गुरुवार, 18 मई 2023

कर्नाटक ने भारत के राजनीतिक भविष्य की झलक दी है

 

−अरुण माहेश्वरी 



अन्ततः, कर्नाटका के नए मुख्यमंत्री की घोषणा के साथ ही, कह सकते हैं कि कर्नाटका का चुनाव संपन्न हुआ । विजयी कांग्रेस दल के विधायकों की पहली पसंद सिद्दारमैया फिर से एक बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री होंगे और इस शानदार जीत में अपनी मेहनत और निष्ठा के लिए बहुचर्चित नेता डी.के.शिवकुमार उप-मुख्यमंत्री। 

एक वाक्य में कहें तो कर्नाटक की यह जीत भारतीय जनतंत्र के अपने तर्क की जीत है । अगर इसे सुसंगत रूप में जीवित रहना है तो यह अपने शरीर में मोदी और बीजेपी की तरह की विजातीय फ़ासिस्ट शक्ति के साथ अधिक दिन तक कायम नहीं रह सकता है । इसे घुमा कर यूं भी कह सकते हैं कि अगर किसी भी तरह भारत के शासन का यह जनतांत्रिक ढांचा कायम रह जाता है तो इसमें आरएसएस-मोदी की तरह के फासिस्ट ज्यादा समय तक बचे नहीं रह सकते हैं । जनतंत्र के स्वास्थ्य की यह एक बुनियादी शर्त है कि इसे सांप्रदायिक फासिस्टों की जकड़ से मुक्त रहना पड़ेगा । शासन में जनतंत्र और आरएसएस लंबे काल तक साथ-साथ नहीं चल सकते हैं । ये ऐसे परस्पर-विरोधी है जिनका सामंजस्य नहीं चल सकता है । मोदी और आरएसएस जनतंत्र के लिए किसी काल से कम नहीं हैं । कर्नाटक में मोदी की हार ने सन् 2024 के आम चुनाव के परिणामों की एक झलक दे दी है । जनतंत्र बनाम फासीवाद का संघर्ष ही इन चुनावों का सबसे निर्णायक संघर्ष साबित होने वाला है । 2024 में जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की किसी भी प्रकार की गफलत अब सीधे तौर पर हमारे देश की सत्ता को नग्न फासिस्टों के हाथ में सौंपने से कम बड़ी भूल नहीं साबित होगी । मोदी विगत नौ सालों में ही अपने असल खूनी पंजों का परिचय दे चुके हैं । 

जहां तक कर्नाटक के चुनाव का प्रश्न है, इन परिणामों के बाद भी कांग्रेस में विधायक दल के नेता के चयन की जिस जनतांत्रिक प्रक्रिया की दरारों पर मोदी-शाह की गिद्ध दृष्टि थी, जिन दरारों से प्रधानमंत्री मोदी गोदी मीडिया नामक अपनी प्रेत-सेना के कुहराम से अपनी खोई हुई साख को थोड़ा छिपाने की आशा कर रहे थे, उस पूरे शोर ने भी अंततः कांग्रेस की कमी के बजाय उसके अंदर के लचीलेपन की ताकत को ही और जोरदार ढंग से उजागर किया है । उसने यही दिखाया है कि देश की राजनीति में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसमें मोदी सत्ता क्रमशः बिल्कुल लाचार और लचर साबित होने लगी है । उसका ईडी-सीबीआई-आइटी का त्रिशूल भी अब सुप्रीम कोर्ट की झिड़कियों का विषय बन चुका है । सुप्रीम कोर्ट में ईडी को कहा गया है कि जांच करो, पर डर पैदा मत करो । ऊपर से, जिस प्रकार किरण रिजिजू और राज्य मंत्री बघेल को हटा कर कानून मंत्रालय की सफाई की गई है, उसे भी कर्नाटक चुनावों का ही परिणाम कहा जा रहा है । मोदी के निर्देशों पर ही पिछले दिन यह मंत्रालय भारत की न्यायपालिका के लिए आंख का कांटा बन चुका था, उसने अब तक मोदी सरकार की ही हालत पतली कर दी है । सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के गैर-कानूनी क्रियाकलापों पर उंगली रखने से किसी भी मामले में चूक नहीं रहा है ।     

कर्नाटक चुनाव में मोदी का कितना कुछ दाव पर लगा हुआ था, उसे इस चुनाव के दौरान मोदी की तमाम हरकतों से भी जाना जा सकता है । गौर से देखने पर पता चलता है कि इस चुनाव में अंत तक आते-आते मोदी की दशा किसी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह की हो गई थी । विक्षिप्त आदमी ही किसी भी हालत में अपनी शक्ति में जरा भी कमी को नहीं देख सकता है । उसे हमेशा यह सवाल परेशान किया करता है कि आखिर क्यों, किसी दूसरी चीज के लिए, जो उसकी है ही नहीं, उससे बलिदान की मांग की जा रही है ? भारत का जनतंत्र और संविधान होगा किसी के लिए कितना भी मूल्यवान, पर उसके लिए मोदी क्यों कोई कीमत अदा करेंगे ? विक्षिप्त व्यक्ति कुछ इस प्रकार की फैंटेसी में जीता हैं कि यदि कोई उसके रास्ते में फिजूल के रोड़े न अटकाए तो उसके पास तो ईश्वरीय परमतत्त्व को पा लेने जैसी शक्ति है । मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने सपने के साथ अगले पचास साल तक भारत पर आरएसएस के राज की फैंटेसी से अपने को जोड़ लिया था । वे हिमाचल के धक्के को तो किसी तरह से झेल गए, लेकिन कर्नाटका का धक्का एकदम नाकाबिले-बर्दाश्त था । अपनी इसी धुन में उन्होंने कर्नाटका के चुनाव में खुले आम कानून और संविधान की धज्जियां उड़ाने और ‘जय बजरंगबली’ की तरह की धार्मिक हुंकारें भरने तक से परहेज नहीं किया । 

मोदी जान गए थे कि कर्नाटका में हार का अर्थ होगा उनके तमाम विश्वासों और मंसूबो का हार जाना । यही उनके सोच की फासिस्ट विकृति है जिसमें वे खुद के अलावा अन्य किसी की उपस्थिति को देख ही नहीं पाते हैं । बेबात, खुद पर ही मुग्ध रहते हैं । हमेशा दिखाते तो ऐसा हैं कि वे बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में कोरे प्रदर्शनों के सिवाय कुछ भी नया नहीं कर रहे होते हैं । इसीलिए मोदी को आप जब भी उनकी खुद के बारे में की गई फैंटेसी से काट कर देखेंगे, आपको उनका असल तात्विक रूप साफ रूप  दिखाई दे जाएगा । यह पता चलने में कोई बाधा नहीं रह जायेगी कि आखिर उनकी प्रेरणाएं क्या हैं ? कैसे वे अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में हिटलर और उसकी नाजी विचारधारा से प्रेरित रहते हैं । इससे कोई भी उनके सभी कामों को परखने का एक सही नजरिया हासिल कर सकता है ।

मनोविश्लेषण की दुनिया में मनोरोगी के सच को परखने का यही सबसे कारगर तरीका है कि उसकी प्राणीसत्ता को उसकी अपनी फैंटेसियों से काट कर देखा जाए । कर्नाटक में मोदी ने उसका खुला प्रदर्शन कर दिया था । 

इस चुनाव ने बीजेपी की क्या दशा की है उसे इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि चुनाव परिणाम के ठीक बाद ही शोक में डूबी बीजेपी ने एक बड़बोले बागेश्वर बाबा की गोद में मुँह छिपा लिया है । 

बहरहाल, हिमाचल के बाद कर्नाटक में भी सत्ता से बीजेपी को हटाने की घटना का आवर्तन अब भारत के जनतंत्र के सामान्य व्यवहार का संकेत दे रहा है । यह बात हर प्रमाता पर, व्यक्ति और व्यक्तियों के समूहों पर समान रूप से लागू होती है । प्रमाता के जो लक्षण उसकी मूल पहचान को दिखाते हैं, उनमें उसके वर्तमान व्यवहार के साथ ही उसकी भविष्य की गति का भी मिश्रण होता है । वह गति कब और किस रूप में अपने को जाहिर करेगी, यह समय और पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है । कर्नाटक के चुनाव से यही जाहिर हुआ है कि भारत की मौजूदा परिस्थितियां अब जनतंत्र की अपनी गति को व्यक्त करने के अनुकूल होती जा रही है । इसीलिए इन चुनावों का भारत के राजनीतिक भविष्य के लिए असीम महत्व माना जाना चाहिए । 


गुरुवार, 11 मई 2023

मोदी महज एक झुनझुना रह गये हैं


−अरुण माहेश्वरी 



कर्नाटक में एग्जिट पोल के परिणामों से साफ है कि मोदी बहुत तेजी से आर्थिक गतिरोध में फंसी कंपनियों पर लागू होने वाले ‘लॉ आफ डिमिनिसिंग रिटर्न’ के चक्र में फंस कर अब पूरी तरह से दिवालिया हो जाने की दिशा में बढ़ चुके हैं । 

हर राजनीतिक विश्लेषक यह जानता है कि मोदी और आरएसएस के पास राजनीति के नाम पर धर्म और सांप्रदायिकता के अलावा देने के लिए और कुछ नहीं है । उनके प्रति लोगों के आकर्षण का यदि कोई कारण है तो वह शुद्ध सांप्रदायिकता का उन्माद है, और उन्माद तो उन्माद ही होता है, जिससे निकलने में आदमी को काफी कीमत अदा करनी पड़ती है । 

