बुधवार, 13 नवंबर 2013

प्रो. एजाज अहमद के ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ पर चंद बातें

अरुण माहेश्वरी

प्रो. एजाज अहमद के ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ पर चंद बातें

अभी चंद रोज पहले ही अपनी वियतनाम यात्रा के संस्मरण में हमने ‘इतिहास को ससम्मान विदा करो’ की चर्चा की थी। उसके कुछ दिनों बाद कोलकाता के ‘टेलिग्राफ’ (25 अक्तूबर 2013) में स्वपन दासगुप्त का एक लेख प्रकाशित हुआ - “Dangers of buried stories” - ‘इतिहास को सम्मान के साथ विदा करो’ के नजरिये का एकदम विपरीत छोर। हमने स्वपन दासगुप्त के इस लेख पर एक टिप्पणी लिखी - ‘अतीत के जिन्नों को बुलाने का स्वपन दासगुप्त का आह्वान’। 1

इसके कुछ दिन पहले फेसबुक पर (13 अक्तूबर 2013) हमारी एक टिप्पणी थी -

‘‘नव-उदारवाद 1989 में समाजवाद के पराभव के बाद दुनिया की अर्थ-व्यवस्था के बारे में अमेरिकी सत्ता संस्थानों, आईएमएफ, विश्व बैंक आदि की परिकल्पना का एक नाम है। इसी का दूसरा नाम ‘वाशिंगटन कंशेंसस’ भी है - संकट में फंसे विकासशील विश्व को उबारने का अमेरिकी नुस्खा। वित्तीय अनुशासन, हर मामले में जीडीपी का मानदंड, सरकारी रियायतों के बारे में पुनर्विचार, करों में कमी, ब्याज की दरों में लचीलापन, विदेशी मुद्रा की दर पर बाजार का नियम, खुला अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य, विदेशी निवेश के रास्ते की बाधाओं का अंत, सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण, बाजार को अधिक से अधिक मुक्त बनाने और सर्वोपरि संपत्ति के अधिकार को पूर्ण कानूनी सुरक्षा देने की तरह के मंत्रों से तैयार किया गया नुस्खा। आर्थिक मामलों में सरकार के बजाय बाजार को अधिक भरोसेमंद मानने का नुस्खा।
‘‘इस कंशेंसस की बुनियादी आर्थिक नीतियों पर निर्मित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को उदार जनतंत्र कहा गया, जिसमें फ्रांसिस फुकुयामा ने इतिहास के अंत को देखा था। सभ्यता को घूम-फिर कर इन्हीं नीतियों के दायरे में कैद रहना पड़ेगा।
‘‘तब से लगभग एक चौथाई सदी का समय बीत गया है। इस दौरान विश्व अर्थ-व्यवस्था को अनेक बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। खास तौर पर सन् 2008 के सबप्राइम संकट के बाद की विश्व-व्यापी मंदी ने बाजार पर भरोसे को बुरी तरह झकझोर दिया। फुकुयामा तक ने कह दिया कि उनकी धारण गलत थी। ‘टाइम्स’ और ‘इकोनोमिस्ट’ की तरह की पत्रिकाओं ने कहा, ऐसा निरंकुश बाजार-राज चल नहीं सकता ; पूंजीवाद चल नहीं सकता।
‘‘अब पांच साल बाद फिर अमेरिका में कुछ आर्थिक स्थिति सुधरी है। फिर भी ओबामा स्वास्थ्य बीमा के मसले पर सरकारी रियायतों की नीति पर चलना चाहते हैं, जबकि रिपब्लिकन बाजार पर पूरी आस्था बनाये रखने के पक्ष में है।
‘‘ कहने का तात्पर्य यह कि विश्व साम्राज्यवाद के शीर्ष पर भी नव-उदारवादी नीतियों के बारे में गहरे संशय बने हुए हैं।
‘‘इस पूरे परिप्रेक्ष्य के बावजूद सवाल यह है कि क्या भारत के आगामी लोकसभा चुनाव में नव-उदारवाद स्वयं में चुनावी लड़ाई का मुद्दा बन सकता है? यह एक गंभीर मसला है। समसामयिक राजनीति के क्षेत्र से जुड़ा एक यथार्थ मसला।
‘‘वामपंथ को अपना चुनावी एजेंडा तैयार करने के पहले इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अधिक ठोस, समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित होने की जरूरत है। नव-उदारवाद का विकल्प तो समाजवाद है, जो इस चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता।’’

सीपीआई(एम) की सैद्धांतिक पत्रिका ‘माक्र्सिस्ट’ के अप्रैल-जून 2013 के अंक में हमें अपने उपरोक्त मत के बिल्कुल विरोधी मत को रखने वाला प्रो. एजाज अहमद का  लेख पढ़ने को मिला - “Communalism : Changing Forms and Fortunes” ।

इसके पहले कि हम एजाज अहमद के इस लेख के बारे में कोई साफ राय जाहिर करें, यहां हम ईमानदारी से प्रो. अहमद के लेख का एक सार-संक्षेप पेश करेंगे।

बाईस पन्नों के अपने इस लंबे लेख का प्रारंभ वे इस बात से करते हैं कि साम्प्रदायिकता (Communalism) के बारे में वैसे तो प्रचुर लेखन मिलता है और वामपंथियों की ही नाना प्रकार की अवधारणाएं भी। इस लेख में उनकी कोशिश उसी प्रकार का एक और वैसा ही विवरणपरक लेख लिखने के बजाय ‘सांप्रदायिकता, धर्म-निरपेक्षता, राष्ट्रवाद’ इत्यादि पर वामपंथियों के अब तक के सोचने के तरीकों की पड़ताल करने की होगी।

