रविवार, 29 दिसंबर 2019

राजनीति पर एक अराजनीतिक गप


—अरुण माहेश्वरी


राजनीति के विषयों पर ड्राइंग रूम की थोथी गप किसे कहते है इसका एक क्लासिक उदाहरण देखा कल रात लल्लन टॉप पर राजदीप सरदेसाई और सौरभ द्विवेदी की लगभग दो घंटे की लंबी बातचीत में । यह वार्ता शायद कुछ दिन पहले हुई थी, लेकिन हमने उसे कल ही सुना । वे चर्चा कर रहे थे राजदीप की सद्य प्रकाशित किताब ‘2019 : मोदी ने कैसे भारत को जीता’ (2019 : How Modi Won India) के एक-एक अध्याय पर लल्लन टाप के किताबवाला कार्यक्रम में ।


जनतंत्र में राजनीति आम जनता और पार्टियों/नेताओं के बीच के संबंध का विषय होती है । कुछ खास राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में जनता अपना नेता चुनती है और अन्य को पराजित  करती है । खास परिस्थितियों के संदर्भ में ही जनता और नेता/पार्टी का परस्पर संबंध चुनावों का निर्णायक तत्व होता है । इसमें कोई नेता सिकंदर नहीं होता कि ‘आया, देखा और जीत लिया’ । इसीलिये जनतांत्रिक राजनीति की कोई भी चर्चा जब सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के पूरे संदर्भ को नजरंदाज करके की जाती है, तो वह कोरी हवाई होती है । ऐसी सार्वजनिक चर्चा अन्तत: एक प्रकार की ठकुरसुहाती में पर्यवसित होने के लिये अभिशप्त होती है क्योंकि इसमें जो घटित होता है, उसे ही परिस्थितियों के निश्चित परिणाम के तौर पर इस प्रकार पेश किया जाता है जिसमें विजयी सर्वगुणसंपन्न दिखाया जाता है और पराजित को एक अधम मूर्ख के सिवाय कुछ नहीं कहा जाता है ।


पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की लगातार 34 साल सरकार रही । इसमें 25 साल से ज़्यादा काल तक ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे । 2011 में जब वाम मोर्चा की पराजय हुई उसके ठीक पहले 2006 में उसे सबसे बड़ी विजय हासिल हुई थी । लेकिन हमने बंगाल में किसी पत्रकार की ऐसी कोई किताब नहीं देखी जिसमें ज्योति बसु की लगातार जीतों के लिये किसी ने उनके निजी करिश्मों या तिकड़मबाजियों की कहानियाँ सुनाई हो । और बुद्धदेव भट्टाचार्य की पराजय में भी किसी ने उनकी निजी पराजय देखी हो ।

भारत में अनेक सालों तक कांग्रेस दल की सरकार रही, जिसमें गांधी परिवार की हमेशा एक अहमियत रही, लेकिन किसी भी गंभीर पत्रकार ने इस परिवार के सदस्यों के निजी जीवन, उनके आचार-आचरण आदि को कांग्रेस की जीतों का मूल कारण बताने की कोशिश नहीं की है ।


यह सच है कि इतिहास का हर रूप घटित का ब्यौरा ही होता है । हेगेल की प्रसिद्ध उक्ति है कि स्वर्ग का उल्लू तभी उड़ान भरता है जब शाम ढल जाती है । लेकिन हर विषय में इस उड़ान की भी अपनी कुछ आंतरिक ज़रूरतें होती है । आप घटित के विवरण-विश्लेषण से जानना तो चाहते हैं मनुष्य के जैविक विकास को लेकिन चर्चा करने लगते हैं ब्रह्मांड के निर्माण की, वह नहीं चल सकता है । अर्थात् जिन चीजों का विषय से वास्तव में कोई संबंध नहीं होता, उन्हीं को लेकर गप्पबाजी में समय ज़ाया किया जाता है ।

 

फिर कहेंगे, यह राजनीतिक पत्रकारिता का सबसे न्यूनतम स्तर होता है जब पत्रकारिता विजयी नेताओं का ढोल बजाने और पराजित नेता को नाना प्रकार से दुत्कारने का अनैतिक रास्ता अपनाया जाता है । पत्रकारों का निजी मूल्यबोध ऐसी चर्चा से पूरी तरह से गायब होता है । यही वजह है कि इस चर्चा में राजदीप अपने पत्रकार जीवन की जिन बड़ी भूलों को स्वीकारते हैं वे सभी आज पराजित पार्टी कांग्रेस से जुड़ी हुई थीं । इसमें कांग्रेस के काल में मिली पद्मश्री की उपाधि को स्वीकारना भी शामिल है । इसे ही राजनीति पर एक अराजनीतिक और अवसरवादी चर्चा कहते हैं ।



यह चर्चा राजदीप की पुस्तक को केंद्रित थी । इससे उस पुस्तक के बारे में हमें यह समझने में ज़रूर मदद मिली कि उनकी यह किताब भारतीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण क्षण का कोई गंभीर विश्लेषण नहीं, बल्कि उसके पात्रों को लेकर की गई हल्के क़िस्म की गप्पबाजी भर है ।

—अरुण माहेश्वरी

नागरिकता का संघी प्रकल्प हिटलर की किताब से ही चुराया गया एक पन्ना है

- अरुण माहेश्वरी





सब जानते हैं, एनपीआर एनआरसी का मूल आधार है । खुद सरकार ने इसकी कई बार घोषणा की है । एनपीआर में तैयार की गई नागरिकों की सूची की ही आगे घर-घर जाकर जाँच करके अधिकारी संदेहास्पद नागरिकों की सिनाख्त करेंगे और सभी को इस सिनाख्त के आधार पर पहचान पत्र दिये जाएँगे ।

यह पूरा प्रकल्प हुबहू हिटलर के उस प्रकल्प की ही नक़ल है जब 1939-45 के बीच हिटलर ने यहूदियों की पहचान करके उन्हें Jewish Badge जारी किये थे । यहूदियों के लिये हमेशा उन पीले रंग के बैज को पहन कर निकलना जर्मनी में बाध्य कर दिया गया था । जैसे यहाँ पर एनआरसी के बाद तथाकथित संदेहास्पद नागरिकों को साथ में अपना विशेष पहचान पत्र रखने के लिये बाध्य किया जायेगा । इससे हिटलर ने जब यहूदियों के जनसंहार की होलोकास्ट योजना पर अमल शुरू किया तो पीले बैज वालों को कहीं से भी पकड़ कर तैयार रखे गये यातना शिविरों में भेज देने में उसे जरा भी समय नहीं लगा ।


भारत में भी बिल्कुल उसी तर्ज़ पर डिटेंशन कैंप्स के निर्माण का काम शुरू हो गया है । इनकी योजना के अनुसार संदेहास्पद नागरिकों में भी आगे फ़ौरन मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम को अलग-अलग छांटा जाएगा । इनमें ग़ैर-मुस्लिम को तो नागरिकता संशोधन क़ानून के तहत नागरिकता दे दी जाएगी और मुस्लिमों को डिटेंशन कैंप में भेज कर आगे उनके साथ जो संभव होगा, वैसा सलूक किया जाएगा ।


इस प्रकार, भारत में हिटलर के परम भक्त मोदी-शाह-आरएसएस ने हिटलर के कामों की हूबहू नक़ल करते हए ही अभी एनपीआर और इसके साथ सीएए और एनआरसी का पूरा जन-संहारकारी प्रकल्प तैयार किया है ।



गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

अरविंद सुब्रह्मण्यन की महा सुस्ती की थिसिस और उनके सोच की एक सीमा

-अरुण माहेश्वरी


भारत के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन के साथ एनडीटीवी के प्रणय राय की भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति पर यह लंबी बातचीत कई मायनों में काफ़ी महत्वपूर्ण है । अरविंद ने हाल में इसी विषय पर तमाम उपलब्ध तथ्यों के आधार पर एक शोध पत्र तैयार किया है, भारत की महा सुस्ती : इसके कारण ? निदान ? (India's Great Slowdown: What happened? What's the way out ) इस बातचीत में उसी के सभी प्रमुख बिंदुओं की व्याख्या की गई है ।

अरविंद भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति को सिर्फ़ एक प्रकार की सुस्ती नहीं, बल्कि महा सुस्ती (Great slowdown) कहते हैं । इसे वे जीडीपी, आयात और निर्यात, बिजली और औद्योगिक उत्पादन में, सरकार के राजस्व में तेज गिरावट के सारे सरकारी आँकड़ों के आधार पर ही वे इसे एक साथ चार प्रमुख बैलेंसशीट्स में घाटे की परिस्थिति का परिणाम बताते हैं ।

बैंक और एनबीएफसी, जो कॉर्पोरेट्स को उधार दिया करते हैं, वे घाटे में चल रहे है । उधार लेने वाले कारपोरेट घाटे में चल रहे हैं ; वे जितना मुनाफ़ा करते हैं, उससे ज़्यादा अपने क़र्ज़ पर ब्याज भर रहे हैं । सरकार के राजस्व में कमी आती जा रही है ; कारपोरेट और निजी आयकर के रूप में प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष जीएसटी तक की राशि में लगातार गिरावट हो रही है । इससे सरकार की बैलेंसशीट, उसका बजट गड़बड़ाने लगा है । और, अंतिम, कर्ज देने की बैंक और एनबीएफसी की क्षमता में कमी से आम आदमी की आय प्रभावित हो रही है ; उसका बजट गड़बड़ाने से सामान्यतः: उपभोक्ता का विश्वास पूरी तरह से डोलने लगा है ।

अर्थात् बैंक, कारपोरेट, सरकार और उपभोक्ता - इन चारों की बैलेंसशीट में घाटे की स्थिति के कारण भारतीय अर्थ-व्यवस्था महा सुस्ती में धंसती जा रही है ।

इस स्थिति में भी विदेशी मुद्रा कोष आदि में कोई कमी न आने के कारण यह अर्थ-व्यवस्था जहां अब तक चरमरा कर पूरी तरह से ढह नहीं रही है, वहीं यह कोष अर्थ-व्यवस्था के दूसरे सभी घटकों की बुरी दशा के कारण आर्थिक विकास में सहायक बनने के बजाय सरकार के घाटे को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है । यह विदेश व्यापार की कमाई से आया हुआ धन नहीं है । फलत: सरकार भी कारपोरेट की तरह ही ज़्यादा से ज़्यादा ब्याज चुका रही है ।

अरविंद सुब्रह्मण्यन का कहना है कि इस संकट से हम एक तात्कालिक और दीर्घकालीन रणनीति के ज़रिये निकल सकते हैं, बशर्ते सबसे पहले हमारे सामने सच की एक मुकम्मल तस्वीर आ जाए । मसलन्, उनका कहना है कि अभी भारत में सभी विषयों के आँकड़ों में फर्जीवाड़े के कारण किसी भी तथ्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है । जो जीडीपी सरकारी आँकड़ों के अनुसार 4.5 प्रतिशत है, वह वास्तव में तीन प्रतिशत से भी कम हो सकती है । यही स्थिति बाक़ी क्षेत्रों की भी है । न कोई बैंकों के एनपीए के आँकड़ों पर पूरा विश्वास कर सकता है और न सरकारी राजस्व घाटे के हिसाब पर ।

इसलिये अर्थ-व्यवस्था के उपचार के लिये सुचिंतित ढंग से आगे बढ़ने के लिये सबसे पहला और ज़रूरी काम यह है कि सरकार सभी स्तर के आँकड़ों को दुरुस्त करे और उनसे कभी छेड़-छाड़ न करे । अभी जितना घालमेल कर दिया गया है, उसे सुधारना सरकार के लिये भी एक टेढ़ी खीर साबित होगा, लेकिन इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है ।

इसके अलावा सरकार अपने उन ख़र्चों पर लगाम लगाये जो उसके बजट में घोषित नहीं होते हैं, राजनेताओं की मनमर्ज़ी की उपज होते हैं ।

अरविंद ने कृषि क्षेत्र में किसानों को राहत देने और कृषि उत्पादन में वृद्धि के भी उन सभी उपायों को दोहराया है जिनकी तमाम विशेषज्ञ लगातार चर्चा करते रहे हैं । इसमें किसानों को सीधे नगद मदद देने और जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों का प्रयोग करने आदि की भी चर्चा की गई है ।

अरविंद का कहना है कि अगर अभी भी सरकार ईमानदारी से काम शुरू करें तो वह फिर से गाड़ी को पटरी पर ला सकती है, बशर्ते कुछ तात्कालिक लाभ-नुक़सान को देख कर वह अपने सुधार के रास्ते से भटके नहीं । इसके लिये उन्होंने बैंकिंग के क्षेत्र में भी कई सुधार की सिफ़ारिश की है । इसमें निजी नये बैंकों का गठन भी शामिल है ।

हाल में आरबीआई के पूर्व अध्यक्ष रघुराम राजन ने कहा था कि अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान दुर्गति के लिये नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली निजी तौर पर ज़िम्मेदार है । अरविंद सुब्रह्मण्यन ने भी सीधे नहीं, बल्कि घुमा कर इसी बात को कहा है । राजनीतिक लाभ के लिये सांख्यिकी के क्षेत्र में मोदी के द्वारा पैदा की गई अराजकता के अलावा उन्होंने यह भी बताया है कि नोटबंदी के बाद बैंकों के द्वारा रीयल स्टेट कंपनियों को उनके वित्तीय संकट से राहत देने के लिये भारी मात्रा में क़र्ज़ देने से उनके एनपीए में नाटकीय वृद्धि हुई है । अर्थात् नोटबंदी से बैंकों के पास इकट्ठा राशि को रीयल स्टेट की ओर ठेलने में भी मोदी व्यक्तिगत रूप में ज़िम्मेदार रहे हैं । लेकिन इस मामले में उनके नज़रिये में राजन की तरह की स्पष्टता नहीं है ।

