गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

संविधान, कोर्ट और विचारधारा


—अरुण माहेश्वरी




आज ही ‘द वायर’ पर कश्मीर, धारा 370, भारतीय राज्य का संघीय ढांचा और नागरिक के मूलभूत अधिकार के बारे में जाने-माने संविधान विशेषज्ञ हरीश साल्वे के साथ करण थापर की लगभग पचास मिनट की लंबी बातचीत सुन रहा था ।

हरीश साल्वे जितनी आश्वस्ति के साथ धारा 370, 35 ए, राज्यों को तोड़ने, राज्यों के अस्तित्व को मिटा देने और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन तक को मूड़ी-चना खाने जितना एक मामूली और सहज काम बता रहे थे, वह किसी को भी दंग करने के लिये काफी था । भारतीय राज्य का सर्वाधिकारी राष्ट्रपति है जो देश की सरकार के इशारों पर चलता है । इस राज्य से जुड़ा हर मसला राष्ट्रपति की मन-मर्जी का मसला होता है, अर्थात् प्रकारांतर से सरकार का । इसीलिये इसमें संविधान या अदालत की बाधा जैसी किसी चीज की कोई अपनी निश्चित भूमिका नहीं है । अगर वे अपनी कोई अलग भूमिका जाहिर करते हैं तो यह उनकी मर्जी है, लेकिन नहीं करते हैं तो उसमें कोई बाधा नहीं है । संविधान उसकी पूरी अनुमति देता है ।

कल तक हम जिस धारा 370 को भारत के संविधान का एक अविभाज्य हिस्सा मानते थे, कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली धारा, अब साल्वे के अनुसार इसे हटाना उतनी ही साधारण बात थी जितनी साधारण बात हमारा भोजन करना है । यहां तक कि कश्मीर को तीन भागों में बांटना भी कार्यकारिणी का बहुत मामूली प्रकार का उपक्रम है । वे कहते हैं कि जब भी किसी राज्य विधानसभा को भंग करके वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है, विधान सभा की सारी शक्तियां राष्ट्रपति में न्यस्त कर दी जाती है । ऐसे में राष्ट्रपति केंद्र सरकार को राज्य के पुनर्विन्यास की सिफारिश कर ही सकता है और केंद्र सरकार उस पर अमल करके पूरी तरह से संविधान-सम्मत काम करेगी ।

साल्वे एक विशेषज्ञ की निष्पृह कठोरता के साथ बता रहे थे कि भारत का संघीय ढांचा वास्तव में एक कोरा छलावा है । इसकी पवित्रता की रक्षा के लिये किसी भी अदालत को सामने आने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है । ‘सच कहा जाए तो हमारा संविधान प्रकट रूप में एकात्मकता की ओर झुका हुआ है ।’

एक संविधान-विशेषज्ञ की इस प्रकार की असंभव किस्म की खरी बाते सुन कर किसी के भी मन में यह पहला सवाल उठेगा कि आखिर यह संविधान बला क्या है ? कानून का शासन क्या चीज है ?

आप माने तो वह है और न माने तो कोरी हवा है । वह है भी और नहीं भी है । सब कुछ शासक की नैतिकताओं और जनता की संस्कृति पर निर्भर है । इसकी किसी धारा के पीछे मूलतः कोई तर्क नहीं है । सामाजिक विश्वास और परंपराएं उनके अर्थ सुनिश्चित करते हैं । उनमें अगर फर्क आ जाए तो लिखित-अलिखित, किसी भी प्रकार के संविधान या कानून का अपना कोई अर्थ नहीं होता है ।

हम भारत में संविधान के लिखित स्वरूप की बहुत चर्चा करते हैं, जबकि इसे जन्म देने वाले ब्रिटेन और अमेरिका तक में यह लिखित नहीं है । उपरोक्त चर्चा से ही साफ है कि लिखित संविधान के भाषायी विन्यास, शब्दों और व्याकरण के नियमों के आधार पर तैयार की गई उसकी संरचना का कोई मायने नहीं है । अधिक से अधिक इसे चंद संकेतों का समुच्चय कहा जा सकता है, संकेतकों और संकेतितों के संबंधों का वह ताना-बाना जो मूलतः अपने समय की संस्कृति और मान्यताओं से ही अर्थ पाते हैं, अन्यथा इनके कोई निश्चित अर्थ नहीं होते । संविधान का विन्यास व्याख्याओं की प्रणाली से तैयार होता है । इसके पीछे कोई सुनिश्चित तर्क नहीं होते । यहां तक कि संविधान के कथित निदेशक सिद्धांत भी वास्तव में व्याख्याओं के अधीन ही होते हैं ।

