शनिवार, 30 जनवरी 2016

कृत्रिम बुद्धि के युग में अर्थशास्त्र

- अरुण माहेश्वरी
( चतुर्दिक श्रृंखला - 3, प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक की भूमिका )


जब यथार्थ एक प्रकार के स्थायी अवशेष सा दिखाई देने लगता है, जब सामाजिक संबंधों में परिवर्तन की प्रक्रिया लगभग अचल जान पड़ती है, तब तकनीक ही वह पथ है जिससे आधुनिक समय में गतिशील यथार्थ ख़ुद को हमारे सामने व्यक्त करता है । आज भले ही पूँजीवाद का कोई ठोस विकल्प क्षितिज पर  न दिखाई दे रहा हो, लेकिन कोई यह भी नहीं कह सकता कि जीवन पूरी तरह से ठहर गया है । उल्टे, आज जीवन की परिस्थितियां इतनी तेज़ी से बदलती दिखाई दे रही है कि बिना किसी सामाजिक क्रांति के ही जैसे चौतरफा कोई भूचाल आया हुआ है । चीज़ें जिस गति से बदल रही है, इसका आसानी से अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है । सिलिकन वैली का एक बादशाह विनोद खोसला कहता है  कि आगे विचारशील मशीन, कृत्रिम बुद्धि की तकनीकी क्रांति का सबसे गहरा असर सीधे आदमी की विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमता पर पड़ेगा ।

वह यहाँ तक कहता है कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी। ऐसे में उसका मानना है कि "प्रचुरता और आमदनी में बढ़ती हुई विषमता के युग में हमें पूंजीवाद के एक ऐसे नये संस्करण की जरूरत पड़ सकती है जो सिर्फ अधिक से अधिक दक्षता के साथ उत्पादन पर केन्द्रित न रह कर पूंजीवाद के अन्य अवांछित सामाजिक परिणामों से समाज को बचाने के काम पर केंद्रित होगा।"

'पूँजीवाद का नया संस्करण' जो 'पूँजीवाद के अवांछित सामाजिक परिणामों से बचाने पर केंद्रित होगा' ! सुनने में कैसा लगता है ! ऐसा पूँजीवाद जो पूँजीवाद का प्रतिकार हो ! अर्थात पूँजीवाद न हो !


उसकी राय में कोई भी आर्थिक सिद्धांत बेकार साबित होगा यदि उसमें अतीत की तकनीकी क्रांतियों और इन नयी विचारशील मशीनी तकनीक के बीच के फर्क की समझ नहीं होगी। वे इसे एक ऐसा घुमावदार मोड़ बता रहे है जब मार्क्स की शब्दावली में, इतिहास की गाड़ी पर सवार बुद्धिजीवी झटका खाकर औंधे मुँह गिर जाते हैं । अब तक जिन ऐतिहासिक अनुभव को अवलंब बना कर सिद्धांतों की रचना की जाती रही है, वे अनुभव और सिद्धांत भविष्य के लिये वैध साबित नहीं होंगे । एक नये कार्य-कारण संबंध से पुराने, ऐतिहासिक परस्पर-संबंध टूट सकते हैं। जो लोग कमप्यूटरीकरण से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव का हिसाब-किताब किया करते हैं, और अब भी कर रहे हैं, वे इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि आगे तकनीक क्या रूप लेने वाली है और उनके सारे अनुमान अतीत के अनेक 'सत्यों' की तरह झूठे साबित हो सकते है ।


आज अर्थ जगत में 'स्टार्टअप्स' का बोलबाला है । कहा जा सकता है - विश्व पूँजीवाद की अभी की एक सबसे रोमांचक उत्पत्ति । यह अर्थ-व्यवस्था में एक प्रकार की नयी जेनेटिक इंजीनियरिंग अथवा जेनेटिक रिपेयरिंग के तत्वों की स्थापना है । असंख्य छोटी-छोटी आर्थिक प्रयोगशालाएँ । इंटरनेट के साथ आई संपर्क और संचार की नई तकनीक के प्रयोग की संभावनाओं की प्रयोगशालाएँ ! हाथ में स्मार्ट फोन लिये एक नये प्रकार के मनुष्य को केंद्र में रख कर विकसित की जा रही नई अर्थ-व्यवस्था की प्रयोगशालाएं । सचमुच, इन पर उद्योगों और वाणिज्य के सामान्य नियमों को लागू करके देखने पर इन्हें पूरी तरह से समझना मुश्किल होगा ।