बहरहाल, जिस सरकार का अस्तित्व ही तथ्यों के विकृतिकरण, झूठ और निरंकुशता पर टिका हुआ हो, उसके रहते हुए यह उम्मीद करना कि आँकड़ों को दुरुस्त कर लिया जायेगा, बजट के बाहर के खर्च नियंत्रित हो जायेंगे, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा और वित्तीय संस्थाओं को स्वतंत्रता मिल जायेगी - यह अरविंद सुब्रह्मण्यन की बातों का सबसे बड़ा धोखा है ।

इसीलिये वर्तमान आर्थिक संकट के मूल में काम कर रही राजनीति की ओर संकेत करने में वे पूरी तरह असमर्थ रहे हैं । किसी भी नौकरशाह की राजनीति की ओर आँख मूँद कर चलने की मूल प्रवृत्ति ही उनके पूरे विश्लेषण के फ़ोकस को नष्ट कर देती है । यही वजह है कि वर्तमान महा सुस्ती के लक्षणों पकड़ने के बावजूद वे इसके मूल में काम कर रहे उस सत्य को पकड़ने में विफल होते हैं जो अर्थनीति के दायरे के बाहर स्थित है । वह रोग आज के शासक दल की राजनीति से पैदा हो रहा हैं । महा सुस्ती में वास्तव में राजनीति का यही सच प्रगट हो रहा है । इसकी गूंज ही महा सुस्ती से व्यक्त होती है । वे यह भी नहीं देख पाए हैं कि विदेशी मुद्रा कोष आदि के जिन व्यापक आर्थिक पक्षों के मज़बूत पहलू की वे चर्चा कर रहे हैं, वह भी इसी राजनीति के कारण किस नाटकीय क्षण में बालू की दीवार साबित होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है । भारत में क्रमश: एक प्रकार की गृह युद्ध की विकसित हो रही परिस्थिति में दुनिया का कोई भी देश और व्यक्ति भारत में अपने निवेश को कब पूरी तरह से असुरक्षित मानने लगेगा, कहना कठिन है ।

बहरहाल, यह भविष्य की एक बात है, जिस पर निश्चयात्मक कुछ भी कहना सही नहीं है । यह अभी की दिशा के बारे में भविष्यवाणी हो सकती है, लेकिन स्वयं इस दिशा को तय करने वाली अन्य बातों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है । 

हम यहाँ, इस पूरी बातचीत के लिंक को साझा कर रहे हैं :

https://youtu.be/mFE4rTq5HWA

रविवार, 22 दिसंबर 2019

मोदी संविधान के प्रति अपनी वफादारी का परिचय दें, न कि भारत के लोग

—अरुण माहेश्वरी



आज दिल्ली में मोदी जी की चुनावी रैली, पूरे देश में आग लगा कर एक आडंबरपूर्ण चुनावी रैली जलते हुए रोम में बंशी बजाने का ही एक बुरा उदाहरण था ।

इस रैली में मोदी क्या बोल रहे हैं, इस बात के पहले ही यह जान लेना जरूरी है कि वे कहां से बोल रहे हैं, उनकी प्रकट बदहवासी और अहंकार का स्रोत क्या था ? वे भारत के प्रधानमंत्री हैं और उनका प्रधानमंत्री होना ही उनके दिमाग में आरएसएस के प्रचारक के काल में भरे हुए जहर को उनके लिये सर्वकालिक परम सत्य बना देने के लिये काफी है । इसीलिये वे राष्ट्र-व्यापी इतने भारी आलोड़न से चिंतित होने के बावजूद उस जहर को ही उगलते रहने के जुनून में फंसे रहने के लिये अभिशप्त है ।

व्यापक जन-आक्रोश के दबाव में वे आदतन यह झूठ बोल गये कि एनआरसी के बारे में उनकी सरकार ने आज तक सोचा तक नहीं है । उनके प्रिय गृहमंत्री के बयानों को भारत के लोग लगातार सुनते रहे हैं । लेकिन नागरिकता कानून के संदर्भ में जब वे पड़ौस के तीन देशों के सताए हुए लोगों पर करुणा बरसा रहे थे तभी भारत के आंदोलनकारियों पर सांप्रदायिक जहर से बुझे वाणों से उन्होंने जिस प्रकार हमले किये उसने उनके अंतर की उस सचाई को जाहिर कर दिया जिसे बार-बार दोहराते रहना उनकी सांप्रदायिक प्रमादग्रस्त प्रकृति की मजबूरी है । एक प्रधानमंत्री और एक प्रचारक के रूप में प्रधानमंत्री के इसी विखंडित व्यक्तित्व की दरारों से उन्हें संचालित करने वाले उनके अचेतन के तत्त्व उझक कर सामने आ गये थे । यही तो उनका स्थायी भाव है ।

वे भारत के संविधान की शपथ खा कर हाथ में तिरंगा उठाए नागरिकता कानून के विरोधियों को पाकिस्तान की कारस्तानियों का विरोध करके अपनी सचाई को प्रमाणित करने की चुनौती दे रहे थे । बात-बात में पाकिस्तान का हौवा खड़ा करके भारत में इस्लाम-विरोधी भावनाओं को भड़काने के आरएसएस के पूरे इतिहास को देखते हुए क्या मोदी जी से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे खुद तीन पड़ौसी मुल्कों में सताये हुए लोगों के प्रति दया भाव दिखाते हुए क्या भारत में इस्लाम-विरोधी जहर फैलाने का अपना पुराना खेल नहीं खेल रहे हैं ?

वे नागरिकता कानून को लागू न करने की घोषणा करने वाले राज्यों से कानून के विशेषज्ञों की सलाह लेने की बात कर रहे थे । उनसे पूछा जाना चाहिए कि इस संविधान-विरोधी कानून को लाने के पहले क्या उनकी सरकार ने किसी संविधान-विशेषज्ञ, बल्कि अपने ही कानून मंत्रालय तक की सलाह ली थी ? राज्य सभा में पी चिदंबरम सरकार से लगातार यह सवाल कर रहे थे कि क्या सरकार ने इस कानून की संविधान-सम्मतता के बारे में किसी से कोई विचार-विमर्श किया तो सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था ।

जनता को बरगलाने के लिये भले आप केंद्र सरकार के कानून की अपार शक्ति का दिखावा कर सकते हैं, लेकिन सचाई यह है कि भारत एक संघीय राज्य है । इस कानून को अनेक राज्यों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिस पर अभी फैसला आया नहीं है । इसीलिये इस कानून को इसके इसी रूप में लागू करवाने की बात अपने समर्थकों के हौसलों को बनाये रखने के लिये दी गई मोदी जी की गीदड़ भभकी के अलावा कुछ नहीं है ।

आज जरूरत आंदोलनकारियों को अपनी देशभक्ति का प्रमाण देने की नहीं है, मोदी जी को खुद भारत के संविधान के प्रति, उसकी धर्म-निरपेक्ष भावनाओं के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण देने की जरूरत है । मोदी जी का सुरसा की तरह खिंचता चला गया बदहवासी से भरा यह भाषण असल में उन्हें ही कठघरे में खड़ा करता है ।     

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

अब इनके रोग की अंतिम तौर पर पहचान संभव होगी

(मोदी-शाह-संघ तिकड़ी के वर्तमान पर एक मनोविश्लेषणमूलक दृष्टिपात)
—अरुण माहेश्वरी



मोदी जी ने फिर एक बार कहना शुरू किया है — ‘मुझ पर यकीन करो’ । नोटबंदी के बाद गोवा में उनका रोना शायद ही कोई भूला होगा । यही रट थी — मुझ पर यकीन करो । पचास दिन की मोहलत दो, अगर मैं इसके सुफल नहीं बता सका तो आप है और यह चौराहा है, मेरा फैसला कर दीजिएगा । फिर जीएसटी के लिये तो इन्होंने आधी रात में यह कहते हुए जश्न मनाया था कि उन्होंने आजादी की नई लड़ाई जीत ली है ।

इसी प्रकार न जाने वे कितनी बातों का यकीन दिलाते रहे हैं । भारत को स्वच्छ बना देंगे, भ्रष्टाचार दूर करेंगे, बलात्कार खत्म कर देंगे, अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थ-व्यवस्था बना देंगे, किसानों को लागत से डेढ़ गुना एमएसपी, फाइव ट्रिलियन इकोनोमी और न जाने क्या-क्या ! लेकिन हर मामलें में वे यकीन के लायक साबित नहीं हुए । घुमा-फिरा कर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और पाकिस्तान-विरोधी थोथी बातें करके ये राष्ट्रवाद का भूत की शरण में जाकर किसी प्रकार अपनी रक्षा करते हैं !

बहरहाल, लोग इन सब बातों को अब अच्छी तरह से जान रहे हैं । फिर भी, मजे की बात यह है कि 2019 के चुनाव में मोदी अच्छी तरह से विजयी हुए । इस जीत के बाद से तो मोदी ने जैसे मान लिया कि लोग उनकी झूठ और विफलताओं को ही प्यार करते हैं ! लोकसभा चुनाव के बाद से ये अपने विश्वासघात की राजनीति की दिशा में और भी अधिक निर्द्वंद्व भाव से बढने लगे हैं । कश्मीर के बारे में उनकी कार्रवाई और अब नागरिकता कानून को लेकर किया जा रहा मजाक उनके इस मनमौजीपन के सबसे बड़े उदाहरण हैं ।

आइये ! आज हम मोदी के झूठ और उसके प्रति ‘जनता के यकीन’ के विषय पर थोड़ी भिन्न दृष्टि से रोशनी डालते हैं । दुनिया के सबसे प्रमुख मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषकों को, जिन्होंने मनोरोगी का इलाज करने का जिम्मा लिया है, सबसे पहली हिदायत यह दी थी कि कभी भी रोगी की खुद के बारे में कही गई बात पर विश्वास मत करो । वे बातें सिर्फ रोगी के अहम् की तुष्टि के लिये होती है । तभी से फ्रायड की इस बात को मनोविश्लेषकों की दुनिया का एक मूलभूत सिद्धांत माना जाता है ।

फ्रायड के कामों को मनोविश्लेषण में आगे एक बिल्कुल नई, दर्शनशास्त्रीय ऊंचाई तक ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जाक लकॉन ने इसी विषय पर एक पूरा नया विमर्श तैयार किया था — ‘मनोविश्लेषण में बातों और भाषा की भूमिका और इनका क्षेत्र’ । इसमें वे फ्रायड की बात को बुनियादी तौर पर मानते हुए भी कहते हैं कि रोगी की बातें ही मनोविश्लेषण का प्रमुख औजार होती है, बातें कितनी भी खोखली क्यों न हो, मूल चीज यह है कि वे जैसी दिखती है, उन्हें बिल्कुल वैसी ही नहीं समझना चाहिए ।... भले वे कुछ न कहती हो, लेकिन बातचीत संवाद के अस्तित्व को बताती है ;  भले जो साफ दिखता है उनमें उससे इंकार किया गया हो, लेकिन यही इस बात की भी पुष्टि है बात में सत्य होता है;  भले उनका मकसद छल करना हो, लेकिन वे अन्य की गवाही में विश्वास पर निर्भरशील होती है । मूल बात यह है कि विश्लेषक को इस बात की समझ होनी चाहिए कि बातें किस प्रकार काम किया करती है । बातों के महत्व को मान कर रोगी की हर थोथी बात के पीछे भागने से विश्लेषक को हासिल कुछ नहीं होगा, बल्कि वह खुद रोगी के संदर्भ में अपने अंतर में खोखला होता चला जायेगा क्योंकि मनोविश्लेषण रोगी के साथ विश्लेषक का एक परस्पर द्वंद्वात्मक संबंध भी कायम करता है ।

इसी सिलसिले में लकॉन विश्लेषकों के लिये एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पते की बात कहते हैं । वे कहते हैं कि आदमी को उसकी नितांत निजी बातों में देखने अथवा जड़ समझने, इन दोनों के ही खतरे हैं । इन खतरों से तभी बचा जा सकता है जब आदमी की आत्म-मुग्ध बातों से इन दोनों चीजों, उसकी निजता और उसकी जड़ता, दोनों को ही किन्हीं खामोश पक्षों के रूप में फिर से जोड़ा जा सके । इसका एक ही डर है कि आदमी अपने बारे में एक पत्थर की मूर्ति की तरह की कल्पना करके उसमें फंस सकता है ; अर्थात् उसका अलगाव और मजबूत हो जाता है ।

लकॉन कहते हैं कि “विश्लेषक की कला इस बात में है कि वह  आदमी की खुद के बारे में निश्चित धारणाओं पर अपनी अंतिम राय को तब तक लटकाए रखे,  जब तक उसकी अंतिम अभिलाषाएं (मरीचिकाएँ) खुल कर सामने नहीं आ जाती । आदमी की इन बातों से ही उसके अपने अंत को पढ़ा जाना संभव हो सकता है ।”



अब देखिये, हमारे यहां एक ओर मोदी-शाह-आरएसएस है और दूसरी ओर है भारत की जनता, इनका विश्लेषण करके उन पर राय देने वाला विश्लेषक । हमारे देश के लोगों ने अब तक मोदी की सारी छल-कपट की बातों को देखा है, और आज भी देख रही है । लेकिन वह मोदी के बारे में अपनी अंतिम राय को आज तक लटकाए हुए हैं । पिछले छः सालों से ही मोदी के झूठ और छल के खिलाफ कई रूप में असंतोष जाहिर करने पर भी अब तक उसने उन पर अपनी अंतिम राय को स्थगित रख छोड़ा है । ऐसा लगता है जैसे लोग किसी सधे हुए कुशल मनोविश्लेषक की तरह यह सब देखते हुए भी मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी की महत्वकांक्षाओं को, उनके अंदर की मरीचिकाओं को पूरी तरह से सामने आने देने का मौका दे रही है । अब वे क्रमशः और भी तेजी से अपने मूल रोग को व्यक्त करने लगे हैं जो उन्हें आरएसएस की पाठशाला से लगे हुए हैं ।

