मंगलवार, 19 जून 2018

'लुप्त होती अस्मिताओं' के अवलोपीकरण का लेखकीय जादू

—अरुण माहेश्वरी


हमारे सामने कोलकाता के वयोवृद्ध आलोचक और संपादक विमल वर्मा का चंद महीनों पहले प्रकाशित लेखों का इकलौता संकलन है — 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' । लगभग पचास साल से कुछ अधिक ही हो गये होंगे, विमल वर्मा उन थोड़े से लोगों में है जो हमारे निजी वृहत्तर परिवेश के एक खास प्रांतर में किसी न किसी रूप में स्थायी रूप से शामिल रहे हैं । कभी पिता के साहित्यिक मित्र के रूप में, तो कभी एक संपादक के रूप में जिनकी पत्रिका 'सामयिक' में करीब 45 साल पहले हमारी लिखी पहली समीक्षा प्रकाशित हुई थी, तो कभी साहित्य-आंदोलन और राजनीति के सह-कर्मी के रूप में, तो लंबे अर्से से सामूहिक साहित्य-विमर्शों में एक सहभागी के रूप में ।

विमल जी ने विभिन्न साहित्यिक विषयों पर काफी लिखा है, अपनी पत्रिकाओं के अलावा देश भर की अनेक पत्रिकाओं में । लेकिन आज जब वे पचासी साल से भी ऊपर के हो रहे हैं, तब उनके लेखों का यह पहला संकलन आया है, उनके दिल्ली-स्थित मित्र आनंद प्रकाश के द्वारा चयनित लेखों का संकलन, जिसमें आनंद प्रकाश ने एक भूमिका भी लिखी है ।

आनंद प्रकाश ने इस संकलन के लेखों के आधार पर ही इसे 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' शीर्षक दिया है । अस्तित्ववादी दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर की सबसे प्रमुख किताब है — प्राणी सत्ता और काल (Being and Time) । इसका एक प्रमुख अध्याय है — Dasein and Temporality जिसे मैं हिंदी में 'भासमान अस्तित्व और सामयिकता' कहना चाहूंगा । Dasein अर्थात भासमान अस्तित्व, प्राणी की प्रत्यक्ष सत्ता — हाइडेगर के पूरे चिंतन में यह एक केंद्रीय महत्व का पद है । वह जीव की प्राणी सत्ता पर विचार के क्रम को कभी भी उसके प्रत्यक्ष रूप से अलग करके नहीं देखता । इसी प्रकार, उनके यहां काल के साथ सामयिकता का, time के साथ temporality का संबंध भी आता है । अस्तित्व के साथ जुड़ी भासमानता और सामयिकता की ये वे अनिवार्य श्रेणियां हैं, जो हाइडेगर की दार्शनिक तत्वमीमांसा में मनन की प्रक्रिया के बीच से क्रमशः लुप्त होती जाती है । हाइडेगर का दर्शनशास्त्र प्रत्यक्ष और सामयिकता के इसी लोप की परिघटना का दिग्दर्शन कराता है । हर प्राणी सत्ता का यह जो लुप्त होता हुआ सत्य है, उसीमें हाइडेगर उसकी तात्विक सत्ता को पाने की संभावना (potentiality for being) और उसकी मृत्यु  दोनों को निहित देखता है ।

कहना न होगा, विमल जी के इस संकलन के शीर्षक 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' को देख कर ही हमारे मन में कुछ ऐसी ही प्राणीसत्ताओं के भासमान अस्तित्व की सामयिकता के लोप की प्रक्रिया का एक चित्र सा उभरने लगता है । भासमानता की सत्तात्मक संभावनाओँ के बजाय उसके अंत की तरह का दृश्य ।

जैसा कि हमने पहले ही कहा है, विमल वर्मा खुद हिंदी के उन आलोचकों, संपादकों में रहे हैं, साहित्य जगत में सालों तक जिनकी एक भासमानता रही है । पिछली सदी का साठ और सत्तर का उत्तेजनापूर्ण साहित्यिक माहौल और उसमें 'सामयिक', 'सामयिक परिदृश्य', 'धूमकेतु' आदि पत्रिकाओं की एक दीर्घ श्रृंखला का संपादन, अनेक विषयों पर आलोचनात्मक और समीक्षामूलक लेखन से अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति का लगातार भान देने वाले विमल जी शायद हिंदी के उन आलोचकों में से एक रहे हैं, जिन्हें अब तक भी सबसे कम जाना-समझा गया है । यह वही being and time के संदर्भ में dasein and temporality का, संभावनापूर्णता और असंभवता की तरह का ही मसला है । जो प्रत्यक्ष, या सामने हैं, लेकिन क्या है और क्या नहीं है, इसकी किसी तात्विकता की पहचान के न बन पाने, एक अस्तित्व का अपनी परिणति को हासिल न कर पाने का मसला है । हो कर भी न हो पाने की यही विडंबना शायद इस तथ्य से भी जाहिर हो रही है कि साठ साल तक साहित्य के जगत में रहने के बाद किसी तरह से 24 लेखों का उनका यह संकलन प्रकाशित हुआ है — उनकी दृष्टि में 'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' को रूपायित करने की एक संगतिपूर्ण कोशिश ।

इस संकलन के लेखों में विमल जी ने इसराइल, नीलकांत, विजयकांत, अनय, छेदीलाल गुप्त, नीरज सिंह, अवधनारायण सिंह, कामतानाथ, अस्मिता सिंह, मार्कण्डेय सिंह, सिद्धेश, शरण बंधु, सुरेश कांटक, रमेश उपाध्याय, क्षमा शर्मा, अरुण प्रकाश की अपनी चुनी हुई कहानियों को विचार का विषय बनाया है । और इन कहानियों के विश्लेषण में उन्होंने विश्व की जिन महान हस्तियों के उद्धरणों और नामों का जम कर प्रयोग किया है उनमें मार्क्स, चार्ल्स मौरिस, नीत्शे, आक्टोवियो पॉज, दोस्तोवस्की, काफ्का, रिचर्ड हागर्ट, ब्रेख्त, सिन्दिया ओजेक, हाउत्जर, लेवी स्त्रास, टेरी ईगलटन, रोय्बग्रिये, हेमिंग्वे, हर्बर्ट रीड आदि आदि के अलावा हिंदी के भी मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, कमलेश्वर, लक्ष्मीनारायण लाल, शिवप्रसाद सिंह, सुरेन्द्र चौधरी, कर्ण सिंह चौहान, जगदीश्वर चतुर्वेदी आदि शामिल हैं ।

इन सभी लेखों की अपनी एक खास संरचना है । और शायद उसी की पहचान करना हमारी इस समीक्षा का एक मूलभूत उद्देश्य है ताकि विमल वर्मा के बारे में हमारी जो अवधारणा है कि वे उन तमाम लोगों में शामिल है जिन्हें उनकी लगातार प्रत्यक्ष मौजूदगी के बावजूद सबसे कम जाना-समझा गया है, उसके मूल तक जा सके । अर्थात लोग नाम से जरूर परिचित है, काम से नहीं ।

विमल वर्मा के इन सभी लेखों को पढ़ कर भी आपको इनमें विवेचित रचनाओं के रचनाकार की कोई समझ नहीं मिलेगी । कहानियों के काफी उद्धरण मिलेंगे और मिलेगी उन सभी उद्धरणों पर लगभग लदी हुई सी अन्य अनेक प्रसिद्ध लेखकों की भारी-भरकम उद्धृतियां । पाठक कहानियों के चरित्रों या उनके भीतर से व्यक्त यथार्थ के प्रवाह को पकड़े या उद्धृत विद्वानों के लगभग पहेलीनुमा कथन की गुत्थियों को सुलझाये ! पाठक को इस प्रकार की एक अजीब सी उहा-पोह में स्थिति में छोड़ कर  टिप्पणी शेष हो जाती है । अंत तक भी जिस लुप्तमान अस्मिता को प्रकाश में लाने की कोशिश के तहत टिप्पणी लिखी गई, वह लुप्त ही रह जाती है, शायद ज्ञान की चकाचौंध करने वाली रोशनी से पैदा हुई अंधता में लुप्त !

