मंगलवार, 28 मार्च 2017

नीलकांत को मानबहादुर सिंह पुरस्कार के वक्त अरुण माहेश्वरी का बीज वक्तव्य


यह मार्च का महीना। जो भी हिंदी साहित्य के शैक्षणिक जगत से परिचित है, इसे साहित्य के पंडितों का मधुमास कहा जा सकता है। बीकानेर के पुष्करणा समाज में साल दो साल में एक खास दिन शादियों के दिन के रूप में तय किया जाता है, जिस एक दिन में इस समाज में थोक के भाव शादियां हुआ करती है। पहले तो यह दिन बाल-विवाहों के लिये प्रसिद्ध था। इस समाज का एक भी परिवार नहीं बचता था, जिसमें कोई शादी न हो रही हो। और हालत यहां तक हो जाती थी कि इस दिन लोगों को बाराती और पंडित नहीं मिलते थे। बारातियों की भी जैसे आपस में लूट-खसोट होती थी। सड़कों पर बाराते दौड़ती-हांफती दिखाई देती थी क्योंकि हर किसी को और भी दस-बीस शादियों में अपना चेहरा दिखाने की हड़बड़ी रहती थी। इधर के सालों में बाल-विवाह तो बंद हो गये है, एक ही दिन में समाज में सारी शादियां कर लेने का कम खर्चीला व्यवहारिकतावाद भी कुछ टूट गया है। फिर भी, शादियों के ऐसे एक दो दिन के मुहुर्त की परंपरा और उससे जुड़ी गहमा-गहमी किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।

तो यह मार्च का महीना हिंदी के शैक्षणिक जगत के लिये कमोबेस वैसी ही सेमिनारों-भाषणों के आयोजनों की गहमा-गहमी का महीना होता है। शायद ही कोई अध्यापक-प्रोफेसर होगा जिसके पास दस-पांच सेमिनारों के निमंत्रण हाथ में न होते हो। यूजीसी की ग्रांट का पैसा खर्च करने के दबाव से यह महीना शैक्षणिक जगत का सबसे अधिक धूमधाम का महीना बन जाता है। यदि इस संदर्भ में कोई हिंदी साहित्य के जगत की वस्तु स्थिति पर नजर डालेगा तो सबसे पहले उसका जो सबसे बड़ा भ्रम टूटेगा, वह है साहित्य के साथ जुड़ी हुई कल्पित दरिद्रता का भ्रम। दूसरा भ्रम टूटेगा, साहित्य और राजसत्ता के बीच एक प्रकार के छत्तीस के रिश्ते का भ्रम। और इन सबके साथ आपको तीसरी यह भारी विरक्ति की अनुभूति भी हो सकती है कि साहित्य की दुनिया ऐसे प्रकांड और सर्वज्ञ विद्वानों के ढेर से इस प्रकार से पटी हुई हुई है कि उस सड़ रहे ढेर से सचमुच अब दुर्गंध आने लगी है। अभिनवगुप्त अपने ध्वन्यालोक में जहां काव्य में रसभंग के हेतुओं का निरूपण करते हैं, वहा कहते हैं कि किसी भी रस के परिपुष्ट हो जाने पर उसका बार-बार उद्दीपन करना रसभंग का एक हेतु है। काव्य में वर्णन द्वारा परिपुष्ट और उपभुक्त रस को यदि बार-बार परोसा जाता है तो वह कुम्हलाये हुए कुसुम के समान मलिन हो जाता है।

‘उपभुक्तो हि रसः स्वसामग्रीलब्धपरिपोषः पुनः पुनः
परामृश्यमानः परिम्लानकुसुमकल्पः कल्पते।’

तो एक ऐसे मधुमास में, अक्सर विद्वानों के लिये सुंदर सेज की तरह सजे-धजे रहने वाले एक प्रेक्षागृह में जब हम चंद लोग नीलकांत की तरह के एक व्रात्य और निंदित रचनाकार-आलोचक के अभिवादन के लिये जुटे हैं तो ऐसा लगता है जैसे बसंत ऋतु में इंद्रपुरी की किसी आलीशान, असंख्य सुगंधित फूलों से सजी वाटिका में श्मशान में धूनी रमाये बैठने वाले कापालिकों ने अपनी मजलिस जमा ली है। या फिर और भी नीचे उतरे, तंत्र-मंत्र की रहस्यवादिता को भी झाड़ कर सोचे तो कह सकते हैं जैसे प्रेमचंद के घीसू-माधवों ने पूरे गांव को पूड़ी और जलेबी खिलाने का न्यौंता दे दिया है। सचमुच बहुत हंसी सी आ रही है।

आज नीलकांत जी को पुरस्कार दिया जायेगा। उनकी तारीफ के कशीदे पढ़े जायेंगे। उन्हें पथप्रदर्शक, महान चिंतक और विचारक के विशेषणों से विभूषित किया जायेगा, उनकी चरण-धूलि को माथे पर लगा कर धन्य-धन्य होने के भाव व्यक्त किये जायेंगे - यह सब अभी भी हमें शेखचिल्ली या मुंगेरीलाल के सपनों जैसा लगता है। लेकिन यह तो आज प्रत्यक्ष है। इसे प्रमाण की शायद किसी को जरूरत नहीं है। नीलकांत जी की तरह के एक चरम मूर्तिभंजक, अराजक और विध्वंसक लेखक को अपनाने के लिये ही तो हम यहां इकट्ठा हुए हैं। यह सच जितना भी अविश्वसनीय, अभावनीय क्यों न हो, लेकिन एक सच तो है ही। और हम यह जानते हैं कि हिंदी की अनगिनत मुर्दा पत्रिकाओं के बीच यह रद्दी से कागज पर निकलने वाली ‘लहक’ पत्रिका की जो ठसक भरी गूंज आज चारों ओर सुनाई दे रही है, वैसे ही बसंत ऋतु के सेमिनार-उत्सवों के बीच इस छोटे से आयोजन की गूंज ही शायद सबसे अधिक ऊंचे स्वरों में सुनाई देगी। अघाये हुए अंगूरी मदिरा में डूबे बहुतों की नींद में खलल पैदा करेगी। कुछ कूपित पंडित किसी आगत कलियुग का विलाप करेंगे - हंस चुगेगा दाना तिनका कौंवा मोती खायेगा।

बहरहाल, मित्रों, हास्य-परिहास की इन सारी बातों के परे, हम सिर्फ यह कहना चाहेंगे कि जिस कोलकाता शहर में आज यह आयोजन हो रहा है, यह उस बंगाल नवजागरण का केंद्र स्थल है जिसमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, माइकेल मधुसुदन, द्वारकानाथ ठाकुर से लेकर रवीन्द्रनाथ तक की सारस्वत परंपरा में ही समान आदर के साथ जिस एक और नाम को भी हमेशा याद किया जाता है वह नाम है हेनरी लुइस डिरोजियो का नाम। 19वीं सदी के प्रारंभ के विद्रोही बौद्धिक आंदोलन ‘यंग बेंगोल’ के ध्रुवतारे की तरह एक खास दिशा में सबसे ज्यादा चमकते हुए नवजागरण के सितारे का नाम।

सिर्फ बाईस साल की उम्र में चल बसे इस यूरेशियाई असाधारण शिक्षक ने बाबुओं के मस्त जीवन में बाबू घरों की संतानों के बीच स्वतंत्र चिंतन की अलख जगा कर जो भारी खलल पैदा किया था, उसे तब हिंदू कालेज के अधिकारियों ने तत्कालीन नौजवानों के पतन का कारण बताते हुए, ‘सारे अनर्थ की जड़ और आतंक का विषय बताया था’, फिर भी उसे निष्काषित करने के बजाय उसकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उससे इस्तीफा लेने का प्रस्ताव लिया था। डिरोजियो ने उस प्रस्ताव के एक-एक बिंदु का जवाब देते हुए जो पत्र लिखा था बंगाल के नवजागरण के इतिहासकार विनय घोष ने उस जवाबी पत्र को ही बंगाल के नवजागरण का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बताया है। डिरोजियो ने अपने उस पत्र में कहा था कि ‘‘ मैंने कभी भी अपने को नास्तिक के रूप में पेश नहीं किया, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व के बारे में खुलकर बहस करना अपराध है तो इस अपराध को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है।’’

डिरोजियो ने कैंपबेल की प्रसिद्ध पंक्ति "And as the slave departs, the man returns” (गुलाम जाता है, तभी मनुष्य आता है) के हवाले से जो कविता लिखी, उसमें वे लिखते हैं -‘‘ स्वतंत्रता नाम की ऐसी महत्ता है कि जो भी देशभक्त इस पवित्र नाम का संकल्प लेकर तलवार उठाता है वह कभी पराजित नहीं होता।’’ (Oh freedom there is something dear/ e’en in the very name…/success attend the patriot sword,/that is unsheathed for thee !)

रवीन्द्रनाथ ने ऐसे ही नहीं लिखा था कि ‘‘बुद्धिमानों की मंत्रणा ने नहीं बल्कि विक्षिप्त लोगों के ‘पागलपन’ ने मनुष्य के चिंतन और कर्म में, उसके अंदर और बाहर, उसके दर्शन और साहित्य में युग-युग में नये ढंग से सृष्टि की है।’’

आज के कम्युनिस्ट चिंतक एलन बदउ ने बिल्कुल सही कहा है कि दर्शन शास्त्र एक ‘तार्किक विद्रोह’ की तरह होता है। ‘‘तब तक कोई दर्शनशास्त्र पैदा नहीं हो सकता जब तक आज जो दुनिया है, उसके बरक्स विचारक में असंतोष न हो ; यह तर्क और विवेक की शक्ति पर एक आस्था है; इसकी एक सर्वकालिकता होती है; और यह प्रत्येक मनुष्य को एक चिंतनशील प्राणी मानता है। अंततः दर्शनशास्त्र हमेशा जोखिम उठाता है।’’
और आज के युग का प्रसिद्ध फ्रांसीसी चिंतक मिशैल फुको ने अपनी प्रसिद्ध किताबों ‘Madness and Civilization’ और ‘Discipline and Punishment’ में इन पागलों को आम जीवन से निष्काषित करके रखने के लिये तैयार किये जाने वाले पागलखानों और जेलों के जिस भारी ताम-जाम पर विशद विमर्श किया है, वह अंत में यही बताता है कि व्यवस्था मूलतः सृजनात्मकता का एक कैदखाना ही होती है, और स्वातंत्र्य की अन्तर्शक्ति से इसे बार-बार चुनौती दे कर ही मानव जीवन का विकास संभव होता है।

मित्रों, हम सब जानते हैं, हिंदी जगत में आज पुरस्कारों की कैसी बरसात होती रहती है। ऐसे में, अगर हिसाब लगाया जाए तो अभी देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं । हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है । सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करने, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।

ऐसी स्थिति में नीलकांत सरीखे, हर प्रकार के सरकारी तंत्र से पूरी तरह असंबद्ध लेखक को एक भी पुरस्कार न मिलना इन ढेरों पुरस्कारों की असारता के बारे में हमारी टिप्पणी का सबसे बड़ा प्रमाण है। हाल में बाब डिलेन को नोबेल पुरस्कार मिला है। उनका एक गीत है: Blowin' In The Wind A
इसकी शुरू की ही पंक्तियां है -
How many roads must a man walk down
Before you call him a man ?
How many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand ?
Yes, how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned ?
The answer my friend is blowin' in the wind
The answer is blowin' in the wind.
(कितने रास्ते तय करे आदमी
कि तुम उसे इंसान कह सको ।
कितने समंदर पार करे एक सफ़ेद कबूतर
कि वह रेत पर सो सके ।
हाँ, कितने गोले दागे तोप
कि उनपर हमेशा के लिए पाबंदी लग जाए ।
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है ।)
तो मित्रो, हम इन स्थापित विद्वत मंडली के ज्ञान के रहस्य को जान रहे हैं। और आप जानते हैं ही है कि हमारे खुद के ज्ञान पर क्या असर पड़ता है जब हम जान लेते हैं कि दूसरा उसके रहस्यों को जानता है। जिस ज्ञान की धुन में हम शेर बने घूमते हैं, वही तत्काल हमें चूहे में भी तब्दील कर देता है। इस पूरे प्रसंग में अभिनवगुप्त की इस बात को स्वीकारते हुए कि ‘‘ जो तत्ववेत्ता नहीं है केवल चर्या (पूजा) में निष्ठा रखते हैं, उनके चित्त के संशययुक्त होने पर ज्ञान की हानि होती है’’, अंत में हम यही कहेंगे कि जो परंपराओं के विलय से, भगवानों की मृत्यु से घबड़ाते हैं और कहते हैं कि इससे विचारशून्यता पैदा होगी, वे सही नहीं है। हेगेल कहते हैं कि शब्द का अर्थ है वस्तु की मृत्यु। अर्थात, ईश्वर की मृत्यु का अर्थ विचारों की श्रंखला का टूटना नहीं बल्कि शब्द के अर्थ, अर्थात विचारों की शक्ति को बल पहुंचाना होता है।

नीलकांत जी को पुरस्कार के संदर्भ में इस भूमिका के बाद अब हम उस आलेख की कुछ मुख्य बातों को आपके सामने रखना चाहते हैं, जो हमने नीलकांत के लेखन के बारे में तैयार किया है और जो ‘लहक’ पत्रिका के इस अंक में प्रकाशित भी हुआ है ।

उसमें हमने नीलकांत के व्यक्तित्व में जिस अकिंचन भाव की चर्चा की है, कि वे शहर में होते हुए भी शहरी नहीं होते थे, वे विराटों के बीच विचरण करते हुए भी कभी अपने को विराट नहीं महसूस करते थे। लुइस आल्थुसर की आत्मकथा है - ‘The future lasts forever : A Memoir’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘मैंने अपनी सारी वयस्क जिंदगी इस भाव के साथ व्यतीत की जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। सिर्फ इस डर से कि मेरी किताबों के पाठक कहीं मेरी इस अस्तित्वहीनता को देख न लें और मुझे कोरा ढोंगी न मानने लगें, मैं अपने होने का स्वांग जरूर करता रहा।’’

यह जो आदमी के अस्तित्वहीन होने, आत्म-विहीन होने का बोध है, यह जो अपनी बौद्धिकता के प्रति पूरी तरह से निर्मोही, निवैर्यक्तिक होने का भाव है, यही आदमी को जीवन की उन कथाओं की ओर ले जा सकता है जो हम शहरी बुद्धिजीवियों के लिये किसी अजायबघर या भुतहा से दिखाई देने वाले निर्जन स्थान सरीखा जान पड़ता है। एक सामान्य आत्मवादी बौद्धिक बाहरी संसार में तो परिवर्तन को स्वीकारता है लेकिन अपने आत्म को लेकर बिल्कुल अविचल रहता है। लेकिन सचाई यह है कि हमारे से बाह्य संसार का तो बाकायदा अस्तित्व होता है, जो अस्तित्वहीन होता है वह हमारा आत्म है। इस मायने में हमें बार-बार महाभारत की गांधारी की याद आती है जो अपने पुत्र को अपने सामने बिल्कुल निर्वस्त्र होकर आने के लिये कहती है ताकि वह उसके पूरे शरीर को वज्र के समान अजेय बना दे सके। लज्जावश दुर्योधन पूरी तरह से विवस्त्र होकर जाने के बजाय उनके सामने एक लंगोट में हाजिर होता है और दुर्योधन के शरीर का वही, ढका हुआ अंश उसकी कमजोरी बन जाता है, जिसपर गदा से प्रहार करके भीम उसे मार देता है।
यह जो जीवन के यथार्थ का साक्षात्कार अपनी बौद्धिकता के पूरे लबादे को फेंक कर करने की बात है, आत्म-विजडि़त हो कर, बुद्धि की गुह्यता के बजाय निर्बुद्धि की नग्नता के जरिये आगे का रास्ता पाने का जो रास्ता है, वह नीलकांत में ही नहीं, हमें मुक्तिबोध के कथित आत्म-संघर्ष में भी एक बड़ी भूमिका अदा करता दिखाई देता है। यह एक ऐसा भाव बोध है जिसमें आदमी आत्मलीनता की हद तक अपने काम में डूबा हुआ अपने चारों ओर के परिवेश को नकारते हुए जीता है। इसमें विश्लेषक और विषय का संबंध एक का अन्य के साथ संबंध नहीं होता है, क्योंकि विश्लेषक के विश्लेषण कार्य के बीच किसी अन्य की कोई उपस्थिति नहीं होती है। और कहना न होगा, इस अर्थ में कथाकार खुद एक कथा-वस्तु की भूमिका में भी आ जाता है।

