सोमवार, 31 मार्च 2014

जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेखन


अरुण माहेश्वरी

आज जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने अपनी चार किताबें भेंट की -इंटरनेट साहित्यालोचना और जनतंत्र, नरेन्द्रमोदी और फासीवादी प्रचारकला, लोकतंत्र और सोशल मीडिया, तथा डिजिटल कैपिटलिज्म, फेसबुक संस्कृति और मानवाधिकार।
अब मेरे पुस्तकालय में जगदीश्वर जी की लगभग 30 भारी-भरकम किताबें हो गयी है। इन पुस्तकों के अलावा, उनकी जिन पुस्तकों के बारे में मेरी जानकारी है, उनकी संख्या 20 से कम नहीं होगी। मतलब जितनी उनकी उम्र हुई है, लगभग उतनी ही किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
जो लेखक अभी भी युवा और प्रौढ़ता के संधि-वय में हो, उसका इतना विराट, वैविध्यपूर्ण और सार्थक लेखन किसी के लिये भी विस्मय और साथ ही ईष्‍र्या का विषय भी हो सकता है।
जगदीश्वर जी कोलकाता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर है। ‘हिंदी का अध्यापक’ - ‘तारे जमीं पर’ के हिंदी अध्यापक की रूढ़ छवि - दकियानूस, कूपमंडुक! उत्कट जातिवादी, गोटीबाज! उदयप्रकाश के व्यंग्य-वाणों का एक स्थायी लक्ष्य! लेकिन उनमें नामवर जी, शिवकुमार मिश्र जैसे भी रहे हैं, और साथ ही है जगदीश्वर जी। सामान्य की पुष्टि करने वाले अपवाद!
संस्कृत और ज्योतिष की पृष्ठभूमि, लेकिन वामपंथियों की संगत ने पता नहीं कैसे जगदीश्वर जी के तार उत्तर-आधुनिकता के विमर्श से जोड़ दिये। इसीकी उंगली थाम कर वे इसके बाई-प्रोडक्ट से दिखते मीडिया की ओर कुछ उसी प्रकार बढ़ गये जैसे सुधीश पचौरी। सुधीश पचौरी मीडिया के अखबारी स्तंभकार होगये, और जगदीश्वर जी मीडिया-पंडित।
मीडिया उत्तर-आधुनिकता का बाई-प्रोडक्ट कहलायेगा या उत्तर-आधुनिकता का प्रमुख संघटक तत्व, इसपर बहस होसकती है। आधार और अधिरचना की द्वंद्वात्मकता का आलम यही है कि ‘मुर्गी पहले या पहले अंडा’ वाली असमाधेय सी दिखती समस्या सामने आजाती है।
बहरहाल, मीडिया हमारे समय के तमाम विमर्शों को जिसप्रकार नये सिरे से परिभाषित सा कर रहा है, संस्कृतिमात्र का माध्यमीकरण अर्थात वास्तविक दुनिया का आभासित दुनिया से एकप्रकार का विस्थापन जिस गति और विस्तार के साथ जारी है, उसमें मीडिया के संदर्भ में जीवन के सभी व्यापारों पर सोचना बिल्कुल स्वाभाविक लगता है। जगदीश्वर जी के लेखन के जैसे बिजली की गति से विस्तृत हो रहे फलक के पीछे दिख रही उनकी व्यग्रता और उत्कंठा से भी इस असंभव गति से फैल रही सर्वव्यापी, सर्व-ग्रासी, परम शक्तिवान माया का एक अनुमान मिलता है।
इस अकेले लेखक ने हिंदी में मेतलार्द, बोर्दिओ, मैकलुहान, एडवर्ड सईद, बौद्रिलार्द, दरीदा, जीजेक, इको आदि न जाने कितने गैर-कम्युनिस्ट मार्क्सवादियों और स्वतंत्र चिंतकों के बारे में जितनी सामग्री मुहैय्या करायी है, पीसी, लैपटॉप, टैबलेट, इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक, टीवी, कैबल टीवी जैसे आज के युग के तकनीकी उपकरणों और उनके प्रयोग की विधियों से जुड़े विमर्शों को जिस प्रकार प्रस्तुत किया है, वह सचमुच चौंकाने वाला है। इंटरनेट और उससे जुड़े आधुनिक उद्योगों के नाना प्रकार के उत्पादों तक को उन्होंने अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दिया है।
जगदीश्वरजी का यह सारा काम कुछ ऐसी गति से चल रहा है कि किसी भी साधारण पाठक के लिये उसके साथ अपनी संगति कायम करना कठिन है, और जो थोड़ा ठहर कर इस विशाल काम के मूल्यांकन के लिहाज से इसे उलटना-पुलटना चाहते हैं, उनके लिये तो साल में चार-छ:-दस-बारह की रफ्तार से आने वाली किताबें किसी बमबारी से कम नहीं है।
मीडिया के साथ ही जुड़ा हुआ है राजनीति का विषय। शायद जगदीश्वर जी को पश्चिम बंगाल की एक ऐसी देन जिसने उनके मीडिया विमर्श को निश्चित तौर पर एक धार देने की भूमिका अदा की है। पश्चिम बंगाल प्रवास ने उन्हें वामपंथी राजनीति के आंतरिक विन्यास, उसकी अन्दुरूनी गतिशीलता और जड़ता का एक प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान किया है। और, संभवत: इसी अनुभव ने इस ज्योतिषाचार्य, हिंदी के अध्यापक को दुनिया के गैर-कम्युनिस्ट मार्क्सवादी और जनतांत्रिक विमर्श की कुछ पुख्ता समझ पाने का सलीका भी दिया।
मुझे लगता है कि जगदीश्वर जी के तेजी से फैल रहे लेखन के आयतन का एक समग्र मूल्यांकन किसी के लिये भी लगभग नामुमकिन सा काम है। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि यह सब कोरा सार-संग्रहवादी नहीं है। बारीकी से देखने पर इसमें एक खास प्रकार की एकसूत्रता, उत्तर-आधुनिक तरह की ही असामंजस्य के सामंजस्य वाली विचार-प्रणाली को देखा जा सकता है।
अपने लेखन से हमें लगातार परिचित कराने के लिये हम उनके प्रति आभारी हैं और उनके लेखन की इसी गति के बने रहने की कामना करते हैं।
29.03.2014

गुरुवार, 27 मार्च 2014

‘आंखो देखी’

अरुण माहेश्वरी
  

कल एक बहुत अच्छी फिल्म देखी - आंखो देखी। ‘मैं कहता हौं आखन देखी, तू कहता कागद की लेखी।

भारत के उस निम्न-मध्यवित्त के परिवार का सच, जिसकी संख्या 70 करोड़ बतायी जाती है और जिसके आगे और उत्थान पर भारत की प्रगति का बहुत कुछ निर्भर है। वर्षों बाद जैसे हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भारत के शहरों की पुरानी संकरी गलियों के नीम अंधेरे घरों में ठहरी हुई जिंदगियों का सच बिना व्यवसायिक विकृति के उकेरा गया है।

वेदांत में आत्म-अनात्म की तरह ही ‘दृष्टि चैतन्य’ भी एक बुनियादी पारिभाषिक पद है। जब तक हम विषयों का प्रत्यक्ष करते हैं, तब तक ही उनका अस्तित्व है तथा ज्योंही हमें उनका प्रत्यक्ष होना बंद हो जाता है, त्योंही वे शून्य में चली जाती है। दृष्टि-सृष्टि। जो अप्रत्यक्ष है, उसकी सत्ता को स्वीकारा नहीं जा सकता। इसीका विलोम है शंकर का मायावाद - दृश्य जगत का लेश मात्र भी अस्तित्व नहीं है।

इस वेदांती विमर्श का ही एक फल है - अनुभव अथवा भोग की लालसा, अपने दृश्य जगत की परिधि के विस्तार की उत्कंठा।

और कहना न होगा, इसी उपक्रम में बेचारा ‘पाल गोमरा’ अपनी जान गंवा देता है।

‘आंखो देखी’ के बाबूजी उदय प्रकाश के ‘पाल गोमरा’ का ही एक और प्रतिरूप है। निम्न-मध्यवर्ग के अन्त:करण का जैविक प्रतिबिंब।

बाबूजी उम्र की ढलान पर पहुंच कर तमाम आस्था-अनास्थावादी भक्तों की तरह कुछ इसप्रकार के एक सोच में फंस जाते हैं कि जो भी खुद को दिखाई न दे, उसपर विश्वास मत करो। परिवार में छोटा भाई और बेटा रोजगार करने लगे थे, इसीलिये बाबूजी अब ऐसी किसी भी खब्त के साथ आराम से जीवन काट सकते थे! परिणाम यह हुआ कि जिस ट्रेवल एजेंसी में बाबूजी काम करते थे, वहां भी ग्राहकों को ऐसी कोई सूचना देने से इंकार करने लगे, जो खुद उनके अनुभव का हिस्सा न रही हो। नौकरी को जाना था, चली गयी। बाबूजी ने सोचा, क्या फर्क पड़ता है, जीवन की गाड़ी तो भाई और बेटा ही खींच लेंगे, मैं अब क्यों झूठी-सच्ची बातों के जंजाल में पड़ा रहूं।

बाबूजी बेहद तर्कशील होगये। संशय उनका स्थायी भाव बन गया। इसके चलते उनके साथ उनके जैसे ही कुछ चेले भी जुट गये। दूसरे आम जनों के लिये मलंग जैसे दिखाई देने वाले बाबूजी या तो पागल थे या फिर पहुंचे हुए कोई फकीर। लेकिन जीवन का ठोस सच यह था कि बाबूजी के नौकरी छोड़ते ही आसन्न आर्थिक संकट के आभास ने उनके परिवार को तोड़ दिया। सदा तर्क के लिये तत्पर बाबूजी को मौन होजाना पड़ा।

तभी बेटे की कुसंगत की वजह से बाबूजी एक जूआघर के संपर्क में आयें ओर चंद रोज के लिये उस जूआघर के मुलाजिम होगये। जूआघर की कमाई ने बेटी का ब्याह भले-भले निपटा दिया। फिर एक बार सारी जिम्मेदारियों से मुक्त बाबूजी ने जूआघर छोड़ा और 28 साल बाद पत्नी के साथ हिल स्टेशन की सैर पर गये।

पहाड़ों का स्वच्छ आकाश, ठंडी हवा, और घाटियों की अनंत गहराइयां। बाबूजी इस दृश्य का उल्लेख करते हुए इस स्वच्छ ठंडी हवा में उड़ने की अनुभूति की बात करते हैं। पत्नी कह बैठती है - यह तो तुम्हारे अनुभव का हिस्सा नहीं है। और, इसी अनुभव को पाने की ललक में बाबूजी एक ऊंचे पहाड़ के सिरे से घाटी की अंतहीन तलहटी की ओर छलांग लगा देते हैं - आसमान में उड़ने लगते हैं !

न जाने कितनी छोटी-छोटी इच्छाओं, वासनाओं से बना है यह निम्नवित्त का जीवन, जैसे विशाल समंदर में उतार दी गयी कागज की कोई नौका। उठती-गिरती लहरों के साथ डोलती, हवा के थपेड़ों से उलट-पुलट होती और पता नहीं कब, अचानक ही किसी अतल गहराई में अपना अस्तित्व गंवा बैठती।

इस कमजोर जीवन में दहलीज के बाहर कदम रखना ही जैसे मृत्यु को निमंत्रण देना है! लेकिन बात बाबूजी के गिर कर मर जाने की नहीं है, बात उस ऊंचाई से छलांग लगा कर उड़ने की क्षणिक अनुभूतियों की है।

जीवन कुछ इसीप्रकार चल रहा है - नित नये अनुभवों की तलाश में रोज खत्म होरही जिंदगियों की श्रंखला में।
27.03.2014

बुधवार, 26 मार्च 2014

'आप' - एक वास्तविक युगांतकारी जन-आंदोलन

आम आदमी पार्टी (आप) भारत में आज के समय का एक वास्तविक युगांतकारी जन-आंदोलन है। जन-भावनाओं की अभिव्यक्ति का व्यापकतम मंच।

भारत की आजादी की लड़ाई के दिनों में जो स्थिति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की थी अथवा 1970 के दशक के प्रथमार्द्ध में जो स्थिति जेपी आंदोलन की थी, आजके भारत में वही स्थिति ‘आप’ आंदोलन की है।

इस आंदोलन ने समाज के रंध्र-रंध्र में फैल चुके भ्रष्टाचार के कैंसर का मुद्दा उठाया है, इसने अंबानियों-अडानियों के विरोध के जरिये देशी-विदेशी इजारेदारों द्वारा की जारही खुली लूट का विषय उठाया है, इसने पूंजीपतियों-राजनीतिज्ञों-नौकारशाहों की दमघोटूं धुरी का प्रश्न उठाया है, इसने राज्य और राजनीतिक दलों को जड़ बना रही नौकरशाही जकड़नों के सवाल को भी सामने लादिया है।

इसके अलावा, यह आंदोलन आदमी के मन और मस्तिष्क पर अपना पूर्ण नियंत्रण कायम करने पर आमादा भारत के बिकाऊ मीडिया के खिलाफ लगातार प्रसारवान सामाजिक मीडिया के जरिये आदमी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाये रखने का आंदोलन भी है।

आज के जमाने के हर मानदंड पर यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य और व्याप्ति, दोनों ही लिहाज से इस युग के साथ पूरी तरह मेल खाता हुआ जन-आंदोलन है। सारी दुनिया में ऐसे युगांतकारी जन-आंदोलनों के उभार की अनेक मिसालें हमारे सामने हैं।

आज ‘आप’ के इस आंदोलन को देश की वर्तमान राजनीतिक संस्थाओं के प्रति अपना रुख तय नहीं करना है, बल्कि दक्षिण हो या वाम, सभी राजनीतिक दलों को इस आंदोलन के बरक्स अपनी स्थिति को परिभाषित करना है। युगांतकारी आंदोलन का तात्पर्य यही है।

भ्रष्टाचार, अंबानी-अडानी की लूट, राजनीतिज्ञ-नौकरशाही-पूंजीपति की आततायी धुरी और आदमी की आवाज को दबा देने के काम में लगे भ्रष्ट मीडिया के खिलाफ इस विशाल आंदोलन के बीच से ही नये भारत की नयी तस्वीर बनेगी।

हमारा यही मानना है।

मंगलवार, 25 मार्च 2014

हिटलर और यहूदी : आरएसएस और मुसलमान

अरुण माहेश्वरी


आर एस एस की गीता समझी जानेवाली गोलवलकर की पुस्तक ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’ जब पहली बार 1939 में प्रकाशित हुई तो उसकी भूमिका तत्कालीन ए आई सी सी के सदस्य और जाने-माने नेता लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी थी। गोलवलकर ने अपने प्राक्कथन में अणे साहब के प्रति काफी आभार प्रकट किया था और लिखा था कि ’’यह मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता की बात है कि लेखन के क्षेत्र में अब तक अनजान मेरे जैसे व्यक्ति के इस प्रथम प्रयास की भूमिका लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी। एक महान तथा नि:स्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिन्तक होने के नाते, जैसा मैंने सोचा था, उनकी भूमिका ने ठोस रूप में पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है।’’ (गोलवलकर, ’’वी’ पृ. 3)

लेकिन, उल्लेखनीय है कि पहले संस्करण के बाद ही आर एस एस वालों ने इस पुस्तक से अणे साहब की इस ’’मूल्यवान’’ भूमिका को हटा दिया। हमारे सामने 1947 में प्रकाशित इस पुस्तक का चौथा संस्करण है। बाद में शायद 1951 के वक्त तक यह पुस्तक छपती रही है, अन्यथा 1951 में आरएसएस पर अमरीकी गवेषक जे.ए. कुर्रान ने इसे आर एस एस की ’’बाइबिल’’ न कहा होता।

प्रश्न यह है कि एम एस अणे की जिस भूमिका को खुद गोलवलकर ने किताब का मूल्य बढ़ानेवाली भूमिका कहा, उसे ही पुस्तक के बाद के संस्करणों से हटा क्यों दिया गया?  ऐसा इस भूमिका में क्या था जो सरसंघचालक बन जाने के बाद ’’एकचालकानुवर्तित्व’’ के सांगठनिक सिद्धान्त पर सबसे अधिक बल देनेवाले गोलवलकर को अपनी पुस्तक के साथ ’’महान नि:स्वार्थ, देशभक्त और अद्यीत विद्वान’’ की इस भूमिका का प्रकाशन गँवारा नहीं हुआ?

