बुधवार, 26 नवंबर 2014

कश्मीर में भारी मतदान



कश्मीर में चुनाव के पहले चरण में भारी मतदान - सब ख़ुश है कि जनतंत्र जीत गया । सवाल है कि जनतंत्र की जीत क्या सिर्फ मतदान में हैं या कुछ और - मतदान के परिणामों, सरकारों के गठन, नीतियों और नीतियों पर अमल में हैं ? सचमुच, खोखलापन ही सबसे ज्यादा गूँजता है । जिनकी करतूतों से जनतंत्र की विफलताओं के ग्रंथ लिखे जाते हैं, हिटलर-मुसोलिनी पैदा होते हैं, वे ही मतदान को क़ानूनन अनिवार्य बना कर जनतंत्र को हमेशा सफल मानने का एक नया दैवी विधान तैयार करने के पक्षधर रहे हैं और आज भी हैं । इस विधान में नागरिक की स्वतंत्रता नहीं, उसकी बाध्यता प्रमुख है । जनतंत्र का सार चयन की स्वतंत्रता में नहीं, चुनने की मजबूरी में है ! जनतंत्र कभी विफल नहीं हो सकता इसीलिये जनतंत्र के अंदर से कभी तानाशाहियां पैदा नहीं हो सकती ! जो हिटलर-मुसोलिनी आदि को तानाशाह मानते हैं, इसमें दोष जनतंत्र की विफलता का नहीं, लोगों की दृष्टि का है । वे तो सिर्फ अपने देशवासियों को जगाना और विश्व आधिपत्य के उनके जन्म-सिद्ध अधिकार को पूरी ताक़त के साथ स्थापित करना चाहते थे ! उन्हें निर्दयी तानाशाह कहने वाले राष्ट्र-विरोधी थे, उनका सफ़ाया होना ही चाहिये था !

बहरहाल, सारी दुनिया में जनतंत्र की प्रकट विफलताओं के लंबे इतिहास के बावजूद, जैसे मनुष्य पर अविश्वास करना नैतिक लिहाज़ से पाप माना जाता है, वैसे ही जनतंत्र के प्रति पूरी तरह अनास्थावादी होना भी एक पाप ही है । यह सच है कि जनतंत्र में नागरिक की सार्वभौमिकता सिर्फ उसी क्षण क़ायम होती है, जब वह मतदान कर रहा होता है और दूसरे ही क्षण उस सार्वभौमिकता का अवलोप हो जाता है । फिर भी, इतिहास अनेक संयोगों के किसी ऐसे निर्णायक क्षण में ही करवट लिया करता है । जब इतिहास किसी वेदनादायी मोड़ पर ठहर सा जाता है, तब करवट बदलने वाले क्षण की तलाश में आदमी ज्यादा से ज्यादा व्यग्र और उद्विग्न रहता है ; मतदान के क्षण के प्रति ज्यादा से ज्यादा आस्थावान हो उठता है ।

संकट के आज के एक नये मुक़ाम पर कश्मीर के अलगाववादियों के पास कश्मीरी अवाम के लिये कोई भरोसेमंद विकल्प नहीं है। ऊपर से वे, वहाँ के नागरिकों से उनकी आस्था की इस बची हुई शरण-स्थली को भी छीन कर उनके जीवन से बदलाव के सपनों तक को विरेचित करने के दोषी है । इसीलिये इस बार, अलगाववादियों को और भी निर्णायक ढंग से ठुकराया गया है । तथापि, इतने भर से जनतंत्र की सफलता का परचम नहीं लहराया जा सकता। असल सचाई तो चुनाव परिणामों से सामने आयेगी ।

शनिवार, 22 नवंबर 2014

कौन आगे - भारत या पाकिस्तान !



सबसे पहले प्रधानमंत्री ने ट्वीट करके दुनिया को ओबामा को भेजे गये निमंत्रण के बारे में बताया । अमेरिका इस पर कोई प्रतिक्रिया दे, उसके पहले ओबामा ने अपने सैनिक जेट विमान से ही नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन करके उन्हें आश्वस्त किया । इसके साथ ही चीन ने पाकिस्तान में 45.6 बिलियन डालर के निवेश की घोषणा कर दी। पाकिस्तान की अर्थ-व्यवस्था के आकार को देखते हुए यह भारत में 200 बिलियन डालर के निवेश के बराबर पड़ता है । इसके अलावा भारत की आज़ादी के बाद के अब तक के इतिहास में पहली बार रूस ने पाकिस्तान के साथ सैनिक सहयोग की संधि की है । 

अब आप ही कहिये, कूटनैतिक मामलों में कौन इक्कीस साबित हो रहा है ।

पाकिस्तान-पाकिस्तान का रोना जितना बढ़ेगा, उसे सबक़ सिखाने का जितना तेवर दिखाया जायेगा, दुनिया में भारत का अलग-थलगपन सीधे उसी अनुपात में बढ़ता जायेगा । मोदी का भारत दुनिया की नज़रों में विश्वसनीय नहीं है, जबकि पाकिस्तान आज भी अमेरिका की कथित 'आतंकवाद-विरोधी' मुहिम का सहयोगी है । भारत की अदालतों में हेराफेरी जितनी संभव है, विश्व समुदाय की अदालत में उतनी ही मुश्किल । कूटनीति में सचाई से बड़ा दूसरा कोई अस्त्र नहीं होता और मोदी जी को इसी मामले में अपनी विश्वसनीयता क़ायम करनी है ।

दरअसल, हमारी सरकार के कूटनैतिक लक्ष्यों में ज़रा भी स्पष्टता नहीं है । इन्होंने चालाकी को कूटनीति समझ लिया है और विश्व समुदाय को भारत का मतदाता -जो पूरी तरह से ग़लत है । इस बात को अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिये कि विश्व रणनीति में अमेरिका का सहयोगी बनना और अंध पाकिस्तान-विरोध, ये दोनों परस्पर-विरोधी चीज़ें हैं । अमेरिका को अपनी विश्व सामरिक रणनीति में पाकिस्तान की सख़्त ज़रूरत है । शुद्ध सामरिक रणनीति के लिये उसे भारत जैसे बड़े देश को पालने की ज़रूरत नहीं है । और किसी भी चक्कर में वह पाकिस्तान की तरह के सामरिक महत्व के स्थान को पूरी तरह चीन के सुपुर्द कर सकता है । 

और जहाँ तक अपनी पूँजी के लिये भारत के क्षेत्र को हासिल करने का सवाल है, हमारे लोग भले न जानते हो, लेकिन अमेरिकी अच्छी तरह जानते हैं कि भारत ने विकास का जो रास्ता पकड़ा है, उसमें अमेरिकी पूँजी के प्रति भारत का आकर्षण कहीं ज्यादा है, न कि अमेरिकी पूँजी का भारत में जाने का । इस मामले में वह पूँजी के अपने स्वाभाविक तर्क को जानता है, भारत के पूँजीपतियों की लोलुपता को, भारतीय राज्य पर उनकी पकड़ को भी जानता है । पूँजीवाद का रास्ता होगा और अमेरिका से परहेज़ करके चला जायेगा -यह चल नहीं सकता । 

यही वजह है कि भारत-अमेरिका संबंधों को हमारे भाजपा के लोग जितना अधिक पाकिस्तान के संदर्भ से दूर रखेंगे, उतना ही सच्चाई के क़रीब होंगे । इस मामले में मनमोहन सिंह कहीं ज्यादा यथार्थवादी थे । वे अर्थनीति के तर्कों को समझते थे ।

मोदी जी की प्रदर्शनकारी ओबामा-प्रीति ने पाकिस्तान को चारों दिशाओं का स्नेह-भांजकर बना दिया है ।

शनिवार, 15 नवंबर 2014

मनुष्यता का भविष्य !

अरुण माहेश्वरी


आज सन माउक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक, कमप्यूटर तकनीक के क्षेत्र के एक बादशाह विनोद खोसला की 11 जून 2014 की फोर्ब्स पर पोस्ट को पढ़ कर गहरे सोच में पड़ गया । चीज़ें जिस गति से बदल रही है, उसका आसानी से अंदाज नहीं लगाया जा सकता है । 

विनोद खोसला कमप्यूटर की दुनिया का एक विश्वप्रसिद्ध नाम है, जिसने कमप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी। आज उनकी कंपनी खोसला वेंचर्स सूचना तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक हैं। 

अपनी इस पोस्ट, ”The Next Technology Revolution Will Drive Abundance And Income Disparity” की शुरूआत ही वे इस बात से करते हैं कि आगे आने वाले समय में और भी बड़ी-बड़ी तकनीकी क्रांतियां होने वाली हैं, लेकिन जिस एक चीज का मनुष्य पर सबसे अधिक असर पड़ेगा, वह है ऐसी प्रणालियों का निर्माण जिनमें मनुष्य के विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होगी। विचारशील मशीन, जिसे दूसरे शब्दों में कृत्रिम बुद्धि कहा जाता है, उसमें जटिल से जटिल विषयों पर निर्णय लेने में समर्थ तकनीकी प्रणाली के निर्माण की दिशा में बड़ी तेजी से काम चल रहा है। 

उदाहरण के तौर पर, पांच साल पहले तक गाड़ी चलाना कमप्यूटर के लिये एक बेहद कठिन चीज समझी जाती थी, लेकिन अब यह एक सचाई बन चुकी है। 

खोसला लिखते हैं कि इस बात पर बिना मगजपच्ची किये कि क्या-क्या संभव है, कम से कम इतना जरूर कहा जा सकता है कि सृजनात्मकता के क्षेत्र में, भावनाओं और समझदारी के क्षेत्र में, मसलन, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली संगीत की सबसे अच्छी बंदिश, पाठकों के मन को छूने वाली प्रेम कहानी या अन्य रचनात्मक लेखन में तो यह प्रणाली बहुत ही कारगर साबित होगी, क्योंकि उसके पास श्रोताओं और पाठकों को छूने वाले तमाम पक्षों और संगीत तथा लेखन के अब तक के विकास की पूरी जानकारी होगी। 

इस विषय पर आगे और विस्तार से जाते हुए खोसला बताते हैं कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी। ‘‘प्रचुरता और आमदनी में बढ़ती हुई विषमता के युग में हमें पूंजीवाद के एक ऐसे नये संस्करण की जरूरत पड़ सकती है जो सिर्फ अधिक से अधिक दक्षता के साथ उत्पादन पर केन्द्रित न रह कर पूंजीवाद के अन्य अवांछित सामाजिक परिणामों से बचाने के काम पर केन्द्रित होगा।’’ 

अपने इस लेख में खोसला ने विचारवान मशीन के निर्माण के उन तमाम क्षेत्रों की ठोस रूप में चर्चा की हैं जिनमें खुद उनकी कंपनी तेजी से काम कर रही है और जिनके चलते खेतिहर मजदूरों, गोदामों में काम करने वाले मजदूरों, हैमबर्गर बनाने वालों, कानूनी शोधकर्ताओं, वित्तीय निवेश के मध्यस्थों तथा हृदय रोग और ईएनटी रोग के विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों आदि की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। इनके कामों को मशीनें कहीं ज्यादा दक्षता के साथ कर दिया करेगी।  

उनका साफ कहना है कि अतीत के आर्थिक इतिहास में, हर तकनीकी क्रांति से जहां कुछ प्रकार के रोजगार खत्म हुए तो वहीं कुछ दूसरे प्रकार के रोजगार पैदा हुए। लेकिन आगे ऐसा नहीं होगा। ‘‘आर्थिक सिद्धांत मुख्य रूप से कार्य-कारण के बजाय अतीत के अनुभवों पर टिके होते हैं, लेकिन यदि रोजगार पैदा करने के मूल चालक ही बदल जाए तो उसके परिणाम बिल्कुल अलग होसकते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तकनीक आदमी की क्षमताओं को बढ़ाती और तीव्र करती रही है, जिससे मनुष्य की उत्पादनशीलता बढ़ी है। लेकिन यदि किसी भी ख़ास काम के लिये बुद्धि और ज्ञान, इन दोनों मामलों में बुद्धिमान मशीन आदमी से श्रेष्ठ बन जाती है तो कर्मचारियों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी और इसके चलते आदमी का श्रम दिन प्रति दिन सस्ता होता जायेगा।’’ उनकी राय में कोई भी आर्थिक सिद्धांत बेकार साबित होगा यदि उसमें अतीत की तकनीकी क्रांतियों और इन नयी विचारशील मशीनी तकनीक के बीच के फर्क की समझ नहीं होगी।  

इस सिलसिले में खोसला कार्ल माक्‍र्स को उद्धृत करते हैं - ‘‘इतिहास की गाड़ी जब किसी घुमावदार मोड़ पर आती है तो बुद्धिजीवी उससे झटक कर औंधे मूंह गिर जाते हैं।’’ अर्थशास्त्रियों का अतीत के अनुभवों को अपना अधिष्ठान बनाने का ढंग भविष्य के लिये वैध साबित नहीं होगा । एक नये कार्य-कारण संबंध से पुराने, ऐतिहासिक परस्पर-संबंध टूट सकते हैं। जो लोग कमप्यूटरीकरण से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव का हिसाब-किताब किया करते हैं, और अब भी कर रहे हैं, वे इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि आगे तकनीक क्या रूप लेने वाली है और उनके सारे अनुमान अतीत के अनेक ‘सत्यों’ की तरह झूठे साबित हो सकते हैं।

मैं यहां विनोद खोसला के इस लेख का लिंक दे रहा हूं। मित्रों से अनुरोध है कि वे इस पूरे लेख को गंभीरता से पढ़ें और इसपर मनन भी करें। विनोद खोसला मनुष्य और उसकी सृजनशीलता तक के सामने आने वाली इन सारी गंभीर चुनौतियों को समझने के बावजूद, पूंजीवाद के एक कट्टर समर्थक के नाते, इस प्रक्रिया को और तेज करने पर ही बल दे रहे हैं।  लेकिन हमारे मन में यह सवाल आरहा हैं कि यदि किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य नहीं रहता तो फिर पूँजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा ? श्रमिक और पूँजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है । यदि पूँजीपति की भूमिका उत्पादन के काम में ख़त्म हो जाती है, श्रमिक की तरह ही उसके अस्तित्व का भी कोई कारण बचा नहीं रह जाता । अगर कुछ बचा रह जाता है, तो वह है, राज्य की भूमिका । समाज के अंदर वर्गीय अन्तर्विरोधों के अंत के साथ राज्य के वर्गीय चरित्र का भी लोप हो जाता है । क्या सचमुच, एक शोषण-विहीन, राज्य-विहीन समाज के निर्माण का मार्क्स का यूटोपिया आदमी की जद के इतना क़रीब है ?


http://www.forbes.com/sites/valleyvoices/2014/11/06/the-next-technology-revolution-will-drive-abundance-and-income-disparity/

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध के जन्मदिन (13 नवंबर) के अवसर पर उन्हें याद करते हुए :

अरुण माहेश्वरी



मुक्तिबोध ने जीवन में खूब लिखा। नेमीचंद जैन ने छ: खंडों में जो मुक्तिबोध रचनावली संकलित की है, उसके अतिरिक्त भी उनका लिखा काफी कुछ है। खुद नेमी जी ने विभिन्न कारणों से ऐसे छूट गये लेखन का जिक्र किया है। आज तक प्रकाश में न आपायी उनकी रचनाओं में एक उपन्यास भी है, जिसके कम्पोज हुए 80 पृष्ठों को नेमीजी ने प्रकाशक के पास देखा था, लेकिन बाद में उसका एक बिखरा हुआ खंडित रूप ही दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘पक्षधर’ के जरिये नेमीजी के हाथ लग पाया जिसे मुक्तिबोध रचनावली के तीसरे खंड के अंत में संकलित किया गया था। 1943 में ही उन्होंने अज्ञेय जी के साथ मिल कर हिंदी साहित्य के एक सर्वाधिक चर्चित तारसप्तक प्रकल्प की योजना बनायी थी। वह किसी एक का उद्यम नहीं, बल्कि सातों परस्पर-परिचित कवियों का एक सहयोगी प्रकल्प था। मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। नेमीचंद जैन ने अन्यत्र भी तथ्यों से इस परियोजना में मुक्तिबोध की खास भूमिका को रेखांकित किया है। अपने समय की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तिबोध लिखते रहे। ‘नया खून’ साप्ताहिक पत्रिका के तो वे खुद संपादक थे।

