सोमवार, 31 दिसंबर 2018

दोनों हाथ खोल 2019 के युद्ध का स्वागत करें !

—अरुण माहेश्वरी


2018 भी गया । देखते-देखते हमने गिन लिये 2014 से 2018 तक के दुख भरे पांच साल ।

इस काल की शुरूआत हुई थी जब हमारे प्रिय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने नरेन्द्र मोदी के चरित्र को भांपते हुए 2013 में ही कहा था कि मोदी के सत्ता पर आने पर वे भारत छोड़ कर चला जाना पसंद करेंगे । अनंतमूर्ति इनके शासन में आने के बाद ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे । लेकिन मोदी कंपनी से जुड़े आतंकवादियों ने मोदी के आने के पहले से ही नरेंद्र दाभोलकर की हत्या (2013) से अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का जो सिलसिला शुरू किया था, पानसारे और  कलबुर्गी की हत्याओं (2015) और गौरी लंकेश की हत्या (2016) से अनंतमूर्ति के उस कथन की सचाई को प्रमाणित कर दिया कि मोदी शासन भारत को स्वतंत्रता-प्रेमी लेखकों और बुद्धिजीवियों के रहने के लिये उपयुक्त जगह नहीं रहने देगा । और अब इस काल के अंतिम समय में ही हाल यह है कि चंद महीनों पहले ही ‘अर्बन नक्सल’ के झूठे और घृणित अभियोगों पर मोदी-शाह ने खुद केंद्रीय स्तर से पहल करके हमारे देश के कुछ बहुत सभ्य और उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर रखा है ।

इसी दौर में 2016 की नोटबंदी हुई जब आम गरीब लोगों को सरकार ने बैंकों के धक्के लगवा कर दौड़ा-दौड़ा कर मारा था । उस समय की चोटों के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं । गांव-शहर के किसान मजदूरों ने शायद ऐसा दुष्ट शासन पहले कभी नहीं देखा होगा । फटी बिवाईं से रिसते खून के साथ किसानों ने राजधानी शहरों में न जाने कितने मार्च किये, लेकिन शासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी । मजबूरन, अब आगामी 8-9 जनवरी 2019 के दो दिन देश भर के मजदूरों ने पूरी तरह से काम बंद करके अपने प्रतिवाद को दर्ज कराने का फैसला किया है ।

कहना न होगा, विगत पांच सालों की यह अवधि सचमुच एक ऐसे गतिरोध की अवधि रही है जब सारी चीजें जैसे संज्ञा-शून्य होकर जड़वत होती चली गई थी । जीवन के तमाम क्षेत्रों को जैसे काल की लंबी काली छाया ने घेर कर ठप कर दिया । कहीं किसी गति का नामो-निशान नजर नहीं आता है । यहां तक कि खेतों को आंखों के सामने चर रहे पशुओं को भी फटी आंख से निहारते रहने के अलावा किसान के पास अपनी फसल को बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रह गया था । यह अजीब प्रकार के गोरखधंधों में फंसे लोगों का ऐसा शासन है जिसमें देश की हर समस्या का समाधान पाकिस्तान को गालियां दे कर ढूंढा जाता है । सन्निपात की स्थिति में फंसे लोगों की तरह ये लोग गाहे-बगाहे भगोड़े साधुओं की संगत में उन्मत्त हो कर राम मंदिर का जाप करने लगते हैं । 

इन पांच सालों ने जब पूरे राष्ट्र को बिल्कुल ठहर जाने के लिये मजबूर कर दिया, तभी सचमुच जैसे एक प्रवाह में बहते जा रहे जीवन को अपने अंतर में देखने की सुध भी आई है । राष्ट्र की सोई हुई आंखें अब खुलने लगी है । और अब जब लोगों ने करवट बदलनी शुरू की है, हम साफ तौर पर परिवर्तन के एक नये झंझावात के स्वरों को सुन पा रहे हैं । जो पागलों की तरह नाच रहे थे कि अब तो हम आने वाले पचासों साल तक इस देश की छाती पर मूंग दलेंगे, देखते-देखते भारत के लोगों ने उन्हें गरेबां पकड़ कर सत्ता की गद्दी से निकाल फेंकना शुरू कर दिया है ।

