शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

मोदी के खिलाफ महागठबंधन के प्रति जनता को आश्वस्त करना फासीवाद के खिलाफ लड़ाई का एक प्रमुख काम है

-अरुण माहेश्वरी




29-30 नवंबर को किसान मुक्ति मार्च में विपक्ष के 21 दलों के नेताओं की उपस्थिति फासिस्ट मोदी सरकार के विरुद्ध भारत की जनता के स्तर पर तैयार हो चुके महगठबंधन की घोषणा है

महागठबंधन का हर संकेत और उसमें खास तौर पर वामपंथ की पुरजोर मौजूदगी ही मोदी-विरोधी जनभावना के राजनीतिक विकल्प में रूपांतरण के बीच की हर दरार को पाटने का काम करती है इसे अकेले कांग्रेस के भरोसे छोड़ना एक बड़ी भूल होगी

भारत में फासीवाद को पराजित करने के अपने प्रमुख राष्ट्रीय दायित्व को निभाने के लिये वामपंथ को महागठबंधन के निर्माण के प्रति जनता को पूरी तरह से आश्वस्त करना चाहिए। इस विषय को चुनावबाज स्थानीय नेताओं की संकीर्णताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए  

जरूरत कांग्रेस को भी अपने चुनाव घोषणापत्र में नव-उदारवाद की सीमाओं से निकल कर जन-कल्याणकारी नीतियों पर बल देने की है ; क्रोनी पूंजीवाद मुर्दाबाद के नारे को प्रमुखता देते हुए कृषि सुधार के व्यापक कार्यक्रम को पेश करने की है

वामपंथ में जो तत्व कांग्रेस को छोड़ कर मोदी को पराजित करने की थोथी क्रांतिकारी बात करते हैं, वे मोदी-विरोधी पूरी लड़ाई को आधारहीन बना देने के दोषी हैं वे प्रकारांतर से मोदी के हाथ के खिलौने का काम करेंगे; भारत में फासीवाद का रास्ता साफ करेंगे जनता के दुश्मन की भूमिका अदा करेंगे  

वामपंथ की राजनीति का आज एक ही लक्ष्य हो सकता है - मोदी-आरएसएस के फासीवाद को परास्त करो

किसानों के आक्रोश का विस्फोट भारत के व्यापक कृषि संकट का सूचक है इस संकट के निदान का राजनीतिक रास्ता फासीवाद को बिना परास्त किये असंभव है यहीं राजनीतिक संघर्ष आज सभी जनतांत्रिक राजनीतिक दलों को एक साथ ला सकता है मजदूरो, किसानों, छात्रों, नौजवानों, महिलाओं और सभी वंचित जनों के आंदोलन इस राजनीतिक लक्ष्य को घर-घर तक पहुंचाने का काम करेंगे और जनता के जीवन को संकट से मुक्त करके पूरे राष्ट्र को फासीवाद से बचायेंगे  

कुछ तथाकथित क्रांतिकारी किसान नेता समझते हैं कि वे अकेले अपने संघर्ष के बूते वोट में जीत कर फासीवाद को परास्त कर देंगे वे मूर्खों के स्वर्ग में वास करते हैं और अपने चुनावबाजी के रोग पर पर्दादारी के लिये जन-संघर्षों के नाम का इस्तेमाल करते करते हैं वे शुद्ध रूप से अर्थनीतिवाद को ही राजनीतिक संघर्ष का पर्याय समझते हैं  

हाल में राजस्थान में वामपंथ के ऐसे ही चुनावबाज किसान नेताओं का चरित्र खुल कर सामने आया है जिस पार्टी का अभी विधानसभा में एक विधायक नहीं है, उसका नेता साफा बांध कर मुख्यमंत्री पद को पाने के लिये घोड़ी पर चढ़ा हुआ है ! ये वहां पूरी तरह से भाजपा और उसकी नेता वसुंधरा के हाथ के कठपुतले बन कर फासिस्टों की सेवा का अपराध कर रहे हैं  


हम फिर से दोहरायेंगे कि फासीवाद के खिलाफ इस लड़ाई को सिर्फ कांग्रेस पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए अन्य दलों को भी आज अपनी राजनीति का परिचय देने की जरूरत है और चुनावबाजी के मूर्खतापूर्ण रोग से मुक्ति की भी  

शनिवार, 24 नवंबर 2018

ये फिसलनें !

