रविवार, 29 दिसंबर 2019

राजनीति पर एक अराजनीतिक गप


—अरुण माहेश्वरी


राजनीति के विषयों पर ड्राइंग रूम की थोथी गप किसे कहते है इसका एक क्लासिक उदाहरण देखा कल रात लल्लन टॉप पर राजदीप सरदेसाई और सौरभ द्विवेदी की लगभग दो घंटे की लंबी बातचीत में । यह वार्ता शायद कुछ दिन पहले हुई थी, लेकिन हमने उसे कल ही सुना । वे चर्चा कर रहे थे राजदीप की सद्य प्रकाशित किताब ‘2019 : मोदी ने कैसे भारत को जीता’ (2019 : How Modi Won India) के एक-एक अध्याय पर लल्लन टाप के किताबवाला कार्यक्रम में ।


जनतंत्र में राजनीति आम जनता और पार्टियों/नेताओं के बीच के संबंध का विषय होती है । कुछ खास राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में जनता अपना नेता चुनती है और अन्य को पराजित  करती है । खास परिस्थितियों के संदर्भ में ही जनता और नेता/पार्टी का परस्पर संबंध चुनावों का निर्णायक तत्व होता है । इसमें कोई नेता सिकंदर नहीं होता कि ‘आया, देखा और जीत लिया’ । इसीलिये जनतांत्रिक राजनीति की कोई भी चर्चा जब सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के पूरे संदर्भ को नजरंदाज करके की जाती है, तो वह कोरी हवाई होती है । ऐसी सार्वजनिक चर्चा अन्तत: एक प्रकार की ठकुरसुहाती में पर्यवसित होने के लिये अभिशप्त होती है क्योंकि इसमें जो घटित होता है, उसे ही परिस्थितियों के निश्चित परिणाम के तौर पर इस प्रकार पेश किया जाता है जिसमें विजयी सर्वगुणसंपन्न दिखाया जाता है और पराजित को एक अधम मूर्ख के सिवाय कुछ नहीं कहा जाता है ।


पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की लगातार 34 साल सरकार रही । इसमें 25 साल से ज़्यादा काल तक ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे । 2011 में जब वाम मोर्चा की पराजय हुई उसके ठीक पहले 2006 में उसे सबसे बड़ी विजय हासिल हुई थी । लेकिन हमने बंगाल में किसी पत्रकार की ऐसी कोई किताब नहीं देखी जिसमें ज्योति बसु की लगातार जीतों के लिये किसी ने उनके निजी करिश्मों या तिकड़मबाजियों की कहानियाँ सुनाई हो । और बुद्धदेव भट्टाचार्य की पराजय में भी किसी ने उनकी निजी पराजय देखी हो ।

भारत में अनेक सालों तक कांग्रेस दल की सरकार रही, जिसमें गांधी परिवार की हमेशा एक अहमियत रही, लेकिन किसी भी गंभीर पत्रकार ने इस परिवार के सदस्यों के निजी जीवन, उनके आचार-आचरण आदि को कांग्रेस की जीतों का मूल कारण बताने की कोशिश नहीं की है ।


यह सच है कि इतिहास का हर रूप घटित का ब्यौरा ही होता है । हेगेल की प्रसिद्ध उक्ति है कि स्वर्ग का उल्लू तभी उड़ान भरता है जब शाम ढल जाती है । लेकिन हर विषय में इस उड़ान की भी अपनी कुछ आंतरिक ज़रूरतें होती है । आप घटित के विवरण-विश्लेषण से जानना तो चाहते हैं मनुष्य के जैविक विकास को लेकिन चर्चा करने लगते हैं ब्रह्मांड के निर्माण की, वह नहीं चल सकता है । अर्थात् जिन चीजों का विषय से वास्तव में कोई संबंध नहीं होता, उन्हीं को लेकर गप्पबाजी में समय ज़ाया किया जाता है ।

 

फिर कहेंगे, यह राजनीतिक पत्रकारिता का सबसे न्यूनतम स्तर होता है जब पत्रकारिता विजयी नेताओं का ढोल बजाने और पराजित नेता को नाना प्रकार से दुत्कारने का अनैतिक रास्ता अपनाया जाता है । पत्रकारों का निजी मूल्यबोध ऐसी चर्चा से पूरी तरह से गायब होता है । यही वजह है कि इस चर्चा में राजदीप अपने पत्रकार जीवन की जिन बड़ी भूलों को स्वीकारते हैं वे सभी आज पराजित पार्टी कांग्रेस से जुड़ी हुई थीं । इसमें कांग्रेस के काल में मिली पद्मश्री की उपाधि को स्वीकारना भी शामिल है । इसे ही राजनीति पर एक अराजनीतिक और अवसरवादी चर्चा कहते हैं ।



यह चर्चा राजदीप की पुस्तक को केंद्रित थी । इससे उस पुस्तक के बारे में हमें यह समझने में ज़रूर मदद मिली कि उनकी यह किताब भारतीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण क्षण का कोई गंभीर विश्लेषण नहीं, बल्कि उसके पात्रों को लेकर की गई हल्के क़िस्म की गप्पबाजी भर है ।

—अरुण माहेश्वरी

नागरिकता का संघी प्रकल्प हिटलर की किताब से ही चुराया गया एक पन्ना है

- अरुण माहेश्वरी





सब जानते हैं, एनपीआर एनआरसी का मूल आधार है । खुद सरकार ने इसकी कई बार घोषणा की है । एनपीआर में तैयार की गई नागरिकों की सूची की ही आगे घर-घर जाकर जाँच करके अधिकारी संदेहास्पद नागरिकों की सिनाख्त करेंगे और सभी को इस सिनाख्त के आधार पर पहचान पत्र दिये जाएँगे ।

यह पूरा प्रकल्प हुबहू हिटलर के उस प्रकल्प की ही नक़ल है जब 1939-45 के बीच हिटलर ने यहूदियों की पहचान करके उन्हें Jewish Badge जारी किये थे । यहूदियों के लिये हमेशा उन पीले रंग के बैज को पहन कर निकलना जर्मनी में बाध्य कर दिया गया था । जैसे यहाँ पर एनआरसी के बाद तथाकथित संदेहास्पद नागरिकों को साथ में अपना विशेष पहचान पत्र रखने के लिये बाध्य किया जायेगा । इससे हिटलर ने जब यहूदियों के जनसंहार की होलोकास्ट योजना पर अमल शुरू किया तो पीले बैज वालों को कहीं से भी पकड़ कर तैयार रखे गये यातना शिविरों में भेज देने में उसे जरा भी समय नहीं लगा ।


भारत में भी बिल्कुल उसी तर्ज़ पर डिटेंशन कैंप्स के निर्माण का काम शुरू हो गया है । इनकी योजना के अनुसार संदेहास्पद नागरिकों में भी आगे फ़ौरन मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम को अलग-अलग छांटा जाएगा । इनमें ग़ैर-मुस्लिम को तो नागरिकता संशोधन क़ानून के तहत नागरिकता दे दी जाएगी और मुस्लिमों को डिटेंशन कैंप में भेज कर आगे उनके साथ जो संभव होगा, वैसा सलूक किया जाएगा ।


इस प्रकार, भारत में हिटलर के परम भक्त मोदी-शाह-आरएसएस ने हिटलर के कामों की हूबहू नक़ल करते हए ही अभी एनपीआर और इसके साथ सीएए और एनआरसी का पूरा जन-संहारकारी प्रकल्प तैयार किया है ।



गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

अरविंद सुब्रह्मण्यन की महा सुस्ती की थिसिस और उनके सोच की एक सीमा

-अरुण माहेश्वरी


भारत के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन के साथ एनडीटीवी के प्रणय राय की भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति पर यह लंबी बातचीत कई मायनों में काफ़ी महत्वपूर्ण है । अरविंद ने हाल में इसी विषय पर तमाम उपलब्ध तथ्यों के आधार पर एक शोध पत्र तैयार किया है, भारत की महा सुस्ती : इसके कारण ? निदान ? (India's Great Slowdown: What happened? What's the way out ) इस बातचीत में उसी के सभी प्रमुख बिंदुओं की व्याख्या की गई है ।

अरविंद भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति को सिर्फ़ एक प्रकार की सुस्ती नहीं, बल्कि महा सुस्ती (Great slowdown) कहते हैं । इसे वे जीडीपी, आयात और निर्यात, बिजली और औद्योगिक उत्पादन में, सरकार के राजस्व में तेज गिरावट के सारे सरकारी आँकड़ों के आधार पर ही वे इसे एक साथ चार प्रमुख बैलेंसशीट्स में घाटे की परिस्थिति का परिणाम बताते हैं ।

बैंक और एनबीएफसी, जो कॉर्पोरेट्स को उधार दिया करते हैं, वे घाटे में चल रहे है । उधार लेने वाले कारपोरेट घाटे में चल रहे हैं ; वे जितना मुनाफ़ा करते हैं, उससे ज़्यादा अपने क़र्ज़ पर ब्याज भर रहे हैं । सरकार के राजस्व में कमी आती जा रही है ; कारपोरेट और निजी आयकर के रूप में प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष जीएसटी तक की राशि में लगातार गिरावट हो रही है । इससे सरकार की बैलेंसशीट, उसका बजट गड़बड़ाने लगा है । और, अंतिम, कर्ज देने की बैंक और एनबीएफसी की क्षमता में कमी से आम आदमी की आय प्रभावित हो रही है ; उसका बजट गड़बड़ाने से सामान्यतः: उपभोक्ता का विश्वास पूरी तरह से डोलने लगा है ।

अर्थात् बैंक, कारपोरेट, सरकार और उपभोक्ता - इन चारों की बैलेंसशीट में घाटे की स्थिति के कारण भारतीय अर्थ-व्यवस्था महा सुस्ती में धंसती जा रही है ।

इस स्थिति में भी विदेशी मुद्रा कोष आदि में कोई कमी न आने के कारण यह अर्थ-व्यवस्था जहां अब तक चरमरा कर पूरी तरह से ढह नहीं रही है, वहीं यह कोष अर्थ-व्यवस्था के दूसरे सभी घटकों की बुरी दशा के कारण आर्थिक विकास में सहायक बनने के बजाय सरकार के घाटे को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है । यह विदेश व्यापार की कमाई से आया हुआ धन नहीं है । फलत: सरकार भी कारपोरेट की तरह ही ज़्यादा से ज़्यादा ब्याज चुका रही है ।

अरविंद सुब्रह्मण्यन का कहना है कि इस संकट से हम एक तात्कालिक और दीर्घकालीन रणनीति के ज़रिये निकल सकते हैं, बशर्ते सबसे पहले हमारे सामने सच की एक मुकम्मल तस्वीर आ जाए । मसलन्, उनका कहना है कि अभी भारत में सभी विषयों के आँकड़ों में फर्जीवाड़े के कारण किसी भी तथ्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है । जो जीडीपी सरकारी आँकड़ों के अनुसार 4.5 प्रतिशत है, वह वास्तव में तीन प्रतिशत से भी कम हो सकती है । यही स्थिति बाक़ी क्षेत्रों की भी है । न कोई बैंकों के एनपीए के आँकड़ों पर पूरा विश्वास कर सकता है और न सरकारी राजस्व घाटे के हिसाब पर ।

इसलिये अर्थ-व्यवस्था के उपचार के लिये सुचिंतित ढंग से आगे बढ़ने के लिये सबसे पहला और ज़रूरी काम यह है कि सरकार सभी स्तर के आँकड़ों को दुरुस्त करे और उनसे कभी छेड़-छाड़ न करे । अभी जितना घालमेल कर दिया गया है, उसे सुधारना सरकार के लिये भी एक टेढ़ी खीर साबित होगा, लेकिन इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है ।

इसके अलावा सरकार अपने उन ख़र्चों पर लगाम लगाये जो उसके बजट में घोषित नहीं होते हैं, राजनेताओं की मनमर्ज़ी की उपज होते हैं ।

अरविंद ने कृषि क्षेत्र में किसानों को राहत देने और कृषि उत्पादन में वृद्धि के भी उन सभी उपायों को दोहराया है जिनकी तमाम विशेषज्ञ लगातार चर्चा करते रहे हैं । इसमें किसानों को सीधे नगद मदद देने और जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों का प्रयोग करने आदि की भी चर्चा की गई है ।

अरविंद का कहना है कि अगर अभी भी सरकार ईमानदारी से काम शुरू करें तो वह फिर से गाड़ी को पटरी पर ला सकती है, बशर्ते कुछ तात्कालिक लाभ-नुक़सान को देख कर वह अपने सुधार के रास्ते से भटके नहीं । इसके लिये उन्होंने बैंकिंग के क्षेत्र में भी कई सुधार की सिफ़ारिश की है । इसमें निजी नये बैंकों का गठन भी शामिल है ।

हाल में आरबीआई के पूर्व अध्यक्ष रघुराम राजन ने कहा था कि अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान दुर्गति के लिये नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली निजी तौर पर ज़िम्मेदार है । अरविंद सुब्रह्मण्यन ने भी सीधे नहीं, बल्कि घुमा कर इसी बात को कहा है । राजनीतिक लाभ के लिये सांख्यिकी के क्षेत्र में मोदी के द्वारा पैदा की गई अराजकता के अलावा उन्होंने यह भी बताया है कि नोटबंदी के बाद बैंकों के द्वारा रीयल स्टेट कंपनियों को उनके वित्तीय संकट से राहत देने के लिये भारी मात्रा में क़र्ज़ देने से उनके एनपीए में नाटकीय वृद्धि हुई है । अर्थात् नोटबंदी से बैंकों के पास इकट्ठा राशि को रीयल स्टेट की ओर ठेलने में भी मोदी व्यक्तिगत रूप में ज़िम्मेदार रहे हैं । लेकिन इस मामले में उनके नज़रिये में राजन की तरह की स्पष्टता नहीं है ।

बहरहाल, जिस सरकार का अस्तित्व ही तथ्यों के विकृतिकरण, झूठ और निरंकुशता पर टिका हुआ हो, उसके रहते हुए यह उम्मीद करना कि आँकड़ों को दुरुस्त कर लिया जायेगा, बजट के बाहर के खर्च नियंत्रित हो जायेंगे, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा और वित्तीय संस्थाओं को स्वतंत्रता मिल जायेगी - यह अरविंद सुब्रह्मण्यन की बातों का सबसे बड़ा धोखा है ।