जनता के इस नये तेवर की झलक सबसे पहले गुजरात के चुनाव में देखने को मिली । फिर कर्नाटक में इनके मंसूबों को मात दिया गया । और अब इस साल के अंत तक तीन राज्यों में इनकी सरकारें ध्वस्त हुई । बाकी दो राज्यों में इनका कोई चिन्ह भी नहीं दिखाई दिया । और यह सब तब हुआ जब इन्होंने बेशुमार धन, सत्ता के सारे औजारों को पूरी बेशर्मी के साथ झोंक दिया था और किसी भी प्रकार के राजनीतिक दुराचार के हथकंडों से बाज नहीं आए थे । अजीत जोगी और मायावती की तरह की तैयार की गई बाधाएं भी जनाक्रोश के सामने कहीं टिक नहीं पाईं ।

अब, इसी बागी तेवर के साथ लोग 2019 के चुनाव का इंतजार कर रहे हैं । 8-9 जनवरी की देश-व्यापी श्रमिक हड़ताल के आह्वान से इसी लड़ाई का बिगुल बजाया गया है । इस हड़ताल में सभी दलों के ट्रेडयूनियन संगठन और किसान संगठन शामिल हैं ।

संघर्ष का यह बिगुल ही इस बात का भी ऐलान है कि 2019 का चुनाव भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक प्रत्यावर्त्तन का चुनाव साबित होने वाला है । आजादी की लड़ाई से हमारे राष्ट्र ने धर्म-निरपेक्षता, सामाजिक न्याय और जनतंत्र की जो दिशा पकड़ी थी, उसी शुद्ध आधार पर देश की आगे के दिनों की राजनीति को फिर से स्थापित करने का समय आ रहा है । इस लड़ाई के प्रति जो आज भी आशंकित है कि यह फिर उन हालातों में लौटने का सबब तो नहीं होगा जिनसे मोदी की तरह का तत्व पैदा हुआ था, वे या तो सचमुच इतिहास की गति के बारे में भ्रमित हैं या जानबूझ कर भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं ।

हम यह साफ देख रहे हैं कि मोदी सरकार ने समाज के सभी स्तरों पर जिस तीव्र और गहरे आक्रोश को पैदा कर दिया है, वह अभी दबा हुआ, बस फूटना चाहता है । 2019 का चुनाव उसी विस्फोट को प्रत्यक्ष करेगा  । यह राजनीति में व्यापक जन-शक्ति की भूमिका के एक नये अध्याय का प्रारंभ होगा । भारत का आगे का रास्ता बदलेगा । नई राजनीति दलाल पूंजीपतियों को ठुकरा कर मेहनतकशों के हितों पर केंद्रित होगी, इसका हमें दृढ़ विश्वास है ।

इसीलिये आइये ! हम दोनों हाथ खोल 2019 के युद्ध का स्वागत करें । जनतंत्र की भूलुंठित पताका को आसमान में ऊंचा उठाएँ ! नये साल का जश्न मनाएँ !

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

अक्षम्य अपराध


—अरुण माहेश्वरी


अभी-अभी अर्थनीति और भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में एक के बाद एक, दो किताबे पढ़ने को मिलीं । पहली थी मोदी शासन के शुरू के चार सालों में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन की पुस्तक — Of Counsel ( The challenges of the Modi-Jaitly economy) और दूसरी पुस्तक है दुनिया की जानी-मानी बैंकर मीरा एच सान्याल की 'The Big Reverse (How demonetization knocked India out)' ।

मीरा सान्याल ने रॉयल बैंक आफ स्काटलैंड, इंडिया का सीईओ रहते हुए ही 2009 में मुंबई दक्षिण लोक सभा सीट से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था और फिर 2013 में सार्वजनिक जीवन में आने की गरज से ही बैंक की शानदार नौकरी को छोड़ कर वे आम आदमी पार्टी के टिकट पर 2014 के चुनाव में खड़ी हुई थी ।

अरविंद सुब्रह्मण्यम और मीरा सान्याल के मूलभूत दृष्टिकोण से सभी लोग परिचित हैं । इन दोनों में कोई भी समाजवादी प्रकार के विचारों का पक्षधर नहीं है । अर्थनीति के मामलों में दोनों बाजार की सर्वश्रेष्ठता के इस हद तक कायल हैं कि वह उनके लिये तर्क-वितर्क का विषय नहीं, बल्कि आस्था और विश्वास के विषय की तरह है।