-अरुण माहेश्वरी


चंद रोज पहले ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने हिसाब लगा कर बताया था कि ट्रंप ने अपने शासन के पिछले 558 दिनों में कुल 4229 बार झूठी बातें कही हैं। अर्थात् प्रतिदिन 7.6 झूठ ।

इस तथ्य के सामने आने पर ही स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान हमारे मोदी जी की ओर गया । इतना तो हम दावे के साथ कह सकते हैं कि झूठ बोलने की कला में तो ये ट्रंप से कई मील आगे हैं । भारत की राजनीति में मोदी अपनी झूठों की वजह से ही तो अद्वितीय हैं। जब अमेरिका से ट्रंप की झूठों की गिनती आई, तभी हमने बिना गिने ही समझ लिया कि मोदी चूंकि ट्रंप से दुगुना झूठ बोलते हैं, इसीलिये रोज के हिसाब से कम से कम पंद्रह झूठ तो जरूर बोलते ही है।

लेकिन हम सोच रहे थे कि आखिर मोदी और ट्रंप जैसे लोग इतना झूठ बोलते क्यों हैं ? और, वे अटकते नहीं, धड़ल्ले से बोलते हैं ! लगता है जैसे हमेशा झूठ बोलना ही इनकी फितरत है ! इसे मनोविश्लेषण में जुबान का फिसलना, slip of tongue कहते हैं और इस प्रकार की फिसलनों से भी विश्लेषक रोगी के मनोविज्ञान को समझने के सूत्र हासिल किया करते हैं ।

कहा जाता है कि जिस विषय में आदमी पारंगत नहीं होता, लेकिन अपने को उसी विषय के महापंडित के रूप में पेश करना चाहता है, तब वह अक्सर अपने बोलने की सामान्य गति की तुलना में कहीं ज्यादा तेज गति से बोलने लगता है । अर्थात् यहां उसकी कामना वास्तव में अपने ज्ञान का परिचय देने के बजाय अपनी धाक जमाने की ज्यादा होती है । और यह कामना स्वयं में आदमी के ज्ञान का विपरीत ध्रुव है । आदमी जिस मामले का जितना कम जानकार होता है, उसी मामले में वह अधिक अस्वाभाविक तेजी से बोलता है और, कहना न होगा, उसकी जुबान फिसलने लगती है । वह विषय के बजाय अपनी धाक की कल्पनाओं में खो जाता है । विषय की मर्यादाओं से मुक्त होकर ही वह अपने कल्पनालोक का आनंद ले पाता है । समझने लगता है कि उसके अंदर से तो साक्षात सत्य बोलता है । जॉक लकान के शब्दों में, ‘इस प्रकार सच और अपने कल्पनालोक के बीच के दोलन में ही उसकी जुबान फिसला करती है ।’ झूठ बकना उसका स्वभाव हो जाता है ।

ट्रंप और मोदी के साथ बिल्कुल यही बीमारी लगी हुई है । संसदीय जनतंत्र में काम करने का इनका कोई बाकायदा राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है । ट्रंप रीयल इस्टेट का बड़ा कारोबारी, साम-दाम-दंड-भेद से सौदे पटाने और मौज-मस्ती का जीवन जीने वाला अपने दायरे में एक प्रकार का माफिया सरदार रहा है । तो वहीं, हमारे मोदी भी शुरू में आरएसएस की तरह के हिटलर-पूजक संगठक की अफवाहबाजी के प्रमुख काम के एक संगठक थे । बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी उन्होंने पूरे चौदह साल 2002 के जनसंहार को संगठित करने और उसके कानूनी परिणामों को सम्हालने की अपराधी करतूतों में ही मुख्य तौर पर पूरे किये । इसी समय केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार के प्रति जनता के मोहभंग ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बना दिया और यहीं से उनमें अपनी सर्वज्ञता की धाक जमाने का भूत सवार हो गया । सत्ता पर आने के साथ ही वे इतना अधिक ‘मन की बात’ कहने लगे कि शांति से अपने ज्ञान और पद के बीच संतुलन बनाने की कोशिश तक करने की जरूरत नहीं महसूस की । उनके लिखित बयानों में भी धड़ल्ले से झूठ का प्रयोग होता है ।

