मंगलवार, 31 मार्च 2015

आलोचना के कब्रिस्तान से...

अरुण माहेश्वरी








सन् 1984 की बात है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म शताब्दी वर्ष था। कहा जा सकता है - आज की हिन्दी आलोचना के गोमुख का शताब्दी वर्ष। जनवादी लेखक संघ को बने अभी दो साल ही हुए थे। लेखकों में भारी उत्साह था। जलेस के जन्म में प्रेमचंद शताब्दी वर्ष की बड़ी भूमिका थी। ‘84 में शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन से जलेस हिंदी के अकादमिक जगत की मुख्यधारा में प्रवेश करना चाहता था। और बिल्कुल वैसा ही हुआ। जलेस ने शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन का बिगुल बजाया और देश भर के कालेज-विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और हिंदी-सेवी सरकारी संस्थाओं का पूरा ताना-बाना जाग उठा। जलेस ने शुक्ल जी को अपनाया और विश्वविद्यालयों-अकादमियों में बैठे हिंदी के पेशेवरों ने जलेस को। देखते ही देखते प्रेमचंद शताब्दी वर्ष के जनवादी विमर्श से उत्पन्न संगठन को शुक्ल शताब्दी वर्ष ने साहित्य की परंपरा-पोषित मुख्यधारा से जोड़ दिया।

आज जब हम हिन्दी आलोचना की स्थिति पर विचार करते हैं तब अनायास ही जलेस के इस अभूतपूर्व ‘विस्तार’ की कहानी का वह ‘स्वर्णिम’ अध्याय याद आ जाता है। और, इसके साथ ही कौंध उठती है शुक्ल शताब्दी वर्ष को केंद्र में रखकर जलेस के अंदर, हाशिये पर चल रही बहस की एक और अंतरकथा की यादें। इस कथा के केंद्रीय नायक थे इलाहाबाद के कथाकार, आलोचक नीलकांत।

दर्शनशास्त्र की अकादमिक पृष्ठभूमि से आए सौन्दर्यशास्त्र के अध्येता नीलकांत मार्कण्डेय की ‘कथा’ पत्रिका के पृष्ठों पर कई धारदार टिप्पणियों से सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच चुके थे। जलेस की आचार्य रामचंद्र शुक्ल राष्ट्रीय परिसंवाद समिति की ओर से भी नीलकांत को भोपाल में होने वाले राष्ट्रीय परिसंवाद (7-8 सितंबर 1984) के लिये शुक्ल जी की विश्वदृष्टि पर लेख भेजने के लिये कहा गया। नीलकांत ने वह लेख लिख लिया, तभी उनसे कहा गया कि इस विषय पर कोई दूसरा लिख रहा है, इसलिये आप उनकी सौन्दर्यानुभूति पर आलेख तैयार करके भेज दें। नीलकांत ने इस विषय पर भी अपना लेख लिख कर जैसे ही परिसंवाद समिति के पास भेजा, समिति में एक प्रकार का हड़कंप सा मच गया। उनके लेख का शीर्षक था - मृत सौन्दर्य का मसीहा आचार्य रामचंद्र शुक्ल। शुक्ल जी की विश्वदृष्टि वाले लेख को नीलकांत ने नामवर सिंह की मांग पर ‘आलोचना’ के लिये भेज दिया, जिस पर नामवर जी ने टिप्पणी की थी - ‘‘लेख मिला आज ही। एक सांस में पढ़ गया। दृष्टि निर्मम, भाषा तल्ख, निर्णय सख्त, फिर भी संपूर्ण निबंध तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट। बहुत दिनों बाद ऐसा प्रौढ़ निबंध पढ़ने को मिला।’’

शुक्ल जी की सौन्दर्यानुभूति पर नीलकांत का लेख, ‘मृत सौन्दर्य का मसीहा’ विश्वदृष्टि वाले लेख की बुनियादी समझ पर टिका उतना ही ‘तल्ख, तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट निर्मम’ लेख था। लेकिन जलेस का जो आयोजन शुक्ल जी को पूरे भक्तिभाव के साथ दोनों हाथ खोल कर अपनाने के उद्देश्य से किया जा रहा था, जो सामंती रूढि़वाद से बुरी तरह से जकड़े हुए क्षेत्र में नवजागरण के कल्पनाप्रसूत भव्य महल के संस्थापक रामविलास शर्मा से संगति रखते हुए विश्वविद्यालयों के अध्यापकों, प्राचार्यों के मनों को जीतने के लिये किया जा रहा था, उसके आयोजकों को ऐसा ‘निंदापूर्ण’ लेख कैसे रास आ सकता था। हमें अच्छी तरह से याद है, नीलकांत ने उस लेख को आयोजन समिति के पास दिल्ली भेजा था, लेकिन वहां पहुंचने के साथ ही तत्काल उसकी गूंज-अनुगूंज गुजरात, वाराणसी, कोलकाता, भोपाल - सर्वत्र सुनाई देने लगी थी। ‘’शीर्षक प्रतिमा-भंजक, मुद्दआ नकारात्मक और जलेस के रंग में भंग डालने वाला’’। डा. शिवकुमार मिश्र, चंद्रबली सिंह, डा.चंद्रभूषण तिवारी, कुंवरपाल सिंह सबने भरसक कोशिश की कि इस ‘विध्वंसक’ लेख को राष्ट्रीय परिसंवाद में न पढ़ने दिया जाएं। मामला पार्टी के प्रभारी कामरेड बी.टी.रणदिवे की अदालत तक पहुंच गया। हम वहां मौजूद थे। हमें अच्छी तरह से याद है कि कामरेड बीटआर और सुरजीत ने भी सिर्फ मत-भिन्नता के आधार पर लेख को न पढ़ने देने के विचार का सख्त विरोध किया। और अंत में, वह लेख, जलेस के कई प्रमुख नेतृत्वकारी व्यक्तियों की आपत्ति के बावजूद भोपाल में पढ़ा गया।

कुछ निजी कारणों से हम भोपाल के उस परिसंवाद में उपस्थित नहीं हो पाये थे। लेकिन हमें आज भी, परिसंवाद के बाद हुई मुलाकात में इस विषय पर डा.चंद्रभूषण तिवारी, चंद्रबली सिंह, डा.शिवकुमार मिश्र के तमतमाये हुए चेहरे और उनकी बौखलाहट याद है। नीलकांत इन सबकी नजरों में किसी दागी व्यक्ति से कम नहीं थे। तब से तीस साल बाद, आज भी जब हमें उस पूरी घटना की याद आती है, कहना न होगा, उससे आज की हिंदी आलोचना, खास तौर पर मार्क्सवादी आलोचना की दयनीय दशा पर से जैसे एक झटके में पर्दा उठ जाता है। एक वाक्य में कहे तो आज की हिंदी आलोचना शुक्ल जी द्वारा तैयार किये गये ‘छात्रोपयोगी नोट्स’ के आधार पर निर्मित हिंदी साहित्य के इतिहास का आगे और, कोरा इतिवृत्तात्मक विस्तार बन कर रह गयी है।

अभी, हाल में कोलकाता की ‘वागर्थ’ पत्रिका के कई अंकों में हिंदी साहित्य के पचास सालों का उत्सव जिस प्रकार के सपाट और बेजान ब्यौरों के इतिवृत्तों के आधार पर मनाया गया है, इस कलावादी कर्मकांड, समग्रत: हिंदी आलोचना की ऐसी परिणति में डा. शर्मा, नामवर सिंह और पूरे प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य आंदोलन का योगदान किसी से कम नहीं है। प्रगतिवादियों की ‘पहल’ और जलेस की पत्रिका ‘नया पथ’ क्रमश: मुर्दा सामग्रियों को चकदक पैकेजिंग में खपाने और व्यवसायिक प्रकाशकों के लिये एक बेचने लायक किताब बन जाने से अधिक कोई भूमिका अदा करती नहीं दिखाई देती है। संकट की इस घड़ी में भी किसी नये विमर्श को पैदा करने में इनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं है।

सारी दुनिया में मार्क्सवाद ने ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों को उनकी आत्मलीनता, प्राकृतिक विज्ञान की तरह की सीमाबद्धताओं से मुक्त करने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सामान्यत:, सामाजिक आंदोलनों के दबावों से साहित्य अक्सर खुद की सीमाओं से मुक्त होकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ता रहा है। हमारे यहां भक्तिकाल के साहित्य ने व्यापक जन में किसी रीतिकालीन साहित्य को पनपने नहीं दिया तो  राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन ने कथा साहित्य को कोरी तिलस्मी और ऐय्यारों की किस्सागोई से मुक्त किया। छायावादी आत्मवाद ने प्रगतिवाद के लिये जगह छोड़ी। लेकिन खास तौर पर, मार्क्सवाद का स्पर्श दुनिया के पूरे साहित्य और वैचारिक विमर्श को स्थायी तौर पर उसकी आत्मलीनता से मुक्त कराने वाला स्पर्श साबित हुआ है। यह विचारों की दुनिया की एक कोपरनिकस क्रांति है। जो खगोलशास्त्र हजारों सालों से पृथ्वी-केन्द्रित धुरी पर चक्कर काट रहा था, एक कोपरनिकस की सौर-प्रणाली की खोज ने उसे उससे सदा के लिये मुक्त कर दिया। उसी प्रकार, चेतना के माध्यम से प्रतिबिंबित यथार्थ से बनने वाले विचारधारा के सभी क्षेत्रों के अध्ययन को मार्क्स ने सदा के लिये बदल डाला। माल में मूल्य के प्रवेश से जैसे उसका ठोस अस्तित्व लुप्त हो जाता है, वैसे ही यथार्थ के साहित्यिक पाठों में रूपांतरण से सामाजिक यथार्थ असंख्य विखंडित चित्रों में बदल जाता है। माल की आधिभौतिक सत्ता के ब्रह्मांड की तरह ही साहित्य और विचारधारा की दुनिया सामाजिक यथार्थ की असंख्य विरूपित सत्ताओं का एक ब्रह्मांड बन जाती है। साहित्य और कला जगत के अपने स्वतंत्र नियमों का भ्रामक संसार भी तैयार होता है। मार्क्सवादी आलोचना की भूमिका यह रही कि उसने इस विखंडित, विरूपित, चेतना से प्रतिबिंबित यथार्थ को मूल सामाजिक संरचना के आधार पर समग्रत:, परस्पर गुंथे हुए रूप में परखने के औजार दिये, यह मानते हुए कि जो दिखाई देता है, वही सच नहीं होता। मार्क्स कहते थे कि जो दिखाई देता है वही सच हो तो विज्ञान उथला हो जायेगा। उसी प्रकार, दिखाई दे रहे पाठ को ही स्वायत्त सच मान कर बढ़ा जाए तो आलोचना भी उथली हो जायेगी, संधान और सृजन की संभावनाओं का अंत हो जायेगा। यही वजह रही कि ‘कला कला के लिये’ की तरह की सारी सैद्धांतिक शेखियां सामाजिक अंतर्विरोधों की गतिशीलता से बल पाते मार्क्सवादी यथार्थवादी साहित्य विमर्श की तेज आंच के सामने कभी टिक नहीं पायीं।

चिकित्सा विज्ञान में आत्मलीनता (autism) एक बीमारी है, मंद बुद्धि माने जाने वाले लोगों की बीमारी। यह बीमारी जीवन के सभी अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े लोगों में समान रूप से पाई जाती है। यह कमजोर आदमी का एक रक्षा कवच भी होती है, सीप में बंद दीन-हीन घोंघा बसंत। मार्क्सवाद ने साहित्य विमर्श को उसकी आत्मलीनता से मुक्त किया, जीवनोन्मुख बनाने की भूमिका अदा की। लेकिन, इसी के समानांतर, मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन से ही जुड़ा इतिहास का एक दूसरा चिंताजनक पहलू भी रहा है, जो पुन: जीवनोन्मुखता के बजाय साहित्य पर खास प्रकार की दलीय प्रतिबद्धता का दबाव पैदा करता है। लेनिन ने जब बोल्शेविक क्रांति के संदर्भ में पार्टी की सेवा करना साहित्यकारों का कत्र्तव्य बताया, वही से सामाजिक क्रांति का अर्थ सीमित होते हुए बोल्शेविक पार्टी में और पार्टी के नेतृत्व और नेता में सिमट जाने की एक उल्टी यात्रा शुरू होगयी। यह पैगंबर की करुणा के गिरिजाघरों, मस्जिदों, मठों में पतित होने वाली प्रक्रिया है। मार्क्स-एंगेल्स की साहित्य संबंधी सारी बातें पृष्ठभूमि में चली गयी। एक दूसरे प्रकार की आत्मलीनता में साहित्य को डुबो देने का उपक्रम शुरू हुआ। ‘साहित्य का उद्देश्य जितना छिपा रहे इसी में साहित्य की भलाई है’ की तरह की मार्क्सवादी सीखें आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद की पूरी बहस से गायब हो गयी। लुकाच और ब्रेश्त के बीच, ब्रेश्त और बेंजामिन के बीच, अल्थूसर और लासान के बीच विचारों की जो तनातनी दिखाई देती है, उसके मूल में मार्क्सवाद के नाम पर तात्कालिक राजनीति की सेवा की इसी कुत्सित समझ की बड़ी भूमिका थी। पश्चिमी यूरोप में ग्राम्शी से लेकर लुकाच, बेंजामिन, ब्रेश्त, अल्थूसर, थामसन, कॉडवेल, अन्र्सट फिशर और सार्त्र, हर्बर्ट मार्कूज, दरीदा, जेमिसन तथा एरिक हाब्सवाम और अभी के स्लावोय जिजेक और अम्बर्तो इको तक के लेखन में मार्क्सवाद से उनकी संबद्धता और कम्युनिस्ट आंदोलन के इस पहलू के दबाव की छाप को साफ तौर पर देखा जा सकता है।

हिंदी में भी, डा. शर्मा और नामवर सिंह के लेखन का कुछ-कुछ इसी आधार स्पष्ट काल-विभाजन किया जा सकता है। जब तक वे साहित्य में कलावादियों की आत्मलीनता से लोहा ले रहे थे, उनके लेखन में एक खास प्रकार की धार थी। फिर एक दौर सीधे पार्टी की सेवा का आया। डा. शर्मा की ‘प्रगतिवाद की समस्याएं’ के लेखों को देखिये। लेकिन डा. शर्मा और नामवर सिंह पर से जैसे ही उस दौर का भूत उतरा, वे नये सामाजिक यथार्थ के साथ जुड़ कर साहित्य में स्वतंत्रता और जनतंत्र के मूल्यों के आधार पर मार्क्सवादी आलोचना को एक नये उत्कर्ष की दिशा में लेजाने के बजाय आचार्य शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अतीतोन्मुखी इतिवृत्तात्मकता की शरण में चले गये। नामवर जी अपने ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखन के उल्लेख से भी बचने लगे। लेखनी की पुरानी धार भी भोथरी होगयी और हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना स्वतंत्रतापूर्व की कल्पित हिंदी नवजागरण की बहस में उलझ कर रह गयी। आलोचना तालाब के ठहरे हुए बंद पानी की काई का इतिवृत्त बन गयी। धीरे-धीरे, वैचारिक सह-अस्तित्व का आलम यह होगया कि अभी अज्ञेय जन्म शताब्दी पर इसी लेखक ने टिप्पणी की - ‘नामवर का लोप ही अज्ञेय का लोप है’।

‘‘ अज्ञेय जी का शताब्दी वर्ष पूरा होगया। हिंदी जगत में उनके लिये श्रद्धा-सुमनों की कोई कमी नहीं रही। अलग-अलग शहरों में कई आयोजन हुए। अखबारों, पत्रिकाओं में कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियां आयीं। उनके निकट के मित्रों, संबंधियों ने एक-दो किताबें भी निकाली। कुछ स्वघोषित ‘सांस्कृतिक दूतों’ के शहर-शहर फेरे लगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि कुल मिला कर यह पूरा वर्ष बिना किसी वैचारिक उत्तेजना और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यग्रता के एक स्निग्ध और शान्त, तनाव-रहित वातावरण में बीत गया। ...हाल के वर्षों तक हिन्दी में सबसे विवादास्पद समझे जाने वाले अज्ञेय की शताब्दी कोई मामूली वैचारिक आलोड़न भी पैदा नहीं कर पाये, यह स्थिति किस बात का संकेत है? क्या यह अज्ञेय पर या आज के समय पर या दोनों पर ही कोई विशेष टिप्पणी है?

‘‘...कुल मिला कर इस पूरे साल ‘अज्ञेयपंथ’ और ‘नामवरपंथ’ की खूब छनी। सब कुछ भले-भले निपट गया। इस ‘भले-भले’ ने ही आज हमारे लिये यह प्रश्न छोड़ दिया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? किसी जमाने में हिंदी में प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के बरक्स अज्ञेय का प्रयोगवाद (परिमल) विचारधारा के एक दूसरे धुर का मंच हुआ करता था। ...इसीलिये स्वाभाविक तौर पर हिंदी में उस काल की सारी साहित्यिक-वैचारिक बहसों के केंद्र में अज्ञेय हुआ करते थे। लेकिन आज वह सारा विवाद कहां रफ्फू-चक्कर होगया? यही एक प्रश्न किसी को भी आज की साहित्यिक दुनिया के सच पर गहराई से नजर डालने के लिये प्रेरित कर सकता है।

‘‘... प्रेमचंद शताब्दी के दौरान प्रेमचंद को केंद्र में रख कर चंद्रबली सिंह ने ‘आलोचनात्मक’ और ‘समाजवादी’ यथार्थवाद के साथ ही यथार्थ की एक और, तीसरी श्रेणी ‘जनवादी क्रांतिकारी यथार्थवाद’ की अवधारणा रखी। प्रगतिशील लेखक संघ वस्तुत: बिखर गया लेकिन हिंदी-उर्दू के लेखकों के एक नये संगठन, जनवादी लेखक संघ (1982) का उदय हुआ। जनतंत्र का सवाल केंद्रीय सवाल बना और भारत की जनता की जनतंत्र की लड़ाई के मोर्चे की जो इंद्रधनुषी तस्वीर पेश की गयी उसमें डा. रामविलास शर्मा से लेकर अज्ञेय तक, सबके लिये समान स्थान का आश्वासन था। ...आंतरिक आपातकाल के पहले और बाद के इस दौर में अज्ञेय जीवित ही नहीं, खासे सक्रिय थे। ... वह पूरा दौर भारत में जनतंत्र की रक्षा के लिये सबसे तीव्र संघर्ष का दौर था और जयप्रकाश के साथ जुड़ कर अपने अखबारों के जरिये अज्ञेय ने उस पूरी लड़ाई में अपनी एक भूमिका अदा की थी। फिर भी आज तक कोई यह प्रश्न क्यों नहीं उठाता है कि जनवादी लेखक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य के इंद्रधनुषी दायरे में अज्ञेय को उनके जीवित काल में कभी क्यों नहीं शामिल किया जा सका?

