शनिवार, 27 दिसंबर 2014

हिंसा और जनसंहार

अरुण माहेश्वरी

असम के दो जिलों कोकराझड़ और सोनितपुर में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के एक सोंबजीत गुट ने उस क्षेत्र के आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियां चला कर 80 से ज्यादा लोगों को भुन डाला। कहते हैं, एनडीएफबी के इस गुट ने गरीब आदिवासियों का यह कत्लेआम उनके खिलाफ पुलिस की कथित ज्यादतियों का बदला लेने के लिये किया। आज वह पूरा क्षेत्र अद्​र्ध-सैनिक बलों को सौंप दिया गया है। अब अद्​र्ध-सैनिक बलों की ज्यादतियों के नाम पर इस क्षेत्र में आगे और क्या गुल खिलेंगे, कहना मुश्किल है। सन् 1980 से ही असम से ‘विदेशी घुसपैठियों’ को भगाने के नाम पर भारत के इस अपेक्षाकृत शांत क्षेत्र में खुली हिंसा की राजनीति का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने देखते ही देखते नाना रूपों में कैसे पूरे उत्तरपूर्वी क्षेत्र को अपनी जद में ले लिया, सचमुच यह एक गहरे अध्ययन का विषय है।

भारत के एक कोने में यदि कश्मीर हमारे गणतंत्र के शरीर पर नासूर बना हुआ है तो दूसरे कोने पर असम, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और नागालैंड, सात बहनों का यह उत्तरपूर्वी क्षेत्र कम बुरी स्थिति में नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार आज पूरे भारत में तकरीबन 800 से ज्यादा आतंकवादी संगठन सक्रिय है जिनमें कोई जातीय पहचान के लिये लड़ रहा है, तो कोई धार्मिक उद्देश्यों के लिये, तो कोई शोषणमुक्त समाज के लिये जनमुक्ति  के वामपंथी नारों की ओट में यही काम कर रहा है। और, गृह मंत्रालय तथा दूसरे अन्तरराष्ट्रीय सूत्रों के अनुसार मजे की बात यह है कि इन सबमें एक सामान्य सूत्र की तरह नशीली दवाओं, हथियारों का व्यापार, रंगदारी, और दूसरे तमाम गैर-कानूनी रास्तों से आने वाले धन का खुला प्रयोग हो रहा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक, शायद ही कोई राज्य होगा, जिसमें इस प्रकार की सामूहिक हिंसा की संगठित गतिविधियां न चल रही हो।

समाज के रंध्र-रंघ्र में फैल चुकी इस सामूहिक हिंसा और आतंकवादी संगठनों के जाल ने सन् 2002 के गुजरात में एक और चरम रूप लिया जब खुद राज्य भी प्रत्यक्ष रूप में इस प्रकार की हिंसक जन-हत्याकारी गतिविधियों में शामिल होगया। एक राज्य सरकार ने खून के प्यासे बहुसंख्यक समाज के उन्मादित जनसमूह को तीन दिनों के लिये खुली छूट दे दी कि वह अल्पसंख्यक समाज के सफाये के लिये इन तीन दिनों में जो कर सकता है, करें। यह भारत में एक हिंसक समाज की कोख से पनपने वाले जन-हत्याकारी हिंसक राज्य के निर्माण की लोमहर्षक कहानी है जिसका चरम रूप यूरोप में हिटलर और उसके नाजी शासन में दिखाई दिया था।

भारत की चारों दिशाओं में फैले इन तमाम हिंसक और आतंकवादी संगठनों की गतिविधियों, आये दिन होने वाली हिंसक वारदातों और खुद राज-सत्ता का बढ़ता हुआ हिंसाचार, इन सबको यदि हम समग्रता से देखें तो भारत की आज की तस्वीर हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान से कोई बेहतर नहीं दिखाई देगी। फिर भी हम इतराते हैं कि ‘हम पाकिस्तान नहीं है’। पाकिस्तान को आतंक और अराजकता का प्रतीक मानते हैंं और भारत को शांति और सुशासन का !

संयुक्त राष्ट्र संघ ने द्वितीय विश्वयुद्ध के अनुभवों के आधार पर 9 दिसंबर 1948 के दिन कन्वेंशन ऑन द प्रिवेंशन एंड पनिसमेंट ऑफ द क्राइम ऑफ जिनोसाइड (सीपीपीसीजी) को अपनाया था, जिसमें कहा गया था कि किसी भी राष्ट्रीय, जातीय, नस्ली अथवा धार्मिक समूह को समूल नष्ट कर देने के उद्देश्य से उस समूह के सदस्यों की हत्या, उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक हानि पहुंचाना, सुनियोजित ढंग से किसी समुदाय के भौतिक अस्तित्व को आंशिक रूप से या पूरी तरह से खत्म कर देने की जीवन की परिस्थितियां तैयार करना, उस समूह में बच्चों के जन्म को रोकना और जबर्दस्ती एक समूह के बच्चों को दूसरे समूह में ले जाना - ये सब काम जनसंहार के अपराध की कोटि में आते हैं।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनसंहार के अपराधों की इस परिभाषा पर थोड़ी सी बारीकी से भारतीय समाज की मौजूदा हिंसक परिस्थितियों के संदर्भ में सोचे तो यह बात आईने की तरह साफ दिखाई देने लगेगी कि किस तरह आज यहां समाज के बिल्कुल नीचे के स्तर से लेकर राज्य के सर्वोच्च स्तर तक इसी अपराधमूलक मानसिकता का विस्तार हो चुका है जो राष्ट्रसंघ के मानदंडों पर जनसंहारकारी अपराधों की श्रेणी में आती है।

कहना न होगा, भारत की हिंसा से भरी सामाजिक परिस्थितियां क्रमश: व्यापक जनसंहारकारी अभियानों के लिये तेजी से तैयार हो रही जमीन की ओर साफ संकेत करती है। जनसंहार की कार्रवाई कोई आकस्मिक उन्माद या विस्फोट की शक्ल में प्रकट होने वाली कार्रवाई ही नहीं होती। यह एक सु​िंचंतित संगठित र्कारवाई है। लगातार और लंबे अर्से तक चलने वाली कार्रवाई। समाज की रगों पर दीर्घ काल तक बने रहने वाला दबाव, और इस दबाव के तले पूरे समाज को एक विकृत रूप दे देने की कार्रवाई। इसकी हमेशा किसी व्यापक जन-हत्या की विस्फोटक घटना मात्र से व्याख्या नहीं की जा सकती है। जनहत्या दरअसल किसी भी समूह विशेष के खिलाफ बार-बार दोहराये जाने वाला, लगातार हमलों का एक लंबा सिलसिला होता है। हिटलर ने गैस-चैंबरों में डाल कर यहूदियों का सफाया करने का पैशचिक काम अचानक और रातो-रात नहीं कर दिया था। इसके लिये वह सालों तक तमाम प्रकार के झूठ और गंदी बातों को आधार बना कर यहूदी समाज के खिलाफ लगातार प्रचार और हमले चला रहा था। और इसी के चरम पर, जब उसने गैस चैंबरों में डाल कर एक झटके में लाखों यहूदियों की हत्या जैसा निर्दयता और निष्ठुरता का अकल्पनीय काम किया, पूरे यूरोप को एक व्यापक कसाईखाने में बदल दिया तब भी जर्मन राष्ट्र का बहुसंख्य तबका उसकी इन पैशाचिक हरकतों पर तालियां बजा रहा था। गुजरात में बाबू बजरंगी एक गर्भवती महिला के गर्भ तक को काट डालने की पैशाचिकता का पूरे उत्साह के साथ वर्णन करता है, फिर भी वह बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का एक चहेता नेता बना रहता है, यह आकस्मिक नहीं है। जनसंहारकारी समूहों की यही चारित्रिक विशेषता है। यह एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत और हिंसा के लगातार और लंबे प्रचार के बीच से तैयार किये हुए समूह के बढ़ते सामाजिक प्रभुत्व के बाद ही संभव हो सकता है।

जो कोकड़ाझार आज बोडो उग्रवादियों की खुली हिंसा का क्षेत्र बना हुआ है, वहीं पर ‘80 के जमाने में विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ चलाये गये आंदोलन के काल में बांग्लाभाषी मुसलमानों के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा का इतिहास रहा है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के लाल पट्टी वाले क्षेत्र की नक्सली हिंसा वहां हिंदू सांप्रदायिक हिंसक समूहों के लिये और एक प्रतिहिंसक राज्य के लिये जमीन तैयार कर रही है। इससे नागरिक अधिकारों के प्रति एक संवेदनहीन सामाजिक परिवेश तैयार होता है। नागरिक अधिकारों के प्रति संवेदनहीनता से ही प्रतिहिंसक राज्य कब एक समूह विशेष के समूल नाश के उद्देश्य से काम करने वाले जनसंहारक राज्य की दिशा में बढ़ सकता है, नाजीवाद और फासीवाद का इतिहास इसके सबसे बड़े गवाह है। इस दिशा में अगर सतर्कता न बरती गयी तो भारत में इस प्रकार के राज्य के उदय की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। जनसंहार के सामाजिक-व्यवहारिक स्रोतों की ठोस पहचान के प्रति सामान्य जागरूकता पैदा करके ही इसका प्रक्रिया का प्रतिकार संभव है।


गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

क्यूबा और अमेरिका के बीच कूटनीतिक संबंधों की पुनर्स्थापना:



‘‘बहुत दिनों बाद खुला आसमान 
निकली है धूप, हुआ खुश जहान’’

अरुण माहेश्वरी

आधी सदी से भी ज्यादा समय बीत गया। अमेरिका से सिर्फ 90 मील दूर छोटा सा देश क्यूबा। उसने शक्ति और वैभव के विश्वप्रभु को, उसके मूल्यों को, उसके इरादों को, उसकी शक्ति को चुनौती दी थी। राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने कहा था, यह अमेरिकी एकाधिपत्य चल नहीं सकता, उसके सारे वैभव की रोशनी के तले गहरा अंधेरा ही अंधेरा है। यह लूट और अन्याय का साम्राज्य है; अंधेरे का राज्य है। सम्य समाज में अमेरिका और क्यूबा के बीच की लड़ाई की तुलना हमेशा तूफान और दीये के बीच की लड़ाई से की जाती थी। 1959 में क्यूबा की क्रांति के बाद फिदेल कास्त्रो की सरकार कायम हुई और तभी से अमेरिका इस दीये की रोशनी को कुचल देने के लिये मचल उठा था। क्या-क्या नहीं किया। सीआईए का एक पूरा महकमा इसी काम के लिये झोंक दिया गया। फिदेल तक की हत्या की न जाने कितनी कोशिशें की गयी। सैनिक कार्रवाई तक हुई। आर्थिक नाकेबंदी कर दी। संयुक्त राष्ट्र संघ में इस दादागिरी की खुल कर निंदा हुई फिर भी दुनिया का कोई देश क्यूबा के साथ आर्थिक लेन-देन नहीं कर पा रहा था। इन सारी बाधा-विपदाओं के बावजूद क्यूबा अपनी स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की रक्षा की जिद के साथ अड़ा रहा। एक समय में उसे विश्व समाजवादी शिविर का समर्थन रहा तो सन् ‘89 के बाद से ही लातिन अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में आए भारी परिवर्तन ने अमेरिका की एक न चलने दी। क्यूबा लातिन अमेरिका में स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की रक्षा का प्रकाशस्तंभ बना रहा।
और आज - निराला जी की पंक्ति याद आती है :

