शनिवार, 12 जुलाई 2025

“वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” क्या सचमुच एक अज्ञात किताब थी !


−अरुण माहेश्वरी 



शम्सुल इस्लाम-अशोक पांडे के बीच गोलवलकर की किताब ‘वी ऑर आवर नेशनहुड’ से जुड़े विवाद में रॉयल्टी वगैरह का जो भी विषय है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते । वह विषय दोनों के बीच का करार-सापेक्ष विषय है । 

पर इस विवाद में शम्सुल इस्लाम ने अशोक पांडे को जो पत्र लिखा है, उसे जब आज देखा तो जरूर कुछ देर के लिए हमारा दिमाग चकरा गया । उस पत्र में यह दावा किया गया है कि “इस पुस्तक के कारण ही गोलवलकर की यह घृणित किताब देश के सामने आ सकी । और वहीं से गोलवलकर के हिटलर के नरसंहार के प्रेम, फासीवादी विचारों से देश परिचित हो सका । जिसे छुपाने के लिए इस पुस्तक को खुद आरएसएस कभी प्रकाशित नहीं करता । वो वर्षों पुरानी छुपी हुई किताब पहली बार इस पुस्तक के माध्यम से सबके सामने आ सकी ।” 

शम्सुल इस्लाम ने यह दावा इस आधार पर किया है कि उनकी पुस्तक के प्रकाशन के पहले “इस किताब के बारे में खुशवंत सिंह जी को भी सूचना नहीं थी । उन्हें भी पहली बार मेरी किताब से ही इस किताब की जानकारी मिली कि गोलवलकर ने ऐसी भी कोई किताब लिखी थी ।” खुशवंत सिंह का यह कथन किताब के बैक कवर पर भी प्रकाशित हुआ है । 

हम इस तर्क को समझने में असमर्थ है कि किसी किताब की जानकारी यदि खुशवंत सिंह जी को नहीं थी तो इसका अर्थ यह कैसे हो जाता है कि पूरी दुनिया ही उस किताब के बारे में कुछ नहीं जानती थी !

हमारी जानकारी में आरएसएस को विषय बना कर आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया सबसे पहला काम श्री गोविंद सहाय का मिलता है, जिसे उन्होंने गांधी जी की हत्या के ठीक बाद सबसे पहले एक पैंफलेट की शक्ल में लिखा था – “Nazi Technique and R.S.S.” । श्री सहाय उस वक्त उत्तर प्रदेश सचिवालय के एक अधिकारी हुआ करते थे । गांधी हत्या के बाद, जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा, तब 1948 में गोविंद सहाय ने 60 पृष्ठों की पूरी किताब लिखी –“R.S.S. : Ideology, Technique, Propaganda”(1948) । इस किताब में भी तमाम उदाहरणों से यही बताया गया था कि किस प्रकार आरएसएस संगठन और विचारधारा के हर मामले में नाजियों की नीतियों का अनुसरण करता है । 



फिर भी, यह सच है कि गोविंद सहाय आरएसएस में गोलवलकर की अहम् भूमिका को जानने बावजूद तब तक उन्हें गोलवलकर की इस किताब, “We or our Nationhood defined” की जानकारी नहीं थी । लेकिन आरएसएस के बारे में जो सबसे पहला व्यवस्थित अध्ययन किया गया, वह था J. A. Curran, Jr. का “Militant Hinduism in Indian Politics : A study of the R.S.S.” । कुर्रान ने यह अध्ययन अमेरिकी संस्था इंस्टिट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन्स की ओर से किया था, जिसे 1951 में न्यूयार्क से प्रकाशित किया गया था । कहा जाता है कि यह काम सन् पचास के जमाने में भारतीय समाज के तनावों के बारे में सीआईए द्वारा कराये गये अध्ययनों की श्रृंखला की एक कड़ी था । परंतु खुद इस संस्थान का दावा था कि वह “कोई शासकीय या पक्षधर संस्थान नहीं है ।” आरएसएस के बारे में अब तक की सबसे लोकप्रिय देसराज गोयल की  पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” में भी यह माना गया है कि “इस अध्ययन का उद्देश्य जो भी हो, आर.एस.एस. पर आलेखों से पुष्ट यह पहला शोध-निबंध है । इसीलिए इसका महत्व निर्विवाद है ।” (पृः68)



गौर करने लायक बात है कि कुर्रान के इस अध्ययन में गोलवलकर की इस छोटी सी 78 पृष्ठों की पुस्तक ‘वी’ को बाकायदा आरएसएस की ‘बाइबिल’ कहते हुए काफी विस्तार से उद्धृत किया गया था । कुर्रान के 93 पृष्ठों की इस निबंध के पूरे छः पृष्ठ (पृष्ठ 28-33) इस एक पुस्तिका पर ही खर्च किए गए थे । 



इसके बाद हम आते हैं इस किताब पर हिंदी में हुई चर्चा पर । देसराज गोयल की पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” जिसका हिंदी में अनुवाद विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया था और जिसका प्रकाशन 1979 में राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया उस किताब में भी कुर्रान की किताब “मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडियन पोलिटिक्स” और गोलवलकर की “वी ऑर आवर नेशनहुथ डिफाइंड”  (हम : हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) पर चर्चा मिलती है । पर श्री गोयल ने ‘वी’ के प्रसंग को उसकी स्थापनाओं के विवेचन के बजाय एक दूसरा ही मोड़ दे दिया कि वह किताब आरएसएस के दावों के विपरीत गोलवलकर की अपनी ‘मौलिक रचना’ नहीं थी । (पृः66) आरएसएस ने उस किताब का बाद में ज्यादा खुल कर प्रचार नहीं किया, इसे भी उन्होंने सिर्फ गोलवलकर के ‘मौलिक विचार’ के दावे के झूठ को छिपाने की एक कोशिश मान कर किताब पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और कह दिया कि यह किताब बाबाराव सावरकर की मराठी किताब “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त अनुवाद थी । गोयल ने अपने इस निष्कर्ष के पक्ष में गोलवलकर के ही एक कथन का उल्लेख किया जिसमें फैलाया था कि “संघ के स्वयंसेवक ‘वी’ नामक जिस पुस्तक का पारायण करते हैं वह मेरे द्वारा किया गया बाबाराव सावरकर की पुस्तक ‘राष्ट्र मीमांसा’ का संक्षिप्त रूप है ।”

हमारी राय में देसराज गोयल का गोलवलकर की बात पर यकीन करना जरा भी उचित नहीं था, क्योंकि 1947 के बाद जब आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था, तब ऐसी नाजी विचारधारा पर आधारित पुस्तक से खुद के और आरएसएस के नाम को दूर रखने के उद्देश्य से ही गोलवलकर ने जहां खुद को उससे अलग करने की घोषणा की थी वहीं आरएसएस ने भी उस पुस्तक के प्रकाशन को रोक दिया और जगह-जगह से उसे गायब भी करने लगे । गोयल ने यह गौर नहीं किया कि 1947, अर्थात् आरएसएस पर प्रतिबंध के पहले तक इस किताब के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके थे ।



