालखंड भारतीय जनतंत्र को प्रमाणित करता जान पड़ता है । इसके एक गतिवान आख्यान से किसी भी देश में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिघटना के प्रारंभ और अंत को उसकी गतिशीलता में देखने और समझने का एक आधार तैयार हो सकता है । एक तान के बीच के आरोह-अवरोह के वृत्तों से उस तान की संभावनाओं के संकेत मिल सकते हैं ।

बिस्सा जी ने इस खंड के प्रकाशन के प्रति भी जो उत्साह जाहिर किया है, इसके लिये मैं उनका आभारी हूं । आभारी हूं श्री श्याम आचार्य का जो बिस्सा जी के निर्देश पर ही पूरी लगन के साथ इस सामग्री को मुद्रण-योग्य रूप देने में सहयोगी बने हैं ।

—अरुण माहेश्वरी
05.01.2019               

'मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान है'

('बनना कार्ल मार्क्स का' पुस्तक की भूमिका)


लेनिन ने मार्क्स के बारे में अपने प्रसिद्ध निबंध 'मार्क्सवाद के तीन स्रोत तथा तीन संघटक तत्व' (1913) में लिखा था कि “मार्क्स की प्रतिभा इस बात में निहित है कि उन्होंने उन प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध किये, जिन्हें मानवजाति के प्रमुखतम चिंतक पहले ही उठा चुके थे ।” और इसी क्रम में उन्होंने लगभग धर्मशास्त्र की भाषा का प्रयोग करते हुए लिखा कि “मार्क्स की शिक्षा सर्वशक्तिमान है, क्योंकि वह सत्य है ।”

अभी लेनिन के इस कथन के 105 साल बाद मार्क्स के जन्म के दो सौ साल पूर्ति के समारोह में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी लेनिन की इसी बात को दोहराया कि 'मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है' ।

विश्व पूंजीवाद की सबसे प्रमुख पत्रिका 'इकोनोमिस्ट' ने इस मौके पर प्रसारित अपने एक लेख 'मार्क्स पर पुनर्विचार : दूसरी बार, प्रहसन' में मार्क्स की विफलताओं का आख्यान लिखने के बावजूद उसे डावोस का, जहां हर साल दुनिया के पूंजीपतियों और अर्थशास्त्रियों का जमावड़ा हुआ करता है, मसीहा बताया है । उदार जनतंत्रवादियों को 'इकोनोमिस्ट' ने चेतावनी दी है कि मार्क्स ने पूंजीवाद के जिन दोषों को बताया था उन्हें समझ कर तुम सुधरो, अन्यथा मार्क्स अपने विचारों के साथ, वो कितने ही फालतू और खतरनाक क्यों न हो, तुम्हें अपदस्थ करने के लिये हमेशा मौजूद है । अर्थात 'इकोनोमिस्ट' ने भी मार्क्स की तमाम विफलताओं का ब्यौरा देने के बावजूद प्रकारांतर से उनकी इस जगत की परिघटना में सार्वलौकिक उपस्थिति को एक सत्य माना है ।

अल्लामा इकबाल की बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध की प्रसिद्ध शायरी है - ‘इबलीस की मजलिस-ए-शुरा’ ( शैतान के परामर्श-मंडल की बैठक)। इसमें शैतान को उसका एक सलाहकार (तीसरा मुशीर) प्रसंगवश कहता है -
‘‘रूह-ए-सुल्तानी राहे बाकी तो फिर क्या इज्राब
है मगर क्या उस यहूदी की शरारत का जवाब ?’’
(साम्राज्य का गौरव यदि बाकी रहा तो फिर  डर किस बात का, लेकिन उस यहूदी की शरारत का क्या जवाब है?)
उस यहूदी का आगे और हुलिया बताता है कि -
‘‘वो कलीम बे-तजल्ली, वो मसीह बे-सलीब
नीस्त पैगंबर व लेकिन दर बगल दारद किताब’’
(वह प्रकाशहीन आप्त कथन, वह बिना सलीब का मसीहा, नहीं है पैगंबर वह पर उसकी बगल में उसकी किताब है)

इकबाल की शैतानों की मजलिस में जिस खुदा के बिना नूर के ही कलमा कहने वाले, बिना सलीब के मसीहा और पैगंबर न होने पर भी बगल में एक किताब दबाए यहूदी पर चिंता जाहिर की जा रही थी, वह कोई और नहीं कार्ल मार्क्स ही था। वही मार्क्स, जिसकी प्रेरणा से  कभी इकबाल ने ही लिखा था -
‘‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो’’ ।

इसीलिये जब आज कोई मार्क्स की विफलताओं का जिक्र करता है कि वे फलाना बात को नहीं देख पाएं, फलाना चीज को नहीं समझ पाएं, उनके विचारों के आधार पर तैयार हुई समाजवादी सरकारें पूरी तरह से बेकार साबित हुई, यहां तक कि उनके अनुयायियों के राज्यों ने ही गैर-समानतापूर्ण समाज के विकास का, पूंजीवाद का रास्ता पकड़ लिया आदि, आदि तो इस पर सबसे पहला सवाल यही उठाया जाना चाहिए कि किसी भी विचार की सफलता या विफलता से आपका तात्पर्य क्या है ? संसदीय जनतंत्र की तमाम विफलताओं के बावजूद उसी रास्ते पर सदियों तक ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन कम्युनिस्ट विचारों के समाजवादी प्रकल्पों की विफलता का मतलब है कि अब उन विचारों पर अमल की कोई कल्पना करना भी अपराध है ! यह एक प्रकार की रूढ़ि नहीं तो और क्या है ? जो चल रहा है, उससे इतर सोचना सबसे बड़ा गुनाह है ! अर्थात अच्छाई का अपना कोई स्वायत्त सत्य नहीं होता, वह महज किसी बुराई के खिलाफ एक लड़ाई होती है ! इसीलिये रूढ़िवाद मार्क्सवाद को खारिज करके विचारों के क्षितिज के ही बाहर कर देने की जिद में हैं, न कि मार्क्सवाद के निरंतर सामाजिक प्रयोगों की निष्ठा में ।

कौन नहीं जानता कि गणित के न जाने कितने प्रमेय बिना किसी सटीक सिद्धांत (उपपत्ति) पर पहुंचे ही सदियों तक गणितज्ञों को प्रेरित करते रहते हैं और साल-दर-साल के निरंतर प्रयत्नों के बाद ही उनकी कोई त्रुटिहीन उपपत्ति मिल पाती है । लेकिन इसके चलते कभी भी उन प्रमेयों को बिना प्रयत्नों के त्याग नहीं दिया जाता है । उसी प्रकार राजनीति और मानव के समाज-विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव मुक्ति के किसी भी प्रमेय को त्याग देने में कोई बहादुरी नहीं है । इसके विपरीत इन प्रयत्नों में विफलताओं की शिक्षाओं और उनके तात्पर्यों की प्रक्रिया में ही मानव प्रगति के प्राण बसते हैं । कम्युनिस्ट विचारक एलेन बाद्यू ने अपनी पुस्तक 'कम्युनिस्ट परिकल्पना' में सही कहा है कि “यदि किसी भी परिकल्पना को त्याग नहीं दिया गया है तो उसकी विफलताएं ही उस परिकल्पना के सत्य का इतिहास कहलाती है ।”

कम्युनिस्ट परिकल्पना के बारे में बाद्यू कहते हैं कि व्यवहारिक राजनीति में विचार के सत्य के साथ ही संगठनों और कामों का महत्व होता है । सिर्फ कुछ नामों, मार्क्स, लेनिन, माओ के जाप या क्रांति, समाजवाद, सर्वहारा आदि की बड़ी-बड़ी बातों और जनवादी केंद्रियता, सर्वहारा की तानाशाही की तरह के सिद्धांतों के बखान से कुछ हासिल नहीं होता है । उल्टे इन सबके अतिशय प्रयोग से ये राजनीति में और भी खोखले और महत्वहीन होते जाते हैं । इनमें से अधिकांश चीजें तो कोरे प्रचार के लिये, अपनी हवा बांधने भर के लिये भी होती है । दैनंदिन वास्तविक राजनीति में इन खास प्रकार की बातों की कोई स्वीकृति नहीं है । इनसे सिर्फ इतना पता चलता है कि इनसे जुड़े सत्य का काम जारी है । अन्यथा व्यवहारिक राजनीति के लिये इनका कोई मायने नहीं है ।

इसीलिये मार्क्सवाद के व्यवहारिक प्रयोगों के बारे में माओ त्से तुंग की इस बात का सबसे अधिक महत्व है कि 'साम्राज्यवादियों और प्रतिक्रियावादियों का एक ही तर्क हैं कि जीवन में परेशानी पैदा करो, विफल हो जाओ और फिर परेशानी पैदा करो । लेकिन मुक्तिकामी जनता का तर्क है कि लड़ो, विफल हो, फिर विफल हो, फिर लड़ो, जब तक विजयी नहीं हो जाते । मुक्ति हासिल नहीं कर लेते ।'