‘‘बहुत दिनों बाद खुला आसमान
निकली है धूप, हुआ खुश जहान’’

‘‘हारी नहीं, देख, आंखें
आयी है फिर मेरी ‘बेला’ की यह वेला’’

आज क्यूबा की सड़के नौजवानों के उच्छवास से फूट पड़ी है। वाशिंगटन और हवाना, दोनों राजधानियों से 17 दिसंबर की रात, एक साथ यह घोषणा की गयी कि दोनों देशों के बीच पचास साल से भी ज्यादा समय से टूटे हुए कूटनीतिक संबंधों को फिर से कायम किया जाता है। खुद राष्ट्रपति ओबामा ने यह खुले आम स्वीकारा  कि क्यूबा को अलग-थलग करने की बाबा आदम के जमाने की नीति विफल हुई है। क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो ने ऐलान किया है कि और भी समृद्ध तथा दीर्घस्थायी समाजवाद की दिशा में क्यूबा की यात्रा जारी रहेगी। नेरुदा के शब्दों में :
‘‘हर रोज मैंने धमकियां सुनी,
रिश्वतें, क्षोभ और झूठ,
और मैं अपने सितारे से पीछे नहीं हटा।
नहीं मेरे दोस्तों।

कहना न होगा, चीजें इसी तरह मिटती हुई बनती रहती है। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की पुनर्स्थापना की घोषणा के पहले दिन, 16 दिसंबर को राष्ट्रपति ओबामा और राष्ट्रपति रॉउल कास्त्रो के बीच पूरे एक घंटे टेलिफोन पर बात हुई थी। 55 सालों में इन दोनों देश के राष्ट्रप्रधानों के बीच यह पहली बातचीत थी। और इसके बाद, 24 घंटे बीतते न बीतते, कूटनीतिक संबंधों की फिर से स्थापना की घोषणा कर दी गयी। वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलज माउरो ने कहा कि ‘‘यह जीत क्यूबा की जीत है, फिदेल की जीत है।’’ अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के नेता जॉन मैकैन ने कहा - ‘‘अमेरिका पीछे हटा है।’’

सच कहा जाए तो यह उस पूरी राजनीति की जीत है जो आज दुनिया में एक खास लातिन अमेरिकी परिघटना के रूप में चिन्हित की जा रही है।

दुनिया में कोई भी नहीं कहेगा कि कूटनीतिक संबंधों की वापसी से इन दो देशों के बीच के बुनियादी मतभेद दूर होगये है। कोई नहीं कहेगा कि क्यूबा ने अमेरिकी रास्ते को स्वीकृति दे दी है या अमेरिका ने क्यूबा के समाजवाद को मान लिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि ये दो समाज दो अलग-अलग सामाजिक मान्यताओं के आधार पर बन-बिगड़ रहे हैं। लेकिन यह जानना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जो कुछ हो रहा है, उसके परे और क्या हो रहा है और जो नहीं है, उसके परे क्या नहीं है। स्थायी कुछ नहीं होता। कार्य-कारण संबंधों के परे मनुष्यता का सच विजयी होता है, उसी से मुक्ति का मार्ग खुलता है।

रॉउल कास्त्रो ने तो साफ शब्दों में कहा है कि ‘‘ मानवाधिकार, विदेश नीति और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के सवाल पर हमारे गहरे मतभेद हैं। लेकिन मतभेदों के बावजूद हमें सभ्य तरीके से सह-अस्तित्व के रास्ते को अपनाना होगा।’’ रॉउल कास्त्रो ने दोनों देशों के बीच लगभग एक साल से चल रही वार्ता को सफल बनाने में कनाडा की सरकार और पोप फ्रांसिस के प्रति कृतज्ञता जाहिर की है।





मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

वामपंथ की अपनी अलग पहचान बने

अरुण माहेश्वरी

(‘जनसत्ता’ के 14 दिसंबर, रविवार के अंक में असीम सत्यदेव जी ने मेरे एक लेख की स्थापनाओं का विरोध करते हुए एक उनके ‘मतांतर’ स्तंभ में एक टिप्पणी की थी - ‘पराजित नहीं हुआ समाजवाद। यहां मैं उसका एक प्रत्युत्तर प्रसारित कर रहा हूं। )

कार्ल मार्क्स का एक बहुत प्रसिद्ध कथन है - दार्शनिक अन्वेषण की पहली आवश्यकता एक साहसी, स्वतंत्र मस्तिष्क है।
कोरी आस्था किसी भी नये सच को जानने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है।

असीम सत्यदेव की मेरे लेख ‘अवाम से वाम दूर क्यों’ पर की गयी टिप्पणी को देखिये। उनका आरोप है कि हमने ‘रोग के बजाय दवा की ज्यादा आलोचना’ की है। हम नहीं समझ पा रहे वे किसे रोग बता रहे हैं, किसे दवा। अगर वे समाजवाद को दवा बताते हुए हमारे लेख को समाजवाद की आलोचना मान रहे हैं, तो हमें कहना होगा - ‘‘या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और”
और भी कहूंगा कि ‘‘वो बात, सारे फसाने में जिसका जिक्र न था वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी।’’

उन्होंने अपने अभियोग का आधार बनाया है हमारे लेख की इस पंक्ति को - ‘‘ आज इतना तो साफ है कि दो शिविरों, पूंजीवादी और समाजवादी शिविरों में दुनिया के विभाजन और प्रतिद्वंद्विता के जरिये समाजवाद की अनिवार्य विजय के सारे अनुमान आधारहीन साबित हुए हैं।“

ठीक इसके बाद की पंक्ति है - ‘‘ समाजवाद के अन्तर्गत आर्थिक विकास का स्तर अमेरिका और विकसित औद्योगिक देशों में सामने आए पूंजीवादी उत्पादन की अवस्था को स्थानापन्न करने के लिये नाकाफी था।“

इन सबकों मिला कर ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि यह एक वस्तु स्थिति का बयान भर है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद सारी दुनिया के कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस समझ को गलत माना था कि पूंजीवाद में अब विकास की कोई संभावना नहीं बची है; समाजवाद उत्पादन के सभी मानको पर पूंजीवाद को पीछे छोड़ देगा। सोवियत संघ की अर्थ-व्यवस्था गतिरोध का शिकार हुई लेकिन पूंजीवाद अपने तमाम आवर्तित संकटों के बावजूद उत्पादन के क्रांतिकरण तथा दूसरे उपायों से उन संकटों से निकलता रहा। सोवियत संघ के पराभव के इन 25 साल बाद सत्यदेव जी के पास इससे उल्टे यदि कोई दूसरे तथ्य हो तो वह उनकी संपत्ति है, दुनिया अभी तक उनसे वाकिफ नहीं है। और अगर मामला कोरी आस्था का हो तो हम क्या कहेंगे ! आस्था के विषय बहुत संवेदनशील होते हैं !

दरअसल, पता नहीं किस उत्तेजनावश वे हमारे लेख को सही ढंग से पढ़ ही नहीं पायें। उस लेख का प्रतिपाद्य विषय यही है कि समाजवाद समस्याग्रस्त नहीं है, समस्याग्रस्त है कम्युनिस्ट पार्टियां, जिन्होंने समाजवाद लाने के ऐतिहासिक मिशन की कमान संभालने का बीड़ा उठाया है। अब अगर कम्युनिस्ट पार्टी को दवा मान कर सत्यदेव जी हमारे पर आरोप लगा रहे हो कि हमने ‘मर्ज की नहीं दवा की ज्यादा आलोचना की है’, तो इस अभियोग को हम स्वीकारते हैं। लेकिन हम सिर्फ इतना कहेंगे कि जिसे वे दवा मान रहे हैं, वह दरअसल अपने अभी के रूप में दवा है ही नहीं। अंग्रेजी में जिसे प्लेसिबो कहते है, एक बेअसरदार दवा। ऐसा हमने अपने लेख में भी कहा था और उसमें इसी बात पर विचार किया गया था कि आखिर यह दवा बेअसर होगयी है, तो इसकी वजह क्या है ?

अपने लेख में कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के बीच एक अविभाज्य संबंध के सच को मानते हुए हमने इसाई धर्म और सेंट पॉल्स तथा चर्च के बीच के अभिन्न संबंध की समरूपता का उल्लेख किया है। लेकिन आज के चर्च के लिये सेंट पॉल्स और उनके काम एक संदर्भ बिंदु भर है। उसी प्रकार, दुनिया में समाजवाद के लिये लड़ाई के इतिहास से कोई भी सोवियत संघ के अनुभव को मिटा नहीं सकता। लेकिन सोवियत संघ आगे के समाजवाद के लिये एक संदर्भ बिंदु भर है। और हमारा मानना है कि यदि रूस की क्रांति की तर्ज पर आगे कोई समाजवादी क्रांति नहीं हो सकती तो बोल्शेविक पार्टी के संगठन की तर्ज पर गठित कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी आगे के समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व भी नहीं दे सकती।

राजनीतिक पार्टी व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का समूह होती है। उन लोगों का समूह जो एक मान्य विचारधारा के अनुसार पूरे समाज को ढालने के लिये एकत्रित हुए हैं। उनका लक्ष्य होता है कि यह पार्टी क्रमश: फैलते-फैलते पूरे समाज या पूरी जनता का रूप ले लें। पार्टी का जनता में पूरी तरह से लोप ही पार्टी का अंतिम गंतव्य है। अपने उस लेख में हमने मूलत: कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक सिद्धांत ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ पर विचार किया था। और कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि इसी सिद्धांत के आधार पर आगे पूरे समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण होगा।

जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सांगठनिक सिद्धांत का एक मूल तत्व है - बहुमत के समक्ष अल्पमत का समर्पण। हमने अपने लेख में उसकी तुलना संसदीय जनतंत्र के सिद्धांत से की है - जिसमें बंदों को गिना जाता है, तौला नहीं जाता। इसीलिये हमने यह आशंका जाहिर की कि यह सिद्धांत समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण का आधार नहीं बन सकता। उल्टे, आज के समय के सभी जनतांत्रिक विमर्शों में जनतंत्र के इस प्रभुत्वकारी संख्या-तत्व को उसकी बुनियादी कमजोरी के तौर पर देखा जाता है और लगातार इस बात पर बल दिया जाता है कि ऐसी हरचंद कोशिश की जानी चाहिए ताकि अल्पमत की आवाज को बहुमत की आवाज की बराबरी का दर्जा मिल सके। इसी सिलसिले में अपने लेख में हमने सहभागी जनतंत्र संबंधी विमर्श का उल्लेख किया था।