उनके चरित्र में संतुलन बन गया होता यदि वे अपने पद के गरिमामय वलय के अनुरूप अपने चित्त का निर्माण कर पाते और उनमें अपनी वासनाओं के दमन की मजबूरी नहीं पैदा होती ; वे एक बुरी तरह से विखंडित व्यक्तित्व नहीं होते । यहां तो मीर के शब्दों में कहे तो — “मैं और / मेरा यार और / मेरा कारोबार और !” की दशा है । उनका विखंडन वहीं से रिस-रिस कर जुबान की फिसलन या किसी अन्य अस्वाभाविक क्रिया के जरिये सामने आने लगता है, जहां कहीं जीवन की लय में दरार आती है ।

बहरहाल, मोदी का यह बकबक का मर्ज अब तो लाइलाज हो चुका है । अब तो जनता नामक हकीम लुकमान ही उन्हें रास्ते पर लायेगा । लेकिन हाल ही में भाजपा के उनके ही अभिन्न अंग अमित शाह में जुबान की फिसलन का यह रोग एक नये रूप में, शरीर की फिसलन के रोग के रूप में सामने आया है । वे जानते है कि वे प्रधानमंत्री तो हैं नहीं, जिनकी जुबान का मूल्य होता है । उनका मूल्य है उनके शरीर से, भाग-दौड़ की उनकी सामर्थ्य से ।

मोदी विदेशों में सैर-सपाटों के बाद देश में अपनी धाक के लिये जहां अस्वाभाविक तेज गति से बकबक करते हैं, वहीं अब अमित शाह अस्वाभाविक तेजी से देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में दौड़ने लगे हैं ।जितना इन्हें अपनी जमीन खिसकती दिखाई दे रही है, इनकी चाल-ढाल की गति उतनी ही तेज हो जा रही है । और अब उनकी चाल का संतुलन भी बिगड़ने लगा है ।

पिछले दो दिनों में अमित शाह मिजोरम में प्लेन की सीढ़ियों से और मध्य प्रदेश में सभा मंच से उतरते हुए लड़खड़ा कर गिर चुके हैं ।

मोदी जी की जुबान और शाह के पैरों के फिसलने में पता नहीं क्यों, हमें एक अजीब सी संगति दिखाई दे रही है । दोनों का संपर्क उनकी बिगड़ती मनोदशा से जुड़ा हुआ लगता है ।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

राष्ट्र की आबादियों की संरचना और सेकुलरिज्म पर एक अति-संक्षिप्त नोट



दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है जिसकी आबादी की संरचना वहां के सिर्फ मूल निवासियों से बनी हुई हो  

इसीलिये कहीं से भी किसी भी देश में आकर बस जाने वालों को हमलावर नहीं कहा जाता है आप्रवासी ही आगे स्थायी निवासी हो जाते हैं  

इतिहास में इस प्रकार आकर बसने वालों में घुमंतू समूहों, खोजी लोगों, प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित आबादियों के अलावा बाकायदा सामरिक शक्ति से लैस समूह भी रहे हैं जो स्थानीय राजाओं को पराजित कर खुद राजा भी बन जाते हैं  

मसलन्, सबसे निकट इतिहास में आज के अमेरिका को ही लें, वह जो और जैसा है, वहां के मूल निवासियों की बदौलत नहीं है आस्ट्रेलिया महाद्वीप को भी लिया जा सकता है दुनिया के तमाम देशों के निर्माण में आप्रवासियों की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता रहा है आज दुनिया के सबसे सुखी देशों में एक माना जाने वाले स्वीडेन के इतिहास में वहां से आबादी का सबसे अधिक पलायन हुआ है दुनिया के लगभग सभी देश अपने निर्माण में आप्रवासियों के योगदान को खुले मन से स्वीकारते रहे हैं  

सुदूर इतिहास में जाएं तो हजारों साल पहले भारत में घोड़ों पर सवार आर्यों के आगमन का इस देश की आबादी की संरचना में एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है  