इन सबके बावजूद गौर करने लायक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाया था। 11 सितंबर 1964 के दिन उनकी मृत्यु हुई। उसके पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीनों बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चांद का मूंह टेढ़ा है प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास)  प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूरी खाक धूल’ प्रकाशित हुआ। 1980 में ही ‘राजकमल’ से छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, जिसका पेपरबैक संस्करण 1985 में निकला। मुक्तिबोध रचनावली हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। 1975 में ही अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ ‘मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया’ प्रकाशित होगया था।

अशोक वाजपेयी ने ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की भूमिका में लिखा है कि उनकी कविता के पहले संकलन के प्रकाशन से लेकर 15 वर्षों बाद प्रकाशित हुए उनके इस दूसरे संकलन के बीच के काल में हिन्दी कविता पर मुक्तिबोध एक तरह से छाये रहे हैं : अगर किसी बुजुर्ग से युवतम पीढ़ी अपने को जोड़कर प्रामाणिकता और सार्थकता पाने को उत्सुक है तो मुक्तिबोध से ही।

1970-71 का ही वह काल था जब हम सरीखे लेखकों का लेखन में बिस्मिल्लाह हुआ था। सचमुच मुक्तिबोध का बोलबाला था। जहां देखों, हर नौजवान लेखक मुक्तिबोध की चर्चा में लगा हुआ था। पत्र-पत्रिकाओं में लंबे-लंबे लेख लिखे जा रहे थे।

सोचने की बात यह है कि अपने इतने विपुल लेखन, तमाम स्तरो ंपर निरंतर साहित्यिक सक्रियता और तारसप्तक की तरह के सर्वाधिक चर्चित आयोजन के योजनाकार और भागीदार होने के बावजूद जो मुक्तिबोध अपने जीवित काल में उतने प्रभावशाली या नेतृत्वकारी स्थान पर नहीं दिखाई देते, वे मृत्यु के उपरांत, खास तौर पर सन् ‘67 और 70 के पूरे दशक में क्यों अचानक हिंदी के पूरेे साहित्य-विमर्श पर पूरी तरह से छा जाते हैं?

इस सवाल के साथ यदि आज हम मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन करें तो हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ऐसी बहुत सी चीजें सामने आ सकती है जो संक्रमण के किसी भी दौर को और उसमें व्यक्ति विशेष की भूमिका को गहराई से समझने-परखने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होती है।

60 के दशक के उत्तराद्‍​र्ध का वह दौर हिंदी में साठोत्तरी, बांग्ला से प्रभावित भूखी और श्मशानी पीढ़ी का दौर था। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन इसके पहले ही दिशाहीन होकर बिखर चुका था। परिमलवादी भी सीआईए द्वारा चालित ‘एनकाउंटर’ और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के कीचड़ से कलंकित होकर अपना प्रभाव गंवा चुके थे। यह साहित्य में चरम हताशा, अराजकता और मूल्यहीनता का दौर था। कोलकाता के लेखक मुर्दे की अध्यक्षता में गोष्ठी करते थे। जीवन की तमाम वर्जनाओं को तोड़ने की नाम पर जुगुप्सा की हद तक अश्लीलता इस लेखन की पहचान थी। अकविता, अकहानी का एक और अबूझ सा आंदोलन दस्तकें दे रहा था।

सामाजिक स्तर पर पूंजीवादी दुनिया से जुड़े तीसरे विश्व का आर्थिक दिवालियापन, सामाजिक मूल्यहीनता और राजनीतिक तानाशाही भारत में भी निपट नंगे रूप में प्रकट हो रहे थे। जघन्य सामाजिक विषमता, व्यापक बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और खाद्यान्नों के अभाव सेे जनता के तमाम स्तरों में गहरी निराशा और मोहभंग की स्थिति थी।

सवाल था कि जनता का यह मोहभंग कैसे व्यक्त हो?

वामपंथ का अपना संकट था। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित होगयी। शासक दल के साथ चिपकी सीपीआई ने प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की कोई साख नहीं रख छोड़ी थी। प्रतिरोध की ताकतों में वामपंथ की ओर से एक ओर जहां सीपीआई(एम) थी, तो दूसरी ओर सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ का दक्षिणपंथी गठबंधन। इसी परिस्थिति में सन् ‘67 के आम चुनाव में पहली बार भारत के आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस दल के शासन की 20 सालों की इजारेदारी टूटी।

ऐसे समय में साहित्य आंदोलन की बागडोर पुराने, साख गंवा चुके सीपीआई के अधीन प्रगतिशीलों के हाथ में नहीं रह सकती थी। नये जनवादी साहित्य आंदोलन के लिये साहित्य के नये, संघर्षशील और जनवादी प्रतिमानों की जरूरत थी। व्यापक मोहभंग, दिशाहीनता और तनाव के ऐसे काल में ही काष्ठवत होचुके साहित्य के ‘प्रगतिशील’ प्रतिमानों के विपरीत मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, उनका संशय और उनके जनतांत्रिक सरोकार हिंदी साहित्य की दुनिया के लिये किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह सुखदायी और साहित्य के जनवादी प्रतिमानों के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देने वाली आलोचना दृष्टि साबित हुई। साथ ही, उनकी कविताएं भी काव्य-चर्चा के केंद्र में आगयी।

इसी मुक्तिबोध विमर्श ने हिंदी में प्रेमचंद शताब्दी के मौके पर शुरू हुए नये जनवादी विचार-मंथन को नया रूप दिया और 1982 में हिंदी और उर्दू के लेखकों के सबसे बड़े संगठन जनवादी लेखक संघ का जन्म हुआ। प्रगतिशील आलोचक-प्रवर रामविलास शर्मा अंत तक मुक्तिबोध की मघ्यवर्गीय व्याधियों की ओर इशारा करते रह गये; लेकिन ‘इतिहास और आलोचना’ वाले इसी परंपरा के दूसरे रथी डा. नामवर सिंह ने 1968 में ही ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध का लोहा मानते हुए कहा कि  अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।

यह ‘नई कहानी’ के ईमानदार समीक्षक नामवर सिंह की एक स्वाभाविक आत्मोपलब्धि थी।

कहना न होगा, इतिहास में मुक्तिबोध की इसी ‘एक ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में मौजूदगी ने उन्हें मुक्तिबोध बनाया।

आज फिर एक बार राजनीति और विचारों के क्षेत्र में भारी दिग्भ्रम और असमंजस की स्थिति है। वैश्वीकरण की चकाचौंध, भारी सामाजिक विषमता। पूरा समाज निराशा और व्यापक मोहभंग की कगार पर है।

भारतीय वामपंथ के सामने फिर एक बार अपने पुनर्गठन की चुनौती है।

मुक्तिबोध ने अपनी पहचान को छिपाते हुए कभी सीपीआई के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे के नाम भारी मन से एक लंबे पत्र में लिखा था : “The profoundly artistic and valuable progressive literary works are the best answer to the Reaction, because such works will have lasting value and profound impact. Merely ideological attitudes, in place of profound meaning and artistic excellence will not make progressive writers more influencial.
“...self-criticism on the part of progressive thinkers, critics, and writers is long over-due.”

(प्रतिक्रिया को सर्वोत्तम उत्तर बहुत ही गंभीर कलात्मक और मूल्यवान प्रगतिशील साहित्यिक लेखन हो सकता है, क्योंकि ऐसे लेखन का टिकाऊ मूल्य और गहन प्रभाव होगा। गहन अर्थ और कलात्मक श्रेष्ठता की जगह महज विचारधारात्मक दृष्टि प्रगतिशील लेखकों को प्रभावशाली नहीं बनायेगी।
...प्रगतिशील विचारकों, आलोचकों और लेखकों को काफी पहले से ही आत्म-समीक्षा की जरूरत है।)

लगता है कि जैसे ऐतिहासिक परिघटनाओं का एक और वृत्त पूरा हो चुका है। ऐसे समय में मुक्तिबोध से शिक्षा लेते हुए यही कहना होगा कि आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है। 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नेहरू और उनकी विचारधारा


अरुण माहेश्वरी

(नेहरू जी की 125वीं जयंती के अवसर पर हम यहां ईएमएस नम्बुदिरिपाद की पुस्तक ‘‘नेहरू आइडियोलोजी एण्ड प्रेक्टिस’’ (नेहरू, विचारधारा और व्यवहार)  के आधार पर उनके शताब्दी वर्ष पर लिखे गये अपने एक लंबे लेख को मित्रों से साझा कर रहे हैं। इसे पंडित नेहरू के बारे में भारत के कम्युनिस्टों की पारंपरिक समझ के तौर पर देखा जा सकता है। यह सच है कि पिछले पचीस सालों में परिस्थितियां काफी बदल गयी है। ऐसे में नेहरू के बारे में नये सिरे से सोचने की जरूरत है। उनकी विरासत को पूरी तरह नकारात्मक के बजाय अनेक अर्थों में सकारात्मक रूप में समझने की भी जरूरत है। फिर भी, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इतिहास के कई पहलुओं का इस लेख में किया गया विश्लेषण आज भी वैध प्रतीत होता है। बहरहाल, अपने मित्रों से हम इस लेख को सजग आलोचनात्मक दृष्टि के साथ पढ़ने का निवेदन करेंगे : )



14 नवम्बर सन् 1889 में जन्मे पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह जन्म-शताब्दी वर्ष चल रहा है। अपने 75 वर्षों के जीवन में पंडित नेहरू लगभग 35 वर्षों तक भारत की राजनीति के शीर्ष स्थान पर रहे। सन् 1929 में जब वे पहली बार राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये, तब से लेकर उम्र की अन्तिम घड़ी, 27 मई 1964 तक सम्पूर्ण भारतीय राजनीति पर उनके व्यक्तित्व का प्रभुत्व रहा । भारत की आजादी की लड़ाई में लगभग 18 वर्षों तक तथा आजादी के बाद देश के प्रधानमंत्री के रूप में लगभग 17 वर्षों तक इस अकेले व्यक्तित्व ने किसी भी दूसरे व्यक्ति की तुलना में भारतीय समाज और राजनीति को कम प्रभावित नहीं किया । यही वजह है कि इतिहास में इस व्यक्ति के उचित स्थान को निर्धारित करना भारत के समूचे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में एक सही तथा संतुलित समझदारी कायम करने के लिए भी जरूरी है। वर्ना आजादी के लिए भारत की जनता के राजनैतिक संघर्षों के इतिहास को सही रूप में समझने से हम चूकेंगे। 
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव कामरेड ईएमएस नम्बूदिरिपाद ने नेहरू जन्म शताब्दी के अवसर पर अपनी पुस्तक ‘‘नेहरू आइडियोलोजी एण्ड प्रेक्टिस’’ (नेहरू, विचारधारा और व्यवहार) प्रकाशित करके इस दृष्टि से एक अत्यन्त सार्थक और दिशा दिखाने वाले कार्य किया है। 
एक ही वर्ग के तीन चेहरे 
भारत की आजादी की लड़ाई में ही भारतीय बुर्जुआ के तीन स्वरूप खुलकर सामने आ गये थे। एक शुद्ध बुर्जुआ स्वरूप था जिसके सामने त्याग, बलिदान के आदर्शों का वस्तुत: कोई मूल्य नहीं था। यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बिल्कुल प्रारम्भिक काल के स्वरूप का ही विकास था, जिसका राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई के दिनों में एक सीमा तक पंडित मोतीलाल नेहरू प्रतिनिधित्व करते थे। इनके जेहन में शुद्ध पश्चिमी तर्ज पर संसदीय जनतंत्र की साफ परिकल्पना थी। बुर्जुआ नेतृत्व का दूसरा स्वरूप था महात्मा गाँधी का, एक धार्मिक मानवतावादी का, इसने बुर्जुआ के वर्गीय हितों की लड़ाई के साथ भारत की व्यापक गरीब और मेहनतकश धर्म-भीरू जनता को जोड़ने की एक ऐतिहासिक भूमिका अदा की। तीसरा स्वरूप था पंडित जवाहरलाल नेहरू का- पूँजीवाद के पतन के काल में समाजवाद की ओर आकर्षित एक सामाजिक जनतंत्रवादी का। एक ही वर्गीय हित का प्रतिनिधित्व करने की वजह से ही सामाजिक जनतंत्रवादी नेहरू की शुद्ध बुर्जुआ जनतंत्रवादी मोतीलाल नेहरू और धार्मिक मानवतावादी महात्मा गाँधी के साथ एक स्वाभाविक संगति कायम हो गयी थी। लेकिन फिर भी तीनों के सोचने और काम के तरीकों में काफी फर्क था। यही वजह है कि जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते वक्त अक्सर एक ओर जहां भारत के वामपंथी मोटे तौर पर उन्हें अपना मित्र समझने के बावजूद चंद मसलों पर उन्हें अवसरवादी समझते रहे हैं, वहीं, भारत के दक्षिणपंथियों को भी समाजवाद, जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की नेहरूजी की तमाम बातों के बावजूद उनका साथ निबाहने में बहुत ज्यादा दिक्कत कभी नहीं महसूस हुई। 
का. ईएमएस ने पंडित नेहरू के समूचे व्यक्तित्व के इसी, एक अंश तक मायावी, व्यक्तित्व की गुत्थी को सुलझाते हुए लगभग 300 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में भारतीय बुर्जुआ के प्रतिनिधि और प्रवक्ता के रूप में एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर उनके विकास और अवसान की पूरी प्रक्रिया को प्रकाशित किया है। 
का. ईएमएस के शब्दों में पुस्तक में इस मूलभूत समझ को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कि ‘‘नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी हस्तियों में एक तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री इसीलिए बने पाये क्योंकि उन्होंने एक विशेष वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व किया तथा उसके प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। जैसा कि उस वर्ग ने किया, उसी तरह सिर्फ अपने वर्ग के हित का नहीं बल्कि राष्ट्र के आम हितों को प्रतिबिम्बित करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम 18 वर्षों (1929-1947) तक तथा स्वातंत्रोत्तर काल के प्रथम 17 वर्षों तक वे पूरे राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर अपना प्रभुत्व कायम रख सके। लेकिन, जब स्वातंत्रोत्तर वर्षों में उस वर्ग के हितों, जिसके वे सबसे प्रभावशाली नेता थे, तथा पूरे राष्ट्र के हितों के बीच अन्तर्विरोध पैदा होने लगे, तभी से स्वतंत्र भारत की सरकार के नेता के रूप में वे विफल होने लगे। इसीलिए, उनकी जिन्दगी के अंतिम वर्ष एक नेता के रूप में जवाहर लाल नेहरू के लिए तथा साथ ही साथ उस राष्ट्र के लिए जिसके नेतृत्व में वे थे, दुखांतकारी हो गये।’’ 
कुल 38 अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में अत्यन्त प्रमाणिक स्रोतों के हवाले तथा वैज्ञानिक विश्लेषण-पद्धति के जरिये भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के साथ आद्योपांत जुड़े पंडित नेहरू के घटना-बहुल जीवन को व्याख्यायित किया गया है। इसी कारण भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को भी तत्कालीन विश्व परिस्थिति की पृष्ठभूमि में अच्छी तरह से समझने की गहरी अंतर-दृष्टि इस विश्लेषण के जरिये प्राप्त होती है। 

