—अरुण माहेश्वरी
प्रियंका इस चुनाव में फेल नहीं हो सकती है
—अरुण माहेश्वरी
आज के समय में प्रियंका गांधी के राजनीति में आने के बारे में जितना सोचता हूं, बार-बार एक ही नतीजे पर पहुंचता हूं कि वह इस चुनाव में फेल नहीं हो सकती है ।
प्रियंका का ताजगी से भरा रूप-रंग, जनता से सीधे संपर्क स्थापित करने की उनकी सामर्थ्य, गांधी परिवार की विशाल विरासत और सर्वोपरि किसिम-किसिम के नेताजनों के थके हुए बोदे और बदनाम चेहरों से बना हुआ ऊबाऊ और मटमैला सामान्य राजनीतिक परिप्रेक्ष्य । प्रियंका की निश्चित सफलता की पटकथा के लिये इतनी सामग्री काफी लगती है ।
आदमी का मानस काफी हद तक उसके परिवेश के जीवंत दृश्यों से ही बनता है । उसका निजी परिवेश भी सामान्य परिदृश्य के प्रभाव से लगातार बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया में रहता है । वह नैसर्गिक तौर पर सिर्फ अपने प्रकृत परिवेश में नहीं जीता है, बल्कि बार-बार इसका अतिक्रमण करता है । अन्यथा हम वास्तुकला, चित्रकला, फिल्म, फैशन की बदलती हुई शैलियों में और उनसे अपने जीवन को नाना रूपों में बनते-बिगड़ते हुए नहीं देखते । वर्ग, वर्ण, संप्रदाय के साथ आदमी के संबंधों का विषय भी इससे परे नहीं है । परिवेश के दृश्यों की बुनावट में लिखित और मौखिक शब्दों की निर्मितियों, वैचारिक-सांस्कृतिक तंतुओं की एक बड़ी भूमिका होने पर भी भारत की तरह के निराश्रयी अशिक्षितों की बड़ी आबादी पर दृश्य मीडिया का तात्कालिक असर सबसे अधिक निर्णायक होता है । इस दृश्य में दाखिल होने की जद्दोजहद के बीच से ही आदमी अपने मत के बारे में एक निर्णय पर पहुंचता है । इसमें किसी नये और आश्वस्तिदायक बलशाली व्यक्तित्व की क्या भूमिका हो सकती है, इसे समझना ज्यादा कठिन नहीं है । विज्ञापनों में जिस प्रकार खूबसूरत और प्रभावशाली अभिनेता मॉडल को अचूक माना जाता है, वही तर्क राजनीति के सामयिक परिदृश्य पर भी लागू होता है ।
भारत का न्यूज मीडिया जो राजनीतिक विमर्शों को सबसे अधिक प्रभावित करता है, उसका राजनीतिक दलों के संदेश के वाहक के रूप में खुद का एक व्यापारिक मॉडल है, जिसकी सफलता को टीआरपी के जरिये मापा जाता है । न्यूज चैनल भी राजनीति के मटमैले थके हुए बेनूर चेहरों से बनने वाले दृश्यों को प्रतिबिंबित करते-करते खुद भी अक्सर बेजान से दिखाई देने लगते हैं । राजनीति की जड़ता उन्हें भी जड़ बना देती है । ऊपर से जब ढंग से दो बात न कह पाने वाले अपराधी चेहरे उन पर किसी भी वजह से बलात् लदते चले जाते हैं तब तो चैनलों की कूबड़ ही निकल आती है । अमित शाह जब बोल रहे होते हैं, कितने लोग उस चैनल को देखना तक पसंद करते होंगे ! मोदी का हमेशा लकदक, साफा बांध कर रंग-बिरंगी जैकटों में सजे हुए छैल-छबीले के रूप में मीडिया के सामने आना अनायास नहीं है ।