विचार या लेखन की इस खास शैली या संरचना को और गहराई से समझने के लिये हम यहां फिर एक बार हाइडेगर की ही एक और महत्वपूर्ण पदावली का प्रयोग करेंगे । वह है — Being-just-present-at-hand-and-no-more । प्राणीसत्ता उतनी ही जो बस आपके हाथ में हैं । आपके हाथ में का उतनी भर जो आपकी मुट्ठी में समा सके । यह एक प्राणीसत्ता की भासमानता भी नहीं है । हाइडेगर लिखते है कि यहां तक की एक लाश का ठोस अस्तित्व भी शरीर रचना विज्ञान के छात्र के लिये संभावनापूर्ण सत्ता के रूप में रहता है जिसके जरिये वह जीवन के कई पहलुओं को समझ सकता है । इसीलिये उसका अस्तित्व जो हाथ में है, उतना भर नहीं होता । वह एक बेजान चीज है जिसमें प्राणों का स्पंदन नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ संभावनाएं लिये हुए है । उससे भासमान अस्तित्व से जुड़ी परिघटनामूलक खोजों की संभावनाएं खत्म नहीं होती है । लेकिन जब आप किसी भी मृत या जीवित ठोस अस्तित्व को ही किसी जादू से लुप्त कर दे, उसकी भासमानता ही न बची रहे, बस उतना भर बचा रह जाए जो आपकी मुट्ठी में है, तो जाहिर है कि आपने जिसे लुप्तमान समझ कर उसकी अस्मिता को सामने लाने का बीड़ा उठाया है, इस उपक्रम में आप उसकी लुप्तमान या प्रकाशित या मृत हर प्रकार की संभावनापूर्ण अस्मिता, बल्कि अस्तित्व का ही लोप कर देते हैं । जब समीक्षक के वैचारिक सूत्र ही आलोचना का मूल विषय हो जाए तो रचना का सच तो आलोचना से गायब हो ही जायेगा ! सोचने पर लगता है कि क्यों न हमें विवेचित रचना का पाठ ही बिना किसी की मध्यस्थता के मिल जाता ! हम उसके प्रत्यक्ष को, और उसकी संभावनाओं को भी शायद अधिक अच्छी तरह से देख पाते !

विमल वर्मा के इन सारे लेखों को देख कर हमें कुछ ऐसा ही लगा और इससे यह भी पता चला कि कैसे अक्सर कई आलोचक-विचारक अपने चारों ओर एक प्रकार की विद्वता का धुंधलका तैयार करके अपनी अस्मिता की हर संभावना तक के लोप का कारण बना करते हैं । आनंद प्रकाश ने इस संकलन की अपनी छोटी सी भूमिका में मूलतः साहित्य और आलोचना के बारे में अपनी कुछ सामान्य प्रकार की बातों को ही रखा है और थोड़े में ही सही, विमल जी से अपने परिचय के नाते उनके इन लेखों को एक ऐतिहासिकता प्रदान करने की कोशिश की है, कि जो भी है, वह कुछ ठोस रूप ले सके । सचमुच शब्द-ब्रह्म की यह अनोखी माया है जिसने अनेकों को जिंदगी भर के लिये बावला बना रखा है !

('लुप्त होते लोगों की अस्मिता' ; लेखक – विमल वर्मा ; लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य : 495 रुपये ; पृष्ठ संख्या : 200) 

   

राजनीति का सत्य राजनीतिक दलों की दुनिया के बाहर जनता में स्थित होता है : संदर्भ दिल्ली


-अरुण माहेश्वरी


अभी से लेकर 2019 के चुनाव की घोषणा के वक्त तक भारत की राजनीति का यह चुनाव पूर्व छोटा सा काल प्रत्यक्ष के चरम विभ्रम का काल बना रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है । राजनीति के असली खिलाड़ी अभी पर्दे की ओट में रहेंगे और गहरे जाकर खोजने की दृष्टिहीन नजरों को अभी मैदान में सिर्फ सीबीआई और ईडी दिखाई देंगे । सबसे मजे की बात यह है कि गुह्यता-प्रेमी सभी स्तर के संघी तत्वों की इन ‘भीतर-घात’ करने वाली राजनीति की अदृश्य ताकतों की गतिविधियों से बांछे खिली रहेगी । और तो और, इन राज्य खुफिया एजेंसियों के गोपनीय ऑपरेशनों की पूरी जानकारी परपीड़क मोदी-शाह को भी खुशियों से आप्लूत रखेगी । चैनलों में बैठे उनके सारे गदहें भी खुशी के मारे ढेंचू-ढेंचू कर विपक्षी एकता में बिखराव का शोर मचाते रहेंगे । कुल मिला कर, राजनीति का असली सत्य अभी कुछ दिनों के लिये सात पर्दों के पीछे इस कदर छिपा रहेगा जिसे पकड़ना सिर्फ उसी के लिये मुमकिन होगा जो आदमी के अपने कर्त्तृत्व पर न्यूनतम यकीन रखता है, परिस्थितियों के संयोग पर नजर और विश्वास रखता है ।

राजनीति की दुनिया का सबसे बड़ा सच यह है कि इसमें जो घटित होता है, उसका सत्य इस जगत के खिलाड़ियों के अपने सत्य के बाहर स्थित होता है । वह है जनता का सत्य । जब जनता मन बना लेती है तो पार्टियों के सारे गणित धरे के धरे रह जाते हैं । पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी की कैराना सीट पर भाजपा को पचास प्रतिशत से ज्यादा मत मिले थे । अर्थात, सिर्फ विपक्षी एकता के बल पर भाजपा का हारना असंभव था । लेकिन उसी कैराना में हाल के उपचुनाव में भाजपा चारों खाने चित्त पड़ी थी । एड़ी-चोटी का दम लगा कर भी किसी जगह मोदी अपने मतों में लगातार गिरावट को रोक नहीं पा रहे हैं । और यह अकेला, जनता के रुख का सत्य ही हर राजनीतिक पार्टी के अपने रुख को भी तय करने में निर्णायक भूमिका अदा करेगा । ऐसे में विपक्ष की वही पार्टी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मोदी के लिये मददगार होगी, जिसने नीतीश कुमार की तरह आत्म-हत्या करने का निर्णय न ले लिया हो ।

इस परिस्थिति में, दिल्ली में राजनीति के समीकरणों के विषय को राजनीतिक जगत की अपनी चंद जटिलताओं की जांच के एक विषय के रूप में लिया जा सकता है ।



सब जानते हैं दिल्ली में शीला दीक्षित के लगातार पंद्रह साल के रेकर्ड शासन के बाद 2012 में बनी आम आदमी पार्टी (आप) 2013 के चुनाव में दूसरे नंबर की अल्पमत की पार्टी होने पर भी कांग्रेस के समर्थन से ही सत्ता पर आ गई थी । उस सरकार ने सिर्फ 49 दिन के बाद ही यह कह कर इस्तीफा दे दिया कि कांग्रेस दल उसके जन लोकपाल विधेयक का समर्थन नहीं कर रही है। उस समय केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी । तब भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के रूप में ‘आप’ में भारत की राजनीति की एक नई अखिल भारतीय परिघटना दिखाई दी थी । इसने राजनीतिक संगठन और तीव्र क्रियाशीलता के कई आधुनिक और पारदर्शी तौर-तरीके पेश किये थे जिनका प्रभाव अन्य पारंपरिक राजनीतिक दलों की प्रचार शैली पर भी पड़ा । 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने अपने तूफानी अभियान में इन सभी औजारों का जम कर प्रयोग किया और परिणाम यह हुआ कि नवजात ‘आप’ महज एक नये तकनीकी प्रयोग के बजाय एक नयी राजनीति के प्रवर्त्तन के साथ सामने आती, मोदी की भाजपा के तूफान ने सब कुछ को धो डाला । 2014 में मोदी सब जगह भारी मतों से जीते । लेकिन मजे की बात रही कि साल भर बाद ही 2015 के दिल्ली विधान सभा के चुनाव के वक्त तक ‘आप’ की ‘भ्रष्टाचार-विरोधी’ राजनीति की चमक म्लान नहीं हुई थी, जबकि मोदी के सत्ता पर आने के लाथ ही भाजपा अपनी पुरानी सारी संघी मलिनताओं और अहंकार से भरी वैचारिक दरिद्रताओं का परिचय देने लगी थी । दिल्ली के लोगों के पास ‘आप’ का अभी भी तरोताजा विकल्प मौजूद था । 2015 में ‘आप’ की ऐसी अभूतपूर्व जीत हुई कि विधान सभा की 70 में से 67 सीटें अकेले उसके पास चली गई ।

मोदी की जीत के महज साल भर बाद ‘आप’ की इस जीत ने देश भर में ‘आप’ के प्रति एक बार के लिये नये आकर्षण को पैदा किया । उसके नेतृत्व के योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण की तरह के लोग राजनीति के कुछ नये मुहावरों को गढ़ते हुए दिखाई दे रहे थे, लेकिन दिल्ली की इस मदहोश कर देने वाली सत्ता ने ‘आप’ के खुद के सारे संतुलन को डगमगा दिया । ‘आप’ की राजनीति, जो वस्तुत: पहले से ही थी ही नहीं, उसी तरह काफूर हो गई जैसे अन्ना हजारे के गांधी बन कर घूमने का स्वांग कोरा मजाक बन गया । ‘आप’ में बची रह गई कोरी दिल्ली की सत्ता और उसके चुने हुए नेताओं में उस सत्ता के भोग की उद्दाम आकांक्षा । योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की तरह के लोग जो एक ‘नयी राजनीति’ के भ्रम को पाले हुए थे, अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी को उन्हें उनकी जमीन पर उतारने में समय नहीं लगा । आम आदमी पार्टी दिल्ली की एक सत्ताधारी पार्टी बन कर रह गई जिस पर मोहल्लों तक सीमित एनजीओ छाप राजनीति की समझ रखने वाले केजरीवाल ने अपना पंजा गाड़ दिया ।