पहले पांच साल तक तो वे उन पर पर्दा डाले रहते थे । यहां तक कि कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर सरकार बनाई । शुरू में तो पाकिस्तान सहित सभी पड़ौसी देशों से अच्छे संबंधों की बाते की । गोगुंडों की गतिविधियों पर मोदी ने कड़े शब्दों का प्रयोग किया । लेकिन जैसे-जैसे नोटबंदी, जीएसटी की तरह के मूर्खतापूर्ण कदमों से इनके अंदर का खोखलापन सामने आने लगा, इन्होंने परपीड़क राष्ट्रवादी उत्तेजना की आड़ तैयार करने के लिये पाकिस्तान, नेपाल आदि से संबंध बिगाड़ लिये । कुल मिला कर उनकी विक्षिप्तता का पूरा सच सामने नहीं आया था । और यही वजह रही कि जनता की भी इनके बारे में अंतिम राय स्थगित रह गई ।

कहना न होगा, आदमी की अपनी बातों और उसकी आंतरिक जड़ताओं के बीच से उसके सच को सामने लाने में भ्रम और स्थगित अंतिम राय के बीच की खाई अब मोदी-शाह-संघ के चरित्र को खोलने में अपनी भूमिका अदा करने लगी है ।

अब नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के बारे में मोदी-शाह जिस प्रकार की दलीलों से लोगों को आश्वस्त करना चाहते हैं, वे काम नहीं कर सकती है । कश्मीर, असम के लोगों और उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ किये गये विश्वासघात से आरएसएस की वह संविधान-विरोधी एकात्म सत्ता की फासिस्ट विचारधारा पूरी तरह से सामने आ रही है, जो मोदी सरकार की हर क्षेत्र में पंगुता और विफलता के मूल में है ।

अब कोई भी दुष्यंत कुमार के शब्दों में यह पूरे निश्चय से कह सकता है कि “उनकी अपील है कि उन्हें हम यकीं (मदद) करें, चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।” मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी पर जनता की अंतिम राय सुनाने की घड़ी अब शायद नजदीक आ रही है ।       

रविवार, 8 दिसंबर 2019

आरएसएस और उद्योग जगत के बीच प्रेम और ईर्ष्या के संबंध की क़ीमत अदा कर रही है भारतीय अर्थ-व्यवस्था


-अरुण माहेश्वरी



आज के टेलिग्राफ़ में उद्योगपतियों की मनोदशा के बारे में सुर्ख़ी की खबर है । “Why business is talking ‘wine’, not Dhanda”। (क्यों उद्योगपति ‘शराब’ की बात करते हैं, धंधे की नहीं )

पूरी रिपोर्ट उद्योगपतियों की आपसी बातचीत और उनके बयानों के बारे में है जिसमें घुमा-घुमा कर एक ही बात कही गई है कि उद्योग और सरकार के बीच विश्वास का रिश्ता टूट चुका है । कोई भी अपने व्यापार के भविष्य के बारे में निश्चिंत नहीं है । इसीलिये आपस में मिलने पर पहले जहां नये प्रकल्प के बारे में चर्चा होती थी, वहीं अभी नई शराब की चर्चा हुआ करती है ।

अर्थात् अभी उद्योग जगत के लोग उपभोग की चर्चा से अपनी-अपनी पहचान बना रहे हैं, न कि उत्पादन के उपक्रमों से । दुनिया की बेहतरीन से बेहतरीन चीजों का उपभोग ही जैसे इनकी ज़िंदगी का ध्येय बनता जा रहा है, अपनी रचनात्मक मौलिकता का इनमें कोई मोह नहीं बचा है ।

बहरहाल, इस रिपोर्ट का कुछ ज़ोर इस बात पर भी है कि वर्तमान सरकार ने ईडी, आईटी की तरह की एजेंसियों के चुनिंदा प्रयोग से डर का वातावरण तैयार करके समग्र रूप से उद्यमशीलता को कमजोर किया गया है ।

उद्योगपतियों का यही वह तबका है जो कभी राजनीति में मोदी के उत्थान पर अश्लील ढंग से उत्साही नज़र आता था । उन्हें भरोसा था कि मोदी व्यापार के माहौल को उनके लिये अनुकूल बनायेगा । उनके इस भरोसे का एक प्रमुख कारण यह था कि उन्हें आरएसएस पर भरोसा था और वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि मोदी आरएसएस का एक सच्चा प्रतिनिधि है ।

भारत में आरएसएस के इतिहास पर यदि कोई गहराई से नज़र डालें तो पता चलेगा कि किस प्रकार उसके कार्यकर्ताओं का प्रमुख हिस्सा उन छोटे दुकानदारों और व्यापारियों से आता था जो एक अर्थ में विफल व्यापारी हुआ करते हैं क्योंकि उनके पास औद्योगिक साम्राज्य बनाने की तरह की व्यापक दृष्टि ही नहीं होती थी । उनकी मामूली शिक्षा जीविका के लिये उन्हें छोटे-मोटे धंधों से बांधे रखती थी । और, अपनी इसी कमजोर स्थिति के कारण वे अक्सर किसी न किसी बड़े व्यापारी घराने के साये में ही पला करते थे ।

यही वजह रही कि आरएसएस के कार्यकर्ताओं को पालने वाले औद्योगिक घराने उन्हें सहज ही अपना दास मानते रहे हैं । अक्षय मुकुल की पुस्तक ‘Gita Press and the making of Hindu India’ में पूरे विस्तार के साथ संघी मानसिकता के सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति कोलकाता के मारवाड़ियों की उदारता का पूरा इतिहास दर्ज है ।

मुकुल ने इसे बिल्कुल सही मारवाड़ियों की अपनी पहचान के संकट से जोड़ कर विवेचित किया है। उनके शब्दों में, “उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय पूंजीवाद में मारवाड़ियों के उदय के साथ दो महत्वपूर्ण, लेकिन परस्पर-विरोधी चीजें घटित हुई । पहली तो यह कि यह समुदाय ईर्ष्या और तिरस्कार का पात्र बन गया, उनको यूरोप के यहूदियों की तरह घनघोर स्वार्थी बता कर मज़ाक़ उड़ाया जाने लगा । दूसरा मारवाड़ियों में खुद में एक विचित्र सा पहचान का संकट पैदा होने लगा । वह आर्थिक रूप में एक ऐसा शक्तिशाली समुदाय था जिसका कोई सामाजिक मान नहीं था । उनकी सादगी भी उनको मान नहीं दिला पाई थी । ...धार्मिक और सामाजिक कामों में उनकी उदारता से उन्हें मान तो मिला लेकिन उसके अपने तनाव भी थे । धार्मिक और सामाजिक कामों के लिये उदारता से दान के आधार पर निर्मित सादा जीवन जीने वाला सार्वजनिक व्यक्तित्व ।”

मुकुल ने बिल्कुल सही पकड़ा है कि मारवाड़ियों की पहचान का संकट ही उन्हें आधुनिक बनाने के बजाय हिंदू धार्मिक क्रियाकलापों से जोड़ता चला गया । उनके बीच से ही गीताप्रेस गोरखपुर के स्थापनाकर्ता हनुमान प्रसाद पोद्दार सरीखे लोगों ने कोलकाता के मारवाड़ी परिवारों के चंदे पर ही हिंदू धर्म और सांप्रदायिकता के प्रचार-प्रसार का ताना-बाना तैयार किया था ।

कहने का तात्पर्य यही है कि औद्योगिक घराने अनेक ऐतिहासिक सामाजिक कारणों से ही अपने को आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा के संगठनों का सरपरस्त मानते रहे हैं और इसी वजह से उनका इनकी स्वामिभक्ति पर काफी भरोसा भी रहा है । लेकिन समझने की बात यह है कि इस प्रकार की किसी की भी सरपरस्ती तभी तक कोई मायने रखती है जब तक जिसे पाला जा रहा है, उसके लिये उसकी ज़रूरत बनी रहती है । जब पलने वाले खुद शासक के आसन पर पहुँच जाते हैं, और अपने ‘सरपरस्तों’ के ही मालिक बन जाते हैं, तो दोनों के बीच पुराना रिश्ता नहीं रह सकता है, बल्कि एक नये तनाव से भरा भिन्न रिश्ता बन जाता है । यह नये मालिक की अपने पुराने मालिक के प्रति ईर्ष्या और नफ़रत पर आधारित रिश्ता होता है ।

जर्मनी में हिटलर के उदय और पूरे शासन का इतिहास भी इसका गवाह है कि हिटलर को आगे बढ़ाने में वहाँ के जिन तमाम उद्योगपतियों ने भरपूर मदद की थी, हिटलर ने सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार क़ायम कर लेने के बाद उन सबको चुन-चुन कर या तो यातना शिविरों में पहुँचाया या युद्ध के दौरान ही देश छोड़ कर भाग जाने लिये मजबूर किया । उद्योग की आज़ादी का कोई मूल्य नहीं रह गया था ।

इसी लेखक की किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ में एक पूरा अध्याय ‘आरएसएस और व्यवसायी वर्ग’ पर है जिसमें थोड़े विस्तार के साथ हिटलर और जर्मनी के उद्योगपतियों के संबंधों का इतिहास दिया गया है ।

प्रेम और ईर्ष्या का यह आरएसएस और व्यवसायी समुदाय के बीच का रिश्ता परस्पर की सामाजिक स्थिति और शक्ति में परिवर्तन के स्वरूप के साथ बनता-बिगड़ता रहता है । संघ के लोग व्यवसायी घरानों के निकट रहे हैं और स्वाभाविक रूप से उनकी अच्छी-बुरी करतूतों के बारे में उनकी अपनी ख़ास धारणाएँ भी रहती होगी । लेकिन, निकटस्थ व्यक्ति ही किसी भी सत्य के प्रति सबसे अधिक विभ्रांतियों से भरा हुआ पाया जाता है । बहुत निकटता से सत्य को उसकी समग्रता में देखा नहीं जा सकता है ।

कहना न होगा, यही वजह है कि आरएसएस के प्रतिनिधि मोदी जी और उनके निकट के लोगों में उद्योगपतियों के बारे में भारी भ्रांतियाँ भरी हुई हैं । वे न उन पर भरोसा कर पाते हैं और न पूरी तरह से अविश्वास ही । इसी वजह से ये पूरे व्यवसाय जगत के बारे में ही हमेशा दुविधाग्रस्त रहते हैं ।

विडंबना यह है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था का बहुलांश निजी पूँजी की गतिविधियों पर ही निर्भर करता है । सरकार की किसी भी भ्रांति की वजह से उस क्षेत्र में यदि कोई गतिरोध पैदा होता है, तो यह तय है कि यह पूरी अर्थ-व्यवस्था के चक्के को जाम कर देने के लिये काफ़ी होगा । आज भारत के व्यवसाय जगत के बारे में मोदी जी की निजी भ्रांतियों की क़ीमत भारत की अर्थ-व्यवस्था को चुकानी पड़ रही है ।

रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन जब आज के आर्थिक संकट के लिये मोदी को निजी तौर पर ज़िम्मेदार बता रहे हैं, तो वह अकारण नहीं हैं । हिटलर का रास्ता औद्योगिक विकास का सही रास्ता कभी नहीं हो सकता है ।


बर्बरता किसी न्यायपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सकती


—अरुण माहेश्वरी



हैदराबाद में बलात्कारियों के एनकाउंटर की पूरे देश में भारी प्रतिक्रिया हुई है । अभी हमारा समाज जिस प्रकार की राजनीति के जकड़बंदी में फंसा हुआ है, उसमें लगता है जैसे आदमी आदिमता के हर स्वरूप को पूजने लगा है । यह जन-उन्माद चंद लेखकों-बुद्धिजीवियों के विवेक पर भी भारी पड़ रहा है । पुलिस के द्वारा किये गये इस शुद्ध हत्या के अपराध को नाना दलीलों से उचित ठहराने की कोशिशें दिखाई दे रही है ।

संदर्भ से काट कर कही जाने वाली बात कैसे अपने आशय के बिल्कुल विपरीत अर्थ देने लगती है, इसके बहुत सारे उदाहरण इसमें देखने को मिल रहे हैं । मसलन्, ‘विलंबित न्याय न्याय नहीं होता’, कह कर भी अपराधी को पकड़ कर सीधे मार डालने को सच्चा न्याय बताया जा रहा है । अर्थात्, न्याय के लिये दी जाने वाली दलील से पूरी न्याय प्रणाली की ही हत्या कर देने की सिफारिश की जा रही है ।

इस घटना पर अपनी एक प्रतिक्रिया में हमने सऊदी अरब के रियाद शहर के कटाई मैदान, chop chop square का उल्लेख करते हुए वहां के सर्वाधिकारवादी तानाशाही शासन के साथ न्याय की आदिम प्रणाली, और हिटलर की गैर-जर्मन जातियों के लोगों को मसल कर खत्म कर देने के नाजीवादी न्याय दर्शन की चर्चा की तो कुछ मित्र हमें बताने लगे कि सऊदी में इसी आदिम न्याय प्रणाली के चलते बलात्कार नहीं के बराबर होते हैं और अपराध भी काफी कम पाए जाते हैं !