‘‘इस एक सवाल के जवाब से जहां प्रलेस-जलेस की विचारधारात्मक प्रतिश्रुतियों और निष्ठाओं की सचाई की परख हो सकती है, वहीं अज्ञेय की भी ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ की वास्तविकता को समझा जा सकता है। कहना न होगा कि आज जहां जलेस-प्रलेस प्रकार के संगठन पार्टी की जकड़नों से बेदम होकर अस्तित्वीय संकट के गह्वर में हांफ रहे हैं, और लेखक क्रमश: जयपुर उत्सव की तरह की साहित्य-मंडियों में अपनी कीमत लगवाने को व्याकुल हो रहे हैं, वहीं अज्ञेय की ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ का भी आज कोई दो-कौड़ी का दाम लगाने के लिये तैयार नहीं है। अज्ञेय शताब्दी वर्ष के आयोजनों की रपटों से तो कम से कम यही जाहिर होता है।
‘‘सचमुच यह एक अनोखी विडंबना है। नामवर का लोप ही अज्ञेय का भी लोप है। ऐसे ही ‘विचारधारा का अंत’ विचार मात्र के अंत का भी सबब बनता है।’’

इस टिप्पणी में भी जलेस का प्रसंग आया था। जलेस के निर्माण के समय सन् ‘80 के नये जनवादी उभार के साथ मार्क्सवादी आलोचना ने अपने समय के सामाजिक मुद्दों से जुड़ कर एक नयी धार अर्जित की थी। लेकिन, यह बहुत ही थोड़े से समय की चमक भर साबित हुई। इससे पश्चिम की तरह जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर यहां मार्क्सवादी आलोचना के एक दीर्घस्थायी लगातार विकासमान वैचारिक विमर्श की शुरूआत नहीं हो पायी। इसके जन्म के साथ ही इसकी सीमाएं जाहिर होने लगी थी, जैसा कि इस लेख के शुरू में ही हमने रामचंद्र शुक्ल जन्म शताब्दी पर राष्ट्रीय परिसंवाद की घटना के विषय में बताया है। संगठन का विस्तार प्रमुख लक्ष्य होगया, बदलते हुए यथार्थ के बरक्श आलोचना के औजारों का विकास नहीं। जितनी तेजी के साथ इस नये जनवादी उभार ने प्रेमचंद और मुक्तिबोध के जरिये एक वैचारिक नवोन्मेष की चमक दिखाई थी, उतनी ही तेजी से उसकी चमक बुझती हुई भी नजर आने लगी।

चन्द्रबली सिंह ने नीलकांत को लिखा था - ‘‘ मैं समझता हूं, शुक्ल जी में कुछ ऐसे तत्व हैं जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं - पूरी तरह से निषेधात्मक रुख गलत है।’’ और इसप्रकार, मार्क्सवाद के नाम पर संतुलन बनाने अर्थात वैचारिक समझौता करके चलने का एक नया रास्ता खोज लिया गया - सब कुछ संगठन के हित के नाम पर। न रामविलास शर्मा, नामवर सिंह ने शुक्ल जी और द्विवेदी जी की रहस्यवाद में लिपटी भाववादी साहित्य दृष्टि को पूरी तरह से ठुकराते हुए एक नये मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की दिशा में कोई साहसपूर्ण कदम बढ़ाया, जैसा हमें हेगेल के प्रति मार्क्स की दृष्टि में, टालस्टाय के विचारों के प्रति लेनिन के नजरिये में और क्रोचे के विचारों के साथ ग्राम्शी के संघर्ष में दिखाई देती है। और, न ही ऐसी किसी टकराहट का कोई परिचय दिया परवर्ती जनवादी आंदोलन के उभार से जुड़े आलोचकों ने। नीलकांत जैसों ने जिस भिन्न धारा की ओर बढ़ने की कोशिश की, उसे शुरू में ही दबा डालने की भरसक कोशिश की गयी। मार्क्स ने हेगल से मुक्ति पाई उसके दर्शन को पूरी तरह से जानकर। हमारे यहां इस जानने की प्रक्रिया में पुराने रहस्यवाद के बंधन से मुक्ति की नहीं, बल्कि उसे अपना कर समाज में ‘परमहंस’ का सम्मान अर्जित करने की लालसा प्रमुख रही। हिंदी आलोचना हिंदी विभागों में बैठे अध्यापकों की सार-संग्रहवादिता की दासी बन कर रह गयी।

हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना पाठ के प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने के उथलेपन की शिकार हुई है। आचार्य शुक्ल ने कहीं ‘रहस्यवाद’ पद का तिरस्कार के साथ उल्लेख कर दिया और इतने भर से उन्हें प्रगतिशील आलोचना का गोमुख मान लिया गया। उनके सनातनपंथी, वर्णवादी पूर्वाग्रहों को देखने से इंकार कर दिया गया। शुक्लजी ने रहस्यवाद का विरोध सिर्फ कबीर के प्रति अपनी वर्णवादी नफरत को व्यक्त करने के लिये किया था, इस नग्न सचाई से भी आंखें मूंद ली गयी।

‘‘यत्क्रतुर्मवति तत् कर्म कुरुते’’। जिसके प्रति मन में मोह होगा, वह वैसा ही कर्म करेगा। मार्क्सवाद पदार्थ की गतिशीलता का विज्ञान है। परंपरा से उसका संबंध समाज की गति को चिन्हित करने के लिये है, न कि उसे ढोने के लिये। लेनिन ने ‘प्रोलेतकुल्त’ के विध्वंसक रुख के प्रत्युत्तर में कहा था कि मानव इतिहास में जो भी श्रेष्ठ तत्व रहे हैं, हमें उन्हें सहेजना होगा। इस ‘सहेजने’ का अर्थ यह नहीं है कि हम अजायबघर को अपना घर बना लें। मार्क्स को देखिये, वे कैसे अपनी कृति ‘जर्मन विचारधारा’ में हेगेलीय दर्शन के विघटन का जश्न मनाते हैं। ‘‘अभूतपूर्व तीव्र गति से सिद्धांत एक दूसरे को धकेल कर उनका स्थान लेते रहे, मस्तिष्कों के सूरमा एक दूसरे को उलटते चले गये और 1842-45 के बीच के तीन वर्षों में जर्मनी से अतीत का जितना सफाया हुआ उतना पहली तीन शताब्दियों के दौरान नहीं हुआ था।...यकीनन यह एक दिलचस्प घटना है - यह है परमचित्त के विघटन की प्रक्रिया।’’ जैसा कि पहले ही कहा गया है, मार्क्सवाद विचारधारा की दुनिया में कोपरनिकस क्रांति है।

जलेस से जुड़े आलोचकों ने इतिवृत्तात्मक लेखन की सबसे बुरी प्रवृत्ति, नाम-गिनाऊ आलोचना के चरम उदाहरण पेश कियें। इस संदर्भ में दृष्टव्य है उस दौर का डा. रमेश कुंतल मेघ का लेखन, जिसके नक्शे-कदम पर आज भी ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाएं और नन्द किशोर नवल जैसे आलोचक पूरे उत्साह से जुटे हुए हैं। आलोचना की यह ‘सर्वजनहिताय’ वाली बीमारी अब आनुवंशिक रोग का रूप ले चुकी दिखाई देती है। शुक्ल जी और द्विवेदी जी के प्रति श्रद्धा-भक्ति ने न सिर्फ अतीत के साथ बल्कि वर्तमान के साथ भी आलोचना में किसी प्रकार के आलोचनात्मक विवेक के रिश्तों को पनपने नहीं दिया। ‘आलोचना’, ‘वागर्थ’, ‘तद्भव’, ‘वर्तमान साहित्य’ और ‘नया पथ’ जैसी तमाम पत्रिकाएं भले वे मार्क्सवादियों द्वारा निकाली जा रही हो या गैर-मार्क्सवादियों बल्कि मार्क्सवाद-विरोधियों द्वारा, सबमें आलोचना के नाम पर शुक्ल जी की गद्य-पद्य की व्याख्या वाले छात्रोपयोगी अध्यापकीय नोट्स की परंपरा बदस्तूर जारी है। इस मामले में इनके बीच रत्ती भर फर्क करना भी नामुमकिन है।

मार्क्सवादियों की सारी जमातें अपनी पार्टी प्रतिबद्धताओं के प्रति इतनी निष्ठावान है कि भारत में वामपंथ के उदय और अस्त की इतनी प्रकट और विस्फोटक परिघटना से भी इनके कान पर जंू तक नहीं रेंगती। गैर-मार्क्सवादियों के लिये तो वैसे ही साहित्येतर सामाजिक-राजनीतिक प्रपंच सदा के लिये वर्जित है। इसका कुल जमा परिणाम यह है कि इस चक्कर में साहित्य से तात्पर्य और उसकी उत्कृष्टता के विषय भी आज हिंदी आलोचना के दायरे के बाहर जा चुके हैं। कोलकाता से ही हिंदी में भारतीय विद्याभवन की एक पत्रिका निकलती है - ‘वैचारिकी’ । पुरातत्व से लेकर रस सिद्धांत और अलंकारशास्त्र जैसे अर्वाचीन विषयों पर अध्यापकों के आधे-अधूरे नोट्स से भरी पत्रिका। इसे देख कर ऐसे पुरानेपन की अनुभूति होती है जैसे कोई ‘पुरातत्व’ साक्षात उपस्थित हो। कहना न होगा, यही है अभी की हिंदी की तमाम पत्रिकाओं का तात्विक सच।

यह सचमुच इतिहास का परिहास ही है। अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं जब राजा होता है, दरबारियों, मनसबदारों का राजकीय तामजाम भी बरकरार रहता है, लेकिन यथार्थ में ऐसे नाटकीय परिवर्तन होते हैं कि वह सारा लाव-लस्कर और साज-सज्जा रातो-रात प्राणहीन पुतलों के कल्पनालोक में बदल जाते हैं। भारत में रियासती राज्यों के भारत में विलय की घोषणा के ठीक बाद प्रत्येक रियासती राजा के राजदरबार का यही दृश्य था। इसीप्रकार, जीवन की सचाई से कट कर जब विचारधाराएं निहायत अप्रासंगिक विषयों में रमी रहती है, लेकिन भान ऐसा करती है जैसे वही एक ऐसी अन्तरदृष्टि प्रदान कर रही है जिसपर मानवता का भविष्य निर्भर करता है, तो उनका पूरा स्वरूप इतिहास के विद्रूप का रूप ले लेता है। वे कोरी छायाओं का रंगमंच बन जाती हैं, जीवन की नपूंसक नकल का रंगमंच। साहित्य के प्रति पूजा भाव वाले ‘वागर्थ’ छाप लेखन का रंगमंच तैयार होता है और उसके अभिनेताओं के तौर पर गर्व के साथ ‘कलावादी’ होने के अनेक पुरस्कारों का तमगा लगाये असीम संधानी, शब्द-ब्रह्म के नाद में बावले रमेश चंद्र शाह जैसे आलोचक पैदा होते हैं। ध्यान से देखें तो नंदकिशोर नवल और रमेश चंद्र शाह में कोई फर्क नहीं दिखाई देगा, सिवाय इसके कि एक ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा लगाये हुए हैं तो दूसरा ‘कलावाद’ का। प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने की भौंडी कला दृष्टि दोनों में समान रूप से काम कर रही है।

नामवर जी ने ‘कविता के नये प्रतिमान’ के प्रारंभ में ही अभिनव भारती को उद्धृत किया था :
‘‘श्रांति का अनुभव न करने वाली विवेचकों की बुद्धि ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए अंत में जिस अर्थ-तत्व को देखती है उस तक पहुंचने वाली परिकल्पित विवेक के प्रारम्भिक सोपानों की परंपरा का क्या महत्व?
‘‘मानता हूं प्रमेय की सिद्धि का प्रथम प्रयास विचित्र और निराधार ही होता है; किंतु उस मार्ग में अग्रसर होने पर उसके ऊपर सेतुओ, नगरों आदि का निर्माण भी विस्मयकारी नहीं रह जाता।
‘‘इसीलिये यहां प्राचीन आचार्यों के मतों का खंडन नहीं, बल्कि संशोधन किया गया है। पूर्व-प्रतिष्ठापित सिद्धांतों की योजना में भी मूल की प्रतिष्ठा का फल मिलता है।’’

क्या है यह आलोचना के पूर्वाधारों के रूप में प्राचीन आचार्यों के मतों में संशोधन का विधान? यही तो हैं सजीव मनुष्य और जीवन के यथार्थ को छोड़ कर शास्त्रों से शास्त्र की रचना का विधान, टीकाओं और भाष्यों का विधान।

मार्क्स जब अपने दर्शनशास्त्र की रचना करते हैं तो वे पारंपरिक जर्मन दर्शन के बिल्कुल विपरीत रास्ता अपनाते हैं। ‘स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने वाले जर्मन दर्शन के विपरीत पृथ्वी से स्वर्ग पर आरोहण का मार्ग पकड़ते हैं। वे किसी पूर्व प्रतिष्ठित सिद्धांत या कल्पना या अनुमान को आधार बनाने के बजाय अपना प्रस्थान-बिंदु बनाते हैं वास्तविक सक्रिय लोगों को, उनकी वास्तविक जीवन-प्रक्रिया को और इनके आधार पर उसकी वैचारिक प्रक्रियाओं और प्रतिध्वनियों को सामने लाते हैं।

मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ आदमी के दिमाग में बनने वाले काल्पनिक बिंब भी अनिवार्यत: उस भौतिक जीवन प्रक्रिया के संस्करण है, जिन्हें अनुभव द्वारा परखा जा सकता है और जो भौतिक पूर्वाधारों से संबद्ध है। नैतिकता, धर्म, तत्व मीमांसा, विचारधारा तथा चेतना के तदनुरूपी बाकी सभी रूप अब स्वतंत्रता का नकाब ओढ़े नहीं रह सकते। उनका कोई इतिहास, कोई विकास नहीं है; परंतु मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा अपने भौतिक संसर्ग के विकास से अपने इस वास्तविक अस्तित्व को और साथ ही अपने चिंतन और चिंतन के परिणामों को भी बदलता है। जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता बल्कि चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है। निरीक्षण की पहली विधि के प्रस्थान बिंदु में चेतना को सजीव व्यक्ति मान कर चला जाता है; दूसरी विधि में स्वयं वास्तविक सजीव मनुष्य, जो वास्तविक जीवन के अनुरूप है, वही प्रस्थान बिंदु है तथा चेतना को पूरी तरह से उसकी चेतना मात्र माना जाता है।
‘‘निरीक्षण की यह विधि पूर्वाधारों से वंचित नहीं है। वह वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु बनाती है तथा उन्हें एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती।’’

हिंदी के एक सबसे बड़े मार्क्सवादी आलोचक के पूर्वाधार और सोच की दिशा और मार्क्स की दिशा विपरीत है। मार्क्स अपने निरीक्षण में जीवन के वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु ही नहीं बनाते, उसे एक क्षण के लिये भी छोड़ने को तैयार नहीं है। और नामवर जी का प्रस्थान बिंदु सिर्फ और सिर्फ विवेचकों का ‘परिकल्पित विवेक’ है और उनकी यात्रा का गंतव्य भी इसी विवेक में किंचित संशोधन भर है। कविता के नये प्रतिमानों की तलाश में तेजी से बदल रहे जीवन की ठोस परिस्थितियों और उसमें साहित्य की भूमिका कोई विचार का बिंदु हो सकता है, इसका कहीं से कोई संकेत नहीं मिलता।

फिर नामवर जी का अशोक वाजपेयी से किस बात पर मतांतर है? अपने लेखन में उनका अद्यीत व्यक्तित्व शुद्ध रूप से साहित्य के स्वायत्त संसार का नागरिक ही होता है। उनकी सर्वसमावेशी दृष्टि में कविता के नये प्रतिमान विचारों की टकराहट से नहीं, ‘नये मूल्यों की खोज और प्रतिष्ठा के सहभागी प्रयास’ से हासिल होंगे। उनके अनुसार ‘मूल्य एक कमाया हुआ सत्य है’, अर्थात सबका समान सत्य! शास्त्रों की पैरवी में लिखते हैं - ‘‘कविता को सीधे अनुभव करने में हर पाठक स्वतंत्र और समर्थ होता तो काव्यानुशासन की जरूरत न पड़ती। ...जो अपने को सामान्य पाठक कहता है वह भी काव्यानुभव में अनजाने ही किसी न किसी काव्य-सिद्धांत से अनुशासित होता है।’’

इसप्रकार, जाहिर है कि कविता के नये प्रतिमान में उन्होंने जिस नये शास्त्र की रचना की है, उसके दायरे से शुरू में ही कविता को सीधे अनुभव करने वाले जन-साधारण को, मजदूरों और किसानों को निकाल कर अलग कर दिया गया है।

पाब्लो नेरुदा के ‘ममायर्स’ में एक अध्याय है - ‘कविता एक पेशा है’। उस अध्याय के शुरू के अंश को ही यहां थोड़ा विस्तार से उद्धृत करना उचित होगा। इस अध्याय की शुरूआत वे इसप्रकार करते हैं : ‘‘युद्धों, क्रांतियों और जबर्दस्त उथल-पुथल के चलते हमारे समय की विशेषता यह रही है कि जितनी किसी ने कल्पना नहीं की होगी, उससे कहीं ज्यादा कविता के लिए जमीन तैयार हुई है।’’
इसमें आगे वे सांतियागो के चिले के सबसे बड़े बाजार के कुलियों के बीच कविता सुनाने के अपने अनुभव का बयान करते हैं। वे लिखते है - ‘‘ जब मैं उस हॉल में घुसा तो मेरे अन्दर जोसे असुनसियन सिल्वा की कविता ‘निशाचर’ की तरह की एक सिहरन दौड़ गई, सिर्फ इसलिए नहीं कि वहां इतनी ठंड थी, बल्कि इसलिये क्योंकि वहां के परिवेश से मैं सन्न था। लगभग पचास लोग वहां टोकरों पर अथवा कामचलाऊ बेंचों पर बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ने अपनी कमर पर ऐप्रोन की तरह बोरा बांध रखा था, अन्य पैबंद लगी गंजियां पहने हुए थे, और बाकी लोग बिल्कुल नंगे बदन चिले की जुलाई की ठंड की मार झेल रहे थे। मैं एक छोटी सी मेज के पीछे बैठ गया जो मुझे उन असामान्य श्रोताओं से अलगा रही थी। वे सभी मुझ पर, मेरे देश के लोगों की कोयले की तरह की काली आंखों को गाड़े हुए थे।
...मैं कैसे ऐसे श्रोताओं से निपटूं ? क्या बात करूं? मेरी जिंदगी की ऐसी कौन सी चीज है, जिसमें उनकी दिलचस्पी होगी? मैं तय नहीं कर पाया, लेकिन वहां से भाग खड़े होने की अपनी इच्छा को छिपाते हुए मैंने उनसे कहा : ‘मैं कुछ दिनों पहले स्पेन में था। वहां काफी लड़ाई और गोलाबारी चल रही है। सुनिये, उसके बारे में मैंने क्या लिखा है।
‘‘खुद मुझे मेरी किताब ‘स्पेन मेरे हृदय में’ कभी कोई सरल किताब नहीं लगी। उसमें स्पष्ट होने की कोशिश है, लेकिन वह दुर्दमनीय और वेदनादायी घटनाओं के तूफान में डूबी हुई है।
‘‘बहरहाल, मैंने सोचा कि मैं चंद कविताएं सुनाऊंगा, कुछ बातें कहूंगा और अलविदा कहके चल दूंगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। एक के बाद एक कविता को पढ़ते हुए, मौन के गहरे कुएं को सुनते हुए जिसमें मेरे शब्द गिर रहे थे, मेरी कविताओं को इतनी गंभीरता से पकड़ती उन आंखों और गहरी भवों को निहारते हुए मुझे लगा कि मेरी किताब सही निशाने पर लग रही है। अपनी खुद की कविता की ध्वनि से प्रभावित, उस चुंबकीय शक्ति से मुग्ध जो मेरी कविताओं और उन परित्यक्त आत्माओं को बांधे हुए थी, मैं एक के बाद एक कविता पढ़ता चला गया।
‘‘घंटे भर तक यह पाठ चलता रहा। जब मैं जाने वाला था, उन लोगों में से एक खड़ा हुआ। वह उनमें से एक था जिसकी कमर में बोरा लपेटा हुआ था। उसने कहा, ‘‘मैं आपको हम सबकी ओर से धन्यवाद देना चाहता हूं। मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि आज तक किसी और चीज ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया।
‘‘उसने जब अपनी बात खत्म की, वह अपनी सुबकियां रोक नहीं पाया। और भी कईं रो रहे थे। मैं नम आंखों और खुरदरी हथेलियों के बीच से बाहर सड़क पर आया।’’
नेरुदा टिप्पणी करते हैं - ‘‘ आग और बर्फ की ऐसी परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी क्या कोई कवि पहले जैसा ही रह सकता है।’’

कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि कविता की यह जमीन किसी काव्यानुशासन या काव्यशास्त्र से तैयार नहीं हुई थी। इसे तैयार किया था जीवन की ठोस सचाइयों ने, सजीव मनुष्यों की अनुभूतियों ने। कवि को बदलने वाली ‘आग और बर्फ’ की यह परीक्षा भी कोई काव्यशास्त्र का पारायण नहीं हैं। इसीलिये अचरज नहीं होता, आम पाठक और श्रोता को कविता के क्षेत्र के हाशिये पर ढकेल कर कविता को अभिजनों की चीज बनाने के लिये रचे गये ‘कविता के नये प्रतिमान’ वाले काव्यशास्त्र में नामवर जी बार-बार अपने लिये वर्णवादी शुक्ल जी की सेवा लेने से जरा भी परहेज नहीं करते।

इसमें शक नहीं कि साहित्य कोई प्रयोजनमूलक वस्तु नहीं है। न यह किसी संधि का दस्तावेज है, न संपत्ति का रेकर्ड और न कानूनी कागजात या रेलवे की समय सारिणी। आदमी इसे मुख्यत: अपने आत्मिक जरूरतों के लिये रचता है और बिना किसी बाहरी मजबूरी के पढ़ता भी है। लेकिन किसी भी स्थिति में यह कोई क्रासवर्ड पजल, या सुकोडू भी नहीं है, कोरे मानसिक आरोग्य का साधन। जो अगोचर शक्तियां हमारे भौतिक संसार को घेरे रखती है, उसमें पाठों के ताने-बाने से बुने गये साहित्य के संसार का बड़ा स्थान है। यह हमारे सामूहिक भाषाई संस्कार का एक प्रमुख साधन है। भाषा यदि राजनीतिज्ञों के आदेशों का गुलाम नहीं तो आलोचकों के आदेशों की भी गुलाम नहीं होती। लाख कोशिशें भी डा.रघुवंश के तमाम गढ़े गये पदों को कोरा मजाक का विषय बनने से नहीं रोक पायी हैं। भाषा सबसे अधिक संवेदनशील होती है साहित्य के प्रति और साहित्य निर्मित होता है सजीव मनुष्य के जीवन के चित्रों और बिंबों से। जब जीवन नहीं, कृत्रिम भाषाई प्रयोगों से साहित्य रचा जाता है, उसकी वही दशा होती है, जैसी आज हिंदी के लगभग पूरे अध्यापक-वर्गीय लेखन की है - व्यापक समाज में अप्रासंगिक लेकिन अध्यापकीय मस्तिष्कों के लिये बूझों तो जाने की पहेलियां बुझाने वाला ‘मानसिक आरोग्य’ का साधन। असली हिंदी बनी हुई है टेलिविजन के लोकप्रिय बाजारू सीरियलों की भाषा में।

बहरहाल, नामवर जी ने हाल में यह खुले आम स्वीकार कर अपने बड़प्पन का परिचय दिया है कि ‘कविता के नये प्रतिमान’ किसी पुरस्कार को लपक लेने के लिये जल्दबाजी में लिखी गयी किताब थी। लेकिन पुरस्कार पाने की हड़बड़ी में ही उन्होंने डा. शर्मा की डाली गयी लीक को कुछ ऐसा गाढ़ा कर दिया कि इस जगत के दूसरे सभी सात्विक सूरमाओं (पवित्र सीताओं) के लिये लक्ष्मण की लकीर बन गयी।

सचमुच, यदि हम हिंदी आलोचना के इस मायाजगत की, जो कई ईमानदार साहित्य अध्येताओं तक में एक गौरव का भाव पैदा किये हुए हैं, कोई असली कीमत तय करना चाहे, यदि हम हिंदी आलोचना की तुच्छता को, उसकी अभिजनवादी संकीर्णता को और खास तौर पर उसकी सारी उपलब्धियों के बारे में इस जगत के सारे सूरमाओं के भ्रमों और उपलब्धियों के बीच के करुण वैषम्य को स्पष्ट रूप से सामने रखना चाहे तो हमें इस जगत से पूरी तरह मुक्त होकर इसका अवलोकन करना होगा। आज तक, इसके नवीनतम प्रयास ने भी शुक्ल जी का दामन नहीं छोड़ा है। शुक्ल जी के विचारों के आधार-बिंदुओं की जांच-परख करना तो दूर, इसकी कोशिशों का पूरा ढांचा उन्हीं की इतिवृत्तात्मक, छात्रोपयोगी पद्धति पर टिका हुआ है। इस मामले में मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी सभी एक ही गोत्र के दिखाई देते हैं। भले इनमें से हरेक अपने को शुक्ल जी से आगे बढ़ने का दावा क्यों न करें, इनके उत्तरों में ही नहीं, सवालों पर भी वही शुक्लवादी रहस्यवाद आच्छादित है जो ठोस आधुनिक जीवन की चुनौतियों से उन्हें कोसों दूर रखता है। शुक्ल-द्विवेदी द्वंद्व भी उसीका एक विस्तार है। यह शुक्ल जी की पद्धति के ही किसी एक पक्ष को चुन कर उसे उनकी पूरी पद्धति के खिलाफ, और दूसरे लोगों द्वारा चुने गये किसी दूसरे पहलू के खिलाफ लक्षित करके बूंदी के किले की फतह का झंडा बुलंद करते रहते हैं। चारो ओर कोरे अंधविश्वासों और जड़सूत्रों का बोलबाला है। इसमें अन्त में विद्यानिवास मिश्र-अशोक वाजपेयी- रमेश चंद्र शाह कंपनी ने शुक्ल जी को अधिक से अधिक पवित्र बनाने के उपक्रमों के बीच से उसे पूरी तरह से पवित्र घोषित कर देने और इसप्रकार आलोचना को ही सदा के लिये ठिकाने लगा देने का महान काम संपन्न किया है।

तमाम अवांछित दबावों से मुक्ति के प्रयत्नों के बीच से मार्क्सवादी आलोचना ने पश्चिम में उदीयमान सामाजिक यथार्थ से संगति रखते हुए जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर विकास की नयी दिशा पकड़ी और उपलब्धियों के अनेक नये शिखरों को छुआ है। ग्रीस के वर्तमान वित्तमंत्री, बहुचर्चित अर्थशास्त्री यानिस वैरौफैकिस का हाल के अपने लेख “How I bacame an erratic Marxist” में मार्क्स के आर्थिक विमर्श के केंद्र में समानता और न्याय के बजाय स्वतंत्रता के विचार को रखना मार्क्सवादी वैचारिक विमर्श की इसी प्रक्रिया का अंग है। ऐसा ही है थॉमस पिकेटी का विचार। अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘21वीं सदी में पूंजी’ में वे यह कहने से नहीं चूकते कि मार्क्स ने निजी-पूंजी विहीन विश्व के सभी पक्षों पर सही ढंग से नहीं सोचा था, क्योंकि दुनिया में जो भी निजी पूंजी रहित समाज बने हैं, उन सब जगह राज्य की भूमिका बेहद दमनकारी दिखाई देती है और इसप्रकार, निजी पूंजी और नागरिक की स्वतंत्रता के संबंध के विषय को उन्होंने एक नया आयाम दिया है।

हिंदी साहित्य जगत सजीव मनुष्य के जीवन से पैदा होने वाली चुनौतियों के बरक्स आलोचना के नये मानदंडों के विकास में ऐसी कोई नई उद्भावना के साथ सामने आने के बजाय अभी तो अध्यापकीय जकड़नों में फंसा हुआ आलोचना का एक ऐसा कब्रिस्तान है जिस पर सिर्फ मृतकों का बोलबाला और भूतों का डेरा है।





सोमवार, 30 मार्च 2015

एक नीच ट्रेजेडी


अरुण माहेश्वरी

सचमुच आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे जो हुआ वह एक ऐसी नीच ट्रेजेडी का दृश्य है जिसके अंत में सिवाय छुद्रताओं के और कुछ बचा दिखाई नहीं देता। श्आपश् के उदय और विकास के समय उसकी विचारधारा को लेकर सवाल पूछने वालों से हमारी शिकायत होती थी कि इतनी हड़बड़ी क्या है? क्या हम विचारधाराओं वालों की गलाजतों को नहीं जानते!

इसके दो दिन पहले टेलिविजन चैनलों पर केजरीवाल का एक स्टिंग आया था। बेहद चौंकाने वाला । सत्ता इतनी जल्दी उनके सर पर चढ़ कर बोलने लगेगी कि वे सभ्यजनों के साथ उठने-बैठने लायक भी न रह जाए, यह कल्पना के बाहर था। इतनी सी सत्ता से उनकी विनम्रता का आवरण दरक गया] एक और भ्रष्टतम राजनीतिक नेता के उदय का संकेत है?

हम समझ सकते थे, अरविंद केजरीवाल की भाषा हूबहू वैसी ही थी, जैसी सत्ताधारियों की आम तौर पर निजी वार्तालापों में भाषा हुआ करती है । वे अब 67 विधायकों के प्रतिनिधि है, मिल्कियत के बोध के साथ ।
एक शासक अरस्तुओं को उनकी जगह दिखा रहा था। प्लेटो का मानना था कि सत्ता की बीमारियां उस वक़्त तक दूर नहीं हो सकती है जब तक या तो दार्शनिक राजा न बन जाए या राजा दार्शनिक न बन जाए । अरस्तु ने अपने गुरू की बात को सुधारते हुए कहा, राजा का दार्शनिक होना नुक़सानदेह साबित हो सकता है । इसके बजाय राजा को अपने पास बुद्धिमान सलाहकार रखने चाहिए, उनकी बात सुननी चाहिए, लेकिन फैसला अपने विवेक से करना चाहिए । एक अच्छे शासक को बुद्धिमान ज़रूर होना चाहिए । अरस्तु ने शुद्ध सैद्धांतिक राजनीति और व्यवहारिक, समय के अनुसार खपने वाली राजनीति में भेद किया था । दृष्टि मात्र से कुछ भी पैदा नहीं होता । वह तो जो भौतिक रूप में दिखाई देता है, उसे परखने और हमारे कामों की निदेशिका भर की भूमिका अदा करती है ।

हम समझ सकते हैं, अरविंद केजरीवाल की भाषा हूबहू वैसी ही है, जैसी सत्ताधारियों की आम तौर पर निजी वार्तालापों में भाषा हुआ करती है । वे अब 67 विधायकों के प्रतिनिधि है, मिल्कियत के बोध के साथ ।
आम आदमी पार्टी का यह खुला झगड़ा हमें अच्छा लग रहा था, क्योंकि इसमें राजनीतिक पार्टियों के सांगठनिक सिद्धांतों के कुछ बुनियादी प्रश्न जुड़े हुए हैं । ऐसे मसलों पर आम लोगों की नजर से बचते हुए अंदर ही अंदर, गुपचुप सब तय कर लेना और भले -भले में सबकुछ निपटा कर 'वही चाल बेढंगी' पर बने रहना बिल्कुल अवांछनीय है ।


लेकिन, राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में केजरीवाल दुल्लती झाड़ कर बैठक से चले गये । जो उन्होंने स्टिंग वाले टेप में कहा था, उसे कर दिखाया गया।  विरोध से निपटने के लिये बाउंसर्स का प्रयोग किया गया। अब लंपटों और बाउंसर्स राजनीति का सरताज, समाज के तलछट, कूड़े-कर्कट और सभी वर्गों के मैल को अपना आधार बना कर चलने वाले इस असली केजरीवाल ने ‘वैकल्पिक राजनीति’ को जितनी तेजी के साथ माफिया गिरोह वाली गुप्त और हिंसक ढंग की राजनीति के गड्ढे में ले जाकर पटका है, वह कल्पना के परे है। भाजपा का पतन मोदी पार्टी में हुआ, तो कल पैदा हुई आम आदमी पार्टी केजरीवाल पार्टी बन गयी। कल तक जिनमें भविष्य के भारत के सपने दिखाई दे रहे थे, अचानक ही वह संदिग्ध प्रकार के स्टिंगबाज, ठग और लंपट ‘स्वयंसेवकों’ का गिरोह बन गया है।

कल तक टेलिविजन चैनलों पर जिसके सदस्यों की उपस्थिति से तथ्यों और तर्क की चमक दिखाई देती थी, अब वे लोग ही किसी माफिया सरदार के मुंह पर कपड़ा लपेटे लठैत से बेहतर नहीं दिखाई देते। सत्ता की छोटी से कसौटी पर केजरीवाल की असली सूरत सामने आगयी है। यह भी साबित हुआ है कि केजरीवाल की चमक उसके योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार जैसे सहयोगियों की बदौलत ही थी। अन्यथा, वे कोरे अंधेरे के प्राणी हैं - अधिक गंभीरता प्रदर्शित करेंगे तो ज्यादा से ज्यादा किसी संजीदा विदूषक से प्रतीत होंगे।

अब दिल्ली में पूरे पाँच साल 'बाउंसर्स' की सेवा की जायेगी । फिर भी  ग़नीमत यह है कि पुलिस का महकमा पूरी तरह से दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है । इस मामले में दिल्ली जनतांत्रिक प्रयोगों के लिये कुछ बेहतर जगह है ।

आशुतोष ने एक पत्र लिख कर योगेन्द्र यादव के खिलाफ पाँच आरोप लगाये हैं । पहला यह कि वे हरियाणा में पार्टी की ज़िम्मेदारी लेना चाहते थे । दूसरा, लोकसभा चुनाव में आप की पराजय का कारण उनकी ग़लत राजनीतिक समझ था । तीसरा, हरियाणा में विधान सभा चुनाव में लड़ने का उन्होंने ग़लत राजनीतिक फैसला किया था। चौथा, उन्होंने अरविंद की अनुपस्थिति में लोक सभा चुनाव में पराजय की समीक्षा करने की पेशकश की थी । और अंतिम आरोप यह कि इन सबके बाद ही अख़बारों में पार्टी की छवि बिगाड़ने वाली ख़बरें आने लगी ।

इन अभियोगों में सार की बात एक भी नहीं है। सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उन्होंने अरविंद की राय पर हमेशा मोहर लगाने से इंकार किया । ऐसे ही कुमार विश्वास राजनीतिक व्यक्तियों की आपस की बातों, गप्पों को योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पर आरोपों का आधार बना रहे हैं । ऐसे लोग किसी भी जनतांत्रिक पार्टी के लिये घातक है । वे शान के साथ अपनी उच्छृंखलता की भी शेखी बघारते हैं ।

केजरीवाल ने ‘आप’ की गीता के तौर पर अपनी जिस पुस्तिका ‘स्वराज’ को बहुत प्रचारित किया था, उसे पढ़ कर ही उनके सोच के छोटे दायरे का एक अंदाज मिल गया था। इस लेखक ने तभी उसकी एक समीक्षा लिखी थी जिसमें साफ कहा गया था कि ‘इस किताब को पढ़ने के बाद हम सोच भी नहीं सकते कि एक इतनी सीमित दृष्टि की किताब कैसे किसी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा वाली पार्टी का कार्यक्रम बन सकती है।

‘इस किताब का महत्व किसी एनजीओ द्वारा किये गये भारत के पंचायती राज के अध्ययन से अधिक कुछ नहीं है, जिसमें भारत के गांवों के प्रशासन में जन-भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये कुछ ढांचागत सुधारों के सुझाव दिये गये हैं। अधिक से अधिक, इसे Participatory Democracy की समस्याओं के एक सीमित पक्ष का अध्ययन कहा जा सकता है। पंचायती राज में कैसे जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो, सरकारी कोष और खर्च के मामलों में जनता की आवाज सुनी जाए और सरकारी अधिकारी तथा जन-प्रतिनिधि जनता के निर्देशों का पालन करें, इसके बारे में इसमें ग्राम सभाओं और उसी तर्ज पर शहरों में मोहल्ला सभाओं को शक्ति प्रदान करने के उपाय कुछ ठोस उदाहरणों के साथ बताये गये हैं। जनतंत्र का अर्थ सिर्फ मतदान का अधिकार नहीं, दैनंदिन शासन का अधिकार है। और इसे सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा कानूनों में जिन चंद तब्दीलियों की जरूरत है, यह किताब उसके कुछ पक्षों पर प्रकाश डालती है।

‘इसे इसलिये सीमित महत्व की किताब कह रहा हूं क्योंकि इससे हमारी अर्थ-व्यवस्था के बारे में श्रीमान केजरीवाल की समग्र समझ का जरा भी परिचय नहीं मिलता। जिसे अर्थ-व्यवस्था के विकास का इंजन कहा जा सकता है, उस औद्योगिक विकास के बारे में इसमें एक शब्द भी नहीं है। न एक शब्द उन सामाजिक-संबंधों के बारे में कहा गया है जो वर्तमान उत्पादन-संबंधों की उपज है। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व, संपत्ति के अधिकार की अनुलंघनियता और तमाम राष्ट्रीय संसाधनों को पूंजीपतियों को सुपुर्द करने की नीतियों के चलते हम मुनाफे पर टिका अपना जो समाज तैयार कर रहे हैं, वही तो हमारी तमाम नीति-नैतिकताओं, संस्कृति और सभ्यता के रूप की जड़ में है। गांव, शहर कुछ भी इस बुनियादी, भौतिक सच्चाई के प्रभावों से मुक्त नहीं रह सकता है।

‘यहां तक कि गांव के स्तर पर भी सामंती प्रभुत्व को समाप्त करने के बारे में, सच्चे भूमि-सुधार के बारे में इसमें एक शब्द नहीं कहा गया है। अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों के बारे में सोच तो शायद इस किताब के लिये दूर-दराज का भी कोई विषय नहीं है!