समाजवाद की विफलताओं को मार्क्स और मार्क्सवाद की विफलताओं के रूप में देखने के बजाय मार्क्स के द्वारा शोषणविहीन समाज के निर्माण की जो दिशा दिखाई गई, उस दिशा में यात्रा के इतिहास के चरणों के रूप में उन्हें लिया जाना चाहिए । धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ही हम कह सकते है कि विमर्श की दृढ़ता ही पूजा है । परमेश्वराभेदप्रतिपत्तिदाढर्यसिद्धये पूजाक्रिया उदाहरणीकृता । कम्युनिस्ट राजनीति में निवेदित प्राण क्रिया और सारे कारको को एक समतावादी समाज की दिशा में देखने के भाव में ही रहने का अभ्यस्त होता है । कह सकते हैं कि उसके लिये कर्त्ता, कर्म, करण, अपादान, सम्प्रदान और अधिकरण आदि के भेद भेद नहीं रहते, अभेद हो जाते हैं ।

अगर मनुष्यता के इतिहास को उसकी मुक्ति के इतिहास की दिशा देनी है तो मार्क्सवाद ही उस पथ का सर्वशक्तिमान, सार्वलौकिक सत्य है । यह किसी खास सामाजिक परिवर्तन का निश्चित  स्वरूप नहीं, उस परिवर्तन के नियम का सिद्धांत है । और इसीलिये, आज भी जब कहने के लिये दुनिया में पुराने प्रकार का एक भी समाजवादी राज्य नहीं रह गया है, मार्क्स की शिक्षाएं पूंजीवाद के तमाम झंडाबरदारों को हमेशा अपने पर लटक रही तलवार की तरह सताती रहती है ।

-अरुण माहेश्वरी


शनिवार, 1 जून 2019

मन की संरचना और आधुनिक मनुष्य का आत्म-अलगाव


—अरुण माहेश्वरी


'कथा' पत्रिका के सद्य प्रकाशित 22वें अंक में मुक्तिबोध के बारे में रामजी राय का एक लेख है — 'आत्म-अलगाव (एलिअनेशन) का प्रश्न और मुक्तिबोध' । इस अंक के प्राप्ति-स्वीकार के तौर पर फेसबुक पर अपनी एक छोटी सी पोस्ट में हमने लिखा था —
“कोलकाता लौटने पर ही हमें ‘कथा’ पत्रिका का नया अंक मिला, दुर्गा सिंह और सस्या के संयुक्त संपादन में, मार्कण्डेय जी के रुचि बोध की छाप लिये सज्जा के साथ । अनुक्रम पर नज़र डाली और एक साँस में ‘अपनी बात’ के तहत महादेवी वर्मा का नोट ‘इतिहास और परंपरा’ पढ़ गया।

“विकास के अनादि क्रम में मनुष्य, केवल कर्म की दृष्टि से ही नहीं, अपने दर्शन, चिंतन, आस्था आदि की दृष्टि से भी किसी ऐसी परंपरा की सुनहरी कड़ी है, जिसका एक छोर अतीत में तथा दूसरा भविष्य में अलक्ष्य रहता है ।”

मनुष्य की प्राणी सत्ता का यही अन्तर-बाह्य विस्तार उसे प्राणीजगत में विशिष्टता प्रदान करता है । और इसमें सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य में विचार, दर्शन, संवेदन, तथा क्रिया का विशेष क्रम में आवर्त्तन और संवर्त्तन । मनुष्य की निजी प्रकृति का वास्तविक आधार और साक्ष्य । स्वभाव इस आवर्त्तन ( repetition) से तय होता है, न कि किसी एकाकी भाव-भंगिमा या क्रिया से ।

महादेवी जी की इस महत्वपूर्ण टिप्पणी से ही जाहिर होता है मानव प्राणी के विकास के क्रम में उसके अलगाव का रहस्य क्या है । उसका अलक्ष्य विस्तार ही, उसकी सामाजिक मनुष्य की प्रकृति ही उसके अपने आत्म-विलगाव के मूल में है जो सभ्यता के इतिहास के तमाम क्रमों में नाना स्वरूपों में व्यक्त होता है ।

अंक की इस बुनियादी प्रस्तावना के बाद, जैसे इसी की श्रृंखला में आता है रामजी राय का लंबा लेख -‘आत्म-अलगाव (एलिअनेशन) का प्रश्न और मुक्तिबोध’ । अभी हमने इस लेख के दो पेज ही पढ़े हैं और हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि हिंदी में इस आत्म-अलगाव के तत्व की अत्यधिक चर्चा होने के बावजूद यह एक बहुत ही कम समझा गया पद है । इसीलिये इसे मार्क्स के नाम पर महज़ एक ‘ऐतिहासिक अवधारणा’ के रूप में देखने-समझने की रीति चल रही है । इससे मनुष्य की प्राणी सत्ता के अंतर-बाह्य स्वरूप की विशेषता का संदर्भ ग़ायब हो जाता है और इसीलिये पूँजीवादी समाज में इस आत्म-विच्छिन्नता के पहलू में जिस एक नये तत्व का प्रवेश होता है, उसके स्वरूप को ही आदमी के आत्म-अलगाव का एक मात्र स्वरूप मान लिया जाता है ।

महादेवी जी की छोटी सी टिप्पणी से ही इस कमी को समझने के लिये ज़रूरी रोशनी मिल सकती है ।

बहरहाल, रामजी राय के लेख के संदर्भ में बहुत विस्तार से अलग से चर्चा करने की ज़रूरत महसूस हो रही है । इसे यथाशीघ्र किया जायेगा ।”

जाहिर है कि इस टिप्पणी से हमने स्वयं पर एक दायभार लाद लिया कि आदमी के अलगाव के इस अतिचर्चित विषय पर कुछ अलग से विचार किया जाए, मनुष्य के चित्त में इसकी उत्पत्ति और स्थान के मूल को समझने की कोशिश की जाए ।

जहां तक पूंजीवादी समाज की परिस्थितियों में इसमें श्रम शक्ति के रूप में मनुष्य की नई पहचान वाले खरीद-बिक्री के नये क्रियात्मक पहलू के  प्रवेश का सवाल है, सामाजिक विकास के इतिहास से जुड़ी उसकी अपनी एक खास ऐतिहासिकता है, जिसे कार्ल मार्क्स ने बहुत ही कायदे से उठाया है और पूंजीवाद के युग में मनुष्यों के बीच संबंधों की व्याख्या में उसका सटीक प्रयोग किया है ।

पूंजीवादी युग में “सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों और मतों की एक पूरी श्रृंखला होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नये बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं । जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव जीवन के आपसी संबंधों को देखने के लिये मजबूर हो जाता है ।”
मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र के इस कथन पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है । यह 'पूंजीवादी युग' में मनुष्यों के चित्त के विकास में होने वाले अपने किस्म के एक मूलगामी परिवर्तन को परिभाषित करने वाला कथन है । पूंजीवाद का मनुष्य के चित्त पर प्रभाव, ऐसा प्रभाव जो अंततः जीवन के 'आपसी संबंधों' को सभी प्रकार के 'पूज्य पूर्वाग्रहों' अर्थात रूढ़ियों से मुक्त करके मनुष्य को इन संबंधों को 'संजीदा नजर' से देखने के लिये मजबूर करता है । कहना न होगा, चित्त की संरचना में होने वाला यही बदलाव द्वंद्वात्मक रूप से अंततः समाज में क्रांतिकारी मूलगामी परिवर्तनों के लिये भी मनुष्यों को तैयार करता है ।

दरअसल, आदमी की विच्छिन्नता, उसके आत्म-अलगाव का पहलू मनुष्य के चित्त मात्र के विकास की सामाजिक प्रक्रिया से जुड़ा का एक अत्यंत मूलभूत पहलू है । पूंजीवाद इस प्रक्रिया में मनुष्य को श्रम शक्ति में बदल कर उसे अन्य सामाजिक संरचनाओं के प्रभावों की जकड़ से बाहर कर देता है, उसे पूंजी का गुलाम बनाने की प्रक्रिया में श्रम बाजार का एक स्वतंत्र पंछी भी बनाता है । उसे समाज में अन्य के साथ संबंधों के बल पर नहीं, अपनी खुद की श्रमशक्ति के बल पर रहने की जमीन और उससे जुड़ा अपनी अस्मिता का अवबोध प्रदान करता है । उस पर उसकी सामाजिक अस्मिता से जुड़े बाकी सारे सामाजिक दबावों को कमजोर कर देने की एक भौतिक जमीन तैयार करता है । इसप्रकार, मानव मुक्ति की दिशा में यह मुक्त मनुष्यों के निर्माण का रास्ता खोलता है । मनुष्य स्वातंत्र्य के अपने शिवप्रकाश में विलय की दिशा में अनेक पूर्वाग्रहों से मुक्त, कहीं ज्यादा उनमुक्त और अबाध गति से बढ़ने में सक्षम होता है, लेकिन पूंजी का गुलाम !