लेकिन यह गौर करने लायक मजेदार बात है कि किसी भी क्षेत्र में समान दृष्टिकोण के लोग भी उस क्षेत्र में अपने अलग-अलग कामों की विशेष प्रकृति के कारण ही अनेक मामलों में बिल्कुल भिन्न छोरों पर खड़े दिखाई देने लगते हैं । दृष्टिकोण के क्षितिज के बाहर खड़े सत्य की रोशनी से एक बहुत दूर खड़ा हुआ दिखाई देता है तो दूसरा उसके बहुत करीब । जैसे एक पूंजीवादी विचारक जिस प्रकार पूंजी के सत्य को दुनिया का अंतिम सत्य मान कर चलता है, वहीं एक बुर्जुआ यथार्थवादी लेखक जीवन के अपने ब्यौरों से पूंजी के सत्य की गलाजत को दिखाता हुआ प्रकारांतर से अनायास ही उसे अंतिम सत्य न मानने की दलीलें खड़ी कर देता है ।

अरविंद सुब्रह्मण्यन और मीरा सान्याल के बीच के बिल्कुल इसी फर्क को उनकी पुस्तकों के आधार पर स्पष्ट देखा जा सकता है ।

अरविंद सुब्रह्मण्यन ने अपनी किताब में बहुत साफ शब्दों में कहा है कि नोटबंदी मोदी सरकार का एक निष्ठुर (monstrous) कदम था, जिसने अर्थ-व्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र और नगदी के अधिक चलन वाले क्षेत्र पर गहरा आघात किया है । कथित 'मोदी अर्थनीति' के उन्माद के मूलभूत तत्व को प्रदर्शित करने वाले नोटबंदी के कदम पर अरविंद की इतनी कड़ी टिप्पणी के बावजूद उनकी पूरी किताब में हमने आश्चर्यजनक रूप से यह नोट किया कि “नोटबंदी से लेकर जीएसटी और आरबीआई, बैंकों के एनपीए आदि के बारे में जेटली जी के मुंह से अब तक जो भी उटपटांग किस्म की दलीलें सुनी जाती रही हैं, मसलन् नोटबंदी से अनौपचारिक और नगदी की चलन वाले क्षेत्रों को तात्कालिक तौर पर भारी नुकसान होने पर भी डिजिटलाइजेशन, औपचारीकरण (formalization), और करदान (tax compliance) के मामले में इसके दूरगामी लाभ हुए हैं, या अर्थ-व्यवस्था की तेजी के समय बैंकें जब मनमाने ढंग से कर्ज बांट रही थीं, तब आरबीआई क्या तेल लेने गया था, या आरबीआई के आरक्षित कोष की मात्रा पर चर्चा होनी चाहिए थी की तरह की सारी दलीलें किसी और के दिमाग की नहीं, इन अरविंद  सुब्रह्मण्यन साहब के दिमाग की ही उपज रही हैं । इन सारी बातों को उन्होंने अपनी इस किताब में बिल्कुल उन्हीं शब्दों में कहा है जिनका प्रयोग हमारे अरुण जेटली अक्सर किया करते हैं ।” (देखें — https://chaturdik.blogspot.com/2018/12/blog-post_8.html)
यह है एक शुद्ध विचारक, अर्थनीति के व्यापक परिदृश्य (macro-economy) के सिंहावलोकन में महारथ रखने वाले चिंतक की दुर्दशा का नमूना जिसके सोच के शीलवान ढांचे के अंदर ज्ञान चर्चा सर्वाधिक अमूर्तता के बिंदु पर जाकर कैसे बिल्कुल दिशाहीन हो जाती है । इस प्रकार का निर्रथक दीर्घ विमर्श अर्थनीति संबंधी चर्चा के पारंपरिक शास्त्रीय रूप की गरिमा को भी बनाये रखने के बजाय अजीब प्रकार से उसका विकृतिकरण करता है और अर्थनीति की कोरी निठल्ली चर्चाओं में योगदान करने लगता है ।

किसी भी विषय का विचारक उसके किसी एक पहलू का विशेषज्ञ नहीं होता, उसकी भूमिका अपने नजरिये से विशेषज्ञों में अपने विषय की और ज्यादा गहराइयों में प्रवेश की इच्छा पैदा करने की होती है ; कह सकते है कि वह उन्हें उनके विषय के 'परा-सत्य' से, उसकी सीमाओं के बाहर छूट गये सत्य से जोड़ता है ।

