शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

शिवरात्रि में जो छूट गया !

 -अरुण माहेश्वरी 



शिवरात्रि बीत गई। कुंभ की भीड़ में मल-मूत्र और मुनाफ़े के पहाड़ समान बिंब के पीछे शिव और शक्ति के योग का वह सुंदर बिंब कहीं छिप गया, जिसमें विज्ञान और प्रकृति के संयोग से भैरव की समझौताहीन स्वतंत्रता की आकांक्षा हो सकती थी। 

यही हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है—हम किसी क़ानून के राज में नहीं, बल्कि शुद्ध अराजकता में जी रहे हैं।

वैसे तो नवजागरण के समय से विज्ञान का केंद्र प्रकृति हो गया था, और उसी के साथ परंपरा के क़ानून के राज का अंत शुरू हो चुका था । उसी समय इस नए अराजकता के रोग के बीज भी शायद पड़ गए थे। 

प्रसिद्ध दार्शनिक हाइडेगर ने इस ओर संकेत किया था कि “विश्व की परिघटनामूलक गति अब तकनीक के नियंत्रण में आ गई है।” आज प्रमाता का अस्तित्व केवल उससे होने वाले मुनाफ़े पर निर्भर हो चुका है। विश्व अर्थव्यवस्था इसका मानक है और वही पूरी तरह से अराजक हो चुकी है। इस रोग के लक्षण हर जगह बार-बार प्रकट हो रहे हैं—कुंभ से लेकर निवेशक सम्मेलनों तक, और ट्रंप की डील-मेकिंग से लेकर दुनिया के बाजार तक।

हम उपभोग के जरिये इस अराजकता से समझौता करके चलने के आदी हो चुके हैं।अभिनवगुप्त का ‘भैरव ‘ भी शिथिल हो कर मानो समझौता कर रहा है। आम आदमी भरिततनु भाव में जो भी उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट है। कुंभ के प्रदूषित जल में डुबकी लगाकर मोक्ष की आकांक्षा करता हुआ मस्त है। 

लेकिन असली सवाल है—हमारे अवचेतन की यह धुंध कैसे कटेगी? यह सही है कि लकान के मनोविश्लेषण के सहारे कांट की आलोचनात्मक शैली को साधा जा सकता है। यह जॉक दरीदा की तरह विखंडन की शक्ति भी देता है। खुद दरीदा ने, अपने एक नोट में जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ, कहा था कि मनोविश्लेषण अराजकता को कठघरे में खड़ा करता है और जीवन को बाज़ार के मानकों पर ढालने का विरोध करता है। लेकिन फ्रायड और लकान के समय में भी आज जैसी बेहूदगियां इतनी नग्न नहीं हुई थीं।

आज शर्म का सार्विक रूप में अंत हो चुका है। इस स्थिति में सवाल यह है कि किस ‘नाम-का-पिता’ ( अर्थात् किस पारंपरिक नैतिकता) की शरण ली जाए? 

हमारी निगाह में एकमात्र कार्ल मार्क्स ही हैं, जिन्होंने माल की अंधश्रद्धा के इस रोग की गहराई से पहचान की थी और इससे मुक्ति के संगठित, समझौताहीन संघर्ष के उस विज्ञान को जन्म दिया था जो प्रकृति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है । अभिनवगुप्त के स्वातन्त्र्य बोध और लकानियन विश्लेषण के साथ मार्क्स के निर्मम आलोचना के औजारों को सान देने की ज़रूरत है। बाक़ी सब बकवास साबित होने के लिए अभिशप्त है ।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

कविता कृष्णपल्लवी के एक सघन काव्य बिंब* का लकानियन विश्लेषण :


  • अरुण माहेश्वरी 



एक दिलचस्प और चौंकाने वाला सघन बिंब जिसकी बहुस्तरीयता इसकी थोड़ी विस्तृत मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या के लिए उकसाती है । 


पहाड़ों की शाम का आनंद इसमें क्रमशः  एक ऐसी दृश्यात्मक संरचना में ढलता है, जो समय, स्मृति और अस्तित्व की परतों को खोलती है। यह कविता जिस उदासी और रंगों की बहुलता को एक साथ समेटे हुए है, वह हमें निर्मल वर्मा के अंतिम अरण्य के उन बिंबों की याद दिलाती है, जहाँ पहाड़ की ढलती शाम में दूर जलती लालटेनें किसी धीमे, बेआवाज़ जुलूस की तरह दिखती हैं—एक छायाभास, जो न तो पूरी तरह भूतकाल में स्थित है और न ही वर्तमान में। वह लालटेनें एक तरह की आखिरी रोशनी हैं, जो समय की धुंध में खो जाने से पहले टिमटिमाती हैं। 


इस कविता में पहाड़ों की सांध्य-छाया उसी धूसरता को पुनरावृत्त करती है। सुरमई रंग की चादर धीरे-धीरे खेतों पर उतरती है—यह रंगों का एक समायोजन है, जो किसी इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की तरह दृश्य को पिघलाता चला जाता है। जैसे मोने की तूलिका घाटी के प्रसार को उकेर देती है, वैसे ही इस कविता में प्रकृति के विभिन्न तत्व (आकाश, वनस्पति, पशु, स्त्रियाँ) एक बड़े दृश्यात्मक आख्यान में रूपांतरित हो जाते हैं। यहाँ “आग का लाल गोला” क्षितिज में लुढ़कता हुआ सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि समय के अंतःस्राव का प्रतीक है।