राजनीति में पदार्पण का काल
एक अत्यन्त सम्पतिशाली, प्रभुत्वशाली पिता की छत्रछाया में पले हुए जवाहरलाल  नेहरू ने सन् 1922 के असहयोग आंदोलन के वक्त स्वराज पार्टी वालों का साथ न देकर गाँधीजी के नेतृत्व के प्रति अपने पूर्ण समर्थन से सर्वप्रथम कांग्रेस की राजनीति में अपने पिता से अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय देना प्रारम्भ किया। इसके बाद ही उस दशक का प्रारम्भ होता है जब कांग्रेस के मंचों पर सोवियत क्रांति से प्रेरणा प्राप्त कम्युनिस्टों की, अत्यन्त मन्द ही क्यों न हो, आवाज सुनाई देने लगी थी। सन् 1922 से लेकर 1933 के बीच के 12 वर्षों में बिटिश सरकार द्वारा चलाये गये पेशावर के तीन, कानपुर तथा मेरठ में एक-एक कम्युनिस्ट षड़यंत्र मुकदमों ने कम्युनिस्टों के सफाये के बजाय यथार्थ में भारत की जनता में कम्युनिस्ट विचारों के फैलाव का काम ही किया। ‘‘जो लोग सोवियत संघ, कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय या कम्युनिस्टों के छोटे-छोटे समूहों तथा भारत में उनके सहधर्मियों के बारे में कुछ नहीं जानते थे, वे अब उन्हें तथा उनके कार्यक्रम और नीतियां क्या हैं, के बारे में कहीं ज्यादा जानने लगे।’’
‘‘यही वह काल था जब भारी संख्या में पुराने प्रकार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट बन रहे थे।... यह कोई आकस्मिक बात नहीं कि ठीक उसी वक्त जब भगत सिंह और उनके साथियों पर लाहौर षड़यंत्र मामले में मुकदमा चलाया जा रहा था, 30 से ज्यादा प्रमुख कम्युनिस्टों तथा जुझारू ट्रेड यूनियनिस्टों के खिलाफ मेरठ षड़यंत्र मुकदमा चलाया जा रहा था।’’

साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना 
इस समूचे घटनाक्रम का नेहरू के जीवन से कोई प्रत्यक्ष संबंध न होने पर भी भारत और दुनिया की स्थितियों के कारण वे वामपंथ की ओर क्रमश: झुकने लगे। सन् 1926 में अपनी पत्नी की बीमारी के लिए यूरोप यात्रा पर जाने पर वहाँ उनका सम्पर्क सारी दुनिया के प्रगतिशीलों, कम्युनिस्टों तथा स्वतंत्रता-प्रेमियों से हुआ। उसी दौरान सन् 1927 में ब्रुुसेल्स में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रतिनिधि के रूप में ‘‘लीग अगेन्सट इम्पीरियलिज्म’’ के सम्मेलन में उन्होंने हिस्सा लिया, वे सम्मेलन के अध्यक्षमंडल के सदस्य बने तथा लीग की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गये। उसी समय उन्हें सोवियत क्रांति की 10 वीं सालगिरह के मौके पर सोवियत संघ जाने का अवसर मिला। दुनिया के स्वतंत्रता-प्रेमियों, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों से परिचय तथा सोवियत संघ की इस संक्षिप्त यात्रा ने उनके पूरे व्यक्तित्व पर काफी गहरा असर डाला। नेहरू के जीवनीकार श्री एस. गोपाल के शब्दों में ‘‘जो व्यक्ति गाँधी के एक समर्पित शिष्य के रूप में भारत से यात्रा पर निकला था, वह एक आत्म-चेतन क्रांतिकारी, प्रगतिशील के रूप में वापस लौटा। यद्यपि हमेशा गाँधी से गहराई से प्रभावित होने पर भी, अब वह कभी भी गाँधीवादी सांचे का पूरी तरह से बंदी नहीं हो सकता था।’’

कांग्रेस और वामपंथ 
नेहरू यूरोप से साम्राज्यवाद के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय आंदोलन के एक ‘‘सहयात्री’’ के रूप में भारत लौटे। इसी दौर में भारत में बेइन्तहां दमन के बावजूद कम्युनिस्टों ने संगठित पार्टी का रूप लेना शुरू कर दिया था। दिसम्बर 1925 में कानपुर में कम्युनिस्टों का पहला खुला सम्मेलन हुआ। विदेश में कम्युनिस्टों का ‘‘सहयात्री’’ बने पंडित नेहरू इसीलिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी तथा वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी के लिये वे स्वाभाविक तौर पर ‘‘सहयात्री’’ बन गये।
इसी पृष्ठभूमि में, सन् 1929 के कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में हसरत मोहानी का जो पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव बहुमत से पराजित हो गया, सन् 1927 के मद्रास अधिवेशन में नेहरू का वही प्रस्ताव बहुमत से पारित हुआ। ‘‘दरअसल एक संगठन के रूप में कांग्रेस भारत तथा विदेश में साम्रााज्यवाद-विरोधी तथा कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ने लगी।’’ सन् 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के नाम न्यूयार्क से सरोजिनी नायडू, श्रीमती सुनयात सेन तथा मैडम रोमारोलां से लेकर पर्सियन सोशलिस्ट पार्टी, न्यूजीलैंड की कम्युनिस्ट पार्टी, लीग ऑफ राइट्स ऑफ मेन की तरह के व्यक्तियों और संगठनों के शुभकामना संदेश मिले। 
‘‘इस प्रकार यह साफ था कि देश के अन्दर मजदूर वर्ग तथा कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति और साथ ही साथ विदेश में क्रांतिकारी साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रति सहानुभूति जवाहरलाल नेहरू की व्यक्तिगत मनमर्जी नहीं थी बल्कि कांग्रेस पार्टी तथा उस वर्ग की नीति थी जिसके वे निष्ठावान प्रतिनिधि तथा नेता थे।’’
लेकिन इसी मोड़ से कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं के वामपंथ के प्रति कान और ज्यादा खड़े हो गये। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के बाद ही 1929 में लाहौर अधिवेशन हुआ। गाँधीजी के प्रस्ताव पर जवाहरलाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। जो लोग नेहरू को वामपंथियों का विश्वस्त मित्र जानकर आतंकित थे, उन्हें गाँधीजी ने आश्वस्त किया। उन्होंने कहा ‘‘एक अनुशासन प्रेमी के रूप में उसने (जवाहरलाल ने) ऐसे समय भी स्वयं को दृढ़ता से अनुशासन के अधीन रखने की क्षमता दिखाई है, जब वह क्लेशदायी जान पड़ता था।’’ दरअसल यहीं से नेहरू का वह दोहरा रूप सामने आने लगता है जब वे अपने विश्वासों और सिद्धांतों से व्यवहार की जमीन पर अक्सर समझौता करते दिखाई देने लगते हैं। ‘‘कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू ने प्रतिनिधियों में से संगठित वामपंथियों से खुद को अलग कर लिया... जो नयी वर्किंग कमेटी बनी उसमें अध्यक्ष के अलावा एक भी वामपंथी नहीं था।’’

राष्ट्रव्यापी संघर्ष और दंगा 
लाहौर अधिवेशन के बाद 26 जनवरी 1930 को देशभर में स्वतंत्रता दिवस के पालन तथा मार्च-अप्रैल 1930 में नमक सत्याग्रह और गाँधीजी के  दांडी मार्च ने देश व्यापी स्तर पर आंदोलन की एक नयी लहर पैदा की। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत में निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से गढ़वाली बटालियन द्वारा इनकार किये जाने, चटगांव में सूर्य सेन के नेतृत्व में शस्त्रागार पर कब्जे तथा शोलापुर में मजदूरों के हिंसक आंदोलन ने जनता की मानसिकता का परिचय दिया। ऐसे माहौल में गाँधी-इरविन समझौता, आंदोलन के उस पूरे ज्वार का एक अस्वाभाविक शमन था। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के शब्दों में ‘‘अपने असंतोष के बाद भी कांग्रेस के कराची अधिवेशन में जवाहरलाल ने इस समझौैते की स्वीकृति का प्रस्ताव पेश किया।’’
कांग्रेस का कराची अधिवेशन जिस समय हुआ उस समय पूरे सम्मेलन पर भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फाँसी की विषादपूर्ण छाया थी। इसके साथ ही, बिल्कुल विपरीत छोर पर गाँधी-इरविन समझौैते को स्वीकृति का प्रश्न था। जनता में गहरा आक्रोश फैला था, नौजवान कांग्रेसजनों में समाजवादी विचारों के प्रति गहरा आकर्षण पैदा हो चुका था। कराची अधिवेशन में जवाहरलाल ने एक ओर जहां गाँधी-इरिवन समझौते को स्वीकृति का प्रस्ताव रखा, वहीं ऐसी मांगों का प्रस्ताव पेश किया जिसके जरिये पहली बार कांग्रेस के कार्यक्रम में मजदूर वर्ग के आर्थिक हितों से जुड़ी मांगें शामिल हुईं। इसप्रकार ‘‘एक ओर जहां उसने (कराची अधिवेशन ने) शासकों के साथ समझौते की अपनी नीति को चलाने में दक्षिणपंथी नेतृत्व को मदद दी, वहीं उसमें पहली बार कांग्रेस का वामपंथ की ओर भी झुकाव हुआ।’’

हताशा 
गाँधी-इरविन समझौते के तहत सन् 1931 में गोलमेज वार्ता के लिए कांग्रेस की ओर से  गाँधीजी लंदन के लिए रवाना हुए। इधर देश में बिटिश सरकार का कांग्रेस संगठन के खिलाफ चरम दमन शुरू हो गया। लगान के प्रश्न पर विभिन्न स्थानों पर किसान-आंदोलन शुरू हुए। एक के बाद एक दमनकारी अध्यादेश लागू किए जाने लगे। गाँधी-डरविन समझौते से जो एक प्रकार का अस्थायी युद्ध-विराम कायम हुआ था, बिटिश सरकार ने उसका लाभ नीचे के स्तर पर कांग्रेस संगठनों को कुचलने में करना चाहा। दूसरी ओर, लंदन के गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी को कुछ भी हाथ नहीं लगा। उल्टे बिटिश सरकार ने उस सम्मेलन का प्रयोग दुनिया के सामने भारत में पैदा हो रहे साम्प्रदायिक विभाजन को दिखाने के लिए किया। हताश गाँधीजी उस सम्मेलन से यह कहते हुए उठे कि ‘‘मैं नहीं जानता मेरा रास्ता अब किस दिशा में होगा।’’ भारत लौटकर उन्हें चारों ओर से सरकारी दमन के समाचार मिलने लगे। बम्बई में उनसे आकर मिलने के रास्ते में ही जवाहरलाल तक को गिरफ्तार कर लिया गया। मजबूरन फिर कांग्रेस को सिविल नाफरमानी और असहयोग का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। इसी बीच, बिटिश प्रधानमंत्री ने दलितों के लिए अलग मतदान आदि के अधिकारों की घोषणा करके भारतीय समाज में जाति के आधार पर एक और स्थायी दरार डालने की घोषणा की। इसके खिलाफ गाँधीजी ने आमरण अनशन का ऐलान किया। इसके पहले ही, अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी कमी पंडित नेहरू को हमेशा सताया करती थी, अब बापू की मृत्यु की आशंका ने उन्हें गहराई तक दहला दिया। जवाहरलाल के लिए यह जैसे उनके आखिरी सहारे के छिन जाने की तरह था। ‘‘उनके दो खम्भों में से एक (पिता) पहले ही ढह चुका था। दूसरा ढहने के कगार पर था। असहायता की एक गहरी अनुभूति----जिसने उन दिनों नेहरू को दहला दिया।’’
जनवरी 1932 में शुरू हुआ सिविल नाफरमानी आंदोलन वापस ले लिया गया तथा अब हरिजन उत्थान ने कांग्रेस के कार्यक्रम में सर्वोच्च प्राथमिकता ले ली। यहीं पर फिर एक बार नेहरू और गाँधी के सोच की प्रक्रिया की भिन्नता जाहिर हुई। इस दौरान लम्बे अर्से तक जेल में रहते हुए नेहरू ने देशी-विदेशी साहित्य का अध्ययन किया, मार्क्सवाद को जाना। सोवियत संघ और समाजवाद के बारे में अध्ययन किया और सर्वोपरि फासीवाद के उदय को समझा। ‘‘बीस के  दशक में अपनी यूरोप यात्रा के दौरान वामपन्थ की ओर पैदा हुए तथा अध्ययन के जरिये पुख्ता हुए लगाव को इटली और जर्मनी में सामने आये विरोधी दर्शन ने बिल्कुल सही साबित कर दिया।’’ लेकिन फिर भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में गाँधीजी पर उनकी निर्भरशीलता का कोई अन्त नहीं था। ‘‘विश्व समस्याओं के विश्लेषण और गाँधीवादी नेतृत्व द्वारा अपनाई गयी राजनीति की आलोचना में वे यूरोपीय समाजवादियों से एकमत थे, फिर भी अपने पिता और महात्मा की तरह की विशाल हस्तियों के सामने वे खुद को असहाय महसूस करते थे। यही कुल मिलाकर जवाहरलाल की सूरत है जैसी कि उन्होंने लाहौर में कांग्रेस के अधिवेशन में (उनके पिता और महात्मा द्वारा ) अध्यक्ष चुने जाने के बाद खुद की बनायी।’’