इस पूरे विषय पर हम चाहते हैं कि और भी ज्यादा मूलगामी दृष्टि से थोड़ा विचार किया जाना चाहिए । इस प्रकार के आत्म-अलगाव की व्युत्पत्ति के मूल स्रोतों की समझ कायम की जानी चाहिए । मनुष्य के अहम् से जुड़ें चित्त के उदय और विकास की एक समग्र समझ कायम की जानी चाहिए ताकि चित्त के विकास में आत्म-अलगाव के पूंजीवादी युग के नये पहलू के प्रवेश को सिर्फ कोई ऐसी ऐतिहासिक अवधारणा न मान लिया जाए, जिसे मनुष्य के चित्त पर ऊपर से आरोपित कर दिया गया है । मानव मन की प्राकृतिक गति भी ऐसे तमाम पहलुओं को ग्रहण करने के लिये तैयार होती है । यह समग्र रूप से आदमी के मन के विकास के विज्ञान का विषय भी है और इसे सही रूप में समझने के लिये मनोविश्लेषण के उन सिद्धांतों से ज्यादा मदद मिल सकती है जो मार्क्स की तरह समाज के विकास के बजाय आदमी के मन के विकास के नियमों के सिद्धांतों का निरूपण करते हैं । भारतीय तंत्रशास्त्र की तरह ही मनुष्य के आत्म के निर्माण और विस्तार के सिद्धांत पेश करते हैं ।

इस मामले में हम खास तौर पर विश्व प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमेंड फ्रायड के अब तक के सबसे योग्य और उनके विश्लेषणों को चित्त के विकास के सार्वभौम नियमों के स्तर तक ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जॉक लकान के सिद्धांतों पर अपने को केंद्रित करना चाहेंगे ताकि हम आदमी के चित्त की संरचना के उन पहलुओं को जान सके जिनमें उसकी आत्म-विच्छिन्नता की एक प्रकार की प्राकृतिक प्रक्रिया पूंजीवाद-प्रदत्त परिस्थितियों में खास प्रकार से क्रियाशील होती है, मनुष्य को पवित्रता की तमाम पूर्वधारणाओं से काट कर उसे स्वतंत्र बाजार के पूंजी से आबद्ध प्राणी का स्वरूप प्रदान करती है । मनुष्य की इस नई प्राणीसत्ता के स्वरूप के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू क्या हैं या हो सकते हैं, इसे हम अभी थोड़ा अलग रखते हैं । मानव चित्त के विकास के क्रम की श्रृंखला में यह एक सर्वथा नई कड़ी है, जिसे कार्ल मार्क्स ने समझते हुए ही इसकी बुनियाद पर आगे के नये समाज में मनुष्य की सामाजिक और व्यक्तिगत भूमिका और बराबरी के आधार पर नये आपसी संबंधों के निर्माण की साम्यवादी समाज की पूरी परिकल्पना पेश की थी ।

कहने का तात्पर्य यह है कि यहां हम इस विषय को कुछ भिन्न मानव मन के आदिम धरातल से उठाना चाहते हैं, जिसके बारे में शायद हिंदी में बहुत कम चर्चा हुई है और इसीलिये उतनी समझ भी नहीं है ।

शास्त्रीय संदर्भ

जब भी हम आदमी के मन या चित्त की कल्पना करते हैं, हमें उसका शुद्ध रूप एक अनादि, अनंत, अपौरुषेय शून्य ही जान पड़ता है । यह पूरी तरह से बोधमूलक होता है । शास्त्रों में वेद को भी अनादि, अपौरुषेय और बोधात्मक कहा गया है । हमारे करपात्री जी महाराज तो वेद की नित्यता की चर्चा करते हुए भी उसे किसी घटना विशेष, इतिहास से जोड़ कर देखने की जरा सी कोशिश के भी सख्त विरोधी थे ।1(अनन्तश्रीस्वामिकरपात्रमहाराजाः, वेदार्थपारिजात:, खंड 2, पृष्ठ — 909) इस प्रकार,  मनुष्य का शुद्ध चित्त और वेद पर्याय माने जाते हैं । आदमी के चित्त का ढांचा उसमें ज्ञान, इच्छा और क्रिया के जिस क्रम के योग से बनता है उसके प्रथम बिंदु ज्ञान अर्थात् जानकारी के बारे में हमारे वाक्यपदीयकार भृतहरि कहते हैं कि —
“न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते” ।
अनुविद्धमिव ज्ञान सर्व शब्देन भासते ।।”
(अर्थात् लोक में ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं जो बिना शब्द की सहायता से हो सकता है । सारा ज्ञान शब्द के द्वारा प्रकाशित होता है ।)2(The Vakyapadiya, K Raghavan Pillai, Motilal Banarsidass, 1971, page – 28)

हम वेद की नित्यता और अपौरुषेयता की जितनी भी चर्चा कर लें, वास्तविकता यही है कि वेद भी अतीन्द्रीय शब्दात्मक सूक्ष्म ज्ञान विशेष कहे जाते हैं, भले ही वे वाचित हो या अवाचित (आम्नात या अनाम्नात) अखंड वेद के अंश के अनुकार मात्र ही हो । गौर करें —'शब्दात्मक सूक्ष्म ज्ञान' । मनुष्य के लिये समस्त जगत उसके चित्त के अक्श के बाहर नहीं होता, जिसकी वजह से अपौरुषेय अनादि प्राकृतिक ध्वनियों के शब्दाकार को ही इस जगत के स्रष्टा कहा जाता हैं ।

वाक्यपदीयकार कहता है —'शब्द ही ब्रह्म है' ; अर्थात आदमी के संदर्भ में उसके चित्त की शब्दाकार निर्मितियों और जगत के निर्माण की प्रक्रिया में कोई भेद नहीं है । ब्रह्मांड यदि निरंतर विस्तारवान है तो मनुष्य का आत्म भी अनंत और निरंतर विस्तारवान होता है । लेकिन फिर यह सवाल शेष रह जाता है कि अगर विस्तार है तो संकुचन भी है, तो फिर ठहराव भी होगा ही — इस प्रक्रिया के असंख्य रूप हो सकते हैं । यह सारा व्यापार किसी निश्चित लकीर से बंधा नहीं होता है । विघ्न के अतिरिक्त भटकाव भी होते हैं । तो आखिर इन सब अनंत भेदों की वजह क्या है ?

तन्त्र का अर्थ है विस्तार, आत्म के विस्तार की एक निश्चित क्रमिक प्रक्रिया । जब आत्म के विस्तार की प्रक्रिया तय है फिर संकुचन को भले आप परमशिव की स्वेच्छया स्वातंत्र्य क्रिया कह लें, लेकिन वह विस्तार की प्रक्रिया में एक वास्तविक रुकावट अथवा गतिरोध तो है ही । यहां तक कि इस प्रक्रिया में स्खलन और इसमें भटकाव के सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है । इसीलिये, तंत्र यदि मनुष्य को उसके आत्म के विस्तार के पथ का दिग्दर्शन कराता है तो इसी क्रम में उसके आत्म में ठहराव और भटकाव के बिंदुओं का संधान भी देता है । अर्थात तंत्र में मन है, मन का संकुचन और विस्तार है तो मन का भटकाव और जिसे मनोरोग कहते हैं, वह भी है ।

भारतीय तंत्रशास्त्र ने हजारों साल के सूक्ष्म अवलोकनों से मन की इन सारी गतियों पर बेहद गहराई से दृष्टिपात करते हुए इसे परमार्थिक संदर्भों से जोड़ कर दर्शनशास्त्र के उन ऊंचे शिखरों तक पहुंचा दिया था, जहां से कश्मीरी शैवमत के शीर्षस्थ पुरुष अभिनवगुप्त (सन् 950-1016) ने विपुल आगम साहित्य पर टिके शैवदर्शन से हजारों सालों की अन्य सभी भारतीय दर्शन की धाराओं को बौना कर दिया । शैव दर्शन को भोग और मोक्ष दोनों, अर्थात मनुष्य के बाह्य क्रियाकलापों और अन्तर के कार्यों, दोनों से जोड़ कर वस्तुतः उस जमीन को तैयार कर दिया गया था जिसे पश्चिमी दर्शनशास्त्र की दीर्घ परंपरा के उपरांत हम कार्ल मार्क्स (5 मई 1818 — 14 मार्च 1883) के जरिये द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रूप में चरितार्थ होते देखते हैं । सच्चा भौतिकवाद । यह न पदार्थ की प्राथमिकता पर टिका है और न ही पदार्थ को प्रथम सिद्धांत मानने पर । भौतिकवाद की सच्चाई भौतिक वस्तु की स्वतंत्र उपस्थिति से प्रमाणित नहीं होती है । बल्कि, यह द्वंद्व, दरार और इससे बनने वाले यथार्थ के अवभास की धारणा पर टिकी है । इसका संबंध यथार्थ में पड़ने वाली दरारों के साथ होता है । मनुष्य के अन्तर-बाह्य का दर्शन ; इतिहास के संदर्भ में पौर्वापर्य विवेचन की विचारधारा । किसी भी परिघटना में क्रम की एक श्रृंखला तैयार होती है । उस श्रृंखला की हर कड़ी के अंदर के सूक्ष्म छिद्रों, दरारों से हमेशा किसी चमत्कार, सर्जनात्मक स्फोट अथवा ऐतिहासिक परिवर्तन की घटना के क्रांतिकारी बिंदु प्रकाशित होते हैं । मार्क्स ने उन्हें पकड़ कर ही सामाजिक संबंधों के एक महाजाल और उसमें परिवर्तन के तत्वों की सिनाख्त करके उसके नियमों का एक ऐसा क्रमवार सिद्धांत पेश किया जिसमें तमाम आकस्मिकताओं, मूलगामी परिवर्तनों की भूमिका को भी साफ देखा जा सकता है ।