बहरहाल, ‘आप’ के उदय और उसके वर्तमान स्वरूप की इस कहानी का वर्तमान राजनीतिक संदर्भ सिर्फ इतना है कि ‘आप’ की आज अपनी कोई स्वतंत्र राजनीतिक विचारधारात्मक स्थिति नहीं बची है । चूंकि वह दिल्ली में सत्ता पर है जहां वह भाजपा को चुनौती दे रही है, इसीलिये भाजपा-विरोधी किसी भी मंच पर उसका एक स्थान हो जाता है । लेकिन इतना ही बड़ा सच यह भी है कि दिल्ली के शासन पर कांग्रेस का दावा भाजपा की तुलना में भी बहुत ज्यादा है । ‘आप’ कांग्रेस को पराजित करके ही दिल्ली में सत्ता पर आई थी । इसीलिये वह सिर्फ भाजपा-विरोध का नहीं, कांग्रेस-विरोध का भी प्रतिनिधित्व करती है, जिसे चालू राजनीतिक पदावली में तीसरा मोर्चा कहा जाता है । इसीलिये कांग्रेस का उसके प्रति वही रुख नहीं हो सकता है जो तेलुगु देशम, तृणमूल, जेडीयू आदि का होगा ।

यहां हम फिर से इस टिप्पणी के प्रारंभिक बिंदु पर लौटना चाहेंगे कि मोदी को पराजित करने के लिये पूरे विपक्ष की एकजुटता के भारी महत्व के बावजूद, सब कुछ सिर्फ राजनीतिक दलों की एकता पर निर्भर नहीं करेगा । जो राजनीतिक प्रक्रिया चार साल के मोदी शासन के तीखे अनुभवों के बाद जनता के बीच शुरू हो चुकी है, उसके परिणाम सिर्फ राजनीतिक दलों के आपसी समझौतों पर अब निर्भर नहीं रहेंगे । दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस का दावा किसी भी दूसरे दल से ज्यादा है और भाजपा-विरोधी अखिल भारतीय राजनीतिक मुहिम का नेतृत्व भी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों के बाद कांग्रेस के अलावा किसी और दल के हाथ में रहने वाला नहीं है । इसी बीच सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक और सर्वेक्षक भी राहुल गांधी के प्रति आम मतदाता में बढ़ते हुए समर्थन और मोदी की तेजी से गिरती छवि को साफ देख रहे है ।


ऐसे समय में, दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस दल के पूरे समर्थन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । जिन दलों का दिल्ली की राजनीति में कोई दावा नहीं हैं, वे आज अरविंद केजरीवाल के एल जी के खिलाफ उठाये गये वाजिब सवालों का समर्थन कर सकते हैं और अपनी शक्ति भर उनके साथ खड़े भी दिखाई दे सकते हैं । लेकिन कांग्रेस दल इस बात को जानता है कि दिल्ली की राजनीति अभी इस प्रकार के सैद्धांतिक सवालों से तय नहीं होने वाली है । जैसे हिंदू-मुस्लिम बातों से ही अब भारत की राजनीति तय नहीं होगी । यह तय होगी दिल्ली निवासियों के जीवन की वास्तविक समस्याओं से । तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद, ‘आप’ सरकार यदि सीलिंग, प्रदूषण, पानी, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तथा परिवहन की तरह के विषयों पर दिल्ली वासियों को आश्वस्त कर पाती है तो अभी भी भाजपा-विरोधी नये तूफानी दौर में ‘आप’ को जनता का समर्थन मिल सकता है, अन्यथा महज नौकरशाही के असहयोग और एल जी के दुरुपयोग की तरह के सवालों पर उन्हें ज्यादा लाभ नहीं होगा । इस मामले में भाजपा-विरोधी हवा का भरपूर लाभ उठाने के लिये दिल्ली में कांग्रेस दल अपने पुराने लंबे शासन की बदौलत ही उससे कहीं ज्यादा सक्षम है ।

यही वजह है कि मोदी-विरोधी विपक्ष के संयुक्त मोर्चा की रणनीति में सभी मोदी-विरोधी दल उस लड़ाई में अपने राजनीतिक मत के जरिये योगदान करेंगे, लेकिन इसका वास्तविक लाभ स्थानीय स्तर पर किसे मिलेगा, किसे नहीं, इसे अभी से कोई सुनिश्चित नहीं कर सकता है । इतना जरूर तय है कि इस मोदी-विरोधी नये जन -उभार में जो भी अपने राजनीतिक दृष्टिकोण के लिहाज से इसके बाहर रहेगा, या इसमें दरार डालने वाले खलनायक की तरह नजर आयेगा, उसे निश्चित तौर पर इसका खामियाजा चुकाना पड़ेगा । राजनीति के नये समीकरण राजनीतिक जगत के बाहर का जनता का सत्य तय करते हैं, सिर्फ राजनीतिक दल नहीं ।

शनिवार, 16 जून 2018

पार्टी के सिपाही बाबू

(आज 'फादर्स डे' पर जगदीश्वर चतुर्वेदी के आह्वान पर पिता की मृत्यु (3 जुलाई 2011) के बाद उनकी श्रद्धांजलि सभा में पढ़ा गया अपना एक संस्मरण लगा रहा हूं :)
— अरुण माहेश्वरी

बात सन् 62 की है। लोकसभा के लिये आम चुनावों के साथ ही पश्चिम बंगाल की विधान सभा के चुनाव थे। कोलकाता उत्तर-पश्चिम सीट से कांग्रेस के अशोक सेन के खिलाफ सीपीआई के स्नेहांशुकांत आचार्य तथा बड़ाबाजार विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दक्काक उम्मीदवार ईश्वरदास जालान के खिलाफ सीपीआई के किशन लाल माखरिया मैदान में उतारे गये थे। तब मेरी उम्र बमुश्किल 11 वर्ष थी। हम बड़ाबाजार क्षेत्र में ही पाटनी हाउस में रहते थे। पांच मंजिलों का दो चौक वाला विशाल मकान था। शाम का वक्त था। हमेशा की तरह हम मकान की छत पर खेल रहे थे कि अचानक नीचे सड़क पर लाल झंडों का एक चुनावी जुलूस निकला। मेरे एक मित्र ने चिल्ला कर कहा, अरे, लल्लू के बाबू जुलूस में जा रहे है। झांक कर जब नीचे देखा तो पाया कि हां, तेजी से गुजरते उस जुलूस में कुहनी तक लपेटी हुई पूरी बाह की सफेद कमीज और काली पैंट पहने हाथ के अखबार को लहराते हुए मेरे पिता जुलूस के बिल्कुल आगे अपनी बुलंद आवाज में जोर-जोर से नारे देते हुए जा रहे थे। और, तभी पता चला कि मेरे पिता कम्युनिस्ट है।

सन् ‘62 का जमाना। वैसे ही हवा में कम्युनिस्टों के प्रति नफरत का धुआं फैला हुआ था। ऊपर से बड़ाबाजार की एक बड़ी बाड़ी का खास माहौल, जहां कम्युनिस्ट होना तो दूर की बात, किसी भी राजनीतिक जुलूस में शामिल होना तक अनुचित माना जाता था। ऐसे में बाबू को कम्युनिस्टों की कतार में देख कर हमारे जैसे बच्चे अचंभित और शर्मसार होने के अलावा और कुछ महसूस नहीं कर सकते थे। तभी से मन के गहरे कोने में जुलूस में शामिल अखबार लहराते बाबू का दृश्य हमेशा के लिये अंकित होकर रह गया।

आज भी बाबू के व्यक्तित्व पर सोचते वक्त उनकी वहीं छवि सबसे पहले मस्तिष्क में उबर कर आती है। उसके बाद तो एक लंबे अर्से तक पूरी तरह मूक रह कर घर में बाबू की गतिविधियों, उनकी मित्र मंडलियों, साहित्यिक गोष्ठियों और राजनीतिक बहस-मुबाहिसों को तकता रहा, और पता नहीं कब खुद माक्र्स, एंगेल्स, माओ से लेकर राहुल, मुक्तिबोध की किताबों को टटोलने लगा कि अभी उच्च माध्यमिक परीक्षा भी पास नहीं किया था, लेकिन माओ का गोरिल्ला युद्ध मेरी दिमागी चर्चा का हिस्सा बन गया था। जाहिर है कि एक समय में सड़क के जिस औचक दृश्य ने बड़ाबाजार की बाड़ियों के साधारण परिवेश में अचकचा दिया था, वही दृश्य घर के परिवेश से अभिन्न होकर आगे हमारे संस्कारों में रचने-बसने लगा।