अर्थात् संविधान के नाम पर आप जिसे मान लें, वही सत्य है । आप यदि राज्य के संघीय ढांचे के प्रति निष्ठावान है तो आपके लिये वह अनुलंघनीय होगा, और अगर नहीं है तो उसे किसी भी क्षण ठुकराया जा सकता है । संविधान उसकी पूरी अनुमति देता है । इसी प्रकार नागिरक के मूलभूत अधिकार तभी तक है जब तक उन्हें पवित्र माना जाए, वर्ना किसी की भी निवारक नजरबंदी के सारे अधिकार राज्य को सहज उपलब्ध है । जेल-बेल की सारी चर्चाएं इसीलिये बार-बार निरर्थक जान पड़ती है । यही हाल धर्म-निरपेक्षता और धर्म-आधारित राज्य के विषय में हैं । धार्मिक विश्वास कब सामान्य जीवन-पद्धति और नैतिकता माने जाने लगे और कब अवांछित, अवैज्ञानिक और सांप्रदायिक विभाजन के मूल, इसे हम हर रोज देख रहे हैं ।

यद्यपि कुल मिला कर हरीश साल्वे की संविधान संबंधी सारी व्याख्याएँ एक दक्षिणपंथी, सर्वाधिकारवादी संविधान विशेषज्ञ की बातें ही थी, लेकिन वे इतना तो बताती ही थी कि उनके जैसे लोग ही न्यायाधीशों की कुर्सी पर बैठ सकते हैं । न्यायाधीशों की अपनी ‘संवैधानिक निष्ठा’ किसी धोखे के अलावा कोई मायने नहीं रखती है । और कुछ भी क्यों न हो, साल्वे की बातों से प्रकारांतर से संविधानवादियों की सोच की सीमाओं का पूरा पता चल जाता है । भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश को अपनी सेवा-निवृत्ति के अंतिम सात दिनों में कश्मीर, अयोध्या सहित आठ महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी राय सुनानी है । देखना है, वे अपने को धुर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक विचारों का व्यक्ति साबित करते हैं या एक मानवतावादी, वैज्ञानिक चेतना संपन्न व्यक्ति । संविधान की बाध्यताएं तो कोरा छल ही हैं ।   

हरीश साल्वे जब बीच-बीच में अपने को उदारतावादी बताते हुए कश्मीर में मानव-अधिकारों के उल्लंघन के बारे में अनभिज्ञता जाहिर कर रहे थे तब शुद्ध मिथ्याचारी और हंसी के पात्र  प्रतीत हो रहे थे । खास तौर पर मीडिया के कुछ हिस्सों और कुछ टिप्पणीकारों के द्वारा न्यायाधीशों के बारे में टिप्पणियों पर साल्वे का सात्विक रोष और भी उपहास-योग्य लग रहा था । 

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

भागवत ‘लिंचिंग‘ को अभिहित करने वाला कोई भारतीय शब्द बताए !

—अरुण माहेश्वरी


मोहन भागवत शब्दों की बाजीगरी से जीवन के सच को अपसारित करना चाहते हैं । वे कहते हैं लिंचिंग एक विदेशी अवधारणा है, इसे भारत पर लागू नहीं करना चाहिए । भारत में हो रही भीड़ की हत्याओं को लिंचिंग नहीं कहा जाना चाहिए ।

हमारा उनसे सबसे पहला सवाल तो यही है कि वे खुद कौन सी अवधारणा (विचारधारा) की उपज है ? आरएसएस कौन सी अवधारणा है ? अतीत से लेकर आज तक हिटलर और मुसोलिनी तथा यहूदीवादी इसराइल उनके आदर्श कैसे हैं ?

1925 में जब आरएसएस का गठन हुआ था, वह काल दुनिया के नक्शे पर हिटलर और मुसोलिनी के उदय का काल था । मोहन भागवत क्या इस बात का जवाब देंगे कि किस समझ के तहत उनके गुरू गोलवलकर ने हिटलर के जर्मनी की तारीफ के पुल बाधंते हुए कहा था कि “जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध चर्चा का विषय है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौका दिया है। जाति पर गर्वबोध वहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।”

हम सब जानते हैं कि आरएसएस का जन्म ब्रह्मा के पेट से नहीं हुआ है । वह बहुत हाल की, भारत में हिटलर-मुसोलिनी भक्तों की करतूतों की उपज है । उनके कृत्यों की सही व्याख्या भी उन पदों के जरिये ही हो सकती है जो दुनिया को हिटलर-मुसोलिनी की देन रहे हैं । इसीलिये भागवत से सिर्फ यह पूछा जाना चाहिए कि क्या गाय के नाम पर, बीफ के नाम पर, दलितों के नाम पर, अल्पसंख्यकों के नाम पर लोगों को पीट-पीट कर या दंगें लगा कर मार डालना कोरा शाब्दिक खेल है, कि इन पर उठाये जा रहे सवालों को आप शब्दों की बाजीगरी से उड़ा देना चाहते हैं !