 
आधुनिक संदर्भ

बहरहाल, यहां हमारा विषय दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र या क्रांति का विज्ञान भी नहीं है । भारतीय तंत्र की चर्चा यहां अनायास ही मन की समस्याओं की चर्चा के संदर्भ में एक प्रकार से प्रारंभिक मंगलाचरण के रूप में ही आई है । तंत्र में चर्चित मन अथवा चित्त ही वह विषय है जिसके अनुसंधानात्मक निरूपण पर पश्चिम के मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) की पूरी इमारत खड़ी है और जिसकी आधुनिक काल में एक बहुत ही पुख्ता नींव तैयार करने वाला और कोई नहीं, आस्ट्रिया के स्नायुतंत्र के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सेगमंड फ्रायड (6 मई 1856 — 23 सितंबर 1939) थे । मनोरोगियों से संवाद के जरिये मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा की उनकी पद्धति ने स्वयं में उसी प्रकार के एक शास्त्र की रचना कर दी कि जिसे भारतीय दर्शन की परम अमूर्तनता से उत्पन्न गतिरोध की स्थिति में तंत्र की तरह ही पश्चिमी दर्शनशास्त्र के गतिरोध को तोड़ने के भी एक नये मार्ग का खुलना माना जाता है । यह आधुनिक विज्ञान के युग में गुरू के द्वारा महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं (मन के अंदर की परत-दर-परत बाधाओं, ग्रंथियों और गांठों) के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को, फ्रायड के 'अवचेतन' को खींच कर बाहर स्थित करने का नियम और एक अनोखी पद्धति है ।

फ्रायड की परंपरा को ही आगे बढ़ाते हुए फ्रांस में मनोविश्लेषण की दुनिया में जॉक लकान (13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981) के रूप में एक और ऐसे व्यक्तित्व का उदय हुआ जिसके साथ आज की दुनिया के ऐलेन बाद्यू और स्लावोय जिजेक के स्तर के सर्वाधिक चर्चित और दर्शनशास्त्र की दुनिया के अंधेरे में एक नई रोशनी के साथ आगे बढ़ने का रास्ता दिखाने वाले मार्क्सवादी दार्शनिक अपने को जोड़ कर गौरवान्वित महसूस करते हैं ।

जॉक लकान ने खुद अपने एक सेमिनार में मनोविश्लेषण के ऐतिहासिक विकास की चर्चा करते हुए इसे वस्तु के साथ, हेतु, जीवन के लक्ष्य (object) के साथ आदमी के संबंध का विषय बताया था । फ्रायड के हवाले से वे कहते हैं कि यह विश्लेषण विश्लेषण में मौजूद दो व्यक्तियों, विवेच्य(analysand) और विवेचक (analyst) के बीच के संबंधों के एक जटिल ढांचे में सम्पन्न होता है । इसी में वे फ्रायड पर केंद्रित अपने सेमिनारों के तीन साल के विषयों का क्रमवार जिक्र करते हैं जिसमें पहले साल उन्होंने चिकित्सा के तकनीकी प्रबंधों की बातों को बताया था, दूसरा साल फ्रायड के अनुभवों और अवचेतन की उनकी खोज की बुनियाद पर केंद्रित किया था जिसके चलते फ्रायड ने अपने उन सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत सिद्धांतों को पेश किया जो उनकी पुस्तक 'Beyond the Pleasure Principle' में रखे गये थे । यह फ्रायड की आनंदवाद से, चित्त के उद्वेलन के आत्मवाद से निकल कर 'अन्य' के साथ संबंध के विषय पर आधारित अवचेतन की द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत की ओर यात्रा थी । लकान ने 'फ्रायड के पाठों पर टिप्पणी और आलोचना के तीन साल' के अपने सेमिनार के अंतिम, तीसरे साल में चित्त के तमाम प्रतीकात्मक तंतुओं (symbolism) से उनके निदेशक (signifier) तत्व को अलग करके देखने की सबसे बड़ी जरूरत को पेश किया था ताकि “मनोरोग की अवस्था में मन में जो भी भयजनित बाधा या गांठ हो, उसे समझा जा सके ।” (The seminar of Jacques Lacan, Book IV, Edited by Jacques-Alain Miller, The object Relation 1956-1957, Page – 1-2)

यह वही बात है जिसका तंत्र के संदर्भ में हमने ऊपर जिक्र किया है —  'महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को खींच कर बाहर स्थित करने की पद्धति' ।

मनोविश्लेषण के वर्तमान सामाजिक संदर्भ

मानव जीवन के समग्र सांस्कृतिक परिदृश्य में अधुनातन तकनीक के प्रयोग से आए मूलभूत परिवर्तनों का हमें पूरा अंदाज है । इस काल में कोई भी नई विचार पद्धति सामंती काल में जमीन की स्थिरता से जुड़े हजारों साल के स्थिर जीवन के अवलोकन पर टिकी हुई उतनी स्थिर नहीं रह सकती है, जिसके बारे में मार्क्स ने 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में ही कहा था — “उत्पादन प्रणाली में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चयता और हलचल — ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती है ।”

यह उत्पादन के साधनों में हर दिन क्रांतिकारी परिवर्तनों के कारक, पूंजीवाद का काल है जिसमें पूर्व की सैकड़ों सालों की दूरी चंद घंटों में तय की जाती है । इसीलिये जिन नतीजों पर भारतीय तंत्रशास्त्र को पहुंचने में हजारों साल लगे, आज के काल में आदमी के चित्त से जुड़ी कोई भी विश्लेषण पद्धति उस रफ्तार से नहीं चल सकती थी ।

आज के युग को माध्यमीकृत (mediatized) संस्कृति का युग कहा जाता है । दृश्य संस्कृति का युग । इसीलिये हमारे सामने यह स्वाभाविक सवाल पैदा होता है कि इस दृश्य संस्कृति के अधुनातन जटिल युग की वे कौन सी लाक्षणिकताएं फ्रायड से लेकर लकान तक में उभर कर सामने आई हैं जिनके चलते आज के तत्व-मीमांसा और ज्ञान-मीमांसा के केंद्र में फ्रायड और लकान को पाया जाता है और नया दार्शनिक और बौद्धिक विमर्श मार्क्स के बाद इनके इर्द-गिर्द ही मूलत: केन्द्रित होता चला जा रहा है ?

पुन: हम यहां दोहरायेंगे कि यहां हम जॉक लकान पर ही अपने को केंद्रित करना चाहते हैं, क्योंकि उनके जरिये न सिर्फ फ्रायड की स्थापनाएँ अपने आप ही हमारे विचार का विषय बनती चली जायेगी, बल्कि चित्त के निर्माण और विकास के जिस पहलू को हम उसके मूलभूत तात्विक रूप में समझना चाहते हैं, वह अच्छी तरह से खुल पायेगा । वैसे लकान खुद अपने विश्लेषणों से नि:सृत अपनी हर स्थापना को फ्रायड की स्थापना के प्रमाण और विस्तार के रूप में ही देखा करते थे ।

हमने चित्त के संदर्भ में ही आज के समय की चर्चा माध्यमों के युग के रूप में की है, दृश्य-प्रधान युग के रूप में । दृश्य से ही जुड़ा हुआ है संस्कृत का शब्द — दृष्ट, अर्थात ज्ञात, हमारे सांख्य दर्शन का 'प्रत्यक्ष प्रमाण' । साक्षात दिखाई देने वाला, गोचर । यही प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हाइडेगर के चिंतन का एक प्रस्थान बिंदु है — Dasein । (देखें, मार्टिन हाइडेगर, Being and Time ; “All research … is an ontical possibilty of Dasein”) जॉक लकान इसी मायने में फ्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आगे की कड़ी है क्योंकि उन्होंने उनके सिद्धांतों के इसी दृष्ट के आयाम को, आज के काल के दृश्य कलाओं के सर्व-व्यापी आक्रामक दौर में, नाना रूपों, बिंबों, छवियों और कला के आयामों पर आधारित करके विकसित किया था । हाइडेगर के Dasein की तरह ही वे मनोविश्लेषण के मूल में विभ्रमों के प्रकट लक्षणों, अर्थात उनके दृष्ट रूपों के प्रति जितना अधिक आग्रही थे, उतना ही प्राणीसत्ता (being) की तात्विकता की तरह उसके अदृष्ट, परा-तत्व,  'प्रेत के चित्त', फ्रायड के 'अवचेतन' के भी अक्लांत संधानी रहे । लकान की इसी विशेषता ने न सिर्फ लकान को बल्कि मनोविश्लेषण की पूरी धारा को ही दर्शनशास्त्र के आगे की कड़ी के रूप में स्थापित किया है ।

