— अरुण माहेश्वरी
(“जॉक लकान या जॉक लकां !” इसी शीर्षक से फेसबुक की अपनी वॉल पर हमने एक पोस्ट लगाई जिस पर हुई चर्चा को हम यहां अपने ब्लाग पर एक स्वतंत्र टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं:)
हिन्दी में अकारण ही यह फैशन चल पड़ा है कि Jacques Lacan को जॉक लकां लिखा जाए ।
सब जानते हैं कि जॉक लकान फ्रांसीसी मनोविश्लेषक हुए हैं । फ्रांसीसी उच्चारण Jacques का उच्चारण "जॉक" जैसा होता है। इसमें "s" मूक होता है। और Lacan का उच्चारण "लकान" के करीब होता है, जहाँ "n" बहुत हल्की और एक नाक से उच्चारित ध्वनि देता है।
उर्दू में "दुकान" को "दुकां" और "मकान" को "मकां" कहना स्वाभाविक है क्योंकि उर्दू की ध्वनियों में अनुनासिक ध्वनि (नासिक्य प्रभाव) का प्रभाव अक्सर अनुस्वार (ं) के रूप में या "न" को हल्का उच्चारित करके दिया जाता है। यह उर्दू भाषा शैली का हिस्सा है। पर हिंदी में, संस्कृत और तत्सम शब्दों के प्रभाव के कारण, पूर्ण "न" या "ण" का उच्चारण अधिक स्वाभाविक और मानक माना जाता है। अनुस्वार (ं) केवल नासिक्य प्रभाव देता है, वर्ण का स्पष्ट उच्चारण नहीं करता।
इसलिए, "जॉक लकान" लिखना न केवल सही है बल्कि यह फ्रांसीसी उच्चारण के भी काफी करीब है। कुछ लोग इसे अंग्रेज़ी उच्चारण या अन्य प्रभावों के कारण "जैक्स लैकेन" या "जैक लैकेन" कह सकते हैं, और उर्दू की भाषा शैली के मुताबिक जॉक लकां भी कह सकते हैं । "लकां" कहना उर्दू प्रभाव या अनौपचारिक उच्चारण के कारण हो सकता है, लेकिन यह फ्रांसीसी मूल उच्चारण से मेल नहीं खाता। सटीकता के लिए "लकान" ही लिखा जाना चाहिए ।
दरअसल, विदेशी भाषाओं के नामों को हिंदी या किसी भी भाषा में अपनाने के लिए सिर्फ उनका मूल उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है। मूल उच्चारण के अलावा, हिंदी भाषा या अन्य भाषा, जिसमें उसे आयातित करना है उसकी ध्वन्यात्मक प्रकृति, लिप्यंतरण की परंपरा, और समझने में सरलता जैसे पहलुओं को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है।
यूट्यूब के अनुसार तो Jacques Lacan का फ्रांसीसी उच्चारण "जैक लैकों" (या "झाक लाकॉ") जैसा है। फ्रेंच में "Jacques" का उच्चारण "झाक" के करीब है। "Lacan" का उच्चारण "लाकॉ" जैसा है, जिसमें "n" एक नासिक्य स्वर में बदल जाता है।
पर आगे का असल मामला इसके हिंदी या आयात की भाषा में ध्वन्यात्मक अनुकूलन और सहजता तथा सुगमता का हो जाता है । जहां तक हिंदी का सवाल है, उसकी ध्वनियों में "झाक" जैसी ध्वनि स्वाभाविक नहीं लगती। "जॉक" हिंदी-भाषियों के लिए अधिक सरल और स्पष्ट है। "लाकॉ" जैसे नासिक्य स्वर को भी पूरी तरह से हिंदी में लाना कठिन है। इसलिए हमने इसे "लकान" जैसा रूप दिया, जो हिंदी-भाषियों के लिए उच्चारण में सहज है। नामों को हिंदी में अपनाने के लिए जो विचारणीय पहलू हो सकते हैं, उनमें पहली बात है − भाषाई प्रकृति । हिंदी में उच्चारण के लिए एक स्पष्ट वर्णमाला और ध्वनि-समृद्धि है। सब विदेशी ध्वनियों को हिंदी में पूरी तरह लाना संभव नहीं होता है। जैसे, फ्रेंच के नासिक्य स्वर को हिंदी में अक्षर-आधारित ध्वनियों में रूपांतरित करना पड़ता है जो हूबहू संभव नहीं है ।
इसका दूसरा पहलू है सांस्कृतिक अनुकूलन का पहलू । इसके अनुसार नामों का ऐसा रूप चुना जाता है, जो हिंदी-भाषियों के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वाभाविक और सहज रूप से उच्चारणीय हो। इसी आधार पर जर्मन "Karl Marx" को "कार्ल मार्क्स" लिखा जाता है, क्योंकि यह हिंदी की ध्वनि संरचना में फिट बैठता है।
और तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है − लिप्यंतरण के मानकीकरण का पहलू । हिंदी में विदेशी नामों का लिप्यंतरण अक्सर अंग्रेज़ी के माध्यम से होता है, जो कभी-कभी मूल उच्चारण से थोड़ा अलग हो सकता है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी में नामों को लिखते समय अक्सर अंग्रेज़ी की वर्तनी या ध्वनि का असर देखा जाता है। इस लिहाज से "Jacques" का अंग्रेज़ी प्रभाव "जॉक" है, जबकि "Lacan" को हिंदी में "लकान" रखा गया।