न्याय की प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सुधार की हमेशा ज़रूरत बनी रहेगी, लेकिन तत्काल न्याय का सोच ही एक आदिम सोच है । दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास की “ ‘आदिम’ सोच और ‘सभ्य’ दिमाग” के बीच फर्क की स्थापना को ही एक प्रकार से दोहराते हुए हमने लिखा भी कि एक झटके में सब कुछ हासिल कर लेने का सोच ही आदिम सोच होता है । इसे सर्वाधिकार की आदिमता कहते हैं । समाज-व्यवस्था के प्रति वैज्ञानिक नजरिया कहीं गहरे और स्थिर निरीक्षण की माँग करता है । अगर सऊदी तौर-तरीक़ा ही आदर्श होता तो पूरी सभ्य दुनिया में फाँसी की सजा तक को ख़त्म कर देने की बात नहीं उठती । सारी दुनिया में chop chop squares होते । समय के साथ सऊदी में भी इसके खुले प्रदर्शन को सीमित करने की कोशिशें भी यही प्रमाणित करती है कि आदमी की खुली कटाई सजा का वीभत्स रूप है, आदर्श रूप नहीं । वैसे क्रुसीफिकेशन आज भी वहां सजा की एक मान्य प्रणाली है ।

न्याय और दंड के स्वरूप किसी भी समाज व्यवस्था के सच को प्रतिबिंबित करते हैं और वे उस समाज में आदमी के स्वातंत्र्य के स्तर को प्रभावित करते हैं । यह आपको तय करना है कि आपको ग़ुलाम आज्ञाकारी नागरिक चाहिए या स्वतंत्र-चेता मनुष्य । ग़ुलाम नागरिक अपनी रचनात्मकता को खो कर अंतत: राष्ट्र निर्माण के काम में अपना उचित योगदान करने लायक़ नागरिक साबित नहीं होता है । प्रकारांतर से वह राष्ट्र की प्रगति के रास्ते में एक बाधा ही होता है ।

लेवी स्ट्रास ने अपने विश्लेषण में यह भी बताया था कि आदिमता महज आदमी के शरीर की मूलभूत जरूरतों, मसलन् खाद्य और सेक्स आदि से जुड़ी चीज नहीं होती है । ‘टोटेमवाद और जंगली दिमाग’ लेख में उन्होंने यह दिखाया था कि “आदिम जरूरतों के अधीन रहने वाले इन लोगों में भी स्वयं से परे जाकर सोचने की क्षमता होती है । अपने इर्द-गिर्द के संसार, उसकी प्रकृति और अपने समाज को जानने की उनकी भी कोशिश रहती है । यहां तक कि इसके लिये वे बिल्कुल दर्शनशास्त्रियों की तरह बौद्धिक साधनों, अथवा एक हद तक वैज्ञानिक उपायों का भी प्रयोग करते हैं । ...लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह वैज्ञानिक चिंतन के समकक्ष होता है ।...यह उससे सिर्फ इसीलिये अलग होता है क्योंकि इसका लक्ष्य उद्देश्य बिल्कुल सरल तरीके न्यूनतम कोशिश से पूरे ब्रह्मांड की न सिर्फ एक सामान्य समझ बल्कि संपूर्ण समझ कायम करने की होती है । अर्थात् वह सोचने का वह तरीका है जिसमें यह मान कर चला जाता है कि यदि आप हर चीज को नहीं समझते है तो आप किसी चीज की व्याख्या मत कीजिए । वैज्ञानिक सोच जो करता है, यह उसके पूरी तरह से विरुद्ध है । वैज्ञानिक चिंतन कदम दर कदम चलता है, हर सीमित परिघटना की व्याख्या की कोशिश करता है, तब आगे की दूसरी परिघटना को लेता है ।...इसीलिये बर्बर दिमाग की सर्वाधिकारवादी महत्वाकांक्षाएं वैज्ञानित चिंतन की प्रणालियों से बहुत अलग होती है । यद्यपि सबसे बड़ा फर्क यह होता है कि यह महत्वाकांक्षा सफल नहीं होती है ।” 
   
कहना न होगा, अपराधियों को पकड़ कर गोली मार देने की बर्बरता न्याय के सभ्य तौर-तरीकों के सर्वथा विपरीत है । यह कभी भी किसी न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सफल नहीं हो सकती है । दुनिया में राजशाही का इतिहास बर्बर नादिरशाही संस्कृति का भी इतिहास रहा है जब जनता में खून के खेल का उन्माद भरा जाता था । इसका सबसे जंगली रूप देखना हो तो नेटफ्लिक्स के ‘स्पार्टकस’ सीरियल को देख लीजिए । कैसे साधारण लोग और राजघरानों के संभ्रांतजन साथ-साथ आदमी के शरीर से निकलने वाले खून के फ़व्वारों का आनंद लिया करते थे । कैसे मार्कोपोलो सीरियल में कुबलाई खान लोगों की कतारबद्ध कटाई करके उनके अंगों को कढ़ाई में उनके ही खून में उबाला करता था । आधुनिक तकनीक के युग में राजशाही का नया रूप नाजीवाद और फासीवाद भी राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसे ही खूनी समाज का निर्माण करता है । सभी प्रकार के बर्बर शासन तलवारों और बम के गोलों से मनुष्यों के विषयों के निपटारे पर यक़ीन करते रहे हैं ।

जनतंत्र इसी बर्बरता का सभ्य प्रत्युत्तर है । तलवार के बजाय क़ानून के शासन की व्यवस्था है । राजा की परम गुलामी की तुलना में नागरिक की स्वतंत्रता और उसे अधिकार की व्यवस्था है ।

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

यह भारतीय मीडिया की एक अलग परिघटना है

-अरुण माहेश्वरी

(रवीश कुमार के भाषणों के प्रभाव में एक सोच)


रवीश कुमार के भाषणों को सुनना अच्छा लगता है । इसलिये नहीं कि वे विद्वतापूर्ण होते हैं ; सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के चमत्कृत करने वाले नये सुत्रीकरणों की झलक देते हैं । विद्वानों के शोधपूर्ण भाषण तो श्रोता को भाषा के एक अलग संसार में ले जाते हैं । रवीश ऐसे किसी नए भाषाई संसार की रचना नहीं करते । एक पत्रकार की अपेक्षाकृत सावधानीपूर्ण भाषाई संरचना के दायरे में वे वाग्मिता के उस लोकप्रिय ढांचे का ही निर्वाह करते चलते हैं जिसमें गंभीर से गंभीर परिस्थिति के आख्यानों के बोझ को हमेशा कुछ हंसी, कुछ कटाक्ष और यदा-कदा गुस्से से भी हल्का करते हुए आगे बढ़ा जाता हैं ।

फिर भी मजे की बात है कि रवीश के भाषण कुल मिला कर किसी लोकप्रिय वक्तृता श्रंखला की कड़ी भर नहीं लगते हैं । बल्कि हम उन्हें उनके भाषणों से अलग, बल्कि उनके जरिये स्वयं में एक अलग परिघटना के रूप में सामने आता हुआ देखते हैं । भारतीय मीडिया की एक खास, कुछ नई परिघटना के रूप में पाते हैं ।

रवीश हिंदी के पहले मीडियाकर्मी हैं जिन्हें प्रतिष्ठित मैगसेसे पुरस्कार मिला है । मैगसेसे के पीछे कई कारण हुआ करते हैं । इनमें एक प्रमुख कारण अपने समय की कसौटी पर सामने आए व्यक्ति का समग्र चरित्र होता है ; किसी खास समय में व्यक्ति के क्रियाशील पहलू की विशेषता की स्वीकृति होती है । इसीलिये देखेंगे कि इसकी ख्याति पुरस्कृत व्यक्ति के सक्रिय जीवन काल तक ही बनी रहती है । यह उस अर्थ में नोबेल पुरस्कार नहीं होता है, जिसके लिये माना जाता है कि नोबेल पुरस्कारजयी लोगों की खोजों ने मनुष्यों के लिये उनकी सोच और भाषा के, उनके चित्त के एक नये वृत्त को रचने का काम किया है । वह भले भौतिकी के लिये हो, रसायनशास्त्र के लिये, चिकित्साशास्त्र अथवा साहित्य और विश्व शांति के लिये ही क्यों न हो ।

इसके बावजूद, जब हम रवीश कुमार को स्वयं में एक अलग परिघटना कहते हैं तो जाहिरा तौर पर यह आदमी की क्रियाशीलता के किसी क्षेत्र के पूर्व-स्वीकृत दायरे में उनके विशेष कर्तृत्व का, या समय की मांग पर उनके निष्ठापूर्वक सामने आने का मसला भर नहीं रह जाता है । यदि हम कहे कि रवीश प्रेस के असली, मूलभूत धर्म का निर्वाह कर रहे हैं, जबकि इस क्षेत्र में काम करने वाले अन्य उससे भटक रहे हैं, तो कहीं न कहीं हम उन्हें उस खास दायरे में सीमित करके ही देख रहे होते हैं ।

और, कोई भी लकीर, वह कितनी ही पवित्र और प्रेरक क्यों न हो, उसे पीट कर, सराहना तो पाई जा सकती है पर, हम नहीं समझते, उससे किसी ‘भिन्न परिघटना’ का साक्षी बनने की अनुभूति पैदा की जा सकती है । कोई लकीर जितनी ही हल्की या गाढ़ी क्यों न हो, उसे पीटने में धार्मिक कर्मकांडों की तरह की एक जुनूनियत का अंश प्रमुख होगा ; उससे किसी भिन्न परिघटना की अभिनवता का अहसास पैदा नहीं होगा ।

इसके पहले कि हम ‘रवीश एक नई परिघटना’ को विषय बनाए, आइये, भारत के समाचार मीडिया के सच पर एक नजर डालते हैं, रवीश जहां से पैदा होते हैं । लोकतंत्र के कथित चौथे खंभे का यह डिजिटल अवतार अपने जन्म से ही मूल रूप से भारत के राजनीतिक दलों के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित हुआ है । इसकी आंतरिक संरचना पर गौर करें तो पायेंगे कि इसकी अपनी कोई धुरी नहीं रही है, वह राजनीतिक दलों की धुरी पर ही घूमता रहा है ।

पत्रकारिता, वह भले प्रिंट हो या डिजिटल, उसके दो प्रमुख संघटक तत्त्व होते हैं— समाचार और विश्लेषण । इन तत्त्वों के स्रोतों की सचाई से, अर्थात् इनकी क्रियात्मकता से यदि हम परिचित नहीं होंगे तो यह मान कर चलिये कि हम मीडिया के सच से भी हमेशा कोसों दूर रहेंगे । किसी भी विचार पद्धति से लेकर तकनीक तक को तब तक न समझा जा सकता है और न ही उनका सही ढंग से प्रयोग किया जा सकता है जब तक हम यह नहीं जान लेते हैं कि वे किन मूलभूत चीजों पर आधारित हैं । मार्क्सवाद के प्रयोग के लिये जरूरी माना जाता है कि हेगेल के द्वंद्ववाद के सच को समझा जाए और फायरबाख के भौतिकवाद से उसके फर्क को भी । उसके बिना मार्क्सवाद को समझना और उसकी विधि का सही ढंग से प्रयोग करना लगभग असंभव होता है ।

भारत के समाचार मीडिया में समाचार और विश्लेषण, दोनों का ही केंद्रीय विषय राजनीतिक दल के अलावा कुछ नहीं रहा हैं । और मीडिया में राजनीतिक दलों की एक प्रकार की अनिवार्य और सर्वव्यापी उपस्थिति ही वह प्रमुख सच है जो उसे इन दलों के अधीन बनाने की भी जमीन तैयार करती है । पूरा मीडियातंत्र जब सत्ता के दलालों की उपज की सबसे उर्वर जमीन माना जाता है, तब संकेत इस जगत के पतन के पहलू की ओर भी होता है । मीडिया पर किसी सत्ताधारी, शक्तिशाली दल के आधिपत्य का विषय जितना मीडिया की अपनी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर करता है, उससे बहुत ज्यादा वह सत्ताधारी दल की नीति और चयन का विषय होता है । मीडिया के अर्थशास्त्र का यह एक सबसे कटु सच है । मीडिया का अस्तित्व जुड़ा हुआ है विज्ञापनों से और विज्ञापन सबसे अधिक सरकार के पास है ! गोदी मीडिया इसी लाचारी भरे कटु सच का एक सबसे विकृत रूप है ।

मीडिया के इस जगत में हमें रवीश एक अलग परिघटना प्रतीत होते हैं तो सवाल उठता है कि ऐसा कहने से हमारा क्या तात्पर्य है ? जब मीडिया अपने पतन के इस स्तर तक पहुंच चुका है कि एक अदना सा मंत्री बड़ी आसानी से उसे प्रेस्टीट्यूट कह कर उसी मीडिया का चहेता बना रहता है, तब रवीश क्यों और कैसे एक अलग परिघटना बन कर सामने आते हैं ।

मीडिया के अनैतिक संसार में पत्रकार का नैतिक साहस इस विशेष स्थिति में निश्चित रूप से एक जरूरी पहलू होता है । लेकिन नैतिक ऊंचाई से बोलने की कोशिश करने वाले रवीश अकेले नहीं है । ऐसे और भी पत्रकार है जिन्होंने इसके लिये अपनी अच्छी-खासी नौकरियों तक की कीमत अदा की है । इस मामले में तो रवीश उनसे खुशनसीब कहे जा सकते हैं, जिन्हें तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद एनडीटीवी के प्रणव राय का संरक्षण मिला रहा है । इसीलिये अकेला नैतिक बल उनकी एक अलग परिघटना के रूप में पहचान का कारण नहीं हो सकता है ।

अगर हमें रवीश को एक अलग परिघटना के रूप में समझना है तो हमें उनके अंदर के व्यक्ति से बाहर उनके मीडिया कर्म की विशेषता को समझना होगा । वहां देखना होगा जहां वे मीडिया कर्म के प्रमुख संघटक तत्व, समाचार और विश्लेषण की क्रियात्मकता की अपनी समझ का प्रयोग कर रहे होते हैं ।

रवीश मीडिया में राजनीति की किसी नैतिकतावादी समझ से रवीश और एक अलग परिघटना नहीं बने हैं, मीडिया में समाचार के विषयों के उनके चयन और उनके विश्लेषणों ने उन्हें रवीश बनाया है । एक ओर जहां मुख्यधारा का मीडिया राजनीतिक दलों की करतूतों के कीचड़ में ही लोट-पोट रहा है, वहीं रवीश कुमार का मीडिया नोटबंदी के कारण बैंकों के सामने कतारों में जूझ रहे कातर लोगों और गांव के किसानों, शहरों के नौजवानों और मजदूरों के बीच जीवन की लड़ाइयों से निर्मित होता है । रवीश बेरोजगार नौजवानों के जुलूसों में कदम बढ़ाते हुए अपने मीडियाकर्म कर रहे होते हैं ।

