गुरुवार, 18 मई 2023

कर्नाटक ने भारत के राजनीतिक भविष्य की झलक दी है

 

−अरुण माहेश्वरी 



अन्ततः, कर्नाटका के नए मुख्यमंत्री की घोषणा के साथ ही, कह सकते हैं कि कर्नाटका का चुनाव संपन्न हुआ । विजयी कांग्रेस दल के विधायकों की पहली पसंद सिद्दारमैया फिर से एक बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री होंगे और इस शानदार जीत में अपनी मेहनत और निष्ठा के लिए बहुचर्चित नेता डी.के.शिवकुमार उप-मुख्यमंत्री। 

एक वाक्य में कहें तो कर्नाटक की यह जीत भारतीय जनतंत्र के अपने तर्क की जीत है । अगर इसे सुसंगत रूप में जीवित रहना है तो यह अपने शरीर में मोदी और बीजेपी की तरह की विजातीय फ़ासिस्ट शक्ति के साथ अधिक दिन तक कायम नहीं रह सकता है । इसे घुमा कर यूं भी कह सकते हैं कि अगर किसी भी तरह भारत के शासन का यह जनतांत्रिक ढांचा कायम रह जाता है तो इसमें आरएसएस-मोदी की तरह के फासिस्ट ज्यादा समय तक बचे नहीं रह सकते हैं । जनतंत्र के स्वास्थ्य की यह एक बुनियादी शर्त है कि इसे सांप्रदायिक फासिस्टों की जकड़ से मुक्त रहना पड़ेगा । शासन में जनतंत्र और आरएसएस लंबे काल तक साथ-साथ नहीं चल सकते हैं । ये ऐसे परस्पर-विरोधी है जिनका सामंजस्य नहीं चल सकता है । मोदी और आरएसएस जनतंत्र के लिए किसी काल से कम नहीं हैं । कर्नाटक में मोदी की हार ने सन् 2024 के आम चुनाव के परिणामों की एक झलक दे दी है । जनतंत्र बनाम फासीवाद का संघर्ष ही इन चुनावों का सबसे निर्णायक संघर्ष साबित होने वाला है । 2024 में जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की किसी भी प्रकार की गफलत अब सीधे तौर पर हमारे देश की सत्ता को नग्न फासिस्टों के हाथ में सौंपने से कम बड़ी भूल नहीं साबित होगी । मोदी विगत नौ सालों में ही अपने असल खूनी पंजों का परिचय दे चुके हैं । 

जहां तक कर्नाटक के चुनाव का प्रश्न है, इन परिणामों के बाद भी कांग्रेस में विधायक दल के नेता के चयन की जिस जनतांत्रिक प्रक्रिया की दरारों पर मोदी-शाह की गिद्ध दृष्टि थी, जिन दरारों से प्रधानमंत्री मोदी गोदी मीडिया नामक अपनी प्रेत-सेना के कुहराम से अपनी खोई हुई साख को थोड़ा छिपाने की आशा कर रहे थे, उस पूरे शोर ने भी अंततः कांग्रेस की कमी के बजाय उसके अंदर के लचीलेपन की ताकत को ही और जोरदार ढंग से उजागर किया है । उसने यही दिखाया है कि देश की राजनीति में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसमें मोदी सत्ता क्रमशः बिल्कुल लाचार और लचर साबित होने लगी है । उसका ईडी-सीबीआई-आइटी का त्रिशूल भी अब सुप्रीम कोर्ट की झिड़कियों का विषय बन चुका है । सुप्रीम कोर्ट में ईडी को कहा गया है कि जांच करो, पर डर पैदा मत करो । ऊपर से, जिस प्रकार किरण रिजिजू और राज्य मंत्री बघेल को हटा कर कानून मंत्रालय की सफाई की गई है, उसे भी कर्नाटक चुनावों का ही परिणाम कहा जा रहा है । मोदी के निर्देशों पर ही पिछले दिन यह मंत्रालय भारत की न्यायपालिका के लिए आंख का कांटा बन चुका था, उसने अब तक मोदी सरकार की ही हालत पतली कर दी है । सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के गैर-कानूनी क्रियाकलापों पर उंगली रखने से किसी भी मामले में चूक नहीं रहा है ।     