दुनिया के सभी सभ्य समाज आज यह जानते हैं कि धर्म सार्वजनिक जीवन के लिए एक नितांत अनुपयोगी, बल्कि विध्वंसक चीज है । भारत के लोगों को भी धर्म के विध्वंसक रूपों का प्रत्यक्ष अनुभव रहा है । पर, धर्म-आधारित शासन भी उतना ही अनुपयोगी, और विध्वंसक है, भारत के लोगों को मोदी के पहले तक उसका अनुभव लेना बाकी था । पड़ोसी पाकिस्तान में समय-समय पर धार्मिक उन्माद की पुनरावृत्ति यहां भी लोगों में धर्म की राजनीति के प्रति वितृष्णा के साथ ही एक आकर्षण भी पैदा करती रही है । इसीलिए भारत के लोगों के एक तबके में आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के अलावा ‘सांप्रदायिक शासन’ के उन्माद के अतिरिक्त मजे का आकर्षण बना रहा है । 

कहना न होगा, 2002 के गुजरात जनसंहार के उत्पाद नरेन्द्र मोदी आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के उन्माद के इसी ‘अतिरिक्त मजे’ के आकर्षण का एक मूर्त रूप हैं । उन्होंने 2014 के पहले के भारत को बिल्कुल ऊसर और अनाकर्षक बताने के लिए थोथे ‘गुजरात मॉडल’ की माया का खूब प्रचार किया, जिसने उन्हें सांप्रदायिक उन्माद के केंद्र में ला दिया । जन-जीवन में सुधार और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण में शासन की भूमिका के लिहाज से मोदी की वास्तव में अपनी कभी कोई उपयोगिता प्रदर्शित नहीं की, फिर भी वे एक ऐसी राजनीतिक शख्सियत के रूप में गिने जाने लगे, मानो वे त्रिभुवन के राजा हैं । अर्थात् कहीं भी नहीं हैं, पर वे ही सर्वत्र हैं । 

बहरहाल, बच्चों को फुसलाने के लिए हवा से फुलाए गए ऐसे गुब्बारे का धीरे-धीरे फुस्स होना हमेशा लाजिमी होता है । कर्नाटक के एग्जिट पोल ने उनके इस पिचके हुए, अनुपयोगी और अनाकर्षक रूप को जैसे एक झटके में सामने ला दिया है । अब हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि मोदी तेजी के साथ भाजपा के लिए राजनीतिक लिहाज से अवांछनीय साबित होने के लिए अभिशप्त हैं । 2024 में भारत के लोग उन्हें एक फट चुके अनुपयोगी गुब्बारे की तरह फेंक कर उनसे मुक्ति पायेगी, इसमें कोई शक नहीं दिखाई देता है । 

कर्नाटक के चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने जितने करतब दिखाएं, उनका कोई हिसाब नहीं है । गाड़ी से लटक कर फूलों की बारिश के बीच रोड शो के नाम पर पूरे शहर को बंद करके घूमना तो उनका इधर का खास शगल हो गया है । इसके लिए वे सिर्फ फूलों पर लाखों रुपये फुंकवा देते हैं । कर्नाटक में भी उन्होंने अपने इस प्रदर्शन को दोहराया ।  कभी-कभी गाड़ी से उतर कर सब को किनारे कर चौड़ी सड़क पर अकेले किसी दीवाने की तरह मचलते हुए भी दिखाई दिए ।  इस बार, इन सबसे अधिक दिलचस्प था सभाओं में उनका ‘जय बजरंगबली’ का नारा । ‘जय बजरंगबली, तोड़ दुश्मन की नली’ के आक्रामक उन्माद का वे खुले आम प्रदर्शन कर रहे थे। 

कहने का अर्थ यह है कि मोदी कर्नाटक में किसी उन्मादी व्यक्ति की बाकी सभी हरकते कर रहे थे, लेकिन जो एक मात्र चीज नहीं कर पा रहे थे वह यह कि वे राजनीति नहीं कर रहे थे । राजनीति और अर्थनीति के विषय, जिन पर किसी राजनेता से सबसे अधिक अपेक्षाएं की जाती हैं, मोदी के भाषणों से एक सिरे से ग़ायब थे । संवाददाता सम्मेलन तो वे करते ही नहीं है । इस चुनाव प्रचार में मोदी ने न राष्ट्रीय राजनीति पर एक शब्द कहा और न अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर । खुद कांग्रेस और विपक्ष को खरी-खोटी सुनाते रहे, पर कांग्रेस पर उन्हें गालियां देने का रोना रोते रहे । यहां तक कि उन्होंने अपने उस महान करिश्मे का भी जिक्र नहीं किया कि कैसे उन्होंने रूस के राष्ट्रपति पुतिन को फोन करके यूक्रेन पर रूस के हमले को कुछ घंटों के लिए रुकवा दिया और वहां से भारत के फँसे हुए छात्रों को निकाल लाए । न उन्होंने कभी पाँच ट्रिलियन डालर की इकानामी का उल्लेख किया, तो न कोरोना की महामारी से निपटने में अपनी महान सफलता की कोई शेखी बघारी । अर्थात्, मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में राजनेता से अपेक्षित बातों के अलावा, उनके लिए जो कुछ संभव था वही सब किया । 

मोदी का कर्नाटक का चुनाव प्रचार ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि उनकी राजनीतिक हवा पूरी तरह से निकल चुकी है । कांग्रेस के सवालों की बौछार के सामने वे हर कदम पर बेहद लचर और लाचार दिखाई दिये ।

यह जाहिर है कि शुरू से ही मोदी ने कभी भारत के विकास और जनता की समस्याओं के समाधान के रास्ते का कभी कोई संकेत नहीं दिया था। बाद में, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर ईडी, आईटी, सीबीआई आदि को उनके वास्तविक कामों से भटका कर विपक्ष के खिलाफ लगा दिया और सभी लुटेरों को या तो लूट का माल ले कर देश से भागने में मदद की या अडानियों की तरह देश में जमकर लूट-मार करने का मौका देकर उनसे भाजपा की तिजोरी को पूरी बेशर्मी से भरा । 

इन सबके बावजूद, आम लोगों के बीच यदि मोदी का आकर्षण इन कुछ सालों तक बना रहा है तो इसकी एकमात्र वजह यही है कि मोदी का खुद में कोई उपयोग मूल्य नहीं होने पर भी उनका सांप्रदायिक उन्माद और सांप्रदायिक शासन का अतिरिक्त आकर्षण मूल्य बना हुआ था । इसे मनोविश्लेषण की भाषा में अतिरिक्त विलास मूल्य (surplus enjoyment) कहते हैं । जैसे मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार किसी भी माल में उसके उपयोग मूल्य के अलावा मुनाफे का अतिरिक्त मूल्य होता है, जिसका उपयोग मूल्य से कोई संबंध नहीं होता है । वैसे ही हर वस्तु के प्रति आकर्षण में एक अतिरिक्त विलास मूल्य शामिल होता है । आदमी का हर प्रकार का उन्माद इसी अतिरिक्त विलास की श्रेणी में पड़ता है और इसके चक्कर में ही आदमी अक्सर बहुत कुछ ऐसा कर देता है, जिसके लिए बाद में उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है, वह पछताता है । मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण भी उसी अतिरिक्त विलास के उन्माद की श्रेणी में आता है । 

जहां तक मोदी की राजनीतिक उपादेयता में तेजी से हो रहे ह्रास का संबंध है, इसकी गूंज अब सिर्फ हमारी राष्ट्रीय राजनीति में ही नहीं, अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी पुरजोर सुनाई पड़ने लगी है । भारत की अपने पड़ौसियों के बीच जो साख है, उसे तो सब जानते हैं । मोदी की चर्चा श्रीलंका और बांग्लादेश में अडानी के एजेंट के रूप में की जाती है । यूक्रेन युद्ध के बाद भारत ने रूस पर लगे प्रतिबंधों का लाभ उठा कर उससे रुपयों में तेल की खरीद का जो सिलसिला शुरू किया था, रूस ने अचानक उस पर रोक लगा दी है । रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लेवरोव ने भारत में ही रहते हुए साफ शब्दों में यह पूछा है कि उनके पास जो लाखो करोड़ रुपये फालतू जमा हो गए हैं, वे उनका क्या करें ? 

हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पहली बार मोदी को राजकीय भोज के लिए अमेरिका निमंत्रित किया है । इसके पहले मनमोहन सिंह को ऐसे भोज के लिए दो बार और नेहरू जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी तथा अटलबिहारी वाजपेयी को भी निमंत्रित किया जा चुका था । लेकिन मोदी को सत्ता में आए नौ साल बीत जाने के बाद बड़ी हिचक के साथ उन्हे निमंत्रित किया गया हैं । पर विडंबना देखिए कि मोदी को दिये गए इस निमंत्रण पर अमेरिका में तत्काल अनेक सवाल उठने लगे हैं । कल ही जब अमेरिकी सचिव ने संवाददाताओं के सामने इस बात की घोषणा की तो संवाददाताओं की ओर से साफ पूछा गया कि एक ऐसे व्यक्ति को राजकीय भोज के लिए बुलाना क्या बुरा नहीं लगेगा जो मानव अधिकारों के मामले में बेहद बदनाम है ! 