सीएसपी, सीपीआई और नेहरू 
लेकिन कांग्रेस के अन्दर समाजवादी विचारों के प्रति आकर्षित होनेवाले तमाम लोग गाँधी के प्रति वफादारी की डोर से ठीक उसी प्रकार बंधे नहीं थे, जैसे जवाहरलाल थे। इस नये तबके ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की नींव डाली। जवाहरलाल के ‘‘भाषणों तथा लेखों की विषयवस्तु दरअसल यही दिखाती थी कि वे उन्हीं विचारों की अभिव्यक्ति कर रहे थे जिन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट कहा करते थे। फिर भी, दोनों में एक महत्वपूर्ण फर्क था। जैसा कि 1929 में गाँधी ने संकेत किया था, जवाहरलाल की प्रगतिशीलता और समाजवाद सख्ती के साथ कांग्रेस के अनुशासन के पाबन्द थे। दूसरी ओर कांग्रेस सोशलिस्ट उन्हीं बुनियादी बातों को चुनौती दे रही थी जिन पर गाँधीवादी कार्यक्रम तैयार किया गया था।’’
इसी समय, सन् 1936 के करीब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के बीच एक समझौता होता है। इस समझौते ने 30 के दशक के उतरार्द्ध में साम्राज्यवाद--विरोधी आलोड़न में एक बड़ी भूमिका अदा की।
सन् 1936 के लखनऊ अधिवेशन में जवाहरलाल फिर एक बार सन् 1929 की भांति कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। ‘‘इस प्रकार उन्हें बिल्कुल सही, वह भूमिका अदा करने के लिए तैयार किया गया, जो गाँधी चाहते थे : नीति संबंधी घोषणाएं तथा संगठन के बारे में ऐसे प्रस्ताव रखो ताकि वामपंथी रुझान के कार्यकर्ता और जनता प्रेरित होकर कांग्रेस की जरूरतों के अधीन भी रहें। निर्देश का वफादारी से पालन करते हुए इसे उन्होंने (जवाहरलाल ने) हासिल किया।’’
इस पद के लिए चुने जाने के वक्त नेहरू यूरोप में थे। वहां उनकी कई प्रगतिशीलों और कम्युनिस्टों से मुलाकातें हुई। इनमें ब्रिटिश कम्युनिस्ट बेन ब्रैडले तथा रजनी पाम दत्त भी शामिल हैं। नेहरू के जीवनीकार एस गोपाल ने लिखा है कि इन मुलाकातों में उन्होंने इस पर सहमति जाहिर की कि कांग्रेस दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रही है। लेकिन साथ ही व्यक्तिगत रूप से उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ मिल-जुलकर काम करने की इच्छा जाहिर की। लखनऊ अधिवेशन में उनके भाषण पर इन मुलाकातों का साफ असर दिखाई देता है। इसी समय ‘‘पहली बार इतिहास में, कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में तीन सोशलिस्ट, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव तथा अच्युत पटवर्धन शामिल किये गये। सुभाष बोस (जो उस समय जेल में थे) तथा स्वयं अध्यक्ष को लेकर वर्किंग कमेटी में पांच वामपंथी हो गये थे।’’
इसी के साथ वर्किंग कमेटी में विवाद का एक नया सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन जवाहरलाल सदैव बहुमत (जो दक्षिणपंथी था) की राय को स्वीकार कर चलने पर मजबूर थे। इस दौर में नेहरू जी की स्थिति क्या थी? इसका अनुमान उनके जीवनीकार के इस एक अंश से ही लग जाता है। बात उसी जमाने की है। ‘‘वर्किंग कमेटी (कांग्रेस की) ने चुनाव के परिणामों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 की निन्दा और उसे ठुकरा दिये जाने के रूप में बताया तथा सभी कांग्रेस जनों को यह जताया कि इस ऐक्ट के विरुद्ध लड़ना तथा उसे समाप्त करना पार्टी की मूलभूत नीति हैं, और तभी, बिना किसी तर्क या हिचक के, सरकारी पदों को स्वीकारने की अनुमति दे दी गयी, बशर्ते विधानसभाओं में पार्टी के नेता यदि इस बात पर संतुष्ट हो जाए कि संविधान के तहत काम करते हुए सरकार के कामों में गवर्नर टांग नहीं अड़ायेगा। उस वक्त दिल्ली में एम.एन. राय नेहरू के पड़ोसी थे तथा इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया को उन्होंने जिस प्रकार दर्ज किया है उसमें सच्चाई है।
‘‘तीसरे दिन, दोपहर के अन्तिम प्रहर में, वे अन्दर आये तथा बिस्तर पर पसर गये। बिल्कुल दुखी, प्राय: रो रहे आदमी की भांति। ‘मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए’ उन्होंने कहा। मैंने पूछा, क्यों? क्या उन्होंने आपके मसौदे को ठुकरा दिया? ‘नहीं’ दबे हुए गुस्से के साथ आह भरते हुए उन्होंने कहा, उस ससुरे को पूरा का पूरा स्वीकार लिया, साथ ही किन्तु गाँधीजी का लिखाया हुआ एक छोटा-सा पैराग्राफ जोड़ दिया, जो पूरे प्रस्ताव को निरस्त कर देता है। 
‘‘कहना न होगा कि उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि अपने दृढ़ अनुशासनबोध के चलते, हार को स्वीकार कर लिया।’’
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू तथा अन्य वामपंथियों की रास इसी प्रकार वर्किंग  कमेटी के बहुमत के हाथ में, खास तौर पर गाँधीजी के हाथ में रहा करती थी। लखनऊ अधिवेशन के बाद फिर फैजपुर में नेहरू दुबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। इस प्रकार कांग्रेस में वे पहले व्यक्ति थे जो तीन बार अध्यक्ष पद पर चुने गये। पहली बार सन् 1929 में तो पंडित मोतीलाल नेहरू की इच्छा के चलते वे अध्यक्ष बने थे। लेकिन 1936 में लखनऊ फैजपुर में उनके अध्यक्ष पद के लिए चुने जाने के कहीं ज्यादा वस्तुनिष्ठ कारण थे। 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के मातहत राज्य विधानसभाओं के पहली बार चुनाव होने वाले थे। तथा फिर फैजपुर सम्मेलन ऐसे समय हुआ जब चुनाव बिल्कुल करीब आ चुके थे। ‘‘वह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक लड़ाई थी जिसमें समूचे कांग्रेस संगठन को सक्रिय करना था। इसलिए यह जरूरी था कि ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष हो जो कांग्रेस के अन्दर और बाहर, दोनों जगह के वामपंथी तत्वों को इकट्ठा कर सके। इसीलिए नेहरू को दुबारा अध्यक्ष पद पर बने रहने दिया गया। इसने गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी को सरकार द्वारा लाद दिये गये गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के खिलाफ संघर्ष में कांग्रेस के साथ वामपंथी रुझान’ के कार्यकर्ताओं तथा आम जनता को गोलबन्द करने में मदद पहुँचायी।’’
लेकिन चुनावों में कांग्रेस की भारी जीत के बाद ही गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी को अब नेहरू की सेवाओं की जरूरत नहीं रह गयी। ‘‘सरकारी पदों को स्वीकारने के खिलाफ उनके तर्कों को तिरस्कार के साथ ठुकरा दिया गया।’’
कांग्रेसी सरकारों के बनने के कुछ महीनों बाद ही हुए हरिपुरा सम्मेलन में सुभाष बोस अध्यक्ष चुने गये। कांग्रेस सरकारें ‘कपूत के पैर पालने में’ की कहावत को चरितार्थ कर रही थी। बम्बई के तत्कालीन गृहमंत्री के.एम. मुंशी बंगाल की सीआईडी के साथ अपनी सीआईडी का तालमेल बैठाकर बम्बई के अन्दर और आस-पास कम्युनिस्टों के खिलाफ जेहाद छेड़े हुए थे। जवाहर लाल ने इसकी कड़ी निन्दा करते हुए वर्किंग कमेटी की बैठक में कहा कि ‘‘कांग्रेसी मंत्री ब्रिटिश सरकार पर अपने कामों के असर के बारे में अपनी जनता पर पड़ने वाले असर की तुलना में कहीं ज्यादा चिंतित रहते हैं।’’
कांग्रेस सरकारों की ऐसी जनविरोधी गतिविधियों ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं तथा आम जनता के बीच भी गहरे असंतोष को जन्म दिया। ‘‘विभिन्न स्तरों पर कांग्रेस कमेटियों ने खुलेआम इस प्रकार की गतिविधियों का विरोध किया। कुछ मामलों में (उत्तर-प्रदेश, बंगाल, केरल आदि की) प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां काफी आलोचनात्मक थीं; कुछ अन्य स्थानों पर जहां प्रांतीय कांग्रेस कमिटियों पर वामपंथियों का नियंत्रण नहीं था, भारी संख्या में कांग्रेस जन व्यक्तिगत रूप में कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों तथा अन्य वामपंंथियों के साथ हो गये जो कांग्रेस सरकारों की जनतंत्र-विरोधी नीतियों और व्यवहारों का विरोध कर रहे थे।’’
इसी पृष्ठभूमि में हरिपुरा (1938) में सुभाष बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सुभाष बोस ने अंग्रेजों द्वारा लादी जा रही संघीय ढांचे की स्कीम के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाई का आह्वान किया। बिटिश सरकार की मनमानी को रोकने के लिए सिविल नाफरमानी से लेकर हड़तालों तक के सभी रास्तों का प्रयोग करके एक जोरदार जनसंघर्ष छेड़ने का कार्यक्रम अपनाया गया, जो मंत्री बने बैठे कांग्रेस नेताओं को फूटी आँखों न सुहाता था। यही वजह है कि सुभाष बोस दुबारा अध्यक्ष न चुने जायें, इसके लिए इन दक्षिणपंथियों ने जी-जान की बाजी लगायी। उनकी सारी कोशिशों के बावजूद त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष बसु विजयी हुए। गाँधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सितारमैय्या परास्त हुए। गाँधीजी ने इसे अपनी पराजय कहा। वर्किंग कमेटी में से 12 प्रमुख लोगों ने इस्तीफे दे दिये। खुद गाँधीजी ने सुभाष बसु के साथ असहयोग शुरू कर दिया। फलत: एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें  अंत में सुभाष बोस को इस्तीफा देना पड़ा। इसके साथ ही वस्तुत: उन तीन वर्षों के संयुक्त साम्राज्यवाद-विरोधी मोर्चे के युग की समाप्ति हो गयी जिसके लिए 1936 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में जवाहरलाल ने तजवीज की थी। ‘‘संगठित दलों के रूप में कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों, प्रमुख व्यक्तियों के रूप में नेहरू और बोस तथा भारी संख्या में ऐसे व्यक्ति जो कांग्रेस के वामपंथी हिस्से थे, गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी की आँख की ऐसी किरकिरी बन गये कि उन्होंने वामपंथियों की चुनावी जीत को वामपंथ के खिलाफ एक जोरदार प्रति हमले की शुरूआत में बदल दिया।’’

स्वतंत्र वामपंथ 
कांग्रेस के अन्दर वामपंथी अध्यक्ष नेहरू पर काबू पाने तथा सुभाष बोस को उखाड़ फेंकने में सफल होने के बावजूद गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी कांग्रेस के बाहर मजबूत हो रही स्वतंत्र वामपंथी ताकतों के बढ़ाव को रोकने में असमर्थ थी। अध्यक्ष पद पर लगातार तीन अवधियों तक वामपंथियों के रहने से कांग्रेस सोशलिस्टों तथा कम्युनिस्टों को काफी बल मिला। अन्दमान में कैद हजारों आतंकवादी नौजवानों ने हिंसा का रास्ता छोड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी में शिरकत की। किसानों के सबसे बड़े संगठन अखिल भारतीय किसान सभा की नींव पड़ी, जिसके निर्माण में वामपंथी कांग्रेसजनों, कांग्रेस सोशलिस्टों तथा कम्युनिस्टों की मुख्य रूप में पहलकदमी थी। ‘‘कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं तथा किसान सभा के बीच असंख्य झड़पें राजनीतिक जीवन की आम बात हो गयी।’’
इसी दौर में भारतीय मजदूर वर्ग के हड़ताल संघर्षों की एक नयी लहर पैदा हुई। मजदूरों के हड़ताल संघर्ष अब बम्बई, कोलकाता, अहमदाबाद शोलापुर, मद्रास तथा कानपुर की तरह के संगठित औद्योगिक क्षेत्रों में सीमित रहने के बजाय देश के तमाम औद्योगिक केंद्रों तक फैल गये। इस प्रकार मेहनतकशों के दोनों प्रमुख हिस्से बुर्जुआ के नेतृत्व में साम्राज्यवाद--विरोधी संयुक्त मोर्चे के अभिन्न हिस्से के रूप में संगठित होने के साथ ही साथ आर्थिक और राजनैतिक आधार पर भी बुर्जुआ से संघर्षरत एक स्वतंत्र वर्ग के रूप में उभर कर सामने आये। 1936 में छात्रों का स्वतंत्र संगठन एआईएसएफ तथा प्रगतिशील साहित्यकारों का संगठन प्रगतिशील लेखक संघ भी बना।
‘‘इस प्रक्रिया में नेहरू और बोस की तरह के व्यक्तिगत नेताओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ... फिर भी उस टकराहट (अध्यक्ष पद के लिए सुभाष बोस और पट्टाभि सितारमैय्या के बीच की टकराहट- लेखक) के बाद की घटनाओं ने दिखा दिया कि वामपंथी आंदोलन नेहरू और बोस की तरह के नेताओं के व्यक्तिगत समर्थकों की तुलना में कहीं ज्यादा विस्तृत और व्यापक था।’’
कांग्रेस के अन्दर वामपंथी नेतृत्व के इन तीन वर्षों ने स्वतंत्र वामपंथी ताकतों के बढ़ाव में सहायता करने के अलावा कांग्रेस के चरित्र में भी बड़े परिवर्तन किये। इसी दौरे में, दक्षिणपंथियों के न चाहने पर भी कांग्रेस देशी रियासतों की जनता के संघर्षों से जुड़ी। कांग्रेस के मंच से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को विश्व घटनाक्रम के साथ जोड़ कर पेश किया जाने लगा। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के कथनानुसार ‘‘हमारे संघर्ष के मोर्चे सिर्फ हमारे देश में नहीं, स्पेन और चीन में भी है। चुनाव प्रचार के दौरान भी वे (नेहरू) भारतीय समस्या के अन्तर्राष्ट्रीय पक्ष को ओझल नहीं होने देते थे।’’ ‘‘इस काल की तीसरी महत्वपूर्ण घटना थी राष्ट्रीय योजना, जिसके साथ जवाहरलाल व्यक्तिगत रूप से जुड़े हुए थे। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाष बोस ने राष्ट्रीय योजना कमेटी बनायी जिसके अध्यक्ष बने थे जवाहरलाल। ... ‘‘उनके लिए योजना जनतांत्रिक ढांचे के अन्तर्गत एक समाजवादी अर्थव्यवस्था के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी।’’
इन तीनों बिन्दुओं (देशी रियासतों की जनता के संघर्षों, अन्तर्राष्ट्रीयतावाद तथा राष्ट्रीय योजना) पर ही नेहरू का गाँधी तथा अन्य दक्षिणपंथी नेताओं के साथ स्पष्ट मतभेद था। फिर भी संगठन के सामूहिक निर्णय के रूप में सबको इन्हें स्वीकारना पड़ा था। दक्षिणपंथीयों के विरोध के बावजूद कांग्रेस इन तीनों प्रश्नों से पूरी तरह जुड़ गयी थी।
इसी समय विश्व युद्ध छिड़ गया तथा युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार के प्रति रवैये के प्रश्न पर कांग्रेस में स्पष्ट मतभेद उभर कर आये। नेहरू तथा अन्य वामपंथी ब्रिटिश सरकार से पूर्ण असहयोग के पक्ष में थे। गाँधी जी की राय के खिलाफ एआईसीसी के अधिवेशन ने प्रांतीय कांग्रेस सरकारों से इस्तीफा देने का आह्वान किया। अब प्रश्न ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई के तरीके का आ गया। इसी आधार पर फिर कांग्रेस की बागडोर गाँधीजी के हाथ में आ गयी क्योंकि कांग्रेस के पास लड़ाई के गाँधीवादी तरीके के अलावा दूसरा कोई तरीका नहीं था। इसी पृष्ठभूमि में 1940 का रामगढ़ (बिहार) अधिवेशन हुआ। ‘‘इस अधिवेशन में गाँधी नेतृत्वकारी व्यक्तित्व बन गये तथा नारा दिया, प्रत्येक कांग्रेस कमेटी एक सत्याग्रह कमेटी’’---व्यक्तिगत सत्याग्रहियों की सूचियां बनीं। गाँधीजी ने सत्याग्रहियों के लिए अहिंसा की कड़ी शर्तें रखीं। ‘‘बिल्कुल सचेत रूप में इस संघर्ष में मजदूरवर्ग तथा मेहनतकशों के दूसरे जुझारू तबकों के सक्रिय हस्तक्षेप से बचा गया।’’
युद्ध के विकास के साथ ही साथ कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में काफी उतार-चढ़ाव आए। इसी समय जापान ने भारत की ओर रुख किया। पश्चिम के मोर्चे पर जर्मनी की बढ़त को रोकने में असमर्थ रूजवेेल्ट और चर्चिल ने भारत को प्राय: जापानियों के हाथ में चला गया मान लिया। इसी समय नेहरू ने जापानियों के खिलाफ घर-घर में लड़ाई की तैयारियों का आह्वान किया। एस. गोपाल के अनुसार- ‘‘जवाहरलाल के मस्तिष्क में उस प्रकार का मोर्चा खोलने की बात काम करती नजर आ रही थी जैसा कि चीन में हो रहा था। बिटिश सरकार ने युद्ध में सहयोग देने के कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। लेकिन किसी भी स्थिति में कांग्रेस एक विदेशी हमलावर के सामने नहीं झुकेगी। वे हमलावर सेना को खदेड़ने में भले ही सफल न हों, लेकिन उन सैनिकों को भारतवासियों की लाश पर से गुजरना होगा। भारत फ्रांस की परिणति को नहीं स्वीकारेगा।’’