लेकिन अभी की स्थिति में मोदी की मुसीबत बन गये है उन्हें सीधे ललकारने वाले नौजवान राहुल गांधी । इस दौरान वे जन-संप्रेषण के मामले में अपनी प्रारंभिक कमियों से भी पूरी तरह उभर चुके हैं । राहुल की जुझारू तस्वीर की तुलना में मोदी छीट के रंगीन छापेदार कपड़ों में इतराते, बातूनी बुढ़ापे की तरह की वितृष्णा पैदा करने लगे हैं । उनकी छवि क्रमश: तमाम प्रकार के फर्जीवाड़ों, भ्रष्टाचारों और सत्ता के नग्न दुरुपयोग के कीचड़ से और गदली होती जा रही है । झूठ उनकी खास पहचान बन गया है । उनकी उपस्थिति का आकर्षण लगभग लुप्त हो चुका है, यह उनके तेजी से गिरते राजनीतिक ग्राफ से भी जाहिर है ।
ऐसी स्थिति में मीडिया पैसों के लोभ में जितना भी मोदी-शाह की तस्वीरों को क्यों न टांगे रहे, किसी भी चैनल पर इन चेहरों की उपस्थिति की अतिशयता उन चैनलों के प्रति दर्शकों में विकर्षण का एक बड़ा कारण बनेगी। दर्शक गंवा कर, अर्थात् टीआरपी गिरा कर कोई भी चैनल अपने व्यापार मॉडल को स्थायी तौर बिगाड़ने का जोखिम नहीं लेना चाहेगा । जिन चैनलों को लोग देखना पसंद नहीं करेंगे, वे मोदी-शाह से लदे होने पर भी उनकी सेवा नहीं कर पायेंगे । अंतत: मोदी-शाह भी उनसे चूस लिये गये गन्ने के छुतकों से अच्छा व्यवहार नहीं करेंगे ।
चैनलों पर जगह घेरने के लिये मोदी विपक्ष के नेताओं के घरों में छापामारी और सरकारी जांच एजेंशियों की बेजा अश्लील हरकतों का प्रयोग करेंगे, जैसा कि उन्होंने करना शुरू भी कर दिया है । लेकिन इस प्रकार की सारी अश्लीलताएं उनके पहले से चमक खो चुके चेहरे को और अधिक दूषित करने के अलावा दूसरी कोई भूमिका अदा नहीं करेगी । चैनलों के लिये उनकी काली पड़ती सूरत के बोझ को लाद कर चलना भी कठिन होता जायेगा । देखते-देखते राजनीतिक छापामारियों की घटनाएं चैनलों की न्यूज स्ट्रिप में बदलने लगेगी । राहुल-प्रियंका जोड़ी का आकर्षण उसी अनुपात में बढ़ता चला जायेगा ।
जर्मन दार्शनिक हाइडेगर का इस ज्ञात और दृष्ट जगत, जिसे वे जर्मन भाषा में डेसिन कहते हैं, के बारे में प्रसिद्ध कथन है कि यह दृष्ट ही तत्वमीमांसा की संभावना है । सारे विवेचन दृष्ट की तत्वमीमांसक संभावनाएं हैं । (All research is an ontical possibility of Dasein) । किसी भी द्वंद्वात्मक अंतर्निहित प्रक्रिया का प्रकट रूप दृष्ट है । अर्थात दृष्ट से ही अंतर के तात्विक सत्य की थाह पाई जा सकती है ।
इसीलिये, जब प्रचार अभियान की तेजी के साथ पूरे राजनीतिक परिदृश्य में जो नई उत्तेजना और जो नये नजारे सामने आयेंगे, उनमें प्रियंका गांधी की निश्चित उपस्थिति के दृश्य से पैदा होने वाली परिघटना को देखना महत्वपूर्ण हो जाता है । प्रियंका परिघटना । यह परिघटना सिर्फ मोदी को ही अपसारित करेगी, यह सोचना भी एक बड़ी भूल होगी । इसका असर अब तक के स्थापित हर दल पर पड़ेगा । मायावती और अखिलेश की तरह के दलितों और पिछड़ों के मतों पर एकाधिकार के दावेदारों पर भी ।