एंगेल्स ने कहा था कि भौतिकवाद को प्रत्येक वैज्ञानिक आविष्कार के साथ अपने रूप को बदलना होगा । भौतिकवाद के सामाजिक रूप में यह परिवर्तन स्वत:स्फूर्त होकर भी किसी न किसी रूप में निदेशित भी होता है । वैज्ञानिक खोजों के साथ ही उनके सामाजिक प्रभावों को अंजाम देने वाली इसकी अपनी अन्तर्निहित चालक शक्तियाँ भी पैदा हो जाती है । खोज जितनी बड़ी होगी, रूप में परिवर्तन की प्रक्रिया का आयतन और संभवतः गति भी उतनी व्यापक और तेज़ होगी । अमेरिका में सिलिकन वैली और गराज वर्कर्स के ज़रिये पूरे मानव जीवन के डिजिटलाइजेशन का जो काम प्रारंभ हुआ, उसी की शाखाओं, उप-शाखाओं का संजाल दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है । यही स्टार्ट्सअप का संसार है । इसकी गति को दुनिया के अर्थशास्त्री विस्फारित ऑंखों से देख रहे हैं । व्यापार के विस्तार में ऐसी गति ! यह चल नहीं सकता । हाल के 'इकोनॉमिस्ट' की तरह की रंगीन और पीली आर्थिक पत्र-पत्रिकाओं के अंकों को देख लीजिये । ये सब डाटकाम बबूले से लेकर इन नयी-नयी कंपनियों के शेयरों में उतार-चढ़ाव के क़िस्सों के साथ ही ऐसी तमाम कूपित क़िस्म की प्रतिक्रियाओं से भरी हुई दिखाई देती है ।


लेकिन हमें तो इन प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे कोई सिरफिरा हर दिन टूट कर गिरते सितारों के नज़ारें देख कर यह कहने लगे कि सारे सितारें इसी प्रकार एक दिन टूट कर महाशून्य में विलीन हो जायेंगे और आसमान बिना सितारों का होगा ! दरअसल, यह मूलत: यथास्थितिवादियों की गुहारें भर हैं । वे इस नये विस्फोटक विस्तार में विद्रोह की गंध पाते हैं । वे इसे बेड़ियों में जकड़ कर अनुशासित करना चाहते हैं । इसमें उन्हें वर्तमान व्यवस्था के अंतिम मान लिये गये चौखटे के बाहर चले जाने का ख़तरा नज़र आने लगता है । यह शुद्ध पूँजी से पूँजी बनाने के पूँजीवादी जादू के लिये चुनौती जैसा है ।


इकोनॉमिस्ट' पत्रिका के 5-11 दिसंबर 2015 के अंक में इन स्टार्टअप्स के बूते ही तो पूँजीवाद को 'अति सक्रिय, फिर भी शांत' (Hyperactive, yet passive') कहा गया है । सक्रियता स्टार्टअप्स की और शांति पूँजीवाद में गहरे तक बैठ चुकी मंदी और गतिरोध के संकट की । अन्यथा, पूँजीवाद में 'शांति' का क्या काम !

हम यह इसलिये कह रहे है क्योंकि स्टार्टअप्स सिर्फ व्यवसाय नहीं है । इसके मूल में स्मार्ट फोन वाला एक नया आदमी है, उसकी उद्यमशीलता है । इससे व्यापार के साम्राज्य पैदा हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं । लेकिन ये मानव जीवन में एक बड़ा परिवर्तन ज़रूर ला रहे हैं । ग़ौर करने की बात यह है कि इनके साथ पूँजीवाद का भविष्य जुड़ गया है, जिसके संदर्भ में मार्क्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र कहता है कि पूँजीपति उत्पादन के साधनों के निरंतर क्रांतिकरण के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता है । इसीलिये हम इन्हें संकटग्रस्त पूँजीवाद की जेनेटिक रिपेयरिंग के तत्व के रूप में देखते हैं । गौर करने की बात यह होगी कि इन नये जीन्स के प्रवेश से पूंजीवाद का रूप क्या और कैसा हो जायेगा, यह सवाल अब तक भविष्य के गर्भ में ही है, जिसका संकेत विनोद खोसला की उलझनों में दिखाई देता है ।