बहरहाल, अब हम आते हैं 1993 में प्रकाशित हमारी पुस्तक “आर एस एस और उसकी विचारधारा” पर । यह किताब सबसे पहले सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी के प्रकाशन से छापी गई थी । बाद में जब केंद्रीय कमेटी ने हिंदी की किताबों के प्रकाशन को बंद करने का निर्णय लिया तो इसे राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया । और बाद में यह लगातार दिल्ली के अनामिका प्रकाशन से छप रही है । इसके चौथे संस्करण (2014) तक तो हमने इसमें कुछ-कुछ संशोधन किए, पर तब से अब तक यह उसी रूप में छप रही है ।  



अपनी इस किताब में हमने जे. ए. कुर्रान जूनियर के शोध-निबंध और गोलवलकर की पुस्तक “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” पर काफी विस्तृत चर्चा की है । सिर्फ ‘वी’ पर लगभग 23 पृष्ठ लिखे गए । उसके एक अध्याय “फासीवाद का भारतीय संस्करण : संघ का हिंदुत्व” में ‘आर एस एस की गीता’ उपशीर्षक से लगभग सात पृष्ठों का एक पूरा अध्याय ही है । (पृष्ठ 55-62) और फिर “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय में इस पर और लगभग 15 पृष्ठ लिखे गए । इनके अलावा भी पूरी किताब की संरचना में ‘वी’ किसी न किसी रूप में मौजूद है । 



इसी संदर्भ में, “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इसमें बताया गया है कि किस प्रकार जब सन् 1939 में ‘वी’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था उस समय एआईसीसी के तत्कालीन जाने-माने नेता लोकनायक एम.एस.अणे ने उसकी भूमिका लिखी थी और उस भूमिका के लिए गोलवलकर ने किताब की अपनी भूमिका में यह लिखा कि “यह मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता की बात है कि लेखन के क्षेत्र में अब तक अनजान मेरे जैसे व्यक्ति के इस प्रथम प्रयास की भूमिका लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी। एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक होने के नाते, जैसा मैंने सोचा था, उनकी भूमिका ने ठोस रूप में पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है।" (वी, पृ. 3) ।




मजे की बात यह है कि लोकनायक अणे की इसी भूमिका को गोलवलकर ने इस पुस्तक के बाद के संस्करणों से हटा दिया, जैसा कि 1947 के इसके चौथे संस्करण को देखने से पता चलता है । 

हमने सवाल उठाया कि ऐसे ‘एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक’ अणे की ही इस भूमिका को गोलवलकर ने बाद में हटा क्यों दिया ? इस पर हमने पाया कि श्री अणे ने अपनी उस भूमिका में ही किताब की स्थापनाओं की तीव्र भर्त्सना की थी । हमारी किताब “आरएसएस और उसकी विचारधारा” में यह पूरी कहानी मौजूद है । हम यहां फिर से एक बार अणे ने गोलवलकर की इस किताब पर जिस प्रकार आपत्तियां उठाई थी, उसके एक विस्तृत उद्धरण देना चाहेंगे । इस किताब के निष्कर्षों के बारे में श्री अणे लिखते हैं: 

“इन निष्कर्षों से राजनीतिज्ञों के सामने जो व्यवहारिक समस्याएं खड़ी होती हैं, वह अत्यंत गहरी है तथा उन पर सावधानी और धीरज के साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि मुसलमानों के स्थान की समस्याओं के बारे में विचार करते वक्त लेखक (गोलवलकर) ने हिंदू राष्ट्रीयता तथा हिंदू राष्ट्र के सार्वभौम राज्य के बीच के फर्क को हमेशा ध्यान में नहीं रखा है। एक सार्वभौम राज्य के रूप में हिंदू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिंदू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज है। किसी भी आधुनिक राष्ट्र ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अपने अधिवासी अल्पसंख्यकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया है यदि वे स्वतःस्फूर्त ढंग से या कानून के द्वारा राष्ट्र के स्वाभाविक अंग बन गए हों।...अल्पसंख्यक के रूप में नागरिकता के सभी अधिकारों के साथ ही अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को सुरक्षित रखने की विशेष व्यवस्थाएं कुल मिलाकर किसी भी राज्य के सार्वभौमिकता के अधिकारों के प्रयोग के साथ बेमेल नहीं मानी गई हैं।…कोई भी आधुनिक न्यायशास्त्री या राजनीतिक दर्शनशास्त्री या संवैधानिक कानून का विद्यार्थी पुस्तक के पांचवें अध्याय में कही गई लेखक की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता।...मेरे मन में इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि लीग ऑफ नेशंस की अल्पसंख्यक संबंधी संधि का धीरज से अध्ययन करने पर लेखक ने इतनी धृष्टता के साथ जो बात कही है, उसका कोई स्थान रह जाता। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक आचार को बनाए रखने तथा उसका पालन करने की अनुमति देने और उनकी संस्कृति की रक्षा के अनुकूल स्थितियां बनाने से किसी भी राज्य की सार्वभौमिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बशर्ते वे सार्वजनिक नैतिकता और नीति का उल्लंघन न करें। किसी भी देश में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, जिसके पुरखों को सदियों से नागरिकता के अधिकार प्राप्त रहे हैं, किसी भी आधुनिक राज्य में सिर्फ इसलिए विदेशी नहीं माना जा सकता है कि वह उस देश की बहुसंख्यक आबादी, जो स्वाभाविक तौर पर उस राज्य पर नियंत्रण रखती है, से भिन्न धर्म को अपनाए हुए है। इस बीसवीं सदी में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रकृतिकरण की शर्त धर्म परिवर्तन नहीं हो सकता।...मैं यह भी जोड़ना चाहता हूं कि लेखक ने उन लोगों के प्रति, जो राष्ट्रवाद के उनके सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते, जिस कठोर और उत्तेजक भाषा का प्रयोग किया है, वह राष्ट्रवाद की तरह की एक जटिल समस्या के लिए आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययन की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। इस भूमिका में इन बातों का उल्लेख करना मुझे कष्टदायी प्रतीत होता है। लेकिन मैं समझता हूं कि इन उपरोक्त विषयों पर अपनी राय को बिलकुल साफ और स्पष्ट शब्दों में न रखकर मैं अपने प्रति ही गैर-ईमानदार और अन्यायपूर्ण होता ।" (वी, पृ. 14 से 18)



और, जहां तक इस पुस्तक को जी डी सावरकर की ही मराठी पुस्तक “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त संस्करण घोषित करने के गोलवलकर के झूठ का सवाल है, यह गौर करने की बात है कि 1939 में प्रकाशित पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका में खुद गोलवलकर ने उस पुस्तक का उल्लेख किया है और लिखा है कि “राष्ट्र मीमांसा” का अंग्रेजी अनुवाद जल्द ही आने वाला है । उनके शब्दों में – “His (G.D.Savarkar’s) work Rashtra Meemansa in Marathi has been one of my chief sources of inspiration and help. An English translation of this work is due shortly out.”