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि मोदी का महत्व क्रमशः अब जनता के उस मंदबुद्धि अंश के लिए एक झुनझने से अधिक नहीं बच रहा है जो आरएसएस के सांप्रदायिक जहर के दंश के बुरी तरह से शिकार है । जो आज भी मोदी-मोदी चिल्लाते हैं, वे शुद्ध उन्माद की दशा में हैं । वे जरा भी नहीं जानते कि वे क्यों चिल्ला रहे हैं ! मोदी उनके लिए सिर्फ एक नशा, एक अतिरिक्त मौज की चीज़ की तरह है । ‘एक के साथ एक अतिरिक्त’ के बिक्री के नुस्खे में जैसे अतिरिक्त के प्रति आकर्षण मूल से ज्यादा होता है, मोदी का आकर्षक कुछ वैसा ही है । इसे ही कुछ लोग ‘मोदी मैजिक’ कहते रहे हैं । सांसदों, विधायकों को चुनने के साथ ही एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी भी मिलेगा ! अर्थात्, मोदी के प्रति आकर्षण मुफ़्त की चीज़ के प्रति आकर्षण की तरह का रह गया है । स्वयं में मोदी का एक झुनझुने से ज्यादा कोई उपयोगिता मूल्य नहीं बचा है । लोग जब यह समझ जायेंगे कि यह झुनझुना भी ऐसे प्लास्टिक का बना हुआ है, जो बच्चों के लिए नुकसानदेह हो सकता है, तो उसे हाथ से फेंक देने में जरा भी समय नहीं लगायेंगे । कर्नाटक चुनाव के संकेतों में मोदी के इस अंत को बहुत साफ तौर पर देखा जा सकता है ।  



मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

बीजेपी की संघी प्राणीसत्ता को भूल कर उसके बारे में किसी सैद्धांतिकी का कोई औचित्य नहीं है


(हिलाल अहमद के लेख पर एक टिप्पणी)



−अरुण माहेश्वरी


आज के ‘टेलिग्राफ’ में हिलाल अहमद का एक दिलचस्प लेख है – ‘जनतांत्रिक’ बीजेपी के सामने चुनौतियां : संभावित अशांति । (The challenges faced by ‘democratic’ BJP : Potential Turbulence) इस ‘संभावित अशांति’ को दूसरे शब्दों में ‘अशनि संकेत’ भी कहा जा सकता है । 

यह लेख भारत की संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की परिस्थिति में सत्ता में जमी हुई बीजेपी के बारे में है । किसी भी प्रमाता (subject) को खास पारिस्थितिकी (topology) में कीलित (wedged) करके देखने से उसकी जो एक जड़ छवि बन सकती है, भारत की जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में आरएसएस की राजनीतिक शाखा बीजेपी की ‘जनतांत्रिक बीजेपी’ वाली छवि, वैसी ही एक छवि है ।

हिलाल अहमद अपने इस लेख का अंत इस वाक्य से करते हैं – “ इस अर्थ में, एक जनतांत्रिक पार्टी के रूप में बीजेपी का बने रहना राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और जनतांत्रिक दृष्टि से वांछनीय है ।” (The survival of the BJP as a democratic party, in this sense, is politically crucial and democratically desirable.)

‘इस अर्थ में’ ! क्या तात्पर्य है इससे ? हिलाल अहमद बताते हैं कि – “बीजेपी सिर्फ एक राजनीतिक विचारधारा की प्रतिनिधि नहीं है; वह उतनी ही इस देश के जनतांत्रिक परिवेश का अंग भी है । उसके सामने जो भी चुनौतियां हैं वे हमारे जनतंत्र की व्यवहारिकताओं से जुड़ी हुई हैं ।”

किसी भी विषय पर विचार के क्रम में यही वह ‘तात्कालिकता’ का बिंदु है जब हम अनायास ही प्रमाता को उसकी अपनी प्राणीसत्ता (being) से बिल्कुल अलग करके उसे महज उसके तात्कालिक परिवेश की उपज, उसी तक सीमित, और उसी में पूरी तरह से जकड़ा हुआ मान लेते हैं । अर्थात् उसके जन्म, जीवन और मृत्यु के वृत्तांत को, पूर्वापर विवेचन को अर्थहीन समझते हैं । हम भूल जाते हैं कि हर निकाय की स्वयं के अपने नियम-नीतियों से आबद्ध अपनी एक प्राणीसत्ता होती है । शुद्ध रूप में विवेचित किये जाने पर वह अपनी प्राणीसत्ता के नियम से ही चालित होता हुआ नजर आ सकता है । राजनीतिक दलों की बहुत सी कर्मकांडों की तरह की गतिविधियों में उसे साफ देखा जा सकता है ।

जहां तक भाजपा का संबंध है, उसके अध्ययन के लिए तो किसी के भी लिए एक अतिरिक्त सुविधा यह है कि आरएसएस के रूप में उसका शुद्ध रूप सबके सामने बिल्कुल जीता-जागता, ठोस रूप में विद्यमान है । आरएसएस के तमाम राजनीतिक लक्ष्य हो सकते हैं, पर वह इसीलिए अपने को समग्र राजनीतिक परिवेश से अछूता रखे हुए हैं, क्योंकि उसने अपने को एक ऐसी स्थिति में रख छोड़ा है जब राजनीति के जगत की अन्य शक्तियों से सीधे अन्तर्क्रिया करने की उसके सामने कोई अनिवार्यता नहीं है । पर उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा को निश्चित तौर पर यह सुविधा नहीं मिली हुई है । राजनीतिक दल के नाते उसे समग्र राजनीतिक परिवेश में ही काम करना पड़ता है । इसीलिए, वह यह जानती है कि जनतंत्र में राजनीतिक दल क्या नहीं होता है; राजनीतिक दल अपनी पहचान को राजनीतिक दलों के बीच ही पाते हैं; और वह अपने को इसीलिए जनतांत्रिक राजनीतिक दल कहती है क्योंकि अन्यथा अन्य राजनीतिक दल उसे राजनीतिक दल ही नहीं मानेंगे ।

यही वजह है कि आरएसएस का जो एकचालिकानुवर्तित्व का सिद्धांत उस संगठन के समग्र क्रियाकलापों और सिद्धांतों पर लागू होता है, भाजपा के मामले में वह सिद्धांत कुछ हद तक पीछे छिप जाता है । चुनाव आयोग के कायदे-कानून और राजनीतिक गंठजोड़ों की जरूरतों के तमाम नीति-नियम स्वाभाविक तौर पर उस पर लागू होने लगते हैं । यहां तक कि उसे धर्म-निरपेक्षता की भी कसमें खानी पड़ती है । इस अर्थ में देखें तो वह अपने मूल संगठन, आरएसएस से विच्छिन्न हो जाती है ।  

यह प्रमाता की विच्छिन्नता का एक सामान्य नियम है । प्रमाता का अपना परिवेश उसके अवचेतन का स्थान होता है । जिस क्षण प्रमाता में इस अवचेतन का, अर्थात् उसके अंदर का अप्रकट प्रकट होता है, उसी क्षण उसमें एक विच्छिन्नता पैदा होती है । वह अपनी मूल प्राणीसत्ता से कटता जाता है । इसके अलावा, प्रमाता में अन्य के साथ संपर्क से एक क्षति भी पैदा होती है । वह जब अन्य में अपने को पाने की कोशिश करता है, तब वह वहां अपने को क्षतिग्रस्त अंश के रूप में ही पा सकता है । 

मनोविश्लेषण की भाषा में, आरएसएस बीजेपी का master signifier है, प्रमुख संकेतक, उसका एक ईश्वर । ईश्वर के नाते आरएसएस किसी न किसी रूप में बीजेपी को petrified, जड़ीभूत करता है। इससे भी राजनीतिक दल के रूप में उसकी अपनी सत्ता क्षतिग्रस्त होती है । अपनी इस क्षतिग्रस्त प्राणीसत्ता से भी विच्छिन्न हो कर प्रमाता के रूप में बीजेपी राजनीतिक जगत की संकेतक श्रृंखला में अपनी एक अहमइदम की, अन्य राजनीतिक दलों के संदर्भ से जुड़ी, पहचान हासिल करती है । और कहना न होगा, उसकी यही पहचान आरएसएस के साथ उसके नाभि-नाल संबंध को, उसकी नैसर्गिक पहचान को छिपाती है ।

बड़ी आसानी से सामान्य राजनीतिक टिप्पणीकार भाजपा की मूलभूत, संघी, एकचालिकानुवर्तित्व के सिद्धांत से जुड़ी फासिस्ट प्रवृत्तियों को भूल जाते हैं और उसके विच्छिन्न, राजनीतिक जगत के ढांचे में उसके पुनरोदित रूप को ही अपने मन में बसा लेते हैं । प्रमाता अपनी प्राणीसत्ता से विच्छिन्न हो कर इसी प्रकार उसके लिए प्रतीक्षारत भाषा के क्षेत्र में उदित होता है और अन्य के स्थान पर उत्कीर्ण (inscribed) हो जाता है, अर्थात् वह अन्य के कागज पर लिखा जाता है ।

जब भी कोई ‘जनतांत्रिक’ भाजपा की बात करता है, तो वह भूल जाता है कि यह उसका अपने मूल रूप से कटा हुआ एक भ्रष्ट रूप है, जो उसके खुद के नहीं, सिर्फ ‘अन्य’ के कागज पर लिखा होता है । जहां तक  उसकी अपनी मूल प्रकृति का सवाल है, वह अपनी जगह कायम है ; खास तौर पर भाजपा के मामले में तो आरएसएस के जरिए उसके निखालिस रूप में साक्षात मौजूद हैं । ‘अन्य’ के साथ उसका संबंध इस प्रकार का द्वंद्वात्मक होता है कि उसमें वह जितना अपने को खोता है, उतना ही अन्य के जगत में अपना स्थान बना पाता है, और जितना अपने में बना रहता है, उतना ही ‘अन्य’ से कटता जाता है । 