बहरहाल, स्टार्टअप्स में निमज्जित नौजवानों का एक अत्यंत विकसित और सफल रूप स्टीव ज़ाब्स या जुकरबर्ग है । ज़ाब्स कहता था कि हम नहीं जानते, दुनिया क्या चाहती है । हम क्या चाहते हैं, उसे हम जानते हैं । यह स्टीव ज़ाब्स नहीं, उसकी ज़ुबान से कम्प्यूटर, स्मार्ट फोन और इंटरनेट की सम्मिलित शक्ति बोल रही थी । ऐसी ज़ुबान में एक कोरा व्यवसायी नहीं बोल सकता, जो अक्सर बाज़ार की माँग/ ज़रूरत का हवाला देता है । ऐसी बातें कि हम यह चाहते हैं, और लोगों को मंज़ूर हो तो अपनायें अन्यथा अस्वीकार कर दें, अग्रदूत बोला करते हैं । सिलिकन वैली का बादशाह, विनोद खोसला जब कृत्रिम ज्ञान के क्षेत्र में चल रहे अभावनीय प्रयोगों के आधार पर भविष्य में राज्य और पूँजीपतियों की भूमिका की समाप्ति की बात कहता है तभी स्टार्टअप्स की चौतरफ़ा फैली टुकड़ियों में पनप रही विद्रोही वैकल्पिक अर्थनीति के तत्वों की पहचान भी की जा सकती है ।


स्टार्टअप्स के उठने-गिरने की हर रोज़ की कहानियों के बावजूद यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि मानव श्रम की इन प्रयोगशालाओं का शायद ही कभी कोई अंत होगा ।  ऐसे तमाम तथ्यों की रोशनी में खोसला कहते है कि वे पूंजीवाद के कट्टर समर्थक है और इसी नाते वे साफ शब्दों में कहते हैं कि आज जो कुछ चल रहा है, उसे अबाध गति से और भी तेजी के साथ चलने दिया जाना चाहिए। खोसला की ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका के ब्लाग पर जारी की गई इस पोस्ट पर अपने ब्लाग 'चतुर्दिक' में हमने एक टिप्पणी की थी। उसमें हमने श्रम का कोई मूल्य न रह जाने वाले उनके कथन के पहलू पर यह बुनियादी सवाल उठाया था कि यदि किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य नहीं रहता है, तो फिर पूँजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा ? श्रमिक और पूँजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है । यदि पूँजीपति की भूमिका उत्पादन के काम में ख़त्म हो जाती है तो श्रमिक की तरह ही उसके अस्तित्व का भी कोई कारण बचा नहीं रह जाता है। अगर कुछ बचा रह जाता है, तो वह है, राज्य की भूमिका । और समाज में वर्गीय अन्तर्विरोधों के अंत का अर्थ है राज्य के वर्गीय चरित्र का भी लोप, वस्तुतः राज्य का लोप । तब हमने पूछा था, क्या सचमुच, एक शोषण-विहीन, राज्य-विहीन समाज के निर्माण का मार्क्स का यूटोपिया आदमी की जद के इतना क़रीब है ?


जीवन के दूसरे विषयों की तरह ही अर्थ-व्यवस्था के विषयों को भी हमेशा पूरी तरह से स्याह-सफेद रंगों में नहीं समझा जा सकता है । हम समझते हैं कि अर्थ-व्यवस्था में भी हमेशा एक प्रकार की तरलता बनी रहती है । कितने प्रकार के स्वार्थ एक साथ काम करते हैं, उनकी पूरी गणना भी नहीं की जा सकती । इसीलिये जो लोग राजनीति और संस्कृति के तमाम विषयों को अर्थ-व्यवस्था की हलचलों से जोड़ कर व्याख्यायित करने का उतावलापन दिखाते हैं, हमें लगता हैं, वें कोरी लफ़्फ़ाज़ी, कुछ जड़सूत्रों की तोता-रटंत के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे होते हैं । उनकी राजनीति और अर्थनीति, दोनों की समझ छिछली होती है ।


अर्थनीति से जुड़ी ऐसी ही तमाम आशंकाओं और संभावनाओं के विषय पर समय-समय पर किये गये हमारे लेखन को 'चतुर्दिक श्रृंखला' के इस तीसरे खंड में संकलित किया गया है । हम नहीं जानते, आज के समय में अर्थनीति संबंधी विमर्श में इस लेखन को कितना अपनाया जायेगा । अर्थनीति विषयक हमारे लेखन का एक ऐसा संकलन तैयार करने के लिये अनामिका प्रकाशन के पंकज शर्मा आंतरिक आभार के पात्र है ।



दिसंबर 2015            

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