-अरुण माहेश्वरी
ज्यों ज्यों 2019 करीब आ रहा है, मोदी खेमे की बेचैनी बढ़ती जा रही है और बदहवासी में उसके नेता क्या करे, क्या न करे की सोच में सारे उत्पात एक साथ कर डालने के लिये मचलने लगे हैं । लिंचिंग का काम बदस्तूर जारी है, विपक्ष को डराने-धमकाने और संवैधानिक संस्थाओं पर जकड़बंदी बढ़ाने की कोशिशें भी बढ़ी है और मोदी-शाह-योगी आदि ताबड़तोड़ आडंबरपूर्ण सभा-सम्मेलनों में मत्त हो गये हैं । खुद बीजेपी के खजाने में मोदी की बदौलत हजारों करोड़ रुपये जमा होने पर भी पार्टी के कामों के लिये सरकारी पैसों को खर्च करने में इन्हें जरा भी हिचक नहीं है । ऊपर से समय के पहले आम चुनाव कराने या केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने की तरह के उद्भट विचारों के शोशों से भी नाना प्रकार के भ्रमों से अखबारों की सुर्खियां बटोरते रहने का उनका अभियान लगा ही रहता है ।
इनकी धमा-चौकड़ियों की तुलना में विपक्ष ज्यादा धीर-स्थिर गति से संसदीय और गैर-संसदीय मंचों से आम लोगों को लगातार सचाई से वाकिफ करा रहा है और क्रमश जगह-जगह: अपनी चौकियां तैयार कर रहा है । बदहाल जनता की बेचैनी विपक्ष की एकता का एक स्वत:स्फूर्त आधार तैयार कर रही है । उसकी गतिविधियां थोथे भ्रमों को तैयार करने के बजाय कहीं ज्यादा जन और समस्या-केंद्रित है ।
भाजपाई उन्माद के भव्य प्रदर्शनों की तुलना में विपक्ष के दलों की विकेंद्रित, संतुलित और जन-भावनाओं की संगति में स्थिर रणनीति को हमारे बहुत से मित्र सही रूप में देख नहीं पा रहे हैं । उन्हें उपचुनावों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार तक में भाजपा और उसके सहयोगियों की करारी पराजयों का सच जितना दिखाई नहीं देता है, उससे बहुत अधिक गोरक्षकों की गुंडई और मोदी-योगी के भव्य और प्रायोजित सरकारी कार्यक्रम दिखाई देते हैं ।
जो सबसे बड़ा सवाल उठाया जाता है, वह है ‘आंदोलन’ का । पूछा जा रहा है कि विपक्ष का आंदोलन कहां है ?
दरअसल, आंदोलनों का स्वरूप आम तौर पर राजनीतिक दल नहीं, उनमें शामिल जनता और उसकी कामनाएं तय करती है । जब भी जनता की चेतना से आगे बढ़ कर राजनीतिक दल उनमें ज्यादा दखलंदाजी करने लगते हैं, आंदोलन जनता को छोड़ कर कहीं और ही चलने लगते हैं ।
जिसे आप यथार्थ कहते हैं, हमारे शास्त्र उसे ही मिथ्या और भ्रम बताते हैं । मोदी-शाह के आडंबरपूर्ण कार्यक्रमों के मिथ्यात्व को इससे भी समझा जा सकता है । इनमें जनता की अपनी कामनाओं और स्वप्नों का कोई स्थान नहीं है जबकि यथार्थ का असली बोध उसकी स्वप्न-चेतना से ही जुड़ा होता है । जब आदमी जागता है, यथार्थ के रूबरू होता है, तब वह अपने सपने से ही निकल रहा होता है । अपनी क्रियाशीलता का नक्शा वह स्वप्न में ही प्राप्त करता है जो उसकी अंतर-कामनाओं से तैयार होता है । आरएसएस इसमें जबर्दस्ती हिंदुत्व को घुसाना चाहता है, जबकि भारत का आदमी अपनी जिंदगी को बेहतर करने की कामना करता है । वह आडंबर से भरे बड़बोले भ्रष्ट नेताओं को अपना दुश्मन मानता है ।
इस बात में आज कोई शक नहीं है कि पूरे भारत में मोदी के प्रति जनता में एक व्यापक मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । इसी बीच गुजरात से लेकर कर्नाटक और विभिन्न राज्यों में कई उप-चुनावों के परिणाम इसे बताने के लिये काफी है । मोदी के भ्रष्टाचार का मुद्दा भी लोगों को समझ में आने लगा है और इस विषय पर राहुल गांधी के तीखे हमलों ने उन्हें आज की राजनीति के सबसे प्रमुख और केंद्रीय स्थान पर खड़ा कर दिया है । मोदी के पास रफाल सौदे में किये गये भारी भ्रष्टाचार से जुड़े एक भी सवाल का जवाब नहीं है । इसके विपरीत, राहुल के प्रति आम लोगों में आग्रह काफी बढ़ा है । वामपंथी दलों के नेतृत्व में किसान आंदोलनों ने गांव-गांव में किसानों के बीच एक नई जागृति पैदा करना शुरू कर दिया है । और सर्वोपरि, राजनीति का हर गंभीर खिलाड़ी इस बात को अच्छी तरह से महसूस करने लगा है कि 2019 में मोदी की करारी पराजय में ही गैर-भाजपाई प्रत्येक दल का भविष्य है । उन्हें इन चार साल में मोदी के स्वैराचार के कई अनुभव हुए हैं । नीतीश की तरह के लोग अभी से मोदी से सौदेबाजी करके अपने को सुरक्षित कर लेने का भ्रम पाले हुए हैं । लेकिन हवा में आने वाली मोदी-विरोधी आंधी का जो भारीपन दिखाई देने लगा है, उस आंधी में मोदी के भरोसे वे कितना अपने को बचा पायेंगे, इसकी धुकधुकी चुनाव के अंतिम दिन तक इन लोगों में बनी रहेगी ।
सिर्फ आठ महीनों बाद ही लोक सभा के चुनाव होने वाले हैं । उसके पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान,छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधान सभा के चुनाव इसी साल के अंत में हो जायेंगे । इन चारों राज्यों में कांग्रेस की सीधी टक्कर भाजपा से होगी और सब जानते है कि चारों राज्य में ही कांग्रेस आज भाजपा से काफी बेहतर स्थिति में है । भाजपा के आडंबरों से अगर भ्रमित न हो तो कोई भी उप चुनावों की तरह ही इन चुनावों में भी कांग्रेस की सुनिश्चित जीत के आंकड़ों को इधर के रुझानों से समझ सकता है । इन राज्यों में मोदी की बुरी स्थिति का सबसे बड़ा प्रमाण एक यह भी है कि उसने इन राज्यों के पुराने नेताओं के भरोसे ही अपने को छोड़ दिया है । अगर उन्हें जीत का भरोसा होता तो वे खुद को ही सामने लाने के लिये अपने तीनों मुख्यमंत्रियों को हटा कर चुनाव में जाते ।
और कहना न होगा, यहीं से एक बच्चा भी 2019 के चुनाव के अंत तक की पूरी तस्वीर आंकने में समर्थ हो जायेगा ।
सचमुच, तब हमारी नजर आज के मीडिया पर होगी, जो भाजपा के फेके टुक्कड़ों के एवज में किस हद तक अपने को मूर्ख और अयोग्य घोषित करने के लिये तैयार होगा । चार राज्यों के आगत चुनावों के बाद, मोदी-शाह की सजी हुई बगिया सभी स्तरों पर जिस तेजी से उजड़ेगी, सचमुच वह एक दिलचस्प नजारा होगा ।
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