बुधवार, 27 दिसंबर 2023

रामजन्मभूमि प्रसंग पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की व्याख्या भारत के संविधान से इंकार के अलावा और कुछ भी संभव नहीं है


— अरुण माहेश्वरी 

आज के टेलिग्राफ में राम मंदिर के प्रसंग में हिलाल अहमद का एक लेख है — राम मंदिर : एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य ; एक भिन्न दृष्टि (Ram temple : an alternative perspective; A different reading) । 

हिलाल अहमद ने इस लेख में मूलतः सुप्रीम कोर्ट की राय की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह राय क़ानूनी बारीकियों पर आधारित है ।जहां तक इसके सैद्धान्तिक पहलू का सवाल है, उनके अनुसार इसमें “धर्म निरपेक्षता को ही क़ानूनी फ़ैसले का निदेशक तत्त्व माना गया है । इसीलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस को एक अपराध बताया गया है; मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए पाँच एकड़ ज़मीन देने की बात कही गई है ।” 

अर्थात् हिलाल अहमद बल देकर कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर को हिन्दू भावनाओं का विषय मान कर कोई राय नहीं दी है । 

इसके साथ ही वे यह जोड़ने से नहीं चूकते कि “इसमें इतिहासकारों की उस प्रसिद्ध रिपोर्ट को भी नहीं स्वीकारा गया है जिसमें बाबर के द्वारा मंदिर को तोड़ने की संभावना से इंकार किया गया था।” 

हिलाल के शब्दों में—“अदालत ने एक व्यावहारिक फ़ैसला लिया जिसमें मुस्लिम भावनाओं को ख़याल में रखा गया है ।” 

हिलाल आगे और व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “अयोध्या की आध्यात्मिक भूमि पर मुसलमानों की ऐतिहासिक उपस्थिति का पहलू इस फ़ैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू है । यह शहर बाबरी मस्जिद के अतिरिक्त और कई ऐतिहासिक मस्जिद और इबादत के स्थानों के लिए मशहूर है । भाजपा सरकार ने अयोध्या को एक शुद्ध हिन्दू शहर बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है । फिर भी फ़ैज़ाबाद अयोध्या की मिलीजुली संस्कृति के पुनर्निर्माण की संभावना बनी हुई है ।” 

कुल मिला कर उनका मानना है कि यह फ़ैसला “अयोध्या के डरे हुए मुस्लिम बाशिंदों के आत्म-सम्मान को ही सिर्फ़ बल नहीं पहुँचायेगा , बल्कि धर्मपरायण हिन्दुओं के बीच भी इस शहर में मुसलमानों की धार्मिक उपस्थिति के प्रति स्वीकार के भाव को बल देगा ।” 

हिलाल अपनी इस व्याख्या की अंतिम पंक्ति में कहते हैं कि इस प्रकार की गांधीवादी सलाह आदर्शवादी और कुछ अटपटी लग सकती है, पर ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले’ का यही अकेला रास्ता है ।” 

इस प्रकार अंतिम निष्कर्ष में हिलाल गांधीवादी आदर्शों की प्रायश्चित और सत्याग्रह की अवधारणा के बजाय ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है’ की तरह की लोकोक्ति को ही वास्तविक गांधीवादी आदर्श मान लेते हैं, और कहना न होगा गांधीवादी आदर्शों के अपने उसी कल्पना लोक में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का तथाकथित भिन्न पाठ पेश करके, संविधान की धर्म-निरपेक्ष भावना के अक्षुण्ण बने रहने के भाव के साथ अपनी मनगढ़ंत एक अलग परा-भाषा (meta-language) में उस फ़ैसले की व्याख्या प्रस्तुत करके सबको आत्म-तुष्ट होने का परामर्श देते हैं । 

हम जानते हैं कि किसी भी पाठ की व्याख्या का अर्थ उसके अवचेतन की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं होता है । जब आप किसी फ़ैसले के पीछे निदेशक तत्त्व के रूप में धर्मनिरपेक्षता की बात कहते हैं तो इसका तात्पर्य यही होता है कि उसमें संविधान के धर्मनिरपेक्ष अवचेतन की ही अभिव्यक्ति हुई है । 

पर जब भी किसी पाठ की व्याख्या पाठ के अवचेतन से स्वतंत्र एक अलग वस्तु भाषा के रूप में आती है तो उसका पाठ की अपनी भाषा से कोई संबंध नहीं रहता , बल्कि वह भाषा पाठ से अलग एक परा-भाषा हो जाती है ।किसी भी व्याख्या का अस्तित्व पाठ से पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हो सकता है । हर हाल में वह व्याख्या पाठ में ही अन्तर्निहित होती है, बल्कि वह पाठ के गठन में भी शामिल होती है । 

जब भी कोई विश्लेषक किसी पाठ या प्रमाता का विश्लेषण करता है तो उसका वास्ता उनके अवचेतन के अलावा और किसी चीज से नहीं होता है। उसका लक्ष्य उसके अवचेतन पर अधिकार क़ायम करना होता है । उसका अपना काम सिर्फ़ इतना होता है कि अवचेतन में जो बिखरा हुआ होता है उसे वह एक तार्किक परिणति के रूप में प्रस्तुत करता है । 

इस लिहाज़ से देखने पर सवाल उठता है कि आख़िर हिलाल अहमद की इस व्याख्या का सच क्या है ? क्या हिलाल अहमद की यह व्याख्या सचमुच सुप्रीम कोर्ट की राय का कोई एक ऐसा भिन्न पाठ प्रस्तुत करती है जिससे यह पता चले कि अब तक जो संविधान में अस्पष्ट था उसे ही इस राय में स्पष्ट और तार्किक रूप में पेश किया गया है, या वास्तव में जो ‘आगे की सुध लेने’ के नाम पर भारत के संविधान से एक भयंकर  विच्युति की घातक नज़ीर पेश करता है, हिलाल अहमद उसे ही अपमान के घूँट की तरह पी लेने की नेक सलाह दे रहे हैं ! 

भारत के संविधान के रक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट की कोई भी राय संविधान के अवचेतन की अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है । जब भी कोई अदालत इस अवचेतन से स्वतंत्र रूप में अपने लिए किसी और नई भाषा को अपनाने का रास्ता चुनती है तब यह तय माना जाना चाहिए कि वह अपने लिए संविधान के रक्षक के बजाय  उसके भक्षक की दिशा में बढ़ने का रास्ता चुन रही होती है। 

एक अल्पसंख्यक समुदाय की इबादत के स्थल को ढहा कर उसकी जगह बहुसंख्यक समुदाय के मंदिर के निर्माण की अनुमति देना कभी धर्मनिरपेक्ष संविधान के तहत न्याय नहीं हो सकता है, बल्कि वह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के तर्ज़ पर धर्म-आधारित राज्य के क़ानून के तर्क के सामने शुद्ध आत्मसमर्पण कहलायेगा । 

ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि राम मंदिर प्रसंग पर सुप्रीम कोर्ट की राय की हिलाल अहमद की यह खास ‘बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष’ व्याख्या भी इस फ़ैसले में अन्तर्निहित आत्म समर्पण के पराजय भाव के अवचेतन की अभिव्यक्ति से ज़्यादा कुछ नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि के प्रसंग में जो फ़ैसला सुनाया था उसकी व्याख्या भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान से इंकार के अलावा और कुछ भी संभव नहीं हो सकती है ।

सचाई यह है कि आज के काल में अवचेतन और व्याख्या की तरह के शब्द उस जाति के शब्द हो गए हैं जिनकी ओट में पर्दे के पीछे से एक अलग ही भाव बोध पैदा किया जाता है । ये व्याख्याएँ पाठ के मूल अन्तर्निहित अर्थ को, उसके अवचेतन को विस्थापित करके उस जगह पर क़ब्ज़ा जमाने की कोशिशें हुआ करती है । यह पोस्ट-ट्रुथ काल की विशेष लाक्षणिकता है । 

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

संवैधानिक इतिहास में हमारे वर्तमान सीजेआई का स्थान !

