बुधवार, 6 मार्च 2024

जनमानस तेजी से बदल रहा है

(राहुल गांधी की यात्राओं में जन समुद्र की परिघटना का एक विश्लेषण) 

अरुण माहेश्वरी

 


राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा और उसमें हर जगह पर उमड़ती हुई भीड़, खास तौर पर पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के नौजवानों का उच्छवसित भाव, पटना के गांधी मैदान में जन-सैलाब और लालू यादव के प्रति बिहार के आम लोगों के लगाव का क्रमशः उनके बेटे तेजस्वी यादव के प्रति स्नेह में बदलते हुए देखना  हमारी आँखों के सामने उभरता हुआ यह समूचा दृश्य एक ऐसी नई परिघटना के रूप में सामने आ रहा है जो सामान्य टीका-टिप्पणी से आगे जाकर कहीं ज्यादा गंभीर विश्लेषण की अपेक्षा रखता है ।  

यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि उत्तर भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति आम लोगों का आग्रह फिर से एक बार धीरे-धीरे जड़ पकड़ने लगा है । लगातार साठ साल के कांग्रेस के शासन में छीजते-छीजते कांग्रेस दल 2014 तक ऐसी दशा में पहुंच गया था कि नरेन्द्र मोदी और आरएसएस ने बेहिचक कांग्रेस-मुक्त भारत के निर्माण के लक्ष्य का ऐलान कर दिया। इस प्रकार, प्रकारांतर से उन्होंने कांग्रेस की मृत्यु का ही ऐलान कर दिया था । 

इस सचाई से इंकार भी नहीं किया जा सकता है कि 2014 तक अनेक प्रदेशों से कांग्रेस के संगठन का लगभग सफाया हो चुका था । कांग्रेस भारत की राजनीति में एक दूरस्थ विचार बनती जा रही थी । 

हम सब जानते हैं कि राजनीति में होना विचार में होना मात्र नहीं होता, इस होने में संगठन नामक एक ठोस शरीर का होना अनिवार्य होता है । और, कांग्रेस उस शरीर को ही खो चुकी थी ! भारत में राजनीति की एक प्रमुख जरूरत के ही लगभग बाहर जाती हुई दिखाई देने लगी थी ।

ऐसी स्थिति में, आज फिर से कांग्रेस का हमारी राजनीति की कथित प्रमुख जरूरत, सांगठनिक ताने-बाने के के क्षेत्र क बाहर से ही उभरना और क्रमशः राजनीति के मंच के केंद्र में आते हुए दिखाई देना, किस बात का द्योतक है ?

यह स्वयं में एक ऐसी परिघटना है जिसे मनोविश्लेषण में प्रेम की मांग की निःशर्त स्थिति (unconditionality of the demand for love) से जुड़ी एक अलग परिघटना बताया गया है । इसमें जिस प्रेम को कभी खत्म मान कर आगे बढ़ जाने का फैसला कर लिया जाता है, वही प्रेम फिर किसी मोड़ पर, आदमी की जरूरत के दायरे के बाहर के क्षेत्र में फिर से खड़ा दिखाई देने लगता है और आदमी के दिलो-दिमाग पर छा जाता है ।

जब भारत के लोगों ने कांग्रेस के प्रति अपने आग्रह को झटक कर उसके विपरीत छोर, मोदी की तरह की एक घनघोर सांप्रदायिक शक्ति का दामन थाम लिया, इसके बाद आज निराशा के एक नए दौर में लोगों में अपने उस ठुकरा दिये गये प्रेम की निश्छल स्मृतियां बिल्कुल अलग से, उनकी जरूरत और स्वार्थ के दायरे के बाहर के क्षेत्र में खड़ी दिखाई देने लगी है । मजे की बात यही है कि भारत के लोगों के उस पुराने प्रेम के नये आग्रह के रूप में इस पुनर्वतार में भी प्रेम के लिए जरूरी निःस्वार्थता का ढांचा अन्तर्निहित है, जो इसे तूफ़ानी शक्ति प्रदान कर रहा है कांग्रेस शासन के पिछले कई सालों का नकारात्मक आख्यान इसमें कहीं से आड़े नहीं आ रहा । 

यही वजह है कि कांग्रेस के प्रति जनता के आग्रह की इस वापसी को ‘नकार का नकार’ (negation of negation) भर कह कर शायद विश्लेषित नहीं किया जा सकता है । 

जॉक लकान ने इसे किसी खोई हुई वस्तु की शक्ति (power of pure loss) कहा था । यह शक्ति हमेशा राख से चिंगारी की तरह भड़क कर सामने आया करती है । हमारी जो प्रिय वस्तु खो जाती है, वह जब हमारे पास होती है, यह उससे कहीं ज्यादा लुभावनी हो उठती है। अब उसके होने में हमारी जरूरत के बजाय उसके प्रति निःशर्त लगाव की भूमिका कहीं ज्यादा प्रमुख होती है । 

कहना न होगा, राजनीति में असंभव की तमाम संभावनाओं का यह भी एक प्रमुख स्रोत है  खोई हुई वस्तु की शक्ति ।

यह सच है कि राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्राओं से कांग्रेस के उस रूप को पुनर्जीवित करने के निश्चय को दोहरा रहे हैं जो हमेशा से भारत में सभी उत्पीड़ित जनों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए आश्वस्तिदायक रहा है । जिसके चलते उनके जीवन में वास्तव में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं । यह भारतीय राजनीति में लोक कल्याण, समानता, न्याय, धर्म-निरपेक्षता और संघवाद की तरह के मजबूत आधार स्तंभों पर टिका एक गहरा विश्वास भी है । 

साठ सालों के शासन में कांग्रेस ने जितना अपने को उस भूमिका से अलग किया, उसी अनुपात में भारत की व्यापक पीड़ित-वंचित जनता से उसका नाता टूटा । 

आज राहुल गांधी ने फिर से कांग्रेस की पुरानी भूमिका को पुनर्जीवित करने के आश्वासन के साथ सभी वंचित समुदायों में कांग्रेस के प्रति पुराने अनुराग की राख को हवा देना शुरू किया है । खास तौर पर इन वंचित समुदायों के नौजवान तबकों को उनकी इस नई राजनीति में उस मोहब्बत की खुशबू आने लगी है जो उन्हें शुद्ध रूप से अपने स्वार्थ से जुड़े जातिवाद के बजाय राष्ट्र के समतापूर्ण, न्यायपूर्ण विकास के संविधान-सम्मत निश्छल भाव से अनुप्रेरित और उत्साहित करती है ।    

