गुरुवार, 8 अगस्त 2024

हंसा जाई अकेला


(आज सुबह फेफड़ों की लंबी बीमारी के बाद कामरेड बुद्धदेव  भट्टाचार्य नहीं रहे ।मृत्यु के वक्त उनकी उम्र अस्सी साल थी। उनके परिजनों में उनके पीछे उनकी पत्नी मीरा भट्टाचार्य और बेटी सुचेतना हैं । कामरेड भट्टाचार्य की याद में यह विशेष विश्लेषणात्मक श्रद्धांजलि लेख : )

−अरुण माहेश्वरी


बुद्धदेव भट्टाचार्य नहीं रहे । बंगाल में वामपंथी राजनीति की किंवदंतियों की छीजती हुई श्रृंखला की जैसे एक अंतिम कड़ी नहीं रही । वामपंथी राजनीति के साथ बंगाल की ‘कला प्रेमी’ बाबू संस्कृति के योग से पैदा होने वाले रहस्यमय आकर्षण का जैसे अंतिम अवशेष नहीं रहा । इसीलिए वामपंथ के प्रति अश्रद्धा के बावजूद आज बंगाली भद्र जनों में बुद्धदेव के प्रति शोक के भाव में कोई कमी नहीं है । तृणमूल कांग्रेस के नेता भी शोकाकुल है !

ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में बुद्धदेव भट्टाचार्य की भूमिका की तुलना सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में मिखाइल गोर्वाचेव से की जा सकती है । सन् 2000 में ज्योति बसु ने अचानक राजनीति से संन्यास की घोषणा करके बुद्धदेव को मुख्यमंत्री पद सौंपा था । 2001 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 2006 के चुनाव में बुद्धदेव के नेतृत्व में वामपंथ इतिहास में सबसे रेकर्ड मतों से विजयी हुआ । वाम मोर्चा को 296 सीटों की विधान सभा में 235 सीटें मिलीं और तृणमूल कांग्रेस को सिर्फ 30 ; कांग्रेस के मोर्चे को 29 और अन्य को 8 सीटें मिली थी। पर आगे, पाँच साल पूरे होते न होते सिंगूर और नंदीग्राम के मसलों को केंद्र में रख कर स्थिति यह हो गई कि 2011 में राज्य में वाम मोर्चा के 34 साल के शासन का अंत हो गया । अभी 2021 के चुनाव के बाद तो विधानसभा में वाममोर्चा की एक भी सीट नहीं बची है ।

इसीलिए, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के इस अवसान की तुलना सहज ही सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव से की ही जा सकती है ।

यही वजह है कि बुद्धदेव का जाना सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्ति की मृत्यु पर शोक का विषय नहीं हो सकता है । शोक के बजाय, वामपंथी राजनीति के बुद्धदेव फेनोमना को कहीं ज्यादा गहराई से समझने की जरूरत है । वाम शासन के पतन को उसके 34 साल के शासन की ही एक परिणति के साथ, कुछ न कुछ बुद्धदेव भट्टाचार्य के निजी व्यक्तित्व के आईने में भी झांक कर देखने की जरूरत है ।

राजनीति सिर्फ नीतियों का विषय नहीं है, नेताओं का विषय भी है । बुद्धदेव को हमने जितना देखा-समझा, उसकी छवि सहज ही हमारे विचार के लिए राजनीति में व्यक्तिवादी अहम्मन्यता की भूमिका का सवाल खड़ा कर देती है । यह एक यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है आखिर क्यों उन्होंने ही अपने शासन के अंतिम सालों में वाममोर्चा के भारी बहुमत को दिखा कर ममता बनर्जी का तिरस्कार किया था, जब कि ज्योति बसु ने अपने लंबे शासन में विपक्ष के प्रति इस प्रकार के तिरस्कार का कभी भी कोई संकेत नहीं दिया ?

ज्योति बसु ने विपक्ष के खिलाफ हमेशा नीतिगत सवालों को अहमियत दी । बाबरी मस्जिद को ढहाने पर बीजेपी को असभ्य तक कहा और लगातार कहते चले गए । पर कोरी राजनीतिक, विधानसभा में संख्या तत्व की शक्ति को उन्होंने कभी कोई विशेष अहमियत नहीं दीं ।   

बुद्धदेव भट्टाचार्य की निजी पृष्ठभूमि पर नजर डाले तो पायेंगे कि वे बंगाल के सर्वप्रिय विद्रोही कवि सुकांत भट्टाचार्य के परिवार से आते थे । सुकांत उनके चाचा थे । बुद्धदेव में भी साहित्य के प्रति गहरी रुचि थी । उन्होंने खुद कई नाटक लिखे जिनमें उनका एक नाटक ‘दुःसमय’ काफ़ी चर्चित भी हुआ था। उनमें रवीन्द्रनाथ की प्रांजल भाषा का गहरा संस्कार और बांग्ला का सांस्कृतिक गर्व-बोध भी था । वे हिन्दी नहीं जानते − इसे निर्द्वंद्व भाव से कहते थे । साहित्य और सिनेमा की चर्चा उनका शगल था और देश-विदेश से जुड़े राजनीति के विषयों पर खास शैली में लिखा करते थे । जब वे राज्य के सूचना और संस्कृति मंत्री थे, कोलकाता के ‘नंदन’ प्रेक्षागृह में उनका एक निजी कक्ष था जहां नियमित सिनेमा देखा करते थे । एक राजनीतिज्ञ के बजाय खुद की बुद्धिजीवी की छवि उन्हें ज्यादा प्रिय थी । इसीलिए साहित्य और संस्कृति के जगत में भी उनकी अपनी बहुत तीखी पसंद-नापसंद हुआ करती थी ।