इसके विपरीत, जो कम्युनिस्ट पार्टियां वर्तमान संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था का विकल्प देने के लिये मेहनतकशों को लामबंद कर रही है, वे इस प्रकार के ‘सहभागी जनतंत्र’ की तरह के किसी नये विमर्श की दिशा में बढ़ने के बजाय ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ को एक ऐसा पवित्र सिद्धांत माने हुए हैं जिसपर सवाल उठाना किसी पाप से कम नहीं है। इसी पर हमने गहरी आपत्ति की। अभी हाल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं केंद्रीय कमेटी ने देश के लिये कानून के शासन का खाका तैयार किया है। लेकिन कानून के शासन की चर्चा के साथ ही वहां की कम्युनिस्ट पार्टी इस बात को दोहराने से कभी नहीं चूकती कि कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अक्षुण्ण रहेगा, वह अलग से संविधान द्वारा सुरक्षित रहेगा, जो एक प्रकट द्वैत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी भी जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को अपना सांगठनिक सिद्धांत मानती है।

समाजवादी क्रांतियों के मूल में सामाजिक गैर-बराबरी, अन्याय और वंचना की सचाई काम करती रही है। पैरिस कम्यून के छोटे से प्रयोग के बाद पहली समाजवादी क्रांति साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी में हुई और बाद में भी पिछड़े हुए और विकासशील देशों में इसका विस्तार हुआ। इसी आधार पर दुनिया में समाजवाद के अप्रतिम इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने अब तक के समाजवाद को सारी दुनिया के आधुनिकीकरण के प्रकल्प का ही एक अविभाज्य हिस्सा माना है।

इन स्थितियों में, कम्युनिस्ट पार्टियों की अपनी अलग पहचान बनाने के लिये भी उन्हें जनतंत्र और उसके विकास के प्रति निष्ठा का विशेष परिचय देना होगा। सिर्फ बाहर नहीं अपने अंदर भी। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बहुमत के सामने अल्पमत के समर्पण के बजाय अपने अंदर अल्पमत को समान रूप से सम्मानित स्थान देने के उपाय खोजने होंगे। ‘समान रूप से सम्मानित स्थान’ का मतलब है कि पूरे समाज में जैसे पार्टी के बहुमत की आवाज सुनी जाती है, वैसे ही हमेशा अल्पमत की आवाज को भी सामने आने देना होगा। वास्तव में देखा जाए तो जनतांत्रिक विमर्श ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ के दायरे से काफी आगे निकल चुका है। राष्ट्रीय विधायी सभाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व तो आज दुनिया के बहुत से जनतांत्रिक देशों का सच है। जनतंत्र को सारवान बनाने के ऐसे और भी कई ठोस उपाय हो सकते हैं।

यही हमारे लेख की मुख्य चिंता है जिसके आधार पर पूरे वामपंथी आंदोलन के पुनर्विन्यास पर हमने बल दिया था। पूंजीवाद की जगह समाजवाद की लड़ाई की एक महत्वपूर्ण कड़ी है - जनतंत्र और बहुलतावाद। अभी हाल में जनसत्ता में ही प्रकाशित अपने एक लेख ‘पूंजीवादी विकास का चरित्र’ में हमने यही बताने की कोशिश की है कि पूंजीवाद नैसर्गिक रूप में इजारेदारी, तानाशाही और एकरूपता से जुड़ा हुआ है। समाजवाद को हर रूप में अपने को इससे अलगाना होगा। सीपीआई(एम) ने 1978 में अपने सलकिया प्लेनम में पार्टी को एक जनक्रांतिकारी पार्टी बनाने का निर्णय लेकर उसे बोल्शेविक पार्टी की तरह के लौह सामरिक अनुशासन वाली पार्टी के ढांचे से मुक्त करने का रास्ता अपनाया था। लेकिन यह कम्युनिस्ट आंदोलन का दुर्भाग्य रहा कि वह उस दिशा में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई।

इसी संदर्भ में अपने लेख में हमने जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बंद ढांचे को तोड़ने की बात कही थी। जाहिर है ऐसे ‘अनादि अपौरुषेय सिद्धांत’ पर सवाल उठाना एक पाप है और किसी भी आस्थावादी के कोप का भाजन बनने का यथेष्ट कारण। हम इस अपराध को स्वीकारते हैं।

गालिब बुरा न मान , जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

गोडसे की मूर्ति हिंदू महासभा क्यों लगा रहा है ?

खबर सरगर्म है कि हिंदू महासभा वालों ने नाथूराम गोडसे की प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। नवभारत टाइम्स की खबर के अनुसार हिंदू महासभा ने राजस्थान के किशनगढ़ से गोडसे की प्रतिमा तैयार करवाई है। इस प्रतिमा को उस रूम में रखा गया है, जहां गोडसे अपने दिल्ली दौरे में हत्या की योजना बनाने के लिए ठहरा करता था। हालांकि, प्रतिमा लगाने के लिए स्थान और तारीख का चुनाव अब तक नहीं हो पाया है।
हमारी आशंका है कि हिंदू महासभा द्वारा गोडसे की प्रतिमा की स्थापना की खबर कहीं आरएसएस के साथ गोडसे के संबंधों पर पर्दादारी की एक सोची समझी चाल तो नहीं है ? इतिहास का तथ्य यह है कि गांधी जी की हत्या के समय तक गोडसे हिंदू महासभा के नेतृत्व का आलोचक हो गया था और उस पर आरएसएस के विचारों का पूरा प्रभाव था। इस संदर्भ में हम अपनी किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ के उस अंश को यहां दे रहे हैं जो गांधी हत्या से जुड़े इस सच को उजागर करता है।

गांधी की हत्या

"वे (आरएसएस) गांधीजी की हत्या से इंकार करते है। सरकार ने भी मामले की जाँच करने के बाद सीधे तौर पर आर एस एस को उसके लिए अपराधी घोषित नहीं किया।यह बात सच है कि नाथूराम गोडसे पर चले मुकदमें में यह साबित नहीं किया जा सका था कि गोडसे आरएसएस का सदस्य था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उस समय तक आरएसएस का अपना कोई संविधान नहीं था, और न ही उसके सदस्यों का कोई बाकायदा रेकर्ड। आरएसएस की इसी सख्त गोपनीयता के कारण शुद्ध रूप से तकनीकी स्तर पर अदालत में तब यह साबित नहीं किया जा सका था कि गांधीजी का हत्यारा नाथूराम आरएसएस का सदस्य था। लेकिन आरएसएस के साथ नाथूराम के लंबे काल से संपर्क थे, इसके बारे में अब तक ढेरों तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं। गोडसे की विचारधारा आरएसएस की विचारधारा से जरा भी भिन्न नहीं थी और वह एक समय में आरएसएस का सक्रिय प्रचारक था, इसे अब साबित करने की जरूरत नहीं है।

जिस प्रकार आरएसएस भारत की आजादी को ’’मुसलमानों के हाथों हिंदुओं की पराजय’ बताता रहा है, उसी तर्क पर नाथूराम ने अदालत में दिये गये अपने बयान में गांधीजी की हत्या को एक देशभक्तिपूर्ण काम बताया था और छाती ठोक कर कहा था कि ’’यदि देशभक्ति पाप है तो मैं जानता हूँ मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ।...मैंने देश की भलाई के लिए यह काम किया। मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए।’’ (गोपाल गोडसे, ’’गांधी वध क्यों’ में नाथूराम गोडसे के अदालत को दिए गए बयान से, पृ. 113)

गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने खुद स्वीकार किया था कि उसने ’’कई वर्षों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम किया है।’’ बाद में वह हिन्दू महासभा में आ गया था, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, इस प्रश्न पर हिन्दू महासभा के नेता सावरकर से उसके मतों का मेल नहीं बैठा। सावरकर आजादी की रक्षा के लिए नई सरकार को समर्थन देने के पक्ष में थे जो गोडसे को सही नहीं लगा और उसने सावरकर का साथ छोड़ दिया। (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 62)

"वास्तविकता यह है कि सावरकर जहाँ देश की आजादी को एक महत्त्वपूर्ण विजय समझते थे, वहीं आर एस एस इसे राष्ट्रीय पराजय, हिन्दुओं को मिली मात मानता था। आर एस एस का पुराना स्वयंसेवक रह चुका नाथूराम गोडसे इस मामले में पूरी तरह आर एस एस के मत का था। सावरकर तिरंगे झण्डे को राष्ट्रीय ध्वज की मर्यादा देना उचित समझते थे, नाथूराम आर एस एस के विचारों का हामी होने के नाते इसका भी विरोधी था।

उसी के शब्दों में : ’’वीर सावरकर ने स्वयं आगे बढ़कर कहा कि चक्रवाले तिरंगे झण्डे को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया जाएँ। हमने इस बात का खुला विरोध किया।’’ (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 63)

"पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की शेष राशि दिए जाने के प्रश्न पर भी आर एस एस और गोडसे के विचार एक थे। गांधी जी की हत्या के ठीक पहले के ’’आर्गनाइजर’, ’’पाँचजन्य’ के अंकों को देखने से ही साफ पता चल जाता है कि आर एस एस किस प्रकार गांधीजी के खिलाफ जहरीला वातावरण तैयार कर रहा था। नाथूराम गोडसे ने फाँसी के फंदे पर उसी प्रार्थना को दोहराया था जो आर एस एस के स्वयंसेवक रोज शाखा के कार्यक्रम में किया करते हैं।

"खुद गोलवलकर जिन शब्दों में गांधी जी की हत्या के समय की परिस्थिति का बयान किया करते थे, वही परोक्ष रूप में यह साबित करता है कि इस हत्या को वे एक प्रकार से परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम मानते थे। गोलवलकर के जीवनीकार प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे के शब्दों में : ’’सम्पूर्ण देश में क्षोभ फैला हुआ था। महात्मा गांधी ने उस समय अपना मुकाम हेतुत: दिल्ली में रखा था। प्रतिदिन अपनी सायं प्रार्थना-सभा में वे लोगों को शान्ति, प्रेम एवं बनु-भावना का महत्त्व समझाते थे। भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अवश्य दें, ऐसा वे कहते थे। उसके लिए वे आमरण अनशन के लिए भी जिद किए हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से आहत और व्यथित लोग गांधी जी को बुरा-भला कहने लगे।