कर्नाटक चुनाव में मोदी का कितना कुछ दाव पर लगा हुआ था, उसे इस चुनाव के दौरान मोदी की तमाम हरकतों से भी जाना जा सकता है । गौर से देखने पर पता चलता है कि इस चुनाव में अंत तक आते-आते मोदी की दशा किसी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह की हो गई थी । विक्षिप्त आदमी ही किसी भी हालत में अपनी शक्ति में जरा भी कमी को नहीं देख सकता है । उसे हमेशा यह सवाल परेशान किया करता है कि आखिर क्यों, किसी दूसरी चीज के लिए, जो उसकी है ही नहीं, उससे बलिदान की मांग की जा रही है ? भारत का जनतंत्र और संविधान होगा किसी के लिए कितना भी मूल्यवान, पर उसके लिए मोदी क्यों कोई कीमत अदा करेंगे ? विक्षिप्त व्यक्ति कुछ इस प्रकार की फैंटेसी में जीता हैं कि यदि कोई उसके रास्ते में फिजूल के रोड़े न अटकाए तो उसके पास तो ईश्वरीय परमतत्त्व को पा लेने जैसी शक्ति है । मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने सपने के साथ अगले पचास साल तक भारत पर आरएसएस के राज की फैंटेसी से अपने को जोड़ लिया था । वे हिमाचल के धक्के को तो किसी तरह से झेल गए, लेकिन कर्नाटका का धक्का एकदम नाकाबिले-बर्दाश्त था । अपनी इसी धुन में उन्होंने कर्नाटका के चुनाव में खुले आम कानून और संविधान की धज्जियां उड़ाने और ‘जय बजरंगबली’ की तरह की धार्मिक हुंकारें भरने तक से परहेज नहीं किया । 

मोदी जान गए थे कि कर्नाटका में हार का अर्थ होगा उनके तमाम विश्वासों और मंसूबो का हार जाना । यही उनके सोच की फासिस्ट विकृति है जिसमें वे खुद के अलावा अन्य किसी की उपस्थिति को देख ही नहीं पाते हैं । बेबात, खुद पर ही मुग्ध रहते हैं । हमेशा दिखाते तो ऐसा हैं कि वे बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में कोरे प्रदर्शनों के सिवाय कुछ भी नया नहीं कर रहे होते हैं । इसीलिए मोदी को आप जब भी उनकी खुद के बारे में की गई फैंटेसी से काट कर देखेंगे, आपको उनका असल तात्विक रूप साफ रूप  दिखाई दे जाएगा । यह पता चलने में कोई बाधा नहीं रह जायेगी कि आखिर उनकी प्रेरणाएं क्या हैं ? कैसे वे अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में हिटलर और उसकी नाजी विचारधारा से प्रेरित रहते हैं । इससे कोई भी उनके सभी कामों को परखने का एक सही नजरिया हासिल कर सकता है ।

मनोविश्लेषण की दुनिया में मनोरोगी के सच को परखने का यही सबसे कारगर तरीका है कि उसकी प्राणीसत्ता को उसकी अपनी फैंटेसियों से काट कर देखा जाए । कर्नाटक में मोदी ने उसका खुला प्रदर्शन कर दिया था । 

इस चुनाव ने बीजेपी की क्या दशा की है उसे इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि चुनाव परिणाम के ठीक बाद ही शोक में डूबी बीजेपी ने एक बड़बोले बागेश्वर बाबा की गोद में मुँह छिपा लिया है । 

बहरहाल, हिमाचल के बाद कर्नाटक में भी सत्ता से बीजेपी को हटाने की घटना का आवर्तन अब भारत के जनतंत्र के सामान्य व्यवहार का संकेत दे रहा है । यह बात हर प्रमाता पर, व्यक्ति और व्यक्तियों के समूहों पर समान रूप से लागू होती है । प्रमाता के जो लक्षण उसकी मूल पहचान को दिखाते हैं, उनमें उसके वर्तमान व्यवहार के साथ ही उसकी भविष्य की गति का भी मिश्रण होता है । वह गति कब और किस रूप में अपने को जाहिर करेगी, यह समय और पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है । कर्नाटक के चुनाव से यही जाहिर हुआ है कि भारत की मौजूदा परिस्थितियां अब जनतंत्र की अपनी गति को व्यक्त करने के अनुकूल होती जा रही है । इसीलिए इन चुनावों का भारत के राजनीतिक भविष्य के लिए असीम महत्व माना जाना चाहिए । 