अणे साहब की भूमिका को अच्छी तरह पढ़ने से ही हिटलर प्रेमी गोलवलकर के भय के कारण साफतौर पर समझ में आ जाते हैं। अणे साहब ने अपनी भूमिका में इस पुस्तिका को इस महत्त्वपूर्ण विषय पर चल रही बहस में एक दिलचस्प योगदान बताते हुए यहाँ तक स्वीकार लिया था कि चूँकि भारत की आबादी का विशाल बहुमत हिन्दू है इसलिए ’’भारत मुख्यत: एक हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुस्तान है।’’ लेकिन इसके बाद ही अणे ने गोलवलकर के दृष्टिकोण पर कुछ बुनियादी प्रश्न खड़े किए थे। उन्होंने लिखा कि ’’इन निष्कर्षों से राजनीतिज्ञों के सामने जो व्यवहारिक समस्याएँ खड़ी होती हैं, वह अत्यन्त गहरी है तथा उन पर सावधानी और धीरज के साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि मुसलमानों के स्थान की समस्याओं के बारे में विचार करते वक्त लेखक (गोलवलकर) ने हिन्दू राष्ट्रीयता तथा हिन्दू राष्ट्र के सार्वभौम राज्य के बीच के फर्क को हमेशा ध्यान में नहीं रखा है। एक सार्वभौम राज्य के रूप में हिन्दू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिन्दू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज है। किसी भी आधुनिक राष्ट्र ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अपने अधिवासी अल्पसंख्यकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया है यदि वे स्वत: स्फूर्त ढंग से या कानून के द्वारा राष्ट्र के स्वाभाविक अंग बन गए हों। ...अल्पसंख्यक के रूप में नागरिकता के सभी अधिकारों के साथ ही अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को सुरक्षित रखने की विशेष व्यवस्थाएँ कुल मिलाकर किसी भी राज्य के सार्वभौमिकता के अधिकारों के प्रयोग के साथ बेमेल नहीं मानी गई हैं।...कोई भी आधुनिक न्यायशास्त्री या राजनीतिक दर्शनशास्त्री या संवैाधानिक कानून का विद्यार्थी पुस्तक के पाँचवे अध्याय में कही गई लेखक की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता।’’

इसके बाद ही अणे ने गोलवलकर के उस कथन को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्र के बारे में उनके बताए हुए पाँच संघटक तत्त्वों से बाहर पड़नेवाले व्यक्ति का उस वक्त तक राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं हो सकता, जब तक वह राष्ट्र के धर्म, संस्कृति और भाषा को अपनाकर पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में स्वयं को मिला नहीं लेता। ’’जब तक वे अपने नस्लजात, धार्मिक और सांस्कृतिक विभेदों को बनाए रखते हैं तब तक वे सिर्फ विदेशी कहला सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रतापूर्ण भी हो सकते हैं और शत्रुतापूर्ण भी।’’

इस उद्धरण के बाद ही लोकनायक अणे ने लिखा कि : ’’मेरे मन में इस बारे में कोई सन्देह नहीं है कि लीग ऑफ नेशन्स की अल्पसंख्यक सम्बन्धी सन्धि का धीरज से अध्ययन करने पर लेखक ने इतनी घृष्टता के साथ जो बात कही है, उसका कोई स्थान रह जाता। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक आचार को बनाए रखने तथा उसका पालन करने की अनुमति देने और उनकी संस्कृति की रक्षा के अनुकूल स्थितियाँ बनाने से किसी भी राज्य की सार्वभौमिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बशर्ते वे सार्वजनिक नैतिकता और नीति का उल्लंघन न करे। किसी भी देश में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, जिसके पुरखों को सदियों से नागरिकता के अधिकार प्राप्त रहे हैं, किसी भी आधुनिक राज्य में सिर्फ इसलिए विदेशी नहीं माना जा सकता है कि वह उस देश की बहुसंख्यक आबादी, जो स्वाभाविक तौर पर उस राज्य पर नियन्त्रण रखती है, से भिन्न धर्म को अपनाए हुए है। इस बीसवीं सदी में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रकृतिकरण की शर्त धर्म परिवर्तन नहीं हो सकता।’’

इसी भूमिका में अणे ने राष्ट्रीयता के मामले में धर्म की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं और एक स्थान पर यहाँ तक कह दिया है कि ’’मैं यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि लेखक ने उन लोगों के प्रति, जो राष्ट्रवाद के उनके सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते, जिस कठोर और उत्तेजक भाषा का प्रयोग किया है, वह राष्ट्रवाद की तरह की एक जटिल समस्या के लिए आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययन की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। इस भूमिका में इन बातों का उल्लेख करना मुझे कष्टदायी प्रतीत होता है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इन उपरोक्त विषयों पर अपनी राय को बिल्कुल साफ और स्पष्ट शब्दों में न रखकर मैं अपने प्रति ही गैर-ईमानदार और अन्यायपूर्ण होता।’’ (गोलवलकर, वही, पृ. 14 से 18)

इस प्रसंग को यहाँ उठाने से हमारा तात्पर्य यह है कि अणे ने अपनी भूमिका में गोलवलकर की पुस्तक में अल्पसंख्यकों के अधिकार के बारे में उनकी सिर्फ एक गलत अवाधारणा की ओर सिर्फ इशारा भर नहीं किया था, उन्होंने अनायास ही आर एस एस के सबसे मूलभूत विचारों पर प्रहार कर दिया था। मुसलमानों के विरुद्ध सख्त नफरत और घृणा ही तो वह आधार है जिस पर आर एस एस और उसके संघ परिवार के झूठ की पूरी इमारत टिकी हुई है। किसी भी वजह से यदि वह नींव ही कमजोर हो जाए तो फिर साम्प्रदायिक घृणा के आधार पर पूरे देश पर अपनी फासिस्ट तानाशाही लादने के संघियों के सपनों का महल चूरचूर नहीं हो जाएगा!

जे.ए. कुर्रान ने अपने शोध में एक नहीं, अनेक स्थानों पर इस बात को दोहराया है कि भारत में आर एस एस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों पर निर्भर करता है। कुर्रान ने यह भी नोट किया था कि आर एस एस के प्रचार का सबसे बड़ा मुद्दा मुसलमान-विरोध है। जीवन के अनुभवों से भी हर कोई इस बात को समझ सकता है कि संघियों का सबसे बड़ा धर्म मुसलमानों के खिलाफ गन्दी-से-गन्दी बातों के प्रचार के अलावा और कुछ नहीं रहा है। इस मामले में हेडगेवार, गोलवलकर से लेकर इनके तमाम चेले तक एक दूसरे से लोहा लेते हैं।

गौर करने लायक बात यह है कि अन्य अनेक बातों की तरह ही मुसलमानों के खिलाफ अत्यन्त सुनियोजित ढंग से घृणा के प्रचार का काम भी आर एस एस में गोलवलकर ने ही शुरू किया था, और इस मामले में भी गोलवलकर ने किसी और को नहीं, हिटलर को ही अपना गुरू बनाया था। जिस प्रकार हिटलर ने जर्मन राष्ट्र के दुश्मन के रूप में यहूदियों को चिन्हित करके उन्हें सांस्कृतिक, नैतिक और आर्थिक, हर दृष्टि से पतित बताते हुए जर्मनी की हर कमजोरी के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराने की शैली अपनाई थी, गोलवलकर और आर एस एस ने भारत में हूबहू उसी शैली पर मुसलमानों के खिलाफ प्रचार के कार्य को अपनाया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी’’ में इस बारे में साफ लिखा था कि जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों के साथ जो सलूक किया वह हमारे लिए भी एक अच्छा सबक है। हमें इससे लाभ उठाना चाहिए। गोलवलकर की पुस्तक का यह उद्धरण बहुत प्रसिद्ध हैं।

‘‘ अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)



इस बात को और भी अच्छी तरह से जानने के लिए हम यहूदियों के बारे में हिटलर के प्रचार और मुसलमानों के विषय में आर एस एस तथा उसके गुरू जी के प्रचार का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं। इसी से साफ पता चल पाएगा कि किस प्रकार आर एस एस हिटलर के नक्शे-कदम पर चलता रहा है।

यहूदियों के खिलाफ ’’आर्य श्रेष्ठता’’ की हिटलर की सारी दलीलों का मौटे तौर पर खाका इस प्रकार रहा है :  इस पृथ्वी रूपी ग्रह पर आर्यों के साथ ही अनिवार्य रूप से मानव सभ्यता और संस्कृति जुड़ी हुई है। इसीलिए आर्यों पर किसी भी प्रकार के हमले का अर्थ है मानव सभ्यता और संस्कृति पर हमला। जर्मन जाति आर्य जाति है। दुनिया की श्रेष्ठ जाति होने के नाते इसे सारी दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने का ईश्वर प्रदत्त अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार सिर्फ श्रेष्ठता के बखान से नहीं, शारीरिक बल और पराक्रम के द्वारा अन्य क्षुद्र जातियों के दमन और सफाए के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। यह कार्य दुनिया में सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखने के लिए जरूरी है। जर्मनों में यह पराक्रम जागृत करना होगा। यहूदी लोग आर्यों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधाधा है। ये जर्मन जाति के आन्तरिक शत्रु हैं। ये वे लोग हैं जो अपने मेजबानों के साथ भाषा आदि के मामले में मिलजुल गए हैं लेकिन मन से हमेशा यहूदी रहते हैं, कभी भी मेजबान राज्य के सच्चे नागरिक नहीं होते। वे बहुत ही लालची और कृपण होते हैं। उनकी अपनी कोई सभ्यता नहीं है। वे मूलत: गन्दे, ईर्ष्यालु और आत्म-त्याग से रहित लोग हैं। जर्मनी में वे एक ऐसी आबादी है जिसका अपना कोई देश नहीं है। वे जर्मनी की तमाम कमजोरियों के मूल में है। और तो और, वे जर्मन लड़कियों को फँसा कर आर्यों की नस्ल को गन्दा करते हैं। उनके खिलाफ की जानेवाली कार्रवाई ईश्वर का आदेश है। उनका सफाया करके ही श्रेष्ठ जर्मन जाति विश्व पर आर्यों के आधिपत्य के ईश्वरीय न्याय पर अमल कर सकती है।

यहूदियों के खिलाफ मनमाने ढंग से हिटलर लगातार इस प्रकार का गन्दा और पूरी तरह झूठा प्रचार किया करता था। हिटलर के उदय के पहले जर्मनी के इतिहास और संस्कृति में यहूदियों का जो अवदान रहा, इसे सारी दुनिया जानती है। साहित्य और संस्कृति, चिकित्साशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी, विश्वशान्ति आदि तमाम विषयों में जर्मनी के यहूदी निवासियों को नोबेल पुरस्कार मिल चुके थे। अकेले 1905 से 1926 के काल में, जब हिटलर की किताब ’’मीन कैम्फ’’ का दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ था, जर्मनी के जिन यहूदी नागरिकों को नोबेल पुरस्कार मिले, वे थे : एडोल्फ वान बेयर (1905, रसायनशास्त्र), पाल एहर्लिक (1908, चिकित्साशास्त्र), पाल हेस (1910, साहित्य), ओटो वालस (1910, रसायनशास्त्र), आल्फ्रेड फ्राइड (1911, शान्ति), राबर्ट बरानी (1914, चिकित्साशास्त्र), फ्रिज हैबर (1918, रसायनशास्त्र), अलबर्ट आईन्स्टीन (1921, भौतिक विज्ञान), ओटो मेयेरोफ (1922, चिकित्साशास्त्र), गुस्ताव हर्ट्ज (1926, भौतिकविज्ञान)।

इसी प्रकार कवियों, लेखकों, चित्रकारों, संगीतकारों, अभिनेताओं में भी जर्मनवासी यहूदी किसी से कम नहीं, बल्कि आगे ही थे।

हिटलर कभी भी यहूदियों को सिर्फ एक धार्मिक समुदाय नहीं मानता था। हिटलर के शब्दों में ’’खुद को धार्मिक समुदाय कहना उनकी चालबाजी है, ताकि वे विश्व प्रभुत्व की अपनी योजनाओं पर पर्दा डाल सके।’’ कोई भी यहूदी भाषा का प्रयोग अपने वास्तविक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए नहीं, उन्हें छिपाने के लिए करता है। जब एक यहूदी अपने ’’मेजबान लोगों’ की भाषा में बोलता है, यहाँ तक कि जब उस भाषा में वह कविता भी लिखता है तब भी वह सिर्फ एक यहूदी के रूप में सोचा करता है और ’’अपनी नस्ल के चरित्र की ही अभिव्यक्ति करता है।’’ (वर्नर मेसर, हिटलर्स मीन कैम्फ : एन एनालिसिस, पृ. 152-168 से)।

अब यदि हम हिटलर के इस अनर्गल प्रचार के सामने मुसलमानों के खिलाफ गोलवलकर के प्रचार को रखें तो दोनों के बीच एक अनोखा साम्य दिखाई देगा।

गोलवलकर की शब्दावली में : “हिन्दू अर्थात् आर्य जाति अनगिनत वर्षों से इस धरती की ही उपज है और इस देश के स्वाभाविक मालिक है। यहीं हमने अनादि, अपौरुषेय वेदों की रचना की, ब्रह्म का अपना दर्शन तैयार किया जो इस विषय पर अन्तिम सत्य है, अपने विज्ञान और कला का निर्माण किया। हिन्दू एक महान राष्ट्र, एक महान जाति है। यह जाति चेतना कभी मर नहीं सकती। किसी भी हमलावर में इस जाति पर आधिपत्य की शक्ति नहीं रही। आठ सौ वर्षों के लगातार युद्धों के बीच यह जाति विजयी रही है। हिन्दू जाति अजेय है। जबसे पहली बार मुसलमानों ने इस धरती पर कदम रखा, तबसे लेकर इस घड़ी तक हिन्दू राष्ट्र आतताइयों से मुक्ति के लिए बहादुरी के साथ लड़ रहा है। जाति भावना जाग रही है। वे दिन दूर नहीं जब दुनिया इसे देखकर या तो आतंक से काँपेगी या खुशी से झूम उठेगी।“ (गोलवलकर, ’’वी’, पृ. 8-12)

आवश्यकता हिन्दुओं के पराक्रम को जागृत करने की है। मुसलमान हमारे राष्ट्र के आन्तरिक दुश्मन हैं। वे हिन्दू राष्ट्र के आन्तरिक संकट हैं। उनकी आक्रामक नीति सदैव दोहरी रही है। इस राष्ट्र के खिलाफ उनका सतत रूप से आक्रमण जारी रहा है। बारह सौ वर्ष पूर्व जब मुसलमान ने यहाँ पैर रखा, उसकी यही आकांक्षा रही कि इस सम्पूर्ण देश का धार्मान्तरण करके गुलाम बनाया जाएँ। गुण्डागिरी उनका स्वभाव है। सम्पूर्ण देश में जहाँ भी एक मस्जिद या मुसलमानी मुहल्ला है, मुसलमान समझते हैं कि वह उनका अपना स्वतंत्र प्रदेश है। देश के अन्दर जितनी मुस्लिम बस्तियाँ हैं वे एक-एक लघु पाकिस्तान हैं जहाँ देश का कानून नहीं चलता, दुष्टों के मन की लहर ही अन्तिम नियम है। प्राय: हर स्थान पर ऐसे मुसलमान हैं जो ट्रान्समीटर के द्वारा पाकिस्तान से सतत सम्पर्क स्थापित किए हैं और अल्पसंख्यक होने के नाते सामान्य नागरिक के नहीं अपितु कुछ विशेषाधिकारों का भी उपयोग करते हैं। तथाकथित ’’राष्ट्रीय मुसलमान’’ भी इसी श्रेणी के हैं। महानतम ’’राष्ट्रीय मुसलमान’’ मौलाना आजाद ने भी अपनी पुस्तक मंम अपने ऐसे मस्तिष्क को खुले रूप से व्यक्त किया है। मुसलमान चाहे सरकारी उच्च पदों पर हों या उसके बाहर, घोर अराष्ट्रीय सम्मेलनों में शामिल होते हैं। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, 1980, पृ. 233-247)

गोलवलकर कहते हैं : ’’इतने पर भी हमें यह विश्वास करने के लिए कहा जाता है कि ऐसे तत्व इस भूमि के पुत्र हैं। ...अधिक विलम्ब होने के पूर्व ही ईप्सित धाधारणा के लम्बे और आत्मघाती सम्मोहन को हम तुरन्त रोक दें और राष्ट्र की सुरक्षा एवं समग्रता के हितों को सर्वोच्च स्थान देते हुए स्थिति की कठोर वास्तविकता को दृढ़तापूर्वक ग्रहण करें।’’ (गोलवलकर, विचार नवनीत, पृ. 175)

हेडगेवार, गोलवलकर द्वारा शुरू किया गया मुसलमानों के खिलाफ यह घिनौना दुष्प्रचार और भी गन्दे और जघन्य रूप में संघ परिवार के बाकी नेताओं के द्वारा जारी है। मुसलमानों को वे अनेक प्रकार की गन्दी गालियों से सम्बोधित करते हैं। बिना किसी आधार के चिल्लाते रहते हैं कि वे परिवार नियोजन को नहीं मानते, चार-चार शादियाँ करते हैं और हमेशा इस देश के खिलाफ षड़यन्त्र में लगे रहते हैं। भारतीय जीवन और संस्कृति में इस्लाम के अमूल्य योगदान का जो लम्बा इतिहास है, जिस पर असंख्य बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब है, उन सबको वे झुठलाते और अस्वीकारते रहते हैं। संत साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में, विज्ञान और प्रगति के तमाम क्षेत्रों में भारत के मुसलमानों का क्या अवदान है, इसे यहां अलग से बताने की जरूरत नहीं है।

अमेरिकी गवेषक जे.ए. कुर्रान ने अपने शोध में आर एस एस के घृणित मुस्लिमविरोध के तथ्य को विशेष तौर पर नोट करते हुए लिखा था कि संघी सभी मुसलमानों को देश का परम शत्रु समझते हैं।

’’मुसलमानों के प्रश्न पर बिल्कुल साफ और नग्न रूप में आर एस एस के पास अन्तहीन गालियाँ हैं। पूरे मुस्लिम सम्प्रदाय पर संघपरिवार के सदस्य जितनी तोहमतें लगाते हैं, वे सीमाहीन हैं। आर एस एस ’’भारत’ के प्रत्येक मुसलमान को पाकिस्तान का वास्तविक या सम्भावित जासूस मानता है। संघ के कार्यकर्ता प्रत्येक ’’वफादार नागरिक’ का यह कर्तव्य मानते हैं कि सभी भारतीय मुसलमानों की रोजमरे की गतिविधियों पर लगातार नजर रखे, भले ही देखने पर वह कितना ही मासूम क्यों न प्रतीत हो। सन् 1950 के वसन्त के महीने में ’’आर्गनाइजर’ के एक सम्पादकीय में सरकार से माँग की गई कि...’’हमारी नागरिक सेवाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाएँ। हमारा नागरिक और पुलिस प्रशासन उस वक्त तक सुरक्षित नहीं रह सकता, जब तक सरकार में शामिल हर मुसलमान को पाकिस्तान नहीं भेज दिया जाता।’’ (जे.ए. कुर्रान, पूर्वोक्त, पृ. 39)

गोलवलकर हमेशा कहा करते थे कि पाकिस्तान कोई तयशुदा मसला नहीं है, हम उसे उजाड़ेंगे।

इसी प्रकार की तमाम बातों पर चलते हुए आर एस एस का एकसूत्री कार्यक्रम मुसलमानों पर हमलों की योजनाएँ बनाना होता है। चूँकि वे हर बस्ती को एक लघु पाकिस्तान मानते हैं, तथा पाकिस्तान को उजाड़ना अपना कर्तव्य, इसीलिए वे सुनियोजित ढंग से दंगे करा कर मुस्लिम आबादियों को उजाड़ने का राष्ट्रद्रोही-मानवद्रोही काम पूरी ध्रष्टता के साथ करते हैं और ऐसे हर दंगे को अपनी जीत और ’’हिन्दुत्व की श्रेष्ठता’ का प्रमाण मानते हैं।