यह आत्म-विहीनता का एक ऐसा खास भाव है, जिसे हम कुछ हद तक मार्क्सवादी पदावली में वर्ग-च्युत होने के भाव से भी जोड़ कर देख सकते हैं, बल्कि नीलकांत के वैचारिक व्यक्तित्व के संदर्भ में उसी से जोड़ कर देखा भी जाना चाहिए। यह आदमी के अपने निजीपन को निर्मित करने वाले सारे तत्वों के सायास अस्वीकार की एक परिणति है। हम जानते हैं कि यह भी कोई स्वयंसिद्ध, परम या समस्या-मुक्त स्थिति नहीं है। अंतोनियो ग्राम्शी ने इस वर्ग-च्युतीकरण के विषय पर अपनी प्रिजन नोटबुक में बहुत करीने से प्रकाश डाला है। कम्युनिस्ट हलकों में यह एक सामान्य अवधारणा है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक विज्ञान है और इस विज्ञान की ‘जटिल वाणी’ को वहन करके मजदूर वर्ग के पास ले जाने में शिक्षित मध्यवर्ग की एक बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्ट पार्टियों का आम अनुभव यह है कि इसी चक्कर में कम्युनिस्ट आंदोलन कभी भी मध्यवर्ग के नेतृत्वकारी वर्चस्व से मुक्त नहीं हो पाया है। मध्यवर्ग तथाकथित रूप में अपने को ‘वर्ग-च्युत’ करके मजदूरों का नेता बन जाने का हकदार बन जाता है। लेकिन यह वर्ग-च्युतीकरण अपने आप में कितना बड़ा प्रहसन है, इसकी सचाई को एक यही तथ्य खोल कर रख देता है कि सारी दुनिया में ऐसे कम्युनिस्ट नेताओं की संततियों में से बमुश्किल ही कोई बाद में जीवन में मजदूर की तरह काम करता हुआ जीवन-यापन करता दिखाई देता है। इसीलिये ग्राम्शी ने खुद मजदूर वर्ग को नेतृत्वकारी स्थान पर लाने की बात पर बल दिया था और बुद्धिजीवियों की भूमिका को अलग से, परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया में एक ‘जाग्रत अल्पतम’ (enlightened minority) की भूमिका के रूप में देखा था।
कहना न होगा, ग्राम्शी की दी हुई यही वह समझ है जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया में बौद्धिकों की अपनी निजी स्वतंत्र भूमिका की एक पूरी अवधारणा देती है और उसे आल्थुसर की तरह के ‘अस्तित्वहीन’ जीवन के भाव बोध से मुक्त होने का रास्ता भी बताती है। इसके विपरीत जब हम अपनी कामनाओं के बारे में किसी प्रकार की फंतासी में फंस जाते हैं, तब अगर वह ईर्ष्या की तरह अन्य की किसी चीज की कामना की तरह की कोई अधम वृत्ति नहीं है, तब भी वह वास्तव में जितनी हमारी अपनी नहीं होती उससे ज्यादा हमारे से अन्यों की कामना की कल्पना होती है। यह हमारी अपने बारे में गढ़ ली गई एक दिव्यता की फंतासी भी होती है। आलोचना का दायित्व लेखक को उसकी काल्पनिक दुनिया से निकाल कर ठोस जमीन पर उतारने की होती है। इस दृष्टि से भी नीलकांत जी पर विचार करने की जरूरत है ।

https://www.youtube.com/watch?v=OdrphbAPVQM




रविवार, 26 मार्च 2017

सीपीआई(एम) के सामने एक और राजनीतिक और सांगठनिक चुनौती

कामरेड सीताराम के राज्य सभा के कार्यकाल के अंत के मुहाने पर :

-अरुण माहेश्वरी

आज के 'आनंदबाजार पत्रिका' में छपी एक खबर से लग रहा है कि सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी का बहुमत भारत के राजनीतिक यथार्थ से अब भी कोई सही शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है, बल्कि पार्टी के सर्वोच्च स्तर का नेतृत्व अब भी एक प्रकार की गुटबाज़ी में पूरी तरह से मुब्तिला है ।

राज्य सभा में कामरेड सीताराम येचुरी की उज्जवल भूमिका से सारी दुनिया परिचित है । विरोधी भी उनकी अकाट्य दलीलों और बेहद संतुलित, लेकिन उतने ही गहराई तक चोट करने वाले विद्वतापूर्ण वक्तव्यों के क़ायल है । वे भारतीय संसद में वामपंथ की विवेकपूर्ण आवाज के एक सशक्त प्रतिनिधि है । कोई उनकी बातों से तीव्र मतभेद रखने के बावजूद आज के सत्ताधारी दल के सर्वाधिकारवादी रुझान को देखते हुए सभी विपक्षी दलों के बीच जरूरी संवाद क़ायम करने और एक संयुक्त रणनीति तैयार करने की उनकी योग्यता को अस्वीकार नहीं सकता है ।

कामरेड सीताराम का राज्यसभा का काल इसी जुलाई महीने में पूरा होने वाला है । उनके लगातार दो अवधि से राज्य सभा के सांसद रहने के नाते सीपीआई(एम) के सामने अपनी एक सांगठनिक सिद्धांत की समस्या भी है जिसके अनुसार वे किसी सांसद को राज्य सभा में दो बार से ज्यादा बार नहीं भेज सकते हैं ।

इसके अलावा सीपीआई(एम) की एक राजनीतिक मजबूरी भी है कि उसके अंदर बहुमत वाले गुट ने कांग्रेस के साथ पार्टी की साझा लड़ाई पर रोक लगा रखी है । इसी गुट ने पश्चिम बंगाल में पिछले विधान सभा चुनाव के वक़्त कांग्रेस के साथ किये गये सीटों के समझौते की पार्टी की हार के बाद भर्त्सना की थी ।

इस प्रकार, सीताराम को फिर से राज्य सभा में भेजने के मसले पर विचार के पहले, सीपीआई(एम) को अपनी कुछ सांगठनिक नीतियों और राजनीतिक लाइन पर भी नये सिरे से विचार करना पड़ेगा । अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो सीताराम के न रहने पर अभी के दुर्दिनों में भारतीय संसद से वामपंथ की प्रभावशाली उपस्थिति वस्तुत: ख़त्म सी हो जायेगी ।

सीपीआई(एम) के सामने इस प्रकार की एक आसन्न सांगठनिक और राजनीतिक समस्या की पृष्ठभूमि में हम एक बार फिर यह कहना चाहेंगे कि भारतीय वामपंथ को यह पूरी तरह से समझ लेना चाहिए कि भारत की राजनीति की जिस ज़मीनी सचाई की समझ पर उनकी अब तक की राजनीतिक और सांगठनिक नीतियाँ टिकी रही है, वह सचाई पूरी तरह से बदल चुकी है । अगर अवसाद की अभी की दशा में वामपंथ ने सचमुच आत्म-हत्या करने का निर्णय नहीं लिया है तो उसे तत्काल अपने को गुटबाज़ बहुमतवादियों की झूठी सैद्धांतिकता के तमाम दबावों से मुक्त करना होगा । सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष ताक़तों के संयुक्त मोर्चे की रणनीति को पूरी आंतरिकता से अपना कर उसके अनुरूप सारे राजनीतिक और सांगठनिक फैसले करने होंगे ।

भारतीय संसद के मंच के अब भी बचे हुए महत्व को समझते हुए उसमें अपनी भागीदारी के सवाल पर किसी सांगठनिक सिद्धांत की कठमुल्ला धारणा के बजाय सभी धर्म-निरपेक्ष दलों के संयुक्त मोर्चे की राजनीति के हित में अपना निर्णय करना होगा । अगर पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) और कांग्रेस एक साथ मिल कर निर्णय लेते हैं, और सीपीआई(एम) का नेतृत्व अपने अंदर की राजनीतिक जड़ताओं से मुक्त होता है तो आज भी यह मुमकिन है कि कामरेड सीताराम को तीसरी बार पश्चिम बंगाल से राज्य सभा के लिये भेजा जा सके ।

सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ संयुक्त संघर्ष के हित में वामपंथ को इस दिशा में बढ़ने से ज़रा भी हिचकना नहीं चाहिए । 

सोमवार, 20 मार्च 2017

अभिनव मुक्तिबोध : साहित्य का पुनर्संदर्भीकरण (recontextualisation)


-अरुण माहेश्वरी

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अभिनव मुक्तिबोध : साहित्य का पुनर्संदर्भीकरण (recontextualisation)
-अरुण माहेश्वरी

सिर्फ रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, अज्ञेय, केदारनाथ सिंह और साहित्य के स्वघोषित महापौर अशोक वाजपेयी ही नहीं, लगता है, यह समय है जब एक बार फिर से मुक्तिबोध को भी पुनर्विचार के दायरे में लाया जाए। वे पिछले पांच दशक से भी ज्यादा समय से हिंदी की साहित्य संबंधी चिंताओं के केंद्र में हैं। लेकिन बीतते समय के साथ, जैसे वैष्णव धर्म के वज्र को उठा कर ब्राह्मणों ने शैवों को लगभग व्रात्य, अशुद्ध जीवन व्यतीत करने वाले श्मशानवासी, नरमुंडों में मद्यपान करने वाले कामवासनाओं की भयंकर क्रियाओं में लिप्त कापालिक, किसी कर्म में विश्वास न करने वाले संहारकर्ता भैरव के पुजारी भर बना कर छोड़ दिया और दिलचस्प रूप में, फिर भी, शैवानुशासन ग्रहण करने को तीक्ष्ण बुद्धि ब्राह्मण का अधिकार बता कर उसे ब्राह्मणवाद में पूरी तरह से आत्मसात कर लिया, लगभग उसी तरह हिंदी साहित्य जगत के पंडे-पुजारी भी शायद इसी बात का इंतजार कर रहे हैं कि मुक्तिबोध को उनकी विशिष्टता के सभी तत्वों से विरेचित करके उन्हें किसी सुदूर अतीत की पूजनीय निष्प्राण प्रतिमाओं की कतार में शामिल कर लिया जाए ताकि, भले भैरव की तरह ही क्यों न हो, उन्हें सिर्फ और सिर्फ पूजा का पात्र बनाया जा सके।

यह सच है कि हममें से कइयों का अब तक यह विश्वास बना हुआ है कि इन पंडों-पुजारियों की हडि़डयों में इतना दम नहीं है कि वे मुक्तिबोध को अपने पंजों में कस सके। ऐसी कोशिशों से उनके पंजों की हड्डियों के चटख जाने का खतरा है। लेकिन समय की अपनी एक स्वाभाविक जड़ता भी है। उससे तभी किसी सत्य को बचाया जा सकता है जब उसे, संयोगों के नए बिंदु पर, अतीत के गहरे खोल में जाकर, पुनर्अ‍र्जित किया जाए, कह सकते हैं - पुनर्संदर्भित किया जाए। एक प्रकार के पूर्ण प्रत्यावर्तन, अभिनवगुप्त के ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्श की तरह, जीवन के नवीनतम समय में उसे फिर से व्याख्यायित करके फिर से अपनाया जाए।
 
बहरहाल, पिछले तमाम वर्षों में मुक्तिबोध पर लिखने के कई मौके आए। खास तौर पर, 2013 में उनके जन्मदिन के अवसर पर उनके समग्र व्यक्तित्व पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए हमने बहुत संक्षेप में उन पर जो लिखा, उसे यहां देना चाहूंगा। हमारी उस टिप्पणी का शीर्षक था - ‘मुक्तिबोध का संदेश’। इसमें हमने लिखा था -
 
‘‘मुक्तिबोध ने जीवन में खूब लिखा। नेमीचंद जैन ने छ: खंडों में जो मुक्तिबोध रचनावली संकलित की है, उसके अतिरिक्त भी उनका लिखा काफी कुछ है। खुद नेमी जी ने विभिन्न कारणों से ऐसे छूट गये लेखन का जिक्र किया है। आज तक प्रकाश में न आ पायी उनकी रचनाओं में एक उपन्यास भी है, जिसके कम्पोज हुए 80 पृष्ठों को नेमीजी ने प्रकाशक के पास देखा था, लेकिन बाद में उसका एक बिखरा हुआ खंडित रूप ही दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘पक्षधर’ के जरिये नेमीजी के हाथ लग पाया जिसे मुक्तिबोध रचनावली के तीसरे खंड के अंत में संकलित किया गया था। 1943 में ही उन्होंने अज्ञेय जी के साथ मिल कर हिंदी साहित्य के एक सर्वाधिक चर्चित तारसप्तक प्रकल्प की योजना बनायी थी। वह किसी एक का उद्यम नहीं, बल्कि सातों परस्पर-परिचित कवियों का एक सहयोगी प्रकल्प था। मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। नेमीचंद जैन ने अन्यत्र भी तथ्यों से इस परियोजना में मुक्तिबोध की खास भूमिका को रेखांकित किया है। अपने समय की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तिबोध लिखते रहे। ‘नया खून’ साप्ताहिक पत्रिका के तो वे खुद संपादक थे।
‘‘इन सबके बावजूद गौर करने लायक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाया था। 11 सितंबर 1964 के दिन उनकी मृत्यु हुई। उसके पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीनों बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास)  प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूरी खाक धूल’ प्रकाशित हुआ। 1980 में ही ‘राजकमल’ से छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, जिसका पेपरबैक संस्करण 1985 में निकला। मुक्तिबोध रचनावली हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। 1975 में ही अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ ‘मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया’ प्रकाशित होगया था।
‘‘अशोक वाजपेयी ने ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की भूमिका में लिखा है कि उनकी कविता के पहले संकलन के प्रकाशन से लेकर 15 वर्षों बाद प्रकाशित हुए उनके इस दूसरे संकलन के बीच के काल में हिन्दी कविता पर मुक्तिबोध एक तरह से छाये रहे हैं : अगर किसी बुजुर्ग से युवतम पीढ़ी अपने को जोड़कर प्रामाणिकता और सार्थकता पाने को उत्सुक है तो मुक्तिबोध से ही।“
‘‘1970-71 का ही वह काल था जब हम सरीखे लेखकों का लेखन में बिस्मिल्लाह हुआ था। सचमुच मुक्तिबोध का बोलबाला था। जहां देखो, हर नौजवान लेखक मुक्तिबोध की चर्चा में लगा हुआ था। पत्र-पत्रिकाओं में लंबे-लंबे लेख लिखे जा रहे थे।
‘‘सोचने की बात यह है कि अपने इतने विपुल लेखन, तमाम स्तरो पर निरंतर साहित्यिक सक्रियता और तारसप्तक (1943) की तरह के सर्वाधिक चर्चित आयोजन के योजनाकार और भागीदार होने के बावजूद जो मुक्तिबोध अपने जीवित काल में उतने प्रभावशाली नहीं दिखाई देते, (यद्यपि एक समय वे प्रलेस के प्रादेशिक नेतृत्व में थे, और सभी साक्ष्यों के अनुसार अपने समय के कई महत्वपूर्ण लेखकों से निरंतर संपर्क में भी थे), वे मृत्यु के उपरांत, खास तौर पर सन् ‘67 के बाद 70 के पूरे दशक में क्यों अचानक हिंदी के पूरे साहित्य-विमर्श पर पूरी तरह से छा जाते हैं?
‘‘इस सवाल के साथ यदि आज हम मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन करें तो हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ऐसी बहुत सी चीजें सामने आ सकती है जो संक्रमण के किसी भी दौर को और उसमें व्यक्ति विशेष की भूमिका को गहराई से समझने-परखने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होती है।
‘‘60 के दशक के उत्तराद्‍र्ध का वह दौर हिंदी में साठोत्तरी, बांग्ला से प्रभावित भूखी और श्मशानी पीढ़ी का दौर था। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन इसके पहले ही दिशाहीन होकर बिखर चुका था। परिमलवादी भी सीआईए द्वारा चालित ‘एनकाउंटर’ और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के कीचड़ से कलंकित होकर अपना प्रभाव गंवा चुके थे। यह साहित्य में चरम हताशा, अराजकता और मूल्यहीनता का दौर था। कोलकाता के लेखक मुर्दे की अध्यक्षता में गोष्ठी करते थे। जीवन की तमाम वर्जनाओं को तोड़ने के नाम पर जुगुप्सा की हद तक अश्लीलता इस लेखन की पहचान थी। अकविता, अकहानी का एक और अबूझ सा आंदोलन दस्तकें दे रहा था।
‘‘सामाजिक स्तर पर पूंजीवादी दुनिया से जुड़े तीसरे विश्व का आर्थिक दिवालियापन, सामाजिक मूल्यहीनता और राजनीतिक तानाशाही भारत में भी निपट नंगे रूप में प्रकट हो रहे थे। जघन्य सामाजिक विषमता, व्यापक बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और खाद्यान्नों के अभाव से जनता के तमाम स्तरों में गहरी निराशा और मोहभंग की स्थिति थी।
‘‘सवाल था कि जनता का यह मोहभंग कैसे व्यक्त हो?
‘‘वामपंथ का अपना संकट था। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित होगयी। शासक दल के साथ चिपकी सीपीआई ने प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की कोई साख नहीं रख छोड़ी थी। प्रतिरोध की ताकतों में वामपंथ की ओर से एक ओर जहां सीपीआई(एम) थी, तो दूसरी ओर सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ का दक्षिणपंथी गठबंधन। इसी परिस्थिति में सन् ‘67 के आम चुनाव में पहली बार भारत के आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस दल के शासन की 20 सालों की इजारेदारी टूटी।
‘‘ऐसे समय में साहित्य आंदोलन की बागडोर पुराने, साख गंवा चुके सीपीआई के अधीन प्रगतिशीलों के हाथ में नहीं रह सकती थी। नये जनवादी साहित्य आंदोलन के लिये साहित्य के नये, संघर्षशील और जनवादी प्रतिमानों की जरूरत थी। व्यापक मोहभंग, दिशाहीनता और तनाव के ऐसे काल में ही काष्ठवत हो चुके साहित्य के ‘प्रगतिशील’ प्रतिमानों के विपरीत मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, उनका संशय और उनके जनतांत्रिक सरोकार हिंदी साहित्य की दुनिया के लिये किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह सुखदायी और साहित्य के जनवादी प्रतिमानों के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देने वाली आलोचना दृष्टि साबित हुई। साथ ही, उनकी कविताएं भी काव्य-चर्चा के केंद्र में आगयी।
‘‘इसी मुक्तिबोध विमर्श ने हिंदी में प्रेमचंद शताब्दी के मौके पर शुरू हुए नये जनवादी विचार-मंथन को नया रूप दिया और 1982 में हिंदी और उर्दू के लेखकों के सबसे बड़े संगठन जनवादी लेखक संघ का जन्म हुआ। प्रगतिशील आलोचक-प्रवर रामविलास शर्मा अंत तक मुक्तिबोध की मघ्यवर्गीय व्याधियों की ओर इशारा करते रह गये; लेकिन ‘इतिहास और आलोचना’ वाले इसी परंपरा के दूसरे रथी डा. नामवर सिंह ने 1968 में ही ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध का लोहा मानते हुए कहा था कि  अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।
‘‘यह ‘नई कहानी’ के ईमानदार समीक्षक नामवर सिंह की एक स्वाभाविक आत्मोपलब्धि थी।
‘‘कहना न होगा, इतिहास में मुक्तिबोध की इसी ‘एक ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में मौजूदगी ने उन्हें मुक्तिबोध बनाया।
‘‘आज फिर एक बार राजनीति और विचारों के क्षेत्र में भारी दिग्भ्रम और असमंजस की स्थिति है। वैश्वीकरण की चकाचौंध, भारी सामाजिक विषमता। पूरा समाज निराशा और व्यापक मोहभंग की कगार पर है।
‘‘भारतीय वामपंथ के सामने फिर एक बार अपने पुनर्गठन की चुनौती है।
‘‘मुक्तिबोध ने अपनी पहचान को छिपाते हुए कभी सीपीआई के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे के नाम भारी मन से एक लंबे पत्र में लिखा था : “The profoundly artistic and valuable progressive literary works are the best answer to the Reaction, because such works will have lasting value and profound impact. Merely ideological attitudes, in place of profound meaning and artistic excellence will not make progressive writers more influencial.
“...self-criticism on the part of progressive thinkers, critics, and writers is long over-due.”
(प्रतिक्रिया का सर्वोत्तम उत्तर बहुत ही गंभीर कलात्मक और मूल्यवान प्रगतिशील साहित्यिक लेखन हो सकता है, क्योंकि ऐसे लेखन का टिकाऊ मूल्य और गहन प्रभाव होगा। गहन अर्थ और कलात्मक श्रेष्ठता की जगह महज विचारधारात्मक दृष्टि प्रगतिशील लेखकों को प्रभावशाली नहीं बनायेगी।
...प्रगतिशील विचारकों, आलोचकों और लेखकों को काफी पहले से ही आत्म-समीक्षा की जरूरत है।)
‘‘लगता है कि जैसे ऐतिहासिक परिघटनाओं का एक और वृत्त पूरा हो चुका है। ऐसे समय में मुक्तिबोध से शिक्षा लेते हुए यही कहना होगा कि आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है। ’’