इस दृश्य के भीतर एक “उत्तर-आधुनिकतावादी विचार” का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। “एक निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी करता काला भोटिया कुत्ता”—यह आकृति सिमोनोनियन (Simondonian) ** अर्थों में “पूर्व-व्यक्तिकरण” (pre-individual) की स्थिति को इंगित कर सकती है, जहाँ अर्थ और लक्ष्य विघटित हो जाते हैं। उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में यह विचार अधिक स्पष्ट होता है: न तो कोई केंद्रीय संरचना बची है, न कोई महाख्यान, और न ही कोई स्थायी लक्ष्य। पहाड़ों की इस शाम में सब कुछ किसी अनिश्चित प्रतीक्षा में डूबा हुआ प्रतीत होता है।


इसी निरुद्देश्यता में कोई लापरवाह होकर अतीत के रस का पान करता है—जैसे “एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की माल्टा चूस रही है, जैसे पिछली सदी का कोई सपना।” यह सिर्फ अतीत के प्रति रूमानी झुकाव नहीं, बल्कि उस स्मृति की ओर लौटने की एक अन्यमनस्क कोशिश है, जो अब केवल एक objet petit a(लकान का वह ऑब्जेक्ट जो आनंद की हमेशा अपूर्ण, विलंबित संभावना की ओर संकेत करता है) के रूप में मौजूद है। यहाँ लकान का संकेतक का स्वायत्त खेल (Autonomy of the Signifier) स्पष्ट रूप से दिखता है: दृश्य वास्तविकता में मौजूद नहीं, बल्कि संकेतकों की एक निरंतर रचना में बदल जाती है । 


इस पूरी कविता के दृश्यपट पर लकान का “उल्लासोद्वेलन” (Jouissance) बिखरा हुआ है। मोने की तूलिका और रंग, चाँदनी की स्निग्धता, और स्वप्निल घाटी—ये सब आनंद सिद्धांत (Pleasure Principle) की पारंपरिक सीमाओं को पार करते हुए उल्लासोद्वेलन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। आनंद एक संतुलित, स्थिर अवस्था है, लेकिन उल्लासोद्वेलन उस सीमा का अतिक्रमण करता है जहाँ सुख और असहनीयता एक हो जाते हैं।

मसलन्, “बदन रगड़ रही बूढ़ी गाय”—यह क्रिया विशुद्ध रूप से आनंद नहीं, बल्कि एक ऐसी स्थिति को दर्शाती है जहाँ शरीर एक सीमांत अनुभव की तलाश में है।


“चाँदनी का अवाँगार्द हिरन इन्हें चर जायेगा”—यहाँ उल्लासोद्वेलन की वह प्रवृत्ति दिखती है, जहाँ सौंदर्य और विध्वंस एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। चाँदनी का हिरन अवाँगार्द कला का प्रतिनिधि है, और यह दृश्यात्मक सौंदर्य को मिटा देने के लिए प्रस्तुत होता है।


“स्वप्नहीनता के शिकार स्वच्छंदतावादी पखेरू”—स्वप्नहीनता उल्लासोद्वेलन की अंतिम अवस्था हो सकती है, जहाँ प्रतीकों के माध्यम से स्वयं की रचना असंभव हो जाती है।


इस कविता में “प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग” और “सबाल्टर्न कोलाहल” का संदर्भ हमें और भी दिलचस्प संकेत देता है। यह वाक्यांश न केवल औपनिवेशिक अतीत और उसकी निरंतरता को इंगित करता है, बल्कि आधुनिकता के उस निहित संघर्ष को भी उजागर करता है, जहाँ सांस्कृतिक संरचनाएँ अपने ही अंतर्विरोधों में फँस जाती हैं। पंचायत घर में बैठे सयानों को “सब कुछ पता होता है”—यह सामाजिक संरचनाओं की उन निहित सत्ता रणनीतियों की ओर संकेत करता है, जो उत्तर-आधुनिक संदर्भ में एक निरंतर चलने वाले षड्यंत्र की तरह लगती हैं।


लकान के विमर्श में, यह “नाम-का-पिता” (Name-of-the-Father) का विघटन है—जहाँ परंपरा की कठोर व्यवस्था विखंडित हो जाती है और नया कोई निश्चित अर्थ नहीं देता। यही कारण है कि कविता का अंत इस प्रश्न से होता है: “अच्छी ख़बरों की उम्मीद इन दिनों भला कहाँ किसी को होती है?” यह केवल यथार्थवादी निराशा नहीं, बल्कि विमर्श के ढहने की स्वीकृति भी है।


