—अरुण माहेश्वरी
सात महीने बीत रहे हैं, पर सच यही है कि कोरोना आज भी एक रहस्य ही बना हुआ है । यह सारी दुनिया में फैल चुका है, कुछ देशों ने इसके नियंत्रण में भारी सफलता पाई है तो कुछ उसी अनुपात में भारी विफल हुए हैं । इस महामारी के टीके के मामले में भी हर रोज कुछ सफलताओं की खबरें मिल रही है । इसके बावजूद डब्लूएचओ के स्तर का आज की दुनिया का चिकित्सा और स्वास्थ्य संबंधी सबसे विश्वसनीय अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जब पूरे बल के साथ यही कह रहा है कि महामारियों के इतिहास में यह महामारी अब तक की सबसे कठिन महामारी है, तब किसी भी विवेकवानआदमी के सामने यह वाजिब सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर इस महामारी का वह कौन सा पहलू है जो इसे आज तक की सभी महामारियों की तुलना में सबसे खतरनाक और चुनौती भरा बना दे रहा है ।
डब्लूएचओ के अतिरिक्त बाकी अनेक स्रोतों की बातों को सच माने, कोरोना से संक्रमित रोगियों के ठीक होने की दर और इसके टीके के विकास की दिशा में हो रही प्रगति की खबरों को देखें, तो डब्लूएचओ के आकलन को पूरी तरह से सही मानने का मन नहीं करता है । यह तो जाहिर है कि यह एक बड़ी विपत्ति है, पर मनुष्य इस पर जल्द ही काबू पा लेगा, इसका मन ही मन में एक भरोसा भी पैदा होता है । पर हम देखते हैं कि खास तौर पर अमेरिका, भारत और रूस की तरह की सरकारें, जो अब तक इस वायरस पर नियंत्रण में बुरी तरह से विफल नजर आती है, उनके राष्ट्र-प्रधान ही सबसे अधिक बढ़-चढ़ कर आए दिन लोगों को कुछ ऐसा विश्वास दिला रहे हैं कि मानो यह बस चंद दिनों का और मसला है, इस महामारी के अंत की रामबाण दवा, अर्थात् इसका टीका इन नेताओं की जेब में आ चुका है, वे सिर्फ एक शुभ मुहुर्त का इंतजार कर रहे हैं, जब इसे निकाल कर राष्ट्र के लिये उसका लोकार्पण कर देंगे और इसके साथ ही यह महामारी रफ्फूचक्कर हो जाएगी, सबकेपुराने दिन फिर से लौट आएँगे ।
ट्रंप, मोदी, पुतिन की तरह के इन चंद बड़बोले नेताओं से भिन्न उधर ब्रिटेन के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एसेट्रेजेनेको, अमेरिका की मोदेर्ना, जर्मनी की फाइजरऔर चीन की कैन सिनो बायोलोजिक्स टीके के बारे में अब तक की गवेषणाओं और क्लिनिकल ट्रायल्स के शोध पत्र दुनिया की चिकित्सा और विज्ञान संबंधी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा रही हैं और अपने आगे के कार्यक्रमों से दुनिया को अवगत करा रही हैं । इनके कामों के अब तक के सारे परिणाम काफी आशाजनक बताए जा रहे हैं । फिर भी अब तक के प्रयोगों के आधार पर इन टीकों के विकास से जुड़े वैज्ञानिकों ने ठोस रूप में सिर्फ इतना दावा किया है कि उन्होंने जो टीके तैयार किये हैं उन्हें मानव शरीर के लिये सुरक्षित पाया गया है, अब तक उनसे किसी प्रकार के तात्कालिक बुरे प्रभाव के कोई संकेत नहीं मिले हैं और उनसे शरीर में प्रतिरोधन एंटीबडीज का विकास भी साफ दिखाई दे रहा है । लेकिन अब तक की उपलब्धि के आधार पर कोई भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उनसे किसी भी टीके से अपेक्षित प्रतिरोधक शक्ति के विकास का वह स्तर भी हासिल हो जाएगा जो मनुष्य मात्र अर्थात मानव प्रजाति मात्र के लिये उपयोगी हो सकता है । इनके सारे परीक्षण अभी चुनिंदा लोगों पर हुए हैं और अभी समय भी बहुत कम बीता है । इसीलिये कोई भी इनका व्यापक जन समाज पर तत्काल प्रयोग करने की सलाह देने की स्थिति में नहीं है ।