हमारे देखें, बुद्धदेव जैसे-जैसे सत्ता पदों के सोपानों पर चढ़ते गए, राजनीति में होने पर भी एक संभ्रांत व्यक्ति की विशिष्टता का भाव-बोध उसी अनुपात में उनमें बढ़ता गया। वे वाम मोर्चा सरकार में 1987 में मंत्री बने थे । 1993 में अचानक उन्हें अपने चारों ओर भ्रष्टाचार का दलदल दिखाई देने लगा, और वे विक्षिप्त से हो गए थे। मंत्री पद त्याग दिया, पर ज्योति बसु के सौजन्य से ही चंद महीनों में उनकी पुनर्बहाली हो गई।  

दरअसल, कामरेड  बुद्धदेव भट्टाचार्य  को ज्योति बसु की तरह अपने राजनीतिक जीवन में कभी कांग्रेस सरकारों के दमन का सामना नहीं करना पड़ा था । आजादी की लड़ाई की पैदाईश ज्योतिबसु जन आंदोलनों से तैयार हुए थे । आजादी के पहले ही राज्य की विधान सभा के सदस्य बन गए थे । कांग्रेस के काल में कई सालों तक जेल में रहे । इसीलिए एक ऊँचे परिवार का उच्च शिक्षित बेटा होने पर भी ज्योति बसु सत्ता के दंभ से कोसों दूर, अंतर की गहराई तक सहज, शांत, विनयी और दुनियादार व्यक्ति थे । 1994 में जब प्रधानमंत्री के पद की बात उठी तो वे पार्टी के बंद ढाँचे में दांव-पेंचों से बने नेताओं के सैद्धांतिक वारों से सहज ही मात खा गए ।

बुद्धदेव भट्टाचार्य भी पार्टी के अपने बंद ढाँचे के अंदर की गतिविधियों के बीच से वामपंथ के जय-जयकार के दिनों में निर्मित एक बुद्धिजीवी नेता थे । माना जाता है कि बुद्धिजीवी में चरित्र और ज्ञान के अहंकार का दोष राजनीति में रगड़ खा कर दूर हो जाता है । पर शुद्ध रूप में राजनीति और सत्ता का योग इसके बिल्कुल विपरीत प्रभाव का भी साबित हो सकता है। इसके उदाहरण सारी दुनिया में कम्युनिस्ट, गैर-कम्युनिस्ट, सभी प्रकार की राजनीति में भरे हुए हैं ।

बुद्धदेव की कार्यशैली से परिचित लोग जानते हैं कि सत्ताधारी बुद्धदेव का अपनी नौकरशाही पर अगाध भरोसा था । वे समग्र रूप में सत्ता की शक्ति को बखूबी समझते थे और इसीलिए एक बार सत्ता से हट कर उन्हीं ज्योति बसु के जरिए सत्ता में वापस लौटने में उन्होंने ज़रा भी देर नहीं की जिनसे उन्होंने खुली बगावत की थी। पार्टी के साधारण कार्यकर्ताओं से उनका व्यवहार बहुधा पीड़ादायक की हद तक जाने वाला नितांत निर्वैयक्तिक था । उनके साथ के कामरेडों के पास उनके ऐसे असहज कर देने वाले व्यवहार के अनेक अनुभव मौजूद हैं ।

‘क्रांति सबसे पहले अपनी ही संतानों को खाती है’ − बहुतेरे क्रांतिवीर ऐसे ही आप्त-कथन से अपने पर-पीड़क व्यवहार को सही और संगत ठहराया करते हैं । हमने ऐसे कई कामरेडों को देखा है जो उस वक्त चीन में थोक के भाव दी जा रही फाँसी की सजा की प्रशंसा में लिख रहे थे जिस वक्त भारत में फाँसी की सजा को खत्म कर देने का विमर्श अपने शिखर पर था । इस आचरण से यही साबित होता है कि क्रांति के परिवर्तनकारी सत्य के विपरीत सत्ता का सत्य आज्ञाकारी नागरिकों का समाज तैयार करने की ओर प्रेरित होता है।