इस प्रकार, कविता अंततः स्वयं एक उल्लासोद्वेलन का रूप ले लेती है। यह एक स्टिललाइफ़ पेंटिंग की तरह है, जिसमें गति अदृश्य है, परंतु अस्तित्वमान भी है। यही वह बिंदु है जहाँ यह कविता अंतिम अरण्य के उत्तर-आधुनिक रूपांतरण को पूर्ण कर देती है। निर्मल वर्मा की लालटेनें जो एक निश्चित स्मृति को संरक्षित करने की कोशिश कर रही थीं, वे यहाँ प्रकाश और अंधकार के बीच फैले किसी liminal space में विलीन हो जाती हैं।


यह कविता न तो केवल सौंदर्य का बखान है और न ही केवल सामाजिक यथार्थ का निरूपण। यह “आनंद सिद्धांत” और “उल्लासोद्वेलन” के बीच की उस झीनी दीवार को पार करने का प्रयास है, जहाँ विचार, दृश्य और भाषा अपनी स्थिरता खो देते हैं और केवल प्रभावों के स्तर पर मौजूद रहते हैं—एक अवचेतन रंग-संकेत श्रृंखला की तरह।


यहाँ, जीवन के “नए जादुई आख्यान” का संकेत दिया गया है, परंतु यह आख्यान अपने भीतर “संकेतों का एक अंतहीन खेल” (infinite play of signifiers) ही रह जाता है—क्योंकि हर उत्तर आधुनिकता, अंततः, एक नए सिरे से अपने ही पूर्वज की वापसी है।


हमारी टिप्पणी काफ़ी लंबी हो गई है और शायद बोझिल भी । इसीलिए इसे दो भागों में देना पड़ रहा है ।  क्षमा करें । पर हमें लिख कर काफ़ी अच्छा लगा है । 



* पहाड़ों की शाम की बहुरंगी उदासी का क़सीदा

कविता कृष्णपल्लवी


सुरमई रंग की एक चादर 

मन्द-मंथर गति से लहराती हुई

हरी कच्ची बालियों वाले गेहूँ के 

सीढ़ीदार खेतों पर उतर रही है। 

रोशनी पीली पड़ती हुई

ऊपर चोटियों की ओर

खिसकती जा रही है। 

सामने आग का लाल गोला

नीचे की ओर तेज़ी से

लुढ़कता जा रहा है। 


चारे का गट्ठर लिये एक बूढ़ी स्त्री

चढ़ रही है ऊपर बस्ती की ओर। 

एक पुरानी उम्मीद की मद्धम पड़ती पुकार। 

निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी

कर रहा है  काला भोटिया कुत्ता। 

एक उत्तर-आधुनिकतावादी विचार। 

अखरोट के सख़्तजान दरख़्त से 

बदन रगड़ रही है एक बूढ़ी गाय। 

प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग

चमकता हुआ सबाल्टर्न कोलाहल में। 


आसमान के अदृश्य आँसुओं से

भीग रहा है

एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की का

नीला स्कार्फ

और वह बेख़बर माल्टा चूस रही है

जैसे पिछली सदी का कोई सपना। 

प्यार पर एक अराजनीतिक कविता। 


सहसा बुरांश के झुरमुट से 

उड़ता है एक मुनाल

और इम्प्रेशनिस्ट पेंटिंग के फ्रेम से

बाहर निकल जाता है। 

क्लोद मोने झुँझलाते हुए ब्रश और पैलेट

ढलान पर फैली झाड़ियों में फेंक देते हैं। 

रंग बिखर जाता है इधर-उधर

पत्तों और घास पर। 

जल्दी ही चाँदनी का अवाँगार्द हिरन

इन्हें चर जायेगा

और धूसर विचारों में सराबोर

स्वप्नहीनता के शिकार 

रात के सभी स्वच्छंदतावादी पखेरू 

इस दुखद घटना के बारे में चुप रहेंगे। 


एक अनुर्वर  शाम 

निर्दोष भोली आत्माओं के  शिकार के लिए

घात लगा रही है। 

रात में डोलेंगी बेरहम बुराइयों की

रहस्यमय परछाइयाँ

और  पंचायत घर की कोठरी में बैठे सयानों को

सबकुछ पता होगा

कि कल कब-कब कहाँ-कहाँ

कितनी हत्याएँ होंगी! 

अच्छी ख़बरों की उम्मीद इनदिनों भला

कहाँ किसी को होती है? 


हर स्टिललाइफ़ पेंटिंग में

अदृश्य होती है जीवन की गति। 

विचारों के पहरे में

जो कविताएँ जागती रहती हैं सारी रात

वही कई-कई रातों और दिनों के

गुज़रने के बाद

किसी एक सुबह

जीवन का एक नया जादुई आख्यान

लेकर आती हैं। 


** एक फ्रांसीसी दार्शनिक गिल्बर्ट सिमोंदों (1924-1989) जिन्होंने मुख्य रूप से तकनीक, व्यक्ति (individual) और रूपांतरण (individuation) की प्रक्रियाओं पर विचार किया। वे अस्तित्व को केवल पूर्ण “व्यक्तिगत” (individual) स्तर पर देखने के बजाय, उसके बनने की प्रक्रिया को समझने पर बल देते हैं। 