 —अरुण माहेश्वरी 




धारा 370 और इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर राय देते हुए सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ ने 3:2 के फ़ैसले में कहा है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था और जम्मू-कश्मीर की अपनी खुद की कोई आंतरिक सार्वभौमिकता नहीं है । इसके साथ ही यहाँ तक कह दिया है कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा कर उसके विभाजन की तरह के राज्य के स्वरूप को स्थायी तौर पर बिगाड़ देने वाले फैसलें क़ानून की दृष्टि से ग़लत नहीं है । फिर भी यह कहा गया है कि बचे-खुचे जम्मू-कश्मीर को यथाशीघ्र उसका राज्य का अधिकार मिलना चाहिए । इसके लिए भी तत्काल प्रभाव से कोई प्रकार का आदेश देने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने अगले साल के सितंबर महीने 30 तारीख़ तक का समय मुक़र्रर किया है । इस फ़ैसले का क़ानून के अनुसार क्या औचित्य है, सुप्रीम कोर्ट ने इसे रहस्य ही रहने दिया है, इसकी कोई व्याख्या नहीं की है । इसके राजनीतिक मायने बिल्कुल साफ़ है कि तब तक 2024 के चुनाव पूरे हो जाएँगे और यह काम नई सरकार की इच्छा पर निर्भर हो जायेगा । सुप्रीम कोर्ट ने अभी के लिए इस बारे में सरकार के सॉलिसिटर जेनरल के आश्वासन को ही पर्याप्त माना है । सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर रो तोड़ कर लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र बनाना क़ानूनन ग़लत नहीं है । 


इस प्रकार गहराई से देखें तो साफ़ है कि  


(1) संघवाद एक बुरी चीज़ है । 

(2) एक संविधान, एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति और एक भाषा ही भारत का अभीष्ट लक्ष्य है । 

(3) जनतंत्र और सत्ता का विकेंद्रीकरण एक सबसे बड़ी कमजोरी है ।

(4) एक मज़बूत देश के लिए ज़रूरी है एक दल का शासन और राज्य का एकीकृत रूप । 

(5) एक सार्वभौम राष्ट्र में किसी भी अन्य प्रकार की स्वायत्तता और सीमित सार्वभौमिकता का भी कोई स्थान नहीं हो सकता है । 


— भारतीय राज्य के बारे में आरएसएस पंथी तथाकथित राष्ट्रवादियों की ऐसी और कई उद्दंड, मूर्खता भरी बातों की छाप को धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट की इस राय में किसी न किसी रूप में इकट्ठा पाया जा सकता हैं।


बाबरी मस्जिद को ढहा कर अयोध्या की उस विवादित ज़मीन को मनमाने ढंग से राम मंदिर बनाने के लिए सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की तरह ही भारतीय राज्य के संघीय ढाँचे को ही ढहाने की दिशा में यह एक भयंकर फ़ैसला है । गौर करने की बात है कि इस फ़ैसले को लिखने में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने प्रमुख भूमिका अदा की है जो राम मंदिर वाले फ़ैसले की पीठ में भी शामिल थे । 


सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को कह दिया कि कश्मीर में विधान सभा का चुनाव शीघ्र कराया जायेगा, और सुप्रीम कोर्ट ने उनके कथन को ही पत्थर की लकीर मान कर उसी के आधार पर इतना महत्वपूर्ण फ़ैसला लिख मारा, क्या कोई इस पर कभी यक़ीन कर सकता है ! पर इस मामले में बिलकुल यही हुआ है । 


सब जानते हैं कि जिस राज्य में राष्ट्रपति शासन होता है, उसमें चुनाव के प्रस्ताव को संसद के अनुमोदन की ज़रूरत होती है । पर हमारे आज के ज्ञानी सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उसके लिए सॉलिसिटर जेनरल का आश्वासन ही काफ़ी है ! इससे लगता है जैसे सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जेनरल को ही भारत की संसद का मालिक मान लिया है ! 


हमारा सवाल है कि जो सीजेआई किसी वकील के कथन को, भले वह भारत का सॉलिसिटर जनरल ही क्यों न हो, भारत के संसद की राय मान कर फ़ैसला देने का बचकानपन कर सकता है, क्या वह किसी भी पैमाने से संवैधानिक मसलों पर विचार करने के योग्य हो सकता है ? धारा - 370 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दुर्भाग्यपूर्ण फ़ैसले में यही साबित हुआ है । 


अनेक झूठे मामलों में फँसा कर जेलों में बंद विपक्ष के नेताओं, नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को बेल देने के बजाय जेलों में सड़ाने में आज का सुप्रीम कोर्ट सबसे अधिक तत्पर नज़र आता है । इसी प्रकार महाराष्ट्र की तरह की मोदी की अनैतिक राजनीतिक करतूतों से जुड़े मामलों पर फ़ैसलों की भी उसे कोई परवाह नहीं है । पर राजनीतिक महत्व के जटिल मामलों पर भी बेतुके ढंग से संविधान की व्यवस्थाओं को ताक पर रख कर फ़ैसले सुनाने में इस सुप्रीम कोर्ट को ज़्यादा हिचक नहीं होती है । 


धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से एक ही सत्य को चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया है कि अदालतें राजसत्ता का अभिन्न अंग होती है । संसदीय जनतंत्र का यह एक खंभा है, पर अन्य से स्वतंत्र नहीं, उसका सहयोगी खंभा ।


वर्तमान सीजेआई ने अपने इस प्रकार के कई फ़ैसलों से भारत में तानाशाही के उदय का रास्ता जिस तरह साफ़ किया है उसके बाद क्या यह कहना उचित नबीं होगा कि चुनाव आयोग के चयन की प्रक्रिया से उन्हें मोदी ने ही जिस प्रकार अपमानित करके क़ानून के ज़रिए निकाल बाहर किया है वह उन्हें उनके कर्मों की ही एक उचित सजा है । 


हमारे सीजेआई के एक के बाद एक संविधान-विरोधी, अविवेकपूर्ण और फ़ालतू राष्ट्रवादी फ़ैसलों के समानांतर उनकी लंबी-चौड़ी भाषणबाजियों को देख कर सचमुच एक ही बात कहने की इच्छा होती है — ‘अध जल  गगरी छलकत जाय’ । 


कहना न होगा, डी वाई चंद्रचूड़ ने भारत के संवैधानिक इतिहास में अपने लिए एक नागरिक स्वतंत्रता और जनतंत्र के विरोधी का स्थान सुरक्षित कर लिया है । 




सोमवार, 11 दिसंबर 2023

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम के और भविष्य के संकेतों पर क नज़र




—अरुण माहेश्वरी 


भारत को अगर कोई हिटलर की तर्ज़ के हत्यारे फासीवाद से बचाना चाहता है तो उसके सामने एक ही विकल्प शेष रह गया है — कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की विजय को सुनिश्चित करना। 