जॉक लकान कहते हैं कि निःस्वार्थ मांग के कारण आदमी की चाहत ही उसके लिए परम हो जाती है । (For the unconditionality of demand, desire substitutes the “absolute” condition)  प्रेम को प्रमाण की जरूरत नहीं रहती । इसमें पड़ा मनुष्य स्वार्थ और जरूरत की पूर्ति के तत्त्व से विद्रोह करता है । लकान ने इसे आदमी में पड़ने वाली दरार की ऐसी परिघटना बताया था जो अनायास अंतर की एक छिपी हुई शक्ति को प्रबलतम शक्ति का रूप दे देती है । लकान ने इसका इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था :

“चाहत न संतुष्टि की भूख है और न प्रेम की मांग, बल्कि संतुष्टि की भूख में से प्रेम की मांग को घटा देने पर जो बचता है, आदमी में उस दरार की परिघटना है ।” (“This is why desire is neither the appetite for satisfaction nor the demand for love, but the difference that results forom the subtraction of the first from the second, the very phenomenon of their splitting. -Ecrits, page. 691)

आज भारत के पिछड़े समुदाय, दलितों और मुसलमानों में तेजी के साथ एक नई दरार पैदा हो रही है । वही परिघटना राहुल गांधी की यात्राओं में सामने आ रहे जन-आलोड़न से मुखरित होती है । यह समूचा वंचित समुदाय धीरे-धीरे अपने फ़ौरी पाँच किलो अनाज के स्वार्थ के पाश से मुक्त हो, अपनी अकुंठ चाहत की पार्टी की तलाश में उतर रहा है । राहुल गांधी में उन्हें आजादी की लड़ाई के गांधी-नेहरू दिखाई देने लगे हैं । वे उनमें पूंजीपतियों की दलाल सत्ता के खिलाफ पूरी बुलंदी से वंचितों के उत्थान की आवाज को उठाने वाला वीर योद्धा देखने लगे हैं । 

कहना न होगा, जन मानस में उभर रही यह नई दरार साफ तौर पर एक गहरे बदलाव का संकेत है । आगामी चुनाव में वह अनेक रूपों में सामने आयेगा ।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

ऐसे निरुद्वेग सूत्रीकरणों का क्या लाभ ?

 

(‘टेलिग्राफ‘ में प्रभात पटनायक की टिप्पणी के बहाने व्याख्याओं के सही स्वरूप पर एक मनोविश्लेषणात्मक विवेचन) 


—अरुण माहेश्वरी 


चौदह फ़रवरी के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक की एक टिप्पणी है — (नवउदारवाद से नवफासीवाद ) गोपनीय संपर्क । From neoliberalism to neofascism : Hidden link ।

 

प्रभात के शब्दों में कहें तो यह नवफासीवाद की वर्गीय प्रकृति का सैद्धांतीकरण है । दरअसल इसे आज की दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार की वस्तुस्थिति का ऐसा वर्णन कहा जा सकता है जिसमें प्रमुख रूप से विभिन्न शक्तियों की भूमिका को वर्गों की एक सर्वकालिक भाषा में चित्रित किया गया है । 

प्रभात की शिकायत है कि इस उभार को ‘दक्षिणपंथी” (right-wing populist) कह कर आम तौर पर ऐसी सरकारों की वर्गीय प्रकृति पर चुप्पी साध ली जाती है । 


प्रभात ने नवफासीवाद के बारे में अपने इस ‘वर्गीय ब्यौरे” में सामान्य तौर पर दुनिया के, और ख़ास तौर पर अभी के भारत के राजनीतिक परिदृश्य में सामने दिखाई देने वाली आर्थिक परिघटनाओं के मद्देनज़र इजारेदारों और मज़दूर वर्ग की तमाम स्थितियों को नव-फासीवाद की सर्वकालिक प्रवृतियों के रूप में पेश किया है । इसे सही मायने में हम एक ऐसा प्रकृतिवादी विश्लेषण कह सकते हैं जिसमें प्रत्यक्ष और लक्षणों के बीच कोई भेद नहीं होता है । जो सामने, व्यक्त रूप में है वही पीछे भी, अर्थात् अव्यक्त भी है । परिस्थिति की गतिशीलता, अर्थात् उसमें कुछ की अनुपस्थिति और कुछ नये के सामने आने की संभावना के संकेत के लिए कोई स्थान नहीं होता हैं। 


मसलन्, भारत में पहले इजारेदार घरानों के रूप में टाटा-बिड़ला को चिह्नित किया जाता था, अब  अंबानी-अडानी भी आ गये हैं । अभी की मोदी सरकार ने टाटा-बिड़ला का साथ नहीं छोड़ा है, बल्कि उनके साथ ही अंबानी-अडानी को भी साध लिया है । इससे प्रभात ने यह ‘वर्गीय सिद्धांत’, अथवा नव-फासीवाद की परिभाषा तैयार कर ली कि नवफासीवाद “सामान्य तौर पर इजारेदार पूंजीवाद का ध्यान रखता है, पर वह इसके अंदर नये रूप में पैदा होने वाले तबकों से भी अपने क़रीबी संबंध रखता है ।” (while solicitous towards monopoly capital in general, also enjoys close proximity with this new emerging stratum within it. ) 


यह है ‘तथ्यों से सिद्धांत निरूपण’ की, किसी नई परिघटना के कथित वर्गीय चित्रण को ही वैज्ञानिक सूत्रीकरण में तब्दील कर देने की ख़ास पद्धति, जिसे हमने ऊपर प्रकृतिवादी पद्धति कहा है । इस ‘वर्गीय ब्यौरे’ की विडंबना यह है कि इसमें वर्णन को ही परिस्थिति का विश्लेषण बताया जाता है । यथार्थ के वर्णन में और उसके विश्लेषण में निहित द्वंद्वात्मकता के बीच कोई भेद नहीं किया जाता है । 