‘केजरीवाल की सबसे प्रमुख चिंता भ्रष्टाचार है। और दूसरी चिंता है - नक्सलवाद। इन दोनों में से किसी का भी स्थायी समाधान पूंजीवाद के रहते तो कभी संभव नहीं है। उन्होंने जिस अमेरिका, स्वीट्जरलैंड और ब्राजील के उदाहरण अपनी इस किताब में दिये हैं, वे समाज भी भ्रष्टाचार और तमाम प्रकार के कदाचारों से मुक्त समाज नहीं है। इन समाजों के यथार्थ के बारे में ऐसे ढेर सारे अध्ययन मौजूद हैं जो केजरीवाल की समझ के विपरीत इन देशों में होने वाले आर्थिक घोटालों, राजनीतिक कदाचारों और सामाजिक विकृतियों की कहानियां कहते हैं।

‘हमारी राय में तो इतनी सीमित और एनजीओ-छाप समझ के बल पर राष्ट्रीय नीतियों में सुधार के क्षेत्र में केजरीवाल और उनकी पार्टी का रत्ती भर योगदान भी संभव नहीं होगा। वामपंथी पार्टियां, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उनसे अपनी मूलभूत नीतियों के खुलासे की जो मांग कर रही है, वह बेजा नहीं है। ‘स्वराज’ को पढ़ने के बाद तो यह सचमुच एक चिंताजनक बात लगती है।‘

आज फिर यह कहना पड़ रहा है कि आम आदमी पार्टी यदि किसी ऐतिहासिक ज़रूरत की उपज है, तो उसके नेता का यह बौनापन ज्यादा दूर तक चल नहीं सकता । भारी बहुमत मात्र इसकी सरकार के स्थायित्व की भी गारंटी नहीं होगा । इतिहास आगे उनके साथ नहीं रहेगा। केजरीवाल गिरोह ने आगे के लिये जो आंदोलन का कार्यक्रम घोषित किया है, उसकी साख अब दो कौड़ी की नहीं रह गयी है, भले ही वे अपने कार्यक्रमों में दूसरी पार्टियों की तरह कितने ही लोग क्यों न जुटा लें।





गुरुवार, 26 मार्च 2015

सरला माहेश्वरी की कविताएं


धारा 66 ए के अंत की रात में लिखी गई  कविता - मन की बात :

मन की बात

कितना आसान है
तुम्हारे लिये
कहना अपने मन की बात
करना अपने मन की बात
काश कि
तुम सुनते मन की बात
मेरी बात
उसकी बात
हम सबकी बात
मुश्किल है
बहुत मुश्किल
मेरे लिये, उसके लिये, हम सबके लिये
कहना अपने 
मन की बात
करना अपने 
मन की बात
यहाँ तो कदम-कदम पर
लगाये बैठा है कोई घात
करने को प्रतिघात
हलक में ही
अटक जाती है
हमारे मन की बात
नहीं, ऐसा नहीं है कि 
हमें आता नहीं बोलना
हमारे मुँह में भी जुबां है
हम भी चाहते हैं
बहुत कुछ कहना
चहकना,जोशो-खरोश से दहाड़ना
हवा में उड़ना
देश-विदेश की सैर करना
एक बार ,बस एक बार
पूछ कर तो देखो
कैसा लगता है हमें
जब पकी-पकाई फ़सल पर 
आसमान टूटता है
प्रलय बनकर
काश, पूछते कि
ठंडे चूल्हे की आग
कैसे जलाकर ख़ाक करती है हमें
काश, पूछते कि 
कैसे हमारे मन की चाहतें नहीं
रोज़-रोज़ की ज़रूरतें 
डराती हैं हमें
रुलाती हैं हमें
एक बार
हमारे मन में झाँक कर तो देखो
चकरा जाओगे तुम भी
देख कर हमारे हौंसलों की उड़ान
पिंजरे का दरवाज़ा एक बार
खोलकर तो देखो
क़सम से भूल जाओगे
बंद करना
टूटना ही है इसे
यही है मेरी, उसकी, हम सबकी
मन की बात
तब तक, हाँ, तब तक 
करते रहो तुम
अपने मन की बात
ख़ैर, 
आज धारा 66 ए के अंत की रात
कह रही हूँ कुछ मन की बात।

2 . इंस्पेक्टर राजेन्द्र धोंदू भोंसले

आज, 19 मार्च 2015 का जनसत्ता
विष्णु नागर बता रहे हैं
मुंबई के दादाभाई नौरोजी थाने के
किसी इंस्पेक्टर राजेन्द्र धोंदू भोंसले की कथा
यह कथा है भोंसले के असाधारण जुनून की
गुमशुदा 166 लड़कियों और 174 लड़कों की खोज की
अपने काम में ऐसा जुटा ये दीवाना
कि 165 लड़कियों और 171 लड़कों को वापस मिल गया अपना ठिकाना
लेकिन वह अब भी बेचैन है
जारी जो है अब भी 166वीं की तलाश
गुमशुदा पूजा की तलाश
क़ायम है उसका विश्वास
जैसे होती है हर पिता की आस
इंस्पेक्टर राजेंद्र धोंदू भोंसले
शुक्र है कि बचे हैं तुम जैसे कुछ पगले
तुम जैसे भोंदू पगलों से ही बचे हैं
जीवन के अनमोल घोंसले
तुम हो जैसे किसी बीहड़ में जलती मशाल
अब तुम सिर्फ एक नाम नहीं हो
जो हो जाये गुमनाम
दफ़्न हो जाय अनाम
हम न होने देंगे तुम्हें लापता
ज़िंदगी ढूँढ ही लायेगी तुम्हारा पता
जैसे ढूँढ लाये थे तुम
गुम हो गयी ज़िंदगियों का
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नीचे की तस्वीर ऊपर उल्लेखित पूजा की है :


ब्राह्मणवाद


अरुण माहेश्वरी

अर्चना वर्मा जी ने अपनी वाल पर ब्राह्मणवाद शीर्षक से सात पोस्ट लगाई है। इसमें उन्होंने बड़ी सरलता से ब्राह्मणवाद के प्रसंग में कुछ मौलिक बातें कही है। उनकी बातों का लुब्बे-लुबाब यह है कि - क्यों ब्राह्मणवाद के नाम पर बेचारी ब्राह्मण जाति को लपेटा जाता है जबकि ब्राह्मणवाद का समानार्थी पद है जातिवाद। यदि जातिवाद कहके उससे अभिहित सारी बातें कही जा सकती है, और कही जाती रही है तो फिर फिजूल में ब्राह्मणवाद का वितंडा खड़ा करने का क्या मतलब है?

हमारा सवाल है कि क्या सचमुच ब्राह्मणवाद और जातिवाद समानार्थी है? ब्राह्मणवाद का इतिहास तो यह बात नहीं कहता। जातिवाद ब्राह्मणवाद की उपज जरूर है लेकिन ब्राह्मणवाद नहीं है। भारतीय दर्शन के इतिहासकारों के अनुसार ईसापूर्व 900 से लेकर ईस्वी सन् 400 के बीच के लंबे काल में वैदिक मंत्रों की संहिताओं, ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के बाद एक अलग कोटि का साहित्य सामने आया था जिसे ब्राह्मणग्रंथों के रूप में जाना जाता है। इन ग्रंथों में नाना प्रकार के अनुष्ठानों से जुड़े विधि-विधानों, कर्मकांडों, यागयज्ञों, कट्टरपंथी मान्यताओं ओर काल्पनिक प्रतीक योजनाओं की भरमार है। महीनों, सालों, दो-दो साल तक चलने वालें यज्ञों के विधान दिये हुए हैं। इतिहासकार इस काल को भारत की भौतिक उन्नति के साथ ही वर्ण व्यवस्था के उदय का भी काल बताते हैं।

इन ब्राह्मण ग्रंथों का ही आगे विकास आरण्यक ग्रंथों में हुआ। योग, यज्ञ के बजाय इनमें ध्यान और मनन को महत्व दिया गया। फिर आए उपनिषद। इन्हें साधारणतया ब्राह्मण ग्रंथों की परंपरा का अंश मानने पर भी उनके विकास में ब्राह्मणेत्तर चिंतन का पर्याप्त प्रभाव रहा। भारतीय चित्त के विकास के इतिहास में ब्राह्मणों के युग से उपनिषद युग में प्रवेश करना एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। हरप्रसाद शास्त्री तो इसे प्राचीन भारत में हुई एक गौरवशाली बौद्धिक क्रांति कहते थे। ब्राह्मण विचारधारा का आरण्यक विचाराधारा में परिवर्तन भारतीय मूल्यों के परिवर्तन का नया चरण था जिसमें यज्ञानुष्ठान के बजाय ध्यानोपासना पर बल दिया जाने लगा।

वेदांत दर्शन के उत्तरकाल में ब्रह्म के जिस महान स्वरूप की कल्पना की गई थी वह वेदों में प्रयुक्त ब्रह्म शब्द से बिल्कुल अलग थी। वेदों के भाष्यकारों के अनुसार वहां आए ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ है - बलि या अन्नाहुति, सामगान, तंत्र और तंत्र विद्या, सफल याजि्ञक अनुष्ठान, मंत्रोच्चार और आहुतियां, होता द्वारा मंत्र पाठ, महान। इसीलिये, भारतीय इतिहास में ब्राह्मणवाद समानार्थी है कर्मकांडों का, अंध-विश्वासों, धार्मिक रूढि़वाद, पोंगापंथ, का। समाज के कठोर जातिवादि विभाजन, छुआछूत और खास प्रकार के शुचिता बोध का। इन सबके समुच्चय का। ईसापूर्व 900 से ईस्वीं 400 तक चले इस दौर को हरप्रसाद शास्त्री भारत की चरम भौतिक उन्नति से लेकर जातियों में पर्यवसन का दौर कहते हैं। उनके शब्दों में - ‘वैदिक उपद्रव का काल’। मनुस्मृति इसी दौर में रची गयी सामाजिक संरचना से जुड़े कठोर विधानों की संहिता है, ब्राह्मणवादी सनातन धर्म की सामाजिक संहिता, छुआछूत और शुचिता के संस्कार तक जाने वाली एक खास संहिता।

ऐसे में यदि हम अर्चना वर्मा की सलाह मान ले तो हम ‘भारतीय चित्त’ के निर्माण के इस अनोखे शुचिता बोध वाले विशेष विचारधारात्मक पहलू की समझ के सूत्र को ही गंवा देंगे। डा. अंबेडकर ब्राह्मणवाद का जिक्र ऐसे ही नहीं किया करते थे। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि विचारधारा के क्षेत्र में यह एक विशेष भारतीय परिघटना है। इसकी जगह सिर्फ जातिवाद का उल्लेख इस समस्या को उसके वास्तविक इतिहास से काट कर पूरी तरह से अबूझ बना देने का उपक्रम होगा।

कहना न होगा, भारतीय चिंतन के विकास का इतिहास इसी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ाई का इतिहास है । भारतीय नवजागरण तक का इतिहास भी, जिसके प्रमुख नेता ब्राह्मण जाति के लोग ही थे। आज भी तमाम स्तरों पर यह लड़ाई जारी है।

सोमवार, 23 मार्च 2015

ली क्वान यू


अरुण माहेश्वरी


ली क्वान यू, सिंगापुर के किंवदंती नेता, पूरब का बुद्धिमान व्यक्ति, सन् 1959 में अंग्रेजो से सिंगापुर की मुक्ति के बाद से लगभग छ: दशक से भी ज्यादा समय तक एक जनतांत्रिक प्रणाली में इस द्वीप शहर के एकछत्र नेता, सिंगापुर के निर्माता।  आज वे नहीं रहे। लेकिन एक छोटे से देश की प्रयोगशाला में उन्होंने जो उपलब्धियां की है, उनसे उनके पीछे विकास और शासन से जुड़े कई ऐसे महत्वपूर्ण सवाल छूट गये है, जिनसे आज दुनिया की संभवत: हर सरकार को किसी न किसी रूप में टकराना ही होगा। ली क्वान का सिंगापुर आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र में पूरब और पश्चिम की परस्पर-निर्भरशीलता का एक ऐसा जटिल मॉडल पेश करता है, जिसमें कौन किसके हितों को साध रहा है कहना मुश्किल है, लेकिन वहां की व्यापक जनता के जीवन-स्तर पर इसका गहरा असर पड़ा है। पूरब का एक सबसे गरीब क्षेत्र आज दुनिया का एक सबसे चमचमाता हुआ, मानव विकास के अनेक मानदंडों पर काफी अग्रणी क्षेत्र प्रतीत होता है और इसकी हम तब तक अवहेलना नहीं कर सकते जब तक हम किसी ऐसे सोच में न डूबे हो कि ‘जगत प्रतीति मिथ्या है’।

अंग्रेजों ने अपनी वाणिज्यिक गतिविधियों के बंदरगाह शहर के तौर पर सिंगापुर के अलावा इसी क्षेत्र के और भी दो क्षेत्रों को चुना था - कुआलालमपुर के निकट मेलाका और मलयेशिया के उत्तर-पश्चिमी तट से लगा हुआ पेनांग। 1959 में अंग्रेजों ने सिंगापुर को स्वशासन का अधिकार दिया था और पिपुल्स ऐक्शन पार्टी के नेता ली के हाथ में कमान आई। 1963 में उसके मलय संघ में शामिल होने से मलयेशिया का जन्म हुआ। लेकिन दो साल बाद ही, कुछ जातीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में 1965 में सिंगापुर को इस संघ से निकाल दिया गया और वह एक स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में सामने आया। और तब से लेकर अब तक वहां ली क्वान की पिपुल्स एक्शन पार्टी का ही शासन रहा है। विपक्ष कभी भी पनप नहीं पाया या उसे पनपने नहीं दिया गया।

कहा जाता है कि सिंगापुर के जन्म की परिस्थितियों और उसके अति-क्षुद्र आकार के चलते ही वहां अस्तित्वीय संकट के बोध पर टिकी ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां तैयार हुई जिनकी वजह से वहां जनतंत्र के आवरण में ही एकदलीय तानाशाही की व्यवस्था कायम हुई। ली ने सख्त हाथों से कमान संभाली और इस नवोदित छोटे से देश को अपने प्रकार का एक खास सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिये ही उसे विश्व वित्तीय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग बना दिया। देखते ही देखते, यह बंदरगाह, देश पूरब में विश्व पूंजीवाद की नाक बन गया। इससे उसे दुश्मनों की कुनजर से सुरक्षा मिली, तो इसके साथ ही विकास के कामों के लिये जरूरी पूंजी का अबाध प्रवाह। पूरब के बुद्धिमान कहे जाने वाले ली ने सिंगापुर की इस स्थिति को पूरी मजबूती से बनाये रखा - सिंगापुर दिन-प्रतिदिन चमकता रहा और विकास के एक खास शहर-केंद्रित मॉडल के उदाहरण के तौर पर आज वह सारी दुनिया के शासकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

सिंगापुर के साथ अक्सर चीन की तुलना की जाती है। एक देश घोषित तौर पर पूंजीवाद के रास्ते को अपनाए हुए है और दूसरा समाजवाद को। लेकिन दोनों में कुछ अनोखी समानताओं को देखा जाता है। दोनों जगह एकदलीय शासन है और नीतियों के नाम पर शहरीकरण पर अतिरिक्त बल। राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में विचारकों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारों को किसी प्रशासनिक औजार से ज्यादा कोई महत्व देने के लिये तैयार नहीं है। शासन के साथ किसी भी देश की आबादी की संरचना के प्रश्नों, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को वे कोई महत्व नहीं देते हैं। उनकी दृष्टि में विकास का लक्ष्य एक पूर्व-निर्धारित परम सत्य है, जिसे आज की दुनिया में नव-उदारवाद का लक्ष्य कहा जा सकता है। उनके अनुसार, शासन का काम पूरी शक्ति के साथ उस दिशा में तेजी से बढ़ना भर है। यही वजह है कि जब 2008 में अमेरिका में सब-प्राइम संकट के साथ वित्तीय क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मची थी, उसके पहले तक अमेरिकी जनतांत्रिक प्रणाली को एक कमजोर प्रणाली बताते हुए अक्सर चीन की सख्त शासन प्रणाली की दुहाइयां दी जाती थी। यह सोच आज भी हमेशा वैकल्पिक शासन प्रणालियों पर विचार के क्रम में किसी न किसी रूप में सामने आता रहता है। इस मामले में सिंगापुर एक बहुत ही छोटे देश के नाते कोई ठोस विकल्प न होने पर भी एक सीमित क्षेत्र के विकास के मॉडल के रूप में वह हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है।

भारत में आज स्मार्ट सिटी की चर्चा जोरों से चल रही है। देश की कई राज्य सरकारें अपने-अपने तरीके से शहरीकरण के इस खास प्रकार के अभियान में ही अपना भविष्य देख रही है। इसमें अक्सर भारत के राजनीतिज्ञ सिंगापुर की यात्रा पर जाते हुए और विकास के ली के बताये हुए मॉडल का अध्ययन करते हुए पाए जाते हैं। मोदी जी ने स्वच्छ भारत का जो नारा दिया है, उसके पीछे भी शहरी स्वच्छता का वही आदर्श किसी न किसी रूप में झलकता हुआ दिखाई देता है, जैसा कि सिंगापुर में दिखाई देता है।

लेकिन हमारी समस्या यह है कि हम सिर्फ नारों और अभियानों में ही विकास का जाप करने पर ज्यादा यकीन करते हैं। देश का निर्माण एक व्यापक सांस्थानिक निर्माण का काम होता है। आजादी के इन 68 सालों में इस प्रकार का एक सांस्थानिक ढांचा हमारे यहां तैयार भी हुआ है। यह हमारे देश की ठोस वास्तविकता से जुड़ा हुआ ढांचा है जिसमें विकास के साथ जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित करने की भी व्यवस्थाएं है। बिल्कुल नीचे के स्तर तक स्वशासी संस्थाओं का निर्माण इसी दृष्टि से किया गया है। लेकिन मुसीबतों की जड़ यह है कि भ्रष्टाचार के कैंसर ने इस पूरी लोकतांत्रिक शासन की श्रृंखला को इतना पंगु कर दिया है कि जिसके कारण इसके वांछित परिणाम हासिल करना मुश्किल होगया है। हमारे यहां पंचायतें, नगरपालिकाएं और नगर-निगम  विकास के कामों को साधने के बजाय घनघोर भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये हैं।

आज सिंगापुर के प्रयात नेता ली के महत्व को समझते हुए इस तथ्य को कभी भी ओझल नहीं किया जाना चाहिए कि ली ने अपने देश का कायाकल्प हवा में या कोरे नारों और विचारों से नहीं किया था। उन्होंने सिंगापुर को विश्व वित्तीय बाजार और विश्व व्यापार के एक केंद्र के साथ ही एक स्वच्छ और सुंदर देश के रूप में विकसित करने के लिये वहां एक सुनिश्चित सांस्थानिक ढांचा तैयार किया और उसे भ्रष्टाचार की तरह के कैंसर से यथासंभव बचाये रखा। सिंगापुर की सफलता के पीछे कहीं न कहीं ली के आधुनिक धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण, सिंगापुर को जातीय संघर्षों के उसके दर्दनाक इतिहास से मुक्त रखने की सचेत कोशिशों की भी बड़ी भूमिका रही है। सिंगापुर अपनी आजादी के समय जिस प्रकार के चीनी और मलय जातियों के बीच भयंकर जातीय संघर्षों से जर्जर था, वह आज सिंगापुर के लिये सुदूर अतीत की चीज बन गयी है। हर प्रकार की जातीय और सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्ति में भी सिंगापुर के विकास का रहस्य छिपा हुआ है।