इसीलिये वर्तमान आर्थिक संकट के मूल में काम कर रही राजनीति की ओर संकेत करने में वे पूरी तरह असमर्थ रहे हैं । किसी भी नौकरशाह की राजनीति की ओर आँख मूँद कर चलने की मूल प्रवृत्ति ही उनके पूरे विश्लेषण के फ़ोकस को नष्ट कर देती है । यही वजह है कि वर्तमान महा सुस्ती के लक्षणों पकड़ने के बावजूद वे इसके मूल में काम कर रहे उस सत्य को पकड़ने में विफल होते हैं जो अर्थनीति के दायरे के बाहर स्थित है । वह रोग आज के शासक दल की राजनीति से पैदा हो रहा हैं । महा सुस्ती में वास्तव में राजनीति का यही सच प्रगट हो रहा है । इसकी गूंज ही महा सुस्ती से व्यक्त होती है । वे यह भी नहीं देख पाए हैं कि विदेशी मुद्रा कोष आदि के जिन व्यापक आर्थिक पक्षों के मज़बूत पहलू की वे चर्चा कर रहे हैं, वह भी इसी राजनीति के कारण किस नाटकीय क्षण में बालू की दीवार साबित होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है । भारत में क्रमश: एक प्रकार की गृह युद्ध की विकसित हो रही परिस्थिति में दुनिया का कोई भी देश और व्यक्ति भारत में अपने निवेश को कब पूरी तरह से असुरक्षित मानने लगेगा, कहना कठिन है ।

बहरहाल, यह भविष्य की एक बात है, जिस पर निश्चयात्मक कुछ भी कहना सही नहीं है । यह अभी की दिशा के बारे में भविष्यवाणी हो सकती है, लेकिन स्वयं इस दिशा को तय करने वाली अन्य बातों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है । 

हम यहाँ, इस पूरी बातचीत के लिंक को साझा कर रहे हैं :

https://youtu.be/mFE4rTq5HWA

रविवार, 22 दिसंबर 2019

मोदी संविधान के प्रति अपनी वफादारी का परिचय दें, न कि भारत के लोग

—अरुण माहेश्वरी



आज दिल्ली में मोदी जी की चुनावी रैली, पूरे देश में आग लगा कर एक आडंबरपूर्ण चुनावी रैली जलते हुए रोम में बंशी बजाने का ही एक बुरा उदाहरण था ।

इस रैली में मोदी क्या बोल रहे हैं, इस बात के पहले ही यह जान लेना जरूरी है कि वे कहां से बोल रहे हैं, उनकी प्रकट बदहवासी और अहंकार का स्रोत क्या था ? वे भारत के प्रधानमंत्री हैं और उनका प्रधानमंत्री होना ही उनके दिमाग में आरएसएस के प्रचारक के काल में भरे हुए जहर को उनके लिये सर्वकालिक परम सत्य बना देने के लिये काफी है । इसीलिये वे राष्ट्र-व्यापी इतने भारी आलोड़न से चिंतित होने के बावजूद उस जहर को ही उगलते रहने के जुनून में फंसे रहने के लिये अभिशप्त है ।

व्यापक जन-आक्रोश के दबाव में वे आदतन यह झूठ बोल गये कि एनआरसी के बारे में उनकी सरकार ने आज तक सोचा तक नहीं है । उनके प्रिय गृहमंत्री के बयानों को भारत के लोग लगातार सुनते रहे हैं । लेकिन नागरिकता कानून के संदर्भ में जब वे पड़ौस के तीन देशों के सताए हुए लोगों पर करुणा बरसा रहे थे तभी भारत के आंदोलनकारियों पर सांप्रदायिक जहर से बुझे वाणों से उन्होंने जिस प्रकार हमले किये उसने उनके अंतर की उस सचाई को जाहिर कर दिया जिसे बार-बार दोहराते रहना उनकी सांप्रदायिक प्रमादग्रस्त प्रकृति की मजबूरी है । एक प्रधानमंत्री और एक प्रचारक के रूप में प्रधानमंत्री के इसी विखंडित व्यक्तित्व की दरारों से उन्हें संचालित करने वाले उनके अचेतन के तत्त्व उझक कर सामने आ गये थे । यही तो उनका स्थायी भाव है ।

वे भारत के संविधान की शपथ खा कर हाथ में तिरंगा उठाए नागरिकता कानून के विरोधियों को पाकिस्तान की कारस्तानियों का विरोध करके अपनी सचाई को प्रमाणित करने की चुनौती दे रहे थे । बात-बात में पाकिस्तान का हौवा खड़ा करके भारत में इस्लाम-विरोधी भावनाओं को भड़काने के आरएसएस के पूरे इतिहास को देखते हुए क्या मोदी जी से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे खुद तीन पड़ौसी मुल्कों में सताये हुए लोगों के प्रति दया भाव दिखाते हुए क्या भारत में इस्लाम-विरोधी जहर फैलाने का अपना पुराना खेल नहीं खेल रहे हैं ?

वे नागरिकता कानून को लागू न करने की घोषणा करने वाले राज्यों से कानून के विशेषज्ञों की सलाह लेने की बात कर रहे थे । उनसे पूछा जाना चाहिए कि इस संविधान-विरोधी कानून को लाने के पहले क्या उनकी सरकार ने किसी संविधान-विशेषज्ञ, बल्कि अपने ही कानून मंत्रालय तक की सलाह ली थी ? राज्य सभा में पी चिदंबरम सरकार से लगातार यह सवाल कर रहे थे कि क्या सरकार ने इस कानून की संविधान-सम्मतता के बारे में किसी से कोई विचार-विमर्श किया तो सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था ।

जनता को बरगलाने के लिये भले आप केंद्र सरकार के कानून की अपार शक्ति का दिखावा कर सकते हैं, लेकिन सचाई यह है कि भारत एक संघीय राज्य है । इस कानून को अनेक राज्यों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिस पर अभी फैसला आया नहीं है । इसीलिये इस कानून को इसके इसी रूप में लागू करवाने की बात अपने समर्थकों के हौसलों को बनाये रखने के लिये दी गई मोदी जी की गीदड़ भभकी के अलावा कुछ नहीं है ।

आज जरूरत आंदोलनकारियों को अपनी देशभक्ति का प्रमाण देने की नहीं है, मोदी जी को खुद भारत के संविधान के प्रति, उसकी धर्म-निरपेक्ष भावनाओं के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण देने की जरूरत है । मोदी जी का सुरसा की तरह खिंचता चला गया बदहवासी से भरा यह भाषण असल में उन्हें ही कठघरे में खड़ा करता है ।     

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

अब इनके रोग की अंतिम तौर पर पहचान संभव होगी

(मोदी-शाह-संघ तिकड़ी के वर्तमान पर एक मनोविश्लेषणमूलक दृष्टिपात)
—अरुण माहेश्वरी



मोदी जी ने फिर एक बार कहना शुरू किया है — ‘मुझ पर यकीन करो’ । नोटबंदी के बाद गोवा में उनका रोना शायद ही कोई भूला होगा । यही रट थी — मुझ पर यकीन करो । पचास दिन की मोहलत दो, अगर मैं इसके सुफल नहीं बता सका तो आप है और यह चौराहा है, मेरा फैसला कर दीजिएगा । फिर जीएसटी के लिये तो इन्होंने आधी रात में यह कहते हुए जश्न मनाया था कि उन्होंने आजादी की नई लड़ाई जीत ली है ।

इसी प्रकार न जाने वे कितनी बातों का यकीन दिलाते रहे हैं । भारत को स्वच्छ बना देंगे, भ्रष्टाचार दूर करेंगे, बलात्कार खत्म कर देंगे, अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थ-व्यवस्था बना देंगे, किसानों को लागत से डेढ़ गुना एमएसपी, फाइव ट्रिलियन इकोनोमी और न जाने क्या-क्या ! लेकिन हर मामलें में वे यकीन के लायक साबित नहीं हुए । घुमा-फिरा कर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और पाकिस्तान-विरोधी थोथी बातें करके ये राष्ट्रवाद का भूत की शरण में जाकर किसी प्रकार अपनी रक्षा करते हैं !