अपनी इस प्राथमिक प्रतिश्रुति के बाद वे सबसे पहले इस लेख के प्रमेय (Hypothesis) की तरह अपनी मूलभूत समझ को सूत्रबद्ध करते हैं। कहते हैं - ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिकता से राष्ट्र के शरीर का कोई छोटा सा हिस्सा भर खराब हुआ हो और बाकी राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष बना हुआ हो। और न ही इसे आरएसएस-शिवसेना जैसों द्वारा फैलाये जाने वाले किसी महामारी के विषाणु के तौर पर लिया जाना चाहिए जिसका धर्म-निरपेक्षता और राष्ट्रवाद की दवा की अधिक से अधिक खुराक देकर इलाज किया जा सकता है। इसकी ‘जटिल ऐतिहासिक जड़ें’ है जो भारतीय समाज और राजनीति में इतनी गहरी चली गयी है कि सामान्य तौर पर दिखाई ही नहीं देती।

इसी संदर्भ में वे सांप्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई को ‘महत्वपूर्ण’ मानते हुए भी हमारे समाज के ‘संरचनात्मक विश्लेषण’ (structural analysis) को ‘ज्यादा महत्वपूर्ण’ मानते हैं। वे सांप्रदायिकता को भारतीय गणतंत्र की दशा की जांच का एक ‘उपयोगी सूचक’ बताते हैं, जिससे पता चलेगा कि पिछले 65 सालों में हम कहा जाते रहे हैं और आज कहां खड़े हैं। इसी पृष्ठभूमि में वे नरेन्द्र मोदी के सत्ता पर आने को, जिसकी संभावना को वे खुद काफी क्षीण मानते हैं, वे भारतीय गणतंत्र के यात्रा-पथा में ‘एक नये मील के पत्थर’ से ज्यादा और कुछ नहीं समझते।

जाहिर है कि आगे का पूरा लेख उनकी इसी मूलभूत समझ के प्रमेय को प्रमाणित करने की कोशिश है।

अपनी मूल समझ की स्थापना के लिये सबसे पहले वे रोजा लुक्जेमबर्ग की बहुचर्चित उक्ति ‘समाजवाद या बर्बरता’ का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि भारत की तरह के ‘लुटेरे पूंजीवाद’ (Predatory Capitalism) पर यह उक्ति और भी ज्यादा लागू होती है क्योंकि फासीवाद अर्थात बर्बरता पर अमल के लिये जिस प्रकार के आत्मिक और नैतिक तौर पर पतित हो चुके लोगों के ‘तूफानी दस्तों’ की जरूरत होती है, वैसे लोग इन परिस्थितियों में प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं।

इसके बाद ही वे क्लारा जेटकिन की उतनी ही प्रसिद्ध उक्ति का प्रयोग करते हैं: क्रांति न कर पाने का दंड है फासीवाद।

(आगे बढ़ने के पहले ही हम यहां साफ करना चाहते हैं कि लुक्जेमबर्ग और जेटकिन, दोनों की बाते ही उस जर्मनी के खास संदर्भ में कही गयी थी जिसे रूस की समाजवादी क्रांति के ठीक बाद हर लिहाज से समाजवादी क्रांति के लिये तैयार माना जा रहा था, लेकिन यथार्थ में कम्युनिस्ट क्रांति सफल होने के बजाय वहां हिटलर ने सत्ता हड़प ली और आधुनिक दुनिया के एक बर्बरतम राज्य की स्थापना की। रोजा लुक्जेमबर्ग ने क्रांति के विफल होने पर बर्बरता के राज की भविष्यवाणी की थी और क्लारा जेटकिन ने अपनी आंखों उस राज की स्थापना को देखा था।

जर्मनी के इसी अनुभव से निकलने वाले क्रांति के विज्ञान संबंधी कई कथित सूत्रों में एक सूत्र यह भी रहा है कि ‘फासीवाद वहीं आता है जहां पूंजीवाद के सामने सर्वहारा क्रांति की चुनौती होती है’।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘समाजवाद नहीं तो बर्बरता’ वाली लुक्जेमबर्ग की बात कोई सर्वदेशिक सच (universal truth) नहीं है, क्योंकि जर्मनी, इटली, जापान, स्पेन के अलावा बाकी पूंजीवादी देशों में कही भी वैसा बर्बर राज्य कायम नहीं हुआ। उल्टे, इतिहास का सच यह है कि सोवियत संघ के समाजवाद के प्रभाव ने विकसित पूंजीवादी देशों को ‘कल्याणकारी राज्य’ का रास्ता अपनाने के लिये मजबूर किया।)

बहरहाल, हम फिर से प्रो. अहमद की बातों पर लौटते हैं। ‘फासीवाद क्रांति न कर पाने का दंड है’, इसे दोहराने के बाद वे आज के ‘वामपंथ की वैश्विक पराजय’ के युग पर आते हैं और इसकी तीन प्रमुख लाक्षणिकताओं को गिनाते हैं - (1) 1989 की तुलना में मार्क्सवाद का स्थान संकुचित हुआ है। (2) नव-उदारवाद ने भारी जीतें दर्ज की है, और (3) वैश्विक नव-उदारवाद के सहयोगी के तौर पर ‘राष्ट्रवाद’ ने खुद को नये रूप में परिभाषित किया है। इसी सिलसिले में वे नरेन्द्र मोदी की तुलना मिस्र के मुसलिम ब्रदरहुड के नेता मोरसी से करते हैं, जो इजारेदार पूंजीपतियों के साथ खुले आम उठने-बैठने से कोई परहेज नहीं करते।