उदय प्रकाश को पीटने की धमकी : फासीवाद की पद-ध्वनि


सभी मित्रों का ध्यान एक बेहद चिंताजनक तथ्य की ओर दिलाना चाहता हूँ ।

पंकज कुमार झा नामक एक महोदय ने फ़ेसबुक में उदय प्रकाश की वाल पर प्रतिक्रिया देते हुए सीधे-सीधे उन्हें गंदी गालियाँ दी है और उन्हें सरे-आम पीटने की धमकी के साथ उनके खिलाफ जातिवादी घृणा का ज़हर फैलाने की कोशिश की है । उदयप्रकाश ने ब्राह्मणवाद से जुड़े प्राचीन चातुर्वर्ण्य सनातन धर्म और कर्मकांडों की प्रतिक्रियावादी परंपरा के ऐतिहासिक संदर्भ में आज के आधुनिक भारत को फिर से मध्ययुगीन अंधेरे में ले जाने वाली सांप्रदायिक ताक़तों के विरोध में एक पोस्ट लगाई थी, जिसमें ब्राह्मणवाद को एक राष्ट्र-विरोधी विचार बताया गया था । पंकज कुमार झा ने जान-बूझ कर उनकी इस पोस्ट को विकृत किया और ब्राह्मणवाद से अभिहित उसके विचारधारात्मक संदर्भों के बजाय उसे आज की ब्राह्मण जाति के विरोध का जातिवादी रूप देकर उनके खिलाफ जातिवादी घृणा फैलाने की कोशिश की है ।

उदय प्रकाश हिंदी के आज सबसे प्रतिष्ठित और जनप्रिय कथाकार है । देश और दुनिया की कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद हो चुका है और सब जगह बड़े आदर के साथ उनका नाम लिया जाता है । हिंदी के एक ऐसे ख्याति-प्राप्त सम्मानित रचनाकार को जातिवादी और सांप्रदायिक नफ़रत का शिकार बनाने की यह कोशिश साहित्य की अस्मिता पर आरहे ख़तरे का एक बेहद चिंताजनक संकेत देती है । यह समय है जब पूरे लेखक समुदाय को उदय प्रकाश के प्रति एकजुटता जाहिर करते हुए बदनीयती से भरे ऐसे जातिवादी-फासीवादी हमले के खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिये ।

रविवार, 22 मार्च 2015

अमर शहीद भगतसिंह : हवा में जिसके विचारों की खुशबू आज भी है, वो रहे, रहे न रहे


- सरला माहेश्वरी

(23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। उस दिन को याद करते हुए उनकी स्मृति में श्रद्धार्थ सरला माहेश्वरी का लेख )


‘‘ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिंह जीवित भगतसिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की खुशबू हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी। यह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे स्वतंत्रता और क्रांति के लिए पागल हो जायेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विनाश को नजदीक ले आयेगा। यह मेरा दृढ विश्वास है। मैं बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा। (फांसी पर चढ़ाये जाने के लगभग आठ महीना पहले जेल में भगतसिंह से मिलने गये प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा को कही गयी भगतसिंह की बात।)

उपरोक्त जो बात जुलाई 1930 में भगतसिंह ने कामरेड शिव वर्मा को कही थी, इतिहास गवाह है कि भगतसिंह की फांसी (23 मार्च 1931) के ठीक बाद वह पूरी तरह से सच साबित हुई थी। आजादी की लड़ाई के दौरान सन् 30-32 के व्यापक जनउभार से लेकर सन् 45-46 के अभूतपूर्व क्रांतिकारी संघषोंर् के बीच के लगभग 15-16 वर्षों का पूरा घटनाक्रम देख लीजिये, इस बात की सच्चाई के लिये किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं रहेगी।

आज भले ही कोई एक दल आजादी की पूरी लड़ाई पर अपने एकाधिकार का दावा क्यों न करे, उस लड़ाई में भगतसिंह और उनके साथियों के अवदान से इंकार करने की हिम्मत किसी में नहीं है। सन् 47 में भारत आजाद हुआ; अंग्रेज चले गये, लेकिन दिल पर हाथ रखकर कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि भारत तब पूरी तरह से साम्राज्यवाद के नागपाश से मुक्त हो गया था। आजादी के इन 59 वर्षों बाद आज की विश्व परिस्थति और भी ज्यादा जटिल है। इसे एकध्रुवीय विश्व कहा जा रहा है। लगता है जैसे अब सिर्फ एक साम्राज्य रह गया है, और बाकी पूरा विश्व उसका उपनिवेश है। ऐसे काल में भारत कितना संप्रभु है, अपनी तमाम आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक नीतियों को निर्धारित करने में वह कितना स्वतंत्र है, इसपर गहरा संदेह किया जा सकता है। कहना न होगा कि ऐसे जटिल और चुनौती भरे समय में साम्राज्यवाद से समझौताहीन संघर्ष का संदेश देने वाले शहीद भगतसिंह फिर एक बार जीवित भगतसिंह से भी कहीं ज्यादा विशाल और प्रभावी रूप में हमें अपने आगे के रास्ते की दिशा दिखा सकते हैं। अर्थात, जो बात भगतसिंह ने 75 साल पहले कामरेड शिव वर्मा से कही थी, वह आज भी उतनी ही सत्य दिखाई देती है।

पारिवारिक पृष्ठभूमि

भगतसिंह का जन्म 5 अक्तूबर 1907* के दिन तत्कालीन पंजाब के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान में) के बंगा गांव में हुआ था। यही वह वर्ष था जब ब्रिटिश शासकों ने सन् 1818 के रेगुलेशन तीन का, जिसमें बिना कोई मुकदमा चलाये किसी को भी जेल के सींखचों में बंद करने का अधिकार भारत की ब्रिटिश सरकार को दिया गया था, राष्ट्रीय आंदोलन के दमन के लिए निरंकुश ढंग से प्रयोग करना शुरू किया था। दुनिया की सबसे सभ्य कही जाने वाली अंग्रेज जाति के इस ‘जनतांत्रिक कानून‘ के प्रयोग पर तब पूरे भारत में भारी गुस्सा छाया हुआ था। सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संघर्ष से शिक्षा लेकर ही ब्रिटिश सरकार ने अपने तरकश में दमन के इन तीरों को भरा था। इसके अलावा, इसी काल में पुणे में चापेकर बंधुओं द्वारा प्लेग कमीश्नर मि. रैण्ड और एवस्र्ट की हत्या, बंगाल में अनुशीलन समिति के नाम से बने क्रांतिकारियों के संगठन और राष्ट्रीय कांग्रेस सहित विभिन्न मंचों से उठ रही स्वतंत्रता की आवाज उस समय की फिजा में गूंज रही थी।

भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह और उनके दोनों चाचा अजीतसिंह और स्वर्णसिंह भी इसी नये उभार की उपज थे। इन तीनों भाइयों को अपने आर्यसमाजी पिता अर्जुनसिंह से तर्क और विवेक की चेतना मिली थी। चाचा स्वर्णसिंह 23 वर्ष की अल्पायु में ही जेल की यातनाओं के कारण इस दुनिया से चल बसे। चाचा अजीतसिंह को 1818 के रेगुलेशन तीन के चलते जलावतन का दंड दिया गया था। आजादी के कुछ दिनों पहले ही वे स्वदेश लौटे थे और इसे नियति की अजीब विडम्बना ही कहा जायेगा कि जिस दिन देश आजाद हुआ, उसी दिन इस वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने प्राण त्यागे;
जैसे शायद इसी दिन के लिए उन्होंने अपने प्राणों को संजो कर रखा था! भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह भी आजादी के आंदोलन से पूरी तरह जुड़े हुए थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।


गदर पार्टी और 20 के दशक का भारत

एक ऐसे पारिवारिक और राजनीतिक माहौल में पैदा हुए भगतसिंह का पंजाब तब भारत की आजादी के क्रांतिकारी संघर्ष के नये दौर की एक अग्रिम चौकी हुआ करता था। यह शायद इतिहास की एक और नियति ही थी कि सन् 57 के पहले स्वतंत्रता संघर्ष से उत्तरी भारत के जो दो प्रमुख प्रदेश बंगाल और पंजाब अलग रहे थे, वे ही परवर्ती दिनों में एक नये उग्र राष्ट्रवादी उभार के प्रमुख केंद्र बने। सन् 1913 में पंजाब में जिस गदर पार्टी का गठन हुआ, उसके स्थापनाकर्ताओं में सोहन सिंह भखना (अध्यक्ष), केशर सिंह (उपाध्यक्ष) और लाला हरदयाल (महासचिव) शामिल थे। इनमें लाला हरदयाल को भारत का प्रथम मार्क्स वादी होने का गौरव प्राप्त है, जिन्होंने मार्क्स और एंगेल्स के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र का सबसे पहले हिंदी में अनुवाद किया था। ‘ऋषि मार्क्स‘ शीर्षक से लिखी गयी उनकी पुस्तिका भारत में कार्ल मार्क्स के जीवन पर लिखी गयी पहली पुस्तक थी। गदर पार्टी का असली नाम हिंदी एशोशियेसन आफ पैसिफिक कोस्ट था। इसकी स्थापना अमेरिका के ओरिगन राज्य के पोर्टलैंड में की गयी थी। चूंकि इस एशोशियेसन के उर्दू मुखपत्र का नाम ‘गदर’ था, इसीलिये भारत में इसे लोग ‘गदर पार्टी’ के नाम से जानते थे। लाला हरदयाल ही इस मुखपत्र के संपादक थे। भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में गदर पार्टी को पहला धर्मनिरपेक्ष हस्तक्षेप कहा जा सकता है। गदर पार्टी के धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण के विपरीत बंगाल की अनुशीलन समिति और पुणे के चापेकर बंधुओं और उनके सहयोगियों के दृष्टिकोण में एक प्रकार का हिंदू पूर्वाग्रह काम किया करता था। गदर पार्टी की खूबी यह थी कि उसने शुरू से ही राजनीति को धर्म से अलग रखने और आर्थिक प्रश्नों को राजनीति के केंद्र में रखने की नीति अपनायी थी। उसका दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय था। लाला हरदयाल हर उस देश में क्रांति चाहते थें जहां गुलामी और शोषण मौजूद हो। उनका कहना था-‘‘स्वामी और सेवक में कोई समानता नहीं हो सकती भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों अथवा वैष्ण्व हों। दौलतमंद हमेशा गरीब आदमी पर शासन करता रहेगा। आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात सिर्फ एक सपना है।‘‘ अमेरिका में अप्रवासियों द्वारा गठित किये जाने के बावजूद गदर पार्टी की गतिविधियों का प्रभाव भारत के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर पड़ रहा था।

इसी गदर पार्टी के मात्र 19 वर्षीय कार्यकर्ता करतारसिंह सराभा को 16 नवम्बर 1915 के दिन ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ाया था। यह घटना तब मात्र आठ वर्ष के भगतसिंह के दिल पर सदा के लिए अंकित हो गयी थी। अदालत में जब जज ने करतारसिंह को आगाह किया कि वह सेाच समझकर बयान दें वरना परिणाम बहुत भयावह हो सकता है, तब इस दिलेर नौजवान ने मस्ती में बड़े बेफिकराना अंदाज में कहा था-‘‘फांसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।‘‘ आखिरी समय में जेल में मुलाकात के लिए आए दादा ने जब उससे कुछ सवाल किये तो उसने लंबी उम्र पाकर मरने वाले अपने कई परिचितों का हवाला देते हुए यह प्रतिप्रश्न किया था कि लम्बी उम्र हासिल करके उन्होंने कौन सी उपलब्धि हासिल कर ली? मात्र साढे़ अठारह वर्ष का यह युवक उस समय वास्तव में अपनी कुर्बानी से राष्ट्रनायक बन गया था। भगतसिंह पर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा था इसे उन्होंने बाद के दिनों में हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘‘चांद‘‘ के फांसी अंक में करतारसिंह सराभा पर लेख लिखकर जाहिर किया था। भगतसिंह इसी सराभा की तस्वीर को हर समय अपने सीने से लगाये रहते थे और कहा करते थे कि यह मेरा गुरू, साथी व भाई है।

भगतसिंह की आरम्भिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई थी। सन् 1916-17 में वे लाहौर में अपने पिता के पास आगये और वहां के डी ए वी स्कूल में दाखिला लिया। यह वह काल था जिस समय 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति ने सारी दुनिया के मुक्तिकामी लोगों में एक नयी प्रेरणा का संचार किया था। सन् 1919 से 1922 के काल को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के भी एक स्वर्णिम काल के रूप में याद किया जाता है। इसी दौरान सन् 1919 में ब्रिटिश सरकार के दमनकारी रौलट ऐक्ट के खिलाफ गांधी जी ने ‘सत्याग्रह सभा’ का गठन करके देश भर में जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा था। 13 अप्रैल 1919 के दिन अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार किया जहां बदनाम अंग्रेज फौजी अधिकारी डायर ने सैंकड़ो लोगों को एक स्थान पर गोलियों से भून दिया था। इसके खिलाफ देश भर में तीव्र गुस्से की लहर दौड़ गयी थी। मजदूरों के मोर्चे पर अहमदाबाद के 40 हजार कपड़ा मिल मजदूरों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जंगी लड़ाई शुरू कर दी थी। कलकत्ता, मुंबई, आदि सभी शहरों में, पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहरा-उड़ीसा में व्यापक जन-असंतोष फूट पड़ा था। मजदूरों की हड़तालें चरम पर थी। अकेले 1920 के छ: महीनों में 200 से ज्यादा हड़तालें हुई जिनमें 5 लाख से ज्यादा मजदूरों ने हिस्सा लिया था। किसान आंदोलन ने पंजाब में अकाली आंदोलन का, मालाबार में मोपला विद्रोह का और संयुक्त प्रांत में जमींदारों तथा साम्राज्यवाद के विरुद्ध व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया। आदिवासियों का प्रसिद्ध काडो डोरा विद्रोह (आंध्रप्रदेश) और राजपुताने का भील विद्रोह इसी काल में हुआ। सन् 1921 में मजदूरों द्वारा हड़तालों की संख्या बढ़ कर 396 होगयी जिनमें 6 लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया था।

इतिहासकारों ने 1920-22 के जमाने को क्रांतिकारी परिस्थिति का काल बताया है, जब राष्ट्रीय मुक्ति की विभिन्न शक्तियां साम्राज्यवादी शत्रुओं पर टूट पड़ने को तैयार थीं। सन् 1920 के सितंबर महीने में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पंजाब के नेता लाला लाजपत राय ने अध्यक्ष पद से कहा था,  इस सचाई से आंख बंद कर लेने से कोई लाभ नहीं कि हम एक क्रांतिकारी जमाने से गुजर रहे हैं। ...परंपरा से हम धीरे-धीर बढ़ने वाले लोग हैं, लेकिन जब हम चलने का फैसला लेते हैं तो हम जल्दी से और तेज लंबे डग भर कर चलते हैं। कोई भी जीवित प्राणी अपने जीवन में क्रांतियों से एकदम बचकर नहीं रह सकता। ( रजनी पाम दत्त, इंडिया टुडे, पृ.339)

सन् 1921 में गांधी जी ने भी एक सम्मेलन में कहा था कि वर्ष के अंत के पहले स्वराज्य पाने का मुझे इतना पक्का विश्वास है कि 31 दिसंबर के बाद स्वराज पाए बिना जिंदा रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। (द इंडियन स्ट्रगल 1920-1934, सुभाष चंद्र बोस, लंदन, पृ.84)

कांग्रेस के उसी कलकत्ता अधिवेशन में गांधीजी ने क्रमिक अहिंसक आंदोलन का कार्यक्रम स्वीकार किया था जिसके आह्वान पर अनेक लोगों ने सरकारी खिताब लौटा दिये, हजारों छात्रों ने सरकारी और अद्र्ध-सरकारी स्कूल और कालेज छोड़ दिए। इसी समय भगत सिंह भी स्कूल छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे।

इसी काल में दिसंबर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में हसरत मोहानी ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पेश किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए ‘नेशनल वालंटियर्स’ का गठन किया गया और सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन एक निर्णायक मुकाम पर पहुंचा हुआ दिखाई देता था। 1 फरवरी 1922 के दिन गांधी जी ने वायसराय को ‘अल्टीमेटम’ दिया था कि यदि एक हफ्ते में अंग्रेज सरकार ने अपने दमनचक्र को बंद न किया तथा सभी गिरफ्तार लोगों को रिहा न कर दिया तो वे सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करेंगे।

लेकिन इसी समय 5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के चौरी चौरा की घटना घटी। इस घटना का आरंभ एक सुसंगठित स्वयंसेवी दस्ते द्वारा अनाज की बढ़ती हुई कीमतों और शराब की बिक्री के विरोध में स्थानीय बाजार में धरना देने से हुआ था। गांधीजी ने भी यह स्वीकारा था कि उकसावे के पर्याप्त कारण मौजूद थे। स्वयंसेवकों के नेता भगवान अहीर को पुलिस ने पीटा था तथा थाने के सामने प्रदर्शन करने आए लोगों पर गोलियां चलाईं। भीड़ उत्तेजित हो गई तथा उसने थाने में आग लगा दी। इसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गांधी जी इस घटना से बहुत क्षुब्ध हुए। उन्होंने इस घटना के बाद ही एक आदेश जारी करके अपने सत्याग्रह आंदोलन को रोक दिया और सत्याग्रह आंदोलन के सिपाहियों को आदेश दिया कि अब केवल रचनात्मक काम करो, चरखा कातो, खादी बुनो, लोगों को नशे की आदत छुड़ाओ, शिक्षा का प्रचार करो, अस्पृश्यता दूर करो आदि।

गांधी जी के इस आकस्मिक फैसले का तत्कालीन पूरे आंदोलन पर काफी बुरा असर पड़ा। लोगों में बेहद निराशा फैली। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मजीवनी में लिखा :  जब हमें मालूम हुआ कि ऐसे वक्त जबकि हम अपनी स्थिति को मजबूत करते जा रहे थे और सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहे थे, हमारी लड़ाई बंद कर दी गयी है, तो हम काफी बिगड़े।

सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि इससे कांग्रेस शिविर में बाकायदा विद्रोह फैल गया। कोई भी न समझ सका कि महात्मा ने चौरी चौरा की विच्छिन्न घटना का इस्तेमाल सारे देश के आंदोलन का गला घोंट देने के लिये क्यों किया।

लाला लाजपतराय ने गांधीजी के यंग इडिया की भूमिका में लिखा कि 1921 में कंाग्रस सदस्यों की संख्या एक करोड़ थी, 1923 में घट कर वह कुछ लाख रह गयी। 1925 उन्होंने में उस समय की परिस्थति का वर्णन कुछ इस प्रकार किया-राजनीतिक परिस्थिति और चाहे जो कुछ हो, लेकिन वह आशाप्रद और उत्साहवद्र्धक नहीं। लोग हताशा में डूबे हुए हैं। हर चीज, सिद्धांत, पार्टियां और राजनीति विभाजन और विघटन की हालत में दीख पड़ती हैं।