बहरहाल, लोग इन सब बातों को अब अच्छी तरह से जान रहे हैं । फिर भी, मजे की बात यह है कि 2019 के चुनाव में मोदी अच्छी तरह से विजयी हुए । इस जीत के बाद से तो मोदी ने जैसे मान लिया कि लोग उनकी झूठ और विफलताओं को ही प्यार करते हैं ! लोकसभा चुनाव के बाद से ये अपने विश्वासघात की राजनीति की दिशा में और भी अधिक निर्द्वंद्व भाव से बढने लगे हैं । कश्मीर के बारे में उनकी कार्रवाई और अब नागरिकता कानून को लेकर किया जा रहा मजाक उनके इस मनमौजीपन के सबसे बड़े उदाहरण हैं ।

आइये ! आज हम मोदी के झूठ और उसके प्रति ‘जनता के यकीन’ के विषय पर थोड़ी भिन्न दृष्टि से रोशनी डालते हैं । दुनिया के सबसे प्रमुख मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषकों को, जिन्होंने मनोरोगी का इलाज करने का जिम्मा लिया है, सबसे पहली हिदायत यह दी थी कि कभी भी रोगी की खुद के बारे में कही गई बात पर विश्वास मत करो । वे बातें सिर्फ रोगी के अहम् की तुष्टि के लिये होती है । तभी से फ्रायड की इस बात को मनोविश्लेषकों की दुनिया का एक मूलभूत सिद्धांत माना जाता है ।

फ्रायड के कामों को मनोविश्लेषण में आगे एक बिल्कुल नई, दर्शनशास्त्रीय ऊंचाई तक ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जाक लकॉन ने इसी विषय पर एक पूरा नया विमर्श तैयार किया था — ‘मनोविश्लेषण में बातों और भाषा की भूमिका और इनका क्षेत्र’ । इसमें वे फ्रायड की बात को बुनियादी तौर पर मानते हुए भी कहते हैं कि रोगी की बातें ही मनोविश्लेषण का प्रमुख औजार होती है, बातें कितनी भी खोखली क्यों न हो, मूल चीज यह है कि वे जैसी दिखती है, उन्हें बिल्कुल वैसी ही नहीं समझना चाहिए ।... भले वे कुछ न कहती हो, लेकिन बातचीत संवाद के अस्तित्व को बताती है ;  भले जो साफ दिखता है उनमें उससे इंकार किया गया हो, लेकिन यही इस बात की भी पुष्टि है बात में सत्य होता है;  भले उनका मकसद छल करना हो, लेकिन वे अन्य की गवाही में विश्वास पर निर्भरशील होती है । मूल बात यह है कि विश्लेषक को इस बात की समझ होनी चाहिए कि बातें किस प्रकार काम किया करती है । बातों के महत्व को मान कर रोगी की हर थोथी बात के पीछे भागने से विश्लेषक को हासिल कुछ नहीं होगा, बल्कि वह खुद रोगी के संदर्भ में अपने अंतर में खोखला होता चला जायेगा क्योंकि मनोविश्लेषण रोगी के साथ विश्लेषक का एक परस्पर द्वंद्वात्मक संबंध भी कायम करता है ।

इसी सिलसिले में लकॉन विश्लेषकों के लिये एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पते की बात कहते हैं । वे कहते हैं कि आदमी को उसकी नितांत निजी बातों में देखने अथवा जड़ समझने, इन दोनों के ही खतरे हैं । इन खतरों से तभी बचा जा सकता है जब आदमी की आत्म-मुग्ध बातों से इन दोनों चीजों, उसकी निजता और उसकी जड़ता, दोनों को ही किन्हीं खामोश पक्षों के रूप में फिर से जोड़ा जा सके । इसका एक ही डर है कि आदमी अपने बारे में एक पत्थर की मूर्ति की तरह की कल्पना करके उसमें फंस सकता है ; अर्थात् उसका अलगाव और मजबूत हो जाता है ।

लकॉन कहते हैं कि “विश्लेषक की कला इस बात में है कि वह  आदमी की खुद के बारे में निश्चित धारणाओं पर अपनी अंतिम राय को तब तक लटकाए रखे,  जब तक उसकी अंतिम अभिलाषाएं (मरीचिकाएँ) खुल कर सामने नहीं आ जाती । आदमी की इन बातों से ही उसके अपने अंत को पढ़ा जाना संभव हो सकता है ।”



अब देखिये, हमारे यहां एक ओर मोदी-शाह-आरएसएस है और दूसरी ओर है भारत की जनता, इनका विश्लेषण करके उन पर राय देने वाला विश्लेषक । हमारे देश के लोगों ने अब तक मोदी की सारी छल-कपट की बातों को देखा है, और आज भी देख रही है । लेकिन वह मोदी के बारे में अपनी अंतिम राय को आज तक लटकाए हुए हैं । पिछले छः सालों से ही मोदी के झूठ और छल के खिलाफ कई रूप में असंतोष जाहिर करने पर भी अब तक उसने उन पर अपनी अंतिम राय को स्थगित रख छोड़ा है । ऐसा लगता है जैसे लोग किसी सधे हुए कुशल मनोविश्लेषक की तरह यह सब देखते हुए भी मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी की महत्वकांक्षाओं को, उनके अंदर की मरीचिकाओं को पूरी तरह से सामने आने देने का मौका दे रही है । अब वे क्रमशः और भी तेजी से अपने मूल रोग को व्यक्त करने लगे हैं जो उन्हें आरएसएस की पाठशाला से लगे हुए हैं ।

पहले पांच साल तक तो वे उन पर पर्दा डाले रहते थे । यहां तक कि कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर सरकार बनाई । शुरू में तो पाकिस्तान सहित सभी पड़ौसी देशों से अच्छे संबंधों की बाते की । गोगुंडों की गतिविधियों पर मोदी ने कड़े शब्दों का प्रयोग किया । लेकिन जैसे-जैसे नोटबंदी, जीएसटी की तरह के मूर्खतापूर्ण कदमों से इनके अंदर का खोखलापन सामने आने लगा, इन्होंने परपीड़क राष्ट्रवादी उत्तेजना की आड़ तैयार करने के लिये पाकिस्तान, नेपाल आदि से संबंध बिगाड़ लिये । कुल मिला कर उनकी विक्षिप्तता का पूरा सच सामने नहीं आया था । और यही वजह रही कि जनता की भी इनके बारे में अंतिम राय स्थगित रह गई ।

कहना न होगा, आदमी की अपनी बातों और उसकी आंतरिक जड़ताओं के बीच से उसके सच को सामने लाने में भ्रम और स्थगित अंतिम राय के बीच की खाई अब मोदी-शाह-संघ के चरित्र को खोलने में अपनी भूमिका अदा करने लगी है ।