पिछले नौ साल के मोदी के शासन को देखिए । देश की सभी संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का हनन यही बताता है कि भाजपा की अपनी मूलभूत संघी, एकाधिकारवादी प्राणीसत्ता अपने को स्थापित करने के लिए किस प्रकार पूरा जोर मार रही है । जाहिर है कि उसी अनुपात में भारत की जनतांत्रिक राजनीति से उसका अलगाव भी बढ़ रहा है । अब यदि वह समग्र परिस्थितियों को इस हद तक बदल देने में सफल हो जाते हैं कि देश की तमाम संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की हत्या ही कर दी जाती हैं, जैसा कि हिटलर के काल में हुआ था, तब उस पारिस्थितिकी (topology) के चौखटे में बीजेपी के साथ ‘जनतांत्रिक’ का तमगा लगाना असंभव हो जाएगा । इसीलिए बीजेपी तभी तक ‘जनतांत्रिक’ है, जब तक हमारे देश में जनतंत्र बचा हुआ है । जिस दिन बीजेपी की आकांक्षाओं की पूर्ति के मूल मंत्र, एकचालिकानुवर्तित्व का पूर्ण प्रभुत्व हो जाएगा, बीजेपी जनतांत्रिक नहीं, सिर्फ अपने निपट नंगे, मूल फासिस्ट रूप में सामने होगी । 

यही वजह है कि जब भी कोई बीजेपी के बने रहने की ‘वांछनीयता’ की सैद्धांतिकी तैयार करता है, उसके लिए पहली शर्त यह है कि उसे बीजेपी की मूल संघी प्राणीसत्ता को ताक पर रख कर, अर्थात् भूल कर चलना होगा । वह जो आज है, खुद में जितनी क्षतिग्रस्त और देश की राजनीति को उसने जितना क्षतिग्रस्त कर दिया है, उसे ही स्थायी मान कर चलने पर ही बीजेपी के प्रति इस प्रकार के किसी उदारमना सैद्धांतिकी का कोई, मामूली ही क्यों न हो, औचित्य हो सकता है । वास्तविकता यह है कि ऐसी सैद्धांतिकी महज एक पत्रकारितामूलक, तात्कालिक खपत के लिए किए गए लेखन से अधिक कोई मायने नहीं रखती है । चीजों को उनकी गत्यात्मकता में न देखना पत्रकारितामूलक लेखन का सबसे बड़ा दोष होता है, जो सिर्फ सत्य पर पर्दादारी का काम करता है, उसके विकासमान स्वरूप की कोई समझ नहीं देता । 

बीजेपी या कोई भी फासिस्ट विचारों पर टिका हुआ राजनीतिक संगठन किसी भी सैद्धांतिकी के अनुसार जनतंत्र के लिए वांछनीय नहीं हो सकता है ।       


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

कर्नाटक अभी से बीजेपी के भविष्य का संकेत देने लगा है

  

−अरुण माहेश्वरी 



कर्नाटक में सभी सूत्र अब कांग्रेस की भारी जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं । 

सी वोटर के यशवंत देशमुख, जो मोदी-शाह के तमाम नैतिक-अनैतिक चुनावी दांव-पेंचों के पंचमुख प्रशंसक रहे हैं, और राजनीति की अपनी खास समझ के अनुसार इन सारी करतूतों को ही राजनीति माने हुए हैं,  वे भी, मन मार के ही क्यों न हो, कर्नाटक में कांग्रेस को उसकी बढ़त की स्थिति से हटा नहीं पा रहे हैं । 

फिर भी, अपने पर क़ाबू रखते हुए इतना ज़रूर कर रहे हैं कि किसी न किसी बहाने यह मानने से इंकार करते हैं कि कांग्रेस की बढ़त हर बीतते दिन के साथ बढ़ रही है । वहां बीजेपी लगभग पूरी तरह से बिखर चुकी है, उसके पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार के स्तर के परंपरागत रूप से आरएसएस से जुड़े व्यक्ति तक बीजेपी को छोड़ कर कांग्रेस के पाले में चले गए हैं । उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी पहले ही कांग्रेस का झंडा उठाए घूम रहे हैं । और कई विधायक तथा भारी संख्या में बीजेपी के कार्यकर्ता उसे छोड़ चुके हैं । कर्नाटक में बीजेपी के नाम पर अभी सिर्फ पैसा फेंक कर थोथे दिखावे का खेल बच गया है । मोदी तिरछी टोपी लगा कर भाड़े की भीड़ के सामने हाथ हिलाते हुए घूम रहे हैं और अपने पर फूलों की बारिस कर रहे हैं । वास्तविकता यह है कि उसकी दशा जेडीएस से भी कमजोर हो चुकी है । जेडीएस के पास अपना एक खास वोट बैंक हैं, पर बीजेपी के पास थोथे अहंकार के अलावा कुछ नहीं है । 

फिर भी सी वोटर के यशवंत देशमुख यही कह रहे हैं कि अभी यह कहना मुश्किल है कि ‘कांग्रेस की स्थिति में कोई गिरावट आई है’ । अर्थात् बीजेपी की अगाध शक्ति के प्रति आज भी उनकी आस्था इतनी प्रबल है कि वे कांग्रेस की स्थिति में तेज वृद्धि की बात को खुल कर नहीं स्वीकार सकते हैं ।     

कुछ यही स्थिति देशमुख के सैद्धांतिक जोड़ीदार, कम्युनिस्टों के वर्गवादी मानदंडों की तर्ज पर भारतीय समाज के सभी लक्षणों के जातिवादी निदान के अमोघ शस्त्र के धारक अभय दूबे जी की भी है । वे भी बीजेपी और खास तौर पर मोदी की ईश्वरीय शक्ति के प्रति अगाध आस्था रखते हैं । 

दरअसल, यह मामला मोदी की शक्ति का नहीं, मूलतः हर दबंग सत्ताधारी के प्रति पूजा भाव का वह खास मामला है जो गोदी मीडिया का तो एक मात्र भाव होने के साथ ही गोदी मीडिया की ओर रुझान रखने वाले कई दूसरे मीडियाकर्मियों और टिप्पणीकारों का भी स्थायी भाव हुआ करता है । 

हमें हमेशा यह सोच कर आश्चर्य होता है कि ऐसे विश्लेषक कैसे आपातकाल की तरह के काल के अंत में जो व्यापक जन-प्रतिरोध उभर कर सामने आया था वे तब उसकी कैसे कोई व्याख्या करते होंगे ! ऐसे किसी भी काल में जब मनुष्य एक झटके में अपने अंतर की सभी अन्य पहचान-मूलक बाधाओं को तोड़ कर अपनी मानवीय प्राणीसत्ता का परिचय देता हुआ स्वातंत्र्य के मूल मंत्र से चालित होने लगता है और बड़ी से बड़ी आततायी शक्ति के शासन को तहस-नहस कर देता है ; संक्रमण के जिस बिंदु पर जो दृश्य के बाहर होता है, वही चमत्कार की तरह यकबयक पूरे दृश्यपट पर छाने लगता है − तब ‘स्थिर जातिवादी-वर्गवादी पहचान के सिद्धांतों से चिपके रहने वाले व्याख्याकार कितने बौने हो जाते हैं, लगता है भारतीय राजनीति में फिर से एक बार इन दृश्यों को देखने का समय आ गया है । कर्नाटक में हमारी राजनीति का एक ऐसा ही संक्रमण बिंदु आभासित होने लगा है ।  


बहरहाल, हम इतना जरूर कहेंगे कि कर्नाटक में जो हो रहा है या होने जा रहा है, वह सिर्फ कांग्रेस की जीत नहीं, मोदी-शाह के भ्रष्ट और अपराधी शासन के प्रति भारत के लोगों का ज़बर्दस्त अस्वीकार है । जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिए कांग्रेस के तार को सीधे तौर पर भारत के आम लोगों के साथ जोड़ दिए हैं । अब वह अपने पुराने भ्रष्ट नेताओं के बजाये क्रमशः जन-आकांक्षाओं से चालित हो रही है, जन-भावनाओं के मंच के रूप में सामने आने लगी है । कांग्रेस की जन-कल्याणकारी प्रतिश्रुतियों के अलावा जाति-गणना की तरह की युगांतकारी सामाजिक न्याय की माँगों का आज एक राष्ट्रीय मंच कांग्रेस बन रही है । 

इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी ने कांग्रेस को फिर एक बार वह आंतरिक विचारधारात्मक संहति प्रदान की है जो कांग्रेस को उसके परंपरागत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समूहों से जोड़ती है, उसके अंदर की पुरानी परिवर्तनकारी गतिशीलता को पुनर्जीवित करती है । आज कांग्रेस का आम कार्यकर्ता पहले के किसी भी समय से ज्यादा उत्साहित और एकजुट है और कांग्रेस भारत में विपक्ष की राजनीति की धुरी बन चुकी है ।

आगे 2024 तक आते-आते, भारतीय राजनीति में बीजेपी और मोदी-शाह के धुर्रे कैसे उड़ेंगे, कर्नाटक से इसके सारे संकेत मिलने लगे हैं ।     


बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

मनुष्य क्या है ?