हम नहीं जानते थे कि बाबू ने क्या पढ़ाई की थी, लेकिन इतना जरूर जानते थे कि वे मकान के अन्य लोगों की तुलना में कुछ अलग, परिष्कृत और प्रांजल हिंदी बोला करते थे। उनके मित्र भी कुछ वैसे ही थे। सबसे करीबी थे शंकर माहेश्वरी। दुबले-पतले, नाजुक मिजाज आपाद-मस्तक कवि, प्रसादजी के परम भक्त और छायावाद के उपासक। झूम-झूम कर सुरीले गले से अपने गीत गाया करते थे। निराला जी किस ओज के साथ काव्यपाठ किया करते थे, ‘कामायनी’ के एक-एक सर्ग से कैसे गहरे दार्शनिक संकेत मिलते हैं, ‘कामायनी’ के बारे में मुक्तिबोध की शंकाओं में कितना दम है और दिनकर की ‘उवर्शी’ पर तब चली बहस की गूंज-अनुगूंज बाबू की मित्र मंडली की गोष्ठी में तभी सुनने को मिली थी। लगभग हर रविवार को वे हमारे यहां जुटा करते थे। इसी मित्र-मंडली के एक अंशीदार थे जमनालाल दम्माणी, आनंदबाजार पत्रिका के परम भक्त और एक कट्टर नास्तिक। बाबू की भारी और बुलंद आवाज भी बहस-मुबाहिसे में जमनालाल जी की आवाज को नहीं दबा सकती थी। दास वृत्ति उन्हें कत्तई स्वीकार्य नहीं थी, इसीलिये सचेत रूप में उन्होंने अपना नाम जमनादास नहीं, जमना लाल किया था। एक और, कुछ अपनी ही पीनक में रहने वाले कवि मित्र थे एस नारायण। इनके अतिरिक्त यदा-कदा उपस्थित होने वाले हिंदी के एक प्रोफेसर प्रकाश शंकर चतुर्वेदी थे। इनके अलावा कुछ रईस तबियत के दिखने वाले, हमेशा पान से होठों को लाल किये मृदु भाषी आशाराम जी, और जब कलकत्ते में होते तो हरीशजी भी इन गोष्ठियों में रहा करते थे। बाबू, शंकर माहेश्वरी, जमनालाल दम्माणी, एस नारायण और आशारामजी डागा - ये सभी छोटे-मोटे व्यवसाय से जुड़े हुए लोग थे, लेकिन हमने अपने घर में इन्हें कभी व्यवसाय की बातें करते नहीं देखा था। इन मित्रों ने आपस में मिल कर भी कभी कोई व्यवसाय नहीं किया। साथ मिल कर यदि कोई काम किया तो वह ‘जुही कुंज’ के नाम से एक प्रकाशन संस्थान खोला जो शंकर माहेश्वरी के कविता संकलन ‘कणिका’, प्रकाश शंकर चतुर्वेदी के उपन्यास ‘उड़ते पत्ते’ और हरीश भादानी की कविताओं के संकलन ‘सपन की गली’ के प्रकाशन के बाद ही बंद होगया। एस नारायण जी के कविता संकलन ‘कटाक्ष की उड़न किश्त’ के प्रकाशन का ऐलान जरूर किया गया था, लेकिन शायद वह कभी प्रकाशित नहीं होसका। बाबू की इस मित्र-मंडली के साथ ही एक और नाम को जोड़ना चाहूंगा - देवकिशन बिन्नानी का। एक प्रसिद्ध प्रैस के मालिक देवकिशन जी ही बाबू की मित्र-मंडली में तब सबसे सफल व्यवसायी हुआ करते थे। ये ही वे लोग थे जिन्हें हमने बाबू के सबसे प्रारंभिक मित्रों के रूप में देखा था।

हमारे देखते ही देखते, बाबू अपने इन मित्रों की तुलना में राजनीति की ओर तेजी से प्रवृत्त होगये और बाबू के साथ जिन चंद नये चेहरों को देखा जाने लगा उनमें थे धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा, रामलाल दूगड़। ये सभी कम्युनिस्ट थे। मृदुभाषी धनराज दफ्तरी, विदेशी किताबों के व्यवसायी, पढ़े-लिखे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। पन्नालाल नाहटा भी छोटे व्यवसायी ही थे लेकिन असाधारण वक्ता और कवि थे। इनमें रामलाल दूगड़ लंबे-चौड़े डीलडौल वाले अलमस्त, थोड़े अक्खड़, बड़ाबाजार की एक प्रसिद्ध कोठी, पारख कोठी के मैनेजर थे। इन तीनों कामरेडों के साथ ही जुड़ा हुआ एक और नाम था अतुल दत्ता, किसी समय कोलकाता के थोक व्यापार के केंद्र बागड़ी मार्केट में अंग्रेजी दवाओं की एक थोक दुकान के मालिक, लेकिन तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ाबाजार लोकल कमेटी के पूरावक्ती सचिव। यह सन् 64-65 का जमाना रहा होगा। थोड़े अर्से पहले ही बनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ रहा था। ‘चीन के दलाल’ का लेबल अभी उतरा ही नहीं था कि ‘65 में उसे पाकिस्तान का दलाल भी घोषित कर दिया गया। देश में तब आपातकाल चल रहा था और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सभी नेताओं की धर-पकड़ की जा रही थी। एक समय ऐसा आया जब पार्टी की प्रांतीय कमेटी का पूरा नेतृत्व ही जेल की सींखचों के पीछे था। उस समय पार्टी के नेतृत्व में चलाया जा रहा खाद्य आंदोलन अपने शिखर पर था। तभी पार्टी के प्रांतीय नेतृत्व की दूसरी पंक्ति के पियूष दाशगुप्ता और गणेश घोष सरीखे नेताओं ने एक वैकल्पिक प्रांतीय कमेटी का गठन करके आंदोलन की कमान संभाली और उन तूफानी दिनों में पाटनी हाउस का हमारा घर ही इन नेताओं की गोपनीय गतिविधियों का एक प्रमुख आ हुआ करता था। उसी ऐतिहासिक खाद्य आंदोलन की पृष्ठभूमि में सन् 67 का चुनाव हुआ और पहली बार कांग्रेस की पराजय तथा संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन के साथ ही कृषि और औद्योगिक, दोनों क्षेत्रों में जन-आंदोलनों का एक बिल्कुल नया ज्वार दिखाई दिया। लगभग इसी समय से राजनीति हमारी नसों में भी पूरी तरह बसने लगी थी। हम खुद स्वयंसेवकों के उन जत्थों में शामिल थे, जिनके बारे में नारा दिया गया था कि ‘आजकेर स्वेच्छासेवकई होबे कालकेर मुक्तिवाहिनी’। हमारी दुकान पर भी अब अक्सर अतुल दत्ता और बड़ाबाजार के सुकुमार सेन की तरह के नेता दिखाई देने लगे थे। बाबू के समूचे साहित्यिक, सांस्कृतिक सोच के केंद्र में राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया। बाबू डीक्लास तो कभी नहीं हो पाये, लेकिन विचारों और व्यवहार में उत्कट नास्तिकता के साथ ही ‘वर्गीय घृणा’ के लक्षणों के संकेत देने लगे। बाबू के नये साहित्यिक मित्रों में इसराइल, विमल वर्मा और श्री हर्ष शामिल होगये। हरीश जी तो सदा से थे ही। नामवर सिंह को भी तब हमने अपने घर में देखा था।