’’इनके इस प्रकार से बोलने से ही मुसलमान सिर पर चढ़ बैठे हैं। इनके वक्तव्यों से पाकिस्तान को बल मिलता है।’’ इस प्रकार की आलोचना सर्वत्र होने लगी। कुछ युवक आपे से बाहर हो गए। उनमें से एक ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को, प्रार्थना-सभा में पिस्तौल चलाकर गांधी जी की हत्या कर दी।’’ (प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, श्री गुरू जी, एक जीवन यज्ञ, पृ. 59)

"गाधीजी की हत्या के ठीक बाद ही इस तथ्य को अनेक ने नोट किया था कि आरएसएस के लोगों ने खुशी मनाते हुए आपसे में मिठाइयां बांटी ।  गांधीजी के निजी सचित प्यारेलाल की पुस्तक ’’महात्मा गांधी द लास्ट फेज’ के दूसरे खंड में गांधीजी की हत्या के पूरे षड़यंत्र का और उसमें आरएसएस  वालों की भूमिका का विस्तार से जिक्र किया गया है। इसमें उन्होंने बताया है कि सरकार को हत्या के इस षड़यंत्र के पुख्ता सबूत मिल गये थे। पहला विफल प्रयास तो 20 जनवरी के दिन ही कर लिया गया था, जिसमें गोडसे भी शामिल था। सरदार पटेल ने इस पर गांधीजी से अनुरोध किया था कि आगे से उनकी प्रार्थना सभा में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पुलिस तलाशी लेगी। लेकिन गांधीजी ने यह कह कर पुलिस के पहरे से इंकार कर दिया कि कि प्रार्थना सभा में जब वे खुद को ईश्वर की पूर्ण सुरक्षा के सुपुर्द कर देते हैं, उस समय उन्हें मनुष्य द्वारा दी गयी सुरक्षा मंजूर नहीं है। सरदार पटेल को गांधीजी की जिद को मानना पड़ा था। लेकिन प्यारेलाल ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जब सरकार को इस प्रकार के षड़यंत्र का पता चल गया था, तब फिर क्यों नहीं उस षड़यंत्र को पहले ही विफल कर देने के लिये अन्य स्तरों पर उचित कार्रवाइयां की गयी। इसी सिलसिले में वे आगे लिखते हैं कि सरकार की ’’यह विफलता इस बात का संकेत थी कि किस हद तक यह गंदगी (आरएसएस के विचारों की गंदगी -अ.मा.) प्रशासन की अनेक शाखाओं तक फैल चुकी थी, जिससे पुलिस भी नहीं बची थी। दरअसल, यह बाद में प्रकाश में आया कि आरएसएस के संगठन की शाखाए-प्रशाखाएं सरकारी विभागों तक में फैल चुकी थी, आम कर्मचारी तो क्या, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों में से भी कइयों की उसके प्रति सहानुभूति थी और वे आरएसएस के कामों में शामिल लोगों की सक्रिय सहायता किया करते थे। ...सरदार पटेल को हत्या के बाद एक नौजवान, जिसने खुद स्वीकारा था कि वह भी कभी आरएसएस का सदस्य था लेकिन बाद में उसका मोहभंग होगया था, से जो पत्र मिला उसमें बताया गया है कि कैसे कुछ स्थानों पर आरएसएस के सदस्यों को यह कहा गया था कि वे उस भाग्यशाली शुक्रवार के दिन ’’अच्छी खबर’ सुनने के लिये अपने रेडियो चालू रखे। खबर आने के बाद दिल्ली सहित कई स्थानों पर आरएसएस के लोगों ने आपस में मिठाइयां बांटी।’’

"प्यारेलाल ने इस षड़यंत्र में नाथूराम गोडसे के साथ प्रत्यक्ष रूप से शामिल पुणे से निकलने वाले ’’हिंदू राष्ट्र’ अखबार के संपादक नारायण डी आप्टे, दिगंबर डी बेज, गोपाल गोडसे, करकरे, मदनलाल पहवा आदि के जो नाम दिये हैं, उन सबके बारे में साफ लिखा है कि ’’वे सभी हिंदू महासभा अथवा आरएसएस के सदस्य थे।’’      

"सहस्त्रबुद्धे ने गांधी जी की शान्ति, प्रेम की बातों तथा पाकिस्तान को 55 करोड देने की बात पर नौजवानों के जिस गुस्से की बात लिखी है, वह गुस्सा और कहीं नहीं आर एस एस के मंचों पर ही व्यक्त किया जाता था। "


http://navbharattimes.indiatimes.com/india/nathuram-godses-statue-made-preparing-to-install-in-delhi/articleshow/45528068.cms

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

उबर, पूंजीवाद, प्रतिद्वंद्विता और इजारेदारी




अरुण माहेश्वरी

उबर कांड ने दिल्ली के सत्ता के गलियारों तक में एक भारी हलचल पैदा की है। सारी दुनिया में अभी इस कंपनी का शोर है। मात्र चार साल पहले सैन फ्रांसिस्को में यात्रियों को बड़ी और आलीशान गाडि़यों की सुविधा आसानी से मुहैय्या कराने के उद्देश्य से बनायी गई इस कंपनी ने देखते ही देखते सारी दुनिया के पूरे टैक्सी बाजार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेने का आतंक पैदा कर दिया है। अब तक 50 देशों के 230 शहर में इसने अपने पैर पसार लिये हैं और हर हफ्ते इसके दायरे में एक नया शहर आता जा रहा है। चार साल पहले की इस मामूली कंपनी की आज बाजार कीमत 40 बिलियन डालर कूती जा रही है।

उबर और ऐसी ही सिलिकन वैली की दूसरी तमाम कंपनियों के इस विश्व-प्रभुत्व अभियान ने दुनिया में प्रतिद्वंद्विता बनाम इजारेदारी की पुरानी बहस को फिर एक बार नये सिरे से खड़ा कर दिया है। दिल्ली की सत्ता के गलियारों में गृह मंत्रालय और परिवहन मंत्री के परस्पर-विरोधी बयानों में भी कहीं न कहीं, सूक्ष्म रूप से ही क्यों न हो,  उसी वैचारिक द्वंद्व की गूंज सुनाई देती है।
व्यापार और वाणिज्य की दुनिया में यह एक अनोखे प्रकार का घटनाक्रम है। मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत पूंजी के संकेंद्रण को पूंजीवाद की नैसर्गिकता बताया था। सामान्य तौर पर मार्क्स के उस कथन की ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’ की तरह के मतस्य-न्याय से तुलना की जाती रही है। इसके मूल में संकेन्द्रण की प्रक्रिया को दर्शाने वाला मार्क्स का यह कथन था कि संपत्तिहरणकारियों का संपत्तिहरण होता है। लेकिन आज जिस प्रकार कुकुरमुत्तों की तरह विश्व इजारेदारी कायम करने वाली ढेर सारी कंपनियों का कोलाहल सुनाई दे रहा है, इस प्रकार के नये परिदृश्य का इससे कोई भान नहीं होता था। इस लिहाज से यह एक बिल्कुल नयी परिघटना प्रतीत होती है - जिसे आज के अर्थशास्त्री ‘नेटवर्किंग एफेक्ट’ (इंटरनेट की संतानें) बताते हैं। इंटरनेट के तानेबाने से उत्पन्न एक नयी सामाजिक परिघटना। इसीकी रोशनी में इजारेदारी बनाम प्रतिद्वंद्विता की बहस ने भी आज एक नया आयाम ले लिया है।
पूंजीवादी अर्थशास्त्री आज तक प्रतिद्वंद्विता को पूंजीवाद की सबसे बड़ी आंतरिक शक्ति, उसकी आत्मा बताते रहे हैं। पूंजीवाद के निरंतर विकास और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता का तथाकथित प्रमुख स्रोत ; बाजार का मूल तत्व। इसके बरक्श पूंजीवाद के पैरोकार इजारेदारी को हमेशा एक सामाजिक बुराई, एक विचलन के तौर पर देखते हैं, जो उनके अनुसार पूंजीवाद की आंतरिक गतिशीलता का, उसकी आत्मा का हनन करती है और व्यापक समाज का भी अहित करती है। अमेरिका सहित सभी विकसित पूंजीवादी देशों के संविधान में इजारेदारी को रोकने के कानूनी प्राविधान है और गाहे-बगाहे इन प्राविधानों का अक्सर प्रयोग भी किया जाता रहा है। भारत में भी उन्हीं की तर्ज पर बदस्तूर एमआरटीपी एक्ट बना हुआ है।
अमेरिकी इतिहास में ऐसे कई मौके आए हैं जब राज्य की ओर से सीधे हस्तक्षेप करके आर्थिक इजारेदारियों को तोड़ने के कदम उठाये गये। अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट को तो इतिहास में ‘ट्रस्ट बस्टर’ अर्थात ‘इजारेदारी भंजक’ की ख्याति प्राप्त है, जिन्होंने 1901-1909 के अपने शासन काल में 44 अमेरिकी इजारेदार कंपनियों को भंग किया था। अमेरिका में सबसे पहला इजारेदारी-विरोधी कानून शरमन एंटी ट्रस्ट एक्ट 1850 में बना था। उसके बाद  क्लेटन एंटी ट्रस्ट एक्ट और फेडरल ट्रेड कमीशन एक्ट (1914), रॉबिन्सन-पैटमैन एक्ट (1936) तथा सेलर-केफोवर एक्ट (1850) आदि कई कानून बने। अमेरिका में कंपनियों की इजारेदाराना हरकतों को लेकर हमेशा अदालतों में कोई न कोई मुकदमा चलता ही रहता है।
लेकिन, आज वेंचर कैपिटल के सहयोग से कुकुरमुत्तों की तरह अमेरिकी गराजों से विश्व विजय पर निकलने वाली इन नये प्रकार की इजारेदाराना कंपनियों के सिलसिले में यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सचमुच इजारेदारी पूंजीवाद की आंतरिक ऊर्जा को सोखती है और समाज का अहित करती है ? आज की दुनिया की सबसे बड़ी माने जानी वाली कंपनियां माइक्रसोफ्ट, गूगल, एपल, फेसबुक आदि सब रास्ते के छोकरों का ऐसा करिश्मा है जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। और आज इन कंपनियों की स्थिति यह है कि इनसे सारी दुनिया की सरकारें एक स्तर पर खौफजदा होने पर भी कोई इनसे आसानी से किनारा करने के लिये भी तैयार नहीं है। सबके लिये ‘न निगलते बने न उगलते बने’ वाली स्थिति बनी हुई है। खुद अमेरिका में भी यही हाल है। पिछले दिनों अमेरिकी अदालतों में माइक्रोसोफ्ट, गूगल आदि को लेकर जितने भी मुकदमे चले, उन सबमें न्यायाधीशों ने इन कंपनियों के बारे में कोई साफ राय देने में अपने को लगभग असमर्थ पाया है। इनपर रोक, या इन्हें भंग करने के बजाय अधिकांश फैसलें इन्हें आगे एहतियात बरत कर चलने की हिदायत देने तक सीमित रहे हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है गूगल पर इजारेदारी कायम करने के लिये चलाये गये मुकदमे का परिणाम। इसमे गूगल को सिर्फ डांट पिला कर छोड़ दिया गया। जानकारों का कहना है कि उससे गूगल के काम करने के ढंग में जरा सा भी फर्क नहीं आया है।