बुद्धदेव ने 2006 में पश्चिम बंगाल में तीन चौथाई बहुमत की सरकार बना कर मानो सत्ता के इसी सत्य को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था। अब वे पूरी ताकत के साथ अपनी मर्जी से पूरे समाज को हांक कर अपनी कल्पना के नए साँचे में ढालने के यज्ञ में लग गए थे। तब तक 1991 शुरू हुए भारत के उदारीकरण को 15 साल बीत चुके थे । लाइसेंस राज के खत्म होने से औद्योगीकरण की जो नई संभावनाएँ पैदा हुई, ज्योति बसु के काल में उसके अनुरूप पश्चिम बंगाल की एक नई औद्योगिक नीति (1994) तैयार हुई । हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स तथा बक्रेश्वर तापविद्युत परियोजना की स्थापना के सवाल ने पहले जिस प्रकार के केंद्र-विरोधी जन-आंदोलन का रूप ले लिया था, उसकी जगह अब सुचिंतित दृष्टि के साथ राज्य के क्रमिक औद्योगीकरण की दिशा में कदम उठाए जाने लगे ।

सन् 2000 में ज्योति बसु के हट जाने के बाद कामरेड बुद्धदेव ने कमान संभाली और वाम मोर्चा ने ‘भूमिसुधार की मजबूत जमीन पर औद्योगीकरण’ का नारा दिया। पर 2006 के बाद, बेलगाम सत्ता के जोम में भूमि सुधार की उपलब्धियों का पहलू एक झटके में पीछे छोड़ कर नौकरशाही को राज्य के कोने-कोने में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना में जुट जाने का आदेश दे दिया गया । सभी जिला प्रशासकों में उद्योगों के लिए भूमि के अधिग्रहण की अंधी होड़ शुरू हो गई । उद्योग बैठाने वाला उद्योगपति आर्थिक कारणों से ही जहां सिर्फ अपनी जरूरत के मुताबिक जमीन खरीदता है, वहीं सरकारी अमलों के सामने वैसी कोई आर्थिक बाधा नहीं थी । जहां वास्तव में 50 एकड़ जमीन की जरूरत थी, वहां 500 एकड़ के अधिग्रहण की अधिसूचनाएं जारी की जाने लगी । एक अनुमान के अनुसार भूमि सुधार के कार्यक्रमों में जितनी जमीन भूमिहीनों के बीच बांटी गई थी, उससे भी ज्यादा जमीनों पर अब अधिग्रहण के खतरे की तलवार लटकने लगी ।

देखते-देखते, बुद्धदेव के इस नए दौर में एक झटके में भूमि सुधार के लाभों पर पानी फेर दिया गया । किसानों के बीच जमीन की रक्षा को लेकर एक नई व्यग्रता पैदा हो गई । इसी समय सिंगूर में टाटा के लिए जमीन के अधिग्रहण में हुई धींगा-मुश्ती के साथ ही नंदीग्राम में एक साथ हजारों एकड़ जमीन पर नोटिस के समाचार ने आग में घी का काम कर दिया । ममता बनर्जी ने सिंगुर में डेरा डाल लिया और नंदीग्राम में जमीन बचाने का व्यापक आंदोलन शुरू हो गया ।

यह बुद्धदेव की सरकार का ही काल था जब सीपीआई(एम) ने शुद्ध पेशी-शक्ति के बल पर सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलनों के मुकाबले का रास्ता चुना । फलतः, 2006 के बाद दो साल भी नहीं बीते, 2008 के पंचायत चुनावों में वाम मोर्चा को पहली बार भारी धक्का लगा । इसके साथ ही विपक्ष के लगातार हमलों के सामने वाम मोर्च असहाय दिखाई देने लगा । बुद्धदेव विधान सभा में अपने भारी बहुमत का हवाला देते रह गए, पर जमीन पर ममता बनर्जी वाम मोर्चा को अपदस्थ करती चली गई ।  

2011 के बाद से अब तक पूरा एक युग बीत चुका है । एक समय के महाशक्तिशाली बुद्धदेव को एक अकेले कोने में पड़े हुए बुद्धिजीवी की स्थिति में सिमटने में जरा सा भी वक्त नहीं लगा । आज हमें, उनकी इस अकेली अंतिम यात्रा के वक्त हमारे मार्कण्डेय जी की कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ के उस लोकगीत की पंक्तियां याद आ रही है –

“हंसा जाई अकेला,

ई देहिया ना रही ।

मल ले, धो ले, नहा ले, खा ले

करना हो सो कर ले,

ई देहिया…”

 

इस कहानी का पात्र ‘दिव्यदृष्टिवान’ हंसा आज़ादी लेने की क़समें खाते-खाते आज़ादी मिलने की घड़ी में पागल हो चुका था । दो बार आगरा तक घूम आया था । मार्कण्डेय लिखते हैं − “उसके तमतमाए हुए चेहरे की नसें तन आती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेढ़ों पर घूमता हुआ गाया करता है :

“हंसा जाई अकेला …।”

बहरहाल, पश्चिम बंगाल में वामपंथी आंदोलन के गौरवशाली दिनों की यादों के एक महत्वपूर्ण प्रतीक कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य  की स्मृतियों को हमारा सलाम । हम उनकी पत्नी, बेटी और तमाम निकट के शुभाकांक्षियों के प्रति अपनी गहन संवेदना प्रेषित करते हैं ।