गोलवलकर की तरह ही जनसंघ के सिद्धांतकार और ’’एकात्म मानववाद’ के प्रवक्ता दीनदयाल उपाध्याय रहे हैं। आरएसएसए के एक प्रकाशन ने उनके विचारों के विविध पक्षों पर सात खंडों की एक पुस्तक-माला प्रकाशित की है। इस पुस्तक-माला में उनके तमाम विचारों के एक केंद्रीय सूत्र के रूप में मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर पराजित करने का प्रमुख लक्ष्य छाया हुआ है। वे यह मानते हैं कि जब तक मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत को पूरी तरह से रौंद नहीं दिया जाता है, तब तक उनके ’’हिंदुत्व’ पर आधारित राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती है। गोलवलकर की तरह ही वे भी मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र का ’’आंतरिक संकट’ मानते थे।

’’मुस्लिम तुष्टीकरण’’, मुसलमानों की आबादी, उनमें बहुविवाह की प्रथा आदि के बारे में आर एस एस के प्रचार को बिल्कुल झूठा साबित करनेवाले इस बीच अनेक अध्ययन सामने आ चुके हैं। उन सबको यहाँ दोहराना जरूरी नहीं है।

हिटलर के चरण-चिन्हों पर तैयार किया गया मुस्लिम-विद्वेष का यह संघी रास्ता हमारे राष्ट्र के लिए कितना घातक और तबाही मचानेवाला हो सकता है, इसे और किसी से नहीं, हिटलर के हश्र और उसकी वजह से जर्मनी द्वारा चुकाई गई कीमत से ही जाना जा सकता है। इस सन्दर्भ में जर्मनी के एक पत्रकार सेबातिस्तयन हाफनर की पुस्तक ’’द मीनिंग ऑफ हिटलर’’ के अन्तिम अयाय ’’विश्वासघात’’ से एक उद्धरण देना, मुझे लगता है, अत्यन्त उपयोगी और शिक्षाप्रद हो सकता है।

इसमें हाफनर कहते हैं : ’’यह सचमुच एक काफी आश्चर्यजनक लेकिन बहुत कम समझा गया दिलचस्प तथ्य है कि हिटलर ने जिन राष्ट्रों के खिलाफ सबसे बड़े अपराधा किए उन्हें किसी भी रूप में सबसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाया।...हिटलर की वजह से सोवियत संघ ने कम-से-कम 1 करोड़ 20 लाख, उसके खुद के दावे के अनुसार 2 करोड़ लोगों की जानें गँवाई, लेकिन हिटलर ने उसे जिस जबर्दस्त कर्मोद्दम के लिए बाय किया उसने सोवियत संघ को महाशक्ति के स्तर पर उठा दिया, जहाँ वह पहले नहीं था। पोलैण्ड में हिटलर ने 60 लाख लोगों को मार डाला, यदि इनमें पोलैण्ड के यहूदियों को न गिना जाए तो 30 लाख लोगों को मार डाला, लेकिन हिटलर के युद्ध का परिणाम यह हुआ कि पोलैण्ड युद्ध के बाद युद्ध के पहले के दिनों से ज्यादा मजबूत हो गया। हिटलर यहूदियों का समूल नाश करना चाहता था, अपनी शक्ति भर उसने किया भी, लेकिन उसके इस काम ने, जिसने उनके 40 से 60 लाख लोगों को मार डाला, बाकी बचे हुए लोगों में ऐसी दुस्साहसिकता की शक्ति पैदा कर दी जो यहूदी राज्य के निर्माण के लिए जरूरी थी। लगभग 2,000 वर्षो में पहली बार, हिटलर की वजह से ही यहूदियों को फिर अपना एक राज्य मिला। बिना हिटलर के इसराइल न बना होता।’’’’हिटलर ने ब्रिटेन का कहीं ज्यादा वास्तविक नुकसान पहुँचाया, जिसके विरुद्ध वह युद्ध छेड़ना ही नहीं चाहता था तथा जिसके खिलाफ उसने हमेशा आधे मन से, अपनी आधी शक्ति के साथ युद्ध चलाया। हिटलर के युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने अपना साम्राज्य गँवा दिया और अब वह वैसी विश्वशक्ति नहीं रह गया, जैसा कभी हुआ करता था; हिटलर के कारण इसी प्रकार फ्रांस तथा पश्चिमी यूरोप के अधिकांश अन्य देशों तथा राष्ट्रों की स्थिति में गिरावट आई। लेकिन हर दृष्टि से हिटलर ने सबसे अधिक जिसको नुकसान पहुँचाया वह है, जर्मनी। हिटलर के लिए जर्मनों ने भी भीषण बलिदान किए, 70 लाख से ज्यादा प्राण गए। यहूदियों और पौलैण्डवासियों से कहीं ज्यादा संख्या में वे मारे गए; सिर्फ रूसियों को उनसे ज्यादा खून देना पड़ा था। युद्ध में भागीदार अन्य देशों के मृत लोगों की सूची की इन चारों से कोई तुलना नहीं हो सकती। लेकिन इतने भीषण खून-खराबे के बाद सोवियत संघ और पौलेण्ड आज जहाँ पहले से ज्यादा मजबूत है तथा इसराइल का अस्तित्व ही जहाँ यहूदी खून के बलिदान से हुआ है, वहाँ जर्मन राइख नक्शे से गायब हो चुका है।’’’’हिटलर के कारण जर्मनी का न सिर्फ पश्चिमी यूरोप की अन्य पूर्व शक्तियों की तरह ही, विश्व में स्थान गिर गया, बल्कि उसने अपनी राष्ट्रीय सीमाओं (आवास क्षेत्र) के एक चौथाई अंश को गँवा दिया, जो बचा वह भी विभाजित हो गया।...सन् 1945 में हिटलर जर्मनी को एक मरुभूमि, एक वास्तविक मरुभूमि बनाकर छोड़ गया था। उसने अपने पीछे न सिर्फ लाशों, मलवों और खण्डहरों को तथा भूख से मर रहे तथा घिसट रहे लाखों लोगों को ही छोड़ा था, पूरी तरह से खत्म हो चुके प्रशासन और क्षत-विक्षत राज्य को भी छोड़ा था। युद्ध के अन्तिम महीनों में उसने खुद जान-बूझकर जनता की हालत बुरी तरह से खराब कर दी और राज्य को वस्त कर दिया। उसकी इच्छा तो और भी बुरा करके जाने की थी; जर्मनी के लिए उसका अन्तिम निर्देश राष्ट्रीय मृत्यु का कार्यक्रम था। अगर पहले नहीं तो अपने अन्तिम चरण में हिटलर जान-बूझकर जर्मनी का सबसे बड़ा विश्वासघातक हो गया था।’’ (पृ. 149-150)

हाफनर के इतने लम्बे उद्धरण से हमारा तात्पर्य यही है कि मानवता के खिलाफ अपराध करनेवालों के प्रति इतिहास का न्याय ऐसा ही होता है। जिस हिटलर ने दुनिया की अन्य जातियों को नष्ट करके जर्मन जाति की श्रेष्ठता की स्थापना का बीड़ा उठाया था, उसने अन्त में अपनी आत्महत्या के पहले यह कहकर पूरी जर्मन जाति को ही नष्ट कर देने का निर्देश दिया था कि चूँकि यह जाति विश्व विजय में विफल रही, इसलिए इसके अस्तित्व के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। जो आर एस एस शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र के लिए हिन्दुत्व को जागृत करने के नाम पर घृणित मुस्लिम विद्वेष का प्रचार करता है, वह भारत को किसी भी अर्थ में मजबूत नहीं, बल्कि इसकी एकता को खोखला करने का विश्वासघाती काम ही कर रहा है। हिटलर के समूचे इतिहास से मिल रहे साफ सबक के बावजूद आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के रास्ते पर चलकर सच कहा जाए तो सोचे-समझे ढंग से राष्ट्र की हत्या का षड़यन्त्र रच रहा है। इनकी कारगुजारियों से राष्ट्र सिर्फ टुकड़ों-टुकड़ों में बँट सकता है, उसका भला कुछ भी नहीं हो सकता।


सोमवार, 24 मार्च 2014

चलो चित्त काशी


चाहते तो थे अपनी सशरीर उपस्थिति, वैसा ही कार्यक्रम भी बनाया था। लेकिन अरविंद केजरीवाल का जाना टला तो हमारा पहुंचना स्थगित ही होगया। लेकिन आज चित्त काशी पर टिका होगा। आज वहां केजरीवाल की पहली सभा होगी, उनका जनमत-संग्रह।

जगत-प्रसिद्ध प्राचीन नगरी काशी - सभी लिखित-अलिखित साक्ष्यों से भी प्राचीन। वेद, पुराण, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, बौद्धायन श्रौतसूत्र, शांखायन श्रौतसूत्र, जातक कथाओं - कहां नहीं है उल्लेख इस कथित ‘मोक्षदायिनी पुरी’ का। रामानंद और कबीर का नगर, तुलसी का नगर, भारतेन्दु, प्रेमचंद और प्रसाद का शहर, रामचंद्र शुक्ल का शहर।

महाभारत में काशिराज ने पांडवों का, न्याय और नीति का साथ दिया था। आज के जनतांत्रिक समय में यह किसी तानाशाह, हिटलर का साथ नहीं दे सकती। यह किसी जन-संहार के नायक का साथ नहीं दे सकती।
काशी जितनी पुरानी उतने ही पुराने है यहां के महादेव। महाभारत तक में काशी में शिवोपासना का उल्लेख है। नरेन्द्र मोदी नामक शख्स ने इस महादेव को ही हर लेने के लिये धावा बोला है। वह कभी विजयी नहीं हो सकता।

इस चुनावी रण में काशी के मतों का समीकरण क्या है, इसे पढि़ये आज के जनसत्ता में प्रकाशित अंशुमान शुक्ल की रिपोर्ट 'आसानी से मैदान मारने नहीं देंगे केजरीवाल' में : http://epaper.jansatta.com/247840/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-25032014#page/1/2

शनिवार, 22 मार्च 2014

कचरा और मोदी

आज तमाम पार्टियों का कचरा जिसप्रकार भाजपा में आकर जमा हो रहा है, इस उत्तर-आधुनिक युग की एक बड़ी लाक्षणिकता की ओर संकेत करता है।

इस युग के उद्योग का सबसे बड़ा उत्पाद है - कचरा। एक दिन पहले की हमारी प्रिय चीज अगले दिन ही कचरे में बदल जाती है। टेप को सीडी ने कचरा बनाया तो सीडी को डीवीडी ने और आज सब कुछ पेनड्राइव में सिमट रहा है। घर-घर में वीसीआर का कूड़ा जमा है। स्मार्ट फोन और टैबलेट लैप टाप और पीसी को कूड़ा बना दे रहे हैं।

हम उत्तर-आधुनिक प्राणी जानते हैं कि हमारे भोग की कई सुंदर कलाकृतियां भी अन्तत: कूड़े का ढेर बनने वाली है। पूरी धरती एक विशाल कूड़ा-घर।

आदमी का दुखांत (tragedy) बोध खत्म हो जायेगा और प्रगति उसका मूंह चिढ़ायेगी। मार्क्स के शब्दों में - ‘‘जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है।’’

और, इसी बिन्दु पर सब कुछ निपट नंगे, अपने दिगंबरी रूप में दिखाई देने लगता है।

नरेन्द्र मोदी रूप में!

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

गांधी और भगत सिंह

सरला माहेश्वरी


जरूरत है सभी पूर्वाग्रहों को छोड़ कर गांधीजी और भगत सिंह के प्रसंग की तथ्यमूलक ढंग से चर्चा की जाए। यह भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की विभिन्न धाराओं के बारे में एक ठोस समझ हासिल करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। यह बात तमाम संदेहों से परे है कि अंग्रेजों से देश की राजनीतिक आजादी के बारे में गांधी और भगतसिंह दोनों की मंजिल एक होते हुए भी उनके रास्ते एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। यह फर्क सिर्फ अहिंसा और हिंसा के प्रश्न का नहीं था, बल्कि इसमें कहीं न कहीं दोनों के सम्पूर्ण जीवन दर्शन के बीच का फर्क भी काम कर रहा था। सत्य और अहिंसा संबंधी गांधीजी के अपने खास आग्रह तो थे ही।