लकान के विश्लेषण के औजार और उनकी महत्ता

जॉक लकान के जीवन से परिचित लोगों ने इस तथ्य को नोट किया है कि पैरिस के बौद्धिक जगत में एक आला दर्जे के मनोविश्लेषक के रूप में प्रसिद्ध लकान की मित्र मंडली में तत्कालीन पैरिस के सांस्कृतिक जगत की हस्ती माने जाने वाले आधुनिकतावादी चित्रकार सल्वाडोर डाली के अलावा  मार्शे डुसाम्प और आन्द्रे मैसोन (जो उनकी पत्नी के भाई) भी शामिल थे । आंद्रे ब्रेतां और सल्वाडोर डाली तो उनके अभिन्न मित्र माने जाते थे । एक समय वे पाब्लो पिकासो के निजी चिकित्सक भी रहे । कलाकारों की मंडली में ही उनकी उठ-बैठ हुआ करती थी ।


लंबे समय तक पैरिस के बौद्धिक जगत में लकान की पहचान कला कृतियों के उत्साही संग्रहकर्ता, वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला और फिल्मों पर, पाषाणयुग की प्राचीन गुफाओं से लेकर मध्ययुग के गिरजाघरों तथा रैनेसांस से लेकर समकालीन कला तक पर पत्र-पत्रिकाओं में गाहे-बगाहे टिप्पणियां करने वाले कला समीक्षक के रूप में भी रही । (देखें -Steven Z. Levine : Lacan Reframed, 2008, I.B.Tauris & Co. Ltd, London)

इस मामले में यह माना जा सकता है कि लकान को कला-प्रेम भी मनोविश्लेषण की तरह फ्रायड के कला-प्रेम से ही जैसे विरासत के तौर पर मिला था । फ्रायड ने लियोनार्दो द विंची के बचपन पर उनकी कलाकृतियों का विश्लेषण करते हुए एक पूरी किताब ही लिखी थी — Leonardo da Vinci and A Memory of His Childhood (1910) । फ्रायड जब हिटलर के काल में वियेना से भाग कर लंदन आकर बसे थे (6 जून 1938) तब कहा जाता है कि वे अपने साथ कलाकृतियों का एक अच्छा खासा खजाना भी लेकर आए थे । (देखें जोनाथन जोन्स का लेख — Art on the couch: when Sigmund Freud examined Leonardo da Vinci
The father of psychoanalysis was also an inspiring writer on art – but do his ideas stand the test of time?) फ्रायड ने लियोनार्दो द विंची के साथ ही मीकेलेंजोलो बनोरोती की कलाकृतियों पर लेखन किया था, जिसकी तब काफी चर्चा भी रही थी ।

 
1930 से 1981 तक की आधी सदी के काल में जब लकान फ्रायड की तरह ही बाकायदा एक व्यवहारिक मनोविश्लेषक और चिकित्सक का काम कर रहे थे, उन्होंने अपने विश्लेषणों के विशाल कर्त्तृत्व के जरिये मनोविश्लेषण के सिद्धांत और व्यवहार की जो कठिन और लंबी यात्रा तय की, उन सब विश्लेषणों में वे अक्सर दृश्य कलाओं से ही तमाम उदाहरणों का सहारा लिया करते थे । जाहिर है कि उनका यह प्रशिक्षण भी उनके गुरू सेगमंड फ्रायड के माध्यम से ही हुआ था ।

इस प्रकार, लकान ने फ्रायड के काम को जितना भी आगे क्यों न बढ़ाया हो, उनके कामों को देखते हुए यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि वास्तव में वे सारी जिंदगी अपने गुरू के ही मूलभूत विश्लेषणों और स्थापनाओं को जांचते-टटोलते रहे ; उनकी कमियों को दूर करने अथवा उनके निष्कर्षों को अद्यतन करने के काम में लगे रहे । आज भले ही स्लावोय जिजेक, ऐलेन बाद्यू की तरह के दार्शनिक अपने को लकानपंथी कहते हैं, लकान खुद घोषित तौर पर हमेशा फ्रायडपंथी ही रहे ।
 
लकान के अंतिम तीस साल के सेमिनारों के भाषणों को लिप्यांतरित करके उनके भाषणों और लेखों का कई खंडों में संकलन फ्रेंच भाषा में 1966 में प्रकाशित हुआ था जो अंग्रेजी में 1977 में आया । इन भाषणों में अनायास ही कला कृतियों के विश्लेषणों के अनेक संदर्भ आते हैं जिन पर उन्होंने अलग से कभी विस्तार से नहीं लिखा था । इस प्रकार के संदर्भों से उनका पूरा लेखन बेहद गर्हित, सांद्र और कठिन भी होता चला गया । लकान इन सारे संदर्भों का पेरिस में मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों, कवियों, चित्रकारों और अन्य जिज्ञासु श्रोताओं से भरे सेमिनारों (1953-1980) में भरपूर इस्तेमाल किया करते थे और श्रोता उनके भाषणों के बहुस्तरीय गहन स्वरूप पर मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे । कहा जाता है कि उन सेमिनारों में उनके चमत्कृत करने वाले वक्तव्यों के पाठ से पैदा हुई जिज्ञासाओं के चलते श्रोताओं में उनके आगे के विश्लेषणों से समृद्ध होने की भारी ललक पैदा होती थी और उनके सेमिनारों को सुनने वालों की भीड़ लगातार बढ़ती ही जाती थी ।
 
मार्क्सवादी दार्शनिक लुई आल्थुसर ने 1964-68 के काल में उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठित पैरिस केंद्र (Parisian centre of higher learning) में उनके कई सेमिनार कराए थे, लेकिन जब 1968 के मई महीने में लकान ने फ्रांस के छात्रों के ऐतिहासिक संघर्ष को अपना खुला समर्थन दिया, तबसे उन्हें उस संस्था के कक्ष में सेमिनार करने से रोक दिया गया । इसके बाद विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक मानवशास्त्री (Cultural Anthropologist) लेवी स्ट्रास लकान के जीवन के अंतिम काल तक उन्हें पैरिस विश्वविद्यालय में कानून की कक्षाओं में सेमिनारों के लिये के बुलाते रहे ।

1950 से 1970 के दशकों के दौरान लकान के कामों पर आलोचनात्मक दृष्टि से नजर रखने वालों में जो प्रसिद्ध फ्रांसीसी बुद्धिजीवी शामिल थे उनमें दृष्ट की अवधारणा से संबद्ध अस्तित्ववादी परिघटना के अध्येता मौरिस मार्ले पौंटी, साहित्य और संस्कृति के जगत के लाक्षणिकतावादी आलोचक रोलाँ बार्थ, मनुष्य के ज्ञान और सत्ता के इतिहासकार मिशैल फुको, भाषा के विखंडनवादी दार्शनिक जॉक दरीदा, स्त्रीवादी आलोचक और पैरोकार लूसे इरिगेरे, हेलेन सिकोस और जूलिया क्रिस्तेवा जैसे अनेक लोग शामिल थे । आल्थुसर के छात्र और लकान के दामाद जॉक ऐलेन मिलर को 1973 में लकान के सेमिनारों के लिप्यांतर और संपादन का काम दिया गया था जो आज तक पूरा नहीं हुआ है । अब तक फ्रेंच भाषा में उसके 26 खंडों में से 14 खंड प्रकाशित हो चुके हैं और अंग्रेजी में सात खंड ।

लकान के इस बेहिसाब कठिन लेखन को आम तौर पर दृश्य कला के छात्र बड़े चाव और गंभीरता से पढ़ा करते हैं । इसका एक प्रमुख कारण किसी भी बौद्धिक की तरह ही यह भी रहता है कि वे इसके जरिये जीवन को और उसे जीने के तरीकों को जानना चाहते हैं । यह किसी भी मानव प्राणी के लिये एक बुनियादी महत्व का विषय है । जीवन की ठोस परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, मनुष्य उनमें जीने के लिये कैसे अपने मन को तैयार करते हैं, लकान के सेमिनारों से इस सवाल के ही बहुत रचनात्मक जवाब मिलते हैं, क्योंकि हम जिस प्रकार जी रहे हैं, इन सेमिनारों में वे वस्तुतः उसीका विश्लेषण पेश किया करते थे । यही हमें यह भी बताता है कि पूंजीवादी युग में आत्म-अलगाव का असली मायने क्या होता है ।

इस धरती के अन्य प्राणी अपने पर्यावरण के अनुरूप उससे ताल-मेल बैठाते हुए कैसे जीए, इसे वे जानते हैं । लेकिन अकेला मानव प्राणी है जो इस बात को नहीं जानता क्योंकि वह नैसर्गिक तौर पर ही सिर्फ अपने प्रकृत परिवेश के दायरे में नहीं जीता है । लकान कहते थे कि हमारे प्राणी जगत में मानव प्राणी एक मात्र है जो अनिवार्य तौर पर समय पूर्व (premature) पैदा होता है ।  उसका पूरा निर्माण उसके परिवेश के दृश्यों-छवियों से हुआ करता है । 