गुरुवार, 11 मई 2023

मोदी महज एक झुनझुना रह गये हैं


−अरुण माहेश्वरी 



कर्नाटक में एग्जिट पोल के परिणामों से साफ है कि मोदी बहुत तेजी से आर्थिक गतिरोध में फंसी कंपनियों पर लागू होने वाले ‘लॉ आफ डिमिनिसिंग रिटर्न’ के चक्र में फंस कर अब पूरी तरह से दिवालिया हो जाने की दिशा में बढ़ चुके हैं । 

हर राजनीतिक विश्लेषक यह जानता है कि मोदी और आरएसएस के पास राजनीति के नाम पर धर्म और सांप्रदायिकता के अलावा देने के लिए और कुछ नहीं है । उनके प्रति लोगों के आकर्षण का यदि कोई कारण है तो वह शुद्ध सांप्रदायिकता का उन्माद है, और उन्माद तो उन्माद ही होता है, जिससे निकलने में आदमी को काफी कीमत अदा करनी पड़ती है । 

दुनिया के सभी सभ्य समाज आज यह जानते हैं कि धर्म सार्वजनिक जीवन के लिए एक नितांत अनुपयोगी, बल्कि विध्वंसक चीज है । भारत के लोगों को भी धर्म के विध्वंसक रूपों का प्रत्यक्ष अनुभव रहा है । पर, धर्म-आधारित शासन भी उतना ही अनुपयोगी, और विध्वंसक है, भारत के लोगों को मोदी के पहले तक उसका अनुभव लेना बाकी था । पड़ोसी पाकिस्तान में समय-समय पर धार्मिक उन्माद की पुनरावृत्ति यहां भी लोगों में धर्म की राजनीति के प्रति वितृष्णा के साथ ही एक आकर्षण भी पैदा करती रही है । इसीलिए भारत के लोगों के एक तबके में आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के अलावा ‘सांप्रदायिक शासन’ के उन्माद के अतिरिक्त मजे का आकर्षण बना रहा है । 

कहना न होगा, 2002 के गुजरात जनसंहार के उत्पाद नरेन्द्र मोदी आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के उन्माद के इसी ‘अतिरिक्त मजे’ के आकर्षण का एक मूर्त रूप हैं । उन्होंने 2014 के पहले के भारत को बिल्कुल ऊसर और अनाकर्षक बताने के लिए थोथे ‘गुजरात मॉडल’ की माया का खूब प्रचार किया, जिसने उन्हें सांप्रदायिक उन्माद के केंद्र में ला दिया । जन-जीवन में सुधार और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण में शासन की भूमिका के लिहाज से मोदी की वास्तव में अपनी कभी कोई उपयोगिता प्रदर्शित नहीं की, फिर भी वे एक ऐसी राजनीतिक शख्सियत के रूप में गिने जाने लगे, मानो वे त्रिभुवन के राजा हैं । अर्थात् कहीं भी नहीं हैं, पर वे ही सर्वत्र हैं । 

बहरहाल, बच्चों को फुसलाने के लिए हवा से फुलाए गए ऐसे गुब्बारे का धीरे-धीरे फुस्स होना हमेशा लाजिमी होता है । कर्नाटक के एग्जिट पोल ने उनके इस पिचके हुए, अनुपयोगी और अनाकर्षक रूप को जैसे एक झटके में सामने ला दिया है । अब हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि मोदी तेजी के साथ भाजपा के लिए राजनीतिक लिहाज से अवांछनीय साबित होने के लिए अभिशप्त हैं । 2024 में भारत के लोग उन्हें एक फट चुके अनुपयोगी गुब्बारे की तरह फेंक कर उनसे मुक्ति पायेगी, इसमें कोई शक नहीं दिखाई देता है । 