लालाजी का आकलन बिल्कुल सही था। देखते ही देखते राष्ट्रीय कांगे्रस से अलग कई राजनीतिक धाराएं फूट पड़ी। जो तमाम लोग गांधीजी के असहयोग के आह्वान पर एक झंडे के नीचे इकट्ठा हुए थे वे सभी उनके इस एकतरफा निर्णय से हताश हुए और इसप्रकार राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक बारगी भारी बिखराव दिखाई देने लगा। यही वह काल था जब साम्प्रदायिक शक्तियों ने फिर से सर उठाना शुरू कर दिया था। इतिहासकारों ने इस काल को भारतीय राजनीति में एक अवसाद का काल कहा है और इसी अवसाद के चलते बाद में सांप्रदायिकता आदि अनेक प्रकार के भटकावों का जन्म हुआ।

गांधीवाद से मोहभंग

भगतसिंह भी उन लोगों में एक थे जिन्होंने सन् 1921 में गंाधीजी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। अपने पारिवारिक संस्कारों और रोज ब रोज राजनीतिक क्षेत्र में घट रही घटनाओं ने भगत सिंह को आजादी की भावनाओं से भर दिया था। जब जलियांवाला बाग का जनसंहार हुआ तब भगतसिंह सिर्फ 12 वर्ष के थे। इस घटना के चंद रोज बाद वे जलियांवाला बाग गये थे और वहां की मिी को अपने साथ ले आये थे। ऐसे भगत सिंह 20 के जमाने के इस क्रांतिकारी उभार के दिनों में खामोश नहीं रह सकते थे। इसीलिये गांधीजी के असहयोग के आान का उनपर सीधा असर पड़ा और अपना स्कूल छोड़ने में उन्होंने जरा भी देर नहीं लगायी।

लेकिन असहयोग आंदोलन को अचानक वापस लिये जाने की घटना ने भगत सिंह को उतना ही अधिक मर्माहत भी किया था और यहीं से गांधी तथा उनके विचारों से भगतसिंह का एक प्रकार से मोहभंग होगया। 1922 में वे फिर से आगे की पढ़ाई के लिये लाहौर के नेशनल कालेज में दाखिल होगये। सन् 1923 में एफ.ए (इंटर मीडिएट) की परीक्षा पास की तथा बीए में भर्ती हुए। गांधीवाद से मोहभंग के साथ ही भगत सिंह ने क्रांतिकारी राजनीति की ओर कदम बढ़ाए। कालेज में ही उनका संबंध क्रांतिकारी अध्यापकों और साथियों से हो गया था। अपने कालेज जीवन में वे जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब आदि की तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लिया करते थे। उन दिनों भारत की आजादी कैसे हासिल की जाए, इस विषय पर राजनीतिक क्षेत्र में भारी बहस-मुबाहिसा चला करता था। भगतसिंह भी इस पूरे विमर्श में पूरी शिद्दत से शामिल हो गये।

‘खिदमते वतन’ का क्रांतिकारी रास्ता

उधर, भगतसिंह के घर पर कुछ दूसरा  ही विमर्श चल रहा था। घर में दादी अपने पोते की शादी के लिए उत्सुक थी। उन्होंने एक जगह बात भी चला दी। इस खबर के मिलते ही भगत सिंह चिंतित होगये। उन्होंने दादी को समझाने की भी कोशिश की, लेकिन दादी के सामने अपना तर्क न चलते देखकर पिता के नाम एक पत्र लिखा और तत्काल अपने घर से रुखसत हो लिए। यह पत्र इस बात का सूचक है कि तब तक भगत सिंह ने अपने भविष्य का रास्ता निश्चित कर लिया था। यहां हम उस पूरे पत्र को ही उद्धृत कर रहे है:

पूज्य पिताजी,
नमस्ते।
मेरी जिंदगी मकसदे-आला (उच्च उद्धेश्य) यानी आजादी-ए-हिंद के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है।इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियाबी खाहशात (सांसारिक इच्छाएं) बायसे कशिश (आकर्षक) नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बाबूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देश सेवा) के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतीज्ञा पूरी कर रहा हूं।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।
आपका ताबेदार
भगतसिंह
(कोष्ठ में दिये गये शब्दार्थ लेखक द्वारा)

पत्र को घर में छोड़कर भगतसिंह कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पहुंच गये और उनके अखबार ‘प्रताप‘ में काम करने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा की तरह के क्रांतिकारियों से हुई।

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, आधुनिक क्रांतिकारी विचारों की भगतसिंह की पाठशाला लाहौर का नेशनल कालेज था। यहीं पर वे प्रिंसिपल छबीलदास, आचार्य जुगलकिशोर, भाई परमानंद और जयचंद विद्यालंकार के संपर्क में आए और इन सबने उनके अंदर क्रांति की जो ज्योति जलाई, उसकी आंच बाद में उनके जीवन की आखिरी घड़ी तक कभी भी मद्धिम नहीं हुई थी। छात्र भगतसिंह कालेज के पुस्तकालय और लाला लाजपतराय की द्वारकादास लाइब्रेरी में बैठकर सारी दुनिया के क्रांतिकारी आंदोलनों का अध्ययन करते थे। उनके अध्ययन की इन्हीं तैयारियों ने कानपुर के प्रताप कार्यालय में रंग दिखाया और उस कार्यालय में ही सन् 1924 से विभिन्न विषयों पर उनकी लेखनी जो चल पड़ी, तो उसने जीवन के अंतिम दिन तक रुकने का नाम नहीं लिया।

द्वारकादास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजा राम शास्त्री ने लिखा है कि 1924 से 1928 के बीच भगतसिंह जैसे ‘‘किताबों का भक्षण‘‘ किया करते थे। शिव वर्मा के अनुसार तब उनके प्रिय विषय थे-रूसी क्रांति, सोवियत संघ,आयरलैंड, फ्रांस, भारत के क्रांतिकारी अंादोलन,अराजकतावाद और माक्र्सवाद। इस गहन अध्ययन का ही परिणाम हुआ कि 1928 के अंत तक भगतसिंह ने समाजवाद को अपने आंदोलन का चरम लक्ष्य घोषित कर दिया।

गौर करने लायक बात है कि तब तक समाजवाद क्रांतिकारियों के एक नये आदर्श के रूप में सामने आ गया था। विभिन्न स्रोतों से रूस में समाजवादी क्रांति के प्रयोग की खबरें भारत में आने लगी थी और बिटिश सरकार भी समाजवाद के इस नये आदर्श को कुचलने के लिए पूरी तरह तत्पर हो गयी थी।

हिप्रसं और काकोरी कांड

बहरहाल, 1922 के बाद के अवसाद के काल में देश के क्रांतिकारियों में भी गांधीजी के प्रति काफी रोष था और उन्होंने फिर से शस्त्र उठाने का मन बना लिया और नये विकल्प के निर्माण की दिशा में अपनी गतिविधियां तेज कर दी। बंगाल के क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल ने देश भर के क्रांतिकारियों को एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में संगठित करने का बीड़ा उठाया और 1923 के अंतिम दिनों में रामप्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जी, चंद्रशेखर आजाद की तरह के तपे-तपाये क्रांतिकारियों को लेकर सशस्त्र क्रांति के जरिये भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन का अंत करके ‘फेडरल रिपब्लिक आफ यूनाइटेड स्टेट्स आफ इंडिया’ (भारत के संयुक्त राज्य का संघीय गणतंत्र) की स्थापना के लिये ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन’ (हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ) (हिप्रसं) का गठन किया। शचीन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक बंदी जीवन‘‘ उस समय के क्रांतिकारियों के लिये गीता की तरह काम कर रही थी। भगत सिंह और उनके साथी इसी ‘हिप्रसं’ से जुड़ गये।

‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ’ की शाखाएं पूरे देश में फैली हुई थी। इसके जरिये लाहौर, कानपुर और बंगाल के क्रांतिकारियों के सूत्र जुड़ गये थे। उन्हीं दिनों, सन् 1924 के जनवरी महीने में क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा ने कलकत्ता के घृणित पुलिस आयुक्त चाल्र्स टेगर्ट की हत्या की कोशिश की। लेकिन गल्ती से उन्होंने डे नामक एक अंग्रेज को मार डाला और पकड़े गये। तब देश भर में भारी विरोध के बावजूद ब्रिटिश सरकार ने गोपीनाथ साहा को फांसी दे दी थी।

हिप्रसं की एक बड़ी कार्रवाई 9 अगस्त 1925 के दिन हुई जब लखनऊ के निकट के एक गांव काकोरी में 8-डाउन गाड़ी पर दस लोग चढ़ गये और उस गाड़ी से जारहे रेलवे के सरकारी खजाने को लूट लिया। इसपर ब्रिटिश सरकार ने व्यापक गिरफ्तारियां की और काकोरी मुकदमे में ही अशफाकउल्लाह खान, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी के फंदे पर लटका दिया, और चार लोगों को कालापानी की सजा सुनाई गयी तथा 17 को लंबी कैद की सजा सुनाई गयी।
भगतसिंह के साथी शिव वर्मा के अनुसार तब क्रांतिकारियों की प्रथम पंक्ति के नेताओं में सिर्फ चंद्रशेखर आजाद और कुंदनलाल गुप्ता गिरफ्तार होने से बच गये थे। उन दिनों हिप्रसं का काम भगतसिंह और सुखदेव देखा करते थे।

भगतसिंह और उनके साथियों ने 1927 में ‘नौजवान भारत सभा‘ का गठन किया जिसमें क्रांग्रेस के कुछ वामपक्षी लोग भी शामिल थे। संगठन के घोषणापत्र में कहा गया था कि जन-क्र्रांति के जरिए ही देश की गुलामी खत्म की जा सकती है। इस संगठन के निर्माण के पीछे भगतसिंह पर दुनिया के अराजकतावादी आंदोलन का भारी प्रभाव था। भगतसिंह की नौजवान भारत सभा के अलावा भी उस समय देश के विभिन्न हिस्सों में युवकों के खुले और गुप्त संगठन काम कर रहे थे। बंगाल के युगांतर, अनुशीलन और चट्रगांव रिपब्लिकन आर्मी, संयुक्त प्रांत आगरा व अवध को केंद्र बनाकर काम कर रही हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी आदि ऐसे ही दल थे।

समाजवाद और हिसप्रसं

भगतसिंह के परिपक्व राजनीतिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उनके लेखों के संग्रहकर्ता चमनलाल ने अपने निबंध ‘भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक भगतसिंह‘ में बताया है कि 1925 के काकोरी बम कांड के बाद क्रांतिकारियों का संगठन ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ‘ बिखर गया था। उस संघ के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़कर समाजवाद की नयी विचारधारा के आधार पर एक नया संगठन, ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ‘ (हिसप्रसं) का गठन करने में भगतसिंह ने ही नेतृत्वकारी भूमिका अदा की थी। चमनलाल ने बताया है कि किसप्रकार विश्व के क्रांतिकारी चिंतन के अध्ययन से भगतसिंह माक्र्सवाद की ओर बढ़ रहे थे तथा माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन के लेखन और व्यक्तित्व ने उन पर जबरदहस्त असर छोड़ा। इसीका प्रभाव था कि 8 व 9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में चार प्रांतों, पंजाब, राजस्थान, बिहार और संयुक्तप्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के 8 क्र्रांतिकारी कार्यकर्ता भारत के क्र्रांतिकारी आंदोलन को नयी दिशा देने के लिए एकत्र हुए थे। इस बैठक में चंद्रशेखर आजाद भी आने वाले थे लेकिन सुरक्षा के कारणों के चलते वे नहीं आ पाये। बैठक के मूल विषयों पर उनसे पहले ही सहमति ले ली गयी थी। इस बैठक में भगतसिंह ने भारत में क्रांति के जरिये समाजवाद की स्थापना का प्रस्ताव रखा था और ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ‘ का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ‘ रख दिया गया। शिव वर्मा के अनुसार इस बैठक में भगतसिंह के प्रस्ताव को दो के मुकाबले 6 के बहुमत से स्वीकारा गया। इसके सैनिक संगठन का नाम रिपब्लिकन आर्मी ही रह गया।

अत्यंत सीमित साधनों के बावजूद इस संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों ने इसे बहुत जल्द ही सारे देश में लोकप्रिय बना दिया था। इस संगठन के निर्माण के ठीक बाद दिसम्बर 1928 में भगतसिंह कलकता आये थे। शिव वर्मा ने बताया है कि कलकता में उनकी मुलाकात क्रांतिकारी त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती और प्रतुल गांगुली से हुई थी। दिल्ली बैठक के समय ये दोनों क्रांतिकारी नेता जेल में थे और उनकी अनुपस्थिति में किसी दूसरे नेता ने दिल्ली बैठक का बहिस्कार कर दिया था। भगतसिंह ने अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान दोनों नेताओं को दिल्ली बैठक की जानकारी दी और उसपर उनकी सहमति भी प्राप्त कर ली। दोनों नेताओं ने उन्हें बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए यतीन्द्रनाथ दास को आगरा भेजने का आश्वासन दिया।

डा. महादेव साहा ने अपने एक लेख में यह बताया है कि भगतसिंह की मुलाकात प्रसिद्ध क्रांतिकारी भूपेन्द्रनाथ दत्त से भी हुई थी। भूपेन्द्रनाथ दत्त तब बम-पिस्तौल की राजनीति छोड़कर मजदूरों-किसानों को संगठित करके सामाजिक क्रांति करने की कम्युनिस्ट राजनीति को अपना चुके थे। भूपेन्द्रनाथ दत्त का स्थान उग्रवादी क्रांतिकारी राजनीति में पितामह समान रहा है। भगतसिंह जब उनसे मिलने गये तो भूपेन्द्रनाथ दत्त उन्हें बम-पिस्तौल की राजनीति की असारता को समझाने की कोशिश की थी। डा. महादेव साहा ने यह भी बताया है कि भूपेन्द्रनाथ दत्त ने भगतसिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के नेता का. मुजफ्फर अहमद से मिलने की सलाह भी दी थी।

बहरहाल, अपने अध्ययन और भूपेन्द्रनाथ की तरह के वरिष्ठ क्रांतिकारी के परामर्श से अराजकतावादी राजनीति की सीमाओं को समझने के बावजूद भगतसिंह अपने ‘हिसप्रसं‘ के संगठन के साथ इतना आगे बढ गये थे कि शायद तब उनके लिए अपने पुराने रास्ते को छोड़कर किसी नये रास्ते पर बढ़ना नामुमकिन सा हो गया था।

सन् 1927 में भारत में राजनीतिक सुधारों के बारे में सुझाव देने के लिये ब्रिटिश सरकार ने साइमन आयोग का गठन किया था। इस आयोग में सर जॉन साइमन के अलावा बाकी सभी छ: सदस्य भी अंग्रेज ही थे। राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1927 की अपनी मद्रास बैठक में इस आयोग के ब्हिष्कार का फैसला किया। इसके कारण देश भर में इस आयोग के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन हुए।

सान्डर्स की हत्या

इन्हीं विरोध प्रदर्शनों की श्रंखला में 30 अक्तूबर 1928 के दिन लाहौर में लाला लाजपतराय और मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में एक जोरदार प्रदर्शन किया गया। वहां के पुलिस प्रमुख स्काट ने शहर भर में जुलूसों और सभाओं पर रोक लगा दी थी। लेकिन इसके बावजूद हजारों लोग इस प्रदर्शन में शामिल हुए। स्काट ने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को अपने बर्बर हमले का निशाना बनाया। लालाजी के सर पर लाठी से जबरदस्त एक के बाद एक कई प्रहार किये गये। अंत में लालाजी निढ़ाल होकर जमीन पर गिर गये। इस हमले के चलते 18 दिनों बाद 17 नवंबर 1928 के दिन लाला जी की मृत्यु होगयी। भगतसिंह ने लालाजी पर हुए इस बर्बर हमले को खुद अपनी आंखों से देखा था। लालाजी की मौत के बाद जाहिर है भगतसिंह और उनके साथियों के दिलों में अत्याचारी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नफरत का ज्वार उबल पड़ा। भगत सिंह के शब्दों में यह हमारे पौरुष को चुनौती थी। भारत के क्रांतिकारियों ने इस चुनौती को स्वीकार लिया। तय किया गया कि लालाजी की मृत्यु के लिये जिम्मेदार, लाठी चार्ज कराने वाले पुलिस अधिकारी को कलंक मान कर उसे धोया जाए। उन्होंने इस अत्याचार का मुंहतोड़ जवाब देने का निश्चय किया।

इस काम को पूरा करने के लिये चन्द्रशेखर ‘आजाद’ लाहौर आए। क्रांतिकारियों से बातचीत के बाद इस पुलिस अफसर को मार डालने की योजना बनी और इसके लिये चार लोगों को नियुक्त किया गया: चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू और जयगोपाल। उस घटना के ठीक एक महीने बाद, 17 दिसम्बर 1928 को ही भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और सुखदेव ने स्काट को मारने की योजना बनाई थी। दुर्भाग्य से गलत पहचान की वजह से स्काट के बदले एक जूनियर अधिकारी साण्डर्स मारा गया।

सान्डर्स की हत्या के बाद हिसप्रसं की ओर से पोस्टर लगाये गय जिन पर लिखा था: लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देश का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कत्र्तव्य था। सांडर्स की हत्या का हमें दुख है, पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिये हम संघर्ष कर रहे हैं।

गौर करने लायक बात यह है कि जिन लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिये भगत सिंह और उनके साथियों ने स्काट की हत्या करने की योजना बनायी थी, उन्हीं लालाजी के साथ भगत सिंह और उनके साथी कितने तीखे विवाद किया करते थे, यह ‘किरती’ पत्रिका की संपादकीय टिप्पणियों और लालाजी के नाम भगतसिंह के खुले पत्रों को देखने से पता चलती है। इनमें लालाजी पर विदेशों में बसे भाइयों से बंटोर कर लाये गये रुपयों के एक हिस्से को खुद हड़प जाने तक का आरोप है। एक पत्र में भगत सिंह ने उन पर 1. राजनीतिक ढुलमुलपन, 2. राष्ट्रीय शिक्षा के साथ विश्वासघात, 3. स्वराज्य पार्टी के साथ विश्वासघात, 4. हिन्दू-मुस्लिम तनाव को बढ़ाने और 5. उदारवादी बन जाने के अभियोग लगाये थे।
उस समय पूरे देश में एक नये प्रकार का जन उभार भी दिखाई दे रहा था। शिव वर्मा लिखते हैं-‘‘मजदूर वर्ग की ओर से देश भर में लड़ाकू किस्म की हड़तालें हो रही थीं और संगठित मजदूर संघों की गतिविधियां बढ रही थी जिसके फलस्वरूप मजदूर काम करने की बेहतर स्थितियों और अधिक वेतन के लिए ज्यादा प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने में समर्थ हो रहे थे। श्रमिकों ,युवकों और छात्रों में साम्यवाद का प्रभाव तेजी से बढ रहा था। देश में पहली बार एक संगठित और व्यापक वामपंथी राजनीतिक आंदोलन आकार गृहण कर रहा था। ‘‘

बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट

इसी सिलसिले में शिव वर्मा लिखते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इस समूचे घटनाक्रम से भारी चिंतित थे और उन्होंने इस जन उभार को कुचलने के लिए केंद्रीय एसेम्बली में दो विधेयक लाने का निर्णय किया। पहला था पब्लिक सेफ्टी बिल और दूसरा था ट्रेड डिस्प्यूट बिल। इन दोनों का उद्धेश्य साम्यवादियों और टे्रड यूनियन आंदोलन का दमन था। तत्कालीन केंद्रीय एसेम्बली में समूचे विपक्ष ने इसका विरोध किया था और 24 सितम्बर 1928 को इन्हें अस्वीकृत भी कर दिया गया। फिर भी, सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही और 1929 के जनवरी महीने में पब्लिक सेफ्टी बिल को फिर से संशोधित रूप में पेश किया गया।
शिव वर्मा बताते हैं कि सरकार के इस निर्णय से भगतसिंह और उनके साथी बेहद नाराज थे। उन्होंने इसके प्रतिवाद में कोई न कोई ठोस कार्रवाई करने का निर्णय लिया। आगरा में हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की केंद्रीय समिति की बैठक बुलाई गयी और इसमें जो प्रस्ताव रखे गये वे संक्षेप में इसप्रकार हैं-‘‘(1) पार्टी को एसेम्बली में बम फेंककर सरकार की हठधर्मिता के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट करना चाहिए। (2) इस काम के लिए जो लोग चुने जांए वे कार्रवाई करने के बाद भागने की कोशिश न करें बल्कि आत्मसमर्पण कर दें, और मुकदमें के दौरान अदालत का इस्तेमाल पार्टी के उद्धेश्यों और प्रयोजनों के प्रचार के लिए करें तथा (3) एक और कामरेड के साथ मिलकर उन्हें इस निर्णय को क्रियान्वित करने की अनुमति दी जाए।‘‘

केंद्रीय समिति ने भगतसिंह के पहले दो प्रस्तावों को तो तत्काल मान लिया लेकिन अंतिम प्रस्ताव को दो दिनों की बहस के बाद ही माना गया।

बहरहाल, 4 सितम्बर 1928 के दिन केंद्रीय एसेम्बली में दूसरा बिल टे्रड डिस्प्यूट बिल पेश किया गया था जिसे विचार के लिए सलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। यही बिल थोड़े रद्दोबदल के बाद 2 अप्रैल 1929 के दिन फिर से एसेम्बली में रखा गया। 8 अप्रैल 1929 को यह बिल 38 के मुकाबले 56 के बहुमत से पारित कर दिया गया। शिव वर्मा के शब्दों में-‘‘अध्यक्ष महोदय मतदान का परिणाम घोषित करने के लिए खड़े हुए, भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों ने एक-एक बम फेंका। इसके साथ ही उन्होंने नारे लगाए और इश्तहार बांटे। इश्तहारों में यह समझाया गया था कि बम विस्फोट की कार्रवाई के पीछे क्या उद्धेश्य है।‘‘

उल्लेखनीय है कि बम फेंकने के बाद ये दोनों नौजवान ‘इन्कलाब जिंदाबाद‘ और ‘हिंदुस्तान हिंदुस्तानियों का है‘ के नारे लगाते हुए बैठे रहे। बमों के धमाकों से भय से कंाप रहे अंग्रेज सरकार के रक्षकों को बुलाकर इन्होंने खुद को गिरफ्तार करवाया। अपनी पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का उदय और अस्त‘ में अयोघ्यासिंह ने इस घटना के बारे में लिखा है-‘‘ इस घटना के बाद ही ब्रिटिश शासकों ने सारे देश के नौजवान क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी शुरू कर दी,हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसियेशन के लाहौर में गुप्त केंद्र और बम के कारखाने का पता उन्हें लग गया। चन्द्रशेखर आजाद को जो बाद में इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में हथियारबंद पुलिस के साथ अकेले लड़ते मारे गये, छोड़कर सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गये। गिरफ्तारियां पंजाब से लेकर बंगाल तक हुई और लाहौर में ले जाकर मामला चलाया गया। यह मामला इतिहास में लाहौर ाड़यंत्र के नाम से मशहूर है। भगतसिंह, सुखदेव राजगुरु, यतीनदास, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, जो बाद में हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेके्रटरी बने, शिव वर्मा जो कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय मुखपत्र ‘लोकलहर‘ के संपादक बने, विजय कुमार सिन्हा, यशपाल जो आज हिंदी के उच्च कोटि के कहानी और उपन्यास लेखक हैं, जयदेव कपूर, का. गयाप्रसाद, कुंदनलाल गुप्त वगैरह इसके अभियुक्त थे।‘‘

असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की ओर से जो पर्चा फेंका था उसका प्रारम्भ इन शब्दों से होता है- ‘‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है, प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलिया के यह शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।‘‘

इस पर्चे में उन्होंने उपरोक्त दोनों विधेयकों के दमनकारी स्वरूप पर गुस्सा जाहिर करते हुए कहा था कि ‘‘ विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परंतु उसकी वैद्यानिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।‘‘ इस पर्चे के अंत में कहा गया कि‘‘हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इस पर्चे में साफ कहा गया था कि भारतीय क्रांतिकारी दल का मकसद समाजवाद की स्थापना है और हमारा नारा है इंकलाब जिन्दाबाद।

अदालत में मुकदमे के दौरान भगतसिंह और उनके साथियों ने अपने उद्धेश्य के प्रचार के लिए उस मंच का भरपूर इस्तेमाल किया और देखते ही देखते जी.एस. देओल के अनुसार इससे राष्ट्रीय आंदोलन को नयी गति मिली और ‘‘भारतीय राष्ट्रीय क्रांग्रेस के लिए दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने और पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास करने का पथ प्र्रशस्त किया।‘‘

मार्क्सवाद की ओर

कामरेड शिव वर्मा ने बताया है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त,  दोनों पर रूसी अराजकतावादी बकुनिन का भारी प्रभाव था। यहां यह गौर किया जा सकता है कि 8 अप्रैल 1929 के दिन जब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरों को सुनाने के लिए केंद्रीय एसेम्बली में बम फेंका था, तब भी उनकी यह कार्रवाई यूरोपीय अराजकतावादी वैलेट के कारनामे से प्रेरित थी। वीर भारत तलवार ने हंस के अप्रैल 1987 के अंक में अपने एक लेख में यह बताया है कि वैलेंट ने भी भगतसिंह की भंाति एसेम्बली में बम फेंकने के बाद कहा था- ‘बहरों को सुनाने के लिए बड़ी बुलंद आवाज की जरूरत है’।

कामरेड शिव वर्मा लिखते हैं कि भगतसिंह को अराजकतावाद के प्रभाव से मुक्त करके समाजवाद की तरफ लाने का श्रेय दो व्यक्तियों को है- स्वर्गीय कामरेड सोहनसिंह जोश और लाला छबीलदास। 1928 के शुरू होते न होते उन्होंने (भगतसिंह) ने अराजकता को छोड़ कर समाजवाद को स्वीकार लिया, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने माक्र्सवाद को पूरी तरह समझ लिया था। अतीत के कुछ प्रभाव अभी बाकी थे।

भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में भगतसिंह और उनके साथियों का जेल जीवन एक नये निर्णायक मोड़ का सूचक था। उधर बंगाल में भी क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास से पता चलता है कि जेल और काला पानी की सजा के दिनों में यहां के क्रांतिकारियों को माक्र्सवाद से संबंधित साहित्य के अध्ययन का जो मौका मिला उसने बहुतों को कम्युनिस्ट क्रांतिकारी में तब्दील कर दिया। बिल्कुल उसी प्रकार भगतसिंह और उनके साथियों को भी जेल जीवन में अध्ययन और विचार-विमर्श का जो मौका मिला, उसने उनके अंदर एक नयी समझ पैदा की। ‘‘इसके आधार पर उन्होंने अपने पूर अतीत को खासकर वैयक्तिक कार्यकलापों और शौर्य-प्रदर्शन के आदर्श को नये सिरे से जांचा-परखा और अब तक की कार्यप्रणाली को छोड़कर समाजवादी क्रांति का रास्ता अपनाने का निश्चय किया। गहन अध्ययन और बोस्टल जेल में दूसरे साथियों के लम्बे विचार-विमर्श के बाद भगतसिंह इस निर्णय पर पहुंचे कि यंहा-वंहा कुछ भेदियों और सरकारी अफसरों की वैयक्तिक हत्याओं से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।‘‘ (शिव वर्मा, क्रांतिकारी अंादोलन का वैचारिक प्रकाश, भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ 27)

गौर करने लायक बात हेै कि जेल से ही भगतसिंह ने 19 अक्तूबर 1929 के दिन पंजाब स्टूडेंट्स कांफ्रेंस के नाम अपने संदेश में कहा था-‘‘आज नौजवानों को बम और पिस्तौल अपनाने के लिए नहीं कह सकते...उन्हें औद्यौगिक क्षेत्रों की गंदी बस्तियों और गांवों के टूटे-फूटे झोंपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जगाना है।‘‘

8 अप्रैल 1929 के बाद से लेकर उम्र की आखिरी घड़ी (23 मार्च 1931) तक भगतसिंह जेल की सींखचों से बाहर नहीं आ पाये। जेल में रहते हुए उन्होंने और उनके साथियों ने कई बार जेल अधिकारियों के दुव्र्यवहार के खिलाफ भूख हड़तालें की। भगत सिंह के साथी यतीन दास 63 दिन तक भूख हड़ताल पर रह जिसके अंत में उनकी मृत्यु भी होगयी। अप्रैल 1929 से लेकर 1930 के आखिर तक ये देशभक्त जेल में रहे।

6 जुन 1929 को दिल्ली की सेशन अदालत में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बयाान दिया था वह उनके क्रांतिकारी दर्शन को जानने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। अपने इस बयान में उन्होंने कहा था कि-‘‘यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है। ...बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था का औचित्य हमारी समझ में नहीं आ सका, जो बावजूद उस तमाम शानौ-शौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र एक दिल को बहलाने वाली थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई संस्था है। ... मानवत के प्रति हार्दिक सद्भाव और अमिट प्रेम के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है।‘‘

इस घटना के पीछे के अपने अभिप्राय को बताते हुए उन्होंने साफ किया कि वे किसी भी व्यक्ति को कोई नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते थे। असेम्बली भवन में फेंके गये बमों से वंहा की एक खाली बैंच को ही कुछ नुकसान पहुंचा। क्रांति से अपने अभिप्राय को जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि-

‘‘क्रांति में व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है-अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।‘‘ अपने इस वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा-‘‘क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।‘‘

दिल्ली के सेशन जज ने असेम्बली बम कांड के लिए भगतसिंह को आजीवन कारावास का दंड दिया था। लाहौर के हाईकोर्ट में उसकी अपील की गयी। हाईकोर्ट के समक्ष उन्होंने अपने बयान में सेशन अदालत के फैसले की आलोचना करते हुए फिर इस बात को दोहराया कि-‘‘इंकलाब जिंदाबाद से हमारा यह उद्धेश्य नहीं था, जो आम तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। और यही चीज थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे।

इसी दौरान ब्रिटिश सरकार को मुखबिरों से यह पता लग गया कि सान्डर्स की हत्या में भगत सिंह और उनके साथियों का हाथ था। भगत सिंह और उनके साथियों पर इस कांड के लिये भी मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा लाहौर षड़यंत्र मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है।

उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश सरकार ने बाकायदा एक अघ्यादेश जारी करके लाहौर षड़यंत्र मुकदमे को जल्द निपटाने के लिए एक ट्रिब्यूनल की नियुक्ति की थी। इस ट्रिब्यूनल के गठन के पीछे काम कर रही ब्रिटिश सरकार की बदनीयती को समझते हुए ही भगतसिंह सहित उने छ: साथियों ने इस मुकदमे की कार्रवाई में भाग न लेने का ऐलान किया था। ट्रिब्यूनल के कमीश्नर के नाम अपने पत्र में उन्होंने कहा था-‘‘हमारा विश्वास है कि ऐसी सरकारें, विशेषकर अंग्रेजी सरकार जो असहाय और असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गयी है, गुंडो, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों का टोला है जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सबप्रकार की शक्तियां जुटाई हुई है। ...वर्तमान सरकार के कानून विदेशी शासन के हितों के लिए चलते हैं और हम लोगों के हितों के विपरीत है। इसलिए उनकी हमारे ऊपर किसी भी प्रकार की सदाचारिता लागू नहीं होती।‘‘

उपरोक्त तमाम उद्धरणों से जाहिर है कि किसप्रकार भगतसिंह अदालत के मंच से उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष करने के अपने इरादों का ऐलान करते हैं। भगतसिंह और उनके साथियों ने जिस विशेष ट्रिब्यूनल के साथ सहयोग न करने का निर्णय लिया था उसी ट्रिब्यूनल ने 7 अक्तूबर 1930 के दिन भगतसिंह, सुखदेव और शिवरात राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई थी। फांसी पर चढ़ाये जाने के पहले भगतसिंह ने अपने साथियों के नाम जो अंतिम पत्र लिखा था उसमें उन्होंने कहा था कि-‘‘एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्रत, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।‘‘

यह था भगतसिंह के जेल-जीवन और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनकी घृणा तथा मानवता की सेवा की उनकी अधूरी रह गयी इच्छाओं का एक पहलू।

अदालत में भगतसिंह और उनके साथी लगातार अंग्रेज सरकार से वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे और देश की आजादी के लिए अपनी लड़ाई के औचित्य को साबित करने के प्रयास में लगे रहे । देश भर में भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को छोड़ देने की जबरदस्त मांग उठ रही थी। लेकिन इन सबका अंगेज सरकार पर कोई असर नहीं हुआ।  निर्दयी अंग्रेज हुकूमत ने भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फांसी का हुक्म सुनाया। 23 मार्च 1931 की शाम 7 बज कर 23 मिनट पर इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गयी। इसके बाद ही देश भर में ‘‘भगतसिंह जिंदाबाद‘‘ की आवाज गंूज उठी। जवाहरलाल नेहरू को जैसे ही यह खबर लगी, उन्होंने कहा कि ‘‘हमारे और इंगलैंड के बीच अब भगतसिंह की लाश रहेगी‘‘। 24 मार्च को शोक दिवस का पालन किया गया। महात्मा गांधी के जीवनीकार जी. डी. तेंदुलकर ने लिखा है कि लाहौर में अधिकारियों ने यूरोपीयन महिलाओं को 10 दिन तक यूरोपीयन क्र्वाटर में ही रहने की चेतावनी दी। मुम्बई और मद्रास में जोरदार विरोध प्रदर्शन हुए।  कोलकाता की सड़कों पर सशस्त्र पुलिस बल पहरा दे रहे थे। प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़पें हुई जिनमें 141 लोग मारे गये,586 लोग घायल हुए और 341 लोगों को गिरफ्तार किया गया। असेम्बली में वित्त विध्ेायक पर चल रही बहस की उपेक्षा करते हुए सदस्यों ने सदन से वाक आउट किया।

जेल में अध्ययन

भगतसिंह के जेल-जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक उत्कट अघ्येता और क्रांतिकारी विचारक के विकास का पहलू है। जेल में रहते हुए ही उन्होंने राष्ट्रीय क्रांग्रेस की विचारधारा और गांधीजी के दर्शन को अस्वीकारते हुए क्रांति के अपने दर्शन की व्याख्या की थी जिसे ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र‘ का घोषणापत्र कहा गया था। यह भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी भगवतीचरण वोहरा का ‘बम का दर्शन‘ शीर्षक लेख था जिसे भगतसिंह ने जेल में रहते हुए अंतिम रूप दिया था। अपने जेल जीवन में ही भगतसिंह ने अपना प्रसिद्ध लेख, ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘‘ लिखा था। इस लेख में उन्होंने सभी आस्थावान लोगों से यह सवाल किया था कि -‘‘तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ? ... उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की ? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इसप्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय,वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवाद की बेडि़यों से मुक्त करे। ... मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रजों की हुकूमत यंहा इसलिए नहीं है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। ... कहां है ईश्वर ? वह क्या कर रहा है ? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है ? वह नीरो है, वह चंगेज है, तो उसका नाश हो।‘‘(भगतसिंह और उनके दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ 367 से 380)

इसी प्रकार उनका एक दूसरा महत्वपूर्ण लेख जिसका अनुवाद शिव वर्मा ने किया है, उनके एक दोस्त लाला रामशरण दास की कविताओं का संकलन ‘ड्रीम लैंड‘ की भूमिका है। इस भूमिका में उन्होंने कविता की समीक्षा करने में अपनी असमर्थता को जाहिर करते हुए मुख्य रूप से एक क्रांतिकारी राजनीतिक नेता के नाते अपनी टिप्पणी की है। वे कहते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में ‘ड्रीम लैंड‘ का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वह सामान्यतौर पर राजनीति के आदर्शविहीन स्वरूप की कमी को पूरा करता है। इसी सूत्र के आधार पर उन्होंने इसमें क्रांति की अपनी अवधारणा, रहस्यवादी विचारों से अपनी असहमति और भविष्य के कम्युनिस्ट समाज के बारे में अपने सोच को रूपायित किया है। लाला रामशरन दास को आजीवन कैद की सजा मिली थी। अपने जेल जीवन में ही उन्होंने जो कविताएं लिखी, यह पुस्तक उन्हीं कविताओं का संकलन थी। इसमें उन्होंने एक माक्र्सवादी के नजरिये से रामशरन दास के विचारों को परखा था और यह साफ शब्दों में कहा था कि-‘‘अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा क्रांतिकारी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों से नहीं हो सकती बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फूटित और विकसित होना चाहिए।

इसी निबंध में भगत सिंह ने अपने भविष्य के कम्युनिस्ट समाज के बारे में जो टिप्पणी की है, वह काफी महत्वपूर्ण है। इसमें वे कहते हैं : भविष्य के समाज में अर्थात् कम्युनिस्ट समाज में जिसका हम निर्माण करना चाहते हैं, हम धर्मार्थ संस्थाएं स्थापित करने नहीं जा रहे हैं, बल्कि उस समाज में न गरीब होंगे न जरूरतमन्द, न दान देनेवाले न दान लेनेवाले। ...पुस्तक में लेखक ने समाज की जिस साधारण रूपरेखा पर बहस की है वह बहुत कुछ वैसी ही है जैसी वैज्ञानिक समाजवाद की।

इसीमें आगे भगतसिंह ने समाजवाद में कायिक और मानसिक श्रम के विषय पर विचार करते हुए अपनी जिस वैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचय दिया, वह देखने लायक है। वे कहते हैं : उसमें (ड्रीमलैंड पुस्तक में - लेखक) कुछ ऐसी बातें भी है जिनका विरोध या प्रतिवाद आवश्यक है, या यूं कहा जाय कि उनमें सुधार आवश्यक है। मिसाल के तौर पर 427वें पद के नीचे दी हुई टिप्पणी में वह लिखता है कि राजकर्मचारियों को अपनी रोजी कमाने के लिये प्रतिदिन चार घंटे खेतों पर या कारखानों में काम करना चाहिए। लेकिन यह अव्यवहारिक तथा हवाई बात है। यह बात शायद आज की व्यवस्था में राजकर्मचारियों को जो ऊंचा वेतन दिया जाता है, उसके खिलाफ प्रतिक्रिया की ही उपज है। दरअसल बोल्शेविकों को भी यह स्वीकार करना पड़ा था कि दिमागी काम उतना ही उत्पादक श्रम है, जितना कि शारीरिक श्रम, और आने वाले समाज में जब विभिन्न तत्वों के आपसी संबंधों का समायोजन समानता के आधार पर होगा तो उत्पादक और वितरक दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण माने जायेंगे। आप एक नाविक से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह हर 24 घंटे बाद अपना जहाज रोक कर रोजी कमाने के लिये चार घंटे काम करने चला जायेगा, या एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला और अपना प्रयोग (काम) छोड़ का खेत पर अपने काम का कोटा पूरा करने चला जायेगा। यह दोनों ही बहुत उत्पादक काम कर रहे हैं। समाजवादी समाज में इतने ही अंतर की आशा की जाती है कि दिमागी काम करने वाला शारीरिक काम करने वाले से ऊंचा नहीं माना जायेगा।(भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन, पृ. 385-386)