जैसा कि हम बार-बार कह रहे हैं, समाचार मीडियाकर्मी का एक प्रमुख औजार होता है, लेकिन यदि उसके पास यह दृष्टि नहीं होती कि उसे किन समाचारों पर ध्यान देना है और किन पर नहीं, उसकी अपनी चयन की कोई दृष्टि नहीं है तो वह फालतू किस्म के समाचारों के पीछे ही दौड़ता-हांफता रहता है । फालतू बातों का खोखलापन उसके अंतर का खोखलापन बनने लगता है, जिसे भरने के लिये वह अंततः मूल विषय से ही दूर भटकता चला जाता है । वह झूठ-मूठ हिंदुओँ- मुसलमानों को लड़ाता रहता है । जो कहीं नहीं है, पत्रकार उसी को दिखाने, बताने में लगा रहता है ।

इसीलिये रवीश जब कहीं भाषण दे रहे होते हैं तो उनकी बातों को अर्थ प्रदान करने वाला जो तीसरा, ‘अन्य’ तत्व उनके साथ वहां मौजूद होता है, वह उनका बाकी के मीडिया से बिल्कुल अलग प्रकार का मीडियाकर्म होता है । उसमें खोखले समाचारों की खोखली प्रस्तुतियों की कोई छाया नहीं होती है । मीडिया के बाकी अंश में राजनीतिक दलों का जो खोखलापन गूंजा करता है, रवीश के यहां जीवन का ठोस सत्य बोलता है । यहां तक कि इसमें किसी निराश गुलाम की मृत्यु की कामना वाली आक्रामक नैतिकता भी नहीं होती है । उनके साथ सत्य को धारण करने वाला सुस्थिर तर्क बोलता है । आदमी के जीवन में जैसे शरीर और भाषा के अलावा उसके बाहर के एक सत्य की भूमिका होती है, वैसे ही मीडिया में पत्रकार और समाचार के बाहर जीवन के सच की भूमिका होती है । अगर वही खोखला होता है तो मीडियाकर्मी और उसका पूरा काम खोखला हो जाता है ।

अर्थात्, रवीश जब भाषण दे रहे होते हैं तब उनकी शालीन उपस्थिति और सुलझी हुई शैली के अतिरिक्त उसमें जो एक अतिरिक्त बाहर का सत्य बोल रहा होता है और वह उनके ठोस मीडियाकर्म का सच होता है । उनका हर श्रोता उन्हें सुनते हुए उनके मीडियाकर्म से भी जुड़ा होता है । उनके कामों की यह खास संरचना ही रवीश को भारतीय मीडिया की एक विशेष परिघटना का रूप दे रही है । और शायद इसीलिये उनके भाषण इतने अधिक प्रभावशाली होते हैं ।                       

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

मोदी-शाह के अवसान के संकेत


—अरुण माहेश्वरी


महाराष्ट्र में अन्ततः उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ही ली । प्रधानमंत्री की लाख कोशिशों के बाद भी देवेन्द्र फड़नवीस मुख्यमंत्री नहीं रह पाए ।

महाराष्ट्र का यह पूरा घटनाक्रम बीजेपी के लिये महज किसी ऐसे जख्म की तरह नहीं है जिसकी टीस से कभी-कभी आदमी का पूरा शरीर हिल जाया करता है । वास्तव में यह उसके लिये आदमी की कल्पना में जीवन की सजी हुई पूरी बगिया के उजड़ जाने की तरह का एक भावनात्मक विषय है । चुनाव परिणाम आने के साथ ही बीजेपी ने शिव सेना को अपने पैरों तले दबा कर रखने की अजीब सी पैंतरेबाजी शुरू कर दी थी । जब यह साफ हो चुका था कि बीजेपी अकेले बहुमत के आंकड़ें से काफी दूर है और चुनाव में विपक्ष के दलों को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है, अर्थात् जनता के रुख में पहले की सरकार के प्रति समर्थन कम हो रहा है, तब भी खुद नरेन्द्र मोदी ने अपने इस महत्वपूर्ण सहयोगी दल से बिना कोई बात किये एकतरफा घोषणा कर दी कि देवेन्द्र फडनवीस ही महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री होंगे । यह तब किया गया जब मोदी, शाह और सारी दुनिया को यह पता था कि शिव सेना के साथ भाजपा के रिश्ते में चुनाव के पहले से ही भारी तनाव चल रहा है ।

मोदी-शाह महाराष्ट्र के जरिये दुनिया को यही संदेश देना चाहते थे कि उनके मतों में कमी और विपक्ष की अप्रत्याशित सफलता के बावजूद राजनीति में उनकी धमक और पकड़ जरा भी कम नहीं हुई है । सीबीआई-ईडी-आईटी की उनकी डंडे की ताकत का कोई मुकाबला नहीं है । वे यहां से अपनी छाती को और भी चौड़ा करके सभी संवैधानिक संस्थाओं, बल्कि अदालतों तक भी अपने पूर्ण वर्चस्व को स्थापित करने के अभियान को और तेज करना चाहते थे । लेकिन इसके विपरीत भारत के संघीय ढांचे के राजनीतिक सत्य के सामने आने की संभावनाएं भी हम देख पा रहे थे जब शिव सेना ने शुरू से ही मोदी की इस एकतरफा घोषणा का विरोध करते हुए सत्ता में आधी-आधी भागीदारी की मांग पूरी ताकत से उठानी शुरू कर दी । मोदी-शाह ने शिव सेना के तेवर और उसकी मराठावाद की राजनीतिक पृष्ठभूमि  को पढ़ने में भारी चूक की । शिव सेना ने मोदी-शाह को खुली चुनौती दी और कहना न होगा, अंत में, शिव सेना ने सचमुच हवा से फुला कर रखे गये मोदी-शाह के बबुए में सूईं चुभाने का काम कर दिया ।

सीबीआई, ईडी,आईटी और अदालत तक को प्रभावित कर लेने की मांसपेशी की ताकत से इतराये हुए मोदी-अमित शाह अहंकार में यह भूल गये थे कि विचार से कहीं ज्यादा शारीरिक बल और अंतहीन वासनाएं ही आदमी के मतिभ्रम का प्रमुख कारण हुआ करती है । राज्यपालों के जरिये धोखे से अपनी सरकार बनवाने की उनकी पैंतरेबाजी के अतीत के अनुभव महाराष्ट्र में उनके लिये मददगार साबित नहीं हुए । तड़के सुबह चोरी-छिपे फड़नवीस को मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण कुल मिला कर राजनीतिक कदाचार और बेईमानी की एक और नजीर ही बना रह गया । उल्टे, देवेन्द्र फडनवीस और एनसीपी के अजित पवार के पूरे नाटक ने उद्धव ठाकरे की ताजपोशी को एक नया राजनीतिक औचित्य प्रदान किया और महाराष्ट्र में शिव सेना के नेतृत्व में तीन दलों के गठजोड़ की सरकार का बनना खुद में एक राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लिया । इस गठजोड़ की सरकार के गठन के प्रति वहां की जनता में अन्यथा जो उदासीनता देखने को मिलती, उसे राजभवन की साजिश की कहानी ने एक तीव्र उत्साह में बदल दिया । शिव सेना, एनसीपी, कांग्रेस और वाम के बीच की एकता जैसे एक लड़ाई की आग में तप कर फ़ौलादी होती चली गई ।

फडनवीश को शपथ दिलाने के बारे में राज्यपाल के स्वेच्छाचार को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तब दो दिनों की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट का वह एक साधारण और अपेक्षित फैसला ही मोदी-शाह की पूरी भाजपा को अब जैसे पंगू बना देने का सबब बन चुका है । जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उनके लिये यह कोई मामूली जख्म नहीं है । अपने पतन के दौर में प्रवेश कर चुकी भाजपा की राजनीति सांप्रदायिक विभाजन के अलावा चुनाव में हार कर भी अपनी सरकार बना लेने की तिकड़म में सिमटती जा रही है । आगे इस प्रकार की तिकड़म की संभावनाओं के अंत की कल्पना ही उसके लिये जानलेवा अवसाद का कारण बन सकती है । सुप्रीम कोर्ट का यह अंतरिम निर्णय कानून की अपनी कायिक और आत्मिक, दोनों जरूरतों से संगतिपूर्ण था । अदालत की अपनी मर्यादा और लोकतंत्र के प्रति उसका दायित्व, दोनों का निर्वाह इसी प्रकार संभव था ।

एक दिन बाद ही विधान सभा में किसके साथ कितने विधायक है का परीक्षण कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शुरू हुए तीव्र राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए फडनवीस के लिये इस्तीफा देने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था । भाजपा घोड़ों की खरीद-बिक्री के कुछ और नये किस्सों से अपने को और भी कलंकित करती उसके पहले ही फडनवीस का इस्तीफा ही बुद्धिमत्ता थी और भाजपा ने कम से कम उस बुद्धमत्ता का परिचय दिया ।

महाराष्ट्र में विपरीत विचारों के दलों के बीच मोदी-शाह विरोधी यह एकता भारत की भावी राजनीति का एक बड़ा संकेत है । इस सरकार ने अपना एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करके जन-कल्याण की दिशा में काम करने का निर्णय लिया है । इसके साथ ही हमें यह भी उम्मीद है कि यह सरकार भीमाकोरेगांव के दलित आंदोलन में झूठे मामले बना कर फँसाये गये भारत के कुछ श्रेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को न्याय दिलाने और उस मामले के असली अपराधियों को दंडित करने में भी अपनी मूलभूत जनतांत्रिक निष्ठाओं का परिचय देगी । उनका यह कदम भारत के सभी बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति की आजादी पर इन दिनों पड़ रहे दबावों को कम करने में एक बड़ी भूमिका अदा करेगा ।

सोमवार, 25 नवंबर 2019

'हमारी सीमा आकाश तक है’


—अरुण माहेश्वरी


महाराष्ट्र में अजित पवार की जालसाजी, राष्ट्रपति शासन, रातो-रात फडनवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उप-मुख्यमंत्री की शपथ दिलाये जाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जब बहस चल रही थी, तब भारत सरकार के वकील तुषार मेहता अपनी हमेशा की टेक के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को उसकी हैसियत और सीमा की याद दिलाते हुए कुछ इस प्रकार की दलील दे रहे थे मानो यह सब राजनीति के क्षेत्र का मामला है, सुप्रीम कोर्ट को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए ; सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ दूसरे कानूनी विषयों पर ध्यान देना चाहिए । इस पर सुनवाई कर रही बेंच के एक सदस्य ने नाराजगी के स्वर में कहा कि सुप्रीम कोर्ट की कोई सीमा नहीं है, ‘वह आकाश तक जाती है ।’

न्यायाधीश महोदय का यह कथन न्याय विवेक के उस बहुत ही बुनियादी सिद्धांत की पुनरुक्ति थी जो किसी लिखित-अलिखित शब्द या परिपाटी का मुहताज नहीं होता । वह मूलतः संविधान के निदेशक सिद्धांतों से निदेशित होता है । लेकिन कहने की बात और वास्तविकता में सिर्फ इसीलिये बहुत फर्क हुआ करता है क्योंकि निदेशक सिद्धांतों से चालित होने के नाम पर किसी प्रकार के न्यायिक स्वेच्छाचार को बल न मिले, इसीलिये न्याय खुद अपनी परिपाटियां तैयार करता हुआ उनकी चौखट के बंधन को अपना कर चला करता है, वही उसके लिये सुविधाजनक हुआ करता है । और, इस प्रकार असीम आकाश में नहीं, न्याय कुछ सुनिश्चित दायरों में ही काम करने का अभ्यस्त हो जाता है । यह उसके घर की अपनी चौखट की तरह है जिसमें वह अपने को निश्चिंत और सुरक्षित पाता है ।

न्याय प्रणाली की खुद की सुविधा के लिये तैयार कर ली गई इन चौखटों के चलते ही इस क्षेत्र में उसी प्रकार की एक पूरी विचारधारा की नींव पड़ जाती है जैसे पितृसत्ता की विचारधारा खास सामाजिक मर्यादाओं को नारियों के लिये अलग से न सिर्फ सुविधाजनक बल्कि अनिवार्य भी बता कर नारियों की ‘पवित्रता’ को मान कर चलने पर बल दिया करती है ।

सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के प्रतिनिधि वकील आजकल कमोबेस वैसे ही सुप्रीम कोर्ट के लिये हमेशा एक प्रकार के शुचितावाद का झंडा उठाये रहते हैं, जबकि वे खुद एक ऐसी सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिसने लगता है, शासन की शुचिता और नैतिकता को पूरी तरह से अमान्य करके चलने की शपथ ले रखी है ।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश महोदय ने आकाश तक फैली अपनी सीमा की घोषणा करके अदालत के कमरे में तो अपने नैतिक तेज का परिचय दिया, लेकिन व्यवहार में, अर्थात् इस मामले विशेष में न्याय देने के मामले में भी क्या वे अपनी इस स्वतंत्र उड़ान की क्षमता का परिचय दे पाएं, यह विचार का एक महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर जरूर गौर किया जाना चाहिए । इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जब सारी दुनिया जानती है कि इस मामले में महाराष्ट्र के एनसीपी के नेता अजित पवार ने एक प्रकार की जालसाजी करके एनसीपी के विधायकों के हस्ताक्षरों के साथ फडनवीस को समर्थन की चिट्ठी राज्यपाल को सौंपी थी, तब क्या आकाश तक अपनी पहुंच रखने का दावा करने वाला सुप्रीम कोर्ट इस मामूली अपराधपूर्ण साजिश के तथ्यों को ही देख पाने की अपनी क्षमता का परिचय दे पा रहा है ?