सिमोंदों के अनुसार, “व्यक्ति” कोई स्थिर और अंतिम इकाई नहीं होता, बल्कि वह रूपांतरण (individuation) की प्रक्रिया से बनता है। इस प्रक्रिया से पहले, अस्तित्व एक “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अवस्था में होता है। यह अवस्था एक संभाव्य (potential) स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति बनने के अनेक आयाम और संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अस्तित्व की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें व्यक्ति बनने की असंख्य संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। यह अवस्था स्थिर नहीं होती, बल्कि इसके भीतर एक गतिशील ऊर्जा होती है, जो सही परिस्थितियों में सक्रिय होकर व्यक्तिकरण की प्रक्रिया को जन्म देती है। इस दृष्टि से, व्यक्ति कोई पूर्ण इकाई नहीं, बल्कि लगातार बनने वाली (becoming) प्रक्रिया का हिस्सा होता है।


(यह टिप्पणी फ़ेसबुक पर कविता कृष्णपल्लवी के वॉल पर की गई है जिसे हम यहाँ मूल कविता के साथ अपने ब्लाग पर साझा कर रहे हैं । )

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

भारत-अमेरिका संबंधों का सबसे शर्मनाक काल : यह आरएसएस के अंग्रेज़-परस्ती के पुराने इतिहास की पुनरावृत्ति का ही एक परिणाम है


— अरुण माहेश्वरी 



ट्रंप -2 के शासन का अब तक का यह काल हमें अभी से भारत-अमेरिकी संबंधों के इतिहास का सबसे शर्मनाक काल दिखाई देने लगा है । 

इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस शर्म के लिए अकेले ट्रंप ज़िम्मेदार नहीं है । मोदी और उनकी सरकार भी अगर ज़्यादा नहीं तो कम ज़िम्मेदार भी नहीं है । 


ट्रंप ने तो अपने चुनाव अभियान के दौरान ही पारस्परिक आयात शुल्क ( Reciprocal tariff) के अपने इरादे को साफ़ तौर पर कहा था । इसी प्रकार अवैध आप्रवासियों से अमेरिका को मुक्त करने की अपनी पुरानी नीति को भी दोहराया था। 


पर ट्रंप की इन नीतियों की दुनिया के दूसरे देशों ने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि अन्य सभी राष्ट्रों को अपनी स्थिति और दुनिया में राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता का एक सटीक अनुमान है । कोई भी अपने अस्तित्व को पूरी तरह से अमेरिका से जोड़ कर नहीं देखता है । 


ट्रंप ने अपने पहले शासन के चार सालों में भी मेक्सिको से अवैध घुसपैठ को रोकने और अवैध आप्रवासियों को लेकर राजनीतिक उत्तेजना पैदा करने की कम कोशिश नहीं की थी । पर देखते-देखते उनके चार साल थोथी फुत्कारों में ही बीत गए। अमेरिका की इस कथित समस्या का जरा भी निदान संभव नहीं हुआ । 


सारी दुनिया जानती है कि आप्रवासी का मसला सिर्फ़ दो देशों का मसला नहीं, मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ मसला है । अमेरिका की सच्चाई तो यह है कि उस देश को आप्रवासियों ने ही आबाद, निर्मित और विकसित किया है । हाल के साल तक भी अमेरिका के विकास के हर पन्ने को, वह भले कृषि को लेकर हो या उद्योग को लेकर या डिजिटल क्रांति को लेकर, लिखने में आप्रवासियों की, अन्य देशों के वैध-अवैध श्रमिकों की प्रमुख भूमिका रही है । 


यह अकारण नहीं है कि अमेरिका अपने देश को ‘अवसरों का देश’ के रूप में प्रचारित कर दुनिया भर के महत्वाकांक्षी युवकों को आकर्षित करता रहा है !

भारत सहित अन्य देशों से नाना उपायों से वहाँ पहुँचने वाले आप्रवासी वहाँ अपराधों, लूट-मार या हत्याएं करने के लिए नहीं जाते हैं, अपनी बुद्धि और श्रम के बल पर उस देश के निर्माण में भाग लेकर अपने जीवन को सुधारने के लिए जाते हैं । 


आप्रवासियों के आने के साथ सिर्फ़ उन आप्रवासियों का ही नहीं, उन देशों के स्वार्थ भी किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं जिन देशों को उन्होंने अपना भाग्य आजमाने के लिए चुना है । इसीलिए मानव सभ्यता के विकास के इतिहास को भी आप्रवासी का इतिहास कहा जाता है । इस विषय पर ट्रंप के पहले चार साल के शासन की विफलता ही उसकी तयशुदा नियति थी। और, आगे भी इस मसले पर ट्रंप लगातार राजनीतिक उत्तेजना तो पैदा करते रहेंगे, पर कभी भी इसमें उन्हें कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिल पाएगी। 


