(‘समालोचन’ वेब साइट पर विष्णु खरे जी की स्मृति में प्रकाशित कई संस्मरणों के संदर्भ में ही उनके बारे में लिखी गई एक टिप्पणी )
-अरुण माहेश्वरी
विष्णु खरे जी को जानने-समझने का हमारे लिये कभी कोई विशेष कारण नहीं बना सिवाय आपके समालोचन में ही हमारे बारे में उनकी एक स्वभावसिद्ध गाली-गलौज वाली टिप्पणी पर हुई थोड़ी सी तिक्तता के । वैसे उनके द्वारा संपादित ‘उद्भावना’ के पाब्लो नेरुदा विशेषांक में मेरे एकाधिक लेख प्रकाशित हुए थे, लेकिन उस पूरी सामग्री को ‘उद्भावना’ के संपादक अजय कुमार मेरे से ले गये थे । विष्णु जी से कोई संपर्क नहीं हुआ था । उन्हीं दिनों नेरुदा पर मेरी किताब छप कर आई थी ।
जैसे हमें खरे जी को अधिक जानने की कोई जरूरत नहीं हुई, वैसे ही उन्हें भी शायद कभी नहीं पड़ी होगी, क्योंकि किसी भी वजह से हम उनके दरबार में कभी हाजिर नहीं हुए । लेकिन आखिरकार वे ‘विष्णु खरे’ थे - हिंदी साहित्य की दुनिया के एक खास प्रकार के अपनी मनमर्जी के मालिक । साहित्य की सरकारी संस्थाओं के कई पदों पर रहे और चंद किताबें पढ़ीं, देश-विदेश भी घूमें - बस पद और इन थोड़ी सी जानकारियों से स्वयंभू, सर्वज्ञ, इस हद तक आत्म-निष्ठ, obsessed से हो गये जिनके लिये अपने से बाहर सिर्फ एक अंधेरी खाई, संसार के अंत के बोध के अलावा कुछ नहीं होता। बाहर की दुनिया के कुल की श्रृंखला से कटा हुआ जिसकी वजह से किसी भी ‘अन्य’ के सम्मुख पड़ते ही उसकी पहली प्रतिक्रिया उससे इंकार के लिये बड़बड़ाने, बकने के अलावा और कुछ नहीं होती ! अपने इसी अहंकारवश आपके ‘समालोचन’ में हमारी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ के संदर्भ में उन्होंने जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी, हमें अनायास ही लिखना पड़ा था कि भला होता, दो-चार पेग और चढ़ा लेते तो वे आपको इस बदजुबानी से बचा लेते !
बहरहाल, उस तिक्त वार्ता ने उनके प्रति हमारी दिलचस्पी को और भी कम कर दिया । हर किसी से अपनी कामना को पूरा करने की उम्मीद करने के नाते हमने उन पर खास ध्यान नहीं दिया । जयपुर के एक आयोजन में उनके साथ ही उपस्थित रहने के बावजूद उनसे मिलने की जरूरत नहीं महसूस हुई, जैसे उनको भी नहीं हुई । समालोचन पर हुई वार्ता के पहले हम परस्पर जितने अनजान थे, बाद में भी उतने ही रह गये । मतलब उस वार्ता ने हम पर कोई असर नहीं छोड़ा । और शायद यही वजह रही कि अंबर्तो इको के उपन्यास ‘नेम आफ द रोज’ पर बनी फिल्म पर प्रभात रंजन के ‘जानकीपुल’ में उनकी एक समीक्षा पर टिप्पणी देने में न हमें कोई दिक्कत महसूस हुई और न उसका जवाब देने में उनको ।
इसी बीच विनोद भारद्वाज का उन पर एक संस्मरण पढ़ा जिसमें उन्होंने दो खास प्रसंगों पर उनकी टिप्पणियों को विस्तार से रखा था । पहला प्रसंग था एम एम कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी की अपराधपूर्ण चुप्पी के प्रतिवाद में पुरस्कार- वापसी के अभियान पर और दूसरा था महात्मा गांधी हिंदी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उपकुलपति के ‘छिनाल उवाच’ का । दोनों प्रसंगों में विनोद भारद्वाज ने उनकी लिखित टिप्पणी को उद्धृत किया था । अकादमी के पुरस्कार-वापसी प्रसंग में खरे जी की प्रतिक्रिया थी -