और पुन:, ‘क्रांति की विफलता का दंड’ की तर्ज पर एजाज अहमद कहते हैं कि भारत में हर प्रकार की सांप्रदायिकता की सफलता वामपंथ की विफलता की सूचक है। और, अपने लेख की मूलभूत स्थापना पेश करते है : ‘‘ सांप्रदायिकता का विकल्प धर्म-निरपेक्षता अथवा राष्ट्रवाद नहीं, साम्यवाद (कम्युनिज्म) है।’’

भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी राय है कि आज भारत की सभी गैर-वामपंथी पार्टियों में विदेश नीति और नव-उदारवाद के मसले पर सर्व-सम्मति (consensus) है। एक भी ऐसी गैर-वामपंथी पार्टी नहीं है जिसने भाजपा के साथ, अर्थात सांप्रदायिकता के साथ कभी कोई समझौता न किया हो। कांग्रेस ने कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाया तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वह सत्ता की लड़ाई में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है, अन्यथा व्यवहारिक राजनीति के स्तर पर वह भी सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती।

इसके आगे, प्रो. अहमद थोड़ा भटकते हैं, लेख में किये गये शुरूआती वादे को भूल कर भारत के सांप्रदायिक दंगों के बारे में एक और नये आख्यान को तैयार करते हुए कहते हैं कि भारत में जिसे सांप्रदायिक दंगा कहा जाता है, इस्लामिक देशों में अल्प-संख्यकों पर होने वाले वैसे हमलों को बिना किसी लाग-लपेट के इस्लामिक या जेहादी हमलें बताया जाता है।

और, इसके साथ ही आश्चर्यजनक रूप से वे  भारत में सांप्रदायिकता के प्रश्न की एक प्रकार की भाषा-शास्त्रीय व्युत्पत्ति की तलाश की ओर बढ़ जाते हैं। कहते हैं - Communism और Communalism में एक भाषिक साम्य है। Majority community अथवा Minority community की तरह के पदों के प्रयोग से इनके पीछे की धार्मिक अस्मिता की सचाई को छिपाया जाता है और कुछ ऐसे पेश किया जाता है मानो वे महज भारतीय राष्ट्र के नागरिक भर है।

इसी बात को और खींचते हुए प्रो. अहमद कहते हैं कि धार्मिक अस्मिताओं को नागरिक की अस्मिता बताने के इस सच से जाहिर होता है कि भारत के अधिकांश लोग, सिवाय एक मतदान के अधिकार के, हर प्रकार के राष्ट्रीय विमर्श से सर्वथा अछूते रहते हैं और अधिकांशत: अपना जीवन धार्मिक समुदायों के बीच बिताते हैं।

( यहां फिर एक बार हस्तक्षेप करते हुए हम कहना चाहेंगे कि प्रो. अहमद जिस मतदान के अधिकार को ‘महज एक मतदान का अधिकार’ बता कर महत्वहीन बताना चाहते हैं, वह आज के भारत में पंचायती राज व्यवस्था के चलते कितना व्यापक और राज्य में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करने वाले अधिकार का रूप लेता जा रहा है, इसका उन्हें अनुमान ही नहीं है। आज भारत की सभी शासक पार्टियों की यह आम शिकायत है कि यहां तो उन्हें हमेशा लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका और पंचायतों के कम से कम चार चुनावों की चुनौतियों में उलझे रहना पड़ता है।
इसके अलावा, धार्मिक समुदायों में जीने के बजाय आम आदमी अपनी रोटी-रोजी की जुगत में किस कदर मुब्तिला रहता है, इसे वे अपने विचार के दायरे में ही नहीं ला पाते हैं।

उनके नजरिये की इन कमियों के चलते उनके सांप्रदायिकता संबंधी पूरे विश्लेषण में जो मूलभूत और भारी दोष आगये हैं, उनपर हम यथास्थान आगे चर्चा करेंगे।)

फिलहाल हम फिर प्रो. अहमद की स्थापनाओं की ओर ही लौटते हैं। आगे वे ‘सर्व धर्म समभाव’ और इसके प्रति वामपंथियों की आलोचना के अतिपरिचित पुराने विषय पर आ जाते हैं और कहते हैं कि Secularism की यह व्याख्या एक खास भारतीय परिघटना है। इसके साथ ही आस्थावादियों के बारे में वे कुछ ऐसी चौंकाने वाली विवादास्पद बात कह जाते हैं, जिसे मनोविज्ञान से लेकर समाजशास्त्र के भी किसी भी पैमाने पर सही साबित नहीं किया जा सकता है। वे कहते हैं - आस्थावादियों का मानस अनिवार्य तौर पर दूसरे की आस्थाओं को अपने से निम्न दर्जे का मानता है।
( लोगों के धार्मिक विश्वासों को दूसरों के प्रति नफरत में बदलने के जिस घिनौने काम में सांप्रदायिक ताकतें दिन रात लगी रहती है, प्रो. अहमद के अनुसार वह किसी भी धर्मप्राण आदमी का एक नैसर्गिक पहलू है !
भारत ही नहीं, सारी दुनिया में आस्थावादियों और जनतंत्रवादियों तथा क्रांतिकारियों के संबंधों का विशाल इतिहास है। और तो और, गांधी, रवीन्द्रनाथ आदि के स्मरण मात्र से इस प्रकार के निष्कर्षें की अयथार्थता जाहिर हो जाती है। )