इसीलिये किसी भी भूखंड पर किसी का भी प्रवेश मानव सभ्यता के इतिहास का एक सबसे अधिक स्वाभाविक घटनाक्रम है इसी से दुनिया के सभी राष्ट्रों का निर्माण और मनुष्यों की वैश्विक सभ्यता का उदय होता है  

समाजशास्त्री और मानवशास्त्री इतिहास में आबादियों के बीच इस प्रकार की अन्तरक्रियाओं को मनुष्यों के बीच एक जरूरी आदान-प्रदान की प्रक्रिया बताते हैं समाजशास्त्री मार्शेल मौस ने अपनी किताब गिफ्टमें इसे मनुष्यों के बीच उपहारों के आदान-प्रदान की तरह देखा था इनसे सभी मनुष्य समृद्ध होते हैं इस सामाजिक प्रक्रिया के प्रारंभिक चरण में मार्शेल मौस कबीलाई समाजों में स्त्रियों को उपहार-स्वरूप दिये जाने को भी चिन्हित करते हैं  

कई फासिस्टशुद्धतावादीतत्व मनमाने और चुनिंदा ढंग से इतिहास में किसी एक समूह के इस प्रकार के अनुप्रवेश का स्वागत करते हैं और दूसरे को आक्रमणकारी शत्रु कह कर उनके प्रभाव से मुक्ति के राजनीतिक लक्ष्यों पर काम करते हैं  

भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र मध्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका तक से भू भाग से जुड़ा हुआ है दुनिया के इस हिस्से से नाना प्रकार की घुमंतू जातियों का हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों के पार इस आकर्षक और विशाल उपजाऊ उष्णकटिबंधीय मैदानी क्षेत्र में हजारों-हजारों सालों से आना-जाना चलता रहा है इसके अलावा दक्षिण में समूद्री पथ से भी भारत का सारी दुनिया से संपर्क रहा है  

भारत में आर्यों की तरह ही मध्य एशिया से शक आएं, हूण आएं उन्होंने यहां शासन भी किया और यही पर बस कर यहां की आबादी में विलीन हो गये भारत में इस्लाम धर्म के अनुयायी तुर्कों की दिल्ली सल्तनत (1206- 1526) की पृष्ठभूमि में भी पहले से लगभग दो सौ सालों से चली रही महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी आदि की लूटमार का इतिहास था जिसने इस सल्तनत की स्थापना की जमीन तैयार की थी

दिल्ली सल्तनत को भारत की मिट्टी की उपज कहा जा सकता है यह औपनिवेशिक शासन नहीं था इसी के अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी को परास्त कर मुगलों का शासन कायम हुआ जिसकी छठी पीढ़ी में औरंगजेब के तहत भारत एक सबसे बड़े साम्राज्य के रूप में सामने आया था  

बाबर ने भी हिंदुस्तान को ही अपना वतन माना मुगल शासन औपनिवेशिक लूट का शासन नहीं था मुगलों के साथ यहां के हिंदू राजाओं के संघर्ष में देशी-विदेशी का कोई भाव नहीं था राजपूतों का तो मुगलों से रोटी-बेटी का संबंध था मुगलों के मुख्य सिपहसालार राजपूत भी हुआ करते थे राजपूत राजाओं के मुगल बादशाहों से संघर्ष अपने क्षेत्र में अपनी खुद-मुख्तारी बनाये रखने की दिल्ली के बादशाह के खिलाफ स्थानीय राजाओं की लड़ाइयां थी महाराणा प्रताप भी अकबर को विदेशी मान कर उनके खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ रहे थे  

भारत में प्रकृत अर्थों में अंग्रेजों का दो सौ साल का शासन ही औपनिवेशिक शासन रहा जिसमें उन्होंने भारत की संपदा की खुली लूट करके अपने देश की औद्योगिक क्रांति के लिये भी संसाधन जुटायें अंग्रेजों ने सचेत रूप में अपने को भारत की आबादी में विलीन नहीं होने दिया और जब उन्हें इस देश को छोड़ कर जाना पड़ा, यहां वर्षों से रह रही अंग्रेजों की पूरी आबादी भी अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर विलायत चली गई  