अर्थात् यह साफ है कि गोलवलकर की यह किताब जी.डी.सावरकर उर्फ बाबा राव सावरकर, जैसा कि देसराज गोयल ने माना था, की नहीं थी, खुद गोलवलकर की ही थी । ‘राष्ट्र मीमांसा’ का अंग्रेजी अनुवाद अलग से आया था, जिसकी पूर्वघोषणा गोलवलकर ने ही अपनी किताब के पहले संस्करण की भूमिका में की थी । 

गोलवलकर एक कितने गैर-ईमानदार और कृतध्न व्यक्ति थे, इस सचाई को उनकी इस किताब के चौथे संस्करण को देख कर बहुत अच्छी तरह से जाना जा सकता है, जिसमें उन्होंने पहले संस्करण की भूमिका को भी फिर से प्रकाशित कराया था । चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका से न सिर्फ लोकनायक अणे के प्रति आभार वाले प्रसंग को ही हटा दिया गया, बल्कि जी.डी.सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” और उससे मिली प्रेरणा आदि के प्रसंगों को भी गायब कर दिया । और बाद में, जब 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया, तब खुद गोलवलकर ने यह प्रचारित कराया कि उनकी पुस्तक ‘वी’ तो उनकी लिखी हुई नहीं थी, वह तो बाबा राव सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” का एक संक्षिप्त संस्करण भर थी ! दुर्भाग्यवश, देसराज गोयल जैसे गहन शोधकर्ता ने भी इस बात पर विश्वास कर लिया, वे गोलवलकर के राजनीतिक छल को समझने में विफल रहे । हम यहाँ ‘वी’  के 1939 के पहले संस्करण की भूमिका और 1944 के चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका, दोनों की तस्वीरें प्रकाशित कर रहे हैं ।

यहां प्रसंगवश हम इस विषय में अपने एक निजी अनुभव को भी साझा करना चाहेंगे । 

6 दिसंबर 1992 में जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया, तभी दिल्ली में रहते हुए हमने आरएसएस के सांगठनिक ढांचे और उसकी विचारधारा के स्रोतों के अध्ययन का बीड़ा उठाया । उन दिनों हम त्रिमूर्ति भवन में स्थित नेहरू मेमोरियल एंड म्यूजियम लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे । वहां उस समय पुराने सोशलिस्ट और इतिहास के विषयों के अद्यीत विद्वान हरिदेव शर्मा डिप्टी लाइब्रेरियन हुआ करते थे, जिनसे हर दिन उनके चैंबर में हम गप-शप करते थे । आरएसएस पर काम में उनके सहयोग को मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ । वे मुझे अपने नाम से किताबें ईशू कराके घर भी ले जाने देते थे । 

उन्होंने ही एक दिन हमसे कहा कि गोलवलकर की इस किताब “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” को आप ले जाइयें और इसकी एक प्रति जेराक्स कराके अपने पास रख लीजिए । उन्होंने बताया कि जिस मुस्तैदी से आरएसएस के लोग हर जगह से इस किताब को गायब कर रहे हैं, बहुत संभव है कि हमारे यहां से भी कोई इसे चुरा ले जायेगा और फिर इस पुस्तक का कहीं मिलना ही कठिन हो जाएगा । यह कहते हुए उन्होंने ‘वी’ का पहला और चौथा संस्करण, दोनों ही मुझे दो दिन के लिए दे दिये। हमने उन दोनों किताबों की जेराक्स कराके बाकायदा उन्हें मजबूत जिल्द में मढ़वा कर अपनी लाइब्रेरी में सहेज कर रख लिया। उस समय तक गोलवलकर की मृत्यु के बाद पचीस साल भी नहीं बीते थे, इसलिये उसे किसी प्रकाशक को दे कर प्रकाशित कराना मुमकिन नहीं था । कॉपीराइट का सवाल था । पर वे दोनों किताबें हमारे उस पूरे अध्ययन में बहुत काम आई और हमारे पास आज भी हमारी एक बेशकीमती निधि के रूप में मौजूद हैं । यहां हम इन दोनों संस्करणों की तस्वीरें भी मित्रों से साझा कर रहे हैं ।  

गोलवलकर की मृत्यु 5 जून 1973 के दिन हुई और इसके ठीक पचास साल बाद ही हमने देखा कि शम्सुल इस्लाम ने उस पूरी किताब को अपनी आलोचना के साथ प्रकाशित करा दिया । तब हमने सचमुच राहत की साँस ली कि अपनी तमाम गतिविधियों को गोपनीय रखने के फासिस्ट विचारों वाला आरएसएस इस महत्वपूर्ण किताब को दफना देने के अपने इरादे में कामयाब नहीं हुआ, जिससे उसकी विचारधारा और उसकी सांगठनिक गतिविधियों के स्रोत का बिल्कुल सही-सही अनुमान मिल जाता है ।

इस पूरे प्रसंग में अंत में हम श्री शम्सुल इस्लाम से यही कहेंगे कि वे यह दावा न करें कि उनकी किताब के पहले दुनिया में कोई इस किताब को जानता नहीं था । बल्कि सचाई यह है कि उसे आधार बना कर बहुत पहले ही इस लेखक ने आरएसएस की सारी गोपनीयता और उसके नाजीवादी विचारों पर से पूरी गंभीरता और शोधपरक ढंग से पर्दा उठाया था ।  


बुधवार, 2 जुलाई 2025

कृष्ण कल्पित प्रसंग

-अरुण माहेश्वरी 

 


पटना में कृष्ण कल्पित की हरकत केवल एक सामाजिक अपराध नहीं, बल्कि एक विकृत आत्म-संरचना का उदाहरण भी है । वह जो अपने भाषिक तेवर में विद्रोही और मुक्त दिखाई देता है, वही कैसे भीतर ही भीतर असंख्य कुंठाओं और खास तौर पर स्त्रीत्व के बारे में अजीबोगरीब प्रतीकात्मक उहापोह (अस्थिरता)  से भी भरा होता है, कृष्ण कल्पित उसका एक ख़ास उदाहरण है ।

जब हम किसी में स्त्रीत्व के बारे में “प्रतीकात्मक अस्थिरता" की बात कहते हैं तो उसका अर्थ यह है कि ऐसे व्यक्ति के लिए स्त्री कोई स्वतंत्र सामाजिक या भाषिक सत्ता नहीं, बल्कि महज उसकी फैंटेसी की जगह है, जिस पर वह अपनी अधूरी कामनाओं को आरोपित करता है।

दरअसल आदमी एक प्रतीकात्मकता व्यवस्था से अर्थ ग्रहण करता है। यह व्यवस्था भाषा, नियम, कानून, समाज, निषेध, और नाम-का-पिता (Name-of-the-Father) की व्यवस्था है । इसका चरित्र पितृसत्तात्मक है । उसमें 'स्त्री' की स्थिति एक तरह की अनुपस्थिति या असंभवता के रूप में आती है।

लकान का प्रसिद्ध कथन हैं:

 

“La femme n'existe pas.” –The Woman does not exist.

