रविवार, 16 जुलाई 2023

फासीवाद के कैंसर के खिलाफ संघर्ष में विपक्ष की बहुलतापूर्ण एकता और राहुल गांधी

 −अरुण माहेश्वरी 



कल से बंगलुरू में विपक्ष की दो दिनों की बैठक शुरू होगी । इस बैठक की राजनीतिक पृष्ठभूमि और अहमियत की हम दो दिन पहले ही चर्चा कर चुके हैं । (देखे − https://chaturdik.blogspot.com/2023/07/blog-post.html) 2024 का चुनाव भारत में जनतंत्र और फासीवाद, दोनों के लिए ही निर्णायक महत्व का चुनाव साबित हो सकता है । मोदी और भाजपा फासीवाद के दूत हैं तो उनके खिलाफ देश का समूचा विपक्ष जनतंत्र के पक्ष में लड़ रहा है । 

रोमन साम्राज्य के खिलाफ गुलामों के संघर्ष (स्पार्टकस) का इतिहास यह बताता है कि उस साम्राज्य में जितने ज्यादा गुलाम मालिक से विद्रोह करके भाग कर साम्राज्य के दूर-दराज के विभिन्न इलाकों में फैल गए थे, स्पार्टकस के संघर्ष का दायरा उतना ही विस्तृत होता चला गया था और उस विद्रोह में हर क्षेत्र की अपनी-अपनी विशिष्टताएं शामिल हो गई थी । विद्रोही गुलामों की टुकड़ियों का कोई एक चरित्र नहीं था । सिर्फ गुलामी से मुक्ति ही उन सब अलग-अलग टुकड़ियों को एक सूत्र में बांध रही थी । पर रोमन साम्राज्य की एक भारी-भरकम सेना के खिलाफ विद्रोही गुलामों की अपनी ख़ास प्रकार की इन अलग-अलग टुकड़ियों की विविधता ही उस पूरी लड़ाई को दुनिया से गुलामी प्रथा के अंत की एक व्यापक सामाजिक क्रांति का रूप देने में सफल हुई थी । संघर्ष का दायरा जितना विस्तृत और वैविध्यपूर्ण होता गया, रोमन साम्राज्य की केंद्रीभूत शक्ति उतनी कमजोर दिखाई देने लगी और साम्राज्य को अनेक बिंदुओं पर एक साथ चुनौती देने की विद्रोहियों की ताकत उसी अनुपात में बढ़ती चली गई । देखते-देखते निहत्थे गुलामों के सामने रोमन साम्राज्य के तहत सदियों से चली आ रही समाज व्यवस्था का वह विशाल, महाशक्तिशाली किला बालू के महल की तरह ढहता हुआ नजर आया ।

रोमन साम्राज्य में गुलामों के विद्रोह का यह गौरवशाली खास इतिहास इस बात का भी गवाह है कि संघर्ष की परिस्थितियां ही वास्तव में भविष्य की नई ताकतों के उभार की प्रक्रिया और उसके स्वरूप को तय करती है । हर उदीयमान निकाय का संघटन उसके घटनापूर्ण वर्तमान की गति-प्रकृति पर निर्भर करता है । 

कहना न होगा, आज हमारे यहाँ विपक्ष का वास्तविक स्वरूप भी शासक दल की चुनौतियों के वर्तमान रूप से ही तय हो रहा है । यह आज के हमारे समय की सच्चाई है कि बीजेपी को जितने ज़्यादा राज्यों में कड़ी से कड़ी टक्कर दी जा सकेगी, विपक्ष 2024 की लड़ाई में उतना ही अधिक शक्तिशाली और प्रभावी बन कर उभरेगा और दुनिया भर के संसाधनों से संपन्न बीजेपी उतनी ही लुंज-पुंज और उनका ‘विश्व नायक’ नरेन्द्र मोदी उतना ही एक विदूषक जैसा दिखाई देगा । 