इस मामले में केरल की तरह के राज्य की परिस्थिति कुछ भिन्न कही जा सकती है । वहाँ चयन कांग्रेस और वामपंथ में से किसी भी एक का किया जा सकता है । दोनों ही इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक है । 


पर इसे नहीं भूलना चाहिए कि भारत में बहुत तेज़ी से राजनीति की राज्यवार चारित्रिक विशिष्टता ख़त्म हो रही है । ख़ास तौर पर धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के उपरांत राष्ट्रपति के द्वारा राज्यों के अधिकारों के हनन के किसी भी मामले को अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है । ऐसे में केरल जैसे प्रदेश के मामले में भी कोई रणनीति तय करते वक्त इस नई ज़मीनी हक़ीक़त की गति को ध्यान में रखा जाना चाहिए । वहाँ कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोधों की दीर्घकालिकता के दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं ।यह अंततः दोनों की ही राजनीति को संदिग्ध बना सकता हैं । 


भारत की इस बदलती हुई एकीकृत राजसत्ता की राजनीति में जो भी क्षेत्रीय दल इंडिया गठबंधन के बाहर रह कर अपने निजी अस्तित्व की सदैवता का सपना पाले हुए हैं, वह उनका कोरा भ्रम है । इसी भ्रम में वे शीघ्र ही अपने अस्तित्व को खो देने अथवा फासीवाद को बढ़ाने के लिए रसद साबित होने को अभिशप्त हैं । 


हाल के पाँच राज्यों के चुनावों के अनुभव बताते हैं कि छोटे और क्षेत्रीय दलों ने न सिर्फ़ अपनी शक्ति को काफ़ी हद तक  गँवाया है बल्कि वे समग्र रूप से राजनीतिक तौर पर भी बहुत कलंकित हुए हैं । इन चुनावों ने जनतंत्र के पक्ष में व्यापक राजनीतिक लामबंदी  के लिए इंडिया गठबंधन की महत्ता को भी नए सिरे से रेखांकित किया है । 


इन चुनावों में इंडिया गठबंधन की ग़ैर-मौजूदगी से छोटे-छोटे दलों के चुनावबाज नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भारी बल मिला और उन्होंने सीधे तौर पर फ़ासिस्ट ताक़तों को बल पहुँचाने से परहेज़ नहीं किया । 


मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी की हास्यास्पद और नकारात्मक भूमिका के पीछे जहां इंडिया गठबंधन के प्रति कांग्रेस की ग़ैर-गंभीरता को भी एक कारण कहा जा सकता है । यही बात राजस्थान में आदिवासी पार्टी और सीपीआई(एम) पर भी लागू होती है। 


राजस्थान में भारत आदिवासी पार्टी जैसी संकीर्ण हितों की पार्टी ने तो फिर भी तीन सीटें हासिल करके चुनाव लड़ने की अपनी ताक़त का कुछ परिचय दिया । पर मूलतः उन्होंने भाजपा की जीत में ही सहयोग किया है । पर सीपीआई(एम) ने तो अपनी पहले की दोनों सीटों को भी गँवा दिया ।सीपीएम ने भी कई सीटों पर कांग्रेस को पराजित करने का सक्रिय प्रयास किया और इस प्रकार सीधे भाजपा की मदद की । 


अर्थात् सीपीएम ने तो चुनावी नुक़सान के साथ ही समग्र रूप से राजनीतिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी अपनी स्थिति को बेहद कमजोर किया है। 


क्रांतिकारी दल शुद्ध चुनावी राजनीति के चक्कर में कभी-कभी कैसे चुनावी प्रक्रिया के बीच से अपने जनाधार को बढ़ाने के बजाय उसे गँवाते जाते हैं और इसी उपक्रम में पार्टी के अंदर ख़ास प्रकार के भ्रष्ट संसदवाद को प्रश्रय देते हैं, इसे अब दुनिया के दूसरे कई देशों के अनुभवों के साथ मिला कर हम अपने देश में भी साफ़ रूप में घटित होते हुए देख सकते हैं । वे अवसरवादी तत्त्वों का अड्डा बनते चले जाते हैं । यही वह पतनशीलता का तत्त्व है जो क्रांतिकारी दल के लिए नई परिस्थिति में ज़रूरी नई क्रांतिकारी कार्यनीति के विकास में भी बाधक बनता है । क्रमशः पार्टी समग्र रूप में राजनीतिक तौर अप्रासंगिक बन जाती है । 


गठबंधन में होकर भी गठबंधन के प्रति निष्ठा का अभाव आपकी विश्वसनीयता को बहुत कम करता है । संसदीय रास्ते से विकास के लिए यह समझना ज़रूरी है कि हर नई परिस्थिति नए गठबंधनों के प्रति लचीलेपन और आंतरिक निष्ठा की माँग करती है । तात्कालिक लाभ के लोभ में कैसे कोई अपने ही सच को, जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और निष्ठा के बृहत्तर हितों को दाव पर लगा कर खो देता है, यह उसी अवसरवाद का उदाहरण है । ऐसे चुनाव-परस्तों से पार्टी को हमेशा बचाना चाहिए । 


तेलंगाना में भी सीपीआई(एम) के राज्य नेतृत्व ने स्वतंत्र रूप से 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसकी भूमिका का अंतिम परिणामों पर क्या असर पड़ा, यह एक आकलन का विषय है । 


जहां तक सीपीएम का सवाल है, उसके सामने 2024 में बंगाल में और भी जटिल परिस्थिति है । अभी तक की स्थिति में बंगाल में इंडिया गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी की टीएमसी के पास ही रहता हुआ दिखाई दे रहा है । दूसरी ओर टीएमसी और सीपीएम के बीच किसी भी प्रकार का समझौता असंभव लगता है । दोनों परस्पर के खून के प्यासे बने हुए हैं । इसीलिए यहाँ भाजपा-विरोधी मतों का एकजुट होना असंभव है । वहाँ वामपंथ का तभी कोई भविष्य मुमकिन है, जब टीएमसी के खिलाफ जनता में भारी असंतोष हो और वाममोर्चा अपने सकारात्मक कार्यक्रम से विपक्ष की प्रमुख शक्ति बन कर उभर सके। केंद्र में भाजपा की सरकार के रहते ऐसा संभव नहीं लगता है । 


जब भी व्यक्ति के सामने किसी एक चीज के दो-दो विकल्प होते हैं तो किसी नए विकल्प के बजाय जो हाथ में है वह उसे छोड़ना नहीं चाहता । बंगाल के भाजपा-विरोधी मतों की यही सबसे बड़ी दुविधा है । इस कश्मकश में वे ज़्यादा से ज़्यादा खुद का ही अधिकतम नुक़सान कर सकते हैं।  


इसीलिए यह ज़रूरी है कि वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ मिल कर एक नई कारगर कार्यनीति तैयार करने की कोशिश करें जो मतदाताओं के बीच भाजपा-विरोध को लेकर कोई दिग्भ्रम पैदा न होने दे। जिन खास सीटों पर भाजपा की जीत संभव है, उन पर उसकी पराजय को सब मिल कर सुनिश्चित करें ।


2024 में मोदी और आरएसएस के फासीवाद बिना परास्त किए आम लोगों के लिए भारत में राजनीति की संभावनाओं का अंत हो जायेगा । पूरा देश अडानियों के सुपुर्द कर दिया जाएगा और व्यापक जनता की स्थिति सरकार के कृतदासों से बेहतर नहीं होगी । 