(2)

इसप्रकार, मुक्तिबोध पर लिखने के बहाने पूरा बल जिस बात पर पड़ा, वह था - ‘‘आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है।

मुक्तिबोध के बारे में इस परिचयात्मक टिप्पणी से ही जाहिर है कि जो शख्स एक पूरे समाज को आत्म-समीक्षा के लिये मजबूर करता दिखाई दें, वह खुद समग्र रूप से पुनर्रीक्षण के इस दौर में किसी भी प्रकार की समीक्षा के दायरे से बाहर कैसे रह सकता है ! खास तौर पर तब तो और भी नहीं, जब हम देखते हैं कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना के दो प्रमुख आलोचक, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह मुक्तिबोध पर लिखने के बाद ही समकालीन कविता पर अपने लेखन की कलम को तोड़ चुके हैं। नामवर सिंह ने उन्हें, जैसा कि ऊपर कहा गया है, साहित्य में एक ईमानदार उपस्थिति के ‘शिव’ तत्व की अंतिम पहचान देकर हिंदी कविता में संधान की अपनी साधना को विराम दे दिया और फिर कहानी की ओर रुख किया। और, नामवर सिंह की ‘कविता के नए प्रतिमान’ के नौ साल बाद, डा. रामविलास शर्मा ने उसके प्रत्युत्तर में लिखी गई अपनी किताब, ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में मुक्तिबोध को उनके ‘अस्थिर भावबोध और वैचारिक उलझनों के विखंडित व्यक्तित्व’ के अस्तित्वीय अपराध के दोष के चलते अबूझ मान कर उन्हें मृत्यु को प्राप्त करने का दंड सुना, अपनी कलम तोड़ दी थी।

वैसे यह सच है कि आज डा. रामविलास शर्मा की किताब ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ की समीक्षा से ही मुक्तिबोध पर पुनर्विचार का कोई नया सिलसिला  शुरू करना सबसे आसान और माकूल तरीका हो सकता है।

डा. शर्मा की इस किताब की एक सबसे बुनियादी समस्या है कि उन्होंने अस्तित्ववाद के बारे में अपनी एक मोटी सी समझ का सैद्धांतिक ढांचा तो विकसित कर लिया लेकिन वे जिस साहित्य को अस्तित्ववादी बताना चाहते हैं, उसे नहीं जाना। जो आलोचक किसी एक सैद्धांतिक ढांचे में साहित्य की प्रवृत्तियों पर राय दिया करते हैं, वे कितने ही ज्ञानी-मुनी क्यों न हो, अंतत: उनके सारे विश्लेषणों की मूल्यवत्ता उस साहित्य विशेष के अवलोकन पर ही निर्भर करती है। अर्थात, इस मामले में उनका पहले से अर्जित ज्ञान का ढांचा काम नहीं आता है। उसे साहित्य के गहन अवलोकन से ही बार-बार अद्यतन करने की जरूरत पड़ती है।

लेकिन डा. शर्मा की तरह के लोगों की समस्या यही होती है कि वे साहित्य से शक्ति अर्जित करने के बजाय अपनी शक्ति के बल पर साहित्य के मुकाबले में उतरा करते थे। आईंस्टाईन ने क्वांटम फिजिक्स की व्याख्या के सिलसिले में कहा था कि एक बड़ी प्रक्रिया, जिसे आप ईश्वरीय विधान भी कह सकते हैं, में उसके अनुषंग के तौर पर साथ-साथ ऐसे और भी कई छोटे क्वांटम आसिलेशन्स (quantum oscillations) होते रहते हैं, जिन्हें यह ईश्वरीय विधान नजरंदाज करता है। और इन्हीं दोलनों को देखने में अपनी असमर्थता के कारण जो ईश्वर धोखा नहीं देता, वह खुद धोखा खा जाता है। इसीलिये क्वांटम भौतिकी अन्तत: भौतिकी है, जो किसी ईश्वरीय धर्मशास्त्र के निर्देशों पर नहीं चला करती है।

अस्तित्ववाद के बारे में पुरानी, अर्थात सोवियत संघ के जमाने की, मार्क्सवादी बद्धमूल अवधारणा यह रही है कि ‘यह एक अतार्किक धारा है, एक ऐसा विश्व दृष्टिकोण जो बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की मनोदशा के अनुरूप होता है। यह संकट में फंसे हुए सतही आशावादी, बुर्जुआ उदारतावाद का विश्व दृष्टिकोण है जो इस युग की तूफानी घटनाओं के सामने टिक नहीं पा रहा है। इसके धर्मीय या अनीश्वरवादी, सभी रूपों की मुख्य समस्या आदमी के जीने के तर्क की तलाश है।’ सोवियत काल के मार्क्सवादी विद्वानों ने इसे मार्क्सवाद के विकल्प की तलाश की बाकी अनेक बुर्जुआ कोशिशों से जोड़ते हुए कहा था कि यह ज्ञानप्रसार काल के ‘तर्क और बुद्धिवाद का विलोम’ है। तर्क-बुद्धिवाद प्रत्येक चीज को जांच का विषय मानने के कारण निवै‍र्यक्तिक होता है। अस्तित्ववाद इसी निवै‍र्यक्तिकता का विलोम है।

अस्तित्ववादी चिंतन की यह एक बुनियादी मान्यता रही है कि दैनंदिन जीवन की आपाधापी में मनुष्य अपने अस्तित्व के प्रति असजग रहता है। उसे इसका बोध तभी होता है, जब वह किसी सीमांत पर, मृत्यु के सम्मुख खड़ा होता है। और इसी अस्तित्वबोध के साथ आदमी अपने स्वतंत्रता के बोध को भी पाता है। सिर्फ समाज के प्रति नहीं, वह खुद अपने प्रति जिम्मेदार होता है। और यही अवबोध व्यक्ति को अपने चारों ओर जो भी घटित हो रहा है, उसके प्रति एक प्रकार के अपराध-बोध से ग्रसित करता है। इतिहास की हर घटना के प्रति मनुष्य को जिम्मेदार मानने के नाते, वह जीवन में अवसरवाद और अनुसरणवाद का विरोधी है।

पुराना मार्क्सवाद स्वतंत्रता की इस व्याख्या को आत्मगतवादी (Subjective), निवै‍र्यक्तिकता का विलोम मानता है। चूंकि यह आदमी के अस्तित्व को उसके अन्तर्मन से जोड़ कर देखता है, इसीलिये उस पर आरोप है कि वह सत्य को हमेशा आत्मगत मानता है, वस्तुगत नहीं। (देखिये Progress Publication, Moscow द्वारा प्रकाशित - Dictionary of Philosophy)

डा. रामविलास शर्मा भी जब अस्तित्ववाद पर विचार करते हैं तो मोटे तौर पर मास्को के विद्वानों की दी हुई अस्तित्ववाद के बारे में इसी प्रकार की एक समग्र समझ के जड़ीभूत ढांचे में कैद रहते हैं। किर्केगार्द के बारे में कहते हैं - ‘‘वह भौतिकवाद की छाया से दूर थे, वह हेगेल से भी बढ़ कर आइडियलिस्ट थे।’’(रामविलास शर्मा, अस्तित्ववाद और नयी कविता, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ - 93)

किर्केगार्द की प्रसिद्ध कृति है - DIAPSALMATA (Either/or)। इसका पहला वाक्य ही है - ‘‘कवि क्या है? एक नाखुश आदमी जिसके अंतर में गहरी पीड़ा छिपी है, लेकिन जिसके होठों की बनावट ऐसी है कि जब उसका दुख और रूदन इन होठों से गुजरते हैं, तो वे मधुर संगीत की तरह सुनाई देते हैं।’’
( What is a poet ? An unhappy man who hides deep anguish in his heart, but whose lips are so formed that when the sigh and cry pass through them, it sounds like lovely music)

और आलोचक, जो कवि को सौन्दर्यशास्त्र के नियम बताते हैं, ऐसा नहीं, वैसा करो, उनके बारे में वह कहता है कि ‘‘सही है कि एक आलोचक कवि जैसा ही दिखता है, बस उसके अंतर में कोई पीड़ा नहीं होती, उसके होठों पर कोई संगीत नहीं होता।’’
(Of course, a critic resembles a poet to a hair, except he has no anguish in his heart, no music on his lips)

यह जगह किर्केगार्द की कविता, उनके दार्शनिक, धर्मशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विचारों और काव्य में ध्वनि सिद्धांतों पर चर्चा करने की नहीं है। और न यह जगह किर्केगार्द से लेकर उनकी परंपरा के मार्सेल, यास्पर्स, बेद्‍र्यायेव अथवा अनीश्वरवादी अस्तित्ववादी हाइडेगर, सार्त्र, कामू के विचारों की पूरी श्रृंखला पर ही विस्तार से चर्चा की है। सार्त्र कहते है कि मनुष्य मानवीयता को अर्जित करता है, इस अर्जन से आत्मसात किये गये उसके उद्देश्य मानव मात्र के लिये हितकर होते हैं। तत्कालीन मार्क्सवादियों ने मनुष्य के द्वारा अर्जित इस सत्य को ही मध्यवर्गीय दुर्बल चरित्र का प्रमाण बताया। डा. शर्मा तो यहां तक चले गये कि योरोप में हिटलर के हमले से फ्रांस एक झटके में गिर गया, इसकी वजह यही थी कि ‘‘वहां का मध्यवर्ग जिस दुर्बलता से ग्रस्त था, उसका एक रूप था अस्तित्ववाद।’’(वही, पृष्ठ - 94) इसके विपरीत इतिहास का सच यह है कि प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त होने वाला देश फ्रांस ही था, इसीलिये वहां का जनमत द्वितीय विश्वयुद्ध से बचना चाहता था, ठीक वैसे ही जैसे एक समय में स्तालिन भी बचना चाहते थे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि फ्रांस के लोगों ने युद्ध में लड़ने से इंकार कर दिया था। 1939 में जब हिटलर ने पोलैंड पर कूच किया तब हिटलर की उम्मीदों के विपरीत पश्चिमी यूरोप के देशों ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी, जिनमें फ्रांस भी शामिल था। जून 1940 में, जब हिटलर की सेना के सामने फ्रांस का पतन हुआ, फ्रांस की सेना मैदान छोड़ कर भागी नहीं थी, बल्कि आखिरी दम तक लड़ती रही। फ्रांस की जनता ने फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध को लगातार जारी रखा था।

किर्केगार्द की बातों में हमें भले ही शैवी नाद के सर्जनात्मक, शक्तिस्वरूप विसर्ग की तरह की कोई चीज दिखाई दें, लेकिन डा. शर्मा उसे ‘‘भौतिकवाद की छाया से ही दूर ’’ कह कर लताड़ने और फ्रांस की पराजय के लिये अस्तित्ववाद को जिम्मेदार मानने में एक क्षण के लिये भी दुविधा महसूस नहीं करते ! जबकि, उनकी बातों से भी यही लगता है कि वे खुद इस पराजय को मनुष्यों से पूरी तरह स्वतंत्र, किसी वस्तु सत्य से जोड़ कर नहीं देख रहे हैं ! जब अस्तित्ववादी कहते हैं कि ‘‘मनुष्य स्वयं अपने उद्देश्यों को निश्चित करके जीवन को सार्थक कर सकता है’’ तो वे इस सोच को ‘‘दर्शन और साहित्य दोनों में एक हानिकारक प्रवृत्ति’’ करार देते हैं ! लेकिन खुद मनुष्य के अंतर की दुर्बलता को राष्ट्र की पराजय का कारण बताने से परहेज नहीं करते ! दरअसल, विचारधारा से जुड़ी चेतना और अस्तित्व में निहित चेतना में पहली यथार्थवादी और दूसरी अस्तित्ववादी है, इस प्रकार की बातों का कोई तुक नहीं है !





(3)

मार्क्स ने कहा था, मनुष्य अपने भाग्य का निर्णय खुद करता है, लेकिन हमेशा उपलब्ध परिस्थिति की सीमा में। सोवियत काल के आधिभौतिक मार्क्सवाद में ‘उपलब्ध परिस्थिति’’ की बात को तो याद रखा जाता था, लेकिन इस कथन को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया जाता था कि ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्णय खुद करता है’’। कहना न होगा, यही वह भटकाव रहा है जो माक्‍र्सवाद को एक प्रकार के नियतिवाद में तब्दील करके उसे मानव मन की भौतिकता के विषय से पूरी तरह से काट देता है, साहित्य के विवेचन में उसकी सृजनात्मकता का हनन करता है। और इसी वजह से डा. शर्मा सरीखे आलोचक बेधड़क मुक्तिबोध के संदर्भ में अपने ज्ञान की इस महान बात को दोहरा देते हैं कि ‘‘परिस्थितियों का सही ज्ञान न होगा तो उद्देश्य चाहे जितना मानववादी हो, उसे कार्यरूप में परिणत करने का फल मनुष्य की इच्छा के विपरीत होगा। ‘‘ (वही, पृष्ठ- 95) लेकिन गौर करने की बात है कि यहां भी अंत में मामला ‘सही और गलत ज्ञान’ पर ही आ टिकता है ! यह अन्तत: आदमी के अन्तर्जगत से जुड़ा विषय ही है, वस्तुगत नहीं !