उसके विपरीत, जब अदालत में राष्ट्रपति शासन को हटाए जाने के औचित्य के विषय को उठाया गया तो सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल यह कह कर कि वह अभी राज्यपाल की कार्रवाई पर विचार नहीं कर रहा है, खुद ही अपनी सीमा बांध ली । आकाश तक पहुंच की बात एक क्षण में जैसे कोरी लफ्फाजी में बदल गई ।
यह सच है कि इस खास मामले में समय का एक पहलू भी न्याय से ही जुड़ा हुआ पहलू है । अपराधी तो खुद समय ही चाहते हैं ताकि वे अरबों रुपये खर्च करके आराम से विधायकों की खरीद कर सके । इस प्रकार की घोड़ों की खरीद-बिक्री को रोकना भी न्याय का एक जरूरी अंग है । इसीलिये सुप्रीम कोर्ट किसी दूसरी बात में उलझना नहीं चाहता है । उन दूसरी बातों पर विचार के लिये उसे कुछ अतिरिक्त समय की जरूरत पड़ सकती है ।

फिर भी इस मामले में, अब सुप्रीम कोर्ट के सामने एनसीपी के नये नेता के चयन और उद्धव ठाकरे को उसके 54 विधायकों के समर्थन के शपथ पत्र के अलावा रात के बारह बजे से लेकर सुबह छः बजे के अंदर आनन-फानन में राजभवन से लेकर दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन और गृह मंत्रालय के कार्यालय की नग्न साजिशाना गतिविधियों के तथ्य इतने साफ हैं कि न्यूनतम जनतांत्रिक और संवैधानिक निष्ठा के आधार पर ही उन पर तत्काल एक निश्चित राय सुनाई जा सकती है ।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट सहित भारत की सभी संवैधानिक संस्थाओं के अभी के हालात को देखते हुए शायद कोई भी सुप्रीम कोर्ट से इस प्रकार की प्रखरता और तत्परता की उम्मीद नहीं करता है । सुप्रीम कोर्ट तत्काल विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दे दें, उसे इस अनैतिक साजिश में भागीदार राज्यपाल की मर्जी पर न छोड़े, इसे ही सब अपना अहोभाग्य मानेंगे । अन्यथा, आज के निराशापूर्ण माहौल में लोग इस आशंका से भी इंकार नहीं करते हैं कि ‘आकाश तक अपनी सीमा’ का दावा करने वाला सुप्रीम कोर्ट सोलिसिटर जैनरल का उपदेश मान कर इस विषय में अपनी असमर्थता की बात करता हुआ कन्नी काटने लगे !

सभी प्रकार के लकीर के फकीर, यथास्थितिवादियों का यह जाना हुआ रूप होता है कि वे रोग के कारणों को शरीर की सीमा की हद तक तो देखने के लिये तैयार रहते हैं लेकिन शरीर के बाहर के पर्यावरण की तरह के विषयों पर जाने से कतराते हैं । आदमी के शरीर के तमाम रोगों का कोई संबंध उसके परिवेश, बाहर के दबावों से पैदा होने वाले तनावों से भी होता है, जो शरीर के अंगों को प्रभावित किया करता है, उस ओर रुख करना उनके पेशे की नैतिकता के बाहर का विषय होता है । कानून अपने दायरे के बजाय जब तक विचारधारा के व्यापक दायरे में — मानव कल्याण, स्वतंत्रता और समानता के दायरों में — विचरण करने की जोहमत नहीं उठायेगा, आकाश तक अपनी सीमा का उसका दावा हमेशा खोखला बना रहेगा । तब बार-बार तात्कालिक शासन के दबाववश बाबरी मस्जिद के बारे में आए हुए फैसलों की तरह के उद्भट फैसलें भी आते रहेंगे !

बहरहाल, कल सुबह साढ़े दस बजे तक की प्रतीक्षा की जानी चाहिए । कल के फैसले से पता चलेगा कि इस मामले की बेंच के विचार की सीमा कितनी दूर तक है !     


शनिवार, 23 नवंबर 2019

महाराष्ट्र के वर्तमान घटना-क्रम के खास सबक


—अरुण माहेश्वरी


फासीवाद जनतंत्र के काल में महलों के षड़यंत्रों वाली दमनकारी राजशाही है, महाराष्ट्र में यह सत्य फिर एक बार नग्न रूप में सामने आया है । ऐसा साफ लगता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसा कर रखे गये शरद पवार के भतीजे अजित पवार को रातों-रात, मानो बंदूक़ की नोक पर राज्यपाल के सामने लाकर तानाशाह की इच्छा पूरी की गई है । एक दिन शाम को शरद पवार ने शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी की लंबी बैठक के बाद यह घोषणा करते हैं कि तीनों दलों में यह पूर्ण सहमति बन गई है कि शिव सेना के उद्धव ठाकरे तीनों दलों की सरकार के मुख्यमंत्री होंगे और कल ही राज्यपाल के सामने सरकार बनाने के प्रस्ताव को रख दिया जायेगा । उसी दिन आधी रात के अंधेरे में, जब सारे लोग नींद में सोये हुए थे, महाराष्ट्र के राज्यपाल ने देवेन्द्र फडनवीस और एनसीपी के अजय पवार को बुला कर उन्हें मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के पद की शपथ दिला दी और दिल्ली से प्रधानमंत्री मोदी ने भी बधाई संदेश दे दिया । महाराष्ट्र के राज्यपाल को अब एनसीपी के विधायकों के हस्ताक्षरों की ज़रूरत नहीं रही, अजित पवार का होना ही काफ़ी था !

यह बात क्रमशः साफ होती जा रही है कि आज केंद्र सरकार के पास विध्वंस के अलावा रचनात्मक कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं बचा है । अर्थनीति तो पटरी से पूरी तरह गिर चुकी है । अब उससे दुर्घटना के बाद सुनाई देने वाली सिर्फ़ मौत और चीख-पुकार का हाहाकार सुनाई देगा । इसी प्रकार की सार्विक आर्थिक तबाही को फासीवाद के जन्म सी सबसे मुफीद जमीन माना जाता है । केंद्र सरकार पूरी तत्परता से उसी जमीन को तैयार करने में लग गई है ।इसी सार्विक तबाही पर पनपता है । देश के कोने-कोने में अराजकता फैला कर सीधे सेना के बल पर शासन की भी तैयारियां की जा रही है । अमित शाह जिस प्रकार से संसद के मंच तक से पूरे देश में असम की तरह के एनआरसी के विफल और अराजक प्रकल्प को लागू करने की बातें कह रहे हैं, यह भी केंद्र की इसी विध्वंसक नीति का सबूत है । कश्मीर को उसी अराजकता की मूल भूमि के रूप में तैयार करके रख दिया गया है ।

आरएसएस के राम माधव ने पिछले दिनों सारी दुनिया में दक्षिणपंथी तानाशाहों के उदय से उत्साहित हो कर कहा था कि अब भारत में भी  मोदी को सत्ता पर रहने के लिये चुनावों की ज़रूरत नहीं बची है । जनता की राय के विपरीत मोदी सत्ता पर बने रहेंगे । महाराष्ट्र में इसे ही कर के दिखाया जा रहा है । चुनाव की पूरी मशीनरी, मसलन् चुनाव आयोग और अदालतों के दुरुपयोग और ईवीएम में कारस्तानियों के बावजूद अब मोदी चुनावों में हर जगह और बुरी तरह से हारेंगे और हर बार वे महाराष्ट्र की तरह ही जनता को हरायेंगे । यह अंतत: चुनावों के ही अंत की दिशा में बढ़ने का सूचक है ।

अभी चैनलों पर भाजपा के भोपूं पूरी बेशर्मी से राजनीति में राजसत्ता और पैसों के दुरुपयोग और तानाशाही का गुणगान करते हुए पाए जायेंगे । फासिस्टों के ये भोंपू राजनीतिक वार्ताओं के लंबे सिलसिलों को ही राजनीति-विरोधी बतायेंगे और सत्ता पर जबरन क़ब्ज़े की साज़िशों को राजनीति का श्रेष्ठ रूप । इनके झांसे में कुछ विवेकवान लोग भी यह कहते हुए पाए जायेंगे कि कांग्रेस दल ने राजनीति में तत्काल निर्णय लेने के महत्व को नहीं समझा, इसी का उसे खामियाजा चुकाना पड़ रहा है । ये लोग मानो राजनीतिक दलों की आपसी नीतिगत वार्ताओं को राजनीति के बाहर की चीज समझते हैं ।

यह सच है कि राजनीति की गुगली के महाउस्ताद माने जाने वाले शरद पवार क्या खुद अपने ही लोगों की गुगली से मात हो गए !  जो राजनीति को फासिस्ट चालों से बाहर नहीं देख पाते हैं, वे शरद पवार के साथ हुए इस धोखे में भी एक चाल देख सकते हैं । इनमें खास मोदी भक्त भी शामिल है जो अक्सर निरपेक्षता के मुखौटे में अनैतिकताओं के पक्ष में खड़ें पाए जाते हैं ।

कुछ महाराष्ट्र के पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को गड्ड-मड्ड करते हुए आज भी भाजपा-शिव सेना के चुनाव-पूर्व समझौते की बात को दोहराते पाये जाते हैं । महाराष्ट्र में बीजेपी को बहुमत नहीं मिला था इसे जानते हुए भी वे कहते हैं कि वहां जनता ने बीजेपी को हराया नहीं था । उन्हें शिव-सेना-भाजपा का चुनाव-पूर्व समझौता याद है लेकिन वे इस समझौते की शर्तों को कोई महत्व नहीं देना चाहते जिसमें सत्ता की बराबरी की भागीदारी एक प्रमुख शर्त भी जिसे भाजपा ने अस्वीकार कर दिया और एक प्रकार से खुद ही शिव सेना-भाजपा के गठजोड़ को तोड़ दिया था । और यही वजह थी कि शिव सेना के साथ कांग्रेस और एनसीपी के समझौते में इतना लंबा वक्त लगा था । जिन्होंने साथ चुनाव नहीं लड़ा, उन पर जब साथ मिल कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी आती है तो आपसी समझ कायम करने और जनता के प्रति जवाबदेही का सम्मान करने के लिये ही ये वार्ताएं जरूरी हो जाती है । अब अगर कोई कहे कि भाजपा ने शिव सेना के बिना चुनाव लड़ा होता तो उसे अकेले बहुमत मिल जाता, तो इस प्रकार के कोरे कयास पर क्या कहा जा सकता है । शिव सेना को तो 2014 के चुनाव में भाजपा को छोड़ कर अकेले चुनाव लड़ के अभी से काफी ज्यादा सीटें मिली थी ।

दरअसल, सच्चाई यही है फासीवाद के बारे में जनतांत्रिक नैतिकताओं के दायरे में रह कर कभी भी कोई सटीक विश्लेषण नहीं कर पायेगा । आज तो स्थिति यह कि भारत के समूचे विपक्ष को कश्मीर के राजनीतिज्ञों की तरह अपने बारे में जघन्यतम कुत्सा प्रचार, व्यापक पैमाने पर दमन, गिरफ्तारियों और यहां तक की अपहरण और हत्याओं की हद तक जा कर सोचने के लिये तैयार रहना चाहिए । अन्यथा वह अपनी हर रणनीति में ऐसे ही धोखों का सामना करते रहने के लिये अभिशप्त होगा । सभी चुनावी संघर्षों को आगे फासीवाद-विरोधी जन संघर्षों का रूप देना होगा । व्यापकतम जन-कार्रवाई ही फासीवाद के प्रतिरोध का एक मात्र तरीक़ा है ।

(23.11.2019, 13.55)

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

इलेक्टोरल बॉंड यानी ब्लैक मनि के उत्पादन और खपत, दोनों का एक नायाब औज़ार


-अरुण माहेश्वरी



इलेक्टोरल बॉंड के बारे में कोई जितना सोचेगा, वह भारत में तैयार की गई इस रहस्यमय और नायाब चीज से हैरान रह जायेगा । भाजपा के चार्टर्ड अकाउंटेंट छाप अर्थशास्त्रियों के द्वारा तैयार की गई सचमुच यह ऐसी अनोखी चीज है, जिसे ब्लैक मनि के धंधे का अगर कोई अन्तर्राष्ट्रीय नोबेल पुरस्कार हो, तो वह भी दिया जा सकता है ।

बताया जा रहा है कि अकेले भाजपा को इन बॉंड से इस दौरान छ: हज़ार करोड़ से ज़्यादा रुपये मिल चुके हैं । भाजपा की आमदनी का एकमात्र स्रोत इलेक्टोरल बॉंड नहीं है । पार्टी को चलाने के लिये पैसे बटोरने के उनके जो दूसरे परंपरागत स्रोत रहे हैं, भाजपा ने उनमें से शायद ही किसी स्रोत को बंद किया होगा ।

तब किसी के भी मन में यह स्वाभाविक सवाल उठना चाहिए कि आख़िर भाजपा ऐसा क्या कर रही है कि उसे इतने, हज़ारों-हजारों करोड़ रुपये की ज़रूरत पड़ रही है ? यह सवाल भाजपा के भी सभी स्तर के लोगों, आरएसएस वालों के भी दिमाग़ में उठना चाहिए कि आख़िर इतने रुपयों का हो क्या रहा है ? भाजपा का वर्तमान नेतृत्व यह किस प्रकार के गोरख धंधे में लगा हुआ है ?