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

रेवड़ियाँ और उनकी राजनीतिक महत्ता

-अरुण माहेश्वरी 



क्रांतिकारी वामपंथी राजनीति में बहस का यह एक पुराना विषय रहा है कि जब किसी विश्व परिस्थिति में क्रांति का पुराना रूप संभव न दिखाई देता हो, जिसमें वर्गीय शोषण के सभी रूपों का अंत करके सर्वहारा की तानाशाही क़ायम करने की कल्पना की जाती है, तब राजनीति का लक्ष्य क्या हो सकता है ? यह सवाल ख़ास तौर पर भारत के अलग-अलग राज्यों में वामपंथी सरकारों की भूमिका के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक विषय बन कर सामने आया था । तभी, केरल में 1957 की पहली कम्युनिस्ट नेतृत्व की सरकार के समय से ही यह एक समझ बन चुकी थी कि पतनशील पूंजीवाद के काल में भारत की तरह के एक विकासशील संघीय पूँजीवादी देश में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्यों में वाममोर्चा सरकारों की भूमिका जनता को राहत पहुँचाते हुए उसमें क्रमशः क्रांतिकारी चेतना के विकास की ही हो सकती है । 


अर्थात् तभी से भारत में जनता की जनवादी क्रांति के दौर में जनता को राहत देने वाले कदम कृषि क्रांति आदि की तरह के कथित रणनीतिक महत्व के कदमों के समान महत्व के कदमों के रूप में मान्यता पाने लगे थे । आम जनता को जीवन में राहत देना क्रांतिकारी सामाजिक रूपांतरण की राजनीति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गए थे । 


इस प्रकार, ‘राहत’ और ‘समाज के वर्गीय संतुलन में परिवर्तन’ - इन दोनों से वामपंथी राजनीति के अस्तित्व का वह दोहरा (two fold) रूप सामने आया जो उस राजनीति के अपने मूल सत्य और उसके मौजूदा स्वरूप के बीच की अविच्छिन्न एकता को दर्शाता है और वही परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग रूपों में अपने को प्रकट करता है । 

कहना न होगा, प्रमाता (subject) के अस्तित्व के इस दोहरे रूप, हम जो हैं और हम जैसे हैं, की अविच्छिन्न एकता की यही शर्त जितनी वामपंथी राजनीति को परिभाषित करती है, उतनी ही किसी भी अन्य, उदारवादी या धुर दक्षिणपंथी राजनीति के सत्य को भी परिभाषित करने पर लागू होती है । इस विषय में यह देखने लायक़ बात है कि इतिहास में कभी जिन समाज कल्याणकारी नीतियों से सिर्फ समाजवाद को परिभाषित किया जाता था, उनसे ही कालक्रम में समग्र रूप से एक पूंजीवादी समाज में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा विकसित हुई है । हमारे भारतीय संविधान में तो राज्य की पूरी परिकल्पना ही एक कल्याणकारी राज्य के रूप में की गई है । 


भारत के संविधान की ही यह विशेषता रही है जिसके चलते भारत में वामपंथी राजनीति का अब तक का पूरा सिलसिला हमारे संविधान से टकराने के बजाय उसकी रक्षा का सिलसिला ज्यादा रहा है । संविधान में राज्य की कल्याणकारी भूमिका वामपंथी राजनीति के कार्यनीतिगत अर्थात् उसके तात्कालिक कार्यक्रमों के तमाम पहलुओं के लिए यथेष्ट अवसर पैदा करती रही है । इसीलिए भारत में जनतंत्र और संविधान की रक्षा के सवाल पर होने वाले संघर्षों में वामपंथ को हमेशा इस संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में पाया जाता रहा है । 


इसी संदर्भ में यहाँ हमारे लिए विचार का मौजू विषय है जनता को राहत या रेवड़ियों का विषय । प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दिनों राज्य सरकारों के द्वारा जनता को दी जाने वाली राहतों को रेवड़ियाँ कहा था क्योंकि अपनी फ़ासिस्ट विचारधारा के नाते वे जनता को राहत दिये जाने का अधिकारी नहीं मानते हैं । किसी के भी जीवन की परिस्थितियों में राहत पहुँचाने का अर्थ होता है उसके जीवन को सहज अर्थात् स्वतंत्र बनाना । इसीलिए जनता को गुलाम बना कर रखने वाले एक चरम दमनकारी राज्य के समर्थकों को ऐसी राहतें कभी मान्य नहीं हो सकती हैं। वे ‘राहत’ की अवधारणा से मूलतः नफ़रत करते हैं, इसीलिए उसे ‘रेवड़ी’ कहते हैं । फिर भी, उनकी राजनीति की भी यह मजबूरी है कि जब तक राज्य का जनतांत्रिक ढाँचा बना हुआ है, सत्ता की लड़ाई में वे ऐसी ‘रेवड़ियों’ के प्रयोग से परहेज़ नहीं कर सकते हैं । यही वजह है कि उनकी हरचंद कोशिश संविधान के इसी मूलभूत जनतांत्रिक ढाँचे को तोड़ने की रहती है । 


बहरहाल, जहां तक जनता को ‘राहत’ का सवाल है, इसका कोई एक निश्चित आकार नहीं हो सकता है । हम अपने इधर के छोटे से काल के अनुभवों को ही देखें तो पायेंगे कि यूपीए के काल में इन राहतों की बात मनरेगा से लेकर खाद्य और रोज़गार के अधिकार और किसानों के क़र्ज़ की माफ़ी तक चली गई थी । दिल्ली में ‘आप’ सरकार ने इसे बेहतर और मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य से जोड़ा । विभिन्न राज्य सरकारों ने इसमें महिला सशक्तिकरण और लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले कई नए प्रकल्प शामिल किए । वाम मोर्चा सरकारों ने भूमि सुधार और मुफ़्त बीज और खाद के वितरण से कृषि सुधार का जो कार्यक्रम अपनाया था उसे पंचायती राज्य की व्यवस्थाओं ने एक ठोस राजनीतिक ज़मीन दीं । मोदी सरकार ने इसमें उज्जवला और किसान सम्मान निधि की तरह की नगद राहत के साथ ही पाँच किलो मुफ़्त अनाज की योजना शामिल की । और, अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य को पूरी तरह से मुफ़्त करने के साथ ही समाज के अलग-अलग मेहनतकश तबकों के लिए अलग-अलग राहत योजनाओं को शामिल करके इसे क्रमशः सामाजिक न्याय के सवाल से जोड़ने और पिछड़े हुए तबकों की सत्ता में भागीदारी से जोड़ने की दिशा में बढ़ रही है । 


इस प्रकार, समग्र रूप से देखें तो हम पायेंगे कि वामपंथ जहां अपनी समतापूर्ण समाज की राजनीति के हित में राहत की दैनंदिन राजनीति को अपना रही थी, वहीं उदार पूंजीवाद कल्याणकारी राजनीति के ज़रिए सामाजिक न्याय की दिशा में बढ़ रहा है । और एक फ़ासिस्ट राजनीति राहत पैकेज देने पर भी इनके प्रति तिरस्कार के भाव को बढ़ावा दे रही है । 


एक जनतांत्रिक व्यवस्था में, जहां किसी न किसी रूप में जनता के प्रति जवाबदेही बनी रहती है, राजनीति की तात्कालिक ज़रूरतें कैसे राजनीति के उद्देश्यों के प्रकट रूपों के बीच के भेद को कम करती है और अनोखे ढंग से मनुष्य की मूलभूत ज़रूरतों के हित में चीजों को ढालती जाती है, भारत में राहतों की राजनीति की वर्तमान प्रतिद्वंद्विता इसी का एक प्रमाण है । इस समूचे उपक्रम में सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है संविधान के उस जनतांत्रिक ढाँचे का बना रहना जो राहतों को लेकर इस प्रतिद्वंद्विता की अनिवार्यता पैदा करता है । 