यह स्त्री के अस्तित्व से इंकार  नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि ‘स्त्री’ एक पूर्ण और स्थिर संकेतक के रूप में प्रतीकात्मक व्यवस्था में कभी दर्ज नहीं होती। उसका अस्तित्व हमेशा एक फिसलते हुए संकेतक (sliding signifier) की तरह होता है — कभी माँ के रूप में, कभी कामना की वस्तु के रूप में, कभी निषेध की भूमि के रूप में। स्त्रीत्व का कोई स्थायी, निश्चित अर्थ नहीं बनता, इसीलिए वह प्रतीकात्मक व्यवस्था में अस्थिर है। या तो एक आदर्श होती है (देवी, माँ, प्रेरणा), या एक कुलटा, अपवित्र (कामुकता, भय, अपराध की चीज)। यह दरअसल स्त्री को एक स्वायत्त मानव नहीं, बल्कि एक प्रतीकात्मक वस्तु (signifier-object) मानने की मानसिकता है — जिसे या तो ऊँचे कंगूरे पर रखा जाए या ज़मीन पर पटक दिया जाए, लेकिन उसके साथ संवाद नहीं किया जाए।

 

लकान इसे “phallogocentric” संरचना कहते हैं — एक ऐसी भाषा-संरचना जिसमें अर्थ, अधिकार और इच्छा सभी पुरुष की स्थिति से निकलते हैं। इन दोनों ध्रुवों के बीच 'स्त्री' का अपना स्वायत्त स्वरूप गायब हो जाता है।

यही कारण है कि जब कोई स्त्री अपनी स्वतंत्रता का अहसास कराती है, तब वह आदमी की उस फैंटेसी की संरचना को तोड़ती है। स्त्री की अपनी चेतना — उसकी अस्मिता, सीमाएँ, प्रतिरोध — उनके लिए केवल एक ‘बाधा’ बनती है, जिसे वे नकारते हैं।

लेकिन जैसे ही वास्तविक स्त्री — जैसे वह कवयित्री — ना कहती है, सीमाएँ तय करती है, प्रतिरोध करती है, वह आदमी के अंदर की प्रतीकात्मक अस्थिरता को चुनौती देती है। और यही वह क्षण होता है, जब कल्पित जैसों की असहनीय यौनिक और भाषिक हताशा  आक्रामक रूप ले लेती है।

कवयित्री के घर में जबरन घुस जाना दरअसल कल्पित के अंदर की विध्वस्त संस्कृति, उसके प्रतीकात्मक विधान के ध्वंस का कुत्सित प्रकटीकरण है।

 

सच यह है कि जो व्यक्ति शब्दों से अपनी आत्म-छवि का निर्माण करता है, यदि वह स्वयं को उस छवि के जाल में पहचानने लगे, तो वही छवि उसे सिंथोम (sinthome) की तरह बाँध लेती है । ऐसा बंधन  रचनात्मक भी हो सकता है, यदि सामाजिक विधान को मान कर चला जाए ; परंतु जब इस सामाजिक विधान को ही ठुकरा दिया जाता है तो वह सिंथोम अपराध की शक्ल ले सकता है।

कृष्ण कल्पित की करतूत कोई क्षणिक उन्माद या अकेलेपन की उपज नहीं है, बल्कि एक लंबे समय से भीतर पल रही लालसात्मक विकृति और भाषिक आत्ममुग्धता का सामाजिक अपराध में बदलना है ।

इस प्रकरण में प्रताड़ित कवयित्री ने अपनी पहचान उजागर नहीं की। उसने पुलिस में शिकायत नहीं की। पर क्या इस चुप्पी को हम उसकी कमज़ोरी कहेंगे ! जब पीड़िता अपनी पहचान को उजागर नहीं करना चाहती, तो यह न केवल उसका संवैधानिक अधिकार है, बल्कि एक प्रतीकात्मक उत्तरजीविता की रणनीति भी है। स्त्री की चुप्पी कई बार उसकी भाषा होती है। वास्तव में वह यह जता रही होती है कि ‘मैं इस संरचना में अपनी देह नहीं, अपनी भाषा को सुरक्षित रखना चाहती हूँ।’

आज फ़ेसबुक पर कल्पित प्रकरण पर कुछ महानुभाव अजीब प्रकार की अदालती जिरह वाली मुद्रा में उतर पड़े हैं। वे अपनी बात कहने के बजाय कवयित्री से सवाल कर रहे हैं कि "अगर इतनी गंभीर बात थी, तो रिपोर्ट क्यों नहीं की?"

वे सवाल पर सवाल उछालते हैं कि कहाँ थी, क्यों गई, रात में क्यों गई, किस मंशा से गई?”

इन सब सवालों से यही साफ़ होता है कि स्त्री को ये सब उसकी ‘इच्छा की स्वायत्त सत्ता’ के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है ।

कुछ महानुभाव कल्पित के प्रति  सहानुभूति में कह रहे हैं कि उनका ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है !  

वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि यह कथित ‘मीडिया ट्रायल’ वास्तव में एक प्रतीकात्मक न्याय है, जो उस मौन की जगह से हो रहा है जहाँ कानून की भाषा काम नहीं करती, पर जहां स्त्री की पीड़ा और आक्रांता के अपराध की छाप  मौजूद रहती है।

कल्पित का कृत्य महज़ नशे में की गई ‘चूक’ नहीं, बल्कि उनकी उस मानसिक संरचना का प्रतिशोध है जिसमें स्त्री उनके लिए अब कोई प्रेरणा नहीं, बल्कि प्रतिरोध बन चुकी थी।

सवाल उठता है कि क्या हम स्त्री को केवल तब तक ही साहित्यिक मान्यता देंगे, जब तक वह हास्यास्पद “प्रेरणा” बनी रहे?

क्या हम उसकी चुप्पी को समझने के बजाय उसे “नाटकीय मौन” कहकर खारिज कर देंगे?

यह पूरा प्रसंग — केवल एक कवि का पतन नहीं, बल्कि एक समूचे काव्य-प्रेमी समाज की आत्मपरीक्षा है।

 

 


मंगलवार, 24 जून 2025

सेंसरशिप आप पर भरोसे की कमी का द्योतक है

- प्रो. प्रतापभानु मेहता



कल (23 जून ) शाम कोलकाता में हमारे समय के एक प्रमुख भारतीय विचारक प्रोफेसर प्रतापभानु मेहता को सुनने और कुछ बातचीत भी करने का मौका मिला । उनकी वार्ता का विषय था – Free speech (बोलने की स्वतंत्रता) । वार्ता स्थल था चौरंगी पर स्थित ‘कन्वर्सेशन रूम’। कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अभिमन्यु माहेश्वरी ने इसे क्लास रूम में बदलने के सोच पर अपने वक्तव्य रखा। कार्यक्रम का संचालन किया ‘किंडल’ पत्रिका की संपादिका पृथा केजरीवाल ने । 

मनुष्य की किसी भी स्वतंत्रता की हानि अंततः मनुष्य मात्र की हानि है । और, जहां तक विचार और अभिव्यक्ति का सवाल है, मानवप्राणी के संघटन का ही एक मूलभूत तत्त्व होने के नाते, इसकी हानि तो मनुष्य की संभावनाओं मात्र की हानि कहलायेगी । 

जैसा कि प्रोफेसर मेहता के लेखन से अपने थोड़े से परिचय के नाते हम जानते हैं कि जनतंत्र, सांस्थानिक अखंडता, संविधान और विश्व-व्यवस्था की तरह के सर्वव्यापी विषयों की जांच-पड़ताल उनके लेखन का प्रमुख रुझान रहा है। यह सब उस संरचनात्मक व्यवस्था के द्योतक हैं जिनके दायरों में ही आज के मनुष्य के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं और संभावनाएं तय हुआ करती हैं। 

प्रोफेसर मेहता ने अपनी बात का प्रारंभ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर छाये संकट के उल्लेख से किया और चुटकी लेते हुए कहा इसकी चर्चा इतनी व्यापक है कि अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वॉन्स भी कहते हैं कि यूरोप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संकट है । 

सांस्थानिक संरचनाओं की महत्ता के प्रति आग्रहशील प्रो. मेहता शुरू में ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अबाधता और परमता को प्रश्नांकित करते हुए कहते हैं कि संविधान अगर इसकी रक्षा के कवच के रूप में काम करता है, तो वह उसकी एक सीमा भी तय करता है । मूलतः वह नागरिकों के बीच विश्वास के अधिकतम स्तर के निर्माण की आधारशिला तैयार करता है । 

इसी संदर्भ में सेंसरशिप के प्रश्न और संविधान की धारा 295 के प्रसंग को उठाते हुए उन्होंने कहा कि ‘रंगीला रसूल’ शीर्षक पर्चे की पृष्ठभूमि में निर्मित इस धारा का सार यही था कि कोई भी अभिव्यक्ति ऐसी न हो जो किसी की धार्मिक भावना को आहत करें । यह धर्म संबंधी अभिव्यक्तियों पर विचार के एक खास सेकुलर ढांचे का रूप है । पर विडंबना यह है कि यह ‘आहत भावना’ आज एक भिन्न औजार का रूप ले चुकी है । यह वैसे ही है जैसे सेंसरशिप तक का प्रयोग किसी उत्पाद को लोकप्रिय बनाने के लिए भी किया जाता है ! 

प्रो. मेहता ने स्वामी विवेकानंद की कश्मीर में खीर भवानी के मंदिर की यात्रा पर विगलित हो जाने की कहानी पर कहा कि विवेकानंद का संकेत यह था कि उसकी भग्न अवस्था हिंदू समाज के निजी आचरण से हुई, न कि किसी आक्रांता से । 

प्रो. मेहता ने धर्म और राष्ट्रवाद के घाल-मेल से उत्पन्न समस्याओं के संवैधानिक पहलुओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया । स्वतंत्रता की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि सेंसरशिप के प्राविधानों का एक मात्र तात्पर्य यह है उसके जरिये आप पर पूरा भरोसा न करने के भाव को व्यक्त किया जाता है । 

बहरहाल, इसी तर्ज पर उन्होंने संस्थाओं के दबावों के नाना रूपों की चर्चा की और विषय को समेटते हुए जॉक दरीदा के कथन का प्रयोग किया कि ‘सभी विज्ञान बिना संदर्भ के कुछ भी जाहिर नहीं करते’ ।  इसीलिए चीजों को तथ्यात्मक नजरिये से देखने की जरूरत है, न कि भावनात्मक, पहचान के सवाल के रूप में । 

मोटे तौर पर हम जो याद कर पा रहे हैं, इन संदर्भों में ही उन्होंने लगभग सवा घंटे तक श्रोताओं को अपने प्रवाह के साथ बांधे रखा । अंत में उन्होंने श्रोताओं के कुछ सवालों का भी जवाब दिया । 

हम हमेशा से प्रो. मेहता के लेखों के एक सतर्क पाठक रहे हैं और यदा-कदा उनके लिखे पर अपने ब्लाग पर हमने टिप्पणी भी की है । हमारा सौभाग्य रहा कि इस चर्चा के बाद उसी स्थान पर उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने और थोड़ी चर्चा करने का हमें मौका मिला ।



गुरुवार, 19 जून 2025

शर्म तो ज्ञान पर आएगी, न कि अंग्रेज़ी पर !


−अरुण माहेश्वरी



आज के ‘टेलिग्राफ’ के अनुसार अमित शाह ने कहा है कि लोग अंग्रेज़ी बोलने से जल्द ही शर्म करेंगे; अर्थात् हमारे अनुसार लोग अपने ज्ञान और प्रश्न उठाने की क्षमता पर शर्म करेंगे !

हम उनके इस कथन को एक तानाशाह के ‘आज्ञापालक समाज’ के गठन का सपना कहेंगे ।

‘आज्ञापालक समाज’ एक सैडिस्ट समाज होता है, जहां नैतिकता से मनुष्यता विरेचित कर ली जाती है । लोग रोबोटिक बना दिये जाते हैं।

रोबोट्स के लिए मंत्रों का नहीं, मंत्रोच्चारों का, आदेशनुमा संकेतों का महत्व होता है । रोबोटिक मनुष्य ही बलात्कारी भी होता है क्योंकि उसके लिए शरीर महत्वपूर्ण होता है, उसके पीछे का मनुष्य प्रमाता गायब हो जाता है ।  

दुनिया में भारत की किसी भाषा को ‘ज्ञान की भाषा’ क्यों नहीं माना जाता, क्या अमित शाह ने कभी इस पर सोचा है ?

ज्ञान की भाषा वह है जो आदमी को आत्ममुग्ध नहीं, संशयग्रस्त बनाती है; जो अध्यापन की अमूर्तता से जीवन की ठोस परिस्थितियों में उतरती है; जिसमें अध्यापन आरोपण नहीं, संवाद होता है ।

वे कभी नहीं जानेंगे कि "ज्ञान की भाषा" स्वयं को स्थिर नहीं मानती; जीवन की गति से खुद को संशोधित करती है; सत्ता के बजाय अनुभव से अपनी वैधता प्राप्त करती है। 

यह उनकी समझ के बाहर हैं कि भाषा का संकट असल में हमारी संस्कृति के विघटन का संकट है; जिस समाज में मानव के चित्त की गति को भाषा के जरिये स्वयं के बाहर रखने और बार-बार पुनः अर्जित करने की प्रक्रिया थम जाती है, उसमें भाषा न ज्ञान की भाषा बनती है, न मुक्ति की।

यह कोई संयोग नहीं है कि भारत की एक भी भाषा को आज वैश्विक या राष्ट्रीय 'ज्ञान-भाषा' का दर्जा नहीं मिला है — न विज्ञान, न दर्शन, न समाजशास्त्र, न तकनीक, न ही न्याय के विमर्श में। 

आज तो कोई भी विश्वविद्यालय भारतीय भाषाओं में उच्च शोध को गंभीरता से नहीं लेता। टेक्नोलॉजी, कानून, चिकित्सा, अंतरराष्ट्रीय नीति — सभी की भाषा अंग्रेज़ी है। नैतिक रूप से भी पढ़े-लिखे अभिभावक बच्चों को भारतीय भाषाओं, खास कर हिंदी मीडियम से दूर रखना चाहते हैं।

इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक विरासत या अंग्रेज़ी का प्रभुत्व मात्र नहीं है, बल्कि स्वतंत्र भारत के अंदर ही भाषा को सचेत रूप में प्रश्नाकुलता और आत्म-विकास से कभी जुड़ने नहीं दिया गया।  

क्यों पश्चिम में जर्मन, फ्रेंच, जापानी, रूसी जैसी भाषाएँ अपने समाज में ज्ञान की भाषाएँ बनीं ? इसलिये कि वहाँ की सत्ता, बुद्धिजीवी वर्ग और शिक्षानीति ने उन भाषाओं में ज्ञान के आधुनिक विमर्श का निर्माण किया। हेगेल, कांट, हाइडेगर आदि ने जर्मन को दर्शन की भाषा बना दिया। जॉक लकान, देरीदा फूको आदि ने फ्रेंच को।

चीन में मैंडरिन में विज्ञान, राजनीति, तकनीक — सबका समावेश किया गया। ग्लोबल होने की चाह में आत्मविसर्जन नहीं किया गया।

लकान के शब्दों में कहें तो यह उस संस्कृति(Symbolic order) का अभाव है, जिसमें कोई समाज खुद को विकासशील और विचारशील समाज के रूप में समझता है। 

हमारे यहाँ भाषा धार्मिक परंपरा या भावुक राष्ट्रवाद की वाहक बनी, किसी ज्ञान परंपरा (नाम के पिता) की भूमिका नहीं निभा सकी ।

इसीलिए हिंदी या तमिल को ज्ञान की भाषा नहीं, भावुक पहचान की भाषा के रूप में देखा जाता है।

क्या अमित शाह चाहेंगे कि भाषा में संशय, प्रश्न और विवाद के लिए जगह बनें। जब तक भाषा सिर्फ भक्ति या गौरव का माध्यम रहेगी, वह ज्ञान की वाहक नहीं बन सकती।

भारत की आज की सचाई है कि प्रेस की स्वतंत्रता की रैंकिंग 159 तक गिर चुकी है; भूख के सूचकांक में देश 107वें पायदान तक फिसल गया है; जहाँ सवाल पूछना राजद्रोह बन चुका है; और सत्ता को जाहिल सांप्रदायिक नारों और आंकड़ों से खिलवाड़ करके खुद अपनी अशिक्षा पर गर्व है। यह सब स्वतंत्रता और प्रश्नाकुलता और विवेक के सख्त विरोधी हैं । 

सच यह है कि यहां ‘भाषा’ का सवाल भाषाविज्ञान का नहीं, प्रमुख रूप से जनतंत्र की आत्मा का सवाल भी है।








सोमवार, 16 जून 2025

यह है ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ और ‘इतिहास का अंत’ का तात्त्विक रूप !

-अरुण माहेश्वरी 



13 जून 2025 की सुबह, जब इज़राइल के स्टील्थ जेट्स ने इरान की परमाणु सुविधाओं, नटांज़ और फोर्डो, पर सटीक बमबारी की, तो यह एक सैन्य हमला नहीं था—यह एक चिंगारी थी, जो अमेरिकी साम्राज्य की आर्थिक नींव के नीचे बिछे बारूद को भड़काने के लिए काफी थी। 


तीन दिन बाद, 16 जून को, इरान ने तेल अवीव और हाइफ़ा पर मिसाइलों और ड्रोनों की बौछार की, जिसने शुक हकारमेल बाज़ार को खंडहर में बदला और हाइफ़ा की तेल रिफाइनरी को आग के हवाले कर दिया। तीस लोग घायल हुए, और वैश्विक तेल की कीमतें चार डॉलर प्रति गैलन से छलाँग लगाकर आसमान छूने लगीं। 


यह युद्ध, सतह पर, तेल और शक्ति का क्षेत्रीय टकराव दिखता है, लेकिन इसके गहरे में कहीं सभ्यता के चित्त की गाँठें बंधी हैं—वह उल्लासोद्वलन (जुएसॉंस) जो पूंजीवाद की अतृप्त, अतिशय भूख में बसता है, और वह होमियोस्टेसिस, जो मानव सभ्यता की संतुलन की आकांक्षा में साँस लेता है। लगता है जैसे इज़राइल की धृष्टता ने किसी बिछे हुए बारूद को पलीता लगा दिया है और अमेरिका, अपने मोहरे को बचाने की उत्तेजना में, युद्ध की आग में कूद पड़ने पर मजबूर हो रहा है । 


लेकिन इरान के पीछे खड़े चीन और रूस, जो मिसाइल रसायनों, एस-300 हवाई रक्षा, और साइबर सहायता के जरिए संतुलन की रक्षा कर रहे हैं, वे अंततः इस आग को ऐसी वैश्विक, विस्फोटक घटना की ओर ले जा सकते हैं जिसके परिणाम चमत्कारी हुआ करते हैं । 


यह युद्ध पूंजीवाद के चरम अंतर्विरोधों के अंत का चरितार्थ होना प्रतीत होता है, जैसा कार्ल मार्क्स ने देखा था । इससे विपरीत अर्थ में हंटिंगटन के ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ व फुकुयामा के ‘इतिहास के अंत’ का तात्त्विक अर्थ भी प्रकट कर सकता है । 


सतह पर, यह युद्ध मिसाइलों और ड्रोनों का खेल है। इज़राइल की नब्बे प्रतिशत हमलों को रोकने वाली मिसाइल रक्षा, अमेरिका की टीएचएएडी प्रणालियाँ, और तीन अरब अस्सी करोड़ डॉलर की सालाना सहायता इस संघर्ष से जुड़े तथ्यों की टोपोलॉजी तैयार करते हैं। लेकिन यह टोपोलॉजी मानवता के चित्त की गाँठों के विक्षोभ को बाँधे रखने में विफल हो रही है — वह विक्षोभ, जो पूंजीवाद के चरम रूप साम्राज्यवाद की अतिशयता और मानव सभ्यता की संतुलन की आकांक्षा के बीच फटा जा रहा है। 


अमेरिका, सताईस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और तैंतीस ट्रिलियन के कर्ज के बोझ तले, अपनी जुएसॉंस में बिल्कुल विक्षिप्त अवस्था में है। यह वह अतृप्ति है, जो वैश्विक वाणिज्य के अट्ठासी प्रतिशत पर डॉलर के नियंत्रण, मध्य पूर्व के तेल मार्गों पर वर्चस्व, और सात सौ सत्तर अरब डॉलर के रक्षा बजट के बाद भी संतुष्ट नहीं है। इज़राइल, इस साम्राज्य के मोहरे के तौर पर परमाणविक सुविधाओं के फोर्डो के गहरे बंकरों पर हमला करके उसकी विक्षिप्तता को राक्षसी स्तर तक पहुँचा रहा है । 


चीन के मालों पर साठ प्रतिशत टैरिफ, चार प्रतिशत मुद्रास्फीति, और चरम आर्थिक असमानता, जहाँ एक प्रतिशत के पास आधी संपत्ति है - इन तथ्यों से पहले से ही यह साम्राज्य खोखला होता जा रहा है । इज़राइल के हमले से अब यह खोखलापन जग-जाहिर होने जा रहा है ।


इरान का जवाबी हमला, जिससे तेल अवीव के बाज़ार और हाइफ़ा की रिफाइनरी तबाह है, केवल एक सैन्य प्रतिक्रिया नहीं है। यह वैश्विक स्थिरता (होमियोस्टेसिस) की आकांक्षा है । वह संतुलन, जो पूंजीवादी अतिशयता के खिलाफ मानव सभ्यता की जीवित रहने की पुकार में निहित है। 


इरान, चीन, और रूस आज इस ख़ास संघर्ष में इसी आकांक्षा के वाहक हैं। चीन, उन्नीस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और सत्तर प्रतिशत रेयर अर्थ मिनरल्स के नियंत्रण के साथ, इरान को साइबर सहायता दे रहा है । यह साइबर खुफियागिरी की शक्ति, जो इज़राइली सैन्य नेटवर्क की निगरानी और जवाबी साइबर हमलों में इरान को लगातार सक्षम बना रही है। यह सहायता आज अमेरिकी साम्राज्य की डिजिटल नींव को हिलाने की क्षमता रखती है । 


दूसरी ओर रूस, यूक्रेन युद्ध में उलझा होने के बावजूद, अपने एस-300 सिस्टम और संभावित एसयू-35 जेट्स के जरिए इरान के साथ खड़ा है। 


ब्रिक्स और वैश्विक दक्षिण इरान के साथ है । ये सब प्रतिरोध की उस शक्ति के प्रतीक हैं जो दुनिया को एक प्रतिशत लोगों के लालच से नहीं, बल्कि बहुसंख्यक की आकांक्षा से विकसित करने के पक्ष में हैं। 


सैमुअल हंटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष को धर्म-आधारित संघर्ष के रूप में देखा था। पश्चिमी ईसाई सभ्यता बनाम इस्लामी दुनिया। लेकिन यह पूरी व्याख्या तेल, शक्ति, और पूंजी के खेल पर्दा डालती थी। इरान-इज़राइल युद्ध को भी यहूदी-शिया टकराव कहना इसकी सभ्यतागत गहराई को नजरअंदाज करता है। इसके अलावा, फ्रांसिस फुकुयामा ने पूंजीवादी लोकतंत्र को इतिहास का अंतिम पड़ाव कहा, लेकिन वह भी बचकानेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं था। शायद वे पूंजीवाद को ही इतिहास का पर्याय मानते थे ।  


आज, जब तेल संकट विश्व अर्थव्यवस्था को ठप कर सकता है, और परमाणु जोखिम—अमेरिका के सात हजार और रूस के पचपन सौ पारमाणविक हथियारों की छाया में—मानव अस्तित्व ही दांव पर है, तब हंटिगंटन का “सभ्यतागत संघर्ष” और फुकुयामा के “इतिहास का अंत” का भ्रम साफ तौर पर टूटता दिखाई देता है ।


आज चीन ट्रंप को उसके टैरिफ़ वार में रत्ती भर रियायत देने तैयार नहीं है और रूस की सामरिक शक्ति बनी हुई है । यही बताता है कि फिर एक बार दुनिया दो शिविरों में बँट चुकी है, जिसमें साम्राज्यवाद पतन की ओर है और स्थिरता, समानता और स्वतंत्रता की शक्तियां विकासमान है । शीतयुद्ध का अंत अब समाजवाद के पतन के रूप में नहीं, शांति और स्थिरता के पक्ष में होता दिखाई देता है।  


यह युद्ध सभ्यताओं के संघर्ष और इतिहास का अंत का तात्त्विक रूप है। यह सभ्यता का वह चौराहा है, जहाँ मानवता को चुनना है—विक्षिप्त साम्राज्यवाद  की आग में जलना, या एक स्थिर विश्व की कामनाओं की छाँव में साँस लेना। यह युद्ध वह तात्त्विक क्षण है, जो सभ्यता की नियति तय करेगा।




शनिवार, 14 जून 2025

नीलकांत जी का देहांत

-अरुण माहेश्वरी 



( प्रख्यात जनवादी कथाकार-आलोचक नीलकांत का 14 जून 2025 की सुबह 90 साल की उम्र में निधन हो गया है। वे उस पीढ़ी के कथाकार और आलोचक थे जिनके लिए विचारधारा के विशेष मायने थे। उनका एक उपन्यास ‘एक बीघा गोंयड़’ अस्सी के दशक में चर्चित हुआ था। उनकी अन्य औपन्यासिक कृतियां हैं – ‘बँधुआ रामदास’, ‘बाढ़ पुराण’। कहानी संग्रह हैं- ‘महापात्र’, ‘अमलतास के फूल’, ‘अजगर और बूढा बढई’, ‘मटखन्ना’। आलोचनात्मक कृतियां हैं – ‘रामचन्द्र शुक्ल’, ‘सौन्दर्य शास्त्र की पाश्चात्य परंपरा’, ‘मुक्तिबोध की तीन कवितायें’। ‘इतिहास लेखन की समस्यायें’ (दो भागों में), ‘जाति, वर्ग और इतिहास’, ‘राहुल : शब्द और कर्म’ का संपादन भी उन्होंने किया था। वे मूलतः जौनपुर के थे और इलाहाबाद में बस गए थे। उनकी स्‍मृति में यह लेख) 


“न हन्यते हन्यमाने शरीरे”। शरीर के नाश होने पर भी मनुष्य का अंत नहीं होता। वह तो हमेशा अदने देह के बाहर पूरे ब्रह्मांड तक फैला होता है, उसकी उम्र देह के साथ खत्म नहीं होती । 


यह पंक्ति आज नीलकांत जी के न रहने के समाचार के साथ जैसे हमारी पूर्ण अनुभूति में उतर आई । शरीर चला गया, पर जो कुछ उसके बाहर फैला था, उसकी कौंध हमेशा बनी रहेगी ।


जीवन में कुछ लोगों का संग ही अक्सर ऐसी घटना की भूमिका करता है, जहां से आप वह नहीं रहते, जो पहले हुआ करते थे । वे केवल स्मृति में नहीं, हमारी आत्म-रचना में ही हमेशा बने रहते हैं। 


एक समय रामचन्द्र शुक्ल पर उनके लेखों से हिंदी आलोचना के अकादमिक वृत्त में जैसे एक मूर्दानगी छा गई थी। अकादमी अर्थात् विश्वविद्यालय जो ज्ञान के क्षेत्र के मालिक संकेतन (master signifier) का केंद्र होता है, जहाँ से विचारों की नहीं, पूर्वग्रहों की सृष्टि होती है, नीलकांत जी उस हेडक्वार्टर पर बमबारी करने वाली सांस्कृतिक क्रांति का झंडा उठाए हुए थे । 


“कथा” पत्रिका में मार्कण्डेय के दिनों में उनके लेखन ने उस पत्रिका को साहित्य के आत्म-मूल्यांकन की जगह बना दिया था। और फिर एक बार, “लहक” पत्रिका में भी उनके लेखन से लगा कि हिंदी आलोचना फिर से कुछ कहने लायक बन रही है — आत्ममुग्धता से बाहर, आत्म-साक्षात्कार की ओर।


जॉक लकान ने जिस प्रमाता को केवल संज्ञा नहीं, आत्म-छवि, प्रतीकात्मकता और यथार्थ के तनाव की संरचना से बनी “गाँठ” के विक्षोभ के रूप में देखा था, नीलकांत जी उस गाँठ की एक प्रत्यक्ष उपस्थिति थे । आत्मछवि से मोहभंग, प्रतीकात्मकता को चुनौती, और यथार्थ का असहनीय बोध जिसे मुख्यधारा की आलोचना बार-बार टालना चाहती है, नीलकांत जी उसे जीते थे, अपने लेखन और जीवन के औघड़पन, दोनों में । वे उसी असहनीय को आलोचना के केन्द्र में लाकर एक नए नैतिक प्रमाता की जगह बना रहे थे।  


ऐसा लगता है जैसे वे किसी पहुँचे हुए पीर, औलिया की तरह आलोचना के उस वांछनात्मक अभाव को जान चुके थे जो स्वयं आलोचना को जन्म देता है। जॉक लकान जिसे विश्लेषक की वांछना (desire of the analyst) कहते हैं , विश्लेषक की वह इच्छा जो कभी पूरी नहीं होती, पर वही सबसे अधिक सृजनशील होती है, नीलकांत जी आलोचना के उसी “अभाव की गति” के संकेतक थे ।


हमारे लिए नीलकांत जी का जाना एक व्यक्ति का जाना नहीं है — यह हिंदी आलोचना की आत्म-संभावना का एक क्षरण है । वे हमारे लिए न केवल एक सजग लेखक थे बल्कि हमारी अपनी चेतना की बेचैनी भी है, जो बेचैनी हर मौन और दरार को प्रश्न बनाती है ।


नीलकांत जी मूलतः दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे। उनके लिए दर्शन संकल्पनाओं का अनुशासन नहीं, चिंतन की काव्यात्मकता थी जो आलोचना को उसके शास्त्र से अधिक, उसकी आत्मा की ओर ले जाती थी।


वे दृढ़ मार्क्सवादी थे। तीक्ष्ण वर्गीय दृष्टि और बौद्धिक प्रतिबद्धता के चलते आलोचना को सिर्फ कला के विवेचन के तौर पर नहीं, उन्होंने इतिहास की समझ के माध्यम के रूप में अपनाया था । चेतना और सिर्फ चेतना से अटे हुए कलावाद से संघर्ष में उनके लेखन का अंदाज़े-बयां उनके तर्क की कई सूक्ष्म दरारों को पाटने के लिए काफ़ी था । इससे यह भी पता चलता है कि किसी भी लेखन में शैली कथ्य से कम अर्थवान नहीं होती है। 


उनकी भाषा में उर्दू शायरी का संस्कार था — एक ऐसा सौंदर्य-बोध जो आलोचना को किसी क्लासरूम व्याख्यान का रूप नहीं लेने देता । पोलेमिक्स की सुप्रतिष्ठित मार्क्सवादी शैली में कहन का ठेस अंदाज़ उन्हें हिंदी आलोचना के प्रतिष्ठित मानदंडों पर भी उस ऊँचे  पायदान पर रखता है जहाँ हम अक्सर नामवर सिंह को पाते रहे हैं। 


हमारे अपने जीवन में नीलकांत जी की उपस्थिति केवल वैचारिक नहीं, बहुत निजी वरिष्ठजन की थी । इलाहाबाद और कोलकाता में हमने कई दिन साथ-साथ बिताएँ । वे हमारे घर भी आए, हमारे साथ रहे। एक बार तो पूरा एक महीना । 


इसी से ज़ाहिर है कि उनका निधन हमारे लिए एक कितनी बड़ी निजी क्षति भी है  । उन्हें हमारी आंतरिक श्रद्धांजलि । उनकी पत्नी, बेटे और सभी परिजनों के प्रति गहरी संवेदना । 


अंत में हम फिर एक बार कहेंगे, नीलकांत जी एक व्यक्ति नहीं, एक सतत विचार थे । एक स्वातंत्र्यकारी प्रक्रिया जो मानव का सबसे बड़ा सत्य है ।