हम हमेशा वास्तुकला, चित्रकला, फिल्म, फैशन की बदलती हुई शैलियों में अपने जीवन को नाना रूपों में बनते-बिगड़ते हुए देखते हैं । इससे हम यह कह सकते हैं कि हमारा पर्यावरण प्रकृति की तरह ही कहीं न कहीं इन तमाम दृश्य कलाओं से भी निर्मित होता है और हमारे मानस को निर्मित करने में इनकी एक बड़ी भूमिका होती है ।

इस प्रकार, हम अपने को हमेशा एक जटिल सांस्कृतिक परिवेश से घिरा पाते हैं जो हमें जन्म के साथ अपने बुजुर्गों से, माता-पिता से मिलता है । सेक्स की एक प्राणी मात्र से जुड़ी सार्विक (universal) प्रक्रिया के बीच से x y क्रोमोजोम्स के मेल से गर्भ में पैदा होने और धरती पर आने के बाद बहुत जल्द हम जैसे ही अपने मन से स्वतंत्र रूप में कोई काम करते हैं, तभी हम अपने जीवन में एक प्रकार के परिवर्तन को अपनाते हैं, अर्थात परिस्थिति का अपने लिये लाभ उठाते हैं । काल के उसी क्षण और भूगोल के उसी स्थान में हम उस जाति-सत्ता की सार्विकता को छोड़ कर, जो हमें अन्य प्राणियों से जोड़ती थी, अपने अहम् (ego) को प्राप्त करते हैं । लकान अपने दीर्घ विश्लेषणों से दिखाते हैं कि मानव मन के निर्माण में असके अहम् की निर्मिति का यह क्षण कोई एक अकेला और कटा हुआ क्षण नहीं है । यह एक प्रकार की निरंतर प्रक्रिया है । उसका अहम् नये सामाजिक संदर्भों में नये तत्वों की जटिलताओं को ग्रहण करता रहता है और पुरातन केंचुल का त्याग भी करता जाता है । मनुष्य की अस्मिता निरंतर कई नए और नवीनीकृत रूप लेती रहती है ।

अस्मिता का प्रश्न

मानव मन के निर्माण की प्रक्रिया के बीच से ही हम देखते हैं कि मानव प्राणी किसी एक व्यापक मानव समूह का अंग मात्र नहीं होते हैं, बल्कि विभिन्न भाषाओं, जातियों, नस्लों, धर्मों, सामाजिक वर्गों, राजनीतिक निष्ठाओँ, पारिवारिक परंपराओं और विभिन्न पंथों में बटे हुए होते हैं । और यहीं से उनके अंदर यह प्रमुख समस्या, एक कशमकश, एक प्रकार का तनाव पैदा होने लगता है कि हम कैसे इन अलग-अलग पहचानमूलक सांस्कृतिक समूहों में शामिल हो, इन समूहों के नये सदस्य कैसे बनें ? सच यह है कि कला और संस्कृति का बहुविध संसार, मनुष्य के बाहर का संसार ही उसके सामने यह समस्या पेश करता है । कहना न होगा, लकान के विश्लेषणों से हमें जीवन और कला के बीच के संबंधों के इन मूलभूत सवालों पर सोचने की प्रेरणा और रास्ता भी मिलता है ।

लकान के प्रति हमारी तमाम जिज्ञासाओं की कुंजी इस बात में है कि हम जो भी सवाल करते हैं, जो जानना चाहते हैं, वे किससे करते हैं और हम किससे उनके जवाब की उम्मीद कर रहे होते हैं । लकान कहते हैं कि हमारे सवाल हमेशा उन अन्य से पूछे जाते हैं जिनके बारे में हम समझते हैं कि वे उनके जवाब जानते हैं । मसलन् माता, पिता, शिक्षक, चिकित्सक, पुजारी, मित्र, प्रेमी, यहां तक कि हमारे दुश्मन भी ।

हमारे अभिनवगुप्त इस 'अन्य' को ही गुरू कहते हैं । हमारे प्रश्नों का प्रथम लक्ष्य । हमारे ये सवाल हमारे उन परिजनों, सामान्य 'अन्यों' से होते हैं जो उस परिवेश का निर्माण करते हैं जिसमें हम जन्म लेते हैं, शिक्षा पाते हैं, जिसमें हम अपनी इच्छा-अनिच्छा से शामिल होते हैं और कई प्रकार के खास शब्दों और मुहावरों में जिन्हें हम अपने को परेशान करने वाले सवालों के जवाबों से देखने की कोशिश करते हैं । 'तुम हम से क्या चाहते हो ? तुम मुझे किस प्रकार के इंसान के रूप में देखना चाहते हो ?' — उन सबसे मन ही मन में इस प्रकार के सवालों के जरिये हम अपने लिये उनके जगत से स्वीकृति पाने की कोशिश करते हैं, और इस प्रकार हम अपने स्तर पर भी हमेशा इन सवालों के दबावों और तनावों को झेलते रहते हैं । अन्यों की हमारे से की जाने वाली अपेक्षाओं से जुड़ा तनाव ही हमारे चित्त को जैसे किसी लेसर बीम की तरह, किसी अदृश्य छैनी की तरह तराशता रहता है । अन्य की 'नजर' का दबाव आदमी पर हमेशा बना रहता है । यह किसी की भी यथार्थ से सीधी मुठभेड़ को असंभव बनाता है ।

लकान को आदमी के अपने इन अस्तित्वीय सवालों का पहला स्पष्टीकरण फ्रायड से मिला था — रोगी की मनोगत तकलीफों को दूर करने की उनकी कोशिशों से, जिन तकलीफों के रहस्यमय शारीरिक प्रभावों का समकालीन चिकित्सा विज्ञान के पास कोई जवाब या निदान नहीं हुआ करता था ।

फ्रायड ने अपने रोगियों की कहानियों से जाना कि उनकी तकलीफें वास्तविक हैं । उनके सवाल आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं । 'मैं आदमी हूं या औरत ?' — एक प्रमादग्रस्त व्यक्ति पूछता है जो पुरुष या औरत की मान्य भूमिका अदा करने से इंकार करता है । 'मैं जिंदा हूं या मर चुका हूं ?' — जुनूनी आदमी यह सवाल करता है । वो सामाजिक तौर पर अपने खास, मन के तयशुदा रास्ते पर चलने पर अड़ा रहता है, उसे छोड़ना नहीं चाहता ।

इन दोनों के ही मुख्य सवालों में एक मूलभूत व्यग्रता होती है — अधिकार-प्राप्त प्रतिनिधियों मसलन् मां-बाप, शिक्षक, बौस, सुपरवाइजर्स, आफिसर, संपादक, आलोचक, मंत्री, रबी, इमाम, शमन, गुरू, पादरी की उनसे की जाने वाली मांगों में निहित उन सबकी अपनी रहस्यमय इच्छाओं, कामनाओं को जानने की व्यग्रता ।

हर व्यक्ति इस बात को लेकर परेशान रहता है कि अन्य उससे क्या चाहता है । जैसे कोई कथाकार या चित्रकार किसी को चरित्र या पात्र बना कर उसे पेश करता है तो उस चरित्र के सामने यह स्वाभाविक सवाल पैदा होता है कि वह लेखक या कलाकार हमसे चाहता क्या है ? जो उन्मादी चरित्र होता है वह अपने से की जाने वाली तमाम उम्मीदों का प्रतिवाद और प्रतिरोध करता है । यह प्रतिरोध अवांगर्द कलाकारों जैसा होता है जो अपने वक्त के कला के मानक नियमों को मानने से हमेशा इंकार करते रहे हैं । इसके विपरीत, जुनूनी आदमी — अथवा संस्कृति की पारंपरिक और अकादमिक दुनिया का आदमी — अन्य की कल्पित कामनाओं में हमेशा इस बात को ढूंढता रहता है कि उसमें सामान्य अनुशासन का पालन किया गया है या नहीं ? उसका बल इस बात पर ही ज्यादा से ज्यादा होता है कि इन मान्य नियमों का शत्-प्रतिशत पालन किया जाना चाहिए । वह एक प्रकार से बिल्कुल अंधा हो कर चली आ रही परंपराओं को पकड़ा रहता है ।

आज मनोचिकित्सा के क्रम में ऐसे रोगियों को मनोविश्लेषक यही सुझाव देते हैं कि न सिर्फ प्रतिरोध करने की जरूरत है और न पूरी तरह से परंपरा और नियमों का पालन, अर्थात न लकीर का फकीर हो कर चलने की जरूरत है  । इसका साधारण सा कारण यह है कि जिस 'अन्य' के बारे में आप सोचते हैं कि वह जीवन के मूलभूत सवालों का जवाब जानता है, ऐसी सर्वज्ञानी-आत्मा का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है जिसकी मान्यताओं को आदमी को अपनी खुद की इच्छाओं के ऊपर तरजीह देना जरूरी हो ।  विश्लेषक के सलाह-परामर्श की एक लंबी और कठिन प्रक्रिया के जरिये वह आदमी अपने को अन्य की कामनाओं की कल्पना से मुक्त करता है और अपनी कामना के अनुसार जीने का रास्ता अपनाता है । हमारे तंत्रशास्त्र में इसे ही स्व छंद को पाना कहते हैं । यह गुरू से मुक्ति की प्रक्रिया है, जिसके सर पर लदे रहने तक आदमी की आंतरिक कसमसाहट का कोई अंत नहीं होता है, उसका व्यक्तित्व दमित ही रहता है ।