यथार्थ के ब्यौरों से सैद्धांतिक संश्लेषण का यह एक ऐसा तरीक़ा है जिससे प्रत्यक्ष में हर छोटे से छोटे भेद से एक नई सैद्धांतिकी खड़ी करने की ओर दौड़ पड़ने की प्रवृत्ति पैदा होती है । यथार्थ की परख में युग की ऐतिहासिक दिशा के सामान्य परिदृश्य की भूमिका गौण नहीं, बल्कि ग़ायब ही हो जाती है । 


कहना न होगा, यह एक प्रकार की प्रकृतिवादी सैद्धांतिक सूत्रीकरण की पद्धति है जो सैद्धांतिक अवसरवाद के लिए जगह बनाती है, फिर भले उसे ‘वर्ग भाषा’ की ओट में ही क्यों न किया जाए । 


प्रभात ने इस लेख में निचोड़ के रूप में अपनी दृष्टि से एक बड़ी खोज की है कि “ नवफासीवाद नवउदारवाद की ही संतान है” । (Neofascism, therefore, is the progeny of neoliberalism. ) “नवफासीवाद का विरोध भी नवउदारवाद के द्वारा कमजोर कर दिए गए मज़दूर वर्ग की वजह से ही कमजोर है ।”( The opposition to neofascism is also weakened by the same weakening of the working class effected by neoliberalism. ) 

(हम यहाँ उनकी इस टिप्पणी का लिंक साझा कर रहे हैं : https://www.telegraphindia.com/opinion/hidden-link-from-neoliberalism-to-neofascism/cid/2000310)


कुल मिला कर यह कथित सूत्रीकरण परिस्थिति का एक वैसे ही क़िस्म का चित्रण है जैसा मनोविश्लेषण में अवचेतन की व्याख्या से किया जाता है । ऐसी व्याख्या को कहा जाता है कि “अवचेतन ही व्याख्या करता है“। (Unconscious interprets) । परिस्थिति ही बोलती है । इसमें विश्लेषक खुद को वास्तव में परिस्थिति (अवचेतन) की आड़ में छिपा कर रखता है । उसकी भूमिका परिस्थिति में होने वाले हर मामूली हेर-फेर पर निगाह रखने भर की होती है । अर्थात् वह बिल्कुल निष्क्रिय नहीं होता है, न पुरानी पाठ्य पुस्तकों की सैद्धांतिक स्थापनाओं में सर गड़ाये बैठा रहता है । बल्कि वह हमेशा अपनी सुविधानुसार कुछ न कुछ करते हुए अपने को थोड़ा सक्रिय रखता है । 


पर परिस्थिति के साथ घिसटते रहने की ऐसी सक्रियता की विडंबना यह है कि इस क्रम में उसकी शक्ति का क्षय होते-होते उसके हस्तक्षेप करने की संभावना कम से कमतर होती चली जाती है । वह सिर्फ उतना ही कुछ कर पाता है जितने के लायक़ वह थोड़ा ज़ोर लगा कर अपने बैठने के लिए जगह बना पाता है। कुल मिला कर ऐसे विश्लेषक की सक्रियता किसी प्रकार अपनी जगह बनाने जितनी, अर्थात् अपने को अलगाते रहने की कोशिश के जितनी ही रह जाती है । 


इसके विपरीत, जिसे हम वास्तविक विश्लेषण समझते हैं, उसकी माँग होती है कि यदि उसे अपने को परिस्थिति की व्याख्या पर वास्तव में अवस्थित करना है तो उसे पूरी परिस्थिति के स्पंदित ढाँचे से अपनी पूर्ण संगति कायम करनी पड़ेगी । उसे उसकी धड़कनों के साथ ही धड़कना, खुलना और बंद होते रहना होगा । तभी आप अपने को कटे-छटे, कोरे उत्तर-आधुनिक व्यवहारों से अलग कर सकते हैं । परिस्थिति की बारे में अन्य चालू क़िस्म की अवधारणाओं से दूर रह सकते हैं । विश्लेषक के रूप में अपनी भूमिका अदा करने के लिए ही उसे स्पंदनों की संगति की वैज्ञानिक रीति को अपनाना होता है । 


हम इससे इंकार नहीं करते हैं कि विश्लेषक का काम परिस्थिति के ब्यौरों के संधान से उसकी व्याख्या पर ही निर्भर होता है । कार्ल मार्क्स ने इस रास्ते से ही पूंजीवाद की क्रियाशीलता के ब्यौरों से अपनी यात्रा शुरू की थी । लेकिन उनमें फ़र्क़ यह था कि उसके साथ ही उन्होंने उसे वस्तु की द्वंद्वात्मक भाषा से प्रतीकों की पराभाषा (metalanguage), सामान्यीकरणों की भाषा में लगातार अनुदित करने का काम भी जारी रखा और क्रमशः द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का एक स्वरूप तैयार किया । 


पर जब रूस में लेनिन के सामने मार्क्स के विचारों पर ठोस रूप में अमल की चुनौती आई, तब उनके लिए परिस्थिति में व्यक्त और अव्यक्त को समेटने की राजनीति का सवाल उतना अहम नहीं था जितना यह था कि जो भी परिस्थिति है, उसमें ही एक अलग दिशा में बढ़ जाया जाए । उनके लिए किसी वैश्विक परिघटना की तलाश के बजाय ‘एक देश में समाजवाद’ की दिशा को अपनाने का सवाल प्रमुख हो गया । रूस की जनता की आकांक्षाओं के सपनों के साथ और उस देश की वास्तविकताओं के बीच मेल बैठाना प्रमुख हो गया । और इसमें अंततः जो सामने आया, वह यह कि पराभाषा (विश्व क्रांति) नाम की कोई चीज नहीं है, हर देश का अपना अलग-अलग यथार्थ है । जॉक लकान इसे मनोविश्लेषण की भाषा में कहते हैं —“अन्य का कोई और अन्य नहीं है”। (There is no other of the other) 


इस प्रकार , हम देखते हैं कि हम दैनंदिन राजनीति के सरोकारों से सम्बद्ध जनों को जिस परिस्थिति की व्याख्या करनी होती है, उसके तात्कालिक रुझानों के साथ-साथ ही हमारा ध्यान भी इधर-उधर भटकता रहता है । और हम उससे अपने लिए अजीबो-गरीब सिद्धांतों का एक जाल भी बुनने में मसगूल हो जाते हैं।  