अब नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के बारे में मोदी-शाह जिस प्रकार की दलीलों से लोगों को आश्वस्त करना चाहते हैं, वे काम नहीं कर सकती है । कश्मीर, असम के लोगों और उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ किये गये विश्वासघात से आरएसएस की वह संविधान-विरोधी एकात्म सत्ता की फासिस्ट विचारधारा पूरी तरह से सामने आ रही है, जो मोदी सरकार की हर क्षेत्र में पंगुता और विफलता के मूल में है ।

अब कोई भी दुष्यंत कुमार के शब्दों में यह पूरे निश्चय से कह सकता है कि “उनकी अपील है कि उन्हें हम यकीं (मदद) करें, चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।” मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी पर जनता की अंतिम राय सुनाने की घड़ी अब शायद नजदीक आ रही है ।       

रविवार, 8 दिसंबर 2019

आरएसएस और उद्योग जगत के बीच प्रेम और ईर्ष्या के संबंध की क़ीमत अदा कर रही है भारतीय अर्थ-व्यवस्था


-अरुण माहेश्वरी



आज के टेलिग्राफ़ में उद्योगपतियों की मनोदशा के बारे में सुर्ख़ी की खबर है । “Why business is talking ‘wine’, not Dhanda”। (क्यों उद्योगपति ‘शराब’ की बात करते हैं, धंधे की नहीं )

पूरी रिपोर्ट उद्योगपतियों की आपसी बातचीत और उनके बयानों के बारे में है जिसमें घुमा-घुमा कर एक ही बात कही गई है कि उद्योग और सरकार के बीच विश्वास का रिश्ता टूट चुका है । कोई भी अपने व्यापार के भविष्य के बारे में निश्चिंत नहीं है । इसीलिये आपस में मिलने पर पहले जहां नये प्रकल्प के बारे में चर्चा होती थी, वहीं अभी नई शराब की चर्चा हुआ करती है ।

अर्थात् अभी उद्योग जगत के लोग उपभोग की चर्चा से अपनी-अपनी पहचान बना रहे हैं, न कि उत्पादन के उपक्रमों से । दुनिया की बेहतरीन से बेहतरीन चीजों का उपभोग ही जैसे इनकी ज़िंदगी का ध्येय बनता जा रहा है, अपनी रचनात्मक मौलिकता का इनमें कोई मोह नहीं बचा है ।

बहरहाल, इस रिपोर्ट का कुछ ज़ोर इस बात पर भी है कि वर्तमान सरकार ने ईडी, आईटी की तरह की एजेंसियों के चुनिंदा प्रयोग से डर का वातावरण तैयार करके समग्र रूप से उद्यमशीलता को कमजोर किया गया है ।

उद्योगपतियों का यही वह तबका है जो कभी राजनीति में मोदी के उत्थान पर अश्लील ढंग से उत्साही नज़र आता था । उन्हें भरोसा था कि मोदी व्यापार के माहौल को उनके लिये अनुकूल बनायेगा । उनके इस भरोसे का एक प्रमुख कारण यह था कि उन्हें आरएसएस पर भरोसा था और वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि मोदी आरएसएस का एक सच्चा प्रतिनिधि है ।

भारत में आरएसएस के इतिहास पर यदि कोई गहराई से नज़र डालें तो पता चलेगा कि किस प्रकार उसके कार्यकर्ताओं का प्रमुख हिस्सा उन छोटे दुकानदारों और व्यापारियों से आता था जो एक अर्थ में विफल व्यापारी हुआ करते हैं क्योंकि उनके पास औद्योगिक साम्राज्य बनाने की तरह की व्यापक दृष्टि ही नहीं होती थी । उनकी मामूली शिक्षा जीविका के लिये उन्हें छोटे-मोटे धंधों से बांधे रखती थी । और, अपनी इसी कमजोर स्थिति के कारण वे अक्सर किसी न किसी बड़े व्यापारी घराने के साये में ही पला करते थे ।

यही वजह रही कि आरएसएस के कार्यकर्ताओं को पालने वाले औद्योगिक घराने उन्हें सहज ही अपना दास मानते रहे हैं । अक्षय मुकुल की पुस्तक ‘Gita Press and the making of Hindu India’ में पूरे विस्तार के साथ संघी मानसिकता के सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति कोलकाता के मारवाड़ियों की उदारता का पूरा इतिहास दर्ज है ।

मुकुल ने इसे बिल्कुल सही मारवाड़ियों की अपनी पहचान के संकट से जोड़ कर विवेचित किया है। उनके शब्दों में, “उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय पूंजीवाद में मारवाड़ियों के उदय के साथ दो महत्वपूर्ण, लेकिन परस्पर-विरोधी चीजें घटित हुई । पहली तो यह कि यह समुदाय ईर्ष्या और तिरस्कार का पात्र बन गया, उनको यूरोप के यहूदियों की तरह घनघोर स्वार्थी बता कर मज़ाक़ उड़ाया जाने लगा । दूसरा मारवाड़ियों में खुद में एक विचित्र सा पहचान का संकट पैदा होने लगा । वह आर्थिक रूप में एक ऐसा शक्तिशाली समुदाय था जिसका कोई सामाजिक मान नहीं था । उनकी सादगी भी उनको मान नहीं दिला पाई थी । ...धार्मिक और सामाजिक कामों में उनकी उदारता से उन्हें मान तो मिला लेकिन उसके अपने तनाव भी थे । धार्मिक और सामाजिक कामों के लिये उदारता से दान के आधार पर निर्मित सादा जीवन जीने वाला सार्वजनिक व्यक्तित्व ।”

मुकुल ने बिल्कुल सही पकड़ा है कि मारवाड़ियों की पहचान का संकट ही उन्हें आधुनिक बनाने के बजाय हिंदू धार्मिक क्रियाकलापों से जोड़ता चला गया । उनके बीच से ही गीताप्रेस गोरखपुर के स्थापनाकर्ता हनुमान प्रसाद पोद्दार सरीखे लोगों ने कोलकाता के मारवाड़ी परिवारों के चंदे पर ही हिंदू धर्म और सांप्रदायिकता के प्रचार-प्रसार का ताना-बाना तैयार किया था ।

कहने का तात्पर्य यही है कि औद्योगिक घराने अनेक ऐतिहासिक सामाजिक कारणों से ही अपने को आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा के संगठनों का सरपरस्त मानते रहे हैं और इसी वजह से उनका इनकी स्वामिभक्ति पर काफी भरोसा भी रहा है । लेकिन समझने की बात यह है कि इस प्रकार की किसी की भी सरपरस्ती तभी तक कोई मायने रखती है जब तक जिसे पाला जा रहा है, उसके लिये उसकी ज़रूरत बनी रहती है । जब पलने वाले खुद शासक के आसन पर पहुँच जाते हैं, और अपने ‘सरपरस्तों’ के ही मालिक बन जाते हैं, तो दोनों के बीच पुराना रिश्ता नहीं रह सकता है, बल्कि एक नये तनाव से भरा भिन्न रिश्ता बन जाता है । यह नये मालिक की अपने पुराने मालिक के प्रति ईर्ष्या और नफ़रत पर आधारित रिश्ता होता है ।

जर्मनी में हिटलर के उदय और पूरे शासन का इतिहास भी इसका गवाह है कि हिटलर को आगे बढ़ाने में वहाँ के जिन तमाम उद्योगपतियों ने भरपूर मदद की थी, हिटलर ने सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार क़ायम कर लेने के बाद उन सबको चुन-चुन कर या तो यातना शिविरों में पहुँचाया या युद्ध के दौरान ही देश छोड़ कर भाग जाने लिये मजबूर किया । उद्योग की आज़ादी का कोई मूल्य नहीं रह गया था ।