ये सब शुद्ध रूप से संगठित सामूहिक हत्याएं है, अभी के हमारे समाज की ठोस, चिंताजनक और घृणित सचाई । दुनिया के आधुनिक काल के अनुभवों के आधार पर ही इन हत्याओं के विचारधारात्मक स्वरूप और इनके पीछे काम कर रही साजिशों और मानसिकताओं की खास सिनाख्त की जा सकती है ।

मसलन् 2002 का गुजरात का जनसंहार बताता है कि हमारे देश में हिटलर का शासन पैदा हो चुका है । गोगुंडों की करतूतें और संघ के कार्यकर्ताओं की नैतिक पुलिस की भूमिका भी इसी सच्चाई की और पुष्टि करती है । कश्मीर में उठाया गया कदम भारत में आक्रामक विस्तारवादी, प्रभुत्ववादी यहूदीवादी हिंदुत्व के सत्य का बयान करता है । इन सबके लिये प्राचीन साहित्य से सुंदर से स उपसर्ग वाले तत्सम शब्द नहीं ढूंढे जा सकते हैं ।

हत्या को हत्या कहे जाने पर भागवत को आपत्ति है । लेकिन इन हत्याओं को वे खुद भारत के प्राचीन काल में किये गये जन-संहारों की किस निन्दित श्रेणी में रखेंगे, इसके लिये उनके पास कोई देशी शब्द या अवधारणा नहीं है ! उनके शब्द भंडार का यह अभाव ही बताता है कि आरएसएस के लोगों की ये तमाम करतूतें किसी भारतीय आदर्श  से प्रेरित नहीं हैं । यह सब जिन विदेशी आदर्शों से प्रेरित हैं, उनकी चर्चा न करने की हिदायत दे कर भागवत यही कह रहे हैं कि भारत के इस उभरते हुए जघन्य यथार्थ की चर्चा ही न की जाए ; इन्हें सिर्फ होने दिया जाए ! और अगर चर्चा हो भी तो उनके ‘भारतीय वीरों‘ के महान राष्ट्रवादी कृत्यों के तौर पर हो ।

लेकिन सबसे मुश्किल की बात यह है कि इनका राष्ट्रवाद भी बिना हिटलर-मुसोलिनी की चर्चा किये कभी भी परिभाषित नहीं हो सकता है ! भागवत लिंचिंग का कोई भारतीय शब्द बताए !

रविवार, 6 अक्टूबर 2019

कश्मीर किधर !

-अरुण माहेश्वरी


ऐसा लगता है कि मोदी कश्मीर के लॉक डाउन को कम से कम दो साल तक चलाना चाहते हैं । उन्हें आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे सख़्त और साहसी प्रशासक का ख़िताब हासिल करना है और वह इंदिरा गाँधी के 19 महीने के आपातकाल को मात दिये बिना कैसे संभव होगा ! साहसी दिखने का जो फ़ितूर उन्हें नेशनल जोगरफी की डाक्यूमेंट्री तक ले गया, वही इंदिरा गांधी की प्रतिद्वंद्विता में भी खींच ले रहा है । कोई भी मनमाना विध्वंसक कदम उठा कर उसे कुछ काल के लिये भूल जाने के लिये विदेश यात्राओं पर निकल पड़ना मोदी जी की कार्यशैली की पहचान बन चुका है । जुनूनी मनोरोगी इसी प्रकार अपने ग़ुरूर में जीया करता है ।

लेकिन कश्मीर का मसला कोई नोटबंदी या जीएसटी की तरह का पूरी तरह से भारत का आंतरिक मामला नहीं है । उन मामलों में आप मरे या जीए, दुनिया को परवाह नहीं थी । कश्मीर और धारा 370 को भारत का अपना विषय कहने मात्र से वह ‘अपना’ हो नहीं जाता है । इस पर पहले भी पाकिस्तान के साथ संधियाँ हो चुकी है और दोनों देशों के बीच सीमा का मसला कभी भी समाप्त नहीं हुआ है । ऊपर से, इसी में चीन का भी अपना दावा जुड़ गया है ।कश्मीर से लगे अक्साई चीन के इलाक़े में वह अभी अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद है ।

भारत में एक दीर्घ जनतांत्रिक प्रक्रिया के बीच से जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सफलता के साथ मज़बूत किया गया है, कश्मीर भी भारतीय राज्य के उसी प्रकल्प का हिस्सा रहा है । कश्मीर में उग्रवाद का मुक़ाबला सिर्फ सेना-पुलिस के बल पर नहीं बल्कि कश्मीर के लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी के ज़रिये कहीं ज्यादा हुआ है । यही वजह रही कि कश्मीर की एक विभाजनवादी पार्टी के साथ मिल कर वहाँ बीजेपी तक ने अपनी सरकार बनाने से गुरेज़ नहीं किया था ।