यहां हम मुख्य रूप से भगतसिंह की फांसी के सिलसिले में गांधीजी की भूमिका के प्रसंग पर ही विस्तार से चर्चा करेंगे क्योंकि यह एक बेहद विवादास्पद विषय रहा है और इसमें बाज हलकों से कुछ इसप्रकार के आरोप भी लगाये जाते हैं, जैसे गांधीजी ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से सांठ-गांठ करके भगतसिंह को फांसी लगवाने में एक भूमिका अदा की थी। यहां हम गांधीजी की तत्कालीन गतिविधियों के विस्तृत ब्यौरे के अतिरिक्त भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के सिर्फ तीन दिन पहले सुखदेव द्वारा गांधीजी को लिखे गये पत्र को बिना किसी काट-छांट के दे रहे है, ताकि पाठक खुद इस पूरे प्रसंग में अपने निष्कर्षों तक पहुंच सकता है।
भगत सिंह की फांसी के प्रकरण में अक्सर गांधी-इर्विन समझौते की चर्चा की जाती है। उस समय लार्ड इरविन भारत के वाइसराय थे। ब्रिटिश राज्य के भारतीय इतिहास में गांधी-इर्विन वार्ता को एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है क्योंकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद यह पहला मौका था जब सरकार ने देश के ऐसे किसी प्रतिनिधि से बातचीत की, जिसने उसके अधिकार को चुनौती दी थी, और वह भी बराबरी के आधार पर और सौजन्य के साथ। यद्यपि इससे भारत की स्वतंत्रता को पाने में कोई लाभ नहीं हुआ। वाइसराय ने इसमें कड़ी सौदेबाजी की और उन्हें जितने भी तात्कालिक लाभ मिल सकते थे, सब के सब हासिल किये। इसी वजह से इस समझौते की बाज हलकों से तीखी आलोचना की जाती है। लेकिन गांधीवादियों की नजर में इस वार्ता से उनके सत्याग्रह को राजनीतिक संघर्ष का एक विधि-सम्मत उपाय मान लिया गया और इसे वे जनशक्ति तथा जनता के नैतिक बल की उपयोगिता का प्रमाण मानते हैं।
बहरहाल, यह एक दीगर प्रसंग है, जिस पर अलग से काफी चर्चा की जा सकती है। यहां प्रासंगिक बात यह है कि वाइसराय इर्विन से गांधीजी की वार्ताओं के दौरान दुनिया-जहां के तमाम प्रश्नों के साथ ही भगत सिंह के मामले का सवाल भी बार-बार उठा था। 18 फरवरी 1931 के दिन इर्विन और गांधीजी की मुलाकात का इर्विन और महात्मा गांधी द्वारा दिये गये वृत्तांतों को संपूर्ण गांधी वाड़्मय के पैंतालीसवें खंड में संकलित किया गया है। इर्विन ने इस बैठक के अपने वृत्तांत में भगत सिंह के प्रसंग में लिखा है : अन्त में उन्होंने भगतसिंह के मामले का उल्लेख किया। उन्होंने मृत्यु दंड न देने का आग्रह नहीं किया। यद्यपि किसी भी परिस्थिति में प्राणी हत्या के खिलाफ होने के कारण वे स्वयं फांसी की सजा के विरुद्ध थे। उनका ऐसा विचार था कि इससे शान्ति स्थापना में मदद मिलेगी। लेकिन उन्होंने मौजूदा परिस्थितियों में उस सजा को मुलतवी करने की मांग जरूर की। मैंने इतना कह देना काफी समझा कि मृत्यु दण्ड की तारीख के बारेमें चाहे जो निर्णय हो, मुझे नहीं लगता कि सजा बदलने के पक्षमें उनके पास कोई ऐसा तर्क था जिसे इतने ही जोरदार ढंगसे किसी अन्य हिंसक अपराध के मामले में न पेश किया जा सकता हो। वाइसराय केवल दया के आधार पर सजा घटाते या माफ करते हैं, राजनीतिक उद्देश्य से नहीं। (स.गा.वा., 45वां खंड, पृ: 202)
इसी वार्ता के गांधीजी के वृत्तांत में इस प्रसंग को इस प्रकार व्यक्त किया गया है: मैंने भगतसिंहकी बात की। मैंने कहा  ‘हमने जो बात की है उसके साथ इसका कुछ संबंध नहीं है और शायद मेरा इस बात का जिक्र करना भी अनुचित माना जायेगा, किन्तु आजकलके वातावरण को ज्यादा अनुकूल बनाना हो तो आपको चाहिएं कि फिलहाल भगतसिंहकी फांसी को मुलतवी कर दें।’ वाइसराय को यह बहुत अच्छा लगा।
वाइसराय: आपने यह बात इस तरह मेरे सामने रखी इसके लिए मैं बहुत आभारी हूं। सजा कम करना कठिन काम है। किन्तु उसे (फांसी को) मुल्तवी करनेकी बातपर तो जरूर विचार किया जाना चाहिए।
मैंने भगतसिंह के बारे में कहा, वह बहादुर तो है ही पर उसका दिमाग ठिकाने नहीं है, इतना जरूर कहूंगा। फिर भी मृत्युदण्ड बुरी चीज है क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति को सुधरने का अवसर नहीं देती। मैं तो मानवीय दृष्टिकोणसे यह बात आपके सामने रख रहा हूं और देश में नाहक तूफान न उठ खड़ो हो, इसलिए सजा मुल्तवी कर देने का इच्छुक हूं। मैं तो उसे छोड़ दूं किन्तु कोई सरकार उसे छोड़ देगी ऐसी आशा मुझे नहीं है। आप मुझे इस विषय में कुछ जवाब न दें तो भी मुझे बुरा नहीं लगेगा। (उपरोक्त, पृ: 206)
इसके बाद गांधी जी ने 7 मार्च 1931 के दिन दिल्ली में हुई एक सार्वजनिक सभा में भगत सिंह के प्रसंग में विस्तार से अपने विचार रखे थे। इस सभा में  50 हजार से ज्यादा लोग उपस्थित थे। इसमें वे कहते हैं : अगला सवाल भगतसिंह और दूसरे लोगों के बारे में है, जिनको मौत की सजा दी जा चुकी है। मुझसे पूछा गया है कि जब कि इन देशभक्तों के सिरपर मौतकी छाया मंडरा रही है, शान्ति हो कैसे सकती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन पत्रकों को बांटने वाले नौजवान ऐसी सीधी-सादी बात भी नहीं समझ सकते। उन्हें समझना चाहिए कि हमने कोई शान्ति-सन्धि नहीं की है। सिर्फ अल्पकालीन और अस्थायी समझौता किया है। मैं युवकोंसे प्रार्थना करता हूं कि वे व्यवहार-बुद्धि, आवेशहीन वीरता, धैर्य और विवेकको तिलांजलि न दे दें। मैंने 62 वर्षीय युवक होनेका दावा किया है। परन्तु यदि मुझे जीर्ण-शीर्ण, बूढ़े और पुराणपंथी की संज्ञा भी दे दी जाये तो भी मुझे आपसे विवेकपूर्ण काम करनेकी प्रार्थना करने का अधिकार है। ...परन्तु मैं आपको बता दूं कि भगतसिंह और बाकी लोग रिहा क्यों नहीं किये गये हैं। हो सकता है कि यदि आप समझौतेकी बातचीत कर रहे होते तो आप वाइसराय को ज्यादा अच्छी शर्तों के लिये राजी कर लेते, परन्तु कार्यसमिति के लोग तो इससे ज्यादा प्राप्त नहीं कर सकते थे। ...समझौता करते समय हम जितना दबाव डाल सकते थे, उतना हमने डाला और अस्थायी समझौते के अन्तर्गत हमें जो-कुछ न्यायपूर्वक मिल सकता था, उससे सन्तोष कर लिया। अस्थायी सन्धि के लिए मध्यस्थता करने वाले हम लोग सत्य और अहिंसाके अपने प्रण और न्यायकी सीमाओं को नहीं भूल सकते थे।
परन्तु जिनका आपने नाम लिया हैं, उन सबकों रिहा कराने का रास्ता अब भी खुला है। आप समझौतेको कार्यरूप दें, तो ऐसा हो सकता है। ‘यंग इंडिया’ समझौतेका समर्थन करे और इसकी सारी शर्तों को पूरा करे और यदि ईश्वर ने चाहा और हमारे उपर्युक्त स्थितिपर पहुंचने तक भगतसिंह औरदूसरे लोग जीवित रहे तो वे फांसी के तख्ते पर लटकनेसे ही नहीं बच जायेंगे, रिहा भी कर दिये जायेंगे।
परन्तु मैं ‘यंग इंडिया’ को एक चेतावनी दे दूं। इन चीजोंको मांगना आसान है, पाना नहीं। आप उन लोगों की रिहाई की मांग करते हैं जिन्हें हिंसाके आरोप में फांसी की सजा दी गई है। यह कोई गलत बात नहीं है। मेरा अहिंसा-धर्म चोर-डाकुओं और यहांतक कि हत्यारों को भी सजा देने के पक्षमें नहीं है। भगतसिंह जैसे बहादुर आदमी को फांसीपर लटकानेकी बात तो दूर रहीं, मेरी अन्तरात्मा तो किसीको भी फांसी के तख्ते पर लटकाने की गवाही नहीं देती है। परन्तु मैं आपको बता दूं कि आप भी जबतक समझौतेकी शर्तोंका पालन नहीं करते, उन्हें बचा नहीं सकते। यह काम आप हिंसा द्वारा नहीं कर सकते। यदि आपको हिंसापर ही विश्वास है, तो मैं आपको निश्चयपूर्वक बता सकता हूं कि आप केवल भगतसिंहको ही नहीं छुड़ा सकेंगे बल्कि आपको भगतसिंह-जैसे और हजारों लोगोंका बलिदान करना पड़ेगा।
पुन: 23 मार्च को भगतसिंह की फांसी के ठीक 4 दिन पहले गांधीजी की इर्विन से भेंट हुई थी। इर्विन द्वारा दिये गये इस भेंट के वृत्तांत में कहा गया है: जाते-जाते उन्होंने कहा कि आप भगतसिंह का उल्लेख करनेकी आज्ञा दें तो मैंने अखबार में पढ़ा है कि फांसी की तारीख 24 मार्च घोषित की गई है। यह एक दुर्दिन ही होगा; ठीक उसी दिन कांग्रेसके नये अध्यक्ष कराची पहुंचेंगे और जनता में बड़ी उत्तेजना होगी।
मैंने उन्हें बताया कि मैंने इस मामलेपर बहुत ध्यानसे विचार किया है, पर मुझे अपने मनमें सजा कम करनेके औचित्य का कोई ठोस आधार नहीं मिला। जहांतक तारीखका सवाल है, मैंने कांग्रेसके अधिवेशन के समाप्त होनेतक इसे टालनेकी सम्भावना पर विचार किया था, पर जानबूझ कर अनेक कारणों से उसे रद कर दिया, जैसे
1.कि, आदेश दे देनेके बाद केवल राजनीतिक कारणसे फांसीको स्थगित करना मुझे ठीक नहीं जंचा;
2.कि, फांसी को स्थगित करना अमानवीय होगा; क्योंकि इससे मित्रों और सम्बन्धियों को लगेगा कि मैं सजा कम करने की बात सोच रहा हूं; और
3.कि, कांग्रेस उचित रूप से यह शिकायत कर सकेगी कि सरकार ने उसे धोखा दिया है।
ऐसा लगा कि उन्होंने इन तर्कों के आधार को सही माना और आगे कुछ नहीं कहा। (उपरोक्त, पृ. 334)
इसके दो दिनों बाद पत्रकारों से बातचीत में जब गांधीजी से पूछा गया कि क्या आपको कोई ऐसी आशा है कि भगतसिंह को शायद अन्तिम समयपर बचाया जा सकेगा? तो गांधीजी का जवाब था - है तो, पर बहुत क्षीण। (उपरोक्त, पृ. 338)


ठीक फांसी दिये जाने के दिन, 23 मार्च को सुबह के समय गांधीजी ने वाइसराय को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने वाइसराय से कहा कि आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने-जैसा लगता है; पर शान्ति के हितमें अन्तिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदनपर विचार करने को कहा था। डा. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिन्तित है और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैंं। यदि इसपर पुन: विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं।
जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धान्त दाव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कत्‍​र्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सजा हल्की की जाती है तो बहुत सम्भव है कि आन्तरिक शान्ति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौतकी सजा दी गई तो निस्सन्देह शान्ति खतरे में पड़ जायेगी।
मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रान्तिकारी दलने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाये तो यह दल अपनी कार्यवाहियां बन्द कर देगा। यह देखते हुए मेरी रायमें मौतकी सजाको, क्रांन्तिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जबतक बन्द रहती हैं, तबतक मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।
राजनीतिक हत्याओं के मामलों में इससे पहले भी तरह दी जा चुकी है। यदि ऐसा करने से बहुत-सी अन्य निर्दोष जानें बचाई जा सकती हों तो उनका बचाना लाभदायक होगा। हो सकता है कि इससे क्रांतिकारियोंकी आतंकपूर्ण कार्यवाहियां लगभग समाप्त हो जायें।
चूंकि आप शान्ति-स्थापनाके लिए मेरे प्रभाव को, जैसा भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं, इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए; यों ही वह कुछ सरल नहीं है।
मौत की सजापर अमल हो जानेके बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजाको, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। (उपरोक्त, पृ. 354)

उल्लेखनीय है कि वाइसराय ने तत्काल उसी समय गांधीजी को उनके इस पत्र का जवाब दिया और उसमें उनके अनुरोध को मानने से साफ इंकार कर दिया।
23 मार्च 1931 की शाम 7 बज कर 23 मिनट पर लाहौर के केंद्रीय कारागार में राजगुरू और सुखदेव के साथ भगतसिंह को फांसी दे दी गयी। इस समाचार के मिलते ही गांधीजी ने एक वक्तव्य जारी किया : भगतसिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गये हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्युसे हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नवयुवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करनेकी अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करनेके अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देशकी मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसा लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्षको अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते को दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजाको अनिश्चित कालतक अमलमें न लाना उसका फर्ज था। सरकारने अपने कामसे समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबलका प्रदर्शन करनेकी शक्ति को साबित किया है।
पशुबल से काम लेनेका यह आग्रह कदाचित् अशुभ का सूचक है और यह बताता है कि वह मुंहसे तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोड़ना चाहती। फिर भी प्रजा का कत्‍​र्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेसको अपने निश्चित मार्गसे नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से -ज्यादा उत्तेजना का कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
गुस्से में आकर हमें गलत मार्गपर नहीं जाना चाहिए। सजामें कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किन्तु हम उसपर समझौतेकी शर्तों को भंग करनेका आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चिम मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गम्भीर भूलके परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्त करने की हमारी शक्तिमें वृद्धि हुई है और उसके लिए भगतसिंह और साथियों ने मृत्युको भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण  काम करके हम मौकेको हाथ से न गंवा देंं।  सार्वजनिक हड़ताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शान्त और गम्भीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मूंहमें जानेवाले इन देशभक्तोंका सम्मान कर भी नहीं सकते।
(उपरोक्त, पृ. 356-357)
यह था वह पूरा बयान जो भगतसिंह की फांसी के समाचार को सुनने के ठीक बाद गांधीजी ने दिया था। भगतसिंह को एक देशभक्त और सम्मान का पात्र मानने तथा ब्रिटिश सरकार के इस कुकर्म को गुंडाशाही करार देने के बावजूद गांधीजी ने हर समय भगतसिंह के रास्ते के प्रति अपनी असहमति को जाहिर करने में कभी भी कोई हिचक नहीं दिखाई। उपरोक्त तमाम वृत्तांतों से यह भी साफ है कि गांधीजी भगतसिंह को सुनाई गयी सजा को लेकर लगातार चिन्तित थे और अपने ढंग से, अपने खास कार्यनीतिक अंदाज में ब्रिटिश सरकार से गुजारिशें भी कर रहे थे। वाइसराय से उन्होंने यहां तक कहा था कि दया एक ऐसी वस्तु है जो कभी निष्फल नहीं होती। अंतिम क्षणों में क्रांन्तिकारियों के इस आश्वासन का भी हवाला दिया था कि यदि भगतसिंह की जान बख्श दी जाती है तो वे अपनी कार्रवाइयां बंद कर देंगे। लेकिन इसके बावजूद, आंदोलन और समझौते के अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में वे इस सवाल को सबसे केंन्द्रीय प्रश्न बनाने के लिये तैयार नहीं थे। वाइसराय इर्विन के सामने वे जिसप्रकार बार-बार भगतसिंह के सवाल को उठा रहे थे, उससे एक बात यह भी जाहिर होती है कि उस समय के राजनीतिक माहौल में इस सवाल की पूरी तरह से अवहेलना करना उनके लिये मुमकिन नहीं था। वे लोकमत की उपेक्षा नहीं कर सकते थे और अपने खास अंदाज में इसकी उपेक्षा करने के लिये ब्रिटिश सरकार को कोस भी रहे थे। तथापि उन्होंने भगतसिंह की फांसी को रुकवाने में अपनी असमर्थता को मान लिया था और इसीलिये इसपर वे अपनी राजनीति का कुछ भी दाव पर लगाने के लिये तैयार नहीं थे। वे इस बात से पूरी तरह से वाकिफ थे कि उनकी इस असमर्थता से देश भर में उनके प्रति भारी असंतोष पैदा होगा। इसे उन्होंने वाइसराय से भी कहा था कि  अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए; यों ही वह कुछ सरल नहीं है।

भगतसिंह की फांसी के बाद कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य देखने को भी मिला। फांसी के दो दिन बाद ही कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ। गांधीजी जब कराची पहुंचे तो लाल कमीज पहने हुए नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने उनके विरुद्ध काली झंडियों के साथ स्टेशन पर जोरदार प्रदर्शन किया। वे नारे दे रहे थे : ‘गांधीवाद का नाश हो’, ‘गांधी वापस जाओ’। इस बारे में 26 मार्च को पत्रकारों से अपनी बातचीत में गांधीजी ने कहा, मैं भगतसिंह औरउसके साथियों की मौत की सजा में परिवर्तन नहीं करवा सका और इसी कारण नवयुवकोंने मेरे प्रति अपना क्रोध प्रदर्शित किया है। मैं इसके लिए पूरी तरह से तैयार था। यद्यपि वे मुझपर बहुत नाराज थे, फिर भी मैं सोचता हूं कि उन्होंने अपने क्रोध का प्रदर्शन बहुत ही सभ्य ढंगसे किया। वे चाहते तो आसानी से मारपीट कर सकते थे; पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। वे कई तरह से मुझे अपमानित कर सकते थे पर उन्होंने अपने क्रोध पर अंकुश रखा और मेरा अपमान केवल काले कपड़े के फूल, जो कि, मैं समझता हूं, तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे, देकर किया। इन्हें भी वे मेरे ऊपर बरसा सकते थे अथवा मुझ पर फेंक सकते थे, पर यह सब न करके मुझे अपने हाथोंसे फूल लेनेकी छूट दी और मैंने कृतज्ञतापूर्वक इन फूलों को लिया। (उपरोक्त, पृ.365)
इसीदिन गांधीजी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में अपना जो उद्घाटन भाषण दिया उसमें भगत सिंह का प्रसंग ही पूरी तरह से छाया हुआ था और उन्होंने इसके बारे में काफी ज्यादा विस्तार से चर्चा की थी। इसमें वे कहते हैं :
उन्हें फांसीपर लटका कर सरकारने लोगों को गुस्सा होने का जबर्दस्त कारण दिया है। मूझे भी इससे चोट पहुंची है, क्योंकि हमारे विचार-परामर्श और बातचीत से मुझे धुंधली-सी आशा बंध गई थी कि भगतसिंह, राजगुरू, और सुखदेव शायद बच जायेंगे। मैं उन्हें बचा नहीं सका, इससे अगर नौजवान मुझपर गुस्सा होते हैं, तो मुझे आश्चर्य नहीं होता, पर कोई कारण नहीं कि मैं भी उनसे गुस्सा होऊं।
इसके बाद गांधी जी ने थोड़े विस्तार से अपने अहिंसा धर्म की व्याख्या की और पुन: एक दिन पहले उनके खिलाफ किये गये नौजवानों के प्रदर्शन की बात को उठाते हुए कहा कि उनसे नाराज होने के बदले मैं राजी हुआ हूं, क्योंकि उन प्रदर्शनों में किसी प्रकार का अविवेक न था। वे मुझपर हाथ उठा सकते थे, पर वे उलटे मेरे अंगरक्षक बन गये और मुझे मोटर तक ले गये। ...वे नौजवान तो दुनिया को यह बताना चाहते थे कि उन्हें विश्वास है कि महात्मा चाहे जितना महान क्यों न हो, वह हिन्दुस्तान का नुकसान कर रहा है। अगर वे मानते हैं कि मैं देश को दगा दे रहा हूं तो मेरी पोल खोलने का उन्हें अधिकार है। मैं चाहता हूं कि इस सम्बन्ध में आप मेरे दृष्टिकोण को समझें।
इसके बाद गांधीजी ने पुन: विस्तार से अपने अहिंसा के सिद्धांत पर प्रकाश डाला। उन्होंने भगतसिंह की फांसी के बाद कानपुर में भड़की हिंसा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि अखबारों से पता चलता है कि भगतसिंह की शहादत से कानपुर के हिन्दू पागल होगये,...मेरा विश्वास है कि अगर भगतसिंह की आत्मा कानपुर काण्ड को देख रही है, तो अवश्य गहरी वेदना और शरम अनुभव करती होगी। गांधीजी के इस लंबे भाषण के अंत में किसी ने उनसे सवाल किया कि आपने भगतसिंह को बचाने के लिए क्या किया?
इसपर गांधीजी का जवाब था : मैं अपना बचाव करनेके के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगतसिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझानेकी जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगतसिंहकी परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन, अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा ऊंडेल दी थी, पर सब बेकार हुआ। आप कहेंगे मुझे एक बात और करनी चाहिए थी:- सजा को घटाने के लिए समझौतेमें एक शर्त रखनी चाहिए थी। ऐसा हो नहीं सकता था। और समझौता वापस ले लेनेकी धमकी देना तो विश्वासघात कहा जाता। कार्य-समिति इस बातमें मेरे साथ थी कि सजा घटानेकी शर्त समझौते की शर्त नहीं हो सकती। इसलिए मैं इसकी चर्चा तो सुलह की बातों से अलग ही कर सकता था। मैंने उदारता की आशा की थी। मेरी वह आशा सफल होनेवाली न थी, पर इस कारण समझौता तो कभी नहीं तोड़ा जा सकता।(उपरोक्त, पृ.371-373)
कांग्रेस के कराची अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया : ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्बन्ध में’। इस प्रस्ताव का मसविदा गांधीजी ने तैयार किया था और जवाहरलाल नेहरू ने इसे अधिवेशन में पेश किया। इसमें कहा गया : यह कांग्रेस किसी भी रूप अथवा प्रकार की राजनीतिक हिंसासे अपना सम्बन्ध न रखते हुए और उसका समर्थन न करते हुए स्वर्गीय भगतसिंह और उनके साथी सर्वश्री सुखदेव और राजगुरू के बलिदान और बहादुरीकी प्रशंसा को अभिलेखबद्ध करती है और इनकी जीवन-हानिपर शोकातुर परिवारों के साथ शोक प्रकट करती है। कांग्रेस की राय है कि इन तीनों को फांसीपर लटकाना अत्यंत निम्न प्रतिशोध का कृत्य है और इस तरह सजा कम करने की राष्ट्रकी सर्वमुखी मांगका जानबूझकर निरादर किया गया है। इस कांग्रेस की यह भी राय है कि सरकार ने दो राष्ट्रों के बीच अत्यन्त आवश्यक सद्भाव बढ़ाने की इस घड़ी का, और जो दल निराश होकर राजनीतिक हिंसाका सहारा लेता है, उसे शान्ति के मार्ग पर लाने का सुनहरा मौका खो दिया है।
29 मार्च 1931 के ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने भगतसिंह पर एक टिप्पणी लिखी। इसमें उन्होंने लिखा कि वीर भगतसिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गये। उनकी देहको बचानेके बहुतेरे प्रयत्न किये गये, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई।
भगतसिंह को जीवित रहने की इच्छा नहीं थी; उसने माफी मांगने से इनकार किया। अर्जी देने से इनकार किया। यदि वह जीते रहनेको तैयार होता तो वह या तो दूसरों के लिए काम करने की दृष्टिसे होता या फिर इसलिए होता कि उसकी फांसीसे कोई आवेश में आकर व्यर्थ ही किसी का खून न करे। भगतसिंह अहिंसा का पुजारी नहीं था, पर वह हिंसा को भी धर्म नहीं मानता था; वह अन्य उपाय न देखकर खून करनको तैयार हुआ था। उसका आखिरी पत्र इस प्रकार था: मैं तो लड़ते हुए गिरफ्तार हुआ हूं। मुझे फांसी नहीं दी जासकती। मुझे तोपसे उड़ा दो, गोलीसे मारो। इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।
इसके बाद ही गांधीजी ने भगतसिंह के रास्ते को अनुकरणीय नहीं बताते हुए दलील दी कि अगर हमारे यहां किसी की हत्या करने वाले की प्रशंसा करना रूढ़ हो जाये तो जिसे हम न्याय समझते है, उसके लिए एक-दूसरेका खून करने लगें। जिस देश में करोड़ों कंगाल और अपाहिज लोग हों, उस देश में यह स्थिति भयानक होगी।
आगे सरकार की पशु-वृत्ति की आलोचना करते हुए कहा कि सरकार को फांसी देने का अधिकार था जरूर, पर कई अधिकारों की शोभा इसीमें होती है कि वे सिर्फ थैलीमें बन्द पड़े रहे; उनका प्रयोग न किया जाये। ...अभी तक सरकार में इतनी विवेक-शक्ति नहीं आई है। सरकार ने जनता को क्रोधित होने का स्पष्ट अवसर दे दिया है।
यह था भगतसिंह और उनकी फांसी के बारे में गांधीजी का समग्र नजरिया। अब हम एक नजर दूसरे पक्ष की ओर डालते है। जिस समय गांधीजी वाइसराय से समझौते के दौरान उनसे क्रांतिकारियों के बारे में भी बात कर रहे थे, उस समय भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी गांधीजी के बारे में क्या सोच रहे थे, इसे जानने के लिये सबसे उपयोगी है शहीद सुखदेव का गांधीजी के नाम वह पत्र जो उन्होंने फांसी के तीन दिन पहले, 20 मार्च को लिखा था। यह पत्र रमेश विद्रोही की पुस्तक ‘भगतसिंह जीवन, व्यक्तित्व, विचार’ में संकलित है। यह गांधीजी को मिला था या नहीं, कह नहीं सकते क्योंकि गांधीजी की इसके बारे में कोई प्रतिक्रिया गांधी वाड़्मय में नहीं दिखाई देती। यहां हम तीन पृष्ठों के इस लंबे पत्र को पूरा दे देना उचित समझते हैं। पत्र का पूरा मजमून इस प्रकार है :