जॉक लकान का गढ़ा हुआ एक शब्द है under erasure । हर निकाय समय की थपेड़ों के साथ अपने मौजूद स्वरूप को खोने के लिए मजबूर होता है । वह हमेशा एक रंदे के नीचे होता है । यह बात जहां किसी भी विकसित शरीर पर लागू होती है, तो वहीं गुणसूत्रों (क्रोमोजोम्स) के योग से विकसित हो रहे भ्रूण और नवजात शिशु के गठन पर भी लागू होती है । राजनीति में जहां हर संगठन का स्वरूप उसकी वैचारिकता और संगठन की परिस्थितियों से तय होता है, वहीं संगठन का वर्तमान स्वरूप भी उसकी वैचारिकता और सांगठनिक स्थिति को निर्धारित करता है । 2024 में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का अंतिम समग्र स्वरूप भी कुछ इसी प्रक्रिया से निकल कर सामने आयेगा । हर राज्य की अपनी विशेषता, अलग-अलग दलों की वैचारिक और सांगठनिक शक्ति का सम्मिलित योग ही इसे कोई अंतिम रूप देगा । राजनीति का अर्थ ही होता है − बहुलता की संभावनाओं की साधना ।

राहुल गांधी का सवाल 



जहां तक इस पूरी प्रक्रिया में विचारधारा के पहलू की भूमिका का सवाल है, इसे खास तौर पर अकेले राहुल गांधी की व्यापक छवि में हो रहे तेज बदलाव के जरिए बहुत अच्छी तरह से समझा जा सकता है । वैसे इस लेखक ने तो 2014 के फरवरी महीने में ही अर्नब गोस्वामी के द्वारा राहुल गांधी के साक्षात्कार को देख कर अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर लिखा था : 

“अर्नब गोस्वामी को दिये साक्षात्कार में राहुल गांधी का लगातार व्यवस्थागत प्रश्नों पर बल देना बहुत सुखदायी लगा । वे सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों से बिल्कुल विपरीत लगातार आम जन के सशक्तीकरण पर, महिलाओं, नौजवानों के हाथ मज़बूत करने पर बल देते रहे । उनकी बातचीत का मुहावरा आज के समय के बड़बड़ करते, चालाक-चतुर दिखने की होड़ में लगे नेताजी लोगों के बिल्कुल विपरीत था । उनकी तुलना में नरेंद्र मोदी आज की राजनीति के एक सबसे बदतर प्रतिनिधि दिखाई देते हैं ।

“एक बात और साफ़ दिखाई दी कि अर्नब की तरह के एक बड़बोले एंकर के उकसाने में न आना राहुल की सायास कोशिश नहीं थी, यही उसकी प्रकृति है ।

“सालों बाद, इस प्रकार के मूलभूत सवालों पर संकेंद्रित राजनीतिज्ञ को सुनना बहुतों को अटपटा लग सकता है । राजनीतिक विमर्श के नाम पर आरोपों-प्रत्यारोपों का हंगामा देखने की अभ्यस्त आँखों को इसमें सब कुछ सारहीन भी दिखाई दे सकता है । लेकिन भारत के मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने राज्य की समूची शक्ति को हड़प कर जिस प्रकार के आततायियों का रूप ले लिया हैं,  इस परिस्थिति में सत्ता को सच्चे अर्थों में आम लोगों को सौंपने के सांस्थानिक परिवर्तनों की बात ही सबसे गंभीर राजनीति है । बाक़ी सब गर्जना-तर्जना पहले से ही अशक्त बना कर रख दिये गये भारत के मेहनतकशों को और निर्बल बनाने वाली अब तक चली आ रही राजनीति को आगे भी जारी रखने की बेशर्म कोशिशें हैं ।” (रविवार, 2 फ़रवरी 2014)

इस प्रकार, दस साल पहले ही राहुल गांधी ने अपने व्यक्तित्व के जो संकेत दिये थे, आज दस साल बाद, सोशल मीडिया के सारे बौद्धिक हलकों में उसे खुल कर स्वीकारा जाने लगा है । ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद तो, उम्मीद के अनुरूप ही, वे एक नई राजनीति की धुरी नज़र आने लगे हैं । नई राजनीति, अर्थात् कांग्रेस या विपक्ष की राजनीति की जानी-पहचानी हुई सूरत से एक बिल्कुल भिन्न राजनीति की धुरी ।

 


यह तो सब जानते हैं कि राहुल गांधी गांधी-नेहरू परिवार के वंशज और कांग्रेस दल के अभी सबसे बड़े नेता हैं। लेकिन आज वे अपनी उस मूल काया और भाषा से, जिसे उनका डीएनए माना जाता है, अर्थात् जो उनके खून में है, अलग उसकी सीमा का अतिक्रमण करते हुए एक बिल्कुल अलग प्रभाव पैदा करते हुए दिखाई देने लगे हैं । 