सिगमंड फ्रायड किसी भी विश्लेषक की इस मुश्किल को जानते थे और इसीलिए अपने तई सचेत रूप में उन्होंने कभी भी रोगी के अपने आशय के बारे में दिये जाने वाले बयानों को कोई महत्व नहीं  देने का रास्ता अपनाया था । उनकी नज़र सिर्फ़ रोगी की बातों से अनायास ही ज़ुबान की फिसलन के रूप में सामने आने वाली उन अवांतर क़िस्म की बातों पर होती थीं जिनसे वे उसके मनोरोग के अवचेतन की गहरी परतों में छिपे संकेत मिल सकते थे । 


जैसे मार्क्स ने पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पादन के साधनों के क्रांतिकारी रूपांतरण की अनवरत प्रक्रिया में बार-बार पैदा होने वाले संकटों के संकेतों से ही पूँजीवाद के अंत के लक्षणों की पहचान की थी । 


जब ‘अवचेतन ही व्याख्या करता है’ के सिद्धांत पर परिस्थिति पर ही विश्लेषण को निर्भर बना दिया जाता है तो उससे यह भी तय हो जाता है कि विश्लेषक के हस्तक्षेप का प्रभाव भी सिर्फ़ परिस्थिति-सापेक्ष होगा । परिस्थितियां ही इसकी अनुमति देगी कि कोई राजनीति किस हद तक जनता को प्रभावित कर सकती है, और कितनी नहीं । राजनीति अर्थात् विश्लेषक की अपनी विधेयात्मक भूमिका की कोई संभावना नहीं बचेगी । वह राजनीति परिस्थितियों की लगभग मूक दर्शक बन जाती है।  


इसके विपरीत, सच यह है मनोरोगी विश्लेषक के सामने सच बोलता है या झूठ, वह विश्लेषक की बात स्वीकारता है या नहीं, रोगी के सपनों की व्याख्या के मामले में उसका कोई मतलब नहीं होता है । परिस्थिति हमें कुछ भी क्यों न कहती हो, मनुष्यों के न्याय और समानता के सपनों का उससे कोई तात्पर्य नहीं होता है । किसी भी व्याख्या का परिणाम इस बात से तय होता है कि वह उसमें सपने से जुड़ी कौन सी नई चीज़ को उपस्थित करने में सफल होती है । उससे किसी नए अवचेतन के, नई परिस्थिति के लक्षणों के निर्माण का अथवा उससे साफ़ इंकार का ही कोई नया इंगित मिलता है या नहीं । 


असल में, परिस्थिति और विश्लेषक के बीच कोई विरोध नहीं हुआ करता है । यदि कोई ऐसा विरोध महसूस करता है तो साफ़ है कि वह अपने को किसी काल्पनिक धुरी पर स्थित किये हुए है। 


सपनों की व्याख्या की तरह ही मानवता की यात्रा की दिशाओं का कोई अंत नहीं है । इसमें विश्लेषक को अपने लिए ख़ास दिशा को चुन लेना पड़ता है । इसके लिए उसे बार-बार अपने मूल, एक ही सपने पर लौटना ज़रूरी नहीं होता है । 


जो चला आ रहा है, हम उसी की लकीर को पीटेंगे, ऐसे परिपाटी से जुड़े विमर्श से अपने को अलग करना हमारी दृष्टि में जरा भी ग़लत नहीं है । बल्कि इसी से असल में कोई बात बन सकती है । खींच-तान कर, वर्गीय विश्लेषण के नाम पर बार-बार पुरानी घिसीपिटी परिभाषाओं पर लौटना बुद्धिमत्ता नहीं है । किसी भी विवेकसंगत विश्लेषण के लिए यह हमेशा ज़रूरी होता है कि (1) वह अपने अंतिम लक्ष्य की पूर्ति के काम को यथार्थ की ज़मीन से जोड़े ; (2) समाज में उसके विरोध का जो दबाव है उसका जायज़ा ले और (3) सर्वोपरि, समाज में उत्पन्न विकृति के ठोस कारणों की तलाश करे। 


वह जमाना नहीं रहा जब मार्क्सवाद के लिए सच्ची राजनीति का अर्थ लोगों में समानतावादी समाज के लिए वर्ग संघर्ष की चेतना भर जगाने का होता था । वह आम मनुष्यों को इस चेतना के अभाव वाली प्राणीसत्ता कै रूप में देखता था । उसकी कोशिश थी कि लोगों की चेतना में वह दरार पैदा हो कि जिससे वह आगे हर चीज को एक ही वर्ग दृष्टि से देखने लगे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी था कि जैसे प्रमाता के रूप में मनुष्य का वर्ग के अलावा अन्य कोई अस्तित्व शेष न रहे । लेकिन यह नियम है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से ही जीवन में अनेक पहचानों में बंध जाता है । प्राणी सत्ता कभी भी शुद्ध वर्गीय चेतना में सिमट नहीं सकती है । 


मनुष्य की कामनाओं के दो रूप हुआ करते हैं।  वह कामना यदि किसी शून्य में होती है तब भी वह वृत्ताकार में घूमती रहती है । लेकिन उसकी दूसरा रूप उस पतंगें की तरह का होता है जो लौ के रहते बार-बार जलने के लिए फिर से लौटता रहता है । वह अपने अंतर में जल जाने के उद्वेग को, असंतोष के सनातन आक्रोश को धारण किए होता है । मनोविश्लेषण में इसे प्रमाता का वह अवबोध कहते हैं जो उसके उल्लासोद्वेलन (jouissance) का वाहक होता है । यह वह सामाजिक चेतना है जिसमें हमेशा कुछ कर गुजरने का हौसला बना रहता है । 


हमारी दृष्टि में, किसी भी विश्लेषण का लक्ष्य जिस सामाजिक चेतना को पैदा करना होता है, वह यही चेतना होती है जो उसके दमित अवचेतन को, प्रतिकार की दबी हुई भावनाओं को, समाज के उल्लासोद्वेलन को वहन करती हो । आज की ऐसी किसी भी क्रांतिकारी व्याख्या को अनिवार्य तौर पर उसी दिशा में बढ़ कर ही विकसित किया जा सकता है । कोरी विवरणात्मक सैद्धांतिकी का कोई मूल्य नहीं हो सकता है ।  