इसी प्रकार का ट्रंप का दूसरा बड़ा मसला है पारस्परिक आयात शुल्क का मसला । यह समस्या भी मूलतः मानव इतिहासों से जुड़ी एक और समस्या ही है । जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में तबाह हो चुके पूरे यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल योजना और विश्व बैंक, आईएमएफ़ की तरह की ब्रेटनवुड संस्थाओं को सस्ते ऋणों आदि के साथ सामने आना पड़ा था, बिल्कुल उसी तर्ज़ पर वैश्विक असमानता के शिकार दुनिया के विकासशील देशों में विकास की गति को तेज करने के लिए विश्व वाणिज्य संगठन (WTO) को विश्व वाणिज्य की ऐसी शर्तों को स्वीकारना पड़ा हैं जिनमें आयात शुल्कों के ज़रिए विकासशील देश अपने लिए ज़रूरी पूंजी जुटा सकें और अपने बाजारों को बड़ी ताक़तों के नीतिगत दबावों से मुक्त रख सकें । इन व्यवस्थाओं ने दुनिया में कमज़ोर और शक्तिशाली राष्ट्रों के परस्पर हितों के बीच एक संतुलन बनाए रखने में एक असरदार भूमिका अदा की है और दुनिया में स्थिरता बनाए रखने का काम किया है । शांति और स्थिरता समूची मानवता के विकास की एक अनिवार्य शर्त है । 


यही वजह है कि आज अमेरिका के स्तर की महाशक्ति यदि दुनिया में स्थिरता को ख़त्म करने का काम करती है तो वह सबसे ज़्यादा अपना ही नुक़सान करेगी । ट्रंप का पारस्परिक आयात शुल्क का एक हथियार की तरह प्रयोग करने की योजना अंत में एक दिखावा ही साबित होगी क्योंकि खुद अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक हित इस मामले में उसके खिलाफ उठ खड़े होंगे । 


इसीलिए ट्रंप के पारस्परिक आयात शुल्क और उससे संभावित वाणिज्य युद्ध को लेकर चीन, रूस सहित यूरोप तक ज़्यादा चिंतित नहीं है । इस दिशा में ट्रंप के कदमों के अनुपात में ही वे अपनी तात्कालिक और दूरगामी नीतियाँ तैयार करने की रणनीति अपनाए हुए हैं । 


इस पूरे परिप्रेक्ष्य में विचार का यह एक गंभीर सवाल है कि ट्रंप के क्रियाकलापों से भारत ही क्यों इतना ज़्यादा परेशान हो रहा है ? क्यों ट्रंप भारत के अवैध आप्रवासियों को अन्य देशों के आप्रवासियों की तुलना में ज़्यादा सता रहे हैं और उनकी यातनाओं का सारी दुनिया के सामने प्रदर्शन भी कर रहे हैं? क्यों ट्रंप मोदी को बार -बार अपमानित करते हैं ? सबसे पहले तो मोदी की लाख कोशिश के बावजूद उन्हें अपने शपथ ग्रहण के आयोजन में आने नहीं दिया । और बाद में जब उन्हें बुलाया भी तो समूचे प्रेस के सामने भारत को “टैरिफ़ किंग” बता कर मोदी को सीधे धमकी दे दी कि वे भारत को बख़्शेंगे नहीं । भारत पर अमेरिका से हथियार और ऊर्जा ख़रीदने के लिए खुले संवाददाता सम्मेलन में दबाव डाला। ऐसा करते हुए वे बार-बार मोदी पर “माई डीयर फ्रैंड” के व्यंग्य का तीर छोड़ने से भी नहीं चूक रहे हैं !


इस स्थित पर विचार करने पर एक बात साफ़ नज़र आती है कि मोदी के प्रति ट्रंप के इस रवैये के मूल में कहीं न कहीं उनके मन अपने इस ‘मित्र’ के प्रति गहरी वितृष्णा का भाव काम कर रहा है । ऐसा लगता है कि मानो ट्रंप ने मोदी के चरित्र की उस प्रमुख कमजोरी को पहचान लिया है जिसमें अपनी कोई चमक नहीं है, वह हमेशा अमेरिका और ट्रंप के प्रकाश से खुद को चमकाने की फ़िराक़ में रहता है । शायद मोदी के अडानी वाले रोग की भी उन्होंने सिनाख्त कर ली है । वे जान गए हैं कि मोदी उस दास भाव के शिकार हैं जो मालिक की दुत्कारों से ही उसके प्रति हमेशा विश्वसनीय बना रहता है । ऐसे भाव में जीने वाले को बराबरी का दर्जा देना उसे झूठों ख़तरनाक बनाने जैसा है !


इसीलिए ट्रंप ने एलेन मस्क, उनकी प्रेमिका, बच्चों और बच्चों की आया के साथ मोदी की बैठक कराई । अमेरिकी प्रशासन ने भी यह देख लिया है कि मोदी का जितना अपमान किया गया, वे उतना ही ज़्यादा मुस्कुराते हैं और अमेरिका को आयात शुल्क के मामलों में उतनी ही ज़्यादा रियायतें एकतरफ़ा ढंग से देते जा रहे हैं । अमेरिका जाने के पहले ही अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क में कमी शुरू हो गई थी। मस्क परिवार से मुलाक़ात के बाद उसकी टेस्ला गाड़ियों पर आयात शुल्क को 115 प्रतिशत से कम करके सिर्फ़ 15 प्रतिशत कर दिया गया है ।


इस प्रकार, अभी के अमेरिका-भारत संबंधों में जो अजीब क़िस्म की विकृति दिखाई देती है, उसके मूल में अकेले ट्रंप नहीं, हमारे मोदी जी भी एक प्रमुख कारक है।  आरएसएस की पुरानी नीति कि अंग्रेज़ों की कृपा से भारत में सत्ता हासिल करो, मोदी अभी ट्रंप पर आज़मा रहे हैं और बदले में चाहते हैं कि उन्हें ‘विश्व गुरु’ आदि-आदि मान लिया जाए । ट्रंप ने लगता है मोदी के इस छद्म को पहचान लिया है और उसका लाभ लेते हुए बार-बार मोदी को उनकी औक़ात बताने से नहीं चूकते !