कर्नाटक के चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने जितने करतब दिखाएं, उनका कोई हिसाब नहीं है । गाड़ी से लटक कर फूलों की बारिश के बीच रोड शो के नाम पर पूरे शहर को बंद करके घूमना तो उनका इधर का खास शगल हो गया है । इसके लिए वे सिर्फ फूलों पर लाखों रुपये फुंकवा देते हैं । कर्नाटक में भी उन्होंने अपने इस प्रदर्शन को दोहराया ।  कभी-कभी गाड़ी से उतर कर सब को किनारे कर चौड़ी सड़क पर अकेले किसी दीवाने की तरह मचलते हुए भी दिखाई दिए ।  इस बार, इन सबसे अधिक दिलचस्प था सभाओं में उनका ‘जय बजरंगबली’ का नारा । ‘जय बजरंगबली, तोड़ दुश्मन की नली’ के आक्रामक उन्माद का वे खुले आम प्रदर्शन कर रहे थे। 

कहने का अर्थ यह है कि मोदी कर्नाटक में किसी उन्मादी व्यक्ति की बाकी सभी हरकते कर रहे थे, लेकिन जो एक मात्र चीज नहीं कर पा रहे थे वह यह कि वे राजनीति नहीं कर रहे थे । राजनीति और अर्थनीति के विषय, जिन पर किसी राजनेता से सबसे अधिक अपेक्षाएं की जाती हैं, मोदी के भाषणों से एक सिरे से ग़ायब थे । संवाददाता सम्मेलन तो वे करते ही नहीं है । इस चुनाव प्रचार में मोदी ने न राष्ट्रीय राजनीति पर एक शब्द कहा और न अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर । खुद कांग्रेस और विपक्ष को खरी-खोटी सुनाते रहे, पर कांग्रेस पर उन्हें गालियां देने का रोना रोते रहे । यहां तक कि उन्होंने अपने उस महान करिश्मे का भी जिक्र नहीं किया कि कैसे उन्होंने रूस के राष्ट्रपति पुतिन को फोन करके यूक्रेन पर रूस के हमले को कुछ घंटों के लिए रुकवा दिया और वहां से भारत के फँसे हुए छात्रों को निकाल लाए । न उन्होंने कभी पाँच ट्रिलियन डालर की इकानामी का उल्लेख किया, तो न कोरोना की महामारी से निपटने में अपनी महान सफलता की कोई शेखी बघारी । अर्थात्, मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में राजनेता से अपेक्षित बातों के अलावा, उनके लिए जो कुछ संभव था वही सब किया । 

मोदी का कर्नाटक का चुनाव प्रचार ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि उनकी राजनीतिक हवा पूरी तरह से निकल चुकी है । कांग्रेस के सवालों की बौछार के सामने वे हर कदम पर बेहद लचर और लाचार दिखाई दिये ।

यह जाहिर है कि शुरू से ही मोदी ने कभी भारत के विकास और जनता की समस्याओं के समाधान के रास्ते का कभी कोई संकेत नहीं दिया था। बाद में, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर ईडी, आईटी, सीबीआई आदि को उनके वास्तविक कामों से भटका कर विपक्ष के खिलाफ लगा दिया और सभी लुटेरों को या तो लूट का माल ले कर देश से भागने में मदद की या अडानियों की तरह देश में जमकर लूट-मार करने का मौका देकर उनसे भाजपा की तिजोरी को पूरी बेशर्मी से भरा । 

इन सबके बावजूद, आम लोगों के बीच यदि मोदी का आकर्षण इन कुछ सालों तक बना रहा है तो इसकी एकमात्र वजह यही है कि मोदी का खुद में कोई उपयोग मूल्य नहीं होने पर भी उनका सांप्रदायिक उन्माद और सांप्रदायिक शासन का अतिरिक्त आकर्षण मूल्य बना हुआ था । इसे मनोविश्लेषण की भाषा में अतिरिक्त विलास मूल्य (surplus enjoyment) कहते हैं । जैसे मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार किसी भी माल में उसके उपयोग मूल्य के अलावा मुनाफे का अतिरिक्त मूल्य होता है, जिसका उपयोग मूल्य से कोई संबंध नहीं होता है । वैसे ही हर वस्तु के प्रति आकर्षण में एक अतिरिक्त विलास मूल्य शामिल होता है । आदमी का हर प्रकार का उन्माद इसी अतिरिक्त विलास की श्रेणी में पड़ता है और इसके चक्कर में ही आदमी अक्सर बहुत कुछ ऐसा कर देता है, जिसके लिए बाद में उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है, वह पछताता है । मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण भी उसी अतिरिक्त विलास के उन्माद की श्रेणी में आता है । 