आदरणीय महात्मा जी,
आज कल की ताजा खबरों से पता चलता है कि सन्धि की चर्चा के बाद आपने क्रांतिकारियों के नाम कई अपीलें जारी की है। अपीलों में आपने कम से कम वर्तमान समय के लिए क्रांतिकारी आन्दोलन रोक देने के लिए कहा है। दरअसल बात यह कि किसी आन्दोलन को रोक देने का काम सैद्धन्तिक दृष्टि से अपने बस की बात नहीं है। समय-समय पर जरूरत के मुताबिक आन्दोलनों के नेता अपनी नीति बदलते रहते हैं।
हमारा अनुमान है कि सन्धि की बातचीत के दौरान आपर कए भी यह बात न भूले होंगे कि यह समझौता कोई समझौता नहीं हो सकता। मेरा ख्याल है कि यह तो सभी समझदार इन्सान समझमे होंगे कि आप के सभी सुधारों को मान लेने पर भी देश को उसका अन्तिम फल प्राप्त नहीं होगा। लाहौर कांग्रेस के प्रस्ताव के अनुसार, कांग्रेस तब तक लड़ाई चलाने के लिए प्रतिबद्ध है जब तक पूरी आजादी हासिल न हो जाए। बीच-बीच में की गयी सन्धियां और समझौते तो सिर्फ पल भर का ठहराव है, जिसमें अगली लड़ाई के लिए ज्यादा से ज्यादा ताकत जुटाने का मौका मिलता है। सिर्फ इस सिद्धांत पर ही किसी तरह की सन्धि या समझौता करने के विषय में सोचा जा सकता है। समझौते के लिए सही समय और शब्दों पर विचार करने का काम नेताओं का है। भले ही लाहौर के पूरी आजादी के प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन रोक दिया है, फिर भी प्रस्ताव उसी रूप में कायम है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों का उद्देश्य इस देश में समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापन है। इस उद्देश्य में संशोधन करने की कोई गुंजाइश नहीं है। वे तो अपना संग्राम तब तक पूरी तरह जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है, जब तक यह उद्देश्य हासिल नहीं हो जाता और इस आदर्श की पूरी तरह स्थापना नहीं होजाती। लेकिन समय के परिवर्तन के साथ-साथ वे अपनी रणनीति भी बदलते रहना चाहते हैं। क्रांतिकारियों का युद्ध अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग रूप धारण कर लेता है। कभी यह खुलेे ढंग से होता है और कभी यह गुप्त रूप धारण कर लेता है। कभी सिर्फ आन्दोलन जैसा ही रह जाता है, कभी जिन्दगी और मौत का भयानक संग्राम बन जाता है। मौजूदा हालत में क्रांतिकारियों के सामने आन्दोलन रोकने के लिए विशेष कुछ कारणों का होना आवश्यक है। लेकिन आपने हमारे सामने ऐसा कोई निश्चित कारण पेश नहीं किया, जिस पर विचार करके हम अपना आन्दोलन रोक दे। सिर्फ भावुकता भरी अपीलें क्रांतिकारियों के संग्राम पर कोई असर नहीं डाल सकती।
समझौता करके आपने अपना आन्दोलन रोक लिया है जिसके परिणामस्वरूप आपके आन्दोलन के कैदी छूट गये है। लेकिन क्रांतिकारी कैदियों के सम्बन्ध में आप क्या कहना चाहते हैं?
गदर पार्टी के साथी 1915 के कैदी आज भी जेलों में पड़े सड़ रहे हैं जबकि उनकी सजाएं पूरी हो चुकी है। मार्शल लॉ के कई सौ कैदी जीते हुए भी कब्रों में दफनाए गये लोगों जैसे जिन्दगी बीता रहे हैं। इसीतरह बब्बर अकाली लहर के कई दर्जन कैदी जेलों में सजाएं बर्दाश्त कर रहे हैं। आधे दर्जन से ज्यादा ाड़यन्त्र के मामले लाहौर, दिल्ली, चटगांव, बम्बई, कलकत्ता आदि में चल रहे हैं। अनेक क्रांतिकारी भूमिगत है जिनमे ंबहुत सी महिलाएं भी है। आधा दर्जन से ज्यादा कैदी मौत की सजा का इंतजार कर रहे हैं। इन सबके बारे में आपको क्या कहना है?
लाहौर ाड़यंत्र के तीन कैदी जिन्हें फांसी की सजा मिली है और जिन्हे इसी वजह से सम्मान प्राप्त होगया है, उनकी सजा में परिवर्तन से देश का उतना कुछ नहीं संवर सकता जितना उन्हें फांसी पर चढ़ा देने से होगा।
इन सब बातों के कायम रहते हुए भी आप हमसे आन्दोलन रोक देने की अपीलें कर रहे हैंं। हम अपना क्रांतिकारी आंदोलन क्यों रोक ले? आपने कोई सही कारण नहीं बताया। इस तरह के हालात में आपकी अपीलों का मतलब बस यही है कि आप स्वयं क्रांतिकारी आंदोलनों को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हैं। इन अपीलों के जरिये आप स्वयं क्रांतिकारी दलों में फूट डाल रहे हैं और विश्वासघात की शिक्षा दे रहे हैं। अगर यह बात न होती तो आपके लिये बेहतर यही होता कि आप कुछ प्रमुख क्रांतिकारियों से मिल कर इस विषय पर बातचीत कर लेते। आपको आंदोलन रोक देने की सलाह से पहले उसके कारण तर्क के साथ समझाने चाहिए थे।
मेरा ख्याल है कि आम लोगों की तरह आपकी यह धारणा न होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं और उन्हें मरने-मारने के काम में मजा आता है। हम आपको बता देना चाहते हैं कि असलियत इसके एकदम विपरीत है। वे हर कदम उठाने से पहल चारो ओर के हालातों पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हर समय रहता है। हम अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक ढंग की जरूरत को प्रमुख स्थान देते है। भले ही मौजूदा हालत में ध्वंसात्मक हिस्से की ओर ध्यान देना पड़ा।
क्रांतिकारियों के लिये जनता में पैदा हुई सहानुभूति और सहायता को नष्ट करके सरकार किसी भी तरह से उनको कुचल देना चाहती है। अकेले तो वे बहुत आसानी से कुचले जा सकते है, इसलिए इस तरह के हालात में इसीतरह की भावुक अपीलों द्वारा उनमें फूट और विश्वासघात को पैदा करना बहुत बड़ी गलती एवं क्रांति-विरोधी काम होगा। इससे सरकार को उन्हें कुचलने में साफ तौर पर सहायता मिलती है।
इसलिए हमारी आपसे प्रार्थना है, या तो आप जेलों में बंद क्रांतिकारियों से मिल कर इस विषय पर बातचीत करने पर कोई फैसला कर ले अन्यथा ऐसी अपीलें करना बंद कर दे। इन दोनों रास्ते में से किसी एक को अख्तियार कर लीजिए और वह भी पूरे दिल से। अगर आप उनकी सहायता नहीं कर सकते तो मेहरबानी करके उन पर दया कीजिए, और उन्हें अकेल छोड़ दीजिए। वे अपनी रक्षा स्वयं कर लेंगे। वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि आगे आने वाले राजनीतिक युद्ध में उनका नेतृत्व निश्चित है। जनता बराबर उनकी तरफ बढ़ रही हैं। वह दिन दूर नहीं है जब उनके नेतृत्व में और उनके झंडे के नीचे जनता अपने समाजवादी प्रजातंत्र के महान लक्ष्य की ओर बढ़ती नजर आयेगी।
और अगर आप वाकई उनकी सहायता करना चाहते हैं तो उन्हें दृष्टिकोण समझाने के लिए उनसे बातचीत और हालात पर खुली बहस कीजिए।
उम्मीद है आप उपर्युक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपना मत जनता के सामने रखेंगे।
आपका
अनेकों में से एक।  



रविवार, 16 मार्च 2014

मित्र संवाद

एक मित्र ने लिखा है, "पान के टपरे--डॉ.का दवाखाना--सड़क के ढाबे--रेल के भीड़ भरे डब्बे --ये इलेक्ट्रोनिक मीडिया नहीं हैं.-----जरा इनका भी जायका लीजिये ----आपको सिर्फ नमो नमो ही मिलेगा श्री अरुण जी माहेश्वरी"।

हमारा जवाब था - "कोई भी कोरा जाप विवेक-शून्यता के अलावा और कुछ नहीं दे सकता। नमो क्यों रहस्य है? क्यों किसी साक्षात्कार में सीधी भागीदारी नहीं करता? क्योंकि रहस्यों की ही पूजा-अर्चना की जाती है। सच तो विवेक पैदा करता है, अंध-आस्था नहीं। तानाशाहों को अंधता चाहिये, विवेक और बुद्धि नहीं। 

हमें तो विश्वास है कि मीडिया की झूठों के आवरण को चीर कर जैसे-जैसे नमो और उसके गुजरात का सच जाहिर होगा, इस जाप के अलावा और ही कुछ सुनाई देने लगेगा। 

नमोवादी इसीलिये अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी से भारी नफरत करते हैं।"

X                       X                              X                                 X                               X                            X
       

एक मित्र ने लिखा :‘‘ जिसे आप 'मोदी भोंपू' कह रहे हैं, वह दरअसल सिर्फ मोदी के अतिशय रूप से बढ़ चुके प्रभाव का प्रभाव है ...... वगरना यदि आपने ध्यान दिया हो तो बहुत कम अवसरों पर किसी भी न्यूज चैनल ने मोदी की तारीफ़ की है. और आपसे यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आप खबर दिखाने और तारीफ़ करने में फर्क समझते होंगे ???"

हमारा जवाब था : ‘‘इस सच को कभी नहीं भूलना चाहिये, यह चुनाव का समय है। मीडिया एक व्यवसाय है और यह उनके लिये सबसे अधिक मुनाफा बंटोरने का मौसम भी है। आपकी बात से ही जाहिर हो जाता है कि और समय में यही मीडिया मोदी की बुरी तरह निंदा करता रहा है। आज अचानकउनके प्रति क्यों इतना प्रेम ? क्या यह सिर्फ जमीनी सचाई का प्रतिबिंब है ? क्या सचमुच दूसरी सभी पार्टियों के नेता सोये हुए हैं? फिर इस मीडिया पर सिर्फ मोदी और भाजपा का प्रचार ही क्यों ?
"अंबानियों-अडानियों की बात ऐसे ही नहीं आई है। यह पैसों की भूमिका की बात है। उनके पास पैसा है, मीडिया है और उनका नग्न समर्थन है नरेंद्र मोदी को। वर्ना सच यही है कि पिछले चुनाव में भाजपा को 18 प्रतिशत मत मिले थे, इसबार उसमें एक प्रतिशत की भी बढ़ोतरी नहीं होगी। मोदी और भाजपा भारतीय जनतंत्र की किसी भी बिमारी का इलाज नहीं है।“

फिर उन्होंने लिखा : ‘‘मोदी को मुदा बना कर भाजपा की रणनीति को सफल बनाने के लिए आप बधाई के पात्र हैं. रहा सवाल आपकी प्रतिशत वोटों की थ्योरी का, तो वाह जरूरत बाद में पड़ेगी तभी आंकलन करेंगे !”

हमने कहा : ‘‘सांप्रदायिक ताकतों की शक्ति माने जाने वाले मोदी ही इस चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी साबित होंगे।“

उनका जवाब :‘‘ मोदी को सांप्रदायिक ताकतों की शक्ति आपके बताने से कुछ नहीं होता, आपकी पूरा ऊर्जा सिर्फ मोदी विरोध में खर्च हो रही है ...... परिणाम आने दीजिये !”

फिर हमने लिखा : ‘‘हम निरुपाय है। 2002 को कभी भूल नहीं सकते। हिटलर के यहूदी-सफाये की यादों को ताजा कर देता है। इसलिये और भी क्योंकि आरएसएस की विचारधारा में इसप्रकार के संहार का प्राविधान है। गुरु गोलवलकर के शब्दों में, 'यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है।’
"मोदी ने गुजरात में वह किया और आरएसएस वालों का मानना है कि उसीकी वजह से मोदी गुजरात में लगातार जीत रहे हैं। मोदी के नेतृत्व में पूरे भारत के पैमाने पर किसी न किसी प्रकार से ऐसे ही किसी प्रयोग की आशंका है।“ 

X                       X                              X                                 X                               X                            X



एक मित्र ने लिखा : hatash buddjeeviyo ki nayi asha apni khunnas nikalne ke liye ab kejari babu hain....yahi sare buddhjeevi hain jo congress ki mala japa karte the....enka na koi vichar hai na koi soch en sutriya karyakrum hai roz utho aur dhundo kisne kiya modi ke kh 

हमने लिखा : ‘‘ हम हताश है। आप प्रफुल्ल। 
2002 कइयों को हताश करता है, कइयों को प्रफुल्लित !
हताशा और प्रफुल्लता दोनों ही जीवन का सच है।“

उनका उत्तर था : 2002 ka godhra bhi kuch ko prafullit karta hai theek waise jaise 84 ka bada ped jo gira tha aur dharti thartharayi thi......congress ke ateet per dango ke dhero daag hai....67 saal baad bhi alpsankhyak basic needs se vanchit hain koun jimmedar hai?

हमारा प्रत्युत्तर : ‘‘ हमने तो 2002 को दो हिस्सों में नहीं बांटा। 
चलिये, आपने यह जरूर बता दिया कि उसका एक हिस्सा आपको खुशी देता है।“

आगे और : ‘‘ अल्पसंख्यकों के बारे में मोदी जी के पथ-प्रदर्शक आरएसएस का विचार :‘‘अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’ 
‘‘यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।’’
मोदी जी उद्धार करेंगे अल्पसंख्यकों का !”