ट्रंप और मोदी के बीच इस प्रभु-दास वाले संबंध ने ही आज अमेरिका-भारत संबंधों की सूरत इतनी बिगाड़ दी है कि हर स्वाभिमानी भारतीय को उस पर गहरी शर्म का अहसास हो रहा है । ट्रंप आगामी चार साल तक मोदी को ऐसे ही अपना व्हिपिंग ब्वाय बना कर रखना चाहेंगे । 


इस पूरे मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत में बीजेपी के ‘राष्ट्रवादियों’ ने इस पूरी खींच-तान में भारत की ब्रीफ़ को त्याग कर ट्रंप और अमेरिका की ब्रीफ़ थाम ली है !

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

‘भक्तिवाद और भक्ति’: ‘आधुनिकता और रूमानियत’


−अरुण माहेश्वरी


 ‘भक्तिवाद और भक्ति’: ‘आधुनिकता और रूमानियत’
−अरुण माहेश्वरी

कल (1 फरवरी 2025) के टेलिग्राफ में प्रसिद्ध भाषा शास्त्री जी. एन. देवी का एक लेख है – ‘मध्ययुग अंधकार का काल नहीं था : भक्तों के बजाय भक्ति ।’

श्री देवी पहले भी अपनी पुस्तकों और लेखों में भारत के सामाजिक इतिहास के त्रिकालीय (प्राचीन, मध्य और आधुनिक युग) विभाजन की सच्चाई को सर विलियम जोन्स से शुरू करके औपनिवेशिक इतिहासकारों की कल्पना की उपज बता कर सत्तर्क खारिज करते रहे हैं । इस लेख में अपने उसी विवेचन की श्रृंखला में उन्होंने फिर एक बार उस मध्ययुग और भक्ति काल को अपना विषय बनाया है जो युग न सिर्फ सभी भारतीय भाषाओं के उदय का युग था, बल्कि उनके अनुसार ‘भक्ति’ के एक सूत्र से संपूर्ण भारत को ‘प्रेम और विद्रोह’ के मानवीय भावों के एक सूत्र में बांधने वाला वैसा ही युग था जैसा कि यूरोप में रूमानियत और आधुनिकता के युग को पाया जाता है । 

श्री देवी ने अपने इस लेख में दिखाया है कि कैसे ‘भक्ति’ पद भारत की सभी भाषाओं में एक साथ, समान अर्थ में पाया जाता है । तमिल में सिर्फ इतना सा फर्क आया है कि यह भक्ति के बजाय पक्ति या पक्ते हो गया है । उन्होंने भक्ति के लिए अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले devotion शब्द को अनुपयुक्त माना है क्योंकि devotion से जिस प्रकार की निष्ठा और वफादारी की ध्वनि मिलती है, उनके अनुसार भक्ति से तात्पर्य उसके बजाय ऐसे निःस्वार्थ उत्सर्ग (selfless surrender) से हैं जो आनंददायी होता है । श्री देवी ने बिल्कुल सही भक्ति पद की व्युत्पत्ति को ‘भज’ से जोड़ा है कि उसके अर्थ को भागीदारी, हिस्सेदारी से जोड़ कर अपना यह विमर्श तैयार किया है । 

जाहिर है कि श्री देवी का यह प्रयास एक प्रकार से भक्ति को हर रूढ़ि और अंध समर्पण से मुक्त करके उसे प्रेम भाव के मानवीय तत्त्व से जोड़ने का है और इसी अर्थ में वे भक्ति की अखिल भारतीय व्याप्ति की तुलना विश्व साहित्य के इतिहास में ‘रूमानी’ अथवा ‘आधुनिक’ युग से करते हैं । भक्ति की परंपरा को कथित मध्ययुग के मीरा, कबीर तक सीमित रखने के बजाय आधुनिक काल के रवीन्द्रनाथ, महात्मा गांधी और डा.अंबेडकर तक खींच लाते हैं ।
 
बहरहाल, यहां हम विषय को थोड़ा अलग कोण से देखना चाहते हैं । श्री देवी की इस टिप्पणी का मुख्य उद्देश्य आज के मनुष्य के सामने सर्वनाश की मौजूदा परिस्थितियों से मुक्ति के रास्ते की तलाश रही है जिसमें वे यूरोपीय मानवतावाद की भांति ही भारत के भक्ति आंदोलन में अपार संभावना देखते हैं और इसी उद्देश्य से वे भक्ति की मूल रूमानी, आनंददायी धारणा को आज के ‘भक्तों’ की उद्दंडताओं से अलग करते हैं । 