इसके बाद प्रो. अहमद भारतीय राज्य के बारे में पैरी एंडरसन की एक और इतनी ही विवादास्पद टिप्पणी को उद्धृत करते हैं - ‘‘भारतीय राज्य एक हिंदू सांप्रदायिक राज्य है, जो धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल खुद को न्यायोचित करार देने की विचारधारा के तौर पर करता है।’’

एजाज अहमद को आस्थावादियों और भारतीय राज्य के बारे में कही गयी इन बातों की असंगतियों का किंचित अहसास होने के कारण ही वे तत्काल इन पर लीपापोती करने के लिये इतना जोड़ देते हैं कि ‘‘ गांधी और नेहरू के हिंदूवाद और आरएसएस के हिंदुत्व में सिर्फ डिग्री का फर्क बताना बेतुकापन है।’’

फिर भी, आगे वे भारतीय राज्य को हिंदू राज्य इसलिये मानने की बात करते हैं क्योंकि उसके लिये सांप्रदायिकता का प्रश्न महज एक कानून-व्यवस्था का प्रश्न होता है, उससे इतर और कुछ नहीं।

इसके बाद एजाज अहमद Secularism का मूल अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि ‘‘यह एक आधुनिक सद्गुण (virtue) है, यूरोपीय सद्गुण है।’’ इसी रौ में वे मार्क्सवाद को भी अपने मूलरूप में एक यूरोपीय सद्गुण कह डालते हैं।

इस आधार पर आगे उनका तर्क कुछ इसप्रकार चलता है कि जो आधुनिक नहीं होंगे, जो पिछड़ापन लिये होंगे, उनके पास Secularism भला कैसे होगा!

वे भारतीय राज्य और अनाधुनिकता तथा पिछड़ेपन को कुछ इसप्रकार पेश करते हैं, मानो यह महज कोई चयन का प्रश्न हो!  यूरोप ने आधुनिकता को चुना और भारत ने पिछड़ेपन को ! इन स्थितियों के पीछे अनेक ऐतिहासिक-सामाजिक और आर्थिक कारण होते हैं, प्रो. अहमद के लेखन से इस बात की रत्ती भर झलक भी नहीं मिलती।

Communalism  और Secularism के बारे में इस प्रकार के एक अनोखे भाषाशास्त्रीय और अनैतिहासिक विवेचन के बाद प्रो. अहमद अपने पसंदीदा विषय ‘राष्ट्रवाद’ पर आजाते हैं। इस विषय में उन्होंने पहले भी अपने एकाधिक लेखों में विस्तार से लिखा है। उन्हीं पहले की बातों को दोहराते हुए वे बताते हैं - राष्ट्रवाद का कोई वर्गीय रूप नहीं होता। पूंजीवादी जनतंत्रवादी, फासीवादी, और समाजवादी सभी इसका अपने-अपने तरीके से उपयोग करते रहे हैं।

इस बारे में भी हमारा मानना है कि प्रो. अहमद इतिहास में राष्ट्रवाद के उद्भव के पीछे के सामाजिक-आर्थिक पक्षों को अनदेखा करते हुए इसे विचार की एक शुद्ध सांस्कृतिक श्रेणी (category) के रूप में देखते हैं और इसके सामाजिक-आर्थिक निहितार्थों को देखने से इंकार करते हैं। यहां तक कि वे nation state के साथ भी राष्ट्रवाद को जोड़ कर देखने की तोहमत नहीं उठाते। इसीलिये जनतंत्रवादियों, फासीवादियों और समाजवादियों द्वारा भी राष्ट्रवाद के प्रयोग के पीछे काम कर रहे ऐतिहासिक-आर्थिक पक्षों की अवहेलना करते हुए वे इसे महज प्रचार का एक सांस्कृतिक जुमला भर मानते हैं।

इसके बाद, प्रो. अहमद जिस विचार सरणी में प्रवेश कर जाते हैं, वह बेहद चौंकाने वाली और काफी हद तक कान को खड़ा कर देने वाली है। राष्ट्रवाद को एक वर्ग-विहीन श्रेणी में तब्दील करके वे यह दलील देते हैं कि इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि क्यों नहीं भारत के बहुसंख्यक हिंदू हिंदुत्व और भारतीयता को एक नहीं मानेंगे? उनके शब्दों में :

“ I see no reason why an urban, upper caste, middle class, socially conservative Hindu would not be spontaneously oriented towards accepting the Hindutva proposition that what is unique about India and therefore its defining feature among nations is that the great majority of its citizens are Hindu and Hindu culture must therfore be accepted as a national culture.”

आरएसएस का निखालिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। जिसे प्रो. अहमद बिल्कुल स्वाभाविक और ‘‘कोई कारण नहीं है कि विश्वास न किया जाए‘‘ बता रहे हैं, आरएसएस की विचारधारा का तो पूरा महल इसी ‘निर्विवाद’ सच की बुनियाद पर खड़ा है !