“अकादमी सच्चे साहित्य के विरुद्ध एक काफ़्काई, षड्यंत्रकारी, नौकरशाही दफ़्तर है। उसके चुनावों में भयानक साज़िशें होती हैं और पिछले तीस वर्षों में वह खुली आँखों से अपनों-अपनों को रेवड़ी बाँटनेवाली, स्व-पुनर्निर्वाचक, प्रगति-विरोधी संस्था बना दी गई है। स्वयं को स्वायत्त घोषित करने वाली अकादमी, जिसके देश भर से बीसियों अलग-अलग क़ाबिलियत और विचारधाराओं के सदस्य हैं, जिनमें से कुछ केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा नामज़द वरिष्ठ आईएएस स्तर के सरकारी अफ़सर भी होते हैं, जिसका एक-एक पैसा संस्कृति मंत्रालय से आता और नियंत्रित होता है, अब भी साहित्य को एक जीवंत, संघर्षमय रणक्षेत्र और लेखकों को प्रतिबद्ध, जुझारू, आपदाग्रस्त मानव मानने से इनकार करती है।
“आज जिस पतित अवस्था में वह है उसके लिए स्वयं लेखक ज़िम्मेदार हैं जो अकादमी पुरस्कार और अन्य फ़ायदों के लिए कभी चुप्पी, कभी मिलीभगत की रणनीति अख़्तियार किए रहते हैं। नाम लेने से कोई लाभ नहीं, लेकिन आज जो लोग दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं के विरोध में पुरस्कार और विभिन्न सदस्यताएँ लौटा रहे हैं, उनमें से एक वर्षों से साहित्य अकादमी पुरस्कार को 'कुत्ते की हड्डी' कहते थे। वे इसी हड्डी के लिए ललचा भी रहे थे और जिसे पाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया। उन्होंने अकादमी की कई योजनाओं से पर्याप्त पैसे कमाए सो अलग, लेकिन अपने वापसी-पत्र में लिखते हैं कि वह वर्षों से लेखकों को लेकर पीड़ित, दुखी और भयभीत रहे हैं। एक पुरस्कृत सज्जन संस्कृति मंत्रालय में अकादमी के ही प्रभारी रहे।
दूसरे कई वर्षों तक अकादमी के कारकुन रहे और उसके सर्वोच्च प्रशासकीय पद से रिटायर होने के बाद भी एक्सटेंशन चाहते रहे।.... अचानक इनका मौक़ापरस्त ज़मीर जाग उठा है। यह सारे लोग अकादमी के पतन के न सिर्फ़ गवाह हैं, बल्कि उसमें सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिबद्ध लेखक संघों और छिटपुट प्रगतिकामी लेखकों ने अकादमी की गिरावट की भर्त्सना या मुख़ालफ़त न की हो, लेकिन मीडिया के लिए एक पुरस्कार को लौटाया जाना ज़्यादा सनसनीख़ेज़ और प्रचार्य-प्रसार्य है, वह भी चंद दिनों के वास्ते। विडंबना यह है कि शायद कुछ हज़ार भारतीयों को छोड़कर न कोई अकादमी को जानता है, न उसके पुरस्कृत लेखकों को। वह इस विवाद को समझेगा ही नहीं।
“जब हमारा समाज जागरूक होना ही नहीं चाहता, जब बुद्धिजीवियों ने ख़ुद से और उससे विश्वासघात किया है तो कुछ लौटाए गए इनाम और ओहदे क्या भाड़ फोड़ लेंगे? .....ऐसे सार्वजनिक इस्तीफ़ों, पुरस्कार-त्यागों से कुछ को थोड़ा सच्चा-झूठा कीर्ति-लाभ हो जाएगा, बायो-डेटा में एक सही-ग़लत लाइन जुड़ जाएगी, अकादमियाँ और सरकारें मगरमच्छी अश्रु-पूरित नेत्रों से अपने बेपरवाह रोज़मर्रा को लौट जाएँगी।अन्याय फिर भी चुगता रहे(गा) मेरे देश की देह।”