अंग्रेजों ने भारत के इतिहास को विकृत करने, सभी भारतीय भाषाओं और भारत के ज्ञान-विज्ञान को दबाने की हर संभव कोशिश की भारतीय नवजागरण के अग्रदूतों ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान की परंपरा पर दृढ़ता से जमे रह कर ही पश्चिम में घट रही घटनाओं पर भी अपनी नजर रखी और विज्ञान, जनतंत्र तथा कानून के शासन के मूल्यों के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था भारत में जिस समय मुगल साम्राज्य का पतन हुआ वही समय यूरोप में भी राजशाहियों के पतन का समय था अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों का शासन कायम हुआ तभी 1789 की फ्रांस की राज्य क्रांति हुई इसने भी अंग्रेजों केकानून का शासनके प्रति भारत में स्वीकृति का एक आधार तैयार किया था  

इसीलिये भारत के इतिहास को आक्रमणकारियों का इतिहास कहना मानवशास्त्रीय मानदंडों पर सरासर गलत है हजारों हजार सालों में अकेले अंग्रेजों के शासन को प्रकृत अर्थों में आक्रमणकारियों का शासन कहा जा सकता है बाकी सारे शासन आर्यों के आगमन की तरह ही इतिहास के स्वाभाविक क्रम में भारत की आबादी की संपूर्ण संरचना के कारक तत्व रहे हैं और, जो किसी परिवार का स्वाभाविक अंग होता है, वह कभी बाहरी या मेहमान नहीं कहलाता जिसके होने से परिवार के अपने जीवन की लय बिगड़ती हो समाजशास्त्र में राष्ट्रों के निर्माण में धर्म को कभी भी अनिवार्य कारक तत्व नहीं माना जाता है  

मजे की बात यह है कि आज हम एक ऐसे काल में रह रहे हैं जब यहां का शासक दल लुटेरे अंग्रेजों की विकृतियों के प्रति तो पूरी तरह से स्वीकार का भाव रखता है, लेकिन यहां के इस्लाम धर्म के अनुयायी लोगों को ही बाहरी शत्रु याअतिथिबताता है वह मनमाने ढंग से धर्म को ही राष्ट्र का अनिवार्य तत्व मानते हुएहिन्दू ही राष्ट्र हैकी तरह के झूठे नारे दिया करता है  

ये वे लोग हैं जो इस झूठ का भी प्रचार करते हैं कि दुनिया में भारत अकेला सेकुलर देश है, बाकी सभी राष्ट्रों का अपना-अपना एक धर्म है ये धर्म-आधारित राज्य और धर्म-निरपेक्ष राज्य के बीच के फर्क को ही गड्ड-मड्ड कर दिया करते हैं ये इस सच को छिपाते हैं कि जब आठ सौ साल पहले इंगलैंड में मुक्ति का महान घोषणापत्रमैग्ना कार्टातैयार हुआ था, तभी से धर्म के शासन के अंत और सेकुलर कानून के शासन की आधारशिला रख दी गई थी  

भारत में भी इस्लाम को मानने वाले शासकों ने कभी किसी इमाम की सत्ता नहीं स्थापित की और शरियत कानून को ही पूरी तरह से लागू किया स्थानीय परंपराओं और विश्वासों को मुगलों के काल में भी हमेशा पूरा संरक्षण प्राप्त था  

इसके बावजूद, भारत की ये साप्रदायिक ताकतें सेकुलरिज्म के बारे में तमाम प्रकार के भ्रमों को फैलाती हैं, मानो किसी देश में किसी धर्म को मानने वालों का होना ही उस देश के शासन को धर्म-आधारित राज्य बना देता है इनके पास सभ्यता के इतिहास से नि:सृत सेकुलर मान-मूल्यों की कोई अवधारणा नहीं है खुद को बौद्धिक मानने वाले कुछ लोग भी इनके भ्रमों के शिकार हो कर अपनी पहचान की रक्षा के प्रति व्यग्रता में सेकुलरिज्म के खिलाफ जहर उगला करते हैं अपने ही सह-नागरिकों को धर्म के आधार पर दुश्मन बताने लगते हैं  

हम इतना ही कह सकते हैं कि ये सब लोग गुटका किस्म की किताबों से फैलायी जा रही संघी अज्ञता के रोग के शिकार हैं मानवशास्त्र और समाजशास्त्र की इनके पास न्यूनतम समझ भी नहीं है  


-अरुण माहेश्वरी