अपनी टिप्पणी में श्री देवी जहां वर्तमान में सभ्यता के व्यापक संकट के संदर्भ में भारतीय समाज में भक्ति पद की व्युत्पत्ति और भक्ति आंदोलन को देख रहे हैं, वहीं हम भी आज के भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के संदर्भ में धर्म और उससे जुड़े ‘भक्ति’ के सच को टटोलना चाहते हैं । हम समझना चाहते हैं कि यूरोप में जहां ‘रूमानियत’ और ‘आधुनिकता’ की धारणा में धर्म और धार्मिक रूढ़िवाद का कोई स्थान नहीं रहा है, वहीं भारत में ‘रूमानियत’ और ‘आधुनिकता’ के कथित समानार्थी ‘भक्ति’ की धर्म और संप्रदाय तथा उनसे जुड़ी राजनीति में प्रमुख भूमिका क्यों और कैसे हैं ?
 
श्री देवी ने अपने सामाजिक मंतव्य के लिए शब्दानुशासन का प्रयोग करते हुए ‘भज’ शब्द से ‘भक्ति’ पद की व्युत्पत्ति के आधार पर ही इसके भागीदारी, हिस्सेदारी के अर्थ को रेखांकित किया है । हम भी यहां इस पूरे विषय को शब्दानुशासन, भाषा विज्ञान और सौन्दर्यशास्त्र के मानदंडों पर ही विवेचित करना चाहते हैं । अपने इस विवेचन का एक बहुत उपयुक्त सूत्र हमें आनंदवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ और उस पर अभिनवगुप्त के लोचन से मिलता है । ध्वन्यालोक में आनंदवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा बताते हुए ध्वनि सिद्धांत की स्थापना जिन ध्वनि-विरोधी मतों के खंडन के आधार पर की है, उनमें एक प्रमुख धारा ‘भक्तिवाद’ की भी पाई जाती है ।

आनंदवर्धन ने अपने ध्वनि-सिद्धांत में यह बताया था कि काव्य में मुख्यतः तीन प्रकार की अर्थव्यंजना पाई जाती है: अभिधा (शाब्दिक अर्थ), लक्षणा (प्रसंगानुसार व्यंजित अर्थ) और व्यंजना (गूढ़, अप्रत्यक्ष या ध्वनि-सिद्ध अर्थ) । उनका मानना था कि श्रेष्ठ काव्य वही होता है जिसमें व्यंजना (ध्वनि) प्रधान होती है। इस सिलसिले में उन्होंने ध्वनि-विरोधियों की तीन प्रमुख धाराओं की पहचान की : अभिहितान्वयवाद – जो मानते थे कि काव्य में केवल अभिधा (शाब्दिक अर्थ) ही मायने रखता है; अनुमेयवाद – जो मानते थे कि काव्य का प्रभाव तर्क (अनुमान) से जाना जाता है; और भक्तिवाद – जो मानते थे कि काव्य में लक्षणा ही पर्याप्त है, व्यंजना या ध्वनि को अलग से मान्यता देने की जरूरत नहीं है। 
इनमें भक्तिवाद का तर्क था कि जब कोई शब्द अपने प्रत्यक्ष अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता, तब वह 'लक्षणा' से अपना दूसरा अर्थ ग्रहण करता है। लेकिन काव्य में कोई 'अतिरिक्त व्यंजना' (ध्वनि) नहीं होती; इसी आधार पर ध्वनि सिद्धांत को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।

जाहिर है कि इस दृष्टिकोण में 'भक्ति' का अर्थ है – शब्द को उसके प्राथमिक अर्थ से हटाकर लक्षणा के माध्यम से समझना । इस दृष्टि से, भक्ति की धारणा की व्युत्पत्ति (भज्, अर्थात् विभाजन, समर्पण, आश्रय) भाषा के उस प्रयोग को संकेतित करती है जिसमें शब्द अपने प्रत्यक्ष अर्थ से हटकर एक माध्यमिक आश्रय (लक्षणा) ग्रहण करता है, लेकिन ध्वनि (व्यंजना) को अस्वीकार करता है। यही भक्तिवाद की केंद्रीय अवधारणा थी। जहां तक ‘भज’ के अर्थ के रूप में हिस्सेदारी, भागीदारी का सवाल है, यह अर्थ पाणिनि की अष्टाध्यायी और यास्क के निघंटु तथा निरुक्त में मिलता है, जबकि संस्कृत मूल के भज धातु से निकले भक्ति का अर्थ सेवा करना, समर्पण करना, किसी के प्रति विशेष अनुराग रखना होता है । गौर करने की बात है कि यहां ‘समर्पण’ दोनों जगह पर पाया जाता है।
 
आनंदवर्धन जिस भक्तिवाद का खंडन करते हैं उसमें भक्ति वह प्रयोग है जो आश्रय पर निर्भरशील होती है । उसके अनुसार शब्द 'लक्षणा' में समर्पित होता है और वही पर्याप्त है। इससे अलग कोई व्यंजना शक्ति नहीं होनी चाहिए।