सारी दुनिया में इंटरनेट और मोबाइल के जरिये भुगतान करने की सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनी पे पॉल के संस्थापक पीटर थियेल की अभी इसी सितंबर महीने में किताब आई है - जीरो टू वन (नोट्स आन स्टार्ट्स अप ऑर हाउ टू बिल्ड द फ्यूचर)। थियेल ही है जिसने जुकरबर्ग के फेसबुक में सबसे पहले निवेश किया था। अपनी इस किताब में थियेल ने प्रतिद्वंद्विता के प्रति सामान्य तौर पर अर्थशास्त्रियों और सरकारों के अति-आग्रह को लताड़ते हुए कहा कि यह सोच कि प्रतिद्वंद्विता से ग्राहक को लाभ होता है, इतिहास के कूड़े पर फेंक देने लायक सोच है। प्रतिद्वंद्विता सफलता की नहीं विफलता की द्योतक है। किसी भी समस्या के समाधान के ‘एकमात्र’ हल को प्राप्त करना ही सफलता है और इसीलिये इजारेदारी में ही समाज का हित है।



मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत उत्पादन के साधनों के क्रांतिकारण की जिस लगातार और अनिवार्य प्रक्रिया की बात कही थी, थियेल लगभग उसी बात को थोड़े दूसरे अंदाज में, नाक को घुमा कर पकड़ने के अंदाज में कह रहा है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कहा गया था कि ‘‘उत्पादन के औजारों में क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरूप उत्पादन संबंधों में, और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता। ...उत्पादन प्रणाली में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चयता और हलचल - ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती है। सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रंखला होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नये बननेवाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।’’
घोषणापत्र में व्यक्त यह सचाई आज और भी प्रकट रूप में हमारे सामने हैं। प्रतिद्वंद्विता को पूंजीवाद की पवित्र आत्मा मानने वाले पूंजीवादी अर्थशास्त्री उसके अंदर की खोजपरकता (innovativeness) में निहित बाजार पर इजारेदारी कायम करने की प्रवृत्ति पर पर्दादारी करते हैं और पूंजीवाद को आर्थिक जनतंत्र के साथ, बहुलता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा बताते हैं। पूंजीवाद के सबसे उल्लेखनीय प्रवक्ता जोसेफ शुम्पेतर ने ‘30 के दशक में ही नयी खोज के जरिये बाजार पर कब्जा करने के सच को लक्षित किया था, लेकिन पीटर थियेल ने तो अपनी किताब के जरिये पूंजीवाद के तहत इजारेदारी का पूरा शास्त्र ही रच दिया है। वे अपनी किताब में उद्यमियों को प्रतिद्वंद्विता की नहीं, इजारेदारी कायम करने की सीख देते हैं। उसकी दृष्टि में ‘‘प्रतिद्वंद्विता तो पराजितों का राग है। आप यदि टिकाऊ मूल्य पैदा और प्राप्त करना चाहते हैं तो इजारेदारी कायम करो।’’

‘जीरो टू वन’ के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही है - ‘‘ व्यापार में हर क्षण सिर्फ एक बार घटित होता है। अगला बिल गेट्स ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनायेगा। अगला लैरी पेज या सर्गे ब्रिन सर्च इंजन नहीं बनायेगा। और अगला जुकरबर्ग सोशल नेटवर्क तैयार नहीं करेगा। आप यदि इन लोगों की नकल कर रहे हैं तो आप उनसे कुछ नहीं सीख रहे हैं।’’


आज सिलिकन वैली की गूगल, माइक्रोसोफ्ट की तरह की तमाम कंपनियों के बीच भी कभी-कभी प्रतिद्वंद्विता के जो चिन्ह दिखाई देते हैं, वे बेहद कमजोर से चिन्ह हैं। सचाई यह है कि सिलिकन वैली की तमाम कंपनियां उन क्षेत्रों से अपने को धीरे-धीरे हटा लेती है, जिन क्षेत्रों में एक कंपनी ने बढ़त हासिल कर ली है। और जो दूसरे उपेक्षित क्षेत्र, जिनकी ओर अभी दूसरों का ध्यान नहीं गया है, उन पर अपने को केंद्रित करती है। विश्व विजय में उतर रहे उबर की तरह के नये रणबांकुरे भी अभी किसी भी क्षेत्र में सीधे ताल ठोक कर किसी पहले से स्थापित कंपनी से प्रतिद्वंद्विता के लिये काम नहीं कर रहे हैं। इस मामले में उनकी दृष्टि हमारे ‘एक और ब्रह्मांड’ के नायक राधेश्याम जैसी ही है, जिसने स्थापित ब्रांडों से टकराते हुए अपना ब्रांड बनाने के बजाय ‘‘किसी निर्जन या उजड़े हुए पथ पर ही अपनी बांसुरी की तान छेड़ना श्रेयस्कर समझा। प्रसाधन के आधुनिक क्षेत्र के बजाय पुरातन, आयुर्वेद के क्षेत्र का चयन किया। ...आज की चकदक पैकिंग में आयुर्वेदिक उत्पाद - रॉक की थाप पर ‘रघुपति राघव राजा राम’ - आधुनिकता की प्रक्रिया में पूर्व-आधुनिक सम्मोहन की छौंक का उत्तर-आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र...पुरातन के इंद्रजाल पर टिका एक सर्वाधुनिक रास्ता।’’

फेसबुक को देखिये। छात्रों के एक समूह के बीच आपसी संपर्कों के उद्देश्य से तैयार किया गया सोशल नेटवर्किंग साइट रातो-रात सारी दुनिया में अरबों लोगों के बीच संपर्कों का साइट बन गया। यह एक खास सामाजिक परिस्थिति की उपज भी है। जब तक व्यापक पैमाने पर लोगों के हाथ में मोबाइल फोन या टैब्लेट, कमप्यूटर न हो, तब तक इसप्रकार के पूरे संजाल और उसपर आधारित इन नयी इजारेदारियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
समग्र रूप से आज विश्व अर्थनीति की परिस्थितियां किस दिशा में जा रही है, उसका एक ब्यौरा मिलता है सन माउक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक, कमप्यूटर तकनीक के क्षेत्र के एक बादशाह विनोद खोसला की 11 जून 2014 की ‘फोर्ब्स’ पर लगायी गयी पोस्ट से। चीज़ें जिस गति से बदल रही है,  वास्तव में उसका आसानी से अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता है ।

विनोद खोसला कमप्यूटर की दुनिया का एक विश्वप्रसिद्ध नाम है, जिसने कमप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी। आज उनकी कंपनी खोसला वेंचर्स सूचना तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक हैं। अपनी इस पोस्ट, ”The Next Technology Revolution Will Drive Abundance And Income Disparity” (अगली तकनीकी क्रांति समृद्धि और आमदनी में असमानता लायेगी) की शुरूआत ही वे इस बात से करते हैं कि आगे आने वाले समय में और भी बड़ी-बड़ी तकनीकी क्रांतियां होने वाली हैं, लेकिन जिस एक चीज का मनुष्य पर सबसे अधिक असर पड़ेगा, वह है ऐसी प्रणालियों का निर्माण जिनमें मनुष्य की विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होगी। विचारशील मशीन, जिसे दूसरे शब्दों में कृत्रिम बुद्धि कहा जाता है, उसमें जटिल से जटिल विषयों पर निर्णय लेने में समर्थ तकनीकी प्रणाली के निर्माण की दिशा में बड़ी तेजी से काम चल रहा है। उदाहरण के तौर पर, पांच साल पहले तक गाड़ी चलाना कमप्यूटर के लिये एक बेहद कठिन चीज समझी जाती थी, लेकिन अब यह एक सचाई बन चुकी है।


खोसला लिखते हैं कि इस बात पर बिना मगजपच्ची किये कि क्या-क्या संभव है, कम से कम इतना जरूर कहा जा सकता है कि सृजनात्मकता के क्षेत्र में, भावनाओं और समझदारी के क्षेत्र में, मसलन, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली संगीत की सबसे अच्छी बंदिश, पाठकों के मन को छूने वाली प्रेम कहानी या अन्य रचनात्मक लेखन में तो यह प्रणाली बहुत ही कारगर साबित होगी, क्योंकि उसके पास श्रोताओं और पाठकों को छूने वाले तमाम पक्षों और संगीत तथा लेखन के अब तक के विकास की पूरी जानकारी होगी।

इस विषय पर आगे और विस्तार से जाते हुए खोसला बताते हैं कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी। ‘‘प्रचुरता और आमदनी में बढ़ती हुई विषमता के युग में हमें पूंजीवाद के एक ऐसे नये संस्करण की जरूरत पड़ सकती है जो सिर्फ अधिक से अधिक दक्षता के साथ उत्पादन पर केन्द्रित न रह कर पूंजीवाद के अन्य अवांछित सामाजिक परिणामों से बचाने के काम पर केन्द्रित होगा।’’

अपने इस लेख में खोसला ने विचारवान मशीन के निर्माण के उन तमाम क्षेत्रों की ठोस रूप में चर्चा की हैं जिनमें खुद उनकी कंपनी तेजी से काम कर रही है और जिनके चलते खेतिहर मजदूरों, गोदामों में काम करने वाले मजदूरों, हैमबर्गर बनाने वालों, कानूनी शोधकर्ताओं, वित्तीय निवेश के मध्यस्थों तथा हृदय रोग और ईएनटी रोग के विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों आदि की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। इनके कामों को मशीनें कहीं ज्यादा दक्षता के साथ कर दिया करेगी।

उनका साफ कहना है कि अतीत के आर्थिक इतिहास में, हर तकनीकी क्रांति से जहां कुछ प्रकार के रोजगार खत्म हुए तो वहीं कुछ दूसरे प्रकार के रोजगार पैदा हुए। लेकिन आगे ऐसा नहीं होगा। ‘‘आर्थिक सिद्धांत मुख्य रूप से कार्य-कारण के बजाय अतीत के अनुभवों पर टिके होते हैं, लेकिन यदि रोजगार पैदा करने के मूल चालक ही बदल जाए तो उसके परिणाम बिल्कुल अलग होसकते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तकनीक आदमी की क्षमताओं को बढ़ाती और तीव्र करती रही है, जिससे मनुष्य की उत्पादनशीलता बढ़ी है। लेकिन यदि किसी भी ख़ास काम के लिये बुद्धि और ज्ञान, इन दोनों मामलों में बुद्धिमान मशीन आदमी से श्रेष्ठ बन जाती है तो कर्मचारियों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी और इसके चलते आदमी का श्रम दिन प्रति दिन सस्ता होता जायेगा।’’ उनकी राय में कोई भी आर्थिक सिद्धांत बेकार साबित होगा यदि उसमें अतीत की तकनीकी क्रांतियों और इन नयी विचारशील मशीनी तकनीक के बीच के फर्क की समझ नहीं होगी।