बाबू दुकान भी जाते थे और अन्य तमाम प्रकार की गतिविधियों में भी शामिल रहते थे। बिना कोई औपचारिक शिक्षा पाए एक कपड़े के व्यापारी के सांस्कृतिक रूपांतरण की यह प्रक्रिया आज भी हमारे लिये भारी कौतुहल का विषय है। उनकी गतिविधियों में नया संयोजन बांग्ला नाट्यमंडली ‘गंधर्व’ के साथ उनका जुड़ाव था। ‘गंधर्व’ ने एक पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके संपादक थे नृपेन साहा। बाद में वे ही ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के संस्थापक संपादक बने और आज तक बांग्ला नाट्य जगत के यशस्वी व्यक्तित्व हैं। किसी भी पत्रिका के प्रस्तुतीकरण, अर्थात मेकअप, गेटअप के मामले में सचमुच नृपेन साहा अतुलनीय हैं। ‘गंधर्व’ नाट्यमंडली के निदेशक थे देवकुमार भट्टाचार्य। उनके पहले श्यामल चटर्जी निदेशक हुआ करते थे, लेकिन हमने श्यामल बाबू को बहुत कम देखा था। रंगमंच पर अनूठी दखल रखने वाले तीक्ष्ण बुद्धि के देबू भट्टाचार्य द्वारा निदेशित कई नाटकों को हमने दक्षिण कोलकाता के ‘मुक्तांगन’ रंगमंच पर देखा था और तभी से ‘मुक्तांगन’ भी हमारी स्मृतियों में हमेशा के लिये बसा हुआ है। देबू भट्टाचार्य एक प्रतिभाशाली निदेशक थे, जिनकी कुछ प्रस्तुतियों ने शंभु मित्रा, उत्पल दत्त, अजितेश बंदोपाध्याय की तरह के बांग्ला रंगमंच के सबसे उज्जवल सितारों से भरे परिवेश में भी अपनी किंचित पहचान बनायी थी। लेकिन परवर्ती दिनों में वे कहां लुप्त होगये, पता नहीं चला। अत्यधिक राजनीति-केंद्रित हो चुके बांग्ला रंगमंच से उनके सूत्र नहीं जुड़ पायें।

सन् ‘71 के बाद बंगाल की राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। इसके पहले ही नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रख कर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और विभाजन हो चुका था और सीपीआई(एम-एल) का गठन हुआ। बाबू के राजनीतिक मित्रों. धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा और रामलाल दूगड़ पर भी नक्सलवादी आंदोलन का असर पड़ा और वे सीपीआई(एम) से अलग होकर चारू मजुमदार, कानू सान्याल की सीपीआई(एम-एल) से जुड़ गये। ‘71 के चुनाव में 280 सीटों की विधानसभा में 113 सीटों के साथ सीपीआई(एम) ही विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, फिर भी उसे सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया। पार्टी के खिलाफ लगातार खूनी षड़यंत्र किये जाने लगे, कार्यकर्ताओं की खुले आम हत्याएं की जाने लगी और राज्य में एक प्रकार से अर्द्ध-फासिस्ट आतंक का शासन कायम होगया। इसी माहौल में सन् 72 के चुनाव का प्रहसन हुआ जब बंदूक की नोक पर सरे आम चुनावों को लूट लिया गया था। पार्टी के 1100 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी, हजारों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। ऐसे समय में ही जोड़ाबगान के मंडल स्ट्रीट स्थित अपने घर से उजाड़ दिये गये हरेकृष्ण घोष महीनों पाटनी हाउस के हमारे घर पर रहे थे। जोड़ाबागान के उस क्षेत्र से लेकर उत्तर में बारानगर तक तब नक्सलवादियों का मुक्तांचल था। नक्सली तत्व अपने क्षेत्र के विस्तार के लिये काठगोला-जोड़ाबागान के इलाके पर अक्सर हमले किया करते थे। मंडल स्ट्रीट काठगोला के पास ही था।

सन् ‘72 से ‘77 के जमाने को पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के इतिहास का सबसे कठिन जमाना कहा जा सकता है। याद पड़ता है इसी दौर में वियतनाम युद्ध भी अपने शिखर पर था। वियतनाम युद्ध में मुक्ति सेना की एक के बाद एक जीतों से उस कठिन दौर में बंगाल के कम्युनिस्टों को भारी प्रेरणा मिलती थी। उन्हीं दिनों बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जोरदार आंदोलन शुरू हुआ, गुजरात में कांग्रेस पराजित हुई और जनता पार्टी के नाम से संयुक्त सरकार का गठन किया गया। जयप्रकाश का ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा पूरे देश के नौजवानों को इंदिरा गांधी की एकदलीय तानाशाही के खिलाफ उद्वेलित कर रहा था। तभी 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज कर दिया और इसकी प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी ने 25 जून  को आंतरिक आपातकाल की घोषणा करके भारत में संसदीय जनतंत्र का पूरी तरह से गला घोंट देने की कोशिश की।

कहना न होगा कि आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल और उसके खिलाफ भारत की जनता का वीरतापूर्ण संघर्ष तत्कालीन सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इसने वामपंथी राजनीति के भी समूचे दृश्यपट को बदल दिया था। जो सीपीआई(एम) कल तक सशस्त्र संघर्ष और वियतनाम युद्ध से प्रेरणा लेकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों पर अपने को केंद्रित कर रही थी, क्रांति के सीमाई और लगुआ क्षेत्रों की सिनाख्त की तरह के काम किये जा रहे थे, उसीने यकबयक सन् 72 से पश्चिम बंगाल में चले आरहे अर्द्ध-फासिस्ट आतंक और ‘75 के आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद भारत में संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई के असीम महत्व को गहराई से आत्मसात किया। गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी की नीतियों में आए इस भारी परिवर्तन का शायद प्रथम साक्षी हमारा घर ही बना था। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद ही सभी पार्टियों के नेताओं की व्यापक गिरफ्तारियां की जाने लगी थी। सीपीआई(एम) के भी ज्योतिर्मय बोस और ए. के. गोपालन को बंदी बना लिया गया था। बाकी के सभी नेता अंडरग्राउंड चले गये। ऐसे में देश के कोने-कोने से, कामरेड पी. सुंदरैय्या, ईएमएस, बीटीआर, पी राममूर्ति, एम वसवपुनैय्या, और हरकिशन सिंह सुरजीत छिप-छिप कर कोलकाता आए थे और सभी को हमारे पार्क स्ट्रीट स्थित घर में रखा गया था। पांच कमरों के उस फ्लैट के दो कमरों में ये सभी नेता रह रहे थे और ज्योति बसु तथा प्रमोद दाशगुप्त सिर्फ बैठक के समय कोलकाता के अपने गुप्त स्थान से आ जाया करते थे। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद पोलिट ब्यूरो की पहली बैठक हमारे घर  48एम, पार्क स्ट्रीट पर हुई, जिसमें कामरेड सुंदरैय्या ने पार्टी के महासचिव पद से इस्तीफा दिया था। इस बैठक के बाद काफी दिनों तक कामरेड रणदिवे हमारे घर पर ही रह गये। उनसे मिलने ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त अक्सर वहां आया करते थे। कामरेड रणदिवे का वह प्रेरणादायी सान्निध्य हमेशा हमारे जीवन का पाथेय बना रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है। उस महान प्रतिभाशाली नेता, अध्येता, चिंतक और विचारक की सीखों ने हमें अपने अंतर से कितना समृद्ध और उदात्त बनाया है, इसका हम शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते। कामरेड बीटीआर बाद में भी अपनी यात्राओं के पड़ाव के तौर पर कोलकाता आने पर अनेक बार हमारे साल्ट लेक स्थित घर पर भी रुकते रहे हैं।

मेरी शादी सन् 74 में उस वक्त हुई थी जब ऐतिहासिक रेल हड़ताल चल रही थी। सरला से मेरा संपर्क काफी पहले ही हो गया था। ‘74 आते-आते जब मैंने सरला से शादी करने का निर्णय लिया तो मेरा परिवार मेरे इस फैसले को स्वीकारने के लिये कत्तई तैयार नहीं था। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था। लेकिन अपने परिवार के प्रगतिशील परिवेश, और खास तौर पर बाबू के विद्रोही तेवर को देखते हुए मेरी शादी के प्रति परिवार का रुख मेरे लिये कुछ न समझ में आने वाला अप्रत्याशित रुख था। उसी समय बाबू से मेरे कुछ अजीबो-गरीब पत्राचार भी हुए। तथापि मोहब्बत के जुनून के सामने आज तक कौन टिक पाया है! शादी करके कोलकाता लौटने पर बाबू ने धीरे से कान में कहा, तुमने अच्छा किया। बाद में पार्क स्ट्रीट के घर पर एक अच्छी सी दावत हुई जिसमें ज्योति बाबू, प्रमोद दा आदि सबने हिस्सा लिया था।

जहां तक परिवार में बाबू की भूमिका का सवाल है, जब तक हम दोनों भाइयों ने वयस्क होकर काम-काज को नहीं सम्हाला था, बाबू ही एक पूर्ण जिम्मेदार व्यक्ति की तरह वस्तुत: हमारे परिवार की धुरी थे। वे जीविका के लिये जीवन भर व्यवसाय से जुड़े रहे, लेकिन एक जिद की तरह उन्होंने साहित्य और राजनीति के संस्कारों को अपनाने की जैसी कोशिश की उसे व्यवसाय और बनियागिरी के संस्कारों से एक प्रकार का संपूर्ण विद्रोह कहा जा सकता है। व्यवसाय नहीं छोड़ेंगे लेकिन व्यवसाय के संस्कार छोड़ेंगे। जिनसे दोस्ती होगी या मन मिलेगा, वे व्यवसाय के लोग नहीं होंगे, उसके बाहर के होंगे। ऐसे एक मुखिया के परिवार के भीतर की कशमकश और उससे मिलने वाले स्वाभाविक संस्कारों के बारे में कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता है। यह तमाम प्रकार के परंपरागत मूल्यों के संपूर्ण निषेघ का उत्कट विद्रोही संस्कार था।