जब भी कोई व्यक्ति अपने शरीर और भाषा की सीमा के बाहर जाकर कोई प्रभाव पैदा कर पाता है, वास्तव अर्थों में तभी उसे अपना खास व्यक्तित्व मिलता है । व्यक्तित्व व्यक्तियों के ‘मैं’ या ‘हम’ के सर्वनामों में भी नहीं मिलता, बल्कि हमेशा उनके बाहर, अपवाद-स्वरूप होता है । भाषा में जब शब्द का अभिहित अर्थ उसकी संरचना से व्यक्त नहीं होता, बल्कि दूसरे ही संकेतों से व्यक्त होता है, तभी वह शब्द विशिष्ट और स्वतंत्र हुआ करता है । ‘जिसकी कोई जगह नहीं होती’ − इसी बात से उसकी संभावनापूर्ण स्थिति भी जाहिर होती है । जिसे अभी होना नहीं चाहिए था, वह अनायास ही जैसे लोकांतरण के नियम के अनुसार एक बहुरंगी परिदृश्य में अपने सत्य के साथ एक खास रंग में सामने आ जाता है । सत्य हमेशा विचारों के झुंड में किसी ब्लैक शीप की तरह होता है । उसे ही धारण करके व्यक्तित्व अपने को प्रभावी बनाता है, समग्र परिस्थिति के ताने-बाने में एक दरार और तनाव पैदा करता है। अन्यथा, सामान्य काया तो एक बेजान लाश ही होती है, निष्प्रभावी, निष्प्रयोजन । 

राहुल गांधी ने भारत में ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ के नारे के साथ व्यापक जनता को लामबंद करने की जिस मुहिम का प्रारंभ किया, उसका सिर्फ हमारे देश तक सीमित स्थानीय महत्व नहीं है । सारी दुनिया में जातीय स्वायत्तता आदि की रक्षा के नाम पर आप्रवासियों और विधर्मियों इत्यादि ‘अन्यों’ के प्रति नफरत की धुर-दक्षिणपंथी राजनीति का अभी जो तूफान चल रहा है, उसमें यह मुहिम विश्व मानवता के सत्य को फिर से एक ठोस रूप में सामने लाने की तरह है । राजनीति की यह एक बुनियादी जरूरत होती है कि उसके इस मानवीय सत्य को परिस्थितियों की बहुलता के बीच बार-बार ठोस निकायी रूप में सामने लाया जाए । राहुल गांधी का संपूर्ण व्यक्तित्व भारत और विश्व की द्वंद्वात्मकता के बीच जैसे राजनीति की इसी जरूरत को पूरा कर रहा है । उन्होंने अपने को अभी भारत के प्रधानमंत्री की दौड़ से अलग करके विश्व के बहुत बड़े फलक में खड़ा कर दिया है । जैसे सन् ’47 में भारत की आजादी से दुनिया के अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ था, वैसे ही भारत में फासीवाद की पराजय दुनिया भी सभी धुर-दक्षिणपंथी विचारधाराओं के अस्त का रास्ता खोलेगी । 

बीजेपी एक कैंसर है



इसमें कोई शक नहीं है भारतीय राजनीति के शरीर में बीजेपी कैंसर की कोशिका के मानिंद है । यह राजनीति मात्र के खिलाफ एक ऐसा विद्रोह है जो उसके अंत पर आमादा है । 