 

गांधी-गोडसे वितंडा पर असग़र वजाहत ने एक जगह अपनी सफ़ाई में लिखा है — मनुष्य मनुष्य होता है, कोई देवता नहीं होता । गांधी भी एक मनुष्य थे और गोडसे भी एक मनुष्य । 

इससे पता चलता है कि वे यह नहीं जानते कि मनुष्य क्या होता है ? वे नहीं जानते कि मनुष्य सिर्फ एक शरीर, या एक प्राणी नहीं होता । उसके शरीर के साथ जुड़ा होता है उसका भाषाई अस्तित्व । वह एक सोचने-बोलने वाला प्राणी होता है । जन्म के बाद से ही अपनी शारीरिक प्राणीसत्ता से अलग  एक सामाजिक प्राणीसत्ता। उसकी यह आदिम विच्छिन्नता उसे भाषाई भेदों के जगत का प्राणी बनाती है । इससे ही हर मनुष्य की अपनी अलग-अलग पहचान होती है । 

इसीलिए ‘ मनुष्य मनुष्य होता है’ की तरह की दलील का कोई मायने नहीं होता । जब मनुष्य की श्रेष्ठता की बात की जाती है तो मानव योनि में जन्में प्राणी के लिए नहीं, मनुष्यत्व के उन गुणों लिए होती है जो मनुष्यों के प्रतीकात्मक जगत के संकेतों से परिभाषित होते हैं । उनसे ही हम गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में और गोडसे को एक सांप्रदायिक हत्यारे के रूप में पहचानते हैं । गांधी और गोडसे पर कोई भी चर्चा उनके अस्तित्व की इन पहचानों के साथ ही शुरू हो सकती है, उन्हें अनदेखा करके नहीं । 

हम नहीं जानते कि कोई कथाकार कैसे मनुष्यों के समाज में शुद्ध ‘मनुष्यमात्र’ की कथा लिख सकता है ! यह वैसी ही कथा होगी, जैसी पंचतंत्र की कथाएं हैं जिनमें पशु-पक्षी मनुष्यों की शिक्षा की बातें कहते हैं । वहाँ चरित्र नहीं, बातें प्रमुख होती है । अगर मनुष्यों के बीच संवाद का मसला उतना ही सरल होता तो गांधी-गोडसे के संवादों को तोता-मैना के संवाद के रूप में भी रखा जा सकता था ! 

असग़र वजाहत की तरह के आम तौर पर अभिधा में एकायामी चरित्रों की उपदेशात्मक कहानियाँ लिखने वाले लेखक ही ऐसा कर सकते हैं, और उन्होंने यही किया भी है । इसी वजह से उन्हें ‘मनुष्य’ के नाम पर मनुष्य की जटिल अस्मिताओं के विषय के कुत्सित सरलीकरण के आरोप की बात कभी समझ में नहीं आ सकती है । यह अभिधा-शैली के लेखक की ख़ास विडंबना है । इस शैली के लेखक की कथित ‘कलात्मक उड़ान’ का शायद यही हश्र हुआ करता है !

-- अरुण माहेश्वरी

सोमवार, 5 दिसंबर 2022

प्रतिवाद को क्या शब्दों का अभाव !

 

—अरुण माहेश्वरी


एक युग हुआ । सन् 2010 के बसंत का महीना था । तब अरब देशों में ‘सदियों’ की तानाशाहियों की घुटन में बसंत की एक नई बहार आई थी । ‘अरब स्प्रिंग’ । कहते हैं कि वह इस अरब जगत के लोगों के अंतर के सुप्त आकाश में इंटरनेट की एक नई भाषा के स्पर्श से उत्पन्न हर्षातिरेक का आंदोलनकारी प्रभाव था । बिना किसी पूर्व संकेत के रातो-रात लाखों लोग राजधानी शहरों के मुख्य केंद्रों में जमा होकर अपने देश की ‘अजेय’ तानाशाहियों को चुनौती देने लगे थे । सामने बंदूके ताने सैनिक और टैंक खड़े थे । पर जैसे जान की किसी को कोई फिक्र ही नहीं थी । बेजुबान जिंदगी के होने, न होने का वैसे ही कोई अर्थ नहीं था ! आदमी तभी तक जिन्दा है जब तक उसके पास अपनी जुबान है । ‘अपनी’ जुबान, अन्य की उधार ‘जुबान’ नहीं । अर्थात् स्वतंत्रता है तो मनुष्यता है, अन्यथा जीने, मरने का कोई अर्थ नहीं ! 

तुनीसिया से मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जौर्डन, कुवैत, ओमान और सुडान से होते हुए जिबोती, मौरिटौनिया, फिलीस्तीन और सऊदी अरबिया तक के मुख्य शहरों के केंद्रीय परिसरों में प्रतिवाद की आवाजों की जो ध्वनि-प्रतिध्वनि तब शुरू हुई थी, सच कहा जाए तो वह आज तक भी पूरी तरह से थमी नहीं है । इस दौरान इस क्षेत्र में न जाने कितने प्रकार के विध्वंसक संघर्ष और युद्ध हो गए, पर वह आग अब तक बुझी नहीं है । क्रांति के अपेक्षित परिणामों की तलाश कहीं भी थमी नहीं है । इसीलिए, क्योंकि वहां के लोगों ने जीवन की जिस एक नई भाषा को पाया है, उसे उनसे कोई छीन नहीं पाया है और न ही कभी छीन पायेगा । सदियों के धार्मिक अंधेरे से निकलना अब उनकी भी नियति है, जैसी बाकी सारी मनुष्यता की है ।   

दरअसल, मनुष्य का प्रतिवाद महज किसी भाषाई उपक्रम का परिणाम नहीं होता है, अर्थात् अभिनवगुप्त की भाषा में वह ‘शब्दज शब्द’ नहीं है । प्रतिवाद खुद में एक भाषाई उपक्रम है । इसे रोका नहीं जा सकता । भाषा की इस लाग से जीवित आदमी की कभी भी मुक्ति नहीं, बल्कि वही मनुष्य की पहचान होती है ।

आज की ही खबर है, आक्सफोर्ड में अंग्रेजी शब्दकोश बनाने वाले लेक्सिकोग्राफरों ने इस साल के सबसे अच्छे तीन नए पदबंधों में से एक को चुनने के लिए आम लोगों से राय मांगी थी । ये तीन शब्द थे — मेटावर्स, #आईस्टैंडविथ और गोबलिन मोड (goblin mode)। कुल 3,18,956 लोगों ने इन तीनों में से सबसे पहले स्थान के लिए जिस शब्द को चुना, वह है — गोबलिन मोड । इसका अर्थ होता है ऐसा बेलौस, अव्यवस्थित जीवन-यापन जो किसी सामाजिक अपेक्षा की परवाह नहीं करता है । ‘मेटावर्स’ को दूसरे स्थान पर रखा गया और ‘#आईस्टैंडविथ’ को तीसरे पर । 

अर्थात् लोगों की पहली पसंद है — स्वतंत्रता । नई तकनीक से परिभाषित पाठ के लिए मेटावर्स और समाज के साथ एकजुटता के भाव से अधिक सार्थक शब्द है — व्यक्ति स्वातंत्र्य का बोध कराने वाला पदबंध ‘गोबलिन मोड’। उसे ही वर्ष 2022 का सबसे श्रेष्ठ नया शब्द घोषित किया गया है । 

आज हम जब चीन में शासन के द्वारा कोविड के नाम पर चल रहे मूर्खतापूर्ण प्रतिबंधों के खिलाफ A4 आंदोलन की हकीकत को देखते हैं और जब ईरान में नैतिक पुलिस की स्त्री-विरोधी गंदगियों के खिलाफ जान पर खेल कर किए जा रहे प्रतिवाद के सच को देखते हैं, तब भी अनायास मनुष्य के अंतर में स्वातंत्र्य के भाव से उत्पन्न उसके उद्गारों के अनोखे यथार्थ के नाना रूप सामने आते हैं । ये दोनों आंदोलन आज आततायी राज्य के सामने भारी पड़ रहे हैं ।

नोम चोमश्की को आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रवर्तक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने भाषा के मामले को मूलतः मनुष्य की जैविक क्रिया के रूप में देखने पर बल दिया था । वे मनुष्य की भाषा और उसके शरीर की क्रियाओं को अलग-अलग देखने के पक्ष में नहीं है । उन्होंने भाषा शास्त्र को जैविक-भाषाई (bio-lingual) आधार पर स्थापित करने की बात की थी ।  

हमारे यहां तो हजारों साल पहले पाणिनी से लेकर अभिनवगुप्त तक ने शब्दों के बारे में यही कहा है कि यह मनुष्य के शरीर के मुख प्रदेश से निकली हुई, उसकी जैविक क्रिया के परिणाम हैं । अभिनवगुप्त ने ही शब्द की ध्वनियों को खौलते हुए पानी के बर्तन की वाष्प से उसके छिद्र (शरीर के मुख) के आकाश के संपर्क से उत्पन्न प्रतिध्वन्यात्मक प्रतिबिंब कहा था । (पिठिरादिपिधानांशविशिष्टछिद्रसंगतौ / चित्रत्वाच्चास्य शब्दस्य प्रतिबिम्बं मुखादिवत् ) अपने तंत्रालोक में वे शरीर के अलग-अलग अंगों से बिम्बित-प्रतिबिम्बित भावों की ध्वनियों के अलग-अलग, हर्ष और विषाद के ध्वनि रूपों तक का विश्लेषण करते हैं । पाणिनी के व्याकरण से लेकर अभिनवगुप्त के तंत्रशास्त्र में वर्णों के स्वर-व्यंजन रूपों के उद्गम की इस कहानी को पढ़ना सचमुच एक बेहद दिलचस्प अनुभव है ।    