पाब्लो नेरूदा की एक पंक्ति है : मैं अपनी जड़ों से टूट कर अलग हुआ/मेरा देश अपने आकार में बड़ा हुआ।
सामाजिक रूढि़यों और परंपराओं से मुक्त बाबू के विचरण के लिये भी पूरी दुनिया खुली थी। एक शिक्षित आधुनिक जीवन के प्रति उनमें गहरा आकर्षण था। उन्होंने अपनी सामर्थ्य भर एक लंबी छलांग लगायी, अपनी औपचारिक शिक्षा के अभाव को किताबों से विशेष लगाव पैदा करके अनौपचारिक शिक्षा के जरिये दूर करने की यथासंभव कोशिश की, बच्चों के लिये उच्च शिक्षा के रास्ते खोले और हमारे परिवार को भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का एक स्वाभाविक हिस्सा बना दिया। कुटुंब, परिवार, समाज और देश की सीमाओं से भी आगे, कम्युनिस्ट आंदोलन का वैश्विक विस्तार उनकी संभावनाओं का क्षेत्र हो सकता था। उन्होंने इसे सीपीआई(एम) के संगठन का एक निष्ठावान सिपाही बन कर चरितार्थ किया। पार्टी अखबारों के हर शब्द को किसी वेद वाक्य की तरह पवित्र माना और नेताओं के सभी निर्देशों को सेनापति का अनुलंघनीय आदेश। वे जीवन की आखिरी घड़ी तक जिस निष्ठा और लगन के साथ ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के प्रकाशन में लगे रहे और ‘स्वाधीनता’ सहित पार्टी के अन्य कामों को भी जिस आस्था के साथ करने की इच्छा रखते थे, वह सचमुच गौर करने लायक था।
 
बाबू के दिये साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश ने हममें लिखने-पढ़ने की दुनिया में और आगे छलांग लगाने का जो माद्दा उत्पन्न किया, उसके लिये हम हमेशा उनके प्रति श्रद्धावनत रहेंगे। उनका दृढ़, निष्ठावान राजनीतिक व्यक्तित्व हम सबके लिये हमेशा प्रेरणादायी बना रहेगा।

आज वे हमारे बीच नहीं रहे। उनका तना हुआ समझौताहीन व्यक्तित्व हमें यही संदेश देता है कि सचाई और न्याय के पथ पर अडिग रहो, हर प्रकार की रूढ़ि के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक विवेक बनाये रखो, प्रगतिशील और वैज्ञानिक मूल्यों, आधुनिक भाव-बोध को अपनाने के रास्ते की बाधाओं को निर्ममता से अस्वीकारों और जीवन को अपनी शर्तों पर जीओ। बाबू के दिखाए इसी रास्ते पर यथासंभव कायम रहने की प्रतिज्ञा के साथ हम उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। 


मंगलवार, 12 जून 2018

जो खुद समस्या है वे ही समाधान नहीं हो सकते हैं


-अरुण माहेश्वरी

आज के ‘टेलिग्राफ’ में एक खबर है - ‘शाह ने तीन राज्यों में चुनाव के लिये टोही गतिविधि शुरू कर दी’ (Shah starts poll recce of 3 states) ।

इस साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों के हवाले से इसमें कहा गया है कि इन राज्यों में जमा सरकार-विरोधी गुस्से का मुकाबला करने के लिये वे अपने कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करेंगे । मध्य प्रदेश पहुंच कर उन्होंने अपने जिन कार्यकर्ताओं के साथ खास बैठक की उनमें उनके सोशल मीडिया के स्वयंसेवक प्रमुख रूप से थे ।

इस रिपोर्ट में भाजपा के एक नेता की बात का हवाला है कि जिसमें वे कहते हैं कि “जब भी जनता हमारी सरकार से नाखुश होती है, पार्टी के कार्यकर्ता निरुत्साहित हो कर पीछे हट जाते हैं । बहुत सी जगहों पर हम इसलिये हारे क्योंकि हमारे समर्थक वोट देने के लिये नहीं उतरे । “

इस रिपोर्ट को पढ़ने से एकबारगी हमारे मन में यही सवाल पैदा हुआ कि पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं का जो तंत्र ही जनता में किसी भी पार्टी की स्थिति का मूल कारण होते हैं उसकी गिरती हुई साख का भी प्रमुख कारण हैं । पार्टी के अदूरदर्शी नेताओं को घेर कर रखने वाला यह कैसा दुष्चक्र है जो उसकी समस्या के कारणों को ही समस्याओं का समाधान मान कर इन कारणों को ही और ज्यादा हवा देने में लग जाते हैं, और इस प्रकार पार्टी के कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के नाम पर अपनी कब्र ही और तेजी से खोदने लगते है ?

जनता के बीच पार्टी और उसकी सरकार की छवि उसके कार्यकर्ताओं की ही छवि होती है, जिनमें खुद अमित शाह अपने मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों आदि को भी शामिल मानते रहे हैं । राज्य की नौकरशाही की कोई सूरत नहीं होती है क्योंकि उसकी कोई प्रकट राजनीतिक आकांक्षा नहीं होती है । इसीलिये भला-बुरा जो होता है, जनता आपकी पार्टी से नाराज होती है या खुश, वह सब जनता के बीच इन तमाम ‘कार्यकर्ताओं’ की ही करतूतों का परिणाम होता है । और इन सबके जरिये ही मूर्त होती है किसी भी पार्टी की नीतियां ।

अगर आपकी पार्टी की नीतियां सांप्रदायिक होगी, जनता को आपस में लड़ा कर मुट्ठी भर पूंजीपतियों के, कालाबाजारियों, माफियाओं और ठगों के हितों को साधने की जन-विरोधी नीतियां होगी, तो आपके नेताओं, कार्यकर्ताओं और उनके अधीन सरकार के तंत्र को अंतत: जनता में भारी असंतोष और आक्रोश पैदा करने से कोई नहीं रोक सकता । आपकी गलत नीतियां ही आपके कथित कार्यकर्ताओं के तंत्र को जनता के जीवन में रौरव नर्क पैदा करने के हथियारों का रूप देती है । और जब आप अपनी तमाम नीतियों की गहराई से समीक्षा करने के बजाय पार्टी के तंत्र के ऐसे हथियारों को ही और धारदार बनाने की बात कहते हैं, तो प्रकारांतर से आप उन कारणों को और घना करने पर ही बल दे रहे होते हैं, जो आपके पतन के मूल में हैं ।

अमित शाह ने मध्य प्रदेश में अपनी पार्टी के ‘सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं’ से खास तौर पर मुलाकात की । पिछले चार सालों में भाजपा के इन ‘सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं’ को लोग एक खास नाम, ट्रौल्स’ के रूप में पहचानते हैं - आन लाइन गुंडों के रूप में । यह जाहिल अनपढ़ों की एक फौज है जो अपने हर विरोधी को गंदी से गंदी, मां-बहन की गालियां देने में सिद्ध हस्त होती है । इनके विरोध का लक्ष्य यदि कोई स्त्री होती है तो ये सबके सब आम तौर पर उसकी योनी की चीर-फाड़ में लग जाते हैं ; उसके साथ संभोग से लेकर बलात्कार और हत्या तक की धमकियां देने लगते हैं । इन ट्रौल्स की बदौलत ही सभी भाजपा शासित प्रदेशों में बलात्कार की, नाबालिगों तक पर बलात्कार की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है । जम्मू में तो एक गरीब गरेड़िये की नाबालिग बेटी आसिफा पर बलात्कार करके उसकी हत्या को न्यायोचित बताने के लिये भाजपा के वकीलों ने बाकायदा प्रदर्शन किये । उत्तर प्रदेश का एक मंत्री भी कुछ इसी प्रकार पूरी दबंगई से स्त्री पर बलात्कार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान कर इस अपराध के लिये जेल की सलाखों में बंद है ।

यही अमित शाह की ट्रौल्स वाहिनी है जिसने मोदी के सत्ता में आने के पहले से ही आरएसएस की विचारधारा का अनुसरण करते हुए देश के मुसलमानों के खिलाफ जिस प्रकार से जहर उगलना शुरू किया था, इसके भयंकर सामाजिक दुष्परिणामों को हम सभी जानते हैं । गोमांस, गोरक्षा, लव जेहाद के नाम पर इसने समाज में एक असभ्य हत्यारों की भीड़ पैदा कर दी है, जिसके कारण देश में विकास तो सिर्फ बकवास की बातें बन कर रह गया और पूरा समाज देखते-देखते तमाम वैश्विक मानदंडों पर पिछड़ता चला गया। भारत आज दुनिया में हैप्पीनेस सूचकांक तक में पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे हैं ।