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

भ्रष्टाचार के ताने-बाने में मीडिया

भारत में भ्रष्टाचार के पूरे ताने-बाने में मीडिया नामक तत्व को शामिल किये बिना इसकी कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बन सकती थी । अरविंद केजरीवाल ने इस प्रसंग को उठा कर इस कमी की पूर्ति की है ।

राजनीति और जीवन के दूसरे क्षेत्रों के भ्रष्ट तत्वों को जेल में डालने की लफ़्फ़ाज़ियों पर इतराने वाला मीडिया का एक तबक़ा भ्रष्ट मीडिया के लोगों को दंडित करने की बात पर जिस प्रकार भड़का है, वह इसकी दाढ़ी में तिनके के अलावा और कुछ नहीं दर्शाता ।

चंद दिनों पहले ही जिंदल समूह ने ऐसे एक मीडिया समूह के उच्च अधिकारियों को ब्लैक मेलिंग करते हुए रंगे हाथों पकड़ाया था । वही समूह आज गला फाड़ कर 'मोदी कीर्तन' और 'आप निंदा' में लगा हुआ है ।

जिन लोगों को भ्रम हैं कि दुनिया ऐसे कारपोरेट मीडिया की दया पर ज़िंदा है, वे आज के तकनीकी परिदृश्य से पूरी तरह अपरिचित हैं । इंटरनेट ने कारपोरेट मीडिया को ठुकरा कर लाखों-करोड़ों लोगों से एक साथ सीधे संपर्क के और भी कई रास्तें खोल दिये हैं । सोशल मीडिया अपने संवादमूलक चरित्र के कारण पढ़े-लिखें आम जनों के लिये कहीं ज्यादा अंतरंग और प्रभावी भी है । इसके बढ़ते दायरे ने मीडिया व्यवसाय के अस्तित्व को झकझोरा है । कम से कम, जनमत तैयार करने में इस कारपोरेट मीडिया की इजारेदारी के दिन लदते जा रहे हैं । 'आप' ने अपने विस्तार में इस संवादमूलक मीडिया का विवेक-सम्मत इस्तेमाल किया है ।

भाड़े के ढिंढोरची

‘आप’ के खिलाफ मीडिया में चल रही अभूतपूर्व कुत्सा मीडिया के वर्गीय रूझान से पूरी तरह मेल खाती है। पिछले कुछ वर्षों में सभी इलेक्ट्रानिक मीडिया में भारत के इजारेदार घरानों का जितने बड़े रूप में निवेश हुआ है, उसका प्रभाव इस चुनाव प्रचार में साफ जाहिर हो रहा है।

मीडिया में मोदी अभी सभी आलोचनाओं से ऊपर है। मोदी ने अपने भाषणों में आज तक ऐतिहासिक तथ्यों आदि के बारे में जिस प्रकार की बचकानी गलतियां की है, जिसप्रकार वे किसी भी साक्षात्कार या प्रत्यक्ष बहस में शामिल होने से बचते रहे हैं, उन्हें मीडिया के गलाफाड़ू एंकरगण कभी याद तक नहीं करते!

ऐसे मीडिया के बिकाऊपन पर अरविंद केजरीवाल की टिप्पणी को आज जिस नैतिक आवेश के साथ मीडिया के ‘शील-हरण’ की घटना के रूप में लगातार प्रसारित किया जा रहा है, वह भाड़े के ढिंढोरचियों द्वारा बेशर्मी की सभी सीमाओं को लांघ जाने जैसा है।

गुरुवार, 13 मार्च 2014

नेताओं की धातु

1975 के आंतरिक आपातकाल के बाद '77 के आमचुनाव में आख़िरी वक़्त पर इंदिरा कांग्रेस को त्यागने का जनजीवन राम का फ़ैसला, '77 के चुनाव में कांग्रेस की पराजय को पूरी तरह से सुनिश्चित करने वाला फ़ैसला था ।

अभी भाजपा के अंदर जो भारी युद्ध चल रहा है, नरेन्द्र मोदी के उत्थान ने आडवाणी, जोशी, सुषमा सहित उसके कई वरिष्ठ नेताओं को जिस प्रकार चिन्तित और उत्तेजित कर रखा है, इसमें अंतिम समय में उसी प्रकार की कोई 'जगजीवन राम परिघटना' उभर कर सामने आयें तो कोई अचरज की बात नहीं होगी । ऐसा होने पर भाजपा के बुरी तरह से हारने का रास्ता साफ़ होगा ।

यह समय भाजपा के असंतुष्ट वरिष्ठ नेताओं की धातु की पहचान का भी समय है । देखना है, इनमें से कितनों अपने लंबे राजनीतिक जीवन से जगजीवन राम जैसे राष्ट्रीय नेताओं की तरह की आत्मिक शक्ति और भविष्य दृष्टि को अर्जित किया है !

बुधवार, 12 मार्च 2014

दिल्ली में जो हुआ, अब पूरे देश में होगा

1998 में पहली राजग सरकार बनी। भाजपा को 182 सीटें मिली थी। फिर 1999 के आम चुनाव में दुबारा राजग सरकार बनी और भाजपा को फिर 182 सीटें मिली। 1999 मो बनी सरकार पूरे पांच साल चली।

इसी दौरान सन् 2002 में गुजरात का जन-संहार हुआ।

सन् 2004 का चुनाव राजग ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के साथ लड़ा। लेकिन 2002 के ताजा जख्मों को भुलाना नामुमकिन था। यूपीए की सरकार बनी। भाजपा की सीटें घट कर 138 होगयी।

सन् 2009 में, 16वीं लोकसभा के चुनाव राजग ने लाल कृष्ण आडवाणी को सामने रख कर लड़ा।

आडवाणीजी की कट्टरवादी छवि ने 2002 की दर्दनाक यादों को और फिर उभार दिया। यूपीए फिर विजयी हुआ। और, भाजपा की सीटें घट कर सिर्फ 116 होगयी।

2009 के चुनाव में एक ओर जहां वामपंथ की ताकत अभूतपूर्व रूप से कम हुई, वही भाजपा की करारी हार ने यह भी जाहिर किया कि अब भारत में सांप्रदायिक उत्तेजना के बल पर चुनाव लड़ने के दिन लद चुके हैं।

अब, इस 2014 के चुनाव में, एक ओर कांग्रेस जहां सबसे तेज दर से भारत के विकास के दावे के साथ चुनाव में उतरी है, वहीं भाजपा भी अच्छे प्रशासन और विकास के प्रश्न को अपना चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है। लेकिन ‘अच्छे प्रशासन’ और ‘विकास’ के मॉडल के रूप में उसने नरेन्द्र मोदी और कथित ‘गुजरात मॉडल’ को पेश किया है।

इसी का फल है कि 2004 और 2009 की श्रंखला में ही घूम-फिर कर फिर एक बार ‘गुजरात और सन् 2002’ चुनाव में प्रमुख मुद्दें हो गये हैं।

जिस ‘गुजरात और 2002’ के असर के कारण उदार अटलजी और कट्टरपंथी आडवाणीजी, दोनों पराजित हुए, उसी ‘गुजरात और 2002’ का इसप्रकार अनायास या सायास बार-बार लौट कर आना, भाजपा के चुनावी गान में हमेशा किसी स्थायी भाव की तरह बने रहना, इसकी पीठ पर सवार आरएसएस के सबसे बड़े बोझ का परिणाम है।  

अटलजी की पराजय के बाद 2009 के चुनाव में इससे मुक्ति संभव थी तो उसे आडवाणीजी के ‘लौह पुरुष’ ने जिंदा रखा। अब यही काम मोदी जी की ‘चौड़ी छाती’ कर रही है।

इसीलिये, इस चुनाव में भाजपा की पराजय सुनिश्चित है। बदलाव सिर्फ यह आयेगा कि कांग्रेस भी हारेगी। 2004 के बाद का स्थायी (constant) तत्व है भाजपा की पराजय और बदलने वाला तत्व (variable) है कांग्रेस की भी पराजय।

दिल्ली में जो हुआ, अब पूरे देश में होगा। ‘आम आदमी पार्टी’ पर पूरा मीडिया जिसप्रकार शिकारी कुत्तों की तरह टूट पड़ा है, वह भी इस सच का संकेत है। ‘आप’ के अलावा क्षेत्रीय दल और वामपंथी भी पहले की तुलना में ज्यादा सफलता पायेंगे।

भारत की नयी सरकार ‘आप’, ‘वाम’ और कथित तीसरे मोर्चे की दूसरी पार्टियों के सहयोग से बनेगी। हमें तो यही लग रहा है।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

जलते रोम में नीरो की बंशी



फासीवाद का खतरा और नव-उदारवाद के प्रतिरोध की तान !

चुनाव प्रचार के प्रारंभ के समय में ही इस लेखक ने लिखा था - नव-उदारवाद चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता है। 

इसके अलावा, जाति-क्षेत्र के समीकरणों की तमाम बातों के बावजूद भारत की बदलती हुई जमीनी सचाई यह है कि जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद की जकड़ कमजोर हुई है। यह लालू, मायावती, अगप के साथ ही आडवाणी वाली रामजन्म भूमि आंदोलन की गिरावट का काल है। तमिलनाडु में भी द्रविड़ राजनीति की नींव कमजोर हो रही है। ‘पहचान की राजनीति’ के ये सभी आंदोलन एक समय में अपने चरम पर पहुंच कर अब पतनोन्मुख है।

ऐसे में आम आदमी पार्टी यदि मतदाताओं की कल्पना को छू रही है तो फिर उस पर नव-उदारवाद का लेबल लगा कर उसे तिरस्कृत करने का कोई तर्क नहीं है।

प्रभात पटनायक ने आज के ‘टेलिग्राफ’ में अपने लेख में यही किया है। वे ‘पहचान की राजनीति’ की जिन विभिन्न धाराओं के सम्मिलन पर नजर टिकाये हुए हैं, उनमें से एक भी कथित नव-उदारवाद के दोष से मुक्त नहीं है।

इसके विपरीत, दिल्ली की 49 दिनों की ‘आप’ सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई पर रोक लगा कर नव-उदारवाद के प्रतिरोध का एक ठोस उदाहरण पेश किया था। सीआईआई में अरविंद केजरीवाल का भाषण नव-उदारवाद की पैरवी नहीं, कानून के शासन की बात कह रहा था। यह खुद में आर्थिक मामलों के संचालन में राज्य की सकारात्मक भूमिका को स्वीकृति कहलायेगा। सरकारें व्यापार न करें तो इसमें क्या हर्ज है। व्यापार राज्य के नियमों का सख्ती से पालन करें, यही उचित है।
पढि़ये प्रभात का लेख :
http://www.telegraphindia.com/1140311/jsp/opinion/story_18059123.jsp#.Ux618PmSxFI

सोमवार, 10 मार्च 2014

‘हिंदी प्रलाप’

अरुण माहेश्वरी


दक्षिण अफ्रीका के विश्व हिंदी सम्मेलन से घूम कर आने के ठीक बाद हिंदी के प्रोफेसर और भारत सरकार के एक प्रमुख हिंदी संस्थान के पूर्व उच्च-अधिकारी का एक लेख ‘हिंदी का अरण्यरोदन’ जनसत्ता के आज (26 सितंबर 2012) के अंक में प्रकाशित हुआ है। थोड़ा सा ध्यान से पढ़ने पर ही यह लेख भारत सरकार के हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये किये जारहे सारे उपक्रमों की तरह ही एक बहुत ही रोचक और अनोखा लेख जान पड़ता है। उद्देश्य और विन्यास, दोनों ही लिहाज से एक अबूझ पहेली की तरह रोमांचक और रहस्यात्मक। अंतत:, अगर मुद्दे की बात सिर्फ लूटने और लुटाने की रह जाए तो फिर शब्द-राशि या धनराशि, कुछ भी क्यों न हो, क्या फर्क पड़ता है! बदले में लेखन भले कोरा प्रलाप बन जाए और आयोजन विशुद्ध मस्ती!
इस लेख के अमूल्य विचारों की कुछ बानगी देखिये-
पहली पंक्ति है : हिंदी का जन्म ही आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता की देन है। इसीलिए इसे मानसिक आजादी की भाषा या लोकतंत्र की भाषा के रूप में देखा जाता है।
पुन:, दूसरे पैराग्राफ की पहली पंक्ति है : हिंदी लोकचेतना और लोकतंत्र की देन है। लेकिन इसी पैरा की अंतिम पंक्ति है : हिंदी लोकतंत्र की भाषा सिर्फ तब बनेगी जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।
पुन:, आगे के दो पैराग्राफ बाद नये पैराग्राफ की शुरूआत इन प्रश्नों से होती है : लोकतंत्र में हिंदी कहां है, किस दशा में है? हिंदी में लोकतंत्र कितना है, किस दशा में है?
आगे एक और पैरा के शुरू का वाक्य है : हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर उसे लोकतंत्र की भाषा बनना बाकी है।
पूरा लेख इसीप्रकार के हिंदी और लोकतंत्र से लदे जुमलों से भरा हुआ है।
गौर करने की बात यह है कि लेख की शुरूआत तो इस प्रकार हुई मानो जहां भी ‘आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता’ होगी, वहीं हिंदी होगी। आगे भी यही कहते हुए बढ़ा गया है कि ‘हिंदी लोकतंत्र और लोकचेतना की देन है।’
लेकिन तत्काल इस नतीजे पर आने में जरा भी देर नहीं लगती कि हिंदी लोकतंत्र की भाषा तब बनेगी, जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।
अर्थात्, अभी हिंदी लोकतंत्र की भाषा नहीं है।
इसमें भी ‘बूझो तो जानू’ वाली पहेली की बात यह है कि ‘सूचना और मनोरंजन’ का ‘ज्ञान और संवेदना’ से ऐसा कौनसा अंतर्विरोध है कि एक लोकतांत्रिक नहीं और दूसरा लोकतांत्रिक है!
इसी क्रम में, ‘लोकतंत्र में हिंदी तथा हिंदी में लोकतंत्र’ वाले गूढ़ सवालों के साथ यह फतवा कि हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर इसे लाकतंत्र की भाषा बनाना बाकी है और भी ज्यादा रहस्यमय है।
सच कहा जाए तो यह पूरा लेख सारी दुनिया में अब तक हुए भाषा संबंधी विमर्श को हिंदी के एक प्रोफेसर द्वारा दिखाये गये ठेंगे की तरह है। भाषा और व्यवस्था पर चर्चाओं का अपना लंबा इतिहास है। भाषा को किसी खास तंत्र मात्र का बताना कोरी बकवास है।
इस लेख में जगह-जगह अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व का रोना रोया गया है और साथ ही अंग्रेजी भाषा के बारे में यह फतवा भी दिया गया है कि इस समय अंग्रेजी खुद ही खोखली नहीं होती जा रही है, यह दुनिया की सारी भाषाओं और लोगों के जीवन को खोखला बना रही है।
जो भाषा खुद खोखली होती जा रही है, उसका आतंक हिंदी जैसी ‘ठोस’ भाषा के प्रोफेसर और अधिकारी को सता रहा है! क्या कहा जाए इस प्रमाद को?
लेखक हिंदी में ‘अंग्रेजी शब्दों के एकाधिकारवाद’ पर भी खास तौर पर चिन्तित है। खुद इस लेख में अंग्रेजी के कितने शब्दों-पदों का प्रयोग किया गया है, देखिये - ‘इंडेंजर्ड लेंग्वेजेज’, ‘पैसिव रेजिस्टेंस’, ‘नेशनल लेंग्वेज’, ‘इंग्लिश’, ‘इनसाइक्लोपीडिया’, ‘पावर ग्रिड’, ‘फेल’, ‘मीडिया’, ‘पेड न्यूज’, ‘रेजिमेंटेशन’। गौर करने की बात यह है कि इनमें से अधिकांश पदों के हिंदी पद काफी लोकप्रिय है।
इसके अलावा, ‘अंग्रेजी शब्दों के एकाधिकारवाद’ से क्या तात्पर्य है?
इस लेख से निकलने वाली न जाने कितनी पहेलियों में एक पहेली है - ‘हिंदी लोकतंत्र की भाषा है और लोकतंत्र अंग्रेजी की मुी में है।’
इसीप्रकार, ‘मीडिया की भाषा में जीवन का मजा है, पर जीवन का सौन्दर्य नहीं’।’ शास्त्र आनंद और सौंदर्य को एक और अभिन्न बताते है, लेकिन हिंदी-हितैषी की मान्यता कुछ और ही है! शायद यहां फर्क ‘आनंद’ की कुलीनता और ‘मजा’ के भदेसपन का हो। सोचने की बात यह है कि कुलीनता लोकतांत्रिक है और भदेसपन अलोकतांत्रिक!
बहरहाल, हिंदी, लोकतंत्र और अंग्रेजी के वर्चस्व की तरह के विषयों पर इस विशुद्ध प्रलाप के बावजूद इस लेख में कुछ तो ऐसा है जिसे लेकर लेखक महोदय सचमुच गंभीर और चिंतित है। यह एक हिंदी अधिकारी की चिंता है। यह भारत सरकार और हिंदी समाज को हिंदी के नाम पर और ज्यादा दरियादिली दिखाने के लिये प्रेरित करने की चिंता है। सरकारी हिंदी संस्थाओं के बजट को बढ़ाकर ‘हिंदी-जीवियो’ के हित-साधन की चिंता है। इसीलिये इस प्रलापनुमा लेख के अंत में हिंदी के ‘लोकतंत्र’ को आबाद रखने के लिये जो सुझाव दिये गये हैं, उनमें सरकार की ओर से हिंदी के अद्यतन विश्वकोश और हिंदी की उनचास उपभाषाओं-बोलियों के उनचास ‘हिंदी लोक शब्दकोश’ के दीर्घकालीन प्रकल्पों के अलावा सबसे ज्यादा जोर हर साल विश्व हिंदी सम्मेलन की तरह के आयोजन करने पर है। चार साल में एक विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी के ‘अरण्यरोदन’ की तरह है। ऐसा मजमा हर साल नहीं, बल्कि हर दिन लगा रहे तो हिंदी (हिंदीजीवी पढ़े) का जो कल्याण सधेगा इसे सहज ही समझा जा सकता है!
यही है इस पूरे प्रलाप का मूल संदेश।