डा. शर्मा के समय से लेकर आज तक गंगा से बहुत पानी बह गया है। समाजवादी शिविर, जिसने दुनिया की गति को अपनी तरह से बदल देने का ठेका लिया था, वह खुद अपने अस्तित्व को गंवा बैठा है। और इसी प्रकार, मार्क्सवादी चिंतन की इस प्रकार की आधिभौतिक, फतवा सुनाने वाली धाराओं का भी कोई दाम नहीं रह गया है।

आज द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा का पूरा महल इस सत्य पर टिका हुआ है कि इसमें अब तक अस्तित्व की प्राथमिकता की जितनी भी बातें क्यों न की गई हो, चेतना और अस्तित्व की द्वंद्वात्मकता को स्वीकारना ही प्रकारांतर से दोनों को समान्तराल पर रखना है। आज का प्रमुख मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नई आधारशिला पर रखने के अपने प्रकल्प की ओर बढ़ता है तो वह शुरू में ही द्वन्द्वात्मकता को निश्चयात्मक रूप से संश्लेषण (synthesis) की किसी प्रक्रिया में देखने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगत मिश्रण के रूप में देखता है। (not as a universal notion, but as “dialectical [semiotic, political] matters,” as an inconsistent (non-All) mixture.)

गौर करने की बात यह है कि भारतीय योगसाधना में यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं। जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इसी विकल्पात्मक महाभाव का ही विवेचन करते दिखाई देते हैं। चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते है, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप से भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है। माक्‍र्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है।

जैसे भारत के कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त ‘तंत्रालोक’ में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है। ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की। (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की) यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है। (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् -।।141।।)


(4)

यहां इन तमाम बातों के कहने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि मुक्तिबोध के किसी भी पुनर्मूल्यांकन के वक्त डा. रामविलास शर्मा के उनके बारे में मत को, अस्तित्ववाद के बारे में उनके सोच को माक्‍र्सवादी सोच मान कर चलने से हम शुरू में ही इतनी उल्टी दिशा को पकड़ लेंगे जो हमें अपने गंतव्य से दूर, और दूर ही ले जायेगी। सचाई यह है कि रचनाकार की सामाजिक स्थिति और उसकी आकांक्षाओं के द्वैत पर टिका डा. शर्मा का पूरा सोच मनुष्य की आत्मगतता की अपनी भौतिकता (Materialism of subjectivity) को एक सिरे से खारिज करके चलने के एक अजीबोगरीब आधिभौतिक (आस्थावादी) सोच पर टिका हुआ है। इसीलिये डा. शर्मा अस्तित्ववाद के संदर्भ में यौन, क्रांति, ब्रह्मचर्य या परकीया प्रेम की तरह के विषयों पर जितने निद्‍र्वंद्व भाव से कलम चलाते है वह मार्क्सवाद नहीं, एक प्रकार से कांट की नैतिक विश्व-दृष्टि वाला नजरिया है जिसके बारे में हेगेल की राय थी कि इस प्रकार के नैतिक आदर्श को प्राप्त करने का अर्थ है आत्म-विध्वंस। अर्थात ऐसी नैतिकता के बने रहने के लिये ही जरूरी है कि वह हमेशा अपनी विफलता की कामना करे। यह बात डा. शर्मा के साहित्य के प्रतिमानों पर शत-प्रतिशत लागू होती है।

लेखन का सच लेखक के भौतिक जीवन के बजाय उसकी आकांक्षाओं और सपनों के आत्मगत पहलू की भौतिकता पर आश्रित होता है, जो हमेशा एक प्रकार से उसके भौतिक जीवन की बाधाओं के पार जाने के आत्म-संघर्ष से भी जुड़ा होता है। डा. शर्मा ने मुक्तिबोध के इस आत्म-संघर्ष का कोई मूल्य नहीं लगाया, बल्कि उसका मजाक उड़ाया। लेकिन यथार्थ में देखा गया कि ‘80 के दशक के बाद साहित्य के नये जनवादी उन्मेष के काल में मुक्तिबोध का यही आत्म-संघर्ष साहित्य में जनवादी मूल्यों के संघर्ष की पताका बन गया।

डा. शर्मा जब यौन की चर्चा में क्रांति को लाते हैं या ब्रह्मचर्य में परकीया प्रेम को, तब वे इन युग्मों के घटकों की पूरी तरह से भिन्न प्रवृत्तियों की प्रकृति से अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। वे नहीं देखते कि आदमी की कामनाएं और उसकी क्रियात्मक प्रवृत्तियां, ये दोनों पूरी तरह से अलग-अलग चीजें हैं। जीवन की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न आत्मानुभूति और उस आत्मानुभूति पर आधारित हमारे व्यवहार के बीच हमेशा एक गहरी खाई होती है। व्यवहारिक क्रियाकलापों और जिज्ञासाओं, विश्वासों में पूरा मेल नहीं होता है। कहते हैं कि कर्मकांडों का पालन करो, स्वत: आस्था पैदा हो जायेगी। लेकिन सचाई यह है कि आदमी के मानसिक और भौतिक क्रियाकलापों के ये दो पहलू बिल्कुल अलग-अलग, समानान्तर चलने वाले पहलू होते हैं। और इनके बीच कोई मध्यस्थताकारी सूत्र नहीं होता। दरअसल, जब भी कोई विश्वास और व्यवहार को पूरी तरह से एकमेक करके रखने की कोशिश करता है तो लगता है जैसे वह रंगमंच पर कोई परिहास से भरा हुआ नाटक पेश कर रहा हैं । क्योंकि इस प्रकार की वैचारिकता का व्यवहारिक प्रदर्शन या जैविक व्यवहार का आस्थावादी प्रदर्शन सिर्फ एक प्रहसन में ही मुमकिन है । ब्रेख़्त के नाटकों का पूरा ढाँचा इसी प्रकार के आस्था के अभिनय के प्रदर्शन से जुड़े एक गहरे मसखरेपन पर टिका हुआ है ।

विजय तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश अदालत जारी है’ को देखिये। इस पूरे नाटक की बुनावट ब्रेख्तियन ढर्रे की है जिसमें पात्र महज अभिनय करने के लिये इकट्ठा होते हैं और अभिनय के क्रम में ही जिसे वे नाटक समझ रहे थे, वह उनके विश्वास और सच का रूप ले लेता है और जिसे वे अपना सच या विश्वास मान कर चल रहे थे, वह कोरा नाटक या दिखावा प्रतीत होने लगता है । पूरा नाटक एक गहरे अवसादमूलक प्रहसन में बदल जाता है।

रामविलास जी अज्ञेय को उद्धृत करते हैं - ‘‘कलाकार एक प्रकार के मानसिक संघर्ष में जीया करता है। संघर्ष कला की जननी है। और संघर्ष संकल्प ओर परिस्थति में चला करता है।’’ और कहते हैं - ‘‘संघर्ष केवल संकल्प और परिस्थिति में नहीं था, संकल्प और विकल्प में भी था।... संकल्प सबके प्रगतिशील थे। कवि मध्य वर्ग के लेकिन कविता में अपने को सर्वहारा कल्पित करके मध्यवर्ग को गालियां देते थे।’’

डा. शर्मा इन कथित अस्तित्ववादी कवियों की अभिव्यक्ति शैली से किस प्रकार दो-दो हाथ करते हैं, इसके एक उदाहरण को अज्ञेय के ही बारे में उनके लेख में थोड़ी गहराई से परखा जा सकता है । इसमें वे एक जगह लिखते हैं- ‘‘रवीन्द्रनाथ ने निर्झर वाले प्रतीक को बहुत लोकप्रिय बना दिया। ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’ उनका निर्झर शिलाखंडों का भार व्यर्थ करके अंधकार से प्रकाश में बह निकलता है। अज्ञेय कहते हैं - ‘तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के वरिष्ठ पुंज, चाँपे इस निर्झर को रहो।’ (बावरा अहेरी)। निर्झर की आकांक्षा है कि पर्वत उसे चाँपे रहे। यह नये रहस्यवाद की विशेषता है। पुराने रहस्यवाद का निर्झर पत्थरों को तोड़ कर बह निकलता है।’’(रामविलास शर्मा, वही, पृष्ठ 74)

अर्थात ‘निर्झर’ है तो वह रहस्यवाद ही है, भले नया हो या पुराना ! रवीन्द्रनाथ की जिस ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’ से डा. शर्मा को पुराने रहस्यवाद का दर्शन होता है, आइये, जरा हम उस कविता के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर लें,  डा. शर्मा के कथित मार्क्सवाद की सीमाओं का पूरा पता चल जायेगा।

यह कविता रवीन्द्रनाथ के ‘प्रभात संगीत’ शीर्षक संकलन की, जब वे मात्र 21 साल के थे, एक बहुचर्चित कविता है। इस संकलन की कविताओं पर अपने धार्मिक संस्कारों की आध्यात्मिकता के असर को उन्होंने खुद स्वीकारा है। इसी में निर्झरेर स्वप्नभंग के बारे में उन्होंने लिखा - “एक अभूतपूर्व अद्भुत हृदय-स्फूर्ति के दिन निर्झरेर स्वप्नभंग लिखी गयी थी, लेकिन उस दिन कौन जानता था कि उस कविता में मेरे समस्त काव्य की भूमिका लिखी जा रही है।”(जोर हमारा - अ.मा.)

“आजि ऐ प्रभाते रविर कर/ केमने पासिलो प्राणेर ‘पर / केमने पासिलो गुहार आंधारे/ प्रभात पाखीर गान!/ ना जानि केनोरे एतो दिन परे/ जागिया उठिलो प्राण!/ जागिया उठेछे प्राण, / उरे  उथलि उठेछे बारि,/ उरे  प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/ रूधिया राखिते नारी।“
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
प्राणों के इस प्रवाह की गति महा, विशाल समुद्र की ओर थी, “न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण/ मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“। इस महासागर की प्रतिमा ही रवीन्द्रनाथ में बाद में विराट पुरुष, महामानव का रूप लेती है। परवर्ती दिनों की रवीन्द्रनाथ की संपूर्ण राजनीतिक चेतना का बीज रूप जैसे इस कविता में दिखाई देता है। गीतांजलि की प्रसिद्ध कविता ‘भारत तीर्थ’ के ‘एई भारतेर महामानवेर सागरतीरे’ के पूरे रूपक के आधार को आध्यात्मिक अखंड विश्व, असीम और अनन्त ब्रह्मांड से जुड़े उनके विस्तृत हृदय, अकुंठ व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। भारत की गुलामी की जंजीरों ने उनमें आक्रोश तो पैदा किया लेकिन कभी भी पराजय या किसी प्रकार की कुंठा का भाव पैदा नहीं हुआ।

हम यहां रवीन्द्रनाथ के इस प्रसंग की इसीलिये चर्चा कर रहे हैं ताकि रचना में कवि की भाव-भूमि और उसकी अभिव्यक्ति के कभी कोई निश्चित फार्मूले नहीं हो सकते हैं। निर्झरेर स्वप्नभंग के स्फूर्ति-भाव को रवीन्द्रनाथ ने आगे के अपने पूरे साहित्य की भूमिका बताया था। यह रहस्यवादी आध्यात्मिकता के किसी सिद्धांत की पुनरुक्ति का मामला नहीं था।

गालिब का शेर है -
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे

इसीलिये जब तक आप जीवन में हर क्षण खेले जा रहे इन प्रहसनों को देखने की, आस्था और व्यवहार के अभिनयों के सत्य को परखने की दृष्टि हासिल नहीं करेंगे, इनके बीच मेलबंधन के भ्रम में खोये रहेंगे, रचनाकार के मनोभावों को उसकी रचना में देखना असंभव होगा। और ऐसे ही हम, जिसे कहते हैं, ऋजुवचन विरचित शास्त्रों की, मार्क्सवाद की, दुगर्ति करते रहेंगे। हम रचना के इस सच को कभी नहीं समझेंगे कि रचना प्रक्रिया में रचनाकार जब खुद को खुद में खुद से अलग करता है, वही उसकी सृष्टि का क्षण होता है, जिसे रचना का तीसरा क्षण कहते हैं।


(5)

मार्क्स की इस बात को अक्सर उद्धृत किया जाता है कि विचार आदमी की चेतना में बस कर भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं। जाहिर है, ऐसे में आदमी के अंतर की भौतिकता की कभी अवहेलना नहीं की जा सकती है। मार्क्सवाद  के ऐतिहासिक भौतिकवादी और सामाजिक परिवर्तन के पहलू से कम नहीं है तत्वमीमांसा के क्षेत्र में मार्क्सवाद की भूमिका। ‘पूंजी’ के स्तर का राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इतना विशाल काम करने के बाद भी मार्क्स चाहते थे बाल्जक की कृति La Comedie Humaine पर काम करना। लेनिन की Materialism and Empirio-criticism से लेकर ग्राम्शी, लुकाच, वाल्टर बेंजामिन आदि आदि से लेकर अभी अम्बर्तो इको, स्लावोय जिजेक तक के तत्वमीमांसा, सौन्दर्यशास्त्र और मनोविश्लेषण के क्षेत्र के काम क्या मार्क्सवाद-विरोधी काम है ?

जैसे ही हम आत्मगतता की अपनी भौतिकता को स्वीकारेंगे, हमें यह समझ में आने लगेगा कि कैसे किसी भी रचनाकार या विचारक पर विचार उसके आत्म-प्रकाश का विमर्श भी होता है और यह विमर्श ही हमें उसमें नये सत्यों के उद्घाटन का रोमांच प्रदान करता है। यह रचनाकार का आत्म-विमर्श है। रचना के स्वरूप का अवभास ही वह विमर्श है जिसे हम रचनाकार का आत्म-संघर्ष कह सकते हैं। इसी से खुद रचनाकार भी अपने स्तर पर रोमांचित होता है। उसका आत्म प्रकाश और आत्म संघर्ष एक शाश्वत विमर्श है। इसी में रचनाकार की स्वतंत्रता वास करती है। यह स्वतंत्रता ही उसे अपनी शक्ति का बोध कराती है। उसका पूरा रचना जगत इसी आत्म-विमर्श का परिणाम होता है, जो उसमें हमेशा निहित होता है। इस प्रसंग के तात्विक पहलुओ पर हम ऊपर ‘भौतिकवाद-विहीन भौतिकवाद’ की एलेन बदउ की अवधारणा के संदर्भ में विचार कर चुके हैं।

बहरहाल, मुक्तिबोध के ‘समीक्षा की समस्याएं’ लेख को ध्यान से देखियें, आप पायेंगे, वे उसमें लगातार लेखक से जीवन, विचार और रचना में एक प्रकार के घनघोर आदर्शवाद की मांग के दबाव से जैसे जूझ रहे हैं ! उनकी शिकायतें हैं -

‘‘वे काव्य को अपने सिद्धांतों के उदाहरण के रूप में देखना चाहते हैं। चूंकि यह हो नहीं पाता, इसलिए वे बिगड़ पड़ते हैं।’’

‘‘आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री काव्य ! क्या शैले का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ? क्या रवीन्द्र का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ? क्या महादेवी और प्रसाद का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ?’’