यह बॉंड खुद में एक रहस्य इसलिये है क्योंकि जानकारों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉंड के ज़रिये कंपनियों ने भाजपा को उतने रुपये नहीं दिये हैं, जितने दिखाए जा रहे हैं । यह तो काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काला करने में उस्ताद सीए फ़र्मों का एक करिश्मा है जिसके ज़रिये भाजपा सरकारों ने घूस के तौर पर जो अरबों रुपये वसूले थे, काले धन के उस विशाल ख़ज़ाने को इलेक्टोरल बॉंड के ज़रिये सफ़ेद बना दिया है ।

इसके अलावा, भाजपा ने इन बॉंड के ज़रिये पूँजीपतियों के लिये एक ऐसा ज़रिया तैयार कर दिया ताकि वे अपनी कंपनियों से पैसे निकाल कर उन्हें कंगाल बना कर अपने खुद के घरों को भर सके । कहते हैं कि भाजपा के दलाल बाज़ार से सिर्फ़ दस प्रतिशत क़ीमत पर ये इलेक्टोरल बॉंड ख़रीदा करते हैं । बाक़ी की नब्बे प्रतिशत राशि बॉंड देने वालों को ब्लैक मनि बना कर लौटा दी जाती है ।

इसके साथ ही धंधेबाज़ लोग बांड ख़रीद कर दस प्रतिशत ज़्यादा क़ीमत पर भी भाजपा के दलालों को बॉंड बेच रहे थे । भाजपा ने बेनामी शेल कंपनियों के संजाल के लिये इसके जरिये आमदनी का एक नया रास्ता तैयार कर दिया । अर्थात् बेनामी कंपनियों के खिलाफ अभियान चलाने का दिखावा करने वाले ही वास्तव में उनके फलने-फूलने का रास्ता बना रहे हैं !

इस प्रकार, जिस पार्टी की सरकार डिजिटलाइजेशन के ज़रिये बाजार से ब्लैक मनि को ख़त्म करने की बातें कर रही थी, वहीं पार्टी खुद इलेक्टोरल बॉंड की ख़रीद के ज़रिये हर रोज़ ब्लैक मनि तैयार करने के काम में लगी हुई है । और इसके साथ ही, इनके ज़रिये घूस के रुपयों को अपने खातों में जमा करके ब्लैक मनि को खपाने का काम कर रही है !

इस हिसाब से देखें तो बहुत मुमकिन है कि इलेक्टोरल बॉंड के ज़रिये जुटाये गये भाजपा के छ: हज़ार करोड़ में से वास्तव में भाजपा को सिर्फ़ छ: सौ करोड़ रुपये ही मिले हो, बाक़ी से घूस के रुपयों का जमा-खर्च किया गया हो ।

इसीलिये, कुल मिला कर भारत के इलेक्टोरल बॉंड को किसी शासक दल द्वारा इजाद किया गया ब्लैक मनि की धंधेबाजी का दुनिया का सचमुच का एक नायाब औज़ार कहा जा सकता है । इससे पता चलता है कि मोदी-शाह की भाजपा किस प्रकार के धंधेबाज़ों के एक गिरोह का रूप ले चुकी है । आज जब देश में निवेश का भारी अकाल पड़ा हुआ है, उस समय कंपनियों को दरिद्र बनाने के इस हथियार ने निवेश को कितना प्रभावित किया है, इसका सही-सही अनुमान लगाना कठिन है । लेकिन संकट में फँसी हुई कंपनियों से रुपये निकाल कर भाग खड़े होने वालों के लिये इलेक्टोरल बॉंड निश्चित तौर पर किसी वरदान से कम महत्वपूर्ण नहीं साबित हुआ होगा ।

बुधवार, 20 नवंबर 2019

महाराष्ट्र में भारतीय राजनीति का टूटता हुआ गतिरोध


—अरुण माहेश्वरी



शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच कई अंतरालों में वार्ताओं के लंबे दौर के बाद अब लगता है, जैसे महाराष्ट्र में सरकार बनाने के रास्ते की बाधाएं कुछ दूर हो गई है । कौन मुख्यमंत्री होगा, कौन उप-मुख्यमंत्री और कौन कहां कितने समय तक रहेगा, इन सबका खाका अब जल्द ही सामने आ जायेगा, जिन्हें राजनीति की जरूरी बातों के बावजूद सबसे प्रमुख बात नहीं माना जाता है । यद्यपि इधर के समय में भाजपा की कथित ‘चाणक्य’ नीति के तमाम चाटुकार विश्लेषक राजनीति के विषयों को महज सत्ता में पदों की बंदरबाट तक सीमित करके देखने के रोग के शिकार हैं ।   

कांग्रेस और शरद पवार के बीच का रिश्ता तो बहुत पुराना है, दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं । लेकिन इनके साथ शिव सेना का जुड़ना उतना सरल और सहज काम नहीं था । शिव सेना की राजनीति का अपना एक लंबा इतिहास रहा है । उसका कांग्रेस-एनसीपी से मेल बैठना अथवा कांग्रेस-एनसीपी का शिव सेना से मेल बैठना तभी संभव था जब दोनों पक्ष समय की जरूरत के पहलू को अच्छी तरह से समझ लें और अपने में एक ऐसा लचीलापन तैयार कर लें जो इस नये प्रयोग के महत्व को आत्मसात करने में सक्षम हो ।

राजनीति में जिसे कार्यनीति कहते हैं, उसका मूल लक्ष्य यही होता है कि अभिष्ट की दिशा में आगे बढ़ने के रास्ते की बाधाओं को, जो आपके बाहर की होती है तो आपके अंदर की भी हो सकती है, वक्त की जरूरतों को समझते हुए दूर किया जाए । किसी के भी सोच में समय की भूमिका को अवसर देने का इसके अलावा दूसरा कोई तरीका नहीं होता है ।

शैव गुरू अभिनवगुप्त तंत्रशास्त्र में व्यक्ति के द्वारा अपनी चेतना और ऊर्जा के विस्तार के प्रयत्नों में मदद देने के लिये जिस पद्धति के प्रयोग करने की बात कहते हैं उसमें बहुत साफ शब्दों में कहते हैं कि कि किसी के भी अपने संस्कारों में बिना किसी प्रकार की बाधा बने उसे थोड़ा नर्म हो कर झुकने की जगह दी जानी चाहिए, ताकि अंत में उसके अंतर की बाधा को उखाड़ कर उसके स्वतंत्र प्रवाह को संभव बनाया जा सके । किसी भी कार्यनीति का मूल अर्थ ही यही होता है ।

प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान ने अपने चिकित्सकीय कामों में मनोरोगी के साथ एक ही बैठक में सब कुछ तय कर देने के बजाय कई अंतरालों में अनेक बैठकों की पद्धति पर बल दिया था । उनका मानना था कि एक झटके में कोई काम पूरा करने के बजाय रुक-रुक कर करने से रोगी के बारे में कहीं ज्यादा जरूरी सामग्री मिला करती है । संगीत में बीच में किसी धुन को तोड़ कर अकसर ज्यादा असर पैदा होता है, वही कलाकार का अपना कर्तृत्त्व कहलाता है । एक तान में शुरू से अंत बजाते जाना उबाता है । किसी के पास एक से गीतों के दो टेप होने पर जब उसकी उम्मीद के अनुसार एक के बाद दूसरा गीत एक ही क्रम में नहीं आता है, तो वह उसे हमेशा चौंकाता है ।

लकान किसी को भी उसके आचरण के बारे में,  नीति-नैतिकता के बारे में भाषण पिलाने, अर्थात् उपदेशों से उसके ‘संस्कारों‘ को दुरुस्त करने से परहेज किया करते थे । आदमी के अंतर की बाधाओं से पार पाने के लिये, बैठक के अगले सत्र के लिये अपने को तैयार करने का रोगी को मौका देने के लिये इस प्रकार के अंतरालों का प्रयोग बहुत मूल्यवान होता है । बैठकों के लंबे सिलसिले के वातावरण में हमेशा एक प्रकार का तनाव बना रहता है, क्योंकि यह सिलसिला कब खत्म होगा, कोई नहीं जानता है । लेकिन यही तनाव वास्तव में कई नयी बातों को सामने लाता है और वार्ता में शामिल पक्षों के अंदर के बाधा के चिर-परिचित स्वरूप को खारिज करके आगे बढ़ने का रास्ता बनाता है । यह वक्त की जरूरत को आत्मसात करने की एक प्रक्रिया है । इसके अंतिम परिणाम सचमुच चौंकाने वाले, कुछ परेशान करने वाले और कभी-कभी पूरी तरह से अनपेक्षित होते हैं ।

यही वजह है कि कांग्रेस-एनसीपी और शिव सेना के बीच बैठकों का सिलसिला हर लिहाज से राजनीतिक तौर पर एक उचित और जरूरी सिलसिला कहलायेगा । राजनीतिक शुचिता के मानदंडों पर भी यही उचित था । इसमें किसी शार्टकट की तलाश पूरे विषय के महत्व को आत्मसात करने के बजाय एक शुद्ध अवसरवादी रास्ता होता, जैसा कि आज तक भाजपा करती आई है । पीडीपी जैसी पार्टी के साथ सत्ता की भागीदारी में उसने एक मिनट का समय जाया नहीं किया था । पूरा उत्तर-पूर्व आज भाजपा की इसी अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को भुगत रहा है, वह पूरा क्षेत्र एक जीवित ज्वालामुखी बना हुआ है ।

महाराष्ट्र के चुनाव पर इस लेखक की पहली प्रतिक्रिया थी कि “ हवा से फुलाए गए मोदी के डरावने रूप में सुई चुभाने का एक ऐतिहासिक काम कर सकती है शिव सेना । पर वह ऐसा कुछ करेगी, नहीं कहा जा सकता है !”

लेकिन सचमुच, यथार्थ का विश्लेषण कभी भी बहुत साफ-साफ संभव नहीं होता है । किसी भी निश्चित कालखंड के लिये कार्यनीति के स्वरूप को बांध देने और उससे चालित होने की जड़सूत्रवादी पद्धति ऐसे मौक़ों पर पूरी तरह से बेकार साबित होती है ।यह कार्यनीति के नाम पर कार्यनीति के अस्तित्व से इंकार करने की पद्धति किसी को भी कार्यनीति-विहीन बनाने, अर्थात् समकालीन संदर्भों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ बनाने की आत्म-हंता पद्धति है ।

यह शिव सेना के लिये इतिहास-प्रदत्त वह क्षण है जिसकी चुनौतियों को स्वीकार कर ही वह अपने को आगे क़ायम रख सकती है । एक केंद्रीभूत सत्ता इसी प्रकार अपना स्वाभाविक विलोम का निर्माण करती है ।

रविवार, 10 नवंबर 2019

महाराष्ट्र में शिवसेना एनसीपी की सरकार — सिद्धांत और व्यवहार की इस अनोखी गुत्थी पर एक नोट


—अरुण माहेश्वरी




अभी जब हम यह लिख रहे हैं, कांग्रेस कार्यसमिति महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी की सरकार को समर्थन देने, न देने के सवाल पर किसी अंतिम नतीजे पर पहुंचने के लिये मगजपच्ची कर रही है । यह ‘मगजपच्ची’ शब्द ही इस बात का सूचक है कि जो भी समस्या है, उसे राजनीतिक व्यवहार की समस्या कहा जाए या एक सैद्धांतिक समस्या, कोशिश उसका एक भाषाई समाधान पाने की है ।

व्यवहारिक समस्या यह है कि महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन ऐतिहासिक कारणों से ही अभी साथ-साथ आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं रह गया है । इसके पीछे ऐतिहासिक कारण यही है कि ये दोनों अपने को हिंदुत्ववादी कहने पर भी अलग-अलग दल हैं और इनमें शिवसेना मराठा पहचान के प्रतिनिधित्व पर अपनी इजारेदारी कायम करना चाहती है । अर्थात् सिर्फ हिंदुत्व नहीं, मराठावाद, जय महाराष्ट्र, मराठा जातीयतावाद का इन्हें अलगाने वाला मुद्दा एक जीवित मुद्दा है । मोदी के हिंदू, हिंदी, हिंदुस्थान के दबाव की स्वाभाविक उत्पत्तियों का एक रूप ।

पिछले लोकसभा चुनाव के समय जब बहादुर मोदी-शाह के दिल कांप रहे थे, उद्धव ठाकरे ने चाणक्य से राज्य में सत्ता की बराबर भागीदारी का करार लिया था । ‘कल की कल देखेंगे’ वाली चालाक बुद्धि ने तब जान बचाने के लिये हर कुछ के लिये हामी भर दी थी । लोक सभा चुनाव ने उनके अंदेशे को सही साबित किया और मोदी-शाह जोड़ी को फूल कर कुप्पा होने में क्षण भर का भी समय नहीं लगा । मीडिया तो गैस भरने का ही पैसा ले रहा था । मान लिया गया था कि हरियाणा और महाराष्ट्र में मोदी-शाह के घोड़े दौड़ेंगे । विपक्ष मैदान से गायब है, मीडिया रोज इसकी कहानियां सुना रहा था । लेकिन लोगों के दुखों से ही नित नई कहानी गढ़ी जाती है, इस साधारण बात की ओर किसी का ध्यान नहीं था । जनतंत्र में पक्ष-विपक्ष अंततः जनता तय करती है, और देखते-देखते पार्टियों के बड़े-बड़े महल वीरान खंडहरों में बदल जाते हैं, इन सचाइयों को सब भूल चुके थे ।

बहरहाल, हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह ही बीजेपी अपनी अपेक्षाओं के मानदंड पर बुरी तरह से पराजित हुई । हरियाणा में तो उसे अपनी मदद के लिये अमित शाह के जाल में फंसा दुखियारा अजय चौटाला मिल गया, लेकिन महाराष्ट्र में पहली बार शिव सेना के लिये अपने सपनों को पर देने के लिये जरूरी खुला आसमान मिल गया ।

अहंकार में डूबे मोदी ने पहले से ही फडनवीस को मुख्यमंत्री घोषित करके शिव सेना से वार्ता के दरवाजे बंद कर दिये थे । अब आज शिव सेना एनसीपी और कांग्रेस के सहयोग से अपना मुख्यमंत्री बनाने जा रही है । इस प्रकार महाराष्ट्र में खास मराठा राजनीति का सूत्रपात होने जा रहा है ।

एनसीपी खुद को इस मराठा राजनीति की हमेशा की एक स्वाभाविक मगर धर्म-निरपेक्ष संघटक शक्ति मानती रही है, इसलिये शिव सेना के साथ जाने के लिये उसे बहुत ज्यादा भाषाई मशक्कत करने की जरूरत नहीं है । इस मामले में थोड़ा सा पेचीदा मसला कांग्रेस के लिये जरूर है ।

दरअसल, राजनीतिक कार्रवाई का सैद्धांतिक निरूपण एक बहुत दिलचस्प विषय हुआ करता है । सिद्धांतों का राजनीतिक व्यवहारिक निरूपण तो इसलिये साधारण बात होती है कि उसमें जो भी किया जा रहा है, उसे पहले से ही बता दिया गया है । उसमें छिपा हुआ या लाक्षणिक प्रकार का कुछ नहीं होता है । चमत्कारों की संभावना तो लक्षणों में हुआ करती है जो यथार्थ में उतरने के पहले तक हवा में कहीं छिपे होते हैं । राजनीति का सौन्दर्यशास्त्र इसी में है । इसीलिये एक समय में अपने एक लेख में हमने हरियाणा के ‘आया राम गया राम’, लालू और मायावती की भूमिकाओं के सिलसिले में राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र की चर्चा की थी जो चमत्कारी ढंग से असंभव को संभव बना कर राजनीति के गतिरोधों को तोड़ने और आगे का रास्ता बनाने का काम किया करती है।

आज कांग्रेस के सामने मूलतः जितनी एक सैद्धांतिक समस्या है, उतनी व्यवहारिक नहीं । जब महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम आए थे, 24 अक्तूबर को ही फेसबुक पर इस लेखक की पहली प्रतिक्रिया थी —
“ हवा से फुलाए गए मोदी के डरावने रूप में सुई चुभाने का एक ऐतिहासिक काम कर सकती है शिव सेना । वह ऐसा कुछ करेगी, नहीं कहा जा सकता है !”