ज़रूरी है कि आज के विश्लेषण पर यदि समाजवादोत्तर अभाव की छाया हो तो साथ ही जनता में बदलाव के बचे हुए उद्वेग के लिए भी जगह हो । तभी परिस्थितियाँ ही बोलेगी की थिसिस को जो सामने प्रकट है उसके पीछे के कारणों की व्याख्या के ज़रिये पुष्ट किया जा सकेगा । 

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

मोदी जी के संख्या-जाप के उन्माद का इलाज जनता ही करेगी

 — अरुण माहेश्वरी 



फ़ेसबुक पर हमने एक छोटा सा कमेंट पोस्ट किया था — 

“गली-चौराहे, बात-बेबात चार सौ, चार सौ पार चीखते रहना सिर्फ़ विक्षिप्तता नहीं, भारी पागलपन का लक्षण है ।”


फ़ेसबुक ने जितने मित्रों को इसे देखने की अनुमति दी (आजकल हर कोई फ़ेसबुक की अनुमति वाली इस ख़ामोश सेंसरशिप से वाक़िफ़ है), उन्हें इसके संकेतों को पकड़ने में जरा भी कष्ट नहीं हुआ । एक मानसिक स्वयंक्रिया से ही अनायास सबको इसका अर्थ प्रेषित हो गया। 


ज़ाहिर है कि हमारा संकेत मोदी की ओर था । जब किसी में अंदर ही अंदर अपनी शक्ति को गँवाने का अहसास पैदा होने लगता है, जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में बधियाकरण ग्रंथी ( castration complex) कहते हैं, तो सिगमंड फ़्रायड के अनुसार उसके आचरण में कई प्रकार के संभावित परिणाम देखने को मिल सकते हैं । इनमें फ्रायड ने विक्षिप्तता, विकृति अथवा मनोरोग को भी गिनाया था । इसके साथ ही एक मनोविश्लेषक के नाते उन्होंने कहा था कि ऐसे लक्षणों में से अनेक में समय रहते हस्तक्षेप करने से अर्थात् उनका विश्लेषण करने से इन्हें टाला या उनका निदान करना संभव हो सकता है । पर कुछ लक्षण ऐसे होते हैं, जिन्हें टाला नहीं जा सकता है । 


ऐसे लक्षणों को नियंत्रित करने के उपाय के रूप में फ्रायड ने पहला कदम यह सुझाया था कि उन लक्षणों के अनुपात को निश्चित किया जाए । उनकी वास्तविक तस्वीर पेश की जाए । उससे प्रमाता में यह अवबोध उत्पन्न हो सकता है कि अगर वह इसी तरह चलता रहा तो वह अपनी भूमिका से जुड़ी पहचान को ही गँवा देगा, उससे अपेक्षित भूमिका को ही खो देगा । उसके काम के परिणाम की ज़रूरतें तो और भी कम पूरी हो पाएगी । 


पर फ्रायड के अनुसार, खुद की पहचान का यह विषय ही प्रमाता के विश्लेषण के रास्ते की एक आंतरिक बाधा की भूमिका भी निभाता है, क्योंकि वह जिस बात को अपनी भूमिका मान बैठा है, उस पर ही उसे ख़तरा महसूस होने लगता है, अथवा वह उससे ही वंचित हो जाने की चिंता में पड़ जाता है । 

सिगमंड फ्रायड ने अपनी पुस्तक Civilizations and its discontents में इस विषय को मनुष्य के व्यवहार में गड़बड़ी के एक आपाद प्रसंग के रूप में नहीं, बल्कि इसे मनुष्य की कामुकता में ज़रूरी गड़बड़ी ( essential disturbances) के रूप में विवेचित किया था । इस प्रकार संकेतक और संकेतित के बीच हमेशा एक स्वाभाविक विप्रतिषेध काम करता रहता है, आधुनिक भाषा विज्ञान के इस सिद्धांत का फ्रायड ने मनोविश्लेषण के सिद्धांत में सटीक प्रयोग किया था । 


फ्रायड ने अपने विश्लेषणों से यह पाया था कि कभी-कभी संकेतक का ही ऐसा प्रभाव होता है कि वह खुद ही संकेतित में बदल जाता है । अन्यथा हर संकेतक का अपना एक लक्ष्य होता है, पर यह उसके धारक की उत्तेजना होती है जो  उसे संकेतित में तब्दील कर देती है । इसके चलते वह अपने मूल अर्थ को खो देता है । 


मसलन् राम मंदिर को ही लिया जाए । राम का मंदिर स्वयं में हिंदू धर्मावलंबियों की ईश्वरीय आस्था को व्यक्त करने का स्थल है । एक संकेतक के रूप में मंदिर का स्वयं में यही लक्ष्य होता है । पर अयोध्या का वर्तमान राम मंदिर आरएसएस और मोदी जैसों की उत्तेजना के हत्थे चढ़ कर अपने मूल सांकेतिक लक्ष्य आस्था के स्थल से बदल कर संघ परिवार की सांप्रदायिक राजनीति को संकेतित करने लगा है। इस विशेष राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हिंदू राष्ट्र की प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन बन गया । 


एक ओर जिन धर्माचार्यों ने इसे धार्मिक आस्था, नैतिकता और आचार-विचार के प्रचार-प्रसार का विषय समझा था, वे इसे धर्म शास्त्रों को ही एक सिरे से ख़ारिज करने वाले शुद्ध राजनीतिक कर्मकांड के रूप में उभरते देख कर खिन्न हो गए । तो दूसरी ओर मोदी और आरएसएस इसे 2024 के आम चुनाव में जीत के लिए पुलवामा की तरह के एक और ब्रह्मास्त्र के रूप में पाकर होश-हवास खोकर पूरी तरह से मतवाले हो गये । 


शंकराचार्य कहते रह गए कि कोई भी यज्ञ कितनी ही निष्ठा के साथ क्यों न किए जाए, यज्ञ का साफल्य देवताओं की कृपा पर निर्भर न हो कर यज्ञ के विधिपूर्वक होने में निहित होता है । 