प्रसिद्ध लेखक और जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ डा.सिद्धार्थ मुखर्जी अपनी अंतिम किताब ‘कोशिका का गीत’ (The song of the cell) में लिखते हैं कि “कोशिका जब शरीर से विद्रोह करती है तो शरीर मर जाता है । कैंसर की कोशिका की विशेषता है कि वह तेजी से विभाजित होती हुई पूरे शरीर में फैल जाती है । पर उसका इस प्रकार तेजी से बढ़ना उसका अपना करिश्मा नहीं होता है । वह हमेशा दूसरों की, बल्कि जो कोशिका जीवनदायी होती है और जिसमें अभिवृद्धि की क्षमता होती है, उसकी शक्ति को आत्मसात करते हुए ही बढ़ा करती है । इस प्रकार कैंसर का संक्रमण भी प्राकृतिक ढंग से ही हुआ करता है । कोशिका जिन जीन और प्रोटीन का प्रयोग उन ईंटों के निर्माण के लिए करती है जिनसे शरीर का गठन होता है, जीवन के शुरू में विकसित होता हुआ भ्रूण अपने विस्फोटक विस्तार के ईंधन के तौर पर उन्हीं जीन और प्रोटीन का इस्तेमाल किया करता है । कैंसर की कोशिका शरीर के विशाल क्षेत्र में फैलने के लिए जिन मार्गों का प्रयोग करती है वे उनके द्वारा ही शासित होते हैं जो शरीर में स्थित जीवनदायी कोशिका के अनियंत्रित विभाजन के मार्ग होते हैं । पर कैंसर की कोशिका के फैलाव को बढ़ाने वाला जीन सामान्य कोशिका के विभाजन की अनुमति देने वाले जीन का विरूपित संस्करण होता है । अर्थात्, कैंसर की कोशिका का रूप कोशिका का एक ऐसा जैविक रूप है जो शरीर में रोग के दर्पण में नजर आता है । इसीलिए डा. मुखर्जी कहते हैं कि कैंसर विशेषज्ञ मूलतः होता तो कोशिका का जीव विज्ञानी ही है, पर फर्क सिर्फ इतना है कि वह कोशिका के सामान्य जगत के बजाय उस जगत के एक दर्पण में प्रतिबिंबित उसके उलटे रूप को लेकर विचार किया करता है ।

बीजेपी की तरह की फासिस्ट ताकतें राजनीति के जगत में मौजूद सांप्रदायिक और तमाम प्रकार के विभाजनकारी, विरूपित जीन आदि के सहारे फैला करती हैं । 

अगर हम इसके इलाज पर विचार करें तो देखेंगे कि जैसे आज कैंसर के इलाज के लिए मोलिक्यूलर टारगेटेड थिरैपी के साथ ही शरीर की रोधक शक्ति के विकास के सूत्रों पर सबसे अधिक भरोसा किया जा रहा है, उसी प्रकार राजनीति के जगत के फासीवादी कैंसर के लिए भी एक  दोतरफा रणनीति की जरूरत है । 2024 के लिए न सिर्फ विपक्ष की, बल्कि सभी गैर-भाजपा दलों की एकता का जो महत्व है, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है प्रेम के नारे के साथ ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह का राहुल के नेतृत्व वाला व्यापक जन-आंदोलन का। इस पूरी लड़ाई में राहुल के प्रधानमंत्री बनने, न बनने का सवाल बिल्कुल गौण हो जाता है ।              



गुरुवार, 13 जुलाई 2023

बंगलुरू बैठक के संदर्भ में

-अरुण माहेश्वरी 



विपक्ष की बंगलुरू बैठक की पृष्ठभूमि में वर्तमान राजनीति की यह मूलभूत समझ है कि भारत में फासीवाद के उग्रतम रूप का ख़तरा साफ़ तौर पर मंडराने लगा है । 

अगर इतने सारे विपक्षी दलों के एक साथ मिलने के पीछे यह बुनियादी कारण नहीं है तो इस बैठक का सचमुच कोई राजनीतिक महत्व भी नहीं है । 

एक, दो या चंद नहीं, सचाई यह है कि आज भारतीय संघ की प्रत्येक पार्टी का अस्तित्व मात्र दांव पर है । इसमें भारत के राजनीतिक अथवा भौगोलिक नक़्शे के वैविध्य और विभाजन का भी कोई असर नहीं पड़ने वाला है । 

क्षत्रप अपने प्रभुत्व के सपनों में आज भी खोए रह सकते हैं और दक्षिण भारत के नेता उत्तर भारत के नेताओं से तथा पूरब के नेता पश्चिम से अपने भेद का भ्रम पाले रख सकते हैं, पर उनकी इन सारी खुशफहमियों के विपरीत एक एकात्मवादी, निरंकुश फ़ासिस्ट तानाशाही की स्थापना के लिए राजसत्ता के अंगों में जिस शक्ति और विस्तार की ज़रूरत है, बीजेपी-आरएसएस ने इसी बीच सभी स्तर पर इसके कारक तत्वों की ठोस सिनाख्त कर ली हैं और उसके निर्माण की पूरी रूप-रेखा उसके सामने साफ़ है । 