पर आज चीन में तो हम भाषा की नहीं, भाषाहीनता की, मौन, बल्कि शास्त्रीय भाषा में कहे तो नश्यदवस्था वाले अप्रकट शब्द की, अर्थात् अप्रतिध्वनित ध्वनि के एक अद्भुत संसार के साक्षी बन रहे हैं । 

कल (5 दिसंबर 2022) के टेलिग्राफ में चीन में चल रहे प्रतिवाद के बारे में एक खबर का शीर्षक है — ‘चीन में तलवार से ज्यादा ताकत है A4 में’ । अर्थात् ए4 साईज के खाली कागज में । कागज के अंदर फंसी पड़ी अलिखित, अप्रकट, अव्यक्त, ध्वनि में । 

सचमुच थ्यानमन स्क्वायर (1989) वाले चीन में आज खाली कागज का टुकड़ा ! कभी एक महाशक्तिशाली राज्य के टैंकों से भिड़ जाने का तेवर और आज सिर्फ एक सादा कागज ! बस इतना ही महाबली की जीरो कोविड नीति की अप्राकृतिक अमानुषिकता के लिए भारी साबित हो रहा है ! पिछले कई दिनों से यह सिलसिला इंटरनेट के मीम्स के जरिए और चीन की चित्रमय मैंडरीन भाषा में नुक्ते के फेर से सारे अर्थों को बदल डालने के भाषाई प्रयोगों के जरिए चल रहा था । अब  उसका स्थान बिना किसी आकृति के कोरे कागज ने ले लिया है ।  


चंद रोज पहले रूस में लोग एक कागज पर स्वातंत्र्य के गणितीय समीकरण को लिख कर लहरा रहे थे । यह गणितज्ञ एलेक्स फ्राइडमान का एक ऐसा अंतहीन समीकरण है जिसे उसकी अनंतता के कारण ही ‘फ्रीमैन’ की संज्ञा दी गई है । इसके अलावा कुछ लोग कागज पर सिर्फ विस्मयादिबोधक चिन्ह (!) को एक लाल वृत्त में घेर कर लहरा रहे थे । जब ‘व्हाट्सएप’ या ‘वी चैट’ की तरह के ऐप से कोई संदेष सामने वाले को प्रेषित नहीं हो पाता है, तब उसके सामने यही विस्मयादिबोधक चिन्ह उभर कर आ जाता है । अर्थात् अप्रेषित संदेश जो अदृश्य कारणों से अपने गंतव्य तक जा नहीं पाया है । विस्मय का वह चिन्ह ही अदृश्य राज्य के दमन के खिलाफ प्रतिवाद का प्रतीक बन गया । 

रूस में जब ऐसे एक प्रदर्शनकारी से इसका अर्थ पूछा गया तो उसका संक्षिप्त सा जवाब था — ‘सब जानते हैं’ । अर्थात् अव्यक्त भावों के लिए कोई भी चिन्ह पहले से सुनिश्चित नहीं होता है । उसके कोई रूप ग्रहण करने का निश्चित नियम नहीं होता है । वह महज एक सुविधा का विषय है ।  

सोचिए, क्रांति का रास्ता रूसी क्रांति जैसा होगा, या चीनी क्रांति या किसी और जगह जैसा ? कितना बचकाना है यह सवाल !

चीन में जो नए-नए नारे तैयार हो रहे हैं, उनमें ‘शी जिन पिंग मुर्दाबाद’, ‘कोविड का परीक्षण नहीं चाहिए’ या ‘हमें आजादी चाहिए’ जैसे नारे तो शामिल हैं ही, पर साथ ही ऐसे विपरिअर्थी नारे भी है कि — ‘हमें और ज्यादा लॉक डाउन चाहिए’ ; ‘हमें कोविड परीक्षण चाहिए’ (I want more Lockdowns, I want to do Covid Tests) । माओ की चर्चित उक्तियां भी प्रयोग में लायी जा रही है — अब चीन के लोग संगठित हो गए हैं, और उनमें सिर घुसाने की कोशिश मत करो ।(Now the Chinese people have organised and no one should mess with them) 

चीन की चित्रात्मक भाषा में एक ही वर्तनी के भिन्न उच्चारण से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं । मसलन् banana skin को फेंको को ही भिन्न रूप में उच्चारित करने पर ध्वनित होता है — शी जिन पिंग को फेंको । फुटबाल विश्व कप के खेलों में बिना मास्क पहने दर्शकों की तस्वीरें भी वहां कोविड के प्रतिबंधों के प्रतिवाद का रूप ले चुकी है ।  

सचमुच, सवाल है कि प्रमुख क्या है ? प्रतिवाद का भाव या उसका रूप । शब्द या मौन ! आकृति या खाली कैनवास ! भाव खुद अपनी अभिव्यक्ति की आकृतियां गढ़ लेते हैं । भाषा तो मनुष्य के भावोच्छ्वासों के आकाशीय प्रतिबिंबों की उपज है । उन्हें भला कोई कैसे और कब तक दबा कर रख सकता है !


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

अपने उद्देश्य की सही दिशा में सफलता से आगे बढ़ रही है — भारत जोड़ो यात्रा

 

— अरुण माहेश्वरी 





इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ कांग्रेस नामक राजनीतिक दल से जुड़ी उस सांकेतिकता को सींच रही है, जिससे भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता, धर्म-निरपेक्षता, जनतंत्र और राज्य के संघीय ढाँचे के मूल्य ध्वनित होते हैं । 


ये मूल्य आरएसएस और मोदी के शासन के खिलाफ संघर्ष के अनिवार्य पहलू है । राजनीति में इन मूल्यों की कमजोरी के समानुपात में ही फासीवादी हिंदुत्व की जड़ें मज़बूत होती है । 


अगर 2024 की लड़ाई सांप्रदायिक फासीवाद बनाम धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र, केंद्रीयकृत राजसत्ता बनाम राज्य का संघीय ढाँचा, स्वेच्छाचार बनाम क़ानून का शासन, एकाधिकारवाद बनाम संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता, हिंदुत्व बनाम सर्वधर्म सम भाव — कुल मिला कर तानाशाही बनाम जनतंत्र की तरह के वैचारिक संघर्ष के मुद्दों पर लड़ी जानी है, तो ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ निश्चित तौर पर इस लड़ाई में कांग्रेस पक्ष के लिए एक पुख़्ता ज़मीन तैयार करने का काम कर रही है । 


स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा सभा चुनावों तक में उम्मीदवारों की पहचान, उनकी लोकप्रियता और छोटी-छोटी अस्मिताओं के सवाल और बूथ-स्तर के संगठनों की जितनी बड़ी भूमिका होती है, लोकसभा चुनाव का परिप्रेक्ष्य इन सबसे बहुत हद तक अलग हुआ करता है । 


यह एक लकानियन सिद्धांत है कि जानकारी पर टिका हुआ प्रमाता और संकेतकों का प्रमाता दो बिल्कुल अलग-अलग चीजें हुआ करते हैं । There is nothing in common between the subject of knowledge and the subject of signifier. 


भारत में विधान सभा और लोकसभा के चुनावों में subject of knowledge और subject of signifier के उपरोक्त भेद को बिल्कुल साफ़ तौर पर देखा जा सकता है । लोकसभा चुनावों के लिए पार्टियों की सांगठनिक शक्ति के ताने-बाने को तैयार करने के साथ ही उसके विचारधारामूलक सांकेतिक पक्षों को तीव्र रूप में सामने लाने का काम अतीव महत्व का काम होता है । 


सचमुच यह संतोष की बात है कि भारत में विपक्ष की सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष के चुनाव के साथ ही जहाँ अपने सांगठनिक ढाँचे पर क्रियाशीलता को एक प्राथमिकता दी है, वहीं ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के एक सर्व-समावेशी, व्यापक जन-आलोड़न पैदा करने के कार्यक्रम के ज़रिये ‘विविधता में एकता’ की अपनी राजनीति के संदेश के प्रसार के कार्यक्रम को संजीदगी से अपनाया है । निःसंदेह, कांग्रेस की तैयारियों का यही दो-तरफ़ा स्वरूप 2024 की लड़ाई में उसके लिए पुख़्ता ज़मीन तैयार कर रहा है । 


इसमें सबसे अच्छी बात यह भी है कि राहुल गांधी अपनी सदाशयता और प्रेम की सारी बातों के बावजूद बीच-बीच में सामने आने वाले कठोर विचारधारात्मक सवालों से सीधे टकराने में जरा सा भी परहेज़ नहीं कर रहे हैं । 


मसलन्, सावरकर के प्रश्न पर ही, राहुल गांधी ने अंग्रेजों के प्रति उनकी वफ़ादारी के दस्तावेज़ों को सबके सामने रखने में कोई कोताही नहीं बरती । राष्ट्रवाद और देशभक्ति की तरह के वैचारिक सवालों पर कांग्रेस के पक्ष को बिल्कुल साफ़ रूप में पेश करने के लिए ही यह ज़रूरी है कि आरएसएस के पूरे नेतृत्व की मुखबिरों वाली देशभक्ति का बेख़ौफ़ ढंग से पर्दाफ़ाश किया जाए । ऐसे सवालों से कतराना या इन पर किसी प्रकार की हिचक दिखाना संघर्ष की साफ़ दिशा को ओझल करता है । और हर प्रकार के वैचारिक भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति फासिस्टों के लिए बहुत लाभकारी हुआ करती है । 