इसी लेखक की किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ में एक पूरा अध्याय ‘आरएसएस और व्यवसायी वर्ग’ पर है जिसमें थोड़े विस्तार के साथ हिटलर और जर्मनी के उद्योगपतियों के संबंधों का इतिहास दिया गया है ।

प्रेम और ईर्ष्या का यह आरएसएस और व्यवसायी समुदाय के बीच का रिश्ता परस्पर की सामाजिक स्थिति और शक्ति में परिवर्तन के स्वरूप के साथ बनता-बिगड़ता रहता है । संघ के लोग व्यवसायी घरानों के निकट रहे हैं और स्वाभाविक रूप से उनकी अच्छी-बुरी करतूतों के बारे में उनकी अपनी ख़ास धारणाएँ भी रहती होगी । लेकिन, निकटस्थ व्यक्ति ही किसी भी सत्य के प्रति सबसे अधिक विभ्रांतियों से भरा हुआ पाया जाता है । बहुत निकटता से सत्य को उसकी समग्रता में देखा नहीं जा सकता है ।

कहना न होगा, यही वजह है कि आरएसएस के प्रतिनिधि मोदी जी और उनके निकट के लोगों में उद्योगपतियों के बारे में भारी भ्रांतियाँ भरी हुई हैं । वे न उन पर भरोसा कर पाते हैं और न पूरी तरह से अविश्वास ही । इसी वजह से ये पूरे व्यवसाय जगत के बारे में ही हमेशा दुविधाग्रस्त रहते हैं ।

विडंबना यह है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था का बहुलांश निजी पूँजी की गतिविधियों पर ही निर्भर करता है । सरकार की किसी भी भ्रांति की वजह से उस क्षेत्र में यदि कोई गतिरोध पैदा होता है, तो यह तय है कि यह पूरी अर्थ-व्यवस्था के चक्के को जाम कर देने के लिये काफ़ी होगा । आज भारत के व्यवसाय जगत के बारे में मोदी जी की निजी भ्रांतियों की क़ीमत भारत की अर्थ-व्यवस्था को चुकानी पड़ रही है ।

रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन जब आज के आर्थिक संकट के लिये मोदी को निजी तौर पर ज़िम्मेदार बता रहे हैं, तो वह अकारण नहीं हैं । हिटलर का रास्ता औद्योगिक विकास का सही रास्ता कभी नहीं हो सकता है ।


बर्बरता किसी न्यायपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सकती


—अरुण माहेश्वरी



हैदराबाद में बलात्कारियों के एनकाउंटर की पूरे देश में भारी प्रतिक्रिया हुई है । अभी हमारा समाज जिस प्रकार की राजनीति के जकड़बंदी में फंसा हुआ है, उसमें लगता है जैसे आदमी आदिमता के हर स्वरूप को पूजने लगा है । यह जन-उन्माद चंद लेखकों-बुद्धिजीवियों के विवेक पर भी भारी पड़ रहा है । पुलिस के द्वारा किये गये इस शुद्ध हत्या के अपराध को नाना दलीलों से उचित ठहराने की कोशिशें दिखाई दे रही है ।

संदर्भ से काट कर कही जाने वाली बात कैसे अपने आशय के बिल्कुल विपरीत अर्थ देने लगती है, इसके बहुत सारे उदाहरण इसमें देखने को मिल रहे हैं । मसलन्, ‘विलंबित न्याय न्याय नहीं होता’, कह कर भी अपराधी को पकड़ कर सीधे मार डालने को सच्चा न्याय बताया जा रहा है । अर्थात्, न्याय के लिये दी जाने वाली दलील से पूरी न्याय प्रणाली की ही हत्या कर देने की सिफारिश की जा रही है ।

इस घटना पर अपनी एक प्रतिक्रिया में हमने सऊदी अरब के रियाद शहर के कटाई मैदान, chop chop square का उल्लेख करते हुए वहां के सर्वाधिकारवादी तानाशाही शासन के साथ न्याय की आदिम प्रणाली, और हिटलर की गैर-जर्मन जातियों के लोगों को मसल कर खत्म कर देने के नाजीवादी न्याय दर्शन की चर्चा की तो कुछ मित्र हमें बताने लगे कि सऊदी में इसी आदिम न्याय प्रणाली के चलते बलात्कार नहीं के बराबर होते हैं और अपराध भी काफी कम पाए जाते हैं !


न्याय की प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सुधार की हमेशा ज़रूरत बनी रहेगी, लेकिन तत्काल न्याय का सोच ही एक आदिम सोच है । दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास की “ ‘आदिम’ सोच और ‘सभ्य’ दिमाग” के बीच फर्क की स्थापना को ही एक प्रकार से दोहराते हुए हमने लिखा भी कि एक झटके में सब कुछ हासिल कर लेने का सोच ही आदिम सोच होता है । इसे सर्वाधिकार की आदिमता कहते हैं । समाज-व्यवस्था के प्रति वैज्ञानिक नजरिया कहीं गहरे और स्थिर निरीक्षण की माँग करता है । अगर सऊदी तौर-तरीक़ा ही आदर्श होता तो पूरी सभ्य दुनिया में फाँसी की सजा तक को ख़त्म कर देने की बात नहीं उठती । सारी दुनिया में chop chop squares होते । समय के साथ सऊदी में भी इसके खुले प्रदर्शन को सीमित करने की कोशिशें भी यही प्रमाणित करती है कि आदमी की खुली कटाई सजा का वीभत्स रूप है, आदर्श रूप नहीं । वैसे क्रुसीफिकेशन आज भी वहां सजा की एक मान्य प्रणाली है ।

न्याय और दंड के स्वरूप किसी भी समाज व्यवस्था के सच को प्रतिबिंबित करते हैं और वे उस समाज में आदमी के स्वातंत्र्य के स्तर को प्रभावित करते हैं । यह आपको तय करना है कि आपको ग़ुलाम आज्ञाकारी नागरिक चाहिए या स्वतंत्र-चेता मनुष्य । ग़ुलाम नागरिक अपनी रचनात्मकता को खो कर अंतत: राष्ट्र निर्माण के काम में अपना उचित योगदान करने लायक़ नागरिक साबित नहीं होता है । प्रकारांतर से वह राष्ट्र की प्रगति के रास्ते में एक बाधा ही होता है ।