किसी भी प्रमाता (subject) के अस्तित्व का यही वह two fold, द्वयात्मक स्वरूप है, जो उसकी आंतरिक गतिशीलता का मूल कारक होता है । यही उसके अस्तित्व के नए-नए रूपों को सुनिश्चित करता है । इस बात को साफ़ तौर पर समझने की ज़रूरत है कि इसमें किसी बाहरी ईश्वरीय (विचारधारात्मक) परम तत्त्व की कोई भूमिका नहीं होती है । एक प्रमाता के रूप में भारतीय राजनीति के सभी रूपों की इस द्वयात्मक एकता की भी यही सच्चाई है । 


मनोविश्लेषक जॉक लकान ने इसे ही प्रमाता के आब्जेक्ट-ओ के रूप में व्याख्यायित किया था, प्रमाता में अन्तर्निहित उसकी अभिलाषाओं का खुद से ही छिपा हुआ वह अंश जिसकी पूर्ति के लिए वह हमेशा क्रियाशील रहता है । इससे मुक्त प्रमाता मृतक समान होता है । यह राजनीति में सत्ता की अविच्छिन्न अभिलाषा का ही एक अंश है । 

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

चुनाव के ऐन वक्त ईडी की करतूतें क्या कहती है ?


— अरुण माहेश्वरी



जैसे जैसे पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव क़रीब आ रहे हैं, मोदी में अपनी शक्ति के क्षरण के लक्षण तेज़ी के साथ प्रगट होने लगे हैं । अभी राजस्थान में चुनावी आचार संहिता के लागू हो जाने के बाद के काल में मुख्यमंत्री के घर पर ईडी आदि अपनी एजेंशियों के शिकारी कुत्तों से हमला करवाना भी उनके उन लक्षणों के ही संकेत हैं । आसन्न पराजय के साफ अंदेशों से अपनी अब तक की एकछत्र सम्राट वाली उनकी ग्रंथी उन्हें बुरी तरह से सताने लगी है ।

फ्रायडियन मनोविश्लेषण के सिद्धांतों से परिचित लोग जानते हैं कि आदमी के अचेतन में इस प्रकार का castration complex, शक्तियों के छीन लिये जाने की बधियाकरण ग्रंथी किस प्रकार लक्षणों की एक गाँठ के रूप में काम किया करती है । इस गाँठ के कई रूप होते हैं। इनमें एक गतिशील, लचीला रूप भी होता है जिसमें विक्षिप्तता की स्थिति के विश्लेषण अर्थात् निदान की संभावना बनी रहती है । पर दूसरा रूप वह है जो निदान की हर कोशिश के साथ उसी अनुपात में और जटिल होता जाता है, अर्थात् रोग पर क़ाबू के बजाय वह बढ़ता ही चला जाता है । व्यक्ति अपनी वास्तविकता को पहचान ही नहीं पाता है, बल्कि उससे और और दूर होता चला जाता है । वह अपनी अपेक्षित भूमिका के निर्वाह में हर दिन ज्यादा से ज्यादा असमर्थ साबित होता जाता है । उसके कारण जो स्थितियाँ पैदा होती है वह तो और भी जटिल होती है जिनकी मांगों को मनोरोगी जरा भी छू भी नहीं पाता है । 

यह मनोरोगी की शक्ति के क्रमिक अनिवार्य क्षय का ऐसा उपक्रम है जिसमें बधियाकरण के बाद की कल्पना से वह उभर ही नहीं पाता है । इसमें विडंबना की बात यह है कि मनोरोगी की अपनी पहचान ही  उसमें एक विप्रतिषेध तैयार करती है । वह जिसे अपनी भूमिका मान कर चलता है, जिसे लेकर उसे खतरा महसूस होता है, अर्थात् जिसके अभाव के बारे में सोच-सोच कर उसे वंचना का भाव सताया करता है, वह भावबोध उसमें कोई क्षणिका या तात्कालिक रूप में पैदा नहीं होता है बल्कि यह उसकी शक्ति में एक अनिवार्य गड़बड़ी के तौर पर स्थायी रूप में मौजूद होता है । हमारी ये बातें कोरी कपोल कल्पनाएं नहीं है । फ्रायड के अनुभवों और आदमी के मनोविज्ञान के बारे में उनके प्रयोगों से ये सिद्ध हैं । यह लोक रीति से जुड़ी हुई बातें हैं । 

मोदी लगता है अभी से अपनी पहचान को लेकर कुछ ऐसी ही मनोदशा के दुष्चक्र में फँस चुके हैं । 

शुरू में उन्होंने अपनी इस शक्ति के क्षरण को कुछ खास प्रकार की चुनावी रणनीतियों, सांसदों और पार्टी के नेताओं को विधायकी की लड़ाई में उतारने की क़वायदों आदि से रोकने की कोशिश की थी । लेकिन अब क्रमशः जब यह साफ होता जा रहा है कि उनके पतन के लक्षणों में इतनी लोच नहीं बची है कि उनमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से एक दूसरे शक्तिमान का आकार पाया जा सकता है । तब अंत में अब मोदी पूरी तरह से अपने पर, अपनी राजनीति के मूलभूत चरित्र, अपनी मूलभूत संघी सच्चाई पर उतर आए हैं, अर्थात् तानाशाही तौर-तरीक़ों, विपक्ष के खिलाफ पूरी बेशर्मी से राजसत्ता के बेजा उपायों से जनतंत्र में अपनी खोई हुई शक्ति को पाना चाहते हैं । 

आदमी की अपनी मूल पहचान का पहलू कुछ इसी प्रकार से उसे संकट के समय में नियंत्रित करने लगता है । इसीलिए कहते हैं कि संकट के वक्त ही आदमी के चरित्र की मूल पहचान सामने आती है । राजनीति में जनतांत्रिक और तानाशाही चरित्र की पहचान ऐसे अवसरों पर ही होती है जब व्यक्ति अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए किन रास्तों के उपयोग को अपने लिए श्रेयस्कर मान कर अपनाता है । 

विश्लेषकों के लिए जरूरी है कि उन्हें किसी की राजनीति के मूल चरित्र के इन लक्षणों की सचाई का पूर्व ज्ञान होना चाहिए । तभी वे इन्हें महज एक फोबिया या विकृति मानने के बजाय राजनीति के चरित्र और उसकी पहचान से जोड़ कर समझ सकते हैं । 

दरअसल आदमी की खुद की चारित्रिक पहचान भी उसके के भावों के निर्माण में प्रसंस्करण की प्रमुख भूमिका अदा करती है । राजनीति के मसलों में संकेतक और संकेतित के बीच जो विरोध नजर आते हैं उसमें इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संकेतित का प्रभाव तय करने में संकेतक की सक्रिय भूमिका अदा करते हैं । 

इसीलिए आज मोदी पर भी पराजय के संकेतकों की भूमिका को महत्वपूर्ण समझना चाहिए । वे क्रमशः मोदी के अवचेतन को उघाड़ रहे हैं । जाहिर है कि आगे इसके और भी भयंकर कुत्सित रूप देखने को मिलेंगे । इनका संबंध मोदी की सत्ता संबंधी अपनी वासनाओं से भी हैं और किसी की वासनाओं का संबंध सिर्फ उसके संतोष से नहीं होता । उसका उद्देश्य जितना व्यक्त होता है उतना ही अव्यक्त भी रहता है । आदमी की हर मांग आदमी की वासनाओं का एक खास रूप होती है । जाहिर है कि इन चुनावों में अभी हमें मोदी की मांगों के और भी बहुत भद्दे रूप देखने को मिलेंगे ।