पर मोदी तो कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं है, राजनीतिक व्यक्ति है । और राजसत्ता के सामने धर्मसत्ता की हैसियत ही क्या होती है ! हमारे वर्तमान समय के विशिष्ट दार्शनिक ऐलेन बाद्यू ने यह चिह्नित किया है कि राजनीति के बरक्स मानव जीवन में सिर्फ़ प्रेम, विज्ञान और कला के अपने स्वतंत्र भुवन संभव होते हैं । 


फलतः मोदी राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के भव्य आयोजन की खुद की रची हुई माया के ही दंश के शिकार हो गए । उन्होंने सोचा कि जब अपनी सेवा के लिए उन्होंने स्वयं राम जी को ही नियुक्त कर लिया है, तो बाक़ी पृथ्वी के धार्मिक-अधार्मिक नश्वर प्राणियों की बिसात ही क्या है ! बस उनके इसी अति-उद्वेलन के चलते चुनावी गणित का चार सौ-चार सौ पार का आँकड़ा ने उनके दिमाग़ पर बुरी तरह से था गया ।अब बाक़ी की राजनीति का उनके लिए कोई मायने नहीं रह गया । 


यह सच है कि हमारे शास्त्रों में नाम जाप का भी एक महात्म्य बताया गया है । यद्यपि, इसे निष्काम भक्ति से मोक्ष पाने का सबसे निम्न स्तर भी कहा गया है । यह वैसे ही है जैसे उपनिषद् को भौतिक सुखों से उपरत ज्ञानियों का कर्म और यज्ञादि कर्मकांड के अनुष्ठानों को उनसे निम्न स्तर के सांसारिकों का काम बताया गया है । 


राम नाम के जाप से आदमी को राम की कृपा और भवसागर से भले मुक्ति मिल जाए, पर जब तक कोई पागल नहीं हो जाएगा, वह यह नहीं सोचेगा कि नाम के जाप से वह सर्वव्यापी राम पर अपना एकाधिकार  क़ायम कर लेगा । पर यह हमारे मोदी जी का उन्माद ही है कि उन्होंने चार सौ, चार सौ पार का कुछ इस प्रकार जाप शुरू कर दिया है मानो इसे जपते रहने से ही संसद की इतनी सीटों पर उनका चुनाव के पहले ही एकाधिकार क़ायम हो जाएगा । यह जुनूनियत इस हद तक चली गई है कि वे गाहे-बगाहे, किसी भी जगह पर इस संख्या तत्व को दोहरा रहे हैं, यहाँ तक कि इसके साथ चीख भी उठते हैं। हमारी फ़ेसबुक की पोस्ट में उसी बात का उल्लेख था । 


सचमुच, यह शुद्ध पागलपन है । चुनावी उत्तेजना ने उनकी राम भक्ति को एक संख्या तत्व की भक्ति में बदल दिया है। यह उसी castration complex अर्थात् शक्ति गँवाने के अहसास का ही लक्षण है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर आए हैं । हमारे आदि शंकराचार्य जी ने कहा था कि जो ज्ञान से नहीं साध पाता है, वह कमजोर मन मोक्ष को अर्थात् मुक्ति को भक्ति से साधता है । आम लोगों में पाई जाने वाली यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है । पर जब मुक्ति की अति-आकुलता के चलते भक्ति की स्वाभाविक क्रिया उन्माद का रूप ले लेती है, तो फ्रायड के अनुसार यह ऐसी असक्तता का लक्षण है, जिसके विश्लेषण अर्थात् उपचार की ज़रूरत होती है । 


हमारे यहाँ अभी तो चुनाव की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, उसके पहले ही मोदी की बदहवासी का आलम यह हो गया है कि वह उपचार की माँग करने लगी है । राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में उमड़ता जन सैलाब और उससे सामने आ रहे जाति जनगणना की तरह के मूलगामी सवालों का राम मंदिर के ‘राजनीतिक मुद्दे’ को पीछे धकेल कर आज के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आने को भी मोदी जी के उपचार की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा कहा जा सकता है । उम्मीद है कि बहुत जल्द ही वे चार सौ-साढ़े चार सौ का जाप बंद कर देंगे । 


पर उनका संपूर्ण उपचार तो आगामी चुनाव में हमारे वे मतदाता ही करेंगे जिनके पास तानाशाही को पराजित करने और अपने को ‘एशिया का सूर्य’ समझने वाले नेता को ज़मीन पर उतारने का समृद्ध अनुभव है । वे स्वयंभू ‘विश्वगुरु’ को भी सचाई का आईना दिखा कर होश में लाने से नहीं चूकेंगे । 


रविवार, 4 फ़रवरी 2024

व्याख्या का ही अंत हो चुका है ; ज़रूरत है अव्याख्येय नूतन पाठ की

 

—अरुण माहेश्वरी 


कल ( 3 फ़रवरी ) के ‘टेलिग्राफ’ में सुनंदा के दत्ता राय का एक दिलचस्प लेख पढ़ रहा था — ‘अब भारतवर्ष की रक्षा में राम खड़े हैं’। (https://www.telegraphindia.com/opinion/the-renascence-rama-now-stands-guard-over-bharatvarsha/cid/1998008 )


इस लेख में दत्ता राय हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ी ऐसी तमाम मूर्खताओं का उल्लेख करते हैं जिनमें देश का प्रधानमंत्री तक मानता हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान मौजूद था इसीलिए मानव शरीर पर हाथी का सर लगाना संभव हुआ था । इसी प्रकार लेख में पुष्पक विमान आदि की तरह की सारी बातें भी गिनाई गई हैं । 


दत्ता राय के लेख का निचोड़ है कि अब मोदी और आरएसएस कंपनी देशवासियों को निश्चिंत हो जाने का पाठ पढ़ा रहे हैं, क्योंकि अब इस देश की रक्षा का दायित्व खुद राम ने ले लिया है । “होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥” 


इस प्रकार राजनीति में भक्ति भाव के एक मूलभूत सूत्र की स्थापना हुई है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है अब किसी के प्रति किसी की कोई जवाबदेही नहीं होगी और न किसी में कोई असंतोष का औचित्य होगा । यही सामाजिक नैतिकता होगी कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। 


इस प्रकार, ज़ाहिर है कि राम मंदिर के ज़रिये मोदी भारत में राजनीति की जो नई परंपरा शुरू करना चाहते हैं, उसमें शासक राजा के सामने प्रजा पूर्ण रूप से समर्पित होगी । अद्वैत दर्शन का यही राजनीतिक निहितार्थ है — राजा ही ईश्वर है ! 