लेकिन 2019 के चुनाव में मोदी जी की भारी जीत ने जैसे पूरे दृश्यपटल को बदल दिया । मोदी जी की आरएसएस की बौद्धिकी की सीखें कुलाँचे भरने लगी। ऊपर से दुस्साहसी अमित शाह का साथ मिल गया। बिना आगे-पीछे सोचे, वे कश्मीर पर टूट पड़े और जुनूनियत में अपनी जहनियत के सही साबित होने के वक़्त का इंतज़ार करने लगे कि जिस सोच को सारी उम्र सहेजे हुए थे, वह सेना, पुलिस की ताकत से लैस होकर खुद ही अपने औचित्य को प्रमाणित करने का रास्ता बना लेगी ।

इसमें इधर इसराइल के साथ मोदी जी की बढ़ती हुई रब्त-ज़ब्त ने भी सरकार को इस विषय में और उलझा दिया है । इसराइल ने जिस प्रकार शुद्ध सैनिक शक्ति के बल पर फिलिस्तीनियों को उजाड़ने और जॉर्डन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़माने का जो उदाहरण पेश किया है, आरएसएस वालों के लिये उसका एक नये आदर्श के रूप में उभरना स्वाभाविक है । ताकत की अंधता के चलते इनका न भूगोल का, और न ही इतिहास का कोई बोध बचा है !

दूसरी ओर पाकिस्तान है, जिसके लिये कश्मीर उसके अस्तित्व के औचित्य से जुड़ा एक महत्वपूर्ण विषय रहा है । मोदी सरकार यदि कश्मीर पर इसराइल-फ़िलिस्तीन के इतिहास को दोहराने की झूठी कल्पना कर रही है तो पाकिस्तान इसमें बांग्लादेश के प्रतिशोध की पूरी संभावना देख रहा है । उसके पास यदि चीन का खुला समर्थन है, तो इससे भी बड़ी बात यह है कि उसके इरादों पर दुनिया के किसी भी देश का विरोध नहीं है ।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप तो अजीब तरीक़े से बार-बार कश्मीर में मध्यस्थता की ज़िद कर रहे हैं । मोदी उनके प्रस्ताव से क़तरा रहे हैं, लेकिन वे ट्रंप को बार-बार इसे उठाने से रोक नहीं पा रहे हैं । इसके साथ ही ट्रंप ने भारत पर दबाव बढ़ाने की दूसरी तैयारियाँ भी शुरू कर दी है । जिस समय मोदी ह्युस्टन में ‘हाउडी मोदी’ के शोर से आसमान को सर पर उठाए हुए थे, ऐन उसी समय अमेरिकी सिनेटरों के एक समूह ने सीनेट की कमेटी के सामने कश्मीर पर रिपोर्ट पेश की जिसमें कश्मीर को एक विश्व मानवीय चिंता का विषय बताते हुए भारत सरकार पर दबाव डाल कर कश्मीरियों पर लगी सभी पाबंदियों को ख़त्म कराने और हाल में गिरफ्तार किये गये सभी लोगों को रिहा कराने की बात कही गई है । चंद रोज़ बाद ही वहाँ की सीनेट कमेटी में 2020 के लिये विदेश नीति के प्रकल्पों का विधेयक तैयार होगा, उसमें कश्मीर को शामिल करने की बात कही गई है । यह खुद में कश्मीर में अमेरिकी हस्तक्षेप की बड़ी तैयारी का संकेत है ।

बर्नी सैन्डर्स

इस विषय में कुल मिला कर आज की स्थिति यह है कि मोदी कश्मीर के लॉकडाउन को दो साल तक खींचना चाहते हैं और अमेरिका ने 2020 में ही इस विषय में कूद जाने की तैयारियाँ शुरू कर दी है । मोदी का ट्रंप के प्रस्ताव पर कन्नी काटना भी ट्रंप को उकसाने का एक सबब बन सकता है । ट्रंप और मोदी की इस न समझ में आने वाली जुगलबंदी का अंतिम परिणाम क्या होगा, कहना मुश्किल है । लेकिन इस बार मोदी ने जो खेल खेला है वह पाकिस्तान या कश्मीर का भले कुछ न बिगाड़ पाए पर भारत के लिये बहुत ज्यादा महँगा साबित हो सकता है । कहना न होगा, आज की दुनिया में कश्मीर के विषय पर भारत पूरी तरह से अलग-थलग हो गया दिखाई पड़ रहा है ।