इस बारे में प्रो. अहमद ने अपने लेख में और भी कई बातें लिखी है और मजे की बात है कि वे सभी संघी विचारकों की बातों की पुनरावृत्ति जैसी प्रतीत होती है।

भारत में आरएसएस के कामों का विश्लेषण करते हुए अपने चिर-परिचित अंदाज में एजाज अहमद यहां भी ग्राम्शी के एक जुमले का छौंक की तरह इस्तेमाल करते है। कहते हैं, उनका (आरएसएस का) काम ग्राम्शी के ‘War of Position’ की तरह का रहा है।

ग्राम्शी ने अपनी प्रिजन नोटबुक में रोजा लुक्जेमबर्ग के व्यापक हड़ताल के जरिये एक झटके में क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा कर लेने के सोच का विरोध करते हुए ‘War of Movement’ और  ‘War of Position’ की तरह के सामरिक पदों का इस्तेमाल किया था। इसमें ग्राम्शी कहते हैं कि ‘‘1917 में रूस में राजसत्ता पर सीधे आक्रमण की कार्रवाई इसलिये सफल हो पायी थी क्योंकि वहां सिर्फ राज्य ही राज्य था, नागरिक समाज अभी अजन्मा या शैशव में था।’’ इसके विपरीत, ग्राम्शी मानते थे, पश्चिम में ‘‘राज्य सिर्फ एक बाहरी खोल है, जिसके अंदर एक मजबूत नागरिक समाज काम कर रहा है।’’

इसी संदर्भ में ग्राम्शी ने इस बात पर बल दिया कि सीधे आक्रमण की सैनिक रणनीति (War of Movement)) के बजाय भीतर में अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करने (War of Position) की रणनीति पश्चिमी देशों के लिये जरूरी है।

इस बात से जाहिर है कि ग्राम्शी पश्चिम में एक व्यापक नागरिक समाज देख रहे थे और उसमें अपना स्थान बनाने के लिये War of Position  की बात कर रहे थे। लेकिन प्रो. एजाज अहमद भारत में तो ऐसे किसी नागरिक समाज की उपस्थिति को ही नहीं मानते, क्योंकि यह तो कहीं न कहीं से आधुनिकता से जुड़ी हुई बात है। उनकी तो मान्यता है कि भारत का समाज सांप्रदायिकता के विषाणुओं से ग्रसित एक पिछड़ा हुआ समाज है।

हमारा प्रश्न यह है कि जब वामपंथ के अलावा और सभी ताकतें सांप्रदायिकता के रोग में फंसी रही हैं, तब आरएसएस को किसी भी war of poaition की क्या जरूरत थी !

इसी लेख में वे खुद आजादी के बाद के भारत की राजनीति के तीन अलग-अलग युगों का उल्लेख करते हैं। 1947 से 1962 का, 1962 से 1975 तक का और फिर 1989 से अब तक का। वे नेहरू युग, इन्दिरा युग, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, जेपी आंदोलन आदि की बात करते है, और इन दौर में भारत के वामपंथी और सोशलिस्ट विपक्ष की एक महती भूमिका का भी जिक्र करते है। बताते है कि कैसे वामपंथी विपक्ष के चलते आरएसएस आजादी के बाद के लगभग चालीस सालों तक उस प्रकार नहीं फैल पाया, जैसा आज दिखाई देता है। इसके बावजूद वे भारतीय राजनीति में सिर्फ आरएसएस के war of position के इतिहास को देख पाते हैं!

वे यह नहीं देख पाते कि भारतीय जनतंत्र के विकास में वामपंथियों ने भी war of position कम नहीं चलाया और भूमि सुधार, पंचायती राज तथा सत्ता के विकेंद्रीकरण के सवालों के साथ भारतीय जनतंत्र को विकसित करने में एक अहम भूमिका अदा की, अपने प्रभाव के क्षेत्र को भी बढ़ाया। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के अध्ययन से उन्हें एक ‘मौन क्रांति’ बताते हुए एक पूरी पुस्तक लिखी है।

जो प्रो. अहमद फासीवाद को वामपंथ की विफलता का दंड बताते हैं, वे ही अपने इस लेख में इस विफलता के एक भी पहलू पर कोई चर्चा नहीं करते ! ‘वामपंथ के बरक्स दक्षिणपंथ’ को समझने की एक बुनियादी कसौटी के आधार पर खड़े किसी भी विश्लेषण में भारत में वामपंथ की अधोगति का इतिहास एक बार भी विचार का प्रश्न न बने, यह कैसे संभव है? किसी के लिये भी यह काफी गंभीरता से सोचने की बात भी है।

हमारा यह मानना है कि पिछले दो-अढ़ाई दशकों के हमारे देश के राजनीतिक इतिहास में ही दो ऐसे बड़े मौके आये, जब भारत के वामपंथ (सीपीएम) ने भारी भूलें करके वामपंथ के विकास में गुणात्मक अभिवृद्धि के मौकों को गंवा दिया। पहला मौका 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का मौका था जिसे केंद्रीय कमेटी के बहुमत से ठुकरा दिया गया। और दूसरा मौका 2006 में परमाणु संधि की तरह के एक अबूझ से प्रश्न पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिरा देने के हास्यास्पद, डॉन क्विगजोटिक राजनीतिक खेल का था। ये दोनों मौके ही वामपंथ के भारत की राजसत्ता के ताने-बाने में प्रवेश करने के मौके थे।

भारत में आरएसएस, जन संघ और भाजपा के इतिहास को देखे तो यह समझने में भूल नहीं होगी कि जिसे प्रो.अहमद war of position की संज्ञा दे रहे है, उसमें केंद्रीय राजसत्ता में उनकी पैठ ने कितनी अहम भूमिका अदा की थी। जन संघ ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार में शामिल होकर, फिर 1992 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को लगातार दबाव में रख कर और 1996 से लेकर 2002 तक लगातार छ: वर्षों तक एनडीए सरकार के जरिये वह स्थिति तैयार की है जिसमें आज भारत का संसदीय जनतंत्र एक द्विदलीय व्यवस्था की तरह का प्रतीत होने लगा है।