‘‘मार्क्सवाद यदि एक विज्ञान है (जैसा कि वह है), तो वैसी स्थिति में उसके लिए तथ्यानुशीलन - जीवनगत और काव्यगत, दोनों एक साथ - प्राथमिक और प्रधान महत्व रखता है।’’

‘‘लेखक महापुरुष बन कर पैदा नहीं होता, वह आदर्शवादी, अध्यात्मवादी, साम्यवादी बन कर नहीं जनमता। वह अपने सामाजिक वातावरण में सांस लेकर अपने परिवेश से प्रतिक्रिया करता है।’’

‘‘साहित्य-क्षेत्र में जो प्रवृत्तियां उत्पन्न होती है, जो प्रश्न उत्पन्न होते हैं, वे सारत: जीवन के प्रश्न है, वे जीवन-स्थितियों और जीवन-प्रवृत्तियों से सम्बन्धित हैं। अतएव, उनके सम्बन्ध में, अधिक गंभीरता और मर्मग्राही दृष्टि के अतिरिक्त आत्म-निरपेक्ष तथ्यानुसंघान और उदार कोमलता आवश्यक है। वे सारे गुण सिद्धांतनिष्ठता के विरोधी नहीं, वरन् उसके पूरक है। समीक्षक को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि लेखक को ईमानदारी की।’’

लगभग 54 पृष्ठों के इस लेख में मुक्तिबोध ने इस प्रकार की जो तमाम बातें कही है, वे सभी तत्कालीन प्रगतिवादी समीक्षा के अवांछित नैतिक दबाव के प्रति उनमें पैदा हुई तीव्र प्रतिक्रिया की बातें ही थी। मुक्तिबोध के जीवन से परिचित सभी यह जानते हैं कि मुक्तिबोध खुद अपने क्षेत्र में प्रगतिशील लेखक संघ के एक प्रमुख संगठक थे। रामविलास जी ने भी उनपर लिखते वक्त इस बात को नोट किया है। लेकिन जब वे खुद प्रगतिवादी समीक्षा के प्रति इतने क्षुब्ध थे, तो इससे प्रलेस में उनकी स्थिति का भी एक अनुमान मिल जाता है। शायद वे थे ‘रमेश’, मुक्तिबोध की ही कहानी ‘नई जिंदगी’ का पात्र, जिसमें ‘‘पढ़ने-लिखने और बात करने का नशा था। अपने विचारों-भावों और इरादों ने ही, उसे इतने जोर का धक्का दिया था कि उसके आघातों से वह धीरे-धीरे सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ता चला गया, और उसकी आज इतनी ताकत हो गयी थी कि वह ‘नेतृत्व की दूसरी पंक्ति’ में आकर बैठ गया था।’’

‘नेतृत्व की दूसरी पंक्ति’ में बैठा आदमी ! यह ‘दूसरी पंक्ति में बैठा आदमी’ कैसा होता है, रमेश ही बताता हैं - ‘‘मुझे एक ऐसा गुरु चाहिए जो छड़ी मारे। वह मुझ-पत्थर में से एक सच्चा मनुष्य पैदा कर सकता है।’’ कहानी में कथावाचक ‘मैं’ उसकी इस ‘आत्महननमयी’ आलोचना से क्षुब्ध हो जाता है।

दरअसल, यह संगठनों के प्रभुत्वशाली नेतृत्व का हमेशा का आजमाया हुआ नुस्खा है - अपने अधीनस्थों को किसी भी बहाने एक अंतहीन आत्म-समीक्षा के चक्रव्यूह में फंसा कर उनसे सार्वजनिक विमर्शों में शामिल होने के हक को छीन लो। कम्युनिस्ट पार्टियों का मध्यवर्गीय नेतृत्व भी अपने मध्यवर्गीय अनुयायियों को हमेशा टुटपुंजियापन से मुक्त होने और डीक्लास होने की अंतहीन कसरत में उलझा कर रखता है। इसीलिये जब हम मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष पर गौर करते हैं, जिसे डा. शर्मा उनके ‘विभाजित व्यक्तित्व का आत्मसंघर्ष’ बताते हैं, वह यदि उनके किसी लाइलाज मर्ज की तरह जान पड़ता है, तो वह मर्ज जितना उनकी जैवी-संरचना की उपज नहीं था, उससे कहीं ज्यादा डा. शर्मा की तरह के प्रगतिशील आलोचकों के नेतृत्व की देन था।

सिद्धांतों का व्यवहारिक रूप अक्सर कुछ क्षुद्र कर्मकांड बन कर सामने आने लगते हैं। इससे दीक्षितों का एक नया संसार तैयार हो जाता है। इसका बहुत सुंदर उदाहरण हम अभिनवगुप्त के तंत्रालोक पर उसके टीकाकारों की व्याख्या के इस उदाहरण में देख सकते हैं।  अभिनव लिखते हैं -
बौद्धज्ञानेन तु यदा बौद्धमज्ञानजृम्भितम् ।
विलीयते तदा जीवन्मुक्ति: करतले स्थिता ।। 44 ।।

अर्थात, बौद्ध ज्ञान के द्वारा जब बौद्ध अज्ञान का विस्तार समाप्त हो जाता है तब जीवन्मुक्ति करतल में स्थित हो जाती है। टीकाकार जयरथ इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं -
‘गुरूणैव यदा काले सम्प्रदायो निरूपित: ।
तदाप्रभृति मुक्तोऽसौ यन्त्रं तिष्ठति केवलम् ।।

अर्थात ‘जिस समय गुरु ने (शिष्य के लिये) सम्प्रदाय का निरूपण किया तभी से यह मुक्त हो गया। (अब जीवित रहने वाला यह शिष्य) केवल यन्त्र के समान रहता है।’ यह आदमी को एक प्रकार की अस्तित्वहीनता की ग्रंथी में डालने का उपक्रम है, उसे आत्म-विहीन (subjective destitute) बनाने का उपक्रम। अब आदमी की अपनी कामनाएं नहीं, दूसरों की उनसे की जाने वाली अपेक्षाओं से उसकी अपने बारे में एक काल्पनिक छवि तैयार होने लगती है। लुइस आल्थुसर अपनी आत्मकथा, The future lasts foever : A Memoir में लिखते हैं कि उन्होंने अपना समूचा वयस्क जीवन इसी भाव के साथ काटा कि जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो। सिर्फ इस डर से कि अन्य, अर्थात उनके पाठक उनकी इस अस्तित्वहीनता को पहचान लेंगे और उनके ढोंग को जान जायेंगे, वे अपने होने का स्वांग भर करते रहें।

अर्थात, दीक्षितों का संसार यांत्रिक मनुष्यों का संसार होता है। गुरूओं की एक सीख यह भी है कि ‘‘दीक्षारहित लोगों के सामने शैवशास्त्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए।’’

‘समीक्षा की समस्या’ के लेखों का एक केंद्रीय विषय तत्कालीन प्रभुत्वशाली प्रगतिशील आलोचना था। यह मुक्तिबोध की ईमानदारी थी कि अपने पूरे समीक्षामूलक लेखन में वे लगातार रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा के विचारों से टकराते हैं, उनसे पीडि़त नजर आते हैं, खुद आत्म-संघर्ष में लगे रहते हैं, लेकिन एक भी स्थान पर इन नेतृत्वकारी लोगों की अधीनता को मान कर उनकी प्रशंसा में कुछ भी कहने से सख्त परहेज करते हैं। इसी अर्थ में हम कहेंगे कि डा. शर्मा ने मुक्तिबोध से अपने को अलग करके ही वस्तुत: मुक्तिबोध को नया जन्म दिया। यह सचाई है कि जिसे नकारा जाता है, उसे ही प्रकारांतर से पैदा किया जाता है।
 

  (6)

हमने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को ‘एक लाइलाज मर्ज की तरह का’ कहा है। जैसे कोई कैंसर हो - जो रुकना भूल जाए, सोना भूल जाए, हर उस चीज को भूल जाए जो मानवीय है, प्राकृतिक है - वही तो कैंसर होता है। अनियंत्रित कोशिका। जीवन का मतलब है सब कुछ भूल कर भी कुछ न भूलना, सब याद रख कर भी कुछ याद न रखना। लेकिन कैंसर में ऐसी कोई धूप-छाह नहीं होती। प्रश्न है कि क्या मुक्तिबोध ऐसी किसी बीमारी से ग्रस्त थे ? यह बीमारी तो हर प्रकार के जड़सूत्रवादी विचारों में फंसे आदमी का रोग है ! फिर मुक्तिबोध में यह कैसे हो सकती है ?

इसकी सचाई की जांच का हमें सही तरीका उनकी सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिनिधि रचना ‘अंधेरे में’ के पूरे ढांचे को थोड़ा विचार के दायरे में लाना लगता है।
 
मुक्तिबोध के जानकार यह जानते हैं कि जयशंकर प्रसाद मुक्तिबोध के लिये लंबे काल तक एक चुनौती बने रहे थे। काफी सालों तक उनकी ‘कामायनी’ से जूझने के बाद उन्होंने उस पर ‘कामायनी : एक पुनर्मूल्यांकन’ शीर्षक से पूरी किताब लिखी, और कहा जा सकता है कि प्रगतिशील लेखक संघ के एक नेतृत्वकारी (भले ही द्वितीय पंक्ति के) व्यक्ति के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। लेकिन, हमारा सवाल है कि मुक्तिबोध क्यों सालों तक कामायनी के पाश से अपने को मुक्त नहीं कर पाये थे ?

खुद प्रसाद ने कामायनी के अपने ‘निवेदन’ और फिर ‘आमुख’ में इसे मनुष्यता के मनोवैज्ञानिक-इतिहास के साथ जोड़ा है।  ‘‘श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है। यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है।.. सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती है। किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति होती रहती है।’’

इसी में वे आगे लिखते हैं - ‘‘आज हम सत्य का अर्थ घटना कर लेते हैं। तब भी उसके तिथि-क्रम मात्र से संतुष्ट न होकर, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते हैं। उसके मूल में रहस्य क्या है ? आत्मा की अनुभूति ! हाँ, उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है। फिर वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती है। किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति होती रहती है।’’

जैसा कि हम जानते है, कामायनी के अध्येता उसे प्राचीन भारतीय दर्शन में शैवमत के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के साथ जोड़ कर देखते हैं। (देखें - डा. परमहंस मिश्र की पुस्तक ‘प्रसाद और प्रत्यभिज्ञादर्शन’, और पाण्डेय शशिभूषण ‘शितांशु’ का लेख - ‘तुम न विवादी स्वर छेड़ो अनजाने इसमें ! (कामायनी के कवि - आलोचकों का सन्दर्भ) विश्वभारती पत्रिका, खंड - 64, अंक 4)

नन्ददुलारे वाजपेयी ने भी जब उन्हें ‘‘हिन्दी का सबसे प्रथम और सबसे श्रेष्ठ शक्तिवादी और आनन्दवादी कवि’’ कहा तो उनका भी शैवमत के भैरव-भाव की ओर ही संकेत था। सचाई यह है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन में जिस परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की सिद्धि के शास्त्र का विधान किया गया है, वह अनेक अर्थों में वही है जिसका हमने स्लावोय जिजेक के हवाले से ऊपर आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के महाभाव, सामस्त्य भाव के तौर पर जिक्र किया है। जैसे बाह्य जगत के सभी व्यापारों के विश्लेषण के लिये बाह्य सामग्री और औजारों का प्रयोग किया जाता है, वैसे ही हेगेल तथा जिजेक के Absolute Recoil (परम प्रत्यावर्तन) के अनुसार व्यक्तियों के आत्म-संसारों को उनके समुदायों के क्रियात्मक परिचय से नहीं जाना जा सकता है। हेगेल सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics) को बोध और अनुभव का विज्ञान (Science of sensation and feeling) कहते हैं। (“The name ‘Aesthetic’ in its natural sense is not quite appropriate to this subject. ‘Aesthetic’ means more precisely the science of sensation  or feeling.Thus understood, it arose as a new science…” Introductory lectures on Aesthetics, George Wilhelm Friedrich Hegel, page - 3)

इस विषय को खोलते हुए ही जिजेक वस्तु में गति के प्रसंग को उठाते हैं और कहते हैं कि मध्ययुग तक भौतिकी की यह मान्यता थी कि किसी भी चीज में गति किसी बाहरी धक्के से पैदा होती है। और, जब अपनी धुरी पर घूमने वाली धरती की तरह की कोई चीज बाहरी कारण से लगातार गतिशील रहती है, तो उस बाहरी कारण को ईश्वर मान लिया गया, जो उसे लगातार चलायमान रखता है। लेकिन सवाल उठा कि यदि कोई धक्का मार कर गति पैदा कर रहा है तो हम उसे महसूस क्यों नहीं करते ? जिजेक बताते है कि कौपरनिकस के पास इस सवाल का कोई सही जवाब नहीं था। इसका जवाब दिया था गैलेलियो ने। उसने कहा कि वस्तु के सामान्य वेग (velocity) को कोई अलग से महसूस नहीं कर सकता है, उसे तभी महसूस किया जा सकता है जब उसे सामान्य से तेज किया जाए । वस्तु के सामान्य वेग में तब तक कोई तब्दीली नहीं आती जब तक उसके अंदर की ही कोई शक्ति उसे नहीं बदलती। गैलेलियो के इसी कथन से वस्तु के अंदर की जड़ता (inertia) की अवधारणा पैदा हुई। बाहरी धक्के के बजाय आंतरिक जड़ता से वस्तु के सामान्य वेग को जोड़ने से ही अन्तरजगत के अपने तर्कों का अपना एक पूरा नया क्षेत्र खुल जाता है। (Slavoy Zizek, Absolute Recoil, Verso, page- 91-92)

कहना न होगा, भारत में अभिनवगुप्त के ‘तन्त्रालोक’ और ‘प्रत्यभिज्ञादर्शन’ का पूरा महल इसी मनुष्य के अंतर के संसार की संधान पर टिका हुआ है, जिसकी जड़ें ब्रह्म-केंद्रित वेदांत दर्शन में होने के बावजूद किसी संसार-विमुख मोक्ष या निर्वाण (निवृत्तिपरकता) में नहीं बल्कि आकांक्षाओं से परिपूर्ण, और दूसरे से तनिक भी अपेक्षा न करने वाले स्वातंत्र्य के भैरव भाव की परमशिव, परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की, संसार में रहते हुए संसार के रूप का परिवर्तन करने की (प्रवृत्तिपरक) साधना के शास्त्र के नाते क्रांतिकारी संभावनाओं से भरा हुआ है। इसीलिये इससे स्वातंत्र्य की ओर उन्मुख इतिहास की द्वंद्वात्मक यात्रा के हेगेलीय दर्शन के आत्मिक-सौन्दर्यशास्त्रीय पक्षों के बहुत गहन विमर्श की ओर बढ़ने की दिशा मिलती है। (देखें : www.svabhinava.org <http://www.svabhinava.org>.)

प्रत्यभिज्ञादर्शन के व्याख्याता कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा किसी नई चीज का संज्ञान नहीं है। न ही पुरानी चीजों का संग्रह। यह स्मृति और प्रत्यक्ष दर्शन के नयेपन का संयोग है जो एक ऐसी पहचान की झलक देता है जो एक ही साथ नया और पुराना, दोनों है। नवीन को पुरातन के रूप में देखना ही चमत्कार है; अस्मिता की प्राप्ति का जादू, जो अपनी प्रकृति में ही हमेशा एक नया अनुभव है। पुरातन को नया बनाना, जो छिपा हुआ है, उसे ज्ञात बनाना, उन दोनों के बीच की पहचान को स्वीकारना, अभिनव का कार्य उसका अंदेशा देता है।

यह हेडेगर के इतिहासीकृत लोकोत्तरवाद (Historicised transcendentalism) से भिन्न नहीं है, बल्कि चौखंभा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित पांच खंडों में तंत्रालोक के 37 आह्निक, और अभिनवगुप्त द्वारा आनंदवद्‍र्धन के ध्वन्यालोक की व्याख्या, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी और तंत्र संबंधी बाकी विपुल साहित्य को देखते हुए नि:संकोच कहा जा सकता है कि हेडेगर और उनकी धारा के पश्चिमी चिंतक अभिनवगुप्त और भारतीय शैवागम के अन्य सभी आचार्यों से बहुत पीछे थे। जिजेक ने हेडेगर को प्राच्य चिंतन से अलग किया बौद्ध दर्शन के निर्वाण के तत्व के आधार पर, उसके शून्यवाद के आधार पर। (Slavoy Zizek, Absolute Recoil, Verso, page- 93-95) अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञादर्शन भी इसी आधार पर अपने को बौद्ध दर्शन से पूरी तरह से अलग करता है।

दरअसल, जीवन की किसी भी प्रचलित अवधारणा को बदलना सबसे कठिन काम है। इसके लिये, जो है उसे सच मानते हुए सारा जोर इस बात पर दिया जाता है ताकि उसके बारे में हमारी समझ बदल सके। अर्थात, जो है, उसके बारे में अपनी समझ पर रहते हुए भी उसमें बदलाव की किसी प्रक्रिया का प्रारंभ पाठक या विचारक भले अपनी कल्पना में ही स्वीकार करें, इसके लिये जरूरी होता है कि जो है, उसे नए परिप्रेक्ष्य या संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए। महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं, शुक्ल जी हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं - यदि हम इन पर किसी पुनर्विचार का प्रस्ताव रखते हैं तो इन्हें एक सिरे से नकारने के बजाय जरूरी है कि इन पर विचार के नये परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत किया जाए। अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में, भारतीय दर्शन की सभी धाराओं को वे जो और जैसी है, उन्हें रखते हुए उन पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन के जरिये नये रूप में विचार करने का एक नया परिप्रेक्ष्य पेश किया था, और कहना न होगा, इसी प्रकार भाष्यकार अभिनवगुप्त स्वयं एक स्वतंत्र तत्वमीमांसक के रूप में सामने आयें। बौद्ध दर्शन के नकार पर टिके शंकर के वेदांत का नकार करते हुए, नकार के नकार के रूप में।

जब विचारों की नई उद्भावना के इस संदर्भ में मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को हम देखते हैं तो उनकी शैली भी वैसी ही है, प्रगतिशील साहित्य के प्रचलित ढांचे को बनाये रखते हुए, उसे एक झटके में तोड़ने के बजाय, उसे एक नया संदर्भ प्रदान करने (recontextualise) करने की शैली। ‘अंधेरे में’ कविता में बीच- बीच में अनायास ही इस प्रकार की जो पंक्तियां आती है कि ‘कविता में कहने की आदत नहीं, फिर भी कह दूं ...’ इसे प्रगतिशील रचनाशीलता के स्वीकृत रूप को सायास बनाये रखने की कोशिश कहा जा सकता है। और बाकी का पूरा ढांचा किसी दु:स्वप्न की तरह का है जिसमें प्रकाश वृत्त में कई असंबद्ध कथा सूत्रों का प्रवेश होता है और जब भी उस दु:स्वप्न में किसी अघटन का बिंदु आता है, स्वप्न टूट जाता है। रचनाकार अपनी मूलभूत तलाश में फिर लग जाता है।