आज भी जो पार्टियाँ या नेताओं के समूह मोदी के संघीय शासन में अपने स्वतंत्र अस्तित्व के भ्रम को पाले हुए हैं, और इसके लिए भाजपा से नाना प्रकार से भाव-तौल भी कर रहे हैं, उनकी इस भ्रमासक्ति के लिए इसके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है कि ‘बकरे की माँ आख़िर कब तक खैर मनायेगी’। 

मसलन्, आंध्र प्रदेश के वाइएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी या तेलुगुदेशम के चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के केसीआर, ओड़िसा के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र के अजित पवार, एकनाथ शिंदे और कुछ हद तक आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, यूपी के अखिलेश यादव और मायावती तथा पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी को भी लिया जा सकता है । इनमें से किसी को भी अगर अपने पर यह भरोसा है कि वे अकेले अपनी ताक़त के बल पर 2024 में जीत कर अपने अस्तित्व को बचाये रख पायेंगे, तो यह कसाई से रहम की उम्मीद करने जैसा उनका मतिभ्रम ही कहलायेगा । 

2024 में मोदी की सत्ता पर फिर से वापसी का अर्थ होगा भारत के संविधान को ताक पर रख देना, धर्म-आधारित तानाशाही राज्य की स्थापना, जनतांत्रिक और नागरिक अधिकारों का अंत, संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की समाप्ति और विपक्ष के प्रत्येक दल और नेता का घनघोर दमन । 

भारत की आज़ादी से हमारे देश के लोगों ने न्याय और समानता के जो भी अधिकार अर्जित किये हैं, वे सब एक-एक कर छीन लिए जायेंगे । 

न सिर्फ़ दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण का अंत होगा, मज़दूरों के अधिकारों और किसानों की माँगों का खुला दमन होगा, बल्कि देश की एकता और अखंडता तथा लोगों के बीच का भाईचारा भी भारी ख़तरे में पड़ जायेगा । 

मोदी की अमेरिका यात्रा के वक्त पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने भारतीय समाज के तनावों के अपने चरम तक पहुँच जाने की जो चेतावनी दी थी, वह सौ प्रतिशत सही साबित होगी । 

बीजेपी के ही नेतृत्व में देश को टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित करने वाली नाना प्रकार की ताक़तें देश के कोने-कोने में पूरी तरह से सक्रिय नज़र आने लगेगी और उन ताक़तों के हवाले से ही केंद्रीय सत्ता का दमनचक्र हर बीतते दिन के साथ अपने चरम की ओर बढ़ता चला जायेगा । 

राजसत्ता का चरम राक्षसी रूप सामने आने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी । 

नोटबंदी की तरह का सत्ता का पागलपन ख़तरनाक जन-हत्यारों की ख़ूँख़ार सत्ता के बिल्कुल नए रूप में दिखाई देगा । 

आज जो ऊपर से नज़र आता है, उसमें ऐसा गुणात्मक परिवर्तन होगा कि उसकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । 

एक फ़ासिस्ट तानाशाह के दमनचक्र पर तालियाँ पीटने वालों की भी कोई कमी नहीं रहेगी । 

ज़ाहिर है कि अभी सत्ता के लिए विपक्ष की चुनौतियां जितनी बढ़ेगी, उसी अनुपात में संघी फासीवाद की पैंतरेबाज़ी और ख़ूँख़ार गतिविधियाँ भी बढ़ती जाएगी । 

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अभी से परिस्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि 2024 का चुनाव हमारे देश में जनतंत्र और फासीवाद, दोनों के लिए ही जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गया है । 

बंगलुरू बैठक में हर दल को इस मौक़े की गंभीरता और नाजुकता के अहसास का परिचय देना होगा । 

यहाँ तक कि जो तमाम दल अभी मोदी के तथाकथित एनडीए में शामिल होने की जुगत में हैं, उनसे भी संवाद क़ायम करके उन तक परिस्थिति की इस गंभीरता को प्रेषित करने की ज़रूरत है । 

फासीवाद के विरूद्ध जनतंत्र की रक्षा के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता ही जनतंत्र और जीवन के अधिकारों की रक्षा के प्रश्नों के प्रति आम जन को भी गंभीर बना सकती है ।