सचमुच, मनुष्यों के चिंतन का यह एक ख़ास आदिम रास्ता है । आध्यात्मिक, धार्मिक रास्ता जिसमें हर अर्थ का आदिम स्रोत किसी के लिए ईश्वर, किसी के लिए अल्लाह, तो किसी के लिए राम होता है । अर्थात् उसकी परम आस्था का कोई भी किसी अन्य प्रतीक । 


जब हम इस विषय पर सोचते हैं तो यह साफ़ नज़र आता है कि जब भी धर्म हमारी सोच का अभिन्न अंग होगा और हमारा धार्मिक दिमाग़ सूक्ष्मतर चिंतन की जितनी कोशिश करेगा, उसी अनुपात में वह मनुष्यता से दूर हटता हुआ ईश्वर तत्व के सामने समर्पित होता जायेगा । हम मानने लगेंगे कि ईश्वरीय न्याय ही अंतिम न्याय है और राजा का होना एक ईश्वरीय विधान है । हमारे आदि कवि का राजा राम ही उसका भगवान भी होता है । 


दुनिया में दर्शन शास्त्र का इतिहास सभ्यता के लंबे काल तक परम तत्व से जुड़ी इसी नियति का शिकार रहा है । उसने राजा की ईश्वरीय सत्ता को ही औचित्य प्रदान किया है । 


पर इसके विपरीत, सभ्यता की विकास यात्रा में जनतंत्र के पदार्पण ने ही दर्शन-विरोधी चिंतन की एक नई ज़मीन तैयार की । जनतंत्र अपने मूल अर्थ में राजा की ईश्वरीय सत्ता का अंत कर सत्ता के केंद्र में मनुष्यों को स्थापित करता है । इस अर्थ में जनतंत्र एक पूर्णतः धर्म-निरपेक्ष परिघटना है । इसी प्रकार जनता की माँग पर  राज्य की जनकल्याणकारी भूमिका भी ।  तत्वतः जनतंत्र और धर्म का विधान, दोनों साथ-साथ कभी चल ही नहीं सकते हैं । 


इस दृष्टि से कह सकते हैं कि भारत की वर्तमान राजनीति के केंद्र में राम मंदिर के प्रवेश ने एक प्रकार से धर्म और धर्म-निरपेक्षता के द्वंद्व को नग्न रूप में सामने ला कर राजशाही (फासीवाद)और जनतंत्र के बीच के द्वंद्व को प्रमुख बना दिया है । फासीवाद उत्पादन के आधुनिक काल में राजशाही की वापसी का ही दूसरा नाम है ।


अभी मोदी 2024 का चुनाव राम मंदिर के बल पर लड़ना चाहते हैं । उन्होंने धर्म-निरपेक्षता से जुड़े जन-कल्याण और सामाजिक न्याय के सारे मुद्दों को पृष्ठभूमि में डाल देने का फैसला किया है । इसके दूसरी ओर ‘इंडिया गठबंधन’ सामाजिक न्याय, जाति जनगणना, लोक कल्याण की तरह के तमाम धर्म -निरपेक्ष मुद्दों को आधार बनाकर इस लड़ाई में उतर रहा है। मोदी राजशाही अर्थात् फासीवाद की स्थापना की लड़ाई लड़ रहे हैं और ‘इंडिया’ पूरी तरह से जनतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है । 


जनतंत्र के लिए संघर्ष के विश्व-व्यापी लंबे इतिहास का ही नतीजा है कि आज के युग में यदि धर्म मनुष्यों के अवचेतन में अवशिष्ट है, तो धर्म-निरपेक्षता का  हिस्सा किसी मायने में उससे कम नहीं है, बल्कि ज़्यादा ही है । समाज के सामूहिक अवचेतन में धर्म और धर्म निरपेक्षता से जुड़े मूल्य ही उसे तानाशाही और लोकतंत्र के बीच द्वंद्व की रणभूमि बनाए हुए हैं। 


इन स्थितियों में जब विश्लेषक के तौर पर हमें आज के मनुष्यों को संबोधित करना हो, तानाशाही के प्रभाव से निकाल कर जनतंत्र के मूल्यों से प्रेरित करने के लिए उनका विश्लेषण करना हो, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम भी अपने को धर्म से अलग कर धर्म-निरपेक्ष आधार से उन्हें संबोधित करें । इसमें ऐसी व्याख्याओं का दो कौड़ी का मोल नहीं होता है जो धर्म की धारावाहिकता में धर्म-निरपेक्षता की बात करती हैं । 


इसमें शक नहीं है कि जो तानाशाही की राजनीति की सेवा करना चाहते हैं, वे ही अपने को धार्मिक आधार पर टिकाये रखते हैं ।मनोविश्लेषक जॉक लकान का कहना था कि अवचेतन की व्याख्या हमेशा अवचेतन को पुष्ट करती है, उसका विश्लेषण नहीं करती ।


आज गोदी मीडिया के घटिया प्रचार और अन्य सोशल मीडिया की उबाऊ बहसों को देखते हुए यह निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि राजनीतिक घटनाक्रमों की कोरी व्याख्याओं का कोई मायने नहीं रह गया है ।


हम तो यहाँ तक कहेंगे कि आज हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें किसी भी पाठ की वैसी व्याख्या लगभग मर चुकी है या जिसका कोई दाम नहीं बचा है जो महज़ वाक्य में अर्थ के विस्तार में सहयोगी विराम चिन्हों की भूमिका अदा किया करती है । 


हम जितना जल्दी इस बात को समझेंगे कि समाजवाद के अवसान के बाद ही विमर्शों के जगत में एक बिल्कुल नए उत्तर-व्याख्या युग का श्रीगणेश हो चुका है, उतना ही जल्दी हम अपनी शक्ति को अनेक प्रकार की अर्थहीन बौद्धिक उलझनों और क़वायदों में ज़ाया करने से बच सकेंगे ; उतनी ही जल्दी हम प्रासंगिक और अर्थपूर्ण चिंतन की एक नई भाषा हासिल कर सकेंगे । 