लेवी स्ट्रास ने अपने विश्लेषण में यह भी बताया था कि आदिमता महज आदमी के शरीर की मूलभूत जरूरतों, मसलन् खाद्य और सेक्स आदि से जुड़ी चीज नहीं होती है । ‘टोटेमवाद और जंगली दिमाग’ लेख में उन्होंने यह दिखाया था कि “आदिम जरूरतों के अधीन रहने वाले इन लोगों में भी स्वयं से परे जाकर सोचने की क्षमता होती है । अपने इर्द-गिर्द के संसार, उसकी प्रकृति और अपने समाज को जानने की उनकी भी कोशिश रहती है । यहां तक कि इसके लिये वे बिल्कुल दर्शनशास्त्रियों की तरह बौद्धिक साधनों, अथवा एक हद तक वैज्ञानिक उपायों का भी प्रयोग करते हैं । ...लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह वैज्ञानिक चिंतन के समकक्ष होता है ।...यह उससे सिर्फ इसीलिये अलग होता है क्योंकि इसका लक्ष्य उद्देश्य बिल्कुल सरल तरीके न्यूनतम कोशिश से पूरे ब्रह्मांड की न सिर्फ एक सामान्य समझ बल्कि संपूर्ण समझ कायम करने की होती है । अर्थात् वह सोचने का वह तरीका है जिसमें यह मान कर चला जाता है कि यदि आप हर चीज को नहीं समझते है तो आप किसी चीज की व्याख्या मत कीजिए । वैज्ञानिक सोच जो करता है, यह उसके पूरी तरह से विरुद्ध है । वैज्ञानिक चिंतन कदम दर कदम चलता है, हर सीमित परिघटना की व्याख्या की कोशिश करता है, तब आगे की दूसरी परिघटना को लेता है ।...इसीलिये बर्बर दिमाग की सर्वाधिकारवादी महत्वाकांक्षाएं वैज्ञानित चिंतन की प्रणालियों से बहुत अलग होती है । यद्यपि सबसे बड़ा फर्क यह होता है कि यह महत्वाकांक्षा सफल नहीं होती है ।” 
   
कहना न होगा, अपराधियों को पकड़ कर गोली मार देने की बर्बरता न्याय के सभ्य तौर-तरीकों के सर्वथा विपरीत है । यह कभी भी किसी न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सफल नहीं हो सकती है । दुनिया में राजशाही का इतिहास बर्बर नादिरशाही संस्कृति का भी इतिहास रहा है जब जनता में खून के खेल का उन्माद भरा जाता था । इसका सबसे जंगली रूप देखना हो तो नेटफ्लिक्स के ‘स्पार्टकस’ सीरियल को देख लीजिए । कैसे साधारण लोग और राजघरानों के संभ्रांतजन साथ-साथ आदमी के शरीर से निकलने वाले खून के फ़व्वारों का आनंद लिया करते थे । कैसे मार्कोपोलो सीरियल में कुबलाई खान लोगों की कतारबद्ध कटाई करके उनके अंगों को कढ़ाई में उनके ही खून में उबाला करता था । आधुनिक तकनीक के युग में राजशाही का नया रूप नाजीवाद और फासीवाद भी राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसे ही खूनी समाज का निर्माण करता है । सभी प्रकार के बर्बर शासन तलवारों और बम के गोलों से मनुष्यों के विषयों के निपटारे पर यक़ीन करते रहे हैं ।

जनतंत्र इसी बर्बरता का सभ्य प्रत्युत्तर है । तलवार के बजाय क़ानून के शासन की व्यवस्था है । राजा की परम गुलामी की तुलना में नागरिक की स्वतंत्रता और उसे अधिकार की व्यवस्था है ।

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

यह भारतीय मीडिया की एक अलग परिघटना है

-अरुण माहेश्वरी

(रवीश कुमार के भाषणों के प्रभाव में एक सोच)


रवीश कुमार के भाषणों को सुनना अच्छा लगता है । इसलिये नहीं कि वे विद्वतापूर्ण होते हैं ; सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के चमत्कृत करने वाले नये सुत्रीकरणों की झलक देते हैं । विद्वानों के शोधपूर्ण भाषण तो श्रोता को भाषा के एक अलग संसार में ले जाते हैं । रवीश ऐसे किसी नए भाषाई संसार की रचना नहीं करते । एक पत्रकार की अपेक्षाकृत सावधानीपूर्ण भाषाई संरचना के दायरे में वे वाग्मिता के उस लोकप्रिय ढांचे का ही निर्वाह करते चलते हैं जिसमें गंभीर से गंभीर परिस्थिति के आख्यानों के बोझ को हमेशा कुछ हंसी, कुछ कटाक्ष और यदा-कदा गुस्से से भी हल्का करते हुए आगे बढ़ा जाता हैं ।

फिर भी मजे की बात है कि रवीश के भाषण कुल मिला कर किसी लोकप्रिय वक्तृता श्रंखला की कड़ी भर नहीं लगते हैं । बल्कि हम उन्हें उनके भाषणों से अलग, बल्कि उनके जरिये स्वयं में एक अलग परिघटना के रूप में सामने आता हुआ देखते हैं । भारतीय मीडिया की एक खास, कुछ नई परिघटना के रूप में पाते हैं ।

रवीश हिंदी के पहले मीडियाकर्मी हैं जिन्हें प्रतिष्ठित मैगसेसे पुरस्कार मिला है । मैगसेसे के पीछे कई कारण हुआ करते हैं । इनमें एक प्रमुख कारण अपने समय की कसौटी पर सामने आए व्यक्ति का समग्र चरित्र होता है ; किसी खास समय में व्यक्ति के क्रियाशील पहलू की विशेषता की स्वीकृति होती है । इसीलिये देखेंगे कि इसकी ख्याति पुरस्कृत व्यक्ति के सक्रिय जीवन काल तक ही बनी रहती है । यह उस अर्थ में नोबेल पुरस्कार नहीं होता है, जिसके लिये माना जाता है कि नोबेल पुरस्कारजयी लोगों की खोजों ने मनुष्यों के लिये उनकी सोच और भाषा के, उनके चित्त के एक नये वृत्त को रचने का काम किया है । वह भले भौतिकी के लिये हो, रसायनशास्त्र के लिये, चिकित्साशास्त्र अथवा साहित्य और विश्व शांति के लिये ही क्यों न हो ।

इसके बावजूद, जब हम रवीश कुमार को स्वयं में एक अलग परिघटना कहते हैं तो जाहिरा तौर पर यह आदमी की क्रियाशीलता के किसी क्षेत्र के पूर्व-स्वीकृत दायरे में उनके विशेष कर्तृत्व का, या समय की मांग पर उनके निष्ठापूर्वक सामने आने का मसला भर नहीं रह जाता है । यदि हम कहे कि रवीश प्रेस के असली, मूलभूत धर्म का निर्वाह कर रहे हैं, जबकि इस क्षेत्र में काम करने वाले अन्य उससे भटक रहे हैं, तो कहीं न कहीं हम उन्हें उस खास दायरे में सीमित करके ही देख रहे होते हैं ।

और, कोई भी लकीर, वह कितनी ही पवित्र और प्रेरक क्यों न हो, उसे पीट कर, सराहना तो पाई जा सकती है पर, हम नहीं समझते, उससे किसी ‘भिन्न परिघटना’ का साक्षी बनने की अनुभूति पैदा की जा सकती है । कोई लकीर जितनी ही हल्की या गाढ़ी क्यों न हो, उसे पीटने में धार्मिक कर्मकांडों की तरह की एक जुनूनियत का अंश प्रमुख होगा ; उससे किसी भिन्न परिघटना की अभिनवता का अहसास पैदा नहीं होगा ।

इसके पहले कि हम ‘रवीश एक नई परिघटना’ को विषय बनाए, आइये, भारत के समाचार मीडिया के सच पर एक नजर डालते हैं, रवीश जहां से पैदा होते हैं । लोकतंत्र के कथित चौथे खंभे का यह डिजिटल अवतार अपने जन्म से ही मूल रूप से भारत के राजनीतिक दलों के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित हुआ है । इसकी आंतरिक संरचना पर गौर करें तो पायेंगे कि इसकी अपनी कोई धुरी नहीं रही है, वह राजनीतिक दलों की धुरी पर ही घूमता रहा है ।