कहना न होगा, भारत में सांप्रदायिक ताकतों के इस उभार में यहां की जनता में जड़ें जमाये बैठे धर्म और उसका कथित पिछड़ापन उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना ऐतिहासिक तौर पर सामने आने वाले राजनीतिक अवसरों का पूरी तत्परता से इस्तेमाल करने की उनकी तैयारी का है। बाकी सब उसी प्रकार अनुषंगी है, जैसे वामपंथ के लिये अनुषंगी है सामाजिक विकास का सबसे बड़ा सत्य - वर्ग संघर्ष।

प्रो. अहमद वामपंथ की इन ऐतिहासिक भूलों को अपनी चर्चा का विषय क्यों नहीं बनाते, इसका उनका एक बड़ा निजी कारण है। इस बारे में गहराई में जाने से ही जाहिर हो जाता है कि वे खुद इन सभी मौकों पर ऐसे स्वतंत्र और प्रकांड बुद्धिजीवी की भूमिका अदा करते रहे हैं, जो अति-सक्रिय रूप में वामपंथ के इन गलत निर्णयों के पक्ष दलीलों के पहाड़ जुटाते थे। इस लेखक ने अपनी सीमित क्षमता से बार-बार उनके इन दलीलों के जंजाल को भेदने की कोशिश की है।

बहरहाल, संसदीय जनतंत्र में राजनीति प्रतिद्वंद्विता का एक ऐसा विषय है जिसमें अपने को निरंतर प्रासंगिक बनाये रखना किसी भी राजनीतिक दल के लिये जरूरी है। आज अप्रासंगिक, लेकिन भविष्य में प्रासंगिक होने का कथित ‘नैतिकतावाद’ इस राजनीति में आत्म-हनन का रास्ता होता है। War of position भी काल-स्थान से निरपेक्ष होकर नहीं लड़ा जाता। और इसमें राजसत्ता का उपादान एक सबसे प्रमुख उपादान है।

यहां अंत में हम हिटलर से संबंधित एक तथ्य की चर्चा करके अपनी बात को खत्म करेंगे।
सन् 1924 के अंत में जेल से निकलने के बाद हिटलर ने शीघ्र बावेरिया के प्रधानमंत्री और कैथोलिक बावेरियन पार्टी के नेता डा. हेनरिख हेल्ड से मुलाकात की थी। जेल में रहते हुए अपने को सुधार लेने के हिटलर के वादे के बाद नाजी पार्टी और उसके अखबार पर लगी पाबंदी को हटा लिया गया था। हेल्ड ने हिटलर से मुलाकात के बाद अपने न्याय मंत्री से कहा था कि एक जंगली जानवर पर काबू पा लिया गया है। हम उसे कुछ ढील दे सकते हैं।
इसपर ‘थर्ड राइख’ के इतिहासकार विलियम शिरर लिखते हैं कि जर्मन राजनीतिज्ञों में बावेरिया के प्रधानमंत्री वे पहले, लेकिन अंतिम नहीं, व्यक्ति थे जिन्होंने उसे समझने में घातक भूल की थी। प्रधानमंत्री से हिटलर की बैठक के उद्देश्यों के बारे में शिरर लिखते हैं :
‘‘हिटलर इस बैठक में दो उद्देश्यों से गया था। पहला नाजी पार्टी को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में लेने के लिये और दूसरा नाजी पार्टी को एक ऐसे राजनीतिक संगठन के रूप में ढालने के लिये जो पूरी तरह से संवैधानिक रास्ते से सत्ता हासिल करेगी। उसने अपने खास सहयोगी कार्ल लुडेक को जेल में ही कहा था, ‘जब मैं फिर से काम शुरू करूंगा, एक नई नीति अपनाना जरूरी होगा। सशस्त्र विद्रोह के जरिये सत्ता हासिल करने के बजाय हमें अपनी नाक बंद करके कैथोलिक और मार्क्सवादी डिप्टियों के विरुद्ध राइखस्टाग (जर्मन पार्लियामेंट) में जाना होगा। उन्हें गोलियों से भुनने के बजाय वोट से गिराने में ज्यादा समय लगे, तब भी उस परिणाम को कम से कम उन्हीं के संविधान की स्वीकृति तो होगी। कोई भी कानूनी रास्ता धीमा होता है - देर-सबेर हमारा बहुमत होगा, और उसके बाद जर्मनी हमारा होगा।‘‘
प्रो. अहमद war of position की बात करते हैं, लेकिन भारत के संदर्भ में इसका एक भी उदाहरण नहीं देते कि कैसे war of position में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये तमाम प्रकार के उपादानों का प्रयोग किया जाता है। उसमें राजसत्ता के उपादान का प्रयोग कितना निर्णायक होता है, हिटलर के उपरोक्त उदाहरण से साफ है। जर्मन राष्ट्र को अपनी गिरफ्त में लेने में हिटलर की सहायता के लिये वहां धर्म की जकड़बंदी या किसी प्रकार का पिछड़ापन सामने नहीं आया था। वह ‘जर्मन श्रेष्ठता’ के नारे के साथ आगे बढ़ा था, जैसे आज मोदी विकास-पुरुष के नारे के साथ बढ़ना चाहता है।