इसके साथ ही आगे अपने एक लेख में लिखा था कि “सचमुच, यथार्थ का विश्लेषण कभी बहुत साफ-साफ संभव नहीं होता है । यथार्थ के अन्तर्विरोध कई अन्य अन्तर्विरोधों के समुच्चयों से घटित होते हैं, जिनका अलग-अलग समुच्चयों के स्वरूप पर भी असर पड़ता हैं। जनता के बीच कोई रहेगा और शासन की छड़ी कोई और , दूर बैठा तानाशाह घुमायेगा, जनतंत्र के अंश मात्र के रहते भी इसमें दरार की संभावना बनी रहती है। लड़ाई यदि सांप्रदायिकता वनाम् धर्म-निरपेक्षता की है तो तानाशाही वनाम् जनतंत्र की भी कम नहीं है । बस यह समय की बात है कि दृश्यपट को कब और कौन कितना घेर पाता है ।

“किसी भी निश्चित कालखंड के लिये कार्यनीति के स्वरूप को बांध देने और उससे चालित होने की जड़सूत्रवादी पद्धति ऐसे मौक़ों पर पूरी तरह से बेकार साबित होती है ।यह कार्यनीति के नाम पर कार्यनीति के अस्तित्व से इंकार करने की पद्धति किसी को भी कार्यनीति-विहीन बनाने, अर्थात् समकालीन संदर्भों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ बनाने की आत्म-हंता पद्धति है । इस मामले में शिव सेना जन-भावनाओं के ज़्यादा क़रीब, एक ज़रूरी राजनीतिक दूरंदेशी का परिचय देती दिखाई पड़ रही है । यह शिव सेना की राजनीति के एक नये चरण का प्रारंभ होगा, भारत की राजनीति में उसकी कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका का चरण ।

“यह शिव सेना के लिये इतिहास-प्रदत्त वह क्षण है जिसकी चुनौतियों को स्वीकार कर ही वह अपने को आगे क़ायम रख सकती है । ऐसे समय में कायरता का परिचय देना उसके राजनीतिक भविष्य के लिये आत्म-विलोप के मार्ग को अपनाने के अलावा और कुछ नहीं होगा । समय की गति में ठहराव का मतलब ही है स्थगन और अंत । कोई भी अस्तित्व सिर्फ अपने बूते लंबे काल तक नहीं रहता, उसे समय की गति के साथ खुद को जोड़ना होता है ।

“एक केंद्रीभूत सत्ता इसी प्रकार अपना स्वाभाविक विलोम, स्वयंभू क्षत्रपों का निर्माण करती है । बड़े-बड़े साम्राज्य इसी प्रकार बिखरते हैं । यह एक वाजिब सवाल है कि क्यों कोई अपनी गुलामगिरी का पट्टा यूँ ही लिखेगा ! ऐसे में विचारधारा की बातें कोरा भ्रम साबित होती हैं ।”

सचमुच, महाराष्ट्र में इस बार न सिर्फ़ मोदी-शाह को, बल्कि सेना, पुलिस के साथ ही सीबीआई, ईडी, आईटी आदि की सम्मिलित राजनीतिक दमन की शक्ति को भी ललकारा गया है । हाल-फिलहाल इनमें न्यायपालिका का भी शुमार हो चुका है ।

कहना न होगा, यहीं से पूरे विषय का परिप्रेक्ष्य भी बदल जाता है । बात बीजेपी-आरएसएस के वृहत्तर विचारधारात्मक परिवार से बाहर निकल जाती है । मसला फासीवादी तानाशाही के प्रतिरोध और प्रतिकार का आ जाता है ।

किसी भी कार्यनीति का हर मसला इसी प्रकार अंततः एक ऩई भाषाई संरचना का मसला ही हुआ करता है । जैसे मनोरोगी में कुछ बेकार के विचारों से होने वाले काल्पनिक दर्द के निवारण के लिये ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की होती है कि दमित विचारों को नये संकेतकों की श्रृंखला से जोड़ दिया जाए ताकि वह चीजों को एक प्रकार के नये तर्जुमा के जरिये पढ़ सके । यही इलाज है, तमाम राजनीतिक सिद्धांतकारों को भी उनकी अपनी जड़ीभूत लाक्षणिक मानसिकता के रोग से मुक्त कराने का । यद्यपि इस क्रम में इस बात का खतरा हमेशा प्रबल रूप से बना रहता है कि उसके शरीर के बाक़ी अंग कहीं नष्ट न हो जाए । इसके लिये आगे की अतिरिक्त मेहनत और रणनीति को तैयार करने की जरूरत रहती है, जो किसी भी राजनीतिक पार्टी का दैनन्दिन काम हुआ करता है ।

देखना है कांग्रेस कार्य समिति कैसे इसे संभालती है । अब तक एनसीपी और कांग्रेस शिव सेना के प्रति जिस प्रकार के लचीलेपन का परिचय दे रही है, वह स्वागतयोग्य है । देश की पूर्ण तबाही के मोदी के एकाधिकारवादी राज से मुक्ति का रास्ता कुछ इसी प्रकार तैयार होगा ।

(11 नवंबर 2019, अपरान्ह डेढ़ बजे )

शनिवार, 9 नवंबर 2019

आधुनिक समाज के कानूनी विवेक को नहीं, कब्जे की वास्तविकता को सुप्रीम कोर्ट ने तरजीह दी है

—अरुण माहेश्वरी 


न्याय, सद्भाव, मानवीय मर्यादा और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति समानता के नाम पर सुनाये गये अयोध्या के फैसले में कहा गया है कि

1. बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को गिरा कर नहीं किया गया है । उसके नीचे मिलने वाले ढांचे 12वीं सदी के हैं जबकि मस्जिद का निर्माण 15वीं सदी में किया गया था ।

2. 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर राम लला की मूर्ति को बैठाना गैर-कानूनी काम था ।

3. 6 दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना कानून के शासन के उल्लंघन का एक सबसे जघन्य कदम था ।

4. बाबरी मस्जिद पर शिया वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया गया ।

5. निर्मोही अखाड़े के दावे को भी खारिज कर दिया गया है ।

6. विवादित जमीन पर सिर्फ दो पक्ष, सुन्नी वक्फ बोर्ड और राम लला विराजमान के दावों को विचार का विषय माना गया ।

7. चूंकि विवादित स्थल पर 1857 से लगातार राम लला की पूजा चल रही है और उस जमीन पर हिंदुओं का कब्जा बना हुआ है, इसीलिये विवादित 2.77 एकड़ जमीन को रामलला विराजमान के नाम करके उसे केंद्र सरकार को सौंप दिया गया जिस पर मंदिर बनाने के लिये केंद्र सरकार एक ट्रस्ट का गठन करेगी । केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर ट्रस्ट का गठन करके उस ट्रस्ट के जरिये मंदिर के निर्माण की दिशा में आगे बढ़े । उस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा का एक प्रतिनिधि रखा जाए ।

8. चूंकि 1992 में मस्जिद को ढहा कर मुसलमानों को उनकी जगह से वंचित किया गया, और चूंकि मुसलमानों ने उस मस्जिद को त्याग नहीं दिया था बल्कि 1949 तक वहां नमाज पढ़ी जाती थी, इसीलिये सुन्नी वक्फ बोर्ड को केंद्र सरकार अथवा उत्तर प्रदेश सरकार अयोध्या में ही एक प्रमुख और उपयुक्त स्थान पर 5 एकड़ जमीन मस्जिद के निर्माण के लिये देगी, ताकि मुसलमानों के साथ हुए अन्याय का निवारण हो सके ।

इस प्रकार इस फैसले में मूलत: कानून की भावना को नहीं, ‘कब्जे की वास्तविकता’ को तरजीह दी गई है । यद्यपि इस फैसले में ‘ न्याय, सद्भाव, मानवीय मर्यादा और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति समानता’ की दुहाई दी गई है, लेकिन इस प्रकार की किसी विवेकशील प्रक्रिया पर पूरा जोर देने के बजाय कानून को घट चुकी घटनाओं को मान कर चलने का एक माध्यम बना दिया गया है । यह एक प्रकार से राजनीति के सामने कानून का आत्म-समर्पण कहलायेगा । यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इस अभियोग से बचने के लिये ही धारा 142 का इस्तेमाल करते हुए मुसलमानों को पहुंचाए गये नुकसान की भरपाई की बात कही है । 

शनिवार, 2 नवंबर 2019

अगला हफ़्ता सुप्रीम कोर्ट के नाम होगा

-अरुण माहेश्वरी



सुप्रीम कोर्ट का जज दूध पीता बोधशून्य बच्चा नहीं होता  जिसे अपनी शक्ति का अहसास नहीं होता है। राजनीति के बजाय वह अपनीकुर्सी की नैतिकता से भी बंधा होता है  वह सरकार में थोड़े समय के लिये आए नेताओं का दास नहीं होता है  प्रेमचंद की ‘नमक का दरोगा’ कहानी को कमतर नहीं समझना चाहिए  यह आदमी के अहम् से जुड़ा पहलू है जिसे छोड़ कर वह अपनी पहचान को लुप्त कियाकरता है  

इसीलिये सत्ता के दलाल वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे जब सुप्रीम कोर्ट को सरकार के इशारों पर नाचने वाले कठपुतले की तरह चित्रित कर रहे थेवे कर्नाटक के भ्रष्ट मुख्यमंत्री येदीरप्पा जैसे ही दिखाई दे रहे थे जो अमित शाह को सुप्रीम कोर्ट का भगवान समझते हैं  

सुप्रीम कोर्ट को इस हफ़्ते भारतीय राष्ट्र और प्रशासन के बारे कुछ दूरगामी महत्व के फ़ैसले सुनाने हैं  बाबरी मस्जिद का मामला हैराफ़ेल की ख़रीद की जाँच कावित्त विधेयकों को धन विधेयकों के रूप में पारित कराके राज्य सभा के साथ धोखाधड़ी का और कश्मीरका भी मामला है  

मोदी पहले ही भारत की शक्ल सूरत बिगाड़ चुके हैं  इसके सर के ताज जम्मू और कश्मीर को खंडित कर चुके हैं  राम मंदिर को लेकर वे इसी बिखराव को जनमन में स्थाई करने की फ़िराक़ में हैं  सत्ता पर एकाधिकार और भ्रष्टाचार का चोली दामन का संबंध हुआ करता है  वित्त विधेयक और राफ़ेल की ख़रीद इसी के प्रतीक हैं  कश्मीर का विषय भारत के संघीय ढाँचे और नागरिक अधिकारों के हनन काअर्थात् हमारे संविधान की आत्मा से जुड़ा मुद्दा बन गया है  इसे आतंकवाद से निपटने की क़ानून और व्यवस्था की बात भर नहीं समझा जा सकता है  

मोदी अभी आदतन विदेश यात्रा पर हैं  जब भी भारत में कुछ कठिन बातें होने की होती हैंविदेश चले जाना उनकी फ़ितरत बन चुका है 

नोटबंदीजीएसटी के वार से अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने वाले मोदी अभी आरसीईपी पर हस्ताक्षर करके भारत की अर्थ-व्यवस्था कोपूरी तरह से विदेशियों को सौंप देने का कुकर्म करने की फ़िराक़ में हैं  उन्हें एशियान की बैठक(2-4 नवंबरमें भारत को सुर्ख़ियों में रखनेकी सनक है। सुर्ख़ियों में ही तो उनके प्राण बसते हैं !

बहरहालहमारी नज़र आगामी हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट पर होगी  हरीश साल्वे की बातों में इस सच को ज़रूर नोट किया था कि जजों कीअपनी विचारधारा नाम की भी कोई चीज़ होती है  लेकिन न्याय और सत्य अभी भारत की नियति से जुड़ गये हैं  भारत का खंडित मुकुटभी इसकी गवाही दे रहा है  हमें इसी न्याय और सत्य की  स्वतंत्र भूमिका का इंतज़ार रहेगा