शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

इंद्रनाथ बंदोपाध्याय नहीं रहे



इंद्रनाथ बंदोपाध्याय नहीं रहे। 21 मार्च 2016 की बात है। तब हम इलाहाबाद और दिल्ली की यात्रा पर थे। खबर मिलने का कोई जरिया नहीं था। दो दिन बाद, फेसबुक पर मित्र ओम पारीक ने अपनी वाल पर उनकी मृत्यु की खबर लगाई थी। हमने तत्काल उनसे कुछ और विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की। फिर ‘गणशक्ति’ के वेबसाइट से इसकी पक्की जानकारी मिली। अच्छे-भले इन्द्रो दा को एक दिन पहले ही शाम को दिल का दौरा पड़ा और दूसरे दिन सुबह अस्पताल में ही वे चल बसे।

इसी 17 मार्च को इलाहाबाद के लिये ट्रेन पकड़ने के एक दिन पहले ही हमारी उनसे फोन पर बात हुई थी। चंद रोज पहले उनके चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी लगी थी। इस प्रदर्शनी के लिये वे हमारे घर से अपने उन चित्रों को भी ले गये थे जिन्हें हमने सालों पहले उनसे प्राप्त किया था। प्रदर्शनी के खत्म होने के बाद, 16 मार्च को उन्होंने एक नये फ्रेम में जड़ कर उन चित्रों को हमें लौटाया था।

बहरहाल, इन्द्रो दा को सिर्फ निजी प्रसंगों में याद करना किसी भी मायने में उचित नहीं है। वे, एक पूरे काल के शानदार सांस्कृतिक आंदोलन के प्रतीक, पूरी तरह से सार्वजनिक व्यक्तित्व थे। सन् ‘71 और ‘72 के बाद, पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में एक भयानक अद्‍​र्ध-फासिस्ट शासन की स्थापना हुई थी। ‘72 से ‘77 तक के इस दमनकारी शासन के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध का जो आंदोलन तैयार हुआ था, इन्द्रो दा उसके एक केंद्रीय नेतृत्वकारी व्यक्ति थे। वामपंथी पार्टियों के दूसरे सांस्कृतिक जन-संगठन पहले से ही काम कर रहे थे। लेकिन अद्‍​र्ध-फासिस्ट शासन की उन खास परिस्थितियों ने जिस एक नये सांस्कृतिक संगठन को जन्म दिया, उसका नाम था ‘पश्चिमबंग गणतांत्रिक लेखक शिल्पी कलाकुशल संघ’- जनतंत्र की रक्षा के एकमात्र विषय पर केंद्रित पश्चिम बंगाल के संस्कृतिकर्मियों के एकजुट प्रतिरोध का व्यापक संगठन। और इस संगठन के सर्वप्रमुख व्यक्ति के रूप में पूरे पश्चिम बंगाल में जिस एक व्यक्ति की पहचान बनी थी, वे थे इन्द्रनाथ बंदोपाध्याय।

भले ही इस संगठन की नींव 1971 में ही डाल दी गयी थी। लेकिन 1975 में जब इंद्रनाथ बंदोपाध्याय ने महासचिव के रूप में इसकी कमान सम्हाली, तब से लेकर सन् 2014 तक, जब तक वे इस पद पर बने रहे, इन्द्रो दा और यह संगठन लगभग एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखे जाते रहे। संगठन के नाम से जाहिर सांस्कृतिक जगत के बहुमुखी स्वरूप के अनुरूप ही इन्द्रो दा भी एक प्रभावशाली लेखक, चित्रकार, कलाकार, नाट्यकार, मंच सज्जाकार, स्तंभकार, गीतकार और संस्कृतिकर्मी के अलावा बेहद प्रभावशाली वक्ता के रूप में बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। और इसी वजह से इस क्षेत्र के हर कोने तक उनकी अपने व्यक्तित्व के बदौलत ही गहरी पैठ थी।

पश्चिम बंगाल के वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती के नाते इन्द्रो दा का देश भर के वामपंथी जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के साथ काफी निकट का संबंध था। सन् 1981 में जनवादी लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन से लेकर उसके कोलकाता राष्ट्रीय सम्मेलन तक, हर सम्मेलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। इन सभी सम्मेलनों के प्रतिनिधि उनके अनुभव-सिद्ध प्रेरणादायी भाषणों से प्रभावित होते थे।
एक सुदर्शन व्यक्तित्व और अच्छे स्वास्थ्य के धनी इन्द्रो दा इस प्रकार अचानक ही चले जायेंगे, यह विश्वास करना आज भी कठिन लगता है। वैसे यह सच है कि पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक आंदोलन में अपने लिये उन्होंने जिस भूमिका को अपनाया था, और जिसपर वे पूरी निष्ठा से हमेशा लगे रहे, उनका वह मिशन पहले ही पूरा हो चुका था। सन् 2014 में जब उन्होंने गणतांत्रिक लेखक शिल्पी संघ के महासचिव पद को छोड़ा, पश्चिम बंगाल में वामपंथी आंदोलन के उस दौर का पटाक्षेप हो चुका था, जिसमें उन्होंने एक खास भूमिका अदा की थी। उनके देहावसान से उस दौर के अवसान का एक प्रतीकात्मक संबंध भी जोड़ा जा सकता है।

इन्द्रो दा का न रहना हमारी निजी तौर पर एक भारी क्षति है। वे उन थोड़े से लोगों में एक थे, जिनसे हम मन खोल कर राजनीति और संस्कृति के दुनिया के नाना विषयों पर चर्चा किया करते थे, और हमारे सोच के तार भी अक्सर मिला करते थे। आज जब भारत का वामपंथी और जनतांत्रिक आंदोलन एक नई करवट लेने की तैयारी कर रहा है, ऐसे समय में इन्द्रो दा की तरह के निष्ठावान नेतृत्वकारी व्यक्तित्व की कमी हर किसी को खलेगी।
हम उनकी स्मृतियों को अपनी आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनकी पत्नी और बेटे के प्रति अपनी समवेदना प्रेषित करते हैं।

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