इसमें कोई शक नहीं है कि 2024 के चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी तथा आर्थिक बदहाली के साथ ही राष्ट्रीयता और देशभक्ति की तरह के सांकेतिक मुद्दे कम निर्णायक भूमिका अदा नहीं करेंगे । इसीलिए, इस बात को बार-बार बताने की ज़रूरत है कि सावरकर ने न सिर्फ़ लिख कर अंग्रेजों की सेवा की इच्छा ज़ाहिर की थी, बल्कि अपनी वास्तविक राजनीति के ज़रिए भी वही किया था । यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्राज्यवाद का कोई चाकर ही भारत में हिंदुत्व की विभाजनकारी राजनीति का प्रवर्तक और गांधी जी की हत्या का षड़यंत्रकारी हो सकता था। सावरकर में इस विषय पर कोई द्वैत नहीं बचा था कि भारत की राजनीति में उनकी भूमिका के अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकें । 


‘भारत जोड़ों यात्रा’ को न सिर्फ़ भारत के बहुलतावाद और सर्वधर्म सम भाव पर आधारित धर्मनिरपेक्ष राज्य के मुद्दों को दृढ़ता के साथ सामने लाना है, बल्कि सावरकर की तरह के मुखबिरों की विभाजनकारी ‘देशभक्ति’ के बरक्स गांधी-नेहरू-पटेल सहित राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल समाज के सभी तबकों के त्याग और बलिदान की गौरवशाली परंपरा को भी स्थापित करना है । राहुल गाँधी ने दृढ़ता के साथ इस प्रसंग को उठा कर देशभक्ति के धरातल पर भी आरएसएस-मोदी के सामने एक सीधी चुनौती पेश की है । 


चुनावी गणित के नितांत स्थानीय और तात्कलिक मुद्दों के शोर में शामिल होने वाले संकीर्ण सोच के विश्लेषकों में लोकसभा चुनावों में सांकेतिक मुद्दों के महत्व की कोई समझ नहीं होती है । इसीलिए वे कभी या तो राहुल गांधी की यात्रा के रूट को लेकर परेशान रहते हैं, तो कभी उनके द्वारा सावरकर का नाम लिए जाने पर सिर पीट रहे होते हैं । इसकी वजह है उनके पास एक सर्वग्रासी फ़ासिस्ट शासन के विरुध्द व्यापकतम जनतांत्रिक प्रतिरोध की लड़ाई की रणनीति की समझ का अभाव । 


हमने इस यात्रा के प्रारंभ में ही इसे न सिर्फ़ भारत में, बल्कि सारी दुनिया मे फासीवाद के विरुद्ध समूची जनता को लामबंद करने का एक नायाब प्रयोग बताया था । हर बीतते दिन, और इस यात्रा के हर बढ़ते हुए कदम के साथ पूरे देश में इसके प्रति जिस उत्सुकता और उत्साह का वातावरण तैयार हो रहा है और जिस प्रकार क्रमशः आम लोगों के अंदर फ़ासिस्ट शासन के प्रति ख़ौफ़ की ज़ंजीरें टूट रही हैं, वह इसी बात का प्रमाण है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अपने उद्देश्य और दिशा, दोनों दृष्टि से ही सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है । हर सच्चे जनतंत्र प्रेमी व्यक्ति और शक्ति को इसकी सफलता के लिए यथासंभव योगदान करना चाहिए।


(20.11.2022)

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

रवीश कुमार ज़िंदाबाद !

 

— अरुण माहेश्वरी 



मोदी-अडानी, अर्थात् सरकार-कारपोरेट की धुरी का एनडीटीवी पर झपट्टा भारत के मीडिया जगत में एक घटना के तौर पर दर्ज हुआ है । एक ऐसी घटना के तौर पर जो अपने वक्त के सत्य को सारे आवरणों को चीर कर सामने खड़ा कर दिया करती है । नंगे राजा के बदन के मांस, मज्जा को भी खींच कर निकाल देती है । आज का शासन हर स्वतंत्र आवाज़ को पूरी ताक़त के साथ कुचल डालने के लिए आमादा है, इस पूरे घटनाक्रम ने इसे पूरी तरहसे पुष्ट कर दिया है । 




और, कहना न होगा, इस पूरी घटना को एक ठोस, वैयक्तिक रूप प्रदान किया है रवीश कुमार ने । एनडीटीवी पर सरकार-कारपोरेट धुरी का क़ब्ज़ा जैसे सिर्फ़ एक व्यापारिक मीडिया घराने की मिल्कियत पर एक और मालिक का क़ब्ज़ा भर नहीं, बल्कि भारतीय जनतंत्र में सच की आवाज़ का एक प्रतीक बन चुके रवीश कुमार का गला घोंटने की कोशिश का भी सरे आम एक निर्मम, निकृष्ट प्रदर्शन है । 




इसमें शक नहीं है कि रवीश कुमार-विहीन एनडीटीवी का सचमुच स्वयं में कोई ऐसा विशेष मायने नहीं है, कि उस पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े को मीडिया जगत के लिए किसी अघटन के रूप में देखा जाता । पर रवीश महज़ एक एंकर नहीं रह गये हैं । वे इस समय में फ़ासिस्ट दमन के प्रतिरोध और प्रतिवाद की आवाज़ के आदर्श प्रतीक के रूप में उभरे हैं । 




एक पत्रकार के रूप में उनकी कड़ी मेहनत, विषय की परत-दर-परत पड़ताल करने की तीक्ष्ण दृष्टि, अदम्य साहस के साथ एक अद्भुत लरजती हुई आवाज और धीर-गंभीर मुद्रा में उनकी प्रस्तुतियों ने उनमें पत्रकारिता के उन श्रेष्ठ मानकों को मूर्त किया हैं जो दुनिया के किसी भी पत्रकार के लिए किसी आदर्श से कम नहीं हैं । 




इसीलिए, आज उनका मज़ाक़ सिर्फ़ वे फूहड़ और बददिमाग़ लोग ही उड़ा सकते हैं, जो पत्रकारिता के पेशे में होते हुए भी किसी भी मायने में पत्रकार नहीं बचे हैं । वे या तो शुद्ध रूप में सत्ता के दलाल है या ‘चतुर सुजान’ की भंगिमा अपनाए हुए महामूर्ख इंसान । वे मनुष्य के प्रतीकात्मक मूल्य के पहलू से पूरी तरह से अनजान, सिर्फ़ उसके हाड़-मांस के अस्तित्व की ही जानकारी रखते हैं और अपनी इसी जानकारी पर इतराते हुए आत्म मुग्ध रहा करते हैं । मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में ऐसे ‘चतुर सुजानों’ की आपको एक पूरी जमात नज़र आ जाएगी । ऐसे लोगों के लिए प्रमाता के प्रतीकात्मक मूल्य से इंकार करके उसे लघुतर बनाना हमेशा एक खेल की तरह होता है । इसमें उन्हें कुछ वैसा ही मज़ा आता है, जैसे पौर्न के फेटिश खेल में जीवित इंसान को सिर्फ़ एक शरीर मान कर उससे मज़ा लूटा जाता है । 




इस लेखक ने तीन साल पहले ही अपनी एक विस्तृत टिप्पणी में रवीश कुमार को भारतीय मीडिया की एक विशेष परिघटना कहा था । आज एनडीटीवी पर सत्ताधारियों के क़ब्ज़े के वक्त गंभीर पत्रकारिता की पूरी बिरादरी ने जिस प्रकार की भावनाओं को व्यक्त किया है, उससे भी यही ज़ाहिर हुआ है कि एनडीटीवी और रवीश कुमार की तरह की पत्रकारिता पर कोई भी हमला पत्रकारिता-धर्म पर हमला है । यह जनतंत्र का एक स्तंभ कही जाने वाली एक प्रमुख संस्था पर हमला है । 




हम जानते हैं, सत्य को दबाने की जितनी भी कोशिश होती है, सत्य हमेशा नए-नए रूपों में सामने आने के रास्ते खोज लेता है । वह दमन की कोशिश की हर दरार के अंदर से और भी ज़्यादा तीव्र चमक के साथ आभासित होता है।  वह अपनी अनुपस्थिति में भी हमेशा उपस्थिति रहता है । मौक़ा मिलते ही सिर्फ़ लक्षणों में नहीं, ठोस रूप में भी प्रकट होता है । सत्य की संभावनाओं का कभी कोई अंत नहीं होता है । 




इसीलिए रवीश की संभावनाओं का भी कोई अंत नहीं होगा । जो कीर्तिमान उन्होंने स्थापित कर दिया है, उसे शायद ही कभी कोई मलिन कर पायेगा । और इस घटना को उनकी पारी का अंत मानना भी पूरी तरह से ग़लत साबित होगा । 

बुधवार, 16 नवंबर 2022

गालियाँ और मोदी जी !