विचारधारात्मक जुनून अक्सर आदमी को सतह पर दिखाई देने वाले दृश्यों के प्रति अंधा बना देता है । जो परिघटना हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र आदि की जीत को अपेक्षाकृत आसान बना देती है वही परिघटना कुछ हद तक गांधी परिवार की भाई-बहन की नौजवान जोड़ी की भूमिका में दिखाई देगी । ज्योति बसु के आकर्षक व्यक्तित्व ने जब धुर कम्युनिस्ट-विरोधियों तक को उन्हें प्रधानमंत्री मान लेने के लिये तैयार कर दिया था, तब विचारधारा से परे व्यक्तित्व के आकर्षण के पहलू से क्या कोई इंकार कर सकता है ? बंगाल में कांग्रेस ने सीताराम को राज्य सभा में भेजने के प्रति अपनी सहमति किसी विचारधारात्मक रूझान के कारण नहीं दी थी । इसके अलावा मायावती और अखिलेश की पुरानी पड़ चुकी सूरतों से दलितों-पिछड़ों का चिपके रहना कोई ईश्वरीय अटल सत्य नहीं है, इसे काफी हद तक 2014 में भी देखा जा चुका है ।
इसीलिये किसी भी जुनून या जिद में यदि मायावती-अखिलेश राहुल के साथ प्रियंका के उतरने से पैदा होने वाली नई परिस्थिति की अवहेलना करते हैं तो हमारे अनुसार ठोस चुनावी परिस्थिति का आकलन करने में वे एक बड़ी भारी भूल करेंगे । वे अपने सिवाय किसी और का कोई नुकसान नहीं करेंगे । संघी कूढ़मगज तो इसके शिकार बनेंगे ही । उन्होंने अभी से प्रियंका की तुलना रावण की बहन सूर्पनखा और हिरणकश्यप की बहन होलिका से करते हुए व्हाट्स अप मैसेज के जरिये अपनी रणनीति तय कर ली है । कुल मिला कर इतना जरूर कहा जा सकता है कि मायावती-अखिलेश का उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला गठबंधन के खिलाफ मोदी को सहारा तो देगा, लेकिन अब कुछ भी मोदी की सूरत को चमका नहीं पायेगा । न संघी गंदा प्रचार भी । अधिक से अधिक, चुनाव प्रचार के दौरान काफी दिनों तक बौद्धिकों के मन में परिस्थिति की द्रव्यता की तस्वीर जरूर बनी रहेगी । कुछ दिनों तक लोग मायावती और सपा के कैडरों की अपराजेय शक्ति का कीर्तन उसी प्रकार करेंगे जैसे वे मोदी-शाह के 'बूथ संगठन' का और आरएसएस के थोथे शौर्य और संजाल का करते रहे हैं । लेकिन कैडर की बाधा परिवर्तन के किसी भी मुकाम पर किस प्रकार महज बालूई दीवार साबित होती है, इसे हम राजनीति में बार-बार देखते हैं । हाल में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनावों से बड़ा इसका दूसरा कोई प्रमाण क्या होगा । सभी जगह मायावती के कंक्रीट की दीवार माने जाने वाले मतों में भी गिरावट देखी गई है । आज के तकनीकि संपर्कों के युग में कांग्रेस की तरह के इतने पुराने शासक दल का सांगठनिक तानाबाना तैयार करना उतना भी कठिन काम नहीं है, जितना अक्सर बताया जाता है ।
हमें लगता है कि मोदी के चरम कुशासन, तुगलकीपन और दमन चक्र के बाद स्वाभाविक यही है कि भारत में एक कुशल, बुद्धिमान और उदार जनतांत्रिक शासन स्थापित हो । राहुल और प्रियंका की जोड़ी से कांग्रेस में लोगों का उस संभावना को देखना ही अधिक स्वाभाविक जान पड़ता है । इसीलिये हमें अभी के समय में प्रियंका का फेल होना संभव नहीं लगता है ।
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