भारत के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को ही देखे तो यहां के कथित पिछड़ेपन पर से पर्दा उठते देर नहीं लगेगी। दो महीने पहले हमने अपनी वाल पर एक पोस्ट लगाई थी : राज्यों के पुनर्गठन के प्रश्न पर एक सवाल। इसमें कहा गया था :
‘‘कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब भारतवर्ष या अखंड भारत महज एक विचार, Idea अथवा अवधारणा था। लेकिन आज का भारत एक सच है, कोरा विचार नहीं। आजादी के बाद के इन तमाम वर्षों में प्रादेशिकता, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि से जुड़े तनावों के कई-कई दौर को देखने के बाद इस सच को आज और भी ज्यादा निश्चय के साथ कहा जा सकता है। भारतीय राष्ट्रीयता के सच के तले नाना राष्ट्रीयताओं (जातियताओं) , उप-राष्ट्रीयताओं के सच यथार्थ के बजाय महज विचार में तब्दील होते दिखाई दे रहे हैं। किसी समय अखंड भारत का विचार नाना जातियताओं-उपजातियताओं के ठोस खंभों पर टिका दिखाई देता था। देखते-देखते नजारा उलट सा गया है। आज तो भारतीय राष्ट्रीयता के विशाल और ठोस आधार पर तमाम जातियों-उपजातियों के वैचारिक-सांस्कृतिक महल खड़े दिखाई देते हैं। यह विगत तमाम वर्षों में संचार के व्यापक विस्तार और देश के कोने-कोने में लोगों की जीवन पद्धति में आये खास प्रकार के, और लगभग एक से परिवर्तनों की देन है। ऐसे में राज्यों के गठन-पुनर्गठन के लिये जातियों-उपजातियों का मानदंड कितना उपयोगी रह गया है, यह विचार का विषय है।’’
कहने का तात्पर्य यही है कि धरती पुत्रों, जात-पात-भाषा-संप्रदाय की राजनीति के तमाम नग्न खेलों के बावजूद शुद्ध आर्थिक कारणों से ही आज भारत की एकता और अखंडता पहले के किसी भी समय से कहीं ज्यादा मजबूत है। इसीलिये आधुनिकता या secularism कितने ही यूरोपीय सद्गुण क्यों न हो, किसी भी दुर्वासा के इस श्राप को नहीं माना जा सकता कि भारत की धरती पर इनके बिरवे कभी पनप ही नहीं सकते।

इसीप्रकार, माक्र्सवाद भी ‘अपने मूल में’ कितना ही ‘यूरोपीय सद्गुण’ क्यों न कहलाये, उसकी सर्वदेशिक सचाई से इतनी सहजता से इंकार नहीं किया जा सकता।

दरअसल, माक्र्सवाद की बुनियादी स्थापना कि किसी भी ऐतिहासिक परिघटना का अंतिम सच अर्थनीति के जरिये निर्धारित होता है, इसकी अवहेलना करके शुद्ध विचारधारात्मक अर्थात आत्मिक और सांस्कृतिक विषयों को इतिहास की चालिका शक्ति मान कर उसके आधार पर एक पूरा नया मानव संसार खड़ा करना सभी संस्कृतिवादियों की असाध्य बीमारी है। कथित ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ भी इससे समान रूप से ग्रसित है।

संस्कृति चर्चा करने वालों के एक बड़े हिस्से ने व्यतीत पर चिंता या रूदन को ही संस्कृति चर्चा का पर्याय बना रखा है। उनकी नजर में भौतिक जीवन की तरह ही आत्मिक जीवन भी पूरी तरह स्वायत्त है। और, इसीलिये वस्तुगत जीवन में परंपरा और विकास के पक्षों से आंख मूंद कर वे शुद्ध आत्मिक जीवन की कथित परंपरा और विकास के स्वायत्त संसार में उलझ कर रह जाते हैं। और परिणाम यह होता है कि जीवन कहीं और भाग रहा है, और इनका ‘संस्कृति विमर्श’ भौतिक जीवन के सच से पूरी तरह अनजान किसी और ही ‘ज्ञान चर्चा’ में निमज्जित रहता है। जीवन के यथार्थ से दूर ऐसी ज्ञान चर्चा अक्सर पोंगापंथी और संरक्षणवादी चर्चा में पर्यवसित होती है।

इसीलिये आधुनिक ज्ञान की किसी भी चर्चा अथवा परंपरा में संशय को लगभग एक प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है। किसी भी समय तक के अर्जित ज्ञान और मूल्यों को चुनौती देने वाले संशय का एकमात्र स्रोत है भौतिक जीवन, उसमें लगातार घट रहा परिवर्तन और इस जीवन के परिवर्तनों का संज्ञान कराने वाला आधुनिक सामाजिक, वैज्ञानिक और भौतिकवादी दार्शनिक अध्ययन। और ‘संस्कृतिवादी’ इसी की सबसे ज्यादा अवहेलना करते हैं।

आज भारत में फिर एक बार एक महत्वपूर्ण चुनाव की शतरंज बिछ चुकी है। यह समय राजनीतिज्ञों के लिये अपने सही मोहरों को चलाने पर खुद को केंन्द्रित करने का समय है। यह समय प्रो. एजाज अहमद की तरह के दूर की कौड़ी खोज कर लाने वाले बुद्धिजीवियों की तर्ज पर ‘नव-उदारवाद के विरोधियों’ की खोज अर्थात विशाल और गहरे समुद्र में गोताखोरी करके मोतियों की तलाश में रमने का नहीं है। भारतीय वामपंथ ने पहले भी, कई महत्वपूर्ण मौकों पर अपनी ब्रह्म-साधना में लीन होकर समय को हाथ से गुजरने जाने के कम उदाहरण पेश नहीं किये हैं !