—अरुण माहेश्वरी 



मोदी जी अक्सर हर थोड़े दिनों के अंतराल पर गालियों और कुत्साओं की गलियों में भटकते हुए पाए जाते हैं । 


या तो वे खुद अन्य लोगों को नाना प्रकार की गालियों से नवाजते हुए देखे जाते हैं, या अन्य की गालियों की गंदगी में लोटते-पोटते, आनंद लेते दिखाई देते हैं। 


उनके ही शब्दों में, हर रोज़ की ये कई किलो गालियां उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह होती हैं । 


सचमुच, फ्रायड भी यही कहते हैं कि व्यक्ति हमेशा घूम-फिर जिन बातों को दोहराता हुआ पाया जाता है, उसमें ऐसे आवर्त्तन हमेशा उसके लिए आनंद की चीज़ हुआ करते हैं । 


प्रमाता में ऐसा repetition उसके enjoyment पर आधारित होता है । 


पर फ्रायड यह भी कहते हैं कि इसी से उस चरित्र की कमजोरी, प्रमादग्रस्त प्रमाता के रोग के लक्षण की सिनाख्त भी होती है ।


इसमें मुश्किल की बात एक और है कि आदमी हमेशा दोहराता तो वही है, जिसे वह दोहराता रहा है, पर हर दोहराव में रफ़्तार की गति के कम होने की तरह, कुछ क्षय होता रहता है, और क्रमशः उसकी बातें उसके सिर्फ एक रोग के लक्षण का संकेत भर बन कर रह जाती हैं ।


फ्रायड कहते हैं कि इस प्रकार के दोहराव में व्यक्ति को उस चीज से मिलने वाला मज़ा ख़त्म होता जाता है । 


जॉक लकान कहते हैं कि यही वह बिंदु है जहां से फ्रायडीय विमर्श में ‘खोई हुई वस्तु की भूमिका’ (function of lost object) का प्रवेश होता है । 


यह व्यक्ति की वह मौज है जिसमें वह अपनी छवि की बाक़ी सब चीजों को गँवाता जाता है। इसे लकान की भाषा में Ruinous enjoyment कहते हैं । यह बिंदु उसी दिशा में बढ़ने का प्रस्थान बिंदु है । 


इससे व्यक्ति एक निश्चित, एकल दिशा के संकेतक में बदलता जाता है । उससे कोई भी जान पाता हैं कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है, वह क्या करने और कहने वाला है ॥ 


लकान व्यक्ति के बारे में आम जानकारी और उसके ऐसे संकेतक रूप से मिलने वाली जानकारी, इन दोनों को बिल्कुल अलग-अलग चीज बताते हैं । इनमें आपस में कोई मेल नहीं रह जाता है । यह संकेतक प्रमाता को अन्य संकेतक के सामने पेश करने का काम करता है । 


उसी से जुड़ा हुआ है व्यक्ति के अपने आनन्द में क्षय का पहलू । यहाँ आकर उसके आनंद की समाप्ति हो जाती है, और यहीं से उसमें दोहराव का क्रम चलने लगता है । ज़ाहिर है कि इससे प्रमाता के बारे में हमारी या अन्य की जानकारी भी सिकुड़ती चली जाती है । 


जैसे हमने देखा कि कैसे राहुल गांधी को पप्पू बना कर आरएसएस वालों ने उनके पूरे व्यक्तित्व को ही ढक दिया था । चूँकि वह राहुल पर आरोपित छवि थी, वे आज उससे आसानी से निकल जा रहे हैं । 


लेकिन जहां तक मोदी का प्रश्न है, एक झूठे और मसखरे व्यक्ति के रूप में अपने को पेश करना अपने बारे में उनकी खुद की फैंटेसी का हिस्सा रहा है, जिसमें लोगों को भुलावा दे कर सच्चाई से दूर रखना ही वे राजनीति का मूल धर्म मानते हैं । वे इसी फैंट्सी में मज़ा लेते हैं । 


यही वजह है कि अब हर बीतते समय के साथ मोदी जी के बारे में लोगों की पूरी धारणा ही एक झूठ बोलने वाले मसखरे की होती जा रही है। यह धारणा उन पर एक गहरे दाग की तरह, उनकी चमड़ी पर पड़ चुके एक अमिट दाग का रूप ले चुकी है । 


अब तक जिस दाग से वे खुद मज़ा ले रहे थे, वहीं अब अंततः उन्हें शुद्ध मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहा है । 


लोग हंस रहे हैं कि जो व्यक्ति हिमाचल के अपने एक छोटे से कार्यकर्ता को तो नियंत्रित नहीं कर पा रहा है, वह हांक रहा है कि उसने रूस के राष्ट्रपति से यूक्रेन के युद्ध को चंद घंटों तक रुकवा दिया !

बुधवार, 2 नवंबर 2022

विमर्श के लिए शब्द ज़रूरी नहीं होते हैं

—अरुण माहेश्वरी 




अभी चंद रोज़ पहले कोलकाता में गीतांजलि श्री जी आई थीं। प्रश्नोत्तर के एक उथले से सत्र के उस कार्यक्रम मेंघुमा-फिरा कर वे यही कहती रहीं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं हैं कि कोई उनके उपन्यास के बारे में क्या राय रखता हैं उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि ‘वे सोशल मीडिया तो देखती ही नहीं हैं’  लेकिन सच्चाई यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया मेंतो उन्हें मिले पुरस्कार की सिर्फ पंचमुख प्रशंसा वाली रिपोर्टिंग ही हुई है , उपन्यास की प्रशंसा या आलोचना की गंभीरचर्चाएँ तो अब तक सोशल मीडिया पर ही हुई हैं  

 

गौर करने की बात थी कि इस मीडिया को  देखने के बावजूद इस पूरी वार्ता में वे अपने आलोचकों को ही जवाब देनेमेंसबसे अधिक तत्पर नज़र  रही थीं  अपने आलोचकों के जवाब में उन ‘ढेर सारे’ पाठकों की प्रतिक्रियाओं का हवालादे रही थींजो उनके उपन्यास में अपने घर-परिवार के चरित्रों को और अपनी निजी अनुभूतियों की गूंज-अनुगूँज को सुनकर मुग्ध भाव से उन तक अपने संदेश भेजते रहते हैं  अर्थात्एक लेखक के नाते उन्हें परवाह सिर्फ अपने इनआह्लादितपाठकों की हैंआलोचकों की नहीं ! 

 

गीतांजलि श्री जी का यह व्यवहार कि जिन आलोचनाओं को वह देखती ही नहीं हैंउनके जवाब के लिए ही वे सबसेज़्यादा व्याकुल हैंयही दर्शाता है कि सचमुच किसी भी विमर्श के लिए ठोस शब्दों के पाठ या कथन का हमेशा सामनेहोना ज़रूरी नहीं होता है  लकान के शब्दों मेंइसे ‘बिना शब्दों का विमर्श ‘ कहते हैं। 

 

चूंकि हर विमर्श की यह मूलभूत प्रकृति होती है कि वह शब्दों कीकथन की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैइसीलिएठोस शब्द हमेशा विमर्शों के लिए अनिवार्य नहीं होते हैं  जो दिखाई नहीं देताया जिनसे हम मुँह चुराते हैंवही हमें सबसेअधिक प्रताड़ित भी किया करता है  इसे ही घुमा करखामोशी की मार भी कह सकते हैं  

 

गीतांजलि श्री आलोचना के जिन शब्दों को देखती ही नहीं हैंवे अनुपस्थित शब्द ही उनके अंदर ‘अन्य’ का एक ऐसा क्षेत्रतैयार कर देते हैंजो असल में ‘अन्य ‘ का अन्य नहीं होता हैवह उनके लेखन में ही निहित नाना संकेतकों के हस्तक्षेप सेनिर्मित एक अलग क्षेत्र होता है। जैसे होती है आदमी की अन्तरात्मा की आवाज़उसका सुपरइगो  

 

जो जितना सक्रिय रूप में अपने पर उठने वाले सवालों से इंकार करता हैवह उतना ही अधिक उन सवालों से अपने अंतरमें जूझ रहा होता है  

 

अभी दिल्ली मेंहँस के साहित्योत्सव में अलका सरावगी अपने चर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास ‘ के बारे मेंराजेन्द्र यादव के इस सवाल पर सफ़ाई दे रही थीं कि उनके इस उपन्यास में वह खुदयानी ‘स्त्री’ कहा है ? अलका जी काकहना था कि वह उपन्यास तो किन्हीं चरित्रों की कहानी नहीं हैवह तो कोलकाता के इतिहास की कथा है  

 

हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता काइतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 

 

इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के प्रकल्प कमजोर और दबे हुए चरित्रों की उपस्थिति से कैसे निर्मित हो सकते हैं ? स्त्रियोंका ऐसे प्रकल्प में क्या काम ! उनकी लाश पर ही हमेशा ऐसे प्रकल्प चल सकते हैं  ‘दुर्गा वाहिनी’ की कोई लेखिका क्यापूज्य हिंदू संयुक्त परिवार में स्त्रीत्व की लालसाओं की कोई कहानी लिख सकती है ? 

 

कहना  होगा, ‘कलिकथा वाया बाइपास‘ में लेखिका की गैर-मौजूदगी उस पूरे प्रकल्प की अपरिहार्यता थी  उसकीमौजूदगी तो वास्तव में उस पूरे प्रकल्प के लिए किसी ज़हर की तरह होता  

 

दरअसलअलका जी जिस बात को नहीं कहना चाहती हैउपन्यास में उनके  होने की बात नेअर्थात् उनकी अनकही बातसे उत्पन्न विमर्श ने वही बात कह दी है। अर्थात्राजेन्द्र यादव के जवाब में उनकी बातों से यदि कोई विमर्श पैदा होता है तोवह असल में उनकी कही हुई बातों से नहींउन्होंने जो नहीं कहा हैउन बातों से ही पैदा होता है  

 

विमर्श इसी प्रकार  सिर्फ शब्दों की सीमाओं का अतिक्रमण करता हैबल्कि बिना शब्दों और बातों के भी पैदा हुआकरता है 

  




हमारा बुनियादी सवाल है कि कोलकाता का इतिहासया बांग्ला जातीयता के बरक्स मारवाड़ी जातीय श्रेष्ठता का इतिहास  ! कोलकाता का इतिहास और बांग्ला जातीयता का तिरस्कारक्या यह भी कभी साथ-साथ संभव है ! 


इसके अलावाजातीय श्रेष्ठता के