इस सिलसिले में खोसला कार्ल मार्क्स को उद्धृत करते हैं - ‘‘इतिहास की गाड़ी जब किसी घुमावदार मोड़ पर आती है तो बुद्धिजीवी उससे झटक कर औंधे मूंह गिर जाते हैं।’’ अर्थशास्त्रियों का अतीत के अनुभवों को अपना अधिष्ठान बनाने का ढंग भविष्य के लिये वैध साबित नहीं होगा । एक नये कार्य-कारण संबंध से पुराने, ऐतिहासिक परस्पर-संबंध टूट सकते हैं। जो लोग कमप्यूटरीकरण से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव का हिसाब-किताब किया करते हैं, और अब भी कर रहे हैं, वे इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि आगे तकनीक क्या रूप लेने वाली है और उनके सारे अनुमान अतीत के अनेक ‘सत्यों’ की तरह झूठे साबित हो सकते हैं।

खोसला की तरह पीटर थियेल ने भी अपनी किताब में इजारेदारी के पक्ष में यही दलील दी है कि इजारेदारी से दुनिया में एक बिल्कुल नये प्रकार की समृद्धि पैदा होती है। इजारेदारी के तहत होने वाली खोजों से जिन्दगी नये रूप में संवरती है। 1911 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने जब ट्रस्ट विरोधी कानून के जरिये स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी को 34 अलग-अलग कंपनियों में विभाजित कर दिया था, उस फैसले में भी इस तथ्य को नोट किया गया था कि 1880 से तेल के व्यापार पर एकाधिकार बनाये रखने वाली इस कंपनी ने अतीत में कुछ ऐसे काम भी किये हैं जिनसे उपभोक्ता का और पूरे समाज का भला हुआ था। मसलन, इसी कंपनी ने केरोसिन तेल को इजाद किया जो जलकर चमकता है, लेकिन उसमें विस्फोट नहीं होता, जबकि बाकी सभी ज्वलनशील तेल में चमक के साथ ही विस्फोट हो जाता है। उस कंपनी ने शोध कार्य और दूसरी ढांचागत सुविधाओं के विकास में अच्छा खास निवेश किया था। उसीने कई प्रकार की चिकनाई वाले तेल भी विकसित किये। ये सारे काम तेल के क्षेत्र में इजारेदारी और भारी पूंजी की उपलब्धता के बिना संभव नहीं हो सकते थे।

इन्हीं तमाम तथ्यों की रोशनी में खोसला ने अपनी पोस्ट में साफ कहा है कि वे पूंजीवाद के कट्टर समर्थक है और इसी नाते वे साफ शब्दों में कहते हैं कि आज जो कुछ चल रहा है, उसे अबाध गति से और भी तेजी के साथ चलने दिया जाना चाहिए। खोसला की इस पोस्ट पर पिछले दिनों अपने ब्लाग में इस लेखक ने एक टिप्पणी की थी। उसमें हमने श्रम का कोई मूल्य न रह जाने वाले उनके कथन के पहलू पर यह बुनियादी सवाल उठाया था कि यदि किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य नहीं रहता है तो फिर पूँजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा ? श्रमिक और पूँजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है । यदि पूँजीपति की भूमिका उत्पादन के काम में ख़त्म हो जाती है तो श्रमिक की तरह ही उसके अस्तित्व का भी कोई कारण बचा नहीं रह जाता है। अगर कुछ बचा रह जाता है, तो वह है, राज्य की भूमिका । ऐसे में हमारा यह निष्कर्ष था कि समाज के अंदर वर्गीय अन्तर्विरोधों के अंत के साथ राज्य के वर्गीय चरित्र का भी लोप हो जाता है । हमने पूछा था, क्या सचमुच, एक शोषण-विहीन, राज्य-विहीन समाज के निर्माण का मार्क्स का यूटोपिया आदमी की जद के इतना क़रीब है ?

बहरहाल, तेजी के साथ कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही नाना प्रकार की इजारेदारियों और तमाम सामाजिक संबंधों में आने वाले भूचाल को देखते हुए पिटर थियेल और बिनोद खोसला जिस साफगोई के साथ पूंजीवाद के सच का बयान कर रहे हैं, उससे कम्युनिस्ट घोषणापत्र से लिये गये उपरोक्त उद्धरण की उस बात की एक साफ झलक मिलती है जिसमें कहा गया था कि ‘‘ जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।’’ थियेल और खोसला जिस संजीदगी से जीवन की मौजूदा वास्तविक स्थिति को देख पा रहे हैं, वह पारंपरिक अर्थशास्त्रियों की दृष्टि पर छाये हुए कोरे भ्रमों से पूरी तरह मुक्त है। थियेल साफ कहता है कि अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता को एक मिथक बना दे रहे हैं और इस बात का श्रेय लेते है कि वे इसके जरिये समाजवाद से रक्षा कर रहे हैं। सच यह है कि पूंजीवाद और प्रतिद्वंद्विता दो विरोधी चीजें हैं। पूंजीवाद पूंजी के संचय पर टिका हुआ है, लेकिन वास्तविक प्रतिद्वंद्विता की परिस्थिति में तो सारा मुनाफा प्रतिद्वंद्विता की भेंट चढ़ जायेगा।’’

All fixed, fast-frozen relations, with theirtrain of ancient and venerable prejudices and opinions, are swept away, all new-formed ones become antiquated before they can ossify. All that is solid melts into air, all that is holy is profaned, and man is at last compelled to face with sober senses his real conditions of life, and his relations with his kind
थियेल साफ कहता है कि पेटेंट देने के काम के जरिये सरकार का एक विभाग भी तो इजारेदारी कायम करने के काम में ही लगा हुआ है।

‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के एक ताजा अंक में, इजारेदारियों से आच्छादित इस पूरे आर्थिक परिदृश्य के वृत्तांत के अंत में अमेरिकी सिनेटर जॉन सरमैन के इस कथन को उद्धृत किया गया है कि ‘‘हमें उत्पादन, परिवहन और जीवन की जरूरत की किसी भी चीज के विपणन के लिये शहंशाह की कामना नहीं करनी चाहिये, भले वे हमारे लिये चीजों को कितना भी आसान क्यों न बनाते हो।’’ इसप्रकार, सरमैन अभी भी, वही पुराना पूंजीवाद और प्रतिद्वंद्विता, पूंजीवाद और जनतंत्र तथा पूंजीवाद और बहुलतावाद वाला राग ही अलाप रहे है, जबकि जो सच सामने आरहा है वह इन सबके सर्वथा विपरीत है। पूंजीवाद की नैसर्गिकता प्रतिद्वंद्विता में नहीं, जनतंत्र में नहीं और न ही बहुलतावाद में है। पूंजीवाद का अन्तर्निहित सच है इजारेदारी, तानाशाही और एकरूपता। इसीलिये यह सभ्यता के सच्चे जनतंत्रीकरण के रास्ते की एक पहाड़ समान बाधा है और, इसीलिये यह आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका के खास हलकों में चीन का शासनतंत्र आजकल काफी ज्यादा चर्चा में हैं ! दिल्ली की सत्ता के गलियारे में भी उबर पर पाबंदी के फौरन बाद उतनी ही जोरदार आवाज में इस कदम के पीछे विवेक की कमी की आवाज का उठना भी अस्वाभाविक नहीं है। पूंजीवादी विकास का रास्ता सिर्फ और सिर्फ इजारेदारियों के जरिये ही आगे बढ़ सकता है।