क्रिप्स मिशन और उसके बाद 
इसी समय भारत को डोमीनियन स्टेटस का दबाव भी बढ़ने लगा। तभी एक उच्चस्तरीय क्रिप्स शिष्टमंडल भारत में ऐसे प्रस्तावों के साथ आया जिसकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा रियासती राजाओं, सबको खुश करने के अलग-अलग प्राविधान थे। मूल मकसद युद्ध में भारतवासियों का समर्थन हासिल करना भर था। क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव में सब के लिए कुछ-कुछ होने पर भी किसी ने उसे अपनी स्वीकृति प्रदान नहीं की।
क्रिप्स मिशन पूरी तरह से विफल रहा। नेहरू और आजाद की इच्छा के बावजूद गृह मंत्रालय और प्रतिरक्षा के भार को भारतीयों को न सौंपने की ब्रिटिश सरकार की जिद ने क्रिप्स मिशन के संदर्भ में नेहरू की आशाओं पर पानी फेर दिया। नेहरू ने यह आश्वासन दिया था कि हमलावर जापानियों का भारत में डटकर मुकाबला किया जायेगा। सिर्फ अहिंसक ही नहीं, गुरिल्ला तरीकों का प्रयोग भी किया जायेगा। लेकिन क्रिप्स मिशन की विफलता ने कांग्रेस में गाँधी के नेतृत्व को काफी बल पहुँचाया। गाँधी जी शुरू से ही इस मिशन के खिलाफ थे। गुरिल्ला युद्ध की बातों के लिए उन्होंने नेहरू को भी काफी लताड़ा। क्रिप्स मिशन की बुनियाद में भारत को विभाजित करने की अवधारणा काम कर रही थी। जो सरकार भारत के विभाजन की भाषा में सोचती है, गाँधीजी उससे किसी प्रकार की बातचीत के लिए तैयार नहीं थे। उनकी साफ राय थी, जापान की लड़ाई भारत से नहीं, ब्रिटिश सामाज्य से है। ब्रिटेन भारत की रक्षा नहीं कर पा रहा है, इसलिए उसे चले जाना चाहिए। भारत तब खुद की रक्षा जापान या अन्य किसी हमलावर से खुद कर लेगा लेकिन स्वतंत्र भारत का पहला कदम शायद जापान के साथ बातचीत का होगा।
एस. गोपाल के अनुसार, ‘‘क्रिप्स घोषणा के प्रति उनकी वितृष्णा ने गाँधी को जापानी साम्राज्यवाद की विशाल साजिश के प्रति अंधा बना दिया था।’’ नेहरू ने उसका विरोध किया। प्रस्ताव के अपने मसौदे में, कांग्रेस के पहले के मत से संगति रखते हुए, उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत का किसी भी देश की जनता से कोई झगड़ा नहीं है, लेकिन वह नाजीवाद तथा फासीवाद और साथ ही साथ साम्राज्य के विरुद्ध है।
इस प्रकार युद्ध के मसले पर कांग्रेस में भारी उलझन पैदा हो गयी। किन्तु अन्त में वर्किंग कमेटी की बैठक में जवाहरलाल का प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। लेकिन इसने बिटिश सरकार के आक्रामक रवैये को कम नहीं किया। गांधीजी ने जापान के पक्ष की अपनी पुरानी राय को त्याग दिया। साथ ही किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से भी चीन को मदद पहुँचाने तथा मित्र शक्तियों की बढ़त को सुनिश्चित करने के लिए जवाहर लाल ने भी भारत से ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति को जरूरी समझा। इसीलिए एआईसीसी के बम्बई अधिवेशन में पंडित नेहरू ने भारत छोड़ो  प्रस्ताव का समर्थन किया। जवाहरलाल तथा मौलाना आजाद आदि द्वारा ब्रिटिश सरकार से बातचीत की इच्छा और कोशिशों के बावजूद ब्रिटिश सरकार के रुख ने कांग्रेस को संघर्ष के रास्ते पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया। ‘‘भारत छोड़ो’’ प्रस्ताव में कहा गया ‘‘एक स्वतंत्र भारत अपने सभी संसााधनों को स्वतंत्रता के लिए तथा नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद के हमले के खिलाफ झोंक कर स्वतंत्रता और जनतंत्र की इस सफलता को सुनिश्चित करेगा।’’