रवीन्द्रनाथ का एक लेख है - ‘आत्मबोध’। जीवन के तमाम अघटन के बीच से मनुष्य की युगों-युगों की, अपने सच्चे स्वरूप को जानने के आत्मबोध की, मंजिल दर मंजिल यात्रा का एक बयान। इसमें एक जगह वे लिखते हैं - ‘‘मनुष्य के सब दुखों का मूल कारण ही यह है कि वह पूरी तरह प्रकाश में नहीं आता, वह अपने अंधेरे में , अपनी संकीर्ण स्वार्थमूलक कामनाओं में भटका रहता है, वह अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियों से बाहर नहीं निकल पाता। इसीलिए उसके हृदय से यह प्रार्थना उठती है, ‘हे प्रभु! आप मुझमें स्वयं को प्रकाशित करो।’ इस प्रकार प्रकाश्य रूप में आने की मनुष्य की इच्छा उसकी भूख-प्यास, धन-संग्रह या लोकसंतान की सब तृष्णाओं से लकधक बलवती होती है - क्योंकि यह उसकी प्रकृतिजन्य इच्छा है।’’(रवीन्द्रनाथ टैगोर रचनावली, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, खंड - 48, पृष्ठ - 43; जोर हमारा)


(7)

कहना न होगा, ‘अंधेरे में’ कविता का जटिल ढांचा ही इस बात का प्रमाण है कि आदमी की कल्पना में भी यथार्थ अनुभव के पुनर्विन्यास का प्रयास अपने आप में एक कितना चुनौती भरा और कठिन काम होता है। अभिनवगुप्त इसी पद्धति से अपने यथार्थ से आबद्ध व्यक्ति (पशु) को उसके द्वैत के बंधनों से मुक्त करने में सहायक बनते हैं। मुक्तिबोध भी अपने सभी आलोचनात्मक लेखों और कविताओं से इसी नव-संदर्भीकरण का काम करते हैं।

प्रत्यभिज्ञा दर्शन की पृष्ठभूमि में हम भारतीय दर्शन में सांख्य मत की स्थिति को रखें तो और भी चीजें साफ हो सकती है। भारतीय अद्वैत दर्शन की पूरी परंपरा में सांख्य मत एक द्वैतवादी मत माना जाता है। वह हर चीज को पुरुष और प्रकृति में विभाजित करके देखता था। और बाकी भारतीय चिंतन की पूरी परंपरा इस द्वैतवाद के विरुद्ध थी। अभिनव इसमें शिव की (कल्याण भाव की) स्वातंत्र्य शक्ति का प्रवेश कराते हैं। ऐसी शक्ति जिससे चित्त के कमल के खिल जाने पर उसमें तमाम प्रकार के विमर्शों का प्रवेश हो सके और इन सबकी उपस्थिति में मनुष्य में सत्य का उद्घाटन हो। भारतीय तत्व मीमांसा के तमाम पाठों के बौद्धिक और तार्किक प्रत्याख्यान की अभिनव की अपनी चिंतन प्रणाली की यही वह विशेषता थी, जिसपर हम यहां पहले द्वंद्वात्मकता की ‘as an inconsistent (non-All) mixture’ के रूप में चर्चा कर चुके हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृतिस्थ विश्व में प्रलय से पुरुष (मनु) का उदय होता है, जैसा कि ‘कामायनी’ के कथ्य में भी आता है। अभिनव इस पुरुष को भी परम ब्रह्म की तरह की कोई परम शक्ति मानने के बजाय आत्म से निबद्ध एक परिमित आत्मा के रूप में ही देखते हैं जो अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त नहीं कर सकता है। बल्कि उसका अस्तित्व ही प्रकृति पर निर्भर करता है। श्रद्धा और इड़ा के साथ मनु के संबंधों को गौर कीजिए, हम पायेंगे कि कामायनी की पूरी कथा भी यही है। और यहीं पर परमशिव के प्रकाश का वह पूरा संदर्भ आता है जो ‘कामायनी’ में समरसता के सिद्धांत में निरूपित होता है। ‘कामायनी’ का अंतिम पद है -

समरस थे जड़ या चेतन
सुंदर साकार बना था ;
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
     
बहरहाल, कामायनी, प्रत्यभिज्ञादर्शन, पुरुषार्थ, परमपुरुषार्थरूप मोक्ष आदि से जुड़े इस पूरे विमर्श की पृष्ठभूमि में जैसे ही हम मुक्तिबोध और ‘अंधेरे में’ कविता के उनके मनु, उनका ‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’, ‘रहस्य-साक्षात’, ‘‘वह रहस्यमय व्यक्ति/ अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है,/ पूर्ण अवस्था वह/ निज-संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की/ मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,/हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, आत्मा की प्रतिमा।’’, ‘वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति’ की खोज, शोध और अनुभूति की बनती हुई संरचना को देखते हैं, हमारे सामने प्रत्यभिज्ञादर्शन के आत्मप्रकाश वाले पहलू का एक ऐसा पूरा ढांचा उभर कर उपस्थित हो जाता है, जिसमें प्रकाश कभी परतंत्र नहीं होता, प्रकाश्यता ही पारतंत्र्य होती है। जैसे हेगेल कहते हैं कि आदमी के अंतर के जख्म भरते हैं उसके परिप्रेक्ष्य में बदलाव से, किसी बाहरी मरहम से नहीं। उसी क्रम में इस रचना का पूरा कथानक खास-खास संदर्भों के साथ आगे बढ़ता जाता है। हेगेल का परम भी स्वातंत्र्य भाव के प्रसार के जरिये अपने नाना परिमित रूपों को प्राप्त करता है, जो शिव की परिमिति है और मनुष्य की आबद्ध आत्मा (पशुता)।

‘अंधेरे में’ कविता की चर्चा करते वक्त हमेशा उसके फंतासी वाले ढांचे की चर्चा की जाती है। फंतासी साहित्यिक रचनाशीलता का एक प्रतिष्ठित और मान्य ढांचा है। यह कोई पंचतंत्र की कहानियों की तरह का रचना के उद्देश्य के प्रसार के लिये तैयार किया गया ढांचा नहीं है। यह रचनाकार के अवचेतन का प्रकटीकरण है। साहित्य में उसके अंतर का भौतिक बाह्यीकरण। इस पर केंद्रित होकर मनन करने पर हम वैसे ही रचनाकार की पूरी विचारधारात्मक निर्मिति में अन्तर्निहित विरोधों को पकड़ सकते हैं, जैसे एक मनोचिकित्सक के तौर पर फ्रायड आदमी के स्वप्नों के अघ्ययन से उसके मनोजगत में प्रवेश की कोशिश करते थे।

मुक्तिबोध के जीवन को गहराई से जानने वालों ने उनमें एक खास प्रकार की बेचैनी को पाया है। विष्णुचंद्र शर्मा ने ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा’ में एक प्रकार के ‘कर्त्तव्य-परायण’ अर्थात ढर्रेवर जीवन की वृत्त में फंस जाने के उनके डर को अलग से रेखांकित किया है। ‘‘मैं मानता हूं कर्त्तव्य ही सबकुछ है। पर उसके न करने का उत्तरदायित्व मानो मैं अपने ऊपर नहीं लेना चाहता। क्या जरूरी है कि कर्त्तव्य किया ही जाए ?...इसी कर्त्तव्य ने लोगों को पंगु कर दिया है। ...सचमुच अब सारे कर्त्तव्य से आजादी चाहता हूं। चाहता हूं मात्र कार्य, अपने अनुकूल।’’ उनकी यही परम स्वातंत्र्य की कामना वाली मानसिकता ‘अंधेरे में’ की फंतासी में व्यक्त हुई है। इस ढांचे में रचनाकार की आत्मलीनता का एक ऐसा भाव-बोध होता है जिसमें डूब कर वस्तुत: वह अपने इर्द-गिर्द के अपने से स्वतंत्र परिवेश से अपने को काट लेता है। विश्लेषक और विश्लेषण का संबंध एक का अन्य के साथ संबंध नहीं होता है क्योंकि विषय और विश्लेषक के विश्लेषण कार्य के बीच किसी अन्य की कोई उपस्थिति नहीं होती है। इसीलिये रचनाकार खुद एक कथा-वस्तु की भूमिका में होता है।  यह जीवन के सभी क्षेत्रों में, घर-संसार के विषयों से लेकर साहित्य और विचारधारा के सभी क्षेत्रों में उनके सामने नई चुनौतियां उपस्थित करती है, और वे उनसे बखूबी टकराते हैं।

यहां हम मुक्तिबोध, कामायनी, प्रत्यमिज्ञा, स्वातंत्र्य भाव, हेगेल, और जिजेक के पूर्ण प्रत्यावर्त्तन ओर रवीन्द्रनाथ के आत्मबोध इस पूरी चर्चा के अंत में इसी बात पर बल देना चाहेंगे कि मुक्तिबोध अपने साहित्य-संबंधी पूरे दृष्टिकोण में प्रगतिशील साहित्य और आलोचना के बारे में सोच का जो एक नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते है, उसीमें उनकी अभिनवता है। यह सभी पुराने से पुराने विषयों को बार-बार नये रूप में अर्जित करने की द्वंद्वात्मक विधि है जिसे सोवियत काल में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक प्रकार के आधिभौतिक दृष्टिकोण में बदल देने, यथार्थ की बहुआयामिता की जगह उसे एकायामी, एकरेखीय बना  देने की वजह से प्रगतिशील साहित्य आंदोलन गंवा चुका था। वे हिंदी के साहित्य जगत में संयोग के एक नये बिंदु पर भविष्य का रास्ता बन कर उभरे थे । उनके मानस की जटिलता और सूक्ष्मता को कोरा रहस्यवादी, अति-कल्पनावादी करार कर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है।

मुक्तिबोध के जरिये यही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद हिंदी साहित्य और आलोचना में नयी से नयी परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी परंपरा, वर्तमान और भविष्य को भी बार-बार नये सिरे से परिभाषित करते जाने की मूलभूत शक्ति को प्राप्त करता है। इसीलिये मुक्तिबोध अभिनव है। आज भी उतने ही प्रासंगिक।        


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रविवार, 19 मार्च 2017

'नव-उदारवाद' के खिलाफ ज़ुबानी लड़ाई करने वाले वाक्-वीरों से वामपंथ को मुक्ति चाहिए !


न्युक्लियर ट्रीटी के विरोध के नाम पर यूपीए से समर्थन वापस लेते वक़्त प्रकाश करात ने तब यह एक दलील दी थी कि इस संधि के हो जाने के बाद भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं रह जायेगा क्योंकि भारत तब पूरी तरह से अमेरिकी प्रभाव से चलने वाला उपग्रह बन कर रह जायेगा ।

अब जब यूपीए की जगह मोदी सरकार बन चुकी है , तब क्या उन्हें वामपंथ का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है ! क्योंकि न 2009 में यूपीए का विकल्प वामपंथ था और न 2014 में, जिसके परिणामों को तो हम भोग ही रहे हैं ।

हमने पहले भी बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई भारत में चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकती है, क्योंकि नव-उदारवाद आज के युग के पूँजीवाद की लाक्षणिकताओं के आधार पर उसी का एक नया नाम भर है । भारतीय संविधान के तहत यहाँ चुनाव पूँजीवाद के अंत के नारे के साथ लड़ना मुमकिन नहीं है ।

इसीलिये जब वामपंथ के द्वारा बार-बार सांप्रदायिकता के खिलाफ संयुक्त मोर्चा की एक शर्त के रूप में नव-उदारवाद की ख़िलाफ़त को शामिल किया जाता है, हमें उसमें वैसे ही हठवादी रुझान की छाया दिखाई देती है जो यूपीए-1 से वामपंथियों को अलग कर देने का हेतु बना था । कोरे शब्दों की लफ़्फ़ाज़ियों के यह सब खेल राजसत्ता के संघर्ष में उतरे हुए राजनीतिक दलों को नहीं, एनजीओ-छाप छद्म-बुद्धिजीवियों की मजलिसों को ही शोभा देते हैं ।

सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों और सभी स्तर के लोगों के व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की रणनीति को अपनाने और उसपर कारगर ढंग से अमल करने के लिये जरूरी है कि पूरा वामपंथ अपनी कार्यनीति के तात्कालिक लक्ष्यों को इस ग़लत समझ के दोष से मुक्त करें । राजनीति के सवाल कोरे ढोल बजाने के नहीं, आम जनता के जीवन-मरण के तात्कालिक प्रश्नों के साथ जुड़े होते हैं ।

मोदी-योगी योग के अंतिम परिणाम क्या होंगे !

-अरुण माहेश्वरी

कहते हैं कि कलाकार की ऐब ही उसकी पहचान होती है। सिर्फ कलाकार नहीं, कुछ ऐसा ही सभी के साथ होता है। एक अच्छा-भला, हर लिहाज से खुशहाल आदमी भी देखा जाता है कि अपनी किसी एक बुरी लत के पीछे अपनी सारी खुशियों को दाव पर लगा देता है। लगता है जैसे आदमी को अपनी प्राणी सत्ता का अहसास जैसे अपनी उस लत में ही होता है। उसे छोड़ दे तो लगेगा जैसे वह अंदर से पूरी तरह खोखला हो गया है।

ऐसे में योगी आदित्यनाथ के बारे में जितना सोचता हूं, उतना ही इस बात पर यकीन करना असंभव होता जाता है कि यह व्यक्ति कभी राज्य में शांति, सौहार्द्र और विकास का हेतु बन सकता है। सांप्रदायिक तनावों, दंगों और नाना प्रकार की अपराधपूर्ण हरकतों के बीच ही तो योगी आदित्यनाथ योगी आदित्यनाथ है। असंयमित भाषा और रौर्द्र व्यवहार के बिना उनके होने का अर्थ ही क्या है ! किसी भी कारणवश उनमें अगर यह सब नहीं है तो योगी जी के लिये यह दुनिया सून है। मुख्यमंत्री की गद्दी क्या, प्रधानमंत्री का पद भी उनकी अपनी इस प्राणी सत्ता के बोध के सामने फीके हैं।

कोई पूछ सकता है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी पर भी किसी हद तक यही मानदंड लागू नहीं होता है। निश्चित तौर पर होता हैं। लागू होता हैं, इसीलिये मोदी जी का कार्यकाल आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में एक सबसे अधिक विफल प्रधानमंत्री का शासनकाल साबित हो रहा है। सिवाय ध्रुवीकरण और लोगों को उत्तेजित करके बहकाने में उनके महारथ के अलावा इन तीन सालों के कार्यकाल में उनका एक भी ऐसा कदम नहीं दिखाई देता है जिसे एक सुचिंतित, विकासमूलक कदम कहा जा सके। अब तक जो भी किया गया है, सब में एक अजीब प्रकार की आदिम सनक की छाप दिखाई देती है। लफ्फाजी अधिक और काम नगण्य या विपथगामी।

योगी जी को यदि 2019 के आम चुनाव को मद्देनजर रखते हुए यूपी के माहौल को उत्तेजित रखने के उद्देश्य से लाया गया है, तो इससे दुर्भाग्यजनक हमारे देश, और खास तौर पर यूपी के लिये और कुछ नहीं हो सकता है। 2019 के बाद फिर 2022, और फिर...। यह तो पूरे राष्ट्र को अनंत काल तक एक अजीब से दबाव में रखने और इस प्रकार उसके विकास की संभावनाओं को पूरी तरह से कुंद कर देने का अंतहीन सिलसिला होगा। यह भारत को तालिबानियों और अन्य उग्रपंथियों द्वारा चालित देश की शक्ल देने जैसा होगा।

भारत सांप्रदायिक उग्रपंथियों के इस कुचक्र से जल्द से जल्द निकले, इसके लिये जरूरी है कि देश की सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतें अभी से एकजुट होए। मोदी-योगी योग से राष्ट्र मात्र के अस्तित्व पर खतरा बिल्कुल वास्तविक लग रहा है।



हठयोग से राजयोग तक की योगी आदित्यनाथ की यात्रा

- अरुण माहेश्वरी


अब शक नहीं कि योगी आदित्यनाथ यूपी के मुख्यमंत्री है। कल जब इनके नाम की घोषणा की गई थी, लगा था यह भाजपा में एक बड़ा राजद्रोह है। हिंदू युवावाहिनी के बल पर एक हठयोगी ने आरएसएस-भाजपा के गढ़ पर विजय हासिल कर ली है।

एक समय आरएसएस ने हिंदू महासभा पर अपने कार्यकर्ताओं के बल पर कब्जा जमाने की कोशिश की थी। लेकिन हिंदू महसभा के वीर सावरकर उनके इरादों के सामने पहाड़ समान बाधा बन कर खड़े हो गये। लेकिन आज की भाजपा में कोई सावरकर नहीं है। और योगी आदित्यनाथ ने अपने हठयोग से ‘सिंह गर्जना’ कोरे श्वानोन्माद में बदल दिया।

घबड़ाये हुए भाजपा नेतृत्व को योगी को खुला छोड़ना गंवारा नहीं था। इसीलिये अपना मंत्रिमंडल चुनने की उन्हें स्वतंत्रता नहीं दी गई बल्कि शुरू में ही उन्हें दो-दो उप-मुख्यमंत्रियों और कुल 46 मंत्रियों की डोर से बांध कर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई।

लेकिन योगी जिस गोरखनाथ की पीठ से आते हैं, हिंदी भाषा को उसकी ही एक देन है - गोरखधंधा। इस नाथ पंथ के आदि गुरू गोरखनाथ ने अपने गुरू मत्स्येन्द्रनाथ के बाद आदमी के अंतरजगत में प्रवेश के इतने दरवाजे तोड़ कर अपने हठयोग का प्रवर्त्तन किया था जिनकी साधना करने वाला व्यक्ति उन दरवाजों में ही भटकता हुआ हार-थक जाता है। इसी से गोरखधंधा शब्द की व्युत्पत्ति हुई। योगी आदित्यनाथ अपनी इस साधना में कितने पटु है, यह उन्होंने भाजपा नेतृत्व के अनिच्छुक हाथों से मुख्यमंत्री पद को झटक कर साबित कर दिया। जाहिर है, उनपर लगाई गई दूसरी बाधाएं भी आगे किसी काम की साबित नहीं होगी।

भारतीय दर्शन में योगदर्शन के सर्वमान्य ऋषि पातंजलि ने योगियों के बारे में कहा था कि उन्हें अपने चित्त को समस्त मनुष्यों के प्रति मैत्री भाव रखने का अभ्यास करना चाहिए। खुद नाथपंथ की ख्याति इसी बात में रही है कि वह ईश्वर को घट-घट वासी मानता है।

और, हमारे योगी आदित्यनाथ ! ये गोरख-धंधों में उलझे हुए योगी है। देखना है आगे इनका शासन क्या-क्या गुल खिलाता है।

शनिवार, 11 मार्च 2017

ऐसी सामाजिक समरसता किसको बल देगी !

(उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में विचार का एक विषय )

-अरुण माहेश्वरी

हिंदू पादशाही का समर्थक आरएसएस हमेशा हिंदू समाज में समरसता की बात कहता रहा है । इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में सचेत रूप से अति-दलितों के सामाजिक संगठनों में घुसपैठ के ज़रिये जो सोशल इंजीनियरिंग की गई, उसका एक परिणाम जहाँ भाजपा की भारी जीत के रूप में सामने आया, वहीं इसे संघ के समरसता के लक्ष्य की दिशा में एक बड़ी सफलता के तौर पर भी देखा जा रहा है ।

एक प्रकार की जातीय समरसता को भारत की आजादी की लड़ाई और वामपंथी आंदोलन ने भी क़ायम किया था, जिसमें जातिवाद पर नहीं, राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता पर बल था । लेकिन आजादी के अढ़ाई दशक के अंदर ही विभिन्न राज्यों में शिक्षा और आरक्षण के बल पर सशक्त हुए पिछड़े हुए समाजों का एक नेतृत्व पेरियार और अंबेडकर के झंडे के साथ तैयार हो गया और देश के कोने-कोने में ब्राह्मणवाद के विरोध के आधार पर पिछड़ी हुई जातियों और अनुसूचित जातियों के अपने-अपने जातिवादी संगठनों ने सिर उठाना शुरू कर दिया ।

प्रकृति का नियम है कि स्थिरता और यथास्थिति की किसी भी दीर्घकालीन परिस्थिति में पहले से मजबूत शक्तियां ही और ज्यादा मजबूत होती है । किसी भी प्रकार से इसके टूटने का एक समताकारी प्रभाव होता है ; अथवा कम से कम वंचितों में वैसा भ्रम तो पैदा होता ही है ।
कांग्रेस की राष्ट्रीय एकता और वामपंथियों की वर्गीय एकता ने हिंदू समाज की जातिवादी संरचना में जिस प्रकार की एक स्थिरता कायम की उसने स्वाभाविक रूप से इसमें पहले से मज़बूत, प्रभुत्वशाली सवर्ण जातियों के वर्चस्व को और ज्यादा बल पहुँचाया । इन दोनों के ही नेतृत्वकारी स्थानों में सवर्णों के वर्चस्व पर कभी कोई आँच नहीं आई । राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता का यह जातिवादी सच ही इन दलों के प्रभुत्व के रहते पिछड़े हुए समाजों में जातिवादी वंचना की अनुभूति और जातिवादी भेद-भाव के खिलाफ जाति विशेष के अपने संगठनों के जन्म के लिये काफी थे । और वैसा ही हुआ भी ।

लेकिन तमिलनाडू में द्रविड़ समाज की व्यापक संरचना में जिस प्रकार की प्रतिद्वंद्विताएं संभव थी, हिंदी भाषी क्षेत्रों में वह पिछड़ों और अनुसूचित जातियों के बीच बँट गई । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में बसपा के उदय ने हिंदू सामाजिक संरचना में ग़ैर-सवर्णों को साफ तौर पर दो भागों में बाँट दिया । अब सत्ता पर आने के लिए किसी न किसी सवर्ण जाति और ख़ास तौर पर अल्प-संख्यकों का समर्थन दोनों के लिये ज़रूरी होता चला गया । इन दलों के शासनों ने ग़ैर- सवर्ण जातियों में भी क्रीमी लेयर तैयार किये, जिसके चलते वंचना और अधिकार-चेतना की नई अनुभूतियों के साथ अति-दलितों की कई और नई जमातें सिर उठाने लगी । यहाँ तक कि कुछ दूसरी दबंग जातियाँ भी अपने लिये आरक्षण की माँग के साथ राजनीतिक ताक़तों के रूप में लामबंद होने लगी । जातिवादी लामबंदियों के इस पूरे उपक्रम में कांग्रेस और वामपंथ का तो इन क्षेत्रों से एक बार के लिये जैसे निर्वासन ही हो गया ।

यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें आरएसएस की सोशल इंजीनियरिंग की पुरानी राजनीतिक स्कीम काम आई । पिछले लोक सभा चुनाव के वक़्त उत्तर प्रदेश में अमित शाह ने जातिवादी सामाजिक संगठनों पर अलग से काम करना शुरू किया था । लोक सभा चुनावों में जो चीज़ ख़ास तौर पर जाटों के इलाक़े में दिखाई दी, इस विधान सभा चुनाव में उसका और व्यापक असर हुआ । यादव, दलित और मुसलमान बँटे रह गये, दूसरी ओर सवर्ण जातियों के साथ अति दलित समुदायों की एकता ने पूर्व के सारे जातिवादी समीकरणों को गड़बड़ा दिया ।
जातिवादी संगठनों की मदद से तैयार की गई इस स्थिति को ही आज संघ परिवार के लोग जातिवाद के अंत और अपने समरसतावादी सोच की जीत कह रहे हैं । अब, महाराष्ट्र में जिस प्रकार सभी अंबेडकरवादियों को एक फडनवीस नेतृत्व दे रहा है, उत्तर प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही होगा ।  न किसानों की आत्म-हत्या की दर में कोई कमी आएगी और न ही जातिवादी भेद-भाव और अन्याय रुकेंगे । उल्टे, अधिक आसानी से आरक्षण के हर रूप के अंत को शासन का समानतावादी और न्यायपूर्ण निर्णय कहा जा सकेगा । सामाजिक तौर पर कमज़ोर तबक़ों के लिये सरकार की पक्षधरता की तरह की अवधारणाओं का कोई मोल नहीं रहेगा । सामाजिक डार्विनवाद के खुले खेल की जमीन तैयार होगी ।

अंत में, कहने का तात्पर्य यही है कि संघ की इस समरसता को सामाजिक स्थिरता के एक नये दौर के श्रीगणेश के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसमें फिर एक बार हिंदू धर्म की भेद-भाव से भरी हुई आज भी यथावत संरचना में फिर एक बार सवर्णों और दबंगों को खुला बल मिलेगा । सामाजिक समता की लड़ाई का भविष्य अब सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष की नई लामबंदियों पर निर्भर करेगा । कांग्रेस और वामपंथी दलों के अंदर भी नेतृत्व के अब तक के पूरे ढाँचे का ढहना इस लड़ाई के हित में सबसे बड़ी ज़रूरत है । संघर्षों के नये कार्यक्रमों के साथ ही इनके अंदर की ऐसी अस्थिरता ही व्यापक समाज में इनकी विश्वसनीयता को क़ायम करने में सहायक हो सकती है ।

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

मोदी जी के राजनीतिक अस्तित्व की शर्त है - ज्यादा से ज्यादा जोखिम उठाए !

-अरुण माहेश्वरी

'इकोनोमिक टाइम्स' में एक खबर छपी है कि मोदी यदि उत्तर प्रदेश में जीत जाते हैं तो आगे और कठोर आर्थिक कदम उठायेंगे ।

हमारा मानना है कि कल के परिणामों में मोदी जी की जीत हो या हार, कोई फर्क नहीं पड़ेगा । यह बात बिल्कुल साफ हो गई है कि कोरी बातों और  लफ्फाजियों से वे अपने को क़ायम नहीं रख पायेंगे । वे अभी जाए या 2019 में, इसमें ज्यादा फर्क नहीं है ।

इसीलिये, उनके अस्तित्व की यह माँग है कि वे नोटबंदी की तरह के दुस्साहसी कदम के साथ ही अर्थनीति और ज़मीनी सचाइयों के बारे में एक ठोस समझदारी के साथ आगे बढ़ें ।

नोटबंदी का यह पहलू कि इससे ग़रीबों के बीच यथास्थिति के प्रति स्वाभाविक नफरत का उन्हें लाभ मिला, आगे भी किसी दुस्साहसिक कदम में उन्हें बल देगा । लेकिन नोटबंदी के ज़रिये जो अव्यवस्था पैदा हुई, उसका असर ऐसा नहीं हुआ जैसा कि अक्सर किसी भी प्रकार के सामाजिक दुर्योग से हुआ करता है कि एक बार के लिये ग़रीब-अमीर सब एक धरातल पर आ जाते हैं । सामाजिक और प्राकृतिक अघटनों का यह समानीकरण वाला प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण होता है ।

पश्चिम बंगाल के अपने अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यहाँ वाम मोर्चा सरकार के भूमि सुधार और आपरेशन वर्गा की तरह के अभियानों ने विशाल ग्रामीण क्षेत्रों में जो उथल-पुथल और अफ़रा-तफ़री पैदा की, उसने सामाजिक शक्तियों के संतुलन को गहराई से प्रभावित किया था । ग़रीबों के इस सशक्तीकरण ने ही वाम मोर्चा सरकार को चौतीस सालों तक बनाये रखा ।

मोदी और उनकी मंडली के पास इस प्रकार का कोई समतावादी सोच का परिप्रेक्ष्य ही नहीं है । इनको खरबपतियों द्वारा बैंकों के ख़रबों रुपये डकार लेने तक से चिंता नहीं होती है । ये समाज के पहले से ताक़तवर लोगों के बगलगीर बने रहने में अपनी शान समझते हैं । इसीलिये इनसे किसी अभी प्रकार की ऐसी मूलगामी आर्थिक पहलकदमी की कभी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है, जो सारी अस्थिरता के अंत में ग़रीब जनता का सशक्तीकरण करें । नोटबंदी ने गाँव और शहर के ग़रीबों के जीवन को तबाह किया है, अमीरों की ताक़त को छुआ तक नहीं है ।



http://m.economictimes.com/news/politics-and-nation/if-bjp-wins-uttar-pradesh-get-ready-for-more-modi-crackdowns/articleshow/57574872.cms?intenttarget=no&utm_source=newsletter&utm_medium=email&utm_campaign=Dailynewsletter&type=dailynews&ncode=b0d4c3b360a79ae54b781247a03f57ae

गुरुवार, 9 मार्च 2017

कार्ल मार्क्स की एक और जीवनी :



कार्ल मार्क्स की एक और जीवनी :
"मार्क्स की चिंतन प्रक्रिया की आत्मा को भाववाद और पदार्थवाद को सिर्फ परस्पर विरोध में प्रस्तुत करके हासिल नहीं किया जा सकता है, और यदि जर्मन विचारधारा की विरासत से काट दिया जाता है तो मार्क्स को नहीं समझा जा सकता है ।"



आज के 'टेलिग्राफ़' में गेरेथ स्टेडमैन जोन्स (Gareth Stedman Jones) द्वारा प्रणीत कार्ल मार्क्स की एक और जीवनी ' Karl Marx : Greatness and Illusion' की एक समीक्षा प्रकाशित हुई है ।  एलेन लेन द्वारा प्रकाशित इस किताब की समीक्षा की है शोभनलाल दत्तागुप्ता ने ।

सभी जानते हैं, सारी दुनिया में अब तक मार्क्स की कई जीवनियाँ अथवा उनके जीवन और विचारों के प्रसंगों से जुड़ी बहुत सारी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । ऐसे में इस एक और बड़ी सी किताब का आना यह बताता है कि मार्क्स के जीवन और विचारों के प्रति गहरे आग्रह का यह सिलसिला सारी दुनिया में आज तक जरा सा भी कम नहीं हुआ है ।

दत्तागुप्ता ने भी अपनी इस समीक्षा में इस तथ्य को नोट किया है और कहा है कि 1844 की पांडुलिपि, जर्मन विचारधारा से लेकर साम्यवाद के पूरे मुक्तिदायी प्रकल्प के शीर्ष पर 'पूंजी' की तरह की महान रचना तक की मार्क्स की यात्रा को स्टेडमैन जोन्स ने अपनी किताब में जिस संजीदगी और शिद्दत के साथ अपनी किताब में रखा है, वह प्रशंसनीय है । लेकिन दत्तागुप्त ने इस पुस्तक के जिस सबसे महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित किया है, वह यह है कि मार्क्स रूसो की 'सामान्य अभिलाषा' (General Will) और 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति के 'मनुष्य के अधिकारों की घोषणा' ( Declaration of the rights of Man) की तरह की किसी नैतिक सामूहिक सहभागिता के बजाय मनुष्यों के आत्म-सशक्तीकरण, उत्पीड़ितों के स्वराज (self-rule) के जिन विचारों के बारे में ज्यादा उत्साहित थे, वह "आदमी और आदमी के संघ के बजाय, आदमी और आदमी में भेद पर आधारित था ।" ("based not on the association of man with man, but on the separation of man from man")

दत्तागुप्ता इसी क्रम में, पुस्तक के हवाले से, प्रतिनिधित्व की अवधारणा को निष्क्रिय जनतंत्र का विचार बताते हुए इसे आत्मचेतना (subjectivity) और स्वराज (self-rule) के सोच में निहित स्पंदन का उल्लंघन बताया है । इसी सिलसिले में वे आगे एक मार्के की बात कहते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के बजाय जर्मन भाववाद की आत्म-चेतना और स्वातंत्र्य के भाव को मार्क्स ने मानव श्रम की शक्ति और वेग के इतिहास की अपनी समझ में कहीं ज्यादा आत्मसात किया था । और, "मार्क्स की चिंतन प्रक्रिया की आत्मा को भाववाद और पदार्थवाद को सिर्फ परस्पर विरोध में प्रस्तुत करके हासिल नहीं किया जा सकता है, और यदि जर्मन विचारधारा की विरासत से काट दिया जाता है तो मार्क्स को नहीं समझा जा सकता है ।"(That the spirit of Marx's thought process can not be understood if he is delinked from the legacy of German idealism)

इसी समीक्षा में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार आख़िरी दिनों में मार्क्स का ध्यान औद्योगिक यूरोप की तुलना में खेतिहर रूस पर केंद्रित हो गया था । समीक्षा का अंतिम, सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि "अंतत:, इस आख्यान से नये मार्क्स की जो तस्वीर बनती है वह शायद यही बताती है कि मार्क्स जिस प्रकार एक विषय को छोड़ दूसरे की ओर बढ़ते जाते हैं, उनमें एक प्रकार की अपूर्णता का भाव-बोध था । उनकी चिंतन प्रणाली में आने वाले बदलाव, जो इस किताब के पाठक इससे गुज़रते हुए देख पाते हैं, वे इसी दिशा की ओर महत्वपूर्ण संकेत हैं "
(Finally, the image of the new Marx that emerges from this account would perhaps confirm that there was a sense of incompleteness in Marx, as he continuously changed gear. The shifts in his thought process, which the reader encounters throughout the book, provide important leads in this direction.)