दरअसल, टीकों का अब तक का इतिहास ही इनसे जुड़े हर वैज्ञानिक को अतिरिक्त सतर्कता बरतने की बात कहता है । अब तक का इतिहास यही कहता है कि किसी भी टीके को बिल्कुल सटीक ढंग से विकसित करके बाजार में उतारने के लिये कम से कम दस से पंद्रह साल लगा करते हैं और मानव समाज से किसी भी रोग को निर्मूल करने में बीस से तीस साल । इस मामले में, मूर्ख राजनेताओं के दबाव से किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के मानव प्रजाति पर कितने घातक असर पड़ सकते हैं, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । यह मनुष्यों की जैविक संरचना से जुड़ा हुआ एक मसला है ।
सन् 1955 में पोलियो के टीके में एक छोटी सी चूक से अमेरिका में 200 बच्चे पंगु हो गए थे । उस टीके में जीवित वायरस रह गए थे जिसके कारण दो लाख बच्चों को टीका दे दिये जाने के बाद एक महीने के अंदर ही बच्चों में पोलियो के लक्षण दिखाई देने लगे थे । उन बच्चों में 200 पंगु हो गए और 10 बच्चों की मौत हो गई । इस टीके में सुधार के बाद भी दुनिया से पोलियो को निर्मूल करने में सत्तावन साल लग गये । सन् 2012 में सोमालिया में पोलिया का अंतिम मामला पाया गया था ।
दुनिया में तमाम कोशिशों के बाद भी आज तक एचआईवी का टीका बन नहीं पाया है जबकि इसके सफल परीक्षण की पहले कई बार घोषणा हो चुकी है । इसी प्रकार इंफ्लुएंजा का टीका तो वैज्ञानिकों को असंभव लगता है क्योंकि इसका वायरस इतनी तेजी से अपना रूप बदलता है, इसके प्रोटीन की संरचना इतनी गति से बदलती अर्थात् म्यूटेट होती रहती है कि वैज्ञानिकों के लिए इसका पीछा करना असंभव हो गया है ।
कहना न होगा, टीका विकसित करने और उसके व्यापक प्रयोग की संभाव्यता से जुड़ी ये सारी कहानियां कोरोना वायरस के टीके के मामले में भी समान रूप से लागू होती है । अभी तक तो दुनिया में इसी बात का अध्ययन चल रहा है कि यह महामारी दुनिया में किन-किन नस्ल के लोगों को किस किस प्रकार से प्रभावित करती है । दुनिया में अलग-अलग जगह के कोरोना वायरस के जिनोम के अध्ययन चल रहे हैं और पूर्व के समरूप सार्स, मार्स वायरस से इनके फर्क की जांच हो रही है । इसी हफ्ते एक अध्ययन से पता चला है कि साठ हजार साल पहले के आदिम मानव (Neanderthals) में कुछ ऐसे जीन्स थे जो आज तक बांग्लादेश के लोगों में पाए जाते हैं, उनके चलते भी कोरोना वायरस का इस नस्ल पर ज्यादा असर दिखाई देता है ।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस टीके को पूरी मानव प्रजाति के लिये तैयार किया जाना है, उसके प्रभाव के इन नस्ली और स्थानिक वायुमंडलीय पहलुओं की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । इसी प्रकार अलग-अलग आयुवर्ग के लोगों और पहले से दूसरी बीमारियों से ग्रसित लोगों का प्रश्न भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । ऐसे में मोदी की तरह पंद्रह अगस्त या ट्रंप की तरह अगले हफ्ते ही शुभ समाचार देने की तरह की बातों से बड़ी मूर्खता और प्रवंचना की दूसरी कोई बात नहीं हो सकती है । इन तमाम वजहों से ही अन्य सभी आशावादी बातों के विपरीत डब्लूएचओ का यह कथन ही कहीं ज्यादा यथार्थपरक और विवेक-संगत लगता है कि यह महामारी मानवता के लिये खतरनाक, एक सबसे बड़ी चुनौती है ।