यह सच है कि किसी भी मनुष्य के शरीर में उसकी अपनी कामनाओं की स्वतंत्रता के धारण की शक्ति की सीमा होती है । लेकिन यह सीमा व्यक्ति की हो सकती है । सामाजिक शील और नियमों के किसी रूप की नहीं । महान कलाकार इस सत्य को जानते हैं, और इसे जान कर ही वे अपनी इसी शक्ति के अनुरूप उड़ान भरने से चूकते नहीं हैं । उनके काम उन तक ही सीमित नहीं होते हैं । और इस प्रकार वे अन्य जनों की उड़ानों का एक परिप्रेक्ष्य तैयार करते हैं । 

मूलभूत नैसर्गिक वृत्तियों की सख्त जकड़बंदी के बजाय स्वातंत्र्य की संस्कृति के लचीले दायरे में मनुष्य को रखने के लिये ही लकान ने मानवीय अनुभूति की तीन ग्रंथियों (तीन खातों) की तुलना की, जिन्हें सामने रख कर ही हम उनकी मूलभूत स्थापनाओं को समझ सकते हैं । ये है ठोस यथार्थ (Reality) प्रतीकमूलकता (Symbolic) और काल्पनिक (Imaginary) अनुभूतियां । RSI । हमारा सत्, चित्त, आनंद — सच्चिदानंद । हमारी आंखें जब अपने इर्द-गिर्द के अबूझ से चिन्हों को धीरे-धीरे दृष्ट रूप में पहचानती है और दिमागी स्तर पर इनका विखंडन करती है, हम इनसे जुड़े अपने इन त्रिआयामी अनुभवों में ही नाना प्रकार से लिप्त रहते हैं ।

जैसा कि हमने पहले दृष्ट की चर्चा की, लकान इन सारी अनुभूतियों को चित्रात्मक छवियों के रूप में विवेचन का विषय बनाते हैं — लकान की पदावली में निदेशक (signifiers) जिसे उन्होंने स्विस भाषाशास्त्री फर्दिनांद द सौस्योर से लिया है । ये आदमी के दृष्ट की पहचान की ग्रंथी को संचालित करते हैं जिन्हें लकान कल्पना के जगत के तत्वों के तौर पर देखते हैं । शब्दों और वाक्यों के अर्थ भी छवियों के रूप में, मानसिक छवियों के रूप में, जिन्हें निदेशित (signifieds) कहते हैं, प्रकट होते हैं, जो चीजों की अलग-अलग पहचान की भेदमूलक क्रियात्मक अंतरक्रिया का जगत रचते हैं, जिसे लकान ने प्रतीकमूलक व्यवस्था (symbolic order) कहा, और तंत्रशास्त्र में इसे ही चित्त की संज्ञा दी गई है । 

इस प्रकार अंत में उस अदृश्य खालीपन से जिसमें अक्षरों की दृष्ट छवियां और शब्दों के क्रियात्मक अर्थ अपने अस्पष्ट स्वरूप में प्रकट होते हैं, उससे वह जरूरी जमीन तैयार होती है जो खुद न पूरी तरह से दृष्ट होती है और न क्रियात्मक । यह किसी पृष्ठ का खालीपन, जैसे आंके जाने और भाषा से चिन्हित किये जाने के पहले का दृष्ट रूप और विश्व — इसे ही लकान ने अद्भुत रहस्यमय ढंग से यथार्थ (reality) बताया है — चित्रों और भाषा के परे का स्वयं में पूर्ण संसार । जैसे कश्मीरी शैवमत के प्रत्यभिज्ञा दर्शन में सभी भाव वर्ग के 'स्व' भाव को प्रकाश कहा गया है और प्रकाश को उसका परम उपादेय शिव । लकान की विलक्षण विडंबना यह है कि यह यथार्थ हमारे लिये सिर्फ घटित हो जाने के बाद ही अस्तित्व में आता है, तभी जब उसकी आदिम अदृष्ट पूर्णता (शिवता) हमेशा के लिये काल्पनिक और प्रतीकात्मक चिन्हों के चित्रों और अभिलेखों के महाजाल में लुप्त हो जाती है !


इसके बाद ही जैसा कि न्यूयार्क में 9/11 या लंदन में 7/7 के बारे में कहा जाता है कि दुनिया एक क्षण में पहले जैसी नहीं रही, यथार्थ की अमानवीय अर्थहीनता अचानक और डराती हुई हमारे दृश्य जगत में प्रविष्ट करती है और हमारे जाने-पहचाने जगत की अब तक की काल्पनिक और प्रतीकात्मक संहति को, उसके समंजित रूप को अस्थिर कर देती है । इसे एक प्रकार के स्फोट का क्षण भी कहा जा सकता है । 

जब यथार्थ, प्रतीकात्मक, और काल्पनिक के तीन प्रारंभिक अक्षर, फ्रेंच भाषा में R.S.I के रूप में कहे जाते हैं, लगता है जैसे कोई अन्य नक्षत्र का प्राणी बोल रहा है । नए और बहुअर्थी शब्द श्लेष और उनके अर्थों के भौतिक रूपों का अंतर-संबंध और उनका उन्मोचन — इन तीन क्रमों को पूरी तरह से व्यक्त करने का यह खास लकानियन उदाहरण है जिसमें मानव अनुभव के समूचे सत्य को समेट लिया गया है । सचमुच ऐसे ही गंभीर मायावी मूर्खतापूर्ण झूठ में, लकान के अनुसार, सत्य निहित होता है, यद्यपि वह भी 'पूर्ण सत्य' नहीं, जिस पर वे बार-बार बल देते हैं ।

भाषा के निदेशकों के बीच में आने से पशुओं की तुलना में सांस्कृतिक तौर पर संचालित और ऐतिहासिक तौर पर भेदमूलक मानव समूहों के रूप में मनुष्यों के रूपांतरण के चलते हम विश्व में किसी भी प्राणीसत्ता की मूल वृत्ति से जुड़ी पूर्णता तक तत्काल पहुंच के पथ को खो देते हैं । किसी भी दृष्ट प्राणीसत्ता के रूप में हमें जो उपलब्ध हो पाता है उसकी दृष्ट छवियों के आवरण के पीछे घटित हुई इस आदिम क्षति को, लकान कहते हैं कि हम सहने के लिये अभिशप्त हैं । इस क्षति के स्थान पर हमें सांत्वना के तौर पर हासिल क्या होता है — हमारी कथित 'संस्कृति' । अनंत पवित्रताओँ का समुच्चय । मनुष्य के बाहर का वह अलक्ष्य विस्तार जो उसके आदिम मूल रूप को हमेशा घेरे रहता है ।

इस प्रकार हमारी वाक्-प्राणीसत्ता को निदेशकों-प्रतीकों के क्रियात्मक अर्थों की सीमाओं में खुद के बारे में कुछ तात्कालिक अवबोध कायम करने के लिये कहा जाता है, जिसमें हमारी भाषा हमें संबोधित करती है और एक प्रकार से हमें सजाती-संवारती है । हमारी शारीरिक प्राणीसत्ता इस डरावने आधे-अधूरेपन को ही मान कर चलने के लिये मजबूर होती है, जो चुपचाप और अदृश्य रूप में हमें, सामाजिक मान्यताओं और नैतिकताओं के नाम पर घेरे रहती है । हम अपने तई, अपनी स्वतंत्र नैसर्गिकता के तई इन संदिग्ध संरचनाओं में जीने के लिये वास्तव में अपने स्तर पर जूझते रहते हैं । ये संदिग्ध संरचनाएं ही जब किसी एक चरण में आकर मानो किसी विस्फोट से उड़ा दी जाती है — आदमी असामान्य या मनोरोगी कहलाने लगता है । आदमी के भयजनित मनोरोगों के मूल में उसे घेरे रहने वाली यही भाषाई, सांस्कृतिक संरचनाएँ हुआ करती है ।

इसी सच को जानने के लिये कि हमारे सामान्य की संरचना क्या है और असामान्य कैसे उस संरचना की कमियों के साथ जुड़ा हुआ है, लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांत महत्वपूर्ण हो जाते हैं ।  यह मनुष्य के व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों की ऐसी कुंजी है जिस पर अधिकार करके उसे उसकी समग्र प्राणीसत्ता पर आरोपित बाह्य बाधाओं से अधिक से अधिक मुक्त किया जा सकता है । इसे ही हमारे अभिनवगुप्त भैरव भाव की साधना बताते हैं — जिसमें आदमी में लालसाओं का कोई अंत नहीं होता लेकिन 'अन्य' किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती । आदमी के परम स्वातंत्र्य की प्राप्ति का भाव ।