सोमवार, 8 दिसंबर 2014

नन्द भारद्वाज के नाम खुला पत्र


प्रिय नन्द भारद्वाज जी,
‘नया पथ’ और उसकी सामग्री को पुस्तकाकार में प्रकाशित किये जाने के प्रसंग पर जलेस के एक और वरिष्ठ अधिकारी जवरीमल पारीख का भी एक खुलासा आया है। इसमें वे लिखते हैं : ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयी, वह किया जाना उचित था या अनुचित मैं नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी... इन अंकों के पुस्तकाकार छपने से नया पथ को भी लाभ हुआ है. मसलन १८५७ वाले अंक का पूरा खर्चा नया पथ का बच गया था क्योंकि प्रकाशक ने पत्रिका छाप कर दे दी थी और उसके बदले में नया पथ को एक भी पैसा नहीं देना पड़ा था. उसमें जो विज्ञापन मिले थे वह नया पथ की आय हो गयी थी. पिछले चार पांच सालों में निकलने वाले कुछ विशेषांक ही पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं अन्य बहुत से अंकों का व्यय नया पथ के ही अकाउंट से किया गया है.”
पारीख जी के उत्तर से जाहिर है, संजीव कुमार के जिस उत्तर को आप ‘सटीक और तथ्यपूर्ण’ मान रहे थे, वह सही नहीं था। वैसे मेरे लिये तो वह जानकारी भी मेरी जानकारी से काफी ज्यादा थी। लेकिन अब जवरीमल जी की पोस्ट से पता चलता है कि संजीव कुमार के पत्र में बताया कम, छिपाया ज्यादा गया था।
मसलन संजीव कुमार का पत्र इस ओर जरा भी इशारा नहीं करता कि ‘नया पथ’ की सामग्री को पुस्तकाकार देने के लिये किसी भी प्रकाशक से किसी प्रकार का कोई आर्थिक लेन-देन किया गया था, जबकि जवरीमल जी बता रहे हैं कि प्रकाशक के पैसों से ही नया पथ का एक पूरा अंक प्रकाशित हुआ।
इसी से संजीव के जवाब का यह तर्क भी बेबुनियाद साबित होता है कि ‘‘ भारतीय भाषा परिषद् वाले मामले के साथ इन किताबों का मामला तुलनीय नहीं है। भारतीय भाषा परिषद् ने किताबें खुद छापीं और उन्हें, जैसी कि अरुण जी की जानकारी है, बड़ी संख्या में पुस्तकालय ख़रीद का हिस्सा बनवाया। इसका मतलब है कि उसने बाकायदा व्यवसाय किया”।
नया पथ की सामग्री को पुस्तककार में निकालने के लिये ‘नया पथ’ अर्थात जलेस को बाकायदा भुगतान किया गया था।
संजीव कुमार ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि ‘‘ किताबों में शामिल सभी लेखकों को मानदेय भेजे गए हैं, किताबें भी भेजी गयी हैं। ‘नया पथ’ की ओर से (पत्रिका में प्रकाशन के लिए) मानदेय अलग और प्रकाशक की ओर से अलग।“
अपने अनुभव के आधार पर मैं इस बात की गवाही दे सकता हूं कि संजीव की इस बात में सचाई नहीं है। नया पथ द्वारा लेखकों को मानदेय दिया जाता है, मैं नहीं जानता। मेरी भी एकाध चीज नया पथ में छप चुकी है, लेकिन न किसी प्रकार का कोई मानदेय मिला और न ही हमने उसकी कोई उम्मीद की। इसके अलावा जिस रचना के लिये लेखक को संगठन की ओर से मानदेय दिया गया, उसे किसी व्यवसायिक प्रकाशक को मुहैय्या कराके उसपर निजी स्वत्वाधिकार कायम कर लिया गया ! यह तो और भी अजीब सा लगता है।
ऐसी स्थिति में संजीव कुमार की इस बात में भी कोई दम नहीं लगता कि ‘‘ हममें से कौन नहीं जानता कि श्रेय ही महत्वपूर्ण है, स्वत्वाधिकार के नाम पर रोयल्टी का अंश इतना भी नहीं होता कि साल भर में एक-एक बार किताब के contributors से फोन पर बात कर लेने का खर्चा निकल आये।“
भाषा परिषद के मामले में तो अशोक जी ने बताया था कि वागर्थ के दो अंकों के पुस्तकाकार रूप की साढ़े चार सौ प्रतियां बाकायदा राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को बेची गयी थी। इन पुस्तकों की वैसी कोई थोक खरीद नहीं हुई, इसे शपथ लेकर कौन कह सकता है ! प्रकाशकों ने इनके प्रकाशन में घाटा उठाने के लिये तो निवेश नहीं ही किया होगा !
नन्द जी, यह सब कुछ अजीब प्रकार का गोरखधंधा सा लगने लगा है। इसपर भगवान दास मोरवाल जी ने जो सवाल उठाया है कि ‘‘ कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनवादी लेखक संघ का यह निर्णय कुछ बड़े प्रकाशकों और उनसे जुड़े प्राध्यापक किस्म के कुछ लेखकों को लाभ पहूंचाने के लिए लिया गया है ? समझ में नहीं आता कि आज तक मैंने कभी किसी लेखक संगठन को किसी लेखक के हक में रॉयल्टी वाले मामले में बोलते नहीं सुना l हम इस सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकारते कि हमारे लेखक संघों का इस्तेमाल कुछ लोगों द्वारा निजी जायदाद की तरह किया गया है ? " वह जरा भी अनुचित नही जान पड़ता।
अब जहां तक इसप्रकार का काम करके साहित्य और संगठन की सेवा करने की जो बात है, उसके बारे में क्या कहूं ! जवरीमल जी लिखते हैं - ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयी, वह किया जाना उचित था या अनुचित में नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी” । कुछ और मित्रों ने भी साहित्य की इस महती सेवा का जिक्र किया है।
ये दलीलें फिर मेरा ध्यान आस्ट्रेलिया के अपराधी जोसेफ फ्रिजल वाली घटना की ओर खींच ले जाती है। ‘‘उसने अपने बच्चों को दुनिया की बुराई से बचाने के लिये सालों तक अपने घर के तहख़ाने में क़ैद रखा और उनसे तमाम प्रकार के दुष्कर्म किये । बाहर के ख़तरों से अपनी बेटी को बचाने के लिये उसे बेटी को नष्ट कर देना मंज़ूर था । वह अपने पक्ष में ऐसी ही दलील देता था कि यदि मैंने ऐसा न किया होता और बेटी को बाहर के बुरे संसार में जाने दिया होता तो उसकी बेटी ज़िन्दा नहीं रहती । उसने कम से कम उसकी हत्या तो नहीं की ! वह चाहता तो उन्हें मार भी सकता था , लेकिन उसने जिंदा रखा ।’’
मैं नहीं जानता, जनवादी लेखक संघ के सदस्यों को इन सब बातों की कितनी जानकारी रही है। इन्हें स्वीकारने के तर्कों से भी मेरी गहरी आपत्ति है। इन सबसे यह जरूर पता चलता है कि पिछले दिनों नया पथ के अंकों का भारी-भरकम संकलनों की शक्ल में आने और उनके पीछे की 'मेहनत' का सच क्या रहा है।
चंद्रबली जी की मृत्यु पर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि ‘‘ यह खिलखिलाहटों का, और गंभीरता का भान करने वालों के लिये सुंदर पैकेजिंग में मुर्दा सामानों को चलाने का समय है।“ यह सच है कि हमारे उस मंतव्य के पीछे नयापथ का वर्तमान स्वरूप ही काम कर रहा था।
उस लेख के अंत में हमने लिखा था : प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के क्षय को उन्होंने देखा था और उन्हीं अनुभवों के आधार पर नये जनवादी मूल्यों पर टिके एक नये और व्यापक साहित्य-आंदोलन को नेतृत्व दिया था। इसीलिये उनमें हौसला कम नहीं था। लेकिन प्रश्न था कि अब लड़े तो किससे लड़े और कैसे विकल्प के भरोसे! उल्टे, उन्होंने अपने को संगठन में ही एक अजीब किस्म के कुत्सित परिवेश से घिरा पाया।“
यह सब जो सामने आरहा है, उन्हीं बातों की पुष्टि करता है। अंदर ही अंदर सब कितना बदला जाता है, जो उससे जुड़े होते हैं, उन्हें भी इसका पता नहीं होता! इसीलिये बाहर से सवाल उठाने की अहमियत बची रहती है।
हम यहां आपकी सुविधा के लिये जवरी मल पारीख के खुलासे का लिंक दे दे रहे हैं :
https://www.facebook.com/jawarimal.parakh?fref=ts&ref=br_tf