भारत छोड़ो आंदोलन और कम्युनिस्ट 
इसी संदर्भ में का. ईएमएस ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन और उसमें कम्युनिस्टों की भूमिका के अत्यन्त वितर्कित प्रश्न पर अपने विचार रखे हैं। का. ईएमएस ने इस अध्याय के शुरू में ही क्रिप्स मिशन के प्रति नेहरू के रुख को, जिसमें जाहिरा तौर पर भारत के विभाजन के बीज थे, तथा फिर ‘भारत छोड़ो’ की पुकार पर उनकी सहमति के पूरे प्रसंग को अधिकारी सूत्रों के हवाले से रखा है। उन्होंने बताया है कि किसप्रकार श्री सी. राजगोपालाचारी ने सन् 1942 में हुए एआईसीसी के इलाहाबाद अधिवेशन में पाकिस्तान को मान लेने का प्रस्ताव रखा था जिसे वहां भारी बहुमत से ठुकरा दिया गया। 15 जुलाई 1945 को उन्होंने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद ही ‘‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’’ बम्बई अधिवेशन में स्वीकार किया गया। उस वक्त इस मूल प्रस्ताव में संशोधन रखने वाला एकमात्र संगठित गुट कम्युनिस्टों का था। नेहरू ने बाद में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया तथा यहां तक कह दिया कि भारत के लोग जब अंग्रेज शासकों से लड़ रहे थे तब कम्युनिस्ट ‘‘दूसरे खेमे’’ में थे। बिटिश कम्युनिस्ट रजनी पामदत्त को 12 अगस्त 1945  में लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा ‘‘आपको यह समझना चाहिए कि भारत में कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच पैदा हो गयी खाई मुझे पीड़ा देेती है। यह खाई अभी चौड़ी और गहरी है तथा इसके पीछे पिछले तीन वर्षों की सारी उत्तेजनाएं हैं। उसका कम्युनिज्म और समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि उनके पीछे महज अमूर्त भावनाओं के बजाय गहरा सोच है। इतना ही कम इसका सम्पर्क रूस से है जिसके लिए यहां सबमें काफी प्रशंसा का भाव है ... यह खाई भारत की अंदरूनी नीति के कारण पैदा हुई है तथा इस तथ्य ने कि जब राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादी व्यवस्था के बीच तीखी लड़ाई चल रही थी, उस वक्त कम्युनिस्टों ने भारत के लोकप्रिय नेताओं को बदनाम किया, लोगों के सामने ऐसी तस्वीर पेश की कि जिसमें वे साम्राज्य की सरकार के पक्ष में काम करते दिखाई पड़ रहे थे।’’
इस पर सारे तथ्यों को रखते हुए का. ईएमएस ने बताया है कि कम्युनिस्टों के विरुद्ध जेहाद के समय कांग्रेस के नेतागण जिस लड़ाई को जनता की फैसलाकुन लड़ाई बता रहे थे, उसके सभी स्तरों पर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के साथ सुलह समझौता करने की कोशिश करते रहे हैं। क्रिप्स मिशन के प्रति नेहरू और आजाद का रुख, सन् 1944 में वाइसराय बेबेल के नाम गाँधीजी का पत्र, भारत छोड़ो आंदोलन के पहले राजगोपालाचारी का रवैया तथा खुद भारत छोड़ो प्रस्ताव जिसमें ‘‘शर्तों को मान लिए जाने पर युद्ध की तैयारियों में शामिल होने की उत्सुकता’’ दिखाई गयी थी, इस बात के यथेष्ट प्रमाण हैं। ‘‘इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि एआईसीसी द्वारा बम्बई प्रस्ताव को अपनाए जाने के बाद के हफ्तों में कम्युनिस्ट कांग्रेस तथा महात्मागाँधी के नेतृत्व की साम्राज्यवाद--विरोधी आंदोलन की मुख्य धारा के विरुद्ध खड़े हुए थे। ....भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति अपने रुख की भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने बाद में खुद एक आत्म--आलोचना की। यह स्वीकारा गया कि पार्टी की उस वक्त की घोषणाएं तथा व्यवहार वृहत्तर भारतीय जनता की साम्राज्यवाद--विरोधी आकांक्षाओं से मेल नहीं खाते थे।’’ 
लेकिन ‘‘अपने अभियान में कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ी भूल भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान और बाद में पर्दे के पीछे की सच्चाई को समझने में उसकी असमर्थता की रही, अर्थात ‘‘समझौताहीन संघर्ष’’ की बातों के आवरण में चल रहे सौदेबाजी के प्रयत्नों को समझने में।... भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ना भी इस सौदेबाजी का ही एक अंग था। कम्युनिस्ट पार्टी सच्चाई के इस पहलू को तब नहीं समझ पायी थी। इसीलिए वे जनता को इस बात के प्रति सतर्क नहीं कर पाए थे कि उन दिनों क्या चल रहा था। जेल से गाँधीजी द्वारा लिखे गये पत्र से जो बातचीत शुरू हुई, उसका अंत 1947 की माउंट बेटन योजना में हुआ। इसीलिए पार्टी हस्तक्षेप नहीं कर पायी और जनता को अंत में किए गये समझौते के चरित्र के बारे में शिक्षित नहीं कर पायी। बाकी भारतीय जनता की भांति वह भी कांग्रेस की ‘‘भारत छोड़ो’’ मांग के स्थान पर जिन्ना की ‘‘तोड़ो और छोड़ो’’ मांग पर अमल की असहाय दृष्टा भर बनी रह गयी।
सन् 1942 और उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अपने मतों के प्रचार के लिए स्वतंत्र रूप से जो जबर्दस्त अभियान चलाया गया, उसने वस्तुत: कम्युनिस्ट पार्टी को देशव्यापी स्तर पर एक व्यापक, मजबूत तथा स्वतंत्र संगठन का स्वरूप प्रदान किया। साम्राज्यवाद--विरोधी आंदोलन की दूसरी प्रमुख वामपंथी ताकत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने सन् 1942 के आंदोलन में जबर्दस्त प्रसिद्धि अवश्य हासिल की, लेकिन जनता के बीच उनकी पहचान कांग्रेस के कार्यक्रम पर अमल करने वालों के अतिरिक्त और कुछ नहीं बन पायी। इसीलिए, जैसे ही कांग्रेस के नेता जेलसे छूट कर आये, उन्होंने समझौता वार्ता शुरू करके कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वालों को उनकी औकात समझा दी। यही वजह है कि आजादी के बाद के काल में भी प्रमुख वामपंथी विपक्षी पार्टी के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी ही उभर कर आयी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नहीं।
जहां तक राष्ट्रीय नेताओं को बदनाम करने का प्रश्न है, यह एकतरफा मामला नहीं था। कम्युनिस्टों को भी ‘ब्रिटिश दलाल’, ‘रूसी दलाल’ आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। ‘‘इनमें किसी की भी बदनामी उचित नहीं थी, क्योंकि अब यह साफ है कि वह राजनीतिक कार्यनीति पर ईमानदारीपूर्ण मतभेदों का एक प्रश्न ही था।’’
देशभर में एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के बाद ही वस्तुत: पार्टी देश की जनता के सामने असंख्य जुझारू संघर्षों के संगठन और नेता के रूप में उभर कर आयी। ‘‘इस विद्रोह की व्यापकता के चलते ही (जिसमें कम्युनिस्टों ने किसी भी रूप में कम महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं की) ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में उपस्थित बुर्जुआ के साथ एक समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश के साथ खुद को जोड़ लिया होता तो ऐसा होना मुमकिन नहीं होता।’’
सन् 1942 के संघर्ष ने आम जनता की नजरों में कांग्रेस की एक क्रांतिकारी प्रतिमा तैयार की। इसका फल यह मिला कि सन् 1946 के चुनावों में अधिकांश ब्रिटिश इंडिया के प्रांतों में कांग्रेस की अच्छी जीत हुई। यहां तक कि मुस्लिम बहुल उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी कांग्रेस जीती। लेकिन इसके साथ ही दूसरा खतरनाक पहलू भी उभर कर  आया। सभी प्रांतों में मुस्लिम मतदाताओं के आधार पर मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें अधिकांशत: मुस्लिम लीग के हाथ लगीं। इस सदी के पहले दशक से ही अंग्रेजों ने कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम मोहरे का प्रयोग करने का जो खेल शुरू किया था, इस समय तक आते-आते वह अपने चरम तक पहुँच चुका था। जिन्ना मुस्लिम सम्प्रदाय के निर्विवाद नेता बन चुके थे। 1942 के आंदोलन के बाद जब सन् 1945 में कांग्रेस के नेतागण जेल से रिहा किये गये तब त्रिकोणीय वार्ता शुरू हुई-- ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच। इस बीच मुस्लिम लीग ने ‘‘दो राष्ट्रों के सिद्धान्त’’ का पूरा प्रचार कर लिया था। कांग्रेस शुरू में देश विभाजन के खिलाफ थी, लेकिन साथ ही उसने यह मत अपनाया कि यदि देश के किसी हिस्से के लोग ईमानदारी से अलग होना चाहें तो उन्हें जोर-जबर्दस्ती नहीं रखा जायेगा। मुस्लिम लीग देश तोड़ना चाहती थी, लेकिन साथ ही वे देश को एकजुट बनाये रखने को तैयार थे, बशर्ते ‘‘मुसलमानों की न्यायोचित मांगों’’ की रक्षा की जाए। अंग्रेजों ने इन दोनों के बीच अपनी चालें चलनी शुरू की और कांग्रेस नेतृत्व के न चाहने पर भी सारे मामले को कुछ इस रंग में रंग कर पेश करना शुरू कर दिया जैसे कांग्रेस हिन्दुओं का तथा मुस्लिम लीग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। वाइसराय बेबेल ने नग्न रूप में मुस्लिम लीग के पक्षधर की भूमिका अदा की। फिर भी जिन्ना की ऐसी मांगों को कि केन्द्रीय कार्यकारी परिषद में मुस्लिम सदस्यों को वोटों का अधिकार होना चाहिए, वे भी नहीं मान सके। बात यहीं टूट गयी। इसी बीच देश में जगह-जगह विद्रोह भड़कने लगे।  बम्बई में नाविकों के फरवरी 1946 के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को आतंकित कर दिया। इसी पृष्ठभूमि में सन् 1946 में नये सिरे से बातचीत करने के लिए कैबिनेट मिशन भेजा गया। प्रस्ताव रखा गया कि हिन्दू और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के समान अनुपात में प्रतिनिधियों को लेकर एक अखिल भारतीय सरकार और विधायिका का गठन किया जाए, जो विदेशी मामलों, प्रतिरक्षा, संचार और मूलभूत अधिकारों पर नजर रखेगी। बाकी अधिकार प्रांतीय सरकारों के होंगे। इसमें पाकिस्तान की बात को ठुकरा दिया गया था। लेकिन साथ ही मुसलमानों को कुछ रियायतें दी गयी थीं। कांग्रेस ने इस योजना को स्वीकार लिया तथा जवाहरलाल को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया, लेकिन मुस्लिम लीग ने उसे ठुकरा दिया। जवाहरलाल वाइसराय की कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष बने। लेकिन इसके साथ ही सिंध और बंगाल में ब्रिटिश गवर्नरों ने लीग के साथ संाठ-गांठ करके भयावह अराजक स्थितियां पैदा करनी शुरू कर दी। कलकत्ते में हुए भयानक दंगों ने सबको दहला दिया। इन्हीं कारणों से वाइसराय बेबेल और जवाहरलाल के बीच तनाव बढ़ गये। इन्हीं परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने बेबेल के स्थान पर माउंटबेटन को नियुक्त किया। माउंटबेटन के साथ लम्बी और कठिन बातचीत चली। ‘‘ब्रिटिश अधिकारियों तथा कांग्रेस के बीच वार्ताओं की कहानी यह दिखाती है कि प्रत्येक चरण पर कांग्रेस ब्रिटिश अधिकारियों के सामने झुकती गयी। कई दशकों के संघर्ष, खास तौर पर भारत छोड़ो आंदोलन से कांग्रेस के पक्ष में पैदा हुई सद्भावना इतनी शक्तिशाली नहीं थी कि वह ‘‘भारत छोड़ो’’ की कांग्रेस की मांग के खिलाफ मुस्लिम लीग तथा उसकी ‘‘तोड़ो और छोड़ो’’ की मांग के लिए पैदा हुई सद्भावना का मुकाबला कर सके। स्वतंत्रता आंदोलन के नेता नि:शक्त थे। चालाक ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें बेवकूफ बना दिया, जिनकी वजह से करोड़ों मुसलमान मुस्लिम लीग के पीछे हो गये, और यह उनका एक सबसे शक्तिशाली हथियार बन गया। अंग्रेजों ने इसका प्रभावशाली ढंग से न सिर्फ देश को विभाजित करने में, बल्कि दोनों नव-निर्मित राज्यों को स्थायी शत्रुु बनाये रखने में प्रयोग किया ताकि उनके बीच वे अपनी चालें खेल सकें। 
सन् 1942 के आंदोलन, उसके बाद की तूफानी परिस्थिति तथा लम्बी वार्ताओं की पेचीदगियों का अन्तिम परिणाम देश का विभाजन और दो नये स्वतंत्र राज्यों के निर्माण में हुआ। गाँधी जी विभाजन न चाहने पर भी, इस सारी परिस्थिति में उनकी स्थिति बिल्कुल निष्प्रभावी हो गयी थी। नेहरू और पटेल सहित कांग्रेस का प्रभावशाली नेतृत्व इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि ‘‘भारतीय संघ को बनाये रखने पर बल देने का अर्थ सिर्फ कठिनाइयों को जारी रखना हो सकता है।’’
स्वतंत्र भारत में नेहरू अब खुद एक प्रमुख राष्ट्रीय नेता की हस्ती बन गये। अब उन्हें अपने पिता या महात्मा, किसी की जरूरत नहीं रह गयी थी। खुद गाँधी ने नेहरू के प्रधान-मंत्रित्व का रास्ता साफ किया था। लेकिन माउंटबेटन योजना तथा आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर देने के गाँधी के मत ने गाँधी को बाकी कांग्रेस से प्राय: अलग-अलग कर दिया। खुद नेहरू इस मौके पर गाँधी के विरुद्ध खड़े थे। लेकिन उसी समय पंजाब में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की तथा चारों ओर जिस प्रकार का भारी उन्माद दिखायी दिया, दोनों ओर कुल मिलाकर लगभग 2 लाख से 6 लाख के करीब लोग मारे गये, इस भयावह घटनाक्रम के प्रति नेहरू और गाँधी की प्रतिक्रिया एक समान थी, जबकि पटेल और राजेन्द्र प्रसाद की तरह के लोगों ने पूरी तरह से साम्प्रदायिक नजरिये का परिचय दिया। यह भारत के लिए एक कठिन परीक्षा की घड़ी थी। गाँधी बंगाल के गाँव-गाँव में घूम कर साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना का अलख जगा रहे थे। नेहरू दिल्ली में जगह-जगह उन्मादित भीड़ को ललकार कर, पुचकार कर शांत कर रहे थे। उसी समय परिस्थिति को और जटिल बना दिया ब्रिटिश की शह पर कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले ने। इस मुद्दे पर गाँधी, नेहरू, पटेल और कांग्रेस ने एकता का परिचय और पूरी ताकत से उसका मुकाबिला किया। उसी समय बंटवारे की सम्पत्ति के एक हिस्से के रूप में समझौते की शर्त के अनुसार पाकिस्तान को भारत सरकार द्वारा 55 करोड़ रुपये के भुगतान का प्रश्न आया।  मंत्रिमंडल ने यह फैसला किया कि जबतक कश्मीर का मामला हल नहीं होता, यह राशि नहीं दी जायेगी। इसमें पटेल ने पहलकदमी की। तब गाँधी ने इसका विरोध किया और कहा कि यह ‘द्वदद्मद्यठ्ठद्यड्ढद्मथ्र्ठ्ठदथ्त्त्त्ड्ढ‘ तथा अविवेकशील और स्वतंत्र भारत सरकार का ‘‘पहला बुरा कदम’’ होगा। 13 जनवरी 1948 को उन्होंने ‘‘भारतीय जनता की आत्मा को जगाने तथा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए अनशन’’ किया। गाँधीजी के इस अनशन का पाकिस्तान में भी काफी अच्छा असर हुआ। भारत सरकार ने उनकी इच्छा को देखते हुए पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपये का भुगतान कर देने का फैसला लिया।
लेकिन इन्हीं सबके बीच हिन्दू महासभा और आरएसएस की गतिविधियां बढ़ गयी थीं। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने की घटना ने हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों को गाँधी के खिलाफ उन्माद पैदा करने का अवसर दिया। इसी का अन्तिम परिणाम हुआ आरएसएस के नाथूराम गोडसे के हाथों 30 जनवरी 1948 को गाँधीजी की हत्या। इन दिनों गाँधीजी की क्या भूमिका थी, इसे नेहरू ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 13 दिसम्बर 1947 के अपने एक भाषण में इस प्रकार रखा था : ‘‘इन महीनों में महात्मा गाँधी की उपस्थिति भारत के लिए क्या मायने रखती है, आप में से कितने लोग इसे समझते हैं? हम सभी पिछली अर्द्धशती या उससे भी ज्यादा काल के दौरान भारत तथा आजादी को उनकी विराट सेवाओं से वाकिफ हैं। लेकिन पिछले चार महीनों में उन्होंने जो सेवा की है उससे बड़ी दूसरी कोई सेवा नहीं हो सकती है। एक बिखरती हुई दुनिया में वे एक उद्देश्यपूर्ण चट्टान तथा सत्य के प्रकाश-स्तम्भ की मानिन्द तथा उनकी दृढ़ मद्यिम आवाज असंख्य लोगों के शोर से कहीं ज्यादा ऊँची उठकर सही कार्य के रास्ते को दिखा रही है।’’
गाँधी की हत्या पर नेहरू की श्रद्धांजलि भी इतनी ही सारगर्भित थी। इस प्रकार नेहरू एक ऐसे व्यक्ति थे ‘‘जो गाँधी के कोई साधारण शिष्य नहीं थे। कई महत्वपूर्ण सवालों पर वे गाँधी से मतभेद रखते थे तथा उनसे उन्होंने लड़ाई भी की। वे उन लोगों में से एक थे जिन्होंने अन्य कई साथियों के साथ मिलकर कांग्रेस को भंग करने के गाँधी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उनकी तरह वे चाहते थे कि कांग्रेस का तथा उसकी सरकार का इस्तेमाल करके उन चीजों को पुख्ता करें जिन्हें एक लम्बे तथा कठिन स्वतंत्रता संघर्ष के बीच से अर्जित किया गया था। लेकिन देश को जकड़ चुके साम्प्रदायिक उन्माद से लड़ने में, जिस उन्माद ने धर्म निरपेक्षता के लिए संघर्ष में उनके सबसे मजबूत सहयोगियों तक को निगल लिया था, वे अपने सभी मित्रों की तुलना में गाँधी के कहीं अधिक साथ थे। अपने वरिष्ठ साथी और नेता के समर्थन के बिना अब उन्हें अपने कंधे पर काफी ज्यादा भार लगने लगा था।’’
आजादी के बाद भी भारत के गवर्नर जनरल के पद पर माउंटबेटन तथा तीनों सेनाओं के प्रमुख भी ब्रिटिश अधिकारी बने रहे जबकि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना बना दिये गये थे। इन ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान को कश्मीर तथा रियासती राज्यों के विलय में पूरी मदद की। इन्हीं के चलते कश्मीर और जूनागढ़ का मसला एक अन्तर्राष्ट्रीय मसला बना दिया गया। लेकिन अंत में हैदराबाद निजाम के विरुद्ध 7 सितम्बर 1948 को भारतीय सेना के पहुँचने पर सारे रियासती राज्य ठंडे हो गये। ‘‘बिटिश अधिकारियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान को मदद देने की हर सम्भव कोशिश की। ..उनकी गतिविधियां जूनागढ़ और हैदराबाद, दोनों राज्यों में सिर्फ इसलिए प्रभावशाली नहीं हो पायी कि वहां गैर-मुस्लिम आबादी का बहुमत था तथा इसके अलावा शक्तिशाली जनतांत्रिक आंदोलन था; भारत में विलय को इसीलिए भारी समर्थन प्राप्त था।’’
‘‘यहां तक कि कश्मीर में आबादी का बहुमत मुस्लिम होने पर भी भारत में विलय के पक्ष में भारी संख्या में लोग थे क्योंकि राज्य में एक शक्तिशाली जनतांत्रिक आंदोलन था जिसके नेता इस्लामिक तत्ववाद और अलगाववाद के खिलाफ एक फैसलाकुल लड़ाई लड़ रहे थे।’’
नये राष्ट्र के नेता के रूप में पंडित नेहरू विभिन्न कारणों से भारत को ब्रिटेन और अमरीका के साथ अधिक घनिष्ठ रखने का विचार रखते थे। यही वजह थी कि देश के अन्दर काफी विरोध के बावजूद उन्होंने कामनवेल्थ की सदस्यता स्वीकार की। यह भी तथ्य है कि शुरू में किसी भी शिविर के साथ न जुड़ने की उनकी घोषणा के पीछे खुद को सोवियत संघ से दूर रखने का आग्रह कहीं ज्यादा काम कर रहा था। चीन में नयी जनवादी क्रांति के बाद वहां की नयी सरकार के साथ संबंधों के विकास में वे सदा सतर्कता बरतने की बातें कहा करते थे। इसके अलावा भारत के विकास के लिए वे अमरीका की मदद पर बहुत ज्यादा आशा लगाये हुए थे। वे ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते थे जिससे ब्रिटिश और अमरीकी सरकारें शंकित हों। फिर भी भारत के प्रति उनके रवैये में, कश्मीर में उनकी घिनौनी भूमिका में रत्तीभर का भी परिवर्तन नहीं हुआ। काफी आशा लगा कर नेहरू अमरीका यात्रा पर गये। लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। ‘‘उस वक्त का नेहरू का खुद आकलन यह था कि अमरीकी सरकार सभी मुद्दों पर हम से तो अपने मत को मनवा लेना चाहती थी, लेकिन भारत की किसी भी रूप में मदद के लिए अनिच्छुक थी।’’
इस पूरे प्रारम्भिक काल की नेहरू की विदेश नीति का लुब्बे-लुबाब यह था कि वे ‘‘एक ऐसी विदेश नीति तैयार कर रहे थे जो ब्रिटेन के साथ अपने संबंधों को जारी रखने तथा अमरीका के साथ नये संबंध स्थापित करने और नग्न रूप में (खुलेआम विरोध न करके भी) सोवियत संघ या उदीयमान समाजवादी शक्ति चीन से दूर रहने की नीति थी। न तो पुराने और नये साम्राज्यवाद के साथ सम्पर्क और न ही पुरानी और नयी समाजवादी शक्तियों के साथ दूरी ही इतनी दृढ़ थी कि नेहरू को इस या उस शिविर के साथ जोड़ देती। यही गुट-निरपेक्षता का वास्तव में प्रारम्भिक रूप था जिसे आगे अभी कईं परिवर्तनों से गुजरना था।’’
आजादी के उपरान्त गाँधी की हत्या के अलावा नेहरू को दूसरा बड़ा धक्का तब लगा जब वामपंथियों ने (कांग्रेस के अन्दर और बाहर, दोनों ने) उनका विरोध शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी तो युद्ध के बाद ही अपने स्वतंत्र संघर्षों तथा पुन्नाप्रा-वायलर और  तेलंगाना की तरह के संघर्षों से कांग्रेस के विरुद्ध खड़ी ही थी तथा नेहरू पूरी तरह से खुद को उनसे अलग समझने लगे थे। लेकिन कांग्रेस के अन्दर के वामपंथी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने, आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश की तरह के लोगों ने कांग्रेस से अलग हटने का फैसला करके उन्हें गहरा धक्का लगाया। उन्होंने जयप्रकाश को, कांग्रेस में रखने की भरसक कोशिश की, लेकिन जयप्रकाश का टके-सा जवाब था ‘‘आप समाजवाद की ओर बढ़ना चाहते हैं, लेकिन चाहते हैं कि पूँजीपति उसमें मदद करे। आप पूँजीवाद की मदद से समाजवाद बनाना चाहते हैं। आपकी उसमें विफलता अनिवार्य है।’’ देश के अन्दर ही नेहरू को दूसरी बड़ी चुनौती थी आरएसएस तथा हिन्दू पुनरुत्थानवादियों की। कांग्रेस के पुराने नताओं का बड़ा भारी हिस्सा इन पुनरूत्थानवादियों के पक्ष में था। यही तबका संविधान में सम्पत्ति के मूलभूत अधिकारों तथा राजाओं को प्रिविपर्स के रूप में भारी राशि देने के पक्ष में था। इन दोनों सवालों पर ही नेहरू को उनके दबाव के सामने झुकना पड़ा। न चाहने पर भी वे राजाओं को बेवजह प्रिविपर्स की विशाल राशि देने पर मजबूर हुए। कांग्रेस के अन्दर के इन सम्प्रदायवादियों के दबाव के कारण ही अपनी इच्छा के खिलाफ उन्हें साम्प्रदायिक और तंग नजरवाले राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति पद के लिए मानना पड़ा। और तो और, सन् 1950 के अगस्त महीने में हुए कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में पुरुषोत्तम दास टण्डन का खुलेआम विरोध करने के बावजूद पटेल तथा उनके गुट के लोगों की मदद से वे उस पद के लिए चुने गये। राज गोपालाचारी की तरह के व्यक्ति, जो ऊपर से तो नेहरू का साथ निभाने का स्वांग किया करते थे, अन्दर ही अन्दर पटेल गुट की साभी कारस्तानियों के साथ थे। उनके मंत्रिमंडल के दो साथी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा के.जी. नियोगी ने जनसंघ का गठन कर लिया। नेहरू में एक प्रकार की असहायता की भावना पैदा होने लगी जब उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश साथी (राजगोपालाचारी को छोड़कर) उनके संघर्ष में मददगार होने के बजाय वास्तव में हिन्दू धर्मान्धता को बढ़ावा दे रहे थे। वे प्रधानमंत्री पद छोड़ देने की बातें अक्सर कहने और लिखने लगे थे, यद्यपि इस पर अमल कभी नहीं किया। अपने एक पत्र में उन्होंने कहा वे ‘‘निराश तथा दुखी और पूरी तरह से निष्प्रभावी हो रहे हैं।’’
इसी पृष्ठभूमि में सन् 1952 के पहले आम चुनाव हुए। हिन्दू रुझान की दक्षिणपंथी पार्टियों को सामन्तों तथा राजा-महाराजाओं का समर्थन प्राप्त था। चुनावों की घोषणा ने नेहरू को फिर कांग्रेस के निर्विवाद नेता की हैसियत में ला दिया था। पटेल की मृत्यु हो जाने से कांग्रेस के अन्दर का वह गुट जो नेहरू के अधिकारों को सांगठनिक और  राजनीतिक तौैर पर चुनौती दिया करता था, काफी कमजोर हो गया। देश की जनता के बीच नेहरू की साख ने आगामी चुनावों को मद्देनजर रखते हुए कांग्रेस के अन्दर की उनकी सारी बाधाओं को एक बार के लिए समाप्त कर दिया। इसके अलावा नेहरू के लिए चुनाव में चुनौती दक्षिणपंथी विपक्ष से उतनी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने एक व्यक्ति के रूप तथा उनकी पार्टी ने, वर्षों के कामों से (जनता में) प्रगतिशीलता की एक साख स्थापित की थी। मुख्य चुनौती वामपन्थ की ओर से थी। इनमें सोशलिस्ट पार्टी के साथ जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव की तरह की राष्ट्रीय हस्तियाँ होने की वजह से वह एक प्रमुख ताकत थी। इनके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी ने विभिन्न स्थानों पर अच्छी खासी शक्ति अर्जित कर ली थी। चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी संसद की प्रमुख विपक्षी पार्टी थी, सोशलिस्ट पार्टी को भी वोट कम नहीं मिले, लेकिन सीटों की दृष्टि से उसकी स्थिति बिल्कुल बदतर रही। उस पार्टी की सबसे गम्भीर बीमारी यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी की भांति वह खुद को बुर्जुआ राजनीति से अलग रूप में पेश नहीं कर पा रही थी। चुनाव में पराजय के साथ ही उस पार्टी के बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो गयी। 
इस पहले बड़े राजनीतिक संघर्ष में यद्यपि कांग्रेस को भारी बहुमत मिला, लेकिन वोटों की दृष्टि से उसे 50 प्रतिशत से कम वोट ही मिल पाये। यही वजह है कि इसके बाद ही ‘‘कांग्रेस के लिए तथा व्यक्तिगत रूप से नेहरू के लिए परीक्षा का एक दौर शुरू हो गया।’’
इन चुनावों में उत्तर में तत्कालीन पूर्वी पंजाब तथा दक्षिण में मद्रास, त्रावनकोर, कोचीन इन तीन स्थानों पर कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। पंजाब में चुनौती अकाली पार्टी की ओर से मिली थी तथा दक्षिण के राज्यों में जो विरोधी संयुक्त मोर्चा था, उसमें मुख्य शक्ति कम्युनिस्टों की थी। शुरू में इस बारे में नेहरू का रुख यह था कि ‘‘कांग्रेस की चुनाव में पराजय का अर्थ संविधान की विफलता नहीं है।’’ इसी आधार पर वे विपक्षियों को सरकार बनाने का मौका देना चाहते थे। पंजाब में अकाली दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार बनने का मौका दिया गया। यद्यपि यह सरकार सिर्फ एक साल ही चल पायी तथा मध्यावधि चुनाव में अकाली दल के एक हिस्से को अपने साथ मिलाकर कांग्रेस चुनाव जीत गयी। लेकिन दक्षिण में यह मौका नहीं दिया गया। राजगोपालाचारी ने खुलेआम कम्युनिस्टों के प्रति अपनी नफरत को जाहिर किया। ‘‘नेहरू व्यवहार में संविधान के साथ इस धोखा-धड़ी में शामिल हो गये, यद्यपि सिद्धांतत: वे इन निर्णयों को लेने में हिस्सेदार नहीं थे।’’
गवर्नर श्री प्रकाश के साथ तिकड़म करके राजगोपालाचारी मद्रास के मुख्यमंत्री बन गये तथा यह ऐलान किया कि कम्युनिस्ट हमारे एक नम्बर शत्रु हैं। उनसे शुरू से अन्त तक लड़ना होगा। राजगोपालाचारी ने अपने मंत्रिमंडल से सभी मुस्लिम मंत्रियों को निकाल कर भी नेहरू के सामने एक चुनौती पेश की। 
त्रावनकोर-कोचीन में इसी दौर में ‘‘कम्युनिस्ट विरोधी मोर्चे’’ की तरह के संगठन तक बने जिन्हें राज्य के कांग्रेस नेतृत्व का पूरा समर्थन प्राप्त था। नेहरू इस कट्टर कम्युनिस्ट-विरोध के कायल नहीं थे। वे सोशलिस्टों को राजनीतिक तौैर पर दबाना चाहते थे। ‘‘अपनी इस कोशिश में वे सफल नहीं हुए क्योंकि वे एक ऐसे संगठन के शीर्ष पर थे जो मानसिक तौर पर कम्युनिज्म तो क्या, समाजवाद तक का विरोधी था। उन्हें सोशलिस्ट पार्टी का भी समर्थन नहीं मिला जिनके साथ उनके विचार देश की दूसरी किसी भी पार्टी या ग्रुप की तुलना में कहीं ज्यादा मिलते थे। यदि वे सोशलिस्टों को अपने निर्भरयोग्य सहयोगी के रूप में रखते तो उन्हें अपनी खुद की पार्टी के अन्दर लड़ना पड़ता तथा उन नीतियों को बदलना पड़ता जिनके प्रति एक कांग्रेस नेता के रूप में वे स्वयं प्रतिबद्ध थे। इसके लिए वे तैयार नहीं थे। इसीलिए पहले के तमाम अवसरों की तरह ही उनका वामपंथी रुझान कांग्रेस के प्रति उनकी वफादारी के अधीन ही रहा।’’