पूंजीवादी युग में, बाजार में बिकने के लिये स्वतंत्र श्रमशक्ति के रूप में मनुष्य का अस्तित्व स्वयं में स्वतंत्र मनुष्यों के सामाजिक संबंधों की नई संरचना की संभावनाएँ पैदा करती है । इसे ही मनुष्य के आत्म-अलगाव के एक नये रूप में पहचाना जा सकता है जो पहले के सारे 'पवित्र' दबावों को झटक कर चलने में समर्थ होता है । चित्त के विकास के इस पूरे संदर्भ में देखने पर ही पूंजीवाद के युग में आदमी के अजनबीपन में हम स्वतंत्र मनुष्यों की नई सामाजिकता, स्वातंत्र्य की संस्कृति के नये स्वरूप की संभावना को लक्षित कर सकते है ।

हमारे अनुसार, इस पूरे विमर्श के परिप्रेक्ष्य में यदि मार्क्स के मनुष्य के आत्म-अलगाव के पहलू पर विचार करें तो हमें आश्चर्यजनक रूप से उसमें अनेक नई प्रकार की उद्भावनाओं के संकेत मिल सकते हैं । यह अजनबीपन अकेले आदमी की सामाजिक भूमिका की एक पीठिका भी तैयार करती हुई जान पड़ सकती है । यह व्यक्ति स्वातंत्र्य के नये आयाम को भी खोल सकती है । इसके तनावों में तमाम सामाजिक दबावों से आदमी के संघर्ष की तीव्रता को भी देखा जा सकता है । यह उस 'अन्य' की उपस्थिति से इंकार का भी एक सबब हो सकता है जो आदमी की तमाम कामनाओं में उसकी अपनी मौजूदगी से इंकार का, अर्थात स्व के दमन का भी कारण होता है । इन दबावों से मुक्ति में ही आदमी के स्वस्थ विकास की सारी संभावनाएँ निहित है, तो क्यों न इस अजनबीपन को मुक्तिदायी रूप में ही देखा जाए !

कहना न होगा, यही वह सच है जिसके बिना आधुनिक मनुष्य की कोई पहचान कायम करना कठिन है । फ्रायड और लकान के अवलोकन हमें उनकी पहचान की एक गहरी अन्तरदृष्टि प्रदान करते हैं ।

रामजी राय और आत्म-अलगाव
अब उपरोक्त पूरी चर्चा के संदर्भ में रामजी राय के लेख में आत्म-अलगाव के बारे में की गई चर्चा पर थोड़ा सा दृष्टिपात कीजिए । उनके इस लेख में मार्क्स की '1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों' से एक महत्वपूर्ण उद्धरण आता है । मार्क्स ने अपनी इसी कृति में मूलत: आदमी के आत्म-अलगाव के विषय को उसके मूल रूप में खोलने की कोशिश की है । रामजी राय का लिया हुआ उद्धरण इसके 'साम्यवाद और निजी संपत्ति' (Communism and Private Property) अध्याय से है जिसमें मार्क्स लिखते हैं —
“(3) Communism as the positive transcendence of private property as human self-estrangement, and therefore as the real appropriation of the human essence by and for man; communism therefore as the complete return of man to himself as a social (i.e., human) being – a return accomplished consciously and embracing the entire wealth of previous development. This communism, as fully developed naturalism, equals humanism, and as fully developed humanism equals naturalism; it is the genuine resolution of the conflict between man and nature and between man and man – the true resolution of the strife between existence and essence, between objectification and self-confirmation, between freedom and necessity, between the individual and the species. Communism is the riddle of history solved, and it knows itself to be this solution.” (Karl Marx Frederick Engels, Collected Works, Volume 3, Progress Publishers, page – 296)
(मनुष्य के आत्म-अलगाव के रूप में निजी संपत्ति के सकारात्मक उत्तरण के तौर पर साम्यवाद, और इस प्रकार, मनुष्य के द्वारा और मनुष्य के लिये मानवीय सार का वास्तविक हस्तगतकरण; इस प्रकार मनुष्य का एक सामाजिक (अर्थात् मानवीय) प्राणी के रूप में पूरी तरह से स्वयं में प्रत्यावर्त्तन - एक सचेत प्रत्यावर्त्तन और पूर्वतन पूरी संपदा को अपनाते हुए । पूर्ण विकसित प्रकृतिवाद के रूप में यह साम्यवाद मानवतावाद के समान है, और पूर्ण विकसित मानवतावाद प्रकृतिवाद के समान है ; मनुष्य और प्रकृति के बीच और मनुष्य मनुष्य के बीच टकराहट का यह सच्चा समाधान है - अस्तित्व और सार के बीच, वस्तुकरण और आत्म-पुष्टि के बीच, स्वतंत्रता और आवश्यकता के बीच, व्यक्ति और प्रजाति के बीच के झगड़े का सही समाधान है । साम्यवाद इतिहास की गुत्थी का समाधान है, और वह खुद इस समाधान से वाक़िफ़ है ।)
रामजी राय ने इस उद्धरण का एक हिंदी अनुवाद दिया है, लेकिन उसे नहीं लेकर, कुछ कारणों से हमने अपनी तरफ से इसका अलग हिंदी अनुवाद दिया है । मार्क्स के इस कथन में गौर करने लायक है — 1. 'निजी संपत्ति का सकारात्मक उत्तरण' ; 2. ' मनुष्य का एक सामाजिक (अर्थात् मानवीय) प्राणी के रूप में पूरी तरह से स्वयं में प्रत्यावर्त्तन' (यहां 'सामाजिक' को चालू अर्थ में नहीं, बल्कि 'मानवीय' बताया गया है) ; 3. साम्यवाद को 'पूर्ण विकसित प्रकृतिवाद' कहा गया है, और ; 4. मनुष्य मनुष्य के बीच टकराहट को मनुष्य और प्रकृति के बीच टकराहट के समकक्ष रखते हुए साम्यवाद को इसका एक आत्म-चेतस् समाधान बताया गया है । एक ऐसा समाधान जो पूर्वतन पूरी संपदा को आत्मसात किये हुए है ।

यह है निजी संपत्ति, पूंजीवादी युग की वह पीठिका, जो मनुष्य के स्वतंत्र चित्त के निर्माण की जमीन भी है । इस विषय को और भी अच्छी तरह से समझने के लिये हमें यहीं पर मार्क्स ने अपरिष्कृत साम्यवाद (Crude Communism) के बारे में जो कहा है, उस पर गौर करने की जरूरत है । वे लिखते हैं — “Crude communism [the manuscript has: Kommunist. – Ed.] is only the culmination of this envy and of this levelling-down proceeding from the preconceived minimum. It has a definite, limited standard. How little this annulment of private property is really an appropriation is in fact proved by the abstract negation of the entire world of culture and civilisation, the regression to the unnatural || IV ||IV| simplicity of the poor and crude man who has few needs and who has not only failed to go beyond private property, but has not yet even reached it.”

(अपरिष्कृत साम्यवाद इस ईर्ष्या की पराकाष्ठा मात्र है और यह पूर्वनिर्धारित न्यूनतम के स्तर पर उतारना है । इसका एक तयशुदा और सीमित मानदंड है । निजी संपत्ति का यह नाश उसके उपयोग के मामले में कितना पीछे है यह संस्कृति और सभ्यता की समूची दुनिया को अमूर्त रूप से अस्वीकार किये जाने से साबित होता है । यह गरीब और अपरिष्कृत मनुष्य की जिसकी जरूरतें कम होती है और जो न सिर्फ निजी संपत्ति के आगे जा पाया है बल्कि वहां तक भी नहीं पहुंचा है, की अप्राकृतिक सादगी में प्रतिगमन है ।)

इस पृष्ठभूमि में पूंजीवाद के युग में आदमी के आत्म अलगाव के तत्व को विचार का विषय बनाने पर जब कोई यह कहता है कि “अपनी आत्मकेंद्रित जरूरतों के तहत वह व्यवहार में अपने श्रम के उत्पाद और अपनी क्रियाओं को किसी परायी शक्ति – धन या मुद्रा – के अधीन कर देता है और उसे प्राकृतिक मानता हुआ उसी का उत्पाद और क्रिया मानता है”, ('कथा -22', पृष्ठ -23)  या “खुद से अलगाव में पड़ा मनुष्य मानव समाज से भी अलगाव में पड़ जाता है, यहां तक कि अपनी मनुष्य प्रजाति मात्र से” (वही, पृः 24), या “पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया सभी तरह के स्वाभाविक, प्राकृतिक और बुद्धसंगत संबंधों को सर के बल खड़ा कर देती है, उसे अप्राकृतिक और अबुद्धिसंगत बना देती है” (वही, पृ: 27) आदि की तरह की बातें करता है तो कहीं न कहीं, पूंजीवादी युग के आत्म-अलगाव के साथ उस युग की तात्विकता को मिला कर देखने में हमें कुछ कमजोरी जान पड़ती है । अपने उत्पाद से अलगाव की जो प्रक्रिया सभ्यता के बिल्कुल प्रारंभिक चरण में शुरू होती है, पूंजीवाद उसकी समझ के मार्ग की सारी बाधाओं को दूर करके उसे निपट नंगे रूप में देखने की वास्तविक परिस्थिति तैयार करता है ।

कहना न होगा, प्रकृत मानव-स्वातंत्र्य की दिशा में मनुष्य की यह उपलब्धि एक बहुत बड़ा कदम साबित हो सकती है ।