जहां तक मोदी की राजनीतिक उपादेयता में तेजी से हो रहे ह्रास का संबंध है, इसकी गूंज अब सिर्फ हमारी राष्ट्रीय राजनीति में ही नहीं, अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी पुरजोर सुनाई पड़ने लगी है । भारत की अपने पड़ौसियों के बीच जो साख है, उसे तो सब जानते हैं । मोदी की चर्चा श्रीलंका और बांग्लादेश में अडानी के एजेंट के रूप में की जाती है । यूक्रेन युद्ध के बाद भारत ने रूस पर लगे प्रतिबंधों का लाभ उठा कर उससे रुपयों में तेल की खरीद का जो सिलसिला शुरू किया था, रूस ने अचानक उस पर रोक लगा दी है । रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लेवरोव ने भारत में ही रहते हुए साफ शब्दों में यह पूछा है कि उनके पास जो लाखो करोड़ रुपये फालतू जमा हो गए हैं, वे उनका क्या करें ? 

हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पहली बार मोदी को राजकीय भोज के लिए अमेरिका निमंत्रित किया है । इसके पहले मनमोहन सिंह को ऐसे भोज के लिए दो बार और नेहरू जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी तथा अटलबिहारी वाजपेयी को भी निमंत्रित किया जा चुका था । लेकिन मोदी को सत्ता में आए नौ साल बीत जाने के बाद बड़ी हिचक के साथ उन्हे निमंत्रित किया गया हैं । पर विडंबना देखिए कि मोदी को दिये गए इस निमंत्रण पर अमेरिका में तत्काल अनेक सवाल उठने लगे हैं । कल ही जब अमेरिकी सचिव ने संवाददाताओं के सामने इस बात की घोषणा की तो संवाददाताओं की ओर से साफ पूछा गया कि एक ऐसे व्यक्ति को राजकीय भोज के लिए बुलाना क्या बुरा नहीं लगेगा जो मानव अधिकारों के मामले में बेहद बदनाम है ! 

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि मोदी का महत्व क्रमशः अब जनता के उस मंदबुद्धि अंश के लिए एक झुनझने से अधिक नहीं बच रहा है जो आरएसएस के सांप्रदायिक जहर के दंश के बुरी तरह से शिकार है । जो आज भी मोदी-मोदी चिल्लाते हैं, वे शुद्ध उन्माद की दशा में हैं । वे जरा भी नहीं जानते कि वे क्यों चिल्ला रहे हैं ! मोदी उनके लिए सिर्फ एक नशा, एक अतिरिक्त मौज की चीज़ की तरह है । ‘एक के साथ एक अतिरिक्त’ के बिक्री के नुस्खे में जैसे अतिरिक्त के प्रति आकर्षण मूल से ज्यादा होता है, मोदी का आकर्षक कुछ वैसा ही है । इसे ही कुछ लोग ‘मोदी मैजिक’ कहते रहे हैं । सांसदों, विधायकों को चुनने के साथ ही एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी भी मिलेगा ! अर्थात्, मोदी के प्रति आकर्षण मुफ़्त की चीज़ के प्रति आकर्षण की तरह का रह गया है । स्वयं में मोदी का एक झुनझुने से ज्यादा कोई उपयोगिता मूल्य नहीं बचा है । लोग जब यह समझ जायेंगे कि यह झुनझुना भी ऐसे प्लास्टिक का बना हुआ है, जो बच्चों के लिए नुकसानदेह हो सकता है, तो उसे हाथ से फेंक देने में जरा भी समय नहीं लगायेंगे । कर्नाटक चुनाव के संकेतों में मोदी के इस अंत को बहुत साफ तौर पर देखा जा सकता है ।