भक्तिवाद इसीलिए ध्वनि-सिद्धांत का विरोध करता है कि वह भाषा को स्वतंत्र ध्वनि या अप्रत्यक्ष व्यंजना के आधार पर नहीं, बल्कि केवल प्रकट लक्षणा पर निर्भर मानता है। इस दृष्टिकोण से भक्तिवादियों ने साहित्य में ध्वनि (व्यंजना) की स्वतंत्र सत्ता को नकारा था । 

जाहिर है कि आनंदवर्धन ने ध्वनि-विरोधी धारा के रूप में जिस 'भक्तिवाद'  का खंडन किया था, वह कोई धार्मिक प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि काव्य-चिंतन की एक विशिष्ट ध्वनि-विरोधी धारा थी। यह धारा भाषा को सिर्फ अभिधा और लक्षणा तक सीमित रखना चाहती थी, जबकि आनंदवर्धन और बाद में अभिनवगुप्त ने यह स्थापित किया कि काव्य में व्यंजना (ध्वनि) एक स्वतंत्र शक्ति होती है, जो अर्थ को गहराई प्रदान करती है। 

इस प्रकार यह साफ़ है कि भाषा की दृष्टि से भक्ति में व्यंजना से इंकार संपूर्ण भक्ति-भाव में एक प्रकार की रूढ़ता के भाव को स्थापित करता है । आनंदवर्धन के ध्वनि-सिद्धांत का मूल तर्क यह था कि सर्वोत्तम काव्य में व्यंजना (suggestion) की भूमिका होती है, जो पाठक या श्रोता को शब्दों के प्रत्यक्ष और लाक्षणिक अर्थों से आगे जाने की अनुमति देती है। लेकिन भक्तिवादियों ने इसे अस्वीकार किया और केवल अभिधा (शाब्दिक अर्थ) और लक्षणा (माध्यमिक, संदर्भित अर्थ) तक काव्य की व्याख्या को सीमित रखा। भक्तिवाद के दृष्टिकोण से काव्य केवल लाक्षणिक रूप तक सीमित रह जाता है। यह श्रद्धातिशयता शब्दों की व्याख्या को एक निश्चित दायरे में बंद कर देती है और पाठक को काव्य में अंतर्निहित गूढ़ अर्थों तक पहुँचने से रोकती है। इसके कारण काव्य-विचार एक स्थिर (static) प्रक्रिया बन जाता है, जिसमें नए अर्थों की संभावना समाप्त हो जाती है। 
 
कहना न होगा, भक्ति के संपूर्ण भाव में भी यही रूढ़ि परिलक्षित होती है। धार्मिक एवं साहित्यिक अर्थों में भक्ति एक निश्चित आस्था की माँग करती है, जिसमें प्रश्न करने या नए अर्थों की खोज की गुंजाइश कम होती है। जैसे भक्तिवाद में काव्य-विचार को व्यंजना से दूर रखने की प्रवृत्ति भाषा की संभावनाओं को सीमित कर देती है, उसी प्रकार, धार्मिक भक्ति में भी संदेह या आलोचना के लिए जगह नहीं होती है।

ध्वनि-सिद्धांत गतिशीलता का समर्थन करता है, क्योंकि इसमें पाठक के लिए नए अर्थों को खोजने की स्वतंत्रता रहती है। इसके विपरीत, भक्तिवाद एक स्थिर संरचना की ओर जाता है, जिसमें व्यंजना को अस्वीकार करने से काव्य को निश्चित अर्थों तक सीमित कर दिया जाता है। भक्तिवाद में व्यंजना के अस्वीकार से भक्ति की अवधारणा में एक प्रकार की जड़ता (rigidity) आती है, जो भाषा और साहित्य की गतिशीलता को सीमित कर सकती है। यह प्रवृत्ति काव्य की बहुअर्थीयता और उसकी संभावनाओं को संकुचित कर देती है, जिससे साहित्यिक अभिव्यक्ति में रूढ़ता का भाव प्रवेश करता है। इसीलिए, यही कहना उचित होगा कि भक्तिवाद की प्रवृत्ति, चाहे वह साहित्यिक हो या धार्मिक, व्यंजना से इनकार करने के कारण एक प्रकार की रूढ़ता स्थापित करती है।

इस प्रकार, जब हम भाषा संबंधी इस पूरे विमर्श की रोशनी में भक्तिवाद की परंपरा को देखते हैं तब निश्चय ही हम श्री देवी की तरह रवीन्द्रनाथ और डा. अंबेडकर के स्तर के आधुनिक चिंतकों और गांधी के स्तर के धर्म-निरपेक्ष समाज सुधार के जन-नेता को भक्ति के किसी भी मूलगामी, रूढ़िवादी अर्थ से नहीं जोड़ पाते हैं । इस विषय पर हम साफ तौर पर श्री देवी के विचारों से मतभेद व्यक्त करते हैं । ।  

 https://www.telegraphindia.com/opinion/bhakti-over-bhakts-the-medieval-era-was-not-a-period-of-darkness/cid/2080861