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

नेहरू की विरासत पर फ्रंटलाइन का अंक : एक विहंगम दृष्टि


अरुण माहेश्वरी


फ्रंटलाइन पत्रिका के 12 दिसंबर 2014 के नेहरू की विरासत पर केंद्रित अंक को पढ़ना एक दिलचस्प अनुभव रहा। इसमें नेहरू पर कुल 53 पन्नों की सामग्री है। तीन लेख राजनीतिज्ञों (मणिशंकर अय्यर, प्रकाश करात और तरुण विजय) के हैं, दो लेख अर्थशास्त्रियों (सी पी चंद्रशेखर और प्रभात पटनायक) के, एक इतिहासकार बेंजामिन जाकरिया का, एक राजदूत के.पी.फेबियन का और एक लेख शिक्षाशास्त्री एस. इरफान हबीब का है। इनके अलावा ईएमएस नम्बुदिरिपाद की किताब Nehru : Ideology and Practice से एक अंश लिया गया है और नेहरू जी के जीवन-क्रम की तालिका है।
यहां हम प्रभात पटनायक के लेख से शुरू करते हैं। इस लेख के अंत में प्रभात ने अर्थ-व्यवस्था के बारे में नेहरू-मोहलानबिस रणनीति की बुनियादी बातों को रखते हुए Turnpike Theorem की बात की है। इसके अनुसार एक बंद अर्थ-व्यवस्था में परेशानियों के बिंदुओं (bottleneck sector) पर सारे संसाधनों को झोंक कर बाकी चीजों के विकास की दीर्घकालीन रणनीति अपनाई जाती है। प्रभात बताते हैं कि विश्व बैंक वालों ने इस नीति की यह कह कर आलोचना की कि इसमें विश्व वाणिज्य के जरिये बहुतेरी समस्याओं को दूर कर लेने की संभावनाओं को सोच में नहीं लिया गया था। इसके अलावा, दूसरी आलोचना परेशानियों के बिंदुओं की पहचान को लेकर भी रही। मशीनों के निर्माण की ओर जाया जाएं या कृषि का विकास किया जाए। प्रभात बताते हैं कि कृषि की अवहेलना वाली बात सच नहीं है। नेहरू-मोहलनाबिस रणनीति में जमीन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिये काम किया गया था। इसप्रकार की चर्चाओं के अंत में प्रभात कुछ इस प्रकार के नतीजे पर पहुंचते हैं कि नेहरू की आर्थिक नीतियों का संबंध राष्ट्र की सार्वभौमिकता की रक्षा की भावना से था।
फ्रंटलाइन के इस अंक पर अपनी बात का प्रारंभ हमने प्रभात के लेख से किया इसकी वजह उनके लेख का आखिरी हिस्सा है, जिसमें वे केन्स और आइंस्टाइन के बीच की एक बातचीत का उल्लेख करते हैं। आइंस्टाइन केन्स से कहते हैं कि वे अर्थनीति के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, लेकिन इतना जानते हैं कि माक्‍​र्स ने जो कहा, वह सही था। ‘‘अब अगर तुम मुझसे पूछोगे कि वह क्यों सही था तो मैं तुम्हें वह बता नहीं पाऊंगा।’’ इसपर प्रभात की टिप्पणी है कि किसी भी रणनीति के पीछे जो अंत:प्रेरणा (intution) काम करती है और जिन तर्कों से उस रणनीति को पेश किया जाता है, उन दोनों के बीच फर्क करने की जरूरत है।
आजादी के समय आम भावना यह थी कि देश को सिर्फ कृषि अथवा कृषि-आधारित उत्पादों का निर्यात नहीं करना चाहिए। नेहरू और मोहलनाबिस की यही भावना थी। अब इस भावना के पीछे कौन से विचार या सिद्धांत काम कर रहे थे, उन पर सवाल उठाने पर भी इस भावना के सहीपन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
प्रभात का यह अंतिम निष्कर्ष जिसमें किसी भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अपनाई गयी नीतियों की अंत:प्रेरणा की जो बात कही गयी है, राजनीतिक अर्थशास्त्र का मूल तत्व इसी में निहित है। बाकी चीजें कि नेहरू के काल में जीडीपी का स्तर यह था और मुद्रास्फीति का आलम यह। नेहरू के काल में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता आज की तुलना में कहीं ज्यादा थी। यह सब तो गणितीय अर्थशास्त्र से जुड़ी चीजें हैं - नीति की सफलता या विफलता के गणितीय आकलन की।
इस लिहाज से इस अंक में दूसरे अर्थशास्त्री सी पी चंद्रशेखर के लेख In the name of Nehru की कमी यही है कि वे अपने विश्लेषण में राजनीतिक अर्थशास्त्र के बजाय नितांत गणितीय तत्वों को अपने तर्कों का आधार बनाते हैं और आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसे नतीजों पर पहुंच जाते हैं जो बहुत ही पुख्ता आधार पर नहीं टिके होते हैं, क्योंकि उसमें राजनीतिक समझ का अभाव है। मसलन, उन्होंने अपने लेख में नेहरू युग के शुरूआती 15 सुनहरे सालों, इस दौरान की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था के अभिनव प्रयोग का बखान करते हुए नेहरू की मृत्यु के बाद नीतियों में आये तमाम परिवर्तनों के लिये ‘60 के दशक के मध्य में लगातार दो बार बुरे मानसून को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनके अनुसार इसीके चलते अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतर गयी, भुगतान-संतुलन की समस्या पैदा हुई, रुपये का अवमूल्यन हुआ, ब्रेटनवुड संस्थाओं के शरणापन्न होना पड़ा और सबकुछ उलट-पलट गया। इंदिरा गांधी की आर्थिक असमानता पर चोट करने वाली नीतियों से भी कुछ बदला नहीं जा सका। अर्थ-व्यवस्था ने विदेशी पूंजी के जरिये विकास का आसान रास्ता अपना लिया। चन्द्रशेखर सवाल करते हैं कि ऐसी स्थिति में कांग्रेस किस मूंह से नेहरू की विरासत का जश्न मनायेगी।
प्रभात नेहरू के कामों की अंत:प्रेरणा की बात करते हैं और चंद्रशेखर ‘60 के मध्य बुरे मानसून की वजह से पटरी से उतरी अर्थ-व्यवस्था की उल्टी दिशा का आख्यान देकर नेहरू की विरासत पर सवाल उठाते हैं।
इस अंक का पहला लेख है बेंजामिन जाकरिया का - The importance of being Nehru। जाकरिया इस लेख में व्यक्ति स्वातंत्‍​र्य के पक्षधर, अन्तर‍रष्ट्रीयतावादी, समाजवादी नेहरू द्वारा विरासत में एक संकीर्णतावादी राज्य को छोड़ कर जाने की कहानी कहते हैं। इसके विपरीत पूर्व राजदूत के.पी.फेबियन का लेख बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें वे शीत युद्ध के काल में ध्रुवीकृत दुनिया में नवस्वाधीन भारत की आवाज को विश्व मंचों पर जगह दिलाने के नेहरू के अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करते हैं। अकेले चीन के मामले में किंचित विफलता के अलावा विदेश नीति के मोर्चे पर नेहरू की भारी सफलता का इसे एक सारगर्भित वृत्तांत कहा जा सकता है। इसीप्रकार एस. इरफान हबीब ने विज्ञान के प्रति नेहरू की आशाभरी निगाहों, लगाव और सपनों को राष्ट्र को देखने का उनका रचनात्मक दृष्टिकोण बताया है और एक आधुनिक समाज में अंधविश्वासों के बजाय विज्ञान-मनस्कता पैदा करने के उनके आग्रह को अनेक तथ्यों से रेखांकित किया है।
राजनीतिज्ञों में, मणिशंकर अय्यर ने अपने लेख A vision for India में नेहरू के भारत को जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गुटनिरपेक्षता के चार खंभों पर टिका हुआ भारत बताने की कोशिश की है। प्रकाश करात लिखते हैं कि नेहरू में सांप्रदायिकता से लड़ने और धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना की जो साफ दृष्टि थी, वह कांग्रेस के दूसरे किसी नेता की नहीं थी। बी टी रणदिवे को उद्धृत करते हुए प्रकाश कहते हैं कि नेहरू की तरह का एक गहरे धर्म-निरपेक्ष नजरिये और जनतंत्र की आधुनिक अवधारणा से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व यदि सरकार के नेतृत्व में न होता तो देश की स्वतंत्रता भी गड़बड़ा सकती थी। पुनरुत्थानवादी परंपरा को ठुकरा कर जनता को धर्म-निरपेक्ष और आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संबोधित करने के नेहरू के अवदान को लघु करके नहीं देखा जाना चाहिए।
गौर करने लायक बात है कि नेहरू की विरासत पर इन तमाम लेखों की श्रंखला में तरुण विजय के लेख को उसकी भाषा-शैली और तर्कों के लिहाज से भी एक चरम  कुत्सित लेख कहा जा सकता है। नेहरू के प्रति अपनी नफरत की उत्तेजना में वे यहां तक कह जाते हैं कि सरकार अगर पैसा न दे तो आज नेहरू को उसकी जयंती पर कोई याद तक नहीं करेगा, जबकि सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, किसी के साथ भी ऐसा नहीं है। (गनीमत है कि उन्होंने इन दूसरे नामों के साथ गोलवलकर, हेडगवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम नहीं जोड़ा।) उनके शब्दों में ‘‘गुलाब, सोवियत ढर्रे की पंचवर्षीय योजना, बड़ी-बड़ी बांधों, राज्य-नियंत्रित अर्थ-व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता, बाल दिवस, पंचशील का एशियाई सपना, टिटो, सुहार्तो, नासिर के साथ कॉफी (उत्तेजना में सुकर्णो को सुहार्तो बना दिया गया - अ.मा.), हिंदी चीनी भाई-भाई और शेख अब्दुल्ला से अनोखी प्रीति के जरिये नेहरू का जो वलय तैयार किया गया था, 1962 की आंधी में वह चकनाचूर होगया जो उनके लिये प्राणघाती भी साबित हुआ।’’
तरुण विजय का यह जहर भरा लेख इस बात की गवाही है कि नेहरू की स्मृति में होने वाले किसी भी आयोजन के साथ भाजपा को नहीं जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने लेख का अंत इस पंक्ति से किया है कि ‘‘नेहरू से मुक्ति जरूरी है ताकि भारत को उसकी आत्मा और गति प्राप्त होसके।’’
मुहावरों की भाषा में सोचिये, सचमुच तरुण विजय यही तो चाहते हैं - भारत अपनी 'गति' को प्राप्त करे!


गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

क्या जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व बतायेगा ?


कल (३ दिसंबर को) भारतीय भाषा परिषद की ओर से अशोक सेकसरिया की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था । अशोक जी के पिता भाषा परिषद के प्रमुख संस्थापक द्वय में एक थे । अशोक जी का परिषद की गतिविंधियों में कभी कोई दखल रहा या नहीं, हम नहीं जानते । लेकिन यह सब जानते हैं कि पिछले कुछ सालों से वे परिषद की गतिविधियों से सख़्त नाराज़ थे । परिषद के कर्मचारियों से जुड़े सवालों पर उन्होंने एक मर्तबा बाक़ायदा धरना तक देने की धमकी दी थी । पिछले दिनों एक खुले पत्र से उन्होंने उसके मौजूदा संचालकों पर कई बुनियादी नैतिक सवाल उठाये थे । हम उस पत्र के एक बिंदु पर लेखक मित्रों का ध्यान खींचना चाहते हैं । इसमें वे लिखते हैं -
“भारतीय भाषा परिषद ने अपने मासिक वागर्थ के दो नवलेखन अंकों को मिला कर बिना किसी संपादन और भूमिका के एक किताब बना कर राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को उसकी चार सौ पचास प्रतियां बेची हैं। यह किताब बाजार में कहीं उपलब्ध नहीं, परिषद की पुस्तक की दुकान ‘पुस्तक केंद्र’ तक में नहीं। जिनलोगों की रचनाएं संकलित हैं, उन्हें पुस्तक भेजना तो दूर, यह भी सूचित नहीं किया गया है कि उनकी रचनाओं का क्या हश्र हुआ है।‘’
इसपर आगे वे कहते हैं - "सूचना के अधिकार के तहत राजा राममोहन रायलाइब्रेरी फाउंडेशन और सरकारी संस्थाओं द्वारा पुस्तकों की खरीद की प्रक्रियाओं - उनके चयन और चयनकर्ताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करना और चुप्पाचोरी धांधली को रोकना बहुत जरूरी है।“
ज़ाहिर है, अशोक जी की शिकायत थी कि परिषद ने वागर्थ के दो अंकों को किताब का रूप देकर राममोहन लाइब्रेरी को बेच डाला, मुनाफ़ा किया लेकिन लेखकों को फूटी कौड़ी नहीं दी, यहाँ तक कि पुस्तक की एक प्रति भी नहीं भेजी । इस काम को इतने गोपनीय ढंग से किया गया कि परिषद के प्रकाशनों की सूची में भी उस किताब का कोई स्थान नहीं है ।
भारतीय भाषा परिषद के उद्देश्यों में स्पष्ट रूप से कहा गया है, ‘संस्था के पूर्ण रूप से उन्नायक होने के कारण उसकी कोई भी प्रवृत्ति, जिसमें मुद्रण और प्रकाशन भीसम्मिलित है, किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिए संचालित नहीं की जाएगी।’ इसी का हवाला देते हुए अशोक जी ने भाषा परिषद की इस करतूत को अनैतिक क़रार दिया ।
ग़ौर करने लायक बात है कि जिस चीज़ पर अशोक जी की इतनी तीव्र आपत्ति थी, वह तो आज के हिंदी जगत का जैसे एक सर्वमान्य नियम बनी हुई है । अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ यह काम धड़ल्ले से करती है । इनमें व्यक्तिगत प्रयत्नों से निकलने वाली पत्रिकाओं के साथ ही लेखक संगठनों की पत्रिकाएँ भी शामिल है । फिर भी, व्यक्तिगत प्रयत्नों की पत्रिकाओं के पीछे के तर्कों पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा, लेकिन जो बात भारतीय भाषा परिषद पर लागू होती है, वही लेखक संगठनों पर ज़रूर लागू होती है क्योंकि वे भी 'आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिये संचालित नहीं' है ।
जनवादी लेखक संघ की पत्रिका 'नया पथ' के भी कुछ अंक पिछले दिनों किताब का रूप लेचुके हैं । मज़े की बात यह है कि इन किताबों को कहीं भी जनवादी लेखक संघ की किताबों के रूप में पेश नहीं किया जाता है । पता नहीं इनकी कॉपीराइट किसके पास है, लेकिन जनवादी लेखक संघ की वेबसाइट पर इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
ऐसे में, अशोक जी भारतीय भाषा परिषद के वर्तमान पदाधिकारियों को जिस चीज़ के लिये अपराधी के कठघरे में खड़ा कर रहे थे, वह सवाल तो जलेस के पदाधिकारियों पर भी उठाया जा सकता है । हम नहीं जानते जनवादी लेखक संघ की केन्द्रीय परिषद के अनुमोदन से यह काम किया जाता रहा है, या यह सब किसी की सनक का नतीजा है । लेकिन हमारा मानना है कि संगठन के सदस्यों को इसका संतोषप्रद उत्तर ज़रूर मिलना चाहिये । यह भी बताया जाना चाहिये कि क्या इन पुस्तकों में शामिल लेखकों को कोई मानदेय या पुस्तक की एक प्रति ही मुहैय्या करायी गई है ? पुस्तक की रॉयल्टी वग़ैरह के सवाल अलग हैं ।