वामपंथ की ओर 
एकता की नेहरू की इच्छा को सोशलिस्टों द्वारा दो-टूक जवाब ने उन्हें यह सोचने के लिए मजबूर किया कि कैसे कांग्रेस की तस्वीर को वामपंथी बनाया जाए। तभी एक ओर जहाँ वे साम्प्रदायिक ताकतों से निपट सकते थे, वहीं कम्युनिस्टों पर भी अंकुश लगा सकते थे। सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में करने का भी इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता था।
इसी समय दुनिया के पैमाने पर घटी कुछ घटनाओं ने उन्हें विदेश नीति के मामले में कुछ परिवर्तन के अवसर प्रदान किये। अब तक पूँजीवादी और समाजवादी शिविर के बीच समान दूरी बनाकर चल रही पंडित नेहरू की सरकार ने कोरिया युद्ध के मामले में साम्राज्यवाद-विरोधी रवैया आख्तियार किया। तिब्बत पर चीन की सार्वभौमिकता को स्वीकार कर चीन से दोस्ती की आधारशिला रखी। पश्चिम के प्रभुत्व से दबी दुनिया में कई एशियाई प्रश्नों को उठाने में उन्होंने पहलकदमी की। अभी भी एशिया और अफ्रीका के जो देश औपनिवेशिक गुलामी के शिकंजे में कसे हुए थे, उनकी आजादी के प्रश्न को केन्द्र में रखकर उन्होंने इंडोनेशिया के शहर बांडुग में एशिया और अफ्रीका के स्वतंत्र देशों का एक सम्मेलन करने की पहलकदमी की, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रारम्भ था। बांडुग सम्मेलन के बाद ही सोवियत संघ के साथ भी भारत की मित्रता के एक नये अध्याय का प्रारम्भ हुआ। 
समाजवादी चीन और सोवियत संघ के साथ नेहरू के संबंधों ने किन्तु राष्ट्रीयस्तर पर उनके कम्युनिस्टों के प्रति रूख में परिवर्तन नहीं किया। ख्रुश्चेव-बुल्गानिन की ऐतिहासिक भारत यात्रा के वक्त नेहरू ने ख्रुश्चेव से यह शिकायत की कि कम्युनिस्ट पार्टी को विदेश से काफी पैसा मिलता है। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के अनुसार इस सवाल पर ख्रुश्चेव ने कहा कि उन्हें ऐसी कोई जानकारी नहीं है। तब नेहरू ने कहा कि यह आम धारणा है कि कम्युनिस्ट दूतावासों में जिन भारतीयों को भर्ती किया जाता है उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सिफारिश पर ही लिया जाता है। 
‘‘इस प्रकार जाहिर है कि समाजवादी देशों के साथ मित्रता का उपयोग नेहरू भारत में विपक्षी पार्टियों के खिलाफ, खास तौैर पर कम्युनिस्ट विपक्ष के खिलाफ कर रहे थे।’’ अपनी खुद की छवि को वामपंथी बनाने के लिए जनवरी 1955 में कांग्रेस के अवाडी अधिवेशन में उन्होंने ‘‘समाजवादी ढांचे के समाज’’ के लक्ष्य का प्रस्ताव पारित कराया। लेकिन इसके साथ ही यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया कि उनका समाजवाद विदेशी तरीके का नहीं होगा। ‘‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’’ पर आधारित ‘‘स्वदेशी समाजवाद’’ होगा।
समाजवादी योजना 
राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में समाजवाद को अपनाने के बाद ही दूसरी पंचवर्षीय योजना का निर्माण हुआ। कांग्रेस की ओर से यह दावा किया गया कि इस योजना के जरिये आर्थिक विकास के क्षेत्र में समाजवाद पर अमल किया जायेगा। वामपंथियों की कतार तक में भ्रम पैदा हुए। ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर, वास्तव में यहीं से दो गुटों के अन्दर गम्भीर विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष शुरू हुआ।’’ (इनमें से एक कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चे की राजनीतिक लाइन रख रहा था।) यही संघर्ष एक दशक बाद अन्त में पार्टी में टूट के रूप में विकसित हुआ।
कामरेड ईएमएस ने इस तथाकथित समाजवादी योजना के वास्तविक चरित्र का गहराई से विश्लेषण करते हुए बताया है कि यह द्वितीय पंचवर्षीय योजना भारत के पूंजीवादी विकास के लिए अतीत में जितनी भी योजनाएं विभिन्न कोनों से पेश की गयी थी, उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए तैयार की गयी थी। 19 वीं सदी के अन्तिम दिनों में नैरोजी, राणाडे और दत्त की तरह के राष्ट्रीय अर्थनीति के प्रवक्ताओं से लेकर सन् 1936 में प्रकाशित मैसूर के एम. विश्वेश्वरैय्या की योजना और फिर सन् 1946 की टाटा-बिड़ला या बम्बई योजना की तरह के दस्तावेजों में राष्ट्रीय अर्थनीति के विकास में जिस सीमा तक सरकारी योजना और पहलकदमियों को महत्व दिया गया था, द्वितीय योजना में सरकारी क्षेत्र की भूमिका किसी भी अर्थ में उससे भिन्न या ज्यादा नहीं थी।
‘‘विश्वेश्वरैय्या की योजना और बम्बई योजना तथा नेहरू की पहलकदमी पर तैयार की गयी द्वितीय पंचवर्षीय योजना में परस्पर तुलना करने पर यह जाहिर हो जायेगा कि वे सभी मोटे तौर पर एक ही लाइन पर थीं।’’
जहां तक भारतीय योजना के साथ समाजवादी देशों के संबंध का मसला है, तथ्य यह है कि प्रारम्भ में भारत के शासक वर्ग भारत की तरह के देशों की मदद में समाजवादी देश समर्थ हैं, ऐसा सोचते ही न थे। लेकिन बाद में, पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान ही यह अनुमान गलत साबित हुआ। सोवियत संघ में युद्ध के बाद हुए तीव्र विकास तथा चीन में कृषि क्रांति ने इस धारणा को निराधार साबित कर दिया। 
दूसरी पंचवर्षीय योजना तथा देश के दक्षिणपंथियों द्वारा उसकी तीखी आलोचना  ने नेहरू तथा उनके साथियों को दक्षिणपंथियों के विरोध पर सीधा हमला करने और वामपंथियों में उलझने पैदा करने के दोहरे राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने में मदद पहुँचायी। 
‘‘वास्तव अर्थो में, वे सभी योजनाएँ पूँजीपतियों के लक्ष्यों और नीतियों के अनुरूप ही थे। फिरभी उस वर्ग के एक हिस्से ने इस कदम का इसलिए विरोध किया क्योंकि वह भीतरी और बाहरी प्रतिक्रिया से गहराई से जुड़ा हुआ था।’’
अवाडी कांग्रेस के बाद आर्थिक क्षेत्र की घटनाओं के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में भी कई परिवर्तन परिलक्षित हुए। सोशलिस्ट पार्टी अंध कांग्रेस विरोध से लेकर अंध नेहरू विरोध में पर्यवसित होकर टूट-फूट गयी। जयप्रकाश जीवनदानी बनकर तथा पट्टाभि सितारमैय्या साधु बनकर राजनीति से हट गये। मीनू मसानी टाटा कम्पनी के एक बड़े अफसर बन गये। लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी दिशाहीन होकर नेहरू पर हमले में केन्द्रित हो गयी। 
कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने को उन परिवर्तनों से अछूती न रख सकी। सन् 1955  के चुनाव में वह जहाँ आन्ध्र प्रदेश में बहुमत हासिल करने का अनुमान लगा रही थी, वहां चुनाव परिणामों में उसकी सीटें 41 से घटकर सिर्फ 15 हो गयी। सन् 1956 में पालघाट में पार्टी कांग्रेस हुई तथा पार्टी के अन्दर दोनों लाइनों के बीच तीव्र बहस के उपरान्त जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसने जनता के सामने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का ऐसा विकल्प पेश किया जो कांग्रेस के रास्ते के विरुद्ध था। पहली पंचवर्षीय योजना के अनुभवों से शिक्षा लेते हुए इस प्रस्ताव में साफ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी कि ‘‘भारत अपने वर्तमान आर्थिक पिछड़ेपन तथा निर्भरशीलता से तब तक उबर नहीं सकता, अपनी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण तबतक नहीं कर सकता, जबतक तेजी से औद्योगीकरण न हो, खास तौर पर भारी और मशीन निर्माता उद्योगों में, और जबतक बुनियादी भूमिसुधार न हो जिसमें खेतिहर मजदूरों तथा गरीब किसानों के बीच जमीन का वितरण निर्णायक स्थान ग्रहण करे।’’
इस प्रकार विपक्ष की दक्षिणपंथी और वामपंथी, अन्य किसी भी पार्टी की तुलना में अकेले कम्युनिस्ट पार्टी एक वास्तविक विकल्प कार्यक्रम के साथ सामने आयी, जबकि दूसरी सभी पार्टियां किसी न किसी प्रकार के संकीर्णतावादी रास्ते की ओर बढ़ती हुई दिखाई देने लगी। ‘‘देश के धर्मनिरपेक्ष और देशभक्त आंदोलन के सामने उपस्थित हुई यह नयी चुनौती थी।’’
आजादी की लड़ाई के काल से ही कांग्रेस भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के प्रति वचनबद्ध थी। लेकिन आजादी के बाद नेहरू ने अन्य समस्याओं की तुलना में इसे कम महत्व का विषय समझते हुए, इसे टालने की नीति अपनाई। किन्तु देश के संविधान के निर्माण के वक्त इस प्रश्न को पूरी तरह से दरकिनार नहीं किया जा सकता था। इसीलिए नेहरू ने संविधान सभा में खुद को, पटेल तथा कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सितारमैय्या को लेकर इस प्रश्न पर एक कमेटी गठित करवाई। कमेटी ने यह सुझाव रखा कि ‘‘... देश की अस्थिर परिस्थितियों को देखते हुए भाषाई प्रांतों के गठन को 10 वर्षों के लिए टाल दिया जा सकता है।’’
यह बात 1949 के अक्टूबर महीने की थी। लेकिन लोकसभा के पहले चुनाव में ही आंध्र प्रदेश सहित कई राज्यों में कांग्रेस की जो हारें हुईं, इसके बाद ही व्यापक पैमाने पर राज्यों के पुनर्गठन का काम शुरू कर दिया गया। लेकिन फिर भी भाषाई आधार पर राज्यों की सीमाएं तय करने के सिद्धान्त को सख्ती से नहीं अपनाया गया। इसीलिए चारों ओर एक प्रकार का असंतोष दिखाई देने लगा। खुद नेहरू को लगने लगा कि जैसे ‘‘भारत के कुछ हिस्सों में हम गृहयुद्ध के कगार पर पहुँच गये हैं।’’
चारों ओर दिखाई दे रही उत्तेजनाओं ने एक समय के लिए नेहरू को दिशाहीन-सा कर दिया था। ‘‘समस्या सिर्फ भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की ही नहीं थी। राष्ट्रीय अखंडता के अन्य कई पहलू थे जिन सब पर नेहरू विफल रहे। भारत एक ऐसा देश है जहां कई भाषाओं, जातियों और सामाजिक समूहों के लोग वास करते हैं, इसके बारे में उनका एक सही और व्यापक आकलन न होने के कारण वे इन समस्याओं से जिस प्रकार निपटना चाहते थे उस पर बुरा प्रभाव पड़ा।’’
इसका एक बड़ा उदाहरण है कश्मीर का। धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन होने पर भी भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य बना। इसी सच्चाई की वजह से शेख अब्दुल्ला कश्मीर की तरह के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को भारत से मिलाने पर सहमत हुए। लेकिन 1949 के बाद ही शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर की तरह की बातें करने लगे। इसके विपरीत एक ऐसा हिन्दू साम्प्रदायिक नजरिया भी तेजी से सामने आया जो कश्मीर के लिए विशेष संवैधानिक स्थिति को समाप्त कर देना चाहता था। इसे कांग्रेस के अन्दर भी बहुतों का समर्थन प्राप्त था। जम्मू में इस मांग पर हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों ने आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन से निपटने के तरीके पर अब्दुल्ला और नेहरू में मतभेद हो गये तथा अब्दुल्ला ने साफ तर्क दिया कि ‘‘पूर्ण विलय’’ अथवा ‘‘पूर्ण स्वायत्तता’’ (जो स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक अपेक्षाकृत नरम पद था) के अलावा बीच का कोई रास्ता नहीं है, तथा चूंकि कश्मीर का बहुमत पहले विकल्प को नहीं स्वीकार सकता, इसलिए दूसरे के अलावा कोई चारा नहीं है। इस स्थिति ने कश्मीर की शासक पार्टी में ही एक संकट पैदा कर दिया। अब्दुल्ला और उनके समर्थक अल्पमत में हो गये। स्थिति यहां तक चली गयी कि मंत्रिमंडल के बहुमत ने शेख अब्दुल्ला को बाद देकर बैठक की तथा न सिर्फ अब्दुल्ला को बर्खास्त ही किया बल्कि उन्हें बंदी भी बना लिया गया। नेहरू को इसकी जानकारी बाद में हुई, लेकिन केन्द्रीय सरकार के प्रधान के नाते उन्होंने इसकी अन्तिम जिम्मेदारी स्वीकार की। नेहरू के जीवनीकार ने इसे नेहरू के जीवन की एक दुखांतकारी घटना बताया है। 
का. ईएमएस ने इस सारे घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि यह नेहरू के जीवन की नहीं, सारे देश की, उसके लोकप्रिय तथा धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की दुखांतकारी घटना थी। ‘‘कश्मीर में अब्दुल्ला सरकार पाकिस्तान के धार्मिक राज्य की तुलना में भारत में धर्मनिरपेक्षता की प्रतीक थी। यही देश में एक ऐसी सरकार भी थी जो वामपंथी आंदोलन द्वारा सुझाये गये प्रगतिशील कदमों, सर्वोपरि भूमिसुधार पर अमल कर रही थी। एक ऐसे राज्य में सरकार के प्रमुख को बर्खास्त करके बंदी बनाना देश की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के सुनाम पर धब्बा थी।’’ आजतक कश्मीर भारतीय जनतंत्र के लिए एक समस्या बना हुआ है। 
कश्मीर की घटनाओं तथा देश में फैली साम्प्रदायिक भावनाओं की पृष्ठभूमि में नेहरू ने 17 नवम्बर 1953 को के.एन. काटजू के नाम एक पत्र में लिखा ‘‘वास्तविक हिन्दू धर्म क्या है, यह प्रत्येक हिन्दू के अपने विचार का विषय हो सकता है। हम सिर्फ उसके व्यवहार की बात कर सकते हैं। व्यवहार में, हिन्दू निश्चित रूप से सहनशील नहीं हैं तथा किसी भी दूसरे देश में सिया यहूदियों के किसी भी व्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा संकार्ण-दिमाग का है। हिन्दू दर्शन जो महान है, उसकी बात करने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। भारत का भविष्य मुख्य रूप से हिन्दुओं के दृष्टिकोण से बंधा हुआ है। यदि वर्तमान हिन्दू नजरिया बुनियादी तौर पर नहीं बदलता है, तो मेरा पक्का मानना है कि भारत का दुर्भाग्य है। मुस्लिम नजरिया हो सकता है, और मैं मानता हूँ कि अक्सर बहुत बुरा है, लेकिन भारत के भविष्य पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता।’’
कश्मीर तथा उसके बाद की घटनाओं ने जातिवाद और साम्प्रदायिकता की इन ताकतों को और भी आक्रामक बना दिया। उनकी (नेहरू की) जिन्दगी के अन्तिम वर्ष ऐसी ही दुखांतकारी घटनाओं से भरे थे जिनमें वे समझौतों के लिए मजबूर होते गये। यद्यपि अपने मन में वे उनसे उत्पन्न होने वाले खतरों से वाकिफ थे। 