यहाँ हम शोभनलाल दत्तागुप्ता की इस समीक्षा को मित्रों से साझा कर रहे हैं :
KARL MARX: GREATNESS AND ILLUSION By Gareth Stedman Jones,
Allen Lane, Rs 1,999

https://www.telegraphindia.com/1170310/jsp/opinion/story_139858.jsp#.WMI3w-nE1fs.email

नीलकांत : वर्ग-च्युत आत्म-विहीनता का एक सच


-अरुण माहेश्वरी


नीलकांत जी से लगभग पिछले चालीस साल का परिचय है। मार्कण्डेय भाई के घर जाने-आने का सिलसिला जबसे शुरू हुआ, तभी से नीलकांत जी से परिचय भी हुआ। मार्कण्डेय से कई मायनों में अनोखा साम्य और कई मायनों में बिल्कुल विपरीत धुरी पर खड़े नीलकांत जी हमारे लिये कोई अबूझ पहेली तो नहीं रहे, फिर भी हमेशा एक कौतुहल और सम्मान के पात्र जरूर बने रहे। कोलकाता से लेकर बीकानेर तक में उनके साथ कई-कई दिन बिताने के अवसर भी मिलें। उनके लेखन की धार और एक अकिंचन भाव के साथ दृढ़ विचारधारात्मक निष्ठा से भरे उनके वक्तव्यों को भी यदा-कदा सुनने का मौका मिलता रहा। अन्यों के बारे में उनकी दो टूक राय और बेबाक उक्तियों से एक प्रकार के रोमांच की अनुभूति भी होती रही है।

इनकी तुलना में मार्कण्डेय अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद दैनन्दिन व्यवहारिक जीवन में एक शालीन व्यक्ति थे, जिनके साथ निबाह करने में कभी किसी को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। एक समझौताहीन जीवन जीने के बावजूद मार्कण्डेय में कभी किसी प्रकार का कोई अकिंचन का भाव नहीं था। विरले ही कोई मसीजीवी लेखक उनकी तरह का समझौता-विहीन भव्य जीवन जीता होगा।

बहरहाल, नीलकांत जी को हमने हमेशा उनके लेखन के माध्यम से ही ज्यादा जाना था। बाद के सालों में उनके पारिवारिक जीवन को भी थोड़ा जानने का जो मौका मिला, वह इतना यथेष्ट नहीं था कि उससे इस पूरे व्यक्तित्व के बारे में कोई पुख्ता राय बनाई जा सके। ‘कथा’ और ‘कलम’ में उनके लेखों की धार में एक अजब कौंध हुआ करती थी, जिसे कोई आसानी से भुला नहीं सकता था। और एक पाठक के नाते हम उसी चमक की रोशनी में उन्हें देखने के अभ्यस्त रहे हैं। खास तौर पर जब 80 के दशक के अंत में रामचंद्र शुक्ल पर उनकी पूरी किताब आई, तब आलोचक नीलकांत हमें हिंदी में एक नई जमीन तोड़ने वाले मार्क्सवादी चिंतक के रूप में दिखाई दिये थे।

वह दौर था हिंदी में जनवादी साहित्य के नये प्रतिमानों की तलाश और निर्माण का दौर। वह प्रगतिवाद के अंत के बाद अकविता, अकहानी, भूखी और श्मशानी पीढ़ी के तमाम तूफानों के थम जाने का भी दौर था। उसी समय हम कोलकाता में इसराइल को देख रहे थे। चटकल मजदूरों के जीवन की अंतरंग सचाइयों पर उनकी कहानियां हिंदी में अपना एक अलग ही संदर्भ बिंदु तैयार कर रही थी। मजदूरों और ट्रेडयूनियन आंदोलनों के संघर्षों पर तब सतीश जमाली, रमेश उपाध्याय, स्वयंप्रकाश आदि कइयों ने कहानियां लिखी थी, लेकिन इसराइल की कहानियों का अपना एक अलग ही संसार था। यह बिहार से बंगाल की चटकलों में काम करने वाले मजदूरों के जीवन की एक ऐसा यथार्थ आख्यान था जिसमें संभवत: लेखक की मध्यवर्गीय फंतासियों, उसकी दिव्य या क्षुद्र किसी भी कामना का कोई प्रवेश नहीं था। वह संघर्षरत मजदूर की अकूत शक्ति और दारिद्र्य से जूझते आदमी की क्षुद्रताओं को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में कुछ इस प्रकार पेश करता था, जो संघर्षों की आदर्श तस्वीरें बनाने वाले लेखकों से पूरी तरह से अलग थी। वह मध्यवर्गीय पाठकों के लिये भले एक अबूझ सा संसार रहा हो, लेकिन अपने जेहन के बाहर होने के कारण ही उसके लिये बेहद आकर्षक और रोमांचक भी था। इसराइल साहब की कहानियों के पात्र स्मृति पटल पर हमेशा के लिये अटक कर रह जाते थे।

यही वह परिप्रेक्ष्य था, जिसमें हमने नीलकांत को देखा। उनका पहला उपन्यास आया था - ‘एक बीघा गोइड़’ (1982)। भारत के गांवों पर प्रेमचंद से लेकर भैरवप्रसाद गुप्त और मार्कण्डेय की कथाओं तक को पढ़ने के अभ्यस्त हम जैसे लोगों के लिये नीलकांत का गांव बिल्कुल वैसा ही अलग और अनूठा था, जैसे इसराइल का मजदूरों का संसार। भारत के गांवों में आजादी के बाद चकबंदी का उत्पात और गांव के सभी निहित स्वार्थों के एक साथ सक्रिय हो जाने की पृष्ठभूमि में धनेसर और लक्ष्मण सिंह, लालमन बाबू, दरोगा, पटवारी, इंजीनियर ओवरसियर आदि सबको लेकर बनी वह दुनिया अपने बाहरी ताने-बाने में भले ही किसी ग्रामीण विलगाव का चित्र न पेश करती हो, लेकिन इसके चरित्रों की आत्मिक दुनिया तब तक एक बिल्कुल अलग-थलग जीवन के भाव से निर्मित दुनिया थी। इस अर्थ में इसे गांवों के चरित्रों के पूर्ण विलगाव का एक क्लासिक उदाहरण कहा जा सकता है। प्रेमचंद सामान्य मानवीय मूल्यों के अपने निकष पर इस अलगाव को तोड़ते हैं, उनकी परंपरा के परवर्ती लेखकों में भी लेखक की कामनाएं चरित्रों के जीवन में प्रवेश करती दिखाई देती है। लेकिन नीलकांत के चरित्र इस मामले में बिल्कुल आत्म-विजड़ित चरित्र जान पड़ते हैं। यह उनकी कहानियों की भाषाई संरचना में और भी साफ दिखाई देता है।  इसके जरिये गांव के इस आदमी की भाषा, उसका दैनंदिन जीवन किसी भी साधारण पाठक के लिये एक नये और कुछ हद तक शायद अबूझ से संसार में प्रवेश की चुनौती पेश करती है। आज तो जब हम ‘एक बीघा गोइड़’ को पढ़ते हैं, जब हम संचार क्रांति के कारण भारत के सुदूरतम इलाकों के जीवन की झांकियां भी देख पाते हैं, उनमें रेणु के मैला आंचल की तरह डा. प्रशांत की तरह के चरित्रों के प्रवेश की परिणतियों की जानकारी भी रखते हैं, तब ‘एक बीघा गोइड़’ का संसार मानो किसी अजायबघर की चीज लगता है। लेकिन इसमें शक नहीं कि नीलकांत इस अर्थ में अपने को ग्रामीण जीवन के बारे में प्रेमचंद के आख्यानों से अलगाते हुए एक बिल्कुल अलग प्रकार की लेखनी का उदाहरण पेश कर रहे थे।

इसी क्रम में उनकी कहानियों के संकलन ‘अजगर और बूढ़ा बढ़ई’ (1990) की कहानियों और हाल में प्रकाशित ‘मटखन्ना’( 2011) की कहानियों और ‘बंधुआ रामदास’ (2014) उपन्यास को भी देखा जा सकता है। ये सभी रचनाएं अपनी कथा-वस्तु और रूप-विधान, दोनों ही लिहाज से गहराई से परखे जाने के लिये साहित्य के नये मानदंडों की तलाश की मांग करती है। ये हमारे बहुत जाने-पहचाने संसार की बहुत ही परिचित ढांचों में गढ़ी गई कहानियां नहीं है।

और, यही वह बिंदु है, जहां हम यह सोचने के लिये मजबूर होते हैं कि नीलकांत के लेखन में ऐसा क्या और क्यों है, जो हमें उनपर अलग से विचार करने के लिये प्रेरित करता है ?

नीलकांत दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी, राजनीतिक तौर पर जागरूक और अपने समय के मार्क्सवादी दर्शनशास्त्रीय विमर्श से पूरी तरह से परिचित, उसकी वाद-विवाद-संवाद की श्रेष्ठ परंपरा से समृद्ध चिंतक, आलोचक रहे हैं और इलाहाबाद की तरह के हिंदी के बौद्धिकों की एक समय राजधानी माने जाने वाले शहर के निवासी हैं। उनके आलोचनात्मक लेखों में उनकी इस शक्ति की साफ झलक दिखाई देती है। गांवों से उनके जितने भी जैविक संपर्क क्यों न रहे हो, अपना वयस्क जीवन उन्होंने शहर में, गंभीर बौद्धिक चुनौतियों से भरे परिवेश में ही गुजारा है। एक ऐसा व्यक्ति जब भी कथा लेखन की दिशा में कदम बढ़ाता है उसे देख कर ऐसा लगता है मानो वह अपनी और अपने इर्द-गिर्द की बौद्धिकता के सारे बोझ को एक झटके में दरकिनार करके कलम उठाता है।

इसी बिंदु पर हमें, इस टिप्पणी के प्रारंभ में हमने नीलकांत के व्यक्तित्व में जिस अकिंचन भाव की चर्चा की है, उसकी एक बड़ी भूमिका दिखाई देने लगती है। वे शहर में होते हुए भी शहरी नहीं होते थे, वे विराटों के बीच विचरण करते हुए भी कभी अपने को विराट नहीं महसूस करते थे। लुइस आल्थुसर की आत्मकथा है - ‘The future lasts forever : A Memoir’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘मैंने अपनी सारी वयस्क जिंदगी इस भाव के साथ व्यतीत की जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। सिर्फ इस डर से कि मेरी किताबों के पाठक कहीं मेरी इस अस्तित्वहीनता को देख न लें और मुझे कोरा ढोंगी न मानने लगें, मैं अपने होने का स्वांग जरूर करता रहा।’’

यह जो आदमी के अस्तित्वहीन होने, आत्म-विहीन होने का बोध है, यह जो अपनी बौद्धिकता के प्रति पूरी तरह से निर्मोही, निवैर्यक्तिक होने का भाव है, यही आदमी को जीवन की उन कथाओं की ओर ले जा सकता है जो हम शहरी बुद्धिजीवियों के लिये किसी अजायबघर या भुतहा से दिखाई देने वाले निर्जन स्थान सरीखा जान पड़ता है। एक सामान्य आत्मवादी बौद्धिक बाहरी संसार में तो परिवर्तन को स्वीकारता है लेकिन अपने आत्म को लेकर बिल्कुल अविचल रहता है। लेकिन सचाई यह है कि हमारे से बाह्य संसार का तो बाकायदा अस्तित्व होता है, जो अस्तित्वहीन होता है वह हमारा आत्म है। इस मायने में हमें बार-बार महाभारत की गांधारी की याद आती है जो अपने पुत्र को अपने सामने बिल्कुल निर्वस्त्र होकर आने के लिये कहती है ताकि वह उसके पूरे शरीर को वज्र के समान अजेय बना दे सके। लज्जावश दुर्योधन पूरी तरह से विवस्त्र होकर जाने के बजाय उनके सामने एक लंगोट में हाजिर होता है और दुर्योधन के शरीर का वही, ढका हुआ अंश उसकी कमजोरी बन जाता है, जिसपर गदा से प्रहार करके भीम उसे मार देता है।

यह जो जीवन के यथार्थ का साक्षात्कार अपनी बौद्धिकता के पूरे लबादे को फेंक कर करने की बात है, आत्म-विजड़ित हो कर, बुद्धि की गुह्यता के बजाय निर्बुद्धि की नग्नता के जरिये आगे का रास्ता पाने का जो रास्ता है, वह नीलकांत में ही नहीं, हमें मुक्तिबोध के कथित आत्म-संघर्ष में भी एक बड़ी भूमिका अदा करता दिखाई देता है। यह एक ऐसा भाव बोध है जिसमें आदमी आत्मलीनता की हद तक अपने काम में डूबा हुआ अपने चारों ओर के परिवेश को नकारते हुए जीता है। इसमें विश्लेषक और विषय का संबंध एक का अन्य के साथ संबंध नहीं होता है, क्योंकि विश्लेषक के विश्लेषण कार्य के बीच किसी अन्य की कोई उपस्थिति नहीं होती है। और कहना न होगा, इस अर्थ में कथाकार खुद एक कथा-वस्तु की भूमिका में भी आ जाता है।

यह आत्म-विहीनता का एक ऐसा खास भाव है, जिसे हम कुछ हद तक मार्क्सवादी पदावली में वर्ग-च्युत होने के भाव से भी जोड़ कर देख सकते हैं, बल्कि नीलकांत के वैचारिक व्यक्तित्व के संदर्भ में उसी से जोड़ कर देखा भी जाना चाहिए। यह आदमी के अपने निजीपन को निर्मित करने वाले सारे तत्वों के सायास अस्वीकार की एक परिणति है। हम जानते हैं कि यह भी कोई स्वयंसिद्ध, परम या समस्या-मुक्त स्थिति नहीं है। अंतोनियो ग्राम्शी ने इस वर्ग-च्युतीकरण के विषय पर अपनी प्रिजन नोटबुक में बहुत करीने से प्रकाश डाला है। कम्युनिस्ट हलकों में यह एक सामान्य अवधारणा है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक विज्ञान है और इस विज्ञान की ‘जटिल वाणी’ को वहन करके मजदूर वर्ग के पास ले जाने में शिक्षित मध्यवर्ग की एक बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्ट पार्टियों का आम अनुभव यह है कि इसी चक्कर में कम्युनिस्ट आंदोलन कभी भी मध्यवर्ग के नेतृत्वकारी वर्चस्व से मुक्त नहीं हो पाया है। मध्यवर्ग तथाकथित रूप में अपने को ‘वर्ग-च्युत’ करके मजदूरों का नेता बन जाने का हकदार बन जाता है। लेकिन यह वर्ग-च्युतीकरण अपने आप में कितना बड़ा प्रहसन है, इसकी सचाई को एक यही तथ्य खोल कर रख देता है कि सारी दुनिया में ऐसे कम्युनिस्ट नेताओं की संततियों में से बमुश्किल ही कोई बाद में जीवन में मजदूर की तरह काम करता हुआ जीवन-यापन करता दिखाई देता है। इसीलिये ग्राम्शी ने खुद मजदूर वर्ग को नेतृत्वकारी स्थान पर लाने की बात पर बल दिया था और बुद्धिजीवियों की भूमिका को अलग से, परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया में एक ‘जाग्रत अल्पतम’ (enlightened minority) की भूमिका के रूप में देखा था।

कहना न होगा, ग्राम्शी की दी हुई यही वह समझ है जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया में बौद्धिकों की अपनी निजी स्वतंत्र भूमिका की एक पूरी अवधारणा देती है और उसे आल्थुसर की तरह के ‘अस्तित्वहीन’ जीवन के भाव बोध से मुक्त होने का रास्ता भी बताती है। इसके विपरीत जब हम अपनी कामनाओं के बारे में किसी प्रकार की फंतासी में फंस जाते हैं, तब अगर वह ईर्ष्या की तरह अन्य की किसी चीज की कामना की तरह की कोई अधम वृत्ति नहीं है, तब भी वह वास्तव में जितनी हमारी अपनी नहीं होती उससे ज्यादा हमारे से अन्यों की कामना की कल्पना होती है। यह हमारी अपने बारे में गढ़ ली गई एक दिव्यता की फंतासी भी होती है। इसीलिये जिजेक की तरह का मनोविश्लेषक दार्शनिक कहता है कि व्यक्ति की खुद के बारे में अवधारणा में अक्सर दिव्यता के भाव के साथ ही एक प्रकार की क्षुद्रता का भाव भी एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़े होते हैं। आलोचना का दायित्व लेखक को उसकी काल्पनिक दुनिया से निकाल कर ठोस जमीन पर उतारने की होती है।

नीलकांत जी ने इधर फिर एक बार नये सिरे से अपनी आलोचना की कलम उठाई है। ‘लहक’ पत्रिका के पृष्ठों पर उस कलम की धार की चमक से अभी कई स्थापित जनों की नींद भी हराम हुई है। लेकिन हमें उनकी इस नई इनिंग्स को देखकर आंतरिक खुशी का अहसास होता है। इसे हम उनके अस्तित्वहीनता के भाव-बोध से मुक्त होकर पूरी ताकत के साथ अपने ठोस अस्तित्व का परिचय देने की कोशिश के रूप में देखते हैं। नीलकांत के लेखकीय जीवन के एक ऐसे चरण पर ‘लहक’ पत्रिका ने अपना पहला ‘मानबहादुर सिंह’ पुरस्कार उन्हें देकर उनके अब तक के संपूर्ण कृतित्व के सम्मान के साथ ही उनसे हम सबकी और भी बड़ी उम्मीदों का संदेश प्रेषित किया है। इसके लिये हम ‘लहक’ के इस पुरस्कार के चयनकर्ताओं के शुक्रगुजार है। हम उनकी लंबी और लगातार कर्मरत उम्र की कामना करते हैं ।