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

रवीश, श्रीमंत लुकास और विनय घोष

 



कल रवीश कुमार अपने एक ट्वीट में अमेरिका के रोह्वी आइलैंड राज्य के प्रोविडेंस शहर में ‘सिम्पोजियम’ नाम की किताबों की एक दुकान का अनुभव साझा कर रहे थे जहां एक गीतकार श्रीमंत लुकास का  ‘प्यारा सा’ गीत बज रहा था — Just outside of Austin । 


इस गीत का टेक था — turn off the news and build a garden (समाचार को बंद करो बाग़वानी करो) । इसमें लेखक कहता है — “नफ़रत इस समय का लक्षण है । … सारे दूसरे विचार उलझन पैदा करते हैं। मुझे अब और कोशिश और समझने की ज़रूरत नहीं । समाचार बंद करो तो शायद जंग जाऊँ । …शायद कुछ अधिक मुक्त महसूस करूँ । समाचार बंद करो और बच्चों को खिलाओ । विश्वास ही विश्वास पैदा करता है । समाचार बंद करो बाग़वानी करो ।” ( Turn off the news and build a garden…Hatred is a symptom of the times,…All these other thoughts have me confused/ Now I don’t need to try and understand/Nay be I’ll get up, turn off the news…We might get feel a bit more free / Turn off the news and raise the kids … Trust builds trust) 


रवीश के इस ट्वीट को पढ़ कर हमें बंगाल के नवजागरण के अपने प्रकार के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार विनय घोष की सत्तर साल पहले कही गई वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने कोलकाता के संदर्भ में ‘मेट्रोपोलिटन मन’ (1967) शीर्षक एक लेख में आधुनिक मनुष्य के बारे में लिखा था कि “वह एक ऐसा प्राणी है जिसने सिर्फ़ भोग किया और अख़बार पढ़ा । …ये दोनों ही एक प्रकार का नित्य कर्म है, इनमें से किसी में कोई प्राण नहीं, चित्त नहीं है । पूँजीवादी यांत्रिक समाज में यही है आदमी की अंतिम परिणति ।” 


इसके बाद ही विनय घोष ने विद्यापति के एक पद को उद्धृत करते हुए लिखा : 


“तनु पसेब पासाहनि भासलि, पुलक तइसन जागु।

चूनि-चुनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बालआ भांगु।

भन विद्यापति कम्पित कर हो, बोलल बोल न जाए।”


(शरीर के प्रस्वेद से प्रसाधन बह गये, ऐसी पुलक उठी कि कंचुली तार-तार होकर फट गई । विद्यापति ने कहा कि इसके बाद जो हुआ हाथ कॉंप जाते हैं, उसे कह कर भी कहा नहीं जा सकता।)


विनय घोष कहते हैं कि “तब कवि के हाथ काँप गए थे यह लिखते हुए । अभी हमारे हाथ कॉंपते नहीं हैं । ऑटोमोबाइल की तरह आटोमैटिक लेखन में आधुनिक जीवन के बारे में सिर्फ रमन और भोजन की बातें ही अनर्गल रूप से कही जा सकती है । मनुष्य का वह शरीर तो शरीर ही है, पर वह प्रस्वेद अब नहीं है, जो है उसका नाम है पसीना, बासता हुआ पसीना । 


विनय घोष का यह लेख ‘मेट्रोपोलिटन मन’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध पुस्तक में संकलित है । इस पुस्तक का पहला संस्करण 1973 में ओरियेंट लांगमैन से निकला था । इसके बाद 2009 में ओरियेंट ब्लैकस्वान से इसका छठां संस्करण प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के लेख पाठक को कोलकाता महानगर मध्यवर्ग के तथाकथित ‘विद्रोही’ मन में बहुत गहरे तक पैठने का रास्ता तैयार करते हैं । 

विनय घोष ने 1951 में एक लेख लिखा था — ‘कालपेंचार नक़्शा’। काली प्रसन्न मुखर्जी की 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के कोलकाता के जीवन के बारे में किंवदंती स्वरूप पुस्तक ‘हुतुम पेंचार नक़्शा’ के शीर्षक की तर्ज़ पर ही इसका शीर्षक है । इसमें उन्होंने कोलकाता का जो चित्र खींचा था, देखने लायक़ है : 


“आइये, कोलकाता का असली बाइस्कोप देखते हैं । …पहले देखिए लाट साहब की कोठी ( गवर्नर हाउस) । फिर मोनुमेंट, मैदान देखिए, जादूगर (म्यूज़ियम) देखिए, बस-ट्राम पर नाना प्रकार के लोगों को देखिए, रंग-बिरंगी सजी हुई दुकानों को देखते-देखते चले जाइए काली घाट तक । काली घाट की काली देखिए, कोलकाता की गंगा देखिए, और उसके बाद चिड़ियाघर के तमाम विचित्र जीव-जन्तुओं को देखिए । जिराफ़ देखिए, हाथी देखिए, गैंडा देखिए, बाघ देखिए, भालू देखिए, उल्लू देखिए, बंदर देखिए, चिंपांजी देखिए, गुरिल्ला देखिए, वन मानुष और वन बिलाव देखिए। इसे ही चिड़ियाघर कहते हैं, कोलकाता का दूसरा नाम । अर्थात् जिसके पुकार का नाम ‘पहला’ उसका अच्छा ‘परमेश्वर ‘ । जैसे जिसके पुकार का नाम ‘चिड़ियाघर ‘ उसका असली नाम ‘कोलकाता’ । 


विनय घोष लिखते हैं कि “कोलकाता के कल्चर की 

मूल बात है — “पागलपन, मतवालेपन (हुजुम) और चालबाज़ी ( (बुजुरुकी) कोलकाता की प्राचीन संस्कृति इसी मतवालेपन और चालबाज़ियों की उपज बै ।” 


विनय घोष की ये टिप्पणियां समग्रतः कथित मेट्रोपोलिटन कल्चर पर की गई टिप्पणियाँ हैं । अख़बार और समाचार माध्यम इसी कल्चर के प्रमुख अंग हैं । 


आज अमेरिकी कवि कह रहा है, इन समाचारों को बंद कर दो ! बाग़वानी करो, बच्चों से खेलो । इस कल्चर का मूल जैसे अब अपने सारे आवरणों को फेंक कर नग्न बाहर आ गया है ! 