कोरोना पर अब तक की गवेषणाओं से सिर्फ एक बात सुनिश्चित तौर पर कही जा सकती है कि यह एक बहुत ही तेजी से फैलने वाला संक्रमण है और यही बात इसे अब तक की सभी महामारियों में सबसे ज्यादा खतरनाक बनाती है । अब तक के अवलोकनों से निश्चय के साथ यही कहा जा सकता है कि कोई दवा नहीं, इसके रोक थाम का एक मात्र उपाय है सार्वजनिक स्थलों पर देह से दूरी बनाए रखना, मास्क पहनना, किसी भी प्रकार की भीड़ न करना और हाथों को साबुन से हमेशा साफ रखना । जिन देशों के राजनीतिक नेतृत्व ने इन बातों को गंभीरता से समझते हुए इन पर अमल के लिये जरूरी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया, और लोगों की जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतों का ध्यान रखते हुए लॉक डाउन में उनका अपने घर पर ही रहना संभव बनाया, उन देशों में कोरोना के संक्रमण पर नियंत्रण में सफलता मिली है । और जिन देशों के नेताओं ने इन विषयों को मजाक का और भौंडे प्रदर्शनों का विषय बनाया, मल मूत्र और झाड़-फूंक से कोरोना से लड़ लेने की तरह की आदिमता का परिचय दिया, वे देश इसके नियंत्रण में बुरी तरह से विफल साबित हुए हैं । कोरोना ने उन सभी देशों को आज लगभग पंगु बना दिया है । इन देशों में अमेरिका, भारत और ब्राजील का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है ।
बहरहाल, कोरोना संक्रमण का यह वह समग्र सच है जिसके ठोस संदर्भों में ही मानव जीवन के सभी व्यवहारिक और आत्मिक विषयों पर भी इसके प्रभावों पर सही रूप में कोई चर्चा की जा सकती है । इसके एक भी पहलू की उपेक्षा करके इसके समग्र प्रभाव को जरा भी नहीं समझा जा सकता है । यह महज चिकित्सा क्षेत्र का संकट नहीं है, मानव के अस्तित्व मात्र से जुड़ा हुआ संकट है । सभ्यता का संकट है ।
जाहिर है कि जिन परिस्थितियों में मनुष्यों की सार्वजनिक गतिविधियां नियंत्रित होगी, सामूहिक क्रियाकलापों की संभावनाएँ सीमित होगी, उनका सामाजिक, सामूहिक रचनात्मक कार्यों पर कितना प्रतिकूल असर पड़ सकता है, इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है । मनुष्यों की सामुदायिक और सामूहिक गतिविधि पर आधारित उत्पादन की कोई भी पद्धति, जिसमें मैनुफैक्चरिंग प्रमुख है, इससे बुरी तरह से प्रभावित होने के लिए अभिशप्त है । और आज मैनुफैक्चरिंग का प्रभावित होने का अर्थ है अर्थनीति की बुनियाद का हिल जाना । कहना न होगा, विश्व अर्थव्यवस्था अभी इसी के झटकों से तहस-नहस हो रही है ।
ऐसे समय में अगर किसी भी कोने से अर्थनीति के उत्थान और विकास की कोई भी बात की जाती है तो वह या तो शेखचिल्ली का सपना कहलाएगी, अथवा धूर्तता का सबसे पतित रूप । भारत में खुद मोदी बार-बार जिस प्रकार भारत के पुराने दिनों की वापसी की बात कर रहे हैं, वह उसी धूर्तता का सबसे नग्न उदाहरण है । यह हर कोई जानता है कि यदि साल-छः महीने इसी प्रकार पूरा समाज ठप पड़ा रहा तो भारत दुनिया में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर होगा ।