इस प्रकार, एक बात तो साफ है कि मोदी के शासन में आने के बाद से जो तमाम सामाजिक और नैतिक विकृतियां तेजी से बढ़ी है, उनके मूल में एक प्रमुख कारण मोदी-शाह-संघ के ये ऑन लाइन गुंडे हैं और अमित शाह आज भी आगामी चुनावों में अपनी डूब रही नांव को बचाने के लिये इन्हें ही सक्रिय करना चाहते हैं ! नोटबंदी करने वाला मोदी का तुगलकी दिमाग इन ट्रौल्स को ही अपना सबसे भरोसेमंद सिपाही मान कर इनके सरगनाओं से सीधे संपर्क में रहता है और उन्हें प्रधानमंत्री निवास पर भोज के लिये आमंत्रित भीकरता है ।

यह है पार्टी, कार्यकर्ता और जनता के बीच संबंधों की यांत्रिकता का दुश्चक्र । पार्टी अपने संदेश को ले जाने के लिये कार्यकर्ताओं के तंत्र को तैयार करती है, जनता के बीच कार्यकर्ता ही पार्टी का चेहरा होता है । लेकिन जब पार्टी की जनता के बीच साख गिरने लगती है, बुद्धिहीन नेतृत्व इन कार्यकर्ताओं की सक्रियता-निष्क्रियता को ही इसके लिये जिम्मेदार मानने लगता है । यह नहीं सोचता की कार्यकर्ता तो एक खाली कनस्तर भर होता है, उसमें चरित्र तो भरती है पार्टी की नीतियां और सत्ता के प्रति सर्वोच्च नेतृत्व की मनोदशा और उसकी राजनीतिक नैतिकता ।

जो पार्टी और नेतृत्व अपनी जन-विरोधी नीतियों और राजनीतिक -अनैतिकताओं के कारण आम लोगों में एक विकर्षण का भाव पैदा कर रहा है, वह सोचता है कि अपने ही प्रतिरूप कार्यकर्ताओं को उत्साहित करके जनता के मन को जीत लेगा - यह या एक भारी विभ्रम है या कोरी ठग-विद्या का मंत्र । अन्यथा, तर्क तो यही कहता है कि इस सत्ता के मद में चूर, अहंकारी, गुंडा और बलात्कारी कार्यकर्ता सेना को आप जितना ही अधिक उत्साहित और प्रेरित करेंगे, आने वाले चुनाव में आप उतने ही गहरे गर्त में गिरने के लिये अभिशप्त होंगे । भाजपा की समस्या का निदान उसके मोदी-शाह के विश्वस्त कार्यकर्ताओं को जगाने में नहीं, मोदी-शाह को नेतृत्व से हटाने में है और मोदी के प्रत्यक्ष संपर्क में रहने वाले तमाम तत्वों से मुक्ति में है ।

चूंकि 2014 ने भाजपा का पूर्ण कायांतर मोदी पार्टी में हो गया है, इसीलिये यह काम तब तक मुमकिन नहीं है जब तक भाजपा का अपना पूर्ण प्रत्यावर्त्तन, अर्थात उसका खोल-पलट नहीं होता है । इसीलिये यदि जनता में भारी असंतोष और रोष पैदा हो गया है तो मोदी-शाह-संघ के वर्तमान शासन के अंत को शायद ईश्वर भी नहीं टाल सकता, शाह खुद को और अपने आका मोदी को दिलासा देने के लिये शहर-शहर घूमने की कितनी भी कसरत क्यों न कर ले । इनसे वे जो भी सड़क बनायेंगे, मोदी के द्वारा अनैतिक तरीके से बागपत में लोकार्पित एक्सप्रेस वे की तरह ही, विपक्ष की आंधी-बारिस के एक झटके में ढह कर किसी भी वाहन के चलने लायक नहीं बचेगी । बनारस में ढह गये पुल के अपराधी ठेकेदार, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के बेटे की तरह ही, भाजपा के अपराधी कार्यकर्ता अपना दौरात्म्य जारी रखेंगे और चुनाव के वक्त जनता की आंखों में शूल की तरह चुभते रहेंगे ।

अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष पद से अपनी अवधि के पूरा होने पर विदा हो जायेंगे, मोदी हार कर किसी कोने में अकेले बैठे शाह से जज लोया की हत्या के मुकदमे के बारे में विचार करते रहेंगे, और तब इस बीच विकसित हुए विदेशी संपर्क इन सबको दूसरे प्रकार से सतायेंगे । संघ के नेता ‘स्थितप्रज्ञ’ मुद्रा ओढ़ कर कुछ बची हुई जगहों पर शाखाएं लगाते हुए अंदर ही अंदर कोई और साजिश रचने में अपना बुढ़ापा बितायेंगे । संघ की राजनीति के भविष्य की यह सूरत, पता नहीं क्यों, आज ही साफ दिखाई देने लगी है ।


https://www.telegraphindia.com/india/shah-starts-poll-recce-of-3-states-237452?ref=india-new-stry

शनिवार, 9 जून 2018

‘हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान’

(आज के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में प्रकाशित लेख)
—अरुण माहेश्वरी

'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' की पूरी परिकल्पना एक काल्पनिक और वैचारिक निर्मिति है । इसके मूल में है हिंदू फासीवाद की विचारधारा । इसका वस्तुनिष्ठ आधार सिर्फ इतना सा है कि भारत में हिंदू धर्म के मानने वालों का बहुमत है । अन्यथा आज के भारत की एक ठोस भौगोलिकता के बावजूद यहां के तमाम हिंदुओं की न आज और न कभी अतीत में एक भाषा, हिंदी रही है । इसके अलावा भारत के प्रत्येक प्रदेश के लोगों की अपनी एक खास सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक संरचना है, जिसमें समानता के तत्वों की मौजूदगी के बावजूद अगर कोई उसे हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों से पूरी तरह समान कहे तो वह सरासर गलत होगा । बल्कि ज्यादा सही यह होगा कि हर राज्य अपनी भिन्नता के कारण ही विशिष्ट है। इसी आधार पर संविधान में भारत को अनेक राष्ट्रीयताओं के एक संघ के रूप में ही वास्तव में परिकल्पित किया गया था।

महज विचार के लिये हम सिर्फ इतना कह सकते हैं कि 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' की इस वैचारिक निर्मिति में कई ऐसे संघटक तत्व है जो भारत की एक व्यापक अस्मिता के संघटक तत्वों में से लिये गये हैं । चूंकि भारत में हिंदुओं का वास है और हिंदी भाषी लोगों में भी अन्य प्रदेशों की तरह ही बहुसंख्या हिंदू धर्मानुयायियों की हैं, इसीलिये कोई सिर्फ इन तत्वों को लेकर एक अलग प्रकार के ‘हिंदुस्थान’ की कल्पना कर सकता है । जैसे भारत में मुसलमानों की भी काफी बड़ी संख्या थी और आज भी है और इनमें से काफी लोग उर्दू बोलते-समझते रहे हैं — इसी के आधार पर अंग्रेजों की मदद से मुस्लिम लीग ने भारत का बंटवारा करा दिया और पाकिस्तान बन गया । 1947 में जो पाकिस्तान बना उसकी राष्ट्रीय भाषा उर्दू होने पर भी उसके किसी भी सूबे की भाषा उर्दू नहीं थी । पाकिस्तान की वह निर्मिति कितनी कृत्रिम और काल्पनिक थी इसे सामने आते देर नहीं लगी । इसके गठन के बाद की चौथाई सदी के अंदर ही बांग्ला भाषी पूर्व पाकिस्तान टूट कर अलग हो गया । इसके अलावा, पश्चिमी पाकिस्तान में भी आज तक कोई ऐसी वास्तविक सांस्कृतिक संहति कायम नहीं हो पाई है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पाकिस्तान 'हिंदू, हिंदू, हिंदुस्थान' की तर्ज पर 'उर्दू, मुसलमान, पाकिस्तान' की किसी परिकल्पना को साकार या प्रमाणित कर रहा है। आज के पाकिस्तान में उर्दू महज एक प्रशासनिक भाषा की तरह काम कर रही है । इस तरह यह कुछ-कुछ भारत में अंग्रेजी की हैसियत को प्रतिबिंबित करती सी दिखाई देती है । पाकिस्तान के बड़े-बड़े उर्दू के शायरों ने कई बार अपने लेखन की आत्मा में भारत के वास की चर्चा की है ।

आज के भारत में हिंदी को भी पाकिस्तान में उर्दू की तरह की राष्ट्रीय एकता की संपर्क भाषा की तरह देखने की एक प्रवृत्ति के कारण उसे अन्य सभी गैर-हिंदीभाषी समाजों को शेष भारत से जोड़ने वाली एक बाहरी सार्वलौकिक सत्ता के रूप में देखा जाता रहा है । इसी के चलते भारत के संविधान में भी इसे राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने का संकल्प शामिल है ।

लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का यह संकल्प आज तक पूरा नहीं हो पाया है, और इसकी सबसे बुनियादी वजह यही है कि भारत पाकिस्तान नहीं है । भारत में दूसरी सभी जातीय भाषाओं को हिंदी के समान ही राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा दिये जाने की वजह से पिछले सत्तर सालों में राष्ट्रीय एकता के दूसरे सबसे प्रमुख सूत्र, साझा आर्थिक हित के सूत्र को अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिला और जीवन के ठोस धरातल पर, जिसे आप धर्म-निरपेक्ष धरातल भी कह सकते हैं, भारत की एकता और अखंडता बलवती होती चली गई । पिछली सदी में सत्तर के दशक तक अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देश यूरोप की तर्ज पर भारत के बल्कनाइजेशन की योजनाओं पर काम कर रहे थे । उस जमाने में असम से उठे 'धरती पुत्रों' के नारे के साथ जुड़े हुए सीआईए के 'आपरेशन ब्रह्मपुत्र' को भूला नहीं जा सकता है जो भारत को अनेक टुकड़ों में बांट देने की अमेरिकी रणनीति के अलावा और कुछ नहीं था । लेकिन जब से 1977 में सत्ता को केंद्रीभूत करने की कोशिश बुरी तरह से परास्त हुई, क्रमशः भारत की सब प्रादेशिक शक्तियों की राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय निर्माण की नीतियों के निर्धारण में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी देखी जाने लगी । प्रादेशिक शक्तियों की राष्ट्रीय भूमिका से भारत का संघीय ढांचा चरितार्थ हुआ है जिसने इस देश की एकता को आंतरिक तौर पर मजबूत किया है ।

किसी भी राष्ट्रीय राज्य की क्लासिकल परिभाषा में एक भाषा को उसका प्रमुख संघटक तत्व माने जाने के बावजूद, आज सबसे अधिक समझने की बात यह है कि दुनिया राष्ट्रीय राज्यों के निर्माण के स्तर पर नहीं रही है, वह उस समय को पार कर चुकी है । आज के विश्व में क्लासिकल अर्थ में राष्ट्रीय राज्य की परिकल्पना ही एक अवास्तविक परिकल्पना है । इस विश्व की विश्वात्मकता के तार सीधे तौर पर 'वसुधैव कुटुंबकम' के प्राचीन भारतीय उद्घोष से जुड़े हुए हैं जिसके विश्वभावैकभावात्म-स्वरूप में मानव स्वातंत्र्य का सूत्र ही मनुष्यता को जोड़ता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के विश्व विजय के हिटलरी अभियान की परम विफलता के बाद अब किसी भी प्रकार के उत्पीड़नकारी दबाव से किसी राष्ट्र की एकता का कोई सूत्र हासिल नहीं किया जा सकता है ।

आजादी के बाद जब हमारे देश में भाषाई राज्यों का गठन किया गया था उसमें भारतीय राष्ट्र के निर्माण के एक मूल तत्व के रूप में स्वातंत्र्य के भाव को अपनाया गया था और इसीलिये जनतांत्रिक व्यवस्था की संगति में ही भारत की संघीय राज्य के रूप में परिकल्पना की गई थी । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य की अपनी विश्वात्मकता के मूलभूत संघटक तत्व है इसकी उप-राष्ट्रीयताएं जो इसमें प्रादेशिक अस्मिताओं के जरिये व्यक्त होती है । एक स्वतंत्र राष्ट्र में किसी भी उत्पीड़क या उत्पीड़ित राष्ट्रीयता के लिये कोई जगह नहीं हो सकती है । सब राष्ट्रीयताओं की समानता भारतीय राष्ट्र को परिभाषित करने वाला मूल तत्व है । इसमें न धर्म की स्थिति प्रमुख है, न जाति की और न ही किसी एक भाषा विशेष की । इन सबकी भूमिका बहुत सीमित, प्रांतीय उप-राष्ट्रीयताओं की भूमिका से आगे नहीं है । कहा जा सकता है कि भारत का शिव हमेशा की तरह ही स्वात्म को स्वातंत्र्य के रूप में ही प्रकाशित करता है । यही शिव तत्व अप्रमेय है, अन्य सभी संघटक तत्वों से ऊपर और सबमें व्याप्त है । इसके अंतराल के सभी उपराष्ट्रीय भुवनों का यह स्वातंत्र्य भाव ही अधिपति है ।

जब भी कोई भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्र स्वरूप को विकृत करके उसे किसी एक धर्म या भाषा या क्षेत्र की अधीनता में परिकल्पित करता है, वह भारतीय राष्ट्र के विखंडनकारी की भूमिका अदा करता है । हिटलर के आदर्शों के, या राष्ट्रीय राज्य के दिनों के औपनिवेशिक विस्तारवाद से जुड़े राष्ट्रवाद के आदर्शों के पूजक ही 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' का नारा दे सकते है ।

अंत में हम फिर दोहरायेंगे, यह पूरी परिकल्पना ही एक फासिस्ट और नाजी परिकल्पना है जिसने मनुष्यता को सिवाय तबाही और बर्बादी के कुछ नहीं दिया है ।

शुक्रवार, 1 जून 2018

आरएसएस-मोदी भारत की आत्मा के शत्रु है ; ये पराजित होने के लिये अभिशप्त है

कैराना में आरएसएस-मोदी की पराजय के बाद एक सोच :

-अरुण माहेश्वरी

आरएसएस की राजनीति को धूल चटा कर भारत अपनी प्राचीनतम वैविध्यपूर्ण समृद्ध अस्मिता में समय के साथ आई अनेक दुर्बलताओं से मुक्त होकर वर्तमान के मैले हो चुके खोल को पूरी तरह से पलट देगा और परिवर्तन के एक नये बिंदु से अपनी तात्विक नूतनता को फिर से अर्जित करके स्वयं को तरोताजा, नवीनतर करेगा इसी अर्थ में भारत की वर्तमान राजनीति का यह एक युगांतकारी क्षण है  

अभिनवगुप्त ने इसे ही अपने शैवमत का प्रत्यभिज्ञा दर्शन  कहा है यह मानव प्रगति का अनोखा सूत्र है। हेगेल की शब्दावली में पूर्ण प्रत्यावर्त्तन, Total Recoil  

कैराना में चार साल पहले के सांप्रदायिक विभाजन की इस बार की पराजय में हमें भारत की इसी प्राचीन नवीनता की जीत दिखाई देती है जिसे आज के समय के कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू एक प्रकार की संरक्षणवादी नवीनता, conservative novelty कहते हैं जो प्राचीन है, वह भी हमेशा वर्तमान की, एक प्रकार की नवीनता के तर्कों की भी भूमिका निभाता है वह कभी प्रगतिशील रूपांतरण में बाधा बनता है, तो अक्सर प्रतिक्रियावादी तानाशाही का भी प्रतिरोध तैयार करता है  

इसीलिये हम बार-बार कहते हैं कि आरएसएस ने हिटलरी रास्ते पर चल कर, फासीवादी राष्ट्रवाद के नाम पर भारतवर्ष के संपूर्ण अस्तित्व के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है इसे हम घुमा कर आरएसएस के हमलों के विरुद्ध भारतवर्ष की संपूर्ण अस्मिता का संघर्ष भी कह सकते हैं  

इस लड़ाई में आरएसएस कभी विजयी नहीं हो सकता है, क्योंकि उसकी पूरी परिकल्पना में मनुष्य की, भारत की मूल आत्मा की मुक्ति का कोई स्थान नहीं है भारत के अपने मु्क्त मन को अपनी इस दौरान पैदा हुई दुर्बलताओं से मु्क्त होना है और अपने आजाद शैशव की ताजगी को अर्जित करके आगे बढ़ना है, आरएसएस के पास उसका कोई रास्ता नहीं है बनिस्बत्, वह भारतीय इतिहास के विकास पथ की कमजोरियों के पाश से उसे जकड़े रखने के लिये, हिंदू पादशाही के तानाशाही शासन को कायम करने के लिये काम कर रहा है वह भारत की मुक्ति और नवीनता की दिशा के रास्ते की आज सबसे बड़ी बाधा है जिसे आधुनिक राजनीति की परिभाषाओं के अनुसार फासीवाद कहा जाता है  


आरएसएस के इन आक्रमणों के खिलाफ भारत की मुक्तिकामी आत्मा निश्चित तौर पर विजयी होगी - इसी मानदंड पर हम राजनीति के आज के दौर की सारी रणनीतियों-कार्यनीतियों को आंकते हैं और हमेशा इसी पर बल देते हैं