अरविंद के ठीक विपरीत मीरा सान्याल की स्थिति किसी विचारक की नहीं, जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक कार्यकर्ता-नेता की है । मीरा सान्याल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति की तपी-तपायी बैंकर रही है, जिसे देशी भाषा में कहे तो पक्की महाजन । मुद्रा और पूंजी के व्यापार के क्षेत्र की एक मजी हुई खिलाड़ी ।

महाजन भले ही अर्थनीति के सामान्य सिद्धांतों की महीन कताई के मामले में निपुण न हो, लेकिन वह गांव के हर घर की खबर रखने वाला होता है जो अपने ग्राहकों की स्थिति की पूरी खबर रखता है । ठोस रूप में अर्थनीति का वास्ता जिन नागरिकों से हैं, बेहतरीन बैंकर उनके जीवन के सच से अपने पेशे की जरूरतों के लिये ही गहराई से वाकिफ रहता है । और यही वजह है कि वह सिद्धांतों की किसी ऊंची मीनार पर चढ़ कर अर्थनीति के माजरों का नजारा करते हुए सलाहकार पद का सुख भोगने वालों की तुलना में नीतियों के असली नियंता नागरिक जीवन से लेकर, अर्थनीति के क्षेत्र के सभी संस्थानों के जगत के बाहरी सच के ज्यादा करीब रहता है ।

यही वजह है कि मीरा सान्याल जब अपनी किताब में नोटबंदी के कुल परिणाम के बारे में अपनी राय सुनाती है (Report-Card) तो उस अध्याय के शीर्ष पर थामस जेफरसन का एक कथन उद्दृत करती है — “किसी भी अच्छी सरकार के पहला और अकेला लक्ष्य मानव जीवन और उसमें खुशहाली है न कि उनकी तबाही ।” और इसके बाद, एक के बाद एक, नोटबंदी के सभी घोषित लक्ष्यों की विफलताओं का पूरा चिट्ठा खोलती चली जाती है। काला धन निकालने, भ्रष्टाचार को खत्म करने और नकली नोटों को बेकार करके आतंकवाद से लड़ने के मोदी के पहले तीन लक्ष्यों, और उसके बाद डिजिटल और नगदी-विहीन (cash-less) भारत के मोदी के ही चौथे लक्ष्य, फिर कर के आधार को विस्तृत करने तथा परिशुद्ध जीडीपी के बड़े लक्ष्य को पाने की जेटली की घोषणा, और इन सबके साथ शक्तिकांत दास की तरह के नौकरशाह के घरों में बेकार पड़ी हुई सारी बचत को बैंकों में खींच लाने के सभी दावों की विस्तार से जांच करते हुए वे कहती है कि “मोदी सरकार नोटबंदी के घोषित आठ लक्ष्यों में से एक भी लक्ष्य को हासिल करने में विफल रही है ।

“2016 की नोटबंदी न सिर्फ एक संपूर्ण विफलता थी बल्कि इससे अर्थ-व्यवस्था पर आघात की भारी कीमत अदा करनी पड़ी है, लोगों पर इसका बुरा असर पड़ा है, इससे आज तक जारी तबाही भी पैदा हुई है ।” आरबीआई के पूर्व गवर्नर आई जी पटेल को उद्धृत करते हुए वे कहती हैं — “हमें उन कामों के प्रति सावधान रहना चाहिए जो काफी काम बढ़ाते हैं, भारी पीड़ा के कारण बनते हैं और बहुत कम लाभ होता है ।”

यह है एक बैंकर की यथार्थ बुद्धि । मीरा सान्याल ने अपनी किताब में जितने विस्तार के साथ नोटबंदी की पूरी कहानी, इससे जुड़े चरित्रों का चित्रण किया है, उससे लेखक घोषित विचारों के बजाय लेखन में उसके द्वारा वर्णित ठोस यथार्थ की महत्ता बहुत ही साफ रूप में स्थापित होती है । यह यथार्थ लेखक के अपने वैचारिक दायरे का अतिक्रमण करके आपको सत्य की ज्याद नजदीक ले जाता है ।