आज मोदी को छोड़ कर भारतीय रिजर्व बैंक सहित दूसरी तमाम संस्थाओं की ओर से अर्थ-व्यवस्था के भविष्य के बारे में जो भी संकेत दिये जा रहे हैं, वे सब सिर्फ निराशा के अलावा कुछ और नहीं कहते हैं । इस बारे में तमाम एजेंसियों से जारी किए जाने वाले आर्थिक आँकड़ों के उल्लेख के बजाय अभी की परिस्थिति में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्थिक सहायता के नाम पर उद्योगपतियों के बीच आंख मूंद कर लाखों-करोड़ों रुपये का कर्ज बांटना सरकारी खजाने को लुटाने के उपक्रम के अलावा कुछ नहीं कहलायेगा । यह कोरोना की भट्टी में राज्य के संसाधनों की होलिका जलाना होगा । आज के हालात में सभी उपलब्ध संसाधनों का विवेकपूर्ण ढंग से बहुत चुनिंदा रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए, अर्थात् यह समय उद्योगों के स्वेच्छाचार का नहीं, उन पर राष्ट्र के नियंत्रण को अधिक से अधिक बढ़ाने का समय है । पर हमारे यहां निजीकरण की बातें चल रही है, जो कोरोना काल के संदेश के बिल्कुल उल्टी दिशा का संकेत है ।
कहना न होगा, कोरोना काल का अर्थ-व्यवस्था पर पड़ रहा यही वह दबाव है जो आने वाले दिनों में पूरी मानव सभ्यता के मौजूदा स्वरूप को क्रांतिकारी रूप से बदल सकता है । यही दबाव यह संदेश देता है कि अर्थ-व्यवस्था को पूंजी-केंद्रित बनाने के बजाय मानव-केंद्रित बनाया जाए । राज्यों के पास जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उन्हें मुनाफे के कामों की दिशा में झोंकने के बजाय जन-कल्याण की दिशा में, सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के रोजगार के साथ ही भरपूर मात्रा में खाद्य, बेहतर आवास, एक उन्नत चिकित्सा व्यवस्था और श्रेष्ठ शिक्षा की सुविधाएँ मुफ्त उपलब्ध कराने पर बल दिया जाए । मैनुफैक्चरिंग का इस प्रकार पुनर्विन्यास किया जाए जो आम जनों की जरूरतों परअधिक से अधिक केंद्रित हो । इस प्रकार की एक जन-कल्याणमूलक मजबूत अर्थ-व्यवस्था ही नई परिस्थितियों में व्यापक जन की रचनात्मक ऊर्जा के उन्मोचन का आधार बन सकती है । एक सुखी समाज ही अर्थ-व्यवस्था की रक्षा और उसके विस्तार का भरोसेमंद आधार मुहैय्या करा सकता है । इसी प्रक्रिया के बीच से परस्पर सहयोग और समन्वय पर टिकी राष्ट्रों की एक नई विश्व-व्यवस्था का भी उदय होगा ।वैज्ञानिकों को कहना है कि कोरोना कोई अंतिम महामारी नहीं होने वाली है । आगे जल्द ही इससे भी अधिक घातक महामारियों का खतरा दिखाई दे रहा है । ऐसे में, यह समय सभ्यता के सवाल पर मूलगामी दृष्टि से विचार करने का समय है । इस परिप्रेक्ष्य के बिना कोई सही तात्कालिक नीति भी तय करना नामुमकिन है ।
अन्यथा, सामाजिक ग़ैर-बराबरी की वर्तमान परिस्थिति, कोरोना की तरह के संक्रमणों के ख़तरे की मौजूदगी समाज में अस्पृश्यता के नए कलंकपूर्ण दौर का प्रारंभ कर सकते हैं ।
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