पश्चिम बंगाल के बहाने

(जनसत्ता के 5 अक्तूबर के अंक में छपी अपनी इस टिप्पणी की ओर मैं मित्रों का विशेष तौर पर ध्यान आकार्षित करना चाहता हूं , क्योंकि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सवालों पर हवाई अथवा जुनूनी ढंग से चर्चा करने की बीमारी से मुक्ति की आज सख्त जरूरत है। यह सच है कि विकास के नये-नये मॉडल की तलाश में ही राजनीति का सौन्दर्य है। ‘वाशिंगटन सम्मति’ की तरह का ‘सर्व-सम्मतवाद’ राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र के लिये दलदल की तरह है क्योंकि यह नयी संभावनाओं को नकारता है। लेकिन हर बात हर चीज और हर जगह पर एक ही तरह से लागू नहीं होती। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक इतिहास के मंजिल-दर-मंजिल विकास के सत्य को उजागर किया था और समृद्धि तथा प्रचुरता की एक मंजिल पर साम्यवादी समाज की वैज्ञानिक परिकल्पना पेश की थी। तथापि, इसका अर्थ यह कत्तई नहीं था कि यह पूरी प्रक्रिया कोई स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया होगी, इसमें मनुष्य के कुछ करने की अर्थात हस्तक्षेप करने की गुंजाइश नहीं होगी। उन्होंने वर्ग-संघर्ष को इतिहास की चालक-शक्ति बताते हुए मनुष्य को ही उसके चालक के स्थान पर बैठाया था। जीवन में दुर्घटनाओं की तरह ही इतिहास में संकट के अनंत नाटकीय रूपों को भी वे समान रूप से महत्व देते थे। और सच कहा जाए तो नाना परिस्थिति में नाना रूपों में प्रगट होने वाला वर्ग-संघर्ष ही राजनीति के समूचे सौंदर्यशास्त्र का प्रमुख उत्स है।
भारतीय समाज के जटिल ताने-बाने में जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश, क्षेत्र की तरह के दो-चार नहीं असंख्य विषय है जिन पर क्षणिक अथवा दीर्घस्थायी उत्तेजना पैदा करके राजनीतिक लाभ उठाये जा सकते हैं, फिर भी आर्थिक विकास का प्रश्न पूरी तरह से ऐसे राजनीतिक प्रकल्पों से निर्णित नहीं हो सकता। अंततोगत्वा इतिहास का व्यापक संदर्भ अर्थात मंजिल-दर-मंजिल विकास का सत्य ही निर्णायक साबित होता है। अब तक का अनुभव भी यही बताता है कि राजनीतिक क्रांतियों और प्रति-क्रांतियों अथवा अन्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियोंके जरिये किसी मंजिल तक पहुंचने या उसे पार करने की गति को तेज या धीमा जरूर किया जा सकता है, लेकिन लांघा नहीं जा सकता है। इसे और ज्यादा ठोस रूप में समझने के लिये समाजवादी क्रांति के बाद रूस में ‘नयी आर्थिक नीति’ के नाम पर किये गये लेनिन के प्रयोगों और आजतक कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथियों द्वारा शासित चीन, वियतनाम तथा दूसरे देशों में किये जारहे प्रयोगों को भी देखा जा सकता है। कोई भी प्रगतिशील राजनीतिक दल, जो सामजिक-विकास की प्रक्रिया को तेज करने के लक्ष्य के साथ कम करता है, वह इतिहास की इन शिक्षाओं की अवहेलना नहीं कर सकता है। उसे हर कदम पर खुद के कार्यक्रमों को अद्यतन करते रहना होता है। यहीं पर मार्क्स की बातों के उन उद्धरणों की सारवत्ता है, जिनके साथ इस टिप्पणी का अंत किया गया है। तभी मार्क्स के इन कथनों के मर्म को समझा जा सकता है कि उन सैद्धांतिक जड़सूत्रों या अतिसूक्ष्म व्यवहारिक प्रश्नों पर थोथी बहस करने से हाथ कुछ भी नहीं लगेगा जो सभ्य संसार के हर भाग में बहुत पहले ही तय होचुके हैं और औद्योगिक दृष्टि से अधिक विकसित देश कम विकसित देश को सिर्फ उसके अपने भविष्य का बिंब ही दिखलाता है। तभी, पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के दुखांत के पीछे की ‘सामाजिक आवश्यकता’ की सचाई को भी सही ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। और तभी, आज के तृणमूल-शासन की नियति को जान कर संघर्ष की सही दिशा को तय किया जा सकता है और समाज के भविष्य का धारक-वाहक बनने की वास्तविक साख पैदा की जा सकती है। -अरुण माहेश्वरी )


अरुण माहेश्वरी
पश्चिम बंगाल के बहाने
पश्चिम बंगाल की आज की दशा देख कर सचमुच काफी आश्चर्य होता है। कहावत है कि जैसा स्वामी वैसा दास। इसीप्रकार, कहा जा सकता है कि संसदीय जनतंत्र में जैसा शासन वैसा ही प्रतिपक्ष।
अभी सिर्फ 16 महीने बीते हैं जब वाममोर्चा सरकार के लंबे 34 साल के शासन का, बल्कि एक क्रांतिकारी नाटक का पटाक्षेप हुआ था। यह कोई मामूली घटना नहीं थी। यदि वाममोर्चा का यह लंबा शासन अपने आप में एक इतिहास था तो इस शासन का पतन भी कम ऐतिहासिक नहीं कहलायेगा। वाममोर्चा सरकार के अवसान को सिर्फ ममता बनर्जी और उनकी टोली की करामात समझना या इसे वाममोर्चा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के कुछ भटकावों और कदाचारों का परिणाम मानना इसकी गंभीरता को कम करना और इसके ऐतिहासिक सार को अनदेखा करने जैसा होगा।
लंबे चौतीस वर्षों तक चले एक मताग्रही शासन का ऐसा अंत, वर्गीय शक्तियों के संतुलन में ऐसी उथल-पुथल तभी संभव होती है जब इसकी सामाजिक आवश्यकता पैदा होजाती है, अर्थात उसके तहत निर्मित संस्थाएं जीर्ण हो कर समाज की नयी जरूरतों का वहन करने और उन्हें पूरा करने में अपनी असमर्थता साबित कर चुकी होती है। पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार और स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के विकास के जरिये सत्ता के विकेंद्रीकरण की शासन की नीतियों की दोनों टांगें थकने लगी थी। ’90 तक आते-आते इस प्रकार के सांस्थानिक परिवर्तन के काम पूरे हो चुके थे। तब से लगभग दो दशक तक एक लंबी और थकानभरी निरुद्देश्य यात्रा में इसकी सांसें फूल रही थी। ‘दलतंत्र‘ की असाध्य बीमारी ने राज्य की जनतांत्रिक संस्थाओं को ही नहीं, पार्टी के प्राण-तत्व, उसके सभी जन-संगठनों को भी खोखला करना शुरू कर दिया था।
तभी 1991 का युगांतर और संचार के पंखों पर सवार विकास की नयी-नयी जरूरतों ने समाज के सभी स्तरों पर तेजी से पैर फैलाने शुरू किये। वाममोर्चा ने इन नयी जरूरतों की धड़कनों को महसूस किया था। 1994 की नयी औद्योगिक नीति तैयार हुई, मैकेंजी रिपोर्ट की तरह कृषि क्षेत्र में नये प्रयोगों पर चर्चा शुरू हुई। औद्योगीकरण और शहरीकरण की जरूरतों के अनुरूप भू हदबंदी के बारे में नया विधेयक तैयार करके विधानसभा में पेश भी होगया। ‘बेहतर वाममोर्चा’ के नारे के साथ औद्योगीकरण और शहरीकरण के कार्यक्रमों को जोड़ने की कोशिश भी की गयी। लेकिन यह सब जैसे वाममोर्चा की तासीर के ही विरुद्ध था। केंद्र की उदारतावादी नीतियों के साथ नागरिक जीवन के नये सवाल गड्ड-मड्ड दिखाई देने लगे। शंकित मन से ऐसे नये क्षेत्रों में आगे बढ़ने में उसके पैर कांपने लगे। सामाजिक जरूरतों का जितना भी दबाव क्यों न हो, वाममोर्चा अपनी मूल रंगत को नहीं बदल सकता था। भारत की एक प्रांतीय सरकार द्वारा उदार आर्थिक नीतियों के अश्वमेघ घोड़े की रास को पकड़ने की कोशिश उसे दफ्ती की तलवार भांज रहे डान क्विगजोट के स्तर तक लेगयी, फिर भी उसके वश में कुछ नहीं था। कोई माने या न माने, यह सच है कि टाटा ने सिंगूर प्रकल्प को त्याग कर एक बार के लिये वाममोर्चा को पूरी तरह से ‘पूंजीपति-परस्त’ साबित होजाने की पाप-ग्रंथि से राहत दिलाई थी। और, दुविधा के इन्हीं बिंदुओं पर ममता बनर्जी के तेज आक्रमणों ने उसे धर दबोचा। वाममोर्चा ने अपने शत्रु का डट कर मुकाबला नहीं किया बल्कि शत्रु के हर बार आगे बढ़ने पर वह पीछे भी हट गया। इसका अर्थ यह नहीं है कि डट कर लड़ने से वाममोर्चा की पराजय को रोका जा सकता था, लेकिन डट कर लड़ने के बाद होने वाली पराजय का सहज ढंग से प्राप्त विजय की तरह ही क्रांतिकारी महत्व होता है। अंतिम वाममोर्चा सरकार की दशा करुण थी।
दरअसल वाममोर्चा की लगभग एक अस्थि-कुंड वाली सूरत एक अरसे से व्यापक तिरस्कार और वितृष्णा को जन्म दे रही थी। 2009 के पंचायत चुनाव के समय ही इसके साफ संकेत मिल गये थे। संभलने के लिये आगे के अढ़ाई साल आग लगने पर आपात स्थिति की हड़बड़ी और बदहवासी के साल साबित हुए। देखते-देखते, असहाय आंखों के सामने भारतीय जनतंत्र की यह अग्रिम चौकी ढह गयी। मई 2011 के चुनाव में वाममोर्चा चारो खाने चित्त होगया। वाम मोर्चा अपनी पंगुता के नीतिगत कारणों से मुक्त नहीं हो पाया, नयी सामाजिक आवश्यकताओं से उसके तार नहीं जुड़ पायें।
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की पराजय के इन सोलह महीनों बाद, आज जब हम तृणमूल कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्य-पद्धति को देखते है, तभी हमें ‘जैसा स्वामी वैसा दास’ या ‘जैसा शासन वैसा प्रतिपक्ष’ वाली कहावत याद आती है, जिससे हमने इस टिप्पणी का प्रारंभ किया है। पश्चिम बंगाल की राजनीति की यह विडंबना ही है कि वाम मोर्चा ही नहीं, भारी परिवर्तन की लहर पर सवार होकर वाम मोर्चा को सत्ता से हटाने वाली पार्टी को भी इस परिवर्तन के पीछे काम कर रही सामाजिक आवश्यकताओं का कोई अहसास नहीं है। वे इसे एक व्यक्ति का करिश्मा, सिर्फ उसके ‘भगीरथ प्रयत्नों’ का परिणाम मान रहे हैं। वाममोर्चा की पराजय से सीखने के बजाय उसके 34 वर्षों तक सत्ता पर बने रहने के गुर को हासिल करने की फिराक में वे उन सिद्धियों की प्राप्ति में उतावले हो रहे हैं, जिन्हें बौद्धिक हलकों में ‘दलतंत्र’ कह कर कोसा जाता है, लेकिन जो वास्तव में ठहरे हुए पानी का कीचड़ था। वाम मोर्चा की नीतिगत पंगुता, नागरिक समाज की जरूरतों और जनतांत्रिक नैतिकताओं के प्रति उदासीनता भी इस कीचड़ में शामिल है। मजे की बात यह है कि पश्चिम बंगाल का नया शासक दल इसी कीचड़ को अपनी नयी सिद्धि की भभूत समझ कर उसमें लोट-पोट रहा है। वामपंथ को उसी के सिक्के से मात देने में उन्मादित हो उठा है।
कांग्रेस दल के साथ उसका जो गठबंधन चुनावी गणित के लिहाज से उसके लिये सबसे बड़ा वरदान साबित हुआ था, अपनी नयी, वामपंथी प्रकार की पहचान की तलाश में उसने सबसे पहले इसी गठबंधन को तोड़ डाला। कतिपय वामपंथी हलकों में चले आरहे इस विश्वास को कि परमाणविक संधि के बजाय दूसरे किसी प्रत्यक्ष जन-हितकारी दिखाई देने वाले सवाल पर उन्होंने यूपीए -1 से अपना समर्थन वापस लिया होता तो इससे उन्हें काफी लाभ होता, तृणमूल कांग्रेस ने अपने लिये इतिहास की सबसे बड़ी शिक्षा मान लिया। अब तक जीवन के बाकी सभी क्षेत्रों में विदेशी निवेश से कोई परहेज न करने वाली नेत्री की महिषासुरमर्दनी से भारतमाता बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मसले को सबसे मुफीद मौका समझा और वामपंथ की ‘भूल’ से सीखते हुए सही मुद्दे पर वार करके बाजार लूट लेने का फैसला कर लिया।
इस सारी उत्तेजना में जो बात पूरी तरह से भुला दी गयी, वह उन सामाजिक-ऐतिहासिक आवश्यकताओं की बात है जिनकी वजह से वाममोर्चा के 34 साल के शासन का अंत लाजिमी जान पड़ता था। और यही वजह है कि बुद्धिजीवियों का वह तबका जो सत्ता से वाममोर्चा के हटने में जीवन की नयी संभावनाओं का उन्मोचन देख रहा था आज अपने को ठगा गया पाता है। वह देख रहा है कि तृणमूल सरकार वामपंथ के उसी पिटे हुए रास्ते पर चलने पर उतारू है जिससे मुक्त होने की यहां के वामपंथियों ने अपने शासन के दिनों में ही असफल कोशिश की थी।
पश्चिम बंगाल को भारत के अन्य भागों की तरह ही फौरन निवेश चाहिए। अधिक से अधिक निवेश। कृषि के क्षेत्र में भी और उद्योगों में भी। नये-नये उद्योग और पुराने उद्योगों का पुनर्नवीकरण इसकी एक फौरी सामाजिक जरूरत है। सभी स्तरों पर उत्पादन और वितरण का आधुनिकीकरण जीवन-मरण का प्रश्न है। इसे किसी भी प्रकार के कोरे सैद्धांतिक वितंडा के नाम पर स्थगित नहीं रखा जा सकता। फिर वह वितंडा खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का वितंडा ही क्यों न हो। अभी से निवेश और विकास के अभाव से पैदा होने वाली तमाम प्रकार की सामाजिक बुराइयां यहां प्रत्यक्ष होने लगी है। देखते ही देखते औरतों पर जुल्म के मामले में पश्चिम बंगाल आज राष्ट्रीय तालिका के शीर्ष पर है। कानून और व्यवस्था का मसला यहां की राजनीति का आज एक प्रमुख मसला है। आज (1 अक्तूबर) ही कोलकाता में सीपीआई(एम) की एक महासभा का प्रमुख नारा था - हिंसा रोको, सरकार चलाओ। भारी बहुमत से चुनी गयी पार्टी से ‘सरकार चलाने’ की मांग की जारही है! ‘परिवर्तन’ की मुहिम आज दुर्घटनाग्रस्त दिखाई दे रही है। यह इसलिये नहीं है कि ममता बनर्जी और उनके स्तवकों की भीड़ ने मिल कर उनकी ‘क्रांति’ को उस चान के पास पहुंचा दिया जिससे टकरा कर वह दुर्घटनाग्रस्त होगयी है। बल्कि इसकी वजह परिवर्तन के पीछे की सामाजिक आवश्यकताओं की नग्न अवहेलना है।
एक बार बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के निवेश के बारे में उठे विवाद के समय कहा था, रुपया रुपया होता है, उसका एक ही रंग होता है। पाब्लो नेरुदा की एक कविता ‘रंगून 1927’ की पंक्तियां हैं: मेरी प्रिया, जिसे मैं नहीं जानता था।/मैं उसकी बगल में उसकी ओर/देखे बिना जा बैठा,/क्योंकि मैं अकेला था,/और मुझे नदियों या गोधुली/या पंखों या द्रव्य या चांदों की जरूरत नहीं थी-/मुझे एक औरत की जरूरत थी। ...मैं उससे प्यार करना और प्यार नहीं करना चाहता था,/...उसके लिये मैं, बिना सोचे-समझे, दहकने लगा।

पश्चिम बंगाल की मौजूदा दशा को देखते हुए गोखले की बात कि ‘बंगाल जो आज सोचता है, भारत उसे कल सोचेगा’ एक कोरा व्यंग्य जान पड़ती है। कार्ल मार्क्स की शब्दावली में उन सैद्धांतिक जड़सूत्रों या अतिसूक्ष्म व्यवहारिक प्रश्नों पर थोथी बहस करने से हाथ कुछ भी नहीं लगेगा जो सभ्य संसार के हर भाग में बहुत पहले ही तय होचुके हैं। मार्क्स ने ‘पूंजी’ की भूमिका में लिखा था कि औद्योगिक दृष्टि से अधिक विकसित देश कम विकसित देश को सिर्फ उसके अपने भविष्य का बिंब ही दिखलाता है। इसलिये भविष्य कौन बता रहा है, इसे समझने में चूक का कोई मतलब नहीं है। अन्य सभी देशों की तरह, हमें भी न सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के विकास से ही, बल्कि इस विकास की अपूर्णता से भी कष्ट भोगना पड़ रहा है। आधुनिक बुराइयों के साथ-साथ उत्पादन की कालातीत विधियों के निष्क्रिय रूप से अभी तक बचे रहने से जनित और सामाजिक तथा राजनीतिक असंगतियों के अपने अनिवार्य सिलसिले समेत विरासत में मिली बेशुमार बुराइयां हमें कुचल रही है। हमें न केवल जीवित बल्कि मृत चीजें भी सता रही है। [मुरदे जिंदों को जकड़े हुए हैं!](कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी’ के पहले संस्करण की भूमिका से)