—अरुण माहेश्वरी


सोमवार, 11 सितंबर 2023

एक नई वैश्विक भूमिका के मुक़ाम पर भारत

 

(भारत की राजनीति में अघटन (catastrophe)की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतें

 


अरुण माहेश्वरी 


अघटन ऐसा कोई आसन्न विध्वंस नहीं होता, जिससे हम सही रणनीति बना कर अपने को बचा सकते हैं । अघटन अपने तात्त्विक अर्थ में हमारे जीवन में पहले से ही घटित सत्य है, और हमारा अस्तित्व उससे बचे हुए लोग, मानो उसके अवशिष्ट की तरह होता है । 


‘हम , भारत के लोग’, का अर्थ है —  उपनिवेशवाद के अंत की एक भारी उथल-पुथल के बाद के बचे हुए लोग । 


यह कुछ वैसे ही है जैसे धरती पर हुई भारी उथल-पुथल ने कोयला और ईंधन को पैदा किया और फिर धरती पर जब मनुष्य आया जो उसने इस ईंधन का उपयोग करके अपने जीवन का विशाल महल तैयार किया। इस प्रकार, मानव जाति की सामान्यता हमेशा किसी सर्वनाश के बाद का सत्य ही होता है । मानव सभ्यता मूलगामी क्रांतियों से आगे बढ़ती है ।


आज हम मोदी युग के बाशिंदे हैं । अभी 2024 में नहीं, हमारे जीवन में मोदी नामक घटना-चक्र का सर्वनाश तो 2014 में ही घटित हो गया था । आज हम उस अघटन से उत्पन्न सामाजिक ईंधन से अपना जीवन नए सिरे से तैयार कर रहे हैं। अर्थात्, हम 2014 के अघटन के परवर्ती, बचे हुए लोग है । अघटनोत्तर अवशिष्ट । 


अपने बारे में इस सत्य को बिना समझे हम कभी अपनी वास्तविकता को नहीं पहचान सकते हैं । राजनीति के क्षेत्र में, ग़नीमत है कि ‘भारत जोड़ों’ यात्रा के बाद ‘इंडिया’ मोर्चे के गठन से भारत के विपक्ष ने इस यथार्थ बोध का परिचय देना शुरू कर दिया है । सब जानते हैं कि इस लड़ाई के परिणाम भी 2014 के पहले की स्थिति में पुनरावर्तन के रूप में सामने नहीं आयेंगे । उनसे आज के विश्व में भारत के पुनर्निर्माण की एक बिल्कुल नई चुनौती पैदा होगी। 


इसीलिए अभी से ‘इंडिया’ मोर्चे का संचालन उसके दूरगामी लक्ष्यों को सामने रखते हुए किया जाना चाहिए । इस मायने में सचमुच 2024 का महत्व एक और आज़ादी की लड़ाई से कम नहीं होगा । यह दुनिया में उत्तर-उपनिवेशवाद की तरह ही उत्तर-फासीवाद के एक नए युग का प्रारंभ होगा । 


आइये, यहाँ हम इस नई परिस्थिति की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतों को विचार का विषय बनाते हैं। सबसे पहले हम धारा 370 के विषय को ही लेते हैं: 


सुप्रीम कोर्ट में धारा 370


सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली लगभग अठारह दिन की बहस के बीच से सरकार की इच्छा के विपरीत यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप में सामने आई कि धारा 370 भारत के संविधान का एक अभिन्न अंग है । यह हमारे संविधान के संघीय ढाँचे की अर्थात् संविधान की धारा-1 की पुष्टि करने वाली एक सबसे महत्वपूर्ण धारा है ।


इस बहस में यह भी साफ़ हुआ कि धारा 370 ने भारत के साथ कश्मीर के पूर्ण विलय में कभी किसी बाधक की नहीं, बल्कि सबसे बड़े सहयोगी की ही भूमिका अदा की है । पिछले पचहत्तर साल का भारत का संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास इसी बात की गवाही देता है । संघीय ढाँचा भारत के वैविध्यपूर्ण स्वरूप की एकता और अखंडता की एक मूलभूत शर्त और भारत के संविधान की आत्मा है । इसीलिए धारा 370 को किसी भी शासक दल की राजनीतिक सनक का विषय नहीं बनाया जा सकता है । धारा-370 को हटाना भारत के संघीय ढाँचे और संविधान पर कुठाराघात से कम नहीं है । 


सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली बहस से ये बातें बिल्कुल साफ़ रूप में उभर कर सामने आई थी।


इस विषय पर सरकारी पक्ष संवैधानिक दलीलों के बजाय राजनीतिक नारेबाज़ियों का ज्यादा सहारा लेता हुआ दिखाई दिया । सरकार की ओर से लगातार संघीय ढाँचे के खिलाफ केंद्रीयकृत, एकात्मक ढाँचे के पक्ष में, राष्ट्रपति में तमाम संवैधानिक शक्तियों और सार्वभौमिकता के निहित होने की तरह की तानाशाही की पैरवी करने वाली दलीलें दी जा रही थीं। इससे सिर्फ मोदी सरकार का तानाशाही चरित्र ही खुल कर सामने आया।


अब यह सवाल साफ़ हो चुका है कि संविधान के मूलभूत ढाँचे से जुड़ी इस प्रकार की एक धारा के बारे में कोई भी राय देने के पहले किसी के भी सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि वह भारत में किस प्रकार का राज्य चाहता है? जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय राज्य या तानाशाही, धर्म-धारित और केंद्रीयकृत राज्य । आपका यह नज़रिया ही धारा 370 के प्रति आपके रुख़ को तय करेगा । 


धारा 370 में एक जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय भारत की अधिकतम संभावनाओं के सूत्र निहित है । इसे हटा कर इनकी संभावनाओं को कम किया गया है । इस अर्थ में धारा 370 भारतीय संविधान का एक master signifier है ।


भारतीय राज्य का सच यह है कि वह विविधता का महाख्यान, बहु-जातीय आख्यानों का समुच्चय, बहु-राष्ट्रीय राज्य, अर्थात् एक आधुनिक उत्तर-आधुनिक राष्ट्र है। इसीलिए उसे बहु-देशीय उपमहादेश कहा जाता है। हमारे संविधान की भाषा में − “इंडिया, यानी भारत, राज्यों का एक संघ” । यह कोई एकात्मक, केन्द्रीकृत राज्य या तानाशाही नहीं, राज्यों का स्वैच्छिक संघ, विकेंद्रित सत्ता और भागीदारी पर आधारित विकसित जनतंत्र है ।


इसी बुनियाद पर भारत के संविधान में सार्वभौमिकता सिर्फ़ जनता (We the people) में निहित है । राज्य के बाक़ी सारे अंगों, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का दायित्व है कि वह जनता के मूलभूत अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं, जन-जीवन में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं अर्थात् धर्म-निरपेक्षता और विभिन्न राज्यों के अपने विधायी अधिकारों अर्थात् राज्य के संघीय ढाँचे की रक्षा करें । कमोबेश यही भूमिका राज्य के चौथे स्तंभ पत्रकारिता से भी अपेक्षित है । 


भारत में कश्मीर के विलय के साथ संविधान में जिस धारा 370 को जोड़ा गया, उसके पीछे परिस्थितियों का कोई भी दबाव क्यों न रहा हो, उसमें अन्य राज्यों की तुलना में कश्मीर की जनता को प्रकट रूप में कुछ अतिरिक्त अधिकारों की घोषणा के बावजूद वह भारतीय संविधान के संघीय, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ढाँचे से पूरी तरह से संगतिपूर्ण था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि धारा 370 के ज़रिए भारत के संघीय ढाँचे के अंतर के उस तात्त्विक सच को कहीं ज्यादा व्यक्त रूप में रखा गया, जिसकी बाक़ी राज्यों के मामले में, अर्थात् सामान्यतः कोई ज़रूरत नहीं समझी गई थी ।

 

इस धारा के ज़रिए, कश्मीर की नाज़ुक परिस्थितियों के दबाव में ही क्यों न हो, जनता के आत्म-निर्णय के उस अधिकार को प्रकट स्वीकृति दी गई थी जिसे किसी भी संघीय ढाँचे के सत्य का मर्म कहा जा सकता है। राज्यों के आत्म-निर्णय के अधिकार को ही संघीय ढाँचे का अंतिम सच कहा जा सकता है । अर्थात् उसे हासिल करने का अर्थ है राज्यों का अपनी प्राणीसत्ता में सिमट जाना और उनके प्रमाता,  संघीय ढाँचे के अंग के रूप का अंत हो जाना । 