भगतसिंह ने 2 फरवरी 1931 को ‘‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम ‘‘ एक अपील लिखी थी। इस अपील में उन्होंने जनसाधारण के बीच काम करने के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि -‘‘गांवों और कारखानों में किसान और मजदूर ही असली क्रांतिकारी सैनिक हैं।‘‘ उन्होंने पूरी ताकत के साथ अपने पर लगाये गये इस इल्जाम से इंकार किया कि वे एक आंतकवादी हैं। उनके शब्दों में-‘‘मैंने एक आंतकवादी की तरह काम किया है, लेकिन मैं आंतकवादी नहीं हूं। मैं तो एक ऐसा क्रांतिकारी हूं जिसके पास एक लम्बा कार्यक्रम और उसके बारे में सुनिश्चित विचार होते हैं। ... मैं पूरी ताकत के साथ बताना चाहता हूं कि मैं आंतकवादी नहीं हूं और कभी था भी नहीं, कदाचित उन कुछ दिनों को छोड़कर जब मैं अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत कर रहा था। मुझे विश्वास है कि हम ऐसे तरीकों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।‘‘ उन्होंने नौजवानों से माक्र्स और एगेंल्स को पढ़ने,उनकी शिक्षाओं को अपना मार्ग-दर्शक बनाने, जनता के पास जाने, मजदूरों, किसानों, और शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करने, उन्हें राजनीतिक रूप से सचेत बनाने, उनमें वर्ग चेतना पैदा करने और उन्हें संघों में संगठित करने का आह्वान किया था। लेनिन के शब्दों को दोहराते हुए उन्होंने कहा था कि हमें पेशेवर क्रांतिकारियों की जरूरत है। उन्होंने क्रांति के लिए एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की जरूरत पर भी बल दिया था।

यहां उल्लेखनीय है कि जिस समय भगतसिंह ने यह पत्र लिखा था, उस समय भारत के राजनीतिक वातावरण में गांधी-इर्विन समझौता वार्ताओं की चर्चा सबसे अधिक गर्म थी। भगत सिंह ने तब एक क्रांतिकारी की दृष्टि से संघर्ष की राह में समझौतों के सवाल पर अपनी राय दी थी। इसमें उन्होंने 1917 की रूस की क्रांति के बाद लेनिन द्वारा किये गये शान्ति के लिये समझौते का भी जिक्र करते हुए कहा था :

“समझौता एक ऐसा जरूरी हथियार है जिसे संघर्ष के विकास के साथ ही साथ इस्तेमाल करना जरूरी बन जाता है, लेकिन जिस चीज का हमेशा ध्यान रहना चाहिए वह है आन्दोलन का उद्देश्य। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये हम संघर्ष कर रहे हैं, उनके बारे में, हमें पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। ...आप अपने शत्रु से सोलह आना पाने के लिये लड़ रहे हैं। आपको एक आना मिलता है, उसे जेब में डालिए और बाकी के लिये संघर्ष जारी रखिये।“

इसी संदर्भ में उन्होंने कांग्रेस के अंदर चल रही कसमकश पर टिप्पणी की और कहा कि नरम दल के लोगों में जिस चीज की कमी हम देखते हैं, वह उनके आदर्श की है। वे इकन्नी के लिये लड़ते हैं और इसलिये उन्हें मिल ही कुछ नहीं सकता।

आगे वे कांग्रेस के उद्देश्य पर टिप्पणी करते हैं और राय देते हैं कि वर्तमान आंदोलन किसी न किसी समझौते या पूर्ण असफलता में समाप्त होगा। वे इसके पीछे कांग्रेस के आंदोलन के वर्ग चरित्र की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि यह संघर्ष मध्यवर्गीय दुकानदारों और चंद पूंजीपतियों के बल किया जा रहा है। यह दोनो वर्ग, विशेषत: पूंजीपति, अपनी सम्पत्ति या मिल्कियत खतरे में डालने की जुर्रत नहीं कर सकते। वास्तविक क्रांतिकारी सेना तो गांवों और कारखानों में हैं - किसान और मजदूर। लेकिन हमारे ‘बूज्र्वा’ नेताओं में उन्हें साथ लेने की हिम्मत नहीं है, न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। गांधीजी को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं, ‘1920 में अहमदाबाद के मजदूरों के साथ अपने प्रथम अनुभव के बाद महात्मा गांधी ने कहा था, हमें मजदूरों के साथ सांठ-गांठ नहीं करनी चाहिए। कारखानों के सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना खतरनाक है।

भगत सिंह का यह पत्र दरअसल उनके द्वारा तैयार किया गया क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा था। इसी के अंतिम हिस्से में वे गांधीवाद और आतंकवाद पर भी सारगर्भित टिप्पणी करते है, जिसे यहां उद्धृत करना जरूरी है क्योंकि इस लेख में आगे हम गांधी और भगतसिंह के विषय में काफी विस्तार से चर्चा करेंगे। ‘गांधीवाद’ उपशीर्षक के साथ वे लिखते हैं : कांग्रेस आन्दोलन की सम्भावनओं, पराजयों और उपलब्धियों के बारे में हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए। आज चल रहे आन्दोलन को गांधीवाद कहना ही उचित है। यह दावे के साथ आजादी के लिए स्टैण्ड नहीं लेता, बल्कि सत्ता में ‘हिस्सेदारी’ के पक्ष में है। ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के अजीब अर्थ निकाले जा रहे हैं। इसका तरीका अनूठा है, लेकिन बेचारे लोगों के किसी काम का नहीं है। साबरमती के सन्त को गांधीवाद कोई स्थायी शिष्य नहीं दे पायेगा। यह एक बीच की पार्टी - यानी लिबरल-रैडिकल मेल-जोल - का काम कर रही है और करती भी रही है। मौके की असलियत से टकराने में इसे शर्म आती है। इसे चलानेवाले देश के ऐसे ही लोग है जिनक हित इससे बंधे हुए हैं और वे अपने हितों के लिए बूज्र्वा हठ से चिपके हुए हैं। यदि क्रांतिकारी रक्त से इसे गर्मजोशी न दी गयी तो इसका ठण्डा होना लाजिमी है। इसे इसीके दोस्तों से बचाने की जरूरत है।

इसमें आगे वे ‘आतंकवाद’ उपशीर्षक के तहत लिखते हैं :बम का रास्ता 1905 से चला आरहा है और क्रांतिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है।...आतंकवाद हमारे समाज में क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है; या एक पछतावा। ...सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है।

इसीमें आगे वे फिर एक बार गांधीवाद पर जो टिप्पणी करते हैं, वह बताती है कि भगत सिंह ने किस प्रकार क्रांति की वास्तविक प्रक्रिया के मर्म को समझ लिया था। इसमें वे कहते है, एक प्रकार से गांधीवाद अपना भाग्यवाद का विचार रखते हुए भी, क्रान्तिकारी विचारों के कुछ नजदीक पहुंचने का यत्न करता है, क्योंकि यह सामूहिक कार्रवाई पर निर्भर करता है, यद्यपि यह कार्रवाई समूह के लिए नहीं होती। उन्होंने मजदूरों को आन्दोलन में भागीदार बना कर उन्हें मजदूर-क्रांति के रास्ते पर डाल दिया है। यह बात अलग है कि उन्हें कितनी असभ्यता या स्वार्थ से अपने राजनीतिक कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल किया गया है। क्रांतिकारियों को ‘अहिंसा के फरिश्ते’ को उसका योग्य स्थान देना चाहिए। (देखे, भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन, पृ. 389-401)

आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित,चमनलाल द्वारा संपादित ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज‘ में भगतसिंह की वह जेल डायरी भी संकलित है जिसे उन्होंने 404 पृष्ठों में लिखा था। इस डायरी में उन्होंने दुनिया के अनेक विचारकों की उद्धृतियों को नोट किया था। इस डायरी को देखने से पता चलता है कि किसप्रकार अपने जेल जीवन के दौरान भगतसिंह अन्य अनेक विचारकों के साथ ही मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की कृतियों का गहराई से अध्ययन कर रहे थे। शिव वर्मा ने बताया है कि भगतसिंह ने जेल में चार और पुस्तकें लिखी थी जिनके शीर्षक थे-(1) समाजवाद का आदर्श (2) आत्मरक्षा (3) भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास (4) मृत्यु के द्वार पर। ये चारों पुस्तकें पता नहीं कहां गुम हो गयी हैं। यदि ये पुस्तकें प्रकाशित हो पाती तो भगतसिंह ने अपने गहन अघ्ययन के आधार पर जिस माक्र्सवादी विचारधारा को अर्जित किया था उसकी एक बहुत ही साफ तस्वीर हमारे सामने आती। निश्चित तौर पर इससे भारत में समाजवादी क्र्रांति की रणनीति और कार्यनीति के बारे में उनके विचारों को जानने का हमें मौका मिलता।

इस महान क्रांतिकारी जीवन पर गहराई से विचार करने पर एक बात खुलकर सामने आती है कि उन्होंने एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह किसी भी प्रकार के सुधारवादी और समझौतावादी दृष्टिकोण को स्वीकारने से इंकार किया था। उन्होंने एक बहरी औपनिवेशिक सत्ता को सुनाने कि लिए बम का धमाका अवश्य किया था लेकिन वे इस सच्चाई को अच्छी तरह समझते थे कि क्रांति का अर्थ सिर्फ बम और पिस्तौल को चमकाना नहीं है जिसे उन्होंने पटाखेबाजी भी कहा था। क्रांति का अर्थ देश के मजदूरों और किसानों को संगठित करना और उनके नेतृत्व में एक व्यापक सामाजिक रूपान्तरण को हासिल करना होता है। क्रांति का अर्थ साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के जुए से मानव सभ्यता को मुक्त करके समता और न्याय के आधार पर एक सुखी और समृद्ध समाज का निर्माण करना होता है।

भगत सिंह का अन्य लेखन

जैसा कि हमने पहले ही कहा है, भगत सिंह जब कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ कार्यालय में आये, तभी से भारत की आजादी और क्रांतिकारी संघर्षों से जुड़े विभिन्न विषयों पर उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। देश की स्वतंत्रता का संघर्ष भारत की विभिन्न जातियों की अस्मिता की लड़ाई से गहरे से जुड़ा हुआ था। भगतसिंह ने 1924 के अपने प्रारम्भिक लेख में ही पंजाबी की भाषा और लिपि की समस्या पर विचार किया था। किसी भी सामाजिक परिवर्तन में साहित्य की कितनी बड़ी भूमिका होती है इसे रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा था-शायद गैरीबाल्डी को इतनी सेनाएं न मिल पाती यदि मेजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जाग्रति पैदा करने में ही न लगा दिये होते। आयरलैंड के पुनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा का प्रभाव भी उसी वेग से किया गया।...यदि टालस्टाय, कार्ल माक्र्स तथा मैक्सिम गोर्की इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षों व्यतीत न कर दिये होते, तो रूस की क्रांति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा। इसी संदर्भ को सिख गुरुओं के मत के प्रचार तथा गुरुमुखी लिपि के विकास से जोड़ते हुए भगतसिंह ने गुरुमुखी तथा आगे हिंदी के संबधों पर मजहब से दूर रहकर विचार करने पर बल दिया। वे लिखते हैं-हरेक अपनी बात के पीछे डंडा लिये खड़ा है। इसी अडं़गे को किस तरह दूर किया जाय यही पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या है। परन्तु आशा केवल इतनी है कि सिखों में इस समय जाग्रति पैदा हो रही है। हिंदुओं में भी है। सभी समझदार लोग मिल-बैठकर निश्चय ही क्यों नहीं कर लेते। यही एक उपाय है इस समस्या के हल करने का।‘‘ इस लेख पर भगतसिंह के विचारों पर आर्यसमाज के किंचित प्रभाव को देखा जा सकता है। यह एक परिपक्व क्रांतिकारी के रूप में भगतसिंह के निर्माण का प्रारम्भिक काल था।

जातीय अस्मिता का सवाल परवर्ती दिनों में भी भगतसिंह की चिंता का एक प्रमुख विषय रहा। पंजाब के एक भूतपूव गवर्नर सर माईकेल ओडायर ने अपनी एक पुस्तक में यह आरोप लगाया था कि पंजाब राजनीतिक हलचलों में सबसे पीछे है। भगतसिंह को यह बात नागवार गुजरी थी। यह सवाल उठाते हुए कि पंजाब क्यों राजनीतिक आंदोलनों में पीछे है, अन्य बातों के अलावा उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि पंजाब की अपनी कोई विशेष भाषा नहीं है। भाषा न होने के कारण साहित्य के क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं हो सकी। अत: शिक्षित समुदाय को पश्चिमी साहित्य पर ही निर्भर रहना पड़ा। इसका खेदजनक परिणाम यह हुआ कि पंजाब का शिक्षित वर्ग अपने प्रांत की राजनीतिक हलचलों से अलग-थलग सा रहता था। इसी सिलसिले में उन्होंने 20 वीं सदी के प्रारम्भ से ही पंजाब में राजनीतिक हलचलों का एक ब्यौरा लिखा जिसका शीर्षक था-‘स्वाधीनता के आंदोलन में पंजाब का पहला उभार‘। यह लेख उन्होंने अपने जेल के दिनों में लिखा था जिसके कुछ अंश 1931 में लाहौर के साप्ताहिक ‘वंदे मातरम‘ में प्रकाशित हुए थे।

इसके बाद हर बीतते दिन के साथ भगतसिंह का दृष्टिकोण किसप्रकार और ज्यादा व्यापक होता चला गया, इसकी झलक उनके बाद के लेखों में मिलती है। कोलकाता से प्रकाशित ‘मतवाला‘ के 15 नवम्बर 1924 और 22 नवम्बर 1924 के अंकों में बलवंतसिंह के छद्म नाम से उनका एक लेख ‘विश्व प्रेम‘ प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने लिखा-‘‘जब तक काला-गोरा, सभ्य-असभ्य, शासक-शासित, धनी-निर्धन, छूत-अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है तब तक कहां विश्व-बंधुता और विश्व-प्रेम? यह उपदेश स्वतंत्र जातियां कर सकती है। भारत जैसी गुलाम जाति इसका नाम नहीं ले सकती।‘‘ इस लेख का अंत वे इसप्रकार करते है-‘‘यदि वास्तव में चाहते हो कि संसारव्यापी सुख-शांति और विश्व-पे्रम का प्रचार करो तो पहले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो। मां के बंधन काटने के लिए कट मरो। बंदी मां को स्वतंत्र करने के लिए आजन्ंम काले पानी में ठेाकरें खाने के लिए तैयार हो जाओ। सिसकती मां को जीवित रखने के लिए मरने को तत्पर हो जाओ। तब हमारा देश स्वतंत्र होगा। हम बलवान होंगे। हम छाती ठोंककर विश्वप्रेम का प्रचार कर सकेगें। संसार को शांतिपथ पर चलने को बाध्य कर सकेगें।‘‘

‘प्रताप‘ के 15 मार्च के अंक में ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय‘ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ। उसी की श्रंखला में मई 1927 में ‘काकोरी के वीरों से परिचय‘ लेख प्रकाशित हुआ जिसे उन्होंने ‘विद्रोही‘ नाम से छपवाया था। इस लेख के प्रकाशन के बाद ही भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया था। ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज‘ के संपादक चमनलाल के अनुसार चारपाई पर हथकड़ी लगे बैठे भगतसिंह का प्रसिद्व चित्र इसी गिरफ्तारी के समय लिया गया था। जनवरी 1928 की किरती में काकोरी के शहीदों के बारे में एक और लेख लिखा जिसमें राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशनसिंह, अशफाकउल्ला, और रामप्रसाद बिस्मिल के बहुत ही भावनापूर्ण चित्र खींचे गये हैं। इसी प्रकार उन्होंने एक लम्बा लेख ‘कूका विद्रोह‘ पर लिखा था जो ‘महारथी‘ पत्रिका के फरवरी 1928 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इनके अतिरिक्त मदनलाल ढींंगरा, सूफी अम्बाप्रसाद, श्री बलवंत सिंह, डा. मथुरासिंह, शहीद करतारसिंह सराभा की तरह के क्रांतिकारियों के बारे में उनके लेख उस समय की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। ‘किरती’ पत्रिका में उन्होंने ‘आजादी की भेंट शहादतें‘ शीर्षक से एक लेखमाला भी लिखी थी। भगतसिंह पर उस वक्त के बंगाल के विद्रोही कवि नजरूल इस्लाम का कितना प्रभाव था यह श्री मदनलाल ढींगरा पर लिखे उनके लेख को देखने से ही पता चलता है। ढींगरा के निर्भीक चरित्र का चित्रण करते हुए उन्होंने नजरूल इस्लाम की प्रसिद्ध कविता ‘विद्रोही‘ को उद्धृत किया -

बोलो वीर-चिर उन्नत मम शीर
शिर नेहारी आमारि नत शिर ओेई शिखर हिमाद्रीर।

(कहो वीर चिर उन्नत मेरा मस्तक, नत है वह हिमालय की चोटी, देखकर मेरा उन्नत मस्तक)

यहां साम्प्रदायिकता के बारे में भगत सिंह के विचारों के कुछ उद्धरण रखना भी जरूरी है। ‘किरती’ के जून 1928 के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ था - ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’। इसमें वे सांप्रदायिकता की आर्थिक जड़ों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं : विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। ...इसी सिद्धांत के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई जो अवर्णनीय है।

धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको मिल कर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़ कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। (भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज, आधार प्रकाशन, पृ. 152-155)

मात्र 24 वर्ष की उम्र में भगतसिंह शहीद हो गये थे। लेकिन इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने क्रांतिकारी भावनाओं के साथ जिस प्रखर क्र्रांतिकारी चिंतन और समाजवाद के आदर्शों को आत्मसात किया था, वह सचमुच अपने आप में एक मिसाल है।

* भगत सिंह की जन्म तिथि को लेकर कई मत देखने को मिलते हैं। चमन लाल ने ‘भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज में उनकी जन्म तिथि 28 सितंबर 1907 बताई है; रमेश विद्रोही ने अपनी ‘भगतसिंह जीवन, व्यक्तित्व, विचार’ पुस्तक में इसे 29 सितंबर 1907 बताया है; ‘भगत सिंह क्रांति संबंधी धारणा’ पुस्तिका में इसे 5 अक्तूबर 1907 कहा गया है; ज्योत्सना कामथ ने इस तिथि को 27 सितंबर 1907 बताया है; वीकीपीडिया के वेबसाइट पर यह तिथि 17 अक्तूबर 1907 है; ईश्वर चन्द्र ने इसे 28 सितंबर 1907 बताया है।