पत्रकारिता, वह भले प्रिंट हो या डिजिटल, उसके दो प्रमुख संघटक तत्त्व होते हैं— समाचार और विश्लेषण । इन तत्त्वों के स्रोतों की सचाई से, अर्थात् इनकी क्रियात्मकता से यदि हम परिचित नहीं होंगे तो यह मान कर चलिये कि हम मीडिया के सच से भी हमेशा कोसों दूर रहेंगे । किसी भी विचार पद्धति से लेकर तकनीक तक को तब तक न समझा जा सकता है और न ही उनका सही ढंग से प्रयोग किया जा सकता है जब तक हम यह नहीं जान लेते हैं कि वे किन मूलभूत चीजों पर आधारित हैं । मार्क्सवाद के प्रयोग के लिये जरूरी माना जाता है कि हेगेल के द्वंद्ववाद के सच को समझा जाए और फायरबाख के भौतिकवाद से उसके फर्क को भी । उसके बिना मार्क्सवाद को समझना और उसकी विधि का सही ढंग से प्रयोग करना लगभग असंभव होता है ।

भारत के समाचार मीडिया में समाचार और विश्लेषण, दोनों का ही केंद्रीय विषय राजनीतिक दल के अलावा कुछ नहीं रहा हैं । और मीडिया में राजनीतिक दलों की एक प्रकार की अनिवार्य और सर्वव्यापी उपस्थिति ही वह प्रमुख सच है जो उसे इन दलों के अधीन बनाने की भी जमीन तैयार करती है । पूरा मीडियातंत्र जब सत्ता के दलालों की उपज की सबसे उर्वर जमीन माना जाता है, तब संकेत इस जगत के पतन के पहलू की ओर भी होता है । मीडिया पर किसी सत्ताधारी, शक्तिशाली दल के आधिपत्य का विषय जितना मीडिया की अपनी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर करता है, उससे बहुत ज्यादा वह सत्ताधारी दल की नीति और चयन का विषय होता है । मीडिया के अर्थशास्त्र का यह एक सबसे कटु सच है । मीडिया का अस्तित्व जुड़ा हुआ है विज्ञापनों से और विज्ञापन सबसे अधिक सरकार के पास है ! गोदी मीडिया इसी लाचारी भरे कटु सच का एक सबसे विकृत रूप है ।

मीडिया के इस जगत में हमें रवीश एक अलग परिघटना प्रतीत होते हैं तो सवाल उठता है कि ऐसा कहने से हमारा क्या तात्पर्य है ? जब मीडिया अपने पतन के इस स्तर तक पहुंच चुका है कि एक अदना सा मंत्री बड़ी आसानी से उसे प्रेस्टीट्यूट कह कर उसी मीडिया का चहेता बना रहता है, तब रवीश क्यों और कैसे एक अलग परिघटना बन कर सामने आते हैं ।

मीडिया के अनैतिक संसार में पत्रकार का नैतिक साहस इस विशेष स्थिति में निश्चित रूप से एक जरूरी पहलू होता है । लेकिन नैतिक ऊंचाई से बोलने की कोशिश करने वाले रवीश अकेले नहीं है । ऐसे और भी पत्रकार है जिन्होंने इसके लिये अपनी अच्छी-खासी नौकरियों तक की कीमत अदा की है । इस मामले में तो रवीश उनसे खुशनसीब कहे जा सकते हैं, जिन्हें तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद एनडीटीवी के प्रणव राय का संरक्षण मिला रहा है । इसीलिये अकेला नैतिक बल उनकी एक अलग परिघटना के रूप में पहचान का कारण नहीं हो सकता है ।

अगर हमें रवीश को एक अलग परिघटना के रूप में समझना है तो हमें उनके अंदर के व्यक्ति से बाहर उनके मीडिया कर्म की विशेषता को समझना होगा । वहां देखना होगा जहां वे मीडिया कर्म के प्रमुख संघटक तत्व, समाचार और विश्लेषण की क्रियात्मकता की अपनी समझ का प्रयोग कर रहे होते हैं ।

रवीश मीडिया में राजनीति की किसी नैतिकतावादी समझ से रवीश और एक अलग परिघटना नहीं बने हैं, मीडिया में समाचार के विषयों के उनके चयन और उनके विश्लेषणों ने उन्हें रवीश बनाया है । एक ओर जहां मुख्यधारा का मीडिया राजनीतिक दलों की करतूतों के कीचड़ में ही लोट-पोट रहा है, वहीं रवीश कुमार का मीडिया नोटबंदी के कारण बैंकों के सामने कतारों में जूझ रहे कातर लोगों और गांव के किसानों, शहरों के नौजवानों और मजदूरों के बीच जीवन की लड़ाइयों से निर्मित होता है । रवीश बेरोजगार नौजवानों के जुलूसों में कदम बढ़ाते हुए अपने मीडियाकर्म कर रहे होते हैं ।

जैसा कि हम बार-बार कह रहे हैं, समाचार मीडियाकर्मी का एक प्रमुख औजार होता है, लेकिन यदि उसके पास यह दृष्टि नहीं होती कि उसे किन समाचारों पर ध्यान देना है और किन पर नहीं, उसकी अपनी चयन की कोई दृष्टि नहीं है तो वह फालतू किस्म के समाचारों के पीछे ही दौड़ता-हांफता रहता है । फालतू बातों का खोखलापन उसके अंतर का खोखलापन बनने लगता है, जिसे भरने के लिये वह अंततः मूल विषय से ही दूर भटकता चला जाता है । वह झूठ-मूठ हिंदुओँ- मुसलमानों को लड़ाता रहता है । जो कहीं नहीं है, पत्रकार उसी को दिखाने, बताने में लगा रहता है ।

इसीलिये रवीश जब कहीं भाषण दे रहे होते हैं तो उनकी बातों को अर्थ प्रदान करने वाला जो तीसरा, ‘अन्य’ तत्व उनके साथ वहां मौजूद होता है, वह उनका बाकी के मीडिया से बिल्कुल अलग प्रकार का मीडियाकर्म होता है । उसमें खोखले समाचारों की खोखली प्रस्तुतियों की कोई छाया नहीं होती है । मीडिया के बाकी अंश में राजनीतिक दलों का जो खोखलापन गूंजा करता है, रवीश के यहां जीवन का ठोस सत्य बोलता है । यहां तक कि इसमें किसी निराश गुलाम की मृत्यु की कामना वाली आक्रामक नैतिकता भी नहीं होती है । उनके साथ सत्य को धारण करने वाला सुस्थिर तर्क बोलता है । आदमी के जीवन में जैसे शरीर और भाषा के अलावा उसके बाहर के एक सत्य की भूमिका होती है, वैसे ही मीडिया में पत्रकार और समाचार के बाहर जीवन के सच की भूमिका होती है । अगर वही खोखला होता है तो मीडियाकर्मी और उसका पूरा काम खोखला हो जाता है ।

अर्थात्, रवीश जब भाषण दे रहे होते हैं तब उनकी शालीन उपस्थिति और सुलझी हुई शैली के अतिरिक्त उसमें जो एक अतिरिक्त बाहर का सत्य बोल रहा होता है और वह उनके ठोस मीडियाकर्म का सच होता है । उनका हर श्रोता उन्हें सुनते हुए उनके मीडियाकर्म से भी जुड़ा होता है । उनके कामों की यह खास संरचना ही रवीश को भारतीय मीडिया की एक विशेष परिघटना का रूप दे रही है । और शायद इसीलिये उनके भाषण इतने अधिक प्रभावशाली होते हैं ।