यही वजह है कि राज्यों का ‘स्वैच्छिक संघ’ विविधता में एकता का एक सबसे मज़बूत सूत्र है जिसमें हर राज्य अपनी अस्मिता से किंचित् समझौता करके ही संघ के साथ अपने को जोड़ता है । 


कहना न होगा, आज़ाद भारत कुल मिला कर एक ऐसे ही आधुनिक राष्ट्र के निर्माण का प्रकल्प था जिसमें कश्मीर का विलय इसके संघीय ढाँचे के लचीलेपन की पराकाष्ठा को मद्देनज़र रख कर किया गया था । भारत में जो तमाम कथित राष्ट्रवादी ताक़तें बिल्कुल प्रकट रूप में, हमेशा भुजाएँ फड़काने वाले मज़बूत और केन्द्रीकृत भारत की कामना करती रही हैं, कश्मीर की विशेष स्थिति उन्हें कभी मान्य नहीं थी । उन्हें कश्मीर को अलग रखना मंज़ूर था, पर उसे भारत में कोई विशेषाधिकार देना स्वीकार नहीं था । इसीलिए इतिहास में वे कश्मीर को अलग रखने के पक्षधर महाराजा हरि सिंह के साथ खड़ी थी । 


आज यह ज़ाहिर है कि भारत के पुनर्निर्माण के इस आधुनिकता के प्रकल्प में शुरू में उनकी जिस आवाज़ को दबा दिया गया था, वही दमित आवाज़ अब धारा 370 को ख़त्म करने की बहस के ज़रिये प्रतिहिंसा के भाव के साथ लौट कर आ रही है । यह भारत के आधुनिकता के प्रकल्प में सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता के बीच के अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति है ।

 

सांप्रदायिक ताक़तें धारा 370 पर हमला करके भारत की एकता के ‘स्वैच्छिक संघ’ के सबसे मूलभूत सूत्र को कमजोर कर रही है और भारत में विभाजनकारी ताक़तों के लिए ज़मीन तैयार करती है । मज़े की बात है कि इस भारत-विरोधी मुहिम का नेतृत्व वर्तमान केंद्रीय सरकार खुद कर रही है । इसीलिए इस धारा पर विचार के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट को पूरी मोदी सरकार के दक्षिणपंथी प्रकल्प पर अपनी राय सुनानी है ।


जी-20 सम्मेलन


अब दूसरा उदाहरण बिल्कुल ताज़ा जी-20 सम्मेलन का लिया जा सकता है । 

सचमुच, इसे देख कर लगता है कि मानो यह दुनिया एक अनोखी, उल्टी-पुल्टी दुनिया है ।

भारत में जब शासक दल की राजनीति का मुख्य एजेंडा सांप्रदायिक असहिष्णुता पैदा करना, नफ़रत फैला कर समाज को तोड़ना और सभी जन-प्रचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बना हुआ है, तब इसी देश के तत्वावधान में जी-20 सम्मेलन के घोषणापत्र में गाजे-बाजे के साथ धार्मिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ की मूलभूत प्रतिबद्धता को दोहराया गया है !


इस घोषणापत्र में कहा गया है कि “हम संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव ए/आरईएस/77/318, विशेष रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता, संवाद और सहिष्णुता के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने की इसकी प्रतिबद्धता पर ध्यान देते हैं। हम इस बात पर भी जोर देते हैं कि धर्म या आस्था की स्वतंत्रता, राय या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा का अधिकार और सहचर्य की स्वतंत्रता का अधिकार एक दूसरे पर आश्रित, अंतर-संबंधित और पारस्परिक रूप से मजबूत हैं और उस भूमिका पर जोर देते हैं ये अधिकार धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में निभायी जा सकती है।’’


शब्दकोश के अनुसार उलट-पुलट जाने का अर्थ होता है कि आप जिस काम को बहुत सोच-समझ कर करते हैं, वही ऐन आख़िरी वक्त में बिल्कुल बिखर जाए, सारी चीज़ें दिशाहीन नज़र आने लगे, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, इसका कुछ पता ही न चले । पर जिसे हेगेलियन द्वंद्वात्मकता कहते हैं, उसमें ‘उलट-पुलट’ का मायने यह है कि किसी भी एक सुचिंतित प्रकल्प का उसके घोषित उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत परिणाम निकलना — मसलन, स्वतंत्रता के सपने का आतंक में बदल जाना, नैतिकता का मिथ्याचार में, बेशुमार दौलत का बहुसंख्यक आबादी की ग़रीबी में तब्दील हो जाना। 


मोदी चाहते हैं कि वे जी-20 का प्रयोग भारत में 2024 के चुनाव को जीतने के लिए करेंगे;  इससे अपनी कलंकित छवि को चमकाएँगे;  अपनी डूबती हुई राजनीति को पार करायेंगे । 


पर जी-20 का सम्मेलन ख़त्म हो गया, हज़ारों करोड़ फूंक कर दिल्ली में भारी तमाशा हुआ, मोदी दुनिया के अनेक राष्ट्राध्यक्षों के विनयी सेवक बने हुए उनके चारों ओर मंडराते दिखें, लेकिन कुल मिला कर हासिल क्या हुआ ? हासिल वही हुआ, जिसे हम ‘उलट-पुलट’ कहते हैं । इस सम्मेलन में जिस घोषणापत्र पर सर्वसम्मति बनी, उसकी एक भी पंक्ति मोदी की अपनी राजनीति का समर्थन नहीं करती है । 


अर्थात् भारत में आगामी चुनाव प्रचार में मोदी सिर्फ दुनिया के नेताओं के साथ अपनी तस्वीरें ही चमका पायेंगे, इस सम्मेलन में हुई एक भी बात का वे प्रामाणिक रूप में कहीं उल्लेख नहीं कर पायेंगे । तोड़-मरोड़ कर झूठ के रूप में कहीं करें, तो कोई उपाय नहीं है !


इसके विपरीत, सच यह है कि सम्मेलन के घोषणापत्र की बातों से लगेगा कि जैसे इसमें ‘नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ की बात की ताईद की गई है । इसमें ‘धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभाव’ को ख़त्म करने की बात कही गई है जो ‘लव जेहाद’, ‘आबादी जेहाद’, ‘वोट जेहाद’ आदि-आदि नाना जेहादों के नाम पर मोदी और आरएसएस की मुसलमान-विरोधी राजनीति को एक सिरे से ठुकराती है ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात भी मोदी की नीतियों के खुले विरोध से कम नहीं है । 

इस प्रकार, आँख मूँद कर कोरे उत्सव-धर्मी भाव से नाचने-कूदने की मोदी की राजनीति के इस प्रहसन वाले हिस्से ने उनकी समग्र राजनीति की कब्र खुद खोदने का काम किया है । अंत में जाकर, जी-20 सम्मेलन के स्थल ‘भारत मंडपम’ में बारिश का पानी भर जाने से आयोजन की व्यवस्था की मोदी की दक्षता की भी पोल खुल गई है।


यह है 2014 के अघटन के बाद का भारत जिसमें ‘इंडिया’ की जनतांत्रिक राजनीति को एक नए वैश्विक इतिहास की रचना करनी है । मोदी का ‘विश्वगुरु’ का प्रचार इसी प्रकार भारत में जनतांत्रिक आंदोलन की वैश्विक संभावनाओं को खोल रहा है।