अर्थात खरे जी के लिये सत्य वही था जिसे वे निजी तौर पर जानते थे - अकादमी के दफ्तर का सच, पुरस्कार की जुगत बैठाने वाले लेखकों का सच । लेकिन इस पूरे प्रकरण का सच उनके निजी अनुभव के दायरे से कहीं बाहर वास करता था, एम एम कलबुर्गी की हत्या और और एक आततायी राजसत्ता के उदय के संकेतों के प्रतिवाद में निहित था, स्वयं-निष्ठ खरे जी को इसका जरा सा भी बोध नहीं था । उनका सत्य हमेशा इसी प्रकार पूरी तरह से उनके अंतर में ही स्थित होने के कारण वे आज अधिक से अधिक एक बदमिजाज लेखक के रूप में ही अधिक याद किये जा रहे हैं । यह तो उनके लेखन की गहराई से जांच करके ही जाना जा सकता है कि उनमें निहित मानवीय सरोकार उनके अपने शरीर और उनकी अपनी भाषा की सीमाओं के बाहर स्थित सत्य के कितने करीब तक जा पाए हैं ।
इसी बात को हम विभूति नारायण राय के कथन पर उनकी प्रतिक्रिया में भी देख सकते हैं । इसमें सबसे पहले तो उन्होंने विभूति नारायण के संजाल से अपने को बचाए रखने के ब्यौरों का हवाला दिया और फिर सारी बात का अंत इस बात पर किया कि विभूति और कालिया हिंदी जगत से ‘छिनाल’ को निगलवाने में असमर्थ रहे, इसीलिये फंस गये । यद्यपि ‘ज्ञानोदय’ को सस्ती लोकप्रियता दिलाने की कालिया की कोशिश का भी इसमें उल्लेख है, लेकिन जो हुआ, उनके आकलन की कमी की वजह से हुआ, अन्यथा व्यवसायिकता की इस होड़ में कोई ऐसा कर-कह ही सकता है ! कहने का मतलब है कि उनकी निंदा का कोई सभ्यता और सत्य का परिप्रेक्ष्य नहीं था । जो था वह निजी - खुद का या उनका अथवा महज एक संयोग कि ‘चोर पकड़ा गया ‘ ।
आदमी के मनोविज्ञान की व्याख्या के लिये जाक लकान ने उसकी चार वृत्तियों को बुनियादी माना है - 1. (Unconscious)अनायास ही, अचेत रूप में वह क्या करता है ; 2. (Repetition)किस चीज को बार-बार दोहराता है ; 3. (Drive) किस चीज से वह क्रियाशील हो जाता है ; और 4. (Transference) वह अन्यों को क्या प्रेषित करता है ।
इन मानकों पर खरे जी को देखियें, उनका अनायास ही खिसियाना, मौके-बेमौके गालियां देना, किसी भी संज्ञान में आई बौद्धिक चुनौती पर सिंग में मिट्टी लगा कर उतर पड़ना और दूसरों के अस्तित्व से इंकार करते हुए स्वयं से बाहर सत्य के अवस्थान को ही अस्वीकारना, अहम् ब्रह्माष्मि की ध्वजा लहराना - अपने तमाम आयामों के साथ उनके व्यक्तित्व में साकार दिखाई देने लगेंगे। विष्णु जी की उत्कट आत्मलीनता उनके सभी मानवीय पक्षों के पीछे से सातों स्वरों में बोलती दिखाई देगी । हमारा मानना है कि उनकी रचनाओं में इसके प्रभूत संकेत भरे होंगे ।
बहरहाल, समालोचन पर उनके संपर्क में रहे कई लोगों की प्रतिक्रियाओं के बीच उनके संपर्क से बहुत दूर और साहित्य से भी लगभग अपरिचित, किंतु एक क्षण के अनुभव से मिली उनकी झलक के बल पर उन पर जो कुछ सोच पाया, उसे बेलाग ढंग से यहां रख दिया है । जाहिर है यह सब कुछ भी अन्यों की तरह अनुभव-पुष्ट नहीं है, इसीलिये नितांत मनगढ़ंत भी हो सकता है या अत्यंत सत्य भी ।
उनकी स्मृतियों को फिर एक बार आंतरिक श्रद्धांजलि ।
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