इसमें एक सामान्य समझ का पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । हमेशा लिप्यंतरण ऐसा होना चाहिए, जो हिंदी-भाषी या आयातित भाषा के पाठकों के लिए नाम को समझने और पहचानने में मदद करे। अगर नाम को बिल्कुल मूल उच्चारण में रखा जाए, तो वह कई बार हिंदी में अजीब या कठिन लगता है। अंग्रेजी में तमाम नामों के लिप्यांतरण में हम जो ‘त्रुटियां’ देखते हैं, वे अकारण नहीं है ।
इन सब आधारों पर हिंदी में Jacques Lacan की व्याख्या करने के लिए भी पहला पहलू है मूल उच्चारण के करीब रहना । इस लिहाज से भी हिंदी में "जॉक लकान" फ्रांसीसी उच्चारण का अनुकूलन है। यह "झाक लाकॉ" के बहुत करीब नहीं होने पर भी यथासंभव हिंदी के ध्वनि-तंत्र के अनुकूल है । फिर आती है भाषाई और सांस्कृतिक व्यावहारिकता की बात । हिंदी-भाषी "जॉक" और "लकान" को सरलता से पढ़ और उच्चारित कर सकते हैं। "झाक लाकॉ" हिंदी के लिए असहज और अनजान लगेगा। हिंदी में विदेशी नामों को लिप्यंतरित करने का चलन सरलता और पहचान के आधार पर ही होना चाहिए । यह हमेशा मूल उच्चारण की पूर्ण नकल नहीं करता।
यह हिंदी लिप्यंतरण की परंपरा का पालन करता है, जो सरलता और पहचान को प्राथमिकता देती है। यदि पूर्ण फ्रांसीसी सटीकता चाहिए तो इसे "झाक लाकॉ" लिखना चाहिए, लेकिन हिंदी में यह रूप व्यावहारिक नहीं है। "जॉक लकान" इसलिए हिंदी और फ्रांसीसी दोनों के बीच का एक सही संतुलन है।
अब सवाल उठता है कि क्या लकां, लकॉ अथवा लकॉं जैसे शब्दों के प्रयोग की हिंदी या संस्कृत में कोई परंपरा ही नहीं है ? हमारे एक मित्र ने ऋग्वेद में महान के लिए प्रयुक्त महॉं शब्द का उल्लेख किया –
“महाँ -ब्रह्मा च गिरो दधिरे समस्मिन् महाँश्च स्तोमो अधि वर्धदिन्द्रे ।। 6.38.3
इन्द्रो महाँ सिन्धुमाशयानं मायाविनं वृत्रमस्फुरन्नि...”
यह सही है कि संस्कृत में "महाँ" का प्रयोग निश्चित रूप से हुआ है, जैसा कि ऋग्वेद के इस उदाहरण से ही साफ है। पर गौर करने की बात यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और अन्य वैदिक ग्रंथों में "महाँ" जैसे शब्द रूप छंद योजना, सौष्ठव, और ध्वनि-सौंदर्य के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। ऐसे प्रयोग वैदिक संस्कृत के एक विशेष लचीलेपन को दर्शाते हैं, जहाँ छंद और ध्वनि की सुंदरता को प्राथमिकता दी गई थी। "महाँ" का उपयोग छंद में मात्राओं और तालमेल को बनाए रखने के लिए किया गया था। छंदों में यह बदलाव ध्वनि के प्रवाह को बनाए रखने के लिए भी होता था। सौष्ठव भी एक कारण था। वैदिक ऋचाओं में शब्दों का लयात्मकता और गेयता के लिए चयन महत्वपूर्ण था ।
पर वैदिक संस्कृत और पाणिनीय संस्कृत (क्लासिकल संस्कृत) के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि पाणिनि और अन्य व्याकरणाचार्यों ने भाषा के व्याकरणीय नियमों को मानकीकृत किया। "महाँ" एक छंद-सापेक्ष रूप है । उन्होंने "महान" को प्राथमिकता दी, क्योंकि यह व्याकरण और शब्द-रूपों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से अधिक संगत था। संस्कृत में भाषाई शुद्धता और एकरूपता का आग्रह वैदिक काल के बाद बहुत बढ़ गया। इस आग्रह ने भाषा को स्थायित्व और एक संरचना दी, जिससे लिखित और औपचारिक उपयोग में एकरूपता आई।
"महाँ" जैसे वैकल्पिक रूप को गद्य, तर्क, और दर्शन की भाषा में इनकी "अनियमितता” के कारण ही अनुपयुक्त माना गया । भाषा की ध्वनि परंपरा और संस्कृति का निर्माण व्याकरण और उपयोग के सामंजस्य से होता है। संस्कृत में "महान" जैसे मानक रूप को प्राथमिकता देने का उद्देश्य भाषा की सुसंगतता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना था। यह ध्वनि और संरचना के अनुशासन का हिस्सा है, जो संस्कृत भाषा की अद्वितीय विशेषता है। भाषा की मानकता और व्याकरणिक अनुशासन उसकी सांस्कृतिक और ध्वनि परंपरा का निर्माण करते हैं। इसकी बदौलत भी संस्कृत सहस्राब्दियों तक संरक्षित रह सकी। यह ‘एकरूपता का आग्रह’ ही संस्कृत भाषा की ध्वनि परंपरा और संस्कृति का निर्माण करता है।
बहरहाल, इस विस्तृत चर्चा के बाद भी हिंदी के बौद्धिकों का पीछा लकां छोड़ देगा, यह मानने का कोई कारण नहीं है । अवचेतन में बैठा ऐलिटिज्म उच्चारणों से भी अनायास ही व्यक्त होता है ।