जब हम विमर्श के उत्तर-व्याख्या युग की बात करते हैं तो इसका अर्थ है विश्लेषण की ऐसी पद्धति के चलन का युग जिसमें व्याख्या वाक्य के अर्थ की धारावाहिकता को बनाये रखने वाले विराम चिन्हों की भूमिका न निभाए । मनोविश्लेषण की शब्दावली में, व्याख्या प्रमाता के अवचेतन की ही अभिव्यक्ति न करे । बल्कि, इसके विपरीत उसकी भूमिका विषय को उसकी पारंपरिक धारा से, उसकी ज़मीन से काटने की भूमिका हो, वह दृढ़ता के साथ प्रमाता के अवचेतन के विरुद्ध खड़ी हो । 


अभी के लगभग स्थिर से समय में अगर किसी विमर्श का कोई मूल्य हो सकता है तो उसे सिर्फ़ एक मूलगामी, विषय के बिल्कुल भिन्न और विरोधी छोर से जुड़ा विश्लेषणात्मक विमर्श होना होगा । 


धर्म-निरपेक्ष विमर्श को किसी भी प्रकार से धार्मिक विमर्श की धारावाहिकता में उठाने का कोई तुक नहीं है । बल्कि धर्म-निरपेक्ष विचार के क्रम में अगर कहीं भी धर्म सिर उठाता दिखाई दें, तो उसे फ़ौरन रंदा मार कर समतल करके ही अपने विमर्श के सौन्दर्य को बचाया जा सकता है । जनतंत्र के लिए ही यह ज़रूरी है कि हम अपने वक्त के ऐसे नए पाठों को तैयार करें जिन पर पुरातनपंथी धार्मिक भ्रमों की कोई छाया भी न पड़ी हो । 


अवचेतन की व्याख्याओं का यह मूलभूत भेद ही व्याख्या के प्रभावों को भी अंततः तय करता है । उसी से प्रमाता के विचारों, आदर्शों और भ्रमों को, उसके समग्र मूल्य बोध को बल मिलता है । इस अर्थ में व्याख्याओं के उस युग का अंत हो गया है, जो वाक्य में प्रयुक्त विराम चिन्हों की तरह विषय के तमाम आयामों के बीच एक प्रकार की धारावाहिकता को बनाए रखते हैं । धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण धर्म की धारावाहिकता से नहीं, बल्कि धर्म को ख़ारिज करके ही क्रियाशील हो सकता है । 


जनतंत्र राजशाही के अंत से पैदा होता है । उसकी विकास यात्रा में राजशाही, तानाशाही, फासीवाद आदि के लिए स्वीकार का कोई स्थान नहीं हो सकता है । जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो जनतंत्र के इस नये पाठ में शामिल नहीं होता है । इसकी वैसी ही अंतहीन व्याख्याएँ की जा सकती है, जिसमें लगे लोगों को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तर तक बढ़ते हुए किसी और दिशा में झांकने की भी ज़रूरत नहीं है । 


एक सच्चे विचारक के लिए ज़रूरी होता है कि जिन मिथकीय मुक़ामों से भाषा आपको निरर्थकता की ओर खींच सकती है, उन बिंदुओं के पीछे का रास्ता ही काट दिया जाए । जॉक लकान ने अंग्रेज़ी के प्रमुख कवि जेम्स जॉयस की प्रसिद्ध रचना Finnegans Wake के विश्लेषण से लेखक के ऐसे ही जुनून की अनोखी नज़ीर पेश की थी । जेम्स जॉयस ने भाषा, उसकी लिखावट और ध्वनियों के माध्यम से एक ऐसे मौलिक पाठ का सृजन किया था जिसकी व्याख्या के किसी भी सूत्र को परंपरा से नहीं पाया जा सकता है । तथापि उस पाठ की भाषा में व्यक्त-अव्यक्त का वह पूरा स्वरूप मौजूद था जिसे लकान ने लेलैंग (lalangue) कहा था, जो सिर्फ़ व्यक्त को ही नहीं, अव्यक्त को भी भाषा का अभिन्न अंग बनाता है । लकान ने उसके ज़रिये दर्शाया था कि जेम्स जॉयस की वह रचना हमेशा के लिए एक अव्याख्येय पाठ बन कर रह गई, तथापि साहित्य में वह सबसे सम्मानित स्थान पर क़ायम है । यह इसलिए संभव हुआ है क्योंकि इसमें शब्दों के पूर्व-निर्धारित संकेतों की ओर बढ़ने की बाध्यता को कुंद कर दिया गया है । 


कहना न होगा, ऐसी रचना भी एक प्रमाण है कि व्याख्या के युग का अंत हो चुका है ।


बहरहाल, टेलिग्राफ में प्रकाशित सुनंदा के दत्ताराय के धर्म-आधारित ‘राम राज्य’ संबंधी आलेख से शुरू हुई हमारी इस ‘व्याख्या के अंत’ संबंधी समूची चर्चा का तात्पर्य सिर्फ़ इतना ही है कि पारंपरिक व्याख्यामूलक विमर्शों का कोई मूल्य नहीं रह गया है । अगर हमें अपनी बातों में कोई वजन पैदा करना है तो हमें दृढ़ता के साथ एक मूलगामी धर्म निरपेक्ष क्रांतिकारी वैकल्पिक दृष्टिकोण से आज की राजनीति के नए पाठों पर केंद्रित रहना होगा । इसके अभाव में ही आज हमें सत्य हिंदी जैसे चैनल के आशुतोष, मुकेश कुमार जैसे कई लोग मोदी के प्रचारकों से अलग नहीं लगते हैं, तो पुण्य प्रसून और अजित अंजुम बुरी तरह से उलझे हुए नज़र आते हैं । 


हिंदी चैनलों में रवीश कुमार अकेले ऐसे मौलिक पाठ की रचना कर रहे हैं, जिस पर मोदी कंपनी के आख्यानों की कोई छाया नहीं होती । अभी के मीडिया की भाषा से उनकी व्याख्या संभव नहीं है । जो रवीश आज टीवी पत्रकारिता का सबसे जीवंत रूप है, वही यदि अव्याख्येय है, तो इससे भी यही नतीजा निकलता है कि व्याख्या का ही अंत हो चुका है ।