अंत में हम फिर यहां, प्रो. एजाज अहमद की राय के बिल्कुल उल्टे, इस टिप्पणी के शुरू में उद्धृत प्रश्न को ही दोहरायेंगे :

‘‘सवाल यह है कि क्या भारत के आगामी लोकसभा चुनाव में नव-उदारवाद स्वयं में चुनावी लड़ाई का मुद्दा बन सकता है ? यह एक गंभीर मसला है। समसामयिक राजनीति के क्षेत्र से जुड़ा एक बड़ा यथार्थवादी मसला।
‘‘वामपंथ को अपना चुनावी एजेंडा तैयार करने के पहले इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अधिक ठोस, समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित होने की जरूरत है। नव-उदारवाद का विकल्प तो समाजवाद है, जो इस चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता।’’



1. अतीत के जिन्नों को बुलाने का स्वपन दासगुप्त का आह्वान

अभी चंद दिन पहले ही वियतनाम के संदर्भ में अपनी एक संस्मराणत्मक टिप्पणी में हमने ‘Close the history with respect’ की बात कही थी।


‘टेलिग्राफ’ के 25 अक्तूबर 2013 के अंक में ठीक इसके विपरीत दृष्टिकोण का स्वपन दासगुप्ता का लेख छपा : ‘Dangers of buried stories’ (दफना दी गयी कहानियों के खतरें)।


इसमें श्रीमान दासगुप्त बांग्लादेश से शुरू करते हैं कि वहां की मौजूदा सरकार मुक्ति युद्ध में भाग लेने वाले कतिपय प्रमुख भारतीयों का सम्मान करना चाहती थी। इसके लिये उन्होंने कुछ लोगों की सिनाख्त की, लेकिन भारत का सरकारी प्रतिष्ठान ऐसी उदासीनता और ‘स्मृति भ्रंश’ का शिकार है कि वह उनमें से कई लोगों की खोज तक नहीं कर पाया।


इसी प्रसंग में दासगुप्ता आगे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, इंदिरागांधी और उनके प्रमुख सचिव पी.एन.हक्सर तथा 1971 के समय के भारत के विदेश सचिव टी.एन.कौल के कागजातों के आधार पर तैयार की गयी गैरी जे.बास की किताब ‘The blood telegram : India’s secret war in east Pakistan’ का जिक्र करते हैं जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह याह्या खान के जघन्य हिंदू-विरोधी दृष्टिकोण और पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाये गये हिंदुओं के सफाये के अभियान का आख्यान है।


दासगुप्ता का कहना है कि पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान कभी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है। ‘‘अयूब खान का विश्वास था कि एक पाकिस्तानी सैनिक 20 हिंदू सैनिकों के बराबर है।’’ वे हमेशा से हिंदुओं को निम्न और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथी पाले हुए हैं।


ठीक इसके विपरीत, दासगुप्त का ही कहना है, भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम आधार पर विभाजित न होने देने का भरसक प्रयास किया। आज भी वह नहीं चाहता कि पाकिस्तान को मिले 1971 के जख्मों को कुरेदा जाय।


‘‘इन्दिरा गांधी और पी.एन.हक्सर हमेशा मानते थे कि पाकिस्तान को ढाका-विध्वंस से किंचित आत्म सम्मान के साथ उबरने दिया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के प्रति नजरिये पर भी विभाजन-पूर्व की पुरानी यादें छायी हुई हैं। तब से अब तक भारत ने सभ्यता और बेहतरीन अर्थ-व्यवस्था के लोभ के आधार पर पाकिस्तान से पड़ौसी के संबंध विकसित करने की कोशिश की है।’’


लेकिन, दासगुप्ता की शिकायत है - ‘‘ इतिहास ने हर बार पलट वार किया है। ’’


इसी आधार पर वे मांग करते हैं - ‘‘ पाकिस्तान से संबंध के मामले में भारत प्रतिष्ठानिक स्मृतियों को भुला नहीं सकता है। हम भले बदल गये हो, अधिक सर्वदेशीय (cosmopolitan) हो गये हो, अधिक वैश्विक और अधिक राष्ट्रोत्तर हो गये हो। फिर भी, रेडक्लिफ रेखा के पार 1971 की मानसिकता कायम है और प्रतिशोध का सपना देख रही है। ’’


आज भारत में चुनाव के माहौल और साथ ही सीमा पर चल रही कुछ झड़पों के समय स्वपन दासगुप्त की भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों को यह चेतावनी राजनीतिक लिहाज से बेहद उद्देश्यपूर्ण है।


आरएसएस के बारे में अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए.कुर्रान जूनियर ने साठ साल पहले लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। ये जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस की स्थिति मजबूत होगी और इनमें जितना सुधार होगा, आरएसएस कमजोर होता जायेगा।


यही बात सीमा पार के कट्टरपंथियों और आतंकवादियों पर भी लागू होती है। भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों का उभार उनके भी अस्तित्व और विकास से अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ है।


कहना न होगा, ‘दफना दी गयी कहानियों के खतरों’ से स्वपन दासगुप्त का तात्पर्य कुछ भी क्यों न हो, ये वे गड़े मुर्दें हैं, जिनसे हमारे वर्तमान के अस्तित्व को हिला देने वाले जिन्नों के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता।


पुन: दोहराना चाहूंगा - Close the history with respect ।


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