काला अध्याय 
भारतीय जनतंत्र के सामने एक और परीक्षा की घड़ी उस वक्त आयी अब सन् 1957 में केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के प्रति शुरू में एक उदार जनतंत्रवादी का रवैया अपनाने के बावजूद कांग्रेस के भीतर की तथा केरल में काम कर रही अन्य प्रतिक्रियावादी कम्युनिस्ट- विरोधी ताकतों के दबाव को वे झेल नहीं सके। जिस नेहरू को एक समय में ‘‘अन्दर से कम्युनिस्ट’’ बताकर पेश किया जाता  था, वही कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ जघन्य जेहाद के नेता बन गये। 1959 में केरल की चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को गिराना नेहरू के जीवन का एक काला अध्याय था।
‘‘एक चुनी हुई सरकार को गिराना उस राजनैतिक नैतिकता की संहिता के बिल्कुल बाहर की चीज थी जिसमें नेहरू की दीक्षा हुई थी। यहां लेकिन सवाल नैतिकता का नहीं बल्कि राजनीतिक जीवन की कठोर सच्चाई का था। एक गैर कांग्रेसी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ने सफलता के साथ कांग्रेस को चुनौती दी थी तथा राज्य में अपनी सरकार कायम की थी। वह कुछ ऐसे कदम उठा रही थी जिन्होंने कांग्रेस पार्टी के सदस्यों और मित्रों सहित आम लोगों को आकर्षित किया था। सत्ता पर उसका बने रहना अन्य राज्यों की जनता पर प्रभाव डाल सकता था, देशव्यापी पैमाने पर शासक दल के रूप में कांग्रेस के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर सकता था। इसलिए पार्टी के अस्तित्व के लिए ही जरूरी था कि नेहरू की तरह का एक उदार और सोशल डेमोक्रेट बुर्जुआ नेता के अपने असली रंग में सामने आ जाए। और वे आ गये।’’
कश्मीर और केरल में नेहरू की कार्रवाई में एक समानता थी। दोनों में ही राज्य की स्वायत्तता का प्रश्न शामिल था। लेकिन दोनों मामलों में कुछ बड़े फर्क थे। 
‘‘पहला, जम्मू और कश्मीर की कार्रवाई केन्द्रीय सरकार ने नहीं, खुद अब्दुल्ला सरकार के बहुमत ने की थी। शेख की गिरफ्तारी, नजरबंदी तथा उनके खिलाफ षड़यंत्र-मुकदमा राज्य के मंत्रिमंडल के काम थे। केरल में किन्तु केन्द्र ने एक राज्य सरकार के खिलाफ कदम उठाया, जिसे तब भी विधानसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त था।’’
‘‘दूसरा, दिल्ली में हिन्दू-अंधता के प्रति अपनी उत्तेजना के चलते शेख अब्दुल्ला वस्तुत: पाकिस्तान की ओर जा रहे थे। इसके कारण मंत्रिमंडल में उनका विरोध मजूबत हुआ। केरल में ऐसा कोई कारण नहीं था।’’
‘‘तीसरा, दोनों मामलों में ही नेहरू में एक अपराध बोध था। कश्मीर में अब्दुल्ला को फिर से लाकर उन्होंने प्रायश्चित करने की कोशिश की, यद्यपि सफल नहीं हुए। केरल में किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगे कि वे प्रायश्चित कर रहे हों।’’
यहीं से नेहरू के सर्वतोमुखी पतन का दौर शुरू हुआ। ‘‘भारत की तरह का एक नव स्वाधीन देश व्यवस्था के एक अन्तर्निहित संकट के साथ पैदा हुआ। जबतक वह खुद को पूँजीवादी व्यवस्था से अलग नहीं कर लेता उससे मुक्ति संभव नहीं थी। स्वातंत्रोत्तर काल में जाति, सम्प्रदाय तथा अन्य विभाजनकारी ताकतों के उभरने में, शासक कंाग्रेस पार्टी के अन्दर की गुटबाजी में, आर्थिक विकास और योजना के क्षेत्र आदि में यह तथ्य जाहिर हुआ। एक बुद्धिजीवी के रूप में नेहरू देख रहे थे कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन बुर्जुआ राजनीतिक नेता के नाते जो कुछ घट रहा था उसके ठोस विश्लेषण के लिए तैयार नहीं थे।’’
‘‘वास्तव में उनकी कोशिश भारतीय अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी रास्ते पर विकसित करने तथा अपनी पार्टी को इस काम के उपयुक्त बनाने की थी। इसीलिए यह स्वाभानिक था कि अपनी योजना की उन्होंने जो सुहावनी तस्वीर बनायी थी, वह उनके जीवन काल में ही बिगड़ने लगी। सांगठनिक रूप में भी, कांग्रेस को एक वास्तविक राष्ट्रीय तथा जनतांत्रिक संगठन के रूप में विकसित करने का उनका सपना बिखर गया, क्योंकि कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक गुटबाजी भरी हुई थी। अपने अन्तर्मन में वे जानते होंगे कि चीजें बिगड़ रही हैं। फिर भी वे न बीमारी का पता लगा सकते थे और न ही उसका निदान कर सकते थे। चीन की सीमा पर उनके दुस्साहस के गड़बड़ा जाने के कारण ने उनकी समस्याओं को और भी बढ़ा दिया।’’
इसके बाद ही कामरेड ईएमएस ने किंचित विस्तार के साथ भारत चीन सीमा संघर्ष के पीछे के नेहरू सरकार के राजनीतिक दृष्टिकोण के दिवालियापन को उद्घाटित किया है। इस घटना ने कांग्रेस दल के अन्दर भी नेहरू की स्थिति पर धक्का लगाया। प्रधानमंत्री के रूप में खुद उनकी स्थिति को सीधे चुनौती न मिलने पर भी उनके सबसे नजदीकी लोगों को हमलों का निशाना बनाया जाने लगा। कांग्रेस दल के अन्दर के असंतोष को शान्त करने के लिए ही नेहरू को तत्कालीन प्रतिरक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की बलि चढ़ानी पड़ी। कांग्रेस के अन्दर नेहरू विरोधी गुट का फिर से तैयार होना एक वास्तविकता थी और नेहरू के लिए यह जरूरी हो गया था कि इससे निपटा जाए। परिस्थितियों की इसी पृष्ठभूमि में ‘‘कामराज योजना’’ आयी जिसका मकसद कांग्रेस के अन्दर नेहरू की निजी स्थिति को बल पहुँचाना भर था। राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल से ऐसी कई हस्तियों का सफाया कर दिया गया जिन्होंने विभिन्न मौकों पर नेहरू के खिलाफ स्थिति अपनायी थी। ‘‘इसे गुटबाजी के चरित्रवाली उन तमाम चालों का प्रारम्भ कहा जा सकता है जो नेहरू के काल के बाद उनकी वारिस तथा बेटी इंदिरा गाँधी द्वारा कई मर्तबा चली गयी।’’
इसी समय कांग्रेस के अन्दर के भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आने लगे। नेहरू ने किन्तु इन मामलों को ज्यादा अहमियत नहीं दी। इनके प्रति आँखे मूंदे रहना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल ने दो ऐसे मामलों का उल्लेख किया है। एक के.डी. मालवीय का तथा दूसरा पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों का। मालवीय को इस्तीफा देना पड़ा लेकिन कैरों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निन्दित किये जाने के बावजूद अछूता छोड़ दिया गया। 
पार्टी और प्रशासन के अन्दर की बिगड़ती हुई इन स्थितियों में ही नेहरू का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। 6 जनवरी 1964 को कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में उन्हें पहला हल्का-सा दिल का दौरा पड़ा। ‘‘धीरे-धीरे उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य के साथ ही चीन के साथ सीमा-संघर्ष और कांग्रेस दल तथा प्रशासन के संकट जुड़े गये। 27 मई 1964 के तड़के उनका जो अंत हुआ, वह शारीरिक बीमारी तथा साथ ही साथ वे जिस नैतिक-राजनैतिक संकट में फंस गये थे, उनका स्वाभाविक परिणाम प्रतीत होता है।’’

गाँधी-नेहरू विरासत 
इसके बाद कामरेड ईएमएस ने पुस्तक के उपसंहार के तौर पर ‘‘गाँधी-नेहरू विरासत’’ शीर्षक से अन्तिम अध्याय लिखा है। एक नौजवान, प्रगतिशील नेता के रूप में जो नेहरू एक जमाने में भारत के स्वतंत्रता-प्रेमी युवकों के आदर्श बन गये थे, उन्हें ही किन्तु बाद के काल में क्रमश: कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व के विश्वस्त सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा। एक कम्युनिस्ट के नाते नेहरू के व्यक्तित्व के इस विकास ने का. ईएमएस को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से उनके व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए प्रेरित किया और यह साफ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू तथा राजनीतिक गुरू गाँधी और स्वयं नेहरू एक ही वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग के तीन चेहरे हैं। महात्मा गाँधी इसी वर्ग के खास प्रतिनिधि थे जो साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में जनता को उतारने के बावजूद जनता को हर प्रकार के जुझारू संघर्ष से दूर रखने में दिलचस्पी रखते थे। कांग्रेस के बाहर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की तरह की वामपंथी स्वतंत्र शक्तियों के उदय तथा कांग्रेस के अन्दर नेहरू की तरह के दृढ़ साम्राज्यवाद-विरोधी की उपस्थिति ने इन सभी शक्तियों को, 30 के दशक के मध्य से एक संयुक्त मोर्चे में इकट्ठा किया था, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्व बेला में टूट गया। 
नेहरू ने ही पहले, राज गोपालाचारी तथा राजेन्द्र प्रसाद की तरह के दक्षिणपंथियों के साथ मिलकर अंग्रेज सरकार और मुस्लिम लीग से त्रिपक्षीय वार्ता की रणनीति बनायी थी जिसके चलते भारत विभाजित होकर दो शत्रु देशों में बंट गया। जबकि महात्मा गाँधी ने इस आजादी में अपनी व्यक्तिगत पराजय को देखा था और आजादी के जश्न में शामिल होने से इंकार कर दिया। नेहरू को स्वतंत्र भारत के प्रमुख के रूप में अपनी क्षमताओं तथा समस्याओं के समाधान की अपनी सामर्थ्य पर बेइंतहा भरोसा था। लेकिन आजाद भारत के परवर्ती विकाश ने दिखाया कि किस प्रकार एक के बाद एक उनकी सारी आशाएं बिखरती गयीं। योजनाएं अपने लक्ष्य की दृष्टि से विफल रहीं, राष्ट्रीय एकता के सूत्र कमजोर हुए। प्रशासन में भष्टाचार छा गया। ‘‘प्रधानमंत्री के रूप में उनके जीवन के अन्तिम 17 वर्षों का कोई भी यथार्थ आकलन उन्हें पूरी तरह से विफल करार देगा।’’
ऐसा क्यों हुआ? क्यों गाँधी और नेहरू, दोनों ही अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में विफल होकर चल बसे? इसका एक मात्र उत्तर है ‘‘दोनों ने एक वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में एक ऐसे काल में बुर्जुआ जनतंत्र के आदर्श पर भारत का निर्माण करना चाहा था जब बुर्जुआ व्यवस्था एक गहरे संकट में फंस चुकी थी। उनमें से कोई भी इस बात को अपनी आशाओं के बिखरने के कारण के रूप में नहीं देख सका।’’
इसी आधार पर कामरेड ईएमएस अपना अन्तिम निष्कर्ष यह देते हैं कि ‘‘कुल मिलाकर गाँधी और नेहरू की विरासत नकारात्मक रही है। आज के दिन के भारत को इसका अनुसरण करने के बजाय इससे अलग हटने की जरूरत है।’’