01.10.2012

‘गैर-बराबरी’ आखिर अर्थशास्त्र का मुद्दा बना

अरुण माहेश्वरी

नवउदारवाद के लगभग चौथाई सदी के अनुभवों के बाद मुख्यधारा के राजनीतिक अर्थशास्त्र को बुद्ध के अभिनिष्क्रमण के ठीक पहले ‘दुख है’ के अभिज्ञान की तरह अब यह पता चला है कि दुनिया में ‘गैर-बराबरी है’, और, इस गैर-बराबरी से निपटे बिना मुक्ति नहीं, अर्थात लगातार घटती अवधि के आर्थिक-संकटों के आवर्त्तों में डूबने से बचने का रास्ता नहीं है। 
‘द इकोनामिस्ट’ पत्रिका के ताजा (13-19 अक्तूबर 2012) अंक में विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में उन्नीस पन्नों की एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। ‘इकोनामिस्ट’ में आम तौर पर किसी भी खास विषय पर चौदह पन्नों की विशेष रिपोर्ट प्रकाशित करने की अपनी परंपरा है। उसकी जगह इस रिपोर्ट का थोड़ा बढ़ा हुआ कलेवर मात्र इसके महत्व को नहीं बढ़ाता है। इसके अलावा विश्व-अर्थव्यवस्था को अपनी विशेष रिपोर्ट का विषय बनाना भी ‘इकोनामिस्ट’ के लिये कोई खास बात नहीं है। लेकिन, इस उन्नीस पन्नों की रिपोर्ट की सबसे खास बात यह है कि शायद पहली बार ‘इकोनामिस्ट’ के पृष्ठों पर सिर्फ ‘गैर-बराबरी’ की समस्या को केंद्र में रख कर विश्व अर्थ-व्यवस्था का सिहांवलोकन किया गया है।
1989 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव और ‘इतिहास के अंत’ के विचारों से तैयार हुई जमीन पर जब अमेरिका ने एक-ध्रुवीय विश्व कायम करने के उद्देश्य से अपने वैश्वीकरण का अश्वमेघ यज्ञ शुरू किया था, तब आईएमएफ, विश्वबैंक, और परवर्ती डब्लूटीओ से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह के सारे बहु-स्तरीय विश्व-संगठनों की बड़ी सी सेना पूरे दम-खम के साथ उसकी इस विश्व विजय की लड़ाई में उतर गयी थी। मान लिया गया था कि अब रास्ता पूरी तरह से साफ है, घोड़ा दौड़ाना भर बाकी है और सभी स्वतंत्रताओं के मूल, ‘वाणिज्यिक स्वतंत्रता’ के ध्वजाधारी अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया को संवरते देर नहीं लगेगी; जैसे अमेरिका के पास कभी साधनों की कोई कमी नहीं रही, उसी प्रकार अब पलक झपकते दुनिया की सारी समस्याओं के समाधान में कोई बाधा नहीं रहेगी। आनन-फानन में साल भर के अंदर ही, 1990 में ढेर सारी प्रतिश्रुतियों के साथ यूएनडीपी की ओर से पहली मानव विकास रिपोर्ट आई। ‘समाजवाद’ नहीं रहा तो उसका गम क्या? गरीबों के परवरदीगार और भी है! उल्टे, समाजवाद के नाम पर ‘विचारधाराओं’ का एक निरर्थक बतंगड़, शीतयुद्ध का झूठा तनाव था जिसके चलते अरबो-खरबों प्रभुत्व को खोने-पाने की थोथी आशंकाओं की भेंट चढ़ जाता था! इसीलिये कहा गया कि आर्थिक विकास को मानव विकास में बदलने का रास्ता किसी विचारधारा का मुहताज नहीं है, इसके लिये बस जरूरी है ठोस प्रश्नों की ठोस पहचान और उनके समाधान की ठोस कोशिशें। मानव विकास रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में उसी दिशा में उठाया एक महत्वपूर्ण कदम बताया गया।
1990 में मानव विकास की अवधारणा को परिभाषित करने और उसे मापने के मानदंडों को निर्धारित करने के उद्देश्य से जो पहली मानव विकास रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसमें तत्कालीन दुनिया की ठोस परिस्थिति का जायजा लेते हुए पहली बात यह लक्षित की गयी कि पिछले तीन दशकों में विकासशील देशों ने मानव विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। दूसरी, यह कि आमदनी के मामले में खाई बढ़ने पर भी मूलभूत आर्थिक विकास के मामले में उत्तर-दक्षिण के बीच का फासला काफी कम हुआ है। तीसरी, मानव विकास में प्रगति के औसत आंकड़ों से विकासशील देशों के अंदर - शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच, आदमी और औरत के बीच, धनी और गरीब के बीच - भारी विषमताओं पर पर्दादारी होती है। इसीप्रकार, उसका चौथा अवलोकन यह था कि कम आमदनी के बावजूद मानव विकास का सम्मानजनक स्तर प्राप्त करना संभव है। साथ ही यह भी कहा गया कि आर्थिक विकास और मानव प्रगति के बीच कोई स्वचालित संबंध नहीं है; गरीबों को सामाजिक क्षतिपूर्ति की जरूरत है; विकासशील देश इतने भी गरीब नहीं हैं कि वे आर्थिक विकास के साथ ही मानव विकास की कीमत न चुका सके; समायोजन के लिये मानव कीमत अनिवार्य नहीं, बल्कि चयन की बात है; मानव विकास की नीतियों की सफलता के लिये अनुकूल बाहरी परिवेश जरूरी है; कुछ विकासशील देशों, खास कर अफ्रीका के कुछ देशों को विदेशी सहायता की आवश्यकता है; विकासशील देशों में मानव क्षमताओं को बढ़ाने के लिये तकनीकी सहयोग देना होगा; मानव विकास के कामों में सफलता के साथ गैर-सरकारी संगठनों को शामिल करना होगा; आबादी में वृद्धि को रोकना जरूरी है; तेजी के साथ लोग शहरों में जमा हो रहे हैं तथा भावी पीढ़ियों की जरूरतों के साथ कोई समझौता किये बगैर आज की पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिये विकास की एक टिकाऊ नीति तैयार करनी होगी। इन्हीं, कुल सोलह अवलोकनों और निष्कर्षों के आधार पर मानव विकास की अवधारणा और उसको मापने के मानदंड तय किये गये।
आगे इसी अवधारणा और माप के मानदंड के आधार पर दुनिया की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के नाना पक्षों के बारे में पिछले 21 वर्षों से हर साल एक के बाद एक मानव विकास रिपोर्ट आरही है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, पहली रिपोर्ट ‘मानव विकास की अवधारणा और उसके आकलन’ के अलावा ‘मानव विकास के लिये जरूरी वित्तीय संसाधनों को जुटाने के बारे में’ थी, फिर ‘मानव विकास के वैश्विक आयाम’, ‘जनभागीदारी के सवाल’, ‘मानव सुरक्षा के नये आयाम’, ‘लैंगिक प्रश्न और मानव विकास’, ‘आर्थिक अभिवृद्धि और मानव विकास’,‘गरीबी निवारण’, ‘उपभोग’, ‘मानवीय चेहरे के साथ वैश्वीकरण’, ‘मानव अधिकार’, ‘नयी तकनीकों के प्रयोग’, ‘विखंडित विश्व में जनतंत्र की जड़ों को गहरा करने’, ‘नयी सहस्त्राब्दि के लिये मानव समाज से गरीबी को दूर करने का राष्ट्रों का संकल्प’, ‘आज के विविधतापूर्ण विश्व में सांस्कृतिक स्वतंत्रता’, ‘अन्तरराष्ट्रीय सहयोग’, ‘ऊर्जा, गरीबी और जल का वैश्विक संकट’, ‘बदलते मौसम की समस्या से निपटने’, ‘मानव गतिशीलता’, ‘राष्ट्रों की वास्तविक संपदा’, ‘सबके लिये बेहतर भविष्य के लिये टिकाऊ विकास और न्याय’ जैसे 21 विषयों पर क्रमश: एक के बाद एक, अब तक कुल 21 रिपोर्टें आचुकी हैं।
गौर करने लायक बात यह है कि इन सभी रिपोर्टों में किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से राष्ट्रों के बीच और राष्ट्रों के अंदर गैर-बराबरी से जुड़े ढेरों तथ्य प्रकाशित हुए हैं। लेकिन गैर-बराबरी का सवाल मानव विकास के भौतिक और आत्मिक, दोनों पक्षों के लिये एक सबसे अहम और केंद्रीय सवाल होने पर भी मजे की बात यह है कि आज तक मुख्यधारा के सामाजिक-आर्थिक विमर्श में इसे अलग से किसी विचार का विषय नहीं बनाया गया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की तर्ज पर ही दुनिया के और देशों में भी सरकारी स्तर पर मानव विकास संबंधी रिपोर्टें तैयार करने का सिलसिला शुरू होगया। खुद संयुक्त राष्ट्र ने भी क्षेत्र विशेष के लिये ऐसी अलग-अलग रिपोर्टें तैयार की। इन सबको एक प्रकार के नये दृष्टिकोण के आधार पर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से रूबरू होकर उनके समाधान की नयी रणनीतियों की दिशा में बढ़ने का उपक्रम कहा जा सकता है। इन सांस्थानिक और सरकारी उपक्रमों के साथ ताल मिलाते हुए ही अर्थनीति के अध्येताओं की भी एक नयी फौज सामने आयी। इनमें विशेष तौर पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान के विशेष सलाहकार जैफ्री सैक्स की किताब ‘द एंड आफ पावर्टी’(2005) और 2011 में प्रकाशित अभिजीत वी. बनर्जी और एस्थर दुफ्लो की एक बेस्टसेलर किताब ‘पूअर इकोनामिक्स’ की चर्चा की जा सकती है। गरीबी में फंसे लोगों को उससे उबारने के लिये दुनिया के अलग-अलग कोनों की ठोस समस्याओं के ठोस उपायों को बताने वाली बनर्जी-दुफ्लो की इस बेहद आकर्षक और उत्तेजक किताब के पहले अध्याय में ही पूरे निश्चय के साथ इस किताब के मूल संदेश की इस प्रकार घोषणा की गयी है कि इस किताब का संदेश गरीबी के फंदों से कहीं परे जाता है। जैसाकि हम देखेंगे कि विशेषज्ञजन, राहतकर्मी अथवा स्थानीय नीति नियामकों में अक्सर तीन आई - आइडियोलोजी, इग्नोरेंश और इनर्शिया (विचारधारा, अज्ञान और अंतर्बाधा) - से इस बात को जाना जा सकता है कि नीतियां (अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में) क्यों विफल होती है और क्यों किसी सहायता का कांक्षित फल नहीं मिल पाता है।
यहां हमारे कहने का यह तात्पर्य कत्तई नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं अथवा अर्थशास्त्रियों की नयी फौज के इन अध्ययनों में कोई सचाई नहीं है और विश्व अर्थ-व्यवस्था के विकास की समस्याओं में इन अध्ययनों का कोई महत्व नहीं है। उल्टे, वास्तविकता यह है कि इस प्रकार के छोट-छोटे स्तरों तक जाकर नाना प्रकार के विषयों की ठोस और गहन अध्ययन की कमियों ने दुनिया में समाजवाद की पूरी परिकल्पना का जितना नुकसान पहुंचाया उसकी थाह पाना मुश्किल है। यहां तक कहा जा सकता है कि समाजवादी प्रकल्प की विफलता के मूल में ‘तथ्यों से सत्य को हासिल करने’ की वैज्ञानिक पद्धति की अवहेलना ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। छोटी-छोटी सचाईयों को विचारधारा के भारी-भरकम कालीन के नीचे दबा कर समाजवादी दुनिया की नौकरशाहियां अपना उल्लू सीधा कर रही थी।
इसीलिये, अर्थनीति का दुनिया के कोने-कोने की ठोस सचाइयों की ओर मुखातिब होना, सिर्फ सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिये ही नहीं, अर्थनीतिशास्त्र को भी अपनी आत्मलीनता से उबारने के लिये बेहद जरूरी है और इस दिशा में होने वाली हर कोशिश का स्वागत ही किया जाना चाहिए। इसके बावजूद, कोई माने या न माने, यह बात बेझिझक कही जा सकती है कि गैर-बराबरी को दूर करने अर्थात समानता का प्रश्न अन्तत: एक विचारधारात्मक प्रश्न ही है। इस विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य को गंवा कर मानव विकास की यात्रा किसी लंबी दूरी को तय नहीं कर सकती है, समाजवाद के पराभव के बाद के इन बाईस वर्षों के अनुभवों से इतना तो जाहिर है। पूंजीवादी परिप्रेक्ष्य से चिपक कर ‘गैर-बराबरी’ को खत्म करने की अपेक्षा करना एक प्रकार से अर्थनीतिशास्त्र से इच्छा-मृत्यु की अपेक्षा करने के समान है।
समाजवाद ने सभ्यता के विकास की प्रक्रिया में आदमी की अकूत सर्जनात्मकता के उन्मोचन के अलावा जिस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर मनुष्यता का ध्यान खींचा था वह समानता का प्रश्न था, गैर-बराबरी को दूर करने का प्रश्न था। यह प्रश्न आर्थिक आधार से लेकर अधिरचना के पूरे ताने-बाने, सबसे अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ प्रश्न है। फ्रांसीसी क्रांति के झंडे पर स्वतंत्रता और भाईचारे को जोड़ने वाली अनिवार्य कड़ी के तौर पर समानता की बात कही गयी थी, लेकिन कालक्रम में देखा गया कि समानता की लड़ाई सिर्फ समाजवाद की लड़ाई बन कर रह गयी। और, कहने की जरूरत नहीं कि समाजवाद के पराभव के बाद, इसी समानता के सवाल को, गैर-बराबरी को दूर करने के सवाल को आर्थिक चर्चाओं की किसी सुदूर पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। गरीबी को दूर करने की बात होती है, पिछड़ेपन के दूसरे सभी रूपों से मुक्ति की चर्चा की जाती है, लेकिन जब गैर-बराबरी का सवाल आता है तो उसे लगभग एक ध्रुव और अटल सत्य मान कर उसके निवारण की चर्चा से सख्त परहेज किया जाता है। इसीलिये ‘इकोनामिस्ट’ जैसी मुख्यधारा की आर्थिक पत्रिका के ताजा अंक में गैर-बराबरी को अध्ययन का विषय बनाया जाना कुछ हैरतअंगेज, और कुछ विचारणीय बात भी लगती है।
‘इकोनामिस्ट’ ने अपनी इस पूरी चर्चा को ‘सच्चा प्रगतिवाद’ बताया है। इसके सार-संक्षेप में कहा गया है कि 19वीं सदी के अंत तक वैश्वीकरण के प्रथम युग और अनेक नये आविष्कारों ने विश्व अर्थ-व्यवस्था को बदल दिया था। लेकिन वह ‘सुनहरा युग’ (गिल्डेड एज)ˡ भी गैर-बराबरी के लिये प्रसिद्ध था जब अमेरिका के लुटेरे शाहों (रौबर बैरोन्स) और यूरोप के ‘कुलीनों’ (डाउनटन एबे)² ने भारी मात्रा में धन इकठ्ठा किया था : 1899 से ही ‘उत्कृष्ट उपभोग’ (कॉन्सपीक्यूअस कंजम्प्शन)³ की अवधारणा आगयी थी। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई (और समाजवादी क्रांति के भय) ने थियोडर रूजवेल्ट के ‘न्यास भंजन’ (ट्रस्ट बस्टिंग)4 से लेकर लॉयड जार्ज के जनता के बजट तक के सुधारों की एक धारा पैदा की। सरकारों ने प्रतिद्वंद्विताओं को बढ़ावा दिया, प्रगतिशील कर-प्रणाली लागू की और सामाजिक सुरक्षा के जाल के प्रथम धागों को बुना। ‘प्रगतिशील युग के रूप में अमेरिका में जाने जानेवाले इस नये युग का उद्देश्य था उद्यम की ऊर्जा को बिना कम किये एक न्यायसंगत समाज तैयार करना।
इसी संदर्भ में ‘इकोनामिस्ट’ का कहना है कि आधुनिक राजनीति को इसीप्रकार के एक पुनआर्विष्कार की, आर्थिक विकास को बिना व्याहत किये गैर-बराबरी को दूर करने के मार्ग के साथ सामने आने की जरूरत है।
सबसे गौर करने की बात यह है कि यह समूची चर्चा आज राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर अमेरिका की राजनीति का एक केंद्रीय विषय बनी हुई है। ओबामा समर्थक रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी को लुटेरा शाह कह रहे हैं, तो रोमनी समर्थक ओबामा को ‘वर्ग योद्धा’ कह कर कोस रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रासवां सोलेड ने अमीरों पर आयकर की दर को बढ़ा कर 75 प्रतिशत कर देने की मांग की है। तमाम साजिशों को धत्ता बताते हुए समाजवाद की शपथ लेकर फिर एक बार वेनेजुएला के राष्ट्रपति चुनाव में शानदार जीत हासिल करने वाले शावेज कहते हैं कि अगर वे अमेरिका में होते तो आगामी राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा का समर्थन करते।
अमेरिका और यूरोप की राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में चल रहा यह उल्लेखनीय विमर्श राजनीति के किसी भी विद्यार्थी के लिये गहरी दिलचस्पी का विषय हो सकता है। नोम चोमस्की ने एकबार कहा था कि आज की विश्व परिस्थितियों में अमेरिकी सत्ता की नीतियों में मामूली परिवर्तन भी दुनिया की राजनीति में भारी परिवर्तनों का सबब बन सकती है। इसलिये भी इसओर खास नजर रखने की जरूरत है।


1.‘सुनहरा युग’ (गिल्डेड एज) अमेरिका में गृहयुद्ध (1877 से 1893) के बाद के काल को कहते है जब एक नये युग, ‘प्रगतिशील युग’ का श्रीगणेश हुआ बताया जाता है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वैन और चाल्र्स डुड्ले वार्नर की पुस्तक ‘द गिल्डेड एज : अ टेल आफ टुडे’ से यह पद प्रचलन में आया था।
2.‘डाउनटन एबे’ एक बेहद प्रसिद्ध ब्रिटिश-अमेरिकी टेलिवीजन सीरियल का शीर्षक है जिसमें इंगलैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के काल (1901-1910) के समय के ‘डाउनटन एबे’ के एक काल्पनिक स्थल यार्कशायर कंट्री एस्टेट में बसे हुए एक कुलीन परिवार की कहानी है।
3.‘कान्सपिक्युअस कंजम्प्शन’ पद को प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थोरस्ताईन वेबलेन ने अपनी पुस्तक ‘द थ्योरी आफ द लेजर क्लास : ए इकोनॉमिक स्टडी इन द इवोल्यूशन आफ इंस्टीट्यूशन्स’ (1899) में नवधनाढ्यों के व्यवहार को दर्शाने के लिये किया था जो अपनी ताकत और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने के लिये अपने धन का महंगी और ऐश की चीजों की खरीद के लिये प्रयोग किया करते थे।
4.‘ट्रस्ट बस्टर’ : अमेरिका के 26वें राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट (1901-1909) की पहचान अमेरिकी इतिहास में एक प्रगतिशील सुधारक के रूप में की जाती है जो इजारेदारी के सख्त खिलाफ था और उसने अपने काल में 40 इजारेदार निगमों को भंग कर दिया था। उनके शासनकाल को ‘प्रगतिशील युग’ के नाम से जाना जाता है और रूजवेल्ट को ‘ट्रस्ट बस्टर’ अर्थात ‘न्यास भंजक’।