अरविंद सुब्रह्मण्यन नोटबंदी को 'निष्ठुर कदम' कहने के बावजूद उससे कर के आधार के विस्तार, डिजिटल और नगद-विहीन अर्थ-व्यवस्था के लाभों के सैद्धांतिक भूल-भुलैय्या में भटकते रह जाते हैं, लेकिन यथार्थपरक मीरा सान्याल उसे शुद्ध रूप में एक तुगलकी, बेतुका और भारी नुकसानदेह कदम साबित करने से नहीं चूकती । यह काम के बोझ को बढ़ाने वाला एक पीड़दायी और मूर्खतापूर्ण कदम के अलावा कुछ नहीं था ।


यह नोटबंदी का ही करिश्मा है कि आज तक देश में नगदी का जो अकाल पड़ा हुआ है उसका संकट न सिर्फ अर्थ-व्यवस्था में भारी आर्थिक मंदी के रूप में, बल्कि बैंकों के एनपीए और रिजर्व बैंक और सरकार के रिश्तों के बीच की समस्या तक में जाहिर हो रहा है । रुपया धरती, आकाश में कहां गायब हो गया, समझ के परे हैं । चौतरफा तंगी और अभाव की काली छाया मंडरा रही है । सचमुच, इतिहास में नोटबंदी को हमेशा मोदी के एक अक्षम्य अपराध के रूप में याद किया जायेगा ।             

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

भारतीय जनतंत्र के इतिहास में 2019 का स्थान सुनिश्चित है


-अरुण माहेश्वरी

जनतंत्र के ढांचे में अगर किसी घटना का कोई तयशुदा बिंदु होता है तो वह है चुनाव । इसके संकेतों के साथ ही जैसे किसी चक्रावाती तूफान के बादल घने होने लगते है । यह तूफान किस तट पर पछाड़ खा कर तबाही मचायेगा और किन तटों पर झमाझम बारिस का कारण बनेगा, इसके कयास शुरू हो जाते हैं । उसी के अनुसार, आगे की तैयारियां भी शुरू हो जाती है ।

2019 के चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे हैं, स्वाभाविक रूप से राजनीति के बादल गहराने लगे हैं । लेकिन ये चुनाव साधारण चुनाव नहीं है क्योंकि विगत पांच साल के शासन के अनुभवों के चलते इनमें जनतंत्र मात्र ही दाव पर लगा हुआ है । मोदी शासन के स्वेच्छाचार ने किसी समय आसमान छू रही मोदी की साख को पूरी तरह से मिट्टी में मिला दिया है, लेकिन फिर भी विडंबना यह है कि मोदी ने ही अब तक पूरे शासक दल को अपनी सख्त मुट्ठी में जकड़ रखा है और शासन का तंत्र भी उसकी तमाम चोटों से जख्मी होकर छटपटा रहा है !

यही वजह है कि इसी बदनाम नायक का 2019 के चुनाव में एक प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बने रहना तय है । इस बीच इसकी करारी पराजय के सारे निश्चित संकेत मिलने के बावजूद शासक गठजोड़ की इससे मुक्ति असंभव है । यही वजह है कि इस चुनावी परिघटना में शासक दल के घुटते हुए मृत्यु-मुखी अस्तित्व का एक नया नाटकीय तत्व भी इधर थोड़ा बहुत झलक जा रहा है । शासक दल से जुड़ा यह बिल्कुल नया आयाम है जिसकी चार साल पहले किसी ने कल्पना नहीं की थी ।

इसे हम वर्तमान शासक दल के जगत का नितिन गडकरी कांड कह सकते हैं जिसका सूत्रपात आरएसएस के गुह्य संसार के मारण मंत्रों के कर्मकांडों से हुआ है और जिसके मारण-लक्ष्य में कहते हैं मोदी और उनकी छाया शाह का अद्वैत ही है । अभी गडकरी की हल्की सी चुटकियों से ही मोदी की मूर्ति जिस प्रकार झरती हुई नजर आ रही है, उसने मोदी जादू के असर के अंत के नजारों की सचमुच नई तस्वीरें दिखानी शुरू कर दी है ।

शासक जगत के विपरीत विपक्षी जगत का स्वरूप भी कम दिलचस्प नहीं है । दोनों जगतों के यथार्थ का एक सूत्र साझा है - वह है मोदी-शाह की जकड़बंदी और उस जकड़ में भी पड़ रही दरारों के संकेत ।

गुजरात, कर्नाटक चुनावों के बाद ही मोदी की अयोग्यता प्रकट होने लगी थी, उस पर हाल के पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने तो मोदी की वापसी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। कल तक शेर बने घूमते मोदी-शाह अचानक ही कई लोगों को चूहे की शक्ल में दिखाई देने लगे हैं जिसे डंडे से खदेड़ने में एनडीए के नीतीश-पासवान सरीखे हुजूर के गुलाम भी परहेज नहीं कर रहे हैं ।

जाहिर है, इस स्थिति का एक असर मोदी के विपक्ष पर भी पड़ना था और पड़ रहा है । मोदी की राक्षसी चौड़ी छाती का रूप जहां पूरे विपक्ष को इकट्ठा कर रहा था, वहीं यह दयनीय सा लतखोरी स्वरूप कुछ अन्य प्रकार के भ्रमों को पैदा करता है । ऊपर से मोदी को गडकरी की चुनौती से लगने लगता है जैसे वह संघी फासिस्ट वैश्विकता के बाहर का कोई जीव है ! और चुनाव के वक्त मन को तसल्ली दे, एक ऐसे खुशफहम वातावरण की खुमारी में बहुतों को आगे के सुनहरे सपने दिखाई देने लगे तो इस पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए !

ऐसे में, तेलंगाना में जीत के बाद केसीआर ने चक्रवर्ती सम्राट का सपना देखना शुरू कर दिया है । लोग इसमें इसलिये कोई दोष नहीं मानते हैं क्योंकि मान लिया जाता है कि जनतंत्र का अर्थ ही है राजनीति का एक स्वतंत्र और उनमुक्त ‘विमर्शमय’ ढांचा । इसमें शामिल खिलाड़ियों की वासनाओं और राजनीति की नई संभावनाओं की खोज की स्वाभाविकता के कारण भी इसे अति साधारण बात मान लिया जाता है । केसीआर और नवीन पटनायक या ममता बनर्जी की तरह के इस क्षेत्र के दावेदार अभी के नरम परिवेश में यदि अपनी हसीन इच्छाओं की संभावनाओं को टटोलते हैं, उनकी पूर्ति के सपने देखते हैं तो देखें - मान लिया जाता है कि यही जनतंत्र के ढांचे से प्रदत्त स्वातंत्र्य का लक्षण है ।

लेकिन स्वातंत्र्य अंतत: साधन ही है, साध्य नहीं । जो सत्य प्रकाश का हेतु होता है, वह साध्य है - राजनीति के जन-लक्ष्य । उसके अभाव में, सारी वासनाएं और स्वतंत्रताएं धरी की धरी रह जायेगी, फल कुछ नहीं हासिल होगा । भारत की राजनीति आज इसी मुकाम पर है जहां से उसे एक नई दिशा पकड़नी है । इसीलिये 2019 एक फैसलाकुन लड़ाई का साल है जिसमें हमें नहीं लगता कि मौका-परस्तों के लिये कोई विशेष जगह बचने वाली है ।

2014 के बाद का समय व्यापक जनता के एक नये अवबोध का, शासक की मनमानियों और निष्ठुरता की पहचान का काल रहा है । इसकी छाया मात्र से भाजपा ने अपने हाथ से राज्यों को गंवाना शुरू कर दिया है । अब 2019 में तो इस चेतना-शक्ति का, जन-आक्रोश का भारी विस्फोट देखने को मिलेगा ।

ऐसे समय में तथाकथित फेडरल फ्रंट की पेशकश से यदि किसी ने मोदी को सहायता पहुंचाने का कोई मंसूबा बांध रखा है तो यह तय माना जाना चाहिए कि उसके भी धुर्रे उड़ेंगे । जनतांत्रिक राजनीति के सत्य की अभी यही मांग है कि मोदी-शाह जोड़ी के अंत को सुनिश्चित करके जनतंत्र को न्याय और समानता के नये सुदृढ़ आधारों पर स्थापित किया जाए । जो भी इतिहास की दिशा में अन्तरनिहित इस लक्ष्य के साथ होगा, वही टिकेगा । अन्यथा मध्य प्रदेश, राजस्थान की तरह ही आगे भी उन्हें अपने और पतन और अंत के लिये तैयार रहना होगा ।

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम भारतीय राजनीति में मोदी के अंत की परिघटना के सारे संकेत दे रहे हैं


-अरुण माहेश्वरी 

पांच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणामों की चैनलों और अखबारों में आम तौर दिखाई दे रही बाजारू व्याख्याओं पर सचमुच हंसी आती है भाजपा शासित तीन राज्यों में से दो में भाजपा को मिले मतों में 2014 की तुलना में 16 प्रतिशत और एक में 13 प्रतिशत की भारी गिरावट के बावजूद इनका सारा बल इस बात पर है कि भाजपा और कांग्रेस को मिले मतों के बीच एकाध प्रतिशत का ही फर्क है और इसी आधार पर यह नतीजा निकाला जा रहा है कि 2019 में मोदी जी के प्रति जनता के अतिरिक्त अनुराग को देखते हुए यह फासला सिर्फ आसानी से पट जायेगा, बल्कि आगामी लोकसभा में मोदी पार्टी का बहुमत यथावत बना रहेगा  

जहां तक भाजपा के खास नेताओं-कार्यकर्ताओं का सवाल है, यह मान लिया जा सकता है कि उन्हें दुख, शोक और डर के अवसाद में डूब मरने से बचाने की यह व्याख्या एक अच्छी दवा हो सकती है लेकिनरिपब्लिककी तरह के मोदी-शाह के जेबी चैनलों के अलावा जब कुछ दूसरे चैनलों के ऐंकर भी इसी प्रकार की दलीलों में फंसे दिखाई देते है तो कहना पड़ता है - यह कोरा बाजारूपन है ; दृष्ट की सीमा में कैद पशुता का प्रदर्शन ; ऐंकरों की गुलाम मानसिकता  

जीवन का कोई भी सत्य क्या कभी भी किसी स्वयं-सीमित तस्वीर से व्यक्त होता है ? तब तक किसी भी सच्चाई की पहचान नहीं कायम की जा सकती है जब तक कि उसे एक परिघटनात्मक प्रक्रिया में नहीं देखा जाता है यह कोई भोजन नहीं होता कि प्लेट में रख कर परोस दिया जाए और गपा-गप उसे खा लिया जाए ! वह तो परजीवियों का सत्य होता है ; प्रसादाकांक्षी भक्तों की वासनाओं का सच  

अन्यथा, शास्त्र भी कहते हैं कि प्रक्रिया से बढ़ कर कोई ज्ञान नहीं है प्रक्रियापरं ज्ञानं जैसे ही कोई इन पांच राज्यों के परिणामों को एक परिघटनामूलक प्रक्रिया के ढांचे में देखेगा, उसे गुजरात में अहमद पटेल की जीत, गुजरात विधान सभा के चुनाव परिणाम, एक के बाद एक उपचुनावों में भाजपा की शर्मनाक पराजयों, जिनमें योगी आदित्यनाथ की सीट पर पराजय भी शामिल है, और कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की सरकार के गठन की श्रृंखला में इन तीन राज्यों में सिर्फ भाजपा की सरकारों का अंत बल्कि भाजपा को मिले मतों में भारी गिरावट भारतीय राजनीति में एक नई परिघटना के साफ दिखाई देने लगेगी यह मोदी नाम के एक प्रदर्शन-प्रिय सर्वाधिकारवादी नेता के अंत की परिघटना है इन तीन राज्यों के परिणामों के बाद तो यह साफ तौर देखा जा सकता है कि इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ मोदी की चमक खत्म हो गई है बल्कि इन साढ़े चार साल की करतूतों से उनके चेहरे पर इतनी कालिख पुत गई है कि अब वह कहीं दिखाने लायक भी नहीं रह गया है चुनाव के पहले के पुराने वादों की बात तो जाने दीजिए, नोटबंदी, जीएसटी, महंगाई, बेरोजगारी और कृषि संकट से लेकर सभी संवैधानिक संस्थाओं के साथ किये गये खिलवाड़ और राफेल के स्तर के महाघोटाले ने इनके चरित्र में सचाई, ईमानदारी और जन-पक्षधरता का लेशमात्र भी नहीं छोड़ा है मोदी आज हर प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक बुराई के प्रतीक, पूंजीपतियों के साथी और साधारणजनों के दुश्मन बन गये हैं और अब इन अंतिम दिनों में तो उनकी बेसिर-पैर की बातों और अस्वाभाविक आचरण ने उनकी सूरत को जैसे किसी मनोरोगी का रूप देना शुरू कर दिया है  

यह मामला सिर्फ मोदी जी तक सीमित नहीं है क्रमश: यह पूरी सरकार ही कुछ टेढ़ी-मेढ़ी हो गई है जिसमें तर्क और बुद्धि की संगत बातों को कहने वाला जैसे खोजने पर भी कोई नहीं मिल पाता है वित्तमंत्री जेटली से जहां पूरी सरकार बीमार नजर आती है, तो संबित पात्रा की तरह का प्रवक्ता सरकार को लगभग जोकर के स्तर पर उतार दे रहा है टेलिविजन चैनलों पर कोरी अश्लीलताओं से आनंद लेने वाले नादानों के लिये ही अब पात्रा का थोड़ा आकर्षण बचा हुआ है  

इसप्रकार, आज की भारतीय राजनीति के यथार्थ का परिघटनामूलक विश्लेषण इतना बताने के लिये तो काफी है कि 2019 से निकलने वाला रास्ता मोदी कंपनी को नर्क के रसातल में पहुंचाने वाला रास्ता होगा भारतीय राजनीति के विकासमान यथार्थ में ऐसे तत्वों के लिये आगे कोई स्थान नहीं होगा कोई भी राजनीतिक दल जिसे अपने अस्तित्व की जरा भी चिंता होगी और आने वाले दिनों के लक्षणों को समझने की जरा भी तमीज, तो वह अब ऐसे बदनाम चेहरे का संगी बन कर आने वाले दिनों की लड़ाई में उतरना मुनासिब नहीं समझेगा। 

यही वजह है कि जो चुनाव-पंडित मोदी के खिलाफ महागठबंधन की संभवता-असंभवता की अटकलपच्चियों का बाजार गर्म किये हुए हैं, वे इसी परिघटना में महागठबंधन के अनिवार्य तौर पर उदय को भी नहीं पढ़ पा रहे हैं वे नहीं समझ पा रहे हैं कि मोदी कंपनी के रहते इस महागठबंधन के उभार को रोक पाना असंभव है यहां तक कि नितीश, पासवान, अकाली दल और शिवसेना की तरह के एनडीए के घटकों की भी यह मजबूरी हो सकती है कि अपने मृत्यु-मुखी अस्तित्व को स्वीकारते हुए घिसटते हुए काल के गाल में चले जाने की नियति को स्वीकार लें अन्यथा जिसे भविष्य कहते हैं, मोदी के संग में उसकी कोई तस्वीर वे भी नहीं देखते हैं उपेंद्र कुशवाहा अब पासवान को भी जिस प्रकार एनडीए के डूबते हुए जहाज से निकल आने का आह्वान कर रहे हैं, वह अकारण नहीं है यही बात मोदी की निंदा में पूरी तरह से मुखर शिव सेना पर भी लागू होती है मोदी के अंत की परिघटना का सत्य ही इन सबके अंदर से व्यक्त हो रहा है यह तय है कि आगामी चुनाव में अन्य की धौंकनी से सांसे लेने वाले नितीश-पासवान जैसे दलों का तो पूरी तरह से जनाजा निकल जायेगा शिव सेना और अकाली दल अपनी खुद की सत्ता के बल जितने ही बने रहेंगे मोदी कंपनी की दुर्दशा की आंच से झुलसेंगे जरूर हर राज्य में मोदी के अंत को सुनिश्चित करने वाले गठबंधनों का समुच्चय ही 2019 का महागठबंधन कहलायेगा  

और मोदी ! 2019 के बाद पता नहीं किस अतल अंधेरे के जीव का जीवन जीयेंगे ! आरएसएस अपने सांस्कृतिक खोल में दुबक कर किसी नई साजिश की बुनावट में खो जायेगा और भाजपा के बेपैंदी के दोयम दर्जे के नेता पार्टी की संपत्तियों के भोग से जीवन यापन की योजनाएं बनाते दिखाई देंगे  


यह 2019 के महागठबंधन की ताकतों का दायित्व होगा कि अंधकार जगत के सारे जीवों को आगे अंधकार में ही रहने दे, कभी कहीं प्रकाश में आने दें किसी भी राष्ट्र के लिये इस मामले में आगे और असावधानी राष्ट्र के अस्तित्व के लिये बहुत घातक साबित हो सकती है