मंगलवार, 21 नवंबर 2023

रेवड़ियाँ और उनकी राजनीतिक महत्ता

-अरुण माहेश्वरी 



क्रांतिकारी वामपंथी राजनीति में बहस का यह एक पुराना विषय रहा है कि जब किसी विश्व परिस्थिति में क्रांति का पुराना रूप संभव न दिखाई देता हो, जिसमें वर्गीय शोषण के सभी रूपों का अंत करके सर्वहारा की तानाशाही क़ायम करने की कल्पना की जाती है, तब राजनीति का लक्ष्य क्या हो सकता है ? यह सवाल ख़ास तौर पर भारत के अलग-अलग राज्यों में वामपंथी सरकारों की भूमिका के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक विषय बन कर सामने आया था । तभी, केरल में 1957 की पहली कम्युनिस्ट नेतृत्व की सरकार के समय से ही यह एक समझ बन चुकी थी कि पतनशील पूंजीवाद के काल में भारत की तरह के एक विकासशील संघीय पूँजीवादी देश में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्यों में वाममोर्चा सरकारों की भूमिका जनता को राहत पहुँचाते हुए उसमें क्रमशः क्रांतिकारी चेतना के विकास की ही हो सकती है । 


अर्थात् तभी से भारत में जनता की जनवादी क्रांति के दौर में जनता को राहत देने वाले कदम कृषि क्रांति आदि की तरह के कथित रणनीतिक महत्व के कदमों के समान महत्व के कदमों के रूप में मान्यता पाने लगे थे । आम जनता को जीवन में राहत देना क्रांतिकारी सामाजिक रूपांतरण की राजनीति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गए थे । 


इस प्रकार, ‘राहत’ और ‘समाज के वर्गीय संतुलन में परिवर्तन’ - इन दोनों से वामपंथी राजनीति के अस्तित्व का वह दोहरा (two fold) रूप सामने आया जो उस राजनीति के अपने मूल सत्य और उसके मौजूदा स्वरूप के बीच की अविच्छिन्न एकता को दर्शाता है और वही परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग रूपों में अपने को प्रकट करता है । 

कहना न होगा, प्रमाता (subject) के अस्तित्व के इस दोहरे रूप, हम जो हैं और हम जैसे हैं, की अविच्छिन्न एकता की यही शर्त जितनी वामपंथी राजनीति को परिभाषित करती है, उतनी ही किसी भी अन्य, उदारवादी या धुर दक्षिणपंथी राजनीति के सत्य को भी परिभाषित करने पर लागू होती है । इस विषय में यह देखने लायक़ बात है कि इतिहास में कभी जिन समाज कल्याणकारी नीतियों से सिर्फ समाजवाद को परिभाषित किया जाता था, उनसे ही कालक्रम में समग्र रूप से एक पूंजीवादी समाज में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा विकसित हुई है । हमारे भारतीय संविधान में तो राज्य की पूरी परिकल्पना ही एक कल्याणकारी राज्य के रूप में की गई है । 


भारत के संविधान की ही यह विशेषता रही है जिसके चलते भारत में वामपंथी राजनीति का अब तक का पूरा सिलसिला हमारे संविधान से टकराने के बजाय उसकी रक्षा का सिलसिला ज्यादा रहा है । संविधान में राज्य की कल्याणकारी भूमिका वामपंथी राजनीति के कार्यनीतिगत अर्थात् उसके तात्कालिक कार्यक्रमों के तमाम पहलुओं के लिए यथेष्ट अवसर पैदा करती रही है । इसीलिए भारत में जनतंत्र और संविधान की रक्षा के सवाल पर होने वाले संघर्षों में वामपंथ को हमेशा इस संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में पाया जाता रहा है । 


इसी संदर्भ में यहाँ हमारे लिए विचार का मौजू विषय है जनता को राहत या रेवड़ियों का विषय । प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दिनों राज्य सरकारों के द्वारा जनता को दी जाने वाली राहतों को रेवड़ियाँ कहा था क्योंकि अपनी फ़ासिस्ट विचारधारा के नाते वे जनता को राहत दिये जाने का अधिकारी नहीं मानते हैं । किसी के भी जीवन की परिस्थितियों में राहत पहुँचाने का अर्थ होता है उसके जीवन को सहज अर्थात् स्वतंत्र बनाना । इसीलिए जनता को गुलाम बना कर रखने वाले एक चरम दमनकारी राज्य के समर्थकों को ऐसी राहतें कभी मान्य नहीं हो सकती हैं। वे ‘राहत’ की अवधारणा से मूलतः नफ़रत करते हैं, इसीलिए उसे ‘रेवड़ी’ कहते हैं । फिर भी, उनकी राजनीति की भी यह मजबूरी है कि जब तक राज्य का जनतांत्रिक ढाँचा बना हुआ है, सत्ता की लड़ाई में वे ऐसी ‘रेवड़ियों’ के प्रयोग से परहेज़ नहीं कर सकते हैं । यही वजह है कि उनकी हरचंद कोशिश संविधान के इसी मूलभूत जनतांत्रिक ढाँचे को तोड़ने की रहती है । 


बहरहाल, जहां तक जनता को ‘राहत’ का सवाल है, इसका कोई एक निश्चित आकार नहीं हो सकता है । हम अपने इधर के छोटे से काल के अनुभवों को ही देखें तो पायेंगे कि यूपीए के काल में इन राहतों की बात मनरेगा से लेकर खाद्य और रोज़गार के अधिकार और किसानों के क़र्ज़ की माफ़ी तक चली गई थी । दिल्ली में ‘आप’ सरकार ने इसे बेहतर और मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य से जोड़ा । विभिन्न राज्य सरकारों ने इसमें महिला सशक्तिकरण और लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले कई नए प्रकल्प शामिल किए । वाम मोर्चा सरकारों ने भूमि सुधार और मुफ़्त बीज और खाद के वितरण से कृषि सुधार का जो कार्यक्रम अपनाया था उसे पंचायती राज्य की व्यवस्थाओं ने एक ठोस राजनीतिक ज़मीन दीं । मोदी सरकार ने इसमें उज्जवला और किसान सम्मान निधि की तरह की नगद राहत के साथ ही पाँच किलो मुफ़्त अनाज की योजना शामिल की । और, अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य को पूरी तरह से मुफ़्त करने के साथ ही समाज के अलग-अलग मेहनतकश तबकों के लिए अलग-अलग राहत योजनाओं को शामिल करके इसे क्रमशः सामाजिक न्याय के सवाल से जोड़ने और पिछड़े हुए तबकों की सत्ता में भागीदारी से जोड़ने की दिशा में बढ़ रही है । 


इस प्रकार, समग्र रूप से देखें तो हम पायेंगे कि वामपंथ जहां अपनी समतापूर्ण समाज की राजनीति के हित में राहत की दैनंदिन राजनीति को अपना रही थी, वहीं उदार पूंजीवाद कल्याणकारी राजनीति के ज़रिए सामाजिक न्याय की दिशा में बढ़ रहा है । और एक फ़ासिस्ट राजनीति राहत पैकेज देने पर भी इनके प्रति तिरस्कार के भाव को बढ़ावा दे रही है । 


एक जनतांत्रिक व्यवस्था में, जहां किसी न किसी रूप में जनता के प्रति जवाबदेही बनी रहती है, राजनीति की तात्कालिक ज़रूरतें कैसे राजनीति के उद्देश्यों के प्रकट रूपों के बीच के भेद को कम करती है और अनोखे ढंग से मनुष्य की मूलभूत ज़रूरतों के हित में चीजों को ढालती जाती है, भारत में राहतों की राजनीति की वर्तमान प्रतिद्वंद्विता इसी का एक प्रमाण है । इस समूचे उपक्रम में सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है संविधान के उस जनतांत्रिक ढाँचे का बना रहना जो राहतों को लेकर इस प्रतिद्वंद्विता की अनिवार्यता पैदा करता है । 


किसी भी प्रमाता (subject) के अस्तित्व का यही वह two fold, द्वयात्मक स्वरूप है, जो उसकी आंतरिक गतिशीलता का मूल कारक होता है । यही उसके अस्तित्व के नए-नए रूपों को सुनिश्चित करता है । इस बात को साफ़ तौर पर समझने की ज़रूरत है कि इसमें किसी बाहरी ईश्वरीय (विचारधारात्मक) परम तत्त्व की कोई भूमिका नहीं होती है । एक प्रमाता के रूप में भारतीय राजनीति के सभी रूपों की इस द्वयात्मक एकता की भी यही सच्चाई है । 


मनोविश्लेषक जॉक लकान ने इसे ही प्रमाता के आब्जेक्ट-ओ के रूप में व्याख्यायित किया था, प्रमाता में अन्तर्निहित उसकी अभिलाषाओं का खुद से ही छिपा हुआ वह अंश जिसकी पूर्ति के लिए वह हमेशा क्रियाशील रहता है । इससे मुक्त प्रमाता मृतक समान होता है । यह राजनीति में सत्ता की अविच्छिन्न अभिलाषा का ही एक अंश है । 

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

चुनाव के ऐन वक्त ईडी की करतूतें क्या कहती है ?


— अरुण माहेश्वरी



जैसे जैसे पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव क़रीब आ रहे हैं, मोदी में अपनी शक्ति के क्षरण के लक्षण तेज़ी के साथ प्रगट होने लगे हैं । अभी राजस्थान में चुनावी आचार संहिता के लागू हो जाने के बाद के काल में मुख्यमंत्री के घर पर ईडी आदि अपनी एजेंशियों के शिकारी कुत्तों से हमला करवाना भी उनके उन लक्षणों के ही संकेत हैं । आसन्न पराजय के साफ अंदेशों से अपनी अब तक की एकछत्र सम्राट वाली उनकी ग्रंथी उन्हें बुरी तरह से सताने लगी है ।

फ्रायडियन मनोविश्लेषण के सिद्धांतों से परिचित लोग जानते हैं कि आदमी के अचेतन में इस प्रकार का castration complex, शक्तियों के छीन लिये जाने की बधियाकरण ग्रंथी किस प्रकार लक्षणों की एक गाँठ के रूप में काम किया करती है । इस गाँठ के कई रूप होते हैं। इनमें एक गतिशील, लचीला रूप भी होता है जिसमें विक्षिप्तता की स्थिति के विश्लेषण अर्थात् निदान की संभावना बनी रहती है । पर दूसरा रूप वह है जो निदान की हर कोशिश के साथ उसी अनुपात में और जटिल होता जाता है, अर्थात् रोग पर क़ाबू के बजाय वह बढ़ता ही चला जाता है । व्यक्ति अपनी वास्तविकता को पहचान ही नहीं पाता है, बल्कि उससे और और दूर होता चला जाता है । वह अपनी अपेक्षित भूमिका के निर्वाह में हर दिन ज्यादा से ज्यादा असमर्थ साबित होता जाता है । उसके कारण जो स्थितियाँ पैदा होती है वह तो और भी जटिल होती है जिनकी मांगों को मनोरोगी जरा भी छू भी नहीं पाता है । 

यह मनोरोगी की शक्ति के क्रमिक अनिवार्य क्षय का ऐसा उपक्रम है जिसमें बधियाकरण के बाद की कल्पना से वह उभर ही नहीं पाता है । इसमें विडंबना की बात यह है कि मनोरोगी की अपनी पहचान ही  उसमें एक विप्रतिषेध तैयार करती है । वह जिसे अपनी भूमिका मान कर चलता है, जिसे लेकर उसे खतरा महसूस होता है, अर्थात् जिसके अभाव के बारे में सोच-सोच कर उसे वंचना का भाव सताया करता है, वह भावबोध उसमें कोई क्षणिका या तात्कालिक रूप में पैदा नहीं होता है बल्कि यह उसकी शक्ति में एक अनिवार्य गड़बड़ी के तौर पर स्थायी रूप में मौजूद होता है । हमारी ये बातें कोरी कपोल कल्पनाएं नहीं है । फ्रायड के अनुभवों और आदमी के मनोविज्ञान के बारे में उनके प्रयोगों से ये सिद्ध हैं । यह लोक रीति से जुड़ी हुई बातें हैं । 

मोदी लगता है अभी से अपनी पहचान को लेकर कुछ ऐसी ही मनोदशा के दुष्चक्र में फँस चुके हैं । 

शुरू में उन्होंने अपनी इस शक्ति के क्षरण को कुछ खास प्रकार की चुनावी रणनीतियों, सांसदों और पार्टी के नेताओं को विधायकी की लड़ाई में उतारने की क़वायदों आदि से रोकने की कोशिश की थी । लेकिन अब क्रमशः जब यह साफ होता जा रहा है कि उनके पतन के लक्षणों में इतनी लोच नहीं बची है कि उनमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से एक दूसरे शक्तिमान का आकार पाया जा सकता है । तब अंत में अब मोदी पूरी तरह से अपने पर, अपनी राजनीति के मूलभूत चरित्र, अपनी मूलभूत संघी सच्चाई पर उतर आए हैं, अर्थात् तानाशाही तौर-तरीक़ों, विपक्ष के खिलाफ पूरी बेशर्मी से राजसत्ता के बेजा उपायों से जनतंत्र में अपनी खोई हुई शक्ति को पाना चाहते हैं । 

आदमी की अपनी मूल पहचान का पहलू कुछ इसी प्रकार से उसे संकट के समय में नियंत्रित करने लगता है । इसीलिए कहते हैं कि संकट के वक्त ही आदमी के चरित्र की मूल पहचान सामने आती है । राजनीति में जनतांत्रिक और तानाशाही चरित्र की पहचान ऐसे अवसरों पर ही होती है जब व्यक्ति अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए किन रास्तों के उपयोग को अपने लिए श्रेयस्कर मान कर अपनाता है । 

विश्लेषकों के लिए जरूरी है कि उन्हें किसी की राजनीति के मूल चरित्र के इन लक्षणों की सचाई का पूर्व ज्ञान होना चाहिए । तभी वे इन्हें महज एक फोबिया या विकृति मानने के बजाय राजनीति के चरित्र और उसकी पहचान से जोड़ कर समझ सकते हैं । 

दरअसल आदमी की खुद की चारित्रिक पहचान भी उसके के भावों के निर्माण में प्रसंस्करण की प्रमुख भूमिका अदा करती है । राजनीति के मसलों में संकेतक और संकेतित के बीच जो विरोध नजर आते हैं उसमें इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संकेतित का प्रभाव तय करने में संकेतक की सक्रिय भूमिका अदा करते हैं । 

इसीलिए आज मोदी पर भी पराजय के संकेतकों की भूमिका को महत्वपूर्ण समझना चाहिए । वे क्रमशः मोदी के अवचेतन को उघाड़ रहे हैं । जाहिर है कि आगे इसके और भी भयंकर कुत्सित रूप देखने को मिलेंगे । इनका संबंध मोदी की सत्ता संबंधी अपनी वासनाओं से भी हैं और किसी की वासनाओं का संबंध सिर्फ उसके संतोष से नहीं होता । उसका उद्देश्य जितना व्यक्त होता है उतना ही अव्यक्त भी रहता है । आदमी की हर मांग आदमी की वासनाओं का एक खास रूप होती है । जाहिर है कि इन चुनावों में अभी हमें मोदी की मांगों के और भी बहुत भद्दे रूप देखने को मिलेंगे ।

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

रवीश, श्रीमंत लुकास और विनय घोष

 



कल रवीश कुमार अपने एक ट्वीट में अमेरिका के रोह्वी आइलैंड राज्य के प्रोविडेंस शहर में ‘सिम्पोजियम’ नाम की किताबों की एक दुकान का अनुभव साझा कर रहे थे जहां एक गीतकार श्रीमंत लुकास का  ‘प्यारा सा’ गीत बज रहा था — Just outside of Austin । 


इस गीत का टेक था — turn off the news and build a garden (समाचार को बंद करो बाग़वानी करो) । इसमें लेखक कहता है — “नफ़रत इस समय का लक्षण है । … सारे दूसरे विचार उलझन पैदा करते हैं। मुझे अब और कोशिश और समझने की ज़रूरत नहीं । समाचार बंद करो तो शायद जंग जाऊँ । …शायद कुछ अधिक मुक्त महसूस करूँ । समाचार बंद करो और बच्चों को खिलाओ । विश्वास ही विश्वास पैदा करता है । समाचार बंद करो बाग़वानी करो ।” ( Turn off the news and build a garden…Hatred is a symptom of the times,…All these other thoughts have me confused/ Now I don’t need to try and understand/Nay be I’ll get up, turn off the news…We might get feel a bit more free / Turn off the news and raise the kids … Trust builds trust) 


रवीश के इस ट्वीट को पढ़ कर हमें बंगाल के नवजागरण के अपने प्रकार के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार विनय घोष की सत्तर साल पहले कही गई वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने कोलकाता के संदर्भ में ‘मेट्रोपोलिटन मन’ (1967) शीर्षक एक लेख में आधुनिक मनुष्य के बारे में लिखा था कि “वह एक ऐसा प्राणी है जिसने सिर्फ़ भोग किया और अख़बार पढ़ा । …ये दोनों ही एक प्रकार का नित्य कर्म है, इनमें से किसी में कोई प्राण नहीं, चित्त नहीं है । पूँजीवादी यांत्रिक समाज में यही है आदमी की अंतिम परिणति ।” 


इसके बाद ही विनय घोष ने विद्यापति के एक पद को उद्धृत करते हुए लिखा : 


“तनु पसेब पासाहनि भासलि, पुलक तइसन जागु।

चूनि-चुनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बालआ भांगु।

भन विद्यापति कम्पित कर हो, बोलल बोल न जाए।”


(शरीर के प्रस्वेद से प्रसाधन बह गये, ऐसी पुलक उठी कि कंचुली तार-तार होकर फट गई । विद्यापति ने कहा कि इसके बाद जो हुआ हाथ कॉंप जाते हैं, उसे कह कर भी कहा नहीं जा सकता।)


विनय घोष कहते हैं कि “तब कवि के हाथ काँप गए थे यह लिखते हुए । अभी हमारे हाथ कॉंपते नहीं हैं । ऑटोमोबाइल की तरह आटोमैटिक लेखन में आधुनिक जीवन के बारे में सिर्फ रमन और भोजन की बातें ही अनर्गल रूप से कही जा सकती है । मनुष्य का वह शरीर तो शरीर ही है, पर वह प्रस्वेद अब नहीं है, जो है उसका नाम है पसीना, बासता हुआ पसीना । 


विनय घोष का यह लेख ‘मेट्रोपोलिटन मन’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध पुस्तक में संकलित है । इस पुस्तक का पहला संस्करण 1973 में ओरियेंट लांगमैन से निकला था । इसके बाद 2009 में ओरियेंट ब्लैकस्वान से इसका छठां संस्करण प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के लेख पाठक को कोलकाता महानगर मध्यवर्ग के तथाकथित ‘विद्रोही’ मन में बहुत गहरे तक पैठने का रास्ता तैयार करते हैं । 

विनय घोष ने 1951 में एक लेख लिखा था — ‘कालपेंचार नक़्शा’। काली प्रसन्न मुखर्जी की 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के कोलकाता के जीवन के बारे में किंवदंती स्वरूप पुस्तक ‘हुतुम पेंचार नक़्शा’ के शीर्षक की तर्ज़ पर ही इसका शीर्षक है । इसमें उन्होंने कोलकाता का जो चित्र खींचा था, देखने लायक़ है : 


“आइये, कोलकाता का असली बाइस्कोप देखते हैं । …पहले देखिए लाट साहब की कोठी ( गवर्नर हाउस) । फिर मोनुमेंट, मैदान देखिए, जादूगर (म्यूज़ियम) देखिए, बस-ट्राम पर नाना प्रकार के लोगों को देखिए, रंग-बिरंगी सजी हुई दुकानों को देखते-देखते चले जाइए काली घाट तक । काली घाट की काली देखिए, कोलकाता की गंगा देखिए, और उसके बाद चिड़ियाघर के तमाम विचित्र जीव-जन्तुओं को देखिए । जिराफ़ देखिए, हाथी देखिए, गैंडा देखिए, बाघ देखिए, भालू देखिए, उल्लू देखिए, बंदर देखिए, चिंपांजी देखिए, गुरिल्ला देखिए, वन मानुष और वन बिलाव देखिए। इसे ही चिड़ियाघर कहते हैं, कोलकाता का दूसरा नाम । अर्थात् जिसके पुकार का नाम ‘पहला’ उसका अच्छा ‘परमेश्वर ‘ । जैसे जिसके पुकार का नाम ‘चिड़ियाघर ‘ उसका असली नाम ‘कोलकाता’ । 


विनय घोष लिखते हैं कि “कोलकाता के कल्चर की 

मूल बात है — “पागलपन, मतवालेपन (हुजुम) और चालबाज़ी ( (बुजुरुकी) कोलकाता की प्राचीन संस्कृति इसी मतवालेपन और चालबाज़ियों की उपज बै ।” 


विनय घोष की ये टिप्पणियां समग्रतः कथित मेट्रोपोलिटन कल्चर पर की गई टिप्पणियाँ हैं । अख़बार और समाचार माध्यम इसी कल्चर के प्रमुख अंग हैं । 


आज अमेरिकी कवि कह रहा है, इन समाचारों को बंद कर दो ! बाग़वानी करो, बच्चों से खेलो । इस कल्चर का मूल जैसे अब अपने सारे आवरणों को फेंक कर नग्न बाहर आ गया है ! 


—अरुण माहेश्वरी


सोमवार, 11 सितंबर 2023

एक नई वैश्विक भूमिका के मुक़ाम पर भारत

 

(भारत की राजनीति में अघटन (catastrophe)की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतें

 


अरुण माहेश्वरी 

 


अघटन ऐसा कोई आसन्न विध्वंस नहीं होताजिससे हम सही रणनीतिबना कर अपने को बचा सकते हैं  अघटन अपने तात्त्विक अर्थ में हमारेजीवन में पहले से ही घटित सत्य हैऔर हमारा अस्तित्व उससे बचे हुएलोगमानो अवशिष्ट की तरह होता है  ‘हम , भारत के लोगका अर्थ है —  उपनिवेशवाद के अंत की एक भारी उथल-पुथल के बाद के बचे हुए लोग  

 

यह कुछ वैसे ही है जैसे धरती पर हुई भारी उथल -पुथल ने कोयला औरईंधन को पैदा किया और फिर धरती पर जब मनुष्य आया जो उसने इसईंधन का उपयोग करके अपने जीवन का यह विशाल महल तैयार किया।इस प्रकारमानव जाति की सामान्यता हमेशा किसी सर्वनाश के बादसत्य ही होता है  मानव सभ्यता मूलगामी क्रांतियों से आगे बढ़ती है  

 

आज हम मोदी युग के बाशिंदे हैं  अभी 2024 में नहींहमारे जीवन में मोदी नामक घटना-चक्र का सर्वनाश तो 2014 मेंही घटित हो गया था  आज हम उस अघटन से उत्पन्न सामाजिक ईंधन से अपना जीवन नए सिरे से तैयार कर रहे हैं।अर्थात्हम 2014 के अघटन के परवर्तीबचे हुए लोग है  अघटनोत्तर अवशिष्ट  

 

अपने बारे मे इस सत्य को बिना समझे हम कभी अपनी वास्तविकता को नहीं पहचान सकते हैं  राजनीति के क्षेत्र मेंग़नीमत है कि ‘भारत जोड़ों’ यात्रा के बाद ‘इंडिया’ मोर्चे के गठन से भारत के विपक्ष ने इस यथार्थ बोध का परिचय देनाशुरू कर दिया है  ज़ाहिर है कि इस लड़ाई के परिणाम भी 2014 के पहले की स्थिति में पुनरावर्तन के रूप में सामने नहींआयेंगे  उनसे आज के विश्व में भारत के पुनर्निर्माण की एक नई चुनौती पैदा होगी।इसीलिए अभी से ‘इंडिया’ मोर्चे कासंचालन उसके दूरगामी लक्ष्यों को सामने रखते हुए किया जाना चाहिए  इस मायने में सचमुच 2024 का महत्व एक औरआज़ादी की लड़ाई से कम नहीं होगा  यह दुनिया में उत्तर-उपनिवेशवाद की तरह ही उत्तर-फासीवाद के एक नए युग काप्रारंभ होगा  

 

आइयेयहाँ हम इस नई परिस्थिति की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतों को विचार का विषय बनाके हैं। मसलन्सबसे पहलेधारा 370 के विषय को ही लिया जाए  

 

सुप्रीम कोर्ट में धारा 370

 

सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली लगभग अठारह दिन की बहस के बीच से सरकार की इच्छा के विपरीत यह बातबिल्कुल स्पष्ट रूप में सामने आई है कि धारा 370 भारत के संविधान का एक अभिन्न अंग है  यह हमारे संविधान केसंघीय ढाँचे की अर्थात् संविधान की धारा -1 की पुष्टि करने वाली एक सबसे महत्वपूर्ण धारा है  

 

इसमें यह भी साफ़ हुआ कि धारा 370 ने भारत के साथ कश्मीर के पूर्ण विलय में कभी किसी बाधक की नहींबल्किसबसे बड़े सहयोगी की भूमिका अदा की है  पिछले पचहत्तर साल का भारत का संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास भीइसी बात की गवाही देता है  संघीय ढाँचा भारत के वैविध्यपूर्ण स्वरूप की एकता और अखंडता की एक मूलभूत शर्त औरभारत के संविधान की आत्मा है  इसीलिए धारा 370 को किसी भी शासक दल की राजनीतिक सनक का विषय नहींबनाया जा सकता है  धारा -370 को हटाना भारत के संघीय ढाँचे और संविधान पर कुठाराघात से कम नहीं है  

 

सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली बहस से ये बातें बिल्कुल साफ़ रूप में उभर कर सामने आई हैं। 

 

इस विषय पर सरकारी पक्ष संवैधानिक दलीलों के बजाय राजनीतिक नारेबाज़ियों का सहारा लेता हुआ दिखाई दिया सरकार की ओर से लगातार संघीय ढाँचे के खिलाफ केंद्रीयकृतएकात्मक ढाँचे के पक्ष मेंराष्ट्रपति में तमाम संवैधानिकशक्तियों और सार्वभौमिकता के निहित होने की तरह की तानाशाही की पैरवी करने वाली दलीलें दी जा रही थीं। इससेसिर्फ मोदी सरकार का तानाशाही चरित्र ही खुल कर सामने आया।

 

अब यह सवाल साफ़ हो चुका है कि संविधान के मूलभूत ढाँचे से जुड़ी इस प्रकार की एक धारा के बारे में कोई भी राय देनेके पहले किसी के भी सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि वह भारत में किस प्रकार का राज्य चाहता हैजनतांत्रिकधर्म-निरपेक्ष और संघीय राज्य या तानाशाहीधर्माधारित और केंद्रीयकृत राज्य  आपका यह नज़रिया ही धारा 370 केप्रति आपके रुख़ को तय करेगा  

 

धारा 370 में एक जनतांत्रिकधर्म-निरपेक्ष और संघीय भारत की अधिकतम संभावनाओं के सूत्र निहित है  इसे हटा करइनकी संभावनाओं को कम किया गया है  इस अर्थ में धारा 370 भारतीय संविधान का एक master signifier है 

 

भारतीय राज्य का सच यह है कि वह विविधता का महाख्यानबहु-जातीय आख्यानों का समुच्चयबहु-राष्ट्रीय राज्यअर्थात् एक आधुनिक उत्तर-आधुनिक राष्ट्र है। इसीलिए उसे बहु-देशीय उपमहादेश कहा जाता है। हमारे संविधान कीभाषा में, “इंडियायानी भारतराज्यों का एक संघ”  यह कोई एकात्मककेन्द्रीकृत राज्य या तानाशाही नहींराज्यों कास्वैच्छिक संघविकेंद्रित सत्ता पर आधारित सच्चा जनतंत्र है 

 

इसी बुनियाद पर भारत के संविधान में सार्वभौमिकता सिर्फ़ जनता (We the people) में निहित है  राज्य के बाक़ी सारेअंगोंन्यायपालिकाविधायिका और कार्यपालिका का दायित्व है कि वह जनता के मूलभूत अधिकारोंनागरिकस्वतंत्रताओंजन-जीवन में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं अर्थात् धर्म-निरपेक्षता और विभिन्न राज्यों के अपनेविधायी अधिकारों अर्थात् राज्य के संघीय ढाँचे की रक्षा करें  कमोबेश यही भूमिका राज्य के चौथे स्तंभ पत्रकारिता से भीअपेक्षित है  

 

भारत में कश्मीर के विलय के साथ संविधान में जिस धारा 370 को जोड़ा गयाउसके पीछे परिस्थितियों का कोई भीदबाव क्यों  रहा होउसमें अन्य राज्यों की तुलना में कश्मीर की जनता को प्रकट रूप में कुछ अतिरिक्त अधिकारों कीघोषणा के बावजूद वह भारतीय संविधान के संघीयजनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ढाँचे से पूरी तरह से संगतिपूर्ण था।फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि धारा 370 के ज़रिए भारत के संघीय ढाँचे के अंतर के उस तात्त्विक सच को कहीं ज्यादा व्यक्तरूप में रखा गयाजिसकी बाक़ी राज्यों के मामले मेंअर्थात् सामान्यतः कोई ज़रूरत नहीं समझी गई थी  

 

इस धारा के ज़रिएकश्मीर की नाज़ुक परिस्थितियों के दबाव में ही क्यों  होजनता के आत्म-निर्णय के उस अधिकारको प्रकट स्वीकृति दी गई थी जिसे किसी भी संघीय ढाँचे के सत्य का मर्म कहा जा सकता है। राज्यों के आत्म-निर्णय केअधिकार को ही संघीय ढाँचे का अंतिम सच कहा जा सकता है  अर्थात् उसे हासिल करने का अर्थ है राज्यों का अपनीप्राणी सत्ता में सिमट जाना और उनके प्रमातासंघीय ढाँचे के अंग के रूप का अंत हो जाना  

 

यही वजह है कि राज्यों का ‘स्वैच्छिक संघ’ विविधता में एकता का एक सबसे मज़बूत सूत्र है जिसमें हर राज्य अपनीअस्मिता से किंचित् समझौता करके ही संघ के साथ अपने को जोड़ता है  

 

कहना  होगाआज़ाद भारत कुल मिला कर एक ऐसे ही आधुनिक राष्ट्र के निर्माण का प्रकल्प था जिसमें कश्मीर काविलय इसके संघीय ढाँचे के लचीलेपन की पराकाष्ठा को मद्देनज़र रख कर किया गया था  भारत में जो तमाम कथितराष्ट्रवादी ताक़तें बिल्कुल प्रकट रूप मेंहमेशा भुजाएँ फड़काने वाले मज़बूत और केन्द्रीकृत भारत की कामना करती रहीहैंकश्मीर की विशेष स्थिति उन्हें कभी मान्य नहीं थी  उन्हें कश्मीर को अलग रखना मंज़ूर थापर उसे भारत में कोईविशेषाधिकार देना नहीं  इसीलिए इतिहास में वे कश्मीर को अलग रखने के पक्षधर महाराजा हरिसिंह के साथ खड़ी थी  

 

यह ज़ाहिर है कि भारत के पुनर्निर्माण के इस आधुनिकता के प्रकल्प में शुरू में उनकी जिस आवाज़ को दबा दिया गया थावही दमित आवाज़ अब धारा 370 को ख़त्म करने की बहस के ज़रिये प्रतिहिंसा के भाव के साथ लौट कर  रही है  यहभारत के आधुनिकता के प्रकल्प में सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता के बीच के अन्तर्विरोधों की अभिव्यक्ति है  

 

सांप्रदायिक ताक़तें धारा 370 पर हमला करके भारत की एकता के ‘स्वैच्छिक संघ’ के सबसे मूलभूत सूत्र को कमजोरकर रही है और भारत में विभाजनकारी ताक़तों के लिए ज़मीन तैयार करती है  मज़े की बात है कि इस भारत-विरोधीमुहिम का नेतृत्व वर्तमान केंद्रीय सरकार खुद कर रही है  इसीलिए इस धारा पर विचार के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट को पूरीमोदी सरकार के दक्षिणपंथी प्रकल्प पिपरा अपनी राय सुनानी है 

 

जी-20 सम्मेलन

 

अब दूसरा उदाहरण बिल्कुल ताज़ा जी-20 सम्मेलन का लिया जा सकता है  

 

सचमुचइसे देख कर लगता है कि मानो यह दुनिया एक अनोखीउल्टी-पुल्टी दुनिया है  भारत में जब शासक दल की राजनीति का मुख्यएजेंडा सांप्रदायिक असहिष्णुता पैदा करनानफ़रत फैला कर समाज कोतोड़ना और सभी जन-प्रचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा करके अभिव्यक्ति कीस्वतंत्रता का हनन है तब इसी देश के तत्वावधान में जी-20 सम्मेलन केघोषणापत्र में गाजे-बाजे के साथ धार्मिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति कीस्वतंत्रता के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ की मूलभूत प्रतिबद्धता को दोहरायागया है !

 

इस घोषणापत्र में कहा गया है कि “हम संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव /आरईएस/77/318, विशेष रूप से धार्मिकऔर सांस्कृतिक विविधतासंवाद और सहिष्णुता के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने की इसकी प्रतिबद्धता पर ध्यान देते हैं।हम इस बात पर भी जोर देते हैं कि धर्म या आस्था की स्वतंत्रताराय या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताशांतिपूर्ण सभा काअधिकार और सहचर्य की स्वतंत्रता का अधिकार एक दूसरे पर आश्रितअंतर-संबंधित और पारस्परिक रूप से मजबूतहैं और उस भूमिका पर जोर देते हैं ये अधिकार धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभावके खिलाफ लड़ाई में निभायी जा सकती है।’’

 

शब्दकोश के अनुसार उलट-पुलट जाने का अर्थ होता है कि आप जिस काम को बहुत सोच-समझ कर करते हैंवही ऐनआख़िरी वक्त में बिल्कुल बिखर जाएसारी चीज़ें दिशाहीन नज़र आने लगेक्या हो रहा हैक्या नहीं हो रहा हैइसकाकुछ पता ही  चले  पर जिसे हेगेलियन द्वंद्वात्मकता कहते हैंउसमें ‘उलट-पुलट’ का मायने यह है कि किसी भी एकसुचिंतित प्रकल्प का उसके घोषित उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत परिणाम निकलना — मसलनस्वतंत्रता के सपने काआतंक में बदल जानानैतिकता का मिथ्याचार मेंबेशुमार दौलत का बहुसंख्यक आबादी की ग़रीबी में तब्दील हो जाना 

 

मोदी चाहते है कि वे जी-20 का प्रयोग भारत में 2024 के चुनाव को जीतने के लिए करेंगे ; इससे अपनी कलंकितछवि को चमकाएँगे ; अपनी डूबती हुई राजनीति को पार करायेंगे  

 

पर जी-20 का सम्मेलन ख़त्म हो गयाहज़ारों करोड़ फूंक कर दिल्ली में भारी तमाशा हुआमोदी दुनिया के अनेकराष्ट्राध्यक्षों के विनयी सेवक बने हुए उनके चारों ओर मंडराते दिखेंलेकिन कुल मिला कर हासिल क्या हुआ ? हासिलवही हुआजिसे हम ‘उलट-पुलट’ कहते हैं  इस सम्मेलन में जिस घोषणापत्र पर सर्वसम्मति बनीउसकी एक भीपंक्ति मोदी की राजनीति का समर्थन नहीं करती है  

 

अर्थात् भारत में आगामी चुनाव प्रचार में मोदी सिर्फ दुनिया के नेताओं के साथ अपनी तस्वीरें चमका पायेंगेइससम्मेलन में हुई एक भी बात का वे प्रामाणिक रूप में कहीं उल्लेख भी नहीं कर पायेंगे  

 

उल्टेसम्मेलन के घोषणापत्र की बातों से लगेगा कि जैसे इसमें ‘नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ कीबात की ताईद की गई है  इसमें ‘धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभाव’ को ख़त्म करनेकी बात कही गई है जो ‘लव जेहाद’, ‘आबादी जेहाद’, ‘वोट जेहाद’ आदि-आदि नाना जेहादों के नाम पर मोदी औरआरएसएस की मुसलमान-विरोधी राजनीति को एक सिरे से ठुकराती है  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात भी मोदी कीनीतियों के खुले विरोध से कम नहीं है  

 

इस प्रकारआँख मूँद कर कोरे उत्सव-धर्मी भाव से नाचने-कूदने की मोदी की राजनीति के इस प्रहसन वाले हिस्से ने उनकीसमग्र राजनीति की कब्र खुद खोदने का काम किया है  अंत में जाकरजी-20 सम्मेलन के स्थल ‘भारत मंडपम’ मेंबारिश का पानी भर जाने से आयोजन की व्यवस्था की मोदी की दक्षता की भी पोल खुल गई है।

 

यह है 2014 के अघटन के बाद का भारत जिसमें ‘इंडिया’ की जनतांत्रिक राजनीति को एक नए वैश्विक इतिहास कीरचना करनी है  मोदी का ‘विश्वगुरु ‘ का प्रचार इसी प्रकार भारत में जनतांत्रिक आंदोलन